Hindi Moral Story: शर्तिया लड़का ही होगा

Hindi Moral Story: औफिस में घुसते ही मोहन को लगा कि सबकुछ ठीक नहीं है. उसे देखते ही स्टाफ के 2-3 लोग खड़े हो गए व नमस्कार किया, पर उन के होंठों पर दबी हुई मुसकान छिपी न रह सकी. अपने केबिन की तरफ न बढ़ कर मोहन वहीं ठिठक गया. उस का असिस्टैंड अरविंद आगे बढ़ा. ‘‘क्या बात है?’’ मोहन ने पूछा.

‘‘राम साहब की पत्नी आई हैं. आप से मिलना चाहती हैं. मैं ने उन्हें आप के केबिन में बिठा दिया है.’’

‘‘अच्छा… पर वे यहां क्यों आई हैं?’’ मोहन ने फिर पूछा.

‘‘पता नहीं, सर.’’

‘‘राम साहब कहां हैं?’’

‘‘वे तो… वे तो भाग गए.’’

‘‘क्या…’’ मोहन ने पूछा, ‘‘कहां भाग गए?’’

बाकी स्टाफ की मुसकराहट अब खुल गई थी. 1-2 ने तो हंसी छिपाने के लिए मुंह घुमा लिया.

‘‘पता नहीं. राम सर नहा रहे थे जब उन की पत्नी आईं. राम सर जैसे ही बाथरूम से बाहर आए, उन्होंने अपनी पत्नी को देखा तो वे फौरन बाहर भाग गए. कपड़े भी नहीं पहने. अंडरवियर पहने हुए थे.’’

‘‘लेकिन, राम साहब यहां क्यों नहा रहे थे? वे अपने घर से नहा कर क्यों नहीं आए?’’

‘‘अब मैं क्या बताऊं… वे तो अकसर यहीं नहाते हैं. अपनी पत्नी से उन की कुछ बनती नहीं है.’’

माजरा कुछ समझ में न आता देख मोहन ने अपने केबिन की तरफ कदम बढ़ा दिए.

राम औफिस में सीनियर क्लर्क थे. सब उन्हें राम साहब कहते थे. आबनूस की तरह काला रंग व पतली छड़ी की तरह उन का शरीर था. उन का वजन मुश्किल से 40 किलो होगा. बोलते थे तो लगता था कि घिघिया रहे हैं. उन की 6 बेटियां थीं.

इस बारे में भी बड़ा मजेदार किस्सा था. उन के 3 बेटियां हो चुकी थीं, पर उन्हें बेटे की बड़ी लालसा थी. उन के एक दोस्त थे. उन की भी 3 बेटियां थीं. सभी ने कहा कि इस महंगाई के समय में 3 बेटियां काफी हैं इसलिए आपरेशन करा लो. लेकिन दोनों दोस्तों ने तय किया कि वे एकएक चांस और लेंगे. अगर फिर भी बेटा न हुआ तो आपरेशन करा लेंगे.

दोनों की पत्नियां फिर पेट से हुईं. दोस्त के यहां बेटी पैदा हुई. उस ने वादे के मुताबिक आपरेशन करा लिया. कुछ समय बाद राम के यहां जुड़वां बेटियां हुईं. पर

उन्होंने वादे के मुताबिक आपरेशन नहीं कराया क्योंकि अब उन का कहना था कि जहां नाश वहां सत्यानाश सही. जहां 5 हुईं वहां और भी हो जाएंगी तो क्या हो जाएगा. फिर छठी बेटी भी हो गई. सुनते हैं कि उस दोस्त से राम की बोलचाल बंद है. वह इन्हें गद्दार कहता है.

मोहन ने अपने केबिन का दरवाजा खोल कर अंदर कदम रखा. सामने की कुरसी पर जो औरत बैठी थीं उन का वजन कम से कम डेढ़ क्विंटल तो जरूर होगा. वे राम साहब की पत्नी थीं. उन का रंग राम साहब से ज्यादा ही आबनूसी था. उन के पीछे अलगअलग साइजों की 5 लड़कियां खड़ी थीं. छठवीं उन की गोद में थी.

मोहन को देखते ही वे एकदम से उठीं और लपक कर मोहन के पैर पकड़ लिए. यह देख वह हक्काबक्का रह गया.

‘‘अरे, क्या करती हैं आप. मेरे पैर छोडि़ए,’’ मोहन ने पीछे हटते हुए कहा.

वे बुक्का फाड़ कर रो पड़ीं. उन को रोते देख पांचों लड़कियां भी रोने लगीं.

मोहन ने डांट कर सभी को चुप कराया. वह अपनी कुरसी पर पहुंचा

व घंटी बजा कर चपरासी को बुलाया.

6 गिलास पानी मंगवाया. साथ ही, चाय लाने को भी कहा. पानी आते ही वे सभी पानी पर टूट पड़ीं.

थोड़ी देर बाद मोहन ने पूछा. ‘‘कहिए, क्या बात है?’’

‘‘साहब, हमारे परिवार को बचा लीजिए…’’ इतना कह कर राम साहब की पत्नी फिर रो पड़ीं, ‘‘अब हमें आप का ही सहारा है.’’

‘‘क्या हो गया? क्या कोई परेशानी

है तुम्हें?’’

‘‘जी, परेशानी ही परेशानी है. मैं लाचार हो गई हूं. अब आप ही कुछ भला कर सकते हैं.’’

‘‘देखिए, साफसाफ बताइए. यह घर नहीं, औफिस है…’’ मोहन ने समझाया, ‘‘कोई औफिस की बात हो तो बताइए.’’

‘‘सब औफिस का ही मामला है साहब. अब इन 6-6 लड़कियों को ले कर मैं कहां जाऊं. इन का गला घोंट दूं या हाथपैर बांध कर किसी कुएं में फेंक दूं.’’

‘‘आप ऐसा क्यों कह रही हैं. इन का खयाल रखने को राम साहब तो हैं ही.’’

‘‘वे ही अगर खयाल रखते तो रोना ही क्या था साहब.’’

अब मोहन को उलझन होने लगी, ‘‘देखिए, मेरे पास कई जरूरी काम हैं. आप को जोकुछ भी कहना है, जरा साफसाफ कहिए. आप हमारे स्टाफ की पत्नी हैं. हम से जो भी हो सकेगा, हम जरूर करेंगे.’’

‘‘अब कैसे कहें साहब, हमें तो शर्म आती है.’’

‘‘क्या शर्म की कोई बात है?’’

‘‘जी हां, बिलकुल है.’’

‘‘राम साहब के बारे में?’’

‘‘और नहीं तो क्या, वे ही तो सारी बातों की जड़ हैं.’’

मोहन को हैरानी हुई. इस औरत के सामने तो राम साहब चींटी जैसे हैं. वे इस पर क्या जुल्म करते होंगे. यह अगर उन का हाथ कस कर पकड़ ले तो वे तो छुड़ा भी न पाएंगे.

‘‘मैं फिर कहूंगा कि आप अपनी बात साफसाफ बताएं.’’

‘‘उन का किसी से चक्कर चल रहा है साहब…’’ वे फट पड़ीं, ‘‘न उम्र का लिहाज है और न इन 6 लड़कियों का. मैं तो समझा कर, डांट कर और यहां तक कि मारकुटाई कर के भी हार गई, पर वे सुधरने का नाम ही नहीं लेते हैं.’’

मोहन को हंसी रोकने के लिए मुंह नीचे करना पड़ा और फिर पूछा, ‘‘क्या आप को लगता है कि राम साहब कोई चक्कर चला सकते हैं? कहीं आप को कोई गलतफहमी तो नहीं हो रही है?’’

‘‘आप उन की शक्लसूरत या शरीर पर न जाइए साहब. वे पूरे घुटे हुए हैं. ये 6-6 लड़कियां ऐसे ही नहीं हो गई हैं.’’

मोहन को हंसी रोकने के लिए दोबारा मुंह नीचे करना पड़ा. तभी चपरासी चाय ले आया. सभी लड़कियों ने, राम साहब की पत्नी ने भी हाथ बढ़ा कर चाय ले ली व तुरंत पीना शुरू कर दिया.

‘‘राम साहब ने कपड़े मांगे हैं,’’ चपरासी ने उन से कहा.

मोहन ने देखा कि बड़ी बेटी के हाथ में एक पैंट व कमीज थी.

‘‘कपड़े तो हम उन्हें न देंगे. उन से कह दो कि ऐसे ही नंगे फिरें…’’ राम साहब की पत्नी गुस्से से बोलीं, ‘‘उन की अब यही सजा है. वे ऐसे ही सुधरेंगे.’’

‘‘राम साहब नंगे नहीं हैं. कच्छा पहने हुए हैं,’’ चपरासी ने कहा.

‘‘अगर तुम मेरे भाई हो तो जाओ वह भी उतार लाओ,’’ वे बोलीं.

‘‘राम साहब कहां हैं?’’ मोहन ने चपरासी से पूछा.

‘‘सामने चाय की दुकान पर चाय पी रहे हैं. बड़ी भीड़ लगी है वहां साहब.’’

‘‘जाओ, उन्हें यहां बुला लाओ.’’

‘‘वे नहीं आएंगे साहब. कहते हैं कि उन्हें शर्म आती है.’’

‘‘चाय की दुकान पर उन्हें शर्म नहीं आ रही है? जाओ और उन से कहो कि मैं बुला रहा हूं.’’

‘‘अभी बुला लाता हूं साहब,’’ चपरासी ने जोश में भर कर कहा.’’

‘‘अब तो आप ने देख लिया साहब…’’ वे आंखों में आंसू भर कर बोलीं, ‘‘हम लोग यहां तड़प रहे हैं और वे आराम से वहां कच्छा पहने चाय पी रहे हैं.’’

‘‘पर, आप ने भी तो हद कर दी…’’ मोहन को कहना पड़ा, ‘‘उन के कपड़े क्यों छीन लिए?’’

‘‘आदमी औफिस में काम करने आता है कि नहाने. घर में न नहा कर दफ्तर में नहाने की अब यही सजा है. सुबहसुबह तो उस कलमुंही रेखा से मिलने के लिए जल्दी से निकल गए थे. अब दफ्तर में तो नहाएंगे ही. ठीक है, आज दिनभर कच्छा पहने ही काम करें.’’

तभी लोगों ने ठेल कर राम साहब को केबिन के अंदर कर दिया. मोहन उन्हें सिर्फ कच्छा पहने पहली बार देख रहा था. उन का शरीर दुबलापतला था. पसली की एकएक हड्डी गिनी जा सकती थी. सूखेसूखे हाथपैर टहनियों जैसे थे. उन के काले शरीर पर एकदम नई पीले रंग की कट वाली अंडरवियर चमक रही थी.

‘‘इन्हें इन के कपड़े दे दो,’’ मोहन ने बड़ी लड़की से कहा.

‘‘हम न देंगे…’’ वह लड़की पहली बार बोली, ‘‘अम्मां मारेंगी.’’

‘‘प्लीज, इन के कपड़े इन्हें दिला दीजिए…’’ मोहन ने उन से कहा, ‘‘यह ठीक नहीं लग रहा है.’’

‘‘देदे री. देती क्यों नहीं. साहब कह रहे हैं, तब भी नहीं देती. दे जल्दी.’’

लड़की ने हाथ बढ़ा कर कपड़े राम साहब को दे दिए. उन्होंने जल्दीजल्दी कपड़े पहन लिए.

मोहन ने कहा, ‘‘बैठिए, आप की पत्नी जो बता रही हैं, अगर वह सही है तो वाकई बड़ी गलत बात है.’’

‘‘ऐसी कोई बात नहीं है साहब. यह बिना वजह शक करती है.’’

‘‘शर्म नहीं आती झूठ बोलते हुए,’’ उन की पत्नी तड़पीं, ‘‘कह दो रेखा का कोई चक्कर नहीं है.’’

‘‘नहीं है. वह तो तभी खत्म हो गया था, जब तुम ने अपनी कसम दिलाई थी.’’

‘‘और राधा का?’’

‘‘राधा यहां कहां है. वह तो अपनी ससुराल में है.’’

‘‘और वह रामकली, सुषमा?’’

‘‘क्यों बेकार की बातें करती हो… सब पुरानी बातें हैं. कब की खत्म हो चुकी हैं.’’

मोहन हक्काबक्का सुनता रहा. राम साहब के हुनर से उसे जलन होने लगी थी.

‘‘देखो, तुम साहब के सामने बोल रहे हो.’’

‘‘मैं साहब के सामने झूठ नहीं बोल सकता…’’ राम साहब ने जोश में कहा, ‘‘साहब जो भी कहें, मैं कर सकता हूं.’’

‘‘साहब जो कहेंगे मानोगे?’’

‘‘हां, बिलकुल.’’

‘‘साहब कहेंगे तो तुम रेखा से राखी बंधवाओगे?’’

‘‘साहब कहेंगे तो मैं तुम से भी राखी बंधवाऊंगा.’’

‘‘क्या…?’’ पत्नी का मुंह खुला का खुला रह गया. राम साहब हड़बड़ा कर नीचे देखने लगे.

‘‘आप औफिस में क्यों नहानाधोना करते हैं?’’ पूछते हुए मोहन का मन खुल कर हंसने को हो रहा था.

‘‘अब क्या बताएं साहब…’’ राम साहब रोंआसा हो गए, ‘‘पारिवारिक बात है. कहते हुए शर्म आती है. इस औरत ने घर का माहौल नरक बना दिया है. मेरे बारबार मना करने के बाद भी आपरेशन के लिए तैयार ही नहीं होती. इतना बड़ा परिवार हो गया है. सुबह से कोई न कोई घुसा ही रहता है. किसी को स्कूल जाना है तो किसी का पेटदर्द कर रहा होता है, इसीलिए कभीकभी मुझे जल्दी आ कर औफिस में नहाना पड़ता है.

‘‘पर, असली बात जिस के लिए ये यहां आई हैं, यह नहीं है,’’ वे अपनी पत्नी की तरफ घूमे, ‘‘अब पूछती क्यों नहीं है.’’

‘‘पूछूंगी क्यों नहीं, मैं तुम से डरती हूं क्या.’’

‘‘तो अभी तक क्यों नहीं पूछा?’’

‘‘अब पूछ लूंगी.’’

‘‘क्या पूछना है?’’ मोहन ने पूछा.

‘‘मैं बताता हूं साहब…’’ अब राम साहब मोहन की तरफ घूमे, ‘‘इसे लगता है कि मैं अपनी पूरी तनख्वाह इसे नहीं देता व कुछ बचा कर इधरउधर खर्च करता हूं. कल से मेरे पीछे पड़ी है. औफिस के ही किसी आदमी ने इसे भड़का दिया है, जबकि मैं अपनी तनख्वाह का पूरा पैसा इस के हाथ में ले जा कर रख देता हूं. यह यही पूछने आई है कि मेरी तनख्वाह कितनी है.’’

‘‘क्या यही बात है?’’ मोहन ने राम साहब की पत्नी से पूछा.

‘‘हां साहब, मुझे सचसच बता दीजिए कि इन को कितनी तनख्वाह मिलती है.’’

‘‘राम साहब अगर इन्हें बता दिया जाए तो आप को कोई एतराज तो नहीं है?’’ मोहन ने राम साहब से पूछा.

‘‘मुझे क्या एतराज होना है. मैं तो पूरी तनख्वाह इस के हाथ में ही रख

देता हूं.’’

‘‘ठीक है. इन्हें बाहर ले जा कर बड़े बाबू के पास सैलरी शीट दिखा दीजिए.’’

वे उठे, पर उन से पहले ही पांचों लड़कियां बाहर निकल गई थीं.

मोहन ने अरविंद को बुलाया.

‘‘क्या राम साहब वाकई सनकी हैं? वे अपने परिवार का तो क्या खयाल रखते होंगे?’’

‘‘ऐसी बात नहीं है साहब. परिवार पर तो वे जान छिड़कते हैं…’’ अचानक अरविंद फिर मुसकरा पड़ा, ‘‘आप को एक बार का किस्सा सुनाऊं. आप को इन के सोचने के लैवल का भी पता चलेगा.

‘‘जिस मकान में राम साहब रहते हैं, उस में 5-6 और किराएदार भी हैं. मकान मालिक नामी वकील हैं.

‘‘एक बार महल्ले में एक गुंडे ने किसी के साथ मारपीट की. वकील साहब ने उस के खिलाफ मुकदमा लड़ा. गुंडे को 3 महीने की सजा हो गई. वह जब जेल से बाहर आया तो उस ने वकील साहब को जान से मारने की धमकी दी.

‘‘वकील साहब ने एफआईआर दर्ज कर दी व उन के यहां पुलिस प्रोटैक्शन लग गई. एक दारोगा व 4 सिपाहियों की 24 घंटे की ड्यूटी लग गई.

‘‘जब उस गुंडे का वकील साहब पर कोई जोर न चला तो उस ने किराएदारों को धमकाया. उस ने तुरंत मकान खाली कर देने को कहा. उस गुंडे के डर से बाकी सब किराएदारों ने मकान खाली कर दिया, पर राम साहब ने मकान न छोड़ा.

‘‘हम सभी को राम साहब व उन के परिवार की चिंता हुई. गुंडे ने राम साहब को यहां औफिस में भी धमकी भिजवाई थी, पर राम साहब मकान छोड़ने को तैयार न थे.

‘‘एक दिन मैं ने राम साहब से कहा कि चलिए ठीक है, आप मकान मत छोडि़ए, पर कुछ दिनों के लिए आप मेरे यहां आ जाइए. जब मामला ठंडा हो जाएगा तो फिर वहां चले जाइएगा. तो जानते हैं राम साहब ने क्या जवाब दिया?

‘‘उन्होंने कहा, ‘नहीं अरविंद बाबू, अब मेरी जान को कोई खतरा नहीं है. मेरी छिद्दू से बात हो गई है. अभी कल ही जब मैं औफिस से घर पहुंचा तो वह एक जीप के पीछे खड़ा था. मुझे देखा तो इशारे से पास बुलाया.

‘‘‘पहले तो मैं डरा, पर फिर हिम्मत कर के उस के पास चला गया. उस ने मुझे खूब गालियां दीं. मैं चुपचाप सुनता रहा. फिर उस ने कहा कि अबे, तुझे अपनी जान का भी डर नहीं लगता. अगर 2 दिन के अंदर मकान नहीं छोड़ा तो पूरे परिवार का खात्मा कर दूंगा.’

‘‘अब मैं ने मुंह खोला, ‘छिद्दू भाई, तुम तो अक्लमंद आदमी हो, फिर भी गलती कर रहे हो. वकील साहब के यहां 15-20 साल के पुराने किराएदार थे. कोई 20 रुपए महीना देता था तो कोई 50. वकील साहब तो खुद ही उन से मकान खाली कराना चाहते थे, पर किराएदार पुराने थे. वे लाचार थे. तुम ने तो उन की मदद ही की.

‘‘‘मकान खाली हो गया और वह भी बिना किसी परेशानी के. अब मेरी बात ही लो. मैं 100 रुपया महीना देता हूं. अगर छोड़ दूं तो 300 रुपए पर तुरंत उठ जाएगा.’

‘‘मेरी बात उस की समझ में आ गई. थोड़ी देर तक तो वह सोचता रह गया, फिर हाथ मलते हुए बोला, ‘यह तो तुम ठीक कह रहे हो. मुझ से बड़ी गलती हो गई. ठीक है, तुम मकान बिलकुल मत छोड़ो. लेकिन मैं ने भी तो सभी किराएदारों को खुलेआम धमकी दी है. सब को पता है. अगर तुम ने मकान नहीं छोड़ा तो मेरी बड़ी बेइज्जती होगी. सब यही सोचेंगे कि मेरे कहने का कोई असर नहीं हुआ.

‘‘‘तो ऐसा करते हैं कि तुम मकान न छोड़ो. किसी दिन मैं तुम को बड़े चौक पर गिरा कर जूतों से मार लूंगा. मेरी बात भी रह जाएगी और काम भी हो जाएगा. तो अरविंद बाबू, अब मेरी जान को कोई खतरा नहीं है.’’’

अरविंद की आखिरी बात सुनतेसुनते मोहन अपनी हंसी न रोक सका. उस ने किसी तरह हंसी रोक कर कहा, ‘‘पर, उस भले मानुस को जूतों से मार खाने की क्या जरूरत थी भाई. चलिए छोडि़ए. राम साहब व उन की पत्नी से कहिएगा कि वे मुझ से मिल कर जाएंगे.’’

‘‘जी, बहुत अच्छा साहब,’’ कह कर अरविंद उठ गया.

तभी राम साहब व उन की पत्नी दरवाजा खोल कर अंदर आए. लड़कियां बाहर ही थीं.

‘‘देखा साहब, मैं पहले ही कहता था न…’’ राम साहब ने खुश हो कर कहा, ‘‘पूछ लीजिए, अब तो कोई शिकायत नहीं है न इन को?’’

मोहन ने राम साहब की पत्नी की तरफ देखा.

‘‘ठीक है साहब. तनख्वाह तो ठीक ही दे देते हैं हम को. पर ओवरटाइम का कोई बता नहीं रहा है.’’

‘‘अब जाने भी दीजिए. इतना जुल्म मत कीजिए इन पर. आइए बैठिए, मुझे आप से एक बात कहनी है. आप दोनों से ही. बैठिए.’’ वे दोनों सामने रखी कुरसियों पर बैठ गए.

मोहन ने राम साहब की पत्नी से कहा, ‘‘राम साहब ठीक ही कहते हैं. एक लड़के की चाह में परिवार को इतना बढ़ा लेना अक्लमंदी नहीं है कि परिवार का पेट पालना भी ठीक से न हो सके. फिर आज के समय में लड़का और लड़की में फर्क ही क्या है. उम्मीद है, मेरी बात पर आप दोनों ही ध्यान देंगे.’’

‘‘ऐसी बात नहीं है,’’ उन्होंने शर्म से अपने पेट पर हाथ फेरा, ‘‘इस बार शर्तिया लड़का ही होगा.’’

‘‘क्या…?’’ राम साहब हैरत व खुशी से उछल पड़े, ‘‘तुम ने मुझे बताया क्यों नहीं?’’

‘‘धत…’’ वे बुरी तरह से शरमा कर तिहरीचौहरी हो गईं, ‘‘मुझे शर्म आती है.’’

‘‘अरे पगली, मुझ से क्या शर्म,’’ राम साहब लगाव भरी नजरों से अपनी पत्नी को देखते हुए मुझ से बोले, ‘‘मैं अभी मिठाई ले कर आता हूं. तुम जल्दी से ओवरटाइम रिकौर्ड देख कर घर जाओ. ऐसे में ज्यादा चलनाफिरना ठीक नहीं होता. आज मैं भी जरा जल्दी जाऊंगा साहब. आप तो जानते ही हैं कि काफी इंतजाम करने पड़ेंगे.’’

इतना कह कर राम साहब अपनी पत्नी को मेरे सामने छोड़ कर तेजी से मिठाई लाने दौड़ गए.

मोहन को कुछ न सूझा तो अपना सिर दोनों हाथों से जोर से पकड़ लिया. Hindi Moral Story

Online Story in Hindi: शहीद की विधवा

Online Story in Hindi: बतौर उर्दू टीचर जमाल की पोस्टिंग एक छोटे से गांव काजीपुर में हुई थी. वह बस से उतर कर कच्चे रास्ते से गुजरता हुआ स्कूल पहुंचा था.

अभी जमाल बैठा प्रिंसिपल साहब से बातें कर ही रहा था कि एक 10-11 साल का बच्चा वहां आया और उसे कहने लगा, ‘‘जमींदार साहब ने आप को बुलाया है.’’

यह सुन कर जमाल ने हैरानी से प्रिंसिपल साहब की तरफ देखा.

‘‘इस गांव के जमींदार बड़े ही मिलनसार इनसान हैं… जब मैं भी यहां नयानया आया था तब मुझे भी उन्होंने बुलाया था. कभीकभार वे खुद भी यहां आते रहते हैं… चले जाइए,’’ प्रिंसिपल साहब ने कहा तो जमाल उठ कर खड़ा हो गया.

जब जमाल जमींदार साहब के यहां पहुंचा तो वे बड़ी गर्मजोशी से मिले. सुर्ख सफेद रंगत, रोबीली आवाज के मालिक, देखने में कोई खानदानी रईस लगते थे. उन्होंने इशारा किया तो जमाल भी बैठ गया.

‘‘मुझे यह जान कर खुशी हुई कि आप उर्दू के टीचर हैं, वरना आजकल तो कहीं उर्दू का टीचर नहीं होता, तो कहीं पढ़ने वाले छात्र नहीं होते…’’

जमींदार साहब काफी देर तक उर्दू से जुड़ी बातें करते रहे, फिर जैसे उन्हें कुछ याद आया, ‘‘अजी… अरे अजीजा… देखो तो कौन आया है…’’ उन्होंने अंदर की तरफ मुंह कर के आवाज दी.

एक अधेड़ उम्र की औरत बाहर आईं. वे शायद उन की बेगम थीं.

‘‘ये नए मास्टर साहब हैं जमाल. हमारे गांव के स्कूल में उर्दू पढ़ाएंगे,’’ यह सुन कर जमींदार साहब की बेगम ने खुशी का इजहार किया, फिर जमाल से पूछा, ‘‘घर में और कौनकौन हैं?’’

जमाल ने कम शब्दों में अपने बारे

में बताया.

‘‘अरे, कुछ चायनाश्ता लाओ…’’ जमींदार साहब ने कहा.

‘‘नहीं, इस की कोई जरूरत नहीं है,’’ जमाल बोला.

‘‘ऐसा कैसे हो सकता है… आप के प्रिंसिपल साहब भी कभीकभार यहां आते रहते हैं और हमारी मेहमाननवाजी का हिस्सा बनते हैं.’’

‘‘जी, उन्होंने ऐसा बताया था,’’ जमाल ने कहा.

कुछ देर बाद वे चायनाश्ता ले कर आ गईं… जमाल ने चाय पी और उठ कर खड़ा हो गया, ‘‘अच्छा, अब मुझे इजाजत दीजिए.’’

‘‘हां, आते रहना.’’

जमाल दरवाजे के पास था. उन लोगों ने आपस में खुसुरफुसुर की और जमींदार साहब ने उसे आवाज दी, ‘‘अरे बेटा, सुनो… आज रात का खाना तुम हमारे साथ यहीं पर खाना.’’

‘‘नहीं… नहीं… आप परेशान न हों. चची को परेशानी होगी,’’ जमाल ने जमींदार साहब की बेगम को चची कह कर मना करना चाहा.

‘‘अरे, इस में परेशान होने की क्या बात है… तुम मेरे बेटे जैसे ही हो.’’

जमाल रात के खाने पर आने का वादा कर के चला गया.

जब जमाल रात को खाने पर दोबारा वहां पहुंचा तो जमींदार साहब और उन की बेगम उस के पास बैठे हुए थे. इधरउधर की बातें कर रहे थे. इतने में अंदर जाने वाले दरवाजे पर दस्तक हुई…

चची ने दरवाजे की तरफ देखा और उठ कर चली गईं… लौटीं तो उन के हाथ में खाने की टे्र थी.

जमाल का खाना खाने में दिल नहीं लग रहा था. रहरह कर उस की बेचैनी बढ़ती जा रही थी… आखिर दरवाजे की उस ओर कौन था? बहरहाल, किसी तरह खाना खाया और थोड़ी देर के बाद वह वहां से चला आया.

उस दिन रविवार था. जमाल बैठा बोर हो रहा था.

‘क्यों न जमींदार साहब की तरफ चला जाया जाए,’ उस ने सोचा.

जमाल तेज कदमों से लौन पार करता हुआ अंदर जा रहा था. उस की आहट पा कर एक लड़की हड़बड़ा कर खड़ी हो गई… वह क्यारियों में पानी दे रही थी. जमाल उसे गौर से देखता रहा. वह सफेद कपड़ों में थी. वह भी उसे देखती रही.

‘‘जमींदार साहब हैं क्या?’’ जमाल ने पूछा तो कोई जवाब दिए बगैर वह अंदर चली गई.

कुछ देर बाद जमींदार साहब अखबार लिए बाहर आए, ‘‘आओ बेटा, आओ…’’

जमाल उन के साथ अंदर दाखिल हो गया. उन के हाथ में संडे मैगजीन का पन्ना था. उन्होंने जमाल के सामने वह अखबार रखते हुए कहा, ‘‘देखो, इस में मेरी बहू की गजल छपी है…’’

जमाल ने गजल को सरसरी नजरों से देखा, फिर नीचे नजर दौड़ाई तो लिखा था, शबीना अदीब.

जमाल को उस लड़की के सफेद लिबास का खयाल आया. उस ने जमींदार साहब की आंखों में देखा. शायद वे उस की नजरों का मतलब समझ गए थे. उन्होंने नजरें झुका लीं और फिर उन्होंने जोकुछ बताया था, वह यह था:

शबीना जमींदार साहब की छोटी बहन हसीना की बेटी थी. शबीना की पैदाइश के वक्त हसीना की मौत हो गई थी और बाप ने दूसरा निकाह कर लिया था. सौतेली मां का शबीना के साथ कैसा बरताव होगा, यह सोच कर जमींदार साहब ने उसे अपने पास रख लिया था.

अदीब जमींदार साहब का बेटा था. शबीना और अदीब ने अपना बचपन एकसाथ गुजारा था, तितलियां पकड़ी थीं और जब दोनों ने जवानी की दहलीज पार की तो उन का रिश्ता पक्का कर दिया गया था.

उन की नईनई शादी हुई थी. अदीब ने आर्मी जौइन की थी. कोई जाने की इजाजत नहीं दे रहा था, लेकिन वह सब को मायूसी के अंधेरे में छोड़ कर चला गया. एक दिन वह वतन की हिफाजत करतेकरते शहीद हो गया.

शबीना पर गमों का पहाड़ टूट पड़ा. आंसू थे कि थमने का नाम नहीं ले रहे थे. फिर उस ने खुद को पत्थर बना लिया और कलम उठा ली, अपना दर्द कागज पर उतारने के लिए या अदीब का नाम जिंदा रखने के लिए.

अब जमाल अकसर जमींदार साहब के यहां जाता था. दिल में होता कि शबीना के दीदार हो जाएं… उस की एक झलक देख ले… लेकिन, वह उसे दोबारा नजर नहीं आई.

एक दिन जमाल उन के यहां बैठा हुआ था. जमींदार साहब किसी काम से शहर गए हुए थे. जमाल और उन की बेगम थे. वह बात का सिरा ढूंढ़ रहा था. आज जमाल उन से अपने दिल की बात कह देना चाहता था.

‘‘चची, आप मुझे अपना बेटा बना लीजिए,’’ जमाल ने हिम्मत जुटाई.

‘‘यह भी कोई कहने की बात है…

तू तो है ही मेरा बेटा…’’ उन्होंने हंस

कर कहा.

‘‘चची, मुझे अपने अदीब की जगह दे दीजिए. मेरा मतलब है कि शबीना का हाथ मेरे हाथ…’’ जमाल का इतना कहना था कि उन्होंने जमाल की आंखों में देखा.

‘‘अगर आप को कोई एतराज न

हो तो…’’

‘‘मुझे एतराज है,’’ इस से पहले कि वे कोई जवाब देतीं, इस आवाज के साथ शबीना खड़ी थी, किसी शेरनी की तरह बिफरी हुई… फटीफटी आंखों से देखती हुई…

‘‘आप ने ऐसा कैसे सोच लिया… अदीब की यादें मेरे साथ हैं. वे मेरे जीने का सहारा हैं… मैं यह साथ कैसे छोड़ सकती हूं… मैं शबीना अदीब थी, शबीना अदीब हूं… शबीना अदीब रहूंगी. यही मेरी पहचान है… मैं इसी पहचान के साथ ही जीना चाहती हूं…’’ अपना फैसला सुना कर वह अंदर कमरे में जा चुकी थी.

जमाल ने चची की आंखों में देखा तो उन्होंने नजरें झुका लीं. जमाल उठ कर बाहर चला आया.

कुछ दिनों के बाद जमाल शहर जाने वाली बस के इंतजार में बसस्टैंड पर खड़ा था. इतने में एक बस वहां आ कर रुकी. उस ने अलविदा कहती नजरों से गांव की तरफ देखा और बस में सवार हो गया. उस ने नौकरी छोड़ दी थी. Online Story in Hindi

लेखक- अशरफ खान 

Hindi Short Story: कोड़ा

Hindi Short Story: बहुत पुरानी बात है. मेरे परदादा जी के वक्त की. दादाजी की जुबानी सुनी थी यह कहानी. हमारे परदादा तब अंग्रेजी फौज में सूबेदार हुआ करते थे. बड़ा रौब-रुतबा था. बड़ी सी कोठी थी. घोड़ागाड़ी, बग्घी, कार, सेवादार सब मुहैय्या था. घर में तमाम नौकर चाकर थे. उन्हीं में एक बूढ़ी नौकरानी थी सुंदरी, जिसकी पूरी उम्र इस परिवार की सेवा में निकली थी.

उसकी उम्र कोई सत्तर साल के करीब रही होगी. कमर झुक गई थी, आंखों से कम नजर आता था, दुबला पतला शरीर अब ज्यादा काम नहीं कर पाता था. मगर घर की पुरानी नौकरानी थी, इसलिए उसे हल्का फुल्का काम दिया गया था. वह हर रात कोई आठ बजे परदादा का बिस्तर लगाया करती थी. सूबेदार साहब गर्मी के दिनों में अपने बेडरूम की जगह पीछे के बड़े लॉन में बड़े से तख्त पर बिछे मखमली बिस्तर और गाव-तकिये पर आराम फरमाया करते थे.

उस रात भी बूढ़ी सुंदरी ने सूबेदार साहब का बिस्तर लगाया. मोटे-मोटे गुदगुदे गद्दों पर उसने झक सफेद रेशमी चादर बिछाई. गाव-तकिये सजाए. सिरहाने की छोटी टेबल पर खुश्बूदार फूलों का गुलदस्ता फूलदान में लगाया और फिर एक तरफ खड़ी होकर बिस्तर की छटा को निहारने लगी. अभी तो आठ ही बजे थे. सूबेदार साहब खाना खाकर दस बजे के करीब सोने आते थे.

सुंदरी के मन में न जाने क्या आया कि वह धीरे से इस साफ-शफ्फाक बिस्तर पर लेट गई. शायद यह सोच कर कि चंद मिनट इस गुदगुदे बिस्तर का आनंद ले लूं, साहब के आने में तो अभी दो घंटे बाकी हैं.

इधर उसने आनंद में आंखें बंद कीं, उधर ठंडी हवा का झोंका आया और दिन भर की थकी सुंदरी दो मिनट में नींद की गोद में जा गिरी. अचानक एक तेज दहाड़ से उसकी नींद टूटी तो सामने सूबेदार साहब गुस्से में सुर्ख आंखें लिये उसे गालियां बकते खड़े थे. सुंदरी के काटो तो खून नहीं वाली हालत हो गई. बिस्तर से उछल कर सीधे सूबेदार साहब के पैरों पर गिरी.

सूबेदार साहब की दहाड़ें सुनकर पूरा घर लॉन में जमा हो चुका था. पहरेदार, रसोइया और अन्य नौकर चाकर भी सुंदरी की इस गुस्ताखी को देखकर कांप रहे थे. अचानक सूबेदार साहब ने पहरेदार से कहा, ‘इसे दस कोड़े लगाओ.’

पहरेदार कोड़ा लेने अंदर भागा. सुंदरी विलाप कर रही थी. लगातार माफियां मांग रही थी. मगर सूबेदार साहब गुस्से में तमतमा रहे थे. आखिर उसने उनके बिस्तर पर सोने की जुर्रत कैसे की? पहरेदार ने सुंदरी को कोड़े लगाने शुरू किए. सुंदरी पीठ पर कोड़े खाती रही और रोती रही. दस कोड़े खत्म होने पर वह जोर-जोर से हंसने लगी.

सूबेदार साहब हैरान हुए, चीख कर बोले, ‘हंसती क्या है?’

सुंदरी बोली, ‘साहब, दो घंटे इस बिछौने पर सोने पर आपने मुझे दस कोड़े मरवाए, आप तो सारी रात इस पर सोते हैं, सालों से सोते आ रहे हैं, न जाने भगवान के घर आपको कितने कोड़े पड़ेंगे, मैं तो गिनती सोच कर हंस पड़ी थी.’ कहते हुए सुंदरी कोेठी से बाहर निकल गई.

उस दिन सुंदरी की बात सुनकर सूबेदार साहब का मुंह खुला का खुला रह गया. सुंदरी की बात उनके दिल में कील की तरह गड़ गई. उस दिन से उन्होंने बिस्तर त्याग दिया. आराम त्याग दिया. अंग्र्रेजों की नौकरी छोड़ दी. अपनी खेतीबाड़ी पर ध्यान देना शुरू कर दिया. उस रोज के बाद से उन्होंने बिस्तर की तरफ देखा तक नहीं, एक पुराना कम्बल जमीन पर डाल कर सोने लगे.

मरते दम तक वह अपनी ही कोठी के एक छोटे से कमरे में जमीन पर पुराना कम्बल डाल कर सोते रहे. सुंदरी को बहुत ढुंढवाया कि मिल जाए तो माफी मांग लें, मगर उस दिन के बाद वह न मिली. Hindi Short Story

Hindi Social Story: भटकाव के बाद

Hindi Social Story: राज्य में पंचायत समितियों के चुनाव की सुगबुगाहट होते ही राजनीतिबाज सक्रिय होने लगे. सरपंच की नेमप्लेट वाली जीप ले कर कमलेश भी अपने इलाके के दौरे पर घर से निकल पड़ी. जीप चलाती हुई कमलेश मन ही मन पिछले 4 सालों के अपने काम का हिसाब लगाने लगी. उसे लगा जैसे इन 4 सालों में उस ने खोया अधिक है, पाया कुछ भी नहीं. ऐसा जीवन जिस में कुछ हासिल ही न हुआ हो, किस काम का.

जीप चलाती हुई कमलेश दूरदूर तक छितराए खेतों को देखने लगी. किसान अपने खेतों को साफ कर रहे थे. एक स्थान पर सड़क के किनारे उस ने जीप खड़ी की, धूप से बचने के लिए आंखों पर चश्मा लगाया और जीप से उतर कर खेतों की ओर चल दी.

सामने वाले खेत में झाड़झंखाड़ साफ करती हुई बिरमो ने सड़क के किनारे खड़ी जीप को देखा और बेटे से पूछा, ‘‘अरे, महावीर, देख तो किस की जीप है.’’

‘‘चुनाव आ रहे हैं न, अम्मां. कोई पार्टी वाला होगा,’’ इतना कह कर वह अपना काम करने लगा.

बिरमो भी उसी प्रकार काम करती रही.

कमलेश उसी खेत की ओर चली आई और वहां काम कर रही बिरमो को नमस्कार कर बोली, ‘‘इस बार की फसल कैसी हुई ताई?’’

‘‘अब की तो पौ बारह हो आई है बाई सा,’’ बिरमो का हाथ ऊपर की ओर उठ गया.

‘‘चलो,’’ कमलेश ने संतोष प्रकट किया, ‘‘बरसों से यह इलाका सूखे की मार झेल रहा था पर इस बार कुदरत मेहरबान है.’’

कमलेश को देख कर बिरमो को 4 साल पहले की याद आने लगी. पंचायती चुनाव में सारे इलाके में चहलपहल थी. अलगअलग पार्टियों के उम्मीदवार हवा में नारे उछालने लगे थे. यह सीट महिलाओं के लिए आरक्षित थी इसलिए इस चुनावी दंगल में 8 महिलाएं आमनेसामने थीं. दूसरे उम्मीदवारों की ही तरह कमलेश भी एक उम्मीदवार थी और गांवगांव में जा कर वह भी वोटों की भीख मांग रही थी. जल्द ही कमलेश महिलाओं के बीच लोकप्रिय होने लगी और उस चुनाव में वह भारी मतों से जीती थी.

‘‘क्यों बाई सा, आज इधर कैसे आना हुआ?’’ बिरमो ने पूछा.

‘‘अरे, मां, बाई सा वोटों की भीख मांगने आई होंगी,’’ महावीर बोल पड़ा.

महावीर का यह व्यंग्य कमलेश के कलेजे पर तीर की तरह चुभ गया. फिर भी समय की नजाकत को देख कर वह मुसकरा दी और बोली, ‘‘यह ठीक कह रहा है, ताई. हम नेताओं का भीख मांगने का समय फिर आ गया है. पंचायती चुनाव जो आ रहे हैं.’’

‘‘ठीक है बाई सा,’’ बिरमो बोली, ‘‘इस बार तो तगड़ा ही मुकाबला होगा.’’

कमलेश जीप के पास चली आई. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह किधर जाए. फिर भी जाना तो था ही, सो जीप स्टार्ट कर चल दी. दिमाग में आज की राजनीति को ले कर उधेड़बुन मची थी कि अतीत में दादाजी के कहे शब्द याद आने लगे. दरअसल, राजनीति से दादाजी को बेहद घृणा थी, ग्राम पंचायत की बैठकों में वह भाग नहीं लेते थे.

एक दिन कमलेश ने उन से पूछा था, ‘दादाजी, आप पंचायती बैठकों में भाग क्यों नहीं लिया करते?’

‘इसलिए कि वहां टुच्ची राजनीति चला करती है,’ वह बोले थे.

‘तो राजनीति में नहीं आना चाहिए?’ उस ने जानना चाहा था.

‘देख बेटी, कभी कहा जाता था कि भीख मांगना सब से निकृष्ट काम है और आज राजनीति उस से भी निकृष्ट हो चली है, क्योंकि नेता वोटों की भीख मांगने के लिए जाने कितनी तरह का झूठ बोलते हैं.’

उस ने भी तो 4 साल पहले अपनी जनता से कितने ही वादे किए थे लेकिन उन सभी को आज तक वह कहां पूरा कर सकी है.

गहरी सांस खींच कर कमलेश ने जीप एक कच्चे रास्ते पर मोड़ दी. धूल के गुबार छोड़ती हुई जीप एक गांव के बीचोंबीच आ कर रुकी. उस ने आंखों पर चश्मा लगाया और जीप से उतर गई.

देखते ही देखते कमलेश को गांव वालों ने घेर लिया. एक बुजुर्ग बच्चों को हटाते हुए बोले, ‘‘हटो पीछे, प्रधानजी को बैठ तो लेने दो.’’

एक आदमी कुरसी ले आया और कमलेश से उस पर बैठने के लिए अनुरोध किया.

कमलेश कुरसी पर बैठ गई. बुजुर्ग ने मुसकरा कर कहा, ‘‘प्रधानजी, चुनाव फिर आने वाला है. हमारे गांव का कुछ भी तो विकास नहीं हो पाया.

‘‘हम तो सोच रहे थे कि आप की सरपंची में औरतों का शोषण रुक जाएगा, क्योंकि आप एक पढ़ीलिखी महिला हो और हमारी समस्याओं से वाकिफ हो, लेकिन इन पिछले 4 सालों में हमारे इलाके में बलात्कार और दहेज हत्याओं में बढ़ोतरी ही हुई है.’’

किसी दूसरी महिला ने शिकायत की, ‘‘इस गांव में तो बिजलीपानी का रोना ही रोना है.’’

‘‘यही बात शिक्षा की भी है,’’ एक युवक बोला, ‘‘दोपहर के भोजन के नाम पर बच्चों की पढ़ाई चौपट हो आई है. कहीं शिक्षक नदारद हैं तो कहीं बच्चे इधरउधर घूम रहे होते हैं.’’

कमलेश उन तानेउलाहनों से बेहद दुखी हो गई. जहां भी जाती लोग उस से प्रश्नों की झड़ी ही लगा देते थे. एक गांव में कमलेश ने झुंझला कर कहा, ‘‘अरे, अपनी ही गाए जाओगे या मेरी भी सुनोगे.’’

‘‘बोलो जी,’’ एक महिला बोली.

‘‘सच तो यह है कि इन दिनों अपने देश में भ्रष्टाचार का नंगा नाच चल रहा है. नीचे से ले कर ऊपर तक सभी तो इस में डुबकियां लगा रहे हैं. इसी के चलते इस गांव का ही नहीं पूरे देश का विकास कार्य बाधित हुआ है. ऐसे में कोई जन प्रतिनिधि करे भी तो क्या करे?’’

‘‘सरपंचजी,’’ एक बुजुर्ग बोले, ‘‘पांचों उंगलियां बराबर तो नहीं होती न.’’

‘‘लेकिन ताऊ,’’ कमलेश बोली, ‘‘यह तो आप भी जानते हैं कि गेहूं के साथ घुन भी पिसा करता है. साफसुथरी छवि वाले अपनी मौत आप ही मरा करते हैं. उन को कोई भी तो नहीं पूछता.’’

एक दूसरे बुजुर्ग उसे सुझाव देने लगे, ‘‘ऐसा है, अगर आप अपने इलाके के विकास का दमखम नहीं रखती हैं तो इस चुनावी दंगल से अपनेआप को अलग कर लें.’’

‘‘ठीक है, मैं आप के इस सुझाव पर गहराई से विचार करूंगी,’’ यह कहते हुए कमलेश वहां से उठी और जीप स्टार्ट कर सड़क की ओर चल दी. गांव वालों के सवाल, ताने, उलाहने उस के दिमाग पर हथौड़े की तरह चोट कर रहे थे. ऐसे में उसे अपना अतीत याद आने लगा.

कमलेश एक पब्लिक स्कूल में अच्छीभली अध्यापकी करती थी. उस के विषय में बोर्ड की परीक्षा में बच्चों का परिणाम शत- प्रतिशत रहता था. प्रबंध समिति उस के कार्य से बेहद खुश थी. तभी एक दिन उस के पास चौधरी दुर्जन स्ंिह आए और उसे राजनीति के लिए उकसाने लगे.

‘नहीं, चौधरी साहब, मैं राजनीति नहीं कर पाऊंगी. मुझ में ऐसा माद्दा नहीं है.’

‘पगली,’ चौधरी मुसकरा दिए थे, ‘तू पढ़ीलिखी है. हमारे इलाके से महिला के लिए सीट आरक्षित है. तू तो बस, अपना नामांकनपत्र भर दे, बाकी मैं तुझे सरपंच बनवा दूंगा.’

कमलेश ने घर आ कर पति से विचारविमर्श किया था. उस के अध्यापक पति ने कहा था, ‘आज की राजनीति आदमी के लिए बैसाखी का काम करती है. बाकी मैं चौधरी साहब से बात कर लूंगा.’

‘लेकिन मैं तो राजनीति के बारे में कखग भी नहीं जानती,’ कमलेश ने चिंता जतलाई थी.

‘अरे वाह,’ पति ने ठहाका लगाया था, ‘सुना नहीं कि करतकरत अभ्यास के जड़मति होत सुजान. तुम्हें चौधरी साहब समयसमय पर दिशानिर्देश देते रहेंगे.’

कमलेश के पति ने चौधरी दुर्जन सिंह से संपर्क किया था. उन्होंने उस की जीत का पूरा भरोसा दिलाया था. 2 दिन बाद कमलेश ने विद्यालय से त्यागपत्र दे दिया था.

प्रधानाचार्य ने चौंक कर कमलेश से पूछा था, ‘हमारे विद्यालय का क्या होगा?’

‘सर, मेरे राजनीतिक कैरियर का प्रश्न है,’ कमलेश ने विनम्रता से कहा था, ‘मुझे राजनीति में जाने का अवसर मिला है. अब ऐसे में…’

प्रधानाचार्य ने सर्द आह भर कर कहा था, ‘ठीक है, आप का यह त्यागपत्र मैं चेयरमैन साहब के आगे रख दूंगा.’

इस प्रकार कमलेश शिक्षा के क्षेत्र से राजनीति के मैदान में आ कूदी थी. चौधरी दुर्जन सिंह उसे राजनीति की सारी बारीकियां समझाते रहते. उस पंचायत समिति के चुनाव में वह सर्वसम्मति से प्रधान चुनी गई थी.

अब कमलेश मन से समाजसेवा में जुट गई. सुबह से ले कर शाम तक वह क्षेत्र में घूमती रहती. बिजली, पानी, राहत कार्यों की देखरेख के लिए उस ने अपने क्षेत्रवासियों के लिए कोई कमी नहीं छोड़ी थी. शिक्षा व स्वास्थ्य विभाग से भी संपर्क कर उस ने जनता को बेहतर सेवाएं उपलब्ध करवाई थीं.

‘ऐसा है, प्रधानजी,’ एक दिन विकास अधिकारी रहस्यमय ढंग से मुसकरा दिए थे, ‘आप का इलाका सूखे की चपेट में है. ऊपर से जो डेढ़ लाख की सहायता राशि आई है, क्यों न उसे हम कागजों पर दिखा दें और उस पैसे को…’

कमलेश ताव खा गई और विकास अधिकारी की बात को बीच में काट कर बोली, ‘बीडीओ साहब, आप अपना बोरियाबिस्तर बांध लें. मुझे आप जैसा भ्रष्ट अधिकारी इस विकास खंड में नहीं चाहिए.’

उसी दिन कमलेश ने कलक्टर से मिल कर उस विकास अधिकारी की वहां से बदली करवा दी थी. तीसरे दिन चौधरी साहब का उस के नाम फोन आया था.

‘कमलेश, सरकारी अधिकारियों के साथ तालमेल बिठा कर रखा कर.’

‘नहीं, चौधरी साहब,’ वह बोली थी, ‘मुझे ऐसे भ्रष्ट अधिकारियों की जरूरत नहीं है.’

आज कमलेश का 6 गांवों का दौरा करने का कार्यक्रम था. वह अपने प्रति लोगों का दिल टटोलना चाहती थी लेकिन 2-3 गांव के दौरे कर लेने के बाद ही उस का खुद का दिल टूट चला था. उधर से वह सीधी घर चली आई और घर में घुसते ही पति से बोली, ‘‘मैं अब राजनीति से तौबा करने जा रही हूं.’’

पति ने पूछा, ‘‘अरे, यह तुम कह रही हो? ऐसी क्या बात हो गई?’’

‘‘आज की राजनीति भ्रष्टाचार का पर्याय बन कर रह गई है. मैं जहांजहां भी गई मुझे लोगों के तानेउलाहने सुनने को मिले. ईमानदारी के साथ काम करती हूं और लोग मुझे ही भ्र्रष्ट समझते हैं. इसलिए मैं इस से संन्यास लेने जा रही हूं.’’

रात में जब पूरा घर गहरी नींद में सो रहा था तब कमलेश की आंखों से नींद कोसों दूर थी. बिस्तर पर करवटें बदलती हुई वह वैचारिक बवंडर में उड़ती रही.

सुबह उठी तो उस का मन बहुत हलका था. चायनाश्ता लेने के बाद पति ने उस से पूछा, ‘‘आज तुम्हारा क्या कार्यक्रम है?’’

‘‘आज मैं उसी पब्लिक स्कूल में जा रही हूं जहां पहले पढ़ाती थी,’’ कमलेश मुसकरा दी, ‘‘कौन जाने वे लोग मुझे फिर से रख लें.’’

‘‘देख लो,’’ पति भी अपने विद्यालय जाने की तैयारी करने लगे.

कमलेश सीधे प्रधानाचार्य की चौखट पर जा खड़ी हुई. उस ने अंदर आने की अनुमति चाही तो प्रधानाचार्य ने मुसकरा कर उस का स्वागत किया.

कमलेश एक कुरसी पर बैठ गई. प्रधानाचार्य उस की ओर घूम गए और बोले, ‘‘मैडम, इस बार भी चुनावी दंगल में उतर रही हैं क्या?’’

‘‘नहीं सर,’’ कमलेश मुसकरा दी, ‘‘मैं राजनीति से नाता तोड़ रही हूं.’’

‘‘क्यों भला?’’ प्रधानाचार्य ने पूछा.

‘‘उस गंदगी में मेरा सांस लेना दूभर हो गया है.’’

‘‘अब क्या इरादा है?’’

‘‘सर, यदि संभव हो तो मेरी सेवाएं फिर से ले लें,’’ कमलेश ने निवेदन किया.

‘‘संभव क्यों नहीं है,’’ प्रधानाचार्य ने कंधे उचका कर कहा, ‘‘आप जैसी प्रतिभाशाली अध्यापिका से हमारे स्कूल का गौरव बढ़ेगा.’’

‘‘तो मैं कल से आ जाऊं, सर?’’ कमलेश ने पूछा.

‘‘कल क्यों? आज से ही क्यों नहीं?’’ प्रधानाचार्य मुसकरा दिए और बोले, ‘‘फिलहाल तो आज आप 12वीं कक्षा के छात्रों का पीरियड ले लें. कल से आप को आप का टाइम टेबल दे दिया जाएगा.’’

‘‘धन्यवाद, सर,’’ कमलेश ने उन का दिल से आभार प्रकट किया.

कक्षा में पहुंच कर कमलेश बच्चों को अपना विषय पढ़ाने लगी. सभी छात्र उसे ध्यान से सुनने लगे. आज वह वर्षों बाद अपने अंतर में अपार शांति महसूस कर रही थी. बहुत भटकाव के बाद ही वह मानसिक शांति का अनुभव कर रही थी. Hindi Social Story

कहानी- डौ. शीतांशु भारद्वाज

Nanad-Bhabhi: जब ननदों को भी प्रौपर्टी में हिस्सा मिले, तब भाभी क्या करें

Nanad-Bhabhi: जब बात पिता की प्रौपर्टी में से बेटी को हिस्सा देने की आती है, तो कहीं न कहीं भाभी के मन में एक कसक पैदा हो जाती है कि ननद को प्रौपर्टी में हिस्सा क्यों? हालांकि वह चाह कर भी कुछ कह नहीं पाती है, लेकिन ननद के प्रति उस के व्यवहार में बदलाव जरूर आ जाता है.

ऐसा ही मुकेश ने भी किया अपने मातापिता की मृत्यु के बाद और प्रौपर्टी में अपनी बहन कविता का भी हिस्सा कर दिया. यह देख कर उस की पत्नी सीमा नाराज हो गई. उसे लगा कि अब उन के बच्चों का हिस्सा कम हो जाएगा. भाभी के बदले हुए इस रूप को देख कर कविता ने सीमा से कहा,“भाभी, मुझे बस अपना हक चाहिए ताकि किसी के आगे हाथ न फैलाना पड़े. यह घर हमेशा आप का ही रहेगा.”

परिवार केवल खून के रिश्तों का नाम नहीं है, बल्कि प्रेम, सहयोग और समझदारी से बने उस बंधन का नाम है जो सब को जोड़े रखता है. बदलते जमाने में जब बेटियों को भी मातापिता की संपत्ति में बराबरी का अधिकार मिलने लगा है, तब कई घरों में ननदभाभी के रिश्ते में खटास आ जाती है. लेकिन अगर भाभी चाहे तो इस रिश्ते को पहले की तरह ही मधुर और सम्मान से भरा रख सकती है.

संपत्ति से बड़ा है रिश्ता

यह सच है कि जब ननद को भी अपने पिता की संपत्ति में हिस्सा मिलता है, तो घर में कई बार आर्थिक तनाव पैदा हो जाते हैं. लेकिन भाभी को समझना चाहिए कि यह उस का अधिकार है और उस के अधिकार को सम्मान देना ही परिवार की एकता और खुशहाली के लिए जरूरी है.

ईर्ष्या की जगह अपनापन

कई बार भाभियों के मन में यह खयाल आ जाता है कि ननद अब ‘बाहर की’ हो गई है और वह केवल हिस्सा लेने आती है, जबकि सच यह है कि ननद चाहे ससुराल में रहे या अपने ससुराल में, वह आप के पति की बहन और आप के बच्चों की बुआ हमेशा रहेगी. अगर भाभी उसे ईर्ष्या की बजाय प्रेम और सम्मान देगी तो रिश्ता और मजबूत होगा.

आपसी संवाद बनाए रखें

ज्यादातर गलतफहमियां चुप्पी से जन्म लेती हैं. अगर भाभी और ननद आपस में खुल कर बातें करें, एकदूसरे को समझें और अपने दिल की बात बिना डर के कहें, तो कोई भी आर्थिक मसला रिश्तों को तोड़ नहीं सकता.

परिवार में बच्चों के लिए उदाहरण

भाभी और ननद का रिश्ता जितना सुंदर होगा, उतना ही परिवार में बच्चों के लिए सीखने लायक माहौल बनेगा. वे देखेंगे कि संपत्ति या पैसे से बड़ा रिश्ता होता है और यही संस्कार वे आगे भी अपनाएंगे.

याद रखिए, संपत्ति तो आज है, कल नहीं रहेगी, लेकिन रिश्तों की मिठास हमेशा याद रहती है. भाभी को चाहिए कि वह ननद के अधिकार को दिल से स्वीकार करे और अपने व्यवहार में वही स्नेह बनाए रखे जो पहले था. यही परिवार को जोड़ कर रखने का सब से बड़ा सूत्र है.

ननद का भी हक है

कानून के मुताबिक बेटियों को भी पिता की संपत्ति में बराबरी का हक मिला हुआ है. यह उन का हक है, कोई एहसान नहीं. भाभी को इस अधिकार को सम्मान देना चाहिए और यह नहीं सोचना चाहिए कि ननद ‘बाहरी’ है. वह आज भी उसी घर की बेटी है और यही हक उसे मिलता है.

रिश्तों से बढ़ कर नहीं पैसा

संपत्ति चाहे कितनी भी बड़ी हो, रिश्तों की मिठास और अपनापन उस से कहीं ज्यादा कीमती होता है. ननद को उस का हिस्सा देने से घर की बहनबेटी खुश रहेगी और रिश्तों में भी प्यार बना रहेगा. अगर भाभी इस बात को दिल से मान ले, तो घर का माहौल कभी खराब नहीं होगा.

भाभी का बड़प्पन

जब भाभी इस पूरे मामले में सकारात्मक रवैया रखती है, तो ननद भी उस के इस व्यवहार को हमेशा याद रखती है. वह भी भाभी के लिए स्नेह और सम्मान से भरी रहती है. भाभी अगर सोच ले कि संपत्ति तो बंट जाएगी, लेकिन रिश्ता हमेशा के लिए रहेगा, तो वह खुद भी संतोष महसूस करेगी.

समझदारी और सहयोग से हल

भले ही मन में थोड़ी सी चुभन हो, लेकिन खुल कर बात करें, प्यार से समझें और ननद के हिस्से को खुशी से दें. इस से घर में शांति बनी रहेगी और बच्चों को भी सीख मिलेगी कि रिश्ते पैसों से कहीं ऊपर होते हैं.

पिता की संपत्ति में ननद का हिस्सा उस का अधिकार है और भाभी को इस पर नाकमुंह चढ़ाने के बजाय बड़े दिल से उसे स्वीकार करना चाहिए. पैसे तो आएंगेजाएंगे, लेकिन रिश्तों की गरमजोशी ही हमेशा साथ रहती है. भाभी का यही बड़प्पन परिवार को जोड़ कर रखता है. Nanad-Bhabhi:

Body Shaming: ग्लैमर वर्ल्ड में जीरो फिगर की चाह, पतन की ओर हस्तियां

Body Shaming: हाल ही में 42 साल के फिट ऐंड फाइन ऐक्ट्रैस शेफाली जरीवाला का दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया. इस से पहले बौलीवुड और टीवी वर्ल्ड के हैंडसम हंक सिद्धार्थ शुक्ला, जो एक समय में दोहरी बौडी रखा करते थे, लेकिन बाद में ऐक्सरसाइज व डाइट प्लान कर के अपनेआप को स्लिमट्रिम बना लिया था, 40 साल की उम्र में दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया.

दोनों ही मामलों में एक बात जो सामने आई वह यह कि पतले होने के लिए ये दोनों ही कलाकार ऐंटी एजिंग पिल्स और स्टेरौयड का इस्तेमाल करते थे, जिस वजह से समय से पहले ही इन दोनों के शरीर ने इन का साथ छोड़ दिया. यों ऐसे कई कलाकार हैं जो कम उम्र में ऐक्सरसाइज करते, क्रिकेट खेलते औन द स्पौट हार्ट अटैक आने से मर गए.

गौरतलब है कि ग्लैमर वर्ल्ड में कलाकारों के बीच बौडी शेमिंग का डर, मोटे होने के बाद काम न मिलने का डर, कलाकारों को ज्यादा से ज्यादा फिट और खूबसूरत दिखने के लिए प्रेरित कर रहा है. इस के चलते ज्यादातर लोग वजन कम करने की जर्नी को सोशल मीडिया पर साझा कर रहे हैं.

खूबसूरत दिखने की ललक

कंपीटिशन के दौर में हर किसी में खूबसूरत दिखने की ललक है, जो कई सारे लोगों में खतरा बन चुका है. ग्लैमर वर्ल्ड में कम उम्र में ज्यादा मौतें हो रही हैं और इन सभी मौतों की वजह ज्यादा खूबसूरत और पतले दिखाने के लिए खतरनाक दवाइयों का इस्तेमाल करना, जरूरत से ज्यादा डाइट फौलो करना और कई ऐसी पद्धति का इस्तेमाल करना है, जिस के बाद कई लोगों में साइड इफैक्ट्स देखने को मिल रहे हैं.

पतले होने की दवाइयों का इस्तेमाल कर ग्लैमर वर्ल्ड के कुछ लोग कुछ ही महीनों में 20 से 30 किलोग्राम वजन कम कर के सभी को आश्चर्यचकित कर रहे हैं.

लत या जरूरत

हाल ही में 140 किलोग्राम के राम कपूर ने अपना 55 किलोग्राम वजन घटा लिया. कपिल शर्मा ने एक अलग तरह का डाइट प्लान अपना कर 63 दिनों में 11 किलोग्राम वजन घटाया.

खबरों के अनुसार, निर्माता निर्देशक व ऐंकर करण जौहर ने डायबिटीज में इस्तेमाल की जाने वाली दवाइयों के जरीए इंसुलिन का इस्तेमाल कर अपना काफी सारा वजन घटाया, जिस के बाद करण अपने अत्यधिक कम वजन को ले कर ट्रोल भी होने लगे. गौरतलब है कि एक जमाने में करण जौहर मोटे हुआ करते थे जिस की वजह से उन्हें काफी शर्मिंदा भी होना पड़ा था, शायद इसलिए वे अपने वजन को ले कर कुछ ज्यादा ही सचेत रहते हैं और हमेशा ज्यादा से ज्यादा वजन कम करने की कोशिश में जुटे रहते हैं.

जीरो फिगर की चाह

आज के समय में हालत यह है कि हरकोई जीरो फिगर के चक्कर में हर तरीका अपना कर पतले होने में जुटा है. एक समय था जब कलाकार अपने सशक्त अभिनय की वजह से फिल्मों में पहचाना जाता था, लेकिन जब से सोशल मीडिया आया है लोग अभिनय के जरीए कम, अपने सैक्सी फिगर की वजह से ज्यादा जाने जाते हैं.

कलाकारों में पतला दिखने की ललक इसलिए भी ज्यादा है, क्योंकि मोटे होने पर न सिर्फ उन को बेइज्जती का सामना करना पड़ता है, बल्कि काम भी नहीं मिलता और घर बैठना पड़ता है.

कला जरूरी या फिगर

विद्या बालन अच्छी ऐक्ट्रैस हैं, बावजूद जब उन का वजन ज्यादा था तो उन को फिल्में न के बराबर मिल रही थीं. लेकिन जैसे ही वे पतली हुईं उन्हें फिल्मों के औफर्स मिलने लगे. इसी तरह टीवी फिल्म ऐक्ट्रैस शहनाज गिल को ‘बिग बौस 13’ के दौरान मोटे होने की वजह से बहुत बेइज्जती का सामना करना पड़ा था और कई लोग उन का मजाक उड़ाने लगे थे लेकिन वही शहनाज गिल जब पतली हो गईं तो उन को सलमान खान की फिल्म और उस के बाद कई और फिल्मों में काम करने का मौका मिला.

जान है तो जहान है

आज के इंस्टैंट युग के जमाने में हर कोई जल्दी से जल्दी अंजाम की परवाह किए रिजल्ट पाना चाहता है. यही वजह है कि कई लोग पतले होने के लिए ऐसी दवाइयों का इस्तेमाल करते हैं जो फिगर से अधिक जान के लिए आफत हैं.

ग्लैमर वर्ल्ड से जुड़े हैं तो खूबसूरती जरूरी है लेकिन उस खूबसूरती को पाने के लिए किसी भी चीज की अति, गलत तरीका सही नहीं है.

साइड इफैक्ट्स

बौलीवुड में कई हीरोइन हैं जिन्होंने पतले होने के चक्कर में न सिर्फ क्रैश डाइटिंग की बल्कि ज्यादा पावर वाली स्लिमट्रिम होने की गोलियों का भी इस्तेमाल किया. स्टेरौयड का इस्तेमाल कर के, 7-8 घंटे जिम में वर्कआउट भी किया. इस के बाद 20-25 किलोग्राम वजन तो घटा लिए लेकिन शरीर में ऐग्जर्सन झेलने की ताकत खत्म हो गई. ऐसे कलाकारों में आलिया भट्ट एक हैं जिन के साथ काम करने वाले कुछ कलाकारों ने बताया कि वे एक बार अचानक से बेहोश हो कर गिर पड़ीं. खबरों के अनुसार आलिया भट्ट को मानसिक बीमारियां भी हुई हैं जिन का इलाज वे करा रही हैं.

कहने का मतलब यह है कि पतला और खूबसूरत दिखने में कोई बुराई नहीं है अगर वह सही तरीके से हो, जैसेकि बौलीवुड में कई हीरोइन और हीरो सही डाइट ले कर, सही ऐक्सरसाइज का सहारा ले कर धीरेधीरे पतले हुए और बिना किसी बीमारी के फिट भी हैं. अभिनेत्री रेखा, करीना कपूर, हेमा मालिनी, शिल्पा शेट्टी, रवीना टंडन, भाग्यश्री आदि कई हीरोइन हैं जिन्होंने सही डाइट और सही तरीका अपना कर अपना फिगर 50 की उम्र में भी खूबसूरत बनाए रखा है.

इसी तरह अमिताभ बच्चन, धर्मेंद्र, शत्रुघ्न सिन्हा आदि ऐक्टर्स योग टीचर्स, डाइटिशियन के निर्देशन में रह कर अपनेआप को फिट बनाए रखते हैं. 70 पार ये ऐक्टर्स सेहत का सही तरीके से देखभाल कर आज भी फुर्तीले और फिट हैं.

कलाकार की पहचान उस के अभिनय से होती है

कलाकार सालों तभी याद किए जाते हैं जब उन की ऐक्टिंग में दम हो. अभिनय की सराहना सालों होती है और अच्छे अभिनय के सामने सब कुछ धुंधला हो जाता है. अमिताभ बच्चन, जो कभी इंडस्ट्री में संघर्ष कर थे, उन्हें फिल्म इंडस्ट्री छोड़ कर जाने के लिए लोगों ने प्रयागराज का टिकट भी दे दिया था. इंडस्ट्री के लोगों का मानना था कि अमिताभ बच्चन किसी भी तरह ऐक्टर नहीं बन सकते. लेकिन इस बात को आज अभिनय के शहंशाह कहलाने वाले अमिताभ बच्चन ने गलत साबित कर दिया. इसी तरह बौलीवुड में कई ऐसे ऐक्टर्स हैं जिन्हें कोई उन की शक्ल देख कर फिल्म देने को तैयार नहीं था और आज ये सारे ऐक्टर्स हजारोंलाखों दिलों की धड़कन बने हुए हैं.

रजनीकांत, नवाजुद्दीन सिद्दीकी, नाना पाटेकर, ओमपुरी, अन्नू कपूर, अनुपम खेर, राजपाल यादव, जौनी लीवर आदि अपने काम से पहचाने जाते हैं. लेकिन आज जितने भी नए कलाकार बौलीवुड में प्रवेश कर रहे हैं, वे अपने अभिनय को निखारने से ज्यादा अपने फिगर को संवारने में लगे हैं, जबकि सचाई तो यही है कि ग्लैमर वर्ल्ड में खूबसूरती हर जगह दिखती और मिलती है, लेकिन टेलैंट हजार में 1-2 का सामने आता है और वही फिल्मों में अपनी अलग जगह बनाता है.

एक इंसान का चेहरा उस वक्त उतना माने नहीं रखता जब उस का स्वभाव, बात करने का तरीका, सामने वाले का दिल जीत लेता है. फिर चाहे वह इंसान कैसा भी दिखता हो.

अगर आज की नई पीढ़ी बौडी प्रदर्शन के बजाय अच्छे अभिनय का प्रदर्शन करेंगे तो दर्शक उन्हें कभी नहीं नकारेंगे. आज के समय में राजकुमार राव, आयुष्मान खुराना, विक्रांत मैसी, मनोज बाजपेयी, पंकज त्रिपाठी आदि कई सारे ऐक्टर्स हैं, जो दिखने में बहुत ज्यादा खूबसूरत व हैंडसम नहीं हैं, लेकिन उन की फिल्में कभी फ्लौप नहीं होतीं. Body Shaming

Hindi Social Story: पुल

Hindi Social Story: ‘‘मुस्ताक मियां, लो, एक पैग तुम भी लो,’’ ठेकेदार ने कारीगरों की टोली के मुखिया मुस्ताक की तरफ रम का पैग बढ़ाते हुए कहा.

‘‘शुक्रिया जनाब, लेकिन मैं शराब नहीं पीता,’’ मुस्ताक ने अपनी जगह से थोड़ा पीछे हटते हुए जवाब दिया.

‘‘कमाल की बात करते हो मुस्ताक भाई, आजकल तो हर कारीगर और मजदूर शराब पीता है. शराब पिए बिना उस की

थकान ही नहीं मिटती है और न ही खाना पचता है.

‘‘कभीकभार मन की खुशी के लिए तुम्हें भी थोड़ा सा नशा तो कर ही लेना चाहिए,’’ ऐसा कहते हुए ठेकेदार ने वह पैग अपने गले में उड़ेल लिया.

‘‘गरीब आदमी के लिए तो पेटभर दालरोटी ही सब से बड़ा नशा और सब से बड़ी खुशी होती है. शराब का नशा करूंगा तो मैं अपना और अपने बच्चों का पेट कैसे भरूंगा?’’

‘‘खैर, जैसी तुम्हारी मरजी. मैं ने तो तुम्हें एक जरूरी काम के लिए बुलाया था. तुम्हें तो मालूम ही है कि इस पुल के बनने में सीमेंट के हजारों बैग लगेंगे. ऐसा करना, 2 बैग बढि़या सीमेंट के साथ 2 बैग नकली सीमेंट के भी खपा देना. नकली सीमेंट बढि़या सीमेंट के साथ मिल कर बढि़या वाला ही काम करेगी.

‘‘इसी तरह 6 सूत के सरिए के साथ 5 सूत के सरिए भी बीचबीच में खपा देना. पास खड़े लोगों को भी पता नहीं चलेगा कि हम ऐसा कर रहे हैं,’’ ठेकेदार ने उसे अपने मन की बात खोल कर बताई.

रात का समय था. पुल बनने वाली जगह के पास खुद के लिए लगाए गए एक साफसुथरे तंबू में ठेकेदार अपने बिस्तर पर बैठा था. नजदीक के एक ट्यूबवैल से बिजली मांग कर रोशनी का इंतजाम किया गया था.

ठेकेदार के सामने एक छोटी सी मेज रखी हुई थी. मेज पर रम की खुली बोतल सजी हुई थी. पास में ही एक बड़ी प्लेट में शहर के होटल से मंगाया गया लजीज चिकन परोसा हुआ था.

‘‘ठेकेदार साहब, यह काम मुझ से तो नहीं हो सकेगा,’’ मुस्ताक ने दोटूक जवाब दिया.

‘‘क्या…?’’ हैरत से ठेकेदार का मुंह खुला का खुला रह गया. हाथ की उंगलियां, जो चिकन के टुकड़े को नजाकत के साथ होंठों के भीतर पहुंचाने ही वाली थीं, एक झटके के साथ वापस प्लेट के ऊपर जा टिकीं.

ठेकेदार को मुस्ताक से ऐसे जवाब की जरा भी उम्मीद नहीं थी. एक लंबे अरसे से वह ठेकेदारी का काम करता आ रहा था, पर इस तरह का जवाब तो उसे कभी भी नहीं मिला था.

‘‘क्यों नहीं हो सकेगा तुम से यह काम?’’ गुस्से से ठेकेदार की आंखें उबल कर बाहर आने को हो गई थीं.

‘‘साहब, आप को भी मालूम है और मुझे भी कि इस पुल से रेलगाडि़यां गुजरा करेंगी. अगर कभी पुल टूट गया तो हजारों लोग बेमौत मारे जाएंगे. मैं तो उन के दुख से डरता हूं. मुझे माफ कर दें,’’ मुस्ताक ने हाथ जोड़ कर अपनी लाचारी जाहिर कर दी.

खुद का मनोबल बनाए रखने के लिए ठेकेदार ने रम का एक और पैग डकारते हुए कहा, ‘‘अरे भले आदमी, तुम खुद मेरे पास यह काम मांगने के लिए आए थे… मैं तो तुम्हें इस के लिए बुलाने नहीं गया था. तब तुम ने खुद ही कहा था कि तुम अपने काम से मुझे खुश कर दोगे.

‘‘पहले जो कारीगर मेरे साथ काम करता था, उसे जब यह पता चला कि मैं ने तुम्हें इस काम के लिए रख लिया है, तो वह दौड़ता हुआ मेरे पास आया और मुझे सावधान करते हुए कहने लगा कि यह विधर्मी तुम्हें धोखा देगा…

‘‘पर, मैं ने उस की एक न सुनी… वह नाराज हो कर चला गया… तुम्हारे लिए अपने धर्मभाइयों को मैं ने नाराज किया और तुम हो कि ईमानदारी का ठेकेदार बनने का नाटक कर रहे हो.’’

‘‘मैं कोई नाटक नहीं कर रहा साहब. यह ठीक है कि मैं आप के पास खुद काम मांगने के लिए आया था… आप ने मेहरबानी कर के मुझे यह काम दिया… मैं इस का बदला चुकाऊंगा, पर दूसरी तरह से…

‘‘मैं वादा करता हूं कि मैं और मेरे साथी कारीगर हर रोज एक घंटा ज्यादा काम करेंगे. इस के लिए हम आप से फालतू पैसा नहीं लेंगे… इस तरह आप को फायदा ही फायदा होगा,’’ मुस्ताक ने यह कह कर ठेकेदार को यकीन दिलाना चाहा.

‘‘अच्छा, इस का मतलब यह कि तू चाहता है कि मैं लुट जाऊं… बरबाद

हो जाऊं और तू तमाशा देखे… क्यों?’’ ठेकेदार खा जाने वाली नजरों से मुस्ताक को घूर रहा था.

कारीगर मुस्ताक यह देख कर डर गया. उस ने हकलाते हुए कहा, ‘‘नहीं… मेरा मतलब यह नहीं था कि…’’

‘‘और क्या मतलब है तुम्हारा? क्या तुम्हें मालूम नहीं कि ईमानदारी के रास्ते पर चल कर पेट तो भरा जा सकता है, पर दौलत नहीं कमाई जा सकती. जिस तरह तू काम करने की बात कर रहा है, वह तो सचाई और ईमानदारी का रास्ता है. उस से हमें क्या मिलेगा?

‘‘तुम्हें मालूम होना चाहिए कि इंजीनियर साहब पहले ही मुझ से रिश्वत के हजारों रुपए ले चुके हैं. ‘वर्क कंप्लीशन सर्टिफिकेट’ देने से पहले न जाने कितने और रुपए लेंगे. कहां से आएंगे वे रुपए? क्या तुम दोगे? नहीं न? तब क्या मैं तुम्हारी ईमानदारी को चाटूंगा? बोलो, क्या काम आएगी ऐसी वह ईमानदारी?

‘‘मुस्ताक मियां, मुझे ईमानदारी बन कर बरबाद नहीं होना है. मुझे तो हर हाल में पैसा कमाना है. याद रखना, ऐसा करने से तुम्हें भी कोई फायदा नहीं होने वाला है.’’

मुस्ताक ने जवाब देने के बजाय चुप रहना ही बेहतर समझा. ठेकेदार ने मन ही मन सोचा कि मुस्ताक को उस के तर्कों के सामने हार माननी ही पड़ेगी. आखिर कब तक नहीं मानेगा? उसे भूखा थोड़े ही मरना है.

अपने लिए एक पैग और तैयार करते हुए ठेकेदार ने मुस्ताक से कहा, ‘‘तुम ने जवाब नहीं दिया.’’

‘‘मैं मजबूर हूं साहब,’’ मुस्ताक ने धीरे से कहा.

‘‘मुस्ताक मियां, मजबूरी की बात कर के मुझे बेवकूफ मत बनाओ. मैं जानता हूं कि तुम जैसे गरीब तबके के लोगों की नीयत बहुत गंदी होती है. तुम्हें हर चीज में अपना हिस्सा चाहिए. ठीक है, वह भी तुम्हें दूंगा और पूरा दूंगा.

‘‘इसीलिए तो तुम लोग सच्चे और ईमानदार बनने का नाटक करते हो. घबराओ मत, मैं भी जबान का पक्का हूं, जो कह दिया, सो कह दिया.’’

ठेकेदार अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ. उस ने अपना दायां हाथ मुस्ताक के कंधे पर रख दिया. इस तरह वह उस का यकीन जीतना चाहता था.

मुस्ताक को चुप देख कर ठेकेदार ने कहा, ‘‘पुल के गिरने वाली बात को अपने मन से निकाल दो. अगर यह पुल गिर भी गया, तब भी न तो मेरा कुछ बिगड़ेगा और न ही तुम्हारा.

‘‘मेरे पास तो अपनी 2 कारें हैं, इसलिए मैं कभी भी रेलगाड़ी में नहीं बैठूंगा. रही बात तुम्हारी, तो तुम्हारे पास इतना पैसा ही नहीं होता कि तुम रेल में बैठ कर सफर करो.’’

ठेकेदार को अचानक महसूस हुआ कि वह मुस्ताक के सामने कुछ ज्यादा ही झुक गया है. मुस्ताक इस बात को उस की कमजोरी मान कर उस पर हावी होने की कोशिश जरूर करेगा, इसलिए उस ने अपना हाथ मुस्ताक के कंधे से दूर किया. फिर अपने लहजे को कुछ कठोर बनाते हुए ठेकेदार ने कहा, ‘‘और अगर अब भी तुम यह काम नहीं करना चाहते, तो कल से तुम्हारी छुट्टी. और कोई आ जाएगा यह काम करने के लिए. कोई कमी नहीं है यहां कारीगरों की. अब जाओ, मेरा सिर मत खाओ.’’

ऐसा कहते हुए ठेकेदार बेफिक्र हो कर फिर से अपने बिस्तर पर जा बैठा और प्लेट से चिकन का टुकड़ा उठा कर आंखें बंद कर के चबाने लगा.

‘‘तो ठीक है साहब, कल से आप किसी और कारीगर को बुला लें.’’

अचानक मुस्ताक मियां के मुंह से निकले इन शब्दों को सुन कर ठेकेदार को ऐसा लगा, मानो उस के गालों पर कोई तड़ातड़ तमाचे जड़ रहा हो. उस की आंखें अपनेआप खुल गईं. उस ने देखा कि मुस्ताक वहां नहीं था. उस के लौटते कदमों की दूर होती आवाज साफ सुनाई पड़ रही थी. Hindi Social Story

लेखक- रामकुमार आत्रेय

Moral Story in Hindi: कचरे वाले

Moral Story in Hindi: मैं ने अपने कचरे की थैली कचरे के ढेर में फेंक दी. ऐसा लगा मानो सारा तनाव फुर्र हो गया हो.

मंगलवार की सुबह औफिस के लिए निकलते वक्त पत्नी ने आवाज दी, ‘‘आज जाते समय यह कचरा लेते जाइएगा, 2 दिनों से पड़ेपड़े दुर्गंध दे रहा है.’’ मैं ने नाश्ता करते हुए घड़ी पर नजर डाली, 8 बजने में 10 मिनट बाकी थे.

‘‘ठीक है, मैं देखता हूं,’’ कह कर मैं नाश्ता करने लगा. साढ़े 8 बज चुके थे. मैं तैयार हो कर बालकनी में खड़ा मल्लपा की राह देख रहा था. कल बुधवार है यानी सूखे कचरे का दिन. अगर आज यह नहीं आया तो गुरुवार तक कचरे को घर में ही रखना पड़ेगा.

बेंगलुरु नगरनिगम का नियम है कि रविवार और बुधवार को केवल सूखा कचरा ही फेंका जाए और बाकी दिन गीला. इस से कचरे को सही तरह से निष्क्रिय करने में मदद मिलती है. यदि हम ऐसा नहीं करते तो मल्लपा जैसे लोगों को हमारे बदले यह सब करना पड़ता है. मल्लपा हमारी कालोनी के कचरे ढोने वाले लड़के का नाम था. वैसे तो बेंगलुरु के इस इलाके, केंपापुरा, में वह हमेशा सुबहसुबह ही पहुंच जाता था लेकिन पिछले 2 दिनों से उस का अतापता न था.

मैं ने घड़ी पर फिर नजर दौड़ाई,

5 मिनट बीत चुके थे. मैं ने हैलमैट सिर पर लगाया और कूड़ेदान से कचरा निकाल कर प्लास्टिक की थैली में भरने लगा.

कचरे की थैली हाथ में लिए 5 मिनट और बीत गए, लेकिन मल्लपा का अतापता न था.

मैं ने तय किया कि सोसाइटी के कोने पर कचरा रख कर औफिस निकल लूंगा. दबेपांव मैं अपने घर के बरामदे से बाहर निकला और सोसाइटी के गेट के पास कचरा रखने लगा.

‘‘खबरदार, जो यहां कचरा रखा तो,’’ पीछे से आवाज आई. मैं सकपका गया. देखा तो पीछे नीलम्मा अज्जी खड़ी थीं. ‘‘अभी उठाओ इसे, मैं कहती हूं, अभी उठाओ.’’

‘‘पर अज्जी, मैं क्या करूं, मल्लपा आज भी नहीं आया,’’ मैं ने सफाई देने की कोशिश की.

‘‘जानती हूं, लेकिन सोसाइटी की सफाई तो मुझे ही देखनी होती है न. तुम तो यहां कचरा छोड़ कर औफिस चल दोगे, आवारा कुत्ते आ कर सारा कचरा इधरउधर बिखेर देंगे, फिर साफ तो मुझे ही करना होगा न,’’ उन का स्वर तेज था. मैं ने कचरा वापस कमरे में रखने में ही भलाई समझी.

‘‘तुम तो गाड़ी से औफिस जाते हो, इस कूड़े को रास्ते में किसी कूडे़दान में क्यों नहीं फेंक देते,’’ उन्होंने सलाह दी. ‘‘बात तो ठीक कहती हो अज्जी, घर में रखा तो यह ऐसे ही दुर्गंध देता रहेगा,’’ यह कह कर कचरे का थैला गाड़ी की डिग्गी में डाल लिया, सोचा कि रास्ते में किसी कूड़े के ढेर में फेंक दूंगा.

सफाई के मामले में वैसे तो बेंगलुरु भारत का नंबर एक शहर है, लेकिन कूड़े का ढेर ढूंढ़ने में ज्यादा दिक्कत यहां भी नहीं होती. मैं अभी कुछ ही दूर गया था कि सड़क के किनारे कूड़े का एक बड़ा सा ढेर दिख गया. मैं ने कचरे से छुटकारा पाने की सोच, गाड़ी रोक दी. अभी डिग्गी खोली भी नहीं थी कि एक बच्ची मेरे सामने आ कर खड़ी

हो गई.

‘‘अंकल, क्या आप मेरी हैल्प कर दोगे, प्लीज.’’

‘‘हां बेटा, बोलो, आप को क्या हैल्प चाहिए,’’ मैं ने उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा.

उस ने झट से अपने साथ के 2 बच्चों को बुलाया जो वहां सड़क के किनारे अपनी स्कूलबस का इंतजार कर रहे थे. उन में से एक से बोली, ‘‘गौरव, वह बोर्ड ले आओ, अंकल हमारी हैल्प कर देंगे.’’

गौरव भाग कर गया और अपने साथ एक छोटा सा गत्ते का बोर्ड ले आया. उस के साथ 3-4 बच्चे और मेरी गाड़ी के पास आ कर खड़े हो गए. छोटी सी एक बच्ची ने वह गत्ते का बोर्ड मुझे थमाते हुए कहा, ‘‘अंकल, आप यह बोर्ड यहां ऊपर टांग दीजिए, प्लीज.’’

‘‘बस, इतनी सी बात,’’ कह कर मैं ने वह बोर्ड वहां टांग दिया.

बोर्ड पर लिखा था, ‘कृपया यहां कचरा न फेंकें, यह हम बच्चों का स्कूलबस स्टौप है.’

बोर्ड टंगा देख सभी बच्चे तालियां बजाने लगे. मैं ने एक नजर अपनी बंद पड़ी डिग्गी पर दौड़ाई और वहां से निकल पड़ा.

कोई बात नहीं, घर से औफिस का सफर 20 किलोमीटर का है, कहीं न कहीं तो कचरे वालों का एरिया होगा, यह सोच मैं ने मन को धीरज बंधाया और गाड़ी चलाने लगा.

आउटर रिंग रोड पर गाड़ी चलते समय कहीं भी कचरे का ढेर नहीं दिखा तो हेन्नुर क्रौसिंग से आगे बढ़ने पर मैं ने लिंग्रज्पुरम रोड पकड़ ली. मैं ने सोचा कि रैजिडैंशियल एरिया में तो जरूर कहीं न कहीं कचरे का ढेर मिलेगा या हो सकता है कि कहीं कचरे वालों की कोई गाड़ी ही मिल जाए.

अभी थोड़ी दूर ही चला था कि रास्ते में गौशाला दिख गई. साफसुथरे कपड़े पहने लोगों के बीच कुछ छोटीमोटी दुकानें थीं और पास ही कचरे का ढेर भी लगा था, लेकिन यह क्या, वहां तो गौशाला के कुछ कर्मचारी सफाई करने में लगे थे.

मैं ने गाड़ी की रफ्तार और तेज कर दी और सोचने लगा कि इस कचरे को आज डिग्गी में ही ढोना पड़ेगा.

लिंग्रज्पुरम फ्लाईओवर पार करने के बाद मैं लेजर रोड पर गाड़ी चला रहा था. एमजी रोड जाने के लिए यहां से 2 रास्ते जाते थे. एक कमर्शियल स्ट्रीट से और दूसरा उल्सूर लेक से होते हुए. उल्सूर लेक के पास गंदगी ज्यादा होगी, यह सोच कर मैं ने गाड़ी उसी तरफ मोड़ दी.

अनुमान के मुताबिक मैं बिलकुल सही था. रोड के किनारे लगी बाड़ के उस पार कचरे का काफी बड़ा ढेर था. थोड़ा और आगे बढ़ा तो 2-3 महिलाएं कचरे के एक छोटे से ढेर से सूखा व गीला कचरा अलग कर रही थीं.

उन्हें नंगेहाथों से ऐसे करते देख मुझे बड़ी घिन्न आई. थोड़ी ग्लानि भी हुई. हम अपने घरों में छोटीछोटी गलतियां करते हैं सूखे और गीले कचरे को अलग न कर के. यहां इन बेचारों को यह कचरा अपने हाथों से बिनना पड़ता है.

मुझे डिग्गी में रखे कचरे का खयाल आया, जो ऐसे ही सूखे और गीले कचरे का मिश्रण था. मन ग्लानि से भर उठा. धीमी चल रही गाड़ी फिर तेज हो गई और मैं एमजी रोड की तरफ बढ़ गया.

एमजी रोड बेंगलुरु के सब से साफसुथरे इलाकों में से एक है.

चौड़ीचौड़ी सड़कें और कचरे का कहीं नामोनिशान नहीं. सफाई में लगे कर्मचारी वहां भी धूल उड़ाते दिख रहे थे.

लेकिन मुझे जेपी नगर जाना था. इसीलिए मैं ने बिग्रेड रोड वाली लेन पकड़ ली. सोचा शायद यहां कहीं कूड़ेदान मिल जाए, लेकिन लगता है, इस सूखेगीले कचरे के मिश्रण की लोगों की आदत सुधारने के लिए नगरनिगम ने कूड़ेदान ही हटा दिए थे.

शांतिनगर, डेरी सर्किल, जयदेवा हौस्पिटल होते हुए अब मैं अपने औफिस के नजदीक वाले सिग्नल पर खड़ा था. सामने औफिस की बड़ी बिल्डिंग साफ नजर आ रही थी. वहां कचरा ले जाने की बात सोच कर मन में उथलपुथल मच गई.

आसपास नजर दौड़ाई तो सामने कचरे की एक छोटी सी हाथगाड़ी खड़ी थी और गाड़ी चलाने वाली महिला कर्मचारी पास में ही कचरा बिन रही थी. यह सूखे कचरे की गाड़ी थी.

मैं ने मन ही मन सोचा, ‘यही मौका है, जब तक वह वहां कचरा बिनती है, मैं अपने कचरे की थैली को उस की गाड़ी में डाल के निकल लेता हूं,’ था तो यह गलत, क्योंकि उस बेचारी ने सूखा कचरा जमा किया था और मैं उस में मिश्रित कचरा डाल रहा था, लेकिन मेरे पास और कोई उपाय नहीं था.

मैं ने साहस कर के गाड़ी की डिग्गी खोली, लेकिन इस से पहले कि मैं कचरा निकाल पाता, सिग्नल ग्रीन हो गया.

पीछे से गाडि़यों का हौर्न सुन कर मैं ने अपनी गाड़ी वहां से निकालने में ही भलाई समझी.

अब मैं औफिस के अंदर पार्किंग में था. कचरा रखने से कपड़े की बनी डिग्गी भरीभरी दिख रही थी.

मैं ने गाड़ी लौक की और लिफ्ट की तरफ जाने लगा, तभी सिक्योरिटी गार्ड ने मुझे टोक दिया, ‘‘सर, कहीं आप डिग्गी में कुछ भूल तो नहीं रहे,’’ उस ने उभरी हुई डिग्गी की तरफ इशारा किया.

‘‘नहींनहीं, उस में कुछ इंपौर्टेड सामान नहीं है,’’ मैं ने झेंपते हुए कहा और लिफ्ट की तरफ लपक लिया.

औफिस में दिनभर काम करते हुए एक ही बात मन में घूम रही थी कि कहीं, कोई जान न ले कि मैं घर का कचरा भी औफिस ले कर आता हूं. न जाने इस से कितनी फजीहत हो.

बहरहाल, शाम हुई. मैं औफिस से जानबूझ कर थोड़ी देर से निकला ताकि अंधेरे में कचरा फेंकने में कोई दिक्कत न हो.

गाड़ी स्टार्ट की और घर की तरफ निकल लिया, फिर से वही रास्ता. फिर से वही कचरे के ढेर. इस बार कोई बंदिश न थी और न ही कोई रोकने वाला, लेकिन फिर भी मैं कचरा नहीं फेंक पाया.

कचरे के ढेर आते रहे और मैं दृढ़मन से गाड़ी आगे बढ़ाता रहा. न जाने क्या हो गया था मुझे.

अब कुछ ही देर में घर आने वाला था. सुबह निकलते वक्त पत्नी की बात याद आई, ‘अंदर से आवाज आई, छोड़ो यह सब सोचना. एक तुम्हारे से थोड़े न, यह शहर इतना साफ हो जाएगा.’

मैं ने सोसाइटी के पीछे वाली सड़क पकड़ ली. लगभग 1 किलोमीटर दूर जाने के बाद एक कचरे का ढेर और दिखा. मैं ने गाड़ी रोकी, डिग्गी खोली और कचरा ढेर के हवाले कर दिया.

सुबह से जो तनाव था वह अचानक

से फुर्र हो गया. मन को थोड़ी

राहत मिली. रास्तेभर से जो जंग मन में चल रही थी, वह अब जीती सी लग रही थी.

तभी सामने एक औटोरिकशा आ कर रुका, देखा तो मल्लपा अपनी बच्ची को गोद में लिए उतर रहा था.

‘‘नमस्ते सर, आप यहां.’’

‘‘नहीं, मैं बस यों ही, और तुम यहां? कहां हो इतने दिनों से, आए नहीं?’’

‘‘मेरा तो घर यहीं पीछे है. क्या बताऊं सर, मेरी बच्ची की तबीयत बहुत खराब है. बस, इसी की तिमारदारी में लगा हूं 2 दिनों से.’’

‘‘क्या हुआ इसे?’’

‘‘संक्रमण है, डाक्टर कहता है कि गंदगी की वजह से हुआ है.’’

‘‘ठीक तो कहा डाक्टर ने, थोड़ी साफसफाई रखो,’’ मैं ने सलाह दी.

‘‘अब साफ जगह कहां से लाएं. हम तो कचरे वाले हैं न, सर,’’ यह कह कर मुसकराता हुआ वह अपने घर की ओर चल दिया.

सामने उस का घर था, बगल में कचरे का ढेर. वहां खड़ा मैं, अब, हारा हुआ सा महसूस कर रहा था. Moral Story in Hindi

Family Story: शादी के कंगन

Family Story: पंकज दफ्तर से देर से निकला और सुस्त कदमों से बाजार से होते हुए घर की ओर चल पड़ा. वह राह में एक दुकान पर रुक कर चाय पीने लगा. चाय पीते हुए उस ने पीछे मुड़ कर ‘भारत रंगालय’ नामक नाट्यशाला की इमारत की ओर देखा. सामने मुख्यद्वार पर एक बैनर लटका था, ‘आज का नाटक-शेरे जंग, निर्देशक-सुधीर कुमार.’

सुधीर पंकज का बचपन का दोस्त था. कालेज के दिनों से ही उसे रंगमंच में बहुत दिलचस्पी थी. वैसे तो वह नौकरी करता था किंतु उस की रंगमंच के प्रति दिलचस्पी जरा भी कम नहीं हुई थी. हमेशा कोई न कोई नाटक करता ही रहता था.

चाय पी कर वह चलने को हुआ तो सोचा कि सुधीर से मिल ले, बहुत दिन हुए उस से मुलाकात हुए. उस का नाटक देख लेंगे तो थोड़ा मन बहल जाएगा. वह टिकट ले कर हौल के अंदर चला गया.

नाटक खत्म होने के बाद दोनों मित्र फिर चाय पीने बैठे. सुधीर ने पूछा, ‘‘यार, तुम इतनी दूर चाय पीने आते हो?’’

पंकज ने उदास स्वर में जवाब दिया, ‘‘दफ्तर से पैदल लौट रहा था. सोचा, चाय पी लूं और तुम्हारा नाटक भी देख लूं. बहुत दिन हो गए तुम्हारा नाटक देखे.’’

सुधीर ने उस का झूठ ताड़ लिया. पंकज के उदास चेहरे को गौर से देखते हुए उस ने पूछा, ‘‘तुम्हारा दफ्तर इतनी देर तक खुला रहता है? क्या बात है? इतना बुझा हुआ चेहरा क्यों है?’’

पंकज ने ‘कुछ नहीं’ कह कर बात टालनी चाही तो सुधीर चाय के पैसे देते हुए बोला, ‘‘चलो, मैं भी चलता हूं तुम्हारे साथ. काफी दिन से भाभीजी से भी भेंट नहीं हुई है.’’

‘‘आज नहीं, किसी दूसरे दिन,’’ पंकज ने घबरा कर कहा.

सुधीर ने पंकज की बांह पकड़ ली, ‘‘क्या बात है? कुछ आपस में खटपट हो गई है क्या?’’

पंकज ने फिर ‘कोई खास बात नहीं है’ कह कर बात टालनी चाही, लेकिन सुधीर पीछे पड़ गया, ‘‘जरूर कोई बात है, आज तक तो तुझे इतना उदास कभी नहीं देखा. बताओ, क्या बात है? अगर कोई बहुत निजी बात हो तो…?’’

पंकज थोड़ा हिचकिचाया. फिर बोला, ‘‘निजी क्या? अब तो बात आम हो गई है. दरअसल बात यह है कि आमदनी कम है और सुषमा के शौक ज्यादा हैं. अमीर घर की बेटी है, फुजूलखर्च की आदत है. परेशान रहता हूं, रोज इसी बात पर किचकिच होती है. दिमाग काम ही नहीं करता.’’

‘‘वाह यार,’’ सुधीर उस की पीठ पर हाथ मार कर बोला, ‘‘तुम्हें जितनी तनख्वाह मिलती है, क्या उस में 2 आदमियों का गुजारा नहीं हो सकता है? बस, अभी 3-4 साल तक बच्चा पैदा नहीं करना. मैं तुम से कम तनख्वाह पाता हूं, लेकिन हम दोनों पतिपत्नी आराम से रहते हैं. हां, फालतू खर्च नहीं करते.’’

‘‘वह तो ठीक है, लेकिन इंसान गुजारा करना चाहे तब तो? खर्च का कोई ठिकाना है? जितना बढ़ाओ, बढ़ेगा. सुषमा इस बात को समझने को तैयार नहीं है,’’ पंकज ने मायूसी से कहा.

‘‘यार, समझौता तो करना ही होगा. अभी तो नईनई शादी हुई है, अभी से यह उदासी और झिकझिक. तुम दोनों तो शादी के पहले ही एकदूसरे को जानते थे, फिर इन 5-6 महीनों में ही…’’

पंकज उठ गया और उदास स्वर में बोला, ‘‘शुरू में सबकुछ सामान्य व सहज था, किंतु इधर 1-2 महीनों से…अब सुषमा को कौन समझाए.’’

सुधीर ने झट से कहा, ‘‘मैं समझा दूंगा.’’

पंकज ने घबरा कर उस की ओर देखा, ‘‘अरे बाप रे, मार खानी है क्या?’’

सुधीर ठठा कर हंस पड़ा, ‘‘लगता है, तू बीवी से रोज मार खाता है,’’ फिर वह पंकज की बांह पकड़ कर थिएटर की ओर ले गया, ‘‘तो चल, तुझे ही समझाता हूं. आखिर मैं एक अभिनेता हूं. तुझे कुछ संवाद रटा देता हूं. देखना, सब ठीक हो जाएगा.’’

पंकज को घर लौटने में काफी देर हो गई. लेकिन वह बड़े अच्छे मूड में घर के अंदर घुसा. सुषमा के झुंझलाए चेहरे की ओर ध्यान न दे कर बोला, ‘‘स्वीटी, जरा एक प्याला चाय जल्दी से पिला दो, थक गया हूं, आज दफ्तर में काम कुछ ज्यादा था. अगर पकौड़े भी बना दो तो मजा आ जाए.’’

सुषमा ने उसे आश्चर्य और क्रोध से घूर कर देखा. फिर झट से रसोईघर से प्याला और प्लेट ला कर उस की ओर जोर से फेंकती हुई चिल्लाई, ‘‘लो, यह रहा पकौड़ा और यह रही चाय.’’

पंकज ने बचते हुए कहा, ‘‘क्या कर रही हो? चाय की जगह भूकंप कैसे? यह घर है कि क्रिकेट का मैदान? घर के बरतनों से ही गेंदबाजी, वह भी बंपर पर बंपर.’’

उस के मजाक से सुषमा का पारा और भी चढ़ गया, ‘‘न तो यह घर है और न  ही क्रिकेट का मैदान. यह श्मशान है श्मशान.’’

‘‘यह भी कोई बात हुई. पति दिनभर दफ्तर में काम करे और जब थक कर घर लौटे तो पत्नी उस का स्वागत प्रेम की मीठी मुसकान से न कर के शब्दों की गोलियों और तेवरों के तीरों से करे?’’

‘‘यह घर नहीं, कैदखाना है और कैदखाने में बंद पत्नी अपने पति का स्वागत मीठी मुसकान से नहीं कर सकती, पति महाशय.’’

पंकज ने सुषमा की ओर डर कर देखा. फिर मुसकरा कर समझाने के स्वर में बोला, ‘‘यह भी कोई बात हुई सुषमा, घर को कैदखाना कहती हो? यह तो मुहब्बत का गुलशन है.’’

किंतु सुषमा ने चीख कर उत्तर दिया, ‘‘कैदखाना नहीं तो और क्या कहूं? मैं दिनरात नौकरानी की तरह काम करती हूं. अब मुझ से घर का काम नहीं होगा.’’

‘‘अभी तो हमारी शादी को चंद महीने हुए हैं. हमें तो पूरी जिंदगी साथसाथ गुजारनी है. फिर पत्नी का तो कर्तव्य है, घर का कामकाज करना.’’

सुषमा ने पंकज की ओर तीखी नजरों से देखा, ‘‘सुनो जी, घर चलाना है तो नौकर रख लो या होटल में खाने का इंतजाम कर लो, नहीं तो इस हालत में तुम्हें पूरी जिंदगी अकेले ही गुजारनी होगी. अब मैं एक दिन भी तुम्हारे साथ रहने को तैयार नहीं हूं. मैं चली.’’

सुषमा मुड़ कर जाने लगी तो पंकज उस के पीछे दौड़ा, ‘‘कहां चलीं? रुको. जरा समझने की कोशिश करो. देखो, अब इतने कम वेतन में नौकर रखना या होटल में खाना कैसे संभव है?’’

सुषमा रुक गई. उस ने गुस्से में कहा, ‘‘इतनी कम तनख्वाह थी तो शादी करने की क्या जरूरत थी. तुम ने मेरे मांबाप को धोखा दे कर शादी कर ली. अगर वे जानते कि वे अपनी बेटी का हाथ एक भिखमंगे के हाथ में दे रहे हैं तो कभी तैयार नहीं होते. अगर तुम अपनी आमदनी नहीं बढ़ा सकते तो मैं अपने मांबाप के घर जा रही हूं. वे अभी जिंदा हैं.’’

पंकज कहना चाहता था कि उस के बारे में पूरी तरह से उस के मांबाप जानते थे और वह भी जानती थी, कहीं धोखा नहीं था. शादी के वक्त तो वह सब को बहुत सुशील, ईमानदार और खूबसूरत लग रहा था. लेकिन वह इतनी बातें नहीं बोल सका. उस के मुंह से गलती से निकल गया, ‘‘यही तो अफसोस है.’’

सुषमा ने आगबबूला हो कर उस की ओर देखा, ‘‘क्या कहा? मेरे मातापिता के जीवित रहने का तुम्हें अफसोस है?’’

पंकज ने झट से बात मोड़ी, ‘‘नहीं, कुछ नहीं. मेरे कहने का मतलब यह है कि अगर गृहस्थी की गाड़ी का पहिया पैसे के पैट्रोल से चलता है तो उस में प्यार का मोबिल भी तो जरूरी है. क्या रुपया ही सबकुछ है?’’

‘‘हां, मेरे लिए रुपया ही सबकुछ है. इसलिए मैं चली मायके. तुम अपनी गृहस्थी में प्यार का मोबिल डालते रहो. अब बनावटी बातों से काम नहीं चलने का. मैं चली अपना सामान बांधने.’’

सुषमा ने अंदर आ कर अपना सूटकेस निकाला और जल्दीजल्दी कपड़े वगैरह उस में डालने लगी. पंकज बगल में खड़ा समझाने की कोशिश कर रहा था, ‘‘जरा धैर्य से काम लो, सुषमा. हम अभी फालतू खर्च करने लगेंगे तो कल हमारी गृहस्थी बढ़ेगी. बालबच्चे होंगे लेकिन अभी नहीं, 4-5 साल बाद होंगे न. तो फिर कैसे काम चलेगा?’’

सुषमा ने उस की ओर चिढ़ कर देखा, ‘‘बीवी का खर्च तो चला नहीं सकते और बच्चों का सपना देख रहे हो, शर्म नहीं आती?’’

‘‘ठीक है, अभी नहीं, कुछ साल बाद ही सही, जब मेरी तनख्वाह बढ़ जाएगी, कुछ रुपए जमा हो जाएंगे, ठीक है न? अब शांत हो जाओ.’’

किंतु सुषमा अपना सामान निकालती रही. वह क्रोध से बोली, ‘‘अब तुम्हारी पोल खुल गई है. मैं इसी वक्त जा रही हूं.’’

‘‘आखिर अपने मायके में कब तक रहोगी? लोग क्या कहेंगे?’’

‘‘लोग क्या कहेंगे, इस की चिंता तुम करो. अब मैं लौट कर नहीं आने वाली.’’

पंकज चौंक पड़ा, ‘‘लौट कर नहीं आने वाली? तुम जीवनभर मायके में ही रहोगी?’’

सुषमा ने जोर दे कर कहा, ‘‘हांहां, और मैं वहां जा कर तुम्हें तलाक दे दूंगी, तुम जैसे मर्दों को अकेले ही रहना चाहिए.’’

पंकज हतप्रभ हो गया, ‘‘तलाक, क्या बकती हो? होश में तो हो?’’

‘‘हां, अब मैं होश में आ गई हूं. बेहोश तो अब तक थी. अब वह जमाना गया जब औरत गाय की तरह खूंटे से बंधी रहती थी,’’ सुषमा ने चाबियों का गुच्छा जोर से पंकज की ओर फेंका, ‘‘लो अपनी चाबियां, मैं चलती हूं.’’

सुषमा अपना सामान उठा कर बाहर के दरवाजे की ओर बढ़ी. पंकज ने कहा, ‘‘सुनो तो, रात को कहां जाओगी? सुबह चली जाना, मैं वादा करता हूं…’’

उसी वक्त दरवाजे पर जोरों की दस्तक हुई. पंकज ने उधर देखा, ‘‘अब यह बेवक्त कौन आ गया? लोग कुछ समझते ही नहीं. पतिपत्नी के प्रेमालाप में कबाब में हड्डी की तरह आ टपकते हैं. देखना तो सुषमा, कहीं वह बनिया उधार की रकम वसूलने तो नहीं आ गया. कह देना कि मैं नहीं हूं.’’

लेकिन सुषमा के तेवर पंकज की बातों से ढीले नहीं पड़े. उस ने हाथ झटक कर कहा, ‘‘तुम ही जानो अपना हिसाब- किताब और खुद ही देख लो, मुझे कोई मतलब नहीं.’’

दरवाजे पर लगातार दस्तक हो रही थी.

‘‘ठीक है भई, रुको, खोलता हूं,’’ कहते हुए पंकज ने दरवाजा खोला और ठिठक कर खड़ा हो गया. उस के मुंह से ‘बाप रे’ निकल गया.

सुषमा भी चौंक कर देखने लगी. एक लंबी दाढ़ी वाला आदमी चेहरे पर नकाब लगाए अंदर आ गया था. उस ने झट से दरवाजा बंद करते हुए कड़कती आवाज में कहा, ‘‘खबरदार, जो कोई अपनी जगह से हिला.’’

पंकज ने हकलाते हुए कहा, ‘‘आप कौन हैं भाई? और क्या चाहते हैं?’’

उस आदमी ने कहा, ‘‘मैं कौन हूं, उस से तुम्हें कोई मतलब नहीं. घर में जो भी गहनारुपया है, सामने रख दो.’’

पंकज को ऐसी परिस्थिति में भी हंसी आ गई, ‘‘क्या मजाक करते हैं दाढ़ी वाले महाशय, अगर इस घर में रुपया ही होता तो रोना किस बात का था. आप गलत जगह आ गए हैं. मैं आप को सही रास्ता दिखला सकता हूं. मेरे ससुर हैं गनपत राय, उन का पता बताए देता हूं. आप उन के यहां चले जाइए.’’

सुषमा बिगड़ कर बोली, ‘‘क्या बकते हो, जाइए.’’

किंतु आगंतुक ने उन की बातों पर ध्यान नहीं दिया. उस ने बड़े ही नाटकीय अंदाज में जेब से रिवाल्वर निकाला और उसे हिलाते हुए कहा, ‘‘जल्दी माल निकालो वरना काम तमाम कर दूंगा. देवी जी, जल्दी से सब गहने निकालिए.’’

सुषमा चुपचाप खड़ी उस की ओर देखती रही तो उस ने रिवाल्वर पंकज की ओर घुमा दिया, ‘‘मैं 3 तक गिनूंगा, उस के बाद आप के पति पर गोली चला दूंगा.’’

पंकज ने सोचा, ‘सुषमा कहेगी कि उसे क्या परवा. वह तो पति को छोड़ कर मायके जा रही है.’ किंतु जैसे ही आगंतुक ने 1…2…गिना, सुषमा हाथ उठा कर बेचैन स्वर में बोली, ‘‘नहीं, नहीं, रुको, मैं तुरंत आती हूं.’’

नकाबपोश गर्व से मुसकराया और सुषमा जल्दी से शयनकक्ष की ओर भागी. वह तुरंत अपने गहनों का बक्सा ले कर आई और आगंतुक के हाथों में देते हुए बोली, ‘‘लीजिए, हम लोगों के पास रुपए तो नहीं हैं, ये शादी के कुछ गहने हैं. इन्हें ले जाइए और इन की जान  छोड़ दीजिए.’’

नकाबपोश रिवाल्वर नीची कर के व्यंग्य से मुसकराया, ‘‘कमाल है, एकाएक आप को अपने पति के प्राणों की चिंता सताने लगी. बाहर से आप लोगों की अंत्याक्षरी सुन रहा था. ऐसे नालायक पति के लिए तो आप को कोई हमदर्दी नहीं होनी चाहिए. जब आप को तलाक ही देना है, अकेले ही रहना है तो कैसी चिंता? यह जिंदा रहे या मुर्दा?’’

सुषमा क्रोध से बोली, ‘‘जनाब, आप को हमारी आपसी बातों से क्या मतलब? आप जाइए यहां से.’’

पंकज खुश हो गया, ‘‘यह हुई न बात, ऐ दाढ़ी वाले महाशय, पतिपत्नी की बातों में दखलंदाजी मत कीजिए. जाइए यहां से.’’

आगंतुक हंस कर सुषमा की ओर मुड़ा, ‘‘जा रहा हूं, लेकिन मेमसाहब, एक और मेहरबानी कीजिए. अपने कोमल शरीर से इन गहनों को भी उतार दीजिए. यह चेन, अंगूठी, झुमका. जल्दी कीजिए.’’

सुषमा पीछे हट गई, ‘‘नहीं, अब मैं तुम्हें कुछ भी नहीं दूंगी.’’

नकाबपोश ने रिवाल्वर फिर पंकज की ओर ताना, ‘‘तो चलाऊं गोली?’’

सुषमा ने चिल्ला कर कहा, ‘‘लो, ये भी ले लो और भागो यहां से.’’

वह शरीर के गहने उतार कर उस की ओर फेंकने लगी. नकाबपोश गहने उठा कर इतमीनान से जेब में रखता गया. पंकज भौचक्का देखता रहा.

आगंतुक ने जब गहने जेब में रखने के बाद सुषमा की कलाइयों की ओर इशारा किया, ‘‘अब ये कंगन भी उतार दीजिए.’’

सुषमा ने दृढ़ स्वर में कहा, ‘‘नहीं, ये कंगन नहीं दूंगी.’’

वे शादी के कंगन थे, जो पंकज ने दिए थे.

आगंतुक ने सुषमा की ओर बढ़ते हुए कहा, ‘‘मुझे मजबूर मत कीजिए, मेमसाहब. आप ने जिद की तो मुझे खुद कंगन उतारने पड़ेंगे, लाइए, इधर दीजिए.’’

अब पंकज का पुरुषत्व जागा. वह कूद कर उन दोनों के नजदीक पहुंचा, ‘‘तुम्हारी इतनी हिम्मत कि मेरी पत्नी का हाथ पकड़ो? खबरदार, छोड़ दो.’’

नकाबपोश ने रिवाल्वर हिलाया, ‘‘जान प्यारी है तो दूर ही रहो.’’

लेकिन पंकज रिवाल्वर की परवा न कर के उस से लिपट गया.

तभी ‘धांय’ की आवाज हुई और पंकज कराह कर सीना पकड़े गिर गया. आगंतुक के रिवाल्वर से धुआं निकल रहा था. सुषमा कई पलों तक हतप्रभ खड़ी रही. फिर वह चीत्कार कर उठी, ‘‘हत्यारे, जल्लाद, तुम ने मेरे पति को मार  डाला. मैं तुम्हें जिंदा नहीं छोड़ूंगी.’’

नकाबपोश जल्दी से दरवाजे की ओर बढ़ते हुए बोला, ‘‘मैडम, आप नाहक अफसोस कर रही हैं. आप को इस नालायक पति से तो अलग होना ही था. मैं ने तो आप की मदद ही की है.’’

सुषमा का चेहरा आंसुओं से भीग गया. उस की आंखों में दर्द के साथ आक्रोश की चिंगारियां भी थीं. आगंतुक डर सा गया.

सुषमा उस की ओर शेरनी की तरह झपटी, ‘‘मैं तेरा खून पी जाऊंगी. तू जाता कहां है?’’ और वह उसे बेतहाशा पीटने लगी.

नकाबपोश नीचे गिर पड़ा और चिल्ला कर बोला, ‘‘अरे, मर गया, भाभीजी, क्या कर रही हैं, रुकिए.’’

सुषमा उसे मारती ही गई, ‘‘हत्यारे, मुझे भाभी कहता है?’’

आगंतुक ने जल्दी से अपनी दाढ़ी को नोच कर हटा दिया और चिल्लाया, ‘‘देखिए, मैं आप का प्यारा देवर सुधीर हूं.’’

सुषमा ने अवाक् हो कर देखा, वह सुधीर ही था.

सुधीर कराहते हुए उठा, ‘‘भाभीजी, केवल यह दाढ़ी ही नकली नहीं है यह रिवाल्वर भी नकली है.’’

सुषमा ने फर्श पर गिरे पंकज की ओर देखा.

तब वह भी मुसकराता हुआ उठ कर खड़ा हो गया, ‘‘हां, और यह मौत भी नकली थी. अब मैं यह कह सकता हूं कि हर पति को यह जानने के लिए कि उस की पत्नी वास्तव में उस से कितना प्यार करती है, एक बार जरूर मरना चाहिए.’’

सुधीर और पंकज ने ठहाका लगाया और सुषमा शरमा गई.

सुधीर हाथ जोड़ कर माफी मांगते हुए बोला, ‘‘भाभीजी, हमारी गलती को माफ कीजिए. आप दोनों एकदूसरे से बहुत प्यार करते हैं. उस में जो थोड़ा व्यवधान हो गया था उसे ही दूर करने के लिए यह छोटा सा नाटक करना पड़ा.’’

सुषमा ने हंस कर कहा, ‘‘जाओ, माफ किया.’’

‘‘भाभीजी, आमदनी के अनुसार जरूरतों को समेट लिया जाए तो पतिपत्नी हमेशा  प्यार और आनंद से रह सकते हैं,’’ सुधीर ने समझाने के लहजे में कहा तो सुषमा ने हंस कर सहमति में सिर हिला दिया. Family Story

Family Kahani: न खत्म होने वाली सजा

Family Kahani: ‘‘मां,   मां, कहां चली गईं?’’?  रेणु की आवाज सुन कर मैं पीछे मुड़ी.

‘‘तो यहां हैं आप. सारे घर में ढूंढ़ रही हूं और आप हैं कि यहां अंधेरे कमरे में अकेली बैठी हैं. अब तक तैयार भी नहीं हुईं. हद हो गई. हर साल आज के दिन आप के दिल पर न जाने क्यों इतनी उदासी छा जाती है,’’ रेणु अपनी धुन में बोलती जा रही थी.

आज पहली अप्रैल है. आज भला मैं कैसे खुश रह सकती हूं? आज मेरी मृत बेटी प्रिया का जन्मदिन है. 25 वर्ष पूर्व आज ही के दिन मैं ने ‘प्रियाज हैप्पी होम’ की स्थापना की थी. आज उस की रजत जयंती का समारोह आयोजित किया गया है.

‘‘चलिए, जल्दी तैयार हो जाइए. पापा सीधे समारोह में ही पहुंच रहे हैं. अनाथाश्रम से 2-3 बार फोन आ चुका है कि हम घर से निकले हैं या नहीं.’’

‘‘कितनी बार कहा है तुम से कि अनाथाश्रम मत कहा करो. वह भी तो अपना ही घर है, प्रिया की याद में बनाया हुआ छोटा सा आशियाना,’’ मैं खीज उठी.

‘‘अच्छा, सौरी. अब जल्दी तैयार हो जाइए. आकाश भैया भी आ गए.’’

हैप्पी होम की सहायक संचालिका रुचि तिवारी मुझे अपने साथ स्टेज पर ले गई.

समारोह की शुरुआत मुख्य अतिथि ने दीप प्रज्वलित कर के की. प्रिया की बड़ी तसवीर पर माला पहनाते वक्त मेरी आंखें नम हो गईं. समारोह के समापन से पहले मुझ से दो शब्द कहने के लिए कहा गया, तो मैं ने सब का अभिवादन करने के पश्चात एक संक्षिप्त सा भाषण दिया, ‘देवियो और सज्जनो, 25 वर्ष पूर्व मैं ने जब अपने पति की सहमति से इस हैप्पी होम की नींव रख कर एक छोटा सा कदम उठाया था तब मैं ने सोचा भी न था कि इस राह पर चलतेचलते इतने लोगों का साथ मुझे मिलेगा और कारवां बनता जाएगा. आज हमारे हैप्पी होम में अलगअलग आयु के 500 से भी अधिक बच्चे हैं. 3 छात्राएं स्कालरशिप हासिल कर के डाक्टर बन चुकी हैं. 10 से अधिक छात्र इंजीनियर बन गए हैं और अच्छे पदों पर नौकरी कर रहे हैं. इस से अधिक गर्व की बात हमारे लिए और क्या हो सकती है? हैप्पी होम में पलने वाले हर बच्चे के होंठों पर मुसकान हमेशा बनी रहे, हमारी यही कोशिश आगे भी जारी रहेगी. धन्यवाद.’

समारोह में जिस तरह मेरी प्रशंसा के पुल बांधे गए, क्या मैं वाकई उस की हकदार हूं? क्या मैं अपनी प्रिया की उतनी ही ममतामयी मां बन पाई, जितना हैप्पी होम के बच्चों की हूं?

इन प्रश्नों के मेरे पास सकारात्मक उत्तर नहीं होते. अपने गरीबान में झांक कर देखने पर मैं खुद को कितना घृणित महसूस करती हूं, यह मैं ही जानती हूं.

मेरा मन पुरानी यादों के गलियारों में भटकने लगता है, जब मैं ने प्रिया को खो दिया था. प्रिया को जब पहली बार देखा था, वह तो और भी पुरानी बात है. तब वह अपने पिता रवि और दादी के साथ हमारे पड़ोस में रहने आई थी.

पड़ोस में जब कोई नया परिवार आता है तो स्वाभाविक रूप से हर किसी को उस के बारे में जानने की उत्सुकता होती है. मां, इस का अपवाद न थीं. पहले टैक्सी से रवि, प्रिया और अपनी बूढ़ी मां के साथ आए. पीछे से उन का सामान ट्रक से पहुंचा.

शिष्टाचारवश मां और पिताजी ने उन के घर जा कर अपना परिचय दिया. घर आ कर मां  पहले उन लोगों के लिए चाय, फिर सारा खाना बना कर ले गईं. घर आ कर मां बोलीं, ‘‘बेचारे बहुत भले लोग हैं. नन्ही बिटिया का नाम प्रिया है. बेचारी बिन मां की बच्ची. 3 महीने पहले उस की मां गुजर गईं.’’

‘‘अच्छा. क्या हुआ था उन्हें, इतनी छोटी उम्र में?’’ मैं ने स्वेटर बुनते हुए पूछा.

‘‘गर्भाशय का कैंसर था. पहले बहुत रक्तस्राव हुआ. फिर डाक्टरों ने आपरेशन कर के गर्भाशय निकाल दिया, परंतु तब तक कैंसर बहुत फैल गया था,’’ मां ने बताया.

इतने में प्रिया के रोने की आवाज आई, तभी मैं ने बाहर दालान में जा कर देखा तो प्रिया की दादी उसे गोद मेें लिए हुए चिडि़या आदि दिखा कर उस का दिल बहलाने का असफल प्रयास कर रही थीं. प्रिया की रुलाई रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी.

नन्ही प्रिया ने हलके गुलाबी रंग का झालरों वाला फ्राक पहना था. घुंघराले बालों की लट माथे पर बारबार आ रही थी, जिसे उस की दादी हाथ से पीछे कर देती थीं. मुझ से प्रिया का रोना देखा न गया. मैं ने अपने घर के बगीचे से एक गुलाब का फूल लिया और रास्ता पार कर के प्रिया के घर पहुंच गई. गेट खुलने की आवाज सुन कर प्रिया की दादी ने पीछे मुड़ कर मुझे देखा और हौले से मुसकरा दीं.

‘‘नमस्ते, आंटीजी,’’ मैं ने हाथ जोड़ते हुए कहा. मेरे पीछे मां भी आ गई थीं.

‘‘बिटिया, क्यों रो रही है? नया घर पसंद नहीं आया क्या?’’ मां ने हंसते हुए प्रिया के गाल की चिकोटी काटी.

प्रिया ने रोना बंद कर दिया और मुंह फुला कर हमें देखने लगी. मैं ने उसे अपने पास बुलाया तो उस ने सिर हिला कर आने से इनकार किया. मैं ने गुलाब का फूल उस की ओर बढ़ाया. वह उसे लेने के लिए आगे बढ़ी, तो मैं ने उसे लपक कर पकड़ लिया. फिर मैं उसे ले कर अपने बगीचे में आ गई और उसे तरहतरह के फूल दिखाने लगी. प्रिया अब रोना बंद कर हंसने लगी.

‘‘3-4 महीने बाद पहली बार बच्ची इतना खुल कर हंसी है,’’ यह निर्मला देवी का स्वर था. उन्होंने प्रिया को पास बुला कर खाना खिलाने का आग्रह किया, परंतु उस ने अपनी बांहें मेरे गले में डाल दीं.

मैं ने निर्मला देवी के हाथ से प्लेट ले ली. वह मेरे हाथ से खुशीखुशी खाना खाने लगी. रात तक प्रिया मुझ से इतनी घुलमिल गई कि बड़ी मुश्किल से रवि के बहुत पुचकारने पर अपने घर जाने के लिए तैयार हुई.

मेरी 2 बार सगाई टूट चुकी थी. पहली बार तो लड़के वाले सगाई के बाद दहेज की मांग बढ़ाते ही जा रहे थे, इसी कारण रिश्ता टूट गया, क्योंकि पिताजी उन मांगों को पूरा करने में असमर्थ थे. दूसरा रिश्ता जिस लड़के से हुआ था, उस के बारे में पिताजी को पता चला कि वह दुश्चरित्र था.

एक रात प्रिया तेज बुखार से तप रही थी, पर मुझे सुबह पता चला. मैं उस के घर गई और बोली, ‘‘आंटीजी, आप ने मुझे बुलाया क्यों नहीं?’’

‘‘आकांक्षा बेटी, सवाल एक रात का नहीं

है. सारी जिंदगी का है. एक बिन मां की बच्ची को तुम ने 1 ही वर्ष में अपनी ममता की शीतल फुहारों से सराबोर कर दिया है. क्या तुम रवि की दुलहन बन कर हमेशा के लिए इस घर में आ सकती हो? बोलो बेटी, कुछ तो बोलो,’’ निर्मला देवी मेरा हाथ पकड़ कर रोने लगीं. अचानक इस प्रस्ताव को सुन कर मुझ से कुछ कहते न बना.

‘‘उफ, मां, तुम भी कमाल करती हो. एक तो इस घर में आने के बाद से आकांक्षा ने प्रिया को कितना संभाला है, तुम उन्हें क्यों किसी अनचाहे बंधन में बांधने का प्रयास कर रही हो?’’

मैं ने पहली बार रवि को इतने गुस्से में देखा था.

‘‘आकांक्षाजी, मां की बातों का बुरा मत मानिए. मां भी उम्र के साथसाथ  सठिया गई हैं. रात को मैं ने मां से आप को बुलाने को मना किया था. देखिए, प्रिया अपने मन में अपनी मां की जगह आप को रखती है. कल को जब आप की शादी हो जाएगी, तो हमें इसे संभालना फिर से मुश्किल हो जाएगा,’’ रवि मेरी ओर मुखातिब हो कर बोले.

रवि का आशय समझ कर मैं उलटे पांव घर वापस आ गई, पर घर आने के बाद मेरा किसी काम में मन न लगा. मुझे चिंतित देख कर जब मां ने कारण पूछा, तो मैं ने उन्हें सारी बात बता दी.

आखिर एक रोज बिना कोई भूमिकाबांधे पिताजी बोले, ‘‘बेटी, तुम तो जानती हो कि हमें तुम्हारी शादी की कितनी फिक्र है.

तुम हम पर न कभी बोझ थीं, न आगे कभी रहोगी. परंतु पिता के घर कुंआरी जिंदगी में किसी भी बेटी को वह सुख नहीं मिल सकता, जो पति, बच्चों के साथ गृहस्थी में रम कर मिलता है. माना कि रवि दुहाजू है, पर उम्र

में तुम से केवल 3 साल ही बड़ा है. अच्छा कमाता है, केवल 1 ही बेटी है, जिसे तुम दिलोजान से चाहती हो. अगर तुम्हें रवि पसंद हो, तो हम तुम्हारे रिश्ते की बात रवि से

करते हैं. बेटी, सोचसमझ कर कोई फैसला करो. तुम्हारे किसी भी निर्णय में हम तुम्हारे साथ हैं,’’ इतना कह कर पिताजी कमरे से बाहर चले गए.

सारी रात मैं ने आंखों में गुजारी. पति के रूप में मैं ने रवि जैसे शांत, गंभीर और शालीन व्यक्ति की ही मन में कल्पना की थी. सुबह मैं ने मां को अपना निर्णय बताया, तो मां के चेहरे पर सुकून था. शाम तक बात रवि तक पहुंच गई.

15 दिनों के भीतर मेरी रवि से कोर्ट मैरिज हो गई और मैं उन की दुलहन बन कर उन की जिंदगी में आ गई. प्रिया सब से ज्यादा खुश थी कि अब आंटी हमेशा उस के संग रहेंगी.

‘‘बेटी, अब से यह तुम्हारी आंटी नहीं, बल्कि मम्मी हैं,’’ मेरी सास निर्मला देवी ने प्रिया को समझाया.

‘‘तो अब से मैं इन्हें मम्मी ही कहूंगी. कितनी सुंदर लग रही हो, मम्मी,’’  3 साल की प्रिया ने मेरे गले में अपनी बांहें डाल दीं.

देखते ही देखते 1 वर्ष हंसीखुशी में बीत गया. प्रिया अब स्कूल जाने लगी थी. कुछ दिनों बात पता चला कि मेरे पैर भारी हुए हैं. घर में खुशियों की बहार आ गई.

मांजी प्रिया से कहतीं, ‘‘बिटिया, अब अकेले नहीं रहेगी. बिटिया के संग खेलने कोई आने वाला है.’’

प्रसव के कुछ वक्त बाद मैं अपने मायके आई. प्रिया की परीक्षाएं खत्म हो गई थीं. अत: रवि प्रिया को भी मेरे पास छोड़ गए.

एक दिन मैं बाहर बैठ कर प्रिया के बाल बना रही थी कि 2 महीने का आकाश दूध के लिए रोने लगा. मैं ने मां को आवाज दे कर कहा, ‘‘मां, जरा आकाश को देखना, मैं प्रिया के बाल बना कर अंदर आती हूं.’’

मां के पहुंचने तक आकाश ने रोरो कर आसमान सिर पर उठा लिया था. मां आकाश को ले कर पुचकारते हुए बाहर आईं और बोलीं, ‘‘अरी, पहले अपने कोख जाए बच्चे का खयाल कर. क्या जिंदगी भर इसे ही सिर चढ़ाए रखेगी?’’

प्रिया, मां की बातों का अर्थ समझ पाई या नहीं, पता नहीं. परंतु मैं तत्काल बोल पड़ी, ‘‘यह क्या कह रही हैं मां? मेरे लिए प्रिया और आकाश दोनों ही बराबर हैं.’’

‘‘अरे, ये सब तो बोलने की बातें हैं. अपना खून अपना ही होता है और पराया, पराया ही होता है. देखो, तुम ने आकाश को लेने में देर कर दी तो बेचारे का रोरो कर गला ही सूख गया. जरा इसे दूध तो पिला दो,’’ कह मां ने आकाश को मेरी गोद में सुला दिया.

मेरा स्पर्श पाते ही वह पल भर में चुप हो कर दूध पीने लगा.

प्रिया का स्कूल शुरू होने के पश्चात मैं उसे व नन्हे आकाश को ले कर भोपाल यानी ससुराल आ गई. अब मैं आकाश के पालनपोषण में इतनी मशगूल हो गई कि प्रिया की ओर से मेरा ध्यान धीरेधीरे कम होता गया. प्रिया रात को मेरे पास सोने की जिद करती तो मैं उसे झिड़क कर रवि के पास भेज देती.

एक बार मैं रसोई में कुछ काम कर रही थी. चादर के झूले में सोए हुए 9 महीने के आकाश को प्रिया कोई कविता सुनाते हुए झूला झुला रही थी. अचानक जोर से कुछ गिरने की आवाज आई, फिर आकाश रोने लगा. एक ही सांस में मैं रसोई से और मांजी बैठक से लपके तो देखा कि आकाश जमीन पर गिर कर रो रहा है और प्रिया हैरान सी खड़ी है.

मैं ने आकाश को उठाया और गरजते हुए प्रिया से बोली, ‘‘यह क्या? तुम ने आकाश को कैसे गिराया?’’

प्रिया डरतेसहमते बोली, ‘‘मम्मी, मैं तो आकाश को झुला रही थी, न जाने कैसे वह झूले से बाहर गिर पड़ा.’’

‘‘चुप रहो. तुम ने इतने जोर से झुलाया कि वह बाहर गिर पड़ा. तुम्हें इतनी अक्ल नहीं कि धीरे झुलाओ. इस के सिर में गहरी चोट आती तो? खबरदार जो आगे से कभी आकाश को हाथ भी लगाया,’’ कहते हुए तैश में आ कर मैं ने प्रिया के गाल पर एक थप्पड़ जड़ दिया.

इस के बाद मेरे और उस के बीच दूरियां बढ़ती गईं. मेरी डांटफटकार से प्रिया फिर से उदास और गुमसुम रहने लगी. मांजी को प्रिया की यह दशा बिलकुल अच्छी न लगती. उन की आंखों की विवशता, मौन रह कर भी न जाने कितनी बातें कह जाती, पर मैं जान कर अनजान बनी रहती.

अपने प्रति मेरी अवहेलना सहन न कर पाने के कारण प्रिया चौथी कक्षा में आतेआते पढ़ाई मेें काफी पिछड़ गई थी.

इसी बीच मैं दूसरी बार गर्भवती हो गई. रवि तीसरा बच्चा तो नहीं चाहते थे, पर मेरी इच्छा का मान रखते हुए चुप हो गए. रेणु का जन्म भोपाल में ही हुआ.

7 साल के आकाश और ढाई साल की रेणु के बीच मैं इतनी व्यस्त हो गई कि  12-13 साल की प्रिया की ओर देखने का भी मुझे होश न रहता.

प्रिया के प्रति मेरी बढ़ती नाराजगी सहना जब मांजी के लिए नामुमकिन हुआ तो उन्होंने एक दिन मुंह खोल ही दिया, ‘‘बहू, प्रिया को तुम ही उस वक्त से पाल रही हो, जब वह मात्र 3 साल की थी. उस वक्त मैं ने कभी नहीं सोचा था कि आगे चल कर तुम उस से इतनी सख्ती से पेश आओगी. उसे तुम्हारे जरा से प्यार की जरूरत है, वह तुम से ज्यादा की अपेक्षा नहीं करती. उसे अपना लो, बहू,’’ मांजी के आंसू छलछला उठे.

पर उन की भाषा ने मेरी क्रोधाग्नि को भड़काने का ही काम किया, ‘‘वाह मांजी, यह सिला दिया आप ने मेरी तपस्या का? क्या मैं प्रिया से सौतेला व्यवहार करती हूं? क्या सगी मांएं अपने बच्चों को कभी डांटती नहीं हैं? कभीकभार मैं प्रिया पर गरम हो गई तो आप ने मुझे ‘सौतेला’ करार दे दिया? सौतेली मां तो सौतेली ही होती है, चाहे वह अपनी जान ही क्यों न निछावर कर दे,’’ मैं भुनभुनाती हुई अपने कमरे में चली गई.

इस के बाद प्रिया के प्रति मेरा रवैया तटस्थ हो गया. एक बात को मैं स्वयं भी महसूस करती थी कि प्रिया को तकलीफ में देख कर मैं उफ तक न करती. जबकि आकाश व रेणु को जरा भी कष्ट होता तो मेरे दिल में हायतोबा मच जाती थी.

एक दिन अचानक दिल का दौरा पड़ने से मांजी का निधन हो गया. 3 बच्चों में प्रिया को अपनी दादी से विशेष प्रेम था. दादी के जाने के बाद वह स्वयं को और भी अकेला महसूस करने लगी. वह अकसर दादी की तसवीर हाथ में लिए रोती रहती. रवि के बहलाने पर भी न बहलती. मुझे याद है वह दिन. दोपहर का वक्त  था. आकाश व रेणु छत पर खेल रहे थे. मैं काम में व्यस्त थी. अचानक मुझे रेणु के जोरजोर से रोने की आवाज सुनाई दी. मैं छत पर गई तो देखा, आकाश रेणु के हाथ से पतंग छीन कर खुद उड़ा रहा था. प्रिया एक ओर चुपचाप खड़ी क्षितिज की ओर देख रही थी.

मैं रेणु को गोद में ले कर प्रिया पर बरस पड़ी, ‘‘छोटी बहन रो रही है, यह नहीं होता कि उसे चुप कराओ. सब से बड़ी हो, पर क्या फायदा?’’

तभी आकाश की पतंग कट कर 3-4 घरों के बाद की झाडि़यों में गिर गई. वह पतंग लाने के लिए सीढि़यां उतरने लगा कि उसे मैं ने टोका, ‘‘रुको, प्रिया जा कर पतंग लाएगी. जाओ प्रिया.’’

‘‘पर मम्मी, हर बार मैं ही नीचे जाजा कर पतंग लाती हूं. खेलते ये दोनों हैं, पर घर से बाहर पतंग या बौल कोई भी चीज गिरे तो मुझे लानी पड़ती है. सीढि़यां चढ़तेउतरते मेरे पांवों में दर्द हो रहा है. मैं नहीं लाती.’’

पहली बार प्रिया ने पलट कर जवाब दिया था. मेरे गुस्से का पारावार न रहा, ‘‘तुम्हारी यह मजाल. जबान लड़ाती हो? क्या तुम्हारे भाईबहन तुम से यही सीखेंगे? आज शाम को पापा से तुम्हारी ऐसी शिकायत करूंगी कि देखना. जा कर पतंग लाती हो या नहीं?’’ कहते हुए मैं ने प्रिया के गालों पर तड़ातड़ 2-3 झन्नाटेदार थप्पड़ जड़ दिए. वह फूटफूट कर रोने लगी और अपने लाल हुए गालों को सहलाते हुए सीढि़यां उतरने लगी. मैं उसे गेट खोल कर रास्ते पर नंगे पैर ही जाते हुए देख रही थी.

2-3 दिन पहले भारी बारिश हुई थी. जैसा कि अकसर होता है, बारिश का पानी सड़क के गड्ढों में जमा हुआ था. दौड़ती हुई प्रिया का एक पैर जैसे ही एक गड्ढे में पड़ा, प्रिया जोर से चिल्ला कर एक ओर लुढ़क गई.

मैं बच्चों को ले कर नीचे दौड़ी. पासपड़ोस के लोग जमा हो गए थे. बिजली के खंभे से लाइव करंट का वायर उस गड्ढे में गिर गया था और पानी में करंट फैला हुआ था. प्रिया कीचड़ में लथपथ बेहोश पड़ी थी. किसी ने लकड़ी के डंडे की सहायता से प्रिया को बाहर निकाला और बिजली विभाग को फोन किया. प्रिया का शरीर नीला पड़ गया था. मैं उसे रिकशे में डाल कर अस्पताल ले गई. डाक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया.

रवि घर आए तो प्रिया की मृत देह देख कर किंकर्तव्यविमूढ़ हो कर एक ओर बैठ गए. मुझे काटो तो खून नहीं. प्रिया का अंतिम संस्कार तो कर दिया, लेकिन हमारे दिलों में इतनी वीरानी छा गई कि 2 छोटे बच्चे भी हमारे अकेलेपन को कम न कर पाए.

एक रोज आकाश प्रिया की एक कापी ले आया. मैं उसे एक नजर देख कर रखने ही वाली थी कि प्रिया की लिखाई देख कर उत्सुकतावश पढ़ने लगी. पढ़तेपढ़ते मैं बिलखबिलख कर रोने लगी.

हरेक पन्ने पर प्रिया ने अपने दिल का दर्द बयान किया था. मेरा निष्ठुरता से बारबार उस का दिल तोड़ना, उस के कोमल मन को बर्बरता से रौंदना, उस का अकेलापन, उस की मायूसी, मां की ममता के लिए तड़पता उस का प्यासा मन सब कुछ मेरे सामने बेपरदा हो गया था. नन्ही सी बच्ची दिल में कितना दर्द समाए जीती रही और मैं कितनी पत्थर दिल बिना किसी गलती के उसे प्रताडि़त करती रही.

शाम को रवि घर में आए तो कापी उन के हाथ में दे कर मैं बेतहाशा रोने लगी. रवि मौन हो कर पढ़ते हुए अपने आंसू पोंछ रहे थे. काफी समय बाद भी जब वह कुछ न बोले तो मुझ से रहा न गया.

‘‘मुझे मेरा घरसंसार आप जैसा शालीन और सच्चरित्र पति, यह भरीपूरी गृहस्थी जिस बच्ची की वजह से मिला उसे ही भुला कर मैं अपने सुखों में मग्न हो गई. मैं ने प्रिया को कितना प्रताडि़त किया. मुझे मेरे अपराधों की कोई तो सजा दीजिए. आप कुछ बोलते  क्यों नहीं? यों चुप न रहिए,’’ मैं लगातार रोती जा रही थी.

काफी समय पश्चात रवि ने मौन तोड़ा और बोले, ‘‘तुम अपनी बात छोड़ो, मैं ने उस के साथ कौन सा न्याय किया?

मैं ने भी उस की ओर बिलकुल ध्यान नहीं दिया. उस के अकेलेपन को न समझा. उसे वह प्यार न दिया, जिस की वह हकदार थी. शायद इसी अपराध की सजा देने के लिए कुदरत ने हम से उसे छीन लिया. अब हमारे लाख पछताने से भी क्या प्रिया वापस आ जाएगी? कभी नहीं. जब तक जीएंगे, इस अपराधबोध का भार ढोते हुए ही हमें जीना होगा, यही हमारी सजा है,’’ रवि बिलखबिलख कर रोरहे थे.

कहते हैं वक्त हर जख्म को भर देता है. 26-27 वर्ष हो गए हैं प्रिया की मौत को, पर आज तक हमारी आत्मग्लानि कम नहीं हुई.

प्रिया की मृत्यु के बाद जब मेरा मन पश्चात्ताप की आग में जलने लगा, तब एक दिन पड़ोस की झुग्गी में रहने वाली रमिया को एक नन्ही सी जान सड़क के किनारे शाल में लिपटी हुई मिली. रमिया जब मेरे  पास बच्ची को छोड़ गई तो उस की कोमल त्वचा को न जाने कितनी चींटियां काट चुकी थीं.

उस की प्राथमिक चिकित्सा कराने के दौरान 1 हफ्ते में उस फूल सी बच्ची के साथ न जाने कब मेरा दिल का रिश्ता जुड़ गया. जब उसे कोई लेने न आया तो मैं ने ही उसे पालने का निर्णय लिया. इस के कुछ महीनों बाद, रिकशा चलाने वाला रामदीन सड़क पर भीख मांग रहे 2 बच्चों को छोड़ गया, जिन का कोई न था.

देखतेदेखते 1 वर्ष के अंदर बच्चों की संख्या बढ़तेबढ़ते 15 हो गई, तो मैं ने मदद के लिए 2 आया रख लीं और घर के बाहर ‘प्रियाज हैप्पी होम’ का बोर्ड लगा दिया. बोर्ड लगने की देर थी कि समाज के विभिन्न तबकों की

कुंआरी मांएं ‘हैप्पी होम’ के पालने में अपने बच्चों को छोड़ जातीं. बच्चों की संख्या तो

बढ़ती गई, साथसाथ मुझे अपनी संस्था के लिए विभिन्न लोगों व संस्थाओं (निजी व सरकारी) से डोनेशन भी मिलते गए व आगे का सफर आसान होता गया.

रवि ने इस सफर में मेरा हर कदम पर साथ दिया है. हर बच्चे में मुझे प्रिया का अक्स नजर आता है. पश्चात्ताप की अग्नि में जलते हुए इस मन को हर बच्चे के होंठों पर मुसकान खिलते हुए देख कर सुकून मिलता है. Family Kahani

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