बदलती दिशा: भाग 1- क्या गृहस्थी के लिए जया आधुनिक दुनिया में ढल पाई

जया ने घड़ी देखी और ब्रश पकड़े हाथों की गति बढ़ा दी. आज उठने में देर हो गई है. असल में पिं्रस की छुट्टी है तो उस ने अलार्म नहीं लगाया था. यही कारण है कि 7 बजे तक वह सोती रह गई. प्रिंस तो अभी भी सो रहा है.

कल रात जया सो नहीं पाई थी, भोर में सोई तो उठने का समय गड़बड़ा गया. वैसे आज प्रिंस को तैयार करने का झमेला नहीं है. बस, उसे ही दफ्तर के लिए तैयार होना है.

अम्मां ने चलते समय उसे टिफिन पकड़ाया और बोलीं, ‘‘परांठा आमलेट है, बीबी. याद से खा लेना. लौटा कर मत लाना. सुबह नाश्ता नहीं किया…चाय भी आधी छोड़ दी.’’

अम्मां कितना ध्यान रखती हैं, यह सोच कर जया की आंखों में आंसू झिलमिला उठे. यह कहावत कितनी सही है कि अपनों से पराए भले. अपने तो पलट कर भी नहीं देखते लेकिन 700 रुपए और रोटीकपड़े पर काम करने वाली इस अम्मां का कितना ध्यान है उस के प्रति. आज जया उसे हटा दे तो वह चली जाएगी, यह वह भी जानती है फिर भी कितना स्नेह…कैसी ममता है.

ढलती उमर में यह औरत पराए घर काम कर के जी रही है. भोर में आ कर शाम को जाती है फिर भी जया के प्रति उस के मन में कितना लगावजुड़ाव है. और पति रमन…उस के साथ तो जन्मजन्मांतर के लिए वह बंधी है. तब भी कभी नहीं पूछता कि कैसी हो. इतना स्वार्थी है रमन कि किसी से कोई मतलब नहीं. बस, घर में सबकुछ उस के मन जैसा होना चाहिए. उस के सुखआराम की पूरी व्यवस्था होनी चाहिए. वह अपने को घर का मालिक समझता है जबकि तनख्वाह जया उस से डबल पाती है और घर चलाती है.

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अच्छे संस्कारों में पलीबढ़ी जया मांदादी के आदर्शों पर चलती है…उच्च पद पर नौकरी करते हुए भी उग्र- आधुनिकता नहीं है उस के अंदर. पति, घर, बच्चा उस के प्राण हैं और उन के प्रति वह समर्पित है. उसे बेटे प्रिंस से, पति रमन से और अपने हाथों सजाई अपनी गृहस्थी से बहुत प्यार है.

बचपन से ही जया भावुक, कोमल और संवेदनशील स्वभाव की है. पति उस को ऐसा मिला है, जो बस, अपना ही स्वार्थ देखता है, पत्नी बच्चे के प्रति कोई प्यारममता उस में नहीं है.  जया तो उस के लिए विलास की एक वस्तु मात्र है.

जया घर से निकली तो देर हो गई थी. यह इत्तेफाक ही था कि घर से निकलते ही उसे आटो मिल गया और वह ठीक समय पर दफ्तर पहुंच गई.

कुरसी खींच कर जया सीट पर बैठी ही थी कि चपरासी ने आकर कहा, ‘‘मैडम, बौस ने आप को बुलाया है.’’

जया घबराई…डरतेडरते उन के कमरे में गई. वह बड़े अच्छे मूड में थे. उसे देखते ही बोले, ‘‘जया, मिठाई खिलाओ.’’

‘‘किस बात की, सर?’’ अवाक् जया पूछ बैठी.

‘‘तुम्हारी सी.आर. बहुत अच्छी गई थी…तुम को प्रमोशन मिल गया है.’’

धन्यवाद दे कर जया बाहर आई, फिर ऐसे काम में जुट गई कि सिर उठाने का भी समय नहीं मिला.

दफ्तर से छुट्टी के बाद वह घर आ कर सीधी लेट गई. प्रिंस भी आ कर उस से लिपट गया. अम्मां चाय लाईं.

‘‘टिफन खाया?’’

‘‘अरे, अम्मां…आज भी लंच करना ध्यान नहीं रहा. अम्मां, ऐसा करो, ओवन में गरम कर उसे ही दे दो.’’

‘‘रहने दो, मैं गरमगरम नमक- अजवाइन की पूरी बना देती हूं…पर बीबी, देह तुम्हारी अपनी है, बच्चे को पालना है. ऐसा करोगी तो…’’

बड़बड़ाती अम्मां रसोई में पूरी बनाने चली गईं. जया कृतज्ञ नजरों से उन को जाते हुए देखती रही. थोड़ी ही देर में अचार के साथ पूरी ले कर अम्मां आईं.

‘‘रात को क्या खाओगी?’’

‘‘अभी भर पेट खा कर रात को क्या खाऊंगी?’’

‘‘प्रिंस की खिचड़ी रखी है,’’ यह बोल कर अम्मां दो पल खड़ी रहीं फिर बोलीं, ‘‘साहब कब आएंगे?’’

‘‘काम से गए हैं, जब काम खत्म होगा तब आएंगे.’’

रात देर तक जया को नींद नहीं आई. अपने पति रमन के बारे में सोचती रही कि वह अब कुछ ज्यादा ही बाहर जाने लगे हैं. घर में जब रहते हैं तो बातबात पर झुंझला पड़ते हैं. उन के हावभाव से तो यही लगता है कि आफिस में शायद काम का दबाव है या किसी प्रकार का मनमुटाव चल रहा है. सब से बड़ी चिंता की बात यह है कि वह पिछले 4 महीने से घर में खर्च भी नहीं दे रहे हैं. पूछो तो कहते हैं कि गलती से एक वाउचर पर उन से ओवर पेमेंट हो गई थी और अब वह रिफंड हो रही है. अब इस के आगे जया क्या कहती…ऐसी गलती होती तो नहीं पर इनसान से भूल हो भी सकती है…रमन पर वह अपने से ज्यादा भरोसा करती है. थोड़ा सख्त मिजाज तो हैं पर कपटी नहीं हैं. सोचतेसोचते पता नहीं कब उसे नींद आ गई.

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अगले दिन दफ्तर में उस के प्रमोशन की बात पता चलते ही सब ने उसे बधाई दी और पार्टी की मांग की.

लंच के बाद जम कर पार्टी हुई. सब ने मिल कर उसे फूलों का गुलदस्ता उपहार में दिया. जया मन में खुशी की बाढ़ ले कर घर लौटी पर घर आ कर उसे रोना आया कि ऐसे खुशी के अवसर पर रमन घर में नहीं हैं.

अम्मां के घर मेहमान आने वाले हैं इसलिए वह जल्दी घर चली गईं. ड्राइंगरूम में कार्पेट पर बैठी वह प्रिंस के साथ ब्लाक से रेलगाड़ी बना रही थी कि रमन का पुराना दोस्त रंजीत आया.

रंजीत को देखते ही जया हंस कर बोली, ‘‘आप…मैं गलत तो नहीं देख रही?’’

‘‘नहीं, तुम सही देख रही हो. मैं रंजीत ही हूं.’’

‘‘बैठिए, वीना भाभी को क्यों नहीं लाए?’’

‘‘वीना क ा अब शाम को निकलना कठिन हो गया है. दोनों बच्चों को होमवर्क कराती है…रमन आफिस से लौटा नहीं है क्या?’’

‘‘वह यहां कहां हैं. आफिस के काम से बंगलौर गए हैं.’’

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रंजीत और भी गंभीर हो गया.

‘‘जया, पता नहीं कि तुम मेरी बातों पर विश्वास करोगी या नहीं पर मैं तुम को अपनी छोटी बहन मानता हूं इसलिए तुम को बता देना उचित समझता हूं…और वीना की भी यही राय है कि पत्नी को ही सब से पीछे इन सब बातों का पता चलता है.’’

जया घबराई सी बोली, ‘‘रंजीत भैया, बात क्या है?’’

‘‘रमन कहीं नहीं गया है. वह यहीं दिल्ली में है.’’

अगले हफ्ते पढ़ें- चौंकी जया. यह रंजीत कह रहा है…

Aamna Sharif से लेकर Dipika kakkar तक Eid पर दिखा इन एक्ट्रेसेस का ट्रेडिशनल लुक

कोरोना के कहर के बीच ईद भी निकल गई. हालांकि सेलेब्स ने इस बार घर पर ही सिंपल तरीके से ईद का सेलिब्रेशन मनाया, जिसकी फोटोज सोशलमीडिया पर शेयर की हैं. इस दौरान बौलीवुड से लेकर टीवी की हसीनाओं ने अपने लुक से फैंस का दिल जीत लिया है. आइए आपको दिखाते हैं हसीनाओं के ईद लुक, जिसे आप भी ट्राय कर सकती हैं.

कोमोलिका का दिखा खूबूसरत अवतार

‘कहीं तो होगा’ फेम आमना शरीफ (Aamna Sharif) ईद के मौके पर अपने फैंस को विश करती नजर आईं, जिस दौरान उन्होंने सफेद रंग का शरारा पहना, वहीं इस आउटफिट के साथ आमना ने मैचिंग ज्वैलरी पहनकर लुक पर चारचांद लगा दिए.

 

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टीवी की बहू ने ऐसे दी बधाई

टीवी की संस्कारी बहू और एक्ट्रेस दिव्यांका त्रिपाठी (Divyanka Tripathi)इस समय केपटाउन में हैं और उन्होंने पुरानी फोटो को शेयर करके लोगों को ईद की बधाई दी. हालांकि इसमें ब्लैक कलर के आउटफिट में वह बेहद खूबसूरत लग रही थीं.

शादी के बाद गौहर खान ने यूं मनाई पहली ईद

 

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‘बिग बॉस 7’ की विनर रह चुकीं गौहर खान (Gauahar Khan)ने सिंपल अंदाज में फैंस को विश किया. इस दौरान उन्होंने उनकी मां का दिया हुआ कलरफुल प्रिंट वाला सूट पहना, जिसमें वह बेहद सिंपल और खूबसूरत लग रही थीं.

 

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पति संग सिमर ने मनाई ईद

 

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‘ससुराल सिमर का’ फेम सिमर यानी दीपिका कक्कड़ (Dipika Kakar) पति शोएब और अपनी फैमिली संग सिंपल तरीके से ईद मनाई. इस दौरान उनका लुक भी एकदम सिंपल नजर आया.

सोहा अली खान का लुक था खूबसूरत

 

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बौलीवुड एक्ट्रेस सोहा अली खान ईद के मौके पर सिंपल अनारकली सूट में नजर आईं, जिसमें उनका लुक एलीगेंट लग रहा था. वहीं फैंस उनके इस लुक की जमकर तारीफें करते नजर आए.

Mother’s Day Special: सास-बहू की स्मार्ट जोड़ी

शादी हमें एक जोड़े में बांधती है – पति पत्नी की जोड़ी में. लेकिन एक और जोड़ी है जिसमें शादी के कारण हम बंधते हैं और वह है सास बहू की जोड़ी! एक समय था जब पर्दे पर भी सास का किरदार निभाने के लिए किसी निर्दई इमेज वाली एक्ट्रेस जैसे ललिता पवार या शशि कला को चुना जाता था. जिंदगी हो या पर्दा – सास बहू का रिश्ता कड़वाहट भरा होता था. लेकिन यह बीते जमाने की बात होने लगी है. आज के दौर में जहां बहुएं पढ़ी लिखी, नौकरी पेशा, फैशन परस्त और हर लिहाज से स्मार्ट होने लगी हैं वही सासें भी पीछे नहीं रही. आज की सास ने अपनी पुरानी छवि उतार फेंकी है क्योंकि वह अच्छे से जानती है कि बेटे के साथ आजीवन मधुर संबंध बनाए रखने के लिए बहू से अच्छे संबंध रखना बेहद जरूरी है.

स्मार्ट सास और बहू वही है जो एक दूसरे की अहमियत समझती है. बहू जानती है कि सास से अनबन के कारण उसकी गृहस्थी में कलेश घुलेगा और रोजमर्रा का जीवन चलाना कठिन होगा, वहीं सास समझती है कि बहू से बना कर रखा तो पूरे परिवार का सुख मिलता रहेगा और बुढ़ापा भी चैन से गुजरेगा. और फिर जब संबंध इतने निकट का हो तो क्यों ना आपसी मेलजोल और माधुर्य से अपने साथ सामने वाले के जीवन को भी सुखमय बना लिया जाए. कितना अच्छा हो कि बहू जब सास को ‘मम्मी ‘ पुकारे तो वह उसके हृदय से निकले; कि जब सास ‘बेटा ‘ कहे तो उसका तात्पर्य अपने बेटे से नहीं वरन बहू से हो! ऐसा जरूर हो सकता है पर अपने आप नहीं. इसके लिए चाहिए थोड़ी स्मार्टनेस जो दोनों पलड़ों में होनी आवश्यक है. समझदार हैं वे सास बहू जो इस अनमोल रिश्ते की कीमत और गरिमा को पहचानती हैं और देर होने से पहले सही कदम उठा लेते हैं.

एनी चेपमेन, अमेरिकी संगीतकार तथा लोकप्रिय वक्ता, जो स्वयं बहू रही और अब सास बन चुकी हैं, ने कई पुस्तके लिखी, जैसे – ‘ द मदर इन लॉ डांस ‘ , ‘ ओवरकमिंग नेगेटिव इमोशंस ‘ , ’10 वेज़ टू प्रिपेयर डॉटर फॉर लाइफ ‘ आदि. आज के समय में सास बहू के रिश्ते को सुनहरा बनाने के लिए कुछ नियम बताती हैं जो हैं कि न तो सास को बहू की तुलना अपनी बेटी से करनी चाहिए और ना ही बहू को सास की तुलना अपनी मां से करनी चाहिए. साथ ही एनी कहती हैं कि स्मार्ट वो सास और बहू हैं जो एक दूसरे के व्यक्तित्व को पहचान लें. यदि सास या बहु कुछ हठीले स्वभाव की है तो दोनों को चाहिए वे परस्पर नम्रता बनाए रखें लेकिन साथ ही थोड़ी दूरी भी रखें.

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जैसे बहू नई वैसे सास भी

जैसे बहु नई नवेली होती है ठीक वैसे ही सास के लिए भी यह पहला अनुभव होता है. उसे भी नए रिश्ते में ढलना वैसे ही सीखना होता है जैसे बहू सीखती है. इसलिए दोनों को पर्याप्त समयावधि मिलनी चाहिए. हथेली पर सरसों नहीं उगती. इस रिश्ते को सुदृढ़ बनाने के लिए समय और स्पेस की जरूरत होती है. स्मार्ट वो सास बहू हैं जो इस बात को समझते हुए एक दूसरे को पूरा समय और स्पेस दें.

जब वरिष्ठ लेखिका सुधा जुगरान की इकलौती बहू आई तब उन्होंने इस बात को सहर्ष स्वीकारा कि अब उनके बेटे के जीवन और उनके घर में एक अन्य स्त्री का प्रवेश हो रहा है. आम सासु मां की तरह इन्होंने कभी अपनी बहू चारू को खाने, पहनने व सोने को लेकर कोई निर्देश नहीं दिए क्योंकि इनका मानना है कि यह तीनों चीजें किसी भी इंसान की नैसर्गिक जरूरत है और इच्छाएं हैं. इन बातों पर बंधन किसी भी लड़की के जीवन का संतुलन तो डगमगाता ही है अपितु सास बहू के रिश्ते में भी कड़वाहट ला देता है. बेटे के विवाह के बाद सुधा जी ने समझ लिया कि अब उनके लिए केवल उनकी बहू ही हर तरह से महत्वपूर्ण है – उसी की तारीफ, उसी की पसंद, उसी के क्रियाकलाप. उन्होंने सास बहू के रिश्ते को मीठा बनाने का फार्मूला जान लिया था – बेटा तो अपना है ही, सींचना तो उस पौधे को पड़ता है जिसे नया-नया रोपा गया है. शुरू के सालों में इनकी इन्हीं कोशिशों का परिणाम है कि शादी के 6 साल बाद भी दोनों के बीच छोटी-मोटी गलतफहमियां तक सिर नहीं उठा पातीं. वहीं चारु ने भी खुद को बिल्कुल सहजता से नए वातावरण में ढाल लिया. आज वह अपनी सासू मां के साथ शॉपिंग जाती है, दोनों एक जैसी पोशाकें पहनती हैं, गप्पें लगाती हैं ताकि प्यार में यह रिश्ता मां बेटी जैसा, समझदारी में सहेलियों जैसा, और मान सम्मान में सास बहू जैसा बन पाए. सुधा जी के शब्दों में, ” मेरा मानना है विचार बदलो और नजर बदलो, नजारे अपने आप बदल जाएंगे.”

शब्दों का खेल

याद रखिए, सास और बहू अलग परिवेशों से आती हैं, दोनों वयस्क हैं, आज तक की अपनी जिंदगी निश्चित ढंग से जीती आई हैं. शब्दों रिश्तों को पत्थर सा मजबूत भी बना सकते हैं और कांच सा तोड़ भी सकते हैं. सोच समझकर शब्दों का प्रयोग करें. जो भी बोलें, नाप तोल कर बोलें.कोशिश करें कि पहले आप दूसरे की भावनाएं समझें और बाद में मुंह खोले. याद रखें शब्द बाण एक बार कमान से निकल गए तो उनकी वापसी असंभव है, साथ ही, उनके द्वारा दिए घाव भरना भी बहुत मुश्किल. यदि चुप्पी से काम चल सके तो चुप रहे.

बने स्मार्ट बहू

जब बहू अपना घर परिवार, माता पिता, भाई बहन सब कुछ छोड़कर ससुराल आती है तब सास ही उसे प्यार और अपनेपन से दुलार कर ससुराल में मां की कमी महसूस नहीं होने देती. साथ ही बहु को उसके पति (अपने बेटे) के स्वभाव, आदतों, अच्छाइयों, बुराइयों तथा पसंद-नापसंद से परिचित करवाती है. साथ ही परिवार के अन्य सदस्यों की आवश्यकताओं के बारे में भी समझाती है. नए घर के रीति-रिवाज, परंपराएं एवं रस्में भी बहू सास से ही सीखती है. तो बहू को चाहिए कि अपनी स्मार्टनेस से इस महत्वपूर्ण रिश्ते को मधुर बनाए.

– बहुओं को चाहिए कि वह सास को बुजुर्ग होने के साथ अनुभवी भी माने. अपनी सास से उनके जमाने के मजेदार किस्से सुने – बचपन के, शादी के बाद के, बच्चों को पालते समय संबंधित अनुभव आदि. जब एक सास अपनी बीती हुई जिंदगी के अनुभव अपनी नई बहू से बांटेगी तो उसके मन में बहू के प्रति लगाव बढ़ना स्वाभाविक है जिससे उन दोनों का रिश्ता और सुदृढ़ हो जाएगा.

– बहू अपनी सास से सुझाव लेने में हिचकिचाए नहीं. हो सकता है कि आप अपनी सास के हर सुझाव से इत्तफाक ना रखती हो, फिर भी उनके अनुभव को देखते हुए उनसे सुझाव लेने में कोई हर्ज नहीं है. लेकिन कभी भी उनके दिए सुझावों को व्यक्तिगत लेते हुए उन पर बहस ना करें. सुझाव मानना आपकी इच्छा पर निर्भर करता है, पसंद आए तो माने वरना सास को अपनी सोच से अवगत करा दें.

– रिश्तो में स्पेस देना भी बहुत जरूरी है. आपका पति जो अब तक केवल एक बेटा था और जो अभी तक मां के अनुसार ही चल रहा था, शादी के बाद उसके व्यवहार में परिवर्तन आना स्वाभाविक है. इससे कभी-कभी मां के मन में असुरक्षा की भावना आने लगती है और यह चिढ़ बात- बेबात टोकाटाकी या तानों के रूप में बाहर आती है. यहां एक स्मार्ट बहू का कर्तव्य है कि वह मां बेटे के बीच दरार की वजह ना बने और मां बेटे की आपसी बातचीत का बुरा ना माने, साथ ही हस्तक्षेप ना करे.

नए घर की जिम्मेदारियों को और परिवार के रखरखाव के विषय में जितना बेहतर सास समझा सकती है उतना कोई भी नहीं. नए परिवार में बैलेंस बनाने के लिए सास से अपना रिश्ता एक दूसरे को सुविधा देने की भावना का बनाने की कोशिश कीजिए.

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बने स्मार्ट सास

स्मार्ट सास वह है जो यह बात समझ जाए कि अब नई बहू भी उसके परिवार का हिस्सा बन चुकी है. घर का माहौल सरल रखें ताकि यदि बहू कुछ कहना चाहे तो बेझिझक अपनी बात रख सके. सभी की अपनी कुछ आदतें होती है जिसे हम हमेशा फॉलो करना चाहते हैं. आखिर बहू 25 – 26 वर्ष की आयु में घर में प्रवेश करती है. अगर उसकी कुछ ऐसी आदतें हैं जो सास को पसंद नहीं आ रही तब भी जबरन दबाव डालकर न रोकें. उसे अपनी खास इच्छा या शौक पूरे करने दें तभी वह सब को अपना समझ पाएगी.

– सास होशियारी से बहू की छोटी-छोटी गलतियों को नजरअंदाज करके उसे बेटी की तरह प्यार दुलार दे ताकि उसे मां की कमी महसूस ना हो. तब आपका घर, घर नहीं स्वर्ग बन जाएगा.

– बहू को खुले दिल से अपने परिवार का हिस्सा बनाएं. सास बहू के संबंधों का प्रभाव पूरे परिवार पर पड़ता है. यदि सास बहू के बीच संबंध मधुर होते हैं तो घर में व्यर्थ का तनाव नहीं पनपता तथा घर के सभी सदस्य प्रसन्नचित्त रहते हैं.

– सास को चाहिए कि जिस लाड प्यार पर अब तक केवल उसके बेटे का अधिकार था, अब वही प्यार वह बहू बेटे को साथ में बांटे.

टोने-टोटके की दुनिया

सास बहू की नोक झोंक एक ऐसा विषय है जो सदियों से चला आ रहा है. अमूमन हर घर में कभी ना कभी कोई समस्या उभर ही आती है. इसलिए इस विषय पर भी पंडित और धार्मिक दुकानदार अपनी रोटी खूब चालाकी से सेंकने के भरपूर प्रयास करते रहते हैं.

– राजस्थान के वैदिक अनुष्ठान संस्थान के आचार्य अजय द्विवेदी कहते हैं कि मंत्र “ॐ क्रां क्रीं क्रों” का 108 बार जाप करें. सास अपने बेडरूम में मोर पंख रखें जो कि प्रेम और वात्सल्य का प्रतीक होता है. साथ ही बहू पूर्णिमा का व्रत करें. सास और बहू दिन के दोनों पहरों में अपने इष्टदेव का ध्यान करें, उन्हें नैवेद्य अर्पण करें ताकि सास बहू में नकारात्मकता समाप्त हो.

– वेबदुनिया नामक ऑनलाइन चैनल बताता है कि सास व बहू में आपसी संबंध कटु होने पर बहू चांदी का चौकोर टुकड़ा अपने पास रखें. साथ ही शुक्ल पक्ष के प्रथम बृहस्पतिवार से हल्दी या केसर की बिंदी माथे पर लगाना शुरू करें. गले में चांदी की चेन धारण करें. और सबसे महत्वपूर्ण बात – किसी से भी कोई सफेद वस्तु ना लें.

– इसी का ठीक उलटा उपाय एस्ट्रो मां त्रिशला बताती हैं कि हर सोमवार को बहू अपनी सास को कोई सफेद चीज खिलाए. साथ ही कुछ सरल उपाय जैसे सास बहू दोनों की फोटो फ्रेम करवाकर उत्तर में लगाएं. और सास हर महीने आने वाली दोनों चौथ पर बहू को सिंदूर का टीका करते हुए “ॐ गंग गणपतए नमः” का जाप करें. बहू को थोड़ा सा गुण और एक मुट्ठी गेहूं किसी चौराहे पर रखते हुए प्रार्थना करनी है कि हे प्रभु हमारे रिश्ते को मां बेटी सा बना दीजिए.

– डॉ आर बी धवन गुरु जी कहते हैं कि 5.5 रत्ती का चंद्रकांत मणि पत्थर लेकर चांदी में बनवाकर बहू को छोटी उंगली में और सास बीच वाली उंगली में सोमवार के दिन धारण करने से गृह क्लेश दूर होगा.

– यूट्यूब पर ‘आपके सितारे’ नाम से अपना चैनल चला रहे वैभव नाथ शर्मा के अनुसार सास बहू के क्लेश को दूर करने के लिए गाय के गोबर का दीपक बनाकर सुखा लें. फिर उसमें तिल का तेल और एक डली गुड़ डालकर दीपक जलाएं जो रात को घर के मुख्य द्वार के मध्य में रखें. मंगलवार की रात को यह करने से सास बहू की दुर्भावना दूर होगी.

ऊपर दिए टोटके तो सिर्फ ट्रेलर है; पिक्चर अभी बाकी है! टोने टोटकों की भरमार इसलिए है क्योंकि लोग अपनी समझदारी पर विश्वास करने की जगह इन अंधविश्वासों की दुनिया में डूबना पसंद करते हैं. पर आप ऐसा कतई न करें. बातों के चक्कर में ना आए, ना ही किसी ढोंगी बाबा – मां ही बातों में फंस कर अपना जीवन दूभर करें. समझदारी से काम लें. अपने आसपास की सास बहू की जोड़ियों को देखें और उनसे सीखने का प्रयास करें.

रीयल लाइफ उदाहरण

दिल्ली की मालती अरोड़ा के पति की मृत्यु बहुत कम उम्र में हो गई थी. उन्होंने नौकरी की, अपने बच्चे पाले. फिर उनकी बहू आ गई जोकि आज के जमाने की थी. उसने इच्छा जताई कि उसकी सास भी उसके साथ मॉल जाएं, शॉपिंग करें और आज के परिधान जैसे जींस और स्कर्ट पहने. मालती जी ने पहले कभी यह सब नहीं किया था. उनका जीवन तो बस जिम्मेदारियों की भेंट चढ़ा रहा था. लेकिन उन्होंने अपनी बहू का पूरा साथ दिया. उन्होंने अपने संकोच को दरकिनार कर जींस और लॉन्ग स्कर्ट पहनना शुरू कर दिया. बहू के दिल में जगह बनाने का यह स्वर्णिम अवसर उन्होंने दोनों हाथ से लपका. आज सब इस सास बहू की जोड़ी को देखकर हैरान हो जाते हैं. मालती जी की समझदारी ने उनके घर को एक मजबूत धागे से बांधे रखा है.

ग्वालियर की गौरी सक्सेना को हर दोपहर में थोड़ा सुस्ताने की आदत थी. जब उनकी बहू आई तो उसने दोपहर में दोनों के पतियों के ऑफिस चले जाने के बाद कभी शॉपिंग तो कभी मूवी का प्रोग्राम बनाना शुरू किया. गौरी ने अपनी आदत को टालते हुए उसका साथ दिया. जैसा प्रोग्राम बनता, वह वैसे ही चल पड़ते. एक बार जब गौरी की बहन मिलने आई और उन्होंने बताया कि तुम्हारी सास बिना दोपहर में सुस्ताए रह नहीं पातीं तब बहू के मन में सास के प्रति आदर भाव और बढ़ गया.

जयपुर की संध्या की जब शादी हुई तब वो एक संयुक्त परिवार का हिस्सा बनी. ऐसे में सबका दिल जीतने के लिए उसने अपनी सास का दामन थामा. जैसाजैसा सास बतातीं, वो वैसा ही करती. धीरे-धीरे पूरा परिवार संध्या का मुरीद हो गया. यहां तक कि शाकाहारी होते हुए भी संध्या ने अपने नए परिवार के स्वादानुसार चिकन भी पकाना सीखा. संसार त्यागने तक उसकी सास केवल उसी के पास रहना पसंद करती रहीं.

कुछ ऐसे टिप्स भी होते हैं जो सास बहू के रिश्ते को और भी मजबूत और प्यारा बना सकते हैं बशर्ते इन्हें सास और बहू साथ में फॉलो करें –

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शेयर करें अपने दिल की बातें: शादी के बाद जहां बहू को नए घर में रहने के रीति रिवाज और रंग ढंग सीखने होते हैं वही सास के मन में भी यह दुविधा होती है कि क्या बहू उनके परिवार के अनुसार खुद को ढाल पाएगी. ऐसे में बेहतर ऑप्शन है कि आप एक दूसरे के साथ अपने मन की बात शेयर करें. इससे आप दोनों को एक दूसरे के विचारों का पता चलेगा और रिश्ता निभाने में आसानी होगी.

अपने विचार एक दूसरे पर न थोपे : यह बात केवल न केवल सास बल्कि बहू को भी समझनी चाहिए कि हर किसी की सोच और विचार अलग होते हैं. अपने विचार दूसरों पर थोपने से उन्हें गुस्सा आना वाजिब है. अगर आप अपने सास बहू के रिश्ते में मिठास रखना चाहते हैं तो एक दूसरे के विचारों का आदर करें. इससे आप दोनों के बीच प्यार बढ़ेगा और रिश्ता मजबूत होगा.

एक दूसरे को दे भरपूर समय : अपनी नई शादी की खुमारी में बहू केवल अपने पति या फिर मायके वालों को ही टाइम दे, यह उचित नहीं. वहीं सास भी अपनी बहू के साथ बैठकर कुछ बातें शेयर करें. एक दूसरे के साथ टाइम स्पेंड करने से न केवल आपको एक दूसरे को समझने का मौका मिलेगा बल्कि प्यार भी बढ़ेगा.

व्यवसाय के क्षेत्र में भी साथ सास बहू

रुचि झा एक इन्वेस्टमेंट बैंकर थीं. एक बार छुट्टियों के दौरान वह अपने गांव पहुंची. रुचि बताती है “उस समय मिथिला पेंटिंग से जुड़े कुछ राज्य और राष्ट्रीय स्तर के कलाकारों से मिलने का संयोग बना. उन पेंटिंग्स को देखकर मुझे महसूस हुआ कि मैं इस कला को दुनिया के कोने कोने तक पहुंचाना चाहती हूं.” रुचि ने कॉर्पोरेट दुनिया से विदा लेने की सोची तो खुद का काम शुरू करने के लिए उन्हें किसी साथी की जरूरत नहीं पड़ी, क्योंकि इस काम के लिए उनकी सास रेणुका कुमारी आदर्श साझेदार थीं. दोनों ने मिलकर ‘आइमिथिला हैंडीक्राफ्ट और हैंडलूम प्राइवेट लिमिटेड’ की शुरुआत की तथा अपने ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म ‘आईमिथिला ‘ से उद्यमिता के क्षेत्र में अपनी एक अलग पहचान बनाई. साथ ही स्थानीय कलाकारों को भी अपना हुनर दिखाने के लिए एक प्लेटफार्म दिया.

रुचि नोएडा और दिल्ली से मार्केटिंग का काम संभालती हैं जबकि उनकी सास, जोकि वनस्पति विज्ञान प्रोफेसर के रूप में काम कर चुकी हैं, दरभंगा जो मधुबनी आर्ट के लिए मशहूर है, से प्रोडक्शन यूनिट में कलाकारों के साथ समन्वय स्थापित करती हैं. इस सास बहू की जोड़ी ने सुपर स्टार्टअप का अवार्ड भी जीता है.

सास बहू का रिश्ता जितना प्यारा होता है उतना ही नाजुक भी. पूरे परिवार के प्यार और सामंजस्य की धुरी इसी रिश्ते पर टिकी होती है. थोड़ी सी समझदारी से इस रिश्ते को मीठा और मजबूत बनाया जा सकता है. आवश्यकता है तो बस सास और बहू दोनों को इस रिश्ते को निभाने में स्मार्टनेस अपनाने की.

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हमारा समाज आज भी मैंस्ट्रुअल हाइजीन के संबंध में अंधविश्वासों से ग्रस्त है- रिचा सिंह

रिचा सिंह

सीईओ, नाइन

पीरियड्स हर लड़की व महिला में होने वाली सामान्य शारीरिक प्रक्रिया है, जिस के लिए ऐस्ट्रोजन और प्रोजेस्टेरौन नाम के हारमोन जिम्मेदार हैं. लेकिन पीरियड्स को ले कर आज भी महिलाओं में जागरूकता  का अभाव है, जिस के कारण अलगअलग देशों में इसे ले कर अलगअलग भ्रांतियां फैली हुई हैं.

इस दौरान महिला को अशुद्ध समझ जाता है, जिस कारण उन्हें माहवारी के दौरान किचन में जाने की अनुमति नहीं होती, तो कहीं उन्हें इस दौरान जमीन पर सोना पड़ता है.

रिचा का मानना है कि पैड्स को ले कर भी जागरूकता का काफी अभाव है, जिस के कारण महिलाएं इन दिनों कपड़े का इस्तेमाल कर के खुद के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करती हैं. लेकिन हम उन की सुरक्षा और हाइजीन को ले कर प्रयासरत हैं. हम महिलाओं को जागरूक बनाने का प्रयास करत हैं और उन्हें यह बताते हैं कि कपड़ा इस्तेमाल करने से वे किन गंभीर बीमारीयों का शिकार हो सकती हैं.

पेश हैं, इस संबंध में नाइन सैनिटरी  पैड्स की सीईओ रिचा सिंह से हुई बातचीत के खास अंश:

अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे  में बताएं?

मेरे पापा इंजीरियर थे और मम्मी ने कुछ साल शिक्षक के रूप में काम किया. मेरे परिवार में लड़कियों के लिए यह सामान्य नहीं था कि वे उद्यम करें और अपना कैरियर बनाएं. यहां तक कि मेरी मम्मी और ग्रैंड मदर की मुझ से कुछ अपेक्षाएं थीं. वे चाहती थीं कि मैं डाक्टर या इंजीनियर बनूं, जो उस समय बहुत अच्छा कैरियर माना जाता था. लेकिन समय के साथ मेरा वाणिज्य और बिजनैस के प्रति झकाव बढ़ता  गया और यहीं से मेरी कौरपोरेट वर्ल्ड में यात्रा प्रारंभ हुई.

समाज में आज भी माहवारी को ले कर अंधविश्वास और भ्रांतियां हैं? आप इस पर क्या कहेंगी?

हमारा समाज आज भी मैंस्ट्रुअल हाइजीन के संबंध में विभिन्न अंधविश्वासों से ग्रस्त हैं. इस समय लड़की को अछूत माना जाता है. यही नहीं इस दौरान उस पर और भी कई प्रतिबंध लगाए जाते हैं. कुछ परिवार यहां तक मानते हैं कि मैंस्ट्रुअल हाइजीन का प्रबंधन करने के लिए पैसे खर्च करना एक पाप है, जिस कारण महिलाएं इन दिनों पुराना कपड़ा इस्तेमाल करती हैं, जो ज्यादातर मैला होता है, जो उन्हें खराब हाइजीन की ओर ले जाता है.

मासिकधर्म एक बहुत ही सामान्य शारीरिक प्रक्रिया है, जो इस बात का इशारा है कि लड़की के शरीर में सभी जरूरी बदलाव हो रहे हैं, जो उस के फर्टाइल होने का इशारा करते हैं. इस दौरान निकलने वाला ब्लड गंदा नहीं होता है. यह स्टेम कोशिकाओं से भरपूर होता है, जो जीवन देने वाली कोशिकाएं होती हैं.

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कोरोनाकाल में आप ने पैड्स की डिस्ट्रीब्यूशन कैसे सुनिश्चित की?

लौकडाउन के दौरान हम ने पैड्स  की आपूर्ति सुनिश्चित करने की आवश्यकता पर योजना बना कर काम करना शुरू किया. हम ने  सरकार के साथ मिल कर जागरूकता बढ़ाई.  पूरे भारत में सैनिटरी पैड्स को जरूरी आवश्यकता के रूप में सूचीबद्ध किया. इस  कार्य में हम ने सरकारी और गैरसरकारी संगठनों का भी समर्थन किया. हमारा प्रयास सफल रहा और हम बड़ी संख्या में महिलाओं और लड़कियों तक सैनिटरी पैड्स पहुंचा पाए.

मैंस्ट्रुअल हाइजीन क्यों जरूरी है?

मैंस्ट्रुअल हाइजीन को बहुत अधिक महत्त्व देने के 2 प्रमुख कारण हैं- पहला है मानसिक स्वास्थ्य के लिए, क्योंकि अच्छे और सुरक्षित मैंस्ट्रुअल हाइजीन के अभाव में लड़कियां व महिलाएं खुद को उन 5 दिनों में काफी सिमटा हुआ पाती हैं.

इस से उन के काम, परफौर्मैंस व पढ़ाई पर भी काफी असर पड़ता है और दूसरा खराब हाइजीन की वजह से वे विभिन्न तरह के संक्रमण का भी शिकार हो जाती हैं, जिस का पता भी नहीं चलता है और जब पता चलता है तो वह सर्वाइकल कैंसर या फिर इनफर्टिलिटी का रूप  ले लेता है, जो सिर्फ मैंस्ट्रुअल हाइजीन का ध्यान नहीं रखने के कारण है.

कौरपोरेट क्षेत्र में क्या आज भी महिलाओं के लिए कैरियर बनाने में मुश्किल है?

भारतीय महिलाओं को कौरपोरेट वर्ल्ड में काफी बाधाओं का सामना करना पड़ता है. इन में से अधिकांश खुद के परिवार के द्वारा ही हैं. किसी भी क्षेत्र में कार्य के लिए समर्पण व प्रतिबद्धता की आवश्यकता होती है. लेकिन ज्यादातर महिलाओं पर परिवार की जिम्मेदारियां थोपने के कारण कैरियर उन के लिए प्राथमिकता नहीं रह जाता. उन की परवरिश व समाज उन  के साथ कैसा व्यवहार करता है, के कारण भी ज्यादातर महिलाओं में चैलेंजिंग टास्क या रोल लेने में आत्मविश्वास की कमी देखने को  मिलती है.

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लेकिन यह हर किसी के लिए जरूरी है कि वह अपने टैलेंट व स्किल्स में विश्वास कर के सफलता के लिए प्रतिबद्ध हो. किसी भी तरह के सामाजिक दबाव को अपने ऊपर हावी न होने दे, क्योंकि कौरपोरेट की यही कोशिश है कि सब को बराबर नौकरी के अवसर मिलें. फिर चाहे वह पुरुष हो या महिला. महिलाएं अब यह साबित भी कर रही हैं कि किसी भी क्षेत्र में वे पुरूषों की तुलना में कमतर नहीं. यह आदी आबादी के लिए अच्छा संकेत है.

मोबाइल गेमिंग का बढ़ता नशा

लेखक- शाहनवाज

21वीं शताब्दी की शुरुआत को टैक्नोलौजी की आमजन तक पहुंच का समय माना जाता है. यह वही समय है जिस के बाद से मोबाइल, कंप्यूटर, लैपटौप जैसी चीजें आमजन भी अफोर्ड कर पाया और अपने जीवन को मुख्यधारा से जोड़ पाया. शुरुआती समय में लोग मोबाइल का उपयोग सिर्फ एकदूसरे से कम्यूनिकेट करने के लिए किया करते थे लेकिन समय बीतने के साथसाथ मोबाइल की उपयोगिता बढ़ती ही चली गई. पहले साधारण फोन हुआ करते थे, लेकिन एक समय बाद ‘स्मार्टफोन’ की ईजाद हुई जिस ने लोगों के स्टेटस को बदल कर रख दिया.

स्मार्टफोन, नौर्मल फोन की तुलना में कहीं ज्यादा काम करने में सक्षम हैं. आजकल के समय में लोग मोबाइल सिर्फ एकदूसरे से संपर्क साधने के लिए नहीं खरीदते बल्कि कई तरह के काम करने के लिए खरीदते हैं, जैसे वीडियो देखने के लिए, गाने सुनने के लिए गेम्स खेलने के लिए आदि. वास्तव में आजकल तो स्मार्टफोन का निर्माण ही मोबाइल गेमिंग को ध्यान में रखते हुए किया जा रहा है.

गेम्स खेलना किसे पसंद नहीं होता. हर कोई हलकेफुलके मनोरंजन के लिए थोड़ाबहुत गेम खेल कर दिमाग में चल रही भागदौड़ से खुद को शांत महसूस करता है. जब तक व्यक्ति अपने स्मार्टफोन में गेम्स खेल रहा होता है उस समय तक वह अपनेआप को शेष दुनिया से काट लेता है. कुछ पल के लिए ही सही, लोग अपनी नजरें अपने स्मार्टफोन में गढ़ा कर गेम्स खेल कर मानो सारी चिंताओं से खुद को मुक्त कर लेते हैं. लेकिन गेमिंग तब समस्या बन कर उभरती है जब लोग इस के एडिक्ट हो जाते हैं. गेमिंग का एडिक्शन इतना खतरनाक और इस के परिणाम इतने भयानक हो सकते हैं कि ये इंसान को पागलपन की ओर ले जा सकता है.

ऐसे लगती है लत

दिल्ली के जनकपुरी में रहने वाला 15 वर्षीय हर्षित 10वीं क्लास में पढ़ाई करता है. लौकडाउन के चलते स्कूल बंद हो जाने के कारण वह पिछले साल मार्च से ही अपने घर में कैद हो गया. स्कूल की तरफ से औनलाइन क्लास का प्रबंध किया गया और हर्षित के पेरैंट्स ने उसे औनलाइन क्लास अटैंड करने के लिए एक हलकी रेंज का ठीकठाक स्मार्टफोन खरीद कर दिया. जब तक औनलाइन क्लास होती तब तक तो ठीक, लेकिन उस के बाद हर्षित अपने नए स्मार्टफोन में पबजी गेम खेलने लगता. हर्षित अपनी क्लास में एवरेज मार्क्स लाने वाले स्टूडैंट्स में था. हर्षित के पेरैंट्स भी उसे फोन में गेम्स खेलने से टोकते नहीं थे, सोचते थे कि बच्चा घर बैठे खुद को इसी तरह से ही एंटरटेन कर सकता है.

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शुरुआती दिनों में तो हर्षित गेम में अपना हाथ सैट करने के लिए एकाध घंटा ही गेम खेलता था. लेकिन जैसेजैसे वह गेम सीखता जा रहा था और अच्छा परफौर्म करता जा रहा था वैसेवैसे उस की पबजी गेम खेलने की ललक बढ़ती गई. गेम खेलने के दौरान उस के आसपास क्या घट रहा है, उसे किसी बात की सुध न होती. वह बस, अपने फोन में गेमिंग में व्यस्त रहता और मस्त रहता. समय बीता, तो हर्षित के पेरैंट्स उसे ले कर चिंता करने लगे. क्योंकि अब वह गेमिंग के लिए स्कूल की तरफ से चलने वाली अपनी औनलाइन क्लासेज भी मिस करने लगा था. जब कभी उस के मम्मीपापा इस बात पर उसे डांटफटकार लगाते तो वह उसे एक कान से सुन कर दूसरे से निकाल देता. उसे किसी बात का मानो फर्क पड़ना बंद हो गया था.

समय बीतने के साथसाथ हर्षित का पबजी खेलने का समय भी बढ़ता जा रहा था. एक घंटे से शुरुआत करने वाला हर्षित अब एक जगह बैठ कर बिना कुछ खाएपिए 5-6 घंटे गेम में बिता देता था. जब यह सबकुछ ज्यादा होने लगा तो सजा के तौर पर उस के पापा ने उस से एक दिन के लिए उस का फोन छीन लिया. हर्षित की गेमिंग एडिक्शन इतनी खतरनाक स्तर पर पहुंच चुकी थी कि अपने पास फोन न होने पर उस का मन बेचैन होने लगा. वह छोटीछोटी बातों पर चिढ़ने लगा. फोन छीने जाने की वजह से उस का मन इतना विचलित हो गया था कि गुस्से में उस ने खाना ही छोड़ दिया. मजबूरन उस के पिता को उसे फोन लौटाना पड़ा.

यह स्थिति आगे और भी भयावह होने लगी जब हर्षित रात को डिनर करने के बाद सोते वक्त नींद में भी ‘इस को मार’, ‘उस को मार’ बड़बड़ाने लगा. सुबह आंख खुलती तो ब्रश करने से पहले गेम खेलता. जहां कहीं भी जाता, अपना फोन हमेशा अपने साथ रखता. घर में अपने पेरैंट्स से छिपछिपा कर गेम खेलने का समय निकालता. टीनएज की इस उम्र में उस की आंखों के नीचे गहरे काले गड्ढे बन गए थे जोकि पूरी नींद न ले पाने की निशानी थी. समय से न खानेपीने से वजन में लगातार गिरावट आने लगी थी. हर्षित का सोशल इंटरैक्शन तो जैसे खत्म ही हो गया था.

हर्षित जैसे कई ऐसे बच्चे और कई ऐसे युवा हैं जो हमारे आसपास दिखाई दे जाएंगे. हो सकता है आप भी किसी ऐसे ही व्यक्ति को जानते हों जो बिलकुल हर्षित जैसा तो नहीं लेकिन गेम्स खेलने को ले कर पागल रहता हो.

मोबाइल मार्केटिंग एसोसिएशन्स पावर की ‘मोबाइल गेमिंग इन इंडिया रिपोर्ट’ के अनुसार, भारत में हर 4 में से 3 गेमर्स हर दिन कम से कम 2 बार गेम खेलते हैं. रिपोर्ट के अनुसार, ‘‘भारत 250 मिलियन (25 करोड़) मोबाइल गेमर्स के साथ दुनिया में शीर्ष 5 गेमिंग देशों में से एक है.’’ इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भारत में नैटफ्लिक्स या अन्य स्ट्रीमिंग प्लेटफौर्म्स से बिंज वौचिंग (वैब सीरीज देखने की आदत) से भी ज्यादा लोग अपने स्मार्टफोन में गेमिंग करना पसंद करते हैं.

2014 की फ्लरी की मोबाइल एनालिटिक रिसर्च के अनुसार, 2014 तक भारत में एक एंड्रोयड गेमर रोजाना औसतन 33.4 मिनट अपने स्मार्टफोन या टेबलैट पर गेम खेलते हुए खर्च करता था. लेकिन 2020 की साइबर मीडिया रिसर्च की रिपोर्ट के अनुसार, यह आंकड़ा बढ़ कर 7 घंटे प्रतिसप्ताह हो चुका है.

भले ही भारत में गेमर्स के आंकड़े आसमान छू रहे हों लेकिन यह चिंता का विषय है. इस में खुद को प्राउड फील करने की जरूरत नहीं है. बच्चों और युवाओं में बढ़ते हुए गेमिंग के इस आंकड़े से यह सम झने की जरूरत है कि लोग जानेअनजाने गेमिंग एडिक्शन के जाल में फंसते जा रहे हैं. आखिर क्या कारण है कि लोग गेमिंग एडिक्शन का शिकार हो रहे हैं? क्या सरकार या प्रशासन इस डिजिटल एडिक्शन को एडिक्शन मानता भी है? क्या इस से बचने के लिए सरकार ने कोई उपाय किया है?

क्या होता है एडिक्शन

गेमिंग एडिक्शन को सम झने से पहले यह बहुत जरूरी है कि हम पहले एडिक्शन क्या होता है, यह सम झें. एडिक्शन मस्तिष्क प्रणाली का एक पुराना रोग है जिस में इनाम, प्रेरणा और मैमोरीज शामिल होती हैं. सीधे शब्दों में इस को बयान करें तो एडिक्शन एक तरह से मस्तिष्क का डिसऔर्डर है जो किसी भी व्यक्ति को हो सकता है.

कनाडा के साइकोलौजिस्ट ब्रूस एलेग्जैंडर के अनुसार, ‘‘मनुष्य को सहज सामाजिक जुड़ाव की आवश्यकता होती है. जब हम खुश और स्वस्थ होते हैं तो हम अपने आसपास के लोगों के साथ सोशल कनैक्ट होते हैं. लेकिन जब हम खुश नहीं होते, हम अलगथलग हो जाते हैं और जीवन से हार जाते हैं तो हम उस चीज के साथ बंध जाते हैं जिस से हमें कुछ राहत मिलती है.’’

एडिक्शन इसी का ही प्रोडक्ट है. ब्रूस एलेग्जेंडर की परिभाषा के अनुसार, कोई भी व्यक्ति किसी भी पदार्थ या किसी खास व्यवहार का एडिक्ट तब तक नहीं होता जब तक वह खुश है. जब वह दुखी होता है और समाज के लोग उसे उपेक्षित कर देते हैं तो उस से उबरने के लिए वह कुछ पलों की राहत के लिए उन चीजों के साथ जुड़ जाता है जिन से उसे राहत मिलती है. राहत के इन्हीं पलों को एडिक्शन कहते हैं.

यह एडिक्शन सिर्फ नशे के साथ जुड़ने पर ही नहीं होता बल्कि यह किसी भी प्रकार का हो सकता है. उदाहरण के लिए अपने फोन को अनगिनत बार चैक करते रहना, पोर्नोग्राफी देखना, इंटरनैट पर यों ही घंटों बिता देना, शौपिंग का एडिक्शन, बिंज ईटिंग अर्थात फास्ट फूड ईटिंग का एडिक्शन, गैम्बलिंग करना, मास्टरबेशन करना, यहां तक कि रिस्क उठाने का एडिक्शन भी होता है.

दिमाग पर कैसे करता है असर?

जब हम कोई सुखद क्रिया करते हैं तो हमारा दिमाग खुद को पुरस्कृत करता है जिस से हमारे दिमाग को राहत का एहसास होता है. मानव मस्तिष्क में कोई सुखद क्रिया करने पर एक तरह का न्यूरोट्रांसमीटर रिलीज होता है जिसे डोपामिन कहते हैं. इस से न केवल हमें अच्छा महसूस होता है बल्कि यह हमें प्रोत्साहित करता है कि हम जो कर रहे हैं उसे करते रहें.

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दरअसल, डोपामिन मस्तिष्क का रिवौर्ड सिस्टम होता है. यह हमारे दिमाग को वही चीज बारबार दोहराना सिखाता है. कुछ समय बाद दिमाग में डोपामिन का इन्टेक बढ़ता जाता है. डोपामिन जितना ज्यादा बढ़ता है व्यक्ति उतना ही अधिक एडिक्शन के जाल में फंसता चला जाता है. एक बार जब कोई व्यक्ति किसी चीज का एडिक्ट हो जाता है तो वह अच्छा महसूस करने के लिए अपना एडिक्शन नहीं दोहराता बल्कि सामान्य महसूस करने के लिए एडिक्शन दोहराता है.

उदाहरण के लिए, जब कोई व्यक्ति दिनभर की भागदौड़ के बाद कुछ पलों के लिए खुद को तसल्ली पहुंचाने या राहत देने के लिए सिगरेट पीता है तो उस के इन्टेक से दिमाग में डोपामिन रिलीज होता है. जिस से व्यक्ति को राहत का एहसास होता है. दिमाग इन राहत के पलों को दोबारा से उपभोग करने के लिए इस व्यवहार को सीख जाता है और फिर दोबारा से सिगरेट पीने के लिए के्रविंग (लालसा) पैदा करता है. ज्यादा से ज्यादा रिवौर्ड (डोपामिन) प्राप्त करने की लालसा में मानव मस्तिष्क व्यक्ति को और अधिक सिगरेट पीने के लिए प्रोत्साहित करता है. जिसे मानव मस्तिष्क का रिवौर्ड सर्किट कहते हैं. जो अंत में एडिक्शन में बदल जाता है. जिस से बाहर निकलना बेहद मुश्किल हो जाता है.

गंभीर बीमारियों को न्योता

गेमिंग एडिक्शन भी अन्य किसी दूसरे एडिक्शन जितना ही खतरनाक होता है और इस के भयानक परिणाम निकल सकते हैं. अपने स्मार्टफोन में तरहतरह के मल्टीप्लेयर गेम्स खेल कर लोग बेशक एकदूसरे के साथ कनैक्ट तो होते हैं लेकिन उन की यह रुचि कब एडिक्शन में बदल जाती है, उन्हें इस बात का बिलकुल भी अंदाजा नहीं होता. कोई यह जरूर कह सकता है कि कम से कम गेमिंग करने वाले नशेडि़यों और गंजेडि़यों की तरह नशाखोर तो नहीं होते. लेकिन सचाई यह है कि गेम एडिक्ट उन से कम भी नहीं होते हैं. किसी गेम एडिक्ट को कई तरह के कौम्प्लिकेशंस का सामना करना पड़ सकता है.

वीडियो गेमिंग में शामिल फिजिकल ऐक्सरसाइज के न होने की वजह से वजन बढ़ने या घटने और अमेरिका के बच्चों और युवाओं में टाइप-2 मधुमेह के जोखिम के बारे में सार्वजनिक स्वास्थ्य ने चिंताओं को जन्म दिया है. भारत में भी यह हो सकता है यदि स्टडी की जाए तो. चिड़चिड़ापन और शौर्टटैम्पर (तेजी से गुस्सा आना) भी इस में शामिल हैं. गेम्स खेलने में बहुत समय बिताने वाले किताबें पढ़ने में कम दिलचस्पी लेते हैं. सिर्फ किताबें नहीं, जिन कामों के लिए अधिक ध्यान केंद्रित करने या लंबे समय तक ध्यान देने की आवश्यकता होती है, उन कामों को वे नहीं कर पाते हैं. नींद की खासा कमी होने लगती है क्योंकि वे अच्छी नींद से ज्यादा प्राथमिकता गेम में अपने लैवल पार करने को देते हैं. एक जगह पर लंबे समय तक बैठे रहने की वजह से कार्डियक अरैस्ट, जिसे आमभाषा में हार्टअटैक के नाम से जाना जाता है, के खतरे बढ़ जाते हैं.

मई 2019 में मध्य प्रदेश में 16 वर्षीय फुरकान कुरैशी के 6 घंटे लगातार गेम खेलने के कारण हार्टअटैक आने से मृत्यु हो गई. इस लिस्ट में और भी कई कौम्प्लिकेशंस हैं जिन्हें किसी गेम एडिक्ट को  झेलना पड़ सकता है.

मल्टीप्लेयर गेम्स और भी खतरनाक

भारत में यदि आज के समय में सब से अधिक कोई गेम बच्चों और युवाओं द्वारा खेला जाता है तो वह पबजी है. यह गेम सभी तरह के स्मार्टफोन में नहीं खेला जा सकता बल्कि इसे खेले जाने के लिए खास स्पेसिफिकेशन का फोन लेना जरूरी है. भारत में सब से ज्यादा पौपुलर गेम पबजी ही है. इसी से मिलताजुलता दूसरा गेम ‘फ्री फायर’ और ‘कौल औफ ड्यूटी’ है.

भारत में पबजी गेम की लोकप्रियता को देखते हुए ‘कुआर्ट्स’ और ‘जाना’ नाम की कंपनी ने 2018 में एक सर्वे किया था, जिस की रिपोर्ट के अनुसार, 73.4 फीसदी लोग पबजी को अपने स्मार्टफोन में खेलते हैं. 24.3 फीसदी लोग सप्ताह में 8 घंटे से अधिक समय पबजी गेम खेलने में व्यर्थ कर देते हैं. 80 फीसदी से अधिक लोग पबजी गेम में चीजें खरीदने के लिए 350 रुपए तक पैसे खर्चते हैं और 10 फीसदी लोग 1,400 रुपए तक पैसे खर्च कर देते हैं. यह तो बात हुई पबजी गेम्स से जुड़े कुछ आंकड़ों की, लेकिन पबजी गेम जितना भारत में लोकप्रिय है, यह उतना ही लोगों के लिए खतरनाक भी है. सिर्फ एडिक्शन को मद्देनजर रखते हुए नहीं, बल्कि व्यावहारिक दृष्टि से भी पबजी जैसे गेम्स लोगों की मानसिकता पर बड़ा गहरा प्रभाव डालते हैं.

पबजी गेम में एक बार में 100 लोग औनलाइन गेम को खेलते हैं. यह मरजी प्लेयर की होती है कि वह इसे अकेला खेलना चाहता है या 4 लोगों की टीम के साथ. गेम में प्रवेश करने के बाद एकएक कर हर प्लेयर को मारना होता है. जब सब मर जाते हैं तो आखिरी प्लेयर को ‘चिकन डिनर’ के खिताब से नवाजा जाता है. यह एक गेम कम से कम 30-40 मिनट तक चलता है और प्लेयर को बिना अपनी पलकें  झपकाए व ध्यान भटकाए उसे पार करना होता है. हर किसी का एक ही टारगेट होता है चिकन डिनर हासिल करना. बस, इसी की जद्दोजेहद में लोग लगे रहते हैं.

लेकिन यह सिर्फ एक गेम नहीं है बल्कि इस को खेलने से खेलने वाले के दिमाग में एक तरह की मानसिकता का जन्म हो जाता है. गेम में हथियारों का इस्तेमाल बेहद आम है. बिना हथियारों के इस्तेमाल से इसे खेलना मुमकिन ही नहीं. खेलने वाला जब 30-40 मिनट तक एक गेम में हथियारों का इस्तेमाल करता है तो उस के लिए रियल लाइफ में भी हथियारों का इस्तेमाल आम लगने लगता है.

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पबजी जैसे गेम्स न केवल हमारे दिमाग के साथ खेल रहे हैं बल्कि हमारे लिए एक नया ऐसा माहौल भी स्थापित कर रहे हैं जहां हिंसक गतिविधियां या कृत्य सामान्य व प्रभावशाली हैं. यह हमारे माइंडसैट को बदल रहा है जो पूरी तरह से सोशल नौर्म्स (सामाजिक मानदंडों) के खिलाफ है. पबजी जैसे गेम्स आक्रामक व्यवहार, विचारों और भावनाओं को ट्रिगर करते हैं जो अंत में हिंसा और आत्महत्या जैसी घटनाओं को प्रोत्साहित करते हैं.

लगातार इस तरह की गेमिंग हमारे जीवन की परिस्थितियों में निर्णय लेने की क्षमताओं को भी प्रभावित करता है और हमारी एकाग्रशक्ति को प्रभावित करता है जिस के कारण लोग उन के काम और स्टडीज में दिलचस्पी नहीं ले पाते और नुकसान या विफलता को  झेलना पड़ता है. बल्कि, पबजी गेम में रीस्टार्ट करने का बटन लोगों के दिमाग में इतना प्रभाव डालता है कि लोग अपनी असली जिंदगी को भी किसी गेम की तरह ही सम झने लगते हैं. जब वे लाइफ में किसी विफलता का सामना करते हैं तो उन से उन की विफलता का बो झ सहन नहीं हो पाता जिस कारण बच्चों और युवाओं को डिप्रैशन का सामना करना पड़ता है.

पबजी जैसे गेम्स खेलने वाले गेम में इतना अधिक ध्यान केंद्रित कर देते हैं कि वे अपने दोस्तों व परिवारों की ओर ध्यान ही नहीं देते. लोग अपने करीबी लोगों से गेम खेलने के बहाने ढूंढ़ने लगते हैं, उन से  झूठ बोलने लगते हैं. गेम खेलने से टोकने वाले लोगों से वे खुद को आइसोलेट (अलगथलग) कर लेते हैं. न तो कहना मानते हैं और न ही किसी बात पर गौर करते हैं. इन सभी के साथसाथ फिजिकल प्रौब्लम्स होती हैं, वह अलग है.

कैरियर के लिए गेमिंग

लौकडाउन की वजह से जब लोग अपने घरों में कैद हो गए तो बहुसंख्य बच्चे और युवा अपने घरों में स्मार्टफोन्स के साथ चिपक गए. ऐसे में वे गेम खेलने के साथसाथ इस स्पोर्ट यानी गेम को अपने कैरियर के रूप में भी अपनाने के बारे में विचार कर रहे थे. कइयों ने तो गेम्स खेलने की अपनी वीडियोज को यूट्यूब पर डालना शुरू कर दिया था. कई अपनी गेम की लाइव स्ट्रीमिंग करने लगे. इन सब में कुछ मुट्ठीभर युवाओं को लोकप्रियता हासिल भी हो गई. कुछ गेमर्स कंप्यूटर कंपनियों के ब्रैंड एम्बेसडर बन गए. कुछ को यूट्यूब पर अपनी वीडियोज पर प्रचार आने शुरू हो गए. ऐसे में भारत में एक बड़ी संख्या में युवाओं को यह लगने लगा कि वे भी अपने पैशन को अपना कैरियर बना लेंगे.

लेकिन आखिर किस कीमत पर? अपने पैशन को अपना कैरियर बना लेने का सपना गलत नहीं है. यह भी सम झने की जरूरत है कि इस भेड़चाल में केवल कुछ गिनेचुने लोग ही सफल हो पाते हैं. इस के साथसाथ गेमिंग मनोरंजन का साधन जरूर हो सकता है पर समाज में यह अनप्रोडक्टिव कामों में से एक है. गेमिंग से किसी वस्तु का निर्माण नहीं किया जा सकता है.

गुम है किसी के प्यार में बना टीवी का नंबर वन शो, टीम ने ऐसे मनाया जश्न

स्टार प्लस के सीरियल गुम है किसी के प्यार में (Ghum Hai Kisikey Pyaar Meiin) में इन दिनों कई ट्विस्ट देखने को मिल रहे हैं. इसी कारण दर्शकों को भी शो की कहानी काफी पसंद आ रही हैं, जिसके कारण सीरियल टीआरपी लिस्ट में नंबर वन पर पहुंच चुका है, जिसके चलते सई से लेकर पाखी समेत सभी सितारे पार्टी करते हुए नजर आ रहे हैं. आइए आपको दिखाते हैं सेलिब्रेशन की खास फोटोज…

अनुपमा को पीछे छोड़ नंबर वन बना सीरियल

बीते कई हफ्तों से टीआरपी लिस्ट में नंबर वन पर बना हुआ सीरियल अनुपमा दूसरे नंबर पर पहुंच गया है. वहीं सीरियल गुम है किसी के प्यार में पहले नंबर पर दर्शकों की बदौलत पहुंच चुका है. इसी कारण शो के सितारों का एक्साइटेमेंट सातवें आसमान पर है, जिसका अंदाजा सोशलमीडिया पर वायरल फोटोज से लगाया जा सकता है, जिसमें  सितारे जश्न मनाते हुए नजर आ रहे हैं.

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विराट संग मस्ती करती दिखीं सई-पाखी

 

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जहां विराट यानी नील भट्ट ने सीरियल की पूरी टीम की सोशलमीडिया पर पोस्ट शेयर करते हुए जमकर तारीफ की है. तो वहीं सई यानी आयशा सिंह और पाखी यानी ऐश्वर्या शर्मा और दोनों विराट संग मस्ती करते हुए अपनी खुशी को जाहिर करते हुए नजर आए.

पाखी-सई की दिखी औफस्क्रीन कैमेस्ट्री

 

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शो के नंबर वन पर पहुंचने पर सौतन पाखी संग सई की औफस्क्रीन कैमेस्ट्री देखने को मिली है. हाल ही में ऐश्वर्या शर्मी ने अपनी और आयशा सिंह की फोटोज शेयर की है, जिसमें दोनों मस्ती करते नजर आ रहे हैं.

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कहानी में आएगा धमाकेदार ट्विस्ट

 

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सीरियल ‘गुम है किसी के प्यार में’ के अपकमिंग एपिसोड में आप देखेंगे कि सई, विराट से अपने दिल की बात शेयर करते हुए बताएगी कि वह अपने रिश्ते को एक और मौका देना चाहती है. साथ ही वह विराट को बताएगी कि अपने रिश्ते के साथ वह पुलकित और देवयानी के रिश्ते को भी पूरा होते हुए देखना चाहती है, जिसके बाद विराट और सई का रोमांस भी दर्शकों को देखने को मिलेगा.

‘ये रिश्ते हैं प्यार के’ एक्टर शाहीर शेख के घर जल्द गूंजेगी किलकारी! नवंबर में हुई थी शादी

कोरोना के कहर के बीच जहां कई सितारे शादी के बंधन में बंध चुके हैं तो वहीं कई सेलेब्स ने अपने पेरेंट्स बनने की खुशी से फैंस को चौंका दिया है. इसी बीच खबर है कि टीवी के हैंडसम हंक एक्टर शाहीर शेख (Shaheer Sheikh) पिता बनने वाले हैं. आइए आपको बताते हैं पूरी खबर…

पिता बनने वाले हैं शाहीर

खबरों की मानें तो पॉप्युलर टीवी ऐक्टर शाहीर शेख (Shaheer Sheikh) ने रुचिका कपूर (Ruchikaa Kapoor) जल्द ही पेरेंट्स बनने वाले हैं. कोरोना महामारी के हालातों को देखते हुए शाहीर शेख और रुचिका कपूर इस खबर को किसी को भी बताना नहीं चाह रहे हैं. दोनों ने अभी तक किसी प्लेटफॉर्म पर प्रेग्नेंसी खबर को सार्वजनिक नहीं किया है. हालांकि मीडिया में ये खबर आने के बाद से फैंस काफी एक्साइटेड हैं और दोनों को बधाई दे रहे हैं.

 

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नवंबर में हुई थी शादी

 

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एक्टर शाहीर शेख और रुचिका कपूर की मुलाकात फिल्म ‘जजमेंटल है क्या’ की मेकिंग के दौरान एक कॉमन फ्रेंड के जरिए हुई थी, जिसके बाद दोनों ने एक दूसरे को दो साल डेट करने के बाद साल 2020 नवंबर में शादी के बंधन में बंधने का फैसला कियाथे. शाहीर शेख और रुचिका कपूर ने कोर्ट में शादी करने के बाद पहली फोटो फैंस के साथ सोशलमीडिया पर शेयर की थी.

 

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बता दें, टीवी एक्टर शाहीर शेख कई टीवी सीरियल में काम कर चुके हैं. वहीं ‘महाभारत’ में ‘अर्जुन’ के रोल के कारण वह फैंस के बीच पोपुलर हो गए थे. वहीं शाहीर शेख ‘कुछ रंग प्यार के ऐसे भी’ और ‘ये रिश्ते हैं प्यार के’ सीरियल के जरिए फैंस के बीच काफी सुर्खियां बटोर चुकी हैं.

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हिजाब: भाग 1- क्या चिलमन आपा की चालों से बच पाई

‘‘आपा,दरवाजा बंद कर लो, मैं निकल रही हूं. और हां, आज आने में थोड़ी देर हो सकती है. स्कूटी सर्विसिंग के लिए दूंगी.’’

‘‘अब्बा ने निगम का टैक्स भरने को भी तो दिया था. उस का क्या करेगी?’’

‘‘भर दूंगी… और भी कई काम हैं. रियाद और शिगुफ्ता की शादी की सालगिरह का गिफ्ट भी ले लूंगी.’’

‘‘ठीक है, जो भी हो, जल्दी आना. 2 घंटे में आ जाना. ज्यादा देर न हो,’’ कह आपा ने दरवाजा बंद कर लिया.

मैं अब गिने हुए चंद घंटों के लिए पूरी तरह आजाद थी. जब भी घर से निकलती हूं मेरी हाथों में घड़ी की सूईयां पकड़ा दी जाती हैं. ये सूईयां मेरे जेहन को वक्तवक्त पर वक्त का आगाह कराती बेधती हैं- अपराधबोध से, औरत हो कर खतरों के बीच घूमने के डर से, खानदान की नाक की ऊंचाई कम हो जाने के खतरे से और मैं दौड़ती होती हूं काम निबटा कर जल्दी दरवाजे के अंदर हो जाने को.

किन दिमागी खुराफातों में उलझा दिया मैं ने… इतने बगावती तेवर तो हिजाब की तौहीन हैं. खैर, क्यों न इन चंद घंटों में लगे हाथ अपने घर वालों से भी रूबरू करा दूं.

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तो हम कानपुर के बाशिंदे हैं. मेरे अब्बा होम्योपैथी के डाक्टर हैं. 70 की उम्र में भी उन की प्रैक्टिस अच्छी चल रही है. मेरे वालिदान अपनी बिरादरी के हिसाब से बड़े खुले दिलोदिमाग वाले हैं, ऐसा कहा जाता है.

6 बहनों में मैं सब से छोटी. मैं ने माइक्रोबायोलौजी में एमएससी की है. मेरी सारी बहनों को भी अच्छी तालीम की छूट दी गई थी और वे भी बड़ी डिगरियां हासिल करने में कामयाब हुईं. हमें याद है हम सारी बहनें बढि़या रिजल्ट लाने के लिए कितनी जीतोड़ मेहनत करती थीं और पढ़ने से आगे कैरियर भी मेरे लिए माने रखता ही था. मुझे एक प्राइवेट संस्थान में अच्छी सैलरी पर लैक्चरर की जौब मिल रही थी. लेकिन यह बात मेरे अब्बा की खींची गई आजादी की लकीर से उस पार की हो जाती थी.

साहिबा आपा को छोड़ वैसे तो मेरी सारी बहनों ने ऊंची डिगरियां हासिल की थीं, लेकिन दीगर बात यह भी थी कि अब वे सारी अपनीअपनी ससुराल की मोटीतगड़ी चौखट के अंदर बुरके में कैद थीं. हां, मेरे हिसाब से कैद ही. उन्होंने अपने सर्टिफिकेट को दिमाग के जंग लगे कबूलनामे के बक्से में बंद कर राजीखुशी ताउम्र इस तरह बसर करने का अलिखित हुक्म मान लिया था.

वे उन गलतियों के लिए शौक से शौहर की डांट खातीं, जिन्हें उन के शौहर भी अकसर सरेआम किया करते. वे सारी खायतों को आंख मूंद कर मानतीं और लगे हाथों मुझे मेरे तेवर पर कोसती रहतीं.

वालिदान के घर मैं और सब से बड़ी आपा रहती थीं. बाकी मेरी 4 बहनों की कानपुर के आसपास ही शादी हुई थी. ये सभी बहनें पढ़ीलिखी होने के साथसाथ बाहरी कामकाज में भी स्मार्ट थीं. वैसे अब ये बातें बेजा थीं, ससुराली कायदों के खिलाफ थीं. सब से बड़ी आपा साहिबा की शादी कम उम्र में ही हो गई थी. उन का पढ़ाई में मन नहीं था और शादी के लिए वे तैयार थीं.

बाद के कुछ सालों में उन का तलाक हो गया और वे अपने बेटे रियाद के साथ हमारे पास रहने आ गईं. मेरी दूसरी आपा जीनत की शादी पड़ोस के गांव में हुई थी. उन की बेटी शिगुफ्ता की अच्छी तालीम के लिए अब्बा ने अपने पास रखा. उम्र बढ़ने के साथ रियाद और शिगुफ्ता के बीच ‘गुल गुलशन गुलफाम’ होने लगे तो इन लोगों की शादी पक्की कर दी गई.

अब्बा के बनाए घर में हम सब बड़े प्रेम से रहते थे. हां, प्रेम के बाड़े के अंदर उठापटक तब होती जब अब्बा की दी गई आजादी के निशान से हमारे कदम कुछ कमज्यादा हो जाते.

घर में पूरी तरह इसलामी कानून लागू था. बावजूद इस के अब्बा कुछ हद तक अपने खुले विचारों के लिए जाने जाते थे. मगर यह ‘हद’ जिस से अब मेरा ही हर वक्त वास्ता पड़ता मेरे लिए कोफ्त का सबब बन गया था. मैं चिढ़ी सी रहती कि मैं क्यों न अपनी तालीम को अपनी कामयाबी का जरीया बनाऊं? क्यों वालिदान का घर संभालते ही मैं जाया हो जाऊं?

सारे काम निबटा कर रियाद और शिगुफ्ता के तोहफे ले कर मैं जब अपनी स्कूटी सर्विसिंग में देने पहुंची तो 4 बजने में कुछ ही मिनट बाकी थे. मन में बुरे खयालात आने लगे… घर में फिर वही बेबात की बातें… दिमाग गरम…

मैं स्कूटी दे कर जल्दी सड़क पर आई और औटो का इंतजार करने लगी. अभी औटो के इंतजार में बेचैन ही हो रही थी कि पास खड़ी एक दुबलीपतली सांवली सामान्य से कुछ ऊंची हाइट की लड़की विचित्र स्थिति से जूझती मिली. उस की तुलना में उस की भारीभरकम ड्युऐट ने उसे खासा परेशान किया हुए था.

सर्विस सैंटर के सामने उस की गाड़ी सड़क से उतर गई थी और वह उसे खींच कर सड़क पर उठाने की कोशिश में अपनी ताकत जाया कर रही थी. हाइट वैसे मेरी उस से भले ही कुछ कम थी, लेकिन अपनी बाजुओं की ताकत का जायजा लिया मैं ने तो वे उस से 20 ही लगीं मुझे. मैं ने पीछे से उस की गाड़ी को एक झटके में यों धक्का दिया कि गाड़ी आसानी से सड़क पर आ गई. पीछे से अचानक मिल गई इस आसान राहत पर उसे बड़ी हैरानी हुई. उस ने पीछे मुड़ कर मुझे देख मुझ पर अपनी सवालिया नजर रख दी.

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मैं ने मुसकरा कर उस का अभिवादन किया. बदले में उस सलोनी सी लड़की ने मुझ पर प्यारी सी मुसकान डाली. मैं पढ़ाई पूरी कर के 3 सालों से घर में बैठी हूं, मेरी उम्र 26 की हो रही. उस की भी कोई यही होगी. उस की शुक्रियाअदायगी से अचानक ऐसा लगा मुझे जैसे कभी हम मिली थीं.

मेरी उम्मीद से आगे उस ने मुझ से पूछ लिया कि मैं कहां जा रही हूं. वह मुझे मेरी मंजिल तक छोड़ सकती है. तब तक औटो को मैं ने रोक लिया था, इसलिए उसे मना करना पड़ा. हां, वह मुझे बड़ी प्यारी लगी थी, इसीलिए मैं ने उस से उस का फोन नंबर मांग लिया.

औटो में बैठ कर मैं उस सलोनी लड़की के बारे में ही सोचती रही…

वह नयनिका थी. छोटीछोटी आंखें, छोटी सी नाक पर मासूम सी सूरत. सांवली त्वचा निखरी ऐसी जैसे चमक शांति और बुद्धि की हो. बारबार मेरे जेहन में एहसास जगता रहा कि इसे मैं कहीं मिली हूं, लेकिन वे पल मुझे याद नहीं आए.

शाम को 4 बजे तक घर लौट आने का हुक्मनामा साथ ले गई थी, लेकिन अब 6 बजने में कुछ ही मिनटों का फासला था.

सूर्य का दरवाजा बंद होते ही एक लड़की बाहर महफूज नहीं रह सकती या तो बेवफाई की कालिख या फिर बिरादरी वालों की तोहमत अथवा औरत पर मंडराता जनूनी काला साया.

कहते हैं हिजाब हट रहा है. हिजाब तो समाज के दिमाग पर पड़ा है. समाज की सोच हिजाब के पीछे चेहरा छिपाए खड़ी है… वह रोशनी से खौफ खाती है. जब तक उस हिजाब को नहीं हटाओगे औरतों के हिजाब हट भी गए तो क्या?

अब्बा अम्मी पर बरस रहे थे, ‘‘लड़की जात को ज्यादा पढ़ालिखा देने से

यही होता है. मैं ही कमअक्ल था जो अपनी बिरादरी के उसूलों के खिलाफ जा कर लड़कियों को इतना पढ़ा डाला.. पैर मैं चटके बांध दिए… उस की सभी बहनें खानदान के रिवाजों की कद्र करते चल रही हैं… उन की कौन सी बेइज्जती हो रही है? वे तो किसी बात का मलाल नहीं करतीं… और इस छोटी चिलमन का यह हाल क्यों? मैं कहे देता हूं, वह कितना भी रोक ले, वाकर अली से उसे निकाह पढ़ना ही है. उस के आपा के बेटेबेटियों की शादी हो गई और यह अभी तक…

‘‘कैरियर बनाएगी… और क्या बनाएगी? इतना पढ़ा दिया… बिन बुरके यूनिवर्सिटी जाती रही… अब भी बुरका नहीं पहनती. मैं भी कुछ कहता नहीं… चलो जमाने के हिसाब से हम भी उसे छूट दें, लेकिन यह तो किसी को कुछ मानना ही नहीं चाहती?’’

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अब्बा की पीठ दरवाजे की तरफ थी.

उन्होंने देखा नहीं मुझे. वैसे मुझे और उन्हें इस से फर्क भी नहीं पड़ने वाला था. मुझे जितनी आजादी थमाई गई थी, उस का सारा रस बारबार निचोड़ लिया जाता था और मैं सूखे हुए चारे की जुगाली करती जाती थी. वैसे मेरा मानना तो यह था कि जो दी गई हो वह आजादी कहां? मेरी शादी मेरे खाला के बेटे से तय करने की पहल चल रही थी.

वाकर अली नाम था उस का. वह मैट्रिक पास था. अपनी बैग्स की दुकान थी.

आगे पढ़ें- दिनरात एक कर के ईमानदारी से…

हिजाब: भाग 2- क्या चिलमन आपा की चालों से बच पाई

दिनरात एक कर के ईमानदारी से कमाई गई मेरी माइक्रोबायोलौजी की एमएससी की डिगरी चुल्लू भर पानी मांग रही थी डूब मरने को… और घर वाले मेरी बहनों का नाम गिना रहे थे. कैसे

वे ऊंची डिगरियां ले कर भी कम पढ़ेलिखे बिजनैस और खेती करने वाले पतियों से बाखुशी निभा रही हैं… वाकई मैं घर वालों की नजरों में उन बहनों जैसी अक्लमंद, गैरतमंद और धीरज वाली नहीं थी.

वाकर अली आज मुझे देखने आया. वैसे देखा मैं ने उसे ज्यादा… मुझ जैसी हाइट 5 फुट

5 इंच से ज्यादा नहीं होगी. सामान्य शक्लसूरत वैसे इस की कोई बात नहीं थी, लेकिन जो बात हुई वह तो जरूर कोई बात थी.

वकौल वाकर अली, ‘‘घर पर रह लेंगी न? हमारे यहां शादी के बाद औरत को घर से बाहर अकेले घूमते रहने की इजाजत नहीं होती… और आप को बुरके की आदत डाल लेनी होगी. आप को बिरादरी का खयाल रखना चाहिए था.’’

मैं अब्बा की इज्जत का खयाल कर चुप रही. मगर मैं चुप नहीं थी. सोच रही थी कि ये इजाजत देने वाले क्याक्या सोच कर इजाजत देते हैं.

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जेहन में सवाल थे कि क्याक्या फायदा होता है अगर आप के घर लड़कियां शादी बाद घर से अकेले नहीं निकलें या क्या नुकसान हो जाता है अगर निकलें तो? क्या बीवी पर भरोसे की कमी है या मर्दजात पर…

खानदानी आबरू के नाम पर काले सायों से ढकी रहने वाली औरतों की इज्जत घर में कितनी महफूज है?

वाकर अली मेरे अब्बा की तरह ही कई सारे कानून मुझ पर थोप कर चला गया कि अगर राजी रहूं तो अब्बा उस से बात आगे बढ़ाएं.

अब्बा तो जैसे इस बंदे के गले में मुझे बांधने को बेताब हुए जा रहे थे. घर में 2 दिन से इस बात पर बहस छिड़ी थी कि आखिर मुझे उस आदमी से दिक्कत क्या है? एक जोरू को चाहिए क्या- अपना घरबार, दुकान इतना कमाऊ पति, गाड़ी, काम लेने को घर में 2-3 मददगार हमेशा हाजिर… क्या बताऊं, क्या नहीं चाहिए मुझे? मुझे तो ये सब चाहिए ही नहीं.

मैं ने सोचा एक बार साहिबा आपा से बात की जाए. दीदी हैं कुछ तो समझेंगी मुझे. अभी मैं सोच कर अपने बिस्तर से उठी ही थी कि साहिबा आपा मेरे कमरे का दरवाजा ठेल अंदर आ गईं. बिना किसी लागलपेट के मैं ने कहा, ‘‘आपा, मैं परेशान हूं आप से बात करने को…’’

बीच में टोक दिया आपा ने, ‘‘हम सब भी परेशान हैं… आखिर तू निकाह क्यों नहीं करना चाहती? वाकर अली किस लिहाज से बुरा है?’’

‘‘पर वही क्यों?’’

‘‘हां, वही क्योंकि वह हमारी जिन जरूरतों का खयाल रख रहा है उन का और कोई नहीं रखेगा.’’

मैं उत्सुक हो उठी थी, ‘‘क्या? कैसी मदद?’’

‘‘वह तुझे बुटीक खुलवा देगा, तू घर पर ही रह कर कारीगरों से काम करवा कर पैसा कमाएगी.’’

‘‘पर सिर्फ पैसा कमाना मेरा मकसद नहीं… मैं ने जो पढ़ा वह शौक से पढ़ा… उस डिगरी को बक्से में बंद ही रख दूं?’’

‘‘बड़ी जिद्दी है तू!’’

‘‘हां, हूं… अगर मैं कुछ काम करूंगी तो अपनी पसंद का वरना कुछ नहीं.’’

‘‘निकाह भी नहीं?’’

‘‘जब मुझे खुद कोई पसंद आएगा तब.’’

साहिबा आपा गुस्से में पैर पटकती चली गईं. मैं सोच में पड़ गई कि वाकर अली से ब्याह कराने का बस इतना ही मकसद है कि वह मुझे बुटीक खुलवा देगा. वह बुटीक न भी खुलवाए तो इन लोगों को क्या? बात कुछ हजम नहीं हो रही थी. मन बहुत उलझन में था.

बिस्तर पर करवटें बदलते मेरा ध्यान पुरानी बातों और पुराने दिनों पर चला गया.

अचानक नयनिका याद आ गई. फिर मैं उसे पुराने किसी दिन से मिलान करने की कोशिश करने लगी. अचानक जैसे घुप्प अंधेरे में रोशनी जल उठी…

अरे, यह तो 5वीं कक्षा तक साथ पढ़ी नयना लग रही है… हो न हो वही है… अलग सैक्शन में थी, लेकिन कई बार हम ने साथ खेल भी खेले. उस की दूसरी पक्की सहेलियां उसे नयना बुलाती थीं और इसीलिए हमें भी इसी नाम का पता था. वह मुझे बिलकुल भी नहीं समझ पाई थी. ठीक ही है…

16-17 साल पुरानी सूरत आसान नहीं था समझना. रात के 12 बजने को थे. सोचा उसे एक मैसेज भेज रखूं. अगर कहीं वह देख ले तो उस से बात करूं. संदेश उस ने कुछ ही देर में देख लिया और मुझे फोन किया.

बातों का सिलसिला शुरू हो कर हम ज्यों 5वीं क्लास तक पहुंचे हमारी घनिष्ठता गहरी

होती गई. जल्दी मिलने का तय कर हम ने फोन रखा तो बहुत हद तक मैं शांत महसूस कर

रही थी.

कुछ ही मुलाकातों में विचारों और भावनाओं के स्तर पर मैं खुद को नयनिका के करीब पा रही थी. वह सरल, सभ्य शालीन और कम बोलने वाली लड़की थी. बिना किसी ऊपरी पौलिश के एकदम सहज. उस के घर में पिता सरकारी अफसर थे और बड़ा भाई सिविल इंजीनियर. मां भी काफी पढ़ीलिखी महिला थीं, लेकिन घर की साजसंभाल में ही व्यस्त रहतीं.

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नयनिका कानपुर आईआईटी से ऐरोस्पेस इंजीनियरिंग में डिगरी हासिल कर के अब पायलट बनने की नई इबारत लिख रही थी.

इतनी दूर तक उस की जिंदगी भले ही समतल जमीन पर चलती दिख रही हो, लेकिन उस की जिंदगी की उठापटक से मैं भी दूर नहीं रह पा

रही थी.

इधर मेरे घर पर अचानक अब्बा अब वाकर अली से निकाह के लिए जोर देने के साथसाथ बुटीक खोल लेने की बात मान लेने को ले कर मुझ से लड़ने लगे थे. साथ कभीकभार अम्मी भी बोल पड़तीं. हां, आपा सीधे तो कुछ नहीं कहतीं, लेकिन उन का मुझ से खफा रहना मैं साफ समझती थी. अब तो रियाद और शिगुफ्ता भी बुटीक की बात को ले कर मुझ से खफा रहने लगे थे. अलबत्ता निकाह की बात पर वे कुछ न कहते. मैं बड़ी हैरत में थी. दिनोदिन घर का माहौल कसैला होता जा रहा था. आखिर बात थी क्या? मुझे भी जानने की जिद ठन गई.

साहिबा आपा से पूछने की मैं सोच ही रही थी कि रात को किचन समेटते वक्त बगल के कमरे से अब्बा की किसी से बातचीत सुनाई पड़ी. अब्बा के शब्द धीरेधीरे हथौड़ा बन मेरे कानों में पड़ने लगे.

अच्छा, तो यह वाकर अली था फोन पर.

रियाद की प्राइवेट कंपनी में घाटा होने की वजह से उस के सिर पर छंटनी की

तलवार लटक रही थी. इधर शिगुफ्ता को बुटीक का काम अच्छा आता था. रियाद और शिगुफ्ता के लिए एक विकल्प की तलाश थी. मुझ से बुटीक खुलवाना. लगे हाथ मेरे हाथ पीले हो जाएं… रियाद और शिगुफ्ता को मेरे नाम से बुटीक मिल जाए… मालिकाना हक रियाद और शिगुफ्ता का रहे, लेकिन मेरा नाम आगे कर के कामगारों से काम लेने का जिम्मा मेरा रहे. शिगुफ्ता को जब फुरसत मिले वह बुटीक जाए.

आगे पढ़ें- मैं रात को साहिबा आपा के पास जा बैठी…

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फैमिली डॉक्टर है अहम

85 वर्षीय वर्मा जी को अचानक बुखार और थकान सी महसूस हुई तो उन्होंने पेरासिटामोल ले ली परन्तु दो तीन दिन तक जब बुखार बार बार आने लगा साथ ही खांसी भी प्रारम्भ हो गयी तो परिवार के सदस्यों को चिंता हुई पर किसे दिखाएं, कौन अच्छा डॉक्टर है, किसका इलाज अच्छा है जैसे प्रश्नों में ही पूरा दिन निकल गया तब तक वर्मा जी की स्थिति और बिगड़ गयी. आनन फानन में अस्पताल ले जाया गया जहां बड़ी मुश्किल से उनकी जान बचाई जा सकी. डॉक्टरों के अनुसार 60% फेफड़े संक्रमित हो चुके थे वहीं जैन साहेब को जैसे ही हल्की खांसी और मामूली सा बुखार हुआ उन्होंने तुरंत फोन पर अपने फैमिली डॉक्टर को बताया तो उन्होंने ट्रीटमेंट प्रारम्भ करने के साथसाथ टेस्ट करवाने की सलाह दी. इस तरह रिपोर्ट आने से पूर्व शुरुआती दौर में ही इलाज मिल जाने से जैन साहेब एक सप्ताह में ही ठीक हो गए. कोरोना की इस दूसरी लहर में ऐसे अनेकों केस सामने आए जहां प्रारंभिक डॉक्टरी सलाह के अभाव में रोग ने गम्भीर रूप ले लिया. यद्यपि फैमिली डॉक्टर की भूमिका तो सदा से ही महत्वपूर्ण रही है परन्तु कोरोना से पूर्व सम्बंधित डॉक्टर या हॉस्पिटल जाने का विकल्प मरीज के पास होता था परन्तु आज समय समय पर होने वाले लॉक डाउन और कोरोना के अनपेक्षित संक्रमण के डर के कारण वह विकल्प नदारद है.

क्यों जरूरी है फैमिली डॉक्टर

कोरोना काल से पूर्व फेमिली डॉक्टर शब्द पैसे वालों के चोचले जैसा लगता था वहीं आज फैमली डॉक्टर का होना वक़्त की जरूरत बन गया है. क्योंकि कोरोना ऐसी महामारी है जिसमें डॉक्टर आपको प्रत्यक्ष न देखकर फोन पर ही सलाह देना उचित समझता है. ऐसे में एक ऐसे डॉक्टर की आवश्यकता होती है जिससे आप सहज स्वाभाविक होकर किसी भी वक्त बात करके अपनी समस्याएं खुलकर बता सकें.

फैमिली डॉक्टर होने से घर से बाहर जाए बिना ही काफी हद तक समस्या हल हो जाती है.

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किसे बनाएं फैमिली डॉक्टर

फेमिली डॉक्टर अर्थात एक ऐसा डॉक्टर जिसके पास आप अक्सर बीमार पड़ने पर जाते हों, जिसके इलाज पर आपको भरोसा हो. आपका फैमिली डॉक्टर किसी भी विधा  अथवा कोई भी रोग विशेषज्ञ हो सकता है. आवश्यक है कि आपके बीमार होने पर वह आपको समुचित मार्गदर्शन प्राप्त दे सके. जे. पी. हॉस्पिटल भोपाल की सीनियर चिकित्सक डॉ सुधा अस्थाना कहतीं हैं, “,वर्तमान दौर में फैमिली डॉक्टर होना बहुत जरूरी है क्योंकि कोरोना से पूर्व बीमार होने पर हॉस्पिटल जाना बहुत सुगम था वहीं आज हॉस्पिटल जाने पर एक तो संक्रमण का खतरा दूसरे डॉक्टर भी संक्रमण के डर से मरीज को प्रत्यक्ष नहीं देखना चाहते.” उज्जैन के सीनियर डॉक्टर एम. पी. चतुर्वेदी कहते हैं, “फैमिली डॉक्टर चुनते समय दो बातों का ध्यान रखना अत्यंत आवश्यक है कि एक तो वह आपके घर के पास में हो दूसरे कम से कम एम. बी. बी. एस. अवश्य हो. झोलाछाप डॉक्टरों से बचना अत्यंत आवश्यक है.”

फैमिली डॉक्टर होने के फायदे

-आपके फैमिली डॉक्टर के पास चूंकि आप अक्सर जाते हैं ऐसे में उसे आपकी बॉडी की टेंडेंसी और परिवार के सदस्यों की हिस्ट्री की पूरी जानकारी होती है और उसके अनुसार वह एक कॉल पर ही आपको ट्रीटमेंट बता देता है. फैमिली डॉक्टर के बारे में अपना अनुभव शेयर करते हुए शर्मा जी बताते हैं कि “मैं कहीं भी होता हूं बस अपने डॉक्टर को एक काल या मेसेज करता हूं वे फोन पर ही मुझे ट्रीटमेंट बता देते हैं क्योंकि उन्हें मेरे और फैमिली के हर सदस्य के बारे में सब कुछ पता है.”

-फैमिली डॉक्टर होने से बीमार होने पर आपको डॉक्टर की तलाश में इधर उधर भटकना नहीं पड़ता और इलाज शुरू होने में भी देर नहीं होती. साथ ही आप अनावश्यक टेस्ट आदि से भी बच जाते हैं हाल ही मैं कोरोना से रिकवर हुईं वीणा जी बताती हैं, “जब हम कोरोना ग्रस्त हुए तो हमारे फैमिली डॉक्टर ने सी टी स्कैन जैसे अन्य गैरजरूरी टेस्ट करवाने से साफ मना कर दिया जिससे पैसों की बचत तो हुई ही साथ ही अनावश्यक तनाव से भी हम बच पाए.”

-किसी भी बीमारी विशेषकर कोरोना जैसी महामारी में एक डॉक्टर से सम्पर्क अत्यंत आवश्यक होता है ताकि किसी भी इमरजेंसी भी उससे सम्पर्क किया जा सके.”होम आइसोलेशन में रहकर अपना इलाज करा रहे मुकुंद का एक रात अचानक ऑक्सीजन लेवल कम होने लगा तो, अपने फैमिली डॉक्टर की सलाह पर वे तुरन्त हॉस्पिटल में भर्ती हो गए और इस प्रकार समय पर डॉक्टरी सलाह मिल जाने पर वे ठीक हो गए.

-रीता जी के एक पैर में कई दिनों से बहुत दर्द था, कोई उन्हें न्यूरोसर्जन के पास जाने की सलाह देता तो कोई फिजियोथेरेपिस्ट के पास, पर जब उन्होंने अपने फैमिली डॉक्टर को बताया तो उन्होंने ऑर्थोपेडिक के पास जाने की सलाह दी. जिसने उन्हें केवल विटामिन और कैल्शियम की दवाइयां दीं तीन माह बाद वे पूरी तरह से ठीक हो चुकीं थीं. कई बार बीमार होने पर समझ नहीं आता कि किसे दिखाएं ऐसे में आपके फैमिली डॉक्टर को चूंकि रोग विशेषज्ञों की भी भली भांति जानकारी होती है तो उसकी मदद से आप सही डॉक्टर के पास पहुंच जाते हैं. जिससे शरीर और पैसा दोनों ही बच जाते हैं.

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-सीमा जी फैमिली डॉक्टर को बीमारी के समय मानसिक अवस्था को संतुलित बनाएं रखने और रोग से लड़ने के लिए अत्यंत आवश्यक मानतीं हैं वे कहतीं हैं,”आधी बीमारी तो डॉक्टर से बात करके ही दूर हो जाती है. जब मुझे प्रारम्भिक चरण में कैंसर हुआ तो इलाज भले जी दिल्ली से चल रहा था परन्तु आगरा में मेरे फैमिली डॉक्टर ने हर दिन बात करके मुझे हिम्मत दी और मैंने जंग जीत ली.”

आज जो विश्वभर में कोरोना का परिदृश्य है उसमें कोरोना काफी लंबे समय तक हमारे साथ ही रहने वाला है इसलिए समय की नजाकत को पहचानकर अपने फैमिली डॉक्टर को सुनिश्चित करें. आश्चर्य की बात यह है कि भारत में लोग अपने धार्मिक गुरु और पंडित जी तो सुनिश्चित करते हैं परन्तु जीवन और सेहत के लिए अत्यंत आवश्यक डॉक्टर तय करने के बारे में विचार तक नहीं करते.

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