पति को मां के हाथ का खाना है ज्यादा पसंद, ऐसे में पत्नियां क्यों न हों नाराज

Family Matters: ज्यादातर बच्चों को अपनी मां के हाथ से बने खाने का स्वाद दिलोदिमाग पर इतना छाया रहता है कि शादी बाद उन को अपनी पत्नी का बनाया हुआ खाना बेस्वाद लगने लगता है. ऐसे में शुरुआत होती है झगड़े की, क्योंकि जब वही पत्नियां पूरे दिल से मेहनत कर के पति के लिए कुछ स्वादिष्ठ पकवान बनाती हैं और पति यह कह कर रिजैक्ट कर देता है कि उस को तो अपनी मां के हाथ का बना खाना ही स्वादिष्ठ लगता है, पत्नी के हाथ का नहीं तो ऐसे में पत्नी का नाराज होना जायज ही है.

ऐसे में, पत्नी का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ जाता है और कई बार तो कई पत्नियां गुस्से में खाना बनाना ही छोड़ देती हैं, हालांकि कुछ बच्चे ऐसे भी होते हैं जिन्हें बाहर का जंक फूड, मैगी, पिज्जा, बर्गर आदि ज्यादा पसंद होता है. फिर मां चाहे जितना अच्छा खाना बनाए बच्चे बाहर का खाना ही खाना पसंद करते हैं.

ऐसा क्यों होता है

ऐसा इसलिए भी होता है कि पत्नी, मां के हाथ का बना खाना या जंक फूड खाने की बात नहीं होती, बल्कि मुंह में लगे स्वाद की बात होती है जिस को जो खाना पसंद आता है वह बारबार वही खाना खाना पसंद करता है. फिर चाहे वह खाना मां के हाथ का हो, जंक फूड हो या बीवी के हाथ का ही खाना क्यों न हो.

बच्चे शुरू से ही मां के हाथ का खाना खाते हैं, भले फिर वह कच्चापक्का खाना ही क्यों न बनाएं, लेकिन उस खाने का स्वाद बच्चे की जबान पर चढ़ जाता है और इसीलिए उस को अपनी मां के हाथ का बना खाना खाना ही अच्छा लगता है.

खाने की आदत

ऐसे में अगर पत्नी का बनाया खाना उस को खाना पड़ता है तो पति नाकभौंह सिकोड़ कर कह देता है कि तुम मेरी मां जैसा खाना बना ही नहीं सकती. हालांकि यही बेटा जब 60 की उम्र के पास पहुंचता है, तो उस की पत्नी के हाथ का खाना अपनी बहू के हाथ के बने खाने से ज्यादा अच्छा लगने लगता है, क्योंकि तब तक उस को पत्नी के हाथ से बने खाने की आदत हो जाती है.

दरअसल, ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जो खाना हम हमेशा खाते हैं उस का टैस्ट जीभ के ग्लैड की मैमोरी में फिट हो जाता है और फिर हमें वही खाना अच्छा लगता है जो जीभ के ग्लैड यानि ग्रंथि से जुड़ा होता है, जैसेकि मुंबई में मुंबई का प्रसिद्ध वङापाव, भेलपूरी, गोलगप्पे हर जगह मिलते हैं लेकिन फिर भी लोग उसी जगह जा कर खाना पसंद करते हैं जहां का वङापाव या चाट का टैस्ट उन की जबान पर चढ़ा होता है.

स्वाद से ज्यादा जज्बात

ऐसे ही दिल्ली में एक सीताराम भटूरे की दुकान है, जहां पर छोलेकुलचे बहुत अच्छे मिलते हैं. कई सारे दिल्लीवासी वहां पर छोलेभटूरे खाने जाते हैं क्योंकि उस का स्वाद उन की जबान पर चढ़ा हुआ है.

जहां तक मां के हाथ के खाने का सवाल है तो वहां पर स्वाद से भी ज्यादा जज्बात जुड़े होते हैं, इसीलिए बच्चों को ज्यादातर अपनी मां के हाथ का बना खाना ज्यादा पसंद होता है और वह खाना खाने के बाद ही उन को सुकून और आत्मसंतुष्टि मिलती है.

Family Matters 

Drama Story: कीमत- क्या थी वैभव की कहानी

Drama Story: वैभव खेबट एक दिन के लिए मुंबई गया था. उसे विदा करने के बाद उस की पत्नी नेहा और भाभी वंदना घर से बाहर जाने को तैयार हो गईं.

‘‘कोई भी मुश्किल आए, तो फोन कर देना. हम फौरन वहीं पहुंच जाएंगे,’’ इन की सास शारदा ने दोनों को हौसला बढ़ाया.

‘‘इसे संभाल कर रख लो,’’ ससुर रमाकांत ने एक चैकबुक वंदना को पकड़ाई, ‘‘मैं ने 2 ब्लैंक चैक साइन कर दिए हैं. आज इस समस्या का अंत कर के ही लौटना.’’

‘‘जी, पिताजी,’’ एक आत्मविश्वासभरी मुसकान वंदना के होंठों पर उभरी.

दोनों बहुओं ने अपने सासससुर के पैर छू कर आशीर्वाद लिया और दरवाजे की तरफ चल पड़ीं. रमाकांत जब से शहर आए हैं, शहरी बन कर जी रहे हैं पर उन के पिता गांव के चौधरी थे और जानते थे कि टेढी उंगली से घी निकालना आसान नहीं है पर निकाला जा सकता है. वे तो कितने ही चुनाव जीत चुके थे और उन के चेलेचपाटे हर तरफ बिखरे पड़े थे. वे अपने बेटे की जिंदगी बचाने के लिए कुछ भी करने को तैयार थे.

कार से उन्हें रितु के फ्लैट तक पहुंचने में 40 मिनट का समय लगा.

‘‘नेहा, ध्यान रहे कि तुम्हें उस के सामने कमजोर नहीं दिखना है. नो आंसुं, नो गिड़गिड़ाना, आंखों में नो चिंता, ओके.’’ वंदना ने रितु के फ्लैट के दरवाजे के पास पहुंच कर अपनी देवरानी को हिदायतें दीं.

‘‘ओके,’’ नेहा ने मुसकराने के बाद एक गहरी सांस खींची और आने वाली चुनौती का सामना करने को तैयार हो गई.

मैजिक आई में से उन दोनों को देखने के बाद रितु ने दरवाजा खोला और औपचारिक सी मुसकान होंठों पर सजा कर बोली, ‘‘कहिए.’’

‘‘रितु, मैं वंदना खास हूं और यह मेरी देवरानी नेहा है,’’ वंदना ने शालीन लहजे मैं उसे परिचय दिया.

नामों से उन दोनों को पहचानने में रितु को कुछ देर लगी, पर जब नामों का महत्त्व उस की समझ में आया, तो उस के चेहरे का रंग एकदम से फीका पड़ गया था.

‘‘मुझ से क्या काम है आप दोनों को?’’ अपनी आवाज में घबराहट के भावों को दूर रखने की कोशिश करते हुए उस ने सवाल किया.

‘‘तुम ने शायद अभी तक हमें पहचाना नहीं है?’’

‘‘आप वैभव सर की भाभी और ये सर की वाइफ हैं न.’’

‘‘करैक्ट,’’ वंदना ने उस की बगल से हो कर फ्लैट के अंदर कदम रखा, ‘‘आगे की बात हम अंदर बैठ कर करें, तो तुम्हें कोई एतराज होगा?’’ “आइए,” अब घबराहट की जगह चिंता के भाव रितु की आवाज में पैदा हुए और उस ने एक तरफ हो कर वंदना व नेहा को अंदर आने का पूरा रास्ता दे दिया.

ड्राइंगरूम में उन दोनों के सामने सोफे पर बैठते हुए रितु ने पूछा, ‘‘आप चाय या कुछ ठंडा लेंगी?’’

‘‘नो, थैंक्स, हम जो बात करने आए हैं, उसे शुरू करें?’’ वंदना एकदम से गंभीर हो गई.

‘‘करिए,’’ रितु ने बड़ी हद तक अपनी भावनाओं नियंत्रित कर लिया था.

वंदना ने अर्थपूर्ण लहजे में नेहा की तरफ देखा. नेहा ने एक बार अपना गला साफ किया और रितु से मुसकराते हुए कहा, ‘‘तुम सचमुच किसी फिल्मस्टार जैसी सुंदर हो. वैभव को अपने प्रेमजाल में फंसाना तुम्हारे लिए बड़ा आसान रहा होगा.’’

‘‘न, न, सफाई दे कर इस आरोप से बचने की कोशिश मत करो, रितु,’’ वंदना ने रितु को कुछ बोलने से पहले ही टोक दिया, ‘‘इन तसवीरों को देख लोगी, तो हम सब का काफी वक्त बरबाद होने से बच जाएगा. इन के प्रिंट कुछ दिनों पहले ही लिए गए हैं. मोबाइल पर और बहुत सी हैं.” और वंदना ने अपने बैग से निकाल कर कुछ तसवीरें रितु को पकड़ा दीं.

उन पर नजर डालने के बाद पहले तो रितु डर सी गई, लेकिन धीरेधीरे उस की आंखों से गुस्सा झलकने लगा. उस ने तसवीरें मेज पर फेंक दीं और खामोश रह कर उन दोनों की तरफ आक्रामक नजरों से देखने लगी.

‘‘इन तसवीरों से साफ जाहिर हो जाता है कि तुम वैभव की रखैल हो और…’’

‘‘आप तमीज से बात कीजिए, प्लीज,’’ रितु ने वंदना को गुस्से से भरी आवाज में टोक दिया.

‘‘आई एम सौरी, पर शादीशुदा आदमी से संबंध रखने वाली स्त्री को रखैल नहीं तो फिर क्या कहते हैं, रितु?’’

‘‘आप दोनों यहां से चली जाओ. मैं इस बारे में कोई भी बात वैभव की मौजूदगी में ही करूंगी.’’

‘‘ऐसा,’’ वंदना झटके से उठी और रितु का हाथ मजबूती से पकड़ कर बोली, ‘‘आओ, मैं इस खिडक़ी से तुम्हें कुछ दिखाना चाहती हूं.’’

रितु को लगभग खींचती सी वंदना खुली खिडक़ी के पास ले आई और नीचे सडक़ पर खड़े एक व्यक्ति की तरफ इशारा कर बोली, ‘‘यह आदमी रुपयों की खातिर कुछ भी कर सकता है और दौलत की हमारे पास कोई कमी नहीं है. इस तथ्य से तुम भलीभांति परिचित न होतीं, तो वैभव को अपने जाल में फंसाती ही नहीं.’’

‘‘आज यह आदमी हमारे साथ तुम्हारा फ्लैट देखने आया है. हमें उंगली टेढ़ी करने को मजबूर मत करो, नहीं तो अपने भलेबुरे के लिए तुम खुद जिम्मेदार होगी.’’

वंदना ने उसे से धमकी धीमी पर बेहद कठोर आवाज में दी थी. एक बार को तो ऐसा लगा कि रितु भडक़ कर तीखा जवाब देगी, पर उस ने ऐसा करना उचित नहीं समझा और वापस अपनी जगह आ बैठी.

जब रितु ने कुछ और बोलने के लिए मुंह नहीं खोला तो नेहा ने वार्त्तालाप आगे बढ़ाया, ‘‘हमारी तुम से कोई दुश्मनी नही है, रितु, लेकिन हम आज इस समस्या का स्थाई हल निकाल कर ही यहां से जाएंगी. हमें उम्मीद है कि तुम ऐसा करने में अपना पूरा सहयोग दोगी.’’

‘‘मुझ से कैसा सहयोग चाहिए?’’ रितु ने माथे में बल डाल कर पूछा.

‘‘तुम्हारे इस सवाल का जवाब देने से पहले मैं तुम से कुछ पूछना चाहती हूं.’’

‘‘क्या?’’

‘‘यही कि तुम्हें वैभव चाहिए या उसे छोड़ कर उस की जिंदगी से बहुत दूर चली जाने की अच्छीखासी कीमत.’’

‘‘क्या मतलब?’’ रितु जोर से चौंक पड़ी.

‘‘मतलब मैं समझाती हूं,’’ वंदना बीच में बोल पड़ी, ‘‘देखो, अगर तुम्हें विश्वास हो कि वैभव और तुम्हारे बीच प्यार की जड़ें मजबूत और गहरी हैं, तो तुम उसी को चुनो. नेहा वैभव को तलाक दे देगी क्योंकि वह उसे किसी के भी साथ बांटने को तैयार नहीं है. लेकिन अगर तुम वैभव के साथ सिर्फ मौजमस्ती के लिए प्रेम का खेल खेल रही हो, तो हम तुम्हें इस खेल को सदा के लिए खत्म करने की कीमत देने को तैयार हैं.’’

‘‘मुझे नहीं लगता कि तुम वैभव को आसानी से तलाक देने के लिए तैयार हो जाओगी,’’ कुछ पलों के सोचविचार के बाद रितु ने नेहा को घूरते हुए ऐसी शंका जाहिर की, तो देवरानी व जेठानी दोनों ठहाका मार कर इकट्ठी हंस पड़ीं.

अपनी हंसी पर काबू पाते हुए नेहा ने जवाब दिया, ‘‘यू आर वेरी राइट, रितु. जिस इंसान के साथ मैं 5 साल से शादी कर के जुड़ी हुई हूं और जो मेरी 2 साल की बेटी का पिता है, यकीनन उसे मैं आसानी से तलाक नहीं दूंगी. मुझे बड़ी मेहनत करनी पड़ेगी इस काम को करने के लिए.’’

‘‘तुम्हें कैसी मेहनत करनी पड़ेगी,’’ रितु की आंखों में उलझन के भाव उभरे.

‘‘मुझे वैभव के मन में अपने लिए इतनी नफरत पैदा करनी पड़ेगी कि वह मुझे तलाक देने पर तुल जाए. उस के दिल को बारबार गहरे जख्म देने पड़ेंगे, माई डियर.’’

‘‘और यह काम तुम कैसे करोगी?’’

‘‘बड़ी आसानी से. तुम उसे अगर बहुत प्यारी होगी, तो वह तुम्हें दुख और परेशान देख कर जरूर गुस्से और नफरत से धधकता ज्वालामुखी बन जाएगा.’’

वंदना ने उस की बात का आगे खुलासा किया, ‘‘नेहा रोज तुम से मिलना शुरू कर देगी. तुम्हें तंग करने और तुम्हारा नुकसान करने का कोई मौका यह नहीं चूकेगी. वैभव इसे मना करेगा पर यह न मानेगी. बस, कुछ दिनों में ही वैभव इस से बहुत ज्यादा खफा हो कर तलाक लेने की जिद पकड़ लेगा और तुम्हारी लौटरी निकल आएगी.’’

‘तुम दोनों पागल हो. प्लीज, मेरा दिमाग न खराब करो और यहां से जाओ,’’ रितु ने चिढ़े अंदाज में उन के सामने हाथ जोड़ दिए.

‘‘इस ने मुझे पागल कहा है. मैं पागल नहीं हूं,’’ नेहा अचानक ही जोर से चिल्लाई और उस की अगली हरकत रितु का खून सुखा गई. गुस्से से कांप रही नेहा ने पास में रखा सुंदर फूलदान उठाया और उसे फर्श पर पटक कर चूरचूर कर दिया.

फूलदान के टूटने की आवाज में बुरी तरह से डरी हुई रितु के चीखने की आवाज दब गई थी.

‘‘जैसे चोर को चोर कहो तो वह गुस्सा हो जाता है, वैसे ही पागल हो पागल कहो तो वह नाराज हो उठता है. इस फूलदान के टूटने की टैंशन मत लो. हर टूटफूट को मैं नोट कर रही हूं और उन की कीमत चुका कर जाऊंगी,’’ वंदना ने धीमी आवाज में रितु से कहा और फिर बैग से डायरी निकाल कर उस में पैन से फूलदान की कीमत एक हजार रुपए लिख ली.

नेहा ने टूटे फूलदान का जोड़ीदार मेज पर से उठाया और कमरे में इधर से उधर चहलकदमी करने लगी. बीचबीच में वह जब भी रितु को घूर कर देखती, तो उस बेचारी का डर के मारे दिल कांप जाता.

‘‘टैंशन मत लो, यार. ये इंसानों के साथ हिंसा नहीं करती है,’’ वंदना की इस सलाह को मानते हुए नेहा अपनी जगह आ कर बैठ गई.

कुछ देर तो नेहा ने रितु को गुस्से से घूरना जारी रखा. फिर अचानक बड़ी प्यारी सी मुसकान वह अपने होंठों पर लाई और उस से पूछा, ‘‘तो मेरी सौतन को वैभव चाहिए, या उसे छोडऩे की कीमत.’’

‘‘म…मैं वैभव की जिंदगी से निकल जाऊंगी,’’ रितु ने थूक सटकते हुए जवाब दिया.

‘‘गुड, वैरी गुड,’’ नेहा ने खुश हो कर ताली बताई, ‘‘लेकिन हमें कैसे विश्वास हो कि तुम सच कह रही हो.’’

‘‘मैं सच ही बोल रही हूं.’’

‘‘भाभी, क्या हमें इस की बात पर विश्वास कर लेना चाहिए,’’ नेहा वंदना की तरफ घूमी.

‘‘हमारा विश्वास है कि ये अपने कार्यों से जीतेगी, न कि सिर्फ बातों से,’’ वंदना ने अजीब सा मुंह बनाते हुए जवाब दिया.

‘‘हमारे गांवों में जब भी चौपाल पर फैसले होते थे, लोग तब तो हां कर देते थे पर बाद में मुकर जाते थे. हां, जिन औरतों के मर्द दूसरी औरतों के चक्कर में पड़ जाते थे वे तो देवी आने का नाटक बहुत दिनों तक कर सकती थीं. कौन जाने कितनी असल में मानसिक बीमार होती थीं, कितनी स्वांग करती थीं. नेहा ने कहां, क्या सीखा, मैं नहीं जानती.’’

‘‘और हमारा विश्वास जीतने वाले कार्य क्या हैं, भाभी?’’

‘‘नौकरी से इस्तीफा देने के बाद इस शहर को हमेशा के लिए छोड़ कर जाना.’’

‘‘तुम पाग…’’ फूलदान वाली घटना को याद कर रितु ने अपनी जबान को शब्द पूरा करने से रोका और उन से झगड़ालू लहजे में बोली, ‘‘जो काम हो नहीं सकता, उसे करने के लिए मुझे मत कहो. मैं अपनी अच्छीखासी नौकरी छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी.’’

वंदना ने अपने मोबाइल पर एक नंबर मिलाते हुए रितु से कहा, ‘‘मेरे ससुर मिस्टर आनंद खेवट की सोसाइटी में बड़ी धाक है और उन की पहुंच ऊंचे लोगों तक है. उन्होंने तुम्हारा तबादला तुम्हारी होम सिटी बेंगलुरु की शाखा में करा दिया है. मैं तुम्हारे एमडी मिस्टर राजन से तुम्हारी बात कराती हूं.’’ तुम जानती हो न रिजर्वेशन वालों का समाज कई बार एकजुट हो जाता है.

संपर्क स्थापित होते ही वंदना ने मिस्टर राजन से कहा, ‘‘सर, मैं आनंद खेबट की बड़ी बहू वंदना बोल रही हूं. उन्होंने आप से बात…जी, मैं रितु को फोन देती हूं. थैंक यू वैरी मच, सर.’’

वंदना ने मोबाइल रितु को पकड़ा दिया था. उस बेचारी को अपने एमडी से मजबूरन बात करनी पड़ी.

‘‘गुड मौर्निंग सर. …नहीं सर, यह तो मेरे लिए अच्छी खबर है. सर, क्या मैं आज ही चार्ज दे सकती हूं. आई एम ग्रेटफुल टु यू, सर. थैंक यू वैरी मच, सर. गुड डे टु यू, सर.’’

वंदना का मोबाइल वापस करते हुए उस ने हैरान लहजे में पूछा, ‘‘जिस तबादले के लिए मैं सालभर से नाकाम कोशिश कर रही थी, उसे इतनी आसानी से तुम लोगों ने कैसे करा लिया?’’

‘‘अभी तुम ने देखा ही क्या है. अब इसे भी लगेहाथ संभाल लो,’’ उस की प्रशंसा को नजरअंदाज करते हुए वंदना ने बेंगलुरु का एक प्लेन टिकट उसे पकड़ा दिया, “इस का बोर्डिंग पास भी ले लिया गया है.”

‘‘यह आज शाम की फ्लाइट है,’’ नेहा ने अपनी आवाज में नकली मिठास घोल कर उसे समझाया.

‘‘इस तरह की जोरजबरदस्ती मैं नहीं सहूंगी. मैं तुम लोगों के साथ सहयोग करने को तैयार हूं, पर अपनी सहूलियत को ध्यान में रख कर ही मैं बेंगलुरु जाने का कार्यक्रम बनाऊंगी,’’ रितु एकदम से चिढ़ उठी.

‘‘अपनी सहूलियत का ध्यान रखोगी तो तुम्हारा 5 लाख रुपए का नुकसान हो जाएगा.’’

‘‘वह कैसे?’’

‘‘तुम्हारी जिंदगी को अस्तव्यस्त करने वाली इतनी ज्यादा हलचल पैदा करने का हम इतना ही मुआवजा तुम्हें देना चाहते हैं.’’

‘‘रियली.’’

‘‘यैस.’’

‘‘लेकिन, मुझे पैकिंग करनी होगी, चार्ज देने औफिस भी जाना है. मुझे 2-3 दिन का समय…’’

‘‘कतई नहीं मिलेगा,’’ वंदना ने उसे टोक दिया, ‘‘यह डील इसी बात पर निर्भर करती है कि तुम आज ही वैभव की जिंदगी से सदा के लिए निकल जाओ. फिर एक सूटकेस को पैक करने में देर ही कितनी लगती है.’’

‘‘मेरे बाकी के सामान का क्या होगा.’’

‘‘उसे कभी बाद में आ कर ले जाना. हम दोनों आज भी पैकिंग कराने में तुम्हारी हैल्प करेंगी और उस दिन भी जब तुम बाकी का सामान लेने वापस आओगी.’’

‘‘मेरा सारा जरूरी सामान एक सूटकेस में नहीं आएगा.’’

‘‘तुम किसी नई जगह नहीं, बल्कि अपने मातापिता के घर जा रही हो. फिर 5 लाख रुपयों से तुम मनचाही खरीदारी कर सकती हो.’’

‘‘मुझे इस फ्लैट का किराया देना है.’’

‘‘वह भी हम दे देंगे और तुम्हारे 5 लाख रुपए में से वह रकम काटेंगे भी नहीं. और कोई समस्या मन में पैदा हो रही हो, तो बताओ.’’

रितु को इस सवाल का कोई जवाब नहीं सूझा, तो वंदना और नेहा दोनों की आंखों में सख्ती के भाव उभर आए.

पहले वंदना ने उसे चेतावनी दी, ‘‘इस फ्लैट का अगले 3 महीने तक किराया हम देंगे. तुम्हारे सामान को बेंगलुरु तक भिजवाने का खर्चा भी हमारे सिर होगा. तुम्हारा ट्रांसफर मनचाही जगह हो ही गया है. ऊपर से तुम्हें 5 लाख रुपए और मिलेंगे.’’

‘‘इन सब के बदले में हम इतना चाहते हैं कि तुम वैभव की जिंदगी से पूरी तरह से निकल जाओ. न कभी उसे फोन करना, न कभी उस के फोन का जवाब देना. क्या तुम्हें हमारी यह शर्त मंजूर है?’’

रितु कुछ जवाब देती उस से पहले नेहा बोल पड़ी, ‘‘रितु, तुम्हारे मन में हमें डबल क्रौस कर वैभव से किसी भी तरह जुड़े रहने का खयाल आ सकता है. उस स्थिति में तुम हमारी यह चेतावनी ध्यान रखना.’’

‘‘वैभव की दौलत तुम्हें उस की तरफ आकर्षित करती है, तो उस दौलत के ऊपर हम दोनों का भी हक है, यह तुम कभी मत भूलना. आज हम वैभव की गलती का मुआवजा तुम्हें खुशी से दे रहे हैं. अगर कल को तुम ने हमें धोखा दिया, तो उस की दौलत की ताकत के बल पर हम तुम्हारा भारी नुकसान करने में जरा भी नहीं हिचकिचाएंगी.’’

‘‘मैं वैभव सर से कोई संबंध नहीं रखूंगी,’’ नेहा की आंखों से फूट रही चिनगारियों से घबरा कर रितु ने फौरन वादा किया और फिर हिम्मत कर के आगे बोली, ‘‘लेकिन मुझे 5 लाख रुपए की रकम मिल जाएगी, मैं इस बात का कैसे विश्वास करूं?’’

‘‘अगर हमारा चैक बाउंस हो जाए, तो तुम भी अपना वादा तोड़ कर वैभव से फिर संबंध जोड़ लेना.’’

‘‘ठीक बात है. मुझे रुपए मिल गए तो मैं उन की जिंदगी से हमेशा के लिए निकल जाऊंगी.’’

‘‘क्या तुम सच बोल रही हो?’’

‘‘बिलकुल.’’

‘‘हमें किसी तरह की शिकायत ले कर तुम से मिलने बेंगलुरु तो नहीं आना पड़ेगा?’’

‘‘न…नहीं.’’

‘‘अपना भलाबुरा पहचानती हो, तो अपने इस वादे को कभी न तोडऩा,’’ नेहा ने अचानक ही दूसरा फूलदान उठा कर फर्श पर दे मारा, तो रितु की इस बार भी चीख निकल गई.

वे दोनों रितु को गुस्से से घूर रही थीं. बुरी तरह से डरी रितु उन की आंखों में देखने की हिम्मत पैदा नहीं कर सकी और उस ने नजरें झुका लीं.

‘‘अब उठो और फटाफट पैकिंग करनी शुरू करो,’’ वंदना के इस आदेश पर रितु फौरन उठ कर अपने शयन कक्ष की तरफ चल पड़ी थी.

Family Story: तू मायके चली जाएगी- क्या वापस आई श्रीमतीजी

Family Story: सुबह से बधाइयों का तांता लगा हुआ था. पड़ोस के दीपक व महेश ने तो मौर्निंग वाक पर ही मुझे बधाई दे दी थी. हम ने भी हंस कर उन की बधाइयों को स्वीकार किया था और साथ ही उन की आंखों में अपने प्रति कुछ जलन भी महसूस की थी. फिर तो जिसे पता चलता गया, वह आ कर बधाई देता गया. जो लोग आ न सके, उन्होंने फोन पर ही बधाई दे डाली. हम भी विनम्रता की मूर्ति बने सब से बधाइयां लिए जा रहे थे. तो आइए आप को भी मिल रही इन बधाइयों का कारण बता दें.

दरअसल, कल शाम ही हमारी श्रीमतीजी हम से लड़झगड़ कर मायके चली गई थीं. हमारी 35 साल की शादी के इतिहास में यह पहली बार हुआ था कि वे हम से खफा हो मायके गईं. हां, यह बात और थी कि मुझे कई बार अपने ही घर से गृहनिकाला अवश्य दिया जा चुका था. खैर, इतनी बड़ी जीत की खुशी हम से अकेले बरदाश्त नहीं हो रही थी, तो रात को खानेपीने के दौर में ये बात महल्ले के ही राजीव के सामने हमारे मुंह से निकल गई. तभी से अब तक बधाइयों का अनवरत दौर चालू था.

पिछली रात उन बांहों की कैद से आजाद हम बड़ी मस्त नींद सोए थे. यह बात और है कि सुबह उठने के बाद हमें उन के हाथों से बनी चाय का लुत्फ न मिल पाया. पर जल्द ही अपनी भावनाओं पर काबू पाते हुए हम ने अपने मर्दाना हाथों से एक कड़क चाय बनाई, जो इत्तफाक से कुछ ज्यादा ही कड़क हो गई, बिलकुल हमारी बेगम साहिबा के मिजाज की तरह.

चाय पीतेपीते ही खयाल आया कि आखिर फेसबुक के मित्रों ने हमारा क्या बिगाड़ा है? उन से भी तो हमें यह खुशखबरी बांटनी चाहिए. हम ने कहीं सुन रखा था कि खुशियां बांटने से बढ़ती हैं तो अपनी खुशी बढ़ाने की गरज से हम ने यों ही चाय पीते हुए अपनी एक सैल्फी ले कर फेसबुक पर अपनी नई पोस्ट डाल दी. फिर तो साहब देखने वाला माहौल बन गया. लाइक पर लाइक, कमैंट्स पर कमैंट्स आते रहे. आज तक हमारी किसी भी पोस्ट पर इतने लाइक्स या कमैंट्स नहीं आए थे. हम खुशी से फूले न समा रहे थे.

सुबह के 10 बज रहे थे. कामवाली बाई अपना काम खत्म कर के जा चुकी थी. अब जोरों से लगती भूख ने हमें घर से बाहर निकलने पर मजबूर कर दिया, क्योंकि हमें खाना बनाने का हुनर तो कुदरत ने बख्शा ही नहीं था. यही वह एक कमी थी जिस का फायदा हर झगड़े में हमारी श्रीमतीजी उठाती थीं. हम ने भी तय कर लिया था, बाहर खा लेंगे, पर अब इस लड़ाई में घुटने नहीं टेकेंगे. घर से बाहर निकलते ही हमारा सामना प्रेमा से हो गया, जो इत्तफाक से बाहर अपने प्यासे पौधों को पानी पिला रही थीं. हमें देख कर वे कुछ इस अदा से मुसकराईं कि हमें पतझड़ के मौसम में बसंत बहार नजर आने लगी. प्रेमा अभी कुछ महीनों पहले ही हमारे महल्ले में आई हैं.

उन के बारे में ज्यादा कोई नहीं जानता. बस, इतना ही मालूम था, 2 शादीशुदा बेटे विदेश में रहते हैं, और वे यहां अकेली. उम्र 55 से ऊपर, पर अभी भी बला की खूबसूरत नजर आती थीं. महल्ले के सभी यारों ने कभी न कभी उन की तारीफ में कुछ नगमे अवश्य सुनाए थे. खुद हम भी कहां कम थे, 62 की उम्र में भी दिल जवां था हमारा. उन की एक नजर हम पर भी कभी पड़े, इस हेतु हम ने बड़े जतन किए थे, पर आज श्रीमतीजी के हमारे साथ न होने से शायद हमारा समय चमक गया था. आज उन की इस मुसकान पर हम ठिठक कर रह गए…

नमस्ते मिहिर साहब, कहां जा रहे हैं? उन के पूछने पर जैसे हमारी तंद्रा टूटी.

जी, बस कुछ नहीं, श्रीमतीजी घर पर नहीं हैं, तो बे्रकफास्ट करने किसी रेस्तरां…

‘‘आइए चाय पी लीजिए, मैं कुछ गरमगरम बना देती हूं,’’ मेरी बात को बीच में ही उन्होंने काटते हुए कहा. एक भिखारी को अचानक ही रुपयों से भरा सूटकेस मिल जाए, हमारी हालत भी कुछ ऐसी ही हो रही थी. हम ने एक बार भी मना किए बगैर उन के इस नेह निमंत्रण को स्वीकार कर लिया. चायनाश्ते के दौरान जब कभी हमारी निगाह मिलती, दिल की धड़कनें बढ़ती हुई प्रतीत होतीं. चाय के साथ गरमगरम पकौडि़यों संग उन की मीठीमीठी बातें. अच्छा हुआ हमें डाइबिटीज नहीं थी, वरना शुगर लैवल बढ़ते देर न लगती. इस दौरान उन्होंने अपनी मेड सर्वैंट से हमारी फोटो भी क्लिक करवाई, इस समय को यादगार बनाने के लिए.

हमारी खुशी का ठिकाना न था. घर आ कर हमें अपना खाली मकान भी गुलजार लगने लगा. श्रीमतीजी के मायके जाने की असल खुशी तो हमें आज हो रही थी. कुछ आराम करने के बाद हम ने अपना फेसबुक खोला, तो उस में प्रेमा की फ्रैंड रिक्वैस्ट देख कर हम फूले न समाए. उन के हमारी फ्रैंड लिस्ट में जुड़ने से जाने कितनों के दिल टूटने वाले थे.

खैर, शाम को जब पार्क में घूमते समय हम ने यह बात अपने दोस्तों को बताई, तो आश्चर्य से भरे उन के चेहरे उस वक्त देखने काबिल थे. कइयों ने उसी समय हम से अपनी पत्नी से लड़नेझगड़ने के नुस्खे उन्हें भी सिखा देने की रिक्वैस्ट की. हम महल्ले के हीरो बन चुके थे. रात का खाना प्रकाश के घर से आ चुका था. खाना खा कर बिस्तर पर लेटते ही हमें नींद ने आ घेरा, रातभर सपनों में भी हम प्रेमा के संग प्रेमालाप में व्यस्त रहे.

अगली सुबह फ्रैश हो कर चाय पीतेपीते हम ने पूरे दिन का प्रोग्राम बनाया, जिस में प्रेमा के साथ शाम को घूमने का प्रोग्राम भी शामिल था. यह सोच कर कि मौर्निंग वाक पर जाते समय ही प्रेमा को निमंत्रण दे देना चाहिए, हम ने तैयार हो कर दरवाजे की तरफ पहला कदम बढ़ाया ही था कि दरवाजे की घंटी बज उठी. इतनी सुबह कौन होगा? हम ने दरवाजा खोला. दरवाजा खोलते ही हम गश खा कर गिरतेगिरते बचे, सामने हमारी श्रीमतीजी अपना सूटकेस लिए खड़ी थीं. हम ने कुछ हकलाते हुए कहा, ‘‘तुम इस वक्त यहां?’’

‘‘क्यों अपने ही घर आने के लिए हमें वक्त देखना पड़ेगा क्या?’’ श्रीमतीजी ने अपनी जलती हुई निगाहों से मुझे घूरते हुए कहा.

‘‘नहींनहीं, यह बात नहीं है, तुम कुछ गुस्से में गई थीं न, इसलिए…’’ हम ने उन्हें याद दिलाना चाहा.

‘‘सुना है, आसपड़ोसी तुम्हारा बहुत खयाल रख रहे हैं,’’ श्रीमतीजी के तेवर हमें ठीक नहीं लग रहे थे.

‘‘चलो, अच्छा हुआ, तुम आ गईं. तुम्हारे बिना यह घर हमें काटने को दौड़ रहा था,’’ हम ने मुसकराना चाहा.

‘‘तभी तो दूसरों के घर अपना गम भुलाने गए थे तुम, है न?’’ श्रीमतीजी प्रश्न पर प्रश्न किए जा रही थीं.

‘‘मैं तुम्हारे लिए मस्त चाय बनाता हूं,’’ कहते हुए हम वहां से खिसक लिए. चाय पीते वक्त भी श्रीमतीजी की तीखी निगाहें हम पर ही टिकी थीं. कुछ देर बाद वे उठ कर घर के कामों पर नजर दौड़ाने लगीं. और हम अपनी अक्ल के घोड़े दौड़ाने लगे इस बात पर कि आखिर श्रीमतीजी इतनी जल्दी वापस क्यों आ गईं? हमारा पूर्व निर्धारित पूरा प्रोग्राम चौपट हो चुका था. फिर भी हमें तसल्ली थी कि कम से कम उन्हें हमारी कारगुजारियों के बारे में पता तो नहीं चला.

अब हम ने मोबाइल पर अपने फेसबुक की अपडेट्स लेनी चाही, तो ये देख कर चौंक गए कि प्रेमाजी ने कल सुबह के नाश्ते की तसवीर फेसबुक पर डाल कर मुझे टैग किया हुआ था, यह लिख कर कि ‘हसीं सुबह की चाय का लुत्फ एक नए दोस्त के साथ’ और श्रीमतीजी ने न केवल उसे लाइक किया था, बल्कि कमैंट भी लिखा था. अब हमें उन के तुरंत लौट आने और उन की तीखी निगाहों का कारण समझ में आ गया. इस बात के लिए उन्हें क्या सफाई देंगे, इस बात पर सोच ही रहे थे कि दरवाजे पर फिर से दस्तक हुई. श्रीमतीजी ने दरवाजा खोला, तो सामने प्रेमा हमारी ही उम्र के एक अनजान व्यक्ति के साथ नजर आईं.

‘‘हाय स्वीटी,’’ उन्होंने मुसकरा कर मेरी श्रीमतीजी को गले से लगाते हुए कहा.

‘‘आओ प्रेमा, आओ,’’ श्रीमतीजी उन्हें अंदर लाते हुए बोलीं.

नमस्ते जीजाजी, प्रेमा ने मेरी ओर मधुर मुसकान बिखेरते हुए कहा.

‘जीजाजी, यह शब्द हम पर हथौड़े की भांति पड़ा. मगर फिर भी हम अपनेआप को संभालने में कामयाब रहे. तभी श्रीमतीजी ने प्रेमा के साथ आए आगंतुक का परिचय कराते हुए कहा, ‘ये हैं डा. अनिवनाश जैन, प्रेमा के पति.’

‘‘जी हां, और पिछले कुछ महीनों से मुझ से झगड़ कर अपने मायके यानी मेरे सासससुर के पास रह रहे थे. और आज आप के कारण ही हम दोबारा एक हो पाए हैं. आप का बहुतबहुत धन्यवाद, जीजाजी,’’ कह कर प्रेमा ने दोनों हाथ जोड़ दिए.

‘‘हां मिहिर, प्रेमा मेरी कालेज की सहेली है. कुछ महीनों पहले जब यहां शिफ्ट हुई, तब एक बार अचानक ही हमारी मुलाकात हो गई और बातोंबातों में उस ने बताया कि अविनाश से किसी बात को ले कर उस की काफी कहासुनी हो गई है, और इसीलिए वह अकेली रह रही है. और तभी हमारे दिमाग में यह प्लान आया और मैं जानबूझ कर तुम से लड़ कर मायके चली गई क्योंकि मुझे मालूम था कि मेरे सामने तो तुम इस के पास जाने से रहे,’’ कह कर श्रीमतीजी बेसाख्ता हंस पड़ीं. उन के साथ प्रेमा और अविनाश भी मुसकराने लगे.

ओह, तो इस का मतलब है हमें मुरगा बनाया गया. अब शुरू से आखिर तक की सारी कहानी हमारी समझ में आ चुकी थी. श्रीमतीजी का यों लड़ कर मायके जाना, प्रेमा का प्यार जताना, हमारी फोटो फेसबुक पर डालना ताकि उसे देख अविनाश वापस आ जाए. मतलब जिसे हम अपनी जीत समझ रहे थे. वह मात्र एक भ्रम था. ‘‘लेकिन अगर अविनाश अभी वापस नहीं आते?’’

हमारे इस प्रश्न पर श्रीमतीजी मुसकुराते हुए बोलीं, ‘‘तो यह नाटक कुछ दिनों और चलता. मैं मायके से अभी वापस नहीं आती.’’

अब हमारे पास सिवा मुसकराने के और कोई चारा नहीं था. मन ही मन इस बात की तसल्ली थी कि प्रेमा के संग प्यार की पींगें न सही, साली के रूप में आधी घरवाली मिलने का संतोष तो है.

Family Story

Long Story in Hindi: दो नंबर की बातें

Long Story in Hindi: काले धन को ले कर इन दिनों मौजूदा सरकार बड़ीबड़ी बातें कर रही है. खबरिया चैनलों में ऐंकर चिल्लाचिल्ला कर यह कहते नहीं थकते कि दो नंबर का रुपया स्विस बैंकों से वापस आने वाला है. दो नंबर का रुपया वह कालाधन होता है जिसे लेने अथवा देने वाले को पकड़े जाने का भय होता है. इसी तरह दो नंबर का माल, चोरी का वह माल होता है जिसे लेने अथवा देने वाले को सरकारी मेहमान बन कर जेल की हवा खाने का भय रहता है. अब सुनिए दो नंबर की बातें. घबराइए मत.

इस में आप को यानी सुनने वाले को कोई भय नहीं क्योंकि आप को कोई नहीं जानता. इस में अगर किसी को कोई भय है तो वह केवल मुझे है क्योंकि मेरा नाम ऊपर साफसाफ लिखा है और मेरा पता भी आसानी से मालूम किया जा सकता है.

मैं ने बीसियों बार भाषण दिए हैं और सुनने वालों पर देश, समाज तथा परिवार सुधार के साथ उन का अपना मानसिक एवं आध्यात्मिक सुधार तथा अन्य सभी प्रकार के सुधार करने पर भी जोर डाला है. इसी  के फलस्वरूप मेरी प्रसिद्धि होती रही है और मैं कभी आर्य समाज का मंत्री, कभी किसी संगठन का प्रधान, कभी किसी यूनियन का अध्यक्ष इत्यादि बनता रहा हूं. भाषणों में सच्चीझूठी बातें रोचकता पूर्वक सुनने पर जब दर्शक तालियां बजाते या वाहवाह करते ?तो मुझे आंतरिक प्रसन्नता होती. पर कमबख्त रमाकांत का डर अवश्य रहता क्योंकि एक वही मेरा ऐसा अभिन्न मित्र तथा पड़ोसी है जो मेरे भाषण सुनने के बाद निजी तौर पर मुझे चुनौती दे डालता, कहता, ‘‘ठीक है गुरु, कहते चले जाओ, पर जब स्वयं करना पड़ेगा तो पता चलेगा.’’

‘‘मेरे दोस्त, मैं अपने भाषणों में जो कुछ कहता हूं वही करता भी हूं. मसलन, मैं अपने घर में रोज न हवन करता हूं और न संध्या. इसीलिए मैं ने अपने किसी भी भाषण में यह नहीं कहा कि लोगों को घर में प्रतिदिन हवन और संध्या करनी चाहिए,’’ मैं ने एक बार अपनी सफाई में कहा. ‘‘और वह जो देशप्रेम की और देश के लिए जान निछावर करने की बड़ीबड़ी बातें कह कर तुम ने हनुमंत को भी पीछे छोड़ दिया है?’’ रमाकांत ने मेरी बात काटते हुए कहा.

मैं ने पूछा, ‘‘कौन हनुमंत?’’

‘‘हनुमंत को नहीं जानते? अरे, वही राजस्थान का गाइड, जो उस राज्य को देखने के लिए आने वाले विदेशी पर्यटकोें को बड़े गौरव से अपना प्रदेश दिखाते हुए कहता है, ‘जनाब, यह है हल्दीघाटी का मैदान जहां महाराणा प्रताप ने मुगलों के दांत खट्टे कर दिए. यह है चित्तौड़गढ़ का किला जहां अलाउद्दीन खिलजी ने पद्मिनी को पाने की जीजान से कोशिश की पर उस की हार हुई. यह है वह स्थान जहां पृथ्वीराज चौहान ने मुहम्मद गोरी को बारबार हराया और यह है…’ तब आश्चर्यचकित हो कर पर्यटक पूछते हैं कि ‘क्या आप का मतलब यह है कि राजस्थान में मुगलोें को कभी एक भी विजय प्राप्त नहीं हुई?’ इस पर हनुमंत छाती फुला कर कहता है कि ‘हां, राजस्थान में मुगलों की कभी एक भी विजय नहीं हुई और जब तक राजस्थान का गाइड हनुमंत है कभी होगी भी नहीं.’’’

हनुमंत के अंतिम शब्द सुन कर मुझे बड़ी हंसी आई. रमाकांत भी मेरे चेहरे को देख कर हंस पड़ा और बोला, ‘‘तुम ने हनुमंत का दूसरा किस्सा नहीं सुना है?’’

मैं ने कहा, ‘‘नहीं तो.’’

‘‘यह कैसे हो सकता है? भई, तुम ने जरूर सुना होगा.’’

मैं ने फिर कहा, ‘‘नहीं, मैं ने नहीं सुना.’’

रमाकांत बोला, ‘‘अच्छा तो सुनो, एक दिन हनुमंत गा रहा था– ‘जन, गण, मन, अधिनायक…’ सुना है न? ’’

मैं ने कहा, ‘‘नहीं सुना है, भई.’’

‘‘कैसे नहीं सुना? अपना राष्ट्रीय गान ही तो है,’’ यह कह कर रमाकांत जोर से हंस दिया.

मैं ने कहा, ‘‘आ गए हो न अपनी बेतुकी बातों पर?’’

‘‘हां जी, हमारी बातें तो बेतुकी, क्योंकि हमें भाषण देना नहीं आता है. और आप की बातें जैसे तुक वाली होती हैं?’’

मैं ने पूछा, ‘‘कौन सी बातें?’’

‘‘वही जो आज तुम ने दहेज के बारे में कही थीं कि न दहेज लेना चाहिए, न देना. शादियों पर धूमधाम नहीं करनी चाहिए. न रोशनी करनी चाहिए, न शादी में बैंडबाजा होना चाहिए और न बरात ले जानी चाहिए, न गोलीबंदूक. अरे, यदि तुम्हारी कोई लड़की होती और तुम्हें उस की शादी करनी पड़ती तब देखता कि तुम दूसरों को बताए हुए रास्तों पर स्वयं कितना चलते.’’

‘‘मेरी कोई लड़की कैसे नहीं है. मेरी अपनी न सही, मेरे कोलकाता वाले भाईसाहब की तो है. हां, याद आया. रमाकांत, कोई अच्छा सा लड़का नजर में आए तो बताना. कल ही भाईसाहब का फोन आया था कि आशा ने एमएससी तथा बीएड कर लिया है. अब वह 22 साल की हो चुकी है, इसलिए उस की शादी शीघ्र कर देनी चाहिए. कोलकाता में तो अच्छे पंजाबी लड़के मिलते नहीं, इसलिए दिल्ली में मुझे ही उस के लिए कोई योग्य वर ढूंढ़ना है. सोचता हूं कि मैट्रोमोनियल, वैबसाइट व न्यूजपेपर में विज्ञापन दे दूं.’’ रमाकांत बोला, ‘‘सो तो ठीक है गुरु, पर लड़की दिखाए बिना दिल्ली में कौन लड़का ब्याह के लिए तैयार होगा?’’

‘‘तुम ठीक कहते हो रमाकांत, इसीलिए मैं ने भाईसाहब को लिख दिया है कि आप ठहरे सरकारी अफसर, आप को वहां से छुट्टी तो मिलेगी नहीं, इसलिए आशा और उस की मम्मी को दिल्ली भेज दो.’’

‘‘तुम ने मम्मी कहा न, गुरु एक तरफ तो हिंदी के पक्ष में बड़े जोरदार भाषण करते हो और स्वयं  मम्मी शब्द का प्रयोग खूब करते हो.’’ खैर, मैं ने दिल्ली के अंगरेजी के सब से बड़े समाचारपत्र के वैवाहिक कौलम में निम्न आशय का विज्ञापन छपवा दिया.

‘‘एमएससी और बीएड पास, 163 सैंटीमीटर लंबी, 22 वर्षीया, गुणवती और रूपवती, पंजाबी क्षत्रिय कन्या के लिए योग्य वर चाहिए. कन्या का पिता प्रथम श्रेणी का सरकारी अफसर है. ×××××98989.’’ अगले दिनों मोबाइल बजने लगा. मैं ने सब को ईमेल आईडी दे दी कि बायोडाटा उस पर भेज दें. ईमेल आए जिन्हें भिन्नभिन्न लड़के वालों ने विज्ञापन के उत्तर में भेजा था. मैं और रमाकांत उन ईमेल्स को पढ़ने, समझने और उत्तर देने में लग गए. 4 दिनों के भीतर 45 मेल आ गए. उस के एक सप्ताह बाद 30 मेल और आए. इस प्रकार एक विज्ञापन के उत्तर में लगभग 140 लड़के वालों के मेल आ गए. कई सारे मेल और एसएमएस भी आए. 5 तो हमारे महल्ले में ही रहने वालोें के थे. अन्य 30 मेल विवाह करवाने वाले एजेंटों के थे. उन पर लिखा था कि यदि हम उन को फौर्म भर कर देंगे तो उन की एजेंसी योग्य जीवनसाथी खोजने में निशुल्क सेवा करेगी.

मैं ने रमाकांत से विचार कर के 140 में से 110 को अयोग्य ठहरा कर बाकी 30 के उत्तर भेज दिए. उन में से 20 ने हमें लिख भेजा अथवा टैलीफोन, मोबाइल व ईमेल किया कि वे लड़की को देखना चाहते हैं. उन्हीं दिनों आशा और उस की मम्मी कोलकाता से दिल्ली आ गईं. हम ने उन से भी परामर्श कर के लड़के को देखना और लड़की को दिखाना प्रारंभ कर दिया. पर कहीं भी बात बनती नजर नहीं आई. लड़के वालों की ओर से अधिकतर ऐसे निकले जो प्रत्यक्षरूप से तो दहेज नहीं मांगते थे पर परोक्षरूप से यह जतला देते कि उन के यहां तो शादी बड़ी धूमधाम से की जाती है. कोई कहता ‘लेनादेना क्या है? जिस ने लड़की दे दी, वह तो सबकुछ ही दे डालता है.’ यदि बातों ही बातों में मैं लड़के वालों से कहता कि ‘आजकल तो देश में दहेज के विरोध में जोरदार अभियान चल रहा है,’ तो लड़के वाले कहते, ‘जी, विरोध में काफी कहा जा रहा है, पर अंदर ही अंदर सब चल रहा है.’

सगाई न हो पाने के कुछ और कारण भी थे. यदि मेरे विचार में कोई लड़का योग्य होता तो आशा की मम्मी को लड़के वालों के घर का रहनसहन पसंद न आता. दूसरा कारण था, आशा की ऐनक, जिसे देखते ही बहुधा लड़के वाले टाल जाते. इसीलिए आशा ने ऐनक की जगह कौंटैक्ट लैंस लगवा लिए, लेकिन मेरा और रमाकांत का निश्चय था कि हम कोई बात छिपाएंगे नहीं, परिणाम यह होता कि जब हम लड़के वालों को बता देते कि लड़की ने कौंटैक्ट लैंस लगा रखे हैं तो वे कोई न कोई बहाना कर के बात को वहीं खत्म कर देते. तीसरा कारण था, आशा का रंग, जो काला तो नहीं था पर गोरा भी नहीं था. कई लड़के वाले इस बात पर भी जोर देते कि उन का लड़का तो बहुत गोरा है. चौथा कारण यह था कि आशा एमएससी और बीएड तो थी, पर नौकरी नहीं करती थी. और पांचवां कारण यह था कि आशा अमेरिका अथवा यूरोप में रहने वाले किसी लड़के से शादी करना चाहती थी. वह शादी कर के विदेश जाना चाहती थी.

इसी चक्कर में 2 मास बीत गए. आशा निराश होने लगी. उस की मम्मी मेरे घर के सोफे, परदोें तथा सजावट के सामान को और रमाकांत मेरे प्रगतिशील विचारों को दोषी ठहराने लगा. हम ने फिर इकट्ठे बैठ कर स्थिति पर विचार किया. रमाकांत ने आशा से पूछा, ‘‘बेटी, तू क्यों इस बात पर बल देती है कि विदेश में रहने वाले लड़के से ही शादी होनी चाहिए. तुझे क्या पता नहीं कि जो लड़के विदेशों से भारत में शादी करने आते हैं उन में कई धोखेबाज निकल आते हैं?’’

आशा बोली, ‘‘अंकल, मेरी कई सहेलियां शादी कर विदेश गई हैं. वे सब सुखी हैं. उन के व्हाट्सेप व ईमेल मुझे आते रहते हैं और फिर, यही तो उम्र है जब मैं अमेरिका, कनाडा या इंगलैंड जा सकती हूं. नहीं तो सारी उम्र मुझे भी यहीं रह कर अपनी मम्मी की तरह रोटियां ही पकानी पड़ेंगी.’’

मैं ने कहा, ‘‘बेटी, अपनी जननी और जन्मभूमि हर चीज से अच्छी होती है.’’

‘‘ये सब पुरानी व दकियानूसी बातें हैं,’’ आशा ने कहा, ‘‘अंकल, आप यह भी कहते हो कि सारी धरती ही अपना कुटुंब है. फिर मुझे क्यों निराश करते हो?’’ घर के बड़ेबूढ़े समझाते कि शादीब्याह तो जहां लिखा होता है, वहीं होता है. कुछ दिन पहले की बात है कि एक शाम, रमाकांत हमारे घर आया और बोला, ‘‘वह कुछ दिनों के लिए दौरे पर दिल्ली से बाहर जा रहा है.’’ अगले ही दिन किसी लड़के के पिता का मोबाइल पर फोन आया कि उन का लड़का अमेरिका से आया हुआ है और वे लोग आशा को देखने हमारे घर आना चाहते हैं. कोई जानपहचान न होने पर भी हम लोगों ने उन्हें अपने घर बुला लिया. लड़के के पिता, माता और बहन को लड़की पसंद आ गई और हमें वे लोग पसंद आ गए.

अगले दिन लड़के को लड़की और लड़की को लड़का पसंद आ गया. जब लड़के को बताया गया कि लड़की कौंटैक्ट लैंस लगाती है तो उस ने कहा, ‘‘इस में क्या बुराई है, अमेरिका में तो कौंटैक्ट लैंस बहुत लोग लगाते हैं.’’ नतीजतन, 2 दिनों बाद ही उन की सगाई हो गई और सगाई के 5 दिनों बाद शादी कर देने का निश्चय हुआ, क्योंकि लड़के को 10 दिनों के भीतर ही अमेरिका वापस जाना था.

सगाई और शादी में कुल 5 दिनों का अंतर था, इसलिए सारे काम जल्दीजल्दी में किए गए. सगाई के अगले दिन 200 निमंत्रणपत्र अंगरेजी में छप कर आ गए और बंटने शुरू हो गए. 2 दिनों बाद कोलकाता से भाईसाहब आ पहुंचे और वे मुझे डांट कर बोले कि बिना जानपहचान के अमेरिका में रहने वाले लड़के से तुम ने आशा की सगाई क्यों कर दी. उन्होंने 2-3 किस्से भी सुना दिए. जिन से शादी के बाद पता चला था कि लड़का तो पहले से ही ब्याहा हुआ था, बच्चों वाला था, आवारा था या अमेरिका में किसी होटल में बैरा था. मैं ने बहुत समझाया कि यह लड़का बहुत अच्छा है, इंजीनियर है, अच्छे स्वभाव का है. पर भाईसाहब ने मुझे ऐसीऐसी भयानक संभावनाएं बताईं कि मेरे पसीना छूट गया और नींद हराम हो गई. लेकिन मुझे तो लड़के वाले अच्छे लग रहे थे और जब वे भाईसाहब से आ कर मिले तो वे भी संतुष्ट दिखाई देने लगे. शादी से 2 दिन पहले ही घर मेहमानोें से भर गया. सब मनमानी करने लगे. घर की इमारत पर बिजली के असंख्य लट्टू लग गए और घर के आगे की सड़क पर शामियाने लगने शुरू हो गए. महंगाई के जमाने में न जाने कितने गहने और कपड़े खरीदे गए. हलवाइयों का झुंड काम पर लग गया.

शादी की शाम को ब्याह की धूमधाम देख कर मैं स्वयं आश्चर्यचकित था. बैंड के साथ घोड़ी पर चढ़ कर आशा का दूल्हा बरात ले कर आया, जिस के आगेआगे आदमी और औरतें भांगड़ा कर रहे थे. लड़के वाले सनातनधर्मी थे और उन्होंने मुहूर्त निकलवा रखा था कि शादी रात को साढ़े 8 से 11 बजे के बीच हो और ठीक 11 बजे डोली चल पड़े. ठीक मुहूर्त पर शादी हो गई. 11 बजे डोली चलने लगी तो पता चला कि आशा रो रही है. मैं ने आगे बढ़ कर उसे प्यार किया और कहा, ‘‘लड़की तो पराई होती है, रोती क्यों हो?’’ आशा ने मेरे कान में कहा कि वह इसलिए रो रही है कि उस के कौंटैक्ट लैंस रखने की छोटी डब्बी उस के पुराने पर्स में ही रह गई है. जब तक मैं उसे लैंस ला कर नहीं दूंगा वह वहां से जा नहीं सकेगी.

शादी के दूसरे दिन दौड़धूप कर के एक उच्चाधिकारी से सिफारिश करवा कर उसी दिन आशा का पासपोर्ट बनवाया गया. आननफानन जाने की सारी तैयारियां हो गईं. मैं आज ही सुबह आशा और उस के पति को हवाईअड्डे पर? छोड़ कर वापस लौटा हूं और मन ही मन डर रहा हूं कि आज रमाकांत दौरे से वापस लौटेगा और पूछेगा, ‘‘ गुरु, तुम्हारे आदर्शों का कहां तक पालन हुआ? बड़े देशप्रेमी बनते थे, पर अपनी लड़की की शादी विदेश में ही की? आखिर अमेरिका की सुखसुविधाएं भारत में कहां मिलतीं?’’ मैं सोच रहा हूं कि रमाकांत यहीं तक ही पूछे तो कोई बात नहीं, मैं संभाल लूंगा लेकिन अगर उस ने आगे पूछा कि दूसरों के आगे तो सुधार की बड़ीबड़ी बातें करते हो और अपने घर शादी की तो कौनकौन से सुधार लागू किए तो क्या जवाब दूंगा. वह जरूर पूछेगा, क्या निमंत्रणपत्र हिंदी में छपे थे? क्या अंधविश्वासियोें की तरह मुहूर्त को नहीं माना? क्या दहेज नहीं दिया? क्या घर को असंख्य लट्टुओें से नहीं सजाया? क्या धूमधाम से सड़क पर शामियाने नहीं लगाए? क्या सैकड़ों

लोगों ने कानन की टांग मरोड़ कर शादी पर बढि़या से बढि़या खाना नहीं खाया? क्या बरात में बैंडबाजे के साथ उछलकूद कर औरतों ने भी भांगड़ा नहीं किया? क्या जगहजगह काम  निकलवाने में सिफारिशें नहीं लगवाईं और सत्ता का दुरुपयोग नहीं किया? मुझ से इन प्रश्नों का समाधान नहीं हो पा रहा है. मैं क्या करता? मैं तो सभी लोगों को खुश रखना चाहता था. खुशी का मौका था, जैसा घर वाले और मेहमान चाहते थे, होता चला गया. मैं किसकिस को रोकता? मैं रमाकांत से साफ कह दूंगा कि मैं मजबूर था. पर मुझे ऐसा लग रहा है कि रमाकांत कहेगा, ‘रहने दो, अपनी दो नंबर की बातें. दो नंबर के धंधे में पकड़े जाने पर सब लोग अपनी कमजोरी को मजबूरी ही कहते हैं.

Long Story in Hindi

Social Story: कानून बनाम कोख- क्या नेताओं का ठीक था फैसला

Social Story: यह कहानी है साल 2026 की, जब पौपुलेशन कंट्रोल लॉ लागू हो चुका है. डाक्टर सीमा के क्लीनिक में बैठी विभूति अपनी बारी आने का इंतजार कर रही थी. उस बारी का इंतजार, जिसे वह खुद नहीं चाहती थी कि कभी आए. पति विशेष के साथ बैठी विभूति बहुत दुखी और परेशान थी और इस वक्त खुद को बहुत अकेला महसूस कर रही थी. वह यहां अपना ऐबौर्शन करवाने आई थी.

अपनी उस बच्ची को मारने आई थी, जो अपने नन्हे कदमों से उस की जिंदगी के द्वार पर दस्तक दे रही थी. जैसे उस से कह रही हो कि मां, मुझे बचा लो. मेरा दोष क्या है? कम से कम इतना ही बता दो?

विभूति की आंखों से ढलकते आंसू उस की बेबसी को बयां कर रहे थे. ऐसा नहीं कि किसी ने विभूति को यहां आने के लिए मजबूर किया था या फिर उस का पति उसे या अपनी आने वाली बच्ची को प्यार नहीं करता था. नहीं ऐसा तो बिलकुल भी नहीं था. तो फिर वह यहां क्यों थी, यह जानने के लिए हमें जरा फ्लैश बैक में जाना होगा…

विभूति को आज भी याद है 6 साल पहले का वह समय, जब विशेष और वह दोनों एक ही औफिस में काम करते थे. वे पहली बार औफिस में ही मिले थे. विशेष विभूति का सीनियर था और विभूति उसे रिपोर्ट करती थी. कामकाजी संबंध कब दोस्ती और फिर धीरेधीरे प्यार में बदल गया, उन्हें इस का जरा भी एहसास नहीं हुआ. उन के प्यार से दोनों के परिवार वालों को कोई आपत्ति नहीं थी. 2021 में दोनों परिवारों की सहमति से उन की शादी हो गई थी. 1 साल बाद जब विभूति प्रैगनैंट हुई तो कुछ वजहों से उसे पूरी प्रैगनैंसी के दौरान बैडरैस्ट बताया गया और उसे नौकरी छोड़नी पड़ी. अब परिवार की सारी आर्थिक जिम्मेदारी विशेष के कंधों पर आ गई.

इधर विभूति की डिलीवरी का टाइम नजदीक आ रहा था, उधर विशेष भी अपनी बढ़ती हुई जिम्मेदारियों को समझते हुए बेहतर नौकरी की तलाश कर रहा था.

दिसंबर 2022 में जब मायरा का जन्म हुआ तो न सिर्फ विशेष और विभूति ने ही बल्कि उस के सासससुर और ननद ने भी खुली बांहों से नन्ही मायरा का स्वागत किया था. उसी समय पौपुलेशन कंट्रोल ला के चलते विशेष को बिजली विभाग में अच्छी नौकरी मिल गई और क्योंकि मायरा लड़की थी, तो उसे कई बैनिफिट्स भी मिल गए थे. उन की गृहस्थी की गाड़ी पहली बार बिना हिचकोलों के चल निकली थी.

सारा परिवार पौपुलेशन कंट्रोल ला की सराहना कर रहा था और सरकार की दूरदर्शिता की दाद दे रहा था. इस बात को अभी 3 साल भी नहीं बीते थे कि इसी ला का दूसरा पहलू विभूति और विशेष की जिंदगी पर गाज बन कर गिरा.

मायरा के 3 साल की होते ही सासूमां ने विभूति को दूसरा बच्चा पैदा करने के बारे में समझाना शुरू कर दिया. विभूति भी अपनी मायरा को एक भाई या बहन देना चाहती थी, इसलिए इस सलाह को सहर्ष स्वीकार भी कर लिया. 1 साल पहले जब सुबहसुबह विभूति ने सासूमां को अपने प्रैगनैंट होने की खबर सुनाई, तो सासूमां ने उसे गले से लगाते हुए कहा,”बहुतबहुत मुबारक हो बहू। इस बार हमें पोते का मुंह दिखा दे, ताकि हम भी निश्चिंत हो जाएं कि कोई हमारा वंश चलने वाला भी है.”

“लेकिन मम्मा, यह कैसे पता चल सकता है? यह तो वक्त ही बताएगा न कि बेटा होगा या बेटी?”

अब सासूमां के तेवर बदले और वह बोली,”देखो विभूति, तुम जानती हो कि विशु मेरा इकलौता बेटा है. फिर 2 से ज्यादा बच्चे पैदा करने की इजाजत तो पौपुलेशन कंट्रोल ला देता नहीं है. इसलिए इस बार तो बेटा ही चाहिए. रही बात बच्चे का सैक्स टेस्ट करवाने की, तो तुझे पता ही है कि तेरी ननद सीमा गायनोकोलौजिस्ट है, वह कब काम आएगी,” सासुमां ने चारो ओर से किलेबंदी करते हुए कहा.

“लेकिन मम्मा, यह तो गैर कानूनी है न,” विभूति ने दबी आवाज में कहा.

“हां पता है. सारे कानून मानने का ठेका हम ने ही ले रखा है क्या,” फिर विभूति की ओर देख कर बोलीं,”ठीक है, ठीक है. क्या और कैसे करना है वह सीमा संभाल लेगी. मैं उस से बात कर लूंगी. तू चिंता मत कर.”

“पर मम्मा…” विभूति की बात बीच में ही काट कर सासूजी बोलीं,”पर क्या विभूति, पर क्या? क्या तुम नहीं जानतीं कि तीसरा बच्चा पैदा करने से विशु की परमोशन रुक जाएगी. जो भी बैनिफिट्स मिलते हैं सब बंद हो जाएंगे. और तो और बच्चों की पढ़ाईलिखाई, परिवार की मैडिकल सैक्युरिटी सब पर पानी फिर जाएगा. फिर तुझे पता है कि विशु घर का अकेला कमाने वाला है. उस की इस आधीअधूरी नौकरी से घर कैसे चलेगा?”

विभूति का खुशी से खिला चेहरा मुरझा गया. इस खुशी का यह पक्ष तो उस ने सोचा ही नहीं था. उसे कहां पता था कि यह कानून उस की कोख पर पहरा लगाएगा? उस की ममता पर इस क्रूरता से प्रहार करेगा?

विभूति एक पढ़ीलिखी औरत थी. अपनी भावनाओं पर हुए इस वार से वह तिलमिला उठी. वह इस देश के कर्णधारों से पूछना चाहती थी कि अब क्या हमें घरपरिवार के फैसले भी सरकार से पूछ कर लेने होंगे? माना कि बढ़ती हुई जनसंख्या तरक्की की राह का सब से बड़ा रोड़ा है. माना कि पौपुलेशन कंट्रोल करना बहुत जरूरी है. लेकिन किस कीमत पर? औरतों की समस्याओं को बढ़ा कर? समाज में लड़कियों की संख्या घटा कर और अपने कल को एक और बड़ी समस्या दे कर? गैरकानूनी ऐबौर्शन को बढ़ावा दे कर यानी एक कानून को निभाने के लिए दूसरा तोड़ना ही पड़ेगा? 1 समस्या को सुलझाने के लिए क्या 2 और समस्याओं को जन्म देना ठीक होगा? क्या देश के विकास का मार्ग मांओं की कोख से हो कर गुजरना जरूरी है?

जिन बच्चों को हम अच्छा भविष्य न दे सकें, उन्हे दुनिया में नहीं लाना चाहिए, यह बात तो हम भी जानते हैं. फिर उसे नौकरी, तरक्की आदि से जोड़ कर, दोनों ही क्षेत्रों को गड़बड़ाने की क्या जरूरत है? इस की बजाय यदि शिक्षा का सहारा लिया जाए तो बेहतर न होगा? जनता में अपना भलाबुरा समझने की सहूलत दे कर भी तो समझाया जा सकता है. परिवार नियोजित करने की जहां जरूरत है, वहां उस के साधनों को मुहैया करवाएं। उन्हें इस के लिए शिक्षित करें नकि जो समझ चुके हैं उन का जीना मुश्किल करें. फिर इतना बड़ा डिसिजन रातोरात ले कर उसे जनता पर लादना, सिवाय राजनीति के और क्या हो सकता है?

यह पौपुलेशन आज या कल में तो बढ़ी नहीं है. फिर चुनावों के पहले ही इस का समाधान क्यों अचानक याद आ गया? वह भी ऐसा समाधान… इन्हीं सब दिमागी जद्दोजेहद से जूझती विभूति पिछले 1 साल में आज तीसरी बार इस क्लीनिक में बैठी थी. तभी उस का नाम पुकारा गया.

दोपहर तक टूटीथकी और चूसे हुए आम जैसी निचुड़ी विभूति अपने घर पहुंची और तकिए में मुंह दबाए उस दिन को कोसती रही, जिस दिन यह कानून बना था. इस कानून ने उस से उस की ममता, इंसानियत और सुकून सब छीन लिया था. वह अपनी बेबसी पर आंसू बहा रही थी, तभी मायरा अपनी गुड़िया को गोद में लिए उस के कमरे में आई और अपनी बांहें उस के गले में डाल कर अपनी तोतली बोली में बोली,”मम्मा, आप ले आए छोता बेबी? कहां है? मुजे उछ के छात खेलना है.”

विभूति अपने जिन आंसूओं को अपनी नन्ही कली से छिपा रही थी, वे और भी तेजी से बह निकले. फिर वह खुद को संभालते हुए बोली,”बेटा, बेबी तो डाक्टर अंकल के पास है, बाद में आएगा।”

मायरा अपने नन्हे हाथों से विभूति के आंसू पोंछते हुए बोली,”मम्मा, इतने बले हो कर रोते थोली हैं. बेबी दाक्टर अंकल के पाछ है, तो कल ले आना,” कह कर वह अपनी गुड़िया से खेलने लगी.

उधर विशु भी विभूति की हालत देख कर बहुत उदास था. वह एक पढ़ालिखा इंसान था और समझता था कि बच्चे का सैक्स सिलैक्ट करना हमारे हाथ में नहीं है. फिर जो किसी के भी बस में नहीं है उस के लिए विभूति को हर बार प्रताङित करना और इसी दर्द से विभूति के साथ खुद के लिए भी गुजरना आसान नहीं था। पर क्या करे? उस की बेटा पाने की चाह उतनी बलवती नहीं थी जितनी नौकरी बचाने और घरपरिवार को पालने की मजबूरी. वह जानता था कि अगर उसे 3 बच्चों का भविष्य बनाना है, तो वह बना सकता है, लेकिन बिना नौकरी के नहीं. फिर इतनी अच्छी नौकरी आसानी से कहां मिलती है.

इधर मां की वंश चलाने और पित्तरों को तर्पण करने वाली अंधविश्वास भरी बातों का भी वह पूरी तरह तिरस्कार नहीं कर पाता था. बेटा होगा या बेटी, यह उम्मीद वह बिना चांस लिए छोड़े भी तो कैसे? लेकिन कानून की कठोरता और विभूति की हालत देख कर इस बार उस ने विभूति को आश्वासन दिया था कि इस स्थिति में वह विभूति को फिर कभी नहीं लाएगा. यही बात बताने वह मां के पास गया, लेकिन वह कुछ कहता उस से पहले ही मां बोलीं,”बेटा, मुझे नहीं लगता कि इस बहू से हमें पोते का सुख मिलेगा.”

“मां, आप कहना क्या चाहती हैं?” विशेष ने हैरानी से पूछा.

“बेटा, वह जो मेरी सहेली है न, सरला आंटी…”

“हां, तो…” विशेष झल्लाया.

“उस ने तो अपने बेटे को तलाक दिलवा कर उस की दूसरी शादी करवा दी. पहली बहू को बेटा नहीं हो रहा था न.”

“मां, आप भी हद करती हो, आप ने यह सोचा भी कैसे?” वह कुछ और कहता लेकिन तभी उस की नजर किचन की ओर जाती विभूति पर पड़ी. उस की आंखों का दर्द बता रहा था कि वह मां की बात सुन चुकी थी.

विशेष अब मां की बात बीच में छोड़ कर विभूति के पास गया और उसे अपने आलिंगन में ले कर अपने प्यार का विश्वास दिलाते हुए बोला,”तुम्हें मुझ पर विश्वास है न?”

विभूति ने सिसकियों के बीच गरदन हां में हिला दी.

“बस, तो फिर अब कोई कुछ भी कहे.”

विभूति को ढाढ़स बंधा कर विशेष औफिस के लिए निकल गया. उस ने औफिस से आधे दिन की छुट्टी ली थी. लंच के बाद जब वह औफिस पहुंचा तो उस के सहकर्मी ने बताया,”विशेष, बौस तुम्हें पूछ रहे थे, जरा गुस्से में भी लग रहे थे. तुम जरा जा कर उन से मिल लो.”

“ठीक है,” विशेष ने कहा और बौस के कमरे की ओर चल दिया.

विशेष ने जैसे ही बौस के कमरे में प्रवेश किया, वे जरा तल्ख लहजे में बोले,”विशेष, वह नए कनैक्शन वाली फाइल, जो आज सुबह मेरी टेबल पर होनी चाहिए थी, अभी तक गायब है. मैं ने तुम्हें कल ही बताया था कि आज बोर्ड मीटिंग में मुझे उस की जरूरत है.”

“सर, मेरा तो आज हाफ डे था, लेकिन मैं मिस्टर विजय को बता कर गया था. वैसे भी न्यू कनैक्शन से संबंधित काम तो मिस्टर विजय को ही सौंपे गए हैं न?”

“वही मिस्टर विजय, जो नए आए हैं?” सर ने पूछा.

“यस सर.”

“लेकिन वह तो कह रहे हैं कि इस काम का उन्हें कोई तजरबा ही नहीं है.”

“लेकिन सर, ऐसा कैसे हो सकता है? उन्हें तो इसी काम के लिए हायर किया गया था. यदि ऐसा है तो फिर उन्हें यह पोस्ट कैसे मिल गई?

“वह इसलिए क्योंकि उन की एक ही बेटी है.”

“क्या? इस बात का भला इस नौकरी से क्या संबंध?”

“लेकिन, इस कानून से तो है न? एक ही बेटी वाले लोगों को सरकारी नौकरी देने की वकालत इस कानून का हिस्सा है।”

विशेष असमंजस की स्थिति में खड़ा सोच रहा था कि क्या देश के नेताओं का यह फैसला ठीक है? आज से 4 साल पहले विशेष जिस कानून के गुण गा रहा था, आज वही कानून जीवन के किसी भी मोरचे पर सही साबित नहीं हो रहा था. एक ओर घर में विभूति की हालत, तो दूसरी ओर यहां औफिस की स्थिति। सभी मिल कर जैसे कह रहे थे, “पौपुलेशन कंट्रोल ला गो बैक.”

Social Story

Long Story: झूठी शान- परेश क्या समझ गया था

Long Story: सवेरेसवेरे किचन में नाश्ता बना रही निर्मला के कानों में आवाज पड़ी, ‘‘भई, आजकल तो लड़कियां क्या लड़के भी महफूज नहीं हैं. एक महीने में अपने शहर से 350 बच्चे गायब…’’ आवाज हाल में बैठ कर समाचार देख रहे निर्मला के पति परेश की थी.

निर्मला परेश को नाश्ता दे कर बाहर की ओर बढ़ गई. परेश को मालूम था कि उसे बच्चों की स्कूल की फीस जमा करवाने के लिए जाना है, फिर भी एक बार फर्ज के तौर पर ध्यान से जाने की हिदायत देते हुए नाश्ता करने में जुट गए.

इस पर निर्मला ने भी आमतौर पर दिए जाने वाला ही जवाब देते हुए कहा, ‘‘जी हां…’’ और बाहर का गरम मौसम देख कर बिना छाता लिए ही घर से निकल गई.

निर्मला आमतौर पर रिकशे से ही सफर किया करती, क्योंकि उस के पास और कोई साधन भी न था. स्कूल में सारे पेरेंट्स तहजीब से खुद ही सार्वजनिक दूरी बनाए अपनीअपनी कुरसियों पर बैठे अपना नंबर आने का इंतजार कर रहे थे.

निर्मला का नंबर सब से आखिर में था. उस के अकेलेपन की बोरियत को मिटाने के लिए न जाने कहां से उस की पुरानी सहेली मेनका भी उसी वक्त अपने बेटे की फीस जमा कराने वहां आ टपकी.

चेहरे पर मास्क की वजह से निर्मला ने उसे पहचाना नहीं, पर मेनका ने उस के पहनावे और शरीर की बनावट से उसे झट से पहचान लिया और दोनों में सामान्य हायहैलो के बाद लंबी बातचीत शुरू हो गई. दोनों सहेली एकदूसरे से दोबारा पूरे 5 महीने बाद मिल रही थीं.

यों तो दोनों का आपस में एकदूसरे से दूरदूर तक कोई संबंध नहीं था, पर दोनों के बच्चे एक ही जमात में पढ़ते थे. घर पास होने की वजह से निर्मला और मेनका की मुलाकात कई बार रास्ते में एकदूसरे से हो जाया करती.

धीरेधीरे बच्चों की दोस्ती निर्मला और मेनका तक आ गई. दोनों ही अकसर छुट्टी के समय अपने बच्चों को लेने आते, तब उन की भी मुलाकात हो जाया करती. दोनों एक ही रिकशा शेयरिंग पर लेते, जिस पर उन के बच्चे पीछे बैठ जाया करते.

निर्मला ने मेनका को देख कर खुशी से मुसकराते हुए कहा, ‘‘अरे, ये मास्क भी न, मैं तो बिलकुल ही पहचान ही नहीं पाई तुम्हें.’’

पर, असलियत तो यह थी कि वह उस के पहनावे से धोखा खा गई थी, क्योंकि जिस मेनका के लिबास पुराने से दिखने वाले और कई दिनों तक एक ही जैसे रहते. वह आज एक महंगी सी नई साड़ी और कई साजोसिंगार के सामान से लदी हुई थी. इस के चलते उसे यकीन ही नहीं हुआ कि यह मेनका हो सकती?है.

निर्मला ने उस की महंगी साड़ी को हाथ से छूने की चाह से जैसे ही उस की तरफ हाथ बढ़ाया, मेनका ने उसे टोकते हुए कहा, ‘‘अरे भाभी, ये क्या कर रही हो? हाथ मत लगाओ.’’

भले ही मेनका ने सार्वजनिक दूरी को जेहन में रख कर यह बात कही हो, पर उस के शब्द थोड़े कठोर थे, जिस का निर्मला ने यह मतलब निकाला कि ‘तुम्हारी औकात नहीं इस साड़ी को छूने की, इसलिए दूर ही रहो’.

निर्मला ने उस से चिढ़ते हुए पूछा, ‘‘यह साड़ी कहां से…? मेरा मतलब, इतनी महंगी साड़ी पहन कर स्कूल में आने की कोई वजह…?’’

‘‘महंगी… यह तुम्हें महंगी दिखती है. अरे, ऐसी साडि़यां तो मैं ने रोज पहनने के लिए ले रखी हैं,’’ मेनका ने बड़े घमंड में कहा.

निर्मला अंदर ही अंदर कुढ़ने लगी. उसे विश्वास नहीं हुआ कि ये वही मेनका हैं, जो अकसर मेरे कपड़ों की तारीफ करती रहती थी और खुद के ऊपर दूसरे लोगों से हमदर्दी की भावना रखती थी. ये तो कुछ महीनों पहले उम्र से ज्यादा बूढ़ी और बेकार दिखती थी, पर आज अचानक ही इस के चेहरे पर इतनी चमक और रौनक के पीछे क्या वजह है?

पहले तो अपने पति के कुछ काम न करने की मुझ से शिकायत करती थी, पर आज यह अचानक से चमकधमक कैसे? हां, हो सकता है कि विजेंदर भाई को कोई नौकरी मिल गई हो. हो सकता?है कि उन्होंने कोई धंधा शुरू किया हो, जिस में उन्हें अच्छा मुनाफा हुआ हो या कोई लौटरी लग गई हो तो क्या…?

मैं इतना क्यों सोचने लगी? अब हर किसी की किस्मत एक बार जरूर चमकती है, उस में मुझे इतनी जलन क्यों हो रही है?

जिन के पास पहले पैसा नहीं, जरूरी थोड़े ही न है कि उन के पास कभी पैसा आएगा भी नहीं. भूतकाल की अपनी ही उधेड़बुन में कोई निर्मला को मेनका उस के मुंह के सामने एक चुटकी बजा कर वर्तमान में ले कर आई और कहा, ‘‘अरे भई, कहां खो गईं तुम. लाइन तो आगे भी निकल गई.’’

निर्मला और मेनका दोनों एकएक कुरसी आगे बढ़ गए.

‘‘वैसे, एक बात पूछूं मेनका, तुम्हारी कोई लौटरी वगैरह लगी है क्या?’’ निर्मला ने बड़े ही सवालिया अंदाज में पूछा, जिस का मेनका ने बड़े ही उलटे किस्म का जवाब दिया, ‘‘क्यों, लौटरी वाले ही ज्यादा पैसा कमाते हैं क्या? अब उन्होंने मेहनत के साथसाथ दिमाग लगाया है, तो पैसा तो आएगा ही न?

‘‘अब परेश भाई को ही देख लो, दिनभर अपने साहब के कहने पर कलम घिसते हैं, ऊपर से उन की खरीखोटी सुनते हैं, पूरे दिन खच्चरों की तरह दफ्तर में खटते हैं, फिर भी रहेंगे तो हमेशा कर्मचारी ही.’’

‘‘नहीं, ऐसा नहीं है. मेहनत के नाम पर ये कौन सा पहाड़ तोड़ते हैं सिर्फ दिनभर पंखे के नीचे बैठ कर लिखापढ़ी का काम ही तो करना होता है. इस से ज्यादा आराम और इज्जत की नौकरी और किस की होगी.’’

निर्मला ने मेनका को और नीचा दिखाने की चाह में उस से कहा, ‘‘पढ़ेलिखे हैं. आराम की नौकरी करते हैं. यों धंधे में कितनी भी दौलत कमा लो, पर समाज में सिर्फ पढ़ेलिखे और नौकरी वाले इनसान की ही इज्जत होती?है, बाकियों को तो सब अनपढ़ और गंवार ही समझते हैं.’’

इस पर मेनका अकड़ गई और अपने पास अभीअभी आए चार पैसों की गरमी का ढिंढोरा निर्मला के आगे पीटने लगी.

काउंटर पर निर्मला का नंबर आया. काउंटर पर बैठी रिसैप्शनिस्ट ने फीस  की लंबीचौड़ी रसीद, जिस में दुनियाभर के चार्जेज जोड़ दिए गए थे, निर्मला  को पकड़ाई.

निर्मला ने घर पर पैसे जोड़ कर जो हिसाब लगाया था, उस से कहीं ज्यादा की रसीद देख कर उन की आंखों से धुआं निकल आया. इतने पैसे तो उस के पर्स में भी न थे, पर इस बात को वह सब के सामने जताना नहीं चाहती थी, खासकर उस मेनका के सामने तो बिलकुल नहीं.

मेनका ने कहा, ‘‘मैडम, आप सिर्फ 3 महीने की ही फीस जमा कीजिए, बाकी मैं बाद में दूंगी.’’

तभी निर्मला के हाथ से परची लेते हुए मेनका ने निर्मला पर एहसान करने की चाह से अपने पर्स से एक चैकबुक निकाल अपने और उस के बच्चे की फीस खुद ही जमा कर दी.

निर्मला को यह बलताव ठीक न लगा, जिस के चलते उस ने उसे बहुत मना भी किया.

इस पर मेनका ने कहा, ‘‘अरे, भाईसाहब को जब पैसे मिल जाएं, तब आराम से दे देना. मैं पैनेल्टी नहीं लूंगी,’’ और वह हंसते हुए बाहर की ओर

निकल गई.

स्कूल के बाहर निकल कर देखा, तो मालूम हुआ कि छाता न ले कर बहुत बड़ी गलती हुई. गरम मौसम की जगह तेज बारिश ने ले ली. इतनी तेज बारिश में कोई भी रिकशे वाला कहीं जाने को राजी न था.

निर्मला स्कूल के दरवाजे पर खड़ी बारिश रुकने का इंतजार कर रही थी, पर मन में यह भी डर था कि आखिर अभी तुरंत मेरे आगे निकली मेनका कहां गायब हो गई? वह भी इतनी तेज बारिश में.

‘चलो, अच्छा है, चली गई, कौन सुनता उस की ये बातें? चार पैसे क्या आ गए, अपनेआप को कहीं की महारानी समझने लगी. सारे पैसे खर्च हो जाएंगे, तब फिर वही एक रिकशा भी मेरे साथ शेयरिंग पर ले कर चला करेगी.

मन ही मन खुद को झूठी तसल्ली देती निर्मला के आगे रास्ते पर जमा पानी को चीरते हुए एक शानदार काले रंग की कार आ कर रुकी.

गाड़ी का दरवाजा खुला. अंदर बैठी मेनका ने बाहर निर्मला को देखते हुए कहा, ‘‘गाड़ी में बैठो निर्मला. इस बारिश में कोई रिकशे वाला नहीं मिलेगा.’’

निर्मला को न चाहते हुए भी गाड़ी में बैठना पड़ा, पर उस का मन अभी भी यकीन करने को तैयार नहीं था कि यह वही मेनका है, जो पैसे न होने के चलते एक रिकशा भी मुझ से शेयरिंग पर लिया करती थी?

‘‘सीट बैल्ट लगा लो निर्मला,’’ मेनका ने ऐक्सीलेटर पर पैर जमाते हुए कहा.

निर्मला ने सीट बैल्ट लगाते हुए पूछा, ‘‘कब ली? कैसे…? मेरा मतलब कितने की…?’’

‘‘कैसे ली का क्या मतलब? खरीदी है, वह भी पूरे 40 लाख रुपए की,’’ मेनका ने बड़े बनावटी लहजे में कहा.

निर्मला के अंदर ईष्या का भी अंकुर फूट पड़ा. आखिर कैसे इस ने इतनी जल्दी इतने पैसे कमाए, आखिर ऐसा कैसा दिमाग लगाया, विजेंदर भाई ने कि इतनी जल्दी इतने पैसे कमा लिए. और एक परेश हैं कि रोज 13-13 घंटे काम करने के बावजूद मुट्ठीभर पैसे ही ले कर आते हैं, वह भी जब घर के सारे खर्चे सिर पर सवार हों. एक इसी के साथ तो मेरी बनती थी, क्योंकि एक यही तो थी मुझ से नीचे. अब तो सिर्फ मैं ही रह गई, जो रिकशे से आयाजाया करूंगी. इस का भी तो कहना ठीक ही है कि किसी काम में दिमाग लगाए बिना सिर्फ मेहनत करने से जिस तरह गधे के हाथ कभी भी गाजर नहीं आती, उसी तरह हर क्षेत्र में मेहनत से ज्यादा दिमाग लगाना पड़ता है.

विजेंदर भाई ने दिमाग लगाया तो पैसा भी कमाया, वहीं परेश की जिंदगी तो सिर्फ खाने में ही निकल जाएगी, आज ये बना लेना कल वो बना लेना.

अपना घर नजदीक आता देख निर्मला ने सीट बैल्ट खोल दी और उतरने के लिए जैसे ही उस ने दरवाजा खोलना चाहा, उस से उस महंगी गाड़ी का दरवाजा न खुला. इस पर मेनका ने हंसते हुए अपने ही वहां से किसी बटन से दरवाजा अनलौक करते हुए निर्मला को अलविदा किया.

दरवाजा न खुलने वाली बात पर निर्मला को खूब शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा था.

घर पहुंचते ही परेश ने एक पत्रिका में छपी डिश की तसवीर सामने रखते हुए वही डिश बनाने का आदेश दे डाला, जिस पर निर्मला ने परेश पर बिफरते हुए कहा, ‘‘पूरी जिंदगी तुम ने और किया ही क्या है, पूरे दिन गधों की तरह मेहनत करते हो और ऊपर से दफ्तर में बैठेबैठे फरमाइश और कर डालते हो कि आज यह बनाना और कल यह…

‘‘खाने के अलावा कभी सोचा है कि बाकी लोग तुम से कम मेहनत करते हैं, फिर भी किस चीज की कमी है उन्हें. घूमने को फोरव्हीलर हैं, पहनने को ब्रांडेड कपड़े हैं, कुछ नहीं तो कम से कम बच्चों की फीस का तो खयाल रखना चाहिए.

‘‘आज अगर मेनका न होती, तो फीस भी आधी ही जमा करानी पड़ती और बारिश में भीग कर आना पड़ता  सो अलग.’’

परेश समझ गया कि यह सारी भड़ास उस मेनका को देख कर निकाली जा रही है. परेश ने बात को और आगे न बढ़ाना चाहा, जिस के चलते उस ने चुप रहना ही बेहतर समझा.

दोपहर को गुस्से के कारण निर्मला ने कुछ खास न बनाया, सिर्फ खिचड़ी बना कर परेश और बेटे पारस के आगे रख दी.

परेश चुपचाप जो मिला, खा कर रह गया. उस ने कुछ बोलना लाजिमी न समझा.

रात तक निर्मला ने परेश से कोई बात नहीं की. उस के मन में तो सिर्फ मेनका और उस के ठाटबाट के नजारे ही रहरह कर याद आ जाया करते और परेश की काबिलीयत पर उंगली उठा जाते.

डिनर का वक्त हुआ. परेश ने न तो खाना मांगा और न ही निर्मला ने पूछा. देर तक दोनों के अंदर गुस्से का जो गुबार पनपता रहा, मानो सिर्फ इंतजार कर रहा हो कि सामने वाला कुछ बोले और मैं फट पडं़ू.

दोनों को ज्यादा इंतजार न कराते  हुए ठीक उसी वक्त भूख से बेहाल  बेटा पारस निर्मला से खाने की मांग करने लगा.

पारस को डिनर के रूप में हलका नाश्ता दे कर निर्मला ने परेश पर तंज कसते हुए कहा, ‘‘बेटा, आज घर में कुछ था ही नहीं बनाने को, इसीलिए कुछ नहीं बनाया. तू आज यही खा ले, कल देखती हूं कुछ.’’

परेश ने हैरानी से पूछा, ‘‘घर में कुछ था नहीं और तुम ने मुझे बताया क्यों नहीं? आखिर किस बात पर तुम ने दोपहर से अपना मुंह सिल रखा है और सुबह क्या देखोगी तुम?’’

‘‘मैं ने नहीं बताया और तुम ने क्या सिर्फ खाने का ठेका ले रखा है? सब से ज्यादा जीभ तुम्हारी ही चलती है, तो इंतजाम देखना भी तो तुम्हारा ही फर्ज बनता है न? और वैसे भी मालूम नहीं हर महीने राशन आता है, तो इस महीने कौन लाएगा?’’

परेश बेइज्जती के ये शब्द बरदाश्त न कर सका. इस वजह से वह उस रात भूखा ही सोया रहा मगर निर्मला से कुछ बोला नहीं.

सवेरे होते ही राशन के सामान से भरा हुआ एक थैला जमीन पर पटक कर उस में से जरूरी सामान निकाल कर परेश खुद ही अपने और बेटे पारस के लिए चायनाश्ता बनाने में जुट गया.

रसोई के कामों से फारिग हो कर दोनों बापबेटे सोफे पर बैठ कर नाश्ता करने में मगन हो गए.

परेश रोज की तरह समाचार चैनल लगा कर बैठ गया. आज सब से बड़ी खबर की हैडलाइन देख कर उस के होश उड़ गए और उस से भी ज्यादा उस के पीछे से गुजर रही निर्मला के.

सब से बड़ी खबर की हैडलाइन में लिखा था, ‘शहर में पिछले महीनों से गायब हो रहे बच्चों के केस का आरोपी शिकंजे में, जिस का नाम विजेंदर बताया जा रहा है. कल ही चौक से एक बच्चे को बहला कर अगुआ करते हुए वह पकड़ा गया.’

मुंह काले कपड़े से ढका हुआ था, पर इतनी पुरानी पहचान के चलते परेश और निर्मला को आरोपी को पहचानते देर न लगी.

निर्मला को अपनी गलती का एहसास हो चुका था. वह जान चुकी थी कि जल्दी से जल्दी ज्यादा ऐशोआराम पाने के चक्कर में लोगों को कोई शौर्टकट ही अपनाना पड़ता है, जिस काम की वारंटी वाकई में काफी शौर्ट होती है.

आज अपनी मरजी से ही निर्मला ने दोपहर का खाना परेश की पसंद का बनाया था, जिस की उसे कल तसवीर दिखाई गई थी.

Long Story

Cult Movies: पहले रही थीं फ्लौप आज बन गई हैं क्लासिक

Cult Movies: कल्ट फिल्म उन लोगों को पसंद आती है, जो फिल्म को अलग या असामान्य पाते हैं और जिन के पास फिल्म के प्रति एक समर्पित प्रशंसक आधार होता है, जो इसे बारबार देखते हैं और इस में भाग लेते हैं. ये फिल्में अकसर शुरुआत में मुख्यधारा में सफल नहीं होतीं या अच्छी प्रतिक्रिया नहीं पातीं, लेकिन समय के साथ एक खास पंथ वाले दर्शक वर्ग प्राप्त कर लेती हैं.

बौलीवुड कल्ट फिल्मों को पसंद करता है, खासकर उन फिल्मों को जिन्हें समय के साथ समर्पित प्रशंसकों का समूह मिला है. कल्ट फिल्में ऐसी होती हैं, जो मुख्यधारा से हट कर होती हैं और जिन में एक खास तरह की लोकप्रियता होती है. इन में कुछ फिल्में अकसर कल्ट क्लासिक्स मानी जाती हैं, मसलन फिल्म ‘शोले’, को कल्ट फिल्म माना जाता है, क्योंकि समय के साथ इस फिल्म ने बौक्स औफिस पर बहुत बड़ी कमाई की और कल्ट क्लासिक फिल्म कहलाई.

ऐसे समझें

असल में कुछ फिल्मों की स्टोरीलाइन को आप सहज रूप से समझ जाते हैं. मोबाइल चलाते हुए या घर का कामकाज करते हुए इन फिल्मों को देख लेते हैं. ये फिल्में ऐसी होती हैं, जिन का एकएक सीन, एकएक डायलाग रोमांचित कर देता है. ऐसी फिल्मों को मनमस्तिष्क पर जोर दे कर देखना पड़ता है. इन फिल्मों के कैरेक्टर थिएटर्स से निकलने के बाद भी आप का पीछा करते हैं और आप के मनमस्तिष्क में लंबे समय तक बने रहते हैं.

अलग और दिल को छूने वाली कहानी

इस बारे में फिल्म लेखक और गीतकार स्वानंद किरकिरे कहते हैं कि फिल्म तभी चलती है, जब उस की कहानी अलग हो और दर्शकों के दिल को छू जाए. अगर ऐसा नहीं हो रहा है, तो आप कोई भी फिल्म बना लें, वह नहीं चलती. अभी भूत की स्टोरी, 1-2 लवस्टोरी और कंटारा जैसी फिल्में चल रही हैं, क्योंकि ये फिल्में बाकी फिल्मों की कहानी से अलग हैं. इन में कहानीकार और फिल्ममेकर को यह समझना मुश्किल होता है कि कौन सी फिल्म चलेगी कौन सी नहीं. एक पैमाना बनाना मुश्किल होता है.

दर्शकों का जुङना जरूरी

सिनेमा भावनाओं का खेल है और उस के साथ दर्शकों का जुड़ना जरूरी होता है. हर फिल्म का अपना एक औडियंस होता है. मसलन, रोज पालक पनीर किसी को भी पसंद नहीं आती. कभी चटनी, कभी राजशाही डिश लोग खाते हैं. फिल्मों के साथ भी यही होता है.

कम अटैंशन स्पैन

स्वानंद आगे कहते हैं कि नई जैनरेशन की चौइस बहुत बदली है और इस की वजह कुछ हद तक ओटीटी है. देखा जाए तो रील देखने की वजह से नई जैनरेशन के टैस्ट में भी काफी बदलाव आया है. कमाल की फिल्म अगर नहीं होगी, तो फिल्म अपने यूथ को होल्ड नहीं करवा सकती, क्योंकि ये लोग रील के आदी हो चुके हैं. फिल्म देखने के दौरान भी अगर फिल्म बोरिंग है, तो रील देखने लग जाते हैं. अटैंशन स्पैन यूथ में कम होता जा रहा है, 1 मिनट की रील भी वे पूरी नहीं देखते. वह भी अगर उन्हें अच्छी नहीं लगी, तो वे आगे बढ़ जाते हैं. मैं तो वही लिखता हूं जो मुझे पसंद आता है.

दरअसल, इन फिल्मों के प्रशंसक इन के प्रति बेहद समर्पित होते हैं. वे अकसर एक निश्चित सब कल्चर का हिस्सा बन जाते हैं. दर्शक इन फिल्मों को बारबार देखते हैं और उन के संवादों को दोहराते हैं. कुछ कल्ट फिल्मों की स्क्रीनिंग में दर्शक एक खास तरीके से भाग लेते हैं, जैसेकि वेशभूषा पहन कर या संवाद दोहरा कर वे इसे ऐंजौय करते हैं.

खराब फिल्में भी हो सकती हैं कल्ट

कई बार कल्ट फिल्में अकसर अपरंपरागत या मुख्यधारा से हट कर होती हैं. वे अजीब, विवादास्पद या दार्शनिक हो सकती हैं. दर्शक इन फिल्मों को जानबूझ कर देखते हैं और पता करते हैं कि फिल्म कितनी खराब है.

वर्ष 2013 में लिम्का बुक औफ रिकौर्ड्स में 625 स्क्रिप्ट लिखने का रिकौर्ड दर्ज करने वाले फिल्म लेखक राज शांडिल्य कहते हैं कि कल्ट फिल्म कोई सोचसमझ कर बनाई नहीं जाती, समय के साथ हो जाती है.

किसी भी फिल्म के लिए अच्छी कहानी, स्क्रिप्ट, डाइरैक्टर, संगीत, परफौर्म करने वाले कलाकार आदि सभी का योगदान होता है. ऐसे में दर्शकों के लिए भी कल्ट फिल्म का मापदंड अलगअलग होती है, जैसेकि कुछ के लिए फिल्म ‘शोले’ कल्ट है, तो कुछ के लिए ‘दीवार’ या ‘खोसला का घोंसला’ कल्ट है.

कल्ट या डिफिकल्ट

असल में फिल्म 2 तरह की होती हैं, एक कल्ट और दूसरी डिफिकल्ट. डिफिकल्ट फिल्में कल्ट बनने से रह जाती हैं. आइडियल फिल्म कोई नहीं होती, ऐसे में आज की जैनरेशन की एक मूड होती है. उन्हें अलग तरीके की फिल्म पसंद आती है. फिल्म ‘सैयारा’ ऐसी ही थी. इसे अधिक लोगों ने देखा और सालों बाद यह भी कल्ट बन सकती है.

समय के साथ बनती हैं फिल्में कल्ट

इस के आगे राज कहते हैं कि मैं ने जो पहली फिल्म ‘ड्रीम गर्ल’ लिखी वह अलग थी. दूसरी बनाई ‘जनहित में जारी’ वह एक अलग कौंसेप्ट था. विकी विद्या का वह वाला वीडियो, जिसे परिवार वालों ने पसंद किया, मैं हमेशा अलग कौंसेप्ट पर कहानी लिखने की कोशिश करता हूं. फिल्म ‘गदर’ और ‘लगान’ जब एकसाथ आई और दोनों सुपरहिट हुई, ऐसी फिल्म जिस के दर्शक थोड़े समय तक बने रहने पर लगता है कि यह फिल्म कल्ट है, क्योंकि ऐसी फिल्में करीब 10 साल तक नहीं आती.

वे कहते हैं कि बहुत सारी ऐसी भी फिल्में हैं, जो थिएटर हौल में नहीं चलतीं, लेकिन समय के साथ कल्ट हो जाती हैं, क्योंकि धीरेधीरे लोग ऐसी फिल्मों को पसंद करने लगते हैं. अभी मैं ने एक कौमेडी फिल्म लिखा है, उसे आगे लाने वाला हूं, जिस में मनोरंजन के साथ एक मैसेज रहेगा. मुझे कल्ट फिल्म ‘कथा’, ‘चुपके चुपके’ बहुत पसंद है. मैं जेन जी को रिस्पौंसबिलटी वाली फिल्में दिखाना चाहता हूं, ताकि वे परिवार, काम, दोस्त, देश, समाज आदि के प्रति जिम्मेदार बनें. सिनेमा के द्वारा ही इसे हम दिखा सकते हैं.

सालों से रहा प्रचलन

वैसे तो कल्ट फिल्मों का प्रचलन बौलीवुड में सालों से रहा है, लेकिन पिछले 3 साल के अंतराल में बौलीवुड में ऐसी ही 4 फिल्में आईं, जो बौक्स औफिस पर तो फ्लौप रहीं लेकिन आज इन की गिनती कल्ट फिल्मों में होने लगी हैं. ये फिल्में थीं ‘कंपनी’, ‘पिंजर’, ‘मकबूल’ और ‘सहर’.

कुछ कल्ट फिल्में जिन्हें पहले दर्शकों ने नकारा मगर बाद में पसंद की जाने लगीं :

कंपनी : 12 अप्रैल, 2002 में आई रामगोपाल वर्मा की फिल्म ‘कंपनी’ थी, जो मुंबई अंडरवर्ल्ड पर बनी थी. यह फिल्म आज कल्ट मूवी का स्टेटस ले चुकी है. इस फिल्म की कहानी, किरदार, घटनाएं, लोकेशन बहुत ही रियलिस्टिक थी. इस फिल्म के 2000 के दशक की बैस्ट मूवी में से एक माना जाता है. रामगोपाल वर्मा ने वर्ष 1998 में ‘सत्या’ बनाई. भीखू म्हात्रे का किरदार इतना पौपुलर हुआ था कि मनोज बाजपेयी की पहचान जुड़ गई.

‘सत्या’ के बाद रामगोपाल वर्मा ने मुंबई अंडरवर्ल्ड पर और काम किया. इस दौरान उन्हें मुंबई अंडरवर्ल्ड कैसे काम करता है, कैसे फिल्मों में पैसा लगाता है, कैसे सुपारी ली जाती है, इन सब के बारे में जानकारी जुटाई. फिर एक प्लौट तैयार किया.

अजय देवगन, विवेक ओबेराय, मनीषा कोइराला, अंतरामाली, मलयालम सिनेमा के दिग्गज स्टार मोहनलाल, सीमा विश्वास और आकाश खुराना जैसे सितारों से सजी ‘कंपनी’ फिल्म की कहानी जयदीप साहनी ने लिखी थी. फिल्म की कहानी काफी हद तक अंडरवर्ल्ड डौन दाऊद इब्राहिम और छोटा राजन से इंस्पायर थी, जो 90 के दशक में मुंबई पर राज करते थे. दाऊद के मुंबई से विदेश भागने के बाद छोटा राजन मुंबई का बिजनैस संभालने लगा. बाद में दोनों एकदूसरे के जानी दुश्मन बन गए.

दाऊद ने छोटा राजन पर 2000 में बैंकाक में जानलेवा हमला भी करवाया था. दाऊद इब्राहिम और छोटा राजन के बीच दोस्ती-दुश्मनी की यह कहानी प्रोड्यूसर हनीफ कड़ावाला ने रामगोपाल वर्मा को बताई थी.

कड़ावाला को साल 1993 में मुंबई बम धमाकों के केस में 5 साल की सजा सुनाई गई थी. वर्ष 2001 में हनीफ कड़ावाला की हत्या उस के औफिस में कर दी गई थी, जिस का आरोप छोटा राजन पर लगा था. फिल्म में इसी दुश्मनी को अजय देवगन और विवेक ओबेराय के बीच दिखाया गया था.

पिंजर : 24 अक्तूबर, 2003 को एक फिल्म बौक्स औफिस पर आई थी, जिस में मनोज बाजपेयी, उर्मिला मांतोडकर, संजय सूरी, ईशा कोप्पिकर, फरीदा जलाल, संदाली सिन्हा, प्रियांशु चटर्जी और कुलभूषण खरबंदा अहम भूमिकाओं में थे. फिल्म थी ‘पिंजर’. यह एक हिस्टोरिकल ड्रामा फिल्म थी, जिसे चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने डाइरैक्ट किया था. भारत-पाकिस्तान विभाजन की त्रासदी को फिल्म में दिखाया गया था. फिल्म में किसी एक समुदाय को हीरो-विलेन नहीं दिखाया गया. विभाजन के समय महिलाओं की स्थिति को फिल्म बखूबी दिखाती है. म्यूजिक उत्तम सिंह का था. गीत गुलजार ने लिखे थे.

यह फिल्म मशहूर लेखिका अमृता प्रीतम के उपन्यास ‘पिंजर’ पर बेस्ड थी. फिल्म का बजट ₹12 करोड़ के करीब का था. फिल्म ने करीब ₹6 करोड़ का वर्ल्डवाइड कलैक्शन किया था. यह एक डिजास्टर फिल्म साबित हुई थी. यह फिल्म आज कल्ट मूवी में शामिल है. फिल्म को 3 अवार्ड में एक बैस्ट फीचर फिल्म का अवार्ड भी मिला था. मनोज बाजपेयी को नैशनल फिल्म अवार्ड मिला था.

‘पिंजर’ फिल्म में मनोज बाजपेयी की ऐक्टिंग देख कर ही यश चोपड़ा ने उन्हें ‘वीरजारा’ में रजा शराजी का रोल दिया था.

मकबूल : कल्ट फिल्मों की कड़ी में तीसरी मूवी का नाम है ‘मकबूल’, जिसे बौलीवुड की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में से एक माना जाता है. 30 जनवरी, 2004 को रिलीज हुई इस फिल्म का स्क्रीनप्ले, डायलाग, ऐक्टिंग में जबरदस्त परफैक्शन था.

विशाल भारद्वाज के निर्देश में बनी यह फिल्म बौक्स औफिस पर औसत ही रही थी, लेकिन इस की गिनती आज कल्ट मूवी में होती है. पंकज कपूर, नसीरुद्दीन शाह, इरफान खान, ओम पुरी, पीयूष मिश्रा और तब्बू ने लाजवाब ऐक्टिंग से दर्शकों को मोहित किया था. मकबूल ही वह फिल्म थी, जिस ने इरफान खान को बड़े परदे पर पहचान दिलाई. फिल्म शेक्सपियर के उपन्यास ‘मैकबेथ’ पर बेस्ड थी लेकिन कहानी को मुंबई के अंडरवर्ल्ड की पृष्ठभूमि में दिखाया गया था.

सहर : 29 जुलाई, 2005 में कबीर कौशिक के निर्देशन में पावरफुल मूवी ‘सहर’ ने सिनेमाघरों में दस्तक दी थी. इस फिल्म की कहानी यूपी के गोरखपुर जिले के मामखोर गांव के दुर्दांत गैंगस्टर श्रीप्रकाश शुक्ला की लाइफ से इंस्पायर्ड थी. यह ऐसी फिल्म है, जिस में रील और रियल सिनेमा का अंतर ही खत्म हो गया था. हर सीन ऐसा लगता है, जैसे रियल हो. फिल्म को अश्विन पटेल ने प्रोड्यूस किया था. फिल्म का बजट करीब ₹4 करोड़ का था. फिल्म ने करीब ₹2 करोड़ का कलैक्शन किया था और यह एक फ्लौप फिल्म साबित हुई थी. जुलाई, 2005 में जब फिल्म रिलीज हुई तो मुंबई शहर भीषण बाढ़ की चपेट में था.

बिजनैस कैपिटल मुंबई में बारिश ने तबाही मचा दी थी. ऐसे में दर्शक फिल्म को देखने ही नहीं जा पाए.

‘सहर’ फिल्म में अरशद वारसी, पंकज कपूर, महिमा चौधरी, सुशांत सिंह, राजेंद्र गुप्ता जैसे दिग्गज दिग्गज कलाकार रहे और सब से ज्यादा उत्तर भारत में पसंद किया गया.

लगभग 20 साल पहले रिलीज हुई इस फिल्म को देख कर लगता ही नहीं कि यह मूवी इतनी पुरानी है. अरशद वारसी ने लखनऊ के तत्कालीन एसएसपी अरुण कुमार का रोल निभाया था, जिन्होंने श्रीप्रकाश शुक्ला का खात्मा करने के लिए यूपी एसआईटी का गठन तत्कालीन सीएम से स्पैशल परमिशन ले कर करवाया था. इस फिल्म को उस समय लोगों ने रिजैक्ट कर दिया था, लेकिन समय के साथ इसे पसंद किया जाने लगा और आज यह फिल्म कल्ट फिल्म बन चुकी है.

इस प्रकार कल्ट फिल्म की कोई परिभाषा नहीं होती. समय के साथ, जिस फिल्म को दर्शक अधिक पसंद करने लगते हैं, वही फिल्म सालों बाद कल्ट बन जाती है और हर जैनरेशन के दर्शक उसे देखना पसंद करने लगते हैं.

Cult Movies

Love Story: प्यार और समाज- क्या विधवा लता और सुशील की शादी हो पाई

Love Story: लता आज भी उस दर्दनाक हादसे को सोच कर रोने लगती है. उसे लगता है कि सारा मंजर उस के सामने किसी फ़िल्म की भांति चल रहा है. अभी मुश्किल से सालभर भी न हुआ जब उस के हाथों में राजन के नाम की मेहंदी सजी थी और उस की मांग में राजन द्वारा भरा सिंदूर चमक रहा था. अब उस की सूनी मांग हर किसी को रोने को मजबूर कर देती है.लता की उम्र अभी 24 साल है और वह बेहद खूबसूरत व पढ़ीलिखी है.

उस की शादी 6 महीने पहले शहर के एक बड़े व्यापारी  के इकलौते पुत्र राजन से हुई. राजन सुंदर और सुशील लड़का था जो लता को बहुत प्यार भी करता था. उन के प्यार को शायद किसी की नज़र लग गई और राजन की सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई. उस की मौत के बाद उस के घर वालों ने लता को बेसहारा कर के उस के मायके भेज दिया. तब से लता यहीं रहती है. उस के पिता शहर से बाहर रहते हैं. वह उन की अकेली बेटी है.

प्रकृति न जाने क्यों ऐसी तक़लीफ देती है जिस में मनुष्य न जी सकता, न मर सकता. लता के दुखों के पहाड़ ने उस की जिंदगी की सारी खुशियां को दबा दिया था. उस की यौवन से सजी बगिया आज वीरान हुई थी.  जिस उम्र में उस की सहेलियों ने अपने परिवार को बढ़ाने और पति के साथ अलगअलग जगहों पर घूमने के प्लान बना रहीं, उस उम्र में वह अकेली सिसकती है.

लता के घर की बगल में महेश का घर है. उन के घर में कई लोग किराए पर रहते हैं. उन में ही एक हैं सुशील, जो पेशे से एक अखबार में काम करते हैं. उन की उम्र 28 साल होगी. वे लंबे कद, सुंदर चेहरे व बढ़िया कदकाठी के मालिक हैं.

वे लता को उस की शादी के पहले से काफ़ी पसंद करते हैं. लेकिन कहने से डरते हैं. आज वे बालकनी में खड़े थे कि लता छत पर कपड़े डालने आई. उन्होंने उस को देखा. उस को देखते ही उन को अपने प्रेम की अनुभूति फिर से उमड़ पड़ी.

लता का सफेद बदन धूप में चमक रहा था. उस के लंबे कमर तक के बाल अपनी लटों में किसी को उलझाने के लिए पर्याप्त थे. उस का यौवन किसी भी को आकर्षित करने में महारथी था.

सुशील उस को देखता रहा. एक दिन उस को लता बाजार में मिली. उस ने कहा, “लता, मुझे तुम से कुछ बात करनी है.”

लता ने कहा, “बोलो सुशील.”

दोनों एकदूसरे को अच्छे से जानते थे. कोई पहली बार नहीं था कि वह उस से बात कर रही थी. एक दोस्त के नज़रिए से दोनों अकसर बात किया करते थे.

सुशील ने कहा, “कहीं बैठ कर बातें करें.”

दोनों बगल के पार्क में चले गए.

लता ने कहा, “बोलो सुशील.”

सुशील ने कहा, “लता, सच कहूं, मुझ से तुम्हारा दुख देखा नहीं जाता. मैं शुरुआत के दिनों से ही तुम्हें बहुत पसंद करता हूं. मैं ने न जाने कितने सपनों में तुम्हें अपने पत्नी के रूप में स्वीकार किया. लेकिन मेरी इच्छा तुम्हें पाने की असफल रह गई.

“तुम अकेली  कब तक ऐसे दर्द को सहते रहोगी. तुम्हारी भी उम्र है और यह फासला बहुत बड़ा है जिसे अकेले काटना मुश्किल हो जाएगा. अगर तुम चाहो, मैं तुम्हारे साथ इस उम्र के सफर में चलना चाहता हूं.”

लता सारी बातें सुन कर चौंक गई, लेकिन अंदर ही अंदर उस के मन में कहीं न कहीं ये बातें बैठ भी गई थीं. उस के आंखों से अश्रु की धारा अनवरत गिरने लगी.

सुशील ने बड़े प्यार से उसे अपने रूमाल से पोंछा और कहा, “तुम सोचसमझ कर बताना, मैं इंतज़ार करूंगा तुम्हारे जवाब का.”

उस के बाद लता घर आई और उस ने इस विषय में काफ़ी सोचा. उस को उस की उम्र काटने की बातें घर कर गई थीं लेकिन उस के ह्रदय में अभी राजन का चेहरा बसा था.

लेकिन कहते हैं न, कि वक़्त बड़ा बलवान होता है जो दिल से लोगों को निकाल भी फेंकता और किसी अंजान को बसा भी देता है.

लता लगभग एक महीने न सुशील को दिखी न मिली. एक दिन उस के घर की घंटी बजी और जब उस ने दरवाजा खोला तो सामने सुशील खड़ा था.

उस ने कहा, “अंदर आने को नहीं कहोगी?”

लता ने उसे अंदर बुलाया और फिर चाय के लिए पूछा. लेकिन सुशील ने मना कर दिया.

सुशील ने उस को बैठाया और उस से फिर अपने सवाल का जवाब मांगा.

लता ने कहा, “सुशील, मुझे तुम्हारी बातों ने बहुत प्रभावित किया परंतु एक विधवा से शादी करना क्या तुम्हारे घर वाले स्वीकार करेंगे?”

सुशील ने कहा, “मानें या न मानें, मैं तुम से ही करूंगा.”

लता को न जाने क्यों उस पर विश्वास करने को दिल कर रहा था लेकिन वह यह भी जानती थी इस समाज में आज भी बहुत सी कुरीतियों और रूढ़िवादी सोचों का कब्जा है जो उस के मिलन में बाधा पैदा करेंगी.

लेकिन फिर भी उस ने सब से लड़ने का फैसला कर अपनी जिंदगी में आगे बढ़ने को सोच लिया और सुशील के प्रस्ताव को मान लिया.

धीरेधीरे दोनों का साथ घूमना, मिलना, घर आनाजाना भी शुरू हो गया. लता के घर में सिर्फ उस के पिताजी थे जो अकसर शहर से बाहर रहते थे. उन को लता ने सब बता दिया और वे भी बहुत खुश थे कि उन की बेटी जिंदगी में आगे बढ़ना चाहती है. एक पिता के लिए इस से खूबसूरत खबर क्या हो सकती थी.

एक दिन लता सुशील के घर गई. दरवाजा खुला था, वह सीधे अंदर गई. तभी किसी ने उस की कमर को पकड़ कर अपनी बांहों में भींच लिया. उस ने पलट कर देखा तो वह सुशील था.

उस ने कहा, “क्या कर रहे हो सुशील, छोड़ो मुझे?”

सुशील ने उस के कंधे पर चूमते हुए कहा, “अपनी जान को प्यार कर रहा हूं. क्या कोई गुनाह कर रहा?”

लता ने कहा, “तुम्हारी ही हूं. कुछ दिन रुक जाओ, फिर शादी के बाद करना प्यार. अभी छोड़ो.”

लेकिन सुशील उसे बेतहाशा कंधे, गले सब जगह चूमता रहा और अपनी बांहों में समेट रखा था. फिर लता ने भी छुड़ाने के असफ़ल प्रयास करना छोड़ उस की बाजुओं में खुद को समेट लिया.

सुशील की सशक्त बाजुओं में वह खुद समर्पित हो कर यौवन के प्रवाह के अधीन हो गई और दोनों काम के यज्ञ में आहुति बन गए.

दोनों का रिश्ता अब जिस्मानी हो चुका था. लता ने अपनी सीमा लांघ कर प्रेम में खुद को अशक्त कर लिया. सुशील ने भी उस के यौवन पर अपनी छाप छोड़ दी.

कुछ दिनों बाद सुशील अपने घर गया. लता ने 2 दिनॉ तक उस का फ़ोन बारबार मिलाया लेकिन कोई जवाब नहीं मिल रहा था.

न जाने क्यों उस के मन मे बुरेबुरे ही ख़याल आते रहे.  उस का मन अंदर ही अंदर किसी अनहोनी को ही सामने ला रहा था परंतु उसे यकीन था, समय हर बार ऐसे खेल नहीं खेल सकता.

3 दिनों बाद एक अलग नंबर से उस के फ़ोन पर घंटी बजी. उस ने तपाक से फ़ोन उठाया और बोली, “हेलो, कौन?”

उसे ज़रा भी देर नहीं लगी कि दूसरी तरफ सुशील था. लता ने धड़ाधड़ प्रश्नों की बौछार कर सुशील को बोलने के मौके का रास्ता अवरुद्ध कर दिया.

सुशील बोला, “लता, तुम सच में मुझ से प्यार करती हो.”

लता ने कहा, “पागल हो, अगर नहीं करती तो सारी सीमाएं तोड़ कर खुद को तुम में समर्पित न करती.”

सुशील ने कहा, ” लता, घर वाले मेरी कहीं और शादी करना चाहते हैं. वे तुम्हारे और मेरे रिश्ते के विरुद्ध हैं. हम दोनों चलो भाग कर शादी कर लें.”

लता स्तब्ध मौन थी. वह न हां बोल रही, न ही मना कर रही. उस को जिस बात का डर था आख़िर वही हो रहा था. उसे पता था कि यह समाज एक विधवा को अभी भी अछूत और कलंकित समझता है.

उस ने फ़ोन रख दिया और फूटफूट कर रोने लगी मानो सालों पहले बीता वही मंजर, जिसे वह भुला चुकी थी, फिर से आ गया हो.

अगले दिन सुबह उस के दरवाजे पर दस्तक हुई और उस ने दरवाजा खोला. सामने सुशील खड़ा था. उस के कंधे पर एक बैग लटक रहा था. उस ने तुरंत उस का हाथ पकड़ लिया और कहा, “लता, चलो, हम अभी शादी करते हैं.”

लता ने कहा, “अभी…ऐसे? क्या हुआ?”

सुशील ने कहा, “अगर तुम्हें मुझ से प्रेम है तो सवाल न करो और चुपचाप मेरे साथ चलो.”

लता ने उस के साथ जाना उचित समझा. दोनों सीधे कोर्ट गए और वहां कोर्ट मैरिज कर ली.

आज से लता फ़िर सुहागिन हो गई. उस के चेहरे पर अलग सुंदरता आ गई मानो चांद को ढके हुए बादलों का एक हिस्सा अलग हो गया.

समाज की कुरीतियों और रूढ़िवादी सोच को मात दे कर दो प्रेमियों ने अपनी प्रेमकहानी को मुक्कमल कर दिया. सुशील ने लता को नई जिंदगी दी. उसे अपना नाम दिया और जीवनभर चलने के वादे को पूरा किया.

लेखक- शुभम पांडेय गगन

Love Story

Drama Story: अंतिम मुसकान- प्राची ने शादी करने से मना क्यों कर दी

Drama Story: ‘‘एकबार, बस एक बार हां कर दो प्राची. कुछ ही घंटों की तो बात है. फिर सब वैसे का वैसा हो जाएगा. मैं वादा करती हूं कि यह सब करने से तुम्हें कोई मानसिक या शारीरिक क्षति नहीं पहुंचेगी.’’

शुभ की बातें प्राची के कानों तक तो पहुंच रही थीं परंतु शायद दिल तक नहीं पहुंच पा रही थीं या वह उन्हें अपने दिल से लगाना ही नहीं चाह रही थी, क्योंकि उसे लग रहा था कि उस में इतनी हिम्मत नहीं है कि वह अपनी जिंदगी के नाटक का इतना अहम किरदार निभा सके.

‘‘नहीं शुभ, यह सब मुझ से नहीं होगा. सौरी, मैं तुम्हें निराश नहीं करना चाहती थी परंतु मैं मजबूर हूं.’’

‘‘एक बार, बस एक बार, जरा दिव्य की हालत के बारे में तो सोचो. तुम्हारा यह कदम उस के थोड़े बचे जीवन में कुछ खुशियां ले आएगा.’’

प्राची ने शुभ की बात को सुनीअनसुनी करने का दिखावा तो किया पर उस का मन दिव्य के बारे में ही सोच रहा था. उस ने सोचा, रातदिन दिव्य की हालत के बारे में ही तो सोचती रहती हूं. भला उस को मैं कैसे भूल सकती हूं? पर यह सब मुझ से नहीं होगा.

मैं अपनी भावनाओं से अब और खिलवाड़ नहीं कर सकती. प्राची को चुप देख कर शुभ निराश मन से वहां से चली गई और प्राची फिर से यादों की गहरी धुंध में खो गई.

वह दिव्य से पहली बार एक मौल में मिली थी जब वे दोनों एक लिफ्ट में अकेले थे और लिफ्ट अटक गई थी. प्राची को छोटी व बंद जगह में फसने से घबराहट होने की प्रौब्लम थी और वह लिफ्ट के रुकते ही जोरजोर से चीखने लगी थी. तब दिव्य उस की यह हालत देख कर घबरा गया था और उसे संभालने में लग गया था.

खैर लिफ्ट ने तो कुछ देर बाद काम करना शुरू कर दिया था परंतु इस घटना ने दिव्य और प्राची को प्यार के बंधन में बांध दिया था. इस मुलाकात के बाद बातचीत और मिलनेजुलने का सिलसिला चल निकला और कुछ ही दिनों बाद दोनों साथ जीनेमरने की कसमें खाने लगे थे. प्राची अकसर दिव्य के घर भी आतीजाती रहती थी और दिव्य के मातापिता और उस की बहन शुभ से भी उस की अच्छी पटती थी.

इसी बीच मौका पा कर एक दिन दिव्य ने अपने मन की बात सब को कह दी, ‘‘मैं प्राची के साथ शादी करना चाहता हूं,’’ किसी ने भी दिव्य की इस बात का विरोध नहीं किया था.

सब कुछ अच्छा चल रहा था कि एक दिन अचानक उन की खुशियों को ग्रहण लग गया.

‘‘मां, आज भी मेरे पेट में भयंकर दर्द हो रहा है. लगता है अब डाक्टर के पास जाना ही पड़ेगा.’’ दिव्य ने कहा और वह डाक्टर के पास जाने के लिए निकल पड़ा.

काफी इलाज के बाद भी जब पेट दर्द का यह सिलसिला एकदो महीने तक लगातार चलता रहा तो कुछ लक्षणों और फिर जांचपड़ताल के आधार पर एक दिन डाक्टर ने कह ही दिया, ‘‘आई एम सौरी. इन्हें आमाशय का कैंसर है और वह भी अंतिम स्टेज का. अब इन के पास बहुत कम वक्त बचा है. ज्यादा से ज्यादा 6 महीने,’’ डाक्टर के इस ऐलान के साथ ही प्राची और दिव्य के प्रेम का अंकुर फलनेफूलने से पहले ही बिखरता दिखाई देने लगा.

आंसुओं की अविरल धारा और खामोशी, जब भी दोनों मिलते तो यही मंजर होता.

‘‘सब खत्म हो गया प्राची, अब तुम्हें मु?ा से मिलने नहीं आना चाहिए.’’ एक दिन दिव्य ने प्राची को कह दिया.

‘‘नहीं दिव्य, यदि वह आना चाहती है, तो उसे आने दो,’’ शुभ ने उसे टोकते हुए कहा. ‘‘जितना जीवन बचा है, उसे तो जी लो वरना जीते जी मर जाओगे तुम. मैं चाहती हूं इन 6 महीनों में तुम वह सब करो जो तुम करना चाहते थे. जानते हो ऐसा करने से तुम्हें हर पल मौत का डर नहीं सताएगा.’’

‘‘हो सके तो इस दुख की घड़ी में भी तुम स्वयं को इतना खुशमिजाज और व्यस्त कर लो कि मौत भी तुम तक आने से पहले एक बार धोखा खा जाए कि मैं कहीं गलत जगह तो नहीं आ गई. जब तक जिंदगी है भरपूर जी लो. हम सब तुम्हारे साथ हैं. हम वादा करते हैं कि हम सब भी तुम्हें तुम्हारी बीमारी की गंभीरता का एहसास तक नहीं होने देंगे.’’    बहन के इस ऐलान के बाद उन के घर का वातावरण आश्चर्यजनक रूप से बदल गया. मातम का स्थान खुशी ने ले लिया था. वे सब मिल कर छोटी से छोटी खुशी को भी शानदार तरीके से मनाते थे, वह चाहे किसी का जन्मदिन हो, शादी की सालगिरह हो या फिर कोई त्योहार. घर में सदा धूमधाम रहती थी.

एक दिन शुभ ने अपनी मां से कहा, ‘‘मां, आप की इच्छा थी कि आप दिव्य की शादी धूमधाम से करो. दिव्य आप का इकलौता बेटा है. मुझे लगता है कि आप को अपनी यह इच्छा पूरी कर लेनी चाहिए.’’

मां उसे बीच में ही रोकते हुए बोलीं, ‘‘देख शुभ बाकी सब जो तू कर रही है, वह तो ठीक है पर शादी? नहीं, ऐसी अवस्था में दिव्य की शादी करना असंभव तो है ही, अनुचित भी है. फिर ऐसी अवस्था में कौन करेगा उस से शादी? दिव्य भी ऐसा नहीं करना चाहेगा. फिर धूमधाम से शादी करने के लिए पैसों की भी जरूरत होगी. कहां से आएंगे इतने पैसे? सारा पैसा तो दिव्य के इलाज में ही खर्च हो गया.’’

‘‘मां, मैं ने कईर् बार दिव्य और प्राची को शादी के सपने संजोते देखा है. मैं नहीं चाहती भाई यह तमन्ना लिए ही दुनिया से चला जाए. मैं उसे शादी के लिए मना लूंगी. फिर यह शादी कौन सी असली शादी होगी, यह तो सिर्फ खुशियां मनाने का बहाना मात्र है. बस आप इस के लिए तैयार हो जाइए.

‘‘मैं कल ही प्राची के घर जाती हूं. मुझे लगता है वह भी मान जाएगी. हमारे पास ज्यादा समय नहीं है. अंतिम क्षण कभी भी आ सकता है. रही पैसों की बात, उन का इंतजाम भी हो जाएगा. मैं सभी रिश्तेदारों और मित्रों की मदद से पैसा जुटा लूंगी,’’ कह कर शुभ ने प्राची को फोन किया कि वह उस से मिलना चाहती है.

और आज जब प्राची ने शुभ के सामने यह प्रस्ताव रखा तो प्राची के जवाब ने शुभ को निराश ही किया था परंतु शुभ ने निराश होना नहीं सीखा था.

‘‘मैं दिव्य की शादी धूमधाम से करवाऊंगी और वह सारी खुशियां मनाऊंगी जो एक बहन अपने भाई की शादी में मनाती है. इस के लिए मुझे चाहे कुछ भी करना पड़े.’’ शुभ अपने इरादे पर अडिग थी.

घर आते ही दिव्य ने शुभ से पूछा, ‘‘क्या हुआ, प्राची मान गई क्या?’’

‘‘हां मान गई. क्यों नहीं मानेगी? वह तुम से प्रेम करती है,’’ शुभ की बात सुन कर दिव्य के चेहरे पर एक अनोखी चमक आ गई जो शुभ के इरादे को और मजबूत कर गई.

शुभ ने दिव्य की शादी के आयोजन की इच्छा और इस के लिए आर्थिक मदद की जरूरत की सूचना सभी सोशल साइट्स पर पोस्ट कर दी और इस पोस्ट का यह असर हुआ कि जल्द ही उस के पास शादी की तैयारियों के लिए पैसा जमा हो गया.

घर में शादी की तैयारियां धूमधाम से शुरू हो गईं. दुलहन के लिए कपड़ों और गहनों का चुनाव, मेहमानों की खानेपीने की व्यवस्था, घर की साजसजावट सब ठीक उसी प्रकार होने लगा जैसा शादी वाले घर में होना चाहिए.

शादी का दिन नजदीक आ रहा था. घर में सभी खुश थे, बस एक शुभ ही चिंता में डूबी हुई थी कि दुलहन कहां से आएगी? उस ने सब से झूठ ही कह दिया था कि प्राची और उस के घर वाले इस नाटकीय विवाह के लिए राजी हैं पर अब क्या होगा यह सोचसोच कर शुभ बहुत परेशान थी.

‘‘मैं एक बार फिर प्राची से रिक्वैस्ट करती हूं. शायद वह मान जाए.’’ सोच कर शुभ फिर प्राची के घर पहुंची.

‘‘बेटी हम तुम्हारे मनोभावों को बहुत अच्छी तरह सम?ाते हैं और हम तुम्हें पूरा सहयोग देने के लिए तैयार हैं पर प्राची को मनाना हमारे बस की बात नहीं. हमें लगता है कि दिव्य के अंतिम क्षणों में, उसे मौत के मुंह में जाते हुए पर मुसकराते हुए वह नहीं देख पाएगी, शायद इसीलिए वह तैयार नहीं है. वह बहुत संवेदनशील है,’’ प्राची की मां ने शुभ को सम?ाते हुए कहा.

‘‘पर दिव्य? उस का क्या दोष है, जो प्रकृति ने उसे इतनी बड़ी सजा दी है? यदि वह इतना सहन कर सकता है तो क्या प्राची थोड़ा भी नहीं?’’ शुभ बिफर पड़ी.

‘‘नहीं, तुम गलत सोच रही हो. प्राची का दर्द भी दिव्य से कम नहीं है. वह भी बहुत सहन कर रही है. दिव्य तो यह संसार छोड़ कर चला जाएगा और उस के साथसाथ उस के दुख भी. परंतु प्राची को तो इस दुख के साथ सारी उम्र जीना है. उस की हालत तो दिव्य से भी ज्यादा दयनीय है. ऐसी स्थिति में हम उस पर ज्यादा दबाव नहीं डाल सकते.

‘‘फिर हमें समाज का भी खयाल रखना है. शादी और उस के तुरंत बाद ही दिव्य की मृत्यु. वैधव्य की छाप भी तो लग जाएगी प्राची पर. किसकिस को समझएंगे कि यह एक नाटक था. यह इतना आसान नहीं है जितना तुम समझ रही हो?’’ प्राची की मां ने शुभ को समझने की कोशिश की.

उस दिन पहली बार शुभ को दिव्य से भी ज्यादा प्राची पर तरस आया लेकिन यह उस की समस्या का समाधान नहीं था. तभी उस के तेज दिमाग ने एक हल निकाल ही लिया.

वह बोली, ‘‘आंटी जी, बीमारी की वजह से इन दिनों दिव्य को कम दिखाई देने लगा है. ऐसे में हम प्राची की जगह उस से मिलतीजुलती किसी अन्य लड़की को भी दुलहन बना सकते हैं. दिव्य को यह एहसास भी नहीं होगा कि दुलहन प्राची नहीं, बल्कि कोई और है. यदि आप की नजर में ऐसी कोई लड़की हो तो बताइए.’’

‘‘हां है, प्राची की एक सहेली ईशा बिलकुल प्राची जैसी दिखती है. वह अकसर नाटकों में भी भाग लेती रहती है. पैसों की खातिर वह इस काम के लिए तैयार भी हो जाएगी. पर ध्यान रहे शादी की रस्में पूरी नहीं अदा की जानी चाहिए वरना उसे भी आपत्ति हो सकती है.’’

‘‘आप बेफिक्र रहिए आंटी जी, सब वैसा ही होगा जैसा फिल्मों में होता है, केवल दिखावा. क्योंकि हम भी नहीं चाहते हैं कि ऐसा हो और दिव्य भी ऐसी हालत में नहीं है कि वह सभी रस्में निभाने के लिए अधिक समय तक पंडाल में बैठ भी सके.’’

शादी का दिन आ पहुंचा. विवाह की सभी रस्में घर के पास ही एक गार्डन में होनी थीं. दिव्य दूल्हा बन कर तैयार था और अपनी दुलहन का इंतजार कर रहा था कि अचानक एक गाड़ी वहां आ कर रुकी. गाड़ी में से प्राची का परिवार और दुलहन का वेश धारण किए गए लड़की उतरी.

हंसीखुशी शादी की सारी रस्में निभाई जाने लगीं. दिव्य बहुत खुश नजर आ रहा था. उसे देख कर कोई यह नहीं कह सकता था कि यह कुछ ही दिनों का मेहमान है. यही तो शुभ चाहती थी.

‘‘अब दूल्हादुलहन फेरे लेंगे और फिर दूल्हा दुलहन की मांग भरेगा.’’ जब पंडित ने कहा तो शुभ और प्राची के मातापिता चौकन्ने हो गए. वे सम?ा गए कि अब वह समय आ गया है जब लड़की को यहां से ले जाना चाहिए वरना अनर्थ हो सकता है और वे बोले, ‘‘पंडित जी, दुलहन का जी घबरा रहा है. पहले वह थोड़ी देर आराम कर ले फिर रस्में निभा ली जाएं तो ज्यादा अच्छा रहेगा.’’ कह कर उन्होंने दुलहन जोकि छोटा सा घूंघट ओढ़े हुए थी, को अंदर चलने का इशारा किया.

‘‘नहीं पंडित जी, मेरी तबीयत इतनी भी खराब नहीं कि रस्में न निभाई जा सकें.’’ दुलहन ने घूंघट उठाते हुए कहा तो शुभ के साथसाथ प्राची के मातापिता भी चौक उठे क्योंकि दुलहन कोई और नहीं प्राची ही थी.

शायद जब ईशा को प्राची की जगह दुलहन बनाने का फैसला पता चला होगा तभी प्राची ने उस की जगह स्वयं दुलहन बनने का निर्णय लिया होगा, क्योंकि चाहे नाटक में ही, दिव्य की दुलहन बनने का अधिकार वह किसी और को दे, उस के दिल को मंजूर नहीं होगा.

आज उस की आंखों में आंसू नहीं, बल्कि उस के होंठों पर मुसकान थी. अपना सारा दर्द समेट कर वह दिव्य की क्षणिक खुशियों की भागीदारिणी बन गई थी. उसे देख कर शुभ की आंखों से खुशी और दुख के मिश्रित आंसू बह निकले. उस ने आगे बढ़ कर प्राची को गले से लगा लिया.

यह देख कर दिव्य के चेहरे पर एक अनोखी मुसकान आ गई. ऐसी मुसकान पहले किसी ने उस के चेहरे पर नहीं देखी थी. परंतु शायद वह उस की आखिरी मुसकान थी, क्योंकि उस का कमजोर शरीर इतना श्रम और खुशी नहीं झेल पाया और वह वहीं मंडप में ही बेहोश हो गया.

दिव्य को तुरंत हौस्पिटल ले जाना पड़ा जहां उसे तुरंत आईसीयू में भेज दिया गया. कुछ ही दिनों बाद दिव्य नहीं रहा परंतु जाते समय उस के होंठों पर मुसकान थी.

प्राची का यह अप्रत्याशित निर्णय दिव्य और उस के परिवार वालों के लिए वरदान से कम नहीं  था. वे शायद जिंदगी भर उस के इस एहसान को चुका न पाएं. प्राची के भावी जीवन को संवारना अब उन की भी जिम्मेदारी थी.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें