Best Hindi Story: मसीहा- शांति के दुख क्या मेहनत से दूर हो पाए

Best Hindi Story: दोपहर का खाना खा कर लेटे ही थे कि डाकिया आ गया. कई पत्रों के बीच राजपुरा से किसी शांति नाम की महिला का एक रजिस्टर्ड पत्र 20 हजार रुपए के ड्राफ्ट के साथ था. उत्सुकतावश मैं एक ही सांस में पूरा पत्र पढ़ गई, जिस में उस महिला ने अपने कठिनाई भरे दौर में हमारे द्वारा दिए गए इन रुपयों के लिए धन्यवाद लिखा था और आज 10 सालों के बाद वे रुपए हमें लौटाए थे. वह खुद आना चाहती थी पर यह सोच कर नहीं आई कि संभवत: उस के द्वारा लौटाए जाने पर हम वह रुपए वापस न लें.

पत्र पढ़ने के बाद मैं देर तक उस महिला के बारे में सोचती रही पर ठीक से कुछ याद नहीं आ रहा था.

‘‘अरे, सुमि, शांति कहीं वही लड़की तो नहीं जो बरसों पहले कुछ समय तक मुझ से पढ़ती रही थी,’’ मेरे पति अभिनव अतीत को कुरेदते हुए बोले तो एकाएक मुझे सब याद आ गया.

उन दिनों शांति अपनी मां बंती के साथ मेरे घर का काम करने आती थी. एक दिन वह अकेली ही आई. पूछने पर पता चला कि उस की मां की तबीयत ठीक नहीं है. 2-3 दिन बाद जब बंती फिर काम पर आई तो बहुत कमजोर दिख रही थी. जैसे ही मैं ने उस का हाल पूछा वह अपना काम छोड़ मेरे सामने बैठ कर रोने लगी. मैं हतप्रभ भी और परेशान भी कि अकारण ही उस की किस दुखती रग पर मैं ने हाथ रख दिया.

बंती ने बताया कि उस ने अब तक के अपने जीवन में दुख और अभाव ही देखे हैं. 5 बेटियां होने पर ससुराल में केवल प्रताड़ना ही मिलती रही. बड़ी 4 बेटियों की तो किसी न किसी तरह शादी कर दी है. बस, अब तो शांति को ब्याहने की ही चिंता है पर वह पढ़ना चाहती है.

बंती कुछ देर को रुकी फिर आगे बोली कि अपनी मेहनत से शांति 10वीं तक पहुंच गई है पर अब ट्यूशन की जरूरत पड़ेगी जिस के लिए उस के पास पैसा नहीं है. तब मैं ने अभिनव से इस बारे में बात की जो उसे निशुल्क पढ़ाने के लिए तैयार हो गए. अपनी लगन व परिश्रम से शांति 10वीं में अच्छे नंबरों में पास हो गई. उस के बाद उस ने सिलाईकढ़ाई भी सीखी. कुछ समय बाद थोड़ा दानदहेज जोड़ कर बंती ने उस के हाथ पीले कर दिए.

अभी शांति की शादी हुए साल भर बीता था कि वह एक बेटे की मां बन गई. एक दिन जब वह अपने बच्चे सहित मुझ से मिलने आई तो उस का चेहरा देख मैं हैरान हो गई. कहां एक साल पहले का सुंदरसजीला लाल जोड़े में सिमटा खिलाखिला शांति का चेहरा और कहां यह बीमार सा दिखने वाला बुझाबुझा चेहरा.

‘क्या बात है, बंती, शांति सुखी तो है न अपने घर में?’ मैं ने सशंकित हो पूछा.

व्यथित मन से बंती बोली, ‘लड़कियों का क्या सुख और क्या दुख बीबी, जिस खूंटे से बांध दो बंधी रहती हैं बेचारी चुपचाप.’

‘फिर भी कोई बात तो होगी जो सूख कर कांटा हो गई है,’ मेरे पुन: पूछने पर बंती तो खामोश रही पर शांति ने बताया, ‘विवाह के 3-4 महीने तक तो सब ठीक रहा पर धीरेधीरे पति का पाशविक रूप सामने आता गया. वह जुआरी और शराबी था. हर रात नशे में धुत हो घर लौटने पर अकारण ही गालीगलौज करता, मारपीट करता और कई बार तो मुझे आधी रात को बच्चे सहित घर से बाहर धकेल देता. सासससुर भी मुझ में ही दोष खोजते हुए बुराभला कहते. मैं कईकई दिन भूखीप्यासी पड़ी रहती पर किसी को मेरी जरा भी परवा नहीं थी. अब तो मेरा जीवन नरक समान हो गया है.’

उस रात मैं ठीक से सो नहीं पाई. मानव मन भी अबूझ होता है. कभीकभी तो खून के रिश्तों को भी भीड़ समझ उन से दूर भागने की कोशिश करता है तो कभी अनाम रिश्तों को अकारण ही गले लगा उन के दुखों को अपने ऊपर ओढ़ लेता है. कुछ ऐसा ही रिश्ता शांति से जुड़ गया था मेरा.

अगले दिन जब बंती काम पर आई तो मैं उसे देर तक समझाती रही कि शांति पढ़ीलिखी है, सिलाईकढ़ाई जानती है, इसलिए वह उसे दोबारा उस के ससुराल न भेज कर उस की योग्यता के आधार पर उस से कपड़े सीने का काम करवाए. पति व ससुराल वालों के अत्याचारों से छुटकारा मिल सके मेरे इस सुझाव पर बंती ने कोई उत्तर नहीं दिया और चुपचाप अपना काम समाप्त कर बोझिल कदमों से घर लौट गई.

एक सप्ताह बाद पता चला कि शांति को उस की ससुराल वाले वापस ले गए हैं. मैं कर भी क्या सकती थी, ठगी सी बैठी रह गई.

देखते ही देखते 2 साल बीत गए. इस बीच मैं ने बंती से शांति के बारे में कभी कोई बात नहीं की पर एक दिन शांति के दूसरे बेटे के जन्म के बारे में जान कर मैं बंती पर बहुत बिगड़ी कि आखिर उस ने शांति को ससुराल भेजा ही क्यों? बंती अपराधबोध से पीडि़त हो बिलखती रही पर निर्धनता, एकाकीपन और अपने असुरक्षित भविष्य को ले कर वह शांति के लिए करती भी तो क्या? वह तो केवल अपनी स्थिति और सामाजिक परिवेश को ही कोस सकती थी, जहां निम्नवर्गीय परिवार की अधिकांश स्त्रियों की स्थिति पशुओं से भी गईगुजरी होती है.

पहले तो जन्म लेते ही मातापिता के घर लड़की होने के कारण दुत्कारी जाती हैं और विवाह के बाद अर्थी उठने तक ससुराल वालों के अत्याचार सहती हैं. भोग की वस्तु बनी निरंतर बच्चे जनती हैं और कीड़ेमकोड़ों की तरह हर पल रौंदी जाती हैं, फिर भी अनवरत मौन धारण किए ऐसे यातना भरे नारकीय जीवन को ही अपनी तकदीर मान जीने का नाटक करते हुए एक दिन चुपचाप मर जाती हैं.

शांति के साथ भी तो यही सब हो रहा था. ऐसी स्थिति में ही वह तीसरी बार फिर मां बनने को हुई. उसे गर्भ धारण किए अभी 7 महीने ही हुए थे कि कमजोरी और कई दूसरे कारणों के चलते उस ने एक मृत बच्चे को जन्म दिया. इत्तेफाक से उन दिनों वह बंती के पास आई हुई थी. तब मैं ने शांति से परिवार नियोजन के बारे में बात की तो बुझे स्वर में उस ने कहा कि फैसला करने वाले तो उस की ससुराल वाले हैं और उन का विचार है कि संतान तो भगवान की देन है इसलिए इस पर रोक लगाना उचित नहीं है.

मेरे बारबार समझाने पर शांति ने अपने बिगड़ते स्वास्थ्य और बच्चों के भविष्य को देखते हुए मेरी बात मान ली और आपरेशन करवा लिया. यों तो अब मैं संतुष्ट थी फिर भी शांति की हालत और बंती की आर्थिक स्थिति को देखते हुए परेशान भी थी. मेरी परेशानी को भांपते हुए मेरे पति ने सहज भाव से 20 हजार रुपए शांति को देने की बात कही ताकि पूरी तरह स्वस्थ हो जाने के बाद वह इन रुपयों से कोई छोटामोटा काम शुरू कर के अपने पैरों पर खड़ी हो सके. पति की यह बात सुन मैं कुछ पल को समस्त चिंताओं से मुक्त हो गई.

अगले ही दिन शांति को साथ ले जा कर मैं ने बैंक में उस के नाम का खाता खुलवा दिया और वह रकम उस में जमा करवा दी ताकि जरूरत पड़ने पर वह उस का लाभ उठा सके.

अभी इस बात को 2-4 दिन ही बीते थे कि हमें अपनी भतीजी की शादी में हैदराबाद जाना पड़ा. 15-20 दिन बाद जब हम वापस लौटे तो मुझे शांति का ध्यान हो आया सो बंती के घर चली गई, जहां ताला पड़ा था. उस की पड़ोसिन ने शांति के बारे में जो कुछ बताया उसे सुन मैं अवाक् रह गई.

हमारे हैदराबाद जाने के अगले दिन ही शांति का पति आया और उसे बच्चों सहित यह कह कर अपने घर ले गया कि वहां उसे पूरा आराम और अच्छी खुराक मिल पाएगी जिस की उसे जरूरत है. किंतु 2 दिन बाद ही यह खबर आग की तरह फैल गई कि शांति ने अपने दोनों बच्चों सहित भाखड़ा नहर में कूद कर जान दे दी है. तब से बंती का भी कुछ पता नहीं, कौन जाने करमजली जीवित भी है या मर गई.

कैसी निढाल हो गई थी मैं उस क्षण यह सब जान कर और कई दिनों तक बिस्तर पर पड़ी रही थी. पर आज शांति का पत्र मिलने पर एक सुखद आश्चर्य का सैलाब मेरे हर ओर उमड़ पड़ा है. साथ ही कई प्रश्न मुझे बेचैन भी करने लगे हैं जिन का शांति से मिल कर समाधान चाहती हूं.

जब मैं ने अभिनव से अपने मन की बात कही तो मेरी बेचैनी को देखते हुए वह मेरे साथ राजपुरा चलने को तैयार हो गए. 1-2 दिन बाद जब हम पत्र में लिखे पते के अनुसार शांति के घर पहुंचे तो दरवाजा एक 12-13 साल के लड़के ने खोला और यह जान कर कि हम शांति से मिलने आए हैं, वह हमें बैठक में ले गया. अभी हम बैठे ही थे कि वह आ गई. वही सादासलोना रूप, हां, शरीर पहले की अपेक्षा कुछ भर गया था. आते ही वह मेरे गले से लिपट गई. मैं कुछ देर उस की पीठ सहलाती रही, फिर भावावेश में डूब बोली, ‘‘शांति, यह कैसी बचकानी हरकत की थी तुम ने नहर में कूद कर जान देने की. अपने बच्चों के बारे में भी कुछ नहीं सोचा, कोई ऐसा भी करता है क्या? बच्चे तो ठीक हैं न, उन्हें कुछ हुआ तो नहीं?’’

बच्चों के बारे में पूछने पर वह एकाएक रोने लगी. फिर भरे गले से बोली, ‘‘छुटका नहीं रहा आंटीजी, डूब कर मर गया. मुझे और सतीश को किनारे खड़े लोगों ने किसी तरह बचा लिया. आप के आने पर जिस ने दरवाजा खोला था, वह सतीश ही है.’’

इतना कह वह चुप हो गई और कुछ देर शून्य में ताकती रही. फिर उस ने अपने अतीत के सभी पृष्ठ एकएक कर के हमारे सामने खोल कर रख दिए.

उस ने बताया, ‘‘आंटीजी, एक ही शहर में रहने के कारण मेरी ससुराल वालों को जल्दी ही पता चल गया कि मैं ने परिवार नियोजन के उद्देश्य से अपना आपरेशन करवा लिया है. इस पर अंदर ही अंदर वे गुस्से से भर उठे थे पर ऊपरी सहानुभूति दिखाते हुए दुर्बल अवस्था में ही मुझे अपने साथ वापस ले गए.

‘‘घर पहुंच कर पति ने जम कर पिटाई की और सास ने चूल्हे में से जलती लकड़ी निकाल पीठ दाग दी. मेरे चिल्लाने पर पति मेरे बाल पकड़ कर खींचते हुए कमरे में ले गया और चीखते हुए बोला, ‘तुझे बहुत पर निकल आए हैं जो तू अपनी मनमानी पर उतर आई है. ले, अब पड़ी रह दिन भर भूखीप्यासी अपने इन पिल्लों के साथ.’ इतना कह उस ने आंगन में खेल रहे दोनों बच्चों को बेरहमी से ला कर मेरे पास पटक दिया और दरवाजा बाहर से बंद कर चला गया.

‘‘तड़पती रही थी मैं दिन भर जले के दर्द से. आपरेशन के टांके कच्चे होने के कारण टूट गए थे. बच्चे भूख से बेहाल थे, पर मां हो कर भी मैं कुछ नहीं कर पा रही थी उन के लिए. इसी तरह दोपहर से शाम और शाम से रात हो गई. भविष्य अंधकारमय दिखने लगा था और जीने की कोई लालसा शेष नहीं रह गई थी.

‘‘अपने उन्हीं दुर्बल क्षणों में मैं ने आत्महत्या कर लेने का निर्णय ले लिया. अभी पौ फटी ही थी कि दोनों सोते बच्चों सहित मैं कमरे की खिड़की से, जो बहुत ऊंची नहीं थी, कूद कर सड़क पर तेजी से चलने लगी. घर से नहर ज्यादा दूर नहीं थी, सो आत्महत्या को ही अंतिम विकल्प मान आंखें बंद कर बच्चों सहित उस में कूद गई. जब होश आया तो अपनेआप को अस्पताल में पाया. सतीश को आक्सीजन लगी हुई थी और छुटका जीवनमुक्त हो कहीं दूर बह गया था.

‘‘डाक्टर इस घटना को पुलिस केस मान बारबार मेरे घर वालों के बारे में पूछताछ कर रहे थे. मैं इस बात से बहुत डर गई थी क्योंकि मेरे पति को यदि मेरे बारे में कुछ भी पता चल जाता तो मैं पुन: उसी नरक में धकेल दी जाती, जो मैं चाहती नहीं थी. तब मैं ने एक सहृदय

डा. अमर को अपनी आपबीती सुनाते हुए उन से मदद मांगी तो मेरी हालत को देखते हुए उन्होंने इस घटना को अधिक तूल न दे कर जल्दी ही मामला रफादफा करवा दिया और मैं पुलिस के चक्करों  में पड़ने से बच गई.

‘‘अब तक डा. अमर मेरे बारे में सबकुछ जान चुके थे इसलिए वह मुझे बेटे सहित अपने घर ले गए, जहां उन की मां ने मुझे बहुत सहारा दिया. सप्ताह  भर मैं उन के घर रही. इस बीच डाक्टर साहब ने आप के द्वारा दिए उन 20 हजार रुपयों की मदद से यहां राजपुरा में हमें एक कमरा किराए पर ले कर दिया. साथ ही मेरे लिए सिलाई का सारा इंतजाम भी कर दिया. पर मुझे इस बात की चिंता थी कि मेरे सिले कपड़े बिकेंगे कैसे?

‘‘इस बारे में जब मैं ने डा. अमर से बात की तो उन्होंने मुझे एक गैरसरकारी संस्था के अध्यक्ष से मिलवाया जो निर्धन व निराश्रित स्त्रियों की सहायता करते थे. उन्होंने मुझे भी सहायता देने का आश्वासन दिया और मेरे द्वारा सिले कुछ वस्त्र यहां के वस्त्र विके्रताओं को दिखाए जिन्होंने मुझे फैशन के अनुसार कपड़े सिलने के कुछ सुझाव दिए.

‘‘मैं ने उन के सुझावों के मुताबिक कपड़े सिलने शुरू कर दिए जो धीरेधीरे लोकप्रिय होते गए. नतीजतन, मेरा काम दिनोंदिन बढ़ता चला गया. आज मेरे पास सिर ढकने को अपनी छत है और दो वक्त की इज्जत की रोटी भी नसीब हो जाती है.’’

इतना कह शांति हमें अपना घर दिखाने लगी. छोटा सा, सादा सा घर, किंतु मेहनत की गमक से महकता हुआ.  सिलाई वाला कमरा तो बुटीक ही लगता था, जहां उस के द्वारा सिले सुंदर डिजाइन के कपड़े टंगे थे.

हम दोनों पतिपत्नी, शांति की हिम्मत, लगन और प्रगति देख कर बेहद खुश हुए और उस के भविष्य के प्रति आश्वस्त भी. शांति से बातें करते बहुत समय बीत चला था और अब दोपहर ढलने को थी इसलिए हम पटियाला वापस जाने के लिए उठ खड़े हुए. चलने से पहले अभिनव ने एक लिफाफा शांति को थमाते हुए कहा, ‘‘बेटी, ये वही रुपए हैं जो तुम ने हमें लौटाए थे. मैं अनुमान लगा सकता हूं कि किनकिन कठिनाइयों को झेलते हुए तुम ने ये रुपए जोड़े होंगे. भले ही आज तुम आत्मनिर्भर हो गई हो, फिर भी सतीश का जीवन संवारने का एक लंबा सफर तुम्हारे सामने है. उसे पढ़ालिखा कर स्वावलंबी बनाना है तुम्हें, और उस के लिए बहुत पैसा चाहिए. यह थोड़ा सा धन तुम अपने पास ही रखो, भविष्य में सतीश के काम आएगा. हां, एक बात और, इन पैसों को ले कर कभी भी अपने मन पर बोझ न रखना.’’

अभिनव की बात सुन कर शांति कुछ देर चुप बैठी रही, फिर धीरे से बोली, ‘‘अंकलजी, आप ने मेरे लिए जो किया वह आज के समय में दुर्लभ है. आज मुझे आभास हुआ है कि इस संसार में यदि मेरे पति जैसे राक्षसी प्रवृत्ति के लोग हैं तो

डा. अमर और आप जैसे महान लोग भी हैं जो मसीहा बन कर आते हैं और हम निर्बल और असहाय लोगों का संबल बन उन्हें जीने की सही राह दिखाते हैं.’’

इतना कह सजल नेत्रों से हमारा आभार प्रकट करते हुए वह अभिनव के चरणों में झुक गई.

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Long Story: तुम्हीं ने दर्द दिया है

Long Story: उस दिन मैं टेलीविजन के सामने बैठी अपनी 14 साल की बेटी के फ्राक में बटन लगा रही थी. पति एक हाथ में चाय का गिलास लिए अपना मनपसंद धारावाहिक देखने में व्यस्त थे. तभी दरवाजे पर घंटी बजी और मैं उठ कर बाहर आ गई.

दरवाजा खोला तो सामने मकानमालिक वर्माजी खड़े थे. मैं ने बड़े आदर से उन्हें भीतर बुलाया और अपने पति को आवाज दे कर ड्राइंगरूम में बुला लिया और बड़े विनम्र स्वर में बोली, ‘‘अच्छा, क्या लेंगे आप. चाय या ठंडा?’’

‘‘नहीं, इन सब की तकलीफ मत कीजिए. बस, आप बैठिए, एक जरूरी बात करनी है,’’ वर्माजी बेरुखी से बोले.

मैं अपने पति के साथ जा कर बैठ गई. थोड़ा आश्चर्य हुआ कि इतनी सुबहसुबह कैसे आना हुआ. फिर अपने विचारों को विराम दे कर चेहरे पर बनावटी मुसकान ला कर उन्हें देखने लगी.

‘‘मुझे इस मकान की जरूरत है. आप कहीं और मकान ढूंढ़ लीजिए,’’ उन्होंने एकदम सपाट स्वर में कहा.

‘‘क्या?’’ मेरे पति के मुंह से निकला, ‘‘पर मैं ने तो 11 महीने की लीज पर आप से मकान लिया है. आप इस तरह बीच में छोड़ने के लिए कैसे कह सकते हैं.’’

‘‘सर, मेरी मजबूरी है इसलिए कह रहा हूं. और फिर यह मेरा हक है कि मैं जब चाहे आप से मकान खाली करवा सकता हूं.’’

दोनों के बीच विवाद को बढ़ता देख कर मैं ने बेहद विनम्र स्वर में कहा, ‘‘पर ऐसा क्या कारण है भाई साहब जो आप को अचानक इस मकान की जरूरत पड़ गई. हम ने तो हमेशा समय पर किराया दिया है. फिर आप का तो और भी एक मकान है. आप उसे क्यों नहीं खाली करवा लेते.’’

‘‘कारण आप भी जानती हैं. मुझे पहले से पता होता तो आप को कभी भी यह मकान न देता. मेरा 1 महीने का कमीशन और सफेदी कराने में जो पैसा खर्च हुआ, सो अलग.’’

‘‘पर ऐसा क्या किया है हम ने?’’ मैं चौंक गई.

‘‘कारण आप की बेटी है और उस की बीमारी है. पिछले मकान से भी आप को इसलिए निकाला गया क्योंकि आप की बेटी को एड्स है और ऐसी घातक बीमारी के मरीज को मैं अपने घर में नहीं रख सकता. फिर कालोनी के कई लोगों को भी एतराज है.’’

‘‘भाई साहब, यह बीमारी कोई संक्रामक रोग तो है नहीं और न ही छुआछूत से फैलती है. यह तो हर जगह साबित हो चुका है और फिर हम दोनों में से यह किसी को भी नहीं है.’’

‘‘यह सब न मैं सुनना चाहता हूं और  न ही पासपड़ोस के लोग. अधिक पैसा कमाने की होड़ में आप लोग जरा भी नहीं समझते कि बच्चे किस तरफ जा रहे हैं. किन से मिलते हैं. बाहर क्याक्या गुल खिलाते हैं.’’

‘‘वर्माजी,’’ मेरे पति चीख पड़े, ‘‘आप के मुंह में जो आए कहते चले जा रहे हैं. आप को मकान खाली चाहिए मिल जाएगा पर इस तरह के अपशब्द और लांछन मुंह से मत निकालिए.’’

‘‘10 दिन बाद मकान की चाबियां लेने आऊंगा,’’ कह कर वर्माजी उठ कर चले गए.

उन के जाते ही मैं निढाल हो कर सोफे पर पसर गई. तभी भीतर से चारू आई और मुझ से आ कर लता की तरह लिपट कर रोने लगी. मेरे पति मेरे पास आ कर बैठ गए. कुछ कहतेकहते उन की  आवाज टूट गई, चेहरा पीला पड़ गया मानो वही दोषी हों.

अतीत चलचित्र सा मानसपटल पर तैरने लगा और एक के बाद एक कितनी ही घटनाएं उभरती चली गईं, जिन्हें मैं हमेशा के लिए भूल जाना चाहती थी.

मैं उस दिन किटी पार्टी से लौटी ही थी कि फोन की घंटी बजने लगी. फोन चारू के स्कूल से उस की क्लास टीचर का था. मेरे फोन उठाते ही वह हांफती हुई बोलीं, ‘आप चारू की मम्मी बोल रही हैं.’

मेरे ‘हां’ कहने पर वह बिना रुके बोलती चली गईं, ‘कहां थीं आप अब तक. मैं तो काफी समय से आप को फोन मिला रही हूं. आप के पति भी अपने आफिस में नहीं हैं.’

‘क्यों, क्या हुआ?’ मैं थोड़ा घबरा गई.

‘चारू सीढि़यों से फिसल कर नीचे गिर गई थी. काफी खून बह गया है. हम ने फौरन उसे फर्स्ट एड दे दी है. अब वह ठीक है. आप उसे यहां से ले जाइए,’ वह एक ही सांस में बोल गईं.

मैं ने बिना देर किए आटो किया और चारू के स्कूल पहुंच गई. वह मेडिकल रूम में लेटी थी और मुझे देख कर थोड़ा सुबकने लगी. मैं ने झट से उसे सीने से लगाया. तब तक वहां पर बैठी एक टीचर ने बताया कि आज हमारी नर्स छुट्टी पर थी. इसलिए पास के क्लीनिक से उस को मरहमपट्टी करवा दी है तथा एक पेनकिलर इंजेक्शन भी दिया है. मैं उसे थोड़ा सहारा दे कर घर ले आई. 1-2 दिन में चारू पूरी तरह ठीक हो गई और स्कूल जाने लगी.

इस बात को कई महीने हो गए. एक दिन सुबहसुबह मेरे पति ने बताया कि प्रगति मैदान में पुस्तक मेला चल रहा है. मैं भी जाने को तैयार हो गई पर चारू थोड़ा मुंह बनाने लगी.

‘ममा, वहां बहुत चलना पड़ता है. मैं घर पर ही ठीक हूं.’

‘क्यों बेटा, वहां तो तुम्हारी रुचि की कई पुस्तकें होंगी. तुम्हें तो किताबों से काफी लगाव है. खुद चल कर

अपनी पसंद की पुस्तकें ले लो,’ मेरे पति बोले.

‘नहीं पापा, मेरा मन नहीं है,’ कह कर वह बैठ गई, ‘अच्छा, आप मेरे लिए कामिक्स ले आना और इंगलिश हैंडराइटिंग की कापी भी. टीचर कहती हैं मेरी हैंडराइटिंग आजकल इतनी साफ नहीं है.’

‘क्यों तबीयत ठीक नहीं है क्या?’ मैं ने उस को अलग कमरे में ले जा कर पूछा. मुझे लगा कहीं उस के पीरियड्स न होने वाले हों, शायद इसीलिए वह थोड़ा जाने के लिए आनाकानी कर रही हो.

पति ने थोड़ा जोर से कहा, ‘नहीं बेटा, तुम को साथ ही चलना पड़ेगा. मैं ऐसे तुम को घर पर अकेला नहीं छोड़ सकता.’

वह अनमने मन से तैयार हो गई. पर मैं ने महसूस किया कि वह मेले में जल्दी ही बैठने की जिद करने लगती. फिर उसे एक तरफ बिठा कर हम लोग घूमने चले गए.

घर आतेआते वह फिर से एकदम निढाल हो गई. अगले दिन स्कूल की छुट्टी थी. मैं उसे ले कर डाक्टर के पास गई. उस ने थोड़े से टेस्ट लिख दिए जो 1-2 दिन में कराने थे. 2 दिन बाद फिर से ब्लड टेस्ट के लिए खून लिया चारू का.

अगले दिन सुबहसुबह डाक्टर का फोन आ गया और मुझे फौरन अस्पताल में बुलाया. पति तब आफिस जाने वाले थे. उन की कोई जरूरी मीटिंग थी. मैं ने कहा कि 12 बजे के बाद मैं आ कर मिल लेती हूं. पर वह बड़े सख्त लहजे में बोलीं कि आप दोनों ही फौरन अभी मिलिए. मैं थोड़़ा बिफर सी गई कि ऐसा भी क्या है कि अभी मिलना पड़ेगा पर वह नहीं मानीं.

हमारे पहुंचते ही डाक्टर बोलीं, ‘मुझे आप दोनों का ब्लड टेस्ट करना पड़ेगा.’

‘हम दोनों का?’ मैं एकदम मुंह बना कर बोली.

‘मैं ने आप की बेटी का 2 बार ब्लड टेस्ट किया है. मुझे बड़े खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि उसे एड्स है.’

‘क्या?’ हम दोनों ही चौंक गए. मेरी सांसें तेज होती गईं और छाती जोरजोर से धड़कने लगी. मैं ने अविश्वास से डाक्टर की तरफ देख कर कहा, ‘आप ने सब टेस्ट ठीक से तो देखे हैं, ऐसा कैसे हो सकता है?’

‘ऐसा ही है. अब देखना यह है कि यह बीमारी कहीं आप दोनों में तो नहीं है.’

मेरे तो प्राण ही सूख गए. मुझे स्वयं पर भरोसा था और अपने पति पर भी. फिर भी एक बार के लिए मेरा विश्वास डोल गया. यह सब कैसे हो गया था. हमारा ब्लड ले लिया गया. लगा जैसे सबकुछ खत्म हो गया है. मेरे पति उस दिन आफिस नहीं गए और न ही मेरा मन किसी काम में लगा.

दूसरे दिन हम दोनों की रिपोर्ट आ गई और रिपोर्ट निगेटिव थी. मैं ने डाक्टर को चारू के बारे में सबकुछ बताया और आश्वासन दिलाया कि उस के साथ कहीं कोई दुर्व्यवहार नहीं हुआ.

बातोंबातों में डाक्टर ने एकएक कर के बहुत सारे प्रश्न पूछे. तभी अचानक मुझे याद आया कि जब वह स्कूल में सीढि़यों से नीचे गिरी थी तो बाहर से एक इंजेक्शन लगवाया था. डाक्टर की आंखें फैल गईं.

‘आप के पास उस के ट्रीटमेंट और इंजेक्शन की परची है?’

‘ऐसा तो मुझे स्कूल वालों ने कुछ नहीं दिया पर एक टीचर कह रही थी कि उसे इंजेक्शन दिया था और इस बात की पुष्टि चारू ने भी की थी.’

हम लोग उसी क्षण स्कूल में जा कर प्रिंसिपल से मिले और अपनी सारी व्यथा सुनाई.

प्रिंसिपल पहले तो बड़े मनोयोग से सारी बातें सुनती रहीं फिर थोड़ी देर के लिए उठ कर चली गईं. उन के वापस आते ही मेरे पति ने कहा कि यदि आप उस टीचर को किसी तरह बुला दें जो चारू को क्लीनिक में ले कर गई थी तो हमें कारण ढूंढ़ने में आसानी होगी. कम से कम हम उस पर कोई कानूनी काररवाई तो कर सकते हैं.

‘क्या आप को उस का नाम मालूम है?’ वह बड़े ही रूखे स्वर में बोलीं.

चारू उस समय हमारी साथ थी पर वह इस बात का कोई ठीक से उत्तर नहीं दे सकी. इस पर प्रिंसिपल ने बड़ी लापरवाही से उत्तर दिया कि मैं मामले की छानबीन कर के आप को बता दूंगी.

मेरे पति आपे से बाहर हो गए. उन की खीज बढ़ती गई और धैर्य चुकता गया.

‘हमारे साथ इतना बड़ा हादसा हो गया और हम किस मानसिक दौर से गुजर रहे हैं, इस बात का अंदाजा है आप को. एक तो आप के स्कूल में उस दिन नर्स नहीं थी, उस पर जो उपचार बच्ची को दिया गया उस का भी आप के पास ब्योरा नहीं है. आप सबकुछ कर सकती हैं पर आप कुछ करना नहीं चाहती हैं. इसीलिए कि आप का स्कूल बदनाम न हो जाए. मैं एकएक को देख लूंगा.’

‘आप को जो करना है कीजिए, पर इस तरह चिल्ला कर स्कूल की शांति भंग मत कीजिए,’ वह लगभग खड़े होते हुए बोलीं.

दोषियों को दंड दिलवाने की इच्छा भी बेकार साबित हुई. चारू की रिपोर्ट से हम ने थोड़ेबहुत हाथपैर मारे पर सुबूतों के अभाव में दोषी डाक्टर एवं उस का स्टाफ बिना किसी बाधा के साफ बच कर निकल गया और जो हमारी बदनामी हुई, वह अलग.

हां, यदि प्रिंसिपल चाहती तो उन को सजा हो सकती थी पर वह क्लीनिक तो चलता ही प्रिंसिपल के इशारे पर था. स्कूल में प्रवेश से पहले सभी विद्यार्थियों को एक सामान्य हेल्थ चेकअप एवं सर्टिफिकेट की जरूरत होती थी जो वहीं से मिल सकता था.

चारू को एड्स होने की बात दावानल की भांति शहर भर में फैल गई. हम लोगों को हेय नजरों से देखा जाने लगा. चारू की स्कूल में भी हालत लगभग ऐसी ही थी.

सरकार के सारे बयान कि एड्स कोई छुआछूत की बीमारी नहीं है व छूने से एड्स नहीं फैलता, लगभग खोखले हो चुके थे. मेरे घर पर भी कालोनी वालों का आना लगभग न के बराबर हो गया. किटी पार्टी छूट गई. बरतन मांजने वाली भी काम से किनारा कर गई. हम लोग उपेक्षित एवं दयनीय से हो कर रह गए थे. हम सुबह से शाम तक 20 बार जीते 20 बार मरते.

यह जानते हुए भी कि इस बीमारी का कोई इलाज नहीं है फिर भी अपने मन को समझाने के लिए जिस ने जो बताया मैं ने कर डाला. जिस का असर मेरे तनमन पर यह पड़ा कि मैं खुद को बीमार जैसा अनुभव करने लगी थी. यह जिंदगी तो मौत से भी कहीं ज्यादा कष्ट- दायक थी.

एक दिन चारू रोती हुई स्कूल से आई और कहने लगी कि क्लास टीचर ने उसे सब से अलग और पीछे बैठने के लिए कह दिया है. कहा ही नहीं, अलग से इस बात की व्यवस्था भी कर दी है. मेरा दिल भीतर तक दहल गया. इस छोटे से दिल के टुकड़े को जीतेजी अलग कैसे कर दूं. वह बिलखती रही और मैं चुपचाप तिलतिल सुलगती रही.

मैं ने वह स्कूल और घर छोड़ दिया तथा इस नई कालोनी में घर ले लिया और पास ही के स्कूल में चारू को एडमिशन दिलवा दिया, यही सोच कर कि जब तक यह स्कूल जा सकती है जाए. उस का मन लगा रहेगा. पर यहां भी हम से पहले हमारा अतीत पहुंच गया.

अचानक पति के कहे शब्दों से मेरी तंद्रा टूटी और मैं वर्तमान में आ गई.

हमें 10 दिन के भीतर मकान खाली करना है यह सोच कर हम फिर से परेशान हो उठे. जैसेजैसे समय बीतता जा रहा था हमारी चिंता और बेचैनी भी बढ़ती जा रही थी.

एक दिन सुबहसुबह दरवाजे की घंटी बजी तो मैं परेशान हो उठी. मुझे दरवाजे और टेलीफोन की घंटियों से अब डर लगने लगा था. मैं ने दरवाजा खोला. सामने एक बेहद स्मार्ट सा व्यक्ति खड़ा था. उस ने मेरे पति से मिलने की इच्छा जाहिर की. मैं बड़े सत्कार से उसे भीतर ले आई. मेरे पति के आते ही वह खड़ा हो गया. फिर बड़ी विनम्रता से हाथ जोड़ कर बोला, ‘‘मैं डा. चौहान हूं, चाइल्ड स्पेशलिस्ट. आप ने शायद मुझे पहचाना नहीं.’’

‘‘मैं आप को कैसे भूल सकता हूं,’’ सकते में खड़े मेरे पति बोले, ‘‘आप की वजह से तो मेरी यह हालत हुई है. आप के क्लीनिक के इंजेक्शन की वजह से तो मेरी बच्ची को एड्स हो गया. अदालत से भी आप साफ छूट गए. अब क्या लेने आए हैं यहां? एक मेहरबानी हम पर और कीजिए कि हम तीनों को जहर दे दीजिए.’’

‘‘सर, आप मेरी बात तो सुनिए. आप जितनी चाहे बददुआएं मुझे दीजिए, मैं इसी का हकदार हूं. जो गलती मेरे क्लीनिक से हुई है उस के लिए मैं ही जिम्मेदार हूं. मेरी ही लापरवाही से यह सबकुछ हुआ है. कोर्ट ने मुझे बेशक छोड़ दिया पर आप का असली गुनहगार मैं हूं. और यह एक बोझ ले कर मैं हर पल जी रहा हूं,’’ और हाथ जोड़ कर वह मेरी ओर देखने लगा. स्वर पछतावे से भरा प्रतीत हुआ.

‘‘मैं ने इस शहर को छोड़ कर पास के शहर में अपना नया क्लीनिक खोल लिया है. इनसान दुनिया से तो भाग सकता है पर अपनेआप से नहीं. मैं मानता हूं कि मेरा अपराध अक्षम्य है पर फिर भी मुझे प्रायश्चित्त करने का मौका दीजिए.

‘‘मैं अपने सूत्रों से हमेशा आप के परिवार पर नजर तो रखता रहा पर यहां तक आने और माफी मांगने की हिम्मत नहीं जुटा सका. अभी कल ही मुझे पता चला कि आप पर फिर से मकान का संकट आ पड़ा है तो मैं यहां तक आने की हिम्मत कर सका हूं.

‘‘मैं जहां रहता हूं वहीं नीचे मेरा क्लीनिक है. मैं चाहता हूं कि आप लोग मेरे साथ चल कर मेरे मकान में रहिए. मुझे आप से कोई किराया नहीं चाहिए बल्कि आप की चारू का उपचार मेरी देखरेख में चलता रहेगा. मुझे एक बड़ी खुशी यह होगी कि मेरे लिए आप लोगों की सेवा का मौका मिलेगा,’’ कहतेकहते वह मेरे चरणों में गिर पड़ा. उस का स्वर जरूरत से ज्यादा कोमल एवं सहानुभूति भरा था.

मुझे समझ में नहीं आया कि मैं क्या करूं. उस का स्वर भारी और आंखें नम थीं. उस के यह क्षण मुझे कहीं भीतर तक छू गए. अचानक मां के स्वर याद आ गए, ‘अतीत कड़वा हो या मीठा, उसे भुलाने में ही हित है.’

‘‘मुझे सोचने के लिए समय चाहिए. मैं कल तक आप को उत्तर दूंगी.’’

‘‘मैं कल आप का उत्तर सुनने नहीं बल्कि आप को लेने आ रहा हूं. मेरा आप का कोई खून का रिश्ता तो नहीं पर अपना अपराधी समझ कर ही मेरी प्रार्थना स्वीकार कर लीजिए,’’ कहते- कहते उस का गला भर गया और आंसू छलक आए.

उस के इन शब्दों में आत्मीयता और अधिकार के भाव थे. आंखें क्षमायाचना कर रही थीं.

Long Story

Family Kahani: ब्लैक फंगस- क्या महुआ और परिवार को मिल पाई मदद

Family Kahani: महुआ मैक्स नोएडा हौस्पिटल के कौरिडोर में पागलों की तरह चक्कर लगा रही थी. तभी उस की बड़ी ननद अनिला आ कर बोली, ‘‘महुआ धीरज रखो, सबकुछ ठीक होगा. हम अमित को समय से अस्पताल ले आए हैं.’’

महुआ सुन रही थी पर कुछ समझ नहीं पा रही थी. महुआ और उस का छोटा सा परिवार पिछले 25 दिनों से एक ऐसे चक्रव्यूह में फंस गया था कि चाह कर भी वे उसे तोड़ कर बाहर नहीं निकल पा रहे थे. पहले कोरोना ने क्या उस पर कम कहर बरपाया था जो अमित को ब्लैक फंगस ने भी दबोच लिया?

महुआ बैठेबैठे उबासियां ले रही थी. पिछले 25 दिनों से शायद ही कोई ऐसी रात हो जब वह ठीक से सोई हो. तभी मोबाइल की घंटी बजी. युग का फोन था. महुआ को मालूम था युग जब तक बात नहीं करेगा, फोन करता ही रहेगा.

महुआ के  फोन उठाते ही युग बोला, ‘‘मम्मी, पापा कैसे हैं? गरिमा मामी कह रही हैं, वे जल्दी ही वापस आएंगे, फिर हम लोग सैलिब्रेट करेगे.’’

महुआ आंसुओं को पीते हुए बोली, ‘‘हां बेटा, जरूर करेंगे.’’

युग क्याक्या बोल रहा था महुआ को समझ नहीं आ रहा था. बस युग की आवाज से महुआ को इतना समझ आ गया था कि गरिमा उस के बेटे का बहुत अच्छे से ध्यान रख रही हैं. गरिमा उस के छोटे भाई अनिकेत की पत्नी हैं.

महुआ मन ही मन सोच रही थी कि ये वही गरिमा हैं जिसे परेशान करने में महुआ ने कोई कोरकसर नहीं छोड़ी थी और आज मुसीबत के समय ये गरिमा ही हैं जो उस के बेटे युग को अपने पास रखने के लिए तैयार हो गई.’’

उस की खुद की छोटी बहन सौमि ने तो साफ मना कर दिया था, ‘‘दीदी, मेरे खुद के 2 छोटे बच्चे हैं और फिर आप लोग अभीअभी कोरोना से बाहर निकले हो. आप युग को घर पर ही छोड़ दीजिए. मैं उस की ढंग से मौनिटरिंग कर लूंगी.’’

महुआ को समझ नहीं आ रहा था कि वे 5 वर्ष के युग को कहां और किस के सहारे छोड़े.

तभी गरिमा के  फोन ने डूबते को तिनके का सहारा दिया.

इस कोविड ने अपनों के चेहरे बेनकाब कर दिए थे. जिस ननद से उस से हमेशा दूरी बना कर रखी थी, मुसीबत में वही अपनी परवाह करे बिना भागती हुई नागपुर से मेरठ आ गई थी.

तभी अनिला बोली, ‘‘महुआ तुम अनिकेत के घर चली जाओ, थोड़ा आराम कर लो.’’

‘‘तुम्हारे जीजाजी अंनत नागपुर से आ रहे हैं.’’

‘‘हम दोनों यहां देख लेंगे, तुम भी तो कोविड से उठी हो.’’

महुआ रोते हुए बोली, ‘‘और दीदी आप क्या थकी हुई नहीं हैं? आप न होतीं तो मैं क्या करती… मुझे समझ नहीं आ रहा हैं. मैं यहीं रहूंगी दीदी… मैं युग का सामना नहीं कर पाऊंगी.’’

‘‘आप और जीजाजी अनिकेत के घर चले जाओ, मैं रात में यहीं रुकना चाहती हूं.’’

बड़ी मुश्किल से यह तय हुआ कि अनिला और अनंत पहले अनिकेत के घर जाएंगे और फिर थोड़ा आराम कर के वापस हौस्पिटल आ जाएंगे.

तभी नर्स आई और महुआ से बोली, ‘‘मैडम इंजैक्शन का इंतजाम हो गया क्या?’’

महुआ बोली, ‘‘हम लोग कोशिश कर रहे हैं.’’

नर्स बोली,’’ जल्दी करना मैडम 85 इंजैक्शन लगेंगे और अभी बस 10 इंजैक्शन ही हैं हमारे पास.’’

महुआ कुछ न बोली बस शून्य में ताकने लगी. तभी वार्ड से अमित के दर्द से

बिलबिलाने की आवाज आने लगी तो महुआ दौड़ती हुए अंदर गई. अमित की हालत देख कर वह घबरा गई. रोनी सी आवाज में बोली, ‘‘बहुत दर्द हो रहा हैं क्या अमित?’’

अमित बोला, ‘‘मुझे मुक्ति दे दो महुआ… अब सहन नहीं होता.’’

डाक्टर बाहर निकल कर बोले, ‘‘देखिए इन इंजैक्शन में दर्द तो होगा ही पर और कोई और उपाय भी नहीं है.’’

महुआ बोली, ‘‘डाक्टर ठीक तो हो जाएंगे न?’’

डाक्टर बोला, ‘‘अगर समय से इंजैक्शन मिल गए तो जरूर ठीक हो जाएंगे.’’

महुआ को बुखार महसूस हो रहा था. जब से कोविड हुआ है खुद का तो उसे होश ही नहीं था. बुखार रहरह कर लौट रहा था. बैठेबैठे ही महुआ की आंख लग गई. तभी अचानक झटके से उस की आंख खुली. अनिला महुआ को खाना खाने के लिए आवाज दे रही थी.

अनिला बोली, ‘‘अंनत और अनिकेत इंजैक्शन के लिए भागदौड़ कर रहे हैं.’’

‘‘हौस्पिटल में मैं और तुम रह लेंगे. ’’

‘‘फटाफट खाना खा कर पेरासिटामोल ले कर कुछ देर पैर सीधे कर लो.’’

महुआ जैसेतैसे मुंह में कौर डाल रही थी. तभी अनिला बोली, ‘‘युग के लिए तो हिम्मत रखनी होगी न महुआ और अमित के लिए हम सब पूरी कोशिश कर रहे हैं.’’

बाहर कौरिडोर में बहुत भयवह माहौल था. लोग औक्सीजन के लिए, दवाइयों के लिए, बैड के लिए गुहार लगा रहे थे. कुछ लोग रो रहे थे. कही से कराहने, कहीं से विलाप की और कहीं से मौत की आहट आ रही थी. महुआ को लग रहा था कि उसका दिमाग कभी भी फट जाएगा.

पहले कोरोना की दवाइयों के लिए मारामारी, फिर औक्सीजन के लिए और अब ब्लैक फंगस की दवाई भी नहीं मिल रही है. कौन जिम्मेदार है सरकार या हम लोग?

कुछ लोग कहते हैं लोगों ने दवाइयों को ब्लैक कर के रख लिया है ताकि महंगे दाम में बेच सकें पर इस के लिए भी कौन जिम्मेदार है? क्या यह एक आम आदमी की लाचारी और लापरवाही का नतीजा है जो यह ब्लैक फंगस अब सिस्टम से निकल कर एक आम नागरिक पर हावी हो गया है? तभी अनिला आई और बोली, ‘‘महुआ कल अनंत और अनिकेत शायद इंजैक्शन इंतजाम कर दें… उन की बात हो गई है.’’

‘‘कल मजिस्ट्रेट के औफिस जा कर कुछ कागज जमा करने होंगे और शायद फिर वाजिब दाम में ही हमें इंजैक्शन मिल जाएंगे.’’

महुआ ने राहत की सांस ली. ब्लैक में 4 इंजैक्शन की कीमत क्व2 लाख थी. अभी तो महुआ ने 10 इंजैक्शन के लिए क्व5 लाख दे दिए थे.पर बाकी 75 इंजैक्शन का इंतजाम कैसे होगा उसे नहीं पता था? वह मन ही मन अपने जेवरों की कीमत लगा रही थी जो करीब क्व10 लाख होगी और उस के पास घर के अलावा कुछ नहीं था.

अब शायद क्व10 लाख में ही सब हो जाए. महुआ जब सुबह नहाने के लिए भाईभाभी के घर पहुंची तो युग को देख कर उस का मन धक से रह गया. उस का बेटा बुजुर्ग सा हो गया था. उ4टासीधा पानी डाल कर, अनिला के लिए चायनाश्ता पैक करवा कर जब महुआ जाने लगी तो अनिकेत बोला, ‘‘दीदी हम तुम्हें हौस्पिटल छोड़ कर, डाक्टर से बात कर के फिर मजिस्ट्रेट के दफ्तर जाएंगे.’’

‘‘डाक्टर से लिखवाना जरूरी है कि ये इंजैक्शन अमित जीजू के लिए बेहद जरूरी हैं.’’

पूरे रास्ते दोनों ही महुआ की हिम्मत बंधवा रहे थे. हौस्पिटल में डाक्टर से बातचीत कर के अमित को देखते हुए अनंत और अनिकेत अनिला के पास आए और बोले, ‘‘बस अब कुछ भी हो जाए, इंजैक्शन ले कर ही आएंगे.’’

महुआ मरी सी आवाज में बोली, ‘‘मैं आप लोगों के पैसे एक बार अमित डिसचार्ज हो जाए लौटा दूंगी, फिलहाल अकाउंट खाली हो गया है,’’ और फिर फफकफफक कर रोने लगी.

अनंत महुआ के सिर पर हाथ रखते हुए बोले, ‘‘सूद समेत हम ले लेंगे, तुम बस अपना ध्यान रखो और टैंशन मत लो. हम लोग अभी हैं चिंता करने के लिए.’’

पूरा दिन बीत गया, परंतु अनंत अनिकेत का कोई फोन नहीं आया. महुआ सोच रही थी कि फोन इसलिए नहीं किया होगा क्योंकि वे इंजैक्शन ले कर आ ही रहे होंगे.

रात के करीब 9 बजे थके कदमों से अनिकेत खाना ले कर आया और दिलासा देते हुए बोला, ‘‘सब कागजी कार्यवाही हो गई है, परंतु अभी इंजैक्शन सरकार के पास नहीं हैं. शायद परसों तक आ जाएं.’’

महुआ बोली, ‘‘अनिकेत परसों तक के ही इंजैक्शन बचे हैं… तुम कुछ ब्लैक में इंतजाम कर लो. मैं फ्लैट बेच दूंगी.’’

अनिकेत को खुद समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे?

इधरउधर बहुत हाथपैर मारने पर एक दिन के इंजैक्शन का और इंतजाम हो गया. आज फिर अनिकेत और अनंत सरकारी हौस्पिटल इंजैक्शन के लिए गए थे. महुआ अमित का दर्द देख नहीं पा रही थी. आज 1 महीना हो गया था. महुआ मानसिक और शारीरिक रूप से इतनी थक चुकी थी कि उसे लग रहा था कि यह खेल कब तक चलेगा?

वह मन ही मन अमित की मौत की कामना करने लगी थी. यह जिंदगी और मौत के  बीच में चूहेबिल्ली का खेल अब उस की सहनशक्ति से परे था. महुआ को लग रहा था कि यह ब्लैक फंगस धीरेधीरे उस के पूरे परिवार को लील लेगा.

तभी अनंत आया और अनिला से बोला, ‘‘मैं ने अमेरिका में अपनी मामी से बात करी हैं, कुछ न कुछ जरूर हो जाएगा. सरकार से कुछ उम्मीद करना ही हमारी गलती थी.’’

महुआ सबकुछ सुन कर भी अनसुना कर रही थी.

अनंत फिर दबी आवाज में अनिला से बोला, ‘‘अनिकेत को भी बुखार हो गया हैं. वे आइसोलेटेड हैं, पर मैं सब संभाल लूंगा.’’

अचानक महुआ उठी और पागलों की तरह चिल्लाने लगी, ‘‘आप सब दूर चले जाओ… यह ब्लैक फंगस बीमारी नहीं, काल है सब को खत्म कर देगा.’’

अनिला उसे जितना शांत करने की कोशिश करती, वह दोगुने वेग से चिल्लाती.

तभी डाक्टर ने आ कर महुआ को टीका इंजैक्शन लगाया. महुआ नींद में भी बड़बड़ा रही थी, ‘‘ये ब्लैक फंगस हमारे प्रजातंत्र की सच्ची तसवीर है जहां पर बेईमानी, भ्रष्टाचार का बोलबाला हैं. मुझे ऐसी जिंदगी नहीं चाहिए, रोज मरती हूं और रोज जीती हूं.’’

अनिला महुआ की यह हालत देख कर सुबक रही थी और अनंत के चेहरे पर चिंता की गहरी लकीरें खिंची हुई थीं. ऐसा प्रतीत हो रहा था यह ब्लैक फंगस मरीज के साथसाथ उस के पूरे परिवार से भी काले साए की तरह चिपक गया है.

Family Kahani

Hindi Fictional Story: त्रिकोण- शातिर नितिन के जाल से क्या बच पाई नर्स?

Hindi Fictional Story: आज सोनल को दूसरे दिन भी बुखार था. नितिन अनमना सा रसोई में खाना बनाने का असफल प्रयास कर रहा था. सोनल मास्क लगा कर हिम्मत कर के उठी और नितिन को दूर से ही हटाते हुए बोली,”तुम जाओ, मैं करती हूं.”

नितिन सपाट स्वर में बोला,”तुम्हारा बुखार तो 99 पर ही अटका हुआ है और तुम आराम ऐसे कर रही हो,
जैसे 104 है.”

फीकी हंसी हंसते हुए सोनल बोली,”नितिन, शरीर में बहुत कमजोरी लग रही है, मैं झूठ नहीं बोल रही हूं.”

तभी 15 वर्षीय बेटी श्रेया रसोई में आई और सोनल के हाथों से बेलनचकला लेते हुए बोली,”आप जाइए, मैं बना लूंगी.”

तभी 13 वर्षीय बेटा आर्यन भी रसोई में आ गया और बोला,”मम्मी, आप लेटो, मैं आप को नारियल पानी देता हूं और टैंपरेचर चेक करता हूं.”

सोनल बोली,”बेटा, तुम सब लोग मास्क लगा लो, मैं अपना टैंपरेचर खुद चैक कर लेती हूं.”

नितिन चिढ़ते हुए बोला,”सुबह से जब मैं काम कर रहा था तो तुम दोनों का दिल नहीं पसीजा?”

श्रेया थके हुए स्वर में चकले पर किसी देश का नक्शा बेलते हुए बोली,”पापा, हमारी औनलाइन क्लास थी, 1
बजे तक.”

आर्यन मास्क को ठीक करते हुए बोला,”पापा, एक काम कर लो, कहीं से औक्सिमीटर का इंतजाम कर लीजिए, मम्मी का औक्सीजन लैवल चैक करना जरूरी है.”

नितिन बोला,”अरे सोनल को कोई कोरोना थोड़े ही हैं, पैरासिटामोल से बुखार उतर तो जाता है, यह वायरल
फीवर है और फिर कोरोना के टैस्ट कराए बगैर तुम क्यों यह सोच रहे हो?”

श्रेया खाना परोसते हुए बोली,”पापा, तो करवाएं? नितिन को लग रहा था कि क्यों कोरोना के टैस्ट पर ₹4,000 खर्च किया जाए. अगर होगा भी तो अपनेआप ठीक हो जाएगा. भला वायरस का कभी कुछ इलाज मिला है जो अब मिलेगा?”

जब श्रेया खाना ले कर सोनल के कमरे में गई तो सोनल दूर से बोली,”बेटा, यहीं रख दो, करीब मत आओ, मैं नहीं चाहती कि मेरे कारण यह बुखार तुम्हे भी हो.”

नितिन बाहर से चिल्लाते हुए बोला,”तुम तो खुद को कोरोना कर के ही मानोगी.”

सोनल बोली,”नितिन, चारों तरफ कोरोना ही फैला हुआ है और फिर मुझे बुखार के साथसाथ गले में दर्द भी हो रहा है.”

श्रेया और आर्यन बाहर खड़े अपनी मम्मी को बेबसी से देख रहे थे. क्या करें, कैसे मम्मी का दर्द कम करें
दोनों बच्चों को समझ नहीं आ रहा था. सोनल को नितिन की लापरवाही का भलीभांति ज्ञान था. उसे यह भी पता था कि महीने के आखिर में पैसे ना के बराबर होंगे इसलिए नितिन टैस्ट नहीं करवा रहा है. सरकारी फ्री टैस्ट की स्कीम ना जाने किन लोगों के
लिए हैं, उसे समझ नहीं आ रहा था.
सोनल ने व्हाट्सऐप से नितिन को दवाओं की परची भेज दिया. नितिन मैडिकल स्टोर से दवाएं ले आया,
हालांकि मैडिकल स्टोर वाले ने बहुत आनाकानी की थी क्योंकि परची पर सोनल का नाम नहीं था.

दवाओं का थैला सोनल के कमरे की दहलीज पर रख कर नितिन चला गया. सोनल ने पैरासिटामोल खा ली
और आंखे बंद कर के लेट गई. पर उस का मन इसी बात में उलझा हुआ था कि वह कल औफिस जा पाएगी
या नहीं. आजकल तो हर जगह बुरा हाल है. एक दिन भी ना जाने पर वेतन कट जाता है. कैसे खर्च चलेगा
अगर उसे कोरोना हो गया तो? नितिन के पास तो बस बड़ीबड़ी बातें होती हैं, यही सोचतेसोचते उस के कानों
में अपने पापा की बात गूंजने लगी,”सोनल, यह तुझे नहीं तेरी नौकरी को प्यार करता है. तुझे क्या लगता है यह तेरे रूपरंग पर रिझा है?
तुझे दिखाई नहीं देता कि तुम दोनों में कहीं से भी किसी भी रूप में कोई समानता नहीं है…”

आज 16 वर्ष बाद भी रहरह कर सोनल को अपने पापा की बात याद आती है. सोनल के घर वालों ने उसे नितिन से शादी के लिए आजतक माफ नहीं किया था और नितिन के घर में रिश्तों का कभी कोई महत्त्व था ही नहीं. शुरूशुरू में तो नितिन ने उसे प्यार में भिगो दिया था, सोनल को लगता था जैसे वह दुनिया की सब से खुशनसीब औरत है पर यह मोहभंग जल्द ही हो गया था, जब 2 माह के भीतर ही नितिन ने बिना सोनल से पूछे उस की सारी सैविंग किसी प्रोजैक्ट में लगा दी थी.

जब सोनल ने नितिन से पूछा तो नितिन बोला,”अरे देखना मेरा प्रोजैक्ट अगर चल निकला तो तुम यह नौकरी
छोड़ कर बस मेरे बच्चे पालना.”

पर ऐसा कुछ नहीं हुआ और तब तक श्रेया के आने की दस्तक सोनल को मिल गई थी. फिर धीरेधीरे नितिन
का असली रंग सोनल को समझ आ चुका था. जब तक सोनल का डैबिट कार्ड नितिन के पास होता तो सोनल पर प्यार की बारिश होती रहती थी. जैसे ही सोनल नितिन को पैसों के लिए टोकती तो नितिन सोनल से बोलना छोड़ देता था. धीरेधीरे सोनल ने स्वीकार कर लिया था कि नितिन ऐसा ही है. उसे मेहनत करने की आदत नही है. सोनल के परिवार का उस के साथ खड़े ना होने के कारण नितिन और ज्यादा शेर हो गया था. घरबाहर की जिम्मेदारियां, रातदिन की मेहनत और पैसों की तंगी के कारण सोनल बेहद रूखी हो गई थी.
सुंदर तो सोनल पहले भी नहीं थी पर अब वह एकदम ही रूखी लगती थी. सोनल मन ही मन घुलती रहती
थी. नितिन का इधरउधर घूमना सोनल से छिपा नहीं रहा था और ऊपर से यह बेशर्मी कि नितिन सोनल के पैसों से ही अपनी गर्लफ्रैंड के शौक पूरे करता था.

दोनों बच्चों को पता था कि मम्मीपापा के बीच सब कुछ नौर्मल नहीं था.
पर जिंदगी फिर भी कट ही रही थी.
यह सब सोचतेसोचते सोनल की आंख ना जाने किस पहर में लग गई थी. उसे एक बेहद अजीब सपना आया जिस में नितिन के हाथ खून से रंगे हुए थे. अचकचा कर सोनल उठ बैठी, उस का शरीर भट्टी की तरह तप रहा था. बुखार चैक किया 102 था. चाह कर भी वह उठ ना पाई और ऐसे ही गफलियत में लेटी रही.

सुबह किसी तरह से औक्सिमीटर का इंतजाम हो गया था. सोनल ने जैसे ही नापा तो उस का औक्सीजन लैवल
85 था. उस ने फोन कर के नितिन को बोला तो नितिन भी थोड़ा परेशान हो गया और बोला,”सोनल, प्रोन
पोजीशन में लेटी रहो.”

इधरउधर नितिन ने हाथपैर मारने शुरू किए. सब जगह पैसों के साथसाथ सिफारिश चाहिए थी. नितिन
के हाथ खाली थे. किसी तरह श्रेया की फ्रैंड की मदद से सोनल को अस्पताल तो मिल गया था पर दवाओं और टैस्ट के पैसे कौन देगा?
तभी कौरिडोर में एक सांवली मगर गठीली शरीर की नर्स आई और नितिन से मुखातिब होते हुए बोली,”सर, दवाएं यहां फ्री नहीं हैं.”

नितिन मायूसी से बोला,”जानता हूं पर घर में सब लोगों को कोविड है और मांपापा को कैसे ऐसे छोड़ देता, उसी चक्कर में सबकुछ लग गया. 2 बच्चे भी हैं, आप ही बताओ क्या करूं? बिजनैस में अलग से घाटा चल रहा है.”

नर्स का नाम ललिता था. वह 32 वर्ष की थी. उसे नितिन से थोड़ी सहानुभूति सी हो गई. उस ने कहा,”अच्छा सर, मैं कोशिश करती हूं.”

नितिन ने अचानक से ललिता का हाथ अपने हाथों में ले कर हलके से थपथपा दिया. ललित हक्कीबक्की रह गई थी. नितिन धीरे से बोला,”आई एम सौरी ललिता, पर तुम्हें पता है ना इंसान ऐसे पलों में कितना कमजोर पड़ जाता है.”

ललिता को लगा कि नितिन कितना केयरिंग है. अपने घरपरिवार को ले कर और एक उस का पहला पति था
एकदम निक्कमा. काश, मेरा पति भी इतना केयरिंग होता तो मुझे अपनी जान हथेली पर रख कर यह नौकरी नहीं करनी पड़ती.

नितिन विजयी भाव के साथ घर आया. उसे लग रहा था कि उस ने दवाओं का इंतजाम फ्री में ही कर दिया है. थोड़े से घड़ियाली आंसू बहा कर वह ललिता को पूरी तरह अपने शीशे में उतार लेगा.

नितिन के पास यही हुनर था, औरतों की भावनाओं को हवा दे कर उन को उल्लू बनाना. औरतों की झूठी
तारीफें करना और खुद अपना उल्लू सीधा करना.

ललिता ने सोनल की दवाओं का इंतजाम कर दिया था. नितिन ने नहा कर ब्लू कलर की शर्ट और जींस
पहनी. उसे पता था वह इस में कातिल लगता है. दोनों बच्चों को बुलाकर दूर से ही बोला,”बेटा, मैं मम्मी के पास जा रहा हूं, तुम लोग रह लोगे क्या अकेले?”

श्रेया डबडबाई आवाज में बोली,”पापा, मम्मी ठीक हो जाएंगी ना?”

नितिन इतना स्वार्थी था कि उसे अभी भी ललिता दिख रही थी. झुंझलाता हुआ बोला,”अरे भई, इसलिए तो वहां
जा रहा हूं, तुम क्यों रोधो रही हो?”

आर्यन श्रेया को चुप कराते हुए बोला,”दीदी, हम लोग हिम्मत नहीं हारेंगे, पापा आप जाओ.”

नितिन हौस्पिटल तो गया पर सोनल के पास जाने के बजाए घाघ लोमड़ी की तरह ललिता के बारे में
इधरउधर से पता लगाता रहा था. यह पता लगते ही कि ललिता का अपने पति से तलाक हो गया है नितिन
की बांछें खिल गई थीं. उधर सोनल का औक्सीजन लैवल डीप कर रहा था. हौस्पिटल में इतनी मारामारी थी
कि अगर मरीज का तीमारदार ध्यान ना दे तो मरीज की कोई सुधबुध नहीं लेता था.

नितिन बाहर से ही सोनल को देख रहा था. उस का बिलकुल भी मन नहीं था अंदर जाने का. तभी नितिन ने दूर से ललिता को आते हुए देखा, नितिन भाग कर अंदर सोनल के पास गया. नितिन ने देखा कि सोनल का
औक्सीजन लेवल 70 पहुंच चुका था. वह भाग कर ललिता के पास गया और घड़ियाली आंसू बहाते हुए
बोला,”ललिता, मेरी सोनल को बचा लो. घर पर बच्चों के लिए खाने का इंतजाम करने गया था.”

ललिता भागते हुए सोनल के पास पहुंची तो देखा औक्सीजन मास्क ठीक से लगा हुआ नहीं था. उस ने ठीक किया तो सोनल का औक्सिजन लैवल बढ़ने लगा. नितिन ललिता के करीब जाते हुए बोला,”ललिता, तुम मेरे लिए फरिश्ता बन कर आई हो.”

ललिता को नितिन से सहानुभूति सी हो गई थी. नरम स्वर में बोली,”आप चिंता मत करें, यह मेरा पर्सनल नंबर है. अगर जरूरत पड़े तो कौल कर लीजिएगा.”

नितिन को ललिता से और बात करनी थी, इसलिए बोला,”यहां कोई कैंटीन है, सुबह से कुछ नहीं खाया है. तुम्हें अजीब लग रहा होगा पर पापी पेट तो नहीं मानता ना.”

ललिता बोली,”आप मेरे साथ चलो…”

कैंटीन में बैठेबैठे 1 घंटा हो गया था. नितिन जितना झूठ बोल सकता था, उस ने बोल दिया था. ललिता जब
कैंटीन से बाहर निकली तो उसे लगा कि वह नितिन के बेहद करीब आ गई है. ललिता ने नितिन की मदद करने के उद्देश्य से अपनी ड्यूटी भी उस वार्ड में लगवा ली जिस में सोनल ऐडमिट थी. वह आतेजाते आंखों ही आंखों में नितिन को साहस देती रहती थी. नितिन को ललिता में अपना अगला शिकार मिल गया था. वह बेहया इंसान यहां तक सोच बैठा था कि अगर सोनल को कुछ हो गया तो वह ललिता को अपनी जिंदगी में शामिल कर लेगा. ललिता अकेली रहती है और अच्छाखासा कमाती है. दिखने में भी आकर्षक है और सब से बड़ी बात ललिता उसे पसंद भी करने लगी है.

अब नितिन का रोज का यह काम हो गया था, ललिता के साथ कैंटीन में खाना खाना और अपनी दुख की
कहानी कहना. ललिता को नितिन का आकर्षक रूपरंग और उस का अपने परिवार के लिए समर्पण आकर्षित
कर रहा था. उसे सपने में भी भान नहीं था कि नितिन इंसान के रूप में एक भेड़िया है.

सोनल का मन नितिन की हरकतें देख कर छटपटा रहा था. वह बच्चों को देखना चाहती थी. वह बहुत कोशिश
कर रही थी, क्योंकि उसे पता था कि उस के बाद यह चालाक इंसान बच्चों पर ध्यान नहीं देगा. पर कुदरत को
कुछ और ही मंजूर था, सोनल कोरोना के आगे जिंदगी की जंग हार गई थी.

नितिन जब सोनल का अंतिम संस्कार कर के घर पहुंचा तो श्रेया और आर्यन का विलाप देख कर पहली बार
उस का दिल भी भावुक हो उठा था. वह भी बच्चों को गले लगा कर फफकफफक कर रो पड़ा. पर नितिन को पता था कि सोनल इस घर की गृहिणी ही नहीं, बल्कि अन्नदाता भी थी.

बैंक में बस ₹10 हजार शेष थे. सोनल के जाने के बाद एक बंधी हुई इनकम का सोर्स बंद हो गया था. नितिन की आदतें इतनी खराब थीं कि उस के घर वाले और दोस्त उस की मदद करने को तैयार नहीं थे. ऐसे में ललिता के अलावा नितिन को कोई नजर नहीं आ रहा था.

सब मुसीबतों के बाद भी बस एक अच्छी बात यह थी कि यह घर नितिन और सोनल ने बहुत पहले बनवा लिया था. अब नितिन ने तिकड़म लगाया और ललिता को अपने घर पेइंगगैस्ट की तरह रहने को बोला. ललिता की हिचकिचाहट देख कर नितिन बोला,”मेरे बच्चों की खातिर आ जाओ ललिता, वे सोनल को बहुत मिस करते हैं. तुम जितना किराया देती हो, उस से आधा दे देना, मुझे तुम्हारे साथ की जरूरत है.”

ललिता के आंखों पर तो जैसे पट्टी बंधी हुई थी. वह अपना सामान ले कर नितिन के घर आ गई थी. दोनों बच्चे ललिता को देख कर अचकचा गए मगर कुछ बोल नहीं पाए. एक रूम में ललिता, दूसरे में बच्चे और ड्राइंगरूम में नितिन रहता था.
ललिता ने धीरेधीरे पूरे घर का काम अपने जिम्मे ले लिया था. नितिन रातदिन ललिता की तारीफों में कसीदे
पढ़ता था. ललिता को लगने लगा था कि उस से ज्यादा सुंदर शायद इस दुनिया में कोई नहीं है. ललिता
आखिर एक औरत थी और वह भी निपट अकेली, उस का दिल भी पिघल ही गया. ललिता और नितिन की शादी नहीं हुई थी पर वे दोनों अब पतिपत्नी की तरह ही रहने लगे थे.
ललिता का पूरा वेतन अब नितिन की जेब में जाता था. श्रेया और आर्यन अपने पापा और ललिता की चुहलबाजी देख कर अंदर ही अंदर चिढ़ते रहते थे. एक दिन तो हद हो गई जब नितिन और ललिता बेशर्मी की सारी सीमा लांघते हुए बच्चों के सामने ही कमरे में बंद हो गए.

ललिता के हौस्पिटल जाने के बाद आर्यन और श्रेया ने नितिन को आङे हाथों ले लिया था. आर्यन बोला,”पापा, आप को शर्म नहीं आती, मम्मी को अभी गए हुए 2 माह भी नहीं हुए हैं…”

नितिन गुस्से में बोला,”क्या तुम्हारी मम्मी के जाने के बाद मुझे अकेलापन नहीं लगता है? ललिता मेरी बहुत
अच्छी दोस्त है. उसी के कारण हमें यह रोटी नसीब हो रही है. तुम लोगों को अच्छा नहीं लगता तो जहां जाना चाहते हो चले जाओ. और फिर बेटा, मैं कोई ललिता आंटी को तुम्हारी मम्मी की जगह थोड़े ही दूंगा, वह बस हमारे यहां रह रही हैं और रहने का किराया दे रही हैं.”

दोनों बच्चे उस दिन अपनी मम्मी को याद कर के रोते रहे. नानानानी से तो कोई मतलब नहीं था और दादा के जाने के बाद दादी ने भी चाचा के डर से रिश्ता खत्म कर दिया था.

देखते ही देखते 1 साल बीत गया. अब ललिता नितिन पर शादी के लिए दबाव बनाने लगी. नितिन एक शातिर खिलाड़ी था. उस ने ललिता को यह कह कर चुप करा दिया था कि उस के बच्चे उसे छोड़ कर चले जाएंगे और वह उन के बिना नहीं रह पाएगा.”

ललिता गुस्से में बोली,”ठीक है तो मैं चली जाती हूं. नितिन ललिता को बांहों में भरते हुए बोला,”मैं आत्महत्या कर लूंगा, अगर तुम ने मुझे छोड़ने की बात भी सोची.”

3 साल हो गए थे. ललिता आत्मनिर्भर और आकर्षक थी पर नितिन उस का मानसिक, आर्थिक और शारीरिक रूप से शोषण कर रहा था. पर अब ललिता चाह कर भी इस जाल से निकल नहीं पा रही थी. नितिन के झूठ को भी वह सच मान कर जी रही थी. कम से कम सोनल के पास उस के 2 बच्चे तो थे पर ललिता के तो इस रिश्ते में…

ललिता पिछले 3 सालों में 2 बार गर्भपात करा चुकी थी. ललिता अकेली थी पर अपने अकेलेपन को भरने के लिए उस ने गलत साथी चुन लिया था.

उधर नितिन बेहद खुश था कि वह किसी भी कीमत पर शादी कर के एक और बच्चे का खर्च नहीं बढ़ाना चाहता था. वह खुश था कि अब उसे पूरी आजादी थी और साथ ही ललिता के ऊपर हक भी था. स्वार्थ में
नितिन को ना ललिता का खयाल था और न ही बच्चों की फिक्र थी. ललिता सोच रही थी कि कोरोना ने सोनल की तो जिंदगी छीन ली थी पर उसे जीतीजागती लाश बना दिया था.
श्रेया, आर्यन और ललिता तीनों ही एक त्रिकोण में ना चाहते हुए भी बंधे हुए थे और इस त्रिकोण के हर
कोण को नितिन अपने हिसाब से घटता या बढ़ाता रहता था.

Hindi Fictional Story

Drama Story: उसका दुख- क्या नंदा को मिल पाया पति का प्यार

Drama Story: टैक्सी हिचकोले खा रही थी. कच्ची सड़क पार कर पक्की सड़क पर आते ही मैं ने अपने माथे से पंडितजी द्वारा कस कर बांधा गया मुकुट उतार दिया. पगड़ी और मुकुट पसीने से चिपचिपे हो गए थे. बगल में बैठी सिमटीसिकुड़ी दुलहन की ओर नजर घुमा कर देखा, तो वह टैक्सी की खिड़की की ओर थोड़े से घूंघट से सिर निकाल कर अपने पीछे छोड़ आए बाबुल के घर की यादें अपनी भीगी आंखों में संजो लेने की कोशिश कर रही थी.

मैं ने धीरे से कहा, ‘‘अभी बहुत दूर जाना है. मुकुट उतार लो.’’

चूडि़यों की खनक हुई और इसी खनक के संगीत में उस ने अपना मुकुट उतार कर वहीं पीछे रख दिया, जहां मैं ने मुकुट रखा था.  चूडि़यों के इस संगीत ने मुझे दूर यादों में पहुंचा दिया. मुझे ऐसा लगने लगा, जैसे मेरे अंदर कुछ उफनने लगा हो, जो उबाल आ कर आंखों की राह बह चलेगा. आज से 15 साल पहले मैं इसी तरह नंदा को दुलहन बना कर ला रहा था. तब नएपन का जोश था, उमंग थी, कुतूहल था. तब मैं ने इसी तरह कार में बैठी लाज से सिकुड़ी दुलहन का मौका देख कर चुपके से घूंघट उठाने की कोशिश की थी. वह मेरा हाथ रोक कर और भी ज्यादा सिकुड़ गई थी.

मैं ने उसे अभी तक देखा ही नहीं था. मैं ने चाचाजी की पसंद को ही अपनी पसंद मान लिया था. अब उसे देखने के लिए मन उतावला हो रहा था. नंदा को पा कर मैं फूला नहीं समा रहा था. वह भी खुश थी. भरेपूरे परिवार में वह जल्दी ही हिलमिल गई. मां उस की तारीफ करते नहीं अघाती थीं. घर में जो भी औरतें आतीं, वे अपनी बहू से उन्हें जरूर मिलाती थीं. अपने 5 बेटों और बड़ी बहू का वे उतना ध्यान नहीं रखतीं, जितना उस का रखती थीं. सासससुर की देखरेख, देवरननदों की पढ़ाई की सुविधा जुटाना, मुझे कालेज में जाने के लिए कपड़े, जूते, किताबें तैयार कराना, नौकरचाकरों को अपनी देखरेख में काम कराना उस के जिम्मे लगने लगा था. अगर मैं कभीशहर घूम आने या अपने दोस्तों के यहां चलने के लिए कहता, तो वह धीरे से कह देती, ‘ससुरजी को दवा देनी है. नौकरों से सब्जी की गुड़ाई करानी है. जानवरों के सानीपानी देना है. जेठानीजी अकेले कहां करा पाएंगी इतना सारा काम? मैं चली जाऊंगी, तो सासूमां को तकलीफ उठानी पड़ेगी. आज नहीं, फिर कभी.’

उस की ऐसी दलीलों को सुन कर मन मसोस कर मुझे चुप रह जाना पड़ता. जोशीजी की पत्नी ताना दे कर कहतीं, ‘‘मास्टरजी, कभी बहू को तो यहां लाया करो. आप ने तो उन्हें ऐसे छिपा लिया है, जैसे हम नजर लगा देंगे.’’ कालेज से जब घर लौटता, तो थक कर चूर हो जाता था. कभीकभी तो आठों पीरियड पढ़ाने पड़ जाते थे. मेरी तकलीफ नंदा जानती थी. समय निकाल कर जिद कर के वह मालिश करने लग जाती. एक दिन वह मुझ से नाराज थी. रात को बिना खाए ही सो गई. बात यह थी कि उस ने उस दिन मेरे पास आ कर कहा था, ‘‘पतिजी, एक बात कहूं? अगर आप मानोगे, तो तब कहूंगी,’’ वह बड़ी ही मासूमियत से बोली थी. वह अकेले में मुझे ‘पतिजी’ कहती थी.

मैं ने प्यार से कहा, ‘‘कहो तो सही.’’

‘‘पहले मानूंगा कहो,’’ वह बोली.

‘‘अच्छा बाबा, मानूंगा,’’ मैं बोला.

‘‘मुझे कुछ ज्यादा पैसे चाहिए,’’ उस ने कहा.

‘‘किसलिए चाहिए, यह तो बताओ?’’

‘‘अभी यह मत पूछो. तुम्हें अपनेआप पता चल जाएगा. मुझे 3 सौ रुपए की जरूरत है,’’ वह बोली.

‘‘जब तक तुम वजह नहीं बताओगी, पैसे नहीं मिलेंगे,’’ मैं ने भी अपना फैसला सुना दिया. इस के बाद वह रात को मुझ से नहीं बोली. सब को खाना खिला कर वह बिना खाए ही सो गई. दूसरे दिन मांजी को नंदा से कहते हुए सुना, ‘‘क्या बात है, जसौद हरीश व हंसी को साथ ले कर नैनीताल नंदा देवी देखने ले जाने वाला था, अभी तक तैयार नहीं हुए?’’

‘‘पैसों का इंतजाम नहीं हो पाया मांजी. अगर आप थोड़ा पैसों की मदद कर दें, तो मैं उन से मांग कर आप को दे दूंगी, नहीं तो बच्चों का दिल टूट जाएगा. वे एक हफ्ते से कितने बेचैन हैं?’’ कहते हुए वह मांजी की ओर याचना भरी नजरों से देख रही थी.

‘‘ऐसा था, तो अभी तक क्यों नहीं कहा… मैं तो सोच रही थी कि शायद तुम्हारे जाने का प्रोग्राम बदल गया है,’’ मां बोलीं.

‘‘मांजी, मैं ने सोचा कि उन से कह कर…’’ मुझे देख कर वह चुप हो गई. मैं कालेज जाने की तैयारी कर रहा था. सासबहू की बातें मेरे कानों में पड़ीं, तो मैं उन के पास पहुंचा और जेब से पैसे निकाल कर नंदा को थमाते हुए बोला, ‘‘अरे भई, पहले ही कह दिया होता. वजह तो मैं पूछ ही रहा था. मैं ने कभी मना किया है तुम्हें?’’

वह मुसकराते हुए पैसे ले कर अंदर की ओर चल दी. वह देवरननद को यह खुशखबरी देने की बेचैनी अपने में नहीं रोक सकी. देवर व ननद से इतना लगाव देख कर मुझे उस से और भी प्यार हो आया. हमारी खुशहाल जिंदगी के 2 साल बीत गए. इस बीच हमारी गोद में एक नन्हा मुन्ना भी आ गया. बच्चे की जिम्मेदारी मांजी ने अपने ऊपर ले ली थी. वे ही उसे नहलातींधुलातीं, देखरेख करतीं. नंदा केवल अपना दूध पिलाने और रात को पास में ही सुलाने की ड्यूटी निभाती. सब ठीक ही चल रहा था. बोझ का एहसास तो तब हुआ, जब 4 साल और 2 साल के फर्क में 2 लड़कियां और चली आईं. उस दिन मेरा बेटा नवीन मेरे पलंग पर आ कर सो गया था. बड़ी बेटी मां के पास सो रही थी. छोटी बेटी को नंदा थपकी दे कर अपनी चारपाई पर सुला रही थी. मैं ने नंदा के मन को टटोलने के लिए पूछ लिया, ‘‘आधा दर्जन पूरा होने में 3 ही अदद की तो कमी रह गई. तुम्हारा क्या विचार है?’’

वह झुंझला कर बोली, ‘‘तुम भी कैसी बात करते हो जी? इन 2 लड़कियों की फिक्र ही मेरा दिमाग चाट रही है. 2-1 और हो जाएं, तो घर का भट्ठा ही बैठ जाएगा. ब्याहने के लिए कहां से लाओगे इतने पैसे?’’

मैं ने उस से कहा, ‘‘तुम ठीक कह रही हो. वह तो मैं ने तुम्हारे विचार जानने के लिए कहा था. सोच रहा हूं कि इस आने वाले जाड़ों में परिवार नियोजन करा लूं.’’

यह सुन कर वह चौंक पड़ी. कुछ देर वह मेरी ओर ताकती रही, फिर मेरे पास आ कर कंधे पर हाथ रखते हुए बोली, ‘‘तुम इतने कमजोर हो. कहीं तुम्हें कुछ हो गया, तो मैं क्या करूंगी? मैं तो कहीं की नहीं रहूंगी. मुझे ही फैमिली प्लानिंग करा लेने दो. तुम जब कहो, तब मैं अस्पताल चल दूंगी.’’

मैं खीझ उठा, ‘‘तुम्हारी सोच तो बस जिद करने की आदत है. तुम यह क्यों नहीं समझतीं कि मर्द को फैमिली प्लानिंग में ज्यादा मुश्किल नहीं होती. औरत के लिए दिक्कत होती है. अस्पताल में कम से कम 2 दिन रुकना पड़ता है. दूसरा कोई आसान तरीका अभी नहीं निकला है. तुम निश्चिंत रहो. मुझे कुछ नहीं होने वाला है.’’

‘‘नहीं, तुम यह कभी मत करना. मैं ने सुना है कि मर्द कमजोर हो जाते हैं. मैं सारी तकलीफ झेलने को तैयार हूं, पर तुम्हें आपरेशन नहीं कराने दूंगी.’’

उस के मासूम चेहरे को देख कर मुझे ‘हां’ कहने के अलावा और कोई चारा नहीं दिखा.

3 महीने भी नहीं गुजरे थे कि सरकारी आदेश आ गया. 2 बच्चों से ज्यादा जिन के बच्चे हैं, तुरंत नसबंदी कराने के सख्त आदेश कर दिए. उन दिनों इमर्जैंसी चल रही थी. चमचों और पिछलग्गुओं की बन आई थी. नेताओं को खुश करने के लिए, सरकार को खुश करने के लिए जनता पर जीतोड़ कहर ढाया जा रहा था. तब प्रिंसिपल भी भला पीछे क्यों रहें. उन के तो दोनों हाथ में लड्डू थे. सरकार को भी खुश करो और दर्जनभर केस दिलवा कर एक इंक्रीमैंट और जुड़वा लो. मैं ने आपरेशन कराने से पहले नंदा की रजामंदी ले लेना ठीक समझा, वरना उसे मनाना मुश्किल होगा. इन दिनों वह बच्चों को ले कर रामगढ़ गई हुई थी. जब उसे मालूम हुआ कि मैं आपरेशन कराने वाला हूं, वह दौड़ीदौड़ी चली आई. मेरे समझाने पर भी वह नहीं मानी. आपरेशन की ड्रैस पहना कर जब नर्सें उसे आपरेशन रूम में ले जा रही थीं, तब मेरा कलेजा काटने को आ रहा था. मैं अपने को धिक्कार रहा था कि मैं उसे क्यों अस्पताल ले आया? क्यों उस की बात मानी?

आपरेशन रूम से बाहर लाने में तकरीबन आधा घंटा लगा होगा. मुझे वे पल घंटों लंबे लगे. स्ट्रेचर पर सफेद कपड़ों में उसे बेहोश देख कर मुझे एकबारगी रोना सा आ गया. गला ऐसा भर आया, मानो कोई गला घोंटने लगा हो. बेहोशी में कराह के बीच उस का पहला साफ शब्द था, ‘‘पतिजी…’’ 3 साल बाद शादी की 13वीं सालगिरह की मनहूस आखिरी रील चल रही थी. इस रील के प्रमुख पात्र थे. मैं नायक था, नायिका नंदा थी और खलनायक खुद ऊपर वाला. खलनायक को नंदा का मेरे पास रहना अब नागवार सा लगा. फिर क्या था, उस ने उसे मुझ से छीनने की साजिश रच डाली. चिनगारी बुझने से पहले खूब रोशनी करती है न, ऊपर वाले ने नंदा की जिंदगी का भी यही सब से अच्छा सुनहरा साल चला दिया.

उस का छोटा भाई अपनी दीदी से मिलने आया था. नंदा अपनी खुशी को नहीं संभाल पा रही थी. अंदरबाहर इधरउधर वह तितली सी फुदक रही थी. रात को जब सब लोग मेरे बैडरूम में रेडियो के गानों के बीच गपशप में मशगूल थे, तो नंदा ने मुझ से अपनी तकलीफ जाहिर की, ‘‘आज मैं खाना नहीं खा सकी. मेरे जबड़े में बहुत तेज दर्द हो रहा है.’’

‘‘ज्यादा बोलती है न, इसलिए जबड़ा दर्द करेगा ही,’’ मैं ने बात हंसी में टाल दी. सुबह अपने भाई को विदा कर वह मेरे पास आ रही थी. आते ही वह सिसकियों से भर गई. आखिर इतना दुख वह कब से अपने में रोके थी? मैं हैरान रह गया. शायद भाई की जुदाई हो. पर ऐसी कोई बात न थी. उस का रोना शारीरिक दुख था. वह अपना मुंह पूरी तरह नहीं खोल पा रही थी. जबड़े दर्द के साथसाथ कसते चले जा रहे थे. मात्र उंगली डालने लायक जगह बची थी. मैं सहम गया.

उस ने मुझे छुट्टी ले कर अस्पताल चलने को कहा. मैं तुरंत उसे ले कर डाक्टर मेहरा के प्राइवेट अस्पताल को चल दिया. राधा भाभी को भी अपने साथ ले लिया.

डाक्टर मेहरा ने देखा और पूछा, ‘‘कहीं चोट तो नहीं लगी है?’’

नंदा ने सिर हिला कर जवाब दिया, ‘‘नहीं.’’

‘‘कहीं कील या ब्लेड तो नहीं चुभा था?’’

जवाब था, ‘‘नहीं.’’

‘‘इधर महीनेभर के अंदर कोई ऐसी बात याद करो कि तुम्हारे शरीर से खून निकला हो या शरीर में कुछ चुभा हो या फिर तुम ने किसी पिन, सूई जैसी किसी चीज से दांत खुरचा हो?’’

कुछ देर सोचने के बाद उस ने ही कहा, ‘‘कुछ याद नहीं पड़ता.’’

मैं डाक्टर के चेहरे को पढ़ने की कोशिश कर रहा था. डाक्टर के चेहरे पर हैरानी और उतारचढ़ाव साफ जाहिर हो रहा था. डाक्टर बोला, ‘‘ऐसा नहीं हो सकता. जरूर कुछ न कुछ हुआ होगा, जो तुम याद नहीं कर पा रही हो. बिना चोट के तो यह मुमकिन ही नहीं है.’’ फिर डाक्टर ने मेरी ओर देख कर कहा, ‘‘मुझे टिटनैस का डर लग रहा है. आप इन्हें जितनी जल्दी हो सके, सरकारी अस्पताल में भरती करा दें.’’

बीमारी का नाम सुनते ही मेरे पैरों की जमीन खिसकने लगी. मैं घबरा गया और उन से पूछा, ‘‘डाक्टर साहब, कहीं खतरा तो नहीं है?’’

‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं. अगर समय पर टिटनैस के इंजैक्शन लग जाएंगे, तो ठीक हो जाएंगी.’’ मुझे याद नहीं कि मैं ने कब परचा लिया और कब हम तीनों सरकारी अस्पताल पहुंच गए. हम में से किसी को होश नहीं था. खतरे का डर सब को हो गया था, क्योंकि इस बीमारी की भयंकरता सब ने सुन रखी थी. डाक्टर ने देखा, जांचा, परखा, पूछा आखिर में पहले डाक्टर की बात का समर्थन करते हुए नंदा को स्पैशल वार्ड में दाखिल कर दिया. एटीएस के 50,000 पावर के इंजैक्शन का इंतजाम भी मुझे ही करना था. वह इंजैक्शन अस्पताल में नहीं था. देर करना खतरनाक था. नंदा के पास भाभी को छोड़ कर मैं सब्र से काम लेने के लिए कह कर जाने लगा, तो वे दोनों मुंह दबा कर फफक कर रो उठीं.

मैं ने अपने को भरसक संभाला. लगा, जैसे सीना फट जाएगा. समय गंवाना ठीक न समझ कर मैं शहर को चल दिया. घंटेभर बाद इंजैक्शन का भी इंतजाम हो गया. घर में सूचना देते समय मेरा गला भर गया, आंखें बरसने लगीं. सारे घर में अजीब सा सन्नाटा छा गया. पहली रात हलकीहलकी कराहने की आवाजें आती रहीं. मैं उस के साथ था. मैं उस के माथे को सहला रहा था. उस ने अपना पर्स, कानों के कनफूल, मंगलसूत्र सब मुझे थमाते हुए कहा, ‘‘पतिजी, इन्हें रख लो. अपना खयाल रखना. बच्चों का खयाल रखना,’’ वह आगे कुछ न कह सकी. आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे.

मैं ने उसे हिम्मत बंधाते हुए कहा, ‘‘चिंता मत करो, तुम बिलकुल ठीक हो जाओगी.’’ हम दोनों को ही एहसास हो चुका था कि अलविदा का समय नजदीक आ चुका है. शायद रातभर में हम इतना ही बोले थे. दूसरे दिन तक सारे गांव, इलाके, रिश्तेदारों तक को सूचना मिल गई थी. अस्पताल में भीड़ रोके नहीं रुक रही थी. अब नंदा का रूम डार्करूम बना दिया गया था. आंखों पर पट्टी रख दी गई थी. उस के आसपास आवाज करने की मनाही कर दी गई थी.

अगले दिन उस के पैरों में जकड़न चालू हो गई. पीठ में दर्द, ऐंठन बढ़ गई. दांत आपस में भिंच गए. धीरेधीरे जकड़न व ऐंठन सारे बदन में दाखिल हो गई. हलकेहलके झटके भी पड़ने चालू हो गए.

जब झटके पड़ते, ऐंठन होती, तो हम लोग उस के हाथ, पैर, सीना हलके से मलते. ग्लूकोज की बोतलों में तरहतरह की दवाओं का मिश्रण उसे दिया जा रहा था. एटीएस का तब तक दूसरा भी 50,000 पावर का इंजैक्शन लगा दिया गया था.

एकएक दिन खिसक रहे थे और उस की हालत दिनबदिन खराब होती जा रही थी. उस का शरीर इंजैक्शनों से छलनी हो गया था. पानी के बिना वहां सूखी पपडि़यां तड़क आई थीं. दांत कसने से खून बह रहा था. जूस व पानी के लिए वह संकेत करती, लेकिन डाक्टर की इजाजत नहीं थी. दिल मसोस कर रह जाना पड़ता. फट आए होंठों में ग्रीसलीन लगा कर तर करने की कोशिश की. पानी की 2-4 बूंदें तो दरारों में ही समा जाती थीं. इधर झटके तेज होते गए. दौरों की लंबाई भी बढ़ती गई. दर्द से छुटकारा दिलाने के लिए उसे नींद के इंजैक्शन दिए जा रहे थे, पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा था.

अब ग्लूकोज को भी शरीर ने खींचना छोड़ दिया था. निराशा में सब का दिल डूबने लगा. अभी छठे दिन की पौ नहीं फटी थी. रात को बारिश के बाद धुंधला सा उजाला होने लगा था. नर्स नींद का इंजैक्शन दे कर चली गई. कुछ समय बाद मैं दूसरे लोगों की देखरेख में नंदा को सौंप कर नहानेधोने चला गया. जब लौट कर आया, तब तक नंदा नहीं रही थी. अब न कोई झटके थे. न दौरे थे. न दर्द था. न कराहें थीं. थीं तो बस घर वालों की, दोस्तों की घुटती सिसकियां. मेरा सबकुछ लुट गया था. मैं खोयाखोया सा रहने लगा. छोटी बच्चियां जब टकटकी लगा कर मेरी ओर देखतीं, कलेजा मुंह में आने को हो जाता. थपकियां दिला कर, सीने से लगाए उन्हें सुला देता. नवीन ने चुप्पी साध ली थी. चुपचाप आ कर पुस्तक पढ़ने लग जाता. अब मांजी ही बच्चों की परवरिश कर रही थीं. धीरेधीरे 2 साल निकल गए. मांजी बच्चों की खातिर दोबारा शादी करने की बात छेड़तीं, तो मैं टाल जाता था. ससुराल वालों ने भी शादी के लिए कहना शुरू कर दिया. कई जगह से रिश्ते भी आने शुरू हो गए, लेकिन मैं साफ मना कर देता. भला पराए बच्चों को कौन नवेली अपना लेगी?

सासजी को शादी के लायक हो आई अपनी बेटी खुशी की उतनी चिंता न थी, जितनी मेरी और मेरे बच्चों की. मैं ने खुशी के लिए योग्य लड़का तलाश कर सूचना भेजी, तो जवाब आया कि खुशी ने इसलिए इनकार कर दिया है कि जब तक जीजाजी शादी नहीं कर लेंगे, वह भी शादी नहीं करेगी. बात बिगड़ती देख ससुराल वालों ने प्रस्ताव रखा कि क्यों न खुशी से ही मेरी शादी कर दी जाए. खुशी ने भी अपनी दीदी के बच्चों की खातिर अपना त्याग स्वीकार कर लिया. लेकिन मैं इसे कैसे स्वीकार कर लेता?

मैं ने उसे समझाया, ‘‘खुशी, तुम यह क्या कर रही हो? जरा सोचो तो… मेरी उम्र का 38वां साल पार होने जा रहा है, जबकि तुम अभी 20 साल की होगी. फिर मैं 3 बच्चों का पिता भी हूं. मेरी खातिर अपनी जिंदगी क्यों बरबाद करने पर तुली हो? यह सही नहीं है.’’

वह धीरे से बोली, ‘‘आप मेरी चिंता न करें. सब सोचसमझ कर ही तो मैं ने हां की है. उम्र की क्या कहते हैं? माथे में उम्र लिखी होती, तो दीदी यों ही हमें छोड़ कर चली थोड़े ही जातीं? बच्चे मुझ से हिलेमिले हैं. मां का दुख भूल जाएंगे.

‘‘दीदी पर जितना हक आप का था, क्या मेरा हक नहीं? मुझे भी तो उस का दुख उतना ही है, जितना आप को,’’ उस के अंदर अपनापन और त्याग की भावना साफ झलक रही थी. बहुत समझाने पर भी उस ने अपना इरादा नहीं बदला, तब मुझे भी सहमति देनी पड़ी. आखिर किसकिस का मुंह संभालता? टैक्सी ने हिचकोला खाया, तो मेरी पिछली यादें टूट गईं. मैं अपनी यादों में इतना खो गया था कि मुझे यह ध्यान ही नहीं रहा कि मैं वर बना बैठा हूं. एक दुलहन भीगी पलकों से मुझे ही निहार रही है. मुझे पढ़ रही है. समझ रही है. शायद तब तक मेरी आंखों के रास्ते कुछ बह कर सूख गया था. वह मुझ पर लुढ़क गई और मेरी गोदी में सो गई.

Drama Story

Emotional Story: ममता का आंगन- मां के लिए कैसे बदली निशा की सोच

Emotional Story: विदाई की बेला… हर विवाह समारोह का सब से भावुक कर देने वाला पल. सुंदर से लहंगे में आभूषणों से लदी निशा धीरेधीरे आगे कदम बढ़ा रही थी. आंसुओं से उस का चेहरा भीगा जा रहा था. सहेलियां और भाभियां उलाहना दे रहीं थीं, “अरे इतना रोओगी तो मेकअप धुल जाएगा.” इसी तरह की चुहलबाजी हो रही थी.

मगर वह चाह कर भी अपने आंसू नहीं रोक पा रही थी. खुद को दोराहे पर खड़ा महसूस कर रही थी आज वह.

सजीधजी सुंदर सी कार उसे पिया के घर ले जाने के लिए तैयार खड़ी थी. अजय कार में बैठ चुका था. निशा ने कनखियों से देखा तो लगा कि अजय बेसब्री से उस का इंतजार कर रहा था, मानो कह रहा हो, “अब बस भी करो निशा… नए घर में भी लोग तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं.”

वह एक कदम आगे बढ़ती तो दो कदम पीछे वाली स्थिति थी. पापाभैया पास में ही खड़े थे. निशा पलट कर पापा के गले लग कर रोने लगी. भाई उसे प्यार से सहला रहा था, मानो पापा से छुड़ाना चाह रहा हो और कह रहा हो,” दीदी, एक नई सुंदर सी दुनिया तुम्हारी प्रतीक्षा में है. उस का स्वागत करो.”

तभी उस ने देखा कि मां किसी अपराधिनी सी दूर खड़ी अपने ढुलकते आंसुओं को छिपाने का असफल प्रयास कर रही थी. दोनों तरफ से स्थिति कमोबेश एक सी ही थी.

मां आगे बढ़ कर उसे गले लगाने का साहस नहीं कर पा रही थी क्योंकि उन्हें डर था कि कहीं निशा नाराज ना हो जाए. ये अधिकार निशा ने उन्हें आज तक दिया ही नहीं था.

इधर, निशा भी चाहते हुए ममत्व की प्यास को सहलाने में नाकाम साबित हो रही थी. बड़ी ही मुश्किल से मां धीरेधीरे आगे आ कर खड़ी हो गई. मौसी, बुआ सभी से निशा प्रेम से गले मिल रही थी, तभी अचानक मां के दिल में गहरा दर्द का सैलाब उमड़ पड़ा और उसे जोर की रुलाई आ गई.

यह देख कर निशा से रहा नहीं गया. वह मां की तरफ बढ़ी. दोनों मांबेटी इस तरह गले मिलीं जैसे दोनों को एकदूसरे से कोई शिकवाशिकायत ही ना हो. शब्द साथ नहीं दे रहे थे. बस कुछ देर एकदूसरे से लिपट कर दोनों पूर्ण हो गई थी. अब निशा को जाना ही था, क्योंकि कार काफी देर से स्टार्ट हो कर खड़ी थी.

नए घर में पहुंच कर निशा को बहुत प्यारसम्मान मिला. शुरू के कुछ दिनों में उसे किसी भी काम में हाथ नहीं लगाने दिया. उस की छोटी प्यारी सी ननद अपनी मां के हर काम में हाथ बंटाती. धीरेधीरे हाथों की मेहंदी का रंग छूटने के साथसाथ नेहा भी घरपरिवार की जिम्मेदारियों में शामिल हो गई. जबकि मां के घर में वह कोई भी काम नहीं करती थी, मगर ससुराल तो ससुराल ही होता है. शुरुआत में कुछ कठिनाई भी आई. कई बार वह रो पड़ती थी कि अपनी समस्या किसे बताए.. क्योंकि अपनी मां को तो उस ने पूर्ण रूप से तिरस्कृत किया हुआ था

मां ने कई बार प्रयास किया था कि निशा घर के थोड़े बहुत काम सीख ले, परंतु ढाक के वही तीन पात. जब कुछ छोटी थी तो पापा के लाड़प्यार की वजह से और फिर बड़ी होने पर मां से एक अनकही रंजिश होने के नाते. यूं निशा को काम करने में कोई परेशानी नहीं थी, परंतु वह मां से कुछ नहीं सीखना चाहती थी. न जाने क्यों उन्हें अपना दुश्मन समझने लगी थी वह.

विवाह को लगभग 20 दिन बीत चुके थे. निशा की सास उसे एक बड़ा सा डब्बा देते हुए बोली, “बेटा, यह बौक्स तुम्हारी मां ने तुम्हें सरप्राइस के तौर पर दिया है. तुम्हीं इसे खोलना और देखना कि इस में क्या है. अपने सारे जेवर डब्बे में रख देना. लौकर में रखवा देंगे. घर में रखना सुरक्षित नहीं होगा.”

शाम को जब निशा अपने जेवर डब्बे में करीने से संभाल रही थी, तो उस ने वह बौक्स भी खोला. वह देख कर अवाक रह गई. डब्बे में सुंदर से सोने और हीरे के जेवरात थे और साथ में एक पत्र भी.

यह पत्र उस की मां रीता ने लिखा था, “प्यारी निशा, तुम्हारे पापा का मुझ से शादी करने का मकसद सिर्फ इतना था कि उन की अनुपस्थिति में मैं तुम्हारी देखभाल कर सकूं. अब तुम्हारा विवाह हो चुका है. समय के साथ धीरेधीरे समझ जाओगी कि एक पिता के लिए अकेले संतान को पालना कितना मुश्किल होता है. मां तो सिर्फ मां होती है. यह सौतेला शब्द तो हमारे समाज ने ही गढ़ा है. पूर्वाग्रह से ग्रसित यह भावना किसी स्त्री को जाने समझे बगैर ही खलनायिका बना देती है. तुम्हारा विदाई के समय मुझ से लिपटना मुझे उम्रभर की खुशी दे गया.

“मेरा बचपन भी कुछ तुम्हारी ही तरह बीता है. सदा सुखी रहना.

“और हां, अपनी मां से मिलने कब आ रही हो?”

वह सोच में पड़ गई. उस की आंखों से आंसू बहने लगे. उसे इन गहनों में से ममत्व की सुगंध आने लगी. वह काफी देर तक उन्हें देखती रही. इन में से कुछ गहने उस की अपनी मां के थे और अधिकतर नई मां के, जिसे उस ने मां तो कभी माना ही नहीं.

दरअसल, निशा के जीवन में दुखद मोड़ तब आया, जब 12 साल की उम्र में उस की मां की मृत्यु हो गई थी. लाड़प्यार से पली एकलौती संतान कुदरत के इस अन्याय को सहने की समझ भी नहीं रखती थी. पिता राजेश भी परेशान. एक तो पत्नी की असमय मृत्यु का गम, दूसरा 12 साल की बिटिया को पालने की जिम्मेदारी. ऐसी कच्ची उम्र में जब बच्चे कई तरह के शारीरिक और मानसिक परिवर्तनों से गुजरते हैं, एक पिता के लिए बहुत ही मुश्किल हो जाता है, ऐसे में खासकर बिटिया का लालनपालन करना.

कुछ लोगों ने सलाह दी कि वह निशा की मौसी से विवाह कर ले. क्योंकि अपनी बहन की संतान को जितने प्यार से वह पालेगी, ऐसा कोई दूसरी महिला नहीं कर सकती. परंतु निशा की मौसी उस के पिता से उम्र में बहुत छोटी थी, इसलिए राजेश को यह मंजूर नहीं था. खैर, समय की मांग को देखते हुए रीता के साथ निशा के पिता राजेश का पुनर्विवाह सादे समारोह में हो गया.

मां को गए अभी सिर्फ एक ही साल हुआ था. निशा की यादों में मां की हर बात जिंदा थी. इकलौती संतान होने की वजह से मातापिता का संपूर्ण प्यार उसी पर निछावर था.

राजेश ने रीता के साथ विवाह तो किया, परंतु निशा को किसी भी मनोवैज्ञानिक संकट में वह नहीं डालना चाहते थे. रीता भी खुद बहुत समझदार थी. इधर निशा भावनात्मक मानसिक और शारीरिक तौर पर आने वाले बदलावों से गुजर रही थी.

मां उसे भावनात्मक सहारा देने का भरसक प्रयास करती, परंतु निशा हर बार मां को ठुकरा देती है. अकेलीअकेली उदास सी रहती थी वह. नई मां कभी पिता से हंस कर, खिलखिला कर बात करती, तो निशा परेशान हो उठती. उसे लगता कि इस महिला ने आ कर उस की मां की जगह ले ली है.

निशा की मां की साड़ियां राजेश के कहने पर अगर रीता ने पहन लीं, तो निशा आगबबूला हो उठती. यह सब देख कर रीता ने अपनेआप को बहुत संयमित कर लिया था. वह नहीं चाहती थी कि किशोरावस्था में किसी बच्चे के दिमाग पर कोई गलत असर पड़े. समय के साथसाथ निशा का अकेलापन दूर करने के लिए एक छोटा भाई आ चुका था. आश्चर्य कि छोटे भाई से निशा को कोई शिकायत नहीं थी. वह उस के साथ खेलती और अब थोड़ा खुश रहने लगी थी. लेकिन मां के प्रति अपने व्यवहार को वह नहीं बदल पाई थी.

22 साल की उम्र पूरी होने पर घर वालों से विचारविमर्श के बाद निशा का विवाह तय कर दिया गया. निशा ने भी कोई अरुचि नहीं दिखाई. वह तो मानो नई मां से छुटकारा पाना चाहती थी.

आज इन गहनों को संभालते वक्त वह सोचने लगी कि अपनी मां की साड़ी तक वह नई मां को नहीं पहनने देती थी और इस अनचाही मां ने तो उसे खूब लाड़प्यार से पाला. कभी अपने बेटे और उस में कोई फर्क नहीं किया.

विवाह के समय अपनी सुंदर कीमती साड़ियां और भारी गहने सब उसी को सौंप दिए, जैसा कोई असली मां करती है.

तभी सासू मां ने उसे आवाज दे कर दरवाजे पर अपनी उपस्थिति का एहसास कराया. निशा का उदासीन चेहरा देख कर वह बोली, “अरे बेटा, क्या बात है…? मैं ने लौकर वाली बात कह कर तुम्हारा दिल तो नहीं दुखाया… दरअसल, घर में इतना कीमती सामान रखना असुरक्षित है इसीलिए मैं ने ऐसा कह दिया.”

“अरे नहीं मम्मी, ऐसी बात नहीं है,” कह कर वह रुक गई. आगे और कहती भी क्या..? कैसे कह देती कि जिस मां ने अपना सर्वस्व उस के लालनपालन में लुटा दिया, उस से वह इतनी नफरत करती थी कि पश्चाताप करने की भी कोई राह ही नहीं सूझ रही है.

खैर, सासू मां समझदार थी. सब जानते हुए भी वे अनजान ही बनी रहीं. इधर निशा के अंदर उधेड़बुन चलती रही.

शाम को अजय आ कर बोला,”अगले 2-3 दिन में हम तुम्हारे घर मम्मीपापा से मिलने चल रहे हैं.”

दरअसल, अजय की मां ने ही उसे निशा को मां के घर ले जाने की सलाह दी थी. वह धीरे से बोली, “ठीक है.” मगर मन ही मन बड़ी शर्मिंदा हो रही थी कि कैसे सामना करूंगी मां का.

अगले दिन सुबह मौसी का फोन आया. निशा आत्मग्लानि से भरी हुई थी. उस ने मौसी से मां का जिक्र किया. तब मौसी ने ही उसे बताया कि अजय के साथ उस का विवाह उस की मां रीता ने ही तय किया था. दरअसल, अजय की मां रीता की बचपन की सहेली थी. अजय की मां का विवाह तो समय से हो गया, परंतु यह रीता का दुर्भाग्य था कि बहुत ही छोटी उम्र में उस की मां की मृत्यु हो गई. पिता ने दूसरा विवाह नहीं किया. पारिवारिक सदस्यों के साथ मिल कर खुद ही अपनी बेटी को पालने की जिम्मेदारी ली. परिवार के बीच में रीता की परवरिश तो ठीकठाक हो गई, परंतु उस के विवाह में देरी होती रही, क्योंकि दादादादी की मृत्यु हो चुकी थी. ताऊताई अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो गए थे. अब रह गए थे रीता और उस के पिता. वह पिता को छोड़ कर कहीं नहीं जाना चाहती थी.

अधिक उम्र हो जाने पर भी लड़की के लिए लड़का मिलना कभीकभी मुश्किल काम साबित हो जाता है. इसीलिए जब राजेश की पहली पत्नी की मृत्यु हुई, तब रीता का विवाह उन के साथ इस शर्त पर हुआ कि उन की बेटी निशा को अपनी बेटी की तरह मान कर पालेगी. और रीता ने यह जिम्मेदारी बखूबी निभाई. कुछ साल बाद अपना बेटा होने के बावजूद भी उस ने दोनों बच्चों में कभी कोई फर्क नहीं किया. और आज भी यह रीता ही थी, जिस ने निशा का रिश्ता अपनी सहेली के बेटे अजय से करवाया था, ताकि वह स्वयं अपनी बेटी के भविष्य को ले कर आशान्वित रहे. परंतु यह बात परिवार के किसी भी सदस्य ने निशा को नहीं बताई थी, क्योंकि उसे तो नई मां से अत्यधिक बैर था. फिर वह ये बात कैसे बरदाश्त करती…?

यह जान कर निशा अत्यधिक दुखी और शर्मिंदा थी. उस ने साहस कर के मां को फोन मिलाया.

उधर से मां की प्यारी सी आवाज आई,” बेटा, रिश्तों को सहेजने की कोई उम्र नहीं होती. जब भी अवसर मिले, इन्हें संवार लो.”

शायद मां इस से आगे कुछ नहीं बोल पाई और इधर निशा मायके जाने की तैयारी में जुट गई, क्योंकि उधर ममता का आंगन बांह पसारे उस के इंतजार में था.

Emotional Story

हर भारतीय रसोई के दिल में Glen- जहाँ स्वाद, सुविधा और सुकून एक साथ पकते हैं

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Glen

Family Story in Hindi: शिकायतनामा

Family Story in Hindi: देर शाम अनुष्का का फोन आया. कामधाम से खाली होती तो अपने पिता विश्वनाथ को फोन कर अपना दुखसुख अवश्य साझ करती. शादी के 3 साल हो गए, यह क्रम आज भी बना हुआ था. पिता को बेटियों से ज्यादा लगाव होता है, जबकि मां को बेटों से. इस नाते अनुष्का निसंकोच अपनी बात कह कर जी हलका कर लेती.

‘‘पापा, आज फिर ये जोरजोर से चिल्लाने लगे,’’ अनुष्का ने अपने पति कृष्णा का जिक्र किया.

‘‘क्यों?’’ विश्वनाथ निर्विकार भाव से बोले.

‘‘इसी का जवाब मैं खोज रही हूं.’’ कह कर वह भावुक हो गई.

विश्वनाथ का जी पसीज गया. विश्वनाथ उन पिताओं जैसे नहीं थे जो बेटी का विवाह कर के गंगा नहा लेते थे. वे उन पिताओं सरीखे थे जिन्हें अपनी बेटी का दुख भारी लगता. तनिक सोच कर बोले, ‘‘उन की बातों को ज्यादा तवज्जुह मत दिया करो. अपने काम से काम रखो.’’

जब भी अनुष्का का फोन आता वे उसे धैर्य और बरदाश्त करने की सलाह देते. विश्वनाथ की प्रशंसा करनी होगी कि उन्होंने अपनी तरफ से कभी बेटियों को निराश नहीं किया. उन की बात पूरी लगन से सुनते. वे चाहते तो कह सकते थे कि यह तुम दोनों का आपसी मामला है. बारबार फोन कर के मु?ो परेशान मत किया करो. ज्यादातर पिताओं की यही भूमिका होती है. बेटियों की शादी कर दी तो अपने बेटाबहू में रम गए.

विश्वनाथ की 3 बेटियां थीं और एक बेटा. उन्होंने बेटेबेटियों में कोई फर्क नहीं किया. अमूमन लोग बेटियों को बोझ समझते हैं. इस के विपरीत विश्वनाथ को लगता, उन की बेटियां ही उन की ताकत हैं. उन की पत्नी कौशल्या की सोच उन से इतर थी. उन्हें अपना बेटा ही हीरा लगता. वे बेटियों को जबतब कोसती रहतीं. विश्वनाथ को बुरा लगता. इसी बात पर तूतूमैंमैं शुरू हो जाती.

विश्वनाथ का जीवन अभावपूर्ण था. बड़े संघर्षों से गुजर कर उन्होंने अपनी औलादों को पढ़ालिखा कर इस लायक बनाया कि वे अपने पैरों पर खडे़ हो गए. बड़ी बेटी की शादी से वे खुश नहीं थे क्योंकि दामाद का कामधाम कोई खास नहीं था. वे अच्छी तरह जानते थे कि उन की कामाऊ बेटी की बदौलत ही गृहस्थी की गाड़ी चलेगी. उन की मजबूरी थी. कहां से अच्छे वर के लिए दहेज ले आते? बेटी की शक्लसूरत कोई खास नहीं थी. हां, पढ़ने में तेज जरूर थी. पहली से निबटे तो दूसरी अनुष्का आ गई. सब बेटियों में 2 से 3 साल का फर्क था. अनुष्का देखनेसुनने के साथ पढ़ने में भी होशियार थी. उस ने साफसाफ कह दिया कि वह किसी भी सूरत में प्राइवेट नौकरी वाले लड़के से शादी नहीं करेगी. सब चिंता में पड़ गए. कहां से लड़का ढूंढे़ं.

ऐसे में उन के बड़े दामाद ने कृष्णा का जिक्र किया. वह सरकारी नौकरी में था. देखने में ठीकठाक था. रही पढ़ाई तो वह अनुष्का की तुलना में औसत दर्जे का था तो भी क्या? सरकारी नौकरी थी. जिस आर्थिक अनिश्चितता के दौर से विश्वनाथ का परिवार गुजरा, उस से तो मुक्ति मिलेगी. यही सब सोच कर विश्वनाथ इस रिश्ते के लिए अपने दामाद की मनुहार करने लगे. साथसाथ, उन्होंने अपनी तीसरी बेटी के लिए भी सरकारी नौकरी वाले वर से करने का मन बना लिया.

लड़के को अनुष्का पसंद आ गई. दहेज पर मामला रुका तो विश्वनाथ ने साफसाफ कह दिया कि उन की औकात ज्यादा कुछ देने की नहीं है. सांवले रंग के कृष्णा को जब गोरीचिट्टी अनुष्का मिली तो वह न न कर सका. इस के पहले उस ने काफी लड़कियां देखीं. किसी की पढ़ाई पसंद आती तो रूपरंग मनमाफिक न मिलता. रूपरंग होता तो पढ़ाई साधारण रहती. यहां सब था. नहीं था तो दहेज की रकम. कृष्णा को लगा अब अगर और छानबीन में लगा रहेगा तो उम्र निकल जाएगी, ढंग की लड़की न मिलेगी. लिहाजा, उसे भी गरज थी. शादी संपन्न हो गई.

अनुष्का फूले नहीं समा रही थी. उस ने जो चाहा वह मिल गया. बिना आर्थिक किचकिच के जिंदगी आसानी से कटेगी. शादी होते ही वह जयपुर घूमने निकल गई. बड़ी बहन लतिका को तकलीफ हुई. वह सोचने लगी, आज उस का भी पति ऐसी ही नौकरी में होता तो वह भी वैवाहिक जीवन की इस प्रथम पायदान पर चढ़ कर जिंदगी का लुत्फ उठाती.

दोनों के विवाह का शुरुआती दौर बिना किसी शिकवाशिकायत के कटा. अनुष्का इस रिश्ते से निहाल थी. वहीं कृष्णा को लगा, उस ने जैसा चाहा उसे मिल गया. इस बीच, वह एक बेटे की मां बनी.

कृष्णा में एक खामी थी. उसे रुपए से बहुत मोह था. घरगृहस्थी के लिए खर्च करने में कोई कोताही नहीं बरतता तो भी बिना मेहनत के धन ही मिल जाए तो हर्ज ही क्या है. इसी लालच में उस ने अपना काफी रुपया शेयर में लगा दिया. अनुष्का ने एकाध बार टोका. मगर कृष्णा ने नजरअंदाज कर दिया.

एक दिन तो हद हो गई, कहने लगा, ‘मेरा रुपया है, जहां भी खर्च करूं.’

कृष्णा को ऐसे तेवर में देख कर अनुष्का सहम गई. एकाएक उस के व्यवहार में आए परिवर्तन ने उसे असहज कर दिया. उस का मन खिन्न हो गया. मारे खुन्नस कृष्णा से बोली नहीं. कृष्णा की आदत थी, जल्द ही सामान्य हो जाता. वहीं अनुष्का के लिए आसान न था. चूंकि यह पहला अवसर था, इसलिए अनुष्का ने भी अपनी तरफ से भूलना मुनासिब सम?ा. मगर कब तक. जल्द ही उसे लगा कि कृष्णा अपने मन के हैं, उन्हें सम?ाना आसान नहीं. इस बीच, शेयर के भाव बुरी तरह से नीचे आ गए और उस के लाखों रुपए डूब गए. सो, अनुष्का को कहने का मौका मिल गया.

कृष्णा बुरी तरह टूट गया. परिणामस्वरूप, उस के स्वभाव में चिड़चिड़ापन आ गया. हालांकि उस की तनख्वाह कम न थी. तो भी, 10 साल की कमाई पानी में बह जाए तो क्या उसे भूल पाना आसान होगा? वह भी ऐसे आदमी के लिए जो बिना मेहनत अमीर बनने की ख्वाहिश रखता हो. कृष्णा अनमना सा रहने लगा. उस का किसी काम में मन न लगता. कब क्या बोल दे, कुछ कहा न जा सकता था. कभीकभी तो बिना बात के चिल्लाने लगता. आहिस्ताआहिस्ता यह उस की आदत में शामिल होता गया.

अनुष्का पहले तो लिहाज करती रही, बाद में वह भी पलट कर जवाब देने लगी. बस, यहीं से आपसी टकराव बढ़ने लगे. अनुष्का का यह हाल हो गया कि अपनी जरूरतों के लिए कृष्णा से रुपए मांगने में भी भय लगता. इसलिए अनुष्का ने अपनी जरूरतों के लिए एक स्कूल में नौकरी कर ली. स्कूल से पढ़ा कर आती तो बच्चों को टयूशन पढ़ाती. इस तरह उस के पास खासा रुपया आने लगा. अब वह आत्मनिर्भर थी.

अनुष्का जब से नौकरी करने लगी तो घर के संभालने की जिम्मेदारी कृष्णा के ऊपर भी आ गई. अनुष्का को कमाऊ पत्नी के रूप में देख कर कृष्णा अंदर ही अंदर खुश था, मगर जाहिर होने न देता. अनुष्का जहां सुबह जाती, वहीं कृष्णा 10 बजे के आसपास. इस बीच उसे इतना समय मिल जाता था कि चाहे तो अस्तव्यस्त घर को ठीक कर सकता था मगर करता नहीं. वजह वही कि वह मर्द है. एक दिन अनुष्का से रहा न गया, गुस्से में कृष्णा का उपन्यास उसी के ऊपर फेंक दिया.

‘यह क्या बदतमीजी है?’ कृष्णा की त्योरियां चढ़ गईं.

‘घर को सलीके से रखने का ठेका क्या मैं ने ही ले रखा है. आप की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती,’ अनुष्का ने तेवर कड़े किए.

‘8 घंटे डयूटी दूं कि घर संभालूं,’ कृष्णा का स्वर तल्ख था.

‘नौकरी तो मैं भी करती हूं. क्या आप अपना काम भी नहीं कर सकते? बड़े जीजाजी को देखिए. कितना सहयोग दीदी का करते हैं.’

‘उन के पास काम ही क्या है. बेकार आदमी, घर नहीं संभालेगा तो क्या करेगा?’

‘आप से तो अच्छे ही हैं. कम से कम अपने परिवार के प्रति समर्पित हैं.’

‘मैं कौन सा कोठे पर जाता हूं?’ कृष्णा चिढ़ गया.

‘औफिस से आते ही टीवी खोल कर बैठ जाते है. न बच्चे को पढ़ाना, न ही घर की दूसरी जरूरतों को पूरा करना. मैं स्कूल भी जाऊं, टयूशनें भी करूं, खाना भी बनाऊं,’ अनुष्का रोंआसी हो गई.

‘मत करो नौकरी, क्या जरूरत है नौकरी करने की,’ कृष्णा ने कह तो दिया पर अंदर ही अंदर डरा भी था कि कहीं नौकरी छोड़ दी तो आमदनी का एक जरिया बंद हो जाएगा.

‘जब से शेयर में रुपया डूबा है, आप रुपए के मामले में कुछ ज्यादा ही कंजूस हो गए हैं. अपनी जरूरतों के लिए मांगती हूं तो तुरंत आप का मुंह बन जाता है. ऐसे में मैं नौकरी न करूं तो क्या करूं,’ अनुष्का ने सफाई दी.

‘तो मुझ से शिकायत मत करो कि मैं घर की चादर ठीक करता फिरूं.’

कृष्णा के कथन पर अनुष्का को न रोते बन रहा था न हंसते. कैसे निष्ठुर पति से शादी हो गई. उसे अपनी पत्नी से जरा भी सहानुभूति नहीं, सोच कर उस का दिल भर आया.

कृष्णा की मां अकसर बीमार रहती थी. अवस्था भी लगभग 75 वर्ष से ऊपर हो चली थी. अब न वह ठीक से चल पाती, न अपनी जरूरतों के लिए पहल कर पाती. उस का ज्यादा समय बिस्तर पर ही गुजरता. कृष्णा को मां से कुछ ज्यादा लगाव था. उसे अपने पास ले आया.

अनुष्का को यह नागवार लगा. उन के 3 और बेटे थे. तीनों अच्छी नौकरी में थे. अपनीअपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हो आराम की जिंदगी गुजार रहे थे. अनुष्का चाहती थी कि वह उन्हीं के पास रहे. वह घर देखे कि बच्चे या नौकरी. वहीं उन के तीनों बेटों के बहुओं के पास अतिरिक्त कोई जिम्मेदारी न थी. वे दिनभर या तो टीवी देखतीं या फिर रिश्तेदारी का लुत्फ उठातीं.

अनुष्का ने कुछ दिन अपनी सास की परेशानियों को झेला, मगर यह लंबे समय तक संभव न था. एक दिन वह मुखर हो गई, ‘आप माताजी को उन के अन्य बेटों के पास छोड़ क्यों नहीं देते?’

‘वे वहां नहीं रहेंगी?’ कृष्णा ने दोटूक कहा.

‘क्यों नहीं रहेंगी? क्या उन का फर्ज नहीं बनता?’ अुनष्का का स्वर तल्ख था.

‘मैं तुम्हारी बकवास नहीं सुनना चाहता. तुम्हें उन की सेवा करनी हो तो करो वरना मैं सक्षम हूं’

‘खाक सक्षम हैं. कल आप नहीं थे, बिस्तर गंदा कर दिया. मुझे ही साफ करना पडा.’

‘कौन सा गुनाह कर दिया. वे तुम्हारी सास हैं.’

‘यह रोजरोज का किस्सा है. आप उन की देखभाल के लिए एक आया क्यों नहीं रख लेते?’ आया के नाम पर कृष्णा कन्नी काट लेता. एक तरफ खुद जिम्मेदारी लेने की बात करता, दूसरी तरफ सब अनुष्का पर छोड़ कर निश्ंिचत रहता. जाहिर है, वह आया पर रुपए खर्च करने के पक्ष में नहीं था. शेयर में लाखों रुपए डुबाना उसे मंजूर था मगर मां के लिए आया रखने में उसे तकलीफ होती.

कंजूसी की भी हद होती है. रात अनुष्का, पिता विश्वनाथ को फोन कर के सुबकने लगी, ‘‘पापा, आप ने कैसे आदमी से मेरी शादी कर दी. एकदम जड़बुद्वि के हैं. मेरी सुनते ही नहीं.’’ फिर एक के बाद एक उस ने सारा किस्सा बयां कर दिया. सब सुन कर विश्वनाथ को भी तीव्र क्रोध आया. मगर चुप रहे यह सोच कर कि बेटी है.

‘‘तुम से जितना बन पड़ता है, करो,’’ पिता विश्वनाथ का स्वर तिक्त था.

‘‘सास को यहां लाने की क्या जरूरत थी? 3 बेटे अच्छी नौकरियों में हैं. सब अपनेअपने बेटेबेटियों की शादी कर के मुक्त हैं. क्या अपनी मां को नहीं रख सकते थे? यहां कितनी दिक्कत हो रही है. किराए का मकान. वह भी जरूरत के हिसाब से लिए गए कमरे जबकि उन तीनों बेटों के निजी मकान हैं. आराम से रह सकती थीं वहां.’’

‘‘अब मैं उन की बुद्वि के लिए क्या कहूं’’ विश्वनाथ ने उसांस ली.

गरमी की छुट्टियां हुईं. अनुष्का अपने बेटे को ले कर मायके आई. कृष्णा उसे मायके पहुंचा कर अपने भाईयों से मिलने चला गया. ससुराल में रुकने को वह अपनी तौहीन सम?ाता. भाईयों का यह हाल था कि वे सिर्फ कहने के भाई थे, कभी दुख में झंकने तक नहीं आते. इतनी ही संवेदनशीलता होती तो जरूर अपनी मां की खोजखबर लेते. वे सब इसी में खुश थे कि अच्छा हुआ, कृष्णा ने मां को अपने पास रख लिया. अब आराम से अपनीअपनी बीवियों के साथ सैरसपाटे कर सकेंगे.

दो दिनों बाद कृष्णा अनुष्का को छोड़ कर इंदौर अपनी नौकरी पर चला गया. मां को दूसरे के भरोसे छोड़ कर आया था, इसलिए उस का वापस जाना जरूरी था. बातचीत का दौर चलता तो जब भी समय मिलता अनुष्का अपना दुखड़ा ले कर विश्वनाथ के पास बैठ जाती.

एक दिन विश्वनाथ से रहा न गया, बोले, ‘‘तुम यहीं रह जाओ. कोई जरूरत नहीं है उस के पास जाने की.’’

अनुष्का ने कोई जवाब नहीं दिया. बगल में खड़ी अनुष्का की मां कौशल्या से रहा न गया, ‘‘आप भी बिना सोचे समझे कुछ भी बोल देते हैं.’’ अनुष्का की चुप्पी बता रही थी कि यह न तो संभव था न ही व्यावहारिक. भावावेश में आ कर भले ही पिता विश्वनाथ ने कह दिया हो मगर वे भी अच्छी तरह जानते थे कि बेटी का मायके में रहना आसान नहीं है. फिर पतिपत्नी के रिश्ते का क्या होगा? अगर ऐसा हुआ तो दोनों के बीच दूरियां बढ़ेंगी जिसे बाद में पाट पाना आसान न होगा.

अनुष्का की आंखें भर आईं. उसे लग रहा था वह ऐसे दलदल में फंस गई है जहां से निकल पाना आसान न होगा. आज उसे लग रहा था कि रुपयापैसा ही महत्त्वपूर्ण नहीं, बल्कि आदमी का व्यावहारिक व सुलझा हुआ होना भी जरूरी है. पिता विश्वनाथ को आदर्श मानने वाली अनुष्का को लगा, पापा का सुलझपन ही था जो तमाम आर्थिक परेशानियों के बाद भी उन्होंने हम सब भाईबहनों को पढ़ालिखा कर इस लायक बनाया कि समाज में सम्मान के साथ जी सकें. वहीं, कृष्णा के पास रुपयों के आगमन की कोई कमी नहीं तिस पर उन की सोच हकीकत से कोसों दूर है.

पिता विश्वनाथ की जिंदगी आसान न थी. सीमित आमदनी, उस पर 3 बेटियों ओैर एक बेटे की परवरिश. वे अपने परिवार को ले कर हमेशा चिंतित रहते. मगर जाहिर होने न देते. उन के लिए औलाद ही सबकुछ थी. पत्नी कौशल्या जबतब अपनी बेटियों को डांटतीफटकारती रहती जिस को ले कर पतिपत्नी में अकसर विवाद होता. बेटियों का कभी भी उन्होंने तिरस्कार नहीं किया. उन का लाड़प्यार उन पर हमेशा बरसता रहता. इसलिए बेटियां उन के ज्यादा करीब थीं. यही वजह थी कि बेटियां आज भी अपने पिता को अपना आदर्श मानतीं. जब बेटा हुआ तो मां कौशल्या का सारा प्यार उसी पर उमड़ने लगा. यह अलग बात थी कि जब उन की तीनों बेटियां अपने पैरों पर खड़ी हो गईं तो उन की नजर उन के प्रति सीधी हो गई.

एक महीना रहने के बाद अनुष्का कृष्णा के पास वापस इंदौर जाने की तैयारी करने लगी तो अचानक एक शाम विश्वनाथ को क्या सूझ, कहने लगे, ‘‘क्या तुम्हारी मां मुझ से खुश थीं?’’ सुन कर क्षणांश वह किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई. अनुष्का ने मां की तरफ देखा. उन की आंखें सजल थीं. मानो अतीत का सारा दृश्य उन के सामने तैर गया हो. वे आगे बोले, ‘‘जब वह मुझ से खुश नहीं थी तो तुम कैसे अपने पति से अपेक्षा कर सकती हो वह हमेशा तुम्हें खुश रखेगा?’’

पिता की बेबाक टिप्पणी पर अनुष्का को कुछ कहते नहीं बन पड़ा. वह तो अपने पिता को आदर्श मानती थी. वह तो यही मान कर चलती थी कि उस के पिता समान कोई हो ही नहीं सकता. बेशक पिता के रूप में वे सफल थे मगर क्या पति के रूप में भी वे उतने ही सफल थे? क्या उन्होंने हमेशा वही किया जो कौशल्या को पसंद था? शायद नहीं.

वे आगे बोलते रहे, ‘‘यह लगभग सभी के साथ होता है. पत्नी अपने पति से कुछ ज्यादा ही अपेक्षा करती है पर खुशी का पैमाना क्या है? क्या कृष्णा शराबी या जुआरी है? कामधाम नहीं करता या मारतापीटता है? सिर्फ विचारों और आदतों की भिन्नता के कारण हम किसी को नापंसद नहीं कर सकते? जब एक गर्भ से पैदा भाईयों में मतभेद हो सकते हैं तो पतिपत्नी में क्यों नहीं.’’

अनुष्का को अपने पिता से यह उम्मीद न थी. उन के व्यवहार में आए परिवर्तन ने उसे असहज बना दिया. अभी तक उसे यही लग रहा था कि कृष्णा जो कुछ कर रहा है वह एक तरह से उस पर मनोवैज्ञानिक अत्याचार था. उन के कथन ने एक तरह से उसे भी कुसूरवार बना दिया. आहत मन से बोली, ‘‘पापा, जब ऐसी बात थी तो फिर आप ने मुझ क्यों मायके में ही रहने की सलाह दी?’’

वे किंचिंत भावुक स्वर में बोले, ‘‘एक पिता के नाते तुम्हारा दुख मेरा था. पुत्रीमोह के चलते मैं ने तुम्हें यहां रहने की सलाह दी. मगर यह व्यावहारिक न था. काफी सोचविचार कर मुझे लगा कि शायद मैं तुम्हें गलत रास्ते पर चलने की नसीहत दे रहा हूं. बड़ेबुजर्ग का कर्तव्य है कि पतिपत्नी के बीच की गलतफहमियां अपने अनुभव से दूर करें, न कि आवेश में आ कर दूरियां बढ़ा दें, जो बाद में आत्मघाती सिद्ध्र हो.’’

अनुष्का पर पिता विश्वनाथ की बातों का असर पड़ा. उस ने मन बना लिया कि अब से वह कृष्णा को भी समझने की कोशिश करेगी.

Family Story in Hindi

हेयर स्ट्रैटनिंग और स्मूदिंग में क्या अंतर है

Hair straightening and Smoothening: लंबे, सीधे व खूबसूरत बाल हर किसी को पसंद होते हैं, लेकिन आज की बिजी लाइफ में इतना समय नहीं होता है कि आप बालों की अच्छे से केयर कर सकें. सब से ज्यादा मुश्किल तब होती है जब आप के बाल कर्ली या फ्रिजी हों.

कर्ली बालों को सीधा करने के लिए हम हेयर स्मूदनिंग या स्ट्रैटनिंग की मदद ले रहे हैं. इन सब तकनीक के साथ हम बालों का ट्रीटमैंट तो करवा लेते हैं लेकिन इस के बारे में पूरी जानकारी नहीं होती है. कई बार आप तीनों ट्रीटमैंट को एक ही समझ लेते हैं लेकिन इन में काफी अंतर होता है. इसलिए बालों के लिए यह ट्रीटमैंट लेने से पहले जानें कि हेयर स्ट्रैटनिंग और स्मूदिंग क्या है.

हेयर स्ट्रैटनिंग और स्मूदिंग में क्या अंतर है

क्या है हेयर स्मूदनिंग : हेयर स्मूदनिंग यानि बालों को स्ट्रैट करना है. यह कर्ली, वेवी या फ्रिजी बालों की परमानैंट हेयर स्ट्रैटनिंग के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला सैलून ट्रीटमैंट है. अगर आप के बाल स्ट्रैट हैं और थोड़े फ्रिजी हो गए हैं तो यह ट्रीटमैंट आप के लिए ही है. इस से आप के बाल और भी ज्यादा सीधे और शाइनी हो जाते हैं. स्मूदनिंग के अंदर बालों पर कई तरह की क्रीम का इस्तेमाल किया जाता है और बालों को स्मूद बनाया जाता है. स्मूदनिंग करवाने से आप के बाल और भी अधिक स्मूद और सिल्की हो जाते हैं.

इसे करने का क्या तरीका है

इस में बालों को फौर्मेल्डिहाइड सोल्यूशन में सैचुरेट किया जाता है. सैचुरेशन के बाद इन्हें हीटिंग आयरन से स्ट्रैट कर के सुखाया जाता है. आसान भाषा में कहें तो इस में केरेटिन ट्रीटमैंट का इस्तेमाल किया जाता है, जिस में बालों की बाहरी सतह पर एक प्रोटीन कोटिंग दी जाती है. इस प्रक्रिया में बालों को हलकी हीट और कैमिकल्स के जरीए सौफ्ट और फ्रिज-फ्री बनाया जाता है. इस के बाद बाल स्वाभाविक रूप से सिल्की लगते हैं. यह बालों का प्राकृतिक लुक बनाए रखता है. लेकिन ध्यान रखें कि फौर्मेल्डिहाइड को किसी ऐक्सपर्ट के सुपरविजन में ही इस्तेमाल करना चाहिए.

यह हेयर रिबौंडिंग से ज्यादा बेहतर औप्शन है. हेयर स्मूदनिंग 6 से आठ महीनों तक बनी रहती है. मार्केट में हेयर स्मूदनिंग प्राइस ₹8 हजार से शुरू है. यह कास्ट बालों की लंबाई पर निर्भर करता है. इस प्रक्रिया में कई तरह के कैमिकल्स का इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन यह बालों को नुकसान नहीं पहुंचाते हैं.

क्या है स्ट्रैटनिंग

अगर आप के बाल घुंघराले या फिर काफी फ्रिजी हैं तो आप इसे ट्राई कर सकते हैं. यह एक तरीके से परमानैंट हेयर फिक्सिंग है, क्योंकि एक बार रिबौंडिंग कराने के बाद आप के बाल लगभग 1 साल तक स्ट्रैट रहते हैं.

इस का एक नुकसान भी है. इस प्रक्रिया में कैमिकल से आप के बालों के अंदर तक जा कर हेयर स्ट्रक्चर को तोड़ देते हैं, जिस से बाल काफी कमजोर हो जाते हैं. इस पूरे प्रोसेस में लगभग 4 से 5 घंटे का समय लगता है.

इसे करने का क्या तरीका है

हेयर स्ट्रैटनिनंग में हेयर रीबिल्डिंग होती है. इस में जो कैमिकल्स इस्तेमाल किए जाते हैं वे बालों के शैफ्ट के बौंड को हमेशा के लिए तोड़ देते हैं. इन्हें हीट कर के फिर से बनाया जाता है. इस के बाद जो नए बौंड बनते हैं उन्हें जोड़ने के लिए कैमिकल न्यूट्रलाइजर लगाया जाता है. इसे थर्मल रिकंडिशनिंग भी कहते हैं. यह नए बौंड को सैट करता है. इस के बाद बाल एकदम सिल्की और पिन-स्ट्रेट दिखते हैं.

स्ट्रैटनिंग और स्मूदनिंग में क्या है अंतर

स्मूदनिंग और रिबौंडिंग में बस इतना फर्क है कि स्मूदनिंग ट्रीटमैंट आप के बालों के स्ट्रक्चर को नहीं बदलते हैं यानि कि ये आप के बालों को पूरी तरह स्ट्रैट नहीं बनाते हैं. अगर आप के बाल वेवी हैं तो वो वैसे ही रहेंगे बस पहले के मुकाबले ज्यादा स्मूद और सिल्की हो जाएंगे.

हेयर स्ट्रेटनिंग और स्मूदिंग में से क्या करना ठीक रहता है

स्ट्रेट या वेवी बालाें के लिए स्मूदिंग बेहतरीन ट्रीटमैंट है लेकिन अगर आप के बाल ज्यादा कर्ली, माेटे या घने हैं ताे आप रिबौंडिंग करवा सकते हैं. अगर आप एकदम स्ट्रैट बाल चाहती हैं, तो स्ट्रैटनिंग सही विकल्प है. अगर आप नैचुरल और फ्रिज-फ्री बाल चाहते हैं, तो स्मूदनिंग का चयन करें.

अब अपनी बालों की स्थिति और जरूरत के अनुसार फैसला लें. इस का असर कम से कम 6-7 महीने तक दिख सकता है.

इन्हें करवाने से पहले किन बातों का ध्यान रखें

-बालों को कौंब करने के लिए चौड़े कौंब का यूज करें. इस से बाल उलझेगें नहीं.

-हेयर स्मूदनिंग के बाद पार्लर वाले खुद ही शैंपू बताते हैं कि कौन सा यूज करना है. इस के शैंपू और कंडीशनर आते हैं. हो सके तो अपने हेयर ऐक्सपर्ट से अच्छे हेयर प्रोडक्ट के बारे में सलाह लें. शैंपू के बाद कंडीशनर और सीरम लगाना न भूलें.

-यदि दोमुंहे बाल आना शुरू हो जाएं तो उन्हें कट करवा दें.

-4 महीने तक बालों में मेहंदी या हेयर कलर का उपयोग न करें.

-ये ट्रीटमैट करवाने के बाद बालों को बहुत कस कर न बांधें.

-बालों को धूल, गंदगी, बारिश और धूप से बचने की कोशिश करें.

इन ट्रीटमैंट्स को करवाने के बाद आप अपने बालों का खास ध्यान रखें. साथ ही, ट्रीटमैंट के बाद आप को बालों पर केराटिन हेयर स्पा करवाना चाहिए.

केराटिन में बालों पर कम समय तक रहती है और स्मूदनिंग बालों पर अधिक समय तक की जाती है.

स्मूदनिंग केराटिन से ज्यादा महंगी होती है लेकिन बालों के लिए केराटिन ज्यादा अच्छी मानी जाती है.

Hair straightening and Smoothening

Lin Laishram: दिलचस्प रहा आर्चरी से फिल्मों तक का सफर

Lin Laishram: लिनथोइंगम्बी लैशराम यानि लिन लैशराम मणिपुर के इंफाल की रहने वाली हैं. वे एक पौपुलर मौडल, ऐक्ट्रैस और बिजनैस वूमन हैं. लिन ने ‘मैरी कौम’, ‘रंगून’, ‘उमरिका’, ‘ओम शांति ओम’ आदि कई फिल्मों में छोटी, मगर प्रभावशाली भूमिका निभाई है. लिन एक मौडल, अभिनेत्री और क्लाउड किचन की ओनर भी हैं.

खूबसूरत, हंसमुख, विनम्र लिन ने वर्ष 2008 में ‘मिस नौर्थ ईस्ट’ में अपने राज्य का प्रतिनिधित्व किया है और शिलांग में आयोजित प्रतियोगिता में प्रथम उपविजेता रहीं. लिन लैशराम पहली मणिपुरी मौडल हैं, जिन्होंने नैशनल टैलीविजन पर स्विमसूट पहना था. इस के लिए उन के होम टाउन में कई विवाद हुए, लेकिन उन्होंने वही किया, जो उन्हें पसंद है.

ग्लैमर की इस दुनिया के अलावा लिन का टैलंट तीरंदाजी में भी है. लिन ने 10 साल की उम्र में अपने पिता चंद्रसेन लैशराम, जो मणिपुर आर्चरी एसोसिएशन के अध्यक्ष थे, उन से प्रेरित हो कर तीरंदाजी के क्षेत्र में कदम रखा। वे तीरंदाजी में जूनियर नैशनल चैंपियन भी रह चुकी हैं. चोट के कारण उन्होंने खेल से दूरी बना ली, लेकिन तीरंदाजी के प्रति उन का प्यार कभी खत्म नहीं हुआ. आज वे मणिपुर आर्चरी एसोसिएशन की प्रेसिडैंट हैं और अपने पति और अभिनेता रणदीप हुड्डा के साथ मिल कर दिल्ली आर्चरी टीम पृथ्वीराज योद्धास की को ओनर भी हैं, ताकि इस खेल को दिशा मिले और खेलप्रेमी इस ओर रुख करें.

उन्होंने खास गृहशोभा के साथ बात की। पेश हैं, कुछ खास अंश :

आर्चरी से है प्यार 

आर्चरी लीग की पहली बार को-पार्टनर और कपल के रूप में औनरशिप लेने की वजह से लिन बहुत खुश हैं। वे कहती हैं कि आर्चरी मेरे जीवन में काफी समय से महत्त्व रखता आया है। यह विधा मेरे लिए बहुत खास है, क्योंकि मैं ने इस खेल को करीब से देखा है और इस के ग्रोथ को देखना मुझे अच्छा लगता है। हालांकि इस की पौपुलैरिटी उतनी नहीं हुई है, जितनी होनी चाहिए थी, पर मैं इस दिशा में कुछ अच्छा करने की कोशिश कर सकती हूं.

जागरूकता की कमी

हालांकि तीरंदाजी हमारे देश में प्राचीनकाल से प्रचलित रहा है, लेकिन यह खेल के रूप में उतना फलाफूला नहीं। इस बारे में लिन का कहना है कि मैं इस बात से कुछ हद तक सहमत हूं कि आर्चरी हमारे रूट से जुड़ी हुई है, लेकिन इसे जो अटैंशन मिलनी चाहिए थी, वह नहीं मिली है. फिर भी इंडिया ने लिंबा राम, डोला बनर्जी, रीना कुमारी, दीपिका कुमारी, लालरामथांगा, पूर्णिमा महातो, शीतल देवी, ऋषभ यादव आदि जैसे कई खिलाड़ियों ने देश के लिए मैडल्स जीते. बिना कुछ अच्छी व्यवस्था के इन सभी ने खुद के बलबूते पर अच्छा परफौर्मेंस दिया है. इस खेल में संघर्ष बहुत है, लेकिन उन का प्रदर्शन अच्छा रहता है.

महंगी है स्पोर्ट

इस के अलावा तीरंदाजी एक महंगी स्पोर्ट है और इस के लिए अच्छी मेंटरशिप और इंफ्रास्ट्रक्चर की जरूरत होती है, जो भारत सरकार नहीं दे पा रही है. खासकर मणिपुर में, जहां बच्चे के जन्म के 5वें दिन, स्त्री के भाई को चारों दिशाओं में तीर मारना एक परंपरा है।

आर्चरी हमारे संस्कृति में है, जिसे महत्त्व देना जरूरी है, जिस में लीग, टीम को दूसरे देशों में जा कर खेलने पर खिलाड़ियों को मानसिक, शारीरिक और तकनीकी सपोर्ट मिलता है और मैं इसी पर काम कर रही हूं. क्रिकेट का खेल जो ब्रिटिश लोग यहां लाए थे, आज उसे ही अधिक प्रमुखता दी जाती है, जबकि यहां बहुत सारे ऐसे खेल हैं, जिसे नजरंदाज कर दिया जाता है.

बचपन मणिपुर में 

वे कहती हैं कि मैं मणिपुर से हूं और वहां हर गलीनुक्कड़ पर लोग कुछ न कुछ स्पोर्ट्स की प्रैक्टिस करते रहते हैं, जिसे लोग जानते भी नहीं हैं. सरकार की तरफ से इन खेलों में थोड़ा सहयोग और खेलों के प्रति लोगों की जागरूकता होना बहुत आवश्यक है. कई लोग आर्चरी की गेम को करते हुए घबरा जाते हैं और उन्हें लगता है कि उन्हें चोट लग जाएगी, जबकि ऐसा नहीं होता.

लड़कियां करती हैं अच्छा प्रदर्शन

लिन का कहना है कि तीरंदाजी के इस खेल में लड़कियां काफी हैं और वे वर्ल्ड चैंपियनशिप में अच्छा परफौर्म करती हैं। लड़के भी हैं और इस क्षेत्र में काफी स्ट्रौंग होते हैं. उन की इक्विपमैंट, तकनीक, प्रैक्टिस आदि सब स्ट्रौंग होता है. मेरे समय में भी अमेरिका और साउथ कोरिया के कोचेस आते रहे हैं, लेकिन ग्रासरूट लेवल पर काम होना अभी बाकी है, क्योंकि किसी भी गेम में आगे आने के लिए तकनीक मुख्य होता है.

इसलिए मेरा यंग एथलीट को अच्छी ट्रैनिंग और इक्विपमैंट देने की कोशिश करते रहना है, ताकि वे वर्ल्ड लेवल पर खुद को स्टैब्लिश कर सकें. जब मैं टाटा आर्चरी अकादमी में तीरंदाजी की ट्रैनिंग ले रही थी, मैं ने देखा है कि बिहार के आदिवासी बच्चे बहुत अच्छा तीरंदाजी करते थे, लेकिन उन्हें इक्वल औपरच्युनिटी नहीं मिलता, जिस से वे आगे नहीं बढ़ पाते, क्योंकि वे इस स्पोर्ट को अफोर्ड नहीं कर सकते.

आर्चरी से फिल्मों का सफर 

आर्चरी से फिल्मों में आने के बारे में पूछने पर लिन हंसती हुई बताती हैं कि फिल्मों में आने की मेरी कोई प्लानिंग नहीं थी. मेरे पिता स्पोर्ट पर्सन रहे हैं। वे आर्चरी एसोसिएशन की प्रेसिडेंट थे। बहुत सारे स्पोर्ट्स वे करते थे। बौलीवुड इंडस्ट्री, मौडलिंग, ऐक्टिंग से दूरदूर तक कोई नाता नहीं था. मेरे पेरैंट्स ने पढ़ाई के लिए मुंबई भेजा। मैं ने हाई स्कूल और कालेज की पढ़ाई मुंबई से की है। उसी समय मुझे ऐक्सपोजर मिला, क्योंकि मैं लंबी और इग्जौटिक दिखती थी। केश और स्किन अच्छे होने की वजह से मुझे काम मिलने लगा. मैं मध्यवर्गीय परिवार से हूं, इस क्षेत्र में आने के बारे में कोई प्लानिंग नहीं थी.

मैं ने अभी भी काम करना छोड़ा नहीं है, ब्रेक लिया है. शादी के बीच में मैं ने एक फिल्म ‘बन टिक्की’ की शूटिंग की है, जो अगले साल रिलीज होगी. इस में मेरे साथ अभिनेत्री शबाना आजमी, जीनत आमन और अभय देओल हैं। इस में मैं ने एक अलग भूमिका निभाई है. मैं ने अभी प्रोजैक्ट लेना बंद कर दिया है और शादी के बाद लाइफ को प्रायोरिटी दे रही हूं. रणदीप के साथ समय बिताने की कोशिश करती हूं, साथ ही एक प्रभावशाली भूमिका की तलाश में हूं. इस के लिए मैं ने एक व्यवसाय मुंबई में मणिपुरी क्लाउड किचन का शुरू किया है. इस में मेरा अधिक समय निकल जाता है.

रणदीप हुड्डा से मिलने के बारे में पूछने पर लिन कहती हैं कि मैं रणदीप से 14 साल पहले मोटली थिएटर ग्रुप में मिली थी। वहां वे सीनियर ऐक्टर थे और मैं ने उन के साथ कई नाटकों में काम किया है. धीरेधीरे हम दोस्त बने, एकदूसरे से अपनी बातें शेयर करने लगे. मुझे उन की फिल्में बहुत अच्छी लगती थीं. उन का काम करने का तरीका मुझे बहुत पसंद था. फ्रैंडशिप अच्छी थी। मैं अभिनय की बारीकियों के बारे में उन से चर्चा करती थी.

मुझे सीखने का बहुत जनून है और वे एक सच्चे इंसान हैं। इस से दोस्ती आगे बढ़ी और प्यार में बदल गई, फिर शादी हो गई.

वर्कलाइफ बैलेंस नहीं मुश्किल

वर्कलाइफ बैलेंस के बारे में लिन कहती हैं कि रणदीप बहुत व्यस्त रहते हैं। शूटिंग नहीं तो कुछ दूसरे इवेंट में जाते रहते हैं. ऐसे में मेरा बिजी रहना जरूरी है, ताकि मैं खुद खुश रह सकूं. फ्री हो कर जब हम मिलते हैं, तो एक अच्छा समय बिताते हैं, क्योंकि सिंगल होना और शादी के बाद लड़की के लिए चीजें काफी बदल जाती हैं, क्योंकि आप को एकदम से एक नए परिवार में जाना पड़ता है। ऐसे में अगर पतिपत्नी में अच्छा प्यार हो तो सब हो जाता है. मैं ने 30 साल में शादी की और अभी तो सालभर ही हुए हैं, लेकिन रिश्ता अच्छा बना रहे इस के लिए हम दोनों का ही सम्मिलित प्रयास रहता है। रणदीप एक डेडिकेटेड ऐक्टर हैं।

स्पेस देना जरूरी

मुझे याद है कि शादी के बाद रणदीप की फिल्म ‘स्वातंत्र्य वीर सावरकर’ की शूट हो रही थी, जिस में वे मुख्य भूमिका में थे. उन्होंने एक दिन मुझ से कहा था कि इस फिल्म में मेरी भूमिका काफी सीरियस है, लेकिन मुझ से शूटिंग नहीं हो पा रहा है, क्योंकि घर आ कर तुम्हें देखते ही मेरा चरित्र हिल जाता है. पहले तो मुझे समझ में नहीं आया कि वे कह क्या रहे हैं, क्योंकि तब उन्हें ‘जेल’ की शूटिंग करनी थी. फिर मैं समझी कि उन्हें इमोशन को पकड़ कर रखने में मुश्किल हो रही है. उन्होंने मुझ से पूछा कि क्या मैं होटल में रह कर इसे करूं, मैं तुरंत हां कर दी.

जब वे राइटिंग मोड में होते हैं, तो मैं उन्हें जरा भी डिस्टर्ब नहीं करती. यही स्पेस एकदूसरे को शादी के बाद ग्रो करने के लिए देना बहुत जरूरी है, ताकि रिश्ते में घुटन न हो. यहां एक आइडिया या एक ट्रिक कभी नहीं चलता. समझदारी, रिस्पैक्ट और प्यार ही इस रिश्ते को बनाए रखता है. मेरी इच्छा है कि दोनों साथ मिल कर किसी फिल्म में अभिनय करें.

आर्चरी में आगे आने के लिए लिन का संदेश है कि आजकल कई सारे एकेडमी है, जहां जा कर कोई भी इस खेल को सीख सकता है और आगे बढ़ सकता है. वहां जाएं, प्रशिक्षण लें और लीग में शामिल हों. इस के अलावा लाइफ में हर किसी को खुश रहने की आजादी है, उसे करें, हालांकि पूरा विश्व अभी अनरेस्ट है, लेकिन खुद कैसे जीना है, उसे हर व्यक्ति को समझना है, तभी सुखशांति विश्व में आएगी और इस की जिम्मेदारी हरेक इंसान के पास है.

Lin Laishram

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