सौतन: भाग 2- क्या भारती के पति को छीनना चाहती थी सुदर्शना

‘‘अरे दोनों सोसाइटी हमारे अगलबगल में हैं. मतलब उत्तर और दक्षिण में. पर पूरबपश्चिम तो एकदम खुला है, कभी बंद होगा ही नहीं. सामने चौड़ा हाइवे, पीछे सरकारी कालेज का खेल मैदान. उगते और डूबते सूरज की पहली से ले कर अंतिम किरण तक हमारे घर में खुशियों की तरह बिखरी रहेगी. हवा, धूप की चिंता हमें नहीं.’’ भारती ने चैन की सांस ली. संजीव उस की हर समस्या का हल कितने आराम से कर देता. घर में भले ही हजार असुविधा थीं पर भारती तृप्त थी, संतुष्ट थी संजीव जैसे पति को पा कर. सोसाइटी ‘आंचल’ के मुहूर्त के बाद 5वें दिन लगभग 11 बजे का समय था, भोले सब्जी का ठेला ले कर आया, ‘‘भाभीजी, ताजी भिंडी लाया हूं, बिक्री की शुरुआत करा दो.’’ भारती के घर की जमीन पर केले और पपीते खूब उगते थे और चारदीवारी पर सेम की बेल भी खूब फलती थी. भोले सब ले जाता, बदले में हिसाब से दूसरी सब्जी दे जाता. भारती और उस का यह हिसाबकिताब बहुत पुराना था. इस तरह सब्जी खरीदने के पैसे बचा लेती थी वह.

भारती भिंडी छांट रही थी कि एक चमचमाती गाड़ी आ कर रुकी. चालक की सीट से एक युवती झांकी, ‘‘हाय.’’

सकपका गई भारती. इतनी अभिजात महिला से इस से पहले कभी संपर्क नहीं हुआ था उस का. ‘हाय’ के उत्तर में क्या कहे, यह भी उसे नहीं पता.

थोड़ी सी घबराहट के साथ उस ने कहा, ‘‘जी, जी.’’ युवती उतर आई. उस से 4-5 साल बड़ी ही होगी पर बड़े घर की छाप, वेशभूषा, हावभाव और महंगे कौसमेटिक्स ने उस को बहुत कोमल और आकर्षक बना रखा था. सुंदर तो थी ही, गोरीचिट्टी, तराशे नैननक्श और सुगठित लंबा तन भी. शरबती रंग की शिफौन साड़ी, मैचिंग ब्लाउज, कंधों तक कटे बाल और धूप का चश्मा सिर के ऊपर चढ़ाया हुआ. हाथ में मोबाइल.

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‘‘नमस्कार, मैं ‘आंचल’ सोसाइटी में नईनई आई हूं.’’ वह तो भारती देखते ही समझ गई थी, कहने की जरूरत ही नहीं थी. ऐसी गाड़ी, यह व्यक्तित्व भला और किस का होगा. यहां के पुराने रहने वाले कम ही हैं. जो हैं वे लगभग उसी के स्तर के हैं. पर यह तो…घबरा कर भिंडी की टोकरी छोड़ उस ने हाथ जोड़े, ‘‘नमस्कार.’’

‘‘मैं सुदर्शना, फाइन आर्ट्स अकादमी में काम करती हूं. अकेली हूं. 105 नंबर फ्लैट मेरा है. आप का नाम?’’

‘‘भारती.’’

‘‘सुंदर नाम है. मैं आप से थोड़ी मदद चाहती हूं. यहां आबादी कम है. अपनी कालोनी से बस आप को ही देख पाती थी.’’ युवती के सहज व्यवहार ने उसे भी सहज बना दिया. कुछ लोग इतने सहजसरल होते हैं कि अगले ही पल में उन से दूसरे लोग घुलमिल जाते हैं, उन्हें अपना समझने लगते हैं. सुदर्शना उन लोगों में से एक है.

‘‘कहिए, मैं क्या कर सकती हूं?’’

‘‘यहां ही बात करें या…?’’

लज्जित हुई भारती को अपनी भूल का अनुभव हुआ, ‘‘नहींनहीं, आइए, अंदर बैठते हैं.’’

वह मुड़ी तो भोले ने कहा, ‘‘भाभीजी, भिंडी…’’

‘‘तू छांट कर दे जा,’’ फिर भारती उस महिला की ओर मुखातिब हुई, ‘‘चलिए.’’

युवती हंसी, ‘‘तुम मुझ से छोटी हो. दीदी कह सकती हो, भारती.’’

खिल उठी भारती. इतने बड़े हाईफाई लोग ऐसे सीधे, सरल भी होते हैं? बैठक में ला कर बैठाया. सुदर्शना ने मुग्ध हो कर देखा. पुराना घर, पुराना साजसामान, उन को भी भारती ने झाड़पोंछ कर इतने सुंदर ढंग से सजा रखा था कि देखते ही आंखों में ठंडक पहुंच जाए, मन खुश हो जाए.

‘‘तुम तो बहुत ही सुगृहिणी हो. घर को कितना सुंदर सजा रखा है.’’ लजा गई भारती. उस की प्रशंसा सभी करते हैं पर इन के द्वारा की गई प्रशंसा में दम था.

‘‘नहीं दीदी, मामूली साजसामान…’’

‘‘उसी को तुम ने असाधारण ढंग से सजा रखा है. तुम्हारे पति तुम से बहुत प्रसन्न रहते होंगे.’’ पानीपानी हो गई वह अपनी प्रशंसा सुन. पल में सुदर्शना उसे अपनी सगी सी लगने लगी.

‘‘चाय लेंगी या कौफी?’’

‘‘कुछ नहीं, बस, तुम से एक सहायता चाहिए.’’

‘‘कहिए,’’ भारती ने घड़ी देखी. आज शनिवार है. बापबेटी दोनों का हाफडे है, जल्दी लौटेंगे और खाने की तैयारी कुछ नहीं हुई. चिंता होने लगी उसे. पर सुदर्शना का साथ अच्छा भी लग रहा था.

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‘‘मेरा किराए का घर यहां से 10 किलोमीटर दूर है. पुरानी कामवाली यहां नहीं आ सकती. यहां कोई मिली नहीं. एक कामवाली चाहिए.’’

‘कामवाली?’ भारती सकपका गई.

असल में कामवालियों से परिचय नहीं था उस का. सारा काम स्वयं करती थी. संजीव ने कई बार कहा भी पर वह तैयार नहीं हुई. बेकार में 600-800  रुपए महीना चले जाएंगे, उन्हीं पैसों से सागभाजी का खर्चा निकल आता है. ‘‘मैं अकेली हूं. साढ़े 8 बजे निकल कर साढ़े 5 बजे तक लौटती हूं. खानानाश्ता सब बनाना पड़ेगा. छुट्टी के दिन दोपहर का खाना भी. दूसरे दिन रात का खाना, बाकी सफाई, कपड़े, झाड़ू, बरतन, सौदासपाटा. सुबह साढ़े 6 बजे आ जाए, फिर शाम भी 6 बजे. पैसा जो मांगेगी दे दूंगी.’’

भोले इतने में भिंडी ले कर अंदर आ गया, ‘‘भाभीजी, रसोई में रख दूं?’’

‘‘रख दे. सुन भोले, कोई कामवाली ला देगा?’’

‘‘किस के लिए?’’

‘‘यह मेरी दीदी हैं. ‘आंचल’ सोसाइटी में रहने आई हैं. अकेली हैं. कामवाली को सारा काम, सौदासपाटा सब करना पड़ेगा. सुबह व शाम आना है.’’

‘‘भाभीजी, मेरी दीदी ही काम खोज रही हैं.’’

‘‘तेरी दीदी?’’

‘‘अब क्या कहूं. अलीगढ़ के पास एक गांव में ब्याही थीं. 8 बीघा जमीन, पक्का घर, 2 बच्चे 8वीं और छठी में पढ़ने वाले. जीजा अचानक चल बसे. देवर ने मारपीट कर भगा दिया. जमीन का हिस्सा नहीं देना चाहता. 2 महीने से यहां आई हुई हैं. मेरी ठेले की आमदनी है बस. घर में मां, अपने 2 बच्चे, बीवी. परेशानी है तो…

‘‘तो तू जा कर ले आ उसे.’’

‘‘मेरा ठेला…’’

‘‘यहां छोड़ जा.’’

‘‘सुबह की बिक्री नहीं होगी. उसे शाम को ले आऊंगा.’’

‘‘ठीक है फ्लैट नंबर 105. देख, ये मेरी दीदी हैं, अकेली रहती हैं. नौकरी पर जाती हैं. समय पर काम चाहिए.’’

‘‘जी, मैं दीदी को सब समझा दूंगा.’’

भोले चला गया. सुदर्शना ने कहा, ‘‘बड़ा उपकार किया तुम ने मुझ पर. फ्लैटों में तो कोई किसी की सहायता नहीं करता.’’

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सौतन: भाग 1- क्या भारती के पति को छीनना चाहती थी सुदर्शना

निकलते-निकलते उसे वहीं देर हो गई. सुबह से उस का सिर भारी था, सोचा था घर जल्दी जा कर थोड़ा आराम करेगा पर उठते समय ही बौस ने एक जरूरी फाइल भेज दी. उसे निबटाना पड़ा. वैसे, यह काम रमेश का है पर वह धूमकेतु की तरह उदय हो दांत निपोर कर बोला, ‘‘यार, आज मेरा यह काम तू निबटा दे. मेरे दांत में दर्द है, डाक्टर को दिखाना है, प्लीज.’’

‘‘कट कर दे.’’

‘‘बाप रे, बुड्ढा कच्चा चबा जाएगा. आजकल वह कटखना कुत्ता बना है.’’

‘‘क्यों, क्या हुआ उसे, वह ठीकठाक तो है?’’

‘‘कुछ ठीकठाक नहीं, सब गड़बड़ हो गया है.’’

‘‘क्या गड़बड़ है?’’

‘‘इस उम्र में उस की बीवी ठेंगा दिखा कर भाग गई.’’

‘‘हैं…’’

‘‘तभी तो बौखला कर अब हमारे ऊपर गरज रहा है.’’ रमेश निकल गया और संजीव लेट हो गया. पत्नी भारती और 10 वर्ष की बेटी चांदनी उस की प्रतीक्षा में थे. उसे देखते ही भारती चाय का पानी रखने गई. संजीव सीधा बाथरूम गया फ्रैश होने. एक गैरसरकारी दफ्तर में मामूली क्लर्क है वह. मामूली परिवार का बेटा है. उस के पिता भी क्लर्क थे. उस का जीवन भी मामूली है. मामूली रहनसहन, मामूली पत्नी, मामूली समाज में उठनाबैठना. पर वह अपने जीवन में संतुष्ट है, सुखी है. कारण यह कि उस की आशाएं, योजनाएं, मित्र सभी मामूली हैं. मामूली जीवन में फिट हो कर भी संजीव एक जगह ट्रैक से अलग हट गया है. वह है बेटी चांदनी का पालनपोषण. अपने वेतन की ओर ध्यान न दे कर, भारती की आपत्ति को नजरअंदाज कर उस ने बेटी को एक महंगे अंगरेजी माध्यम स्कूल में डाला है. उस का वेतन हाथ में आता है 7 हजार रुपए. इस महंगाई के जमाने में क्या होता है उस में. पर भारती अपनी मेहनत, सूझबूझ और सुघड़ता से बड़े सुंदर ढंग से घर चला लेती है. किसी प्रकार का अभावबोध पति या बेटी को नहीं होने देती. पुराना घर और साथ में चारों ओर छूटी जमीन संजीव की एकमात्र पैतृक संपत्ति है. किराया बचता है और खुली, बड़ी जगह में रहने का सुख भी है.

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भारती भी मामूली घर की बेटी है. सम्मिलित परिवार था. मां, चाची मिल कर घर का काम करतीं. दादीमां भी हाथ पर हाथ धर कर नहीं बैठती थीं, मिर्चमसाले कूटतीं, दाल, चावल, गेहूं बीन कर साफ करतीं. इसलिए शादी से पहले भारती को काम नहीं करना पड़ा. पर शादी के बाद सारा काम उस ने अपने सिर पर उठा लिया, और उस से उसे खुशी ही मिली. अपना घर, अपना पति और अपनी बच्ची, उन सब के लिए कुछ भी कर सकती है. प्राइवेट स्कूल में बेटी को डालने के बाद तो झाड़ूबरतन भी खुद ही करती, महीने के 500 रुपए बच जाते. उस ने वास्तव में घर को खुशहाल बना रखा था क्योंकि उस ने अपने घर में देखा था कि निर्धनता में भी कैसे सुखी रहा जाता है. वहां तीजत्योहार बड़े उत्साह से मनाए जाते, पूड़ीकचौरी, लड्डू, गुजिया बनते, हर मौसम का अचार पड़ता. यहां तक कि मार्चअप्रैल में मिट्टी के नए कलश में गाजरमूली का पानी वाला अचार पड़ता, पापड़ बनते, बडि़यां तोड़ी जातीं. अभावबोध कभी नहीं रहा. उसी ढंग से उस ने अपने इस घर को भी सुख का आशियाना बना रखा था. पति की हर बात मान कर चलने वाली भारती ने विरोध भी किया था बेटी को इतने महंगे स्कूल में डालने के लिए पर बापबेटी दोनों की इच्छा देख वह चुप हो गई थी.

चाय के साथ गरम पकौड़े ले कर आई भारती संजीव के पास बैठ गई. चांदनी पार्क में खेलने गई थी.

‘‘सुनोजी, वो बंसलजी आज फिर आए थे.’’ पकौड़े खातेखाते संजीव के माथे पर बल पड़ गए, ‘‘कब?’’

‘‘आज तो तुम लेट आए हो. तुम्हारे आने के 10-15 मिनट पहले.’’ चाय का घूंट भर कर उस ने एक और पकौड़ा उठाया, ‘‘अब क्या चाहिए? मैं ने मना तो कर दिया.’’

‘‘अरे, गुस्सा क्यों करते हो? वह तो निमंत्रण देने आए थे.’’

‘‘किस बात का निमंत्रण?’’

‘‘उन की सोसाइटी ‘आंचल’ का मुहूर्त है कल, मतलब गृहप्रवेश.’’

‘‘उन बड़ेबड़े लोगों में हम जैसे मामूली लोगों का क्या काम?’’ भारती बहुत ही धीरगंभीर है. शांत स्वर में बोली, ‘‘देखो, मान के पान को भी आदर देना चाहिए. वह बड़ेबड़े लोगों की सोसाइटी है, सब जानते हैं. पर उन्होंने हमें निमंत्रण दिया है तो मान दे कर ही. फिर हमें उन का भी मान रखना चाहिए.’’

‘‘तुम बहुत ही भोली हो. आज के संसार में तुम जैसी को बेवकूफ माना जाता है क्योंकि तुम चालाक लोगों के छक्केपंजे नहीं पकड़ पातीं. अरे मानवान कुछ नहीं, स्वार्थ है उन का सिर्फ.’’

भारती अवाक् संजीव का मुंह देखने लगी, ‘‘अब क्या स्वार्थ, सोसाइटी तो बन चुकी?’’

‘‘उस का धंधा है सोसाइटी बनाना. एक बन गई तो क्या काम छोड़ देगा? चौहान का घर खरीद रखा है, अब दूसरी सोसाइटी वहां बनेगी. वह जगह कम है, साथ में लगा है हमारा घर. हमारा घर पुराना व छोटा है पर जमीन कितनी सारी है, यह मिल गई तो यहां ‘आंचल’ से दोगुनी बड़ी सोसाइटी बनेगी.’’

‘‘पर चांदनी तो जाने के लिए उछल रही है, उस की स्कूल की 2 सहेलियां भी यहां आ रही हैं.’’ ‘‘वह बच्ची है. एक काम करते हैं, कल शनिवार है, आधी छुट्टी तो है ही, सोमवार को सरकारी छुट्टी है. चलो, उसे आगरा घुमा लाते हैं. वह खुश हो जाएगी और तुम भी तो अपनी बूआ से मिलने की बात कब से कह रही हो. 2 दिन उन के घर में भी रह लेंगे.’’ भारती चहक उठी, ‘‘सच, तब तो बड़ा अच्छा होगा. चांदनी खुश हो जाएगी ताजमहल देख कर. पर आखिरी महीना है, हाथ खाली होगा.’’

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‘‘अरे वह जुगाड़ हो जाएगा.’’

दूसरे दिन शनिवार को ही संजीव सपरिवार आगरा चला गया, लौटा मंगलवार को. रविवार को सोसाइटी में ‘गृहप्रवेश’ समारोह था. आतेआते रात हो गई. गेट के सामने से ही ‘आंचल’ सोसाइटी पर नजर पड़ी. 150 फ्लैटों में बस 4-6 फ्लैट ही बंद हैं, बाकी फ्लैटों की खिड़कियां दूधिया रोशनी से झिलमिला रही हैं. खिड़कियों पर परदे पड़े हैं. भारती अवाक्. फिर बोली, ‘‘अरे, लोग रहने भी आ गए?’’ रिकशे से बैग उतार पैसे चुका रहा था संजीव. उस ने नजरें उठाईं फिर देख कर बोला, ‘‘तो क्या घर खाली पड़ा रहता? दिल्ली में किराया तो आसमान छूता है.’’

‘‘पार्टी जबरदस्त हुई होगी?’’

‘‘क्यों नहीं, बड़े लोगों की पार्टी थी. खाना, पीना, नाच, मस्ती सभी कुछ…’’

‘‘अच्छा हुआ कि हम नहीं गए.’’

संजीव हंसा, ‘‘ऐसे लोगों में हम चल नहीं पाते, तभी निकल गया था.’’

‘‘चलो पड़ोस बसा. रोशनी, चहलपहल रहेगी. सूना पड़ा था.’’

‘‘शहर लगभग सीमा के पास है. तभी आबादी कम है.’’

‘‘इतने बड़े लोगों के बीच बंसलजी को हमें बुलाना नहीं चाहिए था.’’

‘‘अरे उस ने उम्मीद नहीं छोड़ी. दूसरी सोसाइटी में बड़े फ्लैट का लाखों रुपए का चारा जो डाल रखा है.’’ संजीव ने गलत नहीं कहा. ‘आंचल’ बनाते समय ही उस की नजर इस घर पर थी. घर तो पुराना और जर्जर है पर साथ में जमीन बहुत सारी है. कुल मिला कर 3 बीघा तो होगी. यह मिल जाती तो 4 स्विमिंग पूल, कम्युनिटी हौल बनवाता तो इन्हीं फ्लैटों के दाम 10-10 लाख रुपए और बढ़ जाते. एक फ्लैट और 20-30 लाख रुपए कैश देने को तैयार था. रातोंरात संजीव की आर्थिक दशा सुधर जाती. भविष्य सुनहरा होने के साथ ही साथ सुखआराम से भरपूर सुंदर झिलमिलाता घर मिलता. एक उच्च समाज का प्रवेशपत्र भी हाथोंहाथ मिल जाता. पर संजीव नहीं माना. मामूली आदमी जो ठहरा. उस के लिए ग्लैमर से ज्यादा अपनी जड़, अपनी पहचान कीमत रखती थी. निर्धन पिता से पाई एकमात्र संपत्ति थी यह घर. इस को वह जीवनभर संभाल कर रखना चाहता था. भारती भी घर में बहुत संतुष्ट थी. दिनरात घर की सफाई और साजसज्जा में लगी रहती थी. घर की मरम्मत के लिए खर्चे से बचा कर पैसे भी जोड़ रही थी. उसे बस एक ही चिंता थी सो एक दिन संजीव से बोली, ‘‘सुनोजी, दोनों ओर ऊंचीऊंची सोसाइटी बन गईं तो हमारे घर की धूप, हवा, रोशनी एकदम बंद हो जाएगी.’’

संजीव चाय पी रहा था. हंस कर बोला, ‘‘कुछ भी बंद नहीं होगा.’’

‘‘क्यों?’’

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ऐसे ही सही: भाग 1- क्यों संगीता को सपना जैसा देखना चाहता था

पार्किंग में अपना स्कूटर खड़ा कर के मैं इमरजेंसी वार्ड की तरफ बढ़ा. काफी पूछने पर पता चला कि जिस व्यक्ति को मैं ने यहां भरती कराया था वह अब आई.सी.यू. में है. रात को हालत ज्यादा बिगड़ जाने के कारण उसे वहां शिफ्ट कर दिया गया था. आई.सी.यू. चौथी मंजिल पर था. मैं लिफ्ट का इंतजार करने के बजाय तेजी से सीढि़यां चढ़ता हुआ वहां पहुंचा.

थोड़ा सा ढूंढ़ने पर मैं ने उन की पत्नी को एक कोने में मायूस गुमसुम बैठे देखा. मैं तेजी से उन के पास गया और उन का हाल पूछा. वह पहले तो मुझे अजनबियों की तरह देखती रहीं फिर याद आने पर मेरे साथ उठ कर एक तरफ आ कर फूटफूट कर रोने लगीं.

‘‘क्या हुआ. सब ठीक तो है न?’’ मैं थोड़ा चिंतित हो गया.

‘‘कुछ भी ठीक नहीं है. आप के जाने के बाद कई डाक्टर आए. कई टैस्ट किए फिर भी कमर से नीचे के हिस्से में कोई हरकत नहीं हो रही है. उन्हें रात को ही यहां शिफ्ट कर दिया गया था. बस, तब से यहीं बैठी हूं. क्या करूं…एकदम नया शहर और आते ही यह हादसा,’’  कह कर वह पुन: साड़ी का पल्लू मुंह में दबाए सिसकने लगीं. मेरी समझ में नहीं आ रहा था, मैं क्या कहूं.

सब से पहले मैं ने कैंटीन से चाय और बिस्कुट ला कर उन्हें दिए. लग रहा था जैसे रात से उन्होंने कुछ खाया नहीं है. उन के पास ही उन की 10 साल की बेटी बैठी हुई थी, जो थोड़ीथोड़ी देर में सहमे हुए मां का हाथ पकड़ लेती थी. उन के पास कुछ देर बैठ कर मैं डाक्टर से मिलने चला गया.

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डाक्टर से पता चला कि उन की स्पाइनल कौर्ड में कोई गहरी चोट आई है जिस के कारण यह हादसा हुआ है. यह भी कह पाना मुश्किल है कि वह कब तक ठीक हो पाएंगे और ठीक भी हो पाएंगे या नहीं.

‘‘तो क्या यह उम्र भर यों ही पड़े रहेंगे,’’ मैं ने बेचैनी से पूछा.

‘‘अभी कुछ भी कहना संभव नहीं,’’ डाक्टर बोला, ‘‘कुछ विशेषज्ञ बुलाए हैं…शायद वे कुछ सलाह दे सकें.’’

‘‘तो आप उन्हें कब तक यहां आई.सी.यू. में रखेंगे?’’

‘‘ज्यादा से ज्यादा 3 दिन,’’ कह कर डाक्टर वहां से चला गया.

एक बीमा एजेंट होने के नाते उन की बीमारी के प्रति जानकारी रखना मेरे लिए स्वाभाविक बात थी. और तब ज्यादा जब सबकुछ मेरी आंखों के सामने हुआ.

कल दोपहर को आफिस जाते समय अचानक स्पीड ब्रेकर सामने आ गया तो मुझे तेजी से ब्रेक लगाने पड़े, क्योंकि स्पीड ब्रेकर ठीक से नहीं बना था. इतने में देखा कि एक तेज गति से आती वैन उस स्पीड ब्रेकर से टकराई और चलाने वाला व्यक्ति उछल कर बाहर जा गिरा. वैन सामने पेड़ से टकरा गई. यह हादसा मुझ से कुछ ही दूरी पर हुआ था.

मैं ने वहां जा कर उस व्यक्ति को  देखा जो मूर्च्छितावस्था में एक तरफ पड़ा हुआ था. मैं ने कुछ लोगों की सहायता से उसे एक आटोरिकशा में लिटाया और पास ही एक नर्सिंग होम में ले गया. उस व्यक्ति के सिर पर गहरी चोट का निशान था.

वहां मौजूद डाक्टरों को मैं ने पूरी घटना का विवरण दिया और उसे लिटा दिया. उस की जेब से एक परिचयपत्र निकला जिस पर उस के आफिस का पता और फोन नंबर लिखा था. पता चला कि वह एक सरकारी संस्थान में डिप्टी डायरेक्टर है और उस का नाम विनोद शर्मा है.

मैं ने उस संस्थान से उन के घर का फोन नंबर लिया और उन की पत्नी को इस हादसे के बारे में बताया. थोड़ी ही देर में वह वहां आ गईं. उन को सबकुछ बताने के बाद मैं ने उन से इजाजत मांगी. वह मन भर कर बोलीं, ‘‘मैं आप की बहुत शुक्रगुजार हूं कि आप ने इन्हें यहां तक पहुंचा दिया, वरना आज के व्यस्त जीवन में कौन ऐसा करता है.’’

‘‘अरे, यह तो मेरा फर्ज था. बस, यह ठीक हो जाएं तो समझूंगा कि मेरा लाना सफल हुआ.’’

‘‘एक मेहरबानी और कर दीजिए,’’ वह कहने लगीं, इन की गाड़ी किसी तरह घर पहुंचा दीजिए…जो भी खर्च आएगा, मैं दे दूंगी.’’

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‘‘ठीक है, मैम, अभी तो देखना होगा कि वह चलने लायक है या नहीं,’’ कह कर मैं ने अपने एक परिचित को वर्कशाप में फोन कर के गाड़ी को वहां से निकालने का इंतजाम किया. बीमा एजेंट होने के नाते यह सब काम करना, करवाना मैं अच्छी तरह जानता था.

इस सारी प्रक्रिया से निबट कर मैं जब घर पहुंचा तो 8 बज चुके थे. संगीता ने दरवाजा खोलते ही अपने चिरपरिचित स्वर में मुंह बना कर कहा, ‘‘तो आज क्या बहाना है देर से आने का?’’

इतना सुनना था कि मेरा मन  कसैला हो गया. उस का यह स्वभाव और व्यवहार सर्पदंश की तरह मुझे हर बार डंस जाता. मेरे विवाह को 4 साल हो चुके थे और इन 4 सालों में मैं ने कभी उस के मुंह से फूल झड़ते नहीं देखे. हमेशा किसी न किसी बात को ले कर वह ताने देती रहती थी.

शुरुआत में मैं ने बड़ी कोशिश की कि उस के पास बैठ कर कोई प्यार की बात कर सकूं. मगर हर बात मायके से शुरू हो कर मायके पर ही खत्म होती. बातों को तूल न देने के लिए मैं खामोश हो जाता और इस खामोशी का उस ने भरपूर फायदा उठाया.

हद तो तब हो गई जब मेरी सास और साली ने मुझ पर संगीता को खुश रखने का दबाव बनाना शुरू कर दिया. उसे अच्छे कपडे़े, जेवर और घुमानेफिराने, घर जल्दी लौटने का सिलसिलेवार क्रम भी उन्होंने ही तय कर दिया. मैं हर बात का जवाब देना जानता था पर मर्यादाओं में रह कर और वह अमर्यादित हो चुकी थी.

‘‘यह बात तो तुम प्यार से भी पूछ सकती हो. पर मेरे किसी उत्तर से तुम संतुष्ट तो होगी नहीं इसलिए कोई बहाना नहीं बनाऊंगा,’’ मैं ने मेज पर अपना बैग रखते हुए बड़ी नरमी से कहा.

‘‘5 बजे तुम्हारा आफिस बंद हो जाता है और 7 बजे से पहले तुम कभी आते नहीं हो. सुबह भी 8 बजे चले जाते हो. तुम से तो मजदूर अच्छे होते हैं जिन का कोई समय तो होता है.’’

‘‘तो फिर किसी मजदूर से ही शादी कर लेतीं. वह तुम्हारे घर वालों के इशारों पर नाचता और समय पर आ भी जाता. तुम्हें अच्छी तरह मेरे काम और व्यक्तिगत संपर्क के बारे में पता है.’’

‘‘पता नहीं तुम्हारी कौन सी बात से प्रभावित हो कर पापा ने शादी के लिए हां कर दी. आज इस घर में जो कुछ भी है, पापा का दिया हुआ है वरना तुम तो उन के सामने खड़े भी नहीं हो सकते.’’

‘‘जानता हूं…तभी तो तुम्हारी मां से सारा दिन ताने और आदेश सुनने पड़ते हैं. सभी कुछ तो हमारे घर पर था. कमी किस बात की थी. तुम्हीं ने जिद कर के मुझे अलग कर दिया था. सुखसुविधाओं को जुटा लेने से भी कहीं गृहस्थी चलती है. पहले पति से नहीं बनी तो मेरे पल्ले बांध दिया…और यह बात भी हम से छिपा ली. तुम ने अलग किया है तो घरगृहस्थी के सामान की व्यवस्था भी तुम करोगी. मैं ने तो पहले ही कह दिया कि…’’

‘‘मेरे पास तो कुछ भी नहीं है. यही न. कौन से मांबाप अपनी बच्ची को ऐसी हालत में देख सकते हैं. तुम्हारे मांबाप ने क्या किया,’’ वह बात काट कर तेज आवाज में बोली.

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‘‘उन्होंने अपने इकलौते बेटे की जुदाई का गम सहन किया…’’ कहतेकहते मेरी आंखें भर आईं और मैं बिना कोई बात किए दूसरे कमरे में चला गया. मेरा मौन हमेशा कह देता कि शादी की कीमत चुका रहा हूं.

हमारी रातें यों ही करवटें बदलते निकल जातीं और सुबह बिना किसी बात के…मैं ने मन ही मन यह फैसला किया कि टकराव की स्थिति पैदा न होने देने के लिए कम से कम घर पर रहूं.

एक दिन उत्सुकतावश मैं ने शर्माजी को फोन किया. पता चला कि उन की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ है. अब उन्हें एक बडे़ प्राइवेट नर्सिंग होम में शिफ्ट कर दिया गया है जहां पर ज्यादा सुविधाएं थीं. देश के कई बडे़ डाक्टर उन्होंने अपनी जांच के लिए बुलवाए पर कोई फायदा नहीं हुआ. मैं उसी समय उन के नर्सिंग होम में पहुंचा. उन की हालत देख कर मन कसैला सा हो उठा.

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कितना सहेगी आनंदिता: भाग 3- जब सामने आया जिंदगी का घिनौना रुप

लेखक-अरुण अर्णव खरे

आप ने कहा आप का कोई अपना ऐडमिट नहीं है, फिर यह बच्चा कौन है आप का?’ शेखर आश्चर्य से आनंदिता की ओर देखते हुए बोला.

‘वह दीदी बोलता है, तो भाई समझ लीजिए.’‘प्लीज, पहेलियां मत बुझाइए.’

‘मैं सच में ज्यादा नहीं जानती उस के बारे में. हमारी सर्वेंट के भाई का लड़का है. 5 साल का है. जन्म से ही थैलेसीमिया से पीडि़त है. पर आप यहां कैसे?’‘मैं…’ शेखर उत्तर देते हुए अचकचा गया लेकिन तुरंत ही संभलते हुए बोला, ‘मैं भी ब्लड डोनेट करने आया हूं, मेरे दोस्त को जरूरत है.’‘आप बहुत अच्छे हैं. बेहतरीन खिलाड़ी के साथसाथ एक नेकदिल इंसान भी.’

आनंदिता चली गई, जिंदगी का एक नया फलसफा सिखा कर. उस दिन ब्लड डोनेट कर शेखर ने स्वयं को एक अच्छा काम दूसरों के लिए करने पर जलते हुए दीए के प्रकाश सा आलोकित महसूस किया. इस के बाद तो शेखर अपनी हर धड़कन में आनंदिता की उपस्थिति अनुभव करने लगा. धीरेधीरे दोनों एकदूसरे के निकट आने लगे, एकदूसरे के बारे में दोनों ही बहुतकुछ जान गए. शेखर के पिता नरसिंहपुर में डैंटल सर्जन हैं जबकि आनंदिता के मातापिता नहीं थे. जब वह 2 साल की थी, तभी उस के मातापिता एक नाव दुर्घटना में बेतवा नदी में बह गए थे. उसे बचा लिया गया था. तभी से वह अपने मामा के यहां रह रही है. उन्होंने उसे बेटी से बढ़ कर पाला है. आनंदिता नाम भी उन्होंने ही दिया है.

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समय के साथ शेखर और आनंदिता नजदीक आते गए. बैडमिंटन ने भी इस में अहम रोल अदा किया. पहले साल यूनिवर्सिटी बैडमिंटन के सिंगल्स में उपविजेता रहने के बाद शेखर अगले वर्ष चैंपियन बन गया. आनंदिता भी ज्यादा पीछे नहीं रही. वह उस वर्ष की उपविजेता बन कर लौटी. शेखर के टिप्स और कोर्ट में उस की उपस्थिति हमेशा प्रेरणादायी सिद्ध होती. प्रारंभिक आसक्ति ने प्रेम का स्वरूप कब ले लिया, दोनों को पता ही नहीं चला. एकदो हफ्ते तक जब मिलना नहीं होता, तो मन की बेचैनी दोनों के रिश्तों को परिभाषित करती प्रतीत होती. यह प्यार दोनों ही अपने दिलों में अधिक समय तक दबा कर नहीं रख सके. दोनों को ही एकदूसरे का साथ हमेशा सुखकर लगता था. उन्हें एहसास होने लगा था कि वे दोनों एकदूसरे के बिना अधूरे हैं. उन्होंने एक दिन सदा साथ देने का वादा एकदूसरे से कर डाला. इस के बाद शेखर आनंदिता के घर भी आनेजाने लगा. मामामामी को भी वह पसंद था. शेखर ने अपनी मां को भी आनंदिता के बारे में बता दिया था. सबकुछ मनमुताबिक और सुगमता से हो रहा था. बस, इंतजार था तो पढ़ाई पूरी कर एक अच्छी सी नौकरी का.

शेखर ने जिस वर्ष मैकेनिकल में अपनी इंजीनियरिंग पूरी की उसी साल आनंदिता ने एमकौम कर लिया. आनंदिता सीए करना चाह रही थी. सो, उस ने पंचरत्न कोचिंग संस्थान जौइन कर लिया. शेखर का कैंपस सेलैक्शन किर्लोस्कर गु्रप्स में ट्रेनी इंजीनियर के रूप में हो गया. जुलाई में उसे जौइन करना था. प्रशांत उसे विदा करने स्टेशन तक आया. उस के 2 पेपर रुके हुए थे, सो, सप्लिमैंट्री एग्जाम तक प्रशांत को होस्टल में ही रुकना था.

‘‘अरे कितना सोओगे, हम कब से आप के जागने का इंतजार कर रहे हैं. मुकुल भाईसाहब मिलने आए थे लेकिन आप को सोता देख कर लौट गए. नीचे डाइनिंग हौल में बुला गए हैं,’’ आनंदिता की आवाज ने शेखर को सपनों की दुनिया से यथार्थ की जमीन पर ला दिया.

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‘‘ओह, 4 बज गए. मैं 2 मिनट में पहुंचता हूं वहां. तुम लोग चलो,’’ कहता हुआ शेखर वाशरूम में घुस गया.

शाम का कार्यक्रम सुव्यवस्थित और मंत्रमुग्ध करने वाला रहा. रुद्र और प्रथम सहित कई बच्चों ने शानदार प्रस्तुतियां दीं. शेखर के कहने पर रुद्र ने प्रथम से एक बार फिर सुबह की घटना के लिए सौरी कहा. प्रथम ने भी उस का हाथ थाम कर सौरी कहा. दोनों को बात करते देख कर शेखर और आनंदिता का मन हलका हो गया. अगले दिन सभी का सांची स्तूप देखने का प्रोग्राम था. उसी दिन शाम को महिलाओं के लिए वूमेंस स्पैशल नाइट का आयोजन किया गया था. आनंदिता ने ‘आप की नजरों ने समझा…’ गीत गा कर समां बांध दिया. बाद में सभी ने डीजे पर जम कर डांस किया.

उस दिन आनंदिता के गायन को सभी ने बहुत सराहा. शेखर को भी बधाइयां मिलीं. नींद की आगोश में भी शेखर खुद को गर्वित महसूस करता रहा. एसिड से जलने के बाद आनंदिता का बैडमिंटन खेलना छूट गया था, लेकिन जिंदगी से हारना उसे स्वीकार नहीं था. उस ने विलास सिरपुरकर का संगीत विद्यालय जौइन कर लिया. उन्हीं से उस ने शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ली थी. लगन की पक्की तो वह शुरू से थी, सो, थोड़े समय में ही उसे स्वर साधना आ गया. वह सबकुछ भूल कर संगीत को समर्पित हो गई थी.

शादी के लिए भी शेखर को कितना मनाना पड़ा था. वह तो विवाह के लिए तैयार ही नहीं थी. विद्रूप चेहरा ले कर किसी के जीवन को ग्रहण लगाना नहीं चाहती थी वह. शेखर को भी ट्रेनिंग के बाद ही पता चला था उस हादसे के बारे में. आनंदिता को देख कर दहल गया था वह. इतनी सुंदर और सुशील लड़की के साथ इतना घिनौना कृत्य. कौन राक्षस है जिस ने ऐसा किया होगा. कई दिनों तक सोचता रहा था शेखर. आनंदिता भी अनभिज्ञ थी. उस का तो कभी किसी से मामूली विवाद भी नहीं हुआ था.

पूरे 7 साल इंतजार किया था उस ने  आनंदिता का. सब ने उसे मना किया था, धिक्कारा था, चेतावनी दी थी. पर वह आनंदिता को कैसे छोड़ सकता था. उस ने सदा साथ निभाने का वादा किया था उस से. आखिरी दम तक हार न मानने की ट्रेनिंग ली थी बैडमिंटन कोर्ट पर. फिर जिंदगी के सब से महत्त्वपूर्ण मैच में वह घुटने कैसे टेक सकता था.

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आनंदिता ने पूरी कोशिश की थी उसे डिगाने की. उस के हर प्लेसमैंट को सूझबूझ के साथ रिटर्न करती रही. वह हर पौइंट के लिए जूझता रहा. लेकिन मैच पौइंट पर आ कर आनंदिता भावुक हो गई और उस के अनुरोध को टाल नहीं सकी. दोनों ने कोर्ट मैरिज की. उन्हें आशीर्वाद देने आनंदिता के मामामामी और शेखर के पापामम्मी ही उपस्थित थे. अपनों की उपस्थिति ने दोनों को असीम ऊर्जा दी और साहस भी. साहस, जिंदगी की हर परीक्षा में उत्तीर्ण होने का, निश्चित हो आगे बढ़ते जाने का.

एलुमिनी मीट के अंतिम दिन सभी का गुलाबगंज के पास बमौरी गांव के भ्रमण का कार्यक्रम था, जिसे एलुमिनी एसोसिएशन ने कालेज प्रबंधन के सहयोग से गोद लिया था. गांव में बच्चों के लिए एक कंप्यूटर सैंटर और लाइब्रेरी का लोकार्पण तथा निराश्रित महिलाओं के संवर्द्धन हेतु सिलाई मशीनें भेंट की जानी थीं. आनंदिता के सुझाव पर ही एसोसिएशन ने सामाजिक दायित्वों के निर्वहन की इस पहल को खुशीखुशी स्वीकार किया था.

अगले दिन सभी को वापस लौटना था. देररात तक लोग एकदूसरे से मिलते रहे. प्रशांत को अकेला देख कर आनंदिता उस के पास चली आई, ‘‘भाईसाहब, मैं आप से कुछ बात करना चाहती हूं.’’

‘‘यदि आप प्रथम की बात को ले कर दुखी हैं तो मैं आप से माफी मांगता हूं,’’ प्रशांत ने कहा.

‘‘नहीं, वह तो बच्चा है. मैं हूं ही ऐसी. पहली बार जो भी देखता है, डर जाता है.’’

प्रशांत को कोई उत्तर नहीं सूझा. वह चुप रहा. आनंदिता बोली, ‘‘कुछ पूछना है आप से?’’

‘‘हां, निसंकोच पूछिए.’’

‘‘मुझ से क्या गलती हुई थी जो आप ने इतनी बड़ी सजा दी मुझे?’’

‘‘आप से और गलती? मैं कुछ समझा नहीं,’’ प्रशांत विस्मय से आनंदिता की ओर देखते हुए बोला.

‘‘मुझे पता है, वे आप ही थे. मैं आप की आवाज कभी भूल ही नहीं पाई. पहले दिन जब आप ने नमस्ते बोला था, तभी मैं समझ गई थी. उस दिन आप के कहे शब्द, ‘सबक सिखा दिया, सुरु जल्दी चल  यहां से,’ अभी भी कानों में गूंजते रहते हैं. इतना सह लिया जिंदगी में कि अब कोई दर्द माने नहीं रखता. आप विश्वास कीजिए, आप की खुशहाल जिंदगी को नरक नहीं बनाऊंगी. बस, मेरा अपराध बता दीजिए ताकि दुनिया से विदा होते समय दिल पर कोई बोझ न रहे,’’ वर्र्षों से दिल के अंदर दबा दर्द पिघल कर आनंदिता की आवाज में घुल गया था.

प्रशांत को काटो तो खून नहीं. दिसंबर अंत की शीतल रात में भी माथे पर पसीने की बूंदें झिलमिलाने लगीं. उस का शरीर निढाल होने लगा. वर्षों पीछे छोड़ा गया समय इस तरह सामने आ खड़ा होगा, उस ने कल्पना भी नहीं की थी. बड़ी मुश्किल से वह बोल पाया, ‘‘मैं ईर्र्ष्या में अंधा हो गया था, इसलिए इतना बड़ा अन्याय कर बैठा.’’

‘‘कैसी ईर्ष्या?’’

‘‘शेखर से ईर्र्ष्या. मैं हर तरह के हथकंडे अपना कर के भी कभी उस से आगे नहीं निकल सका. वह हर बात में मुझ से बीस सिद्ध हुआ करता था. पढ़ाई में मुझ से बहुत आगे रहता. बैडमिंटन में अनुशासनहीनता के कारण मैं दोबारा टीम में स्थान नहीं पा सका. 2 बार क्लास रिप्रेजैंटेटिव के चुनाव में उस से हार गया. मेरी सनक के कारण स्कूल गर्लफ्रैंड ने भी मुझ से नाता तोड़ लिया.

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‘‘उसी समय शेखर को आप मिल गईं. वह अकसर आप से मुलाकात के किस्से सुनाता. बहुत तारीफ करता आप की. मैं सुनता और अंदर ही अंदर सुलगा करता. बहुत गुस्सा आता अपनी नाकामियों पर और उस की उपलब्धियों पर. जब किर्लोस्कर में उस का कैंपस सेलैक्शन हो गया और मैं 2 पेपर्स में फेल हो गया तो बहुत रोया था. जिस दिन वह जा रहा था, मैं उसे छोड़ने स्टेशन तक गया था. बहुत खुश था वह. उस ने बताया था कि ट्रेनिंग के बाद आप से शादी करने वाला है. तभी मैं ने निर्णय कर लिया कि जिंदगी में अभी तक जितनी आसानी से उसे सबकुछ मिलता रहा है अब उतनी आसानी से आप को वह नहीं पा सकेगा. मैं जिंदगी का सब से भयंकर सबक सिखाऊंगा उसे.

‘‘मैं ने कई बार आप का पीछा किया. आप की गतिविधियों पर नजर रखी. सप्लिमैंट्री एग्जाम के बाद जिस रात मुझे वापस लौटना था, उसी शाम को मैं ने आप पर तेजाब फेंकने का फैसला कर लिया था. मेरे दोस्त सुरेश ने इस में मेरा साथ दिया. उसी ने अपने स्कूटर से मुझे भागने में मदद की. और मैं ने आप की जिंदगी नरक बना दी.

‘‘पर शेखर तो अलग ही मिट्टी से बना इंसान निकला. इस स्थिति में भी आप को अपना कर कितना खुश है आज भी. उस जैसे लोगों के कारण ही दुनिया में मानवता जिंदा है. मैं अपराधी हूं आप का. माफी के काबिल नहीं हूं. माफी मांग कर अपने गुनाह की सजा से बचना भी नहीं चाहता. कोई इतना ईर्ष्यालु न हो कि वह मानव सभ्यता के लिए कलंक बन जाए,’’ कहते हुए प्रशांत की आंखों से आंसू बहने लगे.

आनंदिता ने उस के कंधे पर हाथ रखा, ‘‘रो लीजिए, मन हलका हो जाएगा. पर आप को मेरी कसम कि प्रथम और रोहिणी भाभी से कुछ मत कहिएगा. वे जिंदगीभर इस सदमे से उबर नहीं पाएंगे,’’ इतना कह कर आनंदिता तेजी से कदम बढ़ाते हुए अपने कमरे की ओर चल दी.

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कितना सहेगी आनंदिता: भाग 2- जब सामने आया जिंदगी का घिनौना रुप

लेखक-अरुण अर्णव खरे

विश्वविद्यालय स्पर्धा हेतु कालेज की बैडमिंटन टीम का सेलैक्शन होना था. 4 नाम तो लगभग तय थे. केवल 2 स्थानों के लिए ही क्वालिफाइंग मुकाबले होने थे और इत्तफाक से शेखर और प्रशांत इन स्थानों के लिए दावेदार थे. शेखर ने ट्रायल मैचों में शानदार प्रदर्शन किया. उस ने टीम के कप्तान को भी हराया और अपना स्थान सुरक्षित कर लिया. दूसरी ओर प्रशांत, कप्तान और सैकंड ईयर के छात्र अविनाश पुरी से हार कर सेलैक्शन की रेस से बाहर हो गया. शेखर उस के हार जाने से दुखी था, पर प्रशांत अपेक्षा के विपरीत शांत था.

3 दिनों बाद ही टीम को स्पर्धा हेतु सीहोर जाना था. उस दिन सभी मैस में नाश्ता करने एकत्र हुए थे. सदा की तरह शेखर और प्रशांत साथ ही बैठे थे. उन्होंने अविनाश को भी पास बैठने के लिए बुला लिया. नाश्ते में उस दिन सांभरबड़ा बने थे. नाश्ता सर्र्व करते समय गादीराम अचानक स्लिप हुआ और खौलते हुए सांभर का बरतन अविनाश के ऊपर जा गिरा. अविनाश के हाथ और जांघों पर फफोले उभर आए. अविनाश टीम के साथ नहीं जा सका. प्रशांत को टीम में जगह मिल गई, लेकिन इस तरह टीम में स्थान पाने को ले कर वह बहुत अपसैट था. शेखर और कप्तान के बहुत समझाने के बाद ही वह नौर्मल हुआ था.

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हमीदिया कालेज के विरुद्ध पहले मैच में पहला सिंगल्स मुकाबला खेलते हुए प्रशांत हार गया. एक लाइनकौल को ले कर वह अंपायर से उलझ गया और उन्हें मां की भद्दी गाली दे बैठा. विश्वविद्यालय की अनुशासन समिति ने प्रशांत को दोषी मानते हुए स्पर्द्धा से बाहर कर दिया. उसे वापस लौटना पड़ा. प्रशांत के इस तरह बाहर जाने से शेखर दुखी था. उस ने उसे सांत्वना देनी चाही तो वह बेरुखी से ‘रहने दो’ कहता हुआ अपना सामान पैक करता रहा.

उसे सुबह की बस से वापस लौटना था. शेखर का मन नहीं माना, वह प्रशांत के पास ही बैठ गया, बोला, ‘भाई, यह सबक है आगे के लिए. मैच में एग्रेशन के साथ ही कूल रहना भी बहुत जरूरी है. मैच में उतारचढ़ाव तो आते ही हैं. हर स्थिति में चित्त को स्थिर ही रहना चाहिए. यही मैच टैंपरामैंट है. अगले साल फिर से मौका मिलेगा खुद को साबित करने का.’

‘क्या खाक मौका मिलेगा, इस साल कैसे मौका मिला था, पता है न तुझे.’

‘पता है भाई, तुम उत्तेजित न हो.’

‘क्या पता है तुम को. यदि मैं ने गादीराम को पैर अड़ा कर गिराया न होता तो क्या अविनाश टीम से बाहर होता और मुझे टीम में जगह मिलती. सारे किएधरे पर पानी फिर गया.’

प्रशांत की बात सुन कर शेखर अवाक रह गया. उसे पूरा घटनाक्रम याद हो आया, तो यह प्रशांत का सोचासमझा प्लान था. अविनाश के जलने पर उस का दुखी दिखना भी उस के इस खतरनाक प्लान का ही एक भाग था. कितना शातिर खेल खेला था उस ने. शायद उसी शातिराना खेल की सजा मिली है उसे. शेखर स्वयं को असहज महसूस करने लगा. वह कल के मैच के लिए आराम करने का बहाना बना कर चला आया वहां से.

अगले दिन शेखर अपना मैच खेल कर सुस्ताने बैठा ही था कि बगल के हौल से आ रही तालियों की आवाज ने उस का ध्यान खींचा. वह उत्सुकतावश उठ कर उस ओर चला आया. एक सुंदर सी लड़की अपने पावरफुल स्मैश और सटीक नैट ड्रौप्स से प्रतिद्वंद्वी लड़की को पूरे कोर्ट में नचा रही थी. शेखर मंत्रमुग्ध सा उस के खेल को देखता रहा. मैच की समाप्ति पर शेखर उस को बधाई देने से खुद को रोक नहीं सका, ‘कांग्रेचुलेशंस, योर ड्रौप्स आर अमेजिंग.’

‘थैंक्स, शेखर सर.’

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अपना नाम सुन कर शेखर कुतूहल से उस की ओर देखने लगा. वह शरमाते हुए बोली, ‘कल दोपहर में मैं ने आप का मैच देखा था और शाम को बहुत देर तक आप सरीखे बैकहैंड ड्रौप्स की प्रैक्टिस की थी.’

आनंदिता के साथ शेखर की यह पहली मुलाकात थी. उस रात लेटालेटा वह बहुत देर तक आनंदिता के बारे में सोचता रहा. पहली ही नजर में भा जाने वाली देहयष्टि, गोरा रंग, आकर्षक चेहरा, बड़ीबड़ी आंखें, लंबी गरदन, करीने से कटे हुए बाल, बिजली सी चपलता और सब से बढ़ कर स्त्रियोचित हया. अगले दिन वह फिर शेखर के मैच के समय कोर्ट में उपस्थित थी. दोनों की नजरें मिलीं. उस ने आंखों ही आंखों में गुडलक कहा. शेखर आसानी से मैच जीत गया. बाद में वह भी आनंदिता को चीयर करने गया. दोनों ने मैच के बाद कौफी पी. तभी उसे पता चला कि आनंदिता भी विदिशा से खेलने आई है. वह जैन कालेज में बीकौम फर्स्ट ईयर की स्टूडैंट है.

दोनों की अगली मुलाकात 2 माह बाद एक रैस्टोरैंट में हुई. शेखर अपने क्लासमेट की बर्थडे पार्टी में वहां गया था जबकि आनंदिता पहले से कुछ सहेलियों के साथ वहां उपस्थित थी. दोनों ने एकदूसरे को देखा. लेकिन दोस्तों की उपस्थिति के कारण बातचीत नहीं हो सकी. वह समय था ही ऐसा, लड़केलड़की को बात करते देखा नहीं कि बतंगड़ बनाना शुरू. आनंदिता जल्दी ही सहेलियों के साथ चली गईर् और शेखर दूसरी टेबल पर बैठा उसे दरवाजे से बाहर जाते देखता रहा.

आनंदिता ने दरवाजे से बाहर पैर रखने के पहले एक बार मुड़ कर देखा था उसे. उस की नजरों में कुछ जादू था. शेखर ने दिल में कुछ अलग सा, अप्रतिम सा, महसूस किया था. उसे अपनी सांसें पहली बारिश के बाद फिजा में घुलती मिट्टी की सोंधीसोंधी खुशबू से सराबोर महसूस होने लगी थ

आनंदिता इस के बाद शेखर के दिलोदिमाग में बस गई. उस का मन उस की एक झलक देखने के लिए  बेचैन रहने लगा. वह 2-3 बार क्लास से बंक मार कर जैन कालेज के चक्कर भी लगा आया था, लेकिन इच्छा अधूरी ही रही. जब मुलाकात हुई तो इतनी अप्रत्याशित कि उसे आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ.

उस के कालेज में स्टूडैंट यूनियन के चुनाव के दौरान 2 समूहों में झगड़ा हो गया था. मारपीट में 6 स्टूडैंट्स को काफी चोटें आई थीं, जिन में प्रशांत भी शामिल था. उस का सिर फटने से काफी खून बह गया था. उसे खून की तुरंत जरूरत थी. लेकिन अस्पताल में उस के समूह का खून उपलब्ध नहीं था. शेखर जानता था कि उस का ब्लडगु्रप भी यही है जिस की प्रशांत को जरूरत थी. वह खून देने में हिचकिचा रहा था लेकिन मदद के लिए भागदौड़ कर रहा था. वह अस्पताल के ब्लडबैंक में मदद की आशा में फिर से आया था कि सामने आनंदिता को ब्लड डोनेट करता देख कर चौंक गया. वह सबकुछ भूल कर आनंदिता को देखता रहा.

ब्लड डोनेट कर आनंदिता जब बाहर आई तो शेखर सामने आ गया, ‘कौन ऐडमिट है आप का जिस के लिए आप ने ब्लड डोनेट किया?’

‘मेरा कोई अपना ऐडमिट नहीं है. मैं तो एक बच्चे को हर 3-4 माह में एक यूनिट ब्लड देती हूं. उसे थैलेसीमिया है.’

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कितना सहेगी आनंदिता: भाग 1- जब सामने आया जिंदगी का घिनौना रुप

लेखक-अरुण अर्णव खरे

आनंदिता इतनी खूबसूरत थी कि शेखर पहली नजर में ही उस के व्यक्तित्व और खूबसूरती पर फिदा हो गया था. जिंदगी का एक खुशनुमा दौर था उन दोनों का लेकिन, उन्हें क्या पता था कि जिंदगी का एक घिनौना रूप भी उन्हें देखना पड़ेगा.

‘‘पापा, सी देयर, हाऊ स्केरी इज दैट आंटी,’’ प्रशांत के 12 वर्षीय पुत्र प्रथम ने हाथ के इशारे से आनंदिता को दिखाते हुए कहा, ‘‘अरे, वे तो इसी ओर आ रही हैं.’’

प्रथम अपनी बात समाप्त कर पाता, इस से पहले ही आनंदिता का बेटा रुद्र चिल्लाते हुए उस की ओर लपका, ‘‘ओए, क्या बोला तू ने, स्केरी, मैं बताता हूं इस का मतलब तुझे.’’

‘‘रुद्र, बेटे रुको, ऐसा नहीं करते,’’ आनंदिता और शेखर दोनों ने ही बेटे को रोकना चाहा लेकिन तब तक रुद्र ने प्रथम को धक्का दे कर नीचे गिरा दिया था और उस के गालों पर ताबड़तोड़ 3 तमाचे जड़ दिए थे,  ‘‘क्या बोला तू ने मेरी मां के लिए, फिर से बोल, देख, मैं क्या हाल करता हूं तेरा.’’

शेखर ने रुद्र को पकड़ कर अलग किया. आनंदिता ने गुस्से से कांप रहे बेटे को मीठी डांट लगाते हुए कहा, ‘‘बेटा, इतना गुस्सा अच्छा नहीं होता. माफी मांगो इन से. हम यहां एलुमिनी मीट में पुराने दोस्तों से मिलने आए हैं. अगर तुम ऐसा ही करोगे तो हम वापस चलते हैं.’’

‘‘सौरी,’’ रुद्र ने मां की आज्ञा मानते हुए प्रथम की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया. प्रशांत ने भी बेटे से हाथ मिलाने को कहा. लेकिन प्रथम आंख दिखाता हुआ कमरे के अंदर चला गया.

‘‘सौरी प्रशांत, यह अच्छा नहीं हुआ. हम शर्मिंदा हैं. रुद्र को ऐसा नहीं करना चाहिए. बच्चा है, हम समझाएंगे उसे,’’ शेखर ने प्रशांत से हाथ मिलाते हुए कहा. ‘‘इन से मिलो, ये हैं मेरी बेटरहाफ आनंदिता. तुम्हें याद होगा, मैं तुम से अकसर इन के बारे में ही बातें किया करता था.’’

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‘‘नमस्ते,’’ प्रशांत की आवाज सुन कर आनंदिता ने असहज महसूस किया लेकिन तुरंत ही संभलते हुए बोली, ‘‘नमस्ते भाईसाहब.’’

इसी बीच प्रशांत की पत्नी रोहिणी भी कमरे से बाहर आ गई थी. औपचारिक परिचय हुआ. वर्षों रूममेट रहे 2 मित्रों की मुलाकात अजीब सी कड़वाहटभरे माहौल में हुई. शेखर और आनंदिता रुद्र के व्यवहार को ले कर दुखी थे. उस ने पहले कभी ऐसा व्यवहार नहीं किया था, उस समय भी नहीं जब पिं्रसिपल ने आनंदिता को विनयपूर्वक स्कूल के कार्यक्रमों में आने से मना किया था. शायद उस समय का गुस्सा था जो मौका पा कर अब बाहर आ गया था.

शेखर के सामने फादर विलियम्स का चेहरा घूम गया और उन के कहे शब्द कानों में गूंजने लगे, ‘आई होप, यू विल अंडरस्टैंड माइ पोजिशन. मुझे स्कूल के दूसरे बच्चों का भी ध्यान रखना है. मिसेज अग्निहोत्री जब भी स्कूल आती हैं, मैं ने स्वयं कुछ बच्चों की आंखों में भय महसूस किया है. हम रुद्र को पढ़ाना चाहते हैं. ही इज ए मेरीटोरियस स्टूडैंट, लेकिन आप को मेरी बात ध्यान में रखनी होगी, मिस्टर अग्निहोत्री. प्लीज डोंट बिं्रग हिज मदर फौर पीटी मीटिंग्स ऐंड इन अदर स्कूल ऐक्टिविटीज. इट्स माय हंबल रिक्वैस्ट.’

तब आनंदिता ने आगे बढ़ कर उस को इस असमंजस से उबारा था, ‘शेखर, अपने बच्चे के लिए इतना त्याग तो मुझे करना ही चाहिए. मैं सह सकती हूं इतना, तो… जीवन में जब इतना सहा है तो यह कौन सी बड़ी बात है.

आनंदिता की बात सुन कर अंदर तक भीग गया था वह. और कितना सहेगी आनंदिता. पिछले 20 सालों से सह ही तो रही है और शायद आखिरी सांस तक सहती ही रहेगी. घटनाएं भी किसीकिसी के जीवन को कैसे बदल डालती हैं. हर पल नई चुनौती. नई परीक्षा. हर आंख घूरती हुई, उपेक्षा और घृणा का भाव लिए.

क्या गलती है आनंदिता की? किसी के वहशीपन की सजा भुगत रही है वह तो. उसे पता ही नहीं कि किस ने उस के ऊपर तेजाब फेंका था. क्या अपराध था उस का. क्या चाहता था वह. पर उस के निशाने पर वह थी, यह जानती है.

जब यह हादसा हुआ था उस समय वह अकेली ही थी. खरी फाटक के मोड़ के आगे सुनसान सड़क पर. कोचिंग क्लास से लौटने में देर हो गई थी उस दिन उसे. रात गहराने लगी थी. वह जल्दी से घर पहुंच जाना चाहती थी. पर नहीं रोक पाई वह गहराते हुए अंधेरे को. और अगले कुछ ही क्षणों में सारी जिंदगी उसी अंधेरे के हवाले हो गई. पर हिम्मतवाली है आनंदिता. इतना सब होने के बाद भी जिंदगी से हारी नहीं. उठ कर खड़ी हो गई. दरिंदगी को ठेंगा दिखाते हुए जिंदादिली की मिसाल बन कर. अब तक कितनी ही विपरीत पस्थितियों से, घूरती आंखों और कड़वी जबानों से बिना उफ किए लड़ती आई है. आगे भी लड़ेगी इसी बहादुरी से.

‘‘मुझे माफ कर दो, मां. अब दोबारा ऐसी गलती नहीं करूंगा,’’ रुद्र आनंदिता से लिपट कर बोल रहा था, ‘‘आप को दुख पहुंचाया मैं ने. क्या करूं मैं, आप की तरह अच्छा नहीं बन पाया. कोशिश करूंगा कि फिर आप को दुखी न करूं.’’

आनंदिता ने खींच कर उसे गले लगा लिया, ‘‘गलती का एहसास हो जाना, पछतावे के बराबर है, बेटा. अब आगे ध्यान रखना. फिर कभी मेरे लिए इस तरह किसी से बिहेव मत करना. यदि कोई तुम्हें बदसूरत मां का बिगड़ैल बेटा कहेगा, तो मैं नहीं सह पाऊंगी. मैं सब से लड़ सकती हूं पर खुद से लड़ने की शक्ति नहीं है मुझ में.’’

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‘अरे, तुम दोनों यहां आओ मेरे पास, बैठो. हमें शाम के कार्यक्रम के बारे में फाइनल करना है. तुम अपनी सीडी भी चैक कर लो, रुद्र, जिस पर तुम डांस करने वाले हो,’’ शेखर ने रुद्र और आनंदिता का ध्यान बंटाने के लिए कहा, ‘‘आनंदी, तुम भी एक बार रुद्र को प्रैक्टिस करा दो और स्वयं भी गाना गुनगुना कर देख लो कि कहीं कुछ भूल तो नहीं रही हो. बहुत दिनों से अभ्यास नहीं किया है तुमने भी.’’

आनंदिता और रुद्र अभ्यास में लग गए जैसे कुछ हुआ ही न हो. शेखर पलंग पर 2 तकियों के सहारे टिक गया. थोड़ी देर तक वह रुद्र के डांस स्टैप्स को देखता रहा, फिर आंखें बोझिल होने लगीं. उस के सामने बारबार प्रशांत और उस के बेटे प्रथम की तसवीर आ कर मन में हलचल मचा रही थी. क्या प्रथम के रूप में प्रशांत फिर लौट आया है? वैसी ही उद्दंडता, बेशर्मी और अक्खड़पन. 5 साल उस ने प्रशांत के साथ एक ही रूम में रहते हुए गुजारे थे. वह उस की कितनी ही कारगुजारियों का प्रत्यक्षदर्शी था. कितनी बार उस ने प्रशांत की ज्यादतियों का खमियाजा भी भुगता था, पर प्रशांत के चेहरे पर कभी आत्मग्लानि की हलकी सी शिकन तक नहीं देखी थी.रुद्र के स्टैप्स देखते हुए शेखर यादों में खो गया. मस्तिष्क में उभर आई

प्रशांत के साथ हुई पहली मुलाकात. एसए इंजीनियरिंग कालेज के ओल्ड होस्टल में उसे और प्रशांत को एक ही रूम अलौट हुआ था. शेखर पहले होस्टल में रहने आ गया था. प्रशांत ने 2 दिनों बाद वार्डन को रिपोर्ट किया था. उस ने प्रशांत का स्वागत करते हुए परिचय दिया था, ‘मैं शेखर अग्निहोत्री, नरसिंहपुर से.’ प्रशांत ने पूरी तरह बेरुखी दिखाई और बिना कोई उत्तर दिए अपना सामान शेखर के पलंग पर रख दिया और बोला, ‘तुम अपना बिस्तर उठा कर उस पलंग पर रखो, मैं यह पलंग लूंगा. यह टेबल और अलमारी भी खाली कर दो, मैं अपना सामान इन में रखूंगा.’

शेखर अवाक रह गया था, पर संयत रहा था. उस ने अपना बिस्तर और अन्य सामान हटा लिया. तीसरे दिन ही प्रशांत एक सीनियर से उलझ गया, जिस के कारण उस की पिटाई तो हुई ही, शेखर भी सीनियर्स के राडार पर आ गया. रात में जबतब उसे रैगिंग के लिए बुला लिया जाता, पिटाई होती और घंटों एक पैर पर खड़ा रखा जाता.

5 वर्षों में ऐसी कितनी ही ज्यादतियां शेखर ने सहन की थीं. प्रशांत अकसर ही उस के सैशनल पेपर और ड्राइंगशीट्स फोल्डर से निकाल कर अपने नाम से सब्मिट कर देता. शेखर को दोबारा मेहनत करनी पड़ती और टीचर्स की डांट मिलती, वह अलग. शेखर के विरोध का कभी कोई असर प्रशांत पर नहीं हुआ. वह तो जैसे शेखर की हर चीज पर अपना हक समझता था. धीरेधीरे शेखर भी सावधानी बरतने लगा और वह अपने नोट्स, ड्राइंगशीट्स अलमारी में लौक कर के रखने लगा. 4 माह बीत गए. प्रशांत बदलने लगा. उस के व्यवहार में काफी परिवर्तन आ गया और वह विनम्र होने के साथ ही दोस्ताना भी हो गया. शेखर से उस की जमने लगी. दोनों अपनी बहुत सी बातें भी आपस में शेयर करने लगे..

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नीड़: भाग 1- सिद्धेश्वरीजी क्या समझ आई परिवार और घर की अहमियत

सिद्धेश्वरीजी बड़बड़ाए जा रही थीं. जितनी तेजी से वे माथे पर हाथ फेर रही थीं उतनी ही तेजी से जबान भी चला रही थीं.

‘नहीं, अब एक क्षण भी इस घर में नहीं रहूंगी. इस घर का पानी तक नहीं पियूंगी. हद होती है किसी बात की. दो टके के माली की भी इतनी हिम्मत कि हम से मुंहजोरी करे. समझ क्या रखा है. अब हम लौट कर इस देहरी पर कभी आएंगे भी नहीं.’

रमानंदजी वहीं आरामकुरसी पर बैठे उन का बड़बड़ाना सुन रहे थे. आखिरकार वे बोले, ‘‘एक तो समस्या जैसी कोई बात नहीं, उस पर तुम्हारा यह बरताव, कैसे काम चलेगा? बोलो? कुल इतनी सी ही बात है न, कि हरिया माली ने तुम्हें गुलाब का फूल तोड़ने नहीं दिया. गेंदे या मोतिया का फूल तोड़ लेतीं. ये छोटीछोटी बातें हैं. तुम्हें इन सब के साथ समझौता करना चाहिए.’’

सिद्धेश्वरीजी पति को एकटक निहार रही थीं. मन उलझा हुआ था. जो बातें उन के लिए बहुत बड़ी होती हैं, रमानंदजी के पास जा कर छोटी क्यों हो जाती हैं?

क्रोध से उबलते हुए बोलीं, ‘‘एक गुलाब से क्या जाता. याद है, लखनऊ में कितना बड़ा बगीचा था हम लोगों का. सुबह सैर से लौट कर हरसिंगार और चमेली के फूल चुन कर हम डोलची में सजा कर रख लिया करते थे. पर यह माली, इस तरह अकड़ रहा था जैसे हम ने कभी फूल ही नहीं देखे हों.’’

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बेचारा हरिया माली कोने में खड़ा गिड़गिड़ा रहा था. घर के दूसरे लोग भी डरेसहमे खड़े थे. अपनी तरफ से सभी ने मनाने की कोशिश की किंतु व्यर्थ. सिद्धेश्वरीजी टस से मस नहीं हुईं.

‘‘जो कह दिया सो कह दिया. मेरी बात पत्थर की लकीर है. अब इसे कोई भी नहीं मिटा सकता. समझ गए न? यह सिद्धेश्वरी टूट जाएगी पर झुकेगी नहीं.’’

घर वाले उन की धमकियों के आदी थे. उन की बातचीत का तरीका ही ऐसा है, बातबात पर कसम खा लेना, बिना बात के ही ताल ठोंकना आदि. पहले ये बातें उन के अपने घर में होती थीं. अपना घर, यानी सरकार द्वारा आवंटित बंगला. सिद्धेश्वरीजी गरजतीं, बरसतीं फिर सामान्य हो जातीं. घर छोड़ कर जाने की नौबत कभी नहीं आई. हर बात में दखल रखना वे अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझती थीं. सो, वे दूसरों को घर से निकल जाने को अकसर कहतीं. पर स्वयं पर यह बात कभी लागू नहीं होने देती थीं. आखिर वे घर की मालकिन जो थीं.

आज परिस्थिति दूसरी थी. यह घर, उन के बेटे समीर का था. बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत सीनियर एग्जीक्यूटिव. राजधानी में अत्यधिक, सुरुचिपूर्ण ढंग से सजा हुआ टैरेस वाला फ्लैट. बेटे के अत्यधिक आज्ञाकारी होने के बावजूद वे उस के घर को कभी अपना नहीं समझ पाईं क्योंकि वे उन महिलाओं में से थीं जो बेटे का विवाह होने के साथ ही उसे पराया समझने लगती हैं. अपनी हमउम्र औरतों के अनुभवों को ध्यान में रखते हुए वे जब भी समीर और शालिनी से बात करतीं तो ताने या उलटवांसी के रूप में. बातबात में दोहों और मुहावरों का प्रयोग, भले ही मूलरूप के बजाय अपभ्रंश के रूप में, सिद्धेश्वरीजी करती अवश्य थीं, क्योंकि उन का मानना था कि अतिशय लाड़प्यार जतलाने से बहूबेटे का दिमाग सातवें आसमान पर पहुंच जाता है.

विवाह से पहले समीर उन की आंखों का तारा था. उस से उन का पहला मनमुटाव तब हुआ जब उस ने विजातीय शालिनी से विवाह करने की अनुमति मांगी थी. रमानंदजी सरल स्वभाव के व्यक्ति थे. दूसरों की खुशी में अपनी खुशी ढूंढ़ते थे. बेटे की खुशी को ध्यान में रख कर उन्होंने तुरंत हामी भर दी थी. पत्नी को भी समझाया था, ‘शालिनी सुंदर है, सुशिक्षित है, अच्छे खानदान से है.’ पर सिद्धेश्वरीजी अड़ी रहीं. इस के पीछे उन्हें अपने भोलेभाले बेटे का दिमाग कम, एमबीए शालिनी की सोच अधिक नजर आई थी. बेटे के सीनियर एग्जीक्यूटिव होने के बावजूद उन्हें उस के लिए डाक्टर या इंजीनियर लड़की के बजाय मात्र इंटर पास साधारण सी कन्या की तलाश थी, जो हर वक्त उन की सेवा में तत्पर रहे और घर की परंपरा को भी आगे कायम रखे.

रमानंदजी लाख समझाते रहे कि ब्याह समीर को करना है. अगर उस ने अपनी पसंद से शालिनी को चुना है तो हम क्यों बुरा मानें. दोनों एकदूसरे को अच्छी तरह से जानते हैं, पहचानते हैं और सब से बड़ी बात एकदूसरे को समझते भी हैं. सो, वे अच्छी तरह से निभा लेंगे. पर सिद्धेश्वरीजी के मन में बेटे का अपनी मनमरजी से विवाह करने का कांटा हमेशा चुभता रहा. उन्हें ऐसा लगता जैसे शालिनी के साथ विवाह कर के समीर ने बहुत बड़ा गुनाह किया है. खैर, किसी तरह से निभ रही थी और अच्छी ही निभ रही थी. रमानंदजी सिंचाई विभाग में अधिशासी अभियंता थे. हर 3 साल में उन का तबादला होता रहता था. इसी बहाने वे भी उत्तर प्रदेश के कई छोटेबड़े शहर घूमी थीं. बड़ेबड़े बंगलों का सुख भी खूब लूटा. नौकर, चपरासी सलाम ठोंकते. समीर और शालिनी दिल्ली में रहते थे. कभीकभार ही आनाजाना हो पाता. जितने दिन रहते, हंसतेखिलखिलाते समय निकल जाता था. स्वाति और अनिरुद्ध के जन्म के बाद तो जीवन में नए रंग भरने लगे थे. उन की धमाचौकडि़यों और खिलखिलाहटों में दिनरात कैसे बीत जाते, पता ही नहीं चलता था.

देखते ही देखते रमानंदजी की रिटायरमैंट की उम्र भी आ पहुंची. लखनऊ में रिटायरमैंट से पहले उन्होंने अनूपशहर चल कर रहने का प्रस्ताव सिद्धेश्वरीजी के सामने रखा तो वे नाराज हो गईं.

‘हम नहीं रहेंगे वहां की घिचपिच में.’

‘तो फिर?’

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‘इसीलिए हम हमेशा आप से कहते थे. एक छोटा सा मकान, बुढ़ापे के लिए बनवा लीजिए पर आप ने हमेशा मेरी बात को हवा में उछाल दिया.’

रमानंदजी मायूस हो गए थे. ‘सिद्धेश्वरी, तुम तो जानती हो, सरकारी नौकरी में कितना पैसा हाथ में मिलता है. घूस मैं ने कभी ली नहीं. मुट्ठीभर तनख्वाह में से क्या खाता, क्या बचाता? बाबूजी की बचपन में ही मृत्यु हो गई. भाईबहनों के दायित्व निभाए. तब तक समीर और नेहा बड़े हो गए थे. एक ही समय में दोनों बच्चों को इंजीनियरिंग और एमबीए की डिगरी दिलवाना, आसान तो नहीं था. उस के बाद जो बचा, वह शादियों में खर्च हो गया. यह अच्छी बात है कि दोनों बच्चे सुखी हैं.’

रमानंदजी भावुक हो उठे थे. आंखों की कोर भीग गई. स्वर आर्द्र हो उठा था, रिटायरमैंट के बाद रहने की समस्या जस की तस बनी रही. इस समस्या का निवारण कैसे होता?

फिलहाल, दौड़भाग कर रमानंदजी ने सरकारी बंगले में ही 6 महीने रहने की अनुमति हासिल कर ली. कुछ दिनों के लिए तो समस्या सुलझ गई थी लेकिन उस के बाद मार्केट रेंट पर बंगले में रहना, उन के लिए मुश्किल हो गया था. सो, लखनऊ के गोमती नगर में 2 कमरों का मकान उन्होंने किराए पर ले लिया था. जब भी मौका मिलता, समीर आ कर मिल जाता. शालिनी नहीं आ पाती थी. बच्चे बड़े हो रहे थे. स्वाति ने इंटर पास कर के डाक्टरी में दाखिला ले लिया था. अनिरुद्ध ने 10वीं में प्रवेश लिया था. बच्चों के बड़े होने के साथसाथ दादादादी की भी उम्र हो गई थी.

बुढ़ापे में कई तरह की परेशानियां बढ़ जाती हैं, यह सोच कर इस बार जब समीर और शालिनी लखनऊ आए तो, आग्रहसहित उन्हें अपने साथ रहने के लिए लिवा ले गए थे. सिद्धेश्वरीजी ने इस बार भी नानुकुर तो बहुतेरी की थी, पर समीर जिद पर अड़ गया था. ‘‘बुढ़ापे में आप दोनों का अकेले रहना ठीक नहीं है. और बारबार हमारा आना भी उतनी दूर से संभव नहीं है. बच्चों की पढ़ाई का नुकसान अलग से होता है.’’ सिद्धेश्वरीजी को मन मार कर हामी भरनी पड़ी. अपनी गृहस्थी तीनपांच कर यहां आ तो गई थीं पर बेटेबहू की गृहस्थी में तारतम्य बैठाना थोड़ा मुश्किल हो रहा था उन के लिए. बेटाबहू उन की सुविधा का पूरा ध्यान रखते थे. उन्हें शिकायत का मौका नहीं देते थे. फिर भी, जब मौका मिलता, सिद्धेश्वरीजी रमानंदजी को उलाहना देने से बाज नहीं आती थीं, ‘अपना मकान होता तो बहूबेटे के साथ रहने की समस्या तो नहीं आती. अपनी सुविधा से घर बनवाते और रहते. यहां पड़े हैं दूसरों की गृहस्थी में.’

‘दूसरों की गृहस्थी में नहीं, अपने बहूबेटे के साथ रह रहे हैं सिद्धेश्वरी,’ वे हंस कर कहते.

‘तुम नहीं समझोगे,’ सिद्धेश्वरीजी टेढ़ा सा मुंह बिचका कर उठ खड़ी होतीं.

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उन्हें बातबात में हस्तक्षेप करने की आदत थी. मसलन, स्वाति कोएड में क्यों पढ़ती है? स्कूटर चला कर कालेज अकेली क्यों जाती है? शाम ढलते ही घर क्यों नहीं लौट आती? देर रात तक लड़केलड़कियों के साथ बैठ कर कंप्यूटर पर काम क्यों करती है? लड़कियों के साथ तो फिर भी ठीक है, लड़कों के साथ क्यों बैठी रहती है? उन्होंने कहीं सुना था कि कंप्यूटर अच्छी चीज नहीं है. वे अनिरुद्ध को उन के बीच जा कर बैठने के लिए कहतीं कि कम से कम पता तो चले वहां हो क्या रहा है. तो अनिरुद्ध बिदक जाता. उधर, स्वाति को भी बुरा लगता. ऐसा लगता जैसे दादी उस के ऊपर पहरा बिठा रही हों. इतना ही नहीं, वह जींसटौप क्यों पहनती है? साड़ी क्यों नहीं पहनती? रसोई में काम क्यों नहीं करती आदि?

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रूह का स्पंदन: भाग 2- क्या था दीक्षा ने के जीवन की हकीकत

लेखक- वीरेंद्र बहादुर सिंह

‘‘मम्मी, मैं तो यह कह रही थी कि यदि वह अपने ही क्षेत्र का होता तो अच्छा रहता.’’ दक्षा ने मन की बात कही. लड़का गढ़वाली ही नहीं, अपने इलाके का ही है. मां ने बताया तो दक्षा खुश हो उठी.

दक्षा मां से बातें कर रही थी कि उसी समय वाट्सऐप पर मैसेज आने की घंटी बजी. दक्षा ने फटाफट बायोडाटा और फोटोग्राफ्स डाउनलोड किए. बायोडाटा परफेक्ट था. दक्षा की तरह सुदेश भी अपने मांबाप की एकलौती संतान था. न कोई भाई न कोई बहन. दिल्ली में उस का जमाजमाया कारोबार था. खाने और ट्रैवलिंग का शौक. वाट्सऐप पर आए फोटोग्राफ्स में एक दाढ़ी वाला फोटो था.

दक्षा को जो चाहिए था, वे सारे गुण तो सुदेश में थे. पर दक्षा खुश नहीं थी. उस के परिवार में जो घटा था, उसे ले कर वह परेशान थी. उसे अपनी मर्यादाओं का भी पता था. साथ ही स्वभाव से वह थोड़ी मूडी और जिद्दी थी. पर समय और संयोग के हिसाब से धीरगंभीर और जिम्मेदारी भी थी.

दक्षा का पालनपोषण एक सामान्य लड़की से हट कर हुआ था. ऐसा नहीं करते, वहां नहीं जाते, यह नहीं बोला जाता, तुम लड़की हो, लड़कियां रात में बाहर नहीं जातीं. जैसे शब्द उस ने नहीं सुने थे, उस के घर का वातावरण अन्य घरों से कदम अलग था. उस की देखभाल एक बेटे से ज्यादा हुई थी. घर के बिजली के बिल से ले कर बैंक से पैसा निकालने, जमा करने तक का काम वह स्वयं करती थी.

दक्षा की मां नौकरी करती थीं, इसलिए खाना बनाना और घर के अन्य काम करना वह काफी कम उम्र में ही सीख गई थी. इस के अलावा तैरना, घुड़सवारी करना, कराटे, डांस करना, सब कुछ उसे आता था. नौकरी के बजाए उसे बिजनैस में रुचि ही नहीं, बल्कि सूझबूझ भी थी. वह बाइक और कार दोनों चला लेती थी. जयपुर और नैनीताल तक वह खुद गाड़ी चला कर गई थी. यानी वह एक अच्छी ड्राइवर थी.

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दक्षा को पढ़ने का भी खासा शौक था. इसी वजह से वह कविता, कहानियां, लेख आदि भी लिखती थी. एकदम स्पष्ट बात करती थी, चाहे किसी को अच्छी लगे या बुरी. किसी प्रकार का दंभ नहीं, लेकिन घरपरिवार वालों को वह अभिमानी लगती थी. जबकि उस का स्वभाव नारियल की तरह था. ऊपर से एकदम सख्त, अंदर से मीठी मलाई जैसा.

उस की मित्र मंडली में लड़कियों की अपेक्षा लड़के अधिक थे. इस की वजह यह थी कि लिपस्टिक या नेल पौलिश के बारे में बेकार की चर्चा करने के बजाय वह वहां उठनाबैठना चाहती थी, जहां चार नई बातें सुननेसमझने को मिलें. वह ऐसी ही मित्र मंडली पसंद करती थीं. उस के मित्र भी दिलवाले थे, जो बड़े भाई की तरह हमेशा उस के साथ खड़े रहते थे.

सब से खास मित्र थी दक्षा की मम्मी, दक्षा उन से अपनी हर बात शेयर करती थी. कोई उस से प्यार का इजहार करता तो यह भी उस की मम्मी को पता होता था. मम्मी से उस की इस हद तक आत्मीयता थी. रूप भी उसे कम नहीं मिला था. न जाने कितने लड़के सालों तक उस की हां की राह देखते रहे.

पर उस ने निश्चय कर लिया था कि कुछ भी हो, वह प्रेम विवाह नहीं करेगी. इसीलिए उस की मम्मी ने बुआ के कहने पर मेट्रोमोनियल साइट पर उस की प्रोफाइल डाल दी थी. जबकि अभी वह शादी के लिए तैयार नहीं थी. उस के डर के पीछे कई कारण थे.

सुदेश और दक्षा के घर वाले चाहते थे कि पहले दोनों मिल कर एकदूसरे को देख लें. बातें कर लें और कैसे रहना है, तय कर लें. क्योंकि जीवन तो उन्हें ही साथ जीना है. उस के बाद घर वाले बैठ कर शादी तय कर लेंगे.

घर वालों की सहमति से दोनों को एकदूसरे के मोबाइल नंबर दे दिए गए. उसी बीच सुदेश को तेज बुखार आ गया, इसलिए वह घर में ही लेटा था. शाम को खाने के बाद उस ने दक्षा को मैसेज किया. फोन पर सीधे बात करने के बजाय उस ने पहले मैसेज करना उचित समझा था.

काफी देर तक राह देखने के बाद दक्षा का कोई जवाब नहीं आया. सुदेश ने दवा ले रखी थी, इसलिए उसे जब थोड़ा आराम मिला तो वह सो गया. रात करीब साढ़े 10 बजे शरीर में दर्द के कारण उस की आंखें खुलीं तो पानी पी कर उस ने मोबाइल देखा. उस में दक्षा का मैसेज आया हुआ था. मैसेज के अनुसार, उस के यहां मेहमान आए थे, जो अभीअभी गए हैं.

सुदेश ने बात आगे बढ़ाई. औपचारिक पूछताछ करतेकरते दोनों एकदूसरे के शौक पर आ गए. यह हैरानी ही थी कि दोनों के अच्छेबुरे सपने, डर, कल्पनाएं, शौक, सब कुछ काफी हद इस तरह से मेल खा रहे थे, मानो दोनों जुड़वा हों. घंटे, 2 घंटे, 3 घंटे हो गए. किसी भी लड़की से 10 मिनट से ज्यादा बात न करने वाला सुदेश दक्षा से बातें करते हुए ऐसा मग्न हो गया कि उस का ध्यान घड़ी की ओर गया ही नहीं, दूसरी ओर दक्ष ने भी कभी किसी से इतना लगाव महसूस नहीं किया था.

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सुदेश और दक्षा की बातों का अंत ही नहीं हो रहा था. दोनों सुबह 7 बजे तक बातें करते रहे. दोनों ने बौलीवुड हौलीवुड फिल्मों, स्पोर्ट्स, पौलिटिकल व्यू, समाज की संरचना, स्पोर्ट्स कार और बाइक, विज्ञान और साहित्य, बच्चों के पालनपोषण, फैमिली वैल्यू सहित लगभग सभी विषयों पर बातें कर डालीं. दोनों ही काफी खुश थे कि उन के जैसा कोई तो दुनिया में है. सुबह हो गई तो दोनों ने फुरसत में बात करने को कह कर एकदूसरे से विदा ली.

घर वालों की सहमति पर सुदेश और दक्षा ने मिल कर बातें करने का निश्चय किया. सुदेश सुबह ही मिलना चाहता था, लेकिन दक्षा ने ब्रेकफास्ट कर के मिलने की बात कही. क्योंकि वह पूजापाठ कर के ही ब्रेकफास्ट करती थी. सुदेश में दक्षा से मिलने के लिए गजब का उत्साह था. दक्षा की बातों और उस के स्वभाव ने आकर्षण तो पैदा कर ही दिया था. इस के अलावा दक्षा ने अपने जीवन की कुछ महत्त्वपूर्ण बातें मिल कर बताने को कहा था. वो बातें कौन सी थीं, सुदेश उन बातों को भी जानना चाहता था.

निश्चित की गई जगह पर सुदेश पहले ही पहुंच गया था. वहां पहुंच कर वह बेचैनी से दक्षा की राह देख रहा था. वह काले रंग की शर्ट और औफ वाइट कार्गो पैंट पहन कर गया था. रेस्टोरेंट में बैठ कर वह हैडफोन से गाने सुनने में मशगूल हो गया. दक्षा ने काला टौप पहना था, जिस के लिए उस की मम्मी ने टोका भी था कि पहली बार मिलने जा रही है तो जींस टौप, वह भी काला.

तब दक्षा ने आदत के अनुसार लौजिकल जवाब दिया था, ‘‘अगर मैं सलवारसूट पहन कर जाती हूं और बाद में उसे पता चलता है कि मैं जींस टौप भी पहनती हूं तो यह धोखा देने वाली बात होगी. और मम्मी इंसान के इरादे नेक हों तो रंग से कोई फर्क नहीं पड़ता.’’

तर्क करने में तो दक्षा वकील थी. बातों में उस से जीतना आसान नहीं था. वह घर से निकली और तय जगह पर पहुंच गई. सढि़यां चढ़ कर दरवाजा खोला और रेस्टोरेंट में अंदर घुसी. फोटो की अपेक्षा रियल में वह ज्यादा सुंदर और मस्ती में गाने के साथ सिर हिलाती हुई कुछ अलग ही लग रही थी.

अगले भाग में पढ़ें- कोई मन का इतना साफ कैसे हो सकता है

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रूह का स्पंदन: भाग 1- क्या था दीक्षा ने के जीवन की हकीकत

लेखक- वीरेंद्र बहादुर सिंह

‘‘डूयू बिलीव इन वाइब्स?’’ दक्षा द्वारा पूरे गए इस सवाल पर सुदेश चौंका. उस के चेहरे के हावभाव तो बदल ही गए, होंठों पर हलकी मुसकान भी तैर गई. सुदेश का खुद का जमाजमाया कारोबार था. वह सुंदर और आकर्षक युवक था. गोरा चिट्टा, लंबा, स्लिम,

हलकी दाढ़ी और हमेशा चेहरे पर तैरती बाल सुलभ हंसी. वह ऐसा लड़का था, जिसे देख कर कोई भी पहली नजर में ही आकर्षित हो जाए. घर में पे्रम विवाह करने की पूरी छूट थी, इस के बावजूद उस ने सोच रखा था कि वह मांबाप की पसंद से ही शादी करेगा.

सुदेश ने एकएक कर के कई लड़कियां देखी थीं. कहीं लड़की वालों को उस की अपार प्यार करने वाली मां पुराने विचारों वाली लगती थी तो कहीं उस का मन नहीं माना. ऐसा कतई नहीं था कि वह कोई रूप की रानी या देवकन्या तलाश रहा था. पर वह जिस तरह की लड़की चाहता था, उस तरह की कोई उसे मिली ही नहीं थी.

सुदेश का अलग तरह का स्वभाव था. उस की सीधीसादी जीवनशैली थी, गिनेचुने मित्र थे. न कोई व्यसन और न किसी तरह का कोई महंगा शौक. वह जितना कमाता था, उस हिसाब से उस के कपड़े या जीवनशैली नहीं थी. इस बात को ले कर वह हमेशा परेशान रहता था कि आजकल की आधुनिक लड़कियां उस के घरपरिवार और खास कर उस के साथ व्यवस्थित हो पाएंगी या नहीं.

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अपने मातापिता का हंसताखेलता, मुसकराता, प्यार से भरपूर दांपत्य जीवन देख कर पलाबढ़ा सुदेश अपनी भावी पत्नी के साथ वैसे ही मजबूत बंधन की अपेक्षा रखता था. आज जिस तरह समाज में अलगाव बढ़ रहा है, उसे देख कर वह सहम जाता था कि अगर ऐसा कुछ उस के साथ हो गया तो…

सुदेश की शादी को ले कर उस की मां कभीकभी चिंता करती थीं लेकिन उस के पापा उसे समझाते रहते थे कि वक्त के साथ सब ठीक हो जाएगा. सुदेश भी वक्त पर भरोसा कर के आगे बढ़ता रहा. यह सब चल रहा था कि उस से छोटे उस के चचेरे भाई की सगाई का निमंत्रण आया. इस से सुदेश की मां को लगा कि उन के बेटे से छोटे लड़कों की शादी हो रही हैं और उन का हीरा जैसा बेटा किसी को पता नहीं क्यों दिखाई नहीं देता.

चिंता में डूबी सुदेश की मां ने उस से मेट्रोमोनियल साइट पर औनलाइन रजिस्ट्रेशन कराने को कहा. मां की इच्छा का सम्मान करते हुए सुदेश ने रजिस्ट्रेशन करा दिया. एक दिन टाइम पास करने के लिए सुदेश साइट पर रजिस्टर्ड लड़कियों की प्रोफाइल देख रहा था, तभी एक लड़की की प्रोफाइल पर उस की नजर ठहर गई.

ज्यादातर लड़कियों ने अपनी प्रोफाइल में शौक के रूप में डांसिंग, सिंगिंग या कुकिंग लिख रखा था. पर उस लड़की ने अपनी प्रोफाइल में जो शौक लिखे थे, उस के अनुसार उसे ट्रैवलिंग, एडवेंचर ट्रिप्स, फूडी का शौक था. वह बिजनैस माइंडेड भी थी.

उस की हाइट यानी ऊंचाई भी नौर्मल लड़कियों से अधिक थी. फोटो में वह काफी सुंदर लग रही थी. सुदेश को लगा कि उसे इस लड़की के लिए ट्राइ करना चाहिए. शायद लड़की को भी उस की प्रोफाइल पसंद आ जाए और बात आगे बढ़ जाए. यही सोच कर उस ने उस लड़की के पास रिक्वेस्ट भेज दी.

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सुदेश तब हैरान रह गया, जब उस लड़की ने उस की रिक्वेस्ट स्वीकार कर ली. हिम्मत कर के उस ने साइट पर मैसेज डाल दिया. जवाब में उस से फोन नंबर मांगा गया. सुदेश ने अपना फोन नंबर लिख कर भेज दिया. थोड़ी ही देर में उस के फोन की घंटी बजी. अनजान नंबर होने की वजह से सुदेश थोड़ा असमंजस में था. फिर भी उस ने फोन रिसीव कर ही लिया.

दूसरी ओर से किसी संभ्रांत सी महिला ने अपना परिचय देते हुए कहा, ‘‘मैं दक्षा की मम्मी बोल रही हूं. आप की प्रोफाइल मुझे अच्छी लगी, इसलिए मैं चाहती हूं कि आप अपना बायोडाटा और कुछ फोटोग्राफ्स इसी नंबर पर वाट्सऐप कर दें.’’

सुदेश ने हां कह कर फोन काट दिया. उस के लिए यह सब अचानक हो गया था. इतनी जल्दी जवाब आ जाएगा और बात भी हो जाएगी, सुदेश को उम्मीद नहीं थी. सोचविचार छोड़ कर उस ने अपना बायोडाटा और फोटोग्राफ्स वाट्सऐप कर दिए.

फोन रखते ही दक्षा ने मां से पूछा, ‘‘मम्मी, लड़का किस तरह बातचीत कर रहा था? अपने ही इलाके की भाषा बोल रहा था या किसी अन्य प्रदेश की भाषा में बात कर रहा था?’’

‘‘बेटा, फिलहाल वह दिल्ली में रह रहा है और दिल्ली में तो सभी प्रदेश के लोग भरे पड़े हैं. यहां कहां पता चलता है कि कौन कहां का है. खासकर यूपी, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड और राजस्थान वाले तो अच्छी हिंदी बोल लेते हैं.’’ मां ने बताया.

अगले भाग में पढ़ें- सुदेश और दक्षा की बातों का अंत ही नहीं हो रहा था. 

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बहकते कदम: भाग 5- रोहन के लिए नैना ने मैसेज में क्या लिखा था

लेखक- अरुण गौड़

नैना के एक दोस्त की बर्थडे पार्टी थी. उस का मन नहीं था लेकिन फिर भी जाना तो था. वह देररात तक दोस्तों के साथ रही. वैसे पार्टी फंक्शन में वह एकदो पैग ही पीती थी लेकिन आज उस ने कुछ ज्यादा ही पी ली. अकसर लोग गम या खुशी में इतनी शराब पीते हैं. लेकिन नैना ने तो आज उलझन में इतनी शराब पी थी. शायद, अभी वह खुद को होश में नहीं रखना चाहती थी. वह लेटनाइट घर पहुंची और ऐसे ही जा कर बिस्तर पर सो गई. इस दुनिया, अकेलेपन, चाहत, उलझन इन सब से दूर खयालों की दुनिया में वह घूमती रही. सुबह आंख खुली, तो उसे एहसास हुआ कि उठने में काफी देर हो गई थी. रात के हैंगऔवर की वजह से उस का सिर थोड़ा सा भारी था. मन नहीं कर रहा था बिस्तर से उठने का. लेकिन औफिस में एक मीटिंग थी, जिस में शिरकत जरूरी था उसे, इसलिए वह तैयार हो कर औफिस चली गई.

औफिस में वह बारबार अपना फोन चैक कर रही थी. नईनई उम्र में लड़का या लड़की की लाइफ में कोई आता है तो एक उतावलापन रहता है. लेकिन यह तो टीनएजर के लिए था. नैना तो चालीस पार कर चुकी थी, उस को ऐसा उतावलापन क्यों हो रहा था, वह समझ नहीं पा रही थी.

वह एक पल रोहन को भुलाना चाहती थी, तो दूसरे पल उसे पाना चाहती थी. पिछले 4 दिनों से उस के साथ यह ही हो रहा था. इस कशमकश में वह बेचारी फंस चुकी थी. मीटिंग हो गई थी. तभी संध्या की कौल आई, “हैलो, नैना कैसी हो?”

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नैना बोली, “मैं ठीक हूं, तुम बताओ.”

“अरे यार, कल तुझ से साड़ी ली थी, वह लौटानी थी,” संध्या ने कहा.

“कोई नहीं, आराम से दे देना. अभी तो मैं औफिस में हूं,” नैना ने उसे टालते हुए कहा.

“मैं सोच रही थी कि शाम को रोहन के हाथ भेज देती लेकिन तू कहती है तो ठीक है बाद में ले जाना,” संध्या ने कहा और कौल काट दी.

कौल कटने से पहले संध्या ने जो कहा था उसे सुन कर नैना थम सी गई. उस ने बिना देर किए कौल मिलाई.

“हैलो संध्या, अरे यार, मैं भूल गई थी, मुझे कल एक फंक्शन में जाना है, तो सोचती हूं कि यह साड़ी ही पहन जाऊंगी. एक काम करो, तुम भेज दो रोहन के हाथ.”

“अच्छा, अभी तो रोहन नहीं है, तुम्हें जल्दी है तो मैं खुद देने आ जाती हूं.”

“नहींनहीं, कोई जल्दी नहीं है, आराम से भेज देना. वैसे भी, मैं शाम तक ही घर पहुंचूंगी,” नैना ने कहा.

“ठीक है तो शाम को रोहन ट्यूशन से आ जाएगा, तो मैं उसे भेज दूंगी,” संध्या ने कहा.

कौल कट चुकी थी. नैना के मन में सुबह से जमी उदासी गायब हो गई थी. उस की आंखों में एक नई चमक थी. उस ने आंखें बंद कीं और धीरे से कहा, ‘ऐ शाम, जल्दी आ जा तू.’

नैना शाम का इंतजार किए बिना ही औफिस से निकल गई थी. उसे घर पहुंचने की जल्दी थी जैसे आज उसे अपना घर किसी के लिए सजाना है.

घर पहुंच कर वह सोचने लगी कि रोहन आएगा तो उस से क्या कहेगी, कैसे उसे अपनी चाहत वह बताएगी. वह जानती थी कि रोहन के मन में क्या है, रोहन अपनी चाहत उस के सामने बता भी चुका था लेकिन फिर भी न जाने क्यों नैना का दिल घबरा रहा था. लेकिन हां, आज वह अपनी चाहत पूरी करना चाहती थी. वह सोच रही थी कि काश, उसे कुछ कहना ही न पड़े और रोहन खुद ही उस की चाहत को समझ जाए.

शाम हो चुकी थी. रोहन पहले भी कई बार उस के घर आ चुका था. लेकिन आज नैना ने घर को सलीके से ठीक किया था, जैसे रोहन पहली बार उस के घर आ रहा है. साइड में रखा सारेगामा कारवा वाला रेडियो औन था जिस पर गाना आ रहा था, ‘पहलापहला प्यार है, पहलीपहली बार है…’ नैना के लिए कुछ भी पहली बार नहीं था, फिर भी उसे लग रहा था जैसे सबकुछ पहली बार है और पहली बार ही वह किसी से मिल रही है…

यहां तक तो सब ठीक था लेकिन नैना अब भी नहीं सोच पा रही थी कि वह रोहन को कैसे अपने दिल की बात बताएगी, सालों से अपनी प्यास को पूरा करेगी. वह मन ही मन बहुत से आइडियाज ला रही थी, लेकिन कोई भी उसे जंच नहीं रहा था. फिर वह बिस्तर पर लेट गई. कुछ पल बाद उसे किसी के सीढ़ियां चढ़ने की आवाजें सुनाई दीं. उसे लगा कि जैसे रोहन आ रहा है. वह उठ गई और तभी उस के मन में एक विचार आया. उस ने अपने गेट का लौक खोल दिया और खुद बाथरूम में चली गई नहाने…

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उस का अंदाजा सही था. रोहन ही आया था. उस ने बाहर से घंटी बजाई. नैना ने पूछा, “कौन है?”

“नैनाजी, मैं हूं, रोहन,” रोहन ने कहा.

“अच्छा, रोहन आ गए तुम. अंदर आ जाओ, लौक खुला हुआ है. बैठो, मैं अभी आती हूं,” नैना ने बाथरूम से ही कहा.

“ओके मैम,” रोहन ने कहा और उस का इंतजार करने लगा. शायद उस के मन में भी कुछ चल रहा था क्योंकि वह तो पहले ही नैना को पाने के लिए पागल था लेकिन अब वह अपनी चाहत को मन में दबाए हुए था.

थोड़ी देर बाद नैना बाथरूम से निकली. गीले बाल, हलका गीला सा बदन और उस पर एक टौवल जिस से शरीर का थोड़ा सा हिस्सा ही ढका हुआ था. काफीकुछ तो रोहन की आंखों के सामने था. रोहन तो पहले ही नैना को पाने के लिए पागल था, ऐसा नजारा देख कर उस की धड़कनें बढ़ रही थीं, जो उस के चेहरे से साफ दिख भी रहा था.

“अरे रोहन, क्या हुआ, चेहरा क्यों लाल हो रहा है तुम्हारा,” नैना ने पूछा.

“कुछ नहीं नैनाजी, वह गरमी थी न बाहर, शायद इसलिए,” रोहन ने कहा.

नैना समझ रही थी कि यह बाहर की गरमी थी या अंदर की जिस की वजह से रोहन का चेहरा लाल हो रहा था.

“मैम, मैं आप की साड़ी लाया था, मम्मी ने भेजी है,” रोहन ने कहा.

“हां, पता है साड़ी लाए हो, लेकिन यह मैममैम क्या लगा रखा है, तुम तो मुझे नैना भी कह सकते हो,” नैना ने रोहन की तरफ देखते हुए कहा.

“सौरी मैम, उस रात गलती से कह दिया था,” रोहन ने कहा.

“अच्छा, अब कह दिया तो डर क्यों रहे हो,” नैना ने आईने में देखते हुए कहा.

“जी, नैनाजी,” रोहन ने दबी आवाज में कहा.

नैना समझ गई कि उस रात के वाकए के बाद रोहन डर गया है. वह लगातार चोर नजरों से पीछे से उस के गीले बदन को देख रहा था. वह चाहता तो बहुतकुछ है लेकिन कह कुछ नहीं पा रहा है.

आखिर अब नैना से नहीं रहा जा रहा था. उस ने खुद पहल करने का फैसला किया. आईने के सामने खड़े हुए ही उस ने कहा, “रोहन, एक मिनट इधर आना, जरा देखना कि मेरी कमर पर कुछ है क्या, कुछ चुभ रहा है?”

रोहन तो कब से उसे छूने के लिए तड़प रहा था. वह खड़ा होना चाहता था, लेकिन उस ने एक अनजाने डर के कारण खुद को रोके रखा.

नैना ने फिर कहा, “अरे यार, देखो न, प्लीज.”

इस बार रोहन खुद को नहीं रोक पाया और नैना के पीछे जा कर खड़ा हो गया. उस ने अपना हाथ उठाया और नैना के कंधे पर रखा. हाथ रखते ही उसे लगा जैसे उस का हाथ कांप रहा है. वहीं रोहन के टच करने से नैना भी कांपने लगी थी. उस की आंखें बंद हो चुकी थीं. उसे लगा जैसे सालों से सूखी धरती पर बारिश की पहली बूंद पड़ी है, जिस से उस की गरमी कम होने की जगह और ज्यादा बढ़ जाती है. उस सूखी धरती की चाहत थी एक झमाझम बारिश की. इस के लिए वह मन ही मन तैयार थी. तभी रोहन ने कहा, “मैम, यहां…”

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“नहीं, हलका सा नीचे,” नैना ने बिना आंखें खोले ही कहा.

रोहन का हाथ उस की कमर के थोड़ा नीचे गया. वह भी जवान हो चुका था, इसलिए इतने आमंत्रण को समझ रहा था. उस का हाथ थोड़ा और नीचे जाने लगा. नैना का टौवल बस जैसेतैसे ही रुका हुआ था, वह तो बस जरा से इशारे के साथ खुलने को तैयार था. नैना आंखें बद कर के रोहन के स्पर्श को महसूस कर रही थी. रोहन थोड़ा आगे बढ़ा. उस के होंठ नैना के कंधे के पास आ गए थे. और उस के हाथ आगे सीने की तरफ आने को मचल रहे थे. नैना इस के लिए तैयार थी ही.

रोहन के हाथ उस के बदन पर आगे उसे टच करने ही वाले थे और उस के होंठ नैना के कंधों को चूमने ही वाले थे कि तभी नैना ने आंखें खोलीं. उस की आंखों में बसी प्यास पर अचानक से कुछ और हावी हो गया था, वह क्या कर रही है…एक बच्चा है वह, शायद उस का बच्चा, उस की आंखों और दिल में अचानक से ममता के एक अपनेपन ने कब्जा कर लिया.

कुछ होने से पहले ही नैना ने एक झटके से रोहन को पीछे धकेल दिया, “पागल हो तुम, क्या कर रहे हो?” अचानक से नैना के इस तरह के बिहैव से रोहन घबरा गया. उस के दिल में कुछ पाने की जगह एक डर ने जगह ले ली, शायद उस रात वाले डर ने. “सारी मैम,” रोहन ने डरते हुए कहा और फ़ौरन ही वहां से चला गया.

नैना बेसुध सी बिस्तर पर गिर गई. उस की आंखों में आंसू आने लगे, जैसे वह एक बहुत बड़ा गुनाह करने वाली थी.

रोहन को उस रात नींद नही आई. उस ने लगातार नैना को सौरी के मैसेज किए. वह बेचारा इस सब के लिए खुद को जिम्मेदार मान रहा था, अपनी गलती मान रहा था.

नैना ने उस का कोई रिप्लाई नहीं दिया. बस, चुपचाप उस के मैसेजेज को देखती रही जब तक रोहन औफलाइन हो कर सो नहीं गया.

अगले दिन नैना अपने औफिस गई और वहां से जल्दी वापस आ गई. उस ने आ कर अपना फोन देखा. उस में फिर से रोहन के मैसेज थे. वह बारबार उस गलती के लिए सौरी बोल रहा था जो उस ने की भी नहीं थी.

नैना उस का हाल समझती थी शायद, अभी तक इसीलिए उस ने उस का कोई रिप्लाई नहीं दिया था.

अब घर आ कर उस ने रिप्लाई किया-

“डियर रोहन,

“तुम बहुत अच्छे लड़के हो, जो भी हुआ, उस में तुम्हारी कोई गलती नहीं है. इस उम्र में अकसर ऐसा हो जाता है. गलती मेरी है, मैं ही शायद बहक रही थी. लेकिन फिर मैं ने देखा कि तुम बच्चे हो, शायद मेरे बच्चे जैसे. मुझे अपनी भूल का एहसास है. तुम्हें सौरी बोलने और डरने की जरूरत नहीं है. मैं खुद इस सब के लिए तुम से सौरी बोलती हूं.

“कल जो हुआ उस के चलते मैं तुम से और तुम्हें देख कर शायद खुद से नजरें नहीं मिला पाऊंगी. इसलिए मैं अब यहां रहना नहीं चाहती. मैं ने कंपनी को बोल दिया है कि मेरा ट्रांसफर दूसरे शहर में कर दिया जाए और वह इस के लिए राजी भी है.

“मैं आज ही यह शहर छोड़ कर जा रही हूं. हो सके तो एक बार मुझ से मिल लो, मैं तुम्हें गले लगाना चाहती हूं एक बच्चे की तरह, अपने बच्चे की तरह. लेकिन मैं ऐसा नहीं कर पाऊंगी क्योंकि जब भी तुम्हारे सामने आऊंगी, तो न तुम मुझ से नजरें मिला सकोगे और न मैं तुम्हारी आंखों में आंखें डाल पाऊंगी.

“इसलिए, मैं तुम्हारा नंबर ब्लौक कर रही हूं. हो सके, तो तुम भी ब्लौक कर देना. तुम्हारी नादानी और अपनी बेवकूफी के चैप्टर को यही बंद करते हैं.

“बाय, हमेशा अपना खयाल रखना, स्वीट बौय.”

नैना का मैसेज पढ़ कर रोहन की जान में जान आ गई. डर की जगह उस के चेहरे पर हलकी सी मुसकान छाने लगी. वह खुद एक बार नैना से मिलना चाहता था, लेकिन वह जानता था कि नैना सही कह रही थी कि वे दोनों सामने होने पर नजरें नहीं मिला सकेंगे. रोहन को भी अपनी नादानी का इल्म था, उस ने नैना की बात मानी. फ़ौरन ही उस ने नैना का नंबर, उस की फोटो सब डिलीट कर दिए. और इस अनजाने जैसे प्यार के चैप्टर को हमेशा के लिए बंद कर दिया.

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