कार पर तकरार

कारें एक बार फिर चर्चा में हैं. देश की राजधानी दिल्ली का दिल कहे जाने वाले कनाट प्लेस में कारों की आवाजाही पर रोक लगाए जाने की योजना बनाई जा रही है. फिलहाल  3 महीने के एक पायलट प्रोजैक्ट के तहत इस के भीतरी सर्कल को सिर्फ पैदल यात्रियों के लिए आरक्षित कर दिया जाएगा. केंद्रीय ट्रांसपोर्ट मंत्री नितिन गडकरी ने कहा है कि सरकार कारों की बेलगाम खरीद पर रोक लगाने पर विचार कर रही है. सैद्धांतिक रूप से इस पर सहमति भी बन चुकी है कि अब सिर्फ वही लोग कार खरीद पाएं, जिन के घर या सोसायटी में कार पार्क करने की एक सुनिश्चित जगह हो. इस में कोई शक नहीं है कि देश में कारों की संख्या लगातार बढ़ रही है, जबकि सड़कों पर उन्हें समाने की जगह पर्याप्त नहीं है. देश में कारें बढ़ी हैं, पर वे जरूरत हैं या शौक, इस का खुलासा आयकर विभाग के एक आंकड़े से हो रहा है.

आयकर विभाग ने बीते 5 वर्षों के आंकड़ों के आधार पर दावा किया है कि देश में सिर्फ 24.4 लाख करदाताओं ने अपनी सालाना आय 10 लाख रुपए से ज्यादा बताई है, जबकि हर साल यहां  25 लाख कारें खरीदी जा रही हैं. खास बात यह है कि इन में से करीब 35 हजार कारें लग्जरी गाडि़यों में आती हैं जिन की कीमत 10 लाख रुपए से ज्यादा होती है. सवाल यह उठाया गया है कि जब आमदनी नहीं है तो महंगी कारें खरीदने वाले लोग आखिर कौन हैं? जाहिर है कि रिटर्न यानी आयकर विवरणी दाखिल करने वालों में से बहुत से लोग ऐसे हैं जिन की वास्तविक आय कहीं ज्यादा है, लेकिन उन्होंने खुद को टैक्स के दायरे से बाहर रखने के कानूनीगैरकानूनी उपाय कर रखे हैं. मसला भले ही टैक्स चोरी का है, लेकिन ऐशोआराम की जिस चीज यानी लग्जरी कारों के संदर्भ से ये आंकड़े उजागर किए गए हैं, उन से एक बार फिर कारों की जरूरत पर सवाल उठना लाजिमी है.

लाचारी नहीं, समझदारी भी

कारों को विलेन बनानेबताने की कोशिशों के बीच यह जानना जरूरी है कि आखिर शहरों में कार को किस बात ने जरूरी बनाया है. इस की पहली जिम्मेदारी तो असल में लचर सार्वजनिक परिवहन प्रणाली पर जाती है जिस के बारे में सरकारों ने लगातार कोताही बरती और तेल व कार कंपनियों को फायदा पहुंचाने की नीयत से कारखरीद को प्रोत्साहित करने वाली नीतियां बनाईं.

लगातार फैलते दिल्ली, मुंबई जैसे शहरों के एक आम निवासी की नजर से देखें तो समझ में आएगा कि आखिर क्यों वह कार खरीदने और उसे बरतने के लिए मजबूर हुआ है.  पहला उदाहरण दिल्ली का लें, यहां नौकरी करने या बिजनैस करने का यह मतलब नहीं है कि आप शहर के उन हिस्सों में रहते हों जहां मैट्रो रेल उपलब्ध है या डीटीसी की सेवाएं हर वक्त हाजिर हैं. भले ही दिल्ली मैट्रो का दायरा आज सैकड़ों किलोमीटर तक फैल गया है, लेकिन आज भी हजारोंलाखों नौकरीपेशा लोग कहीं भी आनेजाने के लिए या तो डीटीसी बसों पर निर्भर हैं या फिर आटो टैक्सी पर.  बसों का विकल्प देखें तो साढ़े 3 हजार बसों के बेड़े में से औसतन दो से  ढाई हजार बसें ही रोज मुहैया हो पाती  हैं. बाकी खराबी या मेंटिनैंस की समस्या से जूझ रही होती हैं. इस शहर की विशालकाय आबादी की जरूरतों के मुताबिक ये बसें पर्याप्त नहीं हैं. इस के अलावा उत्तम नगर, नरेला, लोनी रोड जैसे कई इलाकों में बसें तो गिनती की ही चलती हैं.

यही नहीं, यदि आप एनसीआर यानी राष्ट्रीय राजधानी परिक्षेत्र के निवासी हैं, तो वहां आलम यह है कि डीटीसी की बसें मुहैया ही नहीं हैं. मिसाल के तौर पर, ग्रेटर नोएडा इसी एनसीआर का अहम हिस्सा है, पर कुछ वर्षों तक नाममात्र का संचालन करने के बाद डीटीसी ने वहां अपनी बसों का परिचालन रोक दिया था. इस का जिम्मा जिस यूपी रोडवेज पर है, उस की बसें रात 8 बजे के बाद ऐसे लापता हो जाती हैं, मानो उन की मौजूदगी की कोई जरूरत ही नहीं है. जबकि दिल्ली स्थित दफ्तरों और कार्यस्थलों से घरों को लौटने वाले लोगों को इसी वक्त एक मजबूत सार्वजनिक परिवहन की जरूरत होती  है. इधर, दिल्ली मैट्रो से जोड़ कर एनएमआरसी (नोएडा मैट्रो रेल कौर्पोरेशन) ने नई कंपनी के तहत बसें चलानी शुरू की हैं, पर वे गिनती की हैं और उन की विश्वसनीयता संदिग्ध है.

समझा जा सकता है कि दिल्ली के दूरदराज और एनसीआर के किसी भी हिस्से में रहने वाले शख्स को अगर जरूरत के वक्त मैट्रो तो क्या, पब्लिक ट्रांसपोर्ट के रूप में भी बसें भी नहीं मिलेंगी, तो वह क्या करेगा? जाहिर है कि रोज दफ्तर आनेजाने के लिए वह ओला या उबर जैसी प्राइवेट टैक्सी के लिए न्यूनतम 4-5 सौ रुपए प्रतिदिन खर्च करने के बजाय कार खरीदने की समझदारी ही दिखाएगा.

कार : एक जरूरी कमोडिटी

आज की नौजवान पीढ़ी कारों को एक जरूरी कमोडिटी मानती है. इस के पीछे कार से मिलने वाली सुविधाएं ही अहम हैं. आज के युवा कहीं आनेजाने के लिए बसों, मैट्रो या आटो टैक्सी पर निर्भर नहीं रहना चाहते, बल्कि वे निजी ट्रांसपोर्ट के हिमायती हैं. इस के अलावा देश में मौसम की विविधता के मद्देनजर भी कारों की जरूरत को समझा जाना चाहिए. कभी तेज धूप, गरमी, धूल, कभी बरसात और कड़ाके की ठंड. ऐसे में एक छत के साथ एयरकंडीशंड वाहन बहुत जरूरी लगता है. जिन मुल्कों में ज्यादा बर्फबारी होती है, वहां तो कार के बिना जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती. इसी तरह भारत में भी कई इलाके ऐसे हैं जहां कारें मौसम की मार से बचाने के तर्क के साथ जरूरी लगती हैं.

यही नहीं, हमारे देश में बहुत से बिजनैस और नौकरियों में संपर्क व आवागमन का सिलसिला इतना ज्यादा बढ़ा है कि उस के लिए पब्लिक ट्रांसपोर्ट पर आश्रित हो कर नहीं रहा जा सकता. इन्हीं वजहों से कभी मारुति ने हमारी सोसायटी के इस सपने के साथ कदमताल की थी, पर अब इस सपने का दायरा और बढ़ चुका है. लोगों की इस फिक्र से असहमत नहीं हुआ जा सकता कि छोटी और सस्ती कारों के आ जाने से ट्रैफिक जाम और प्रदूषण आदि की समस्याओं में इजाफा हुआ है, पर भारत में कम ईंधन खपत करने वाली और कम प्रदूषण फैलाने वाली कारों का अभी भी काफी स्कोप है.  आंकड़ों में देखें तो देश में कारों की खपत बढ़ रही है. फिर भी दावा किया जाता है कि भारत में अभी उतनी कारें नहीं हैं, जितनी विदेशों में, यहां तक कि पड़ोसी मुल्कों में. वर्ष 2009 के आंकड़ों के मुताबिक, देश में अभी प्रति हजार लोगों पर 14 कारें हैं. जबकि पाकिस्तान में यह आंकड़ा 19, श्रीलंका में 28, सिंगापुर में 68, यूरोप में 500-1000 और अमेरिका में 740 है. माना जा सकता है कि कारों के मामले में हम अभी बहुत पीछे हैं. लेकिन हमारे शहरों का आबादी घनत्व काफी ज्यादा है, इसलिए दिल्ली-मुंबई हो या कानपुर-अहमदाबाद, सड़कों पर कारों की भीड़ दूसरे देशों के मुकाबले काफी ज्यादा बैठती है. पब्लिक ट्रांसपोर्ट की खामी जैसी मजबूरियां कारों की मांग पैदा कर रही हैं, जिस का नतीजा यह निकला है कि कारों के निर्माण के मामले में भारत दुनिया का छठा सब से बड़ा मुल्क बन चुका है.

वर्ष 2011 में भारत में 39 लाख कारों का निर्माण हुआ और इस ने ब्राजील को पीछे छोड़ दिया. एशिया के पैमाने पर वर्ष 2009 में जापान, दक्षिण कोरिया और थाईलैंड के बाद भारत चौथा सब से बड़ा कार निर्यातक देश था और अगले 2 वर्षों में इस ने थाईलैंड को पीछे छोड़ते हुए 2010 में तीसरा स्थान हासिल कर लिया. वर्ष 2010 के आंकड़ों के हिसाब से भारत में कुल मिला कर 39 लाख कारों का सालाना उत्पादन होता है और चीन के बाद दुनिया में सब से तेज बढ़ता आटो सैक्टर भारत में ही है.

कारें विलेन क्यों बनीं

कोई शक नहीं कि कार बाजार की बदौलत देश की अर्थव्यवस्था में हलचल पैदा हुई है और हजारोंलाखों नए रोजगार भी पैदा हुए हैं. इसी तरह मध्यवर्ग के लिए भी सस्ती और छोटी कारों का जो सपना देखा गया, उस ने भी कुछ लाख लोगों की जिंदगी में क्रांतिकारी तबदीली की. लेकिन एक तरफ यही कारें पर्यावरण की शत्रु साबित हुई हैं और दूसरी तरफ दावा किया जाता है कि ये उस ट्रैफिक समस्या का कोई खास विकल्प नहीं बन पाई हैं, जिस के हल के रूप में उन्हें पेश किया गया था. अलबत्ता ज्यादातर परिवारों के लिए महंगी से महंगी कारें स्टेटस सिंबल जरूर हैं.  स्टेटस बढ़ाने वाली कारें किसी समस्या का समाधान नहीं सुझाती हैं जबकि हमारे देश में किसी भी ऐसे उपक्रम का पहला उद्देश्य बड़ी दिक्कतों को हल निकालना होना चाहिए. लेकिन जिन कारों के बिना शहरों की जिंदगी थम जाने की बात अब कही जाती है, अब वे तमाम दिक्कतें भी पैदा कर रही हैं. जरूरत के मुकाबले तंग महसूस की जाती सड़कों पर कारों की भीड़ लगभग रोजाना ट्रैफिक जाम की समस्या पैदा करती है. इन समस्याओं से निबटने को दिल्ली-गुरुग्राम जैसे महानगरों में एक के बाद एक फ्लाईओवर, सबवे और क्लोवरलीफ जैसे विकल्प पेश किए गए हैं, पर जाम का झाम यथावत जारी है.

दिल्ली-मुंबई से अलग दूसरे शहरों में कारें ज्यादा परेशानियां खड़ी कर रही हैं क्योंकि वहां न ट्रैफिक संभालने वाले इंतजाम पूरे हैं और न ही सड़कें दुरुस्त हालत में हैं. कारों की बढ़ती भीड़ के कारण अब तो स्कूटर और साइकिल वालों का सड़क पर निकलना दूभर हो गया है और पैदल यात्रियों पर तो मानो कारें कहर बन कर टूटी हैं. ज्यादातर शहरी सड़क दुर्घटनाओं में पाया गया है कि गैर प्रशिक्षित, असावधान और पियक्कड़ कारचालक पैदल चलने वालों को कहीं भी कुचल कर भाग खड़े होते हैं.  इस विडंबना का एक और रूप है. देश में किसी भी व्यक्ति को फिलहाल मनचाही संख्या में कारें रखने और इस्तेमाल करने की आजादी है, भले ही वह टैक्स न देता हो. इस आजादी के नतीजे में निजी कारों की संख्या तो बढ़ गई लेकिन वे यातायात समस्या का कोई हल नहीं दे पा रही हैं.

मिसाल के तौर पर दिल्ली में सड़क पर दिखने वाले कुल ट्रैफिक का  75 प्रतिशत हिस्सा निजी कारों का होता है, लेकिन उन से यात्रा की 20 प्रतिशत  से भी कम जरूरत पूरी होती है. यह हालत तब है जब इस शहर के केवल 30-32 प्रतिशत परिवारों के पास ही कार की सुविधा है. पर इन दिक्कतों के लिए कारों को विलेन ठहराना क्या जायज है?

असल में, कारों के अंधाधुंध आगमन के अलावा ज्यादातर शहरों के ट्रैफिक का बुरा हाल करने में कुछ और बातों की भूमिका रही है, जैसे हमारे देश में ज्यादातर सड़कें कारों के हिसाब से डिजाइन नहीं की गईं. पार्किंग के समुचित प्रबंध नहीं किए. कानून में नए घरमकानों में यह जरूरी नहीं किया गया कि उन में कारों की पार्किंग के लिए अनिवार्य रूप से जगह हो, हालांकि अब इस की पहलकदमी हो रही है. जैसे, साल 2014 में दिल्ली में किए गए एक कानूनी प्रावधान के मुताबिक, 100 मीटर के मकान में निश्चित संख्या में कारों की पार्किंग की बात कही गई थी.  इसी तरह अब कहा जा रहा है कि पार्किंग स्पेस नहीं रखने वालों को कारखरीद की इजाजत नहीं होगी. लेकिन इसी दिल्ली में सैकड़ों अवैध कालोनियां ऐसी हैं जहां कारें बाहर गली में खड़ी की जाती हैं. वहां ऐसा करने पर कोई रोकटोक नहीं है.

कार कंपनियों के लिए ऐसे कड़े कायदों की भी कमी है कि वे कितना प्रदूषण फैला सकती हैं और उन के पैसेंजरों की सुरक्षा के कितने माकूल प्रबंध होने चाहिए. कारों से पैदा होने वाली इन समस्याओं के कई समाधान हो सकते हैं. जैसे, कानूनन जरूरी किया जाए कि एक परिवार अधिकतम कितनी कारें रख सकता है, किसी बाजार, कालोनी या सोसायटी में पार्किंग के इंतजाम होने चाहिए, एक वक्त पर सड़कों पर अधिकतम कितनी कारें आने की इजाजत होनी चाहिए और यदि लोग अपनी कारें घर में छोड़ कर आते हैं, तो सुनिश्चित किया जाए कि उन्हें हर हाल में बस या मैट्रो का विकल्प मिलेगा. इसी तरह छोटे शहरों में भी लोगों को टूटीफूटी सड़कों के स्थान पर रास्ते दुरुस्त मिलें और वहां भी बढ़ते ट्रैफिक के मद्देनजर फ्लाईओवर व सबवे आदि के इंतजाम किए जाएं.  सब से अहम यह है कि ट्रैफिक नियमों का पालन हर कहीं और हर किसी के लिए जरूरी किया जाए. असल में, इन्हीं सारी समस्याओं के चलते कारें किसी समस्या का समाधान बनने के बजाय खुद में एक समस्या बन गई हैं. यदि इन सभी कारणों का निवारण कर दिया जाए, तो कारें हमारी शहरी जिंदगी में आततायी नहीं, बल्कि एक समाधान की तरह सामने आएंगी.

कार फ्री डे और औड-ईवन प्रबंध

वर्ष 2015 के सितंबर माह में देश के औद्योगिक शहर गुरुग्राम में पहली बार कार फ्री डे का आयोजन किया गया. इसे ले कर काफी सनसनी रही. इस दिन शहर की कुछ एकदम खाली सड़कों के फोटो अखबारों में छापे गए और उम्मीद की गई कि कारों की बढ़ती संख्या के कारण होने वाले प्रदूषण और ट्रैफिक जाम जैसी समस्याओं की तरफ लोगों का ध्यान जाएगा. इस की देखादेखी दिल्ली में भी  22 अक्तूबर, 2015 को कारमुक्त दिवस का आयोजन किया गया. एकदिवसीय इन आयोजनों को ले कर सरकार, प्रशासन के स्तर पर काफी हलचल रही. लेकिन आम जनता की सहूलियत के पर्याप्त प्रबंधों के अभाव में ये रस्मी आयोजन भर बन कर रह गए. सवाल उठा कि आखिर कार फ्री डे की नाकामी की वजह क्या रही?

इस सवाल के जवाब में दुनिया के दूसरे शहरों में कार फ्री डे आयोजनों की तरफ नजर डालनी होगी. मसलन, अगर जापान की राजधानी टोक्यो में यही आयोजन होता है, तो उस दिन सड़कें निपट सूनी नहीं दिखतीं. उन पर पैदल और साइकिल से चलने वालों की भीड़ होती है. कारें नदारद होती हैं, लेकिन लोगों का कामकाज नहीं रुकता. पर हमारे देश में कार फ्री डे पर लोग अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता दिखाते हुए कामकाज से ही छुट्टी ले लेते हैं. मानो, वे साबित करना चाहते हैं कि अगर कहीं जाने के लिए किसी वजह से कार उपलब्ध नहीं है, तो बेहतर होगा कि घर में बैठा जाए.  यह समस्या महज जनता के स्तर पर नहीं है. बेशक, आज ज्यादातर लोग दिखावे के लिए कार खरीदना और उन का इस्तेमाल करना चाहते हैं, पर यदि वे ऐसा न करें, तो शहरों में कहीं आनेजाने के लिए उन के पास विकल्प क्या हैं? चाहे दिल्ली, मुंबई हो, कानपुर, लुधियाना या कोई अन्य बड़ा शहर, सभी जगह लचर सार्वजनिक परिवहन प्रणाली ने लोगों को मजबूर कर दिया है कि वे किसी साधन का इंतजाम अपने स्तर पर करें. कारों की संख्या नियंत्रित करने की तो कहीं कोई बात ही नहीं है. इस के नतीजे में शहरों में ट्रैफिक जाम बढ़ता है जिस से नजात पाने के लिए कार फ्री डे जैसे आयोजनों के बारे में सोचा जाता है.

वैसे, भारत में कार फ्री डे भले ही नाकाम रहा हो, पर अन्य मुल्कों में इसे काफी सफलता मिली है.  1995 में विश्व कार मुक्त दिवस का आयोजन भी किया गया, लेकिन अपने स्तर पर राष्ट्रीय कैंपेन चलाने वाला ब्रिटेन ऐसा पहला मुल्क था, जिस ने यह आयोजन पृथक रूप से 1997 में अपने देश में किया और इस के बाद फ्रांस ने भी 1998 में ‘इन टाउन, विदाउट माई कार’ नारे के साथ कार मुक्त दिवस का आयोजन किया.  लोगों को इन आयोजनों के जरिए संदेश दिया जाता रहा है कि वे एक दिन अपनी कार छोड़ कर बस या मैट्रो जैसे सार्वजनिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम का इस्तेमाल करें. इस से कार्बन डाईऔक्साइड के उत्सर्जन में तो कमी आएगी ही, उस भीषण ट्रैफिक जाम से भी मुक्ति मिलेगी जो शहरी जीवन का मजबूरन अनिवार्य हिस्सा बनता जा रहा है.

घर से कार्यस्थल के बीच की दूरी तय करने में लगने वाला वक्त ट्रैफिक जाम के कारण बढ़ता जा रहा है और मानसिक थकान व अन्य बीमारियों (हाईब्लडप्रैशर व चिड़चिड़ापन आदि) की संख्या भी. रोडरेज यानी सड़क पर पैदल यात्रियों या अन्य वाहनचालकों से मामूली बात पर झगड़े व मारपीट की नौबत भी इसी कारण आने लगी है.  कार फ्री डे जैसा हश्र औडईवन फौर्मूले का भी हुआ है. सड़कों पर पड़ रहे बेइंतहा दबाव व प्रदूषण की समस्या से निबटाने को और वाहनों के सुचारु संचालन के लिए देश की राजधानी दिल्ली में 2 बार लागू किया गया समविषम फार्मूला विवादों में रहा है. एक विवाद इस की विज्ञापनबाजी पर हुए करोड़ों के खर्च को ले कर हुआ, विपक्ष ने इसे फुजूलखर्ची बताते इस का विरोध किया. इस के समानांतर टैक्सी संचालकों ने उस दौरान ग्राहकों की मजबूरी का फायदा उठाने के लिए सब से व्यस्त समय में शुल्क बढ़ाने की कोशिश की, जिस पर दिल्ली सरकार ने कड़ी प्रतिक्रिया दी थी.

यही नहीं, इस दौरान इस तथ्य का खुलासा भी हुआ कि कैसे कम कीमत  में सैकंडहैंड कार ले कर लोगबाग समविषम की समस्या का तोड़ निकालने लगे थे. साफ है कि दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों को प्रदूषण और भारी ट्रैफिक की समस्या से राहत दिलाने में ये उपाय तब तक कारगर नहीं होंगे जब तक जनता की मानसिकता नहीं बदली जाती और लोगों को बेहतरीन पब्लिक ट्रांसपोर्ट सुविधा मुहैया नहीं कराई जाती.

शहरीकरण की सही परिभाषा

कारों को मर्ज साबित करने में हमारे देश में बेतरतीब ढंग से हुए शहरीकरण की बड़ी भूमिका है. असल में, हमारे नएपुराने शहरों की रूपरेखा क्या होनी चहिए, इसे ले कर अभी पर्याप्त असमंजस बना हुआ है. एक तरफ सरकार है जो स्मार्टसिटी योजना के तहत देश के 100 शहरों को भविष्य का शहर बनाने की कोशिश कर रही है, तो दूसरी ओर खुदबखुद अनियोजित ढंग से बसते शहर हैं जो आकारप्रकार में बढ़ जरूर रहे हैं लेकिन बसाहट के उन के अंदाज सदियों पुराने हैं.  मुश्किल यह है कि सरकार की योजनाओं के बाहर बनने और बिगड़ने वाले ऐसे ज्यादातर शहरों ने देश के शहरीकरण की शक्ल  ही बिगाड़ कर रख दी है. यह शहरीकरण चाहे जैसा हो, अब इसे रोका नहीं जा सकता, लिहाजा सवाल उठता है कि कारों के मर्ज से पहले इन का इलाज नहीं होना चाहिए.  एक आकलन के अनुसार, वर्ष 2028 तक भारत दुनिया में सब से ज्यादा आबादी घनत्व वाला देश होगा. यानी अगले डेढ़ दशक के भीतर इस मामले में हम अपने पड़ोसी मुल्क चीन को पीछे छोड़ने वाले हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि तब वहां (चीन में) जनसंख्या में गिरावट का दौर शुरू हो चुका होगा, जबकि भारत की आबादी तेजी से बढ़ रही होगी. यह आकलन संयुक्त राष्ट्र की वर्ष 2013 की जनसंख्या रिपोर्ट का है.

रिपोर्ट में सब से ज्यादा चौंकाने वाली तसवीर भारत की है. रिपोर्ट कहती है कि आबादी की जरूरतों के मद्देनजर और विकसित देशों की देखादेखी हमारे देश में शहरीकरण को तो बढ़ावा दिया गया, लेकिन इस तबदीली का हमारी सरकारों और योजनाकारों ने कोई गंभीर नोटिस नहीं लिया.  नतीजा यह निकला कि आज देश के ज्यादातर शहर बेकाबू और अनियोजित फैलाव के शिकार हो गए हैं. इस की तसदीक कुछ ही समय पहले विश्व बैंक की एक रिपोर्ट ‘अर्बनाइजेशन इन साउथ एशिया’ में की गई है. इस में कहा गया है कि भारत में ज्यादातर शहर बिना किसी सरकारी योजना या टाउन प्लानिंग के अभाव में बेरोकटोक बसाए जा रहे हैं. उन में यह व्यवस्था नहीं है कि किस इलाके में कितने मकान बनेंगे, कितनी आबादी निवास करेगी, उन की जरूरतों के हिसाब से सड़क, पानी, बिजली आदि इंफ्रास्ट्रक्चर का क्या प्रबंध होगा.

उल्लेखनीय यह भी है कि देश में एक नया मध्यवर्ग उन्हीं लोगों के बीच से उभर रहा है जो ग्रामीण इलाकों में शहरों की ओर बेहतर जीवनशैली की आस में पलायन कर रहा है. आंकड़े इस के गवाह हैं- साल 2008 में 34 करोड़ भारतीय शहरों के बाशिंदे बन चुके थे और अनुमान है कि 2030 तक यह तादाद बढ़ कर 59 करोड़ पहुंच जाएगी.  इस आबादी की जरूरतों के मद्देनजर फिलहाल देश के ज्यादातर शहरों की पहली मौलिक समस्या हर तरह के इंफ्रास्ट्रक्चर की खराबी है. सड़कें, सीवर, बिजली, पानी की मूलभूत कमियों के बाद अवैध कब्जों और बिना किसी नियोजन के विकास ने ऐसे ज्यादातर शहरों को बहुत ही खराब स्थिति में पहुंचा दिया है. इस के बाद सामाजिक परिवेश और कानून व्यवस्था जैसे सवाल हैं, जो इन ज्यादातर शहरों में बड़ी समस्या बन कर सामने आए हैं. अवैध निर्माण और जलवायु व जमीनी प्रदूषण तो देश की राजधानी दिल्ली तक में बेइंतहा है, बाकी शहरों के बारे में क्या कहा जाए.

सरकारी योजनाओं की खामी

2 स्तरों पर है. पहली तो यह कि वह जब भी शहरी विकास की बात कहती है तो पहले से बसेबसाए शहरों में ही सुविधाएं बढ़ाने की योजनाएं पेश की जाती हैं. पिछली यूपीए सरकार की योजना अर्बन रिन्यूअल मिशन और मौजूदा एनडीए सरकारी की स्मार्ट सिटी परियोजनाओं को इसी खाते में डाला जा सकता है. दूसरे, सरकार उन इलाकों को आरंभ में शहर नहीं मानती जो बड़े शहरों के आसपास अपनेआप बेढंगे तरीके से विकसित हो जाते हैं.  दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, कानपुर, इंदौर आदि किसी भी बड़े शहर के आसपास उगे इलाके शहर की सरकारी परिभाषा में फिट नहीं होते हैं, लिहाजा उन्हें तब तक बिजली, पानी, सीवर, सड़क, स्कूल, अस्पताल, मैट्रो रेल जैसी सुविधाएं मुहैया नहीं कराई जाती हैं, जब तक कि उन का विकास एक राजनीतिक मुद्दा न बना दिया जाए. शहरों को खुद ही विकसित होने देने और उन की आबादी बेतहाशा ढंग से बढ़ते रहने के कारण भी शहर बेडौल और बेनूर हो रहे हैं, यह समझने की जरूरत है.

चीन ने इस मामले में मिसाल पेश की है. जुलाई 2015 में चीन की सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी औफ चाइना की एक अहम बैठक में वादा किया गया कि देश की राजधानी बीजिंग के बगल में प्रशासनिक केंद्र के रूप में एक नया शहर बसाया जाएगा जिस की आबादी 2.3 करोड़ तक सीमित रखी जाएगी. शहर की आबादी पर अंकुश रखने और महानगर के बगल में नया शहर बसाने की ऐसी ही नीतियों की जरूरत भारत में भी है.

फिल्म रिव्यू : सिमरन

‘‘सिटीलाइट्स’’, ‘‘शाहिद’’ और ‘‘अलीगढ़’’ जैसी विचारवान, संजीदा फिल्मों के सर्जक हंसल मेहता इस बार फिल्म ‘‘सिमरन’’ लेकर आए हैं, मगर ‘सिमरन’ देखकर कहीं से भी यह आभास नहीं होता कि इसके सर्जक हंसल मेहता हैं. यूं तो कहा जाता रहा है कि यह किसी सत्य कथा से प्रेरित फिल्म है, मगर फिल्म ‘‘सिमरन’’ में सब कुछ अति बनावटी, अस्वाभाविक और बेसिर पैर की कहानी है. फिल्म में जितना कमजोर अमरीकन पुलिस को दिखाया गया है, उतना हमने कभी सुना ही नहीं. फिल्म में प्रफुल पटेल (कंगना रानौट) के लिए अमरीका में बैंक में चोरी करना बच्चों के खेल की तरह है और अमरीकन पुलिस उसका बाल भी बांका नहीं कर पाती.

फिल्म की कहानी गुजराती व बिंदास किस्म की महिला प्रफुल पटेल (कंगना रानौट) के इर्द गिर्द घूमती है, जो कि अमरीका में अपने माता पिता के साथ रहती है. उसकी शादी होती है, पर वह टिकती नहीं. उसका तलाक हो जाता है. माता पिता से भी उसकी नहीं बनती है और वह अमरीका में अपना मकान लेना चाहती है. वह एक होटल में हाउस कीपर के रूप में काम करती है.

एक दिन वह अपनी सहेली के साथ लास वेगास जाती है. वहां कैसिनो में जुआ खेलती है. वह पहली बार जीतती है, उसके बाद वह अपना सारा पैसा हार जाती है. फिर कैसिनो के मालिक व अन्य लोगों से कर्ज लेकर जुआ खेलती है और यह धन भी वह हार जाती है. अब वह पचास हजार डालर का उधार चुकाने के लिए लूटपाट व चोरी करना शुरू करती है. फिर एक बैंक में लिपस्टिक से कागज पर यह लिखकर बैंक लूटती है कि उसके पास बम है. यह सिलसिला खत्म होने का नाम ही नहीं लेता. इस बीच उसके घर वाले एक लड़के से उसका रिश्ता भी करवाना चाहते हैं. तो वहीं वह सिमरन के नाम से एक बैंक में कर्ज लेने जाती है. फिर उधार देने वाले की सलाह पर वह बैंक में चारी करने जाती है. फिर पुलिस उसके पीछे पड़ जाती है. दस माह की सजा होती है, पर अच्छे चाल चलन के चलते जल्दी जेल से छूट जाती है.

प्लाट रोमांचक है, मगर घटनाक्रम पूरी तरह से हास्य से भरे हुए हैं. इंटरवल से पहले कहानी उम्मीद जगाती है, मगर धीरे धीरे पूरी कहानी भटकती जाती है. इंटरवल के बाद तो सब कुछ बनावटी हो जाता है. फिल्म का क्लायमेक्स तो अतिहास्यास्पद है. फिल्म देखते समय दिमाग में सवाल उठता है कि क्या अमरीका में बैंकों के अंदर सुरक्षा के नाम पर कुछ नहीं होता. क्या अमरीकी पुलिस, भारतीय पुलिस से भी ज्यादा कमजोर है? फिल्म में कुछ दृश्य जबरन ठूंसे गए हैं. बेसिर पैर की इस रोमांचक फिल्म का पार्श्व संगीत भी घटिया है. फिल्म का गीत संगीत भी प्रभावहीन है. फिल्म के ज्यदातर संवाद अंग्रेजी भाषा में हैं, इसलिए सिंगल थिएटर के दर्शक तो इस फिल्म से खुद को दूर ही रखना चाहेंगे, जबकि मल्टीप्लैक्स का दर्शक फिल्म देखना चाहेगा, पर मल्टीप्लैक्स का दर्शक भी कितना साथ देगा, यह कहना मुश्किल है. कम से कम भारतीय लड़कियां तो सिमरन उर्फ प्रफुल पटेल के साथ रिलेट नहीं कर पाएंगी.

जहां तक अभिनय का सवाल है, तो कंगना रानौट ने बेहतरीन परफार्मेंस दी है, मगर उनके अभिनय का फिल्म की कहानी व पटकथा आदि से कोई संबंध नहीं बन पाता. फिल्म में प्रफुल पटेल के पति बनने के लिए उनके प्रेमी की तरह आगे पीछे मंडरा रहे सोहम शाह ने बहुत ही स्तरहीन अभिनय किया है.

दो घंटे चार मिनट की अवधि वाली फिल्म ‘‘सिमरन’’ का निर्माण भूषण कुमार, किशन कुमार, शैलेश आर सिंह और अमित अग्रवाल ने किया है. निर्देशक हंसल मेहता, संगीतकार सचिन जिगर तथा कलाकार हैं- कंगना रानौत, मार्क जस्टिस, सोहम शाह, इशा तिवारी पांडे, हितेन कुमार, अनीशा जोशी व अन्य.

मुंहासों से हैं परेशान तो अपनाइये ये उपाय

मुंहासे यानी की पिंपल्स की समस्या से काफी लोग परेशान रहते हैं. यह एक प्रकार की सूजन है जो तब होती है जब त्वचा की तेल ग्रन्थियां बैक्टीरिया से ग्रस्त हो जाती हैं. यह तैलीय त्वचा वाले लोगों में ज्यादा होती है, पर ऐसे भी कई लोग हैं जिनकी त्वचा तैलीय नहीं होती पर इसके बावजूद भी उनके चेहरे पर मुहांसे हो जाते है. किशोरावस्था में मुहांसे होना स्वाभाविक है पर कई बार उस अवस्था को पार करने के बाद भी मुहांसों की समस्या बरकरार रहती है.

मुंहासों के कारण

तेल ग्रंथियों से तेल का अधिक उत्सर्जन त्वचा के छिद्रों को बंद कर मुंहासों को जन्म देता है. शारीरिक और हार्मोन में बदलाव सिबेसियस ग्रंथि को उत्तेजित करता है जिससे अधिक तेल का उत्पादन होता है. कुछ डेयरी उत्पादों में उच्च मात्रा में कैल्शियम और चीनी पाया जाता है जो मुंहासों को विकसित करता है. एस्ट्रोजेन युक्त दवाइयां भी मुंहासे का कारण है. मेकअप उत्पादों में शामिल रसायनों को ठीक से साफ न करने के कारण भी मुंहासे होते हैं.

अगर आपके चेहरे पर भी हैं मुंहासे और उसके अनचाहे दाग तो घबराइये नहीं क्योंकि आज हम आपको बताएंगे कुछ ऐसे उपाय जिससे आप इस समस्या से आसानी से छुटकारा पा सकेंगी.

पिम्पल के उपाय

मसूर की दाल

मसूर की दाल का प्रयोग पिम्पल हटाने के उपाय के रूप से किया जाता है. मसूर की दाल को पानी में भिगो कर पीस लें और इस पेस्ट में 1 चुटकी हल्दी मिलाकर चेहरे में लगायें. इसे रोजाना चेहरे पर लगाने से चेहरे का रंग साफ होता है और पिम्पल के दाग भी चले जाते हैं.

हल्दी बेसन का फेस मास्क

2 चम्मच बेसन में ¼ चम्मच पीसी हुई हल्दी मिला लें. इसमें गुलाब जल और कच्चा दूध मिलाकर पेस्ट बना लें. अगर आपकी त्वचा अधिक तैलीय है तो दूध की जगह पानी का इस्तेमाल करें. इसे चेहरे में रोजाना लगायें. इससे पिम्पल की समस्या में जल्दी राहत मिलेगी.

बर्फ

अगर आप मुहांसों से छुटकारा पाना चाहती हैं तो बर्फ के कुछ टुकड़े लें और इसे अपने मुहांसों पर लगाएं. इससे आपके मुहांसों वाले भाग में रक्त का संचार तेज होता है. आप बर्फ के टुकड़ों को कपडे में लपेटकर मुहांसों पर लगा सकती हैं.

शहद

शहद एक बेहतरीन उत्पाद है जो पिंपल्स पर तुरंत असर करता है. शहद में रुई के फाहे डुबोकर मुहांसों वाली त्वचा पर लगाएं. इसे आधे घंटे तक रखें और गुनगुने पानी से धो लें.

नींबू

सौंदर्य एवं स्वास्थ्य को बरकरार रखने में नींबू आपकी काफी मदद करता है. इसमें विटामिन सी की काफी मात्रा होती है, अतः इससे मुहांसे काफी जल्दी सूखते हैं.

चावल

रातभर एक कप चावल को भिगोयें. सुबह पानी को छानकर बचे अनाज को पीसकर लेप बना लें. इसमें कुछ बूंदें नींबू रस की मिला लें. इस लेप को कील मुंहासों पर लगाकर 20 मिनट रखने के बाद धो दें.

सूखे संतरे के छिलके

सूखे संतरे के छिलके के पाउडर में पानी मिलाकर लेप बनायें और मुहासों पर लगायें.

लहसुन

अगर आपको पिम्पल की समस्या बहुत दिनों से है और यह कील आदि के रूप में चेहरे पर दिखाई दे रही हो तो ऐसे मुंहासों के प्राकृतिक इलाज में लहसुन का प्रयोग फायदेमंद है. कुछ लहसुन की कलियों को पीसकर उसका रस निकाल लें और इसमें 3 से 4 बूंदें नींबू के रस की मिलाकर मुंहासों वाली जगह पर लगा कर 10 मिनट तक रखें. इसको बाद चेहरा धो लें. इस उपाय को आप हफ्ते में दो बार करें.

भाप

प्रभावित जगह पर भाप देने से त्वचा के रोमछिद्र खुल जाते हैं. इससे त्वचा को सांस लेने में आसानी होती है. यह एक बेहतरीन प्रक्रिया है जिसकी वजह से त्वचा की सारी गन्दगी एवं अतिरिक्त तेल जो कील मुंहासो के रूप में चेहरे पर जमा होते हैं, कम हो जाते हैं. इससे त्वचा के सारे संक्रमण भी ठीक हो जाते हैं. इसके लिए एक बड़ा पात्र लें तथा पानी को उबालें. पानी उबल जाने के बाद उस बर्तन को अपने चेहरे के सामने रखें तथा चेहरा नीचे झुकाएं, जिससे भाप आपके चेहरे पर आए. अब अपने चेहरे को गुनगुने पानी से धोएं तथा चेहरे पर तेल मुक्त मौस्चराइजर लगाएं. अगर इसका प्रयोग रोजाना किया जाए तो चेहरे के मुंहासे आसानी से दूर हो सकते हैं.

नीम

नीम की पत्तियों के पाउडर और हल्दी को एक साथ मिलाकर लगाने से आप मुंहासों से छुटकारा पा सकती हैं.

किसी फिल्म कहानी से कम नहीं थी किंग खान की लव स्टोरी

बौलीवुड के बादशाह शाहरुख खान गौरी खान की लव स्टोरी के बारे में तो आप सभी जानती ही होंगी. शाहरुख और गौरी का रिश्ता काबिले तारीफ है. यह दोनों 26 साल पहले एक दूसरे के साथ शादी के बंधन में बंधे थे जिसके बाद से दोनों आज तक एक दूसरे के साथ हैं. शाहरुख जिस तरह से स्क्रीन पर रोमांटिक किरदार अदा करते हैं, ठीक उसी तरह से वह असल जिंदगी में भी काफी रोमांटिक हैं. शाहरुख खान और गौरी खान की लव स्टोरी किसी फिल्म से कम नहीं है.

पहली नजर में ही प्यार

शाहरुख ने जब गौरी को देखा तो उन्हें पहली नजर में ही उनसे प्यार हो गया, जैसा कि अक्सर फिल्मों में दिखाया जाता है. शाहरुख ने डेढ साल तक गौरी को प्रपोज नहीं किया और फिर कहीं जाकर हिम्मत जुटाकर अपने दिल की बात उनके सामने रखी.

हनीमून के लिए नहीं थी फुर्सत

शादी के बाद शाहरुख गौरी को लेकर किराए के मकान में रहें. इतना ही नहीं, जब शाहरुख की फिल्म राजू बन गया जेंटलमैंन की शूटिंग हो रहीं थी तो वह फिल्म के डायरेक्टर अजीज मिर्जा के घर पर भी कुछ दिन रहें. इस फिल्म की शूटिंग के लिए दार्जिलिंग गए और वहीं पर शाहरुख और गौरी ने साथ समय बिताया.

गौरी के परिवार से छुपाई मुस्लिम होने की बात

शाहरुख और गौरी दोनों ने ही यह फैसला किया था कि गौरी के परिवार वालों से यह बात छुपाकर रखनी होगी कि शाहरुख मुस्लिम हैं. जिसके कारण गौरी ने अपने घरवालों से उन्हें अभिनव नाम बताकर मिलवाया. लेकिन जब बाद में गौरी के घरवालों को इस बात का पता चला तो गौरी के घर में हंगामा हो गया. इसके बाद कई मुश्किलों के बाद दोनों की शादी 25 अक्टूबर 1991 को हुई.

किराए के मकान में किया गुजारा

शाहरुख और गौरी ने शाहरूख के करियर के शुरुआती दिनों में किराए के मकान में गुजारा किया. आज भले ही वह ब्रांन्द्रा इलाके के एक आलिशान बंगले के मालिक हो, लेकिन शुरुआती दिनों में उनका जीवन काफी कठिन तरीके से गुजरा. यह मुकाम किंग खान ने अपने बल पर हासिल किया है.

गौरी ने कभी नहीं छोड़ा उनका साथ

भले ही शाहरुख कितनी भी मुसीबत में हो, लेकिन गौरी ने कभी भी उनका साथ नहीं छोड़ा. इसी के साथ उन्होंने हमेशा गौरी का साथ दिया.

ऐसे पाएं स्ट्रेच मार्क्स से छुटकारा

बच्चा होने के बाद महिलाओं के शरीर में भी कई तरह के बदलाव आते हैं. कई बार त्वचा पर लकीरों या धारियों के निशान पड़ने लगते हैं, जिन्हें स्ट्रेच मार्क्स कहते हैं. यह गर्भवस्था का एक हिस्सा हैं. गर्भवस्था के दौरान आपके पेट की त्वचा खिचती है जिसकी वजह से ये निशान पड़ जाते हैं. यह शरीर के किसी भी अंग जैसे पेट, हाथ,पैर की पिंडलिया या जांघ आदि पर हो सकते हैं. ये लाल धारियों के रूप में शुरू होते हैं और फिर समय के साथ सफेद या चांदी जैसे रंग के दिखते है. यह निशान इसलिए बनते हैं क्योंकि आपका गर्भाशय आपकी त्वचा के मुकाबले तेजी से बढ़ता है खासकर के छटवे या सातवे महीने में. एक सर्वे के अनुसार लगभग 75 से 90% महिलाओं को स्ट्रेच मार्क्स हो जाते हैं. बहुत सी महिलाएं इनसे घबराती हैं. लेकिन अगर गर्भवस्था की शुरुवात से ही त्वचा पर ध्यान दिया जाए, तो स्ट्रेच मार्क्स से बचा जा सकता है. यहां हमने कुछ सुझाव दिये हैं:

त्वचा के लिए पौष्टिक आहार

एक स्वस्थ त्वचा के लिए अच्छे खाद्य पदार्थों को शामिल करना आपकी त्वचा के लचीलेपन को सुधार सकता है. इसलिए ताजे फल और सब्जियां (ब्रोकोली, पालक, गाजर आदी), मछली, अखरोट और अंडे खाने से विटामिन ई और ए, ओमेगा 3 एस और एंटीआक्सिडेंट खाने से आपकी त्वचा को फायदा होगा. ऐसी सब्जियां और फल खाएं जिनमें ज्यादा पानी होता है.

पानी आपकी त्वचा को स्वस्थ रखता है और इसके नवीकरण में मदद करता है. रोजाना सात से आठ गिलास पानी पीने की कोशिश करें.

व्यायाम

नियमित व्यायाम करने से आपके शरीर में रक्त का प्रवाह बढ़ेगा और त्वचा का लचीलापन भी बढ़ेगा. डाक्टर से सलाह लेके व्यायाम करें.

कठोर रसायनों से बचें

प्राकृतिक तेलों से बने क्लेंसर का प्रयोग करें जो आपकी त्वचा की नमी बनाए रखेगा. ऐसे रसायनों का उपयोग करने से बचें जो आपकी त्वचा को रूखा कर सकते हैं. नारियल या जैतून का तेल युक्त क्लेंसर काफी फायदेमंद होता है.

सूखी ब्रशिंग

यदि खिंचाव के निशान पहले से ही बन गये हैं तो आप सूखी ब्रशिंग कर सकती हैं. प्राकृतिक फाइबर से बने नरम ब्रश का उपयोग करने की कोशिश करें. चेतावनी; अपने स्तनों पर इसका इस्तेमाल न करें.

त्वचा को मौस्चराइज करें

त्वचा की नमी बनाए रखने के लिए गर्भवती महिलाओं के लिए बने मौस्चराइजर का उपयोग करें. प्राकृतिक तेल और कोकोआ मक्खन भी बहुत मददगार हो सकते हैं. दिन में 3 बार सुबह, नहाने के बाद और रात में क्रीम लगाने की कोशिश करें.

डिलिवरी के बाद एक अच्छी दिनचर्या बनाए रखें

बच्चे को जन्म देने के बाद त्वचा को नवीनीकृत करने और खिचाव से ठीक होने की आवश्यकता होती है. यह महत्वपूर्ण है कि आपकी त्वचा को आवश्यक विटामिन मिल जाए, इसलिए ताजे फल, साग और मछली पौष्टिक आहार लेते रहें.

डिलिवरी के बाद जब आप ठीक हो जाएं तब आप डाक्टर से सलाह लेने के बाद धीरे-धीरे व्यायाम करना शुरू कर सकती हैं, जो खिंचाव के निशान को कम करने में आपकी मदद करेगा.

यदि आप बाजार में उत्पादों का उपयोग करने के बारे में बहुत उत्सुक नहीं हैं, तो एलोवेरा, जैतून का तेल, नींबू का रस, कोकोआ मक्खन, अंडे की सफेदी जैसे घरेलू उपचार की कोशिश कर सकती हैं, जो स्वाभाविक रूप से खिंचाव के निशान को कम करने में मदद करते हैं.

क्या करें जब अचानक आ जाएं मेहमान

अकसर हर गृहिणी के समक्ष त्योहारों में यह समस्या आ जाती है कि उस ने अपने परिवार के सदस्यों के हिसाब से खाना बनाया होता है और अचानक 1-2 मेहमान आ जाते हैं. ऐसे में भोजन की मात्रा कम पड़ जाती है. मगर अब परेशान होने की जरूरत नहीं है. यदि आप के समक्ष भी इस तरह की परेशानी आ जाए तो इन टिप्स को अपना कर आप अपनी समस्या से छुटकारा पा सकती हैं.

– अगर आप ने पनीर की तरी वाली सब्जी बनाई है तो थोड़े मखाने तल कर थोड़ी सी टोमैटो प्यूरी व सूखे मसालों के साथ 3-4 मिनट पकाएं और बनी सब्जी में मिला दें. बढि़या सब्जी ज्यादा मात्रा में तैयार हो जाएगी.

– फ्रोजन मटर फ्रीजर में रखे हों तो कुनकुने पानी में डालें. फिर और आलू, मंगोड़ी, पनीर आदि सब्जी में मिला दें.

– उबले आलू हों तो मसल कर किसी भी ग्रेवी वाली सब्जी में मिला दें अथवा थोड़ा दही डाल कर दही आलू बना लें. इस के अलावा बेसन व दही फेंट कर मिलाएं और कढ़ी वाला झोल तैयार कर लें.

– कढ़ी वाले झोल को यों ही सर्व कर सकती हैं या इस में उबले आलू के टुकड़े कर के

डाल दें.

– अरहर, धुली मूंग, धुली उड़द या धुली मसूर की दाल बनी है पर लगता है कम पड़ेगी, तो प्याज, टमाटर का तड़का बनाएं. उस में 2 चम्मच बेसन डाल कर भून लें, साथ ही कोई पत्तेदार सब्जी हो तो वह भी. बस दाल में तड़का लगा दें. दाल की मात्रा बढ़ जाएगी.

– दाल कोई भी हो हरे पत्तेदार साग ज्यादा मात्रा में डालना चाहें तो अदरक, हरीमिर्च व हींग का तड़का लगा कर छौंक दें. 5 मिनट में तैयार पत्तेदार सब्जी को दाल में डाल दें. साग वाली दाल तैयार हो जाएगी.

– उबले आलू कम हों तो उन्हें हाथ से अच्छी तरह मैश कर टोमेटो प्यूरी व हींगजीरे का तड़का तथा सांभर पाउडर और इमली का रस डाल कर आलू वाला सांभर तैयार कर लें. यह चावल व परांठों दोनों के साथ स्वादिष्ठ लगेगा.

– छोलों की मात्रा कम हो तो उन में कच्चा बारीक कटा टमाटर, प्याज व धनियापत्ती डाल कर मिला दें. छोलों की मात्रा बढ़ जाएगी. आलू को भी छोटेछोटे क्यूब्स में तल कर छोलों में मिला सकती हैं.

– पके चावलों की मात्रा कम हो तो खूब सारे प्याज, जीरे, टमाटर व करीपत्ता का तड़का तैयार कर चावलों में मिला दें.

– दही की मात्रा कम हो तो खूब सारा सलाद बारीक काटें और उस में दही फेंट कर डाल दें. बढि़या सब्जी वाला रायता तैयार हो जाएगा.

– यदि कुछ भी समझ में न आए तो सब से अच्छा है आटे में बेसन, अदरक लहसुन पेस्ट व मिर्च मसाले डालें और दही डाल कर गूंध लें. खस्ता पराठे अचार के साथ सर्व करें.

खास मौके पर हेयरस्टाइल भी हो खास

उत्सव का माहौल हो और लुक्स की बात न हो, ऐसा तो मुमकिन ही नहीं. लुक्स खास हो तो त्योहार भी अपनेआप खास हो जाता है. जहां महिलाएं अपने कपड़ों और गहनों को ले कर सजग होती हैं, वहीं मेकअप और हेयरस्टाइल को ले कर भी खास प्लान बनाती हैं, क्योंकि त्योहार को खास बनाने में ड्रैसिंग सैंस और मेकअप के अलावा हेयरस्टाइल का भी अहम रोल होता है. तो इस त्योहार आप के खास लुक के लिए कैसा हो हेयरस्टाइल, आइए जानते हैं.

सैंटर पफ विद स्ट्रीकिंग

सब से पहले प्रैसिंग कर के बालों को स्ट्रेट लुक दें और फिर फ्रंट के बीच के बालों को ले कर पफ बनाएं. पफ के चारों तरफ दूसरे कलर की हेयर ऐक्सटैंशन लगा लें. हेयर ऐक्सटैंशन को बालों के बीच मर्ज करते हुए एक साइड पर ट्विस्टिंग रोल चोटी बना लें.

सैंटर वियर फाल

सब से पहले बालों को प्रैसिंग मशीन की मदद से स्ट्रेट कर लें. फिर साइड पार्टीशन कर के फ्रंट से एक साइड की फ्रैंच बना लें और चोटी को खुले बालों की ओर कर दें. ड्रैस के अनुसार चोटी में बीड्स या ऐक्सैसरी लगाएं. यह आप को बेहद ऐलिगैंट लुक देगा.

सौफ्ट कर्ल

बालों को साइड पार्टिंग दें. फिर फ्रंट के कुछ बालों को छोड़ कर गरदन से ऊंची पोनी बना लें. सारे बालों को कर्लिंग रौड से कर्ल कर लें. फं्रट के छोड़े हुए बालों को ट्विस्ट करते हुए बैक पर ले जा कर पिनअप कर दें. पोनी के ऊपर फैदर या फिर अपनी मनपसंद हेयर ऐक्सैसरीज लगा लें. ये बाल चेहरे पर न आएं, इस के लिए साइड पार्टीशन कर के कोई भी सुंदर सा क्लिप लगा सकती हैं. ये सभी हेयरस्टाइल आप के लुक में बदलाव लाने के साथसाथ आप के व्यक्तित्व को भी आकर्षक बना देंगे.       

– भारती तनेजा, डाइरैक्टर, एल्प्स क्लीनिक

वुडबी के साथ डेटिंग

अमूमन शादीब्याह तय करने से पहले युवकयुवती को अकेले में बातचीत करने, एकदूसरे के बारे में जाननेसमझने और राय देने के लिए कहा जाता है, लेकिन एकदूसरे के घर में होती ऐसी मुलाकात जिस में एक तो पहली बार एकदूसरे से मिल रहे होते हैं, दूसरा पता होता है कि बाहर फैमिली वाले राय जानने को तैयार बैठे हैं. ऐसे में न तो थोड़े समय में एकदूसरे के बारे में जाना जा सकता है और न ही राय देना संभव हो पाता है. अकसर पेरैंट्स के दबाव में दी गई राय सटीक नहीं होती और बाद में किसी कमी का जिक्र आने पर पेरैंट्स यह कह कर पल्ला झाड़ लेते हैं कि हम ने तो आप को मौका दिया था एकदूसरे को जानने का.

इस संदर्भ में जरूरी है कि जिस शख्स के साथ आप ने ताउम्र रहना है, सुखदुख निभाने हैं उसे अच्छी तरह जानपरख लिया जाए. उस का स्वभाव, पहनावा, सोसायटी आदि के बारे में उस के विचार, पसंदनापसंद जो एक छोटी मुलाकात में समझना मुश्किल है. इसलिए जरूरी है विवाह से पहले खासकर ‘हां’ हो जाने के बाद से ही युवकयुवती कम से कम 3-4 बार डेटिंग करें और एकदूसरे के बारे में जानें ताकि बाद में किसी तरह की शिकायत न रहे.

घरपरिवार के बारे में जानें

अमूमन युवतियां वुडबी से डेटिंग कर उस के व उस के स्वभाव के बारे में ही पूछती हैं जबकि आप को विवाह के बाद परिवार में भी रहना है इसलिए वुडबी से उस के परिवार के बारे में जानें. मातापिता का स्वभाव, खानपान, आदतें, पसंदनापसंद आप को पता होनी चाहिए. यह भी देखें कि परिवार धार्मिक कर्मकांडों को मानने वाला व दकियानूस तो नहीं है. कहीं आप शादी के बाद व्रतत्योहार ही निबटाती रह जाएं. संयुक्त परिवार तो नहीं है अगर है तो कितना बड़ा है, खाना बनाने का स्टेटस काम का बंटवारा या सभी अपनाअपना काम करते हैं आदि के बारे में जानें.

वुडबी के शौक व आदतें जानें

आप ने जिस के साथ ताउम्र रहना है उस के बारे में सब पता होना चाहिए. उस के शौक क्या हैं? उस की आदतें कैसी हैं? बातोंबातों में जान लें कि वह ड्रिंक तो नहीं करता, उसे सिगरेट आदि की लत तो नहीं. उस का खानपान कैसा है, शौक क्या हैं, घूमना, फिल्म देखना, यारीदोस्ती को कितना समय देता है आदि.

आर्थिक स्थिति का पता लगाएं

अमूमन शादी के समय युवक की सैलरी, इनकम आदि के बारे में बढ़चढ़ कर बताया जाता है. आप इस की हकीकत का पता डेटिंग के दौरान लगा सकती हैं. ध्यान रहे, सीधेसीधे वेतन के बारे में न पूछें. बस, घुमाफिरा कर जानने की कोशिश करें कि जो बताया गया है क्या वह सही है? परिवार के अन्य आय के स्रोत क्या हैं और खर्च कैसे किया जाता है.  आप का वुडबी अपनी कमाई किसे देता है, घर पर निर्भर तो नहीं रहता आदि बातें जानें. यह भी जानें कि आप की कमाई पर नजर रख कर तो शादी नहीं हो रही.

विवाहपूर्व संबंधों के बारे में जानें

अमूमन आज के दौर में युवकयुवतियों के विवाहपूर्व संबंध बनने लगे हैं. आप अपने वुडबी के पूर्व संबंधों के बारे में डेटिंग के दौरान जानने की कोशिश करें. सिर्फ दोस्ती थी या संबंध प्रेम तक पहुंचे. ध्यान रहे कि उस की भावनाएं आहत न हों. अगर कोई ब्रेकअप हुआ और वह संभल गया, तो उसे मुद्दा न बनाएं.

भविष्य के बारे में जानें

आप का वुडबी भविष्य के बारे में कितना सजग है, इस बारे में चर्चा अवश्य करें. उस ने भविष्य की क्या योजनाएं बना रखी हैं, आगे सिर्फ जौब तक ही सीमित रहना चाहता है या कुछ समय बाद अपना व्यवसाय शुरू करना चाहता है. बचत को ले कर क्या सोचता है? भविष्य में अगर घर नहीं है तो खरीदना चाहेगा या मम्मीपापा के घर में ही रहेगा. कहीं शेयरबाजार, सट्टा, कमेटी आदि के चक्कर में तो नहीं रहता. इस बारे में जानें.

पूर्व सैक्स संबंधों की चर्चा न करें

आप ने अपने बारे में भले उसे सबकुछ बता दिया हो, लेकिन भूल कर भी डेटिंग के दौरान अपने पूर्व सैक्स संबंधों के बारे में न बताएं. इस के बाद भले उसे आप में लाखों अच्छाइयां दिखें पर उसे आप की सभी अच्छाइयों के बावजूद आप को अपनाने में हिचक होगी. अगर अपना भी लिया तो ताउम्र यह बात उलाहने का कारण बन सकती है.

ममाज बौय न हो

बातोंबातों में डेटिंग के दौरान जान लें कि कहीं वह ममाज बौय तो नहीं है. उस की घर में क्या स्थिति है? कितनी चलती है, निर्णय लेने में सक्षम है कि नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं कि छोटीछोटी बातों पर उसे पेरैंट्स की इजाजत लेनी पड़ती हो. उस की बोल्डनैस आदि के बारे में भी जानने की कोशिश करें.

अंधविश्वासी तो नहीं

वुडबी अंधविश्वासी और टोनेटोटकों में भरोसा करने वाला तो नहीं, चैक करें. ऐसे लोग अगर अपनी दूसरी खूबियों के कारण सफल हों तो भी हरदम उन पर खौफ छाया रहता है और वे हर तरह के भगवान की सेवा करने में लगे रहते हैं. खुद भी अंधविश्वासी न बनें और वुडबी की अंधविश्वासी तो नहीं, यह भी जांच लें.  उपरोक्त बातों को ध्यान में रख कर 3 से 4 बार डेटिंग अवश्य करें. फिर सभी बातों का निचोड़ निकाल गंभीरता से विचार कर मन बनाएं कि वह आप का वुडबी है या उसे इग्नोर करना ही ठीक है. इस के लिए किसी के दबाव में न आएं. न डेटिंग की बातें किसी से शेयर करें खासकर अंतरंग बातें तो बिलकुल न बताएं. गंभीरता से विचार कर अपना फैसला पेरैंट्स को सुनाएं.  

इन बातों का रखें खास खयाल :

डेटिंग के दौरान खुद कम बोलें और वुडबी की अधिक सुनें. ज्यादा व बढ़चढ़ कर बोलने, हर बात में हांहां करने से आप बातों में फंस सकती हैं. कोई बात छिपाना भी चाहें तो निकल सकती हैं. अत: कम बोलें व जरूरत के अनुसार विश्लेषण करें.

ड्रैस का ध्यान रखें. जहां युवकों को डेटिंग के लिए सिंपल बन कर जाने की सलाह दी जाती है वहीं युवतियां भी यदि सिंपल ड्रैस पहनें तो अच्छा रहेगा. वल्गर कपड़े न पहनें. न ही ज्यादा फैशनेबल, सैक्सी या शरीर दिखने वाले कपड़े पहनें. सिंपलसोबर कपड़े इस अवसर पर ठीक रहेंगे.

आप भी यंग हैं वह भी और विपरीत लिंग का आकर्षण भी. तिस पर आप की शादी भी होने वाली है यह सोच कर बहक न जाएं. हाथों में हाथ डालना, पास आना आदि से डेट को सैक्सुअल न बनाएं और सैक्स हेतु उतावले न हों. इसे शादी के बाद के लिए ही रखें व दूरी बनाए रखें.

डेट के दौरान कभी भी गिफ्ट के चक्कर में न पड़ें. न गिफ्ट दें न लेने की उत्सुकता दिखाएं. बर्थडे विश या अन्य तरह के कार्ड देनालेना भी वर्जित रखें, क्योंकि अगर शादी नहीं होती तो ये चीजें झगड़े का मुद्दा बनती हैं.

फेसबुक फ्रैंडशिप व औनलाइन चैटिंग से बचें, क्योंकि इस से आप के सभी फ्रैंड्स भी आप के वुडबी को जान जाएंगे जब तक रिश्ता नहीं हो जाता इसे अवौइड करें.

फोन पर डेट फिक्स कर सकती हैं, लेकिन व्हाट्सऐप पर चैटिंग न करें. कभीकभी यह बातचीत रिश्ता न होने पर सुबूत के तौर पर दिखाई जाती है, स्मार्टफोन से फोटो व सैल्फी लेने की भूल भी न करें. ध्यान रहे अभी आप सिर्फ परख रहे हैं रिश्ते हेतु हां नहीं हुई.

डेट पर जाएं तो खानेपीने का खर्च आधाआधा रखें. उस के न कहने पर भी खर्च करें ताकि एक पर बोझ न पड़े और अगला यह भी न समझे कि यह तो खानेपीने में ही रहती है, खर्च में नहीं.

कुंडली मिलान एक ढकोसला

भारतीय परंपरागत हिंदू विवाह पद्धति में कुंडली मिलान को बहुत आवश्यक समझा जाता है. कई बार बहुत से योग्य युवक या युवतियां इसी कारण बड़ी उम्र तक अविवाहित रह जाते हैं, क्योंकि उन की कुंडली नहीं मिलती. कभीकभी तो 3-4 भाईबहनों वाले परिवार में यदि सब से बड़े बच्चे की कुंडली नहीं मिलती तो सभी की शादी में रुकावट आ जाती है. 

समाज में हमें अपने आसपास कई बेमेल दंपती भी सिर्फ कुंडली मिलान के कारण ही दिखते हैं. हमारे पड़ोस में एक सुशिक्षित युवक जो कि ऊंचे पद पर कार्यरत था, का विवाह एक कम पढ़ीलिखी युवती से इसलिए कर दिया गया, क्योंकि उन की कुंडली के 36 गुण आपस में मिलते थे, लेकिन विवाह के बाद दोनों का जीवन परेशानियों से घिर गया, क्योंकि बौद्धिक स्तर पर दोनों का कोई मेल  नहीं था.

इसी प्रकार कई बार उच्च शिक्षा प्राप्त किसी बुद्धिमान युवती का विवाह किसी मामूली युवक से इसलिए कर दिया जाता है कि दोनों की कुंडली बहुत अच्छी तरह मिल गई है.  भारतीय विवाह पूरी उम्र साथ निभाने की एक स्वस्थ परंपरा है, जिस से पैदा होने वाले बच्चे भी सामाजिक तथा नैतिक मूल्यों को स्वयं ही अपना लेते हैं. यदि पतिपत्नी के बीच बौद्धिक समानता है तो परिवार का वातावरण भी सकारात्मक रहता है. ऐसे ही परिवार स्वस्थ समाज तथा स्वस्थ राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं.  गौर से विचार किया जाय तो कुंडली मिलान के स्थान पर वरवधु की शैक्षिक योग्यता, रुचियों तथा विचारों का मिलान किया जाना चाहिए.

हमें इस बात का भी ज्ञान होना चाहिए कि विश्व के अनेक देशों में जहां कुंडली मिलान नहीं होता वहां भी सफल वैवाहिक जीवन देखने को मिलता है.  एक समय ऐसा था जब समाज वैवाहिक रिश्तों के लिए पंडितों और विचौलियों पर निर्भर था. उस समय लोग शिक्षित नहीं थे तथा संचार माध्यमों का भी अभाव था. पंडित लोग एक गांव से दूसरे गांव आतेजाते रहते थे और अपने पास विवाह योग्य युवकयुवतियों की सूची रखते थे. वे घरघर जा कर कुंडली मिला कर रिश्ते करवाते थे. यह कार्य उन की आजीविका का मुख्य साधन था.  वर्तमान समय में युवकयुवतियां शिक्षित हैं. अपना व्यवसाय अथवा कैरियर स्वयं चुनते हैं. ऐसे समय में वे अपना जीवनसाथी भी अपनी योग्यता के अनुसार स्वयं चुन लेते हैं. बड़ेबुजुर्गों का यह कर्तव्य है कि वे उन के द्वारा पसंद किए गए जीवनसाथी से मिलें उस की जांचपड़ताल करें ताकि आने वाले समय में उन के साथ धोखाधड़ी न हो.

वर्तमान में समाचारपत्रों में वैवाहिक विज्ञापनों तथा इंटरनैट के द्वारा भी उचित जीवनसाथी का चुनाव किया जाता है. अभिभावकों को अपने बच्चों के साथ मित्रवत व्यवहार रखना चाहिए ताकि वे अपनी पसंदनापसंद मातापिता को बता सकें.  अकसर यह तर्क दिया जाता है कि वर्तमान में हो रहे प्रेमविवाह असफल हो रहे हैं, जबकि कुंडली मिलान द्वारा किए गए विवाह सफल रहते थे, परंतु ऐसा नहीं है. पुराने समय में युवतियां शिक्षित नहीं होती थीं और अपने साथ हो रहे अत्याचार अथवा अन्याय का विरोध नहीं कर पाती थीं. परंतु आज समय बदल रहा है. कुंडली मिलान के बाद होने वाले विवाहों में अधिक तलाक देखने को मिलते हैं.  अनुराधा ने अपनी बेटी कल्पना का विवाह अच्छी तरह कुंडली मिलान के बाद एक संपन्न व्यावसायिक परिवार में किया. लेकिन विवाह के एक महीने के बाद ही युवती वापस घर आ गई. काफी छानबीन के बाद पता चला कि युवक पहले से किसी अन्य युवती को चाहता था. क्या ही अच्छा होता कि युवक के परिवार वाले उसे इतनी छूट देते कि वह पारिवारिक दबाव में आ कर विवाह न करता और कल्पना का जीवन बरबाद होने से बच जाता.

यदि अनुराधा केवल कुंडली मिलान से विवाह संबंध न जोड़ कर युवकयुवती को विवाह से पहले मिलनेजुलने का मौका देतीं तो शायद युवक यह बात पहले ही बता देता और दोनों परिवार मानसिक तनाव से बच जाते.  दूसरी ओर शालिनी ने अपनी बेटी की कुंडली कई जगह दी पर कहीं भी ठीक से मिलान न होने पर उन्होंने बेटी को ही वर चुनने की इजाजत दे दी. शालिनी की बेटी डाक्टर है. उस ने अपने साथ ही काम कर रहे एक अन्य डाक्टर से अंतर्जातीय विवाह कर लिया. अब उन की बेटी बहुत खुश है और शालिनी भी.

अकसर देखा जाता है कि कुंडली मिलान के पूरे खेल में परिवार के सदस्यों को ग्रहनक्षत्रों की कोई जानकारी नहीं होती, जिस का कारण रिश्ता कराने वाले पंडित मोटी कमाई कर जाते हैं. कई बार तो पैसे ले कर पूरी कुंडली ही बदल दी जाती है.  मांगलिक होने अथवा नाड़ी दोष होने पर तो युवकयुवती का विवाह पेड़ अथवा घड़े से करने की परंपरा भी है. अनेक कर्मकांडों को संपन्न करने के बाद उन्हीं युवकयुवती का विवाह आपस में कर दिया जाता है जिन की कुंडली आपस में नहीं मिल रही होती. कुंडली के दोष निवारण के नाम पर परिवारों को एक मोटी रकम पंडितों के हवाले करनी पड़ती है.  कई बार एक ही कुंडली का मिलान अलगअलग पंडित अलगअलग तरह से करते हैं. सब से बड़े आश्चर्य की बात तो यह है कि हर प्रकार के दोष का निवारण भी संभव है. बस पैसा खर्र्च करो उपाय करा लो, ले दे कर पंडितों की जेब भरती है.

पढ़ेलिखे लोग भी अकारण ही आंख बंद कर इस परंपरा का निर्वाह करते चले आ रहे हैं, जिस के पीछे कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है. कुंडली मिलाने के लिए अनेक जगह भेजा जाता है और बारबार न मिलने पर युवक और युवती के जीवन में तनाव भी बढ़ जाता है. अच्छा तो यह हो कि घर के सदस्य कुंडली मिलान के ढकोसले से बच कर युवकयुवती की पसंद को सही रूप में जांचपरख कर ही वैवाहिक संबंध स्थापित करें.

सिक्किम के बारे में ये कहकर विवादों में घिरी प्रियंका चोपड़ा

विवाद प्रियंका चोपड़ा का पीछा छोड़ते नजर नहीं आ रहे हैं. ताजा मामला उनके विवादित बयान से जुड़ा है जिसकी वजह से वो सोशल मीडिया में ट्रोल की जा रही हैं. दरअसल, प्रियंका चोपड़ा सिक्किम को ‘उग्रवाद ग्रस्‍त राज्‍य’ कहकर विवादों में घिर गई हैं. ऐसे में प्रियंका के प्रोडक्‍शन हाउस ‘पर्पल पैबल पिक्‍चर्स’ ने इसके लिए सिक्किम प्रशासन से लिखित व मौखिक माफी भी मांगी है.

प्रियंका चोपड़ा इन दिनों अपने प्रोडक्‍शन हाउस की फिल्‍म ‘पाहुना : द लिटिल विजिटर्स’ की स्‍क्रीनिंग के लिए ‘टोरंटो इंटरनेशन फिल्‍म फेस्टिवल’ में हिस्‍सा लेने के लिए अपनी मां मधु चोपड़ा और इस फिल्‍म की निर्देशक पाखी के साथ टोरंटो पहुंचीं थीं. वहां दिये एक इंटरव्‍यू में प्रियंका के हवाले से कहा गया, ‘यह पहली सिक्क‍िम फिल्‍म है. सिक्किम भारत के उत्तर-पूर्व इलाके का एक ऐसा राज्‍य है, जहां खुद की कोई फिल्‍म इंडस्‍ट्री नहीं है. यहां के किसी शख्स ने कोई फिल्म भी नहीं बनाई है. ‘पहुना’ इस क्षेत्र से जुड़ी पहली फिल्म है. जो उस इलाके में बनाई गई है क्‍योंकि यह इलाका उग्रवाद जैसी समस्‍याओं से ग्रसित है. मैं बहुत एक्‍साइटेड हूं.

प्रियंका के इस बयान को लेकर सोशल मीडिया में उन्हें ट्रोल किया जाने लगा. एक यूजर ने उन्हें जवाब देते हुए लिखा कि सिक्किम शांत राज्य है और यहां कोई उग्रवाद नहीं रहा. विवाद बढ़ने के बाद उनकी ओर से माफी मांग ली गई है. एक हिन्दी न्यूज चैनल को दिये बयान में मिनिस्‍टर उगेन ग्‍यात्‍सो ने कहा, ‘प्रियंका की मां ने मुझसे फोन पर बात की है और इसके लिए उन्होंने माफी मांगी है.

प्रियंका के इस इंटरव्‍यू के बाद से ही ट्विटर पर कई यूजर्स उन्‍हें काफी खरी-खोटी सुना रहे हैं. कई लोगों ने प्रियंका को इसके लिए ‘राजनीतिक तौर पर गंवार’ तक कहा है. असम के एक लेखक बिस्‍वातोश सिन्‍हा ने लिखा है, ‘प्रिय प्रियंका चोपड़ा, ‘सिक्‍किम कोई अशांत इलाका नहीं है और ‘पहुना’ सिक्किम में बनी पहली फिल्‍म नहीं है. कृपया नोर्थईस्‍ट के बारे में अपने तथ्‍य जांच लें.’

इससे पहले सीरिया में बच्चों की मदद करने पहुंचीं प्रियंका को ट्रोलिंग का शिकार होना पड़ा, जिसका उन्होंने मुंहतोड़ जवाब भी दिया. रविंद्र गौतम नाम के एक शख्स ने ट्विटर पर लिखा कि प्रियंका को देश के गांव में भी जाना चाहिए, जहां के बच्चे भूखे हैं और खाने के इंतजार में हैं. यूजर का करारा जवाब देते हुए प्रियंका ने लिखा, “मैं यूनिसेफ के साथ 12 सालों से काम कर रही हूं और ऐसी कई जगाहों पर जा चुकी हैं. रविंद्र गौतम तुमने क्या किया है? एक बच्चे की परेशानी दूसरे से कम कैसी?

प्रियंका को इससे पहले अपनी ड्रेसिंग स्टाइल और एक मैगजीन की कवर फोटो के लिए ट्रोल किया जा चुका है.

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