Hindi Stories : बचाव – क्या संजय की पत्नी को मिला दूसरा मौका

Hindi Stories : अपने लंबे बाल कंधे तक कटवा कर मैं ने अपना हेयर स्टाइल पूरी तरह बदल लिया था. ब्यूटीपार्लर हो कर आर्ई थी, इसलिए चेहरा भी कुछ ज्यादा ही दमक रहा था. कुल मिला कर मैं यह कहना चाह रही हूं कि उस रात संजय के साथ बाजार में घूमती हुई मैं इतनी सुंदर लग रही थी कि मेरे लिए खुद को पहचानना भी आसान नहीं था.

फिर मुझे संजय के बौस अरुण ने नहीं पहचाना तो कोई हैरानी की बात नहीं, लेकिन मुझे न पहचानना उन्हें बहुत महंगा पड़ा था.

बाजार में एक दुकानदार ने रेडीमेड सूट बाहर टांग रखे थे. मैं उन्हें देख रही थी जब अरुण की आवाज मेरे कानों तक पहुंची. मैं लटके हुए एक सूट के पीछे थी, इस कारण वे मुझे देख नहीं सके.

‘‘हैलो, संजय. हाऊ इज लाइफ?’’ अरुण की जरूरत से ज्यादा ही ऊंची आवाज सुन कर मुझे लगा कि वे पिए हुए थे.

‘‘आई एम फाइन, सर. आप यहां कैसे?’’ संजय का स्वर आदरपूर्ण था.

‘‘हैरान हो रहे हो मुझे यहां देख कर?’’

‘‘नहीं तो.’’

‘‘लग तो ऐसा ही रहा है. कहां गई वो पटाका?’’

‘‘कौन, सर?’’

‘‘ज्यादा बनो मत, यार. भाभी से छिपा कर बड़ी जोरदार चीज घुमा रहे हो.’’

‘‘मैं अपनी वाइफ के साथ ही घूम रहा हूं, सर.’’ मैं ने अपने पति की आवाज में गुस्से के बढ़ते भाव को साफ महसूस किया.

‘‘वाह बेटा, अपने बौस को ही चला रहे हो. अरे, मैं क्या भाभी को पहचानता नहीं हूं.’’

‘‘सर, वह सचमुच मेरी वाइफ…’’

‘‘मुझ से क्यों झूठ बोल रहे हो? मैं भाभी से तुम्हारी शिकायत थोड़े ही करूंगा. आजकल मेरी वाइफ मायके गई हुई है. अगर मौजमस्ती के लिए खाली फ्लैट चाहिए हो तो बंदा सेवा के लिए हाजिर है. अगर तुम मुझे मौजमस्ती में शामिल…’’

‘‘सर, मेरी वाइफ के लिए…’’

‘‘नहीं करोगे तो भी चलेगा. वैसे बच्चे, अगर प्रमोशन बहुत जल्दी चाहिए तो अपने इस बौस को खुश रखो. अगर यह फुलझड़ी चलती चीज हो और तुम्हारा मन इस से भर गया हो तो इसे मुझे ट्रांसफर…’’

‘‘यू बास्टर्ड. अपने सहयोगी की पत्नी के लिए इतनी गंदी भाषा का प्रयोग करने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई?’’ गुस्से से पागल होते हुए मैं ने अचानक सामने आ कर उसे थप्पड़ मारने को हाथ उठा लिया था, पर संजय ने मुझे खींच कर पीछे कर लिया.

‘‘अरे, तुम तो सचमुच भाभी निकलीं. यह तो बहुत बड़ी मिसअंडरस्टैंडिंग हो गई, भा…’’

‘‘डोंट कौल मी भाभी,’’ मैं इतनी जोर से चिल्लाई कि लोग हमारी तरफ देखने लगे, ‘‘संजय तुम से उम्र में छोटा है न, फिर मैं तुम्हारी भाभी कैसे हुई? हर औरत को अश्लील नजरों से देखने वाले गंदी नाली के कीड़े, डोंट यू एवर काल मी भाभी.’’

‘‘यार संजय, अपनी वाइफ को चुप कराओ. यह कुछ ज्यादा ही बकवास कर…’’

‘‘मैं बकवास कर रही हूं और तुम कुछ देर पहले क्या गीता सुना रहे थे. मां कसम, मेरा दिल कर रहा है कि तुम्हारा मुंह नोच लूं.’’ संजय की पकड़ से छुटने की मेरी कोशिश को देख वह डर कर 2 कदम पीछे हट गया.

‘‘प्रिया, शांत हो जाओ. सर अपनी गलती मान रहे हैं. यू कूल डाउन, प्लीज,’’ अपने गुस्से को भूल संजय ने मुझे समझाने की कोशिश की. पर मेरे अंदर गुस्से का लावा उतनी जोर से उबल रहा था कि मुझे उन का बोला हुआ एक शब्द भी समझ नहीं आया.

‘‘ये सर होंगे तुम्हारे. मेरी नजरों में तो ये इंसान जूते से पीटे जाने लायक है. मुझे वेश्या समझा इस ने. तुम मुझे छोड़ो. मां कसम, मैं इसे ऐसे ही नहीं छोडूंगी आज. मैं संजय की गिरफ्त से आजाद होने को फिर जोर से छटपटाई तो अरुण ने वहां से भाग निकलने में ही अपनी भलाई समझी थी.

उस के चले जाने के बाद भी मैं ने उसे नाम धरना बंद नहीं किया था. वैसे संजय के साथसाथ मैं खुद भी मन ही मन हैरान हो रही थी कि मेरे अंदर इतना गुस्सा आ कहां से रहा है.

जब मैं कुछ शांत हुई तो संजय का गुस्सा बढ़ने लगा, ‘‘मेरे बौस को इतनी बुरी तरह से बेइज्जत कर के तुम ने मेरे प्रमोशन को खटाई में डाल दिया है. तुम पागल हो गई थीं क्या.’’

‘‘जब मेरे लिए वह कमीना इंसान अपशब्द निकाल रहा था, तब आप ने उसे डांटा क्यों नहीं,’’ मैं ने शिकायत की.

‘‘तुम ने मुझे उस की तबीयत सही करने का मौका ही कहां दिया. मैं सब संभाल लेता. वह या तो अपनी बकवास बंद कर देता या आज मेरे हाथों पिट कर जाता. लेकिन तुम्हें यों गुस्से से पागल होने की क्या जरूरत थी.’’

‘‘मुझ पर गुस्सा मत करो. मुझे कुछ याद नहीं कि मैं ने तुम्हारे बौस से क्या कहा है. लगता है कि इतना तेज गुस्सा करने से मेरे दिमाग की कोई नस फट गई है. मुझे बहुत जोर से चक्कर आ रहे हैं.’’ यह कह कर मैं ने अपना सिर दोनों हाथों से परेशान अंदाज में थामा तो संजय मुझे डांटना भूल कर चिंतित नजर आने लगे.

वे मुझे डांटें नहीं, इसलिए मैं ने चुपचाप रहना ही मुनासिब समझा. उन के तेज गुस्से से सिर्फ मैं ही नहीं बल्कि उन को जानने वाला हर शख्स डरता है.

यहां बाजार की तरफ आते हुए एक रिकशावाला गलत दिशा से उन की मोटरसाइकिल के सामने आ गया था. संजय ने जब उसे डांटा तो वह उलटा बोलने की हिमाकत कर बैठा था.

संजय ऐसी गुस्ताखी कहां बरदाश्त करते. मेरे रोकतेरोकते भी उन्होंने मोटरसाइकिल रोक कर उस रिकशेवाले के 3-4 झापड़ लगा ही दिए. इन का लंबाचौड़ा डीलडौल देख कर वह बेचारा उलटा हाथ उठाने की हिम्मत नहीं कर सका था.

मेरा मूड उसी समय से खराब हो गया था. अरुण की भद्दी बातें सुन कर जो मैं अपना आपा खो बैठी थी उस की जड़ में मेरी समझ से यह रिकशे वाली घटना ही थी.

हमारी शादी को अभी 6 महीने भी पूरे नहीं हुए हैं. इन के तेज गुस्से के कारण मैं ने काफी परेशानियां झेली हैं. बहुत बार लोगों के सामने नीचा देखना पड़ा है. कई बार खुद को शर्मिंदा और अपमानित महसूस किया है.

ये सडक़ पर चलते हैं तो गुस्सा इन की नाक पर बैठा रहता है. आज शाम को ये चौथा रिकशावाला इन के हाथों पिटा था. अन्य बाइक या स्कूटर वालों से इन की खूब तूतूमैंमैं होती है.

मुझे मेरी सास बताती हैं कि शादी होने से पहले ये गुस्सा हो कर सामने परोसी गई थाली फेंकने में जरा देर नहीं लगाते थे. कोई अगर उलटा बोल दे तो कहर बरपा देते थे. इन्हें जब गुस्सा आता था तो सारे घर वाले बिलकुल चुप्पी साध लेने में ही भलाई समझते थे.

शादी होने से पहले मेरी सास ने इन से अपने सिर पर हाथ रखवा कर वचन लिया था कि ये थाली कभी नहीं फेंकेंगे. इसलिए थाली फेनकने का दृश्य तो मुझे कभी देखने को नहीं मिला पर गुस्से के कारण अधूरा खाना छोड़ कर उठते हुए मैं ने इन्हें कई बार आंसूभरी आंखों से देखा है.

मेरे मायके वालों को भी इन्होंने अपने गुस्से से नहीं बख्शा है. मेरे भानजे सुमित के पहले बर्थडे की पार्टी में इन्होंने बड़ा तमाशा खड़ा कर दिया था.

एक गंवार वेटर ने इन्हें आइसक्रीम के लिए जरूरत से ज्यादा इंतजार करवा दिया था. फिर जब वह ऊपर से बाहर भी करने लगा तो संजय ने आगे झुक कर उस का कौलर पकड़ लिया था.

बात तब ज्यादा बिगड़ गई जब अन्य वेटर भी उस वेटर की हिमायत में बोलने लगे. वे सब काम छोड़ कर भाग जाने की धमकी दे रहे थे. मेरे जीजाजी पार्टी का मजा किरकिरा नहीं होने देना चाहते थे, सो, उन्होंने संजय को झगड़ा बंद कर शांत होने के लिए कुछ ऊंची आवाज में कह दिया था. ‘‘तुम्हारे जीजा ने मेरा अपमान किया है. उन के लिए वह वेटर मुझ से ज्यादा खास हो गया जो उस की तरफ से बोले. उन के घर की दहलीज आज के बाद मैं तो कभी नहीं चढूंगा.’’ उन की ऐसी जिद के चलते मुझे अपनी बहन के घर गए आज 4 महीने से ज्यादा समय बीत चुका है.

मेरे मम्मीपापा व भैयाभाभी इन के सामने खुल कर हंसनेबोलने से डरते हैं. पता नहीं ये किस बात का बुरा मन जाएं. भैयाभाभी जैसा मजाक जीजू के साथ कर लेते हैं वैसा मजाक इन के साथ करने को वो दोनों सपने में भी नहीं सोच सकते.

ये सीनियर मैडिकल रिप्रजेंटेटिव हैं. अपने काम में इन के सहयोगी इन्हें माहिर मानते हैं. अपना सेल्स टारगेट हमेशा वक्त से पहले पूरा कर लेते हैं. मुझे ही कभी समझ में नहीं आता कि इतने गुस्से वाले इंसान की डाक्टरों व कैमिस्टों से कैसे अच्छी निभ रही है. कोविड के दिनों में इन्होंने खासी कमाई कंपनी के लिए की थी. इन का कंपनियों में रुतबा भी था.

हम बाजार में करीब एक घंटा और रुके पर मजा नहीं आया. कुछ खानेपीने का मन नहीं हो रहा था. खरीदारी करने के लिए जो चित्त की प्रसन्नता चाहिए वह गायब थी. दिमाग में कुछ देर पहले अरुण के साथ घटी घटना की यादें ही घूमे जा रही थी.

मैं अगर उन दोनों के बीच में दखल न देती और अरुण मेरे खिलाफ बेहूदी बातें मुंह से निकालता चला जाता तो मुझे यकीन है कि संजय से उस का जरूर झगड़ा होता. संजय और अरुण के बीच जो झगड़ा हो सकता था, मेरी दखलंदाजी ने उस की संभावना को समाप्त कर दिया था.

‘‘तुम ने मुझे उस की तबीयत सही करने का मौका ही कहां दिया,’’ कुछ देर पहले संजय के मुंह से निकला यह वाक्य बारबार मेरे जेहन में गूंजे जा रहा था तो मैं इस वाक्य के महत्त्व को समझने के लिए दिमागी कसरत करने लगी.

जो मेरी समझ में आया उसे सहीगलत की कसौटी पर कसने का मौका मुझे थोड़ी देर में ही मिल गया.

वापस लौटने से पहले हम ने सौफ्टी खरीदी. मैं उसे थोड़ी सी ही खा पाई थी कि एक युवक की टक्कर से वह मेरे हाथ से छुटी और जमीन पर गिर पड़ी.

‘‘अंधा हो गया है क्या?’’ संजय उस पर फौरन गुर्राए.

वह भी कम न निकला और संजय से ज्यादा ऊंची आवाज में बोला, ‘‘ऐसा फाड़ खाता क्यों बोल रहा है? देख नहीं रहा कि भीड़ कितनी हो रही है.’’

‘‘भीड़ है तो क्या तू सांड सा टक्करें मारता घूमेगा?’’

‘‘जबान संभाल के बात कर, नहीं तो ठीक नहीं होगा.’’

इस पल जैसे ही मुझे एहसास हुआ कि अब संजय अपने ऊपर से नियंत्रण खो बैठेंगे, मैं इन दोनों महारथियों के बीच में कूद पड़ी.

उस लडक़े को मैं ने आगे बढ़ कर धक्का दिया और तन कर बोली, ‘‘तेरा इलाज तो पुलिस करेगी. आप जरा सौ नंबर मिलाओ जी. औरतों से मिसबिहेव करता है, टक्करें मारता चलता है. ज्यादा आंखें मत निकाल, नहीं तो फोड़ दूंगी. मां कसम अगर मेरी सैंडिल निकल आई तो तेरी खोपड़ी पर एक बाल नजर नहीं आएगा.’’

ऐसा नहीं है कि मैं बोले जा रही थी और ये दोनों चुपचाप खड़े सुन रहे थे. वह लडक़ा ‘‘मैडम, मैं जानबूझ कर नहीं टकराया था. औरत हो कर आप कैसी अजीब भाषा का इस्तेमाल कर रही हैं…’’ जैसे वाक्य हैरानपरेशान हो कर बोल रहा था पर मैं ने उस के कहे पर जरा भी ध्यान नहीं दिया.

न ही मैं संजय की सुन रही थी. मुझे अपने डायलौग बोलने से फुरसत मिलती तो ही मैं किसी और की सुनती न.

‘‘प्रिया, कूल डाउन. मुझे निबटने दो इस से. अरे, इतना गुस्सा मत करो,’’ संजय इस बार भी लडऩा भूल कर मुझे संभालने में लग गए.

‘‘यह तो मैंटल केस है,’’ हार कर वह लड़का यह बड़बड़ाया और चलता बना.

‘‘मां कसम, इसे जाने मत दो, जी. इसे थाने की हवा खिलाना जरूरी है.’’ मैं संजय की पकड़ से निकली जा रही थी.

‘‘ज्यादा तमाशा मत करो, अब शांत भी हो जाओ,’’ संजय ने उस लडक़े को रोकने की जरा सी भी कोशिश नहीं की और मैं ने साफ नोट किया, आसपास इकट्ठी हो गई भीड़ से नजरें मिलाने में उन्हें बड़ी शर्म आ रही थी.

इंग्लिश की एक कहावत ‘टू गेट द टेस्ट औफ हिज औन मैडिसिन’ इस वक्त उन के ऊपर बिलकुल फिट बैठ रही थी.

जब मैं शांत होने लगी तो उन का गुस्सा बढऩे लगा. तब मैं ने फिर से अपना सिर पकड़ते हुए कमजोर सी आवाज में कहा, ‘‘मेरा सिर फटा जा रहा है. इतना गुस्सा तो मुझे कभी नहीं आता था. मुझे किसी डाक्टर को दिखाओ, जी.’’

उस दिन ही नहीं, बल्कि तब से मैं ने दसियों बार इन्हें झगड़े से दूर रखने में सफलता पाई है. जब भी मुझे लगता है कि ये किसी के साथ झगडऩे वाले हैं तो मैं पहले ही आक्रामक रुख अपनाते हुए सामने वाले से उलझ कर बवंडर खड़ा कर देती हूं.

इन के अंदर उठी क्रोध व हिंसा की नकारात्मक ऊर्जा मुझे संभालने व समझाने की तरफ मुड़ जाती. कुछ देर में मारपीट होने या बात बढऩे का संकट टल जाता है.

मेरे कुछ परिचित मुझे मैंटल केस समझने लगे हैं. कुछ ने मुझे शेरनी का खिताब दे दिया है. कुछ के साथ मेरे संबंध काफी बिगड़ गए हैं लेकिन मैं फिक्रमंद नहीं हूं. मेरे लिए बड़ी खुशी व संतोष की बात यह है कि पिछले 4 महीने से संजय का घर में या बाहर किसी से जोरदार झगड़ा नहीं हुआ है.

वे अब तक मुझे 4 डाक्टरों को दिखा चुके हैं. कहीं मेरी चाल उन की समझ में न आ जाए, इसलिए मैं भी अपना सिर थामे उन के साथ चली जाती हूं.

अब वे बदल रहे हैं. कहीं भी झगड़ा होने की स्थिति पैदा होते ही वे बारबार मेरी तरफ ध्यान से देखना शुरू कर देते हैं. सामने वाले से उलझने के बजाय उन्हें मेरे ज्वालामुखी की तरह अचानक फट पडऩे की चिंता ज्यादा रहती है.

मैं ने फैसला किया है कि यह पूरा साल शांति से निकल गया तो बहुत बड़ी पार्टी दूंगी. अपने खराब व्यवहार से मैं ने जिन परिचितों के दिलों को दुखाया है और भविष्य में दुखाऊंगी, उस पार्टी में उन सब के प्रति प्यार व सम्मान प्रकट करने का मुझे अच्छा मौका मिलेगा.

Stories In Hindi : मातृत्व का अमृत: क्या धोखे को सहन कर पाई विभा

Stories In Hindi : लाल सुर्ख जोडे़ में सजी विभा के चारों तरफ गूंजती शहनाई और विवाह की रौनक थी. सुमित की छवि जैसे विभा की आंखों के सामने घूम रही थी और स्वत: ही उसे याद आती थी, सुमित के साथ उस की पहली मुलाकात.

वह दिन, जब सुमित उसे देखने आया था तो उस से ज्यादा नर्वस शायद सुमित खुद ही था. मुंह नीचा किए वह चुपचाप बैठा था और जैसे ही मां विभा को ले कर ड्राइंगरूम में पहुंचीं, मां के पांव छूने की बजाय गलती से सुमित ने विभा के पांव छू लिए. तब अल्हड़ विभा ने उसे ‘दूधों नहाओ और पूतों फलो’ का आशीर्वाद दिया तो वहां उपस्थित सभी ठहाका मार कर हंस पडे़.

सुमित को विभा की चंचलता बहुत भा गई और वह उस के मनमोहक रूप से आकर्षित हुए बिना भी न रह सका. वहीं विभा को भी सुमित की सादगी पसंद आई थी.

विभा सुमित से अपनी पहली भेंट को जब भी याद करती, बहुत देर तक हंसती थी.

आज फिर विभा लाल सुर्ख जोडे़ में लिपटी बैठी थी. पहले जैसी चहलपहल आज नहीं थी. 11 साल पहले जो उत्सुकता विभा की आंखों में विवाह को ले कर थी वह आज आंसू बन कर बह रही थी और कई सवाल उस के कोमल हृदय पर आघात कर रहे थे पर जवाब तलाशने से भी उसे नहीं मिल रहे थे.

एक समझदार पति के साथसाथ उस का सब से प्यारा दोस्त सुमित याद आ रहा था तो याद आ रही थी उसे अपनी ससुराल, जहां पति का बेइंतहा प्यार मिला और देवर, सासससुर के स्नेहपूर्ण व्यवहार ने उस के जीवन में इंद्रधनुषी रंग भर दिए.

उस का घरेलू जीवन तब और साकार हो गया जब विभा के घर में एक नन्हेमुन्ने की आहट हुई. विभा की ससुराल और मायके में खुशियों का उत्सव छाया हुआ था. लेकिन उस को क्या पता था कि उस की खुशियों पर एक ऐसी बिजली गिरेगी जो सबकुछ जला कर राख कर देगी.

दीवाली के दीपों की ज्योति से अंधेरे जीवन में भी प्रकाश हो जाता है पर इस बार की दीवाली विभा के जीवन में अंधकार भरने आई थी. सुमित दीवाली के अवसर पर बाजार गया. विभा कोे 4 महीने का गर्भ था, इसलिए वह न जा सकी. बाजार में बम विस्फोट हुआ और सुमित लौट कर घर न आ सका. उस की मृत्यु का समाचार और फिर उस का क्षतविक्षत शव देख कर जो सदमा विभा को लगा उसे वह सहन न कर सकी और उस का गर्भपात हो गया.

सुमित की यादें जहां विभा के मुखमंडल पर खास छटा बिखेर देती थीं वहीं उस की मृत्यु की कल्पना से भी विभा सिहर उठती थी.

विभा आज अपने अतीत के सारे पृष्ठ पलट लेना चाहती थी. यादें समय के प्रवाह के साथ धूमिल अवश्य पड़ जाती हैं परंतु खत्म कभी नहीं होतीं, क्योंकि हृदय पर बने उन के निशान सागर की गहराई से भी गहरे होते हैं.

गुजरे हुए कल ने विभा के जीवन पर गहरे निशान छोडे़ थे, ऐसे निशान जो उसे बहुत गहरे आघात दे गए थे.

विधवा विभा अपने सासससुर की सेवा करते हुए जीवन व्यतीत करना चाहती थी, साथ ही एक शिक्षिका होने के नाते अपना सारा जीवन अपने विद्यालय और विद्यार्थियों के हित में समर्पित करना चाहती थी, पर जिस औरत का सुहाग उजड़ जाए उस के अपने भी बेगाने हो जाते हैं. यहां तक कि घर के लोग भी सांप की तरह फुफकारते हैं व दंश भी मारते हैं.

सुमित की मौत के बाद उस के ससुराल वालों का व्यवहार विभा के प्रति अनायास ही बदल गया. सास का छोटीछोटी बातों पर फटकारना, किसी न किसी बात में कमी निकालना, अब आम हो गया था. मगर जब देवर और ससुर की कामुक नजर उसे कचोटने लगी तो उस की सहनशक्ति परास्त हो गई. तब अपना सारा साहस जुटा कर विभा अपने मायके चली आई. घर में मांबाबूजी के अलावा विभा का एक छोटा भाई प्रभात भी था.

घर का सारा काम विभा अकेले ही करती, मांबाबूजी का पूरा खयाल रखती, विद्यालय जाती, शाम को ट्यूशन पढ़ाती और प्रभात की पढ़ाई में सहयोग भी देती. इस तरह उस ने अपनी दिनचर्या को पूरी तरह व्यस्त कर लिया था.

देखते ही देखते 9 साल गुजर गए. प्रभात, विभा के सहयोग की बदौलत आईटी प्रोफेशनल के रूप में अपने पैर जमा चुका था. उस के लिए अच्छेअच्छे रिश्ते आने लगे. मांबाबूजी ने विभा की सलाह से एक सुंदर व सुशिक्षित लड़की सुनैना को देख कर प्रभात का रिश्ता तय कर दिया. विवाह भी हंसीखुशी संपन्न हो गया. घर में एक नई बहू आ गई.

प्रभात की खुशियों में विभा अपनी खुशियां तलाशना सीख गई थी. तभी मुंहदिखाई के समय सुनैना को अपना हीरों जडि़त हार देते वक्त उस ने कहा था, ‘‘सुनैना, तुम्हें इस से भी ज्यादा सुंदर तोहफा तब दूंगी जब तुम हमें एक प्यारा सा, प्रभात जैसा भतीजा दोगी.’’

घर के सारे छोटेबडे़ फैसले विभा की सलाह से लिए जाते थे और प्रभात भी अपनी दीदी के पूरे प्रभाव में था, इसलिए सुनैना के मन में विभा के प्रति द्वेष घर कर गया. अब वह विभा को नीचा दिखाने का कोई न कोई मौका ढूंढ़ती रहती थी.

हालांकि विभा उसे अपनी छोटी बहन की तरह समझती थी और उस की गलतियों को भी क्षमा कर देती थी.

सुनैना मां बनने वाली थी और कमजोरी के कारण डाक्टर ने उसे पूरी तरह आराम की सलाह दी थी, इसलिए बाकी कार्यों के साथसाथ विभा फिर से घर का सारा काम संभालने लगी. सुनैना की हर जरूरत का भी वह पूरापूरा खयाल रखती.

उस दिन विद्यालय से लौटने के बाद विभा फ्रैश हो कर दोपहर के खाने में जुट गई. प्रभात भी घर पर ही था. सब मेज पर खाना खाने के लिए बैठे ही थे कि सुनैना झल्ला उठी.

खाने की थाली में से एक बाल निकल आने के कारण सुनैना गुस्से से लालपीली होते हुए बोली, ‘दीदी, अगर आप को कोई परेशानी है तो यों ही कह दीजिए. वैसे भी हमारी हैसियत तो है ही कि हम एक नौकरानी रख लें.’

आवेश में विभा से यह कटु वचन बोल कर सुनैना प्रभात की सहानुभूति बटोरने के लिए अभिनय करती हुई धम्म से कुरसी पर बैठ गई.

प्रभात ने सुनैना को संभालते हुए तैश में आ कर कहा, ‘दीदी, जरा ध्यान से खाना बनाया कीजिए. सुनैना को डाक्टर ने जरा सा भी स्ट्रेस लेने से मना किया है. आप की ऐसी हरकत की वजह से अगर हमारे बच्चे को कुछ हो गया तो…’

प्रभात के ऐसे व्यवहार से सुनैना को बल मिला और फिर उस ने विभा पर अपने बच्चे को गिराने का आरोप जड़ते हुए कहा, ‘आप तो, जब से मैं इस घर में आई हूं, कुछ न कुछ मेरे खिलाफ करती ही रहती हैं और आज जब मैं मां बनने वाली हूं तो जादूटोना कर के हमारी होने वाली संतान को मारना चाहती हैं. अरे, शैतान भी एक बार खाए हुए नमक की लाज रख लेता होगा और आप जिस घर में बरसों से रह रही हैं उसी घर की दीवारों की नींव को खोद देना चाहती हैं.’

विभा ने जब खुद पर लगे आरोपों का विरोध करना चाहा तो प्रभात ने उसे तमाचा जड़ दिया था. यह चोट सब से गहरी थी और सब से ज्यादा दुखदायी था मांबाबूजी का मूकदर्शक बने रहना. उस दिन एक विधवा की वेदना को विभा पूरी तरह समझ गई थी. विभा ने आवेश में आ कर अकेले ही कहीं और मकान ले कर रहने का फैसला किया पर दिल्ली जैसे शहर में एक महिला का अकेले रहना कहां तक सुरक्षित है, यह सोच कर मांबाबूजी ने उसे रोक लिया.

सुनैना, विभा को परिवार वालों की नजरों में गिराना ही नहीं बल्कि उसे घर से निकलवाना भी चाहती थी, पर अपनी आशाओं पर पानी फिरता देख अवसर पा कर उस ने मांबाबूजी के मन में विभा के दूसरे विवाह का विचार डाल दिया.

मांबाबूजी विभा के लिए किसी उचित वर की तलाश में थे तो सुनैना ने एक लड़के का नाम भी उन्हें सुझाया. उस की बातों में आ कर घर वालों ने ‘विधवा’ विभा का रिश्ता तय कर दिया.

विभा यह तो जान ही चुकी थी कि एक औरत का अस्तित्व उस के पति की मृत्यु के साथ ही समाप्त हो जाता है. और एक सादे समारोह में विभा की दूसरी शादी संपन्न हो गई.

विभा अपने अतीत में खोई हुई थी कि तभी मां ने उसे झकझोरा और कहा, ‘‘विभा बेटा, तुम्हारी विदाई का समय हो गया है.’’

आज विभा, विनोद की दूसरी पत्नी बन कर उस के घर जा रही थी. उस की आंखों से आंसुओं का सागर उमड़ रहा था. किंतु इन आंसुओं का औचित्य समझ पाना उस के बस की बात नहीं थी. यह आंसू अपने उस घर से विदाई के थे जहां से वह 11 साल पहले ही विदा की जा चुकी थी या एक विधवा की बदकिस्मती के, विभा स्वयं नहीं जानती थी.

विभा अब तक विनोद से नहीं मिली थी. उसे केवल इतना बताया गया था कि विनोद पेशे से एक सर्जन है, उस की पहली पत्नी की मृत्यु कुछ समय पहले हुई थी और विनोद के 2 बच्चे हैं. प्रांजल जो 8 वर्ष का है और परिधि 6 वर्ष की है. घर में विनोद और बच्चों के अलावा मातापिता हैं.

विभा इस शादी से खुश नहीं थी पर विदाई के बाद ससुराल पहुंचते ही जब प्रांजल और परिधि ने उसे ‘नई मम्मी’ कह कर पुकारा तो वह गद्गद हो गई. मातृत्व क्या होता है, उसे यह खुशी नसीब नहीं हुई थी मगर प्रांजल और परिधि के एक छोटे से उच्चारण ने उस के भीतर दबी हुई ममता को जागृत कर दिया. उस के सासससुर का व्यवहार बेहद करुणा- मयी और विनम्र था.

विनोद से अब तक उस की भेंट नहीं हुई थी. विभा कमरे में काफी देर तक उस की प्रतीक्षा करती रही और इंतजार करतेकरते कब उस की आंख लग गई उसे पता नहीं चला. शायद विनोद ने उसे जगाना भी ठीक नहीं समझा.

विभा में नईनवेली दुलहनों जैसे नाजनखरे नहीं थे इसलिए विवाह के अगले दिन से ही घर का सारा काम उस ने अपने हाथों में ले लिया. सुबह जल्दी उठ कर अपना पूजापाठ समाप्त कर के पहले वह अपने सासससुर को चाय बना कर देती, फिर नाश्ता तैयार करती, विनोद को नर्स्ंिग होम और बच्चों को स्कूल भेज कर वह अपने विद्यालय जाती.

दोपहर को विद्यालय से आते ही बच्चे उसे घेर लेते. पहले तो उन्हें खाना खिला कर विभा उन का होमवर्क पूरा करवाती और फिर उन के साथ खूब खेलती. अब प्रांजल और परिधि उसे ‘नई मम्मी’ के बजाय ‘मम्मी’ कह कर पुकारने लगे थे. बच्चों के साथ विभा ने अपने सासससुर का भी दिल जीत लिया था.

विनोद देर रात घर आता तब तक विभा सो चुकी होती थी. विनोद के साथ विभा की जो बातें होतीं वे केवल औपचारिकता भर ही थीं. विवाह को दिन ही नहीं महीनों बीत गए थे पर जीवनसाथी के रूप में दोनों को एकदूसरे के विचार जानने का मौका ही नहीं मिला था.

विनोद का व्यवहार घर वालों के प्रति बहुत असहज था. माना वह घर पर कम रहता था मगर जितनी देर रहता उतनी देर भी न तो बच्चों से और न ही मांबाबूजी से वह खुल कर बातें करता था. विभा ने उन सब के बीच एक अजीब सी दूरी का अनुभव किया और वह शंकित हो गई. वह मांबाबूजी से सीधे कुछ भी कहना नहीं चाहती थी मगर विनोद से कहना भी ठीक नहीं था.

एक दिन विभा घर पर ही थी और बच्चे विनोद के साथ कहीं गए थे. विभा ने अवसर पा कर मांजी से पूछ ही लिया, ‘‘मांजी, मैं जब से इस घर में आई हूं उन्होंने कभी मुझ से बात नहीं की और मुझे उन का व्यवहार भी बहुत अजीब लगता है. मुझे कहना तो नहीं चाहिए, मगर लगता है आप लोगों के बीच कोई समस्या…?’’

विभा की बात काटते हुए मांजी बोलीं, ‘‘बेटा, विनोद इस विवाह से…’’

विभा चौंक पड़ी, ‘‘खुश नहीं हैं, क्या?’’

‘‘देखो बेटा, सुनैना और प्रभात को हम ने पहले ही बता दिया था कि विनोद न तो तुम से शादी करना चाहता है और न ही वह तुम्हें पत्नी के रूप में स्वीकार कर पाएगा. विनोद खुद को तुम्हारा अपराधी समझता है,’’ मांजी ने उत्तर दिया.

बाबूजी ने अपनी चुप्पी तोड़ी और बोले, ‘‘बहू, तुम जानती हो कि हमारी बहू ‘पायल’ की मृत्यु एक कार एक्सीडेंट में हुई थी. उस में विनोद भी बुरी तरह घायल हो गया था. उस का काफी खून बह चुका था. आपरेशन के समय उसे खून चढ़ाया गया और यही विनोद की बदकिस्मती थी.’’

‘‘मगर बाबूजी, उस आपरेशन से हमारे रिश्ते का क्या संबंध?’’ विभा अभी भी सकते में थी.

‘‘विनोद के आपरेशन से कुछ समय बाद उसे पता चला कि जो खून उसे चढ़ाया गया था वह एचआईवी पौजीटिव था,’’ कहतेकहते बाबूजी का गला रुंध गया.

विभा खुद को ठगा सा महसूस कर रही थी. वह सुनैना को दोष नहीं दे सकती थी मगर जो विश्वासघात भाई हो कर प्रभात ने उस के साथ किया, उस से वह सोचने को विवश हो गई थी कि क्या विधवा पुनर्विवाह का औचित्य यही है कि उस का प्रयोग केवल अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए किया जाता है. आज वह एक सधवा हो कर भी खुद को विधवा ही महसूस कर रही है.

बाबूजी ने विभा के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहना शुरू किया, ‘‘विनोद के सीडी फोर सेल्स का स्तर अब धीरेधीरे कम होने लगा है. हम बूढ़े हो चुके हैं. विनोद को कुछ हो गया तो हम बूढ़े तो वैसे ही खत्म हो जाएंगे. हम ने सोचा कि हमारे बाद इन फूल से बच्चों को कौन संभालेगा? क्या होगा इन का? यही सोच कर हम ने विनोद का विवाह जबरन तुम्हारे साथ करवाया ताकि इन बच्चों को संभालने वाला कोई तो हो,’’ इतना कह कर बाबूजी कमरे से बाहर निकल गए.

अपने को संभालते हुए मांजी बोलीं, ‘‘बेटी, तुम्हें लग रहा होगा कि हम लोगों ने अपने निजी स्वार्थ के लिए तुम्हारा जीवन बरबाद कर दिया. निर्णय अब तुम्हें ही लेना है. हो सके तो हमें क्षमा कर देना.’’

निरुत्तर खड़ी विभा वहां से भाग निकलना चाहती थी और जा कर प्रभात, मां व बाबूजी से पूछना चाहती थी कि क्या विधवा होना उस का कुसूर है? आज वह दोराहे पर खड़ी थी.

तभी प्रांजल और परिधि स्कूल से आते ही उस से लिपट गए और अपनी स्कूल की दिनचर्या बताबता कर उस की गोद में झूलने लगे. बच्चों का स्पर्श पाते ही विभा की मानो सारी उलझनें सुलझ गई थीं.

उस की नियति लिखी जा चुकी थी. वह विनोद के समर्पण, मांबाबूजी के प्रेम और अपने मातृत्व के सामने नतमस्तक हो गई, फिर प्रांजल और परिधि ने विभा के आंसू पोंछे और उस से लिपट गए. आज सबकुछ खो कर भी विभा ने मातृत्व का अमृत पा लिया था. उसे अपना आज और आने वाला कल साफ नजर आने लगा था.

College Romance : खूबसूरत लमहे

College Romance :  इंसान की जिंदगी के कुछ लम्हें ऐसे होते है कि उसे आजीवन भुला पाना संभव नहीं. शेखर काफी मेहनत से अपनी पढ़ाई कर एक अच्छा मुकाम तो हासिल कर लिया पर उस का प्यार, उस की जिंदगी उसे नहीं मिल सकी.

शेखर इस नए शहर में अपनी जिंदगी की नए सिरे से शुरुआत करने आ पहुंचा. आईएएस कंप्लीट करने के बाद उस की पोस्टिंग इसी शहर में हुई. वैसे भी अमृतसर आ कर वह काफी खुश है. इस शहर में वह पहली बार आया है पर ऐसा लगता वह अरसे से इस शहर को जानता हो. आज वह बाजार निकला ताकि अपनी जरूरत की कुछ चीजें खरीद सके.

अचानक एक डिपार्टमैंटल स्टोर में एक चेहरा नजर आया. हां, वह संगीता ही थी और साथ में था उस का पति. शेखर गौर से उसे देखता रहा. संगीता शायद उसे देख नहीं सकी या जानबूझ कर देख कर भी अनदेखी कर दी. वह जब तक संगीता के करीब पहुंचता, संगीता स्टोर से निकल कर अपनी कार में बैठी और चली गई. तब शेखर अपने अतीत में खो गया…

नयानया शहर, नया कालेज, शेखर के लिए सब अपरिचित एवं अजनबी थे. वह क्लास की पीछे वाली बैंच पर बैठ गया. कालेज की चहलपहल काफी अच्छी लगी. पुस्तकें ही उस की साथी थीं और उस का जीवन. बस मन में उठे भावों को कागज पर उतारता और स्वयं ही पढ़ कर काफी खुश होता.

कालेज के वार्षिक सम्मेलन में जब उस की कविता को प्रथम पुरस्कार मिला तो वह सब का चहेता बन गया. प्रोग्राम खत्म होते ही एक लड़की आ कर बोली, ‘‘बधाई हो. तुम तो छिपे रुस्तम निकले. इतना अच्छा लिख लेते हो. तुम्हारी रचना काफी अच्छी लगी. इस की एक कौपी दोगे?’’

शेखर तब उस के आग्रह को टाल न सका. पहली बार गौर से उस की खूबसूरती को निहारा. गोरा रंग, गुलाबी गाल, मदभरे एवं मुसकराते अधर और सब से खूबसूरत लगी उस की आंखें. उस की आंखें बिना काजल के कजरारी लगीं. आंखें भरपूर शोख एवं शरारत भरी थीं. फिर भी शेखर के लिए यह सब कुछ माने नहीं रखता. शेखर ने तो उस की खूबसूरती को शब्दों में कैद कर गीत का रूप दे डाला और संगीता की खिलखिलाहट ने उस के गीत को संगीत का रूप दे डाला. पर यह सब तो कालेज के सांस्कृतिक कार्यक्रम का हिस्सा था. संगीता के स्वर में एक अजीब सी कशिश, एक अजीब सा जादू दिखा.

शेखर जीवन में बहुत बडे़ एवं सुनहरे सपने देखता रहता. पढ़ाई और लेखन बस 2 ही उस के साथी. एक मध्यवर्गीय परिवार में पलाबढ़ा शेखर सदा यही सोचता कि खूब पढ़लिख कर एक काबिल इंसान बने एवं सब की झोली खुशियों से भर दे.

शेखर कालेज की लाइब्रेरी में बैठा अध्ययन कर रहा था. तभी संगीता उस के सामने आ कर बैठ गई. शेखर को ठीक नहीं लगा. उसे पढ़ाई के वक्त किसी का डिस्टर्ब करना अच्छा नहीं लगता. संगीता का पढ़तेपढ़ते धीरेधीरे गुनगुनाना भी अच्छा नहीं लगा. वह गुस्से से उठा और जोर से पुस्तक बंद कर चल पड़ा.

तभी एक मधुर खिलखिलाहट सुनाई पड़ी. पीछे मुड़ कर देखा संगीता की शरारत भरी मुसकान. गुस्सा तो कम हो गया पर अपने अहंकार में डूबा शेखर चला गया.

दूसरे दिन भी वह लाइब्रेरी में बैठा अपनी पढ़ाई कर रहा था. पर आज उस के मन में अजीब हलचल मची थी. बारबार ऐसा आभास होता कि संगीता आ कर बैठेगी, बारबार निगाहें दरवाजे की तरफ उठ जातीं.

थोड़ी देर के बाद संगीता आती दिखाई पड़ी पर आज वह किसी और टेबल पर बैठी. तब चाह कर भी कुछ न कहा. पर आज उस का पढ़ने में दिल न लगा फिर उठ कर गुस्से से पुस्तक बंद कर दी और लाइब्रेरी से उठ कर जाने लगा.

तभी संगीता उठ कर सामने आ गई और घूरघूर कर ऊपर से नीचे तक निहारती रही, मुसकराती रही.

शेखर का पारा और चढ़ने लगा. संगीता तब बहुत ही सहज भाव से बोली, ‘‘मां शारदे का अपमान करना ठीक नहीं पुस्तक की कद्र करोगे तभी मंजिल मिलेगी. मैं ईर्ष्या से नहीं मुसकराती तुम्हारी नादानी पर हंसी आ जाती है. वैसे सदा मुसकराते रहना ही मेरी फितरत है.’’

फिर वह थोड़ी सीरियस हो कर आंखों में आंखें डाल कर उस ने इस कदर निहारा कि शेखर चुपचाप पीछे खिसकता गया और संगीता आगे बढ़ती रही. अतंत: शेखर पुन: उसी बैंच पर बैठ गया और वह सामने बैठ गई. दोनों बस खामोश रहे. शेखर संगीता के इशारे पर पुस्तक खोल कर पढ़ने लगा और संगीता अपने चेहरे के सामने पुस्तक खोल कर मुसकराने लगी.

शेखर संगीता की समीपता भी चाहता और घबराहट भी होती. कालेज के कुछ लोग उस की सुंदरता के इस कदर दीवाने थे कि शेखर उन्हें खटकने लगा. उन की नफरतभरी नजरों से डर लगने लगा. कभीकभी सोचता कि संगीता हालात की असलियत को क्यों नहीं समझती?

शेखर कालेज के गार्डन में अकेला बैठा विचारों में खोया था. तभी संगीता आ पहुंची. बिलकुल करीब बैठ गई और उलाहने भरे स्वर में बोली, ‘‘मैं लाइब्रेरी का चक्कर लगा कर आ रही हूं. लगता है आज पढ़ने का नहीं, लिखने का मूड है तभी गार्डन में आ कर बैठे हो.

शेखर जिस की चिंता से परेशान था उस का करीब आना उसे अच्छा लगा. संगीता ने बैग खोल कर टिफिन बौक्स निकाला और शरारती अंदाज में बोली, ‘‘आ मुंडे, आल दे परांठे खाएं. तुसी तबीयत चंगी हो जाएगी.’’

तब शेखर वाकई में खुल कर हंस पड़ा. उस के सामने जब संगीता ने टिफिन बौक्स खोला तो परांठों की महक से ही शेखर खुश हो गया. दोनों ने जीभर कर परांठे खाए. परांठे खाने के बाद संगीता बोली, ‘‘चलो, अब लस्सी पिलाओ.’’

शेखर सकुचाते हुए बोला, ‘‘अभी क्लास चालू होने वाली है. लस्सी कल पी लेंगे.’’

संगीता तब बेधड़क बोली, ‘‘बडे़े कंजूस बाप के बेटे हो. लस्सी पीने का मन है आज और पिलाना अगले जन्म में. मेरी कुछ कदर है कि नहीं. अभी एक आवाज दूं तो लस्सी की दुकान से ले कर यहां तक लस्सी लिए लड़कों की लाइन लग जाए.’’

शेखर फिर मुसकरा कर रह गया. संगीता तब टिफिन बौक्स समेटती हुई बोली, ‘‘ठीक है चलो मैं ही पिलाती हूं. मेरा बाप बड़ा दिलवाला है. मिलिटरी औफिसर है. एक बार पर्स में हाथ डालते हैं तो जितना नोट निकल आते मुझे दे देते हैं. मुझ पर काफी भरोसा है. वे तो मेरे लिए लस्सी का ड्रम ला दे. किसी की इच्छा पूरी करना सीखो. बस किताबी कीड़ा बने रहते हो. लाइफ आलवेज नीड सम चेंज.’’

‘‘ठीक है, चलो पिलाता हूं लस्सी. अब भाषण देना बंद करो,’’ शेखर आग्रह भरे स्वर में बोला.

‘‘नहीं पीनी है अब,’’ संगीता मुसकराते हुए बोली, ‘‘जिस ने पी तेरी लस्सी वह समझ फंसी. मैं तो नहीं ऐसी.’’

फिर कालेज के कंपाउंड से निकल कर दोनों बाजार की ओर चल पड़े. चौक पर ही लस्सी की दुकान थी. कुरसी पर बैठते ही संगीता ने एक लस्सी का और्डर दिया. शेखर तब कुतुहल भरी दृष्टि से संगीता को निहारने लगा. संगीता ने टेबल पर सर्व किए गए लस्सी के गिलास को देखा और फिर शेखर को, फिर जोर से हंस पड़ी.

शेखर धीरेधीरे उस की शोखी एवं शरारत से वाकिफ हो गया था. अत: वह लस्सी के गिलास को न देख कर दुकान की छत को निहारने लगा.

संगीता उस के चेहरे के सामने चुटकी बजाते हुए बोली, ‘‘लस्सी इधर टेबल पर है आसमान पर नहीं. अभी देखो एक मजा,’’ कह उस ने आवाज दे कर मैनेजर को बुलाया. उस के करीब आते ही बरस पड़ी, ‘‘इस टेबल पर कितने लोग बैठे है?’’

‘‘2?’’ मैनेजर ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया.

‘‘फिर लस्सी 1 ही क्यों भेजी? तुम्हारे आदमी को सम?ा में नहीं आता है?’’ संगीता के तेवर गरम हो गए.

मैनेजर तब गरजते हुए बोला, ‘‘अरे ओ मंजीते. तेरा ध्यान किधर है? कुड़ी द खयाल कर और एक लस्सी और ला.’’

मंजीत यह कह पाता कि मैडम ने 1 ही और्डर दी थी पर कह न सका और उसे काफी डांट खानी पड़ी.

शेखर को यह सब पसंद नहीं आया. संगीता से नाराजगी भरे लहजे में बोला, ‘‘तुम ने और्डर तो 1 ही लस्सी का दिया था फिर उसे डांट क्यों खिलवाई?’’

संगीता तब शरारती लहजे में बोली, ‘‘तुम्हें क्यों इतना बुरा लगा? वह तेरा कोई सगा लगता है क्या? तुम्हें मालूम है, मैं जब भी अकेले लस्सी पीने आती हूं तो या तो वह घूरघूर कर देखता है या फिर लस्सी देर से देता है अथवा फिर लस्सी हाथ में पकड़ाने की कोशिश करता है. आज उसे सबक मिला. अब लस्सी पीयो और दिमाग बिलकुल कूल करो.’’

शेखर ने तब लस्सी पीते हुए कहा, ‘‘तुम हो ही इतनी खूबसूरत कि लोग तुझे निहारे बिना रह नहीं सकते.’’

‘‘फिर चौराहे पर खड़ा कर के नोच डालो न. यह समाज तो मर्दों का है न. खूबसूरत होना गुनाह है?’’ संगीता गुस्से से बोली.

शेखर तब उसे बहलाने के खयाल से बोला, ‘‘अरे लस्सी पी कर लोग कूल होते हैं पर तुम तो गरम हो रही हो.’’

फिर शांत मन से लस्सी पीती हुए बोली, ‘‘एक बार अगर मुझे कुदरत मिल जाए तो यह वर मांगूं कि तुम्हें सिर्फ एक दिन के लिए लड़की बना दे तब तुम सब की नजरों को देखो, उन के चेहरों के भावों को सम?ा, उन की नीयत को पहचानो क्योंकि अभी तो तुम्हें सिर्फ कजरारे नयन और मधुर मुसकान नजर आती है.’’

शेखर एक कड़वी सचाई को सुन कर बिलकुल चुप हो गया.

कई दिनों से संगीता कालेज में नजर नहीं आई. शेखर काफी परेशान हो गया. न कालेज में, न घर में, न अकेले में कही भी दिल लगा.

किसी तरह उस की एक सहेली से पता चला कि वह बीमार है और नर्सिंगहोम में भरती है. वह दौड़ पड़ा नर्सिंगहोम की ओर. संगीता बैड पर लेटी थी. नर्स से पता चला अभी दवा खा कर सोई है. कई रातों से सो न सकी,

नर्स ने शेखर की बदहवासी देख पूछा, ‘‘जगा दूं क्या?’’

पर शेखर का मन बोला कि सोने दो मेरी जान को कितनी हसीन लग रही है. नींद में भी चेहरे पर मुसकान थी. शायद कुदरत ने उसे जी खोल कर ‘मुसकान’ दे डाली. वह नर्स को एक गुलदस्ता एवं एक छोटी सी डायरी दे कर बोला, ‘‘जब नींद से जागे तो दे देना.’’

‘‘आप का नाम?’’ नर्स ने पूछा.

‘‘कहना तुम्हारा मीत आया था. कल फिर आऊंगा.’’

दूसरे दिन भी गया. पता चला कि संगीता को ‘ऐक्सरे रूम’ में ले जाया गया है. वहां उस के मम्मीपापा और काफी रिश्तेदार आ गए. अब शेखर को रुकना उचित नहीं लगा. उस ने पुन: फल, रजनीगंधा के फूल और मैगजीन सब नर्स को सौंपते हुए कहा, ‘‘मेरा कालेज का टाइम हो गया है. ये सब उसे दे दीजिएगा और…’’

‘‘और कह दूंगी तुम्हारे मीत ने दिया है,’’ नर्स ने मुसकराती हुए वाक्य पूरा किया.

शेखर गर्व से मुसकराते हुए लौट गया.

2 दिन के बाद शेखर पुन: हौस्पिटल आया. संगीता अपने बैड पर बैठी थी. शेखर को देखते ही उस के चेहरे पर मुसकान खिल उठी.

शेखर बैड के करीब आ कर बोला, ‘‘सौरी, मैं 2-3 बार आया पर…’’

संगीता बीच में ही बोल पड़ी, ‘‘मु?ो सब मालूम है. यह डायरी, ये फल, रजनीगंधा के फूल सब मेरे मीत के ही हैं. वैसे भी मैं तुम से सदा अकेले में ही मिलना चाहती हूं. भीड़ में गर तुम न ही मिलो तो ठीक है. वैसे भी मम्मीडैडी तुम्हें लाइक नहीं करते, धर्म के पक्के अनुयायी हैं.’’

शेखर ने उस की खैरियत जाननी चाही.

संगीता मुसकराते हुए बोली, ‘‘अरे मुझे कुछ नहीं हुआ. बिलकुल ठीक हूं. थोड़ा फीवर हुआ था. तुम्हें बहुत परेशान करती रहती हूं इसीलिए भुगतना पड़ा.’’

‘‘पर तेरी खबर सुन कर तो मेरी नींद ही उड़ गई,’’ शेखर चिंता भरे लहजे में बोला.

संगीता तब इठलाती हुई बोली, ‘‘नींद के मामले में मैं बहुत लकी हूं. जहां भी रहूं सोने से पहले जिस आखिरी इंसान से मेरी मुलाकात होती है. वह तुम हो. बस आंखें बंद कर लेती और सो जाती,’’ कह कर उस ने उसे बहुत ही मस्त नजरों से निहारा.

शेखर भी तब भावुकता में बहते हुए बोला, ‘‘मैं सुबह उठ कर सब से पहले बंद आंखों से जिस का चेहरा देखता हूं. वह हो सिर्फ तुम.’’

बातों ही बातों में संगीता ने बताया, ‘‘आज सुबह ही मम्मीपापा आए थे. डाक्टर ने डिस्चार्ज करने को कहा. दरअसल, वे लोग किसी रिश्तेदार के यहां फंक्शन में गए हैं सुबह लेने आएंगे.’’

‘‘मतलब एक रात और तुम्हें मरीज बन कर यहां रहना पडे़गा,’’ शेखर ने कहा.

‘‘नहीं, अब तुम आ गए न. अब डाक्टर से इजाजत ले लेती हूं. पेपर वगैरह सब रैडी हैं.’’

‘‘पर डाक्टर पूछेगा कि कौन लेने आया है तो क्या बोलोगी?’’ शेखर ने जिज्ञासा प्रकट की.

‘‘हां बोलूंगी कि मेरी सगी बहन के सगे भाई के जीजाजी आए हैं?’’

‘‘मतलब? ’’ शेखर ने आश्चर्यचकित हो पूछा.

‘‘मतलब तुम सम?ो मैं चली डाक्टर से मिलने.’’

संगीता फौरन डाक्टर से इजाजत ले कर

आ गई और अपना सामान समेटने लगी. फिर शेखर ने बैग उठाया और दोनों हौस्पिटल से बाहर निकल पडे़.

रिकशा बुलाने से पहले संगीता ने पूछा, ‘‘कहां चल रहे?’’

‘‘तुम्हें तुम्हारे घर छोड़ दूंगा और मैं उसी रिकशे से वापस आ जाऊंगा,’’ शेखर ने सहज भाव से कहा.

‘‘नहीं कहीं घूमने चलो न,’’ संगीता का आग्रह भरा स्वर था.

‘‘अभी तुम्हारी तबीयत नाजुक है. चुपचाप घर चलो,’’ शेखर ने सम?ाते हुए कहा.

‘‘अच्छा, चलो लस्सी पिला दो,’’ वह बच्चे की तरह जिद करती हुई बोली.

शेखर तब भड़क गया, ‘‘तेरा दिमाग तो ठीक है. अभी फीवर से उठी हो और लस्सी?’’

संगीता तपाक से बोली, ‘‘जब तक तुम नहीं मिलते दिमाग ठीक रहता है.’’

‘‘अगर मैं कभी न मिलूं तब तो बिलकुल ठीक रहोगी न?’’ शेखर ने जानबुझ कर सवाल किया.

तब संगीता घबराती हुए बोली, ‘‘अरे, ऐसा सोचना भी मत वरना तुम आगरा में मुमताज का ताजमहल निहारते रहोगे और मैं आगरा के पागलखाने में रहूंगी. वैसे भी आजीवन साथ रहना मुश्किल है, मेरे डैडी बहुत ही सख्त हैं… कुछ लमहे तो जी लूं.’’

शेखर उस की बकबक से तंग आ कर बोला, ‘‘प्लीज, अब रिकशे में बैठो. रास्ते में

थोड़ी देर ‘जूली पार्क’ में बैठेंगे फिर तुम्हें घर

छोड़ दूंगा.’’

थोड़ी देर के बाद दोनों ‘जूली पार्क’ में थे. शाम गहरा गई थी. सूरज की लालिमा अंतिम चरण में थी. अंधकार गहराता जा रहा था. शेखर पेड़ से टिक कर बैठा और संगीता उस की गोद में सिर रख लेट गई.

शेखर की ऊंगलियां संगीता की काली घनी जुल्फों से अठखेलियां करने लगीं. शेखर बिना बोले अपनी नई रचना सुनाता रहा और संगीता उस की गोद में सुकून से लेटी रही. वह वाकई में सो जाती उस से पहले ही शेखर ने उसे जगाते हुए चलने को कहा.

दोनो पुन: रिकशे में बैठ गए. संगीता काफी खुश थी. उस का सारा रोग काफूर हो गया था. शेखर भी संगीता से मिलने के बाद अपनेआप को काफी तरोताजा महसूस करने लगा.

शेखर ने संगीता को उस के घर के सामने ड्रौप करने के लिए रिकशा रुकवाया. सामने संगीता के मम्मीपापा दिखे. आंखों में भरपूर आक्रोश और नफरत दिखी. कुछ कहने के पहले ही संगीता के पापा आगे बढ़ने लगे. पर उस की मां ने उन्हें रोक लिया. संगीता भी माहौल को देखते हुए बिलकुल खामोश रही. रिकशे से उतर कर चुपचाप घर में चली गई.

शेखर का रिकशा आगे बढ़ गया. रास्ते में मजाक में कही संगीता की बात बारबार कचोटती रही… दोनों का प्यार धर्म की भेंट चढ़ जाएगा.

दूसरे दिन शेखर डरतेडरते संगीता के घर के सामने गया. पड़ोसियों से पता चला सारे लोग पंजाब चले गए हैं. शेखर ठगा सा रह गया. उस के पास अब रह गई थीं बस संगीता की यादें और कुछ खूबसूरत लमहे.

अचानक उस के बौडी गार्ड ने उसे खयालों की दुनिया से बाहर निकाला. शेखर को तब अपनी उपस्थिति का एहसास हुआ और थोड़ा झेंप गया. उस की पलकें गीली हो गईं पर गुजरे खूबसूरत लमहों के साथ जीने के लिए आगे बढ़ गया.

ग्रामीण परिवेश पर बनी फिल्में दर्शकों को है खास पसंद, आखिर क्या है वजह

Bollywood Films : बौलीवुड फिल्मों के लगातार फ्लौप होने की वजह से आज कुछ सिनेमाहौल या तो बंद हो चुके हैं या बंद होने के कगार पर हैं. ऐसे में आज फिल्म मेकर्स भी डरे हुए हैं और वे उसे हौल में नहीं, बल्कि ओटीटी पर रिलीज करना सुरक्षित महसूस कर रहे हैं.

पिछले दिनों ऐसी ही हालात अभिनेता राजकुमार राव की कौमेडी फिल्म ‘भूलचूक माफ’ के साथ देखने को मिला. फिल्म मेकर ने इसे ओटीटी पर रिलीज का प्लान बनाया और पीवीआर सिनेमाज ने मेकर्स पर ₹60 करोड़ का मुकदमा दायर कर दिया, क्योंकि फिल्म को सिनेमाघरों में रिलीज नहीं किया गया था. कोर्ट ने इस की ओटीटी रिलीज पर रोक लगा दी और अंत में यह फिल्म हौल में रिलीज हुई और दर्शकों ने इसे पसंद किया.

ओटीटी पर वैराइटी अधिक

असल में आज ओटीटी पर दर्शकों को अच्छी कंटैंट वाली फिल्में देखने को मिल जाती हैं और वे अपने तय समय में घर बैठे एक अच्छी कहानी को देख सकते हैं. ऐसे में, उन्हें थिएटर जाना पसंद नहीं होता. वे अपनीअपनी पसंद की फिल्में और वैबसीरीज के अलावा रिएलिटी शोज और शौर्ट फिल्म्स का आनंद भी घर बैठे ही ले सकते हैं.

आज ओटीटी पर मनोरंजन के लिए बड़ी लाइब्रेरी है. इस के अलावा ओटीटी पर कोई रोकटोक नहीं है कि आप केवल और केवल बौलीवुड की ही फिल्में या वैबसीरीज ही देखें. यहां आप को इंटरनैशनल से ले कर देशी और साउथ का मसाला फिल्म भी देखने को मिल जाता है.

ग्रामीण परिवेश अधिक पौपुलर

आजकल एक ट्रैंड दर्शकों के बीच काफी पौपुलर हो रहा है, जिस में उन्हें देहाती या ग्रामीण परिवेश पर बनी ओटीटी फिल्में अधिक पसंद आ रही हैं, क्योंकि ओटीटी पर कुछ फिल्में इतनी उबाऊ होती हैं कि 1 एपिसोड देखने का बाद ही दिमाग खराब हो जाता है.

वहीं ‘पंचायत’ और ‘ग्राम चिकित्सालय’ जैसी सुपरहिट सीरीज दर्शकों के सामने पेश करने वाले निर्माता हर बार नया और मजेदार कंटैंट थाली में परोसते हैं, जो हर किसी को पसंद आता है. इन वैबसीरीज और फिल्मों की वजह से सिनेमाघरों में अब लोग कम और ओटीटी पर अपना मनोरंजन करना ज्यादा पसंद करने लगे हैं. यही वजह है कि अब कई धमाकेदार वैबसीरीज के साथ फिल्में भी ओटीटी पर रिलीज होने लग गई हैं.

स्ट्रौंग कहानी, लोकल कलाकारों का पिछले कुछ सालों में शानदार प्रदर्शन रहा है. कम बजट में बनी इन वैबसीरीज के पहले सीजन से ही ओटीटी प्लेटफौर्म पर धमाका कर दिया था. कम बजट और नई स्टार कास्ट के साथ बनाई गई इन फिल्मों के रिलीज के बाद पूरी कास्ट मशहूर भी हो जाती है. इस का मुख्य कारण इस की स्ट्रौंग कहानियां और स्क्रिप्ट हैं, जिस से इसे बनाने वाले कम बजट में अच्छे कलाकारों के साथ गांव के परिवेश को दिखाते हुए पूरी फिल्म बना जाते हैं, जिस का सैटिस्फैक्शन निर्माता, निर्देशक से ले कर कलाकारों तक को हो जाता है, क्योंकि ओटीटी की सीमा निश्चित नहीं होती.

इतना ही नहीं इन फिल्मों को बनाते वक्त निर्माता निर्देशक मुख्य कलाकारों के अलावा सपोर्टिंग आर्टिस्ट भी उस गांव के कुछ लोकल लोगों को हायर कर लेते हैं, जिस से कम दाम में उन्हें लोकल लोग मिलते हैं और ऐसे स्थानीय लोगों को एक अच्छा काम कुछ दिनों के लिए मिल जाता है और वे खुशीखुशी इसे करने के लिए राजी भी हो जाते हैं.

इधर निर्देशक को एक ओरिजिनल गांव का वातावरण मिल जाता है. इन सीरीजों में प्यार, पैसा, सपने, धोखा सबकुछ एकसाथ देखने को मिलता है, जिस से अधिकतर दर्शक रिलेट कर पाते है.

ओरिजिनल कहानी गांव की

आज के समय में ‘पंचायत’ और ‘ग्राम चिकित्सालय’ दोनों ही लोकप्रिय हिंदी वैबसीरीज हैं, जो ग्रामीण परिवेश से जुड़ी हैं. पंचायत वैबसीरीज एक राजनीतिक ड्रामा है, जो एक युवा इंजीनियर के गांव में पंचायत चुनाव और प्रशासन में शामिल होने की कहानी है. कहानी में ग्रामीण राजनीति, भ्रष्टाचार और लोगों के बीच की असमानता को दिखाने की कोशिश की गई है. कहानी हास्य और संवेदना के मिश्रण के साथ ग्रामीण जीवन और लोगों के बीच के संबंधों को एक अनोखे तरीके से दर्शाती है.

वैबसीरीज ‘ग्राम चिकित्सालय’ एक कौमेडी ड्रामा है, जो एक डाक्टर के ग्रामीण अस्पताल में काम करने और लोगों की मदद करने की कहानी है. इस में भारत के उस गांव की कहानी दिखाता है, जहां अभी भी स्वास्थ्य सेवाएं बदहाल हैं, जहां एक झोलाछाप डाक्टर लोगों का इलाज करता है. उस पर गांव का हर एक आदमी आंख मूंद कर भरोषा करता है. वह इलाज गूगल और अपने अनुमान के सहारे करता है, लेकिन जब वहां एक पढ़ालिखा सही डाक्टर आता है, तो कोई भी उसे सहयोग नहीं करता.

यह कहानी भी गांव की उस स्थिति को दिखाती है, जो आज एआई आने के बाद भी देश में मौजूद है, इसलिए इसे दर्शक काफी पसंद भी कर रहे हैं.

परिवार को कर रहे हैं मिस

यहां इतना कहना सही होगा कि आज के दर्शकों को बड़ी बजट की लार्जर देन लाइफ फिल्में रास नहीं आ रही हैं और वे ग्रामीण परिवेश पर बनी इन फिल्मों को देखना अधिक पसंद कर रहे हैं. इस बारे में निर्माता निर्देशक गुड्डू धनोवा कहते हैं कि यह कंटैंट है, जिसे मैं ने भी देखा है. ‘पंचायत’ वैबसीरीज मुझे बहुत पसंद आई है. सिंपल सी कहानी, साधारण कलाकार, कोई ऐक्शन नहीं। सभी ने अच्छा काम किया है. जब तक मैं ने उसे पूरा देखा नहीं, उसे देखना बंद नहीं किया। इस तरह की चीजें अब सिनेमाहौल के अंदर नहीं आ रहा है.

आज देशी परिवार को दर्शक मिस कर रहे हैं. पब्लिक को अच्छा कंटैंट चाहिए. एक ने अगर किसी फिल्म को देख कर अच्छा कहा, तो सभी उसे देखते हैं और सभी को ऐसी कहानियां पसंद आ रही हैं. आज कंटैंट की मात्रा बहुत अधिक है और लोगों को घर बैठे बहुत सारी चीजें देखने को मिल रही हैं, जिस में उन की चौइस शामिल है. इसलिए लार्जर देन लाइफ फिल्म को देखने दर्शक तब जाएंगे, जब उस का कंटैंट एकदम अलग हो और इतना पैसा खर्च कर हौल तक वे तभी जाना पसंद करेंगे.

वैबसीरीज क्रिमिनल जस्टिस

‘बिहाइंड द क्लोज्ड डोर’ के लेखक अपूर्वा असरानी कहते हैं कि ग्रामीण परिवेश की कहानियां रूट से जुड़ी हुई होती हैं, जिस से आज के दर्शक खुद को रिलेट कर पाते हैं, जबकि विदेशी कहनियों से वे खुद को जोङ नहीं पाते, इसलिए उन फिल्मों को दर्शक नकार देते हैं. खुद की कहानी में दर्शक को सचाई दिखती है. आज की जैनरेशन रिएलिटी में रहना अधिक पसंद करती है और सच्ची, घरगृहस्थी की कहानी उन्हें अधिक इंटरटेन करती है. इसलिए हकीकत से जुड़ी सारी फिल्में और वैबसीरीज आज सफल हो रही हैं.

इसलिए फिल्मों की कहानियां सच्ची हों, दर्शक उन्हें खुद से रिलेट महसूस करेंगे, तभी उन्हें न केवल ओटीटी पर, सिनेमाघरों में भी दर्शक देखना पसंद करेंगे। फिल्म मेकर को भी खास ध्यान देने की जरूरत है, क्योंकि आज के दर्शक जागरूक हैं और उन्हें हकीकत से दूर कुछ भी दिखा कर सिनेमाघरों तक लाना आज संभव नहीं.

सलमान की हरकतों से नाराज थींं Sonali Bendre, लेकिन बुरे वक्त में दिखा उनका असली चेहरा

Sonali Bendre : सलमान खान और सोनाली बेंद्रे एक साथ सूरज बड़जात्या की फिल्म हम साथ साथ हैं में बतौर हीरो हीरोइन काम कर चुके हैं, लेकिन इसी बीच सोनाली बेंद्रे की सलमान से कोई दोस्ती नहीं थी, क्योंकि इसके पीछे यह वजह थी कि सलमान शूटिंग के दौरान सोनाली बेंद्रे को अजीब अजीब हरकतें करके चिढ़ाया करते थे. जब सोनाली कैमरे के सामने क्लोज शॉट दे रही होती थी. वह बहुत मस्तीखोर थे एकदम बच्चों की तरह, लेकिन उस वक्त मुझे सलमान का व्यवहार अच्छा नहीं लगता था. लगता था कि वह एरोगेंट है जानबूझकर मुझे परेशान कर रहे हैं, उनकी हरकतें बहुत इरिटेट करती थी, लेकिन सलमान को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था, भले मुझे उस दौरान उनकी हरकतों से बुरा लगता हो, उस वक्त वह किसी शैतान बच्चे से काम नहीं थे. खैर फिर फिल्म रिलीज हो गई हमारे रास्ते भी बदल गए.

लेकिन कई सालों बाद जब मुझे कैंसर हुआ तो उस दौरान मेरी चिंता करने वालों में सबसे आगे सलमान खान खड़े थे, तो उस वक्त मुझे बहुत आश्चर्य हुआ की क्या यह वही इंसान है जो मुझे शूटिंग के दौरान परेशान किया करता था. मैंने सपने में भी नहीं सोचा था की सलमान मेरी इतनी चिंता करेंगे उन्होंने सिर्फ मेरी चिंता ही नहीं की, बल्कि मेरे पति गोल्डी को डॉक्टरों की लिस्ट भी भेज दी जो न्यूयॉर्क के बेहतरीन डॉक्टर हैं. इतना ही नहीं सलमान दो बार मुझे न्यूयॉर्क भी मिलने आए जब मैं हॉस्पिटल में एडमिट थी.

जब मुझे सलमान का यह दूसरा साइड दिखाई दिया जिसमें कई सारे इमोशन जुड़े थे. वह बहुत ही ज्यादा सेंसिटिव और केयरिंग इंसान है इस बात का एहसास मुझे कैंसर के दौरान ही हुआ वह मुझे अपने बड़े भाई जैसे लगे, सच कहूं तो इंडस्ट्री में सिर्फ वह मेरे ही बड़े भाई नहीं है बल्कि बहुत सारे लोगों के बुरे वक्त में वह काम आए हैं. वह मेरे पति गोल्डी से कहते थे कि मुझे पता है कि तुमने इलाज शुरू कर दिया है लेकिन मैं एक और अच्छे डॉक्टर का नंबर भेज रहा हूं उससे भी बात कर लो, उनकी इस अच्छाई ने मेरे और सलमान के बीच के सारे मतभेद को खत्म कर दिया और मैं यह सोचने पर मजबूर हो गई कि मैंने सलमान को लेकर कितनी गलत धारणा बनाकर रखी थी. जैसे दिखते हैं शरारती शैतान , उससे बिल्कुल विपरीत हैं. इस बात का एहसास मुझे मेरे बुरे वक्त में ही हुआ.

Meghalaya Honeymoon Murder : साथ रहने के लिए शादी की जरूरत ही क्यों ?

Meghalaya Honeymoon Murder : मध्य प्रदेश की सोनम रघुवंशी का मामला इन दिनों सुर्खियों में है. सोनम पर आरोप है कि उस ने अपने प्रेमी के साथ मिल कर अपने पति की हत्या करवा दी. कुछ दिन पहले मेरठ की मुसकान का मामला भी सुर्खियों में था. मुसकान ने अपने प्रेमी के साथ मिल कर पति की हत्या कर दी. औरैया की प्रगति की दिलीप से शादी हुई और शादी के 14वें दिन ही प्रगति ने भाड़े के हत्यारों से अपने पति की हत्या करवा दी.

हैदराबाद के गुरुमूर्ति ने अपनी पत्नी माधवी को मार कर उस के टुकड़े टुकड़े किए और फिर उन टुकड़ों को कुकर में उबाल दिया.

अमरोहा की रहने वाली शबनम ने अपने प्रेमी सलीम के साथ मिल कर 14-15 अप्रैल, 2008 की रात को अपने ही परिवार के 7 लोगों को नशीला पदार्थ दे कर उन का गला काट दिया था.

सलीम और शबनम के बीच शारीरिक संबंध थे, जिस से शबनम कुंआरे में ही प्रैगनैंट हो गई थी. सहारनपुर के योगेश रोहिला को अपनी पत्नी नेहा पर शक था। उस ने पत्नी को गोली मार दी और साथ ही अपने 3 बच्चों को भी गोली मार कर उन्हें छत से नीचे फेंक दिया.

सवाल यह है कि इस तरह घटनाएं क्यों बढ़ रही हैं?

दोषी कौन

ऐसी तमाम घटनाओं के पीछे कई सामाजिक कारण भी छिपे होते हैं जिन पर बात नहीं होती. स्त्रीपुरुषों के बीच प्रेम संबंध होना स्वाभाविक होता है. यह प्रेम संबंध शादी से पहले भी हो सकता है और शादी के बाद भी लेकिन समाज तो शादी से पहले के ही संबंधों को स्वीकार नहीं करता. शादी के बाद होने वाले संबंधों को तो हमारा समाज पाप या गुनाह के तौर पर देखता है. समाज की यह मानसिकता धर्म से निकलती है और यहीं से समस्याएं शुरू होती हैं.

पुरोहित वर्ग कभी नहीं चाहता कि औरतें उस के हाथों से निकल जाएं इसलिए वह इस तरह के प्रेम संबंधों में शामिल औरतों को कुलटा, बदचलन या रंडी शब्द से नवाजता है.

किसी औरत को अपने पति के अलावा किसी और से प्रेम हो जाए यह बात समाज हजम नहीं कर पाता. यहां समाज के अंदर बैठा पुरुषवाद हावी हो जाता है.

योगेश ने अपनी पत्नी और बच्चों की हत्या इसी वजह से की क्योंकि वह अपनी पत्नी के ऐक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर को बरदाश्त नहीं कर पाया. सवाल यह है कि पुरुषों में योगेश जैसी मानसिकता के होते हुए क्या कोई महिला हिम्मत कर सकती है कि वह अपनी जिंदगी को स्वयं तय कर सके? अगर किसी शादीशुदा औरत को किसी और मर्द से प्यार हो जाए तो उस के पास क्या विकल्प बचता है? यही न कि वह अपने पति से तलाक ले ले लेकिन अगर पति तलाक न देना चाहे तब वह क्या करे?

इस तरह की परिस्थितियों में समाज का रवैया कभी भी औरतों के पक्ष में नहीं होता क्योंकि समाज औरतों को इस लायक समझता ही नहीं कि वे अपनी जिंदगी अपने तौर तरीके से जिएं.

कई ऐसे मामले भी हैं जिन में पति का किसी और महिला से अफेयर होने के बाद उस ने अपनी पत्नी को ठिकाने लगा दिया. यहां भी पुरुषवादी सोच ही जिम्मेदार है. क्या मर्द अपनी पहली पत्नी को तलाक दे कर दूसरी से शादी नहीं कर सकता था? लेकिन ऐसा करने पर उस की पहली पत्नी दूसरी शादी कर लेती या अपने पति की बेवफाई का बदला लेने के लिए कहीं और अफेयर चलाती, यह मर्द बरदाश्त नहीं कर सकता इसलिए वह अपनी पहली बीवी की हत्या कर देता है.

2012 मूवी की शुरुआत में एक सीन है जिस में फिल्म का हीरो अपने दोनों बच्चों को लेने अपनी पत्नी के घर जाता है जो अपने बौयफ्रैंड के साथ लिवइन में रहती है. एक सीन में हीरो और उस के बीवीबच्चों के साथ उस की बीवी का बौयफ्रैंड भी हवाई जहाज में साथ होता है. फिल्म का यह दृश्य अमेरिकन समाज की हकीकत है. वहां औरतों को इतनी आजादी है कि वह अपने रास्ते खुद तय कर सकें.

क्या भारतीय में ऐसी कल्पना भी की जा सकती है

सभ्य समाज में इंसान के हाथों इंसान का कत्ल कभी भी माफी के काबिल नही होता. ऐसे हर अपराध में अपराधी को सजा जरूर मिलनी चाहिए. मुसकान हो, शबनम हो या फिर प्रगति ये सब समाज के अपराधी हैं. इन्हें कठोर सजा जरूर मिलनी चाहिए लेकिन इन के अपराधी बनने में सिर्फ और सिर्फ यही जिम्मेदार नहीं हैं, हमारा समाज और हमारी सामाजिकता की संकीर्णताओं से उपजी वृहद विकृतियों में ऐसी उर्वरकता हमेशा मौजूद होती है जहां से थोक के भाव मे ऐसे अपराधी जन्म लेते हैं.

जब कुदरत किसी लड़की को प्रेम के लिए तैयार कर देता है तब समाज उस की इच्छाओं के आगे कई दीवारें खड़ी कर देता है। यहीं से शबनम, प्रगति और मुसकान जैसी चुड़ैलों का उदय होता है.

शादी से पहले सैक्स तो दूर की बात है. लड़की के लिए तो खुल कर हंसना भी वर्जित है. वह क्या करे जब उसे प्रेम हो जाए? वह क्या करे जब वह कुंआरेपन में प्रैगनैंट हो जाए? वह क्या करे जब उसे अपने पति से प्रेम न हो. वह क्या करे जब उसे शादी के बाद किसी और से प्यार हो जाए? समाज में इस तरह की बातों को स्वीकार करने कोई गुंजाइश नहीं. कोई खिड़की कोई दरवाजा भी तो नहीं जहां से इसे हजम करने की कोई गुंजाइश बाकी हो।

2 प्यार करने वालों को खुदकुशी पर मजबूर करने वाला समाज या प्रेमी जोड़ों की थोक के भाव मे हत्याएं करने वाला समाज कभी शबनम, मुसकान और प्रगति के सच को नहीं समझ पाएगा.

शादी की जरूरत ही क्यों

प्रकृति में नर और मादा के मिलन से नया जीवन पैदा होता है। इस में कहीं किसी धर्म की जरूरत नहीं. जन्म की तरह मृत्यु भी एक प्राकृतिक घटना है। इस में भी किसी धर्म की जरूरत नहीं. नर और मादा मिल कर नया जीवन पैदा करें यह भी प्राकृतिक है. पशुपक्षी भी जोड़ी बनाते हैं, सहवास करते हैं और अपनी नस्ल आगे बढ़ाते हैं. इंसान एक सामाजिक पशु ही है इसलिए उसे भी सहवास के लिए विपरीत लिंग की जरूरत पड़ती है.

सामाजिक प्राणी होने के नाते जोड़ी बनाने के लिए सामाजिक नियम तय किए गए ताकि समाजिक व्यवस्था में असंतुलन पैदा न हो, इसलिए कबीलाई दौर में वयस्क होने पर लड़का और लड़की को साथ रहने की अनुमति समाज से लेनी पड़ती थी. यहीं से विवाह, शादी या निकाह की परंपरा शुरू हुई.

आज भी कई आदिवासी जनजातियों में जहां कोई धर्म नहीं पहुंचा वहां उन के अपने कस्टम फौलो किए जाते हैं, जिन में किसी पुरोहित की जरूरत नहीं होती और यह परंपराएं हजारों वर्षों से यों ही चली आ रही हैं.

स्त्री को पुरुष की और पुरुष को स्त्री की जरूरत है. इसी जरूरत को पूरा करने की खातिर कबीलाई युग में शादियों का प्रचलन शुरू हुआ. उस से पहले नर और मादा स्वछंद हो कर जोड़ियां बनाते थे और तब तक साथ रहते थे जब तक दोनों को एकदूजे की जरूरत होती थी.

मातृसत्तात्मक समाज में औरत के लिए बंदिशें नहीं थीं लेकिन जैसेजैसे हम कबीलों से सभ्यताओं की ओर आगे बढ़ते गए, पितृसत्तात्मक समाज बनता गया और इस मर्दवादी समाज में औरतों के दायरे सिमटते चले गए. धीरेधीरे सभ्यताओं के विस्तार का यह दौर सत्ता ताकत और वर्चस्व की होड़ में बदल गया.

ताकत, सत्ता या वर्चस्व की लड़ाई में मरनेमारने वाले लोगों में औरतें नहीं होती थीं. वे घरों में रह कर पति के लौटने का इंतजार करतीं यदि पति मर जाएं तो उस के नाम पर पूरी जिंदगी गुजार देतीं और जिंदगीभर ससुराल में रह कर पति के परिवार की गुलामी करतीं. कभी शिकायत न करतीं. जीवनभर की इस गुलामी के एवज में उसे ‘आदर्श नारी’ का खिताब मिलता था.

जो औरत जितनी शिद्दत और वफादारी के साथ अपनी गुलामी को निभाती वह उतनी ही अच्छी मानी जाती थी.

सहना, औरत का गहना हो गया. उस का आस्तित्व पति, पिता, भाई और बेटा के बिना कुछ नहीं था. इस तरह धीरेधीरे आधी आबादी गुलाम हो कर रह गई. आदर्श नारी के इस कौंसैप्ट में बदचलनी के लिए कोई जगह नहीं थी. किसी भी मामले में नारी की मरजी का तो सवाल ही नहीं था. शादी से पहले उस के जीवन की डोर उस के पिता या भाई के हाथों में थी तो शादी के बाद उस का पति ही उस का मालिक था.

ऐसे दौर में लड़कियां खरीदी जाती थीं, बेची जाती थी, जीती जाती थीं या चुरा ली जाती थीं. सब ताकत का खेल था. जो जितना धनी था उस के पास उसी अनुपात में औरतें होती थीं. संवेदनाओं और मानवता के धरातल पर औरतों की कीमत लगातार घटती चली गई.

एक वक्त आया जब औरत बोझ हो गई. बोझ को निबटाने की खातिर धन खर्च किया जाने लगा. इस तरह पूरब की दुनिया में दहेज प्रथा की शुरुआत हुई. लड़की की मरजी के कोई मायने नहीं थे. शादी के नाम पर हवस की शिकार होने के साथ वह बच्चे पैदा करने की मशीन ही थी. पति के घर में बंधुआ मजदूर बन कर जीवन गुजार देने के उदाहरण पर उस की बेटियां चलतीं और उन बेटियों को आदर्श नारी का गुण सिखाना घर की बड़ीबूढ़ी औरतों की जिम्मेदारी थी.

आप कहेंगे कि जमाना बदल गया है. आजकल की शादियां वैसी नहीं होतीं. आज लड़की की रजामंदी भी पूछी जाती है. आज लड़कियों को तालीम दी जा रही है. वे नौकरियां कर रही हैं लेकिन यह पूरा सच नहीं है. समाज के बहुसंख्यक हिस्से में आज भी लड़कियों की मरजी के कोई मायने नहीं हैं. वे पढ़ रही हैं ताकि दहेज कम लगे. वे नौकरियों में भी खुद की मरजी से नहीं हैं बल्कि घर वालों ने बाकायदा इस के लिए इजाजत दी है.

कोई लड़की अपनी मरजी से अपनी पसंद के लड़के के साथ शादी नहीं कर सकती। जो ऐसा कर पाने में सक्षम होती है उसे बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं और बहुत कुछ झेलना पड़ता है. खाप पंचायतों से बच गई तो औनर किलिंग का खतरा तो होता ही है। इस से भी बच गई तो जीवनभर सामाजिक तिरस्कार का सामना तो उसे करना ही होता है.

पवित्रता की आड़ में और नैतिकता के नाम पर होने वाले कुंठाओं के इस प्रायोजित कार्यक्रम में पवित्रता और नैतिकता जैसी कोई बात तो होती ही नहीं. लड़की की मरजी के बिना उस की शादी कर देने में कैसी पवित्रता है? कन्या को दान की वस्तु समझ कर झटपट उसे निबटा देने में कौन सी नैतिकता है? कन्या अगर दान की सामग्री ही है तो दामाद को मोटा रिश्वत क्यों?

गरीब हो या मिडिल क्लास, विवाह सभी के लिए खुशी कम और मुसीबत ज्यादा है. सक्षम वर्ग या ऐलीट क्लास के लिए परंपराएं कभी बेड़ियां नहीं बनतीं. 90% आबादी जिन परंपराओं के बोझ तले दब कर कराह रही होती हैं, ऊपर की 10% आबादी उन्हीं अकीदों को ऐंजौय करती है. शादियों के मामले में भी यही होता है.

अपनी दादी की शादी की उम्र का पता कीजिये. 10-12 साल में शादी और फिर यौवन की दहलीज तक पहुंचने तक 10-12 बच्चे. 30 की आयु तक तो औरतें नानीदादी बन जाती थीं. 10-12 साल की बच्चियों के साथ विवाह के नाम पर हर घर में पवित्र बालात्कार होता था.

13 साल की उम्र में बच्चा पैदा करते समय लड़की की दर्दनाक मौत पर संवेदनाएं दर्ज करवाने की कोई परंपरा विकसित नहीं हुई थी. यह तो भाग्य का खेल था. लड़की की मय्यत दफनाने के साथ ही लड़के की दूसरी शादी की तैयारियां शुरू हो जाती थीं.

नबी और अवतारों ने शादियों के नाम पर अपनी पत्नियों के साथ जो उदाहरण पेश किए हैं क्या आप अपनी बेटियों को ऐसी शादी का हिस्सा बनने दे सकते हैं?

आज शादी जैसी प्रथा को ढोते रहने की कोई जरूरत ही नहीं है. इस के लिए जरूरी है कि हम मानवीय हो कर स्त्री और पुरुष के नैसर्गिक संबंधों पर तार्किक हो कर सोचना शुरू करें. इश्क को हवा दें. 2 जवां दिलों के बीच की मुहब्बत को स्वीकार करें.

फिलहाल लिव इन रिलेशनशिप परंपरागत शादियों का विकल्प हो सकती है. इसे खुले दिल से स्वीकार करें.

क्या विवाह व्यवस्था खत्म होने से मनुष्य जानवर हो जाएगा

कुछ लोग यह कुतर्क कर सकते हैं कि शादी के बिना तो हम जानवर जैसे हो जाएंगे.

दुनिया के तमाम विकसित देशों में शादियां कोई जन्मजन्मांतर का बंधन नहीं रह गईं। फिर भी वहां की सोसायटी हर मामले में हम से बेहतर हैं. दुनिया के 10 खुशहाल देशों की सामाजिक व्यवस्था को ही देख लीजिए, जहां ज्यादातर लोग बिन शादी के खुशीखुशी रहते हैं. बिन शादी के बच्चे भी होते हैं. वे तो जानवर नहीं हो गए?

शादियों पर होने वाले खर्च के मामले में भारत सब से आगे है और शादियों के बाद दहेज उत्पीड़न, घरेलू कलह या घरेलू हिंसा के मामले में भी हमारा देश दुनिया मे सब से आगे है.

शादी की व्यवस्था कई सामाजिक बुराइयों को जन्म देती है, साथ ही यह व्यवस्था महिला विरोधी भी होती है. औरतों का सब से ज्यादा उत्पीड़न शादियों के नाम पर ही होता है. गरीब तबके की ज्यादातर शादियों में लड़की मैच्योर नहीं होती. जब तक उसे दुनियादारी की समझ होती है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है. ऐसे में उस के पास रिश्ते को झेलने के अलावा कोई और दूसरा विकल्प बचता ही नहीं.

शादी खत्म तो तलाक का झंझट भी खत्म और दोनों के खत्म होते ही शादियों के नाम पर होने वाली सामाजिक हरामखोरी भी खत्म हो जाएगी.

जब तक दिल मिले साथ रहें. जब रिश्ता बोझ बन जाए तो अलग हो जाएं. इस में गलत क्या है?

हमारा समाज नर और मादा की ‘नैचुरल नीड’ को ‘जन्मजन्मांतर का रिश्ता’ बताने का ढोंग करता है और एक औरत को एक मर्द के साथ संस्कारों की मजबूत जंजीरों से बांध कर आशीर्वाद के रूप में दोनों को ताउम्र साथ रहने की जिद थमा देता है और इस गठबंधन पर ईश्वरीय मुहर लगा कर इसे ‘विवाह’ का नाम दे देता है. इस अमानवीय और अप्राकृतिक प्रायोजन में नारी की संवेदनाओं के लिए कोई जगह नहीं होती. भारतीय उपमहाद्वीप में विवाह पद्धति चाहे जो हो, शादी का मतलब बस यही होता है.

ठंडे दिमाग से इस सवाल पर विचार कीजिए कि 2 जवां इंसानों को साथ रहने के लिए शादी की जरूरत ही क्यों?

Glowing Skin : फ्लॉलेस रिच लुक कुछ ही मिनटों में

Glowing Skin : मौनसून सीजन आ चुका है यानी शौर्ट ड्रैस, स्लीवलैस मिडी और टौप्स में अपने रिच लुक को फ्लौंट करने का सीजन. मगर इस के लिए स्किन का स्मूद और ग्लोइंग दिखना भी बेहद जरूरी है. आमतौर पर लड़कियां हेयर रिमूवल क्रीम तो ले लेती हैं मगर क्या उस में नैचुरल प्रौपर्टीज होती हैं जो उन की स्किन टाइप को सूट करें वह भी बिना किसी डैमेज के?

जी हां, हेयर रिमूवल क्रीम लेने से पहले यह भी जानना जरूरी है कि वह आप की स्किन टाइप को सूट करेगी या नहीं. अब मार्केट में ऐसी हेयर रिमूवल क्रीम्स आ गई हैं जो सिर्फ 3 मिनट में आप को अनचाहे बालों से छुटकारा भी दिला देंगी और स्मूदस्किन भी देगी वह भी बिना स्किन को डैमेज किए. बस क्रीम चुनने से पहले इन बातों का ध्यान रखना होगा:

स्किन टाइप का ध्यान रखें

अपनी स्किन टाइप के अनुसार हेयर रिमूवल क्रीम चुनें. यदि स्किन सैंसिटिव है तो नैचुरल प्रौपर्टीज जैसे पपाया और ऐलोवेरा के गुणों वाली क्रीम चुनें. पपाया ऐंटीऔक्सीडैंट रिच होता है जो न सिर्फ स्किन को ड्राई होने से बचाने में मदद करता है बल्कि उस की नमी को भी बरकरार रखता है. वही ऐलोवेरा स्किन को स्मूद बनाए रखता है.

यदि स्किन नौर्मल है और आप को ब्राइट शाइन स्किन लुक चाहिए तो स्ट्राबेरी के गुणों वाली हेयर रिमूवल क्रीम ले सकती हैं. शाइनी स्किन शौर्ट ड्रैसेज में आप के लुक को और भी रिच फील देगी.

अगर स्किन ड्राई है तो डायमंड हेयर रिमूवल क्रीम सही विकल्प हो सकती है. ड्राई स्किन वालों को यह ध्यान रखना चाहिए कि हेयर रिमूवल क्रीम इस्तेमाल करने के बाद त्वचा की नमी बनाए रखने पर खास ध्यान दें.

नई हेयर रिमूवल क्रीम को इस्तेमाल करना भी बेहद आसान है. बस पैक पर लिखे 3 स्टैप्स वाली इंस्ट्रक्शंस को फौलो करें और सिर्फ 3 मिनट में पाएं दमकती हुई स्मूद स्किन. तो फिर देर किस बात की आप भी अपना स्टाइल और लुक फ्लौंट करें बिना किसी बेझिझक के.

True Happiness : कितना जरूरी है आप का खुश रहना

True Happiness : सोहन भैया और भाभी के बारे में अजीब सी खबर मिली कि दोनों अलग हो रहे हैं. मन खिन्न हो गया. शादी के 28 सालों बाद ऐसा फैसला? बेचैन हो कर बेबी ने भाभी को फोन लगा दिया.

‘‘हैलो भाभी, कैसे हैं आप लोग? मिन्नी कैसी है? आज सुबह से आप दोनों की बहुत याद आ रही थी, बस फोन लगा दिया,’’ बेबी ने एक ही सांस में अनेक सवाल कर डाले.

‘‘बहुत अच्छा किया बेबी. जिंदगी चल रही है और क्या बताऊं अच्छा बताओ, तुम सब कैसे हो? मिन्नी मस्त है पति के साथ. आस्ट्रेलिया घूम रही है,’’ भाभी की आवाज में वह चहक नहीं थी. बहुत कम और नपातुला बोल रही थी.

क्षणिक सौंदर्य का परदा

भाभी से बात करने के बाद दिल खुदबखुद अतीत की गलियों में मुड़ गया. सोहन भैया पूरे परिवार की शान थे. किसी भी बच्चे की बात हो,  घूमफिर कर उसे भैया पर ही आना होता था. आखिर भैया थे ही ऐसे या कहूं आज भी वैसे ही हैं. भीड़ में सब से अलग. शुरू से पढ़नेलिखने में अव्वल, ऐक्स्ट्रा करिकुलर ऐक्टिविटीज में अव्वल तिस पर दिखने में भी हीरो से कम न थे. दोनों छोटे भाईबहन सोहन के सगे कहला कर खुश हो जाते थे. अपनी पहचान से कोई खास सरोकार नहीं था उन्हें. आईआईटी से इंजीनियरिंग फिर अमेरिका से एमबीए की डिगरी ले कर भैया अपनी ड्रीम जौब में व्यस्त हो गए. उन के लिए एक से एक रिश्ते आने लगे. जाने कितनी जगह बात बनी, बिगड़ी. पता नहीं कैसी लड़की की कल्पना थी भैया को.

आखिरकार ‘कल्पना’ पसंद आ गई. कल्पना उन की दूर की एक मामी की रिश्तेदारी में थी. मामी ने सुन रखा था भैया सुंदरता के पुजारी बन कर बैठे हैं और बस इसी बात का फायदा उठाते हुए मामी ने कल्पना और भैया को मिलवा दिया. गांव की भोलीभाली गोरी की मासूम सुंदरता पर भैया लट्टू हो गए और ऐलान कर दिया कि अब शादी करेंगे तो इसी लड़की से वरना नहीं.

हालांकि मां अपनी दूरदर्शिता से पहले ही सबकुछ भांप चुकी थीं कि सौंदर्य का यह परदा क्षणिक सुख देने वाला है. मानसिक और बौद्धिक स्तर पर सोहन और कल्पना नदी के 2 किनारे थे. मां ने दबी जबान ने इस रिश्ते का विरोध भी किया पर भैया की जिद के आगे उन की एक न चली. नियति को यही मंजूर था. आखिरकार उन की शादी हो गई और कल्पना बड़ी भाभी के रूप में परिवार में शामिल हो गईं.

धीरेधीरे भैयाभाभी के वैचारिक मतभेद उजागर होने लगे. हालांकि इस बात का रोना भाई साहब ही ज्यादा रोते थे. भाभी वास्तविक रूप से गृहस्थी पार लगा रही थीं. उन के पास समय कहां था इन सब बातों के लिए. बहरहाल, जिंदगी की गाड़ी धीमी गति से चलती रही. इसी बीच मिन्नी का जन्म हो गया और दोनों छोटे भाईबहन भी अपनेअपने घरपरिवार में बिजी हो गए.

जब मनचाहा परिणाम नहीं मिले

सोहन भैया नौकरी में निरंतर उच्च पायदान चढ़तेचढ़ते पिछले 2 साल से लंदन शिफ्ट हो गए. भाभी से उन की दूरी हमेशा से थी. भाभी से बस अपने काम भर का मतलब रखते. गिन्नी की शादी के बाद उन के जीवन का यह एकमात्र सेतु भी टूट गया.

मां सच ही कहा करती थीं, तुम्हारा भाई सब से अलग है. आज इस खबर ने इस बात की एक बार फिर से पुष्टि कर दी. जीवन का एकएक कार्य पूर्वनियोजित और संतुलित मानो दिमाग में हर चीज का खाका पहले से खींच रखा हो कि कब, क्या और कैसे करना है.

यह विस्फोट भी उसी प्लानिंग का नमूना प्रतीत हो रहा था. भाभी जितना ही खुद को भैया के अनुरूप ढालने का प्रयत्न करतीं, भैया उतना ही चिढ़ जाते. वे कुशल नट की तरह जिंदगी की कलाबाजियां दिखाते और भाभी से भी वैसे ही खेल की उम्मीद रखते. मनचाहा परिणाम नहीं मिलने पर भाभी को तिरस्कृत और अपमानित करते. भाभी को डांटते समय वे न जगह देखते, न समय. भैया एक आदर्श बेटा, भाई, पिता, अधिकारी सब बने पर आदर्श पति नहीं बन पाए.

एक स्त्री होने के नाते बेबी भाभी की मनोस्थिति समझ पा रही थी. अस्तित्वहीन जिंदगी जीने से अच्छा है अपनी पहचान कायम कर अपने बलबूते पर जीया जाए. पति की उपेक्षा झेलतेझेलते कल्पना थक चुकी थीं. सहनशक्ति भी एक सीमा तक ही होती है. इस बीच जिंदगी ने उन्हें अनेक शैक्षणिक और व्यावहारिक सबक सिखाए. अपने इन्हीं हुनर के बलबूते उन का खोया स्वाभिमान जाग उठा. पति के दिए झटके से विचलित नहीं हुईं बल्कि इस खोखले दांपत्य से अलग होने का निर्णय ले लिया वह भी बिलकुल शांतिपूर्ण और संयमित तरीके से.

समय रहते स्वयं को पहचानें

आखिरकार वह दिन भी आ गया जब बेबी कल्पना भाभी को रिसीव करने एअरपोर्ट पर थी. सधी चाल से चली आ रही भाभी की स्मार्टनैस और मैच्योरिटी साफ झलक रही थी. उन्हें अब किसी सहारे की जरूरत नहीं थी. उन्होंने तय कर लिया था कि अब खुद की खुशी के लिए जीना है.भाभी ने पास आ कर उसे गले से लगा लिया. उन के चेहरे पर कहीं कोई शिकन या पछतावे का भाव नहीं था. अब तक उन्होंने रिश्ता निभाने की पुरजोर कोशिश की पर अब इस एकतरफा पहल पर लगाम लगाने का समय आ गया है.

सोहन लंदन में ही रह गए. रिटायरमैंट के बाद वापस आएंगे. इतने दिनों में शायद होश ठिकाने आ जाए. कल्पना ससुराल के पैतृक निवास में रह रही हैं. एक बार फिर से सूना, बंद पड़ा घर आबाद हो गया है. यहां आजकल सुबहशाम पेंटिंग और ड्राइंग की क्लासेज चलती हैं और कल्पना अपने हुनर को एक नया आयाम दे रही हैं. उन की कलात्मकता हर तरफ सराही जाती है. एक बार फिर वे पहले की तरह चहकनेफुदकने लगी हैं और यह देख कर दिल को बहुत सुकून मिलता है.

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सवाल-

मैं कौलेज टाइम में किसी लड़के से बहुत प्यार करती थी. मगर कभी उस से अपने प्यार का इजहार नहीं कर सकी. बाद में मेरी अरेंज्ड मैरिज हो गई. पति काफी अंडरस्टैंडिंग और केयरिंग नेचर के हैं. मैं अपनी जिंदगी में काफी खुश थी, मगर एक दिन अचानक जिंदगी में तूफान आ गया. दरअसल, फेसबुक पर उसी लड़के का मैसेज आया कि वह मुझ से बात करना चाहता है. मेरे मन में दबा प्यार फिर से जाग उठा. मैं ने तुरंत उस के मैसेज का जवाब दिया. फेसबुक पर हमारी दोस्ती फिर से परवान चढ़ने लगी. मैं अपना खाली समय उस से बातें करने में गुजारने लगी. धीरेधीरे शर्म और संकोच की दीवारें गिरने लगीं. फिर एक दिन उस ने मुझे अकेले में मिलने बुलाया. मैं उस के इरादों से वाकिफ हूं, इसलिए हिम्मत नहीं हो रही कि इतना बड़ा कदम उठाऊं या नहीं. उधर मन में दबा प्यार मुझे यह कदम उठाने की जिद कर रहा है. बताएं मैं क्या करूं?

जवाब-

यह बात सच है कि पहले प्यार को इंसान कभी नहीं भूल पाता, मगर जब जिंदगी आगे बढ़ चुकी हो तो लौट कर उस राह जाना मूर्खता होगी. वैसे भी आप को कोई अपने पति से शिकायत नहीं है. ऐसे में प्रेमी से रिश्ता जोड़ कर नाहक अपनी परेशानियां न बढ़ाएं. उस लड़के को स्पष्ट रूप से ताकीद कर दें कि आप उस से केवल हैल्दी फ्रैंडशिप की उम्मीद रखती हैं, जो आप के जीवन की एकरसता दूर कर मन को सुकून और प्रेरणा दे. मगर शारीरिक रूप से जुड़ कर आप इस रिश्ते के साथसाथ अपने वैवाहिक रिश्ते के साथ भी अन्याय करेंगी. इसलिए देर न करते हुए बिना किसी तरह की दुविधा मन में लिए अपने प्रेमी से इस बारे में बात कर उसे अपना फैसला सुनाएं.

पाठक अपनी समस्याएं इस पते पर भेजें : गृहशोभा, ई-8, रानी झांसी मार्ग, नई दिल्ली-110055.

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Hindi Story Collection: प्यार का खेल

Hindi Story Collection: आज से 6-7 साल पहले जब पहली बार तुम्हारा फोन आया था तब भी मैं नहीं समझ पाया था कि तुम खेल खेलने में इतनी प्रवीण होगी या खेल खेलना तुम्हें बहुत अच्छा लगता होगा. मैं अपनी बात बताऊं तो वौलीबौल छोड़ कर और कोई खेल मुझे कभी नहीं आया. यहां तक कि बचपन में गुल्लीडंडा, आइसपाइस या चोरसिपाही में मैं बहुत फिसड्डी माना जाता था. फिर अन्य खेलों की तो बात ही छोड़ दीजिए कुश्ती, क्रिकेट, हौकी, कूद, अखाड़ा आदि. वौलीबौल भी सिर्फ 3 साल स्कूल के दिनों में छठीं, 7वीं और 8वीं में था, देवीपाटन जूनियर हाईस्कूल में. उन दिनों स्कूल में नईनई अंतर्क्षेत्रीय वौलीबौल प्रतियोगिता का शुभारंभ हुआ था और पता नहीं कैसे मुझे स्कूल की टीम के लिए चुन लिया गया और उस टीम में मैं 3 साल रहा. आगे चल कर पत्रकारिता में खेलों का अपना शौक मैं ने खूब निकाला. मेरा खयाल है कि खेलों पर मैं ने जितने लेख लिखे, उतने किसी और विषय पर नहीं. तकरीबन सारे ही खेलों पर मेरी कलम चली. ऐसी चली कि पाठकों के साथ अखबारों के लोग भी मुझे कोई औलराउंडर खेलविशेषज्ञ समझते थे.

पर तुम तो मुझ से भी बड़ी खेल विशेषज्ञा निकली. तुम्हें रिश्तों का खेल खेलने में महारत हासिल है. 6-7 साल पहले जब पहली बार तुम ने फोन किया था तो मैं किसी कन्या की आवाज सुन कर अतिरिक्त सावधान हो गया था. ‘हैलो सर, मेरा नाम दिव्या है, दिव्या शाह. अहमदाबाद से बोल रही हूं. आप का लिखा हुआ हमेशा पढ़ती रहती हूं.’

‘जी, दिव्याजी, नमस्कार, मुझे बहुत अच्छा लगा आप से बात कर. कहिए मैं आप की क्या सेवा कर सकता हूं.’ जी सर, सेवावेवा कुछ नहीं. मैं आप की फैन हूं. मैं ने फेसबुक से आप का नंबर निकाला. मेरा मन हुआ कि आप से बात की जाए.

‘थैंक्यूजी. आप क्या करती हैं, दिव्याजी?’ ‘सर, मैं कुछ नहीं करती. नौकरी खोज रही हूं. वैसे मैं ने एमए किया है समाजशास्त्र में. मेरी रुचि साहित्य में है.’

‘दिव्याजी, बहुत अच्छा लगा. हम लोग बात करते रहेंगे,’ यह कह कर मैं ने फोन काट दिया. मुझे फोन पर तुम्हारी आवाज की गर्मजोशी, तुम्हारी बात करने की शैली बहुत अच्छी लगी. पर मैं लड़कियों, महिलाओं के मामले में थोड़ा संकोची हूं. डरपोक भी कह सकते हैं. उस का कारण यह है कि मुझे थोड़ा डर भी लगा रहता है कि क्या मालूम कब, कौन मेरी लोकप्रियता से जल कर स्टिंग औपरेशन पर न उतर आए. इसलिए एक सीमा के बाद मैं लड़कियों व महिलाओं से थोड़ी दूरी बना कर चलता हूं.

पर तुम्हारी आवाज की आत्मीयता से मेरे सारे सिद्धांत ढह गए. दूरी बना कर चलने की सोच पर ताला पड़ गया. उस दिन के बाद तुम से अकसर फोन पर बातें होने लगीं. दुनियाजहान की बातें. साहित्य और समाज की बातें. उसी दौरान तुम ने अपने नाना के बारे में बताया था. तुम्हारे नानाजी द्वारका में कोई बहुत बड़े महंत थे. तुम्हारा उन से इमोशनल लगाव था. तुम्हारी बातें मेरे लिए मदहोश होतीं. उम्र में खासा अंतर होने के बावजूद मैं तुम्हारी ओर आकर्षित होने लगा था. यह आत्मिक आकर्षण था. दोस्ती का आकर्षण. तुम्हारी आवाज मेरे कानों में मिस्री सरीखी घुलती. तुम बोलती तो मानो दिल में घंटियां बज रही हैं. तुम्हारी हंसी संगमरमर पर बारिश की बूंदों के माध्यम से बजती जलतरंग सरीखी होती. उस के बाद जब मैं अगली बार अपने गृहनगर गांधीनगर गया तो अहमदाबाद स्टेशन पर मेरीतुम्हारी पहली मुलाकात हुई. स्टेशन के सामने का आटो स्टैंड हमारी पहली मुलाकात का मीटिंग पौइंट बना. उसी के पास स्थित चाय की एक टपरी पर हम ने चाय पी. बहुत रद्दी चाय, पर तुम्हारे साथ की वजह से खुशनुमा लग रही थी. वैसे मैं बहुत थका हुआ था. दिल्ली से अहमदाबाद तक के सफर की थकान थी, पर तुम से मिलने के बाद सारी थकान उतर गई. मैं तरोताजा हो गया. मैं ने जैसा सोचा समझा था तुम बिलकुल वैसी ही थी. एकदम सीधीसादी. प्यारी, गुडि़या सरीखी. जैसे मेरे अपने घर की. एकदम मन के करीब की लड़की. मासूम सा ड्रैस सैंस, उस से भी मासूम हावभाव. किशमिशी रंग का सूट. मैचिंग छोटा सा पर्स. खूबसूरत डिजाइन की चप्पलें. ऊपर से भीने सेंट की फुहार. सचमुच दिलकश. मैं एकटक तुम्हें देखता रह गया. आमनेसामने की मुलाकात में तुम बहुत संकोची और खुद्दार महसूस हुई.

कुछ महीने बाद हुई दूसरी मुलाकात में तुम ने बहुत संकोच से कहा कि सर, मेरे लिए यहीं अहमदाबाद में किसी नौकरी का इंतजाम करवाइए. मैं ने बोल तो जरूर दिया, पर मैं सोचता रहा कि इतनी कम उम्र में तुम्हें नौकरी करने की क्या जरूरत है? तुम्हारी घरेलू स्थिति क्या है? इस तरह कौन मां अपनी कम उम्र की बिटिया को नौकरी करने शहर भेज सकती है? कई सवाल मेरे मन में आते रहे, मैं तुम से उन का जवाब नहीं मांग पाया. सवाल सवाल होते हैं और जवाब जवाब. जब सवाल पसंद आने वाले न हों तो कौन उन का जवाब देना चाहेगा. वैसे मैं ने हाल में तुम से कई सवाल पूछे पर मुझे एक का भी उत्तर नहीं मिला. आज 20 अगस्त को जब मुझे तुम्हारा सारा खेल समझ में आया है तो फिर कटु सवाल कर के क्यों तुम्हें परेशान करूं.

मेरे मन में तुम्हारी छवि आज भी एक जहीन, संवेदनशील, बुद्धिमान लड़की की है. यह छवि तब बनी जब पहली बार तुम से बात हुई थी. फिर हमारे बीच लगातार बातों से इस छवि में इजाफा हुआ. जब हमारी पहली मुलाकात हुई तो यह छवि मजबूत हो गई. हालांकि मैं तुम्हारे लिए चाह कर भी कुछ कर नहीं पाया. कोशिश मैं ने बहुत की पर सफलता नहीं मिली. दूसरी पारी में मैं ने अपनी असफलता को जब सफलता में बदलने का फैसला किया तो मुझे तुम्हारी तरफ से सहयोग नहीं मिला. बस, मैं यही चाहता था कि तुम्हारे प्यार को न समझ पाने की जो गलती मुझ से हुई थी उस का प्रायश्चित्त यही है कि अब मैं तुम्हारी जिंदगी को ढर्रे पर लाऊं. इस में जो तुम्हारा साथ चाहिए वह मुझे प्राप्त नहीं हुआ.

बहरहाल, 25 जुलाई को तुम फिर मेरी जिंदगी में एक नए रूप में आ गई. अचानक, धड़धड़ाते हुए. तेजी से. सुपरसोनिक स्पीड से. यह दूसरी पारी बहुत हंगामाखेज रही. इस ने मेरी दुनिया बदल कर रख दी. मैं ठहरा भावुक इंसान. तुम ने मेरी भावनाओं की नजाकत पकड़ी और मेरे दिल में प्रवेश कर गई. मेरे जीवन में इंद्रधनुष के सभी रंग भरने लगे. मेरे ऊपर तुम्हारा नशा, तुम्हारा जादू छाने लगा. मेरी संवेदनाएं जो कहीं दबी पड़ी थीं उन्हें तुम ने हवा दी और मेरी जिंदगी फूलों सरीखी हो गई. दुनियाजहान के कसमेवादों की एक नई दुनिया खुल गई. हमारेतुम्हारे बीच की भौतिक दूरी का कोई मतलब नहीं रहा. बातों का आकाश मुहब्बत के बादलों से गुलजार होने लगा.

तुम्हारी आवाज बहुत मधुर है और तुम्हें सुर और ताल की समझ भी है. तुम जब कोई गीत, कोई गजल, कोई नगमा, कोई नज्म अपनी प्यारी आवाज में गाती तो मैं सबकुछ भूल जाता. रात और दिन का अंतर मिट गया. रानी, जानू, राजा, सोना, बाबू सरीखे शब्द फुसफुसाहटों की मदमाती जमीन पर कानों में उतर कर मिस्री घोलने लगे. उम्र का बंधन टूट गया. मैं उत्साह के सातवें आसमान पर सवार हो कर तुम्हारी हर बात मानने लगा. तुम जो कहती उसे पूरा करने लगा. मेरी दिनचर्या बदल गई. मैं सपनों के रंगीन संसार में गोते लगाने लगा. क्या कभी सपने भी सच्चे होते हैं? मेरा मानना है कि नहीं. ज्यादा तेजी किसी काम की नहीं होती. 25 जुलाई को शुरू हुई प्रेमकथा 20 अगस्त को अचानक रुक गई. मेरे सपने टूटने लगे. पर मैं ने सहनशीलता का दामन नहीं छोड़ा. मैं गंभीर हो गया था. मैं तो कोई खेल नहीं खेल रहा था. इसलिए मेरा व्यवहार पहले जैसा ही रहा. पर तुम्हारा प्रेम उपेक्षा में बदल गया. कोमल भावनाएं औपचारिक हो गईं. मेरे फोन की तुम उपेक्षा करने लगी. अपना फोन दिनदिन भर, रातभर बंद करने लगी. बातों में भी बोरियत झलकने लगी. तुम्हारा व्यवहार किसी खेल की ओर इशारा करने लगा.

इस उपेक्षा से मेरे अंदर जैसे कोई शीशा सा चटख गया, बिखर गया हो और आवाज भी नहीं हुई हो. मैं टूटे ताड़ सा झुक गया. लगा जैसे शरीर की सारी ताकत निचुड़ गई है. मैं विदेह सा हो गया हूं. डा. सुधाकर मिश्र की एक कविता याद आ गई,

इतना दर्द भरा है दिल में, सागर की सीमा घट जाए. जल का हृदय जलज बन कर जब खुशियों में खिलखिल उठता है. मिलने की अभिलाषा ले कर, भंवरे का दिल हिल उठता है. सागर को छूने शशधर की किरणें, भागभाग आती हैं, झूमझूम कर, चूमचूम कर, पता नहीं क्याक्या गाती हैं. तुम भी एक गीत यदि गा दो, आधी व्यथा मेरी घट जाए. पर तुम्हारे व्यवहार से लगता है कि मेरी व्यथा कटने वाली नहीं है.

अभी जैसा तुम्हारा बरताव है, उस से लगता है कि नहीं कटेगी. यह मेरे लिए पीड़ादायक है कि मेरा सच्चा प्यार खेल का शिकार बन गया है. मैं तुम्हारी मासूमियत को प्यार करता हूं, दिव्या. पर इस प्यार को किसी खेल का शिकार नहीं बनने दे सकता. लिहाजा, मैं वापस अपनी पुरानी दुनिया में लौट रहा हूं. मुझे पता है कि मेरा मन तुम्हारे पास बारबार लौटना चाहेगा. पर मैं अपने दिल को समझा लूंगा. और हां, जिंदगी के किसी मोड़ पर अगर तुम्हें मेरी जरूरत होगी तो मुझे बेझिझक पुकारना, मैं चला आऊंगा. तुम्हारे संपर्क का तकरीबन एक महीना मुझे हमेशा याद रहेगा. अपना खयाल रखना.

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