बाइक से घूमना है तो जाएं इन जगहों पर

अगर घूमने फिरने की शौकीन हैं और आपको घूमने को बाइक मिल जाए तो फिर क्या कहना. मगर फिर आप सोचेंगी कि आखिर बाइक से कहा घूमें, जहां जाकर खुद को रोमांच का एहसास हो, तो आप इस चीज  के लिये परेशान ना हों, क्योंकि आज हम आपको कुछ ऐसी जगहों के नाम बताएंगे जहां जाकर आप अपने इस सफर का आनंद ले सकती हैं.  

खारदूंगला रोड से लेह लद्दाख का सफर

अगर आप वाकई में बाइक चलाने की शौकीन हैं, तो अपनी दमदार बाइक उठाइये और निकल जाइये खारदूंगला रोड से लेह लद्दाख के सफर पर. यकीन मानिए इससे ज्‍यादा रोमांचक बाइक ड्राइव आपने पहले कभी नहीं की होगी. आस पास के नजारे और ये घुमावदार रास्‍ते आपको दीवाना बना देंगे. चारों ओर से पहाड़ों से घिरी खारदूंगला रोड अपनी ऊंचाई के लिए पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है. इस पर से गुजरते हुए आपको खूबसूरत नजारों और बेहतरीन मौसम के मजे के साथ बौद्ध संस्‍कृति को भी करीब से देखने और समझने का मौका मिलेगा. यहां जाने का सबसे अच्‍छा समय अप्रैल से अगस्‍त के बीच है.

स्पीती वैली का नजारा है खास

अब बात हिमाचल प्रदेश की. हिमाचल प्रदेश की स्पीती वैली लद्दाख से ज्यादा दूर नहीं है. बाइक पर स्पीती वैली जाते हुए काजा, टैबो, स्पीती और पीन वैली जैसी कई खूबसूरत जगहें देखने को मिलती हैं. यहां के बस्पा और किन्नौर इलाके में सड़कों के किनारे सेब, खूबानी के पेड़ आपका मन मोह लेंगे. साथ ही आपके साथ चलेगा सतलज नदी का हसीन बहाव, साथ ही बर्फ से ढ़के मंदिरों को देख कर आपके मन को असीम शांति का अनुभव होगा. यहां जाने का सबसे अच्‍छा समय अप्रैल से अक्टूबर तक का माना जाता है.

वालपराई और वाझाचल फॉरेस्ट

यह जगह बाइक राइडिंग के लिए ड्रीम रूट कही जाती है. केरल और तमिलनाडु के बीच से गुजरने वाला ये हसीन रास्‍ता तमिलनाडु के पोलाची को केरला के चालाकुडी को जोड़ता है. यहां बाइक चलाते हुए आप घने और हरे भरे जंगल के खूबसूरत नजारों के बीच से गुजरती हैं. इस क्षेत्र में बहुत ज्यादा बारिश होती है जिसकी वजह से यहां कई छोटे छोटे पर खूबसूरत वाटर फौल्स भी देखने को मिलते हैं. इनमें से सबसे खास है अथिरपाल और वाझाचल के वाटर फौल्‍स. यहां आप साल में किसी भी समय जा सकती हैं.

मुंबई टू गोवा

भारत की व्‍यवसायिक राजधानी कही जाने वाली मुंबई यानी मायानगरी से गोवा तक बाइक से सफर करना भी काफी मजेदार रहेगा. बाइकिंग के शौकीनों और जानकारों की मानें तो ये रूट अमेरिका के 101 हाइवे से काफी मिलता जुलता है. इस सड़क को देश में समुद्री तटीय इलाकों में बाइक चलाने के लिए सर्वश्रेष्‍ठ माना जाता है. 10 घंटे के इस एडवेंचरर्स सफर में बाइक चलाने के शौकीन बेहद मजे कर सकते हैं. ये रूट कई बौलीवुड फिल्‍मों इस्‍तेमाल किया गया है. यहां बाइक चलाने में सबसे ज्‍यादा मजा आता है अक्टूबर से फरवरी के बीच.

वेस्टर्न अरुणाचल प्रदेश

वेस्टर्न अरुणाचल प्रदेश की सैर भी यादगार बन सकती है. हिमालय की ऊंची चोटियों को देखते हुए बाइक चलाना एक बेहद लुभावना अनुभव साबित हाता है. यहां पर सड़के बहुत अच्‍छी नहीं है जिसके चलते ऊंचे नीचे पहाड़ी रास्तों से गुजरना एक रोमांचक अहसास कराता है. इस एडवेंचर से भरे सफर के दौरान आप बर्फ से ढंकी पतली सड़कों से गुजरते हुए आदिवासी और जनजातीय संस्‍कृति और उनकी एक भिन्‍न जीवन शैली को भी अनुभव कर सकती हैं. यहां जाने का सबसे अच्‍छा समय मार्च से मई और अक्टूबर से नवंबर के बीच का है.

शिलांग से चेरापूंजी

पानी के दो अलग रूपों के लिए मशहूर इन इलाकों के बीच बाइक का सफर सोच कर ही मन में सिहरन होती है. एक ओर जहां शिलांग बर्फ से ढ़की ऊंची पहाड़ियों के लिए जाना जाता है, तो दूसरी ओर चेरापूंजी अपनी लगातार ना रूकने वाली बारिश के लिए मशहूर है. जाहिर है ठिठुराती बर्फ से बारिश की फुहारों के बीच का सफर किसी कहानी के एडवेंचर जैसा ही होगा. हालांकि इस बदलते मौसम में बाइक बहुत ध्यान से चलाने की जरूरत होती है. यहां जाने का सबसे अच्‍छा समय है अक्टूबर से मार्च के बीच.

अभिनव बिंद्रा की बायोपिक में पहली बार नजर आएगी इन बाप-बेटे की जोड़ी

बालीवुड में बायोपिक्‍स का प्रयोग हमेशा सफल रहा है और अगर बायोपिक किसी खिलाड़ी की हो तो क्‍या कहना. बाक्‍सिंग स्‍टार मैरी कौम से लेकर फ्लाइंग जट के नाम से प्रसिद्ध मिल्‍खा सिंह तक कई खिलाड़ियों की बायोपिक बनाई जा चुकी है और इन्हे दर्शकों ने काफी पसंद भी किया है. आपको बता दें कि इसी क्रम में अब जल्‍द ही भारत को ओलंपिक में शूटिंग प्रतियोगिता में गोल्‍ड जिताने वाले अभिनव बिंद्रा पर बायोपिक बनने जा रही है. इस फिल्म में पहली बार बाप-बेटे यानी अनिल और हर्षवर्धन की जोड़ी एक साथ दिखाई देगी.

दरअसल, अनिल और हर्षवर्धन ओलिंपिक गोल्ड मेडलिस्ट अभिनव बिंद्रा की बायोपिक में एक साथ स्क्रीन शेयर करते नजर आएंगे. अनिल कपूर के हिस्सा लेने से हर्ष के लिए ये फिल्म और खास हो गई है. ऐसे में हर्षवधर्न कपूर ने पापा के साथ पहली बार स्‍क्रीन शेयर करने की खुशी सोशल मीडिया पर शेयर की है.

हर्षवर्धन ने इंस्टाग्राम पर एक पिक्चर कोलाज अपलोड किया. इसमें एक तरफ हर्षवर्धन अपने पिता के साथ हैं वहीं, नीचे की तरफ अभिनव बिंद्रा अपने पिता के साथ हैं. हर्ष ने लिखा, ‘पहली बार अपने पिता के साथ अगली फिल्म ‘बिंद्रा’ में स्क्रीन शेयर करूंगा. खुश हूं कि मैं अपने पापा के साथ काम करने जा रहा हूं, लेकिन एक ऐक्टर के रूप में उनके कद की वजह से नर्वस भी हूं. मैं उम्‍मीद करता हूं कि उनसे बहुत कुछ सीखने को मिलेगा और इस फिल्‍म के दौरान कई खूबसूरत यादें हम संजो पाएंगे. यह फिल्‍म अब मेरे लिए और भी अहम हो गई है.’

बता दें, 2008 के पेइचिंग ओलंपिक्स में शूटर अभिनव बिंद्रा ने 10 मीटर एयर राइफल इवेंट में गोल्ड मेडल जीतकर इतिहास रचा था. उनकी इस जीत के साथ ही भारत ने व्यक्तिगत स्पर्धा में ओलिंपिक का पहला गोल्ड मेडल हासिल किया था. बिंद्रा को सिर्फ 18 साल की उम्र में ही अर्जुन अवार्ड से सम्मानित किया गया था, जबकि 19 साल में उन्हें देश के सबसे बड़े खेल पुरस्कार राजीव गांधी खेल रत्न से सम्मानित किया गया. पेइचिंग में गोल्ड मेडल जीतने के बाद अभिनव को पद्म भूषण से भी सम्मानित किया गया.

आखिर किस शो में एक साथ नजर आएंगे अक्षय और सैफ

बौलीवुड में इन दिनों शायद पुरानी जोड़ि‍यों को दोहराने का समय चल रहा है. करीब 18 साल पहले नजर आई ऐश्वर्या और अनिल कपूर की जोड़ी एक बार फिर बड़े पर्दे पर नजर आने वाली हैं. इस जोड़ी के अलावा बौलीवुड में एक और हिट एक्टर्स की जोड़ी छोटे पर्दे पर वापसी कर रही है. खबर है कि 9 साल बाद अक्षय कुमार और एक्टर सैफ अली खान के साथ एक बार फिर मैं खिलाड़ी तू अनाड़ी फिल्म की यादों को ताजा करने वाले हैं.

दरसअल अक्षय कुमार जल्द ही टीवी पर वापसी कर रहे हैं. इस शो के पहले एपिसोड के लिए अक्षय कुमार ने सैफ अली खान को बतौर गेस्ट शो में शामिल होने के लिए मना लिया है. इस तरह शो के पहले एपि‍सोड में अक्षय और सैफ कौमेडी के जरिए फिल्म मैं खिलाड़ी तू अनाड़ी में अपनी शानदार केमिस्ट्री की फिर से याद दिलाएंगे.

90 के दशक में सुपरहिट रही अक्षय और सैफ की जोड़ी आखि‍री बार एक साथ साल 2008 में फिल्म टशन में नजर आई थी. हालांकि इस फिल्म में दोनों स्टार्स बौक्स औफिस पर कुछ खास कमाल नहीं दिखा पाए थे. अब देखना यह है कि छोटे पर्दे पर ये जोड़ी दर्शकों का मनोरंजन कर पाती है या नहीं.

बता दें कि कौमेडी शो ‘द ग्रेट इंडियन लाफ्टर चैलेंज’ का पांचवां सीजन आने वाला है, जिसमें अक्षय बतौर सुपर जज नजर आएंगे. हाल ही में अक्षय कुमार ने इस शो के पहले एपिसोड के शूट के दौरान कहा था कि वह कौमेडियन चार्ली चैपलिन के बहुत बड़े फैन हैं. यहां तक कि इतने बड़े फैन कि आज भी वह उनकी तस्वीर अपने वौलेट में रखते हैं. अक्षय ने कहा कि मैं उनकी इस कहावत पर विश्वास करता हूं, जिसमें उन्होंने कहा था, ‘जिंदगी को करीब से देखा जाए तो यह एक त्रासदी है, लेकिन दूर से देखने में यह कौमेडी है.’

इस शो में अक्षय के अलावा मल्लिका दुआ, जाकिर खान और हुसैन दलाल भी मेंटोर के रूप में नजर आएंगे.

महंगाई राजनीतिक भ्रष्टाचार की जननी

सरकार का मतलब होता है जनता की सुविधाओं की प्रबंधक, व्यवस्थापक. उस की जिम्मेदारी है कि वह अपने क्षेत्र में सुशासन की व्यवस्था करे, चोरी, डकैती, बेईमानी, लूट, हत्या, बलात्कार, दंगाफसाद आदि पर नियंत्रण कर के आम जनता को सुख, सम्मान व अधिकार दिलाए. तब तो वह जनता की सरकार, जनता के लिए और जनता द्वारा बनाई गई सरकार है अन्यथा चोरों, दलालों व पूंजीपतियों की सरकार कहलाएगी.

अगर जनता आह भरभर कर जीवनयापन कर रही है, महंगाई, भ्रष्टाचार व अभावों के दुखों तले दबी हुई है तो निश्चित रूप से सरकार भ्रष्टाचार में व्यस्त व मस्त है. यों भ्रष्टाचार के अनेक कारण हैं किंतु एक सुदृढ़ कारण यह है कि सरकार अपने वफादार सिपाहियों (जनप्रतिनिधियों) को खुश रखने की बेहतर से बेहतर तरकीब करती रहती है. कुछ तरकीबें तो ऐसी भी हैं जिन से पक्ष व विपक्ष के सभी जनप्रतिनिधि खुश हो जाते हैं, जैसे जब सरकार माननीयों के वेतन, भत्ते, पैंशन व अन्य सुखसुविधाओं में कई गुना बढ़ोतरी करती है.

सरकारें बिना पूंजीवादी व्यवस्था के आश्रित हुए स्वयं को विकलांग महसूस करती हैं. तो जाहिर है जिस से अंधाधुंध चुनावखर्च हेतु चंदा लेंगे, निर्वाचित होने पर उन के साथ नमकहलाली ही करेंगे. दूसरी बात यह भी है कि  अपनी कई पीढि़यों को आर्थिक रूप से मजबूत व संपन्न करना भी निर्वाचित सदस्यों की विवशता बनती जा रही है.

बड़े नगरों व राजधानी में भी आवास व व्यापार की सुविधा बनाना ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी अकूत धनसंपदा जमा करना, आवासीय व व्यापरिक जड़ें मजबूत करना आदि भी माननीयों के राजनीतिक दायित्वों के मुख्य हिस्से बनते जा रहे हैं.

हमारे देश में पहले नेता फटेहाल और जनता मालामाल होती थी. किंतु आज उस का उलटा, नेता मालामाल और जनता फटेहाल हो गई है. नेता दूसरों के दुखों से सुखी होते हैं और दूसरों के सुखों से दुखी होते हैं. पहले नेताओं की सोच होती थी कि हम देश को सबकुछ समर्पित कर दें, किंतु आज के नेताओं की सोच है कि हम अपने व्यक्तित्व विकास के लिए राष्ट्र से सबकुछ ले लें.

देश में दंगेफसाद, हड़ताल, धरनेप्रदर्शन के पीछे कोई सोच काम कर रही है. चर्चा का विषय है कि यह माननीयों की ही  सोच है. आमजन को उन की रोजमर्रा की आवश्यकताओं, सुविधाओं, मेहनतमजदूरी से वंचित कर दो. ऐसे में वे या तो परलोक सभा का टिकट पाएंगे अन्यथा पाने लायक  हो जाएंगे.

आम आदमी बनाम पूंजीपति

सरकार बनते ही माननीय केवल धनपशुओं की भीड़ से सज जाते हैं. वे भांतिभांति के उपहार व भेंट, वफादारी की भावना से, समर्पित करते हैं. मतदाताओं को तो माननीयगण पहचान ही नहीं पाते. मतदाता पहुंचे भी उन के द्वार, तो लाइन में सब से पीछे नजर आएगा. जब माननीय जी से अपनी बात कहने का उस का नंबर आएगा, तब तक माननीय जी फुर्र हो जाएंगे.

हों या पीएम, दोनों के पास आम आदमी से कम, पूंजीपति से मिलने के लिए ज्यादा समय रहता है. देश के भ्रष्टों को गले लगा कर आदर्श नागरिक बनने का ढोंग किया जाता है. माननीयों को सरकारी कार से दौरा करते रहने से फुरसत नहीं मिलती. ऐसे में वे क्या योजनाएं, परियोजनाएं बनाएंगे. उन की नाक के नीचे भ्रष्टाचार फलफूल रहा होता है लेकिन वे कहते हैं कि उन्हें तो पता ही नहीं. जबकि उन के इशारे के बिना भ्रष्टाचार का एक पत्ता भी नहीं हिल सकता, भ्रष्टाचारी सांस नहीं ले सकता. आज राजनीति भ्रष्टाचार की जननी हो गई है.

यह कैसा विकास

आम जनता की बेहतरी के बारे में वे कब, कैसे और क्यों सोचेंगे, सोचना और समझना उन के जीवन का बड़ा ही दुर्लभ कार्य है. माननीयगण देश के विकास की बात तो कर रहे हैं और विकास भी दिखाई पड़ रहा है, किंतु इस विकास के कार्यों से क्या देश की आम जनता सुखी हो रही है, क्या उस के दुखों का कारण समाप्त हो रहा है.

चार, छह और आठ लेन की बड़ी चौड़ी सड़कें, बड़ेबड़े हवाईअड्डे, बड़ेबड़े पुल, ओवरब्रिज, वातानुकूलित फाइवस्टार होटल, आलीशान बंगले, खूबसूरत पार्क क्या ये सब देश की आम जनता को सुख पहुंचाने के लिए बनाए जा रहे हैं? उक्त समस्त विकास कार्य तो माननीयों व धनपशुओं के लिए ही विकसित किए जा रहे हैं. यह तो आम जनता के विकास से परे की बात है.

ऐसा विकास कार्य एकांगी है. आवश्यकता है किसान, मजदूर, शिल्पकार, गरीब, नौजवान, छात्र, महिलाओं व अधिकारवंचित समाज के लोगों के  लिए ऐसे कार्य किए जाने की जिन से उन्हें रोजगार के साथसाथ स्वावलंबन, स्वाभिमान, आत्मसम्मान व अधिकार  भी प्राप्त हो सकें, उन को शोषण व उत्पीड़न से मुक्ति मिल सके. लेकिन माननीयों के पास विकास की ऐसी सोच है ही नहीं क्योंकि ये तो संतुलित विकास की सोच है.

जनता को जागरूक हो कर अपनी आवश्यकताओं के बारे में जोरदार  ढंग से सरकार को एहसास कराना  होगा तभी राजनीतिक भ्रष्टाचार समाप्त हो सकेगा और दुखी मानवता सुखी  हो सकेगी.

आखिर किसके लिए आमिर ने लिखा था अपने खून से खत

बौलीवुड में ऐसी कई लव स्टोरी हैं जिन्हे हमेशा से लोग पसंद करते आए हैं. ऐसी ही एक लव स्टोरी थी बौलीवुड के मिस्टर परफेक्ट कहे जाने वाले आमिर खान की. आमिर फिलहाल किरण राव के साथ हैं, लेकिन उससे पहले उनके जिंदगी में एक बहुत ही रोमांटिक लव स्टोरी रह चुकी है. आमिर खान का दिल अपने पड़ोस मे रह रही एक हसीना पर आ गया था और उसे खुश करने के लिये आमिर ने बहुत पापड़ बेले थे.   

आमिर खान और रीना दत्ता ने अपनी शादी भले ही 16 साल पहले (2002) में खत्म कर दी हो, लेकिन उनके बीच कोई कड़वाहट नहीं है. रीना अभी भी खान फैमिली का हिस्सा हैं. आमिर खान ने एक बार कहा भी था, रीना हमारे परिवार का अहम हिस्सा हैं और हमेशा रहेंगी. कानूनी तौर पर हम अलग हो चुके हैं लेकिन हमारा रिश्ता कभी खत्म नहीं हो सकता.

एक अंग्रेजी अखबार के मुताबिक आमिर और रीना की लव स्टोरी फिल्मी तरीके से शुरू हुई थी. दोनों पड़ोसी थे और खिड़की से एक दूसरे को घंटों देखा करते थे. आमिर ने हिम्मत करके एक दिन रीना को प्रपोज कर दिया था, लेकिन रीना डरी हुई थीं और उन्होंने आमिर को उनके जवाब में मना कर दिया था.

आमिर ने बहुत कोशिश की लेकिन रीना ने हमेशा मना कर दिया. जब दोनों का संबंध शुरू हुआ, तब आमिर ने उन्हें इम्प्रेस करने के लिए खून से खत लिखा. इससे रीना इम्प्रेस नहीं हुईं. उन्होंने आमिर को आगे ऐसा करने से मना कर दिया. हालांकि 2002 में आमिर और रीना का तलाक हो गया, मगर आज भी कई खास मौकों पर रीना खान परिवार के साथ नजर आती है, या यू कहें की वे खान परिवार का आज भी हिस्सा हैं.

टाइम जोन : वक्त बदलने की जरूरत

एक ही देश में क्या घड़ी की सूइयां अलगअलग वक्त बता सकती हैं? यह एक मुश्किल सवाल है क्योंकि भारत में फिलहाल लोगों को इस की आदत नहीं है कि कश्मीर में अगर किसी दिन सुबह के 11 बजे हों, तो उसी समय अरुणाचल प्रदेश में घड़ी की सूइयां 12 बजे का वक्त दिखा रही हों. हालांकि, ऐसा देश में काफी पहले हो चुका है.  1880 के दशक में मद्रास टाइम 2 टाइम जोनों के बीच अलग से प्रचलन में था और इस के अलावा पोर्ट ब्लेयर मीन टाइम भी अलग से तय किया जाता था. लेकिन अब एक बार फिर देश में 2 टाइम जोन बनाने की मांग उठ रही है.

इस बार अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पेमा खांडू अपने राज्य की जरूरतों के मद्देनजर केंद्र सरकार से इस की पहल करने को कह रहे हैं. बिजली बचाने और सड़क दुर्घटनाएं रोकने के मकसद से वहां यह मांग की जा रही है. पर इस के कई अन्य पहलू भी हैं, जो 2 साल पहले 2015 में महाराष्ट्र में उजागर हुए थे. तब बौंबे हाईकोर्ट ने एक जनहित याचिका  पर सुनवाई करते हुए राज्य सरकार से उपनगरीय लोकल ट्रेनों में ज्यादा भीड़भाड़ पर रोक लगाने के लिए दफ्तरों के समय में तबदीली करने के बारे में सुझाव दिया था.  अदालत ने कहा था कि अगर आधे या कुछ प्रतिशत दफ्तरों का समय थोड़ा परिवर्तित कर दिया जाए तो इस से सड़कों, बसों और रेलमार्गों पर ट्रेनों में भीड़ का दबाव और ट्रैफिक समस्या का मसला काफी कम हो जाएगा.

इस अनोखी पेशकश को सिर्फ मुंबई के नजरिए से नहीं, बल्कि देश के अन्य महानगरों और कई बड़े शहरों के संदर्भ में भी देखने की जरूरत है जहां दफ्तरों का एक निश्चित समय पर खुलना और बंद होना ट्रैफिक के अलावा कई अन्य समस्याएं पैदा कर रहा है. इस से दफ्तरों और कामकाज के लिए एक ही समय पर निकलने वाले युवाओं को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. असल में यह एक बड़ी पहलकदमी की मांग है, जिस के बारे में कई अन्य कारणों से भी देश में पहले भी मांगें उठती रही हैं.

पूर्वोत्तर की पुरानी मांग

देश के पूर्वोत्तर राज्यों के लोग अकसर यह बात कहते हैं कि अगर वहां सूरज उगने और दिन ढलने के हिसाब से घडि़यों को सैट कर दिया जाए तो दफ्तर देश के अन्य इलाकों के मुकाबले जल्दी खुलेंगे और जल्दी बंद होंगे. इस से आम जनता को भी काफी सहूलियत हो जाएगी क्योंकि तब लोग शाम को अंधेरा घिरने से पहले घर पहुंच सकेंगे. इसी जरूरत के तहत वर्ष 2013 में भी पूर्वोत्तर राज्य असम में घड़ी की सुइयों को 1 घंटा आगे खिसकाने का विचार किया गया था और 2014 में नया समय लागू करने की कोशिश की गई थी.

भारतीय मानक समय से अलग ऐसी व्यवस्था बनाने की मांग अरसे से पूर्वोत्तर के लोग करते रहे हैं क्योंकि वहां सूर्योदय और सूर्यास्त का समय शेष देश से काफी अलग होता है. गरमी में (जून में) वहां सुबह 4 बजे सूरज निकल आता है और सर्दी में (दिसंबर में) शाम 5 बजे ही सूर्यास्त हो जाता है. वर्ष 2014 की पहली जनवरी से वहां जो नया समय लागू करने की कोशिश की गई थी, उस व्यवस्था को ब्रिटिश शासनकाल में चाय बागान में काम करने वाले श्रमिकों की दिनचर्या के हिसाब से बनाया गया था. उसे ‘चाय बागान टाइम’ भी कहा जाता है.

पहले असम, फिर महाराष्ट्र और अब अरुणाचल प्रदेश में उठ रही मांगों के आधार पर देश में दफ्तरों की समयसारणी बदलने पर विचार करने की जरूरत बनती है. वर्ष 2013 में असम कांग्रेस और यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट औफ असम (उल्फा) ने एक स्वर में यह मांग उठाते हुए कहा था कि दफ्तरों का समय बदलने के बारे में अविलंब फैसला होना चाहिए क्योंकि इस से पूर्वोत्तर का विकास बाधित हो रहा है. जानेमाने फिल्म निर्माता और इसरो के पूर्व वैज्ञानिक जे बरुआ ने बाकायदा आकलन कर के बताया कि पूरे देश के लिए निर्धारित टाइम जोन का पालन करने की मजबूरी में बिजली की खपत आदि मदों में ज्यादा खर्च करने के कारण पूर्वोत्तर क्षेत्र को सालाना 94,900 करोड़ रुपए का भारी नुकसान झेलना पड़ रहा है.

कैसे बनेगा नया टाइम जोन

यह मामला कुल मिला कर नया टाइम जोन बनाने जैसा है. दुनिया के कई हिस्सों में स्थानीय जरूरतों के हिसाब से एक ही देश में अलगअलग टाइम जोन या तो पहले से ही हैं या फिर इन्हें ले कर मांग उठती रही है. वर्ष 2013 में ऐसी ही एक मांग स्पेन से उठी थी. स्पेन में घडि़यों को 1 घंटा खिसकाने के लिए वहां की संसद में एक कानून का प्रस्ताव लाया गया था जिस के अंतर्गत देश के मानक समय में 1 घंटे के बदलाव का सुझाव दिया गया था. वहां घडि़यों का वक्त बदलने की यह कोशिश एक रिपोर्ट के बाद की गई, जिस में दावा किया गया था कि पिछले 71 वर्षों से स्पेन सही टाइम जोन में नहीं है.

असल में, वर्ष 1942 में स्पेन के तानाशाह जनरल फ्रांको ने स्पेन को केंद्रीय यूरोपीय समय (सीईटी) टाइम जोन में शामिल कर दिया था ताकि स्पेन नाजी जरमनी का अनुसरण कर सके. लेकिन देखा गया कि इस से स्पेन के लोगों के खाने, सोने और काम से जुड़ी आदतों में अंतर आ गया.  स्पेन की संसदीय रिपोर्ट के अनुसार, गलत टाइम जोन अपनाने की वजह से स्पेन के लोग विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा तय किए गए मानकों के विरुद्घ न्यूनतम

1 घंटा कम सो पाते हैं, जिस का असर उत्पादकता पर पड़ता है और इस से दफ्तरों में कर्मचारियों की अनुपस्थिति, तनाव, दुर्घटनाएं व बच्चों के स्कूल छोड़ने की दर भी बढ़ती है क्योंकि तब मांबाप बच्चों की पढ़ाईलिखाई पर ध्यान नहीं दे पाते हैं.  रिपोर्ट का कहना है कि यूरोप के पश्चिमी छोर पर बसे स्पेन को कायदे से ब्रिटेन और पुर्तगाल के टाइम जोन का अनुसरण करना चाहिए जो यहां सूरज के उगने और अस्त होने के वक्त के हिसाब से ज्यादा सटीक है. इस टाइम जोन के अनुसार, स्पेन की घडि़यों को मौजूदा समय से 1 घंटा पीछे करने से यह देश कई मानों में यूरोप के अनुरूप हो जाएगा और इस से स्पेन के लोगों की दिनचर्या सुधर जाएगी.

भारत का मामला

एक विस्तृत भूभाग वाले देश में यह जरूरत तो बनती ही है कि स्थानीय जरूरतों के हिसाब से या तो उस के एक से ज्यादा टाइम जोन हों या फिर बड़े शहरों में कुछ दफ्तरों के खुलनेबंद होने के समय बदले जाएं. इस जरूरत की एक स्पष्ट वजह तो यह है कि हमारे देश भारत के कई हिस्सों में सूर्य दूसरे इलाकों के मुकाबले पहले उगता और अस्त होता है.

देश के पूर्वोत्तर इलाकों में सुबह और रात देश के बाकी हिस्सों से जल्दी होती हैं. इस कारण एक निश्चित समयसारणी के अनुसार खुलने वाले दफ्तरों में काम करने, वायुयानों की उड़ानों आदि के संचालन में असुविधा पैदा होती है. केंद्र सरकार के कार्यालयों के खुलनेबंद होने का समय सुबह 9 से शाम 5 बजे है. ऐसी स्थिति में पूर्वोत्तर में सुबह 9 बजे तक दिन का लंबा अरसा बीत चुका होता है. वहां शाम 5 बजे तक अंधेरा होने को होता है. इस असंतुलन को साधने के लिए दफ्तरों और सभी संबंधित क्रियाकलापों में बिजली की अधिक खपत होती है, जिस का संकेत जे बरुआ ने भी किया था.

ऐसी जरूरतों के मद्देनजर ही विस्तृत भूभाग वाले कई देशों में एक से ज्यादा टाइम जोन की व्यवस्था की गई है, जैसे रूस में 11 टाइम जोन हैं, अमेरिका में 9 अलगअलग टाइम जोन हैं और कनाडा में 6 टाइम जोन प्रचलन में हैं. हालांकि, भारत की तरह ही विशाल क्षेत्रफल वाला देश चीन सिर्फ एक ही टाइम जोन से काम चला रहा है.

भारत में 2 टाइम जोनों की जरूरत का एक स्पष्ट उदाहरण मिलता है. वर्ष 1999 में गुवाहाटी में जब भारत और न्यूजीलैंड के बीच एकदिवसीय क्रिकेट मैच का आयोजन हुआ, तो खेल मान्य समय से  15 मिनट पहले शुरू किया गया, ताकि मैच शाम को अंधेरा होने से पहले खत्म हो सके. इस मांग पर पहले भी विचारविमर्श  हुआ है. वर्ष 2001 में विज्ञान और तकनीकी मंत्रालय के अधीन सरकार ने 4 सदस्यीय समिति बना कर कर इस जरूरत को समझने की कोशिश भी की थी. हालांकि इस समिति के नतीजे पेश करते हुए 2004 में कपिल सिब्बल ने कहा था कि भारत इतना बड़ा देश नहीं है कि वहां 2 टाइम जोनों के बारे में सोचा जाए.

सच यह है कि पूर्व और पश्चिम में 2 हजार किलोमीटर की दूरी वाले देश भारत में समय अंतरों की बेहद जरूरत है. इसे इस बात से समझा जा सकता है कि पूर्वोत्तर में सूर्य के उगने और अस्त होने का समय पश्चिम के कच्छ के मुकाबले 2 घंटे पहले है. नगालैंड और अरुणाचल प्रदेश में तो सूरज गरमी में सुबह 4.30 बजे ही उग आता है, इसलिए सरकारी कर्मचारियों को 8 या 9 बजे दफ्तर जाने से पहले काफी लंबा इंतजार करना होता है. वहां शाम चूंकि जल्दी होती है, इस कारण ऊर्जा का इस्तेमाल बढ़ने के साथसाथ दफ्तरों के संचालन में होने वाले खर्च में भी बढ़ोतरी होती है. यह भी गौरतलब है कि 1980 के दशक में कुछ शोधकर्ताओं ने देश को 2 या 3 टाइम जोन्स में बांटने का प्रस्ताव रखा था, ताकि ऊर्जा संरक्षण के काम में तेजी लाई जा सके. यह कुल मिला कर एक सामाजिक व आर्थिक समस्या है और इस का निदान देश को 2 टाइम जोन्स में बांटने से आसानी से संभव है.

बिजली की बचत, जाम से बचाव

मामला सिर्फ बिजली के इस्तेमाल में बढ़ोतरी का नहीं है, बल्कि दफ्तरों के संचालन में होने वाले खर्च और सड़कों पर बसों व ट्रेनों में भीड़ का भी है. आबादी के साथसाथ शहरों की सड़कों, रेलमार्गों से ले कर हर चीज पर दबाव बढ़ा है. शहरों में एक तय वक्त पर दफ्तरों में कामकाज शुरू हो कर खत्म होने का अनुशासन सड़कों पर अराजकता पैदा कर देता है. सुबह 8 से 10 बजे तक और शाम 5 से 7 बजे तक न तो सड़कें खाली मिलती हैं, न ही लोकल ट्रेनों या मैट्रो में पैर रखने की जगह मिलती है.

यह एक सामाजिक और आर्थिक समस्या है, जिस के निदान के लिए स्थानीय जरूरतों के मुताबिक टाइम जोन अलग करने व दफ्तरों की समयसारणी में तबदीली किए जाने की जरूरत है ताकि देश में तेज होते शहरीकरण के सामने पेश होने वाली दिक्कतों के हल समय रहते निकाले जा सकें. 

पब्लिक स्कूल बनाम हेयर कटिंग सैलून

आप निश्चित रूप से चौंकेंगे पर जनाब, चौंकने की कोई बात नहीं है. जो वस्तुएं भिन्नभिन्न दिखाई देती हैं उन में भी आंतरिक समानता संभव है. ये दर्शन की बातें हैं. बहरहाल हमारा उद्देश्य कुछ जन्मजात अलगअलग आइटमों की अनोखी समरूपता पर आप का ध्यान आकर्षित करना है.

पब्लिक स्कूल आज के दौर में आकाश कुसुम की तरह हैं जिन में अपने बच्चों को पढ़ाना हर आदमी का सपना रहता है. इन स्कूलों के रंगरूप और क्रियाकलाप भी बेहद आकर्षक होते हैं, अत: इन में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को हम बड़ी हसरत  भरी नजरों से निहारते हैं. परंतु इन पब्लिक स्कूलों में दाखिला यों ही नहीं मिलता बल्कि जेब की एक मोटी रकम देने की क्षमता ही एकमात्र व्यावहारिक मापदंड हुआ करती है. इन में प्रवेश मिलते ही हमें अपने बालकों के आईएएस, आईपीएस बन जाने की गारंटी जैसा सुखद एहसास होने लगता है.

मामूली आदमी के लिए तो इन स्कूलों की कल्पना भी दूर की कौड़ी है. हमारे एक मित्र भी पब्लिक स्कूलों के दीवाने हैं. रईस हैं, ऊपर से मोटी कमाई भी है अत: ऐसे स्टैंडर्ड के पब्लिक स्कूलों में प्रवेश के मापदंडों में वे पूरी तरह फिट बैठते हैं. उन का अनुभव ही इस लेख की प्रेरणा बिंदु रहा है.

अपने छोटे बेटे फरजंद को उन्होंने अभी एक नामी पब्लिक स्कूल में प्रवेश दिलाया ही था कि उन की अंतहीन समस्याओं का पिटारा खुल गया. आर्थिक पक्ष में ‘गांठ के पक्के’ होने के बावजूद उन्हें कई गैरमामूली समस्याओं से जूझना पड़ा. स्कूल की लग्जरी यूनिफौर्म, कोट, ब्लेजर, टाई आदि का तो कोई लफड़ा नहीं था. कारण, वे सब वस्तुएं तो उसी स्कूल से खरीद ली गई थीं. बस, उन को खरीदने के लिए मोटी रकम खर्च हो गई.

पैसा जरूर उन का खर्च हुआ किंतु मजा आ गया. शानदार ‘लुक’ और ‘गैटअप’ में अपने बेटे को देख कर उन का दिल खुश हो गया. स्वयं तो बेचारे गांव के सरकारी स्कूल में प्राथमिक स्तर की शिक्षा भी प्राप्त नहीं कर पाए थे किंतु बेटे को तो ‘पब्लिक स्कूल’ में पढ़ाने का उन पर जनून सवार था. पब्लिक स्कूल में प्रवेश दिलाने के लिए उन्होंने क्याक्या जतन नहीं किए थे. स्कूल ड्रैस पहन कर उन के लाड़ले बेटे ने अभी स्कूल जाना शुरू ही किया था कि एक दिन उस की डायरी में टीचर का अंगरेजी में लिखा ‘नोट’ आया कि ‘आप के बेटे के बाल बहुत बड़े हैं, कृपया इन्हें सलीके से कटवा कर छोटे करवाएं.’ अंगरेजी में लिखी इबारत का हम जैसे से हिंदी में अनुवाद करा कर वे श्रीमान फौरन एक नाई की दुकान में जा धमके. नाई ने बच्चे के बालों की कटिंग कर दी. दूसरे दिन बच्चा शरमातालजाता, हर्षाता स्कूल पहुंचा परंतु छुट्टी के बाद मुंह लटकाए वापस लौट आया. उस की डायरी में पुन: एक नोट लिखा था, ‘कृपया बच्चे की कटिंग ‘स्कूल नौर्म्स’ के अनुरूप ही कराएं.’

मित्र महोदय बड़े चकित हुए. भला कटिंग के लिए भी ‘स्कूल नौर्म्स’ हो सकते हैं. उस दिन उन्होंने अपने बेटे के बाल और छोटे करवा दिए. उन्होंने सोचा था कि ‘न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी’ सो छोटे बालों पर तो विवाद की कोई संभावना ही नहीं होनी थी.

अगले दिन फिर डायरी में नोट लिखा मिला, ‘आप को तीसरी बार हिदायत दी जा रही है. बच्चे की कटिंग ‘जोकर स्टाइल’ में नहीं, ‘स्कूल नौर्म्स’ के अनुसार कराई जानी चाहिए थी. आप स्कूल के नियमों का पालन नहीं कर रहे हैं अत: बच्चे के  प्रवेश को रद्द किया जा सकता है.’

मित्र घबरा कर अगले दिन विद्यालय जा पहुंचे. उन की समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर बाल कटवाने का फंडा उन की समझ में क्यों नहीं आ रहा है. अपने मिठाई के धंधे में तो वे सेठ बन चुके थे. उन की मिठाई की दुकान अब शोरूम में बदल चुकी थी पर उन की सोच अब भी ठेठ ग्रामीण और हलवाइयों जैसी ही थी. स्कूल के मैनेजमैंट की अंगरेजी में डांट खाने के बाद उन्हें सिर्फ इतना समझ में आया कि बच्चे की हेयर कटिंग अब उसी स्कूल के ‘हेयर कटिंग सैलून’ में ही करवानी पड़ेगी, जिस के चार्ज के रूप में 1 हजार रुपए पे करने हैं. तभी उस ‘हेयर स्टाइल’ का लुक आएगा जो ‘स्कूल नौर्म्स’ के अनुसार ‘आदर्श हेयर स्टाइल’ है.

बिना तर्कवितर्क के उन्होंने 1 हजार रुपए जमा कराने का निर्णय किया पर कैश काउंटर पर 12 हजार रुपए की मांग हुई. मित्र का माथा ठनका पर बात पब्लिक स्कूल की थी सो तुरंत 12 हजार का चैक थमा दिया. बाद में पता चला कि 1 हजार रुपए प्रतिमाह के हिसाब से पूरे 1 साल के कटिंग चार्ज के रूप में 12 हजार रुपए की रकम वसूली गई है. सेठजी धन्य हो रहे थे. स्कूल के डिसिप्लिन से वे ऐसे इंप्रैस हुए कि अब उन्हें अपने बेटे की आदर्श शिक्षा में कोई कसर महसूस नहीं हो रही थी.

पेरैंट्स की सुविधा के लिए उस ‘पब्लिक स्कूल’ ने अपना खुद का हेयर कटिंग सैलून अपने ही स्कूल कैंपस में खोल लिया है. उस में बाल काटने वाले दक्ष नाई कोई साधारण नाई नहीं हैं. वे विदेशों में रह कर आए हैं और शिक्षा जगत की बड़ी हस्तियां हैं. उन्हें ज्ञान है कि बच्चों को शिक्षा के लिए किस तरह योग्य बनाया जा सकता है. वे ‘हेयर कटिंग’ का कार्य ‘साइंटिफिक मैथड’ से करते हैं, इसीलिए तो अपने ‘स्कूल के नौर्म्स’ को मेंटेन कर पाते हैं. उन की कटिंग का चार्ज बेशक थोड़ा ज्यादा लग सकता है पर उस की उपयोगिता भी तो बहुत महत्त्वपूर्ण है. सरकारी स्कूलों के बच्चे इसीलिए पिछड़े रह जाते हैं कि वे लोग हेयर स्टाइल जैसे शिक्षा के नवीन प्राथमिक सिद्धांतों पर कभी ध्यान ही नहीं रख पाते हैं. उस पब्लिक स्कूल का नाम इसीलिए इतना प्रसिद्ध हो पाया है कि उस ने हेयर स्टाइल में भी कुछ ‘रचनात्मकता’ कर के दिखाई है.

मित्र महोदय को स्कूल की जुगलबंदी अच्छी तरह समझ में आ चुकी थी. शिक्षा जगत में दोनों हिलमिल कर लोगों की सेवा का कार्य निबटा रहे थे. उन के इस महान सेवा कार्य को पैसे की लूट समझना हमारी नासमझी होगी. स्कूल के मैनेजमैंट की ओर से मित्र को सपत्नीक अगले दिन स्कूल में पेश होने का आदेश मिला. उन दोनों की मौजूदगी में स्कूल में बने स्टाइलिश हेयर कटिंग सैलून में उन के साहबजादे के बाल कतरने का आधुनिक मुंडनसंस्कार संपन्न हुआ.

सैलून की वर्ल्ड क्लास सुविधाओं को देख कर वे दोनों पतिपत्नी गद्गद हो गए. शानदार महंगी कुरसी, मौडर्न उपकरणों से सुसज्जित ‘हेयर कटिंग सैलून’ के नाइयों को ‘नाई’ कहना भी अशिष्टता होगी. वे वाकई हेयर कटिंग विशेषज्ञ या कहें केश कतरन विशेषज्ञ होने का दर्जा रखते थे. बढि़या यूनिफौर्म में सजे वे बच्चों के बाल इतने संजीदा तरीके से काट रहे थे कि वह सारा दृश्य अलौकिक अनुभव से कम नहीं था. एकएक बाल को निहायत ही करीने से तराश कर सैट किया जा रहा था. इस ‘प्रैक्टिकल क्लास’ के बाद दोनों पतिपत्नी को बच्चे के बाल बनाने व संवारने का विधिवत प्रशिक्षण भी दिया गया. केशों से संबद्ध आवश्यक दिशानिर्देश भी उन्हें समझा दिए गए जो भविष्य में बालक के बालों को संवारने के लिए अतिआवश्यक थे.

पब्लिक स्कूल द्वारा उन के लिए जो सुविधा उपलब्ध कराई गई थी, उस से हमारे मित्र स्कूल के प्रति नतमस्तक हो गए. उन की श्रद्धा और भक्ति और बढ़ गई. उन्हें गर्व होने लगा कि अपने वंश में अपने पूर्वजों को पीछे छोड़ वे सही अर्थों में अतिआधुनिक और जागरूक होने का दर्जा पा चुके हैं. उन्हें इसी बात का दुख था कि वे स्वयं इतनी महत्त्वपूर्ण बात पहले क्यों नहीं समझ पाए थे.  उन्हें इस तथ्य का ज्ञान हो चुका था कि निश्चित रूप से ‘हेयर स्टाइल’ ही बच्चे की शिक्षादीक्षा को निर्धारित करता है. बच्चा कैसे पढे़गा भला? उस का हेयर स्टाइल तो परफैक्ट ही नहीं है. हेयर कटिंग सैलून बच्चे के कैरियर निर्माण के लिए अनिवार्य सोपान है.

अपने साथ घटित इस अुनभव को उन्होंने हमें खूब रस लेले कर सुनाया. पब्लिक स्कूल के डिसिप्लिन के कायल हमारे मित्र महोदय की भक्ति पर हम भी चकित थे. पैसे बटोरने का ऐसा नायाब तरीका चाहे उन की समझ में न आया हो लेकिन उन की उम्मीदें अब और भी मजबूत हो गई हैं कि अंगरेजीदां बन कर उन का बेटा जब तक स्कूल की शिक्षा पूरी करेगा तब तक निश्चित रूप से वह अत्यंत होनहार, मेधावी बन चुका होगा. उस समय उन के साहबजादे के लिए देश की आदरणीय संस्थाएं नौकरी देने के लिए पलकपांवड़े बिछाए तैयार खड़ी होंगी.

अब मैं उन्हें कैसे समझाऊं कि जिस तरह के स्कूल में वे अपने होनहार को पढ़ा रहे हैं उस स्कूल में पढ़ने के बाद जरूरी नहीं कि वह सरकार में आला अफसर ही बनेगा. ऐसे कितने ही पब्लिक स्कूल हैं जहां पढ़ कर बच्चे अंगरेजी बोलना तो जान जाते हैं, लेकिन वे आला अफसर ही बनें यह जरूरी नहीं. हां, महल्ले के पास जब उन्हें लेने चमचमाती एसी बस आती है तो मांबाप के पैसे का रुतबा पड़ोसी पर जरूर पड़ता है.

नशे में थे संजय खान और धर्मेंद्र ने जड़ दिया थप्पड़

बौलीवुड की गलियां सितारों से सजती है. इन गलियों के चौराहों पर कई किस्‍से भी बसते हैं. इन किस्‍सों के बारे में लोगों की दिलचस्‍पी भी खूब होती है. आम तौर पर हमेशा हंसते रहने वाले ये सितारे भी हमारी और आपकी तरह इंसान ही हैं. इन्‍हें भी गुस्‍सा आता है और कई बार तो इतना की वो अपना आपा खो देते हैं और सामने वाले पर हाथ उठा देते हैं.

ऐसा ही एक किस्‍सा धमेंद्र और फिरोज खान के भाई संजय खान के बीच का है. धर्मेंद्र अक्सर फिल्म की शूटिंग खत्म करने के बाद साथी कलाकारों के साथ बैठकर मस्ती-मजाक करते थे. इसी मस्ती के बीच संजय खान ने कुछ ज्यादा ही नशा कर लिया. जब नशा चढ़ा तो संजय खान एक्टर ओम प्रकाश के बारे में उल्टा-सीधा बोलने लगे.

धर्मेंद्र ने उन्‍हें चुप करने की खूब कोशिश की. लेकिन नशे में संजय खान चुप नहीं हो रहे थे. बताया जाता है कि तब धर्मेंद्र का पारा इस कदर चढ़ गया कि उन्‍होंने संजय खान को थप्‍पड़ जड़ दिया. हालांकि बाद में उन्होंने इसके लिए माफी भी मांगी.

यह सिर्फ एक मामला नहीं है, बौलीवुड में ऐसे कई झगड़े हैं. आइए जानते हैं इन मंझे हुए कलाकरों के बीच हुए अनबन की दिलचस्प कहानी.

नूतन और संजीव कुमार

नूतन और संजीव कुमार का किस्‍सा भी खूब चर्चित है. संजीव कुमार तब स्‍ट्रगल कर रहे थे, जबकि नूतन टौप की एक्‍ट्रेस थी. 1969 में ‘देवी’ फिल्म की शूटिंग चल रही थी. संजीव इसमें नूतन के अपोजिट थे. एक मैगजीन में खबर छपी की दोनों एक्‍टर्स के बीच अफेयर है. नूतन बहुत परेशान हो गईं. बाद में उन्‍हें पता चला कि यह खबर संजीव कुमार ने भी सुर्ख‍ियां बटोरने के लिए प्‍लांट करवाई है. बताया जाता है कि एक दिन सेट पर नूतन ने ना सिर्फ संजीव कुमार को खरी-खोटी सुनाई बल्‍कि‍ सबके सामने थप्‍पड़ भी जड़ दिया.

राज कपूर और राजकुमार

राज कपूर और राजकुमार के बीच भी एक बार जबरदस्त झगड़ा हुआ था. दोनों ही अपने जमाने के सुपरस्टार थे. लेकिन प्रेम चोपड़ा की शादी की पार्टी के दौरान दोनों के बीच अनबन हो गई. पार्टी पूरे शबाब पर थी और राज कपूर ने ज्यादा पी ली थी. वह राजकुमार के पास गए और उनसे कहा कि तुम हत्यारे हो. राज कुमार ने भी मजाक में कहा, ‘हां मैं हत्यारा हूं, लेकिन तुम मेरे पास काम मांगने आए थे. मैं तुम्हारे पास नहीं आया.’

सूत्रों की मानें तो कि इस बात को लेकर दोनों में खूब अनबन हुई. मामला हाथापाई तक पहुंच चुका था. बता दें कि फिल्म इंडस्ट्री में आने से पहले राजकुमार मुंबई पुलिस में सब-इंस्पेक्टर थे. लेकिन एक मर्डर केस में नाम होने की वजह से वह पुलिस की नौकरी छोड़ फिल्मों में आ गए थे.

माला सिन्‍हा और शर्मिला टैगोर

बात 60 और 70 के दशक की है. 1968 में जौय मुखर्जी ने फिल्म ‘हमसाया’ के लिए शर्मिला टैगोर और माला सिन्‍हा को कास्ट किया था. एक दिन शूटिंग के दौरान दोनों के बीच किसी बात को लेकर अनबन शुरू हो गई. देखते ही देखते यह अनबन हाथापाई में बदल गई. यह भी कहा जाता है कि माला ने बिना सोचे-समझे शर्मिला को थप्पड़ मार दिया था. इस घटना के बाद दोनों में फिर कभी पहले जैसी बातचीत नहीं देखी गई.

त्योहारों के मौसम में पेपर डेकोरेशन से घर को दें यूनिक लुक

जल्द ही शादियों और त्योहारों का सीजन शुरू होने वाला है. त्योहारों पर आप अपने कपड़ों पर तो ध्यान देती ही हैं लेकिन घर की डेकोरेशन भी खास करती हैं. जैसे जमाना मौडर्न होता जा रहा है, वैसे ही डेकोरेशन के आइडियाज भी बदलते जा रहे हैं. आजकल डेकोरेशन में नए-नए थीम और आइटम्स आ चुके हैं, जिनमें पैसा भी ढेर सारा लग जाता है. ऐसे में आप इसी उलझन में रहती हैं कि आखिर घर को कैसे नया और आकर्षक बनाया जाए. तो चलिए इस बार हम आपकी ये परेशानी दूर किए देते हैं. तो क्यों न आप इस बार कुछ अलग तरह से अपने घर को सजाएं जिसमें खर्च भी कम हो और डेकोरेशन भी मौडर्न स्टाइल में हो.

क्रेन्स डेकोरेशन

इसके लिए आपको ग्लेज पेपर, कलर्ड पेपर और हैगिंग के लिए थ्रेड की जरुरत पड़ेगी. ग्लेज और कलर्ड पेपर की मदद से छोटे-छोटे क्रेन बना लें. फिर इनपर धागा बांध कर इनहें लटका दें.

पेपर फैन डेकोरेशन

यह सबसे आसान आइडिया है. इस से आपके घर को नया लुक मिलेगा और आपके मेहमान इसे देखते रह जाएंगे. इसे बनाने के लिए आप दो रंग के कागज लें और फिर उनके पंखे बना लें और इसे अपने दीवाल पर या दरवाजे पर सजाएं.

पेपर बोट डेकोरेश

हैगिंग पेपर बोट डेकोरेशन भी डेकोरेशन के लिए अच्छा आइडिया है. पेपर की मदद से बोट बनाएं और उन्हें हैगिंग की तरह लटका दें. इसके लिए आप पोल्का डाट्स या स्ट्राइप पेपर भी चुन सकती हैं.

हैंगिंग अम्ब्रेला

इसके अलावा आप हैगिंग अम्ब्रेला से भी अपने घर को सजा सकती हैं. अगर आप थीम के हिसाब से डेकोरेशन करेंगी तो यह सबसे अच्छा आइडिया है. इसके अलावा आप हैंगिंग एलीफैंट डेकोरेशन भी कर सकती हैं.

पिन व्हील डेकोरेशन

आप इन्हें रंगीन पेपर के इस्तेमाल से बना सकती हैं. यह आइ़डिया सेंटर टेबल की सजावट के लिए सबसे अच्छा औप्शन है. पेपर की मदद से पिन व्हील बनाएं और उनको लकड़ी की स्टिक से टेबल पर सजाएं.

क्या आप भी अस्थमा से परेशान हैं तो ऐसे करें अपना बचाव

अस्थमा की बीमारी एक सामान्य और लंबे समय तक रहने वाली बीमारी है. वेस्ट इंडिया के लोगों में ये बीमारी हर 10 में से एक व्यक्ति को प्रभावित करती है. एक शोध से पता चला है कि अस्थमा मोटे लोगों को ज्यादा होता है. यदि ठीक से व्यायाम किया जाए और रोज के खाने में प्रोटीन, फलों और सब्जियों का सेवन किया जाए तो अस्थमा के रोगियों की हालत में सुधार लाया जा सकता है.

अस्‍थमा या दमा फेफड़ो को प्रभावित करती है. यह एक ऐसी बीमारी है जिसमें फेफड़ो तक सही मात्रा में आक्सीजन नहीं पंहुच पाता और सांस लेने में तकलीफ बढ़ जाती है. आस्थमा अटैक कभी भी कहीं भी हो सकता है. आस्थमा अटैक तब होता है जब धूल के कण आक्सीजन ले जाने वाली नलियों को बंद कर देते हैं. आस्थमा के अटैक से बचने के लिए जितनी जल्‍दी हो सके दवाईयों या इन्‍हेलर का प्रयोग किया जाना चाहिए.

दमे के दौरान अपनाएं ये उपाय

दमे के मरीजों को चावल, तिल, शुगर और दही जैसे कफ या बलगम बनाने वाले पदार्थ, तले हुए खाद्य पदार्थ खाने से बचना चाहिए. ताजे फलों का रस दमे को रोगी के लिए बेहद फायदेमंद है. उन्हें हरी सब्जियां और अंकुरित चने जैसे खाद्य पदार्थ भरपूर मात्रा में ले और भूख से कम ही खाना खाये. दिनभर में कम से कम दस गिलास पानी पीये. तेज मसाले, मिर्च अचार, अधिक चाय-काफी के सेवन से बचें. मरीज को रोजाना योगासन और प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए. रोगी को एनीमा देकर उसकी आंतों की सफाई करनी चाहिए.

उपचार

अस्थमा का कोई पुख्ता इलाज तो नहीं है लेकिन दमे के दौरे के दौरान उसे आसानी से सामान्य किया जा सकता है. दमे के मरीज को अनुकूल माहौल देना चाहिए. यदि मरीज को एलर्जी है तो उन चीजों को दूर कर देना चाहिए जिससे एलर्जी है.

अस्थमा के मरीज को धूल, धुएं, गंध और प्रदूषण से खासतौर पर दूर रहना चाहिए.

बदलते मौसम में सावधानी बरते और पालतू जानवरों को मरीज से दूर रखें.

डाक्टर के द्वारा दिये गये निर्देशों का पालन करें अधिक परेशानी होने पर चिकित्‍सक से जल्‍द से जल्‍द संपर्क करें.

डाक्टर की सलाह पर इन्हेलर का प्रयोग करें.

घबराए नही, घबराने से मांस पेशियों पर तनाव बढ़ता है जिससे की सांस लेने में परेशानी बढ़ सकती है.

मुंह से सांस लेते रहें, फिर मुंह बंद करके नाक से सांस लें. धीरे धीरे सांस अन्दर की तरफ लें और फिर बाहर की तरफ छोड़े. सांस अन्दर की तरफ लेने और बाहर की तरफ छोड़ने के बीच में सांस न रोकें.

घरेलू उपचार

दमा का घरेलू उपचार भी मौजूद है. एंटीआक्सीडेंट से भरपूर लहसुन से दमा आसानी से नियंत्रि‍त किया जा सकता है. लहसुन को दूध के साथ मिलाकर पीने या सुबह शाम लहसून की चाय पीने से भी दमा नियंत्रि‍त रहता है.

स्टीम लेने से भी दमा को कंट्रोल किया जा सकता है. पानी को अजवायन में डालकर उबालकर भाप लेने से भी दमे के मरीज को आराम मिलता है.

लौंग मिश्रित गर्म पानी में शहद मिलाकर पीने से भी अस्थमा के दौरान आराम मिलता है.

अदरक, शहद और मेथी को मिलाकर काढ़ा बनाकर पीना भी दमे के मरीजों के लिए फायदेमंद है.गर्म पानी में तुलसी उबालकर देने से भी दमे के मरीजों को आराम मिलता है.

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