गुरमेहर कौर : कट्टरपंथियों का बनी निशाना

‘जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार के खिलाफ लगाए गए राजद्रोह के आरोप को साबित करने में दिल्ली पुलिस नाकाम रही है.’ पिछली 3 मार्च को अखबारों में छपा यह समाचार गुरमेहर कौर को राष्ट्रद्रोही और बेइज्जत करने के बवाल में भले ही दब गया हो, पर कई बातें एकसाथ उजागर कर गया. मसलन, यह इस बार एक 20 वर्षीय छात्रा गुरमेहर कौर कथित राष्ट्रप्रेमियों के निशाने पर है और देश के शिक्षण संस्थानों में बोलने पर तो पता नहीं, लेकिन सच बोलने पर लगी पाबंदी बरकरार है.

जो आवाज तथाकथित भक्तों को पसंद नहीं आती उसे दबाने हेतु पुलिस, कानून और मीडिया के अलावा कारगर हथियार हैं हल्ला, हिंसा, मारपीट, धरना, प्रदर्शन. यदि यह आवाज एक युवती की हो तो बलात्कार तक की धमकी देने से कट्टरवादी चूक नहीं रहे. अभिव्यक्ति की आजादी का ढिंढोरा बीते 3 साल से खूब पीटा जा रहा है, लेकिन यह आजादी दरअसल किसे है और कैसे है यह गुरमेहर के मामले से एक बार फिर उजागर हुआ.

आज देश के विश्वविद्यालय राजनीति के अड्डे बने हैं, वहां खुलेआम छात्र शराब पीते हैं, ड्रग्स लेते हैं, सैक्स कर संस्कृति और धर्म को विकृत करते हैं, जैसी बातें अब चौंकाना तो दूर की बात है कुछ सोचने पर भी विवश नहीं करतीं. इस की खास वजह यह है कि किसी भी दौर में युवाओं को मनमानी करने से न तो पहले रोका जा सका था और न आज रोक पा रहे हैं. युवा खूब ऐश और मौजमस्ती करें, यह हर्ज की बात नहीं लेकिन वे कहीं सोचने न लगें यह जरूर चिंता की बात है, क्योंकि युवापीढ़ी का सोचना राजनीति के साथसाथ धर्म को भी एक बहुत बड़ा खतरा लगता है. ये लोग हिप्पी पीढ़ी चाहते हैं जो दिमागी तौर पर अपाहिज और ऐयाश हो, लेकिन बदकिस्मती से कई युवा गंभीरतापूर्वक सोचते हैं और कहते भी हैं तो तकलीफ होना स्वाभाविक है.

तकलीफ का इलाज बेइज्जती

फरवरी के तीसरे सप्ताह में राजधानी दिल्ली के रामजस कालेज में हुई हिंसा की खबर दब कर रह जाती, यदि यह हिंसा 2 छात्र संगठनों आईसा और एबीवीपी के बीच न हुई होती.

कौन है गुरमेहर और कैसे वह रातोंरात कन्हैया की तरह चमकी, इसे जानने से पहले यह जान लेना जरूरी है कि आरएसएस और भाजपा समर्थक एबीवीपी की इमेज लगातार बिगड़ रही है. पहली मार्च को ही दिल्ली पुलिस ने उस के 2 सदस्यों को गिरफ्तार किया था. इस पर तुरंत ऐक्शन लेते एबीवीपी के राष्ट्रीय मीडिया संयोजक साकेत बहुगुणा ने 2 सदस्यों प्रशांत मिश्रा और विनायक शर्मा को निलंबित कर दिया था. इन दोनों पर आईसा के सदस्यों को मारनेपीटने का आरोप था, जिस की पुलिस ने एफआईआर भी दर्ज की थी.

यह बात आम नहीं थी बल्कि इस के पीछे गुरमेहर नाम की एक छात्रा थी जिसे ले कर कन्हैया जितना ही बवाल मचा था.

पंजाब के जालंधर में जन्मी गुरमेहर के पिता कैप्टन मंदीप सिंह 1999 में चर्चित कारगिल युद्ध में शहीद हुए थे तब उस की उम्र महज 2 साल थी. स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद गुरमेहर दिल्ली यूनिवर्सिटी के लेडी श्रीराम कालेज से साहित्य से एमए कर रही थी.

गुरमेहर आम लड़कियों जैसी ही है पर एक बात उसे हमेशा कचोटती रही कि उस के पिता नहीं हैं. वे शहीद हुए थे. यह गर्व की बात उस के लिए थी पर शहादत की नौबत किन वजहों के चलते आई यह बात गंभीरता से उस ने दिल्ली आ कर सोचनी शुरू की. हालांकि उस के सोचने पर कोई बंदिश पहले भी नहीं थी. उस की मां राजविंदर कौर ने उस की परवरिश लड़कों की तरह और बेहतर तरीके से की थी.

20 वर्षीय युवती से कोई गहरी सोच की उम्मीद नहीं करता, लेकिन गुरमेहर ने पिता की कमी महसूस की और लगातार सोचने के बाद उस ने एक निष्कर्ष निकाला कि उस के पिता की मौत की वजह पाकिस्तान नहीं था बल्कि युद्ध था.

यह निष्कर्ष एकदम दार्शनिकों जैसा था जिस में बुद्ध की करुणा और महावीर की अहिंसा दोनों थी. जिस युवती से पिता की बांहों में झूलने जैसे सैकड़ों सुख 2 देशों की हिंसा ने छीने थे, उस ने अगर उन की वजह युद्ध बता दिया तो देखते ही देखते देश भर में खासा बवाल मच गया.

गुरमेहर उत्साहित थी कि उस ने एक विश्वव्यापी गुत्थी सुलझा ली है और इसे पुष्टि के लिए ज्यादा से ज्यादा लोगों खासतौर से दोस्तों और छात्रों के साथ शेयर करना चाहिए. उस ने ऐसा किया भी. यही उस का गुनाह था जिस के चलते वह अपमान और दुख के उस दौर से गुजरी जिसे कोई सामान्य युवती बरदाश्त ही नहीं कर सकती.

राजनीति और लैफ्टराइट के चिंतन से अनजान गुरमेहर जब इन चीजों से टकराई तो उसे एहसास हुआ कि उस ने कोई भारी गलती कर दी है, जिस से देशभर में हंगामा बरपा हुआ है. हुआ यों कि उस ने अपनी बात को प्रभावी ढंग से कहने के लिए सोशल मीडिया को जरिया बनाया और फेसबुक पर सिलसिलेवार 34 प्ले कार्ड्स पर अपने निष्कर्ष को पोस्ट करते हुए मन की बात कही थी. इन कार्ड्स के जरिए उस ने बताया था कि मैं बचपन में मुसलमानों से नफरत करती थी और हर मुसलमान को पाकिस्तानी समझती थी, पर मां के बारबार समझाने पर मेरे दिल से नफरत निकल पाई.

देखा जाए तो बात साधारण होते हुए भी असाधारण थी यह एक युवती की आपबीती, पर उस के अपने मौलिक विचार थे जो एबीवीपी को नागवार गुजरे. पूर्वार्द्ध में कहे गए गुरमेहर के वाक्य ‘पाकिस्तान ने मेरे पिता को नहीं मारा’ के माने एबीवीपी ने अपने हिसाब से राष्ट्रद्रोह के निकाले और उसे प्रताडि़त करना शुरू कर दिया. 18 साल पहले जिस के पिता की शहादत के चर्चे देश भर में थे, उन की बेटी पलभर में राष्ट्रद्रोही करार दे दी गई. गुरमेहर हैरत और सकते में थी कि आखिरकार ये सब हो क्या रहा है.

इसी बवंडर में यह बात भी उभर कर सामने आई कि दिल्ली के रामजस कालेज में आयोजित एक संगोष्ठी में 2 छात्र नेताओं उमर खालिद और शेहला राशिद को भी न्योता दिया गया था. इस पर एबीवीपी बिफर उठी और उसे ये सब राष्ट्रद्रोह की साजिश लगा. उस ने इस संगोष्ठी का खुल कर विरोध किया और संगोष्ठी नहीं होने दी.

गुरमेहर एबीवीपी की इस हरकत से आहत हुई और उस ने सोशल मीडिया पर उस का विरोध किया. जल्द ही लोग उस से सहमत हो कर जुड़ने लगे और उस का वीडियो शेयरिंग के साथ हैशटेग भी करने लगे.

विवाद बढ़ा तो वामपंथी छात्र संगठन ने एक मार्च निकालने का फैसला ले लिया. यह मार्च पहली मार्च को ही निकाला जाना था. छात्र संघों की ताकत और पहुंच की बात करें तो हर कोई जानता है कि वामपंथी, हिंदूवादियों पर भारी पड़ते हैं क्योंकि वे किसी दायरे या फिर धार्मिकसांस्कृतिक बंधनों में जकड़े नहीं हैं और खुले दिमाग वाले हैं.

दिखाया संस्कृति का सच

2 अलगअलग विचारधाराओं में टकराव स्वाभाविक बात है, पर एबीवीपी के कार्यकताओं ने अपने धार्मिक संस्कार जल्द ही दिखा दिए और गुरमेहर के साथ खुलेआम अभद्रता की, गुरमेहर को गालियां दी गईं और उस की कुरती की एक बांह भी फाड़ दी गई. इस सब का मकसद एक युवती की बेइज्जती कर उस का मनोबल तोड़ना था. इस पर भी बात नहीं बनी थी तो उस को बलात्कार की भी धमकी दी गई.

इतने घिनौने और घटिया स्तर पर बात आ जाएगी यह बात इस लिहाज से उम्मीद के बाहर नहीं थी कि हिंदूवादियों का यह पुराना हथियार है कि औरतों से जीत न पाओ तो उन को बेइज्जत करने में हिचको मत. कोई खूबसूरत महिला प्रणय निवेदन करे तो उस की नाक काट डालो, मामला जायदाद का हो तो विरोधी पक्ष की महिला को भरी सभा में नग्न कर दो और तो और चारित्रिक शक जाहिर करते सीता जैसी पत्नी भी त्याग दो.

गुरमेहर के मामले में भी ये पौराणिक दांव खेले गए हालांकि वह जानतीसमझती थी कि उस का समर्थन कर रहे लोग कहीं ज्यादा सशक्त हैं, पर वह हिंसा की हिमायती नहीं थी. इसलिए पलायन कर गई, लेकिन बलात्कार की धमकी की रिपोर्ट उस ने लिखाई जिस पर दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल ने संज्ञान लिया और उसे सुरक्षा भी मुहैया कराई.

निश्चित रूप से गुरमेहर को आभास था कि एबीवीपी के संस्कार ही युद्ध के हैं, जिस धर्म और संस्कृति का वह पालन करती है वह मारकाट चीरहरण, अंगभंग और छलकपट से भरी पड़ी है. इसलिए इन से नारी सम्मान  या दूसरे किसी लिहाज की उम्मीद न करने की उस ने समझदारी दिखाई और वापस जालंधर चली गई. जातेजाते उस ने कहा कि वह मार्च में शामिल नहीं होगी और शांति से रहना चाहती है.

उस ने दोहराया कि वह किसी से डरती नहीं है, लेकिन तय है कि एक शहीद देशभक्त की बेटी कभी यह बरदाश्त नहीं कर सकती कि वे लोग उसे राष्ट्रद्रोही का खिताब दें जिन्हें धर्म और राष्ट्र में फर्क करने की भी तमीज नहीं है. जालंधर जा कर उस ने सहयोगियों का शुक्रिया अदा किया और खुद को फसाद से दूर कर लिया.

मचता रहा बवाल

यह महज इत्तफाक नहीं है कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनते ही वैचारिक टकराव छात्रों के बीच हिंसा की हद तक बढ़ा है. हिंदूवादियों के हौसले बुलंद हैं और वे किसी भी विरोधी का मुंह बंद करने को उसे राष्ट्रोही और गद्दार करार दे देते हैं.

गुरमेहर ने एबीवीपी की छीछालेदार करा दी थी इसलिए जल्द ही भगवा खेमा शीर्ष स्तर पर सक्रिय हो गया. मैसूर से भाजपा सांसद प्रताप सिन्हा ने गुरमेहर की तुलना अंडरवर्ल्ड सरगना दाउद इब्राहिम से करते हुए कहा कि 1993 के बम धमाकों के मास्टरमाइंड दाउद ने देश विरोधी काम के बाद यह नहीं कहा था कि वह पुलिस वाले का बेटा है. केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किरण रिजिजू ने भी गुरमेहर को देशद्रोही कह डाला.

वीरेंद्र सहवाग जैसे क्रिकेटर भी जबानी जंग में कूदे और रेसलर फोगाट बहनें गीता और बबीता भी बगैर सोचेसमझे बोलीं. बकौल सहवाग 300 रन उस ने नहीं, उस के बल्ले ने बनाए थे जैसी बात गुरमेहर ने कही है. इसे सहवाग की नादानी ही कहा जाएगा जो वह यह नहीं समझ पाया कि गुरमेहर कर्म और क्रिया का संबंध नहीं बता रही बल्कि एक विश्वव्यापी समस्या की बात करते अहिंसा के पक्ष में उदाहरण भी दे रही है.

हालांकि गुरमेहर के पक्ष में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी भी आगे आए और भाजपा नेता शत्रुघ्न  सिन्हा ने भी उस का समर्थन किया. बातबात पर भाजपा और नरेंद्र मोदी का समर्थन करें वाले गीतकार जावेद अख्तर को भी पहली दफा ज्ञान प्राप्त हुआ कि गुरमेहर के साथ गलत हो रहा है, इस के बाद बहस और आरोपप्रत्यारोप राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रद्रोह की नई परिभाषाओं के इर्दगिर्द सिमट कर रह गए. शायद गुरमेहर को निशाने पर लेने का मकसद भी यही था.

उधर, गुरमेहर की मां राजविंदर कौर कहती ही रह गईं कि मेरी बेटी पर राजनीति मत करो वह एक बच्ची है, जिस की भावनाएं सच्ची हैं लेकिन गुरमेहर पर राजनीति बहुत जरूरी भी हो गई थी हालांकि इस से इस पूरे मामले का धार्मिक पहलू ढक गया. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का यह कहना बेवजह नहीं था कि देश विरोधी नारे भाजपा और एबीवीपी वाले खुद लगाते हैं.

यह बात कितनी सच कितनी झूठ है, यह तो वही जानें, पर यह जरूर सच है कि आरएसएस की छत्रछाया में पलेबढ़े एबीवीपी की नजर में छात्रशक्ति का इकलौता मतलब हिंदुत्व होता है. इस पर बोलने वाले को चुप कराने के लिए किया गया हर काम वे जायज मानते हैं. यहां तक कि एक युवती की इज्जत लूटने या बलात्कार की धमकी देना भी हर्ज की या पाप की बात नहीं समझते.                              

हिंदू या भारतीय

गुरमेहर तो हमेशा की तरह बहाना थी, एबीवीपी का असल मकसद तो कुछ और था जिसे 28 फरवरी को दिल्ली में निकाले गए वामपंथी शिक्षक छात्र संगठनों के मार्च में माकपा महासचिव सीताराम येचुरी और माकपा नेता डी राजा ने खुल कर बताया.

इन के मुताबिक हमारा राष्ट्रवाद ‘हम भारतीय हैं’ पर आधारित है न कि हिंदू कौन है, पर आधारित है. एबीवीपी के गुंडे तर्क से नहीं जीत पा रहे हैं, इसलिए हिंसा का रास्ता अपना रहे हैं.

पर आम लोगों की बड़ी चिंता जो गुरमेहर के पूरे सच से नावाकिफ थे, यह थी कि शिक्षण संस्थाओं में राष्ट्रवाद पर चर्चा नहीं होनी चाहिए और कहीं भी राष्ट्रविरोधी नारे नहीं लगाए जाने चाहिए. युवाओं को सिर्फ पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिए और इस तरह की नेतागीरी से दूर रहना चाहिए.

कालेजों या यूनिवर्सिटी में इस पर एतराज क्यों, क्या युवाओं को अपने विचार रखने का हक नहीं? क्या यह अभिव्यक्ति की आजादी के खिलाफ षड्यंत्र नहीं? युवा आक्रोश ही देश का भविष्य बनता है. साल 1975 में जयप्रकाश नारायण ने युवाओं को इकट्ठा करना शुरू किया था और इंदिरा गांधी को सत्ता से उखाड़ फेंकने में कामयाबी हासिल की थी.

एबीवीपी की बातें समझ से परे हैं. यह लोकतंत्र है जो सभी को अपनी बात कहने की आजादी देता है पर कोई गुरमेहर बोले तो उसे बजाय सीधे धर्म विरोधी करने के राष्ट्रद्रोही कह कर बहिष्कृत करने का षड्यंत्र, मुंह बंद करने जैसी बात नहीं तो क्या है. इस संवेदनशील मुद्दे का दिलचस्प ऐतिहासिक सच यह है कि न तो एबीवीपी को मालूम है कि हिंदू कौन हैं न ही भाजपा और आरएसएस को मालूम है और मालूम भी है तो वे इस सच से डरते और कतराते रहते हैं कि दरअसल, आदिवासी ही इस देश का मूल निवासी हैं बाकी सब बाहरी लोग हैं जिन्हें आर्य कहा जाता है शायद यही डर सत्ता पर काबिज रहने को उन्हें और हिंसक व आक्रामक बनाता है.

तो आपको भी है फिजूलखर्ची की आदतें

आप भी रोज-रोज के छोटे खर्चों पर ध्यान नहीं देती और अपनी खर्च करने की आदत जारी रखती हैं और बाद में आपके पास पैसे ही नहीं बचते हैं. आप रोजाना कई तरह की खरीददारी करती हैं जो धीरे-धीरे आपकी जेब खाली करती रहती है. रोजाना फालतू चीजों पर बड़ी राशि खर्च करना आगे जाकर ये आपकी जेब का गणित बिगाड़ देती है.

हम आपको 4 चीजें बता रहे हैं जिन पर पैसा खराब करना आपको तुरंत बंद कर देना चाहिए…

कॉफी शॉप्स और फिजूल खर्चे

आजकल आप महंगे कॉफी शॉप्स में काफी खर्चा करने लगी हैं. कॉफी शॉप आपको हर गली या नुक्कड़ पर मिल जाती है, लगभग हर कॉफी शॉप आपसे ज्यादा राशि ही लेती है. आप हिसाब लगाएं तो अब तक आपने इन पर कितना पैसा खराब कर दिया है, उसका कोई हिसाब नहीं है.

मिसाल के तौर पर जो कॉफी आप घर में 10-15 मिनट खर्च करके बना सकती हैं, उसी कॉफी को कॉफी शॉप्स में पीने के लिए आप 250 से 500 रुपए तक अदा कर देती हैं.

ऑनलाइन शॉपिंग की लत

आज के दौर में तमाम युवाओं को ऑनलाइन शॉपिंग की लत लग चुकी है. डिस्काउंट ऑफर और घर बैठे प्रोडक्ट पाने की सहूलियतों के चलते युवाओं का एक बड़ा वर्ग दिन भर में 4 से 5 घंटे सिर्फ ऑन लाइन शॉपिंग पर ही बिता देता है. सबके साथ-साथ आपकी ये आदत समय और पैसे दोनों की बर्बादी है, इसलिए अगर आप भी ऑनलाइन शॉपिंग के लती हो चुकी हैं तो आपको अब यहां रुकने की जरूरत है. जरूरी नहीं कि हर सस्ती चीज खरीद ली जाए, इसलिए खरीददारी समझदारी से करें.

बाहर का खाना

आजकल बस एक क्लिक पर खाना हमारे घर आ जाता है. आपको कई ऐसे ऑफर्स दिख सकते हैं जिसमें सस्ते के चक्कर में आप ज्यादा खरीद लेते हैं. इससे आपका स्वास्थ्य और बैंक बैलेंस दोनों बिगड़ते हैं. हां अगर आपका मन बाहर के लजीज खाने को देखकर खाने को करता है तो आप महीने में एक या दो बार ऐसा कर सकते हैं. इससे आपके मन को भी शांति मिल जाएगी और आपकी जेब भी ज्यादा हल्की नहीं होगी.

एटीएम फीस

ये बात सही है कि बैंक एटीएम से हमें सुविधा है. हम हर महीने ना जाने कितनी बार इन पर पैसे निकालने जाते हैं. इसके लिए बैंक आपसे चार्ज लेता है. यदि आप एक बैंक के खाते का पैसा दूसरे बैंक से 3 बार से अधिक निकालते हैं, तो बैंक आपसे चार्ज लेता है. आपका बैंक भी 5 बार से ज़्यादा बार एटीएम से पैसे निकालने पर चार्ज करता है. खैर अब तो बैंको द्वारा इन नियमों में कुछ बदलाव किये गए हैं.

ऋण पर ब्याज दर

ऋण कई बार आपके लिए वरदान है. सैलरी का एक बड़ा हिस्सा होम लोन में चला जाता है. अपने हाल ही के लोन की अधिक ब्याज़ के कारण आपको ज़्यादा ही चुकाना पड़ता है. आपके पास अपने लोन को ऐसे बैंक में ट्रांसफर करने का विकल्प होता है जिसकी ब्याज़ दर कम है. इसलिए आप ऐसा कर आप एक अच्छी रकम बचा सकती हैं.

अपने आशियाने को सजाते वक्त ध्यान रखें ये टिप्स

घर का डेकोरेशन एक आर्ट है, काम नहीं. आप अपना घर सजाती हैं तो तारीफ आपकी ही होनी है. इसलिए अपने घर को शौंक से सजाएं. अपने इमैजिनेशन को ऊंची उड़ान दें लेकिन बस कछ आसान सी इन टिप्स को ध्यान में तरूर रखें.

विंटेज सामान

अपने किसी भी रूम में ज्यादा विंटेज सामान नहीं रखें वरना आपका घर म्यूजियम की तरह दिखने लगेगा. विंटेज को कंटेम्पररी के साथ मिक्स करें. इससे एक्लेक्टिक लुक मिलेगा.

पर्दे

पर्दे किसी भी साधारण कमरे को असाधारण लुक दे सकते हैं. इस बात का भी ध्यान रखें की पर्दे जमीन से ज्यादा ऊंचाई पर नहीं हों. इसके अलावा ये भी ध्यान रखें की पर्दे इतनी नीचे भी नहीं हों की जमीन पर पोंछा लगाएं. पर्दे आपके घर की दीवारों को ध्यान में रख कर खरीदें, अगर आपके घर के किसी कमरे की दीवारे गहरे रंग की हैं तो उन दिवारों के लिए डार्क कलर के पर्दे न लें.

रग्स

रग्स को टाइल्स या बिना ढकी हुई फ्लोर पर यूज करें. इससे लुक थोड़ा सॉफ्ट हो जाएगा. इन्हें कार्पेट पर रखना गलत है क्योंकि इस तरह कमरे की खूबसूरती बिगड़ती है.

नाप-तौल जरूरी

कमरे को डिजाइन करने के लिए हर आइटम नपा-तुला होना जरूरी है. इसलिए रूम का नाप ले लें. इंटीरियर के या फर्नीचर के स्टोर पर जब भी जाएं तो ये नाप किसी पेपर में लिखकर लेकर ही जाएं.

फर्नीचर

अपहोल्स्टरी वाला महंगा फर्नीचर कम्फर्ट और ड्यूरेबिलिटी के लिये अच्छे से जांच परख लें. एक बार घर आने के बाद ये लाइबिलिटी बन जाते हैं.

कैटलॉग से बचें

कैटलॉग में से कुछ नहीं लें ना ही बनवाएं. कैटलॉग में दिए आइटम फेक होते हैं. थोड़ा आर्टिस्टिक व्यू रखें और अलग-अलग जगह से चीजें उठाएं. इन्हें रूम में सजाएंगे तो स्पेस की खूबसूरती बढ़ेगी. मिक्सिंग ग्लास, वुड, मेटल आइटम आपके रूम को ऐस्थेटिकली एक चिक लुक देते हैं.

लाइटिंग पर ज्यादा ध्यान

ये गलत धारणा है कि ओवरहेड लाइटिंग जरूरी नहीं होती. अलग-अलग टेक्स्चर, कलर और साइज के लैम्प घर में पर्सनल और वॉर्म फ्लेवर एड करते हैं.

पिलो और कुशन

बेडरूम में कलरफुल पिलो रखकर जगह की ब्राइटनेस बढ़ाएं. वहीं लिविंग रूम में कलरफुल कुशन सजाएं. ओवरक्राऊड नहीं करें क्योंकि ज्यादा पिलो और कुशन आराम देने की जगह परेशानी बढ़ा सकते हैं.

फिल्म रिव्यू : बेगम जान

2015 में प्रदर्शित व राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत फिल्मकार श्रीजित मुखर्जी की बंगला फिल्म‘‘राजकहिनी’’ का हिंदी रीमेक है – बेगम जान. जिसका लेखन व निर्देशन श्रीजित मुखर्जी ने ही किया है. मगर हिंदी फिल्म ‘‘बेगम जान’’ के मुकाबले बंगला फिल्म ‘‘राज कहिनी’’ कई गुनाअच्छी फिल्म कही जाएगी. कड़वा सच यह है कि श्रीजित मुखर्जी ने अपनी ही बेहतरीन बंगला फिल्म का हिंदी रीमेक करते समय फिल्म के निर्माताद्वय महेश भट्ट व मुकेश भट्ट की सलाह पर चलते हुए फिल्म का सत्यानाश कर डाला.

यह फिल्म बंटवारे के दर्द की बनिस्बत भट्ट कैंप के अपने एजेंडे वाली फिल्म बन गयी है. भारत व पाकिस्तान के प्रादुर्भाव के वक्त के इतिहास की अनगिनत कथाएं हैं, जिनसे हर देशवासी वाकिफ नहीं है, मगर उन कहानियों को सही परिप्रेक्ष्य में पेश करना भी फिल्मकार के लिए बड़ी चुनौती होती है. कम से कम ‘बेगम जान’ तो इस कसौटी पर खरी नहीं उतरती है. फिल्म का मुद्दा तो इतिहास के पन्ने को सामने लाने के साथ ही बंटवारे की पीड़ा सिर्फ आम इंसान ही नहीं बल्कि कोठे वालियों को भी हुई थी, को रेखांकित करना होना चाहिए था, पर यह बात उभरकर नहीं आ पाती है. एक सशक्त कथानक शक्तिशाली रूपक बनने की बजाय बहुत ही ज्यादा सतही कहानी बन जाती है.

यदि श्रीजित मुखर्जी अपनी बंगला फिल्म की ही पटकथा पर अडिग रहते तो ‘‘बेगम जान’’ भी एक यादगार फिल्म बनती. मर्दों की दुनिया में औरत अपने दम पर जीना व मरना जानती है,यह बात भी उतनी प्रमुखता से उभर नहीं पाती, जितनी प्रमुखता के साथ उभरनी चाहिए थी. फिल्म में औरत के अस्तित्व को लेकर कुछ अच्छे सवाल जरुर उठाए गए हैं.

फिल्म शुरू होती है वर्तमान से. दिल्ली के कनाट पैलेस क्षेत्र से रात के वक्त गुजर रही बस मेंएक प्रेमी जोड़ा बैठा हुआ है. कुछ दूर चलने पर कई युवा लड़के बस में चढ़ते हैं और लड़की से झेड़झाड़ करने लगते हैं. बस बीच सड़क पर रुक जाती है. लड़की बस से उतर कर भागती है. कुछ लड़के उस लड़की के पीछे भागते हैं, आगे उन लड़कों के सामने एक बुढ़िया खड़ी हो जाती है, जिसके पीछे वह लड़की है. बुढ़िया उन लड़कों के सामने अपने वस्त्र निकालती है. लड़के भाग जाते हैं.

उसके बाद फिल्म शुरू होती है 1947 की पृष्ठभूमि में. पंजाब के एक गांव से बाहर बने बेगम जान (विद्या बालन) के कोठे से. बेगम जान पर वहां के राजा (नसिरूद्दीन शाह) का वरदहस्त है. बेगम जान किसी से नहीं डरती. उनका अपना कानून है. स्थानीय पुलिस प्रशासन व स्थानीय पुलिस दरोगा श्याम (राजेश शर्मा) भी उससे कांपते हैं. बेगम जान के कोठे पर एक बूढ़ी अम्मा (इला अरूण) के अलावा रूबीना (गौहर खान), गुलाबो (पल्लवी  शारदा), जमीला (प्रियंका सेटिया), अंबा (रिद्धिमा तिवारी), मैना (फ्लोरा सैनी), लता (रवीजा चौहाण), रानी (पूनम राजपूत), शबनम (मिष्टी), लाड़ली (ग्रेसी गोस्वामी) लड़कियां कोठेवाली के रूप में रहती हैं. बेगम जान का दीवाना एक मास्टर हर शुक्रवार को कोठे पर उपहार लेकर आता है. उसने बेगम जान को बता रखा है कि वह एक राजनैतिक पार्टी से जुड़ा हुआ है और समाज सेवक है.

बेगम जान को लगता है कि मास्टर, गुलाबो पर लट्टू है और गुलाबो भी यही समझती है. कोठे पर सुरक्षा की जिम्मेदारी सलीम मिर्जा (सुमित निझवान) पर है, जो कि कभी पुलिस विभाग में था. इन कोठेवालियों का दल्ला सुजीत (पितोबाश त्रिपाठी) है.

अचानक एक दिन अंग्रेज शासक भारत को आजादी देने के साथ ही देश के बंटवारे का ऐलान कर देते हैं. यह आजादी इन कोठेवालियों के लिए भी त्रासदी बनकर आती है. फिल्म में आजादी व हिंदू मुस्लिम आदि पर व्यंग कसते हुए बेगम जान कहती हैं-‘‘एक तवायफ के लिए क्या आजादी…..लाइट बंद सब एक बराबर…’’. मुस्लिम लीग से जुड़े इलियास (रजित कपूर) और भारतीय कांग्रेस से जुड़े श्रीवास्तव (आशीष विद्यार्थी) को भारत पाक सीमा पर तार लगवाने की जिम्मेदारी दी जाती है. पता चलता है कि दो देशों की सीमा रेखा बेगम जान के कोठे के बीच से जाती है. इलियास व श्रीवास्तव पुलिस बल के साथ सरकारी फरमान लेकर बेगम जान के पास पहुंचते हैं कि वह इस जगह को खाली कर दें, बेगम जान कोठा खाली करने से मना कर देती है.

इलियास उन्हे एक माह का समय देकर वापस आ जाते हैं. बेगम जान पहले मास्टर से मदद मांगती है. मास्टर कहता है कि वह पार्टी आलाकमान से बात करेगा. पर एक दिन मास्टर बता देता है कि बेगम जान को कोठा खाली करना पड़ेगा. वह बेगम जान के सामने अपने साथ चलकर घर बसाने का प्रस्ताव रखता है. पर बेगम जान उसे झिड़क देती हैं, तो मास्टर, गुलाबो को बेगम जान के खिलाफ यह कह कर कर देता है कि बेगम जान उनकी शादी के खिलाफ हैं. इधर बेगम जान, राजा जी से मदद मांगती हैं, पर वह भी मदद करने में खुद को असमर्थ पाते हैं.

उधर श्रीवास्तव, इलियास की इच्छा के विपरीत एक गुंडे कबीर (चंकी पांडे) से मदद मांगता है. पता चलता है कि मास्टर भी उससे मिला हुआ है. कबीर अपने गैंग के लड़कों से बेगम जान को खत्म कराने के लिए गंदी हरकत शुरू करता है. मास्टर, गुलाबो को शादी का झांसा देकर कोठे पर से भगाता है, पर कुछ दूर जाकर उसे दूसरों के हवाले यह कह कर देता है कि कोठे वाली का शौहर नहीं सिर्फ खरीददार होता है. गुलाबो को पश्चाताप होता है, वह बाद में मास्टर की हत्या कर देती हैं. उधर बेगम जान दस वर्ष की लाड़ली को उसकी मां के साथ भागने पर मजबूर करती है. रास्ते में दरोगा श्याम मिल जाता है, तो लाड़ली उसके सामने अपने कपड़े उतार देती है, दरोगा को अपनी दस वर्ष की बेटी याद आती है और वह उन्हे बाइज्जत जाने के लिए राह देता है. इधर कोठे की कुछ लड़कियां कबीर के लड़कों से लड़ते हुए मारी जाती हैं. बेगम जान व चार लड़कियां, अम्मा के साथ ही जलते हुए कोठे के अंदर खुद को बंद कर जल जाती हैं.

फिल्म में कभी रजिया सुल्तान, तो कभी मीरा की प्रेम कहानी सुनाने वाली अम्मा अंत में पद्मावती के जौहर की कहानी सुनाती हैं. बेगम जान व उसके कोठे की लड़कियों के साथ जो अमानवीय व्यवहार होता है, उससे इलियास परेशान हो जाता है, पर श्रीवास्तव खुश है.

फिल्म ‘‘बेगम जान’’ में सभी बेहतरीन कलाकार हैं. बेगम जान के किरदार में विद्या बालन ने बेहतरीन परफार्मेंस देने की कोशिश की है, यदि लेखक व पटकथा लेखक ने उनके किरदार को और अधिक दमदार बनाया होता, तो विद्या बालन उसे ज्यादा बेहतर ढंग से अंजाम दे पाती. फिल्म में नसिरूद्दीन शाह की प्रतिभा को जाया किया गया है. यह बात समझ से परे है कि नसिरूद्दीन शाह ने यह फिल्म क्या सोचकर की. कबीर के किरदार को चंकी पांडे ने जिस तरह से निभाया है, वह लंबे समय तक याद किया जाएगा. रजित कपूर के अलावा कोठे वाली के किरदार में हर अभिनेत्री ने अच्छा अभिनय किया है.

फिल्म की पटकथा की अपनी कुछ कमियां हैं. आशीष विद्यार्थी और रजित कपूर के बीच जो संवाद है, वह महज दो धर्म ही नहीं बल्कि इंसानों में विभाजन को चौड़ा करने की ही बात करते हैं. फिल्मकार ने सारा दोष हिंदूओं पर मढ़ने का प्रयास किया है, अब यह जानबूझकर किया गया है या उस वक्त के इतिहास में इसका कोई साक्ष्य मौजूद है, इसका जवाब तो श्रीजित मुखर्जी और महेश भट्ट ही दे सकते हैं. जहां तक इतिहास की बात है, तो 1947 में देश का बंटवारा पश्चिमी पाकिस्तान, भारत और पूर्वी पाकिस्तान के रूप में हुआ था, फिल्म में इस बात का जिक्र नहीं है, फिल्म में भारत व पाकिस्तान की बात की गयी है.

फिल्म के क्लायमेक्स को देखकरयह बात दिमाग में आती है कि यदि फिल्मकार व पटकथा लेखक ने समझदारी से इस विषय को उठाया होता, तो फिल्म में यह बात बेहतर ढंग से उभरकर आ सकती थी कि आप लोगों को अपने जोखिम के साथ विभाजित कर सकते हैं, पर इससे आपको कोई स्थायी लाभ नहीं मिलने वाला. मगर यहां भी फिल्मकार पूर्णरूपेण असफल ही रहते हैं.

फिल्म के संवाद महज दमदार ही नही हैं, बल्कि समाज पर तमाचा भी जड़ते हैं. फिल्म कहीं कहीं श्याम बेनेगल की फिल्म ‘‘मंडी’’ की याद दिलाती है. फिल्म के कैमरामैन बधाई के पात्र हैं. फिल्म का गीत संगीत फिल्म के कथानक के साथ चलता है.

दो घंटे 15 मिनट की अवधि वाली फिल्म ‘‘बेगम जान’’ का निर्माण ‘‘विशेष फिल्मस’’ और ‘प्ले इंटरटेनमेंट’ ने किया है. लेखक व निर्देशक श्रीजित मुखर्जी, संवाद लेखक कौसर मुनीर,संगीतकार अनु मलिक व खय्याम, कैमरामैन गोपी भगत तथा फिल्म को अभिनय से संवारने वाले कलाकार हैं-विद्या बालन, नसिरूद्दीन शाह, आशीष विद्यार्थी, रजित कपूर, गौहर खान,रिद्धिमा तिवारी, इला अरूण, पल्लवी शारदा, प्रियंका सेटिया, फ्लोरा सैनी, रवीजा चौहाण,पूनम राजपूत, मिष्टी, ग्रेसी गोस्वामी, पितोबास त्रिपाठी, सुमित निझवान, चंकी पांडे, विवेक मुश्रान, राजेश शर्मा व अन्य.

ये फिल्में बनी हैं खास आपके लिए

बात भारत की महिला प्रधान फिल्मों की हो तो झट से मिर्च मसाला, दामिनी, चांदनी बार, नो वन किल्‍ड जेसिका, द डर्टी पिक्‍चर, गॉड मदर, बैंडिड क्वीन, कहानी, सात खून माफ, मिका, मार्गरिटा विद द स्ट्रॉ, मसान, ब्लैक, दि गर्ल इन एयो बूट्स, इंग्लिश विंग्‍लिश, निल बटे संन्नाटा, मर्दानी जैसी कितनी ही फिल्मों का नाम सामने आ जाता है.

लेकिन फिल्मों का उद्देश्य बड़ा मायने रखता है. फिल्म की पटकथा दर्शक के मन में क्या भाव पैदा करेगी. इंतकाम, प्यार, तनाव, दुविधा, डर या कुछ और तय इससे होना चाहिए कि वह फिल्म देखनी है या नहीं.

ऐसी ही 10 फिल्मों की बात कर रहे हैं, जिन फिल्मों ने प्रभाव छोड़ा. बदकिस्मती से या जैसे कहें इसमें कुछ फिल्मों को उतनी प्रसिद्ध‌ि नहीं मिली जितनी पिंक को पर जिस किसी ने इन फिल्मों को देखा बाहर आकर इसके बारे में बात की. खासकर के लड़कियों और महिलाओं ने.

1. मातृभूमि (2003)

ले‌खिका व महिला फिल्म निर्देशक मनीषा झा ने 2003 में एक फिल्‍म बनाई थी, 17 दिसंबर को रिलीज हुई फिल्म “मातृ” फिल्म की टैग लाइन थी, ‘ए नेशन विदाउट वुमन’ यानि कि एक राष्ट्र बिना महिलाओं के. इस बात का जिक्र हमेशा होता रहता है कि अगर लड़कियां न हो तो क्या होगा. मनीषा ने इसी को पर्दे पर उतार दिया. एकदम वैसे ही जैसा हम सोचते हैं. पुरुष अपनी वासना के लिए जानवरों के पास जाने लगते हैं, कहीं से एक लड़की का पता चलता है तो घर की सारी दौलत लगा कर उसे खरीद लेते हैं. फिर बाप समेत 4 चार-चार भाई उसी औरत से अपनी शारीरिक जरूरतें पूरी करते हैं.

फिल्म जिसने देखी वो एक बार को खौंफजदा जरूर हुआ. क्योंकि बात जो अब तक कहते-सुनते आ रहे थे वो सामने होती दिखी तो व्यापक प्रभाव पड़ा. फिल्‍म के देखने के बाद कई लोगों ने भी लड़कियों की गर्भ में हत्या करानी बंद कर दी. इस फिल्‍म से एक लड़की को उसके महत्व का असल अंदाजा होता है. इसे हर लड़की, महिला को देखनी ही चाहिए, पुरुषों के लिए भी यह महत्वपूर्ण फिल्म है.

2. थैंक्स मां (2010)

साल 2010 में आई फिल्म “थैंक्स मां” के निर्देशक-इरफान कमाल ने उन बच्चों की कहानी बताई थी जिन्हें उनकी मां छोड़ देती हैं.

फिल्म की मुख्य भूमिका में कोई महिला नहीं एक 12 साल का बच्चा है, जिसका नाम म्यूनिसिपालिटी है. वह एक, दो दिन के बच्चे को उसकी मां के पास पहुंचाना चाहता है.

क्योंकि वह जानता है बिना मां के दुनिया कैसी होती है. भारत में एक लंबा दौर रहा, बच्चा पैदा करने के बाद उसे किसी नदी नाले या सूनसान जगह पर छोड़ देने का.

क्योंकि वह संतान अवैध रहती थी. इन दिनों इस मामले में गिरावट आई है, जो कि सबके लिए बहुत ही अच्छा है. पर यह मामला खत्म होना बहुत जरूरी है.

3. पिंक (2016)

हालिया फिल्म पिंक चर्चा आपने खूब सुनी. फिल्म की कमाई 60-70 करोड़ के आसपास झूल रही है. जबकि इसी देश में फिल्मों की कमाई 300 करोड़ भी पार करती हैं (पीके, सुल्तान, बजरंगी भाईजान).

चलिए मानते हैं कि बहुत सारे लोगों ने सिनेमाघरों के बजाए लैपटॉप और मोबाइल में पाइरेटेड कॉपी देखा होगा. फिर भी 60 और 300 में पांच गुने का फर्क है.

कहने का आशय है कि फिल्म से अब भी लोगों की पहुंच दूर है. फिल्म का केंद्र मेट्रो शहर यानि दिल्ली, बंगलुरु, कलकत्ता, चेन्नई की लड़कियां हैं. लेकिन ऐसा नहीं है कि इससे गांव की लड़कियों या छोटे शहरों की लड़कियों से कोई लेना देना नहीं है.

फिर यह फिल्म लड़कियों ही नहीं उनकी मम्म‌ियों, उनके भाइयों, उनके पिताओं के लिए भी उतनी ही जरूरी है.

4. क्वीन

इस दौर में जब भारतीय समाज में थोड़ी जागरुकता बढ़ रही है, लड़कियां बराबरी का जोर पकड़ रही हैं, तब उस आजादी का उपयोग कैसे करें, क्वीन इसे बताती है.

किसी के प्यार में टूटकर उसके आगे गिड़गिड़ाने, या उसके बगैर जिंदगी न जीने की सोचने वालों के लिए क्वीन एक अचंभा है, जब एक लड़की अपने मर्द के बगैर हनीमून पर चली जाती है.

बाद में वही पति जो कभी उसके साथ हनीमून पर जाने से कतराता है, लड़की के हावभाव, अल्हणपन से बचता है, उसकी लड़की के सामने गिड़गिड़ाने की हालत में आ जाता है.

फिल्‍म में कोई बदला नहीं है, इंतकाम के लिए लड़की ऐसा नहीं करती. फिल्म केवल आत्मविश्वास के बारे में है. छोटे शहरों की लड़कियों के लिए या बड़े शहरों के लड़कियों के लिए.

5. एनएच 10

यह फिल्म बदले की कहानी है. एक लड़की इंतकाम लेती है. उससे जिसने उसके पति को कूच-कूच कर मारा. उससे जिसने एक लड़के और एक लड़की को काट डाला, केवल इसलिए कि वह दोनों एक दूसरे से प्यार करते थे.

एक कहावत है. तब एक लड़की दुर्गा का अवतार लेती है तो महिषासुर को मार डालती है. यह सिर्फ कहावत है. एनएच 10 उसी का वीडियोकरण है.

लेकिन फिल्म बस इतने पर नहीं सिमटती. फूल बने अंगारे से लेकर अंजाम फिल्म तक में यही दिखाया गया है. यह एक कहानी है संघर्ष की. जब एक लड़की असहाय हो जाए, आस-पास के करीब 100 किलोमीटर जंगल में अकेली हो जाए.

उसके पीछे 6 आदमी लग जाएं, उनके पास हथ‌ियार हों और लड़की निहत्‍थी. उसके पति को जान से मार दें. वहां से कैसे एक लड़की टूट जाने के बजाए खुद को उबारे. इसी की कहानी फिल्म में बताई गई है.

6. मदर इंडिया (1957)

जब किसी ‘बाहरी’ व्यक्ति को हिन्दी सिनेमा से परिचित कराया जा रहा हो तो उसे जिन फिल्मों को देखने की सलाह दी जाती है, उनमें नरगिस की ‘मदर इंडिया’ अग्रणी है.

कहते हैं हिन्दी सिनेमा की गहराई भांपनी हो तो एक बार मदर इंडिया जरूर देखनी चाहिए. यहां आप पांएगे कि एक औरत क्या होती है. जब उसका पति सबसे कठिन हालातों में छोड़कर आत्महत्या कर लेता है.

उसक तीन बच्चों में एक खाना न होने के चलते दम तोड़ देता है. दूसरा भूख से दम तोड़ने वाला होता है. वहां उसे अपने बचे दोनों बच्चों के साथ आत्महत्या कर लेना चाहिए जैसे उसके पति ने कर ली. यह फिल्‍म बनाई महबूब खान ने ‌थी.

7. आंधी (1957)

1975 में बनी गुलजार निर्देशित फिल्म ‘आंधी’ के जरिए विवादों की ऐसी आंधी उठी कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के आदेश पर फिल्म के प्रदर्शन पर प्रतिबंध लगा दिया गया.

कहते हैं फिल्म में सब कुछ वैसे ही था जैसे इंदिरा गांधी की‌ जिंदगी में था. यही नहीं सुचित्रा सेन का पूरा गेटअप उनसे प्रेरित था.

बालों के कुछ हिस्सों की सफेदी वाले हेयर स्टाइल और एक हाथ से साड़ी का पल्लू संभालने और दूसरे हाथ से लोगों को देखकर हाथ हिलाने की उनकी शैली सबकुछ.

इंदिरा भारत की पहली और आखिरी महिला प्रधानमंत्री थीं. हर महिला को उन्हें जानना चाहिए. इसके लिए सबसे कम समय और आसान तरीका यह फिल्‍म हो सकती है.

8. अर्थ (1982)

हिन्दी में विवाहेत्तर संबंध और अंग्रेजी में एक्‍स्ट्रा मैरिटल अफेयर, ये शब्द भारतीय संस्कृति ही नहीं पूरी दुनिया में कहीं अच्छे नहीं माने जाते.

लेकिन बदकिस्मती से भारत कोई अखबार किसी भी दिन उठाकर देंखे आपको ऐसे संबंधों के चलते हो रहे असंख्य अपराधों का अंदाजा लगेगा.

इसी विषय की बहुत गहराई में जाती है फिल्म ‘आंधी’. कहते हैं निर्देशक महेश भट्ट ने इसमें करीब-करीब खुद की जिंदगी उतार दी थी.

अभिनेत्री परवीन बॉबी के साथ उनके विवाहेत्तर संबंध रखने की चर्चाओं के बीच बनी यह फिल्म एक नारी के अंतर्मन के द्वंद को बेहतरीन ढंग से दिखाती है.

9. फैशन (2008)

छोटे शहरों और गांवों से भारी मात्रा में युवा मेट्रो शहरों में आए हैं. अपने मौलिक प्रतिभा से वह औरों की तुलना में जल्दी शिखर पर पहुंच जाते हैं. खासकर के लड़कियां.

लेकिन लंड़कियों का यूं शिखर पर पहुंचना किसी को अच्छा नहीं लगता. फिर लोग आपको शिखर से ढकेलने की हर संभव कोशिश करते हैं.

अब उस लड़की को देखना होता है कि नीचे गिर जाना है या डटे रहना है. मधुर भंडारकर निर्देशित फिल्म “फैशन” की दोनों मुख्य किरादार गिर जाती हैं. एक आत्महत्या कर लेती है, और दूसरी नाटकीय अंदाज से ऊपर आ जाती है.

क्योंकि यह एक फिल्म थी. असल जिंदगी में गिरने के बाद लोग शायद ही उठते हैं. ऐसे में हर लड़की का यह फिल्म देखना इसलिए जरूरी है कि जिंदगी में शिखर से गिरना नहीं है.

10. पीकू (2015)

सुजित सरकार निर्देशित फिल्म ‘पीकू’. इन दिनों लड़कियों और महिलाओं में एक भावना तेजी से बढ़ी है हिंदी में स्वावलंबी और अंग्रेजी में सेल्फ डिपेंडेंट होने की. यह हाल-फिलहाल जाग रही सामाजिक चेतनाओं सबसे बेहतर चेतना है. इस चेनता के इर्द-गिर्द घूमती फिल्म पीकू एक स्वावलंबी बेटी और उसके मरीज पिता की है. जो सिर्फ अपनी नहीं ऑफिस की चिंताओं के साथ अपने मरीज पिता को संभालती है.

घर लौटकर अपने पिता के दवाइयों, उनके मनोभाव में किसी तरह का अवसाद न आए इसलिए उनकी सारी ख्वाहिशें भी पूरी करती है. एक लड़की जिंदगी की जिम्मेदारियों का समुचित निर्वहन करने की ओर इशारा करने वाली इस फिल्म को जरूर देखना चाहिए.

असल जिंदगी में कपल्स हैं पर्दे के ये भाई-बहन

तो ऐसा है कि टेलीविजन जगत में कुछ भी हो सकता है ये कहना गलत नहीं होगा. सीरियल में भाई-बहन का किरदार निभाने वालों को आपस में प्यार हो सकता है तो कहीं असल जीवन के पति-पत्नी को टीवी पर भाई बहन का रोल करना पड़ता है.

आइये हम आपको मिलवाते हैं 5 ऐसी ही जोड़ियों से जिन्होंने छोटे परदे पर भाई बहन का किरदार निभाया है…

1. रोहन मेहरा और कांची सिंह

स्टार प्लस पर आने वाला शो ‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’ में नक्ष और गयू यानि कि गायत्री का रोल निभाने वाले रोहन और कांची ने सीरियल में भाई बहन का किरदार निभाया है. और ऑफ स्क्रीन दोनों एक दूसरे को डेट कर रहे हैं. इस जोड़ी को बहुत पसंद किया जाता रहा है.

2. शोएब इब्राहिम और दीपिका कक्कड़

हां पहले तो ‘ससुराल सिमर का’ में शोएब और दीपिका को पति पत्नी के रूप में देखा गया था पर शोएब ने जल्दी ही शो को अलविदा कह दिया था. शो छोड़ने के बाद भी दोनों का प्यार ऑफ-स्क्रीन दिखाई देता रहा है और खबरों में आता रहा है. फिलहाल ये दोनों ही कलाकार ‘नच बलिए 8’ के कंटेन्टेस्ट हैं और जल्द ही स्टार प्लस के नये शो ‘कोई लौट के आया है’, में दोनों भाई-बहन का रोल निभाते नजर आएंगे.

3. किरन कर्माकर और रिंकू धवन

कहानी घर घर की’ में किरन कर्माकर ने ओम का किरदार निभाया था. वहीं रिंकू ने उनकी बहन छाया का किरदार निभाया था. उसी शो के दौरान दोनों में प्यार हुआ और दोनों ने शादी कर ली.

4. अविनाश सचदेव और शलमाली देसाई

अविनाश और शलमाली ने भाई-बहन तो नहीं लेकिन देवर भाभी का रोल प्ले किया था. इस प्यार को क्या नाम दूँ..में जहाँ अविनाश ने श्लोक का मुख्य किरदार निभाया था. वहीं शलमाली ने उनकी भाभी सोजल का रोल प्ले किया था.

5. चारू असोपा और नीरज मालवीय

स्टार प्लस पर आने वाला सीरियल ‘मेरे अँगने में’ प्रीती का किरदार निभाने वाली चारु और उनके भाई अमित का रोल निभाने वाले नीरज एक दूसरे को डेट कर रहे हैं. हालांकि पहले दोनों ने एक दूसरे को डेट करने की खबरों को अफवाह बताया था लेकिन फिर पिछले साल एक दूसरे से सगाई करके सब को चौंका दिया.

“जघन्य अपराध करने वाला कभी नाबालिग नहीं होता”

90 की दशक की मशहूर अभिनेत्रियों में एक नाम अभिनेत्री रवीना टंडन का भी है. ‘पत्थर के फूल’ फिल्म से उन्होंने अभिनय के क्षेत्र में कदम रखा. फिल्म काफी सराही गयी और रवीना को काम मिलने लगा. रवीना हमेशा अलग-अलग किरदार निभाना पसंद करती हैं और उस फिल्म को ही चुनती हैं, जिसमें कुछ चुनौती हो. यही वजह है कि फिल्म चाहे रोमांटिक हो या कॉमेडी हर फिल्म में अपनी अलग इमेज उन्होंने स्थापित किया है.

स्पष्टभाषी रवीना बहुत कम उम्र में दो बेटियों को अपनाकर मां बनीं और अब नानी भी बन चुकी हैं. इसके अलावा रवीना ने फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर अनिल थडानी के साथ शादी की और दो बच्चों की मां बनीं. रवीना को लड़कियों से बहुत प्यार है और उन्हें वह मानव जगत की सबसे अच्छी क्रिएशन मानती हैं. आज भी लड़कियों के साथ भ्रष्टाचार, कन्या भ्रूण हत्या सुनकर उसकी रूह काप उठती है. उनकी फिल्म ‘मातृ-द मदर’ रिलीज पर है उनसे हुई बातचीत के अंश.

इस तरह की संवेदनशील विषय चुनने की वजह क्या है?

मेरी तीन बेटियां है, जिसे लेकर मैं हमेशा चिंतित रहती हूं. जब भी वे कहीं जाती हैं, तो जब तक न लौटे चिंता बनी रहती है. ऐसे माहौल में आज के हर बेटी के माता पिता जिन्दा रहते हैं. अपराध करने वाले को कानून का डर नहीं. ऐसे में मुझे एक मौका मिला है कि मैं अपने अभिनय से लोगों को आत्मचिंतन करने पर मजबूर करूं. इसकी कहानी हमारे आस-पास घटित होने वाली है, जिसके बारें में हम तब तक नहीं सोचते जब तक कि हमारे साथ कुछ हुआ न हो. अभी तक शुगर कोटेड फिल्में दिखाई गयी हैं, ये हार्डकोर फिल्म है.

इस तरह की सीरियस कहानी से आप अपने ऊपर प्रेशर महसूस कर रही हैं?

प्रेशर है, लेकिन ये हकीकत भी तो है. फिल्म एक पारिवारिक फिक्शन ड्रामा है जिसमें एक मध्यम वर्गीय स्कूल टीचर का रेप होता है इसके बाद निराशा जो एक साधारण इंसान को होती है उसे ही दिखाने की कोशिश की गयी है. ये स्टोरी सुनकर मैं दंग रह गयी थी, आज भी ऐसा हो रहा है. जो सब करने के बावजूद उसे न्याय नहीं मिलता. ’क्राइम अगेंस्ट वुमन’ बढ़ता ही जा रहा है और ये कबतक चलेगा, लोग  चुपचाप बैठकर तब तक देखते है जब तक कि दूसरी न घट जाय. पहले वे उस बारें में नहीं सोचते.

फिल्मों के अलावा आपने काफी सामाजिक कार्य भी किये हैं, किस क्षेत्र में और अधिक काम करने की जरुरत है?

ये महिला और बच्चों के साथ अधिक होता है. इसलिए मैंने स्ट्रीट चिल्ड्रेन और महिलाओं के लिए काफी काम किया है, पर उसे सुधरने में अभी 10 साल शायद और लगेंगे. ये किसी के साथ हो सकता है. निराशा, लोगों का रवैया और लॉ मेकर्स की अनदेखी इसमें जिम्मेदार है. 70 साल पुरानी कानून को बदलना चाहिए. लोगों को आज कानून का डर नहीं है. सरकार बदलती है, पर परिवेश में कुछ बदलाव नहीं आता. कब तक हम सहेंगे?

ये फिक्शन फिल्म होने के बावजूद भी अगर किसी को हेल्प हो, तो मेरे लिए सबसे बड़ी सफलता होगी. निर्भया केस में किसी मानसिक बीमार इंसान को लॉ मेकर ने पैसे देकर उसे टेलर बना दिया, कई जगह तो सरकारी नौकरी भी देती है. एक जघन्य अपराध करने वाला व्यक्ति नाबालिग नहीं होता. वह बीमार इंसान है और सारी जिंदगी जेल में रहकर उसे मनोचिकित्सक की सहायता से उसकी चिकित्सा करवानी चाहिए.

ये ‘डार्क’ फिल्म है. सेंसर बोर्ड क्या करेंगे पता नहीं. कठिन चीजें दिखाने की जरुरत है. दक्षिण में हाई प्रोफाइल एक्ट्रेस भी भ्रष्टाचार की शिकार हुई. कर्नाटक के मिनिस्टर ने कहा था कि एक्शन लिया जायेगा. लेकिन कुछ नहीं हुआ. ये शर्मिंदगी है, हमारे नेता अपने राज्य की महिलाओं को प्रोटेक्ट नहीं कर सकते.

क्या आप कभी प्रताड़ित हुई हैं?

ऐसा कभी कुछ नहीं हुआ, क्योंकि मैं उसका जवाब जानती हूं. कई बार ऐसा हुआ है कि कुछ ऐसे फोटोग्राफर्स है, जो ‘लो एंगल’ से तस्वीरे लेते हैं, कितनो को मैंने खुद मना किया है. वे ऐसे मौके ढूंढते है. इस सोच और दिमाग के खोट को बदलने की जरुरत है.

महिलाओं को कोई संदेश देना चाहती हैं?

महिलाओं को भी सतर्क रहने की जरुरत है, आदतें घर से शुरू होती है. मां को सबसे पहले रेस्पेक्ट मिलना चाहिए. शोध बताते है कि ऐसे बच्चे बचपन से निर्दयी होते है. उन्हें किसी का दर्द अच्छा लगता है, तभी से उनका इलाज होना जरुरी है. मैं अपने बेटे को समझाती हूं कि आप अपने क्लास की लड़कियों को रेस्पेक्ट दें, जरुरत पड़े तो सहयोग दें, विटनेस न बने.

25 साल का सफर कैसा रहा? अपने आप में कितना बदलाव महसूस करती हैं?

25 साल में इंडस्ट्री काफी बदली है, हर तरह की फिल्में आज बन रही है, लेकिन मैंने हमेशा अपने टर्म पर जिया है. अभी मेरी सोच बदली है. फिल्में कई बार सफल होती है, कई बार नहीं, पर मैंने उसे कभी सीरियसली नहीं लिया. शादी के बाद लोग मेच्योर होते हैं, मुझे भी अपने व्यक्तित्व के हिसाब से ‘ग्रेसफुल’ किरदार मिले और मैंने किया. मैंने कभी अपने उम्र को छिपाया नहीं.

तरबूज के ब्यूटी सीक्रेट्स से अंजान होंगी आप

गर्मी में हमारे शरीर को सबसे ज्यादा पानी की जरूरत होती है और ऐसे में तरबूज हम सब का फेवरेट होता है. फ्रिज से निकला हुआ ठंडा तरबूज का जूस किसे नहीं पसंद होता है. तरबूज हमारे शरीर में पानी की मात्रा को बैलेंस करके रखता है, लेकिन इसके अलावा क्या आपको पता है कि तरबूज में कई सारे और भी गुण हैं जिससे आप शायद अब तक अनजान होंगी.

तरबूज आपकी सुंदरता को बढ़ाने में मदद करता है. यह एक ऐसा फल है जो गर्मी का सबसे अच्छा एंटीटोड होता है. विटामिन ए और विटामिन सी से युक्त तरबूज आपके स्किन के लिए बहुत जरुरी है. इसके अलावा इसमें पाए जाने वाले एंटीऑक्सीडेंट आपको एजिंग समस्या से कोसों दूर रखता है. इसका उपयोग सनबर्न और ऐसे ही त्वचा की समस्याओं से छुटकारा पाने के लिए किया जा सकता है.

जानें तरबूज के फायदे

तैलीय त्वचा में मददगार

तरबूजे में पाए जाने वाले विटामिन ए की मात्रा स्किन के पोर्स के आकार को कम करता है जिससे त्वचा में बनने वाले तेल की समस्या भी कम हो जाती है.

बेदाग त्वचा के लिए तरबूज फेस पैक

तरबूज का एक चोटा स्लाइस लेकर उसे मैश करें फिर इसमें दही डाल कर अच्छे से मिक्स कर के पेस्ट बना लें. अब इस पैक को चेहरे पर लगा कर 15 मिनट तक रखें. हल्के गुनगुने पानी से चेहरे को धो लें और इसके 10-15 मिनट के बाद कोई अच्छा सा माइल्ड क्लींजर लगाएं.

नेचुरल टोनर

तरबूज का जूस एक नेचुरल टोनर की तरह भी काम करता है. इसमें हल्के मात्रा में पाए जाने वाले एसीडिक गुण आपकी त्वचा को प्राकृतिक रुप से टोन करता है.

एक्ने और पिंपल का सफाया

तरबूज जूस से आप रोज अपने चेहरे को मसाज करें इससे एक्ने और पिंपल खत्म हो जाएगा.

एजिंग स्किन से छुटकारा के लिए तरबूज फेस पैक

एक छोटे बर्तन में एक बड़ा चम्मच तरबूज का जूस और एक बड़ा मैश किया हुआ चम्मच एवोकैडो लें. इन्हें अच्छे से मिक्स करके चेहरे और गर्दन पर लगायें. 15-20 मिनट के बाद इसे ठंडे पानी से धो दें और हल्के हाथों से थपथपा कर साफ तौलिए से सुखा लें.

स्किन को रखे जवां

गर्मी में त्वचा धूप से जलकर डल और बेजान हो जाती है. तरबूज का जूस चेहरे और गर्दन पर लगाएं और अपनी त्वचा को बनाये रखें जवां.

क्लीयर स्किन

तरबूज में 93 प्रतिशत तक पानी पाया जाता है. ये चेहरे के स्किन के अंदर से सारी गंदगियों को बाहर निकालने में काफी मददगार होता है. क्लीयर औऱ फ्रेश स्किन पाने के लिए रोजाना इसके जूस का सेवन करें.

एक्ने फ्री स्किन के लिए तरबूज का फेस पैक

एक बड़े चम्मच तरबूज जूस में एक बड़ा चम्मच मैश किया हुआ केला मिलाएं. इसे अच्छे से मिक्स करने के बाद गर्दन और चेहरे पर लगायें. 20 मिनट के बाद इसे हल्के गुनगुने पानी से धो दें.

दिल्ली का दिल देखो

देश की राजधानी दिल्ली में यों तो घूमने के लिए हर मिजाज के पर्यटन के ठिकाने हैं लेकिन कनाट प्लेस, जनपथ और पालिका बाजार आ कर ही दिल्ली की आबोहवा का सही सही अंदाजा लग पाता है. यहां का खानापीना, खरीदारी और आधुनिक माहौल इसे पर्यटन के लिए सब से दिलचस्प जगह बनाता है.

राष्ट्रपति भवन के समीप बना संसद भवन देश की राजनीति का केंद्रबिंदु है. लालकिला का आर्किटैक्चर इतना आकर्षक है कि यह आज भी पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता है.

संरचना में ब्रिटिशकाल की याद दिलाता कनाट प्लेस दिल्ली का सब से आधुनिक व आकर्षक बाजार माना जाता है.

जंतरमंतर खगोल विज्ञान में रुचि रखने वाले पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र है. ऐतिहासिक इमारतों में दिल्ली की कुतुबमीनार विशेष रूप से उल्लेखनीय है. राजस्थान के मकराना संगमरमर से कमल के फूल के आकार में बने लोटस टैंपल की भव्यता देखते ही बनती है.

कनाट प्लेस का अत्याधुनिक वातावरण और ऊंचीऊंची इमारतें पर्यटकों को लुभाती हैं.  पूरी तरह से वातानुकूलित अंडरग्राउंड पालिका बाजार में विदेशी पर्यटक खूब खरीदारी करते हैं. खानपान और खरीदारी के लिए चांदनी चौक का बाजार अति उत्तम है. कनाट प्लेस के भीड़भरे माहौल में खरीदारी के वक्त पौकेटमारों से जरा सावधान रहें.

दिल्ली घूमने आए हैं तो क्या देखेंगे? लालकिला, इंडिया गेट, कुतुबमीनार, पुराना किला, लोटस टैंपल, जंतरमंतर या फिर जामा मसजिद? सब देख सकते हैं, इन सभी जगहों तक जाने के लिए दिल्ली के किसी भी कोने से आटो, कैब या बस आप को मिल जाएंगे. आटो या कैब 100 से 250 रुपए के बजट में आप को घंटे दोघंटे समय के अंतराल में पहुंचा देंगे.

दिल्ली के राजपथ पर स्थित इंडिया गेट को दिल्ली का सिग्नेचर मार्क भी कह सकते हैं. इस का निर्माण प्रथम विश्व युद्ध और अफगान युद्ध में मारे गए 90 हजार भारतीय सैनिकों की स्मृति में कराया गया था. 160 फुट ऊंचा इंडिया गेट देखते ही बनता है. जिन सैनिकों की याद में यह बनाया गया था उन के नाम इस इमारत पर अंकित हैं. इस के अंदर अखंड अमर जवान ज्योति भी जलती रहती है.

इस के पास में ही संसद भवन और राष्ट्रपति भवन हैं जहां का मुगल गार्डन उम्दा स्थान है पर्यटन के लिए. राष्ट्रपति भवन का मुगल गार्डन कुछ दिनों के लिए खुलता है पर्यटकों के लिए, खासतौर से नएनए किस्म के फूलों की प्रजाति में दिलचस्पी रखने वालों के लिए. लगभग डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर मंडी हाउस है. कलाप्रेमियों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के शौकीन पर्यटकों के लिए यह माकूल जगह है.

पुराने किले में पुराने खंडहर हैं और बोटक्लब है जहां सैलानी अपने परिवार के साथ नौकायन का आनंद उठाते हैं. इस में प्रवेश करने के 3 दरवाजे हैं. हुमायूं दरवाजा, तलकी दरवाजा और बड़ा दरवाजा. वर्तमान में सिर्फ बड़ा दरवाजा ही प्रयोग में लाया जाता है.

लालकिला यानी रेड फोर्ट पुरानी दिल्ली इलाके में स्थित है. मुगल शासक शाहजहां ने 17वीं सदी में इस लालकिले का निर्माण कराया था. इस का आर्किटैक्चर इतना आकर्षक है कि यह आज भी पुरानी दिल्ली के सब से ज्यादा लोकप्रिय पर्यटन स्थलों में से एक बना हुआ है.

कनाट प्लेस से 5 मिनट की पैदल दूरी पर जंतरमंतर है. जंतरमंतर की बात करें तो यह जंतरमंतर समरकंद की वेधशाला से प्रेरित है. ग्रहों की गति नापने के लिए यहां विभिन्न प्रकार के उपकरण लगाए गए हैं. यहां बना सम्राट यंत्र सूर्य की सहायता से समय और ग्रहों की स्थिति की सूचना देता है. यह राजीव चौक के नजदीक ही है. एक बार देखा जा सकता है. 

दिल्ली में कुतुबमीनार को देख कर पीसा की झुकी हुई मीनार का चित्र उभर कर सामने आ जाता है. यह मीनार मूल रूप से सातमंजिला थी पर अब यह पांचमंजिल की ही रह गई है. इस मीनार की कुल ऊंचाई 72.5 मीटर है और इस में 379 सीढि़यां हैं. परिसर में और भी कई इमारतें हैं जो अपने ऐतिहासिक महत्त्व व वास्तुकला से सैलानियों का मन मोह लेती हैं.

लोटस टैंपल की शानदार व कलाकृत बनावट और यहां का शांतिपूर्ण माहौल इसे एक बार देखने लायक जगह बनाता है. बाहर से आने वाले दिल्ली में इन जगहों का दीदार एक बार तो जरूर करते हैं लेकिन जो बारबार दिल्ली आते हैं और नई जगहों में घूम कर अपना समय बिताना पसंद करते हैं तो उन को कुछ नया आजमाना चाहिए. वैसे भी इन तमाम जगहों में जा कर देखिए, बमुश्किल 2 घंटे में ही बोर हो जाएंगे. देखने के लिए ज्यादा कुछ नहीं होता जबकि घूमने आए हैं तो कम से कम ऐसी जगह होनी चाहिए जहां पूरा दिन खातेपीते, घूमतेफिरते और खरीदारी करते हुए अच्छे से बिताया जा सके.

दिल्ली में घुमक्कड़ों के लिए सिर्फ स्मारक और म्यूजियम ही नहीं हैं बल्कि मौजमस्ती, शौपिंग, इंटरटेनमैंट के साथ खानाखजाना के बेपनाह विकल्प जहां मौजूद हैं. वे विकल्प हैं कनाट प्लेस, जनपथ, पालिका बाजार और चांदनी चौक आदि.

राजीव चौक की सैर

पहले बात करते हैं दिल्ली के कनाट प्लेस की. कनाट प्लेस में 2 सर्कल हैं. इनर सर्कल और आउटर सर्कल. इनर सर्कल में ए से एफ ब्लौक आते हैं जबकि आउटर सर्कल में जी से पी तक के ब्लौक आते हैं. कोलोनियल आर्किटैक्ट शैली में बना कनाट प्लेस ब्रिटिशकाल की याद दिलाता है.

चहलपहल, भीड़ और फुटपाथ पर बिकते हस्तकला की वस्तुएं, पोस्टर्स, राजस्थानी कारीगरी के पर्स, थैलियां और कारपेट्स, बुद्धा की मूर्तियां मोनैस्ट्री सा माहौल रचती हैं. सरकार द्वारा संचालित सैंट्रल कौटेज एंपोरियम से सोवेनियर ले सकते हैं क्योंकि यहां कीमतें तय होती हैं.

शौपिंग व खानापीना

राजीव चौक मैट्रो स्टेशन के ठीक ऊपर बना सैंट्रल पार्क युवाओं के लिए हैंगआउट करने या किसी वर्कशौप में हिस्सा लेने, डिबेट या म्यूजिकल परफौर्मेंसेज अटैंड करने के लिए बैस्ट औप्शन है. यहां अकसर प्रेमी युगल वक्त बिताते साथसाथ देखे जा सकते हैं. दिल्ली के बीचोंबीच कहीं अगर पिकनिक मनाने की जगह हो सकती है तो वह सैंट्रल पार्क ही है.

बात खरीदारी की करें तो दिल्ली के इस केंद्रबिंदु में सभी देसी विदेशी ब्रैंड्स के शोरूम तो हैं ही साथ ही, अंडरग्राउंड पालिका बाजार भी है जो पूरी तरह से वातानुकूलित है. कनाट प्लेस में हर ब्रैंड तो मिलता है, साथ में खानपान के सब फास्ट फूड चैन्स, कौफी शौप्स और मनोरंजन के लिए सिनेमाहौल (रिवोली, ओडियन, प्लाजा, रीगल) के भी कई औप्शन हैं.

इतना ही नहीं, नई दिल्ली स्टेशन यहां से 5 मिनट की दूरी पर ही है. यहां मैट्रो और आटो

से आसानी से पहुंचा जा सकता है. एम ब्लौक में एचएनएम ब्रैंड का शोरूम भी खुल गया है जो भारत में मुंबई और दिल्ली समेत गिनती की जगहों में ही है. अगर यहां से खरीदारी का इरादा है तो कर लीजिए और फिर एच ब्लौक पर रुक कर निजाम के फेमस काठी कबाब का मजा लीजिए. फिर ब्लौक एफ का चायोस कैफे भी है जहां की कुल्हड़ वाली चाय का मजा ले सकते हैं. पीवीआर रिवोली सिनेमाघर से सटे कौफी हाउस में घंटों बैठिए और कौफी के साथ कलाप्रेमियों के साथ नौस्टाल्जिक हो जाइए. बहुत सस्ती और टाइमपास जगह है यह.

इनर सर्कल पर सस्ते रेस्तरां और होटल भी हैं. मसलन, ओडियन और प्लाजा सिनेमाहौल्स के बीच बने रेस्तरां में नौर्थ इंडियन खाना अच्छा और सस्ता मिलता है. यहां आएं तो दक्षिण भारतीय खाने के शौकीन सवर्णा भवन का खाना जरूर चखें और नौनवेज के शौकीनों के लिए पिंडब्लूची अच्छा विकल्प है. इस के अलावा भी मीडियम बजट के रेस्तरां मसलन हीरा स्वीट, हल्दीराम, बीकानेर जैसे खाने के ठिकाने भी मौजूद हैं.

रंगीन व पौकेटफ्रैंडली 

कनाट प्लेस सिर्फ खानेपीने, पब, बार और शौपिंग के लिए ही नहीं, बल्कि यह जगह कई अहम फाइनैंशियल, बिजनैस और कमर्शियल दफ्तरों के लिए लोगों के विजिट करने का कारण बनती है. विदेशी सैलानियों के रुकने के लिए यह सब से पहली पसंद है क्योंकि यहां टू स्टार्स से ले कर फाइव स्टार्स होटल के तमाम विकल्प मौजूद हैं. 

यहां का माहौल पुरानी दिल्ली से एकदम उलट है. जिन्होंने पुरानी दिल्ली का माहौल देखा है वे जानते हैं कि वहां काफी गंदगी, पुरानी शैली की दुकानें और माहौल काफी स्ट्रैसभरा है जबकि कनाट प्लेस में फैशनेबल क्राउड, ब्रैंडेड रंगीन शोरूम्स, एलीट कैफे और रूफटौप रेस्तरां वैस्टर्न कंट्री के किसी मेनहेटननुमा स्ट्रीट मार्केट की याद दिला देता है. 360 डिगरी पार्किंग सुविधा है यहां. इसलिए चाहे अपनी गाड़ी से आएं या मैट्रो से, ट्रांसपोर्टिंग कनैक्टिविटी यहां सब से बेहतर है.

पालिका बाजार

पालिका बाजार की बात करें तो 70 के दशक में बनी अंडरग्राउंड सैंट्रलाइज्ड एसी से लैस इस मार्केट की बात ही अलग है. युवाओं की बजट शौपिंग का यह मनपसंद अड्डा है. सस्ता सामान जिन में कपड़े, जींस, शर्ट, बैग्स, मोबाइल एक्सेसरीज, पर्स, बैल्ट, जैकेट, जूते, कैमरा, वीडियो गेम्स आदि इफरात से कम से कम दामों में मिल जाते हैं.

हां, याद रखें पालिका बाजार, जनपथ और फुटपाथ में ब्रैंडेड कुछ नहीं मिलता. इसलिए बहकावे में न आएं. पालिका बाजार में तो लाइट इस तरह से लगी होती हैं कि सामान का रंग अच्छा दिखता है लेकिन बाद में कुछ और निकलता है. 

पुरानी दिल्ली की रौनक

दिल्ली में इस के अलावा पुरानी दिल्ली का चांदनी चौक इलाका भी कम आकर्षक नहीं है. असली दिल्ली की तसवीर तो यहीं दिखती है. यह जगह भी खानेपीने और खरीदारी का पुराना अड्डा है.

यहां की परांठे वाली गली में तो जवाहरलाल नेहरू से ले कर अक्षय कुमार जैसी हर हस्ती डेरा डाल चुकी है. दिल्ली के पुराने इलाके को समझने के लिए यह सब से मुफीद जगह है.

दिल्ली के चांदनी चौक से शादी के लिए परफैक्ट शौपिंग की जा सकती है. यहां आप को डिजाइनर साड़ी और लहंगे के अच्छे कलैक्शन मिल जाएंगे. थोक में ड्रैस मैटीरियल भी यहां अच्छे दामों में मिलते हैं. पुरानी दिल्ली मैट्रो स्टेशन से उतर कर यहां पैदल जाया जा सकता है. पास में ही जामा मसजिद, लालकिला, जैन मंदिर और गुरुद्वारे भी हैं. यहां से सदर बाजार भी जाया जा सकता है.

कुल मिला कर दिल्ली दिनबदिन रंगीन और दिलचस्प होती जा रही है. हर मजहब, संस्कृति और मिजाज के दिलचस्प नजारों का लुत्फ अगर आप भी उठाना चाहते हैं तो चले आइए दिलवालों के इस खूबसूरत शहर में.

सस्ती शौपिंग

कनाट प्लेस के इनर सर्किल में लगभग सभी अंतर्राष्ट्रीय ब्रैंड के कपड़ों के शोरूम, बेशुमार रैस्टोरैंट, कैफे और बार हैं. पास में ही जनपथ बाजार भी है जहां कई तरह का हैंडीक्राफ्ट मैटीरियल, एंटीक शोपीस और स्ट्रीट शौपिंग का सामान मिल जाता है. यहां की दुकानें बड़ी व्यवस्थित हैं.

ब्लौक ए की वेंगर्स काफी पुरानी बेकरी शौप है जहां उम्दा गुणवत्ता की पेस्ट्रीज, बेकरीज और ब्रैड लेने के लिए लोग काफी दूर से आते हैं. और हां, ब्लौक ई में यूनाइटेड कौफी हाउस में साउथ इंडियन फिल्टर्ड कौफी न पी, तो क्या पिया.

चांदनी चौक के चटखारे

ज्ञानी की कुल्फी, फालूदा से ले कर परांठे वाली गली के परांठे, नटराज की भल्लेपापड़ी, जलेबी और चाटकचौड़ी के लिए दिल्ली का सब से हौट अड्डा है चांदनी चौक. 

दीपिका को है ‘बाजीराव मस्तानी’ करने का अफसोस!

बॉलीवुड में चर्चाएं गर्म हैं कि क्या दीपिका पादुकोण के मन में संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘‘बाजीराव मस्तानी’’ करने का अफसोस है? इस तरह की चर्चाओं के पीछे मूल वजह यह है कि जब से दीपिका पादुकोण ने संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘‘बाजीराव मस्तानी’’ की है, तब से उनके करियर में ग्रहण सा लग गया है. उनके सितारे गर्दिश में चल रहे हैं.

सूत्रों की माने तो ‘‘बाजीराव मस्तानी’’ की शूटिंग के दौरान दीपिका पादुकोण और प्रियंका चोपड़ा के बीच तनातनी हो गयी थी. उसी वक्त दीपिका पादुकोण ने प्रियंका चोपड़ा को मात देने के लिए हॉलीवुड फिल्म से जुड़ने का मन बनाते हुए विन डीजल के संग फिल्म ‘एक्स एक्स एक्स..’ अनुबंधित की थी.

‘बाजीराव मस्तानी’ के प्रदर्शन के बाद फिल्म की तारीफ हुई, मगर दीपिका पादुकोण को कोई अन्य बॉलीवुड फिल्म नहीं मिली. ऐसे में बॉलीवुड से जुड़े रहने के लिए दीपिका पादुकोण ने संजय लीला भंसाली की नई फिल्म ‘‘पद्मावती’’ अनुबंधित कर ली, जिसमें उनके साथ रणवीर सिंह और शाहिद कपूर हैं.

जबकि सूत्रों का दावा है कि दीपिका पादुकोण ने ‘बाजीराव मस्तानी’ की शूटिंग खत्म होने पर संजय लीला भंसाली से ही कहा था कि वह रणवीर सिंह के साथ दूसरी फिल्म नहीं करना चाहती. खैर, दीपिका पादुकोण फिल्म ‘पद्मावती’ का हिस्सा हैं, मगर इस फिल्म के साथ जो कुछ हो रहा है, उससे संजय लीला भंसाली के साथ ही पूरी युनिट परेशान है. सभी यही कह रहे हैं कि पता नहीं किसके सितारे गर्दिश में हैं, जिसका खामियाजा फिल्म ‘पद्मावती’ को भुगतना पड़ रहा है.

कहने का अर्थ यह है कि दीपिका पादुकोण के करियर की गाड़ी आगे नहीं बढ़ पा रही है. विन डीजल के संग उनकी हॉलीवुड फिल्म ‘एक्स एक्स एक्स….’ ने भारत सहित विदेशों में भी बॉक्स ऑफिस पर पानी नहीं मांगा. इस फिल्म के बुरी तरह से असफल होने के बाद दीपिका पादुकोण का हॉलीवुड फिल्मों में करियर अपने आप ध्वस्त हो गया.

उसके बाद से बॉलीवुड की फिल्में हथियाने के दीपिका पादुकोण के सारे हथकंडे विफल ही हो रहे हैं. यहां तक की दीपिका पादुकोण ने ईरानियन फिल्मकार मजीद मजीदी की फिल्म ‘‘बियांड द क्लाउड्स’’ के लिए स्क्रीन टेस्ट तक दिया, मगर यह फिल्म भी उन्हें नहीं मिली.

मजीद मजीदी का दावा है कि दीपिका पादुकोण ने स्क्रीन टेस्ट दिया था, मगर हालात ऐसे नहीं थे कि वह दीपिका पादुकोण को अपनी फिल्म का हिस्सा बनाते. अब फिल्मकार मजीद मजीदी के इस बयान के क्या मायने हैं यह मजीद मजीदी और दीपिका पादुकोण के अलावा कोई नहीं बता सकता.

दीपिका पादुकोण के सितारे भले ही गर्दिश में हों, मगर उनकी पीआर टीम उन्हें खबरों में बनाए रखने का काम भलीभांति करती आ रही है. इसके लिए पीआर टीम ने कई तरह की अफवाहनुमा खबरों को भी प्रमुखता दिलायी. मगर इसका भी कोई फायदा नहीं हुआ.

लगभग दो माह पहले दीपिका पादुकोण की तरफ से ही खबर आयी कि वह शाहरुख खान के साथ फिल्म कर रही हैं, जिसके निर्देशक आनंद एल राय हैं. इस खबर की पुष्टि दीपिका पादुकोण या शाहरुख खान या आनंद एल राय ने आज तक नहीं की.

मगर कुछ दिनों से मुंबई के अंग्रेजी अखबारों में खबरें छप रही हैं कि ‘पद्मावती’ की वजह से दीपिका ने शाहरुख खान के साथ वाली फिल्म छोड़ दी. मजेदार बात यह है कि अभी तक यह तय नहीं हुआ है कि आनंद एल राय अपनी शाहरुख खान वाली फिल्म कब शुरू करेंगे?

इतना ही नहीं एक अंग्रेजी अखबार का दावा है कि दीपिका पादुकोण ने रणवीर सिंह के इशारे पर शाहरुख खान के साथ वाली आनंद एल राय की फिल्म छोड़ दी है. पर अभी भी आनंद एल राय चुप हैं. इस खबर को लेकर दीपिका पादुकोण का कोई आधिकारिक बयान नहीं आया. यानी कि दीपिका पादुकोण का आनंद एल राय की फिल्म करना और अब उसे छोड़ देना दोनों ही खबरें महज अफवाह हैं?

पर अब बॉलीवुड में चर्चाएं गर्म हैं कि जिस फिल्म को दीपिका पादुकोण ने अनुबंधित ही नहीं किया था,उसे छोड़ने की खबर फैलाकर वह किसे क्या संदेश देना चाहती हैं?

सूत्रों की मानें तो एक ज्योतिषी की सलाह पर दीपिका पादुकोण अपने परिवार के साथ उत्तराखंड में रिषिकेश जाकर गंगा आरती की और पूजा व हवन वगैरह भी किया. मगर इसका भी उन्हें कोई फायदा मिलता नजर नहीं आ रहा है.

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