“शाहरुख जैसे हैं विन डीजल”

अभिनेत्री दीपिका पादुकोण ने अपनी पहली हॉलीवुड फिल्म ‘एक्सएक्सएक्स: रिटर्न ऑफ जेंडर केज’ के अपने सहकलाकार अभिनेता विन डीजल की तारीफ करते हुए उन्हें अपने परिवार के सदस्य जैसा बताया है.

दीपिका ने फिल्म की शूटिंग के दौरान डीजल और उनकी बहन समांथा से हुई अपनी दोस्ती का जिक्र करते हुए कहा कि वह जब भी लॉस एंजिलिस में होती हैं, डीजल को सबसे पहले फोन करती हैं.

दीपिका ने कहा ‘जब मैंने यहां काम करना शुरू किया था तब मेरे लिए जैसे शाहरुख और फराह थे, डीजल और उनकी बहन समांथा मेरे लिए वैसे ही हैं. वे परिवार की तरह हैं.’

दीपिका पादुकोण ने फराह खान निर्देशित ‘ओम शांति ओम’ फिल्म से फिल्मी दुनिया में कदम रखा था जिसमें उनके साथ शाहरुख मुख्य भूमिका में थे. दीपिका की अब भी दोनों से गहरी दोस्ती है.

ट्रिपल धमाके को तैयार हैं सुपरस्टार रजनीकांत

सुपरस्टार रजनीकांत जल्द ही साल 2010 में आई फिल्म ‘रोबोट’ के सीक्वल ‘2.0’ में नजर आने वाले हैं. रोबोट में अपने डबल रोल से डबल धमाके किए हैं और अब वह अपने ट्रिपल रोल से ट्रिपल धमाका करने को तैयार हैं. जी हां, फिल्म ‘2.0’ में रजनीकांत ट्रिपल रोल में नजर आने वाले हैं.

फिल्म में रजनीकांत पहले पार्ट की तरह वैज्ञानिक और रोबोट के रोल में नजर आएंगे, लेकिन तीसरे रोल में वह एक बैडमैन के रोल में नजर आएंगे. बता दें कि इस फिल्म में रजनीकांत के साथ अक्षय कुमार लीड रोल में हैं. फिल्म में अक्षय एक विलेन के रोल में नजर आने वाले हैं.

फिल्म में अक्षय का लुक एक कौवे जैसा है. फिल्म के डायरेक्टर एस शंकर ने फिल्म की शूटिंग लगभग खत्म कर दी है. ए आर रहमान ने फिल्म में म्यूजिक दिया है, लेकिन फिल्म में कितने गाने हैं इसके बारे में अभी कोई जानकारी नहीं है.

एस शंकर द्वारा निर्देशित इस फिल्म में रजनीकांत, अक्षय के अलावा एमी जैकसन लीड रोल में है. फिल्म 20 नवंबर को रिलीज होगी.

23 किस ही नहीं 21 थप्पड़ भी खाए

अभी तक फिल्म ‘बेफिक्रे’ में रणवीर सिंह और वाणी कपूर के बीच जो 23 किस हैं, उन्हीं की चर्चा सुनने को मिली है. लेकिन आपको जानकार हैरानी होगी कि रणवीर ने ‘बेफिक्रे’ में सिर्फ 23 लिपलॉक ही नहीं दिए हैं, बल्कि 21 थप्पड़ भी खाए हैं.

दरअसल, रणवीर को ‘बेफिक्रे’ के टाइटल सॉन्ग ‘उड़े दिल बेफिक्रे…’ में एक उदास और आलसी शख्स की भूमिका निभानी थी. उन्हें गले में एक बोर्ड लटका कर बैठना था, जिस पर लिखा है कि काम करने में बहुत आलस आता है, इसलिए मुंह पर कहीं भी 2 थप्पड़ मारिए और एक यूरो दीजिए.

अब रणवीर को किरदार में घुसने के लिए उदास होना था. लेकिन काफी कोशिश के करने के बाद भी रणवीर के चेहरे पर वो दुखी होने वाले भाव आ ही नहीं पा रहे थे. ऐसे में रणवीर को एक आइडिया आया.

रणवीर ने शूटिंग में मौजूद 21 क्रू-मेंबर्स से कहा कि वो उसे एक-एक करके थप्पड़ मारें, ताकि उनके चेहरे के भाव बदल सकें. फिर क्या था क्रू-मेंबर्स ने रणवीर के चेहरे पर एक-एक करके 21 थप्पड़ मारे. रणवीर इस दौरान कह रहे थे ‘और तेज मारो…!’ आखिरकार रणवीर के चेहरे पर वो भाव आ गए, जिनकी डायरेक्टर को तलाश थी.

एक्टिंग छोड़ राजनीति में करियर बनाएंगे फवाद खान!

फवाद खान भारत छोड़कर अपने देश पाकिस्तान क्या गए उन्हें नए नए ऑफर आने शुरू हो गए. और इस बार उन्हें किसी फिल्म का ऑफर नहीं बल्कि राजनीति में आने का ऑफर मिला है. जी हां. खबरों की मानें तो फवाद खान पाकिस्तान की राजनीति में कदम रख सकते हैं.

सूत्रों की मानें तो फवाद को पूर्व क्रिकेर इमरान खान ने उनकी पार्टी तहरीक-ए-इंसाफ को जॉइन करने के लिए अप्रोच किया है. इमरान का मानना है फवाद खान की पॉपुलैरिटी इतनी है कि उन्हें बहुत वोट मिल सकते हैं.

यही नहीं, भारत में पाकिस्तानी एक्टर के बैन होने के कारण लोग उनके लिए और भी ज्यादा संवेदनशील रहेंगे. अब सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या फवाद इमरान के इस ऑफर को स्वीकार कर लेंगे. अगर हां, तो क्या राजनीति में आने के बाद फवाद एक्टिंग छोड़ देंगे?

आपको बता दें कि फिल्म ऐ दिल है मुश्किल में कैमियो करने पर उरी हमले के बाद फवाद खान के खिलाफ काफी बवाल हुआ था. इसके बाद फवाद भारत छोड़ पाकिस्तान चले गए.

पहले तो औरतों की इज्जत करना सीखो

अमेरिका में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार डौनल्ड ट्रंप का एक वीडियो, जो 2005 में लिया गया था, आजकल धड़ल्ले से चल रहा है. इस वीडियो में ट्रंप बड़े फक्र से कहता है कि उस ने कितनी ही विवाहित औरतों से सैक्स संबंध बनाए हैं. उस की भाषा में जननांगों तक का जिक्र है. वह बड़े फक्र से कहता है कि अगर आप के पास पैसा व नाम है तो औरतें आसानी से ऐसा करने देती हैं.

2005 में यह हिस्सा टैलीविजन कार्यक्रम में नहीं दिखाया गया था. अब इस ने हंगामा मचा दिया है. हालांकि डौनल्ड ट्रंप इस पर सफाई दिए बिना राष्ट्रपति पद के लिए रेस में बने रहने पर अड़ा हुआ है. उस ने अपने गलत बयान पर माफी तो मांगी थी पर साथ ही यह भी जोड़ कर राष्ट्रपति चुनाव की गरिमा को और खराब कर दिया कि हिलेरी क्लिंटन के पति बिल क्लिंटन तो इस से भी बुरा काम कर चुके हैं.

जनता इसे गलती या माफी मानेगी, यह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अमेरिकी समाज में आजकल ऐसे सिरफिरों की कमी नहीं है, जो दुनिया भर में फैल रहे आतंक और चीन व रूस की धमकियों का मुकाबला करने के लिए एक मर्द को राष्ट्रपति पद देना चाहते हैं. वे भूल रहे हैं कि इंदिरा गांधी ने 1971 बांग्लादेश मामले में पाकिस्तान पर और मार्गरेट थैचर ने 1982 में फाकलैंड युद्ध में अर्जेंटाइना पर बिना मर्द हुए विजय पाई थी.

लड़ाई में सही फैसले काम आते हैं, सर्वोच्च नेता का बड़बोलापन या उस की औरतों के प्रति मर्दानगी नहीं. चुनाव में उसी व्यक्ति को उतरना चाहिए, जो देश के हर वर्ग को बराबर का आदर दे और अपनी जबान पर नियंत्रण कर सके. अमेरिकी समाज में ढीले राष्ट्रपतियों की कमी नहीं रही है, चाहे बाद में उन के चरित्र के ढीलेपन को उन के उल्लेखनीय कामों के बीच छिपा दिया गया हो.

यह अफसोस की बात है कि नेता बनने की इच्छा रखने वाले मर्द भी औरतों को हेय दृष्टि से देखने से बाज नहीं आते. औरतों के प्रति लगभग हर समाज में इस प्रकार की भावना मौजूद है कि वे न केवल कमजोर हैं, पैर की जूती हैं, ऊंचे पदों के लायक नहीं हैं और साथ ही जो चाहे जब चाहे उन्हें लिटा कर अपनी मनमानी कर सकता है.

यह भावना अगर कूटकूट कर पुरुषों में भरी है तो इस का बड़ा कारण धर्म है, जो अपने भगवानों व देवताओं के खिलाफ अपने ही ग्रंथों में लिखे सही शब्दों तक को दोहराने पर घबरा कर कहने वाले का मुंह बंद कर देता है पर आधी आबादी को उस धर्म को मानने में कोई एतराज नहीं है.

भारत में ही या पश्चिमी एशिया में औरतों को कहीं भी धर्म से आदरसम्मान नहीं मिलता. उन्हें हर धर्म की लड़ाई में कुरबान कर दिया जाता है. धर्म ही उन पर उन दोषों के लिए जिम्मेदारी थोपता है जो मर्दों के कारण हुई हों. पति से बाहर सैक्स, बलात्कार, छेड़छाड़, देह व्यापार आदि में दोषी कभी भी पुरुष नहीं होते, हमेशा औरतें ही होती हैं.

डौनल्ड ट्रंप भी इसी विश्वास पर लड़ रहा है कि न केवल अमेरिका के मर्द, उन मर्दों की गुलाम सी उन की पत्नियां, बहनें, बेटियां, मांएं एक उस व्यक्ति को वोट दिलवा देंगे जो औरतों का आदर करना नहीं जानता और उन्हें केवल अपने सैक्स सुख का गुलाम मानता है.

तुम नहीं तो कुछ भी नहीं

‘मैं ने तो तुम से हमेशा ही मुहब्बत की है, तुम्हारे मना करने से हकीकत नहीं बदलेगी…’ पतिपत्नी का रिश्ता कुछ इस तरह का हो तो ही संबंध लंबे समय तक खुशनुमा रह सकते हैं. पतिपत्नी में विवाद होने पर भी मुहब्बत और निर्भरता कम नहीं होती. ‘तुम ने मेरे लिए क्या किया?’ या ‘तुम ने मेरे साथ ऐसे क्यों किया?’ कहने से पतिपत्नी का प्यार कम नहीं होता.

अफसोस यह है कि आज पतिपत्नी के बीच तर्क व शिक्षा के सीमेंट के पुल बनने के बाद भी उन तत्त्वों की कमी नहीं है, जो पुलों में मोटे छेद बनाने में लगे हैं और जिन में फंस कर पतिपत्नी एक की मुहब्बत को नकार कर शून्य बना देते हैं. औरतों की सुरक्षा और उन के सशक्तीकरण के नाम पर बन रहे कानून और पहले के बने कानूनों का फैलता दायरा पतिपत्नी के संभावित प्रगाढ़ प्रेम की सीमेंट को रेतीला बना रहा है.

आज के युग में कोई लड़का खुद को लड़की पर नहीं थोपता और न ही लड़की लड़के के गले में बंदूक की नाल के बल पर बांधी जाती है. हर विवाह खुशियों का जखीरा होता है जिस में पूरा परिवार शामिल होता है. हैसियत से ज्यादा खर्च किया जाता है और वर वधू को यह एहसास दिलाया जाता है कि उन के बंधन को हमेशा तरोताजा देखने में कितने लोग उत्सुक हैं. फिर भी उन मामलों की कमी नहीं है जिन में लाल या कढ़े हुए जोड़ों में चमचमाती लड़कियां कुछ दिनों के बाद अदालतों में काले कोटों के बीच या पुलिस स्टेशनों में खाकी वरदियों के बीच दिखने लगती हैं.

पतिपत्नी का संबंध असल में तो कुछ ऐसा है-

‘हमारा अंदाज कुछ ऐसा है, जब हम बोलते हैं तो फुहारों की तरह बरस जाते हैं

और जब चुप रहते हैं तो सन्नाटे से वे तरस जाते हैं…’

पर कानून उस बरसने को तूफान बना रहा है और चुप्पी को जीवनपर्यंत की सजा दे रहा है. यह अफसोस है कि जिस कानून को संबंधों को मजबूत करना था, विवादों को हल करना था, समस्याओं को दूर करने की कोशिश करना था, हदों की लाइनें खींचना था वह अब सिर्फ और सिर्फ अलग रहना सिखा रहा है.

‘किसी के साथ हमेशा रहना चाहते हो, तो उस से थोड़ा दूरदूर रहो’ को बदल कर औरतों की सुरक्षा के कानूनों ने ‘किसी के साथ हमेशा रहना आखिर क्यों जरूरी है, उस से सदा के लिए दूर रहो’ बना डाला है.

कठिनाई यह है कि देश के विकास के नारों और गौरक्षा, सीमा रक्षा, नौकरी रक्षा में उलझे नेताओं को परिवार रक्षा का खयाल तक नहीं है और उन्हें नहीं मालूम कि किस तरह पतिपत्नी अलगाव के बाद एक दुखी व तनाव की जिंदगी जीते हैं. जिस कठिनाई को वे पहले असहनीय मानते थे उस से वे उस आग में कूद जाते हैं, जो पूरे जीवन को राख बना देती है. अफसोस यह आग कानून हमेशा जलाए ही नहीं रखता, हर गली के कोने पर इस का अलाव रख दिया गया है.

‘जो ले जाओ (ए कानून) मेरी नींद सुखचैन उफ भी कैसे करेंगे हम,

अब तो ख्वाब भी गए, चैन भी गया

जीने को जिंदा लाश बची है और बस तनहाई साथ में है…’

म्युचुअल फंड के बदले लीजिए लोन

म्युचुअल फंड में अगर आप पहले से इन्वेस्ट कर रही हैं तो यह निवेश आपके लिए बड़े काम का हो सकता है. बैंक और कई एनबीएफसी कंपनियां आपको म्युचुअल फंड में निवेश किए गए पैसों पर लोन देते हैं, जिस पर काफी कम ब्याज लगता है. ऐसे में आप लोन लेकर घर का रेनोवेशन, नए घर की बुकिंग या फिर ऑटो लोन लेने के लिए डाउन पेमेंट कर सकती हैं.

कैसे मिलता है म्युचुअल फंड पर लोन

म्युचुअल फंड में किए गए निवेश के बदले अधिकतर बैंक और एनबीएफसी कंपनियां लोन देती हैं. रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) की गाइडलाइंस के अनुसार, आपको इस प्रकार का लोन लेने के लिए बैंक या फाइनेंस कंपनी के पास अपनी म्युचुअल फंड यूनिट्स को गिरवी रखना पड़ेगा. यूनिट्स के एनएवी के आधार पर आपको लोन मिलेगा. इसके लिए बैंक या कंपनी आपके द्वारा लिए गए यूनिट्स पर लिन मार्क कर देगी. बैंक या कंपनी आपको एक साल तक के लिए लोन देगा, जो आपको इसी पीरियड में चुकाना होगा.

कितना लगता है इंटरेस्ट

अगर आप पर्सनल लोन की बजाए इक्विटी म्युचुअल फंड पर लोन लेती हैं तो वे आपसे पर्सनल लोन से बहुत कम इंटरेस्ट चार्ज करते हैं. सेबी और आरबीआई की गाइडलाइंस के अनुसार बैंक आपसे 10-18 फीसदी के बीच इंटरेस्ट चार्ज कर सकते हैं. बैंक और एनबीएफसी कंपनियां लोन अमाउंट, फंड में मौजूद यूनिट्स की एनएवी और आपके द्वारा पहले लिए गए किसी लोन की रिपेमेंट हिस्टरी को देखकर इंटरेस्ट लेती हैं.

प्राइवेट सेक्टर के प्रमुख बैंकों में से एक- एक्सिस बैंक इक्विटी म्युचुअल फंड पर 10.50 फीसदी से लेकर के 12.5 फीसदी तक इंटरेस्ट चार्ज करता है.

समझिए डायनैमिक और नॉर्मल लिन के बारे में

म्युचुअल फंड में लिन दो तरह से बैंक या एनबीएफसी मार्क करती है. यह नॉर्मल और डायनैमिक लिन होता है. नॉर्मल लिन में आप पहले से अपने फंड मैनेजर को बता देते हैं कि कितने यूनिट्स पर आप लिन मार्क करवाना चाहते हैं. इस तरह के लिन पर डिविडेंड या इंटरेस्ट मिलने पर उस पर लिन मार्क नहीं होगा.

डायनैमिक लिन में डिविडेंड या इंटरेस्ट को रिइन्वेस्ट करने पर वह भी लिन मार्क हो जाएगा. लोन अमाउंट को पूरा पे करने के बाद आपको एक बार फिर से अपने फंड मैनेजर को लिखकर देना होगा कि आपने लोन का पूरा पेमेंट कर दिया है. फंड मैनेजर संबंधित बैंक या कंपनी से पूछताछ करके आपके म्युचुअल फंड पर से लिन हटा देगा.

हौबी मजा है या सजा

मेरे पति को सदा ही किसी न किसी हौबी ने पकड़े रखा. कभी बैडमिंटन खेलना, कभी शतरंज खेलना, कभी बिजली का सामान बनाना, जो कभी काम नहीं कर सका. बागबानी में सैकड़ों लगा कर गुलाब जितनी गोभी के फूल उगाए. कभी टिकट जमा करना, कभी सिक्के जमा करना. तांबे के सिक्के सैकड़ों साल पुराने वे भी सैकड़ों रुपए में लिए जाते जो अगर तांबे के मोल भी बिक जाएं तो बड़ी बात. ये उन्हें खजाने की तरह संजोए रहते हैं.

जब ये किसी हौबी में जकड़े होते हैं, तो इन को घर, बच्चे, मैं कुछ दिखाई नहीं देता. सारा समय उसी में लगे रहते हैं. खानेपीने तक की सुध नहीं रहती. औफिस जाना तो मजबूरी होती थी. अब ये रिटायर हो गए हैं तो सारा समय हौबी को ही समर्पित हैं. लगता अगर मुख्य हौबी से कुछ समय बच जाए तो ये पार्टटाइम हौबी भी शुरू कर दें.

आजकल सिक्कों की मुख्य हौबी है, जिस में सिक्कों के बारे में पढ़नालिखना और दूसरों को सिक्कों की जानकारी देना कि यह सिक्का कौन सा है, कब का है आदि. इंटरनैट पर सिक्काप्रेमियों को बताते रहते हैं. सारा दिन इंटरनैट पर लगे रहते हैं. कुछ समय बचा तो सुडोकू भरना. यहां तक कि सुडोकू टौयलेट में भी भरा जाता है और मैं टौयलेट के बाहर इंतजार करती रहती हूं कि मेरा नंबर कब आएगा.

 

आजकल सुडोकू कुछ शांत है. अब ये एक नई हौबी की पकड़ में आ गए हैं. इन को खाना पकाने का शौक हो गया है. जीवन में पहली बार कुछ काम की हौबी ने इन को पकड़ा है. मैं ने सोचा कुछ तो लाभ होगा. बैठेबैठे पकापकाया स्वादिष्ठ भोजन मिलेगा.

इन्होंने पूरे मनोयोग से खाना पकाना शुरू किया. पहले इंटरनैट से रैसिपी पढ़ते, फिर उसे नोट करते. बाद में ढेरों कटोरियों में मसाले व अन्य सामग्री निकालते. नापतोल में कोई गड़बड़ नहीं. जैसे लिखा है सब वैसे ही होना चाहिए. हम लोगों की तरह नहीं कि यदि कोई मसाला नहीं मिला तो भी काम चला लिया. ये ठहरे परफैक्शनिस्ट अर्थात सब कुछ ठीक होना चाहिए. सो यदि डिश में इलायची डालनी है और घर में नहीं है तो तुरंत कार से इलायची लाने चले जाएंगे. 10 रुपए की इलायची और 50 रुपए का पैट्रोल.

जब सारा सामान इकट्ठा हो जाता तो बनाने की प्रक्रिया शुरू होती. शुरूशुरू में तो गरम तेल में सूखा मसाला डाल कर भूनते तो वह जल जाता. फिर उस जले मसाले की सब्जी पकती. फिर डिश सजाई जाती. फिर फोटो खींच कर फेसबुक पर डाला जाता. फेसबुक पर फोटो देख कर लोग वाहवाह करते, पर जले मसाले की सब्जी खानी तो मुझे पड़ती. मैं क्या कहूं? सोचा बुरा कहा तो इन का दिल टूट जाएगा. सो पानी से गटक कर ‘बढि़या है’ कह देती. इन का हौसला बढ़ जाता. ये और मेहनत से नएनए व्यंजन पकाते. कभी सब्जी में मिर्च इतनी कि 2 गिलास पानी से भी कम न होती. कभी साग में नमक इतना कि बराबर करने के लिए मुझे उस में चावल डाल कर सगभत्ता बनाना पड़ता. किचन ऐसा बिखेर देते कि समेटतेसमेटते मैं थक जाती. बरतन इतने गंदे करते कि कामवाली धोतेधोते थक जाती. डर लगता कहीं काम न छोड़ दे.

मेरी सहनशीलता तो देखिए, सब नुकसान सह कर भी इन की तारीफ करती रही. इस आशा में कि कभी तो ये सीख जाएंगे और मेरे अच्छे दिन आएंगे.

सच ही इन की पाककला निखरने लगी और हमारी किचन भी संवरने लगी. विभिन्न प्रकार के उपयोग में आने वाले बरतन, कलछियां, प्याज काटने वाला, आलू छीलने वाला, आलू मसलने वाला सारे औजारहथियार आ गए. चाकुओं में धार कराई गई. पहले इन सब चीजों की ओर कभी ये ध्यान ही नहीं देते थे.

अब ये इतने परफैक्ट हो गए कि नैट पर विभिन्न रैसिपियां देखते, फिर अपने हिसाब से उन में सब मसाले डालते और स्वादिष्ठ व्यंजन बनाते.

 

अब देखिए मजा. कभी कुम्हड़े का हलवा बनता तो कभी गाजर का, जिस में खूब घी, मावा और सारे महीने का मेवा झोंक दिया जाता. हम दोनों कोलैस्ट्रौल के रोगी और घर में खाने वाले भी हम दोनों ही. अब इतना मेवामसाला पड़ा हलवा कोई फेंक तो देगा नहीं. सो खूब चाटचाट कर खाया. अब उन सब्जियों को भी खाने लगे, जिन्हें पहले कभी मुंह नहीं लगाते थे. एक से एक स्वादिष्ठ व्यंजन खूब घी, तेल, मेवा, चीनी में लिपटे व्यंजन. मेरे भाग्य ही खुल गए. इन की इस हौबी से बैठेबैठे एक से एक व्यंजन खाने को मिलने लगे.

इतना अच्छा खाना खाने के बाद तबीयत कुछ भारी रहने लगी. डाक्टर को दिखाया तो पता चला कोलैस्ट्रौल लैबल बहुत बढ़ गया है. डाक्टर की फीस, खून जांच, दवा सब मिला कर कई हजार की चपत बैठी. घीतेल, अच्छा खाना सब बंद हो गया. अब उबला खाना खाना पड़ रहा है. अब बताइए इन की हौबी मेरे लिए मजा है या सजा?                                 

प्ले स्कूलों से सावधान

महानगरों में बच्चों के लिए क्रैच, प्रीस्कूल, प्ले स्कूल, किंडरगार्टन जैसे नामों से संचालित होने वाली संस्थाएं बदलते सामाजिक परिवेश की जरूरत बन गई हैं. कामकाजी मातापिता औफिस आवर्स में बच्चों को उचित देखभाल के लिए ऐसी संस्थाओं में छोड़ देते हैं.

बढ़ती आधुनिक जरूरतों, खत्म होते पड़ोस और संयुक्त परिवारों की टूटती परंपरा में उन्हें यही विकल्प बेहतर नजर आता है. बच्चों को लाडदुलार, स्नेह, व्यवहार व बातचीत की शिक्षा पैसे के बदले छोटे बच्चों को पालनाघर देने को तैयार हो जाते हैं. मातापिता बेफिक्र भी हो जाते हैं कि उन के बच्चे अच्छे माहौल में पलबढ़ कर जिंदगी का बुनियादी सबक ले कर भविष्य की तरफ बढ़ रहे हैं.

सतर्क रहें अभिभावक

संचालकों की मुंहमांगी फीस चुका कर इस बेफिक्री में और भी इजाफा हो जाता है. लेकिन क्या हकीकत में इसे बेफिक्री ही मान लिया जाए? ऐसा करने वाले अभिभावक कई बार सावधानी और सतर्कता बरतने वाली बुनियादी चूक कर जाते हैं. उन की चूक न सिर्फ उन्हें, बल्कि उन के बच्चे के कोमल मन पर भी भारी पड़ती है.

दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद जनपद में रहने वाले एक दंपती को भी यही बेफिक्री थी, लेकिन उन के साथ जो हुआ उस पर वे आज तक पछता रहे हैं. प्रीति व अजय (बदले नाम) दोनों ही नोएडा की एक प्राइवेट कंपनी में काम करते थे. उन की 4 साल की एक बेटी थी. प्राथमिक परवरिश के बाद उन्होंने बेटी को प्ले स्कूल भेजने का फैसला किया. उन्होंने एक बड़ी सोसाइटी में चल रहे किड्स स्कूल क्रैच में बच्ची को भेजने का फैसला किया. उन्होंने जा कर बातचीत की, तो पता चला कि महीने में 4 हजार के बदले स्कूल के संचालक बच्चे की देखभाल करते हैं. बच्चों को घर जैसा माहौल, खानापीना, स्नेह देना यानी उन का हर तरह से खयाल रखा जाता था. मातापिता के आने तक बच्चे के प्रति हर तरह की जिम्मेदारी संचालकों की होती. इस दंपती को यह बहुत अच्छा विकल्प लगा. बेटी को सुबह वहां छोड़ कर वे आराम से नौकरी पर जा सकते थे. इस से बेटी को भी किसी तरह की परेशानी का सामना नहीं करना पड़ता. अत: उन्होंने बेटी को वहां छोड़ना शुरू कर दिया.

चंद महीने बाद प्रीति को बेटी की तबीयत बिगड़ती महसूस हुई. अब वह प्ले स्कूल जाने के नाम से ही रोने लगती थी. एक दिन तबीयत ज्यादा बिगड़ी, तो उन्होंने गौर किया. बेटी के शरीर पर कुछ गंदे निशान थे. उन्होंने इस बारे में प्यार से बेटी से पूछा, तो उस ने रोते हुए बताया कि यह सब उस के साथ स्कूल के दादू करते हैं. प्रीति हैरान रह गईं. उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि उन की बेटी के साथ इस तरह की गंदी हरकत की जा रही थी और वे अनजान थीं. पति कंपनी के टूअर पर विदेश गए हुए थे. प्रीति ने उन के आने पर हकीकत बताई, तो 12 जनवरी, 2016 को स्कूल संचालकों के खिलाफ उन्होंने थाना विजय नगर में एफआईआर दर्ज कराई.

पुलिस ने दुष्कर्म, अप्राकृतिक यौन शोषण व बच्चों को यौन शोषण से बचाने के लिए बनाए गए कानून के तहत काररवाई की. मैडिकल रिपोर्ट में भी इस की पुष्टि हुई. मामला संगीन था, लिहाजा पुलिस ने आरोपी अधेड़ उम्र के अरुण सिन्हा नामक व्यक्ति को गिरफ्तार कर लिया.

दरअसल, आरोपी की पुत्रवधू प्ले स्कूल चला रही थी, जिस में वह भी सहयोग करता था. बहू जब किसी काम से बाहर जाती थी, तो वह बच्चों के साथ गंदी हरकतें करता था. बाद में उस ने प्रीति की बेटी को अपनी गंदी हरकतों का नियमित जरीया बना लिया था. किसी ने शायद ही सोचा होगा कि नामी सोसाइटी में इस तरह की घिनौनी सोच वाला शख्स शराफत का चोला ओढ़े रह रहा है. यह सचाई प्रीति और अजय के लिए किसी सदमे की तरह थी.

अब प्रीति और अजय भी पछता रहे हैं. उन के जैसे हजारों मातापिता हैं, जो ऐसा करते हैं. महानगरों में उच्च व मध्यवर्गीय मातापिता जरूरतवश औफिस आवर्स तक बच्चों को प्रीस्कूल में भेजते हैं. बड़ी कीमत चुका कर वे मान लेते हैं कि उन के बच्चे भावनात्मक, मानसिक व शैक्षिक रूप से तैयार हो कर भविष्य के लिए आगे बढ़ रहे हैं.

सोचसमझ कर चुनें प्ले स्कूल

क्या बच्चों की सुरक्षा और विकास के मामले में मातापिता अपनी सोच पर वाकई खरे उतर रहे हैं? यह सोचनीय है. अनजाने में ही सही सावधानी बरतने के अभाव में मातापिता बच्चों के दुश्मन बन जाते हैं. ऐसी नर्सरी संस्थाएं जरूरत तो हैं, लेकिन उन के चुनाव में सतर्कता जरूर बरतनी चाहिए.

हरियाणा के एक प्ले स्कूल में ढाई साल की बच्ची के साथ इस कदर मारपीट की गई कि उस का सिर ही फूट गया. बच्ची को अस्पताल में दाखिल कराना पड़ा. उस के परिजनों ने स्कूल संचालिका के खिलाफ मुकदमा दर्ज करा दिया.

चाइल्ड प्ले स्कूलो में कई बार वह सब होता है, जो प्रत्यक्ष में दिखाई नहीं पड़ता. ऐसे भी मामले सामने आते हैं जब बच्चों को शांत रखने और उन्हें सुलाने के लिए जूस में नशीला पदार्थ तक दिया जाता है.

मातापिता को यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि बच्चे कच्चे घड़े की तरह होते हैं. उन्हें जैसा रूप दिया जाएगा वैसे ही वे हो जाएंगे. यदि उन के साथ प्रीस्कूल में अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता है, तो उन में भावनात्मक व मानसिक विकृतियां आने की संभावना बढ़ जाती है. अत: अभिभावकों को छोटे बच्चे की देखभाल के दावे करने वाली संस्थाओं का चुनाव सोचसमझ कर ही करना चाहिए. यह तय करना जरूरी है कि जहां बच्चों को छोड़ना चाहते हैं वह क्या बच्चों के लिए हर तरह से सुविधाजनक और सुरक्षित है?           

इन बातों का रखें खयाल

– पता करें कि संस्था के खिलाफ पहले शिकायतें तो नहीं हैं.

– उन अभिभावकों से भी मिलें जिन के बच्चे संस्था में जाते हैं. ऐसे अभिभावकों के अनुभव लें.

– वहां आने वाले बच्चों के व्यवहार और भावनात्मकता को भी परखें.

– पता करें कि संस्था संचालकों का व्यवहार कैसा है.

– औफिस आवर्स के अलावा भी संस्था में जाएं. इस से हकीकत परखने का मौका मिलेगा.

– संस्था की इजाजत से बच्चों के बीच समय बिताएं और पूछें कि उन्हें कोई परेशान तो नहीं करता.

– समयसमय पर बच्चों से वहां की डेली गतिविधियों पर बात करें. बच्चा कुछ कहना चाहे, तो डांट कर उसे चुप न कराएं. देखें कि उस में अच्छी आदतों का विकास हो रहा है या नहीं.

– शिकायत मिलने पर बेहिचक संस्था के खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज करें.

चीजी जुकीनी कौइन

सामग्री

– 2 बड़े चम्मच कसा चीज

– 1/2 कप मैदा

– 1/4 कप ओट्स आटा

– 1/2 प्याज बारीक कटा

– 1/2 शिमलामिर्च बारीक कटी

– 1/2 टमाटर बारीक कटा

– 1-2 कलियां लहसुन बारीक कटा हुआ

– 1 छोटा चम्मच कालीमिर्च पाउडर

– नमक स्वादानुसार

– 1 जुकीनी के स्लाइस

– तलने के लिए पर्याप्त तेल

विधि

मैदा, ओट्स, आटा, नमक, चीज का घोल बनाएं. इस में सब्जियां डालें. चीज मिलाएं. कड़ाही में तेल गरम कर जुकीनी के स्लाइस घोल में लपेट कर डीप फ्राई करें. चटनी या सौस के साथ सर्व करें.

व्यंजन सहयोग

अनुपमा गुप्ता

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें