ताकि गुम न हो जाए इतिहास

गलीमहल्लों में होने वाली लीलाओं में उन्हें बड़ा मजा आता है जिन्हें नाटकों या अभिनय से कोई मतलब नहीं. एक टैंट में अपने को पोतते हुए युवक, युवती व बच्चे की खुशी तो देखिए. हर कालोनी, सोसाइटी और महल्ले को इस तरह के आयोजन करते रहना चाहिए.

कागज के फूल महकते नहीं

यौन संबंधों की आजादी की वकालत करना तो अच्छा लगता है पर यह आजादी भारी भी पड़ती है. जैसे नारायणदत्त तिवारी को अपने आखिरी दिनों में अपने जैविक बालिग बेटे को अपनाना पड़ा तो उस की मां को अपने जीवन में अपनी निजी इच्छा के खिलाफ फिर प्रवेश की इजाजत देनी पड़ी. 

कांगे्रसी नेता दिग्विजय सिंह की खूब फजीहत उड़ी जब उन के एक पत्रकार के साथ संबंधों के राज ही नहीं, अंतरंग क्षणों के फोटो भी जगजाहिर हो गए.

दिल्ली में एक पुत्र ने 18 साल पहले हुई अपने पिता की मौत के लिए एक पुलिस वाले और अपनी मां के संबंधों को ले कर अदालत का दरवाजा खटखटाया है. इस मामले में 18 साल पहले उस के पिता की एक सड़क दुर्घटना में मौत हुई बताया गया और उस के बाद एक पुलिस वाले का घर आनाजाना बढ़ गया. अब जब बेटा 25 साल का हो गया तब भी उस पुलिस वाले का घर आना बरकरार रहा. बेटे ने सामाजिक आपत्ति की दुहाई देते हुए उस व्यक्ति को घर आने से रोका तो उसे धमकी दी गई कि जिस तरह उस के बाप को रास्ते से हटा दिया गया था, उसी तरह उसे भी हटा दिया जाएगा. बेटे ने अब मां और उस के मित्र के खिलाफ पिता की हत्या की जांच के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया है.

विवाह या बच्चे दिल पर ताला नहीं लगा सकते. अगर स्त्रीपुरुष में लगाव पैदा होने लगे तो लोग अपने पूरे कैरियर, कामकाज, वर्षों के धंधे और राजपाट तक को दांव पर लगा देते हैं. बालिगों के बीच बनते संबंधों पर आसानी से रोक भी नहीं लगाई जा सकती. विवाहित साथी की तलाक की मांग से भी कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि उस के बाद विवाहित साथी को न सिर्फ आर्थिक कष्ट झेलने पड़ सकते हैं, अकेलापन व सामाजिक अवहेलना भी सहनी पड़ सकती है.

बच्चे भी अकसर बंट कर रह जाते हैं. उन का ध्यान अपने कैरियर से हट कर दूसरी ओर चला जाता है. यदि तलाक की लंबी उबाऊ प्रक्रिया चालू हो जाए तो बच्चों के पालनपोषण के अधिकार को ले कर वे चक्की के 2 पाटों में पिसने लगते हैं.

विवाह बाद के संबंधों में कानूनी रोक असंभव है, क्योंकि इस का अपराधीकरण करना एक नई मुसीबत को सामने लाना होगा. हमारे कानून में पति अपनी पत्नी के दूसरे से संबंधों पर आपराधिक कानूनी कार्यवाही तो कर सकता है पर उसे साबित करना पड़ेगा कि दोनों में यौन संबंध हैं. इस दौरान उस की फजीहत ज्यादा होगी इसलिए यह हक भी कम इस्तेमाल होता है.

विवाह एक सामाजिक समझौता है और दोनों पक्षों को इसे खुशीखुशी मानना चाहिए. यही सुख का आधार है. बाहर सुख ढूंढ़ना चाहोगे तो कंकड़ और कांटे ज्यादा मिलेंगे कहकहे कम. जहां यह होने लगे वहां पतिपत्नी दोनों को इस पर परदा डाल कर रखना चाहिए और बातबेबात हल्ला नहीं मचाना चाहिए. यह सोचना कि मरनेमारने की घुड़की से साथी को हराया जा सकता है, गलत है. परेशान साथी फिर बाहर शांति और सुकून ढूंढ़ता है.

स्त्री शक्ति पर भरोसा

नरेंद्र मोदी ने सुषमा स्वराज को विदेश मंत्रालय दे कर यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि मंत्रिमंडल में महिलाएं केवल दिखावटी, सजावटी चेहरा नहीं होतीं, उन से गंभीर काम भी कराए जा सकते हैं.

विदेश मंत्रालय आजकल एक तौर से गृह मंत्रालय और वित्त मंत्रालय से भी ज्यादा महत्त्व का मंत्रालय बन गया है, क्योंकि सारे देशों की अर्थव्यवस्थाएं अब रेल के डब्बों की तरह एकदूसरे से जुड़ गई हैं और 1 डब्बे की आग दूसरे को खतरा पहुंचा सकती है. सभी देशों के साथ तालमेल बैठाए रखना एक टेढ़ी खीर है.

सुषमा स्वराज पहले आमतौर पर घरेलू राजनीति पर ही ज्यादा बोलती थीं पर आशा है कि वे हिलेरी क्लिंटन की तरह विदेश मंत्रालय को और प्रभावशाली बना सकेंगी.

भारत इस समय ज्वालामुखियों के बीच में है. पाकिस्तान, नेपाल, म्यांमार, श्रीलंका, चीन सब विदेशी मामलों से जूझ रहे हैं, क्योंकि उन की आतंरिक स्थिति का निर्णय कहीं बाहर हो रहा है.

पाकिस्तान अमेरिका पर निर्भर है, तो चीन को तिब्बत व अपने मुसलिम इलाकों की वजह से विदेशी समर्थन चाहिए. श्रीलंका में तमिल संहार की खून भरी कहानी अभी फीकी नहीं पड़ी है, तो म्यांमार कब फिर फौजियों के हाथों चला जाए पता नहीं, क्योंकि उस के पड़ोस का थाईलैंड अच्छे भले लोकतंत्र से मुड़ कर सैनिक शासन की ओर जा रहा है.

विदेश मंत्री को अफगानिस्तान का मसला न दिल्ली, न काबुल और न इसलामाबाद बल्कि ब्रुसैल्स, लंदन, न्यूयार्क और वाशिंगटन में सुलझाना होगा. भारत के हित अफगानिस्तान से जुड़े हैं और कोई भूलचूक बहुत महंगी पड़ सकती है.

इंदिरा गांधी और सोनिया गांधी सरकारों को चलाती रही हैं पर विदेश मंत्रालय में जो औपचारिकता निभानी होती है, वह विलक्षण होती है और वहां हलकी सी बात को भी गंभीर रूप से लिया जाता है. सौम्य व्यक्तित्व से वैसे काफी देशों की विदेश मंत्री काम बनाती रही हैं और उम्मीद करिए कि सुषमा स्वराज भी चूल्हे की गैस को उपयोगी बना कर रखेंगी.

धर्म की मारी काशी की विधवाएं

नरेंद्र मोदी की सरकार गंगा का सफाई अभियान तो जोरशोर से चलाने का दावा कर रही है पर काशी पर लगे गहरे दाग व काशी की विधवाओं के बारे में उसे कुछ नहीं कहना. इस बार के लोकसभा चुनावों के दौरान काशी कई महीने चर्चा में रही और वहां की मिठाइयों, सांडों और गलियों की तो खूब चर्चा हुई पर हिंदू समाज की पाखंडता विधवाओं की देन नहीं, इस पर कहीं कोई बात नहीं हुई.

अब चाहे काशी और वृंदावन में छोटी और बड़ीबूढ़ी विधवाएं कम आती हों पर काशी आज भी घर में बेकार पड़ी विधवाओं का ठौर समझा जाता है, जहां ये विधवाएं तिलतिल कर मरती हैं.

महान हिंदू संस्कृति का ढिंढोरा पीटपीट कर हम अपनेआप को चाहे जितना श्रेष्ठ कह लें, ये विधवाएं असल में हमारी कट्टरता और अंधविश्वासों की देन हैं. अब देश में विधवाओं को जलाया तो नहीं जाता पर उन के साथ होने वाले दुर्व्यवहार कम नहीं हुए हैं. आम घरों में साल में कईकई बार धार्मिक प्रयोजन करवाने में पंडों की बरात सफल रहती है पर हर धार्मिक आयोजन में अगर घर में विधवा हो तो उस को कचोटा और दुत्कारा जाता है.

मजेदार बात तो यह है कि उन पंडितों को दोष नहीं दिया जाता जिन्होंने कुंडली मिला कर विवाह कराया और न ही उन देवताओं को जिन का आह्वान कर वरवधू को आशीर्वाद दिलवाया जाता है. इसी बुलावे का ही तो पंडेपुजारी कमीशन लेते हैं.

हिंदू समाज गंदी गंगा के साथ जी सकता है, क्योंकि अब घरों तक पहुंचने वाला पानी पहले शुद्ध कर लिया जाता है. पर वह उन सैकड़ों विधवाओं को कैसे सहन कर ले जो काशी, वृंदावन या घरों में तिरस्कृत जीवन जी रही हैं. जब विधुर शान से सीना फुलाए जी सकते हैं तो विधवाएं क्यों सफेद साड़ी पहनें और चेहरे की हंसी को दबा कर रखें?

यह जिम्मेदारी सरकारों की नहीं पर जब सरकार सामाजिक व धार्मिक मुद्दों के बल पर बनी हो तो वह इस जिम्मेदारी से नहीं भाग सकती.

नदियों की सफाई के साथसाथ नदियों के किनारे पनप रही दूषित संस्कृति को भी समाप्त करना होगा. मगर अफसोस की बात तो यह है कि हमारे समाज के रक्षक अब तक इन विधवाओं की देखभाल करने की जगह इन्हें छिपा कर ही रखना चाहते हैं. इन पर बनाई गई दीपा मेहता की फिल्म ‘वाटर’ की शूटिंग इसीलिए यहां नहीं होने दी गई.

इस सत्य से इनकार करने से काशी का यह धब्बा उस तरह नहीं मिटाया जा सकता जैसे ‘गंगा का पानी अमृत समान है’ कह कर व उस का आचमन कर किसी चीज को शुद्ध और साफ कर लिया जाता है.

अब काशी विदेशियों की नजर में और ज्यादा आएगी, क्योंकि नरेंद्र मोदी यहां से सांसद हैं और विदेशी पत्रकारों की आदत होती है कि वे आंखों पर हिंदुओं की तरह विलक्षण चश्मा चढ़ाए नहीं घूमते कि केवल अच्छा ही अच्छा दिखे. वे गंदा भी देखेंगे, पूछताछ भी करेंगे और बारबार उसे देश की राजधानी व राजनीति से जोड़ेंगे. इन में काशी की विधवाएं आएंगी ही. भारत अगर तानाशाही देश होता तो विधवाओं को शहर निकाला का आदेश दे दिया जाता पर अब तो

नरेंद्र मोदी की पार्टी को इन का शूल सहना होगा.

फूल भी कांटे भी

गृहशोभा के मई (प्रथम), 2014 अंक को पढ़ कर यह बात पूरी तरह साबित हो गई है कि हमारी इस प्रिय पत्रिका में सभी उम्र के लोगों के लिए ज्ञान और मनोरंजन की पूरीपूरी सामग्री होती है.

गृहशोभा सिर्फ महिलाओं की लोकप्रिय पत्रिका है, यह कहना गलत है, क्योंकि मेरे और मेरी कई सहेलियों के पति और बड़े होते बच्चे भी गृहशोभा के हमारी तरह ही दीवाने हैं.

टीवी की गोल्डन गर्ल्स के बारे में दी गई जानकारी को पढ़ कर हर कोई इस का दीवाना हो गया. इस के लिए गृहशोभा को धन्यवाद.

हर घर में टीवी के कलाकारों की पैठ घर के सदस्यों की तरह है. भले ही टीवी को बुद्धू बौक्स कहा जाता हो, लेकिन गुणदोष तो सभी में होते हैं. यह व्यक्तिविशेष पर निर्भर करता है कि वह क्या ग्रहण करता है.

सभी स्थायी स्तंभ, पकवानों की विधियां और कहानियों का भी जवाब नहीं.

विमला गुगलानी, चंडीगढ़

 

गृहशोभा का मई (प्रथम), 2014 अंक संग्रहणीय रहा. इस में प्रकाशित लेख ‘मांबेटी का रिश्ता है अनमोल’ सौहार्दपूर्ण रिश्ते की अहमियत को बहुत ही सुरुचिपूर्ण ढंग से उजागर करता है.

यकीनन, एक भरेपूरे परिवार में मां ही वह धुरी होती है, जो अपनी भावनाओं को शब्दों में बयां कर के बेटी को सही दिशा बताती व ज्ञान देती है. मां की ममता का कोई वर्गीकरण नहीं हो सकता. वह स्वयं एक अनूठे निस्वार्थ प्रेम का उदाहरण है.

शशिप्रभा गुप्ता, .प्र.

 

गृहशोभा का मई (प्रथम), 2014 अंक महत्त्वपूर्ण जानकारी से परिपूर्ण है. इस अंक में  प्रकाशित लेख ‘मम्मी को नहीं है पता’ अभिभावकों की आंखें खोलने वाला और वास्तविकता से परिपूर्ण है. गृहशोभा के इस विशिष्ट लेख के द्वारा हमें ऐसी महत्त्वपूर्ण जानकारी मिली कि दिल व दिमाग दोनों से सोचने विचारने को मजबूर हो गए कि हां, हम अभिभावक बच्चों की इन्हीं छोटीछोटी बातों को ही तो नजरअंदाज कर जाते हैं. बहुत कुछ ऐसी बातें भी होती हैं जिन्हें हम जानने की जरूरत ही नहीं समझते, जबकि उन्हें समझने की भी जरूरत होती है.

करीब करीब लगभग प्रत्येक अभिभावक की यही सोच रहती है कि उन का बच्चा सही है. वे इस द्वंद् में भी रहते हैं कि बच्चों की जासूसी उन की निजी स्वतंत्रता का हनन तो नहीं? लेकिन उन की निजी स्वतंत्रता में अभिभावकों की दखलंदाजी अनिवार्य है. बच्चों के साथ क्वालिटी टाइम बिताते हुए उन्हें सही और गलत का फर्क बताएं.

आज के अभिभावकों को यह समझन होगा कि बच्चों को किताबी कीड़ा नहीं बनाना चाहिए. व्यावहारिक शिक्षा के महत्त्व को कतई नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है.

पूजा राघव, दिल्ली

 

गृहशोभा का मई (प्रथम), 2014 अंक ‘गोल्डन गर्ल्स’ प्रस्तुतीकरण और लेखों के मामले में सचमुच बेजोड़ है.

‘रियल लाइफ में पैठ बनाते धारावाहिक’ कवर स्टोरी ने गृहशोभा के इस अंक को अलग हट कर बना दिया. मैं ने पूरे मई माह में इस अंक को पूरी तरह ऐंजौय किया.

आदिश्री मक्कड़, नई दिल्ली

 

सर्वश्रेष्ठ पत्र : सोनू अपने पापा के साथ खेल रहा था. उस के पापा उसे कंधों पर बैठा कर घूम रहे थे. तभी सोनू की मम्मी उस के पापा से बोलीं, ‘‘यह क्या आप भी बच्चों के साथ बच्चे बन जाते हो.’’

कभीकभी बड़ों की कुछ हरकतें देख कर हम में से कुछ लोग कह उठते हैं, ‘‘क्या बचपना कर रहे हो बच्चों की तरह.’’

पर शायद यह आप भी नहीं जानते होंगे कि इसी तरह के बचपने से इंसान को ऊर्जा लाइफ टौनिक मिलता है. कभीकभी हम अपनी भागदौड़ में इतने खो जाते हैं कि यह भूल जाते हैं कि हम सब में एक बचपना छिपा है, जो कभीकभार बाहर आ ही जाता है.

वैसे बचपना ही एक ऐसा माध्यम है जिस से कई बार हमें वे बातें पता चलती हैं जिन्हें हम खुद नहीं जानते थे. कई मरतबा ऐसा हुनर भी सामने आ जाता है, जो हमें अब तक पता नहीं होता. पर जब हम उस से रूबरू होते हैं तब हमें पता चलता है कि हमारे अंदर भी एक बालक बैठा है, जो हमें खुद के बचपन का एहसास कराता है.

कई बार यह भी देखने में आता है कि बचपने में खो कर व्यक्ति कुछ पलों के लिए अपने सारे दुख भूल जाता है. रह जाती है तो बस होंठों पर बिखरी मुसकान. इस का एक फायदा यह भी है कि आप को अपने बच्चों को और करीब से जानने का मौका मिलता है और बच्चे भी आप को अपने दिल के करीब पाते हैं. हम एक नई ऊर्जा से भर उठते हैं और फिर से संघर्ष करने के लिए तैयार हो जाते हैं. तो फिर आप किस सोच में हैं? घुलमिल जाएं बच्चों के साथ और उठाएं इस टौनिक का भरपूर फायदा.

पायल श्रीवास्तव, आंध्र प्रदेश

 

गृहशोभा के मई (प्रथम), 2014 अंक में प्रकाशित व्यंग्य ‘मुन्नी बदनाम हुई’ रोचक व सचाई को छूता लगा. वाकई मुन्नी को एज का गे्रस नहीं मिलता. 9-10 साल की मुन्नी भी पूर्णयौवना मानी जाती है. मगर 21-22 साल का मुन्ना नन्हामुन्ना ही माना जाता है.

मीरा हिंगोरानी, दिल्ली

मैं तनाव कभी नहीं लेती : हुमा कुरैशी

फिल्म ‘गैंग्स औफ वासेपुर’ से चर्चा में आईं हुमा कुरैशी स्वभाव से स्ट्रेटफौरवर्ड और बोल्ड हैं. लेकिन बहुत कम समय में उन्होंने अपना नाम सफल अभिनेत्रियों की सूची में शामिल कर लिया है. बचपन से ही अभिनय के क्षेत्र में काम करने की इच्छा रखने वाली हुमा ने पहले दिल्ली में थिएटर में काम किया. उस दौरान उन्हें कई विज्ञापनों में काम करने का अवसर मिला. इस के बाद उन्हें फिल्म ‘गैंग्स औफ वासेपुर’ मिली. उन्हें अधिक संघर्ष नहीं करना पड़ा, क्योंकि थिएटर बैकग्राउंड ने उन्हें अभिनय की दुनिया में आगे बढ़ने में सहायता प्रदान की. वे हर तरह के चरित्र निभाना चाहती हैं और उन के इस काम में उन के परिवार का पूरा सहयोग है. मुंबई में वे अपने भाई साकिब सलीम के साथ रहती हैं. साकिब भी अभिनेता हैं.

दिल्ली के एक मुसलिम परिवार में जन्मी हुमा के पिता कई रेस्तरां के मालिक हैं, जबकि मां हाउसवाइफ हैं. उन दोनों ने हमेशा उन्हें आगे बढ़ने की प्रेरणा दी है.

हुमा से अभी हाल में ही एक मुलाकात के दौरान बातचीत हुई. पेश हैं, बातचीत के खास अंश:

आप किसी फिल्म को चुनते समय किस बात का ध्यान रखती हैं?

कहानी और निर्देशन को अधिक महत्त्व देती हूं. साथ में मैं अपनी भूमिका छोटी हो या बड़ी, उस के महत्त्व को देखती हूं.

आप को संघर्ष कितना करना पड़ा?

संघर्ष हमेशा रहा है और रहेगा. स्ट्रगल से आप की लर्निंग होती है यानी उस से हर स्तर पर आप को कुछ सीखने को मिलता है. यह मेरे लिए हमेशा चलता रहेगा. अगर सीखना बंद हो जाएगा तो विकास भी बंद हो जाएगा और कैरियर बेहतर बनाने का चार्म खो जाएगा.

दैनिक जीवन में आप कैसी हैं?

मैं इमोशनल हूं, रैश डिसीजन लेती हूं, लेकिन मुझे अलग तरह का अभिनय करने में मजा आता है.

मुंबई आ कर ग्लैमर वर्ल्ड में टिके रहना कितना मुश्किल था?

पहले मुश्किल था पर अब नहीं है. मेरा भाई मेरे साथ रहता है, इसलिए हर काम में मेरी मदद करता है और मुझे कैरियर व घर दोनों को संभालना पड़ता है. मैं परिवार के साथ हमेशा जुड़ी रहती हूं. मम्मी दिन में 2 बार मुझे फोन करती हैं. इस से उन्हें भी हमारी परेशानी समझ में आती है और वे भी हमारी मदद करती हैं.

क्या किसी अभिनेत्री से प्रतियोगिता है?

मेरा कोई गौडफादर नहीं है. मैं कंपीटिशन में यकीन करती हूं इसलिए मैं ने इतनी मेहनत की है कि दर्शकों को उस का रिजल्ट दिखे.

फिल्मों में अंतरंग सीन को फिल्माते वक्त आप कितनी सहज रहती हैं?

लड़की होने के नाते मैं कभी सहज नहीं रह सकती, लेकिन मुझे यह भी देखना पड़ता है कि कहानी की मांग क्या है? अगर आप प्रेम या रोमांस पर फिल्म कर रहे हैं तो अंतरंग सीन अवश्य होंगे. उन्हें करना ही पड़ेगा. पर अगर केवल पब्लिसिटी के लिए अंतरंग सीन हैं तो ऐसे सीन मैं कभी भी नहीं करना चाहूंगी. इस के अलावा प्यार या रोमांस को जब खूबसूरती से दिखाया जाता है तो वह अपनेआप में सुंदर होता है.

महिलाओं के लिए शिक्षा आप की नजर में कितनी जरूरी है?

मेरे हिसाब से महिलाओं के लिए शिक्षा बहुत जरूरी है. महिलाओं को भी पढ़लिख कर अपना कैरियर खुद चुनने का पूरा अधिकार होना चाहिए. मुझे तब बड़ा खराब लगता है, जब लड़कियों की पढ़ाई पर ध्यान न दे कर लोग लड़कों को शिक्षा देते हैं. मेरे परिवार में मेरे अलावा सभी लड़के हैं, पर मुझे हर तरह की आजादी मिली है.

कभी तनाव होता है?

मैं तनाव कभी नहीं लेती. मैं अपने काम को मेहनत से करती हूं और अगर सफल नहीं होती तो आगे और अच्छा करने की बात सोचती हूं.

कितनी फैशनेबल हैं?

मैं फैशन करती हूं, क्योंकि अच्छी तरह ड्रैसअप होना मैं जरूरी समझती हूं. फैशन आप के व्यक्तित्व को प्रभावित करता है. पर फैशन का गुलाम नहीं होना चाहिए.

सैक्सी लिंजरी लाइफ स्पाइसी

आधुनिकता की ओर बढ़ रही महिलाएं निश्चित ही अपने व्यक्तित्व के प्रति जागरूक हुई हैं. महिलाओं के व्यक्तित्व के दायरे में उन के कामकाज से ले कर पहनावे तक की बात होती है. महिलाओं के ऊपरी वस्त्रों में जिस तरह के बदलाव आए हैं, ठीक उसी तरह अंतर्वस्त्रों में भी बहुत तबदीली आई है.

जहां पहले महिलाएं अपने बदन के उभारों को जरूरत के अनुसार ढकने के लिए अंतर्वस्त्र पहनती थीं, वहीं अब महिलाएं इसे कई अन्य दिलचस्प कारणों से पहनती हैं. अंतर्वस्त्र को ले कर आए बदलाव की शुरुआत में इस का कारण अपने पति या सैक्स पार्टनर को रिझाना माना जाता था. मगर अब लड़कियां अपनेआप को अभिनीत करने के लिए अलगअलग किस्म के अंडरगारमैंट्स पहनना पसंद करती हैं.

साधारण अंतर्वस्त्र से नरम, सम्मोहक, आकर्षक, विलोभक लिंजरी तक का सफर काफी आविष्कारी रहा है. अंतर्वस्त्र अपनी उत्पत्ति से काफी आगे निकल चुका है और इस सफर में इसे उपयोग करने में काफी परिवर्तन आया है. जहां पहले अंदरूनी चीजों की तरह अंडरगारमैंट कपड़ों के अंदर पहना जाता था, वहीं अब यह अंदर से बाहर की ओर झांकता हुआ नजर आता है. यह कोई अश्लीलता नहीं, इसे स्टाइल कहते हैं. अब इस फैशन को स्वीकृति मिल चुकी है, जिस में ऊपर से पहनने वाले कपड़ों के नीचे पहने गए इनरवियर का दृश्य झीना सा बाहर से नजर आए.

कपड़े के अंदर से उभरती हुई पैंटी लाइन को ट्रैंड के लिहाज से भद्दा माना जाता है. इस के बजाय जींस, साड़ी, स्कर्ट या किसी भी बौटम वियर के ऊपर हलकी सी कमर पर दिखती हुई पैंटी स्ट्रिप आज का फैशन है. इसी तरह टौप वियर के नीचे से झांकती हुई रंगबिरंगी ब्रा काफी अच्छी और फैशनेबल लगती है. लाल, पीला, नीला व अन्य चटकदार और चमकदार रंगों वाला अंडरगारमैंट जब कपड़े के अंदर से झीनीझीनी अपनी झलक दिखाता है तो देखने वालों को मदहोश करता है.

लिंजरी के चुनाव के आधार पर महिला अपने कामुक और सम्मोहक अंश को जाहिर कर सकती है तो अपने दिलफेंक मिजाज को भी प्रस्तुत कर सकती है. वह अपने स्त्रीत्व के निखरे रूप को प्रदर्शित करती है, तो अपने नरम और मुलायम स्वभाव को भी दिखाती है. कुल मिला कर महिलाएं अपने मूड और मनोभावों के हिसाब से अपने अंडरगारमैंट्स चुनना पसंद करती हैं.

क्या आप ने कभी सोचा है कि लिंजरी क्यों पहनी जाती है, कंफर्ट के लिए, सम्मोहन के लिए या परदे के लिए? दरअसल, लिंजरी पहनने में तीनों भावों का समावेश है. महिला के संपूर्ण कंफर्ट के लिए जरूरी है कि उस के शरीर की त्वचा से सब से करीब होने वाली लिंजरी अच्छी हो. उस का असर महिला की भावनाओं पर निश्चित तौर से पड़ता है. लिंजरी धारण करने के बाद महिला अचानक रूपांतरित हो जाती है, उस का स्त्रीत्व अचानक अग्रस्थान ले कर उस के मन के भाव महसूस कराता है. यही वजह है कि लिंजरी महिलाओं को पसंद आने वाले सर्वश्रेष्ठ तोहफों में से है. लिंजरी रोमांस के लिए अच्छा तोहफा है. तोहफे के रूप में लिंजरी वासनात्मक इच्छा की ओर इशारा है, सराहना और प्रशंसा का संकेत है और प्रेम का भाव भी. पुराने जमाने की तरह इस का उद्देश्य अब पुराना नहीं रह गया है. अलगअलग तरह की लिंजरी अलगअलग भाव प्रदर्शित करती हैं, जैसे:

सिडक्टिव लिंजरी

मनमोहक लगने की वजह से इस तरह की लिंजरी महिलाओं द्वारा सब से ज्यादा पसंद की जाती है. यह कई तरह की वैराइटी और रंगों में मार्केट में उपलब्ध होती है. लिंजरी पहनने के बाद भी शरीर के उन हिस्सों का नजर आना काफी कामुक लगता है, साथ ही यह स्टाइल बताता है कि महिला को अपने शरीर पर नाज है और वह बदन दिखाना पसंद करती है.

ब्राइडल लिंजरी

यह उन खास पलों को और भी खूबसूरत बनाने के लिए खास तरह से तैयार की गई खास लिंजरी है. किसी की रात खास बनाने वाली दुलहन होने की वजह से यह जरूरी होता है कि आप सही अंडरगारमैंट्स पहनें. अपने शहजादे के लिए आप ही वह सितारा होती हैं जिसे वह पूरी रात चमकते हुए देखना चाहता है. किसी तोहफे को पाने के लिए वह जब आप के बदन से कपड़े उतारने लगेगा, तो आप के खूबसूरत अंडरगारमैंट्स देख उसे वाकई नूर पाने का एहसास होगा.

लो बजट डाइटिंग

यह तो सभी जानते हैं कि वजन कम करने की शुरुआत डाइटिंग से होती है. लेकिन डाइटिंग का खयाल आते ही सभी अपनी जेब टटोलने लगते हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि कई लोग डाइटिंग को वजन कम करने का सब से खर्चीला जरीया समझते हैं. उन के मन में यही सवाल होता है कि क्या महंगे और आधुनिक डाइटफूड के बिना वजन कम करना संभव है? लेकिन न्यूट्रिशनिस्ट सुमन अग्रवाल इस सवाल का जवाब ‘हां’ में देती हैं. वे कहती हैं कि महंगे डाइटफूड में ऐसा कोई भी अनोखा तत्त्व नहीं होता जो साधारण और सस्ते डाइटफूड में न पाया जाता हो. बल्कि महंगे डाइटफूड का खर्च वहन करने वालों को भी वजन कम करने के लिए पहले बेसिक फूड आइटम्स को ही अपने आहार में शामिल करना चाहिए.

कई बार लोग डाइटिंग करने के चक्कर में बेसिक डाइटफूड को नजरअंदाज कर बड़ेबड़े सुपरमार्केट और फूडमार्केट से महंगे डाइटफूड जैसे- टोफू, सैलेड लीव्स, डाइट कोक, और्गैनिक प्रोडक्ट्स, शुगरफ्री चौकलेट्स और दूसरे शुगरफ्री फूड आइटम्स खरीद लेते हैं. इन के सेवन से ऐक्सट्रा कैलोरीज तो बर्र्न हो जाती हैं, लेकिन वजन कम करने के लिए डाइटिंग के इस तरीके को न्यूट्रिशनिस्ट सही नहीं मानतीं. वे कम खर्च में वजन कम करने के आसान तरीके बताती हैं.

खाने का निश्चित समय हो: खाना अगर सही और निश्चित समय पर खाया जाए तो ही फायदेमंद होता है. खासतौर पर जब आप वजन कम करने की सोच रहे हों तो यह और भी जरूरी हो जाता है कि खाने का एक निर्धारित समय हो. कई बार ऐसा भी होता है कि आप सही डाइट ले रही होती हैं, लेकिन उस का समय गलत होता है. ऐसा करने से आप का वजन कम होने की जगह बढ़ने लगता है. इसलिए नाश्ते के वक्त नाश्ता और खाने के वक्त खाना ही खाना चाहिए. साथ ही इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि सुबह का नाश्ता, दिन का खाना, शाम का नाश्ता और रात का खाना, इन चारों के बीच 3 से 4 घंटे का अंतराल हो.

कम खाएं: कई लोग भूख लगते ही एकसाथ ढेर सारा खाना खा लेते हैं. ऐसा करना गलत है क्योंकि ओवरईटिंग ही वजन बढ़ने की सब से बड़ी वजह होती है. इसलिए एक बार में उतना ही खाएं कि 70% ही पेट भरे. इस से न तो आप को पेट ज्यादा भरा लगेगा और न ही भूख का एहसास होगा.

संतुलित आहार: वजन कम करने के लिए रोज संतुलित आहार लेना बहुत जरूरी है. रोजाना शरीर में संतुलित मात्रा में कार्बोहाइड्रेट्स, प्रोटीन और फैट पहुंचना चाहिए. देखा जाए तो प्रोटीन के लिए दाल, दूध, दही, अंडा, चिकन और फिश अच्छे स्रोत हैं. खासकर दूध में सब से ज्यादा प्रोटीन होता है. इसलिए रोजाना 300 से 500 एमएल टोंड मिल्क जरूर पीना चाहिए. इसी तरह कार्बोहाइड्रेट्स के लिए सब्जियां, सलाद और सूप को अपने आहार में शामिल करें. फैट के लिए अच्छी क्वालिटी के तेल, नट्स और औयलसीड्स का इस्तेमाल करें.

मीठा और तलाभुना कम खाएं: वजन कम करना हो तो मीठी और चिकनी चीजें ज्यादा खाने से बचें. खासतौर पर केक, पेस्ट्री, मिठाई, कोल्डड्रिंक व आइसक्रीम. आलू से बनी चीजें जैसे समोसा, बड़ा और भजिया भी कम से कम खाएं, क्योंकि इन के ज्यादा सेवन से आप के वजन कम करने की सारी कवायदों में पानी फिर सकता है. 

मल्टी विटामिंस लें: डाक्टर की सलाह से अपनी डाइट में मल्टी विटामिंस जैसे बीकासूल, बी कौंप्लैक्स फोर्ट या सुपराडीन को अपने रोजाना के आहार में शामिल करें. ये आप के मैटाबोलिज्म को ठीक रखने और वजन घटाने की प्रक्रिया में सहायक रहते हैं.

डेली डाइट प्लान

सुबह का नाश्ता (ब्रेकफास्ट)

1. ब्रैड टोस्ट औैर अंडे के सफेद हिस्से का औमलेट.

2. दूध और दही के साथ पोहा या उपमा.

3. रवा इडली औैर सांभर.

4. ब्रैड टोस्ट के साथ एग भुर्जी.

दिन का खाना

1. रोटी के साथ दाल, सब्जी और दही या छाछ.

2. ऊसल पाव के साथ दही.

3. पेसरट्टू के साथ दही.

3. एग रोटी.

4. इडली सांभर.

5. सांभर चावल.

6. दही चावल.

7. ज्वार पिठला.

8. जुनका भाकर.

शाम का नाश्ता (ईवनिंग स्नैक्स)

1. रोस्टेड चना के साथ चाय या छाछ.

2. बिस्कुट और चाय.

3. कुरमुरे भेल और छाछ.

रात का खाना

रात के खाने में दिन के खाने के तरह ही खाया जा सकता है.

लो बजट डाइटिंग आहार

1. चिकन औैर फिश की जगह रोस्टेड चना, छोले, राजमा, दाल एवं अंडे का सफेद भाग.

2. टोफू को एक अच्छा डाइट फूड माना जाता है, लेकिन यह काफी महंगा होता है. इसलिए आप इस के स्थान पर दूध और दही को अपने आहार में शामिल कर सकती हैं.

3. फूलगोभी, पत्तागोभी, प्याज, पालक और खीरे को अपने आहार में शामिल करें.

4. हो सके तो सफेद की जगह ब्राउन राइस का इस्तेमाल करें. अगर ब्राउन राइस न ले सकें तो सफेद चावल ही खाएं, लेकिन कम मात्रा में.

5. किसी भी तेल का इस्तेमाल न करें. खाना पकाने के लिए मूंगफली का तेल ही इस्तेमाल करें.

ध्यान रहे

24 से 50 वर्ष तक की मध्यम वजन और लंबाई वाली महिलाएं, जो गर्भवती नहीं हैं या जिन्हें स्तनपान नहीं कराना पड़ता उन्हें वजन कम करने के दौरान भी प्रतिदिन 1,100 से 1,400 कैलोरीज लेने की जरूरत होती है. वहीं पुरुषों को वजन घटाने के दौरान 1,400 से 1,700 कैलोरीज लेने की जरूरत होती है.

मोटापे की वजह

1. खराब जीवनशैली.

2. बेहिसाब खाना.

3. व्यायाम न करना.

4. हाई कार्बोहाइड्रेट और लो प्रोटीन डाइट.

5. हारमोंस का असंतुलित होना.

6. जैनेटिक.

– सुमन अग्रवाल

न्यूट्रिशनिस्ट एवं फिटनैस ऐक्सपर्ट

नेताओं ने खूब सही कार्यकर्ताओं की धौंस

‘‘दीदी, हमारे पास सैकड़ों लोग प्रचार में चलने के लिए तैयार खड़े हैं. लेकिन जिन भाइयों को आप ने गाडि़यां लाने के लिए कहा था, वे अभी तक नहीं आए हैं.’’

‘‘देखो, वे यहां से निकल चुके हैं. बस तुम लोगों तक पहुंचने ही वाले होंगे.’’

‘‘दीदी, यहां गरमी बहुत है. लोग ज्यादा देर तक इंतजार नहीं करेंगे. ये सब सुबह से भूखेप्यासे हैं. घर वापस जाने की जल्दी कर रहे हैं.’’

‘‘नहीं उन को घर मत जाने दो. गाडि़यों में खानेपीने का पूरा इंतजाम है. धूप से बचने के लिए टोपियां और गमछे भी हैं.’’

‘‘ठीक है दीदी, मैं इन लोगों को बताता हूं,’’ और इस के बाद कार्यकर्ता फोन काट देता है. फिर अपने साथियों को समझाते हुए कहता है, ‘‘देखा एक फोन पर दीदी ने हर बात के लिए हां कह दी. कुछ ही देर में गाडि़यां हम तक पहुंच रही हैं.’’ कार्यकर्ता खुश क्योंकि उस का पूरा रोब जो साथियों पर जम गया है.

‘सौ सुनार की तो एक लुहार की’ या ‘कभी नाव गाड़ी पर तो कभी गाड़ी नाव पर’ ये कहावतें ऐसे ही नहीं बनाई गई हैं. इन का अपना कुछ न कुछ मर्म और अर्थ होता है. गांव में एक कहावत और प्रचलित है ‘बारह साल के बाद तो घूरे के भी दिन बहुरते हैं.’

इन सभी का अर्थ करीबकरीब एक सा है कि उपेक्षित से उपेक्षित वस्तु की भी कभी न कभी कीमती लगती ही है. इन चुनावों में यह बात साफ देखने को मिली. नेता हमेशा कार्यकर्ताओं की उपेक्षा करते रहे हैं. उन्हें चुनाव के समय कार्यकर्ताओं का महत्त्व पता चलता है अब कार्यकर्ता भी इस बात को समझ चुके हैं, इसीलिए वे भी चुनाव के समय नेता को अपनी धौंस दिखाने से नहीं चूकते. 16वीं लोक सभा चुनाव में कार्यकर्ताओं की इस धौंस को काफी करीब से देखा गया. यह केवल 1-2 नेताओं की बात नहीं है, हर नेता को इस तरह कार्यकर्ताओं की धौंस सहनी पड़ी.

मथुरा में भाजपा की ओर से हीरोइन हेमा मालिनी चुनाव लड़ रही थीं. वे अपना प्रचार करने के लिए गांवगांव, गलीगली घूमीं. उन के साथ जो कार्यकर्ता चुनाव प्रचार में लगे थे, वे अपने दोस्तों पर रोब गांठते हुए कहते थे कि आजकल हेमाजी हमारी उंगलियों पर नाच रही हैं. हम जो कहते हैं वे वैसा करती हैं. कल तो हम ने उन को खलिहान में ले जा कर उन से गेहूं साफ करने का काम भी ले लिया. हेमाजी ने गांव की औरतों की तरह न केवल गेहूं साफ करने में ग्रामीण महिलाओं की मदद की वरन गेहूं की बोरियां भी उठवाईं. यही नहीं, कार्यकर्ताओं ने बड़े फख्र के साथ वे फोटो भी सब को दिखाए. यही नहीं फेसबुक पर अपलोड भी कर दिए.

मेरठ से कांगे्रस के टिकट पर चुनाव लड़ीं नगमा पर तो जैसे मुसीबतों का पहाड़ ही टूट पड़ा. चुनाव प्रचार के दौरान कार्यकर्ता उन को अपने नातेरिश्तेदारों, दोस्तों के यहां ले कर जाते थे. और वहां वे अपने हाथों से खाना खिलाने की भी जिद करने लगते थे. नगमा को परांठे खाना पसंद नहीं. मगर नगमा जहां भी जाती थीं वहां लोग उन को परांठे खिलाने की जिद करने लगते थे. कार्यकर्ताओं की यह धौंस नगमा पर काफी भारी पड़ती थी.

कार्यकर्ताओं की यह धौंस नेताओं को पूरे चुनाव दौरान सहनी पड़ी. कार्यकर्ता कभी खानेपीने के लिए शिकायत करते थे तो कभी आनेजाने के लिए गाडि़यों को ले कर. उन का एक ही मकसद होता था कि नेताओं को यह बता सकें कि इस चुनाव में उन्होंने उन के लिए कितना काम किया. 16वीं लोक सभा के चुनाव अब तक के सब से महंगे चुनाव साबित हुए. 30 हजार करोड़ रुपए तो केवल सरकारी धन के रूप में निर्वाचन आयोग ने चुनाव की तैयारी पर खर्च किए. इस के बाद अलगअलग दलों ने चुनावी इंतजाम, रैलियों, प्रचारप्रसार, हवाईजहाजों और कारों पर रुपए खर्च किए.

लखनऊ में एक प्रत्याशी ने चुनाव प्रचार के लिए 2 सौ किराए की गाडि़यां लगा रखी थीं. इन में से कुछ गाडि़यां तो कार्यकर्ताओं के घरों पर ही खड़ी रहती थीं. कार्यकर्ता इन गाडि़यों का मनमाना उपयोग करते थे.

कई बार नेता इस बात को समझते भी हैं कि कार्यकर्ता मनमानी कर रहे हैं, इस के बावजूद चुनाव खराब न हो, इस कारण वे कार्यकर्ताओं को कुछ नहीं कहते. सब से खराब हालत वहां होती है जहां नेता दल बदल कर चुनाव लड़ते हैं. ऐसे नेता अपने पुराने दल के कार्यकर्ताओं और नए दल के कार्यकर्ताओं के बीच समझौता कराने और उन के बीच फैले मतभेद को सुलझाने में लगे रहते हैं. कार्यकर्ता दूसरे की बुराई कर के अपना उल्लू सीधा करने की फिराक में लगे रहते हैं. कार्यकर्ताओं से बात करने पर पता चला कि वे भी खूब सौदेबाजी करते हैं.

बस्ती में चुनाव प्रचार कर रहे कार्यकर्ता रघुवीर प्रसाद गाना अच्छा गाते हैं. वे अपने प्रत्याशी के पक्ष में लोकधुन पर गाना गाते हैं. वे बताते हैं, ‘‘पहले मैं कांगे्रस के पक्ष में गाना गाता था, इस बार कांगे्रस वाले मुझे भाव नहीं दे रहे थे तो मैं ने भाजपा के पक्ष में गाना गाना शुरू कर दिया.’’

कई कार्यकर्ता अजीब तरह से नेताओं का प्रचारप्रसार करते मिल जाते हैं. कुछ ने तो इस को अपना रोजगार भी बना लिया है. समाजवादी पार्टी की उत्तर प्रदेश में सरकार आने के बाद कई कार्यकर्ता पार्टी कार्यालय के बाहर साइकिल पर पार्टी का झंडा पहने प्रचार करते मिल जाते हैं. ये लोग पार्टी के नेताओं से मिलते हैं. पार्टी नेता कभी रू 5 सौ तो कभी रू 1 हजार दे देते हैं.

चुनाव प्रचार के समय तो ऐसे कार्यकर्ताओं की लौटरी निकल आती है. जौनपुर से चुनाव लड़े एक प्रत्याशी का प्रचार 5 सौ बाइक सवार युवाओं ने किया. इन सभी को बाइकों के लिए पैट्रोल के अलावा दैनिक खर्च भी मिलता था.

खूब चली कार्यकर्ताओं की धौंस

चुनाव प्रचार में खर्च सही हाथों से हो, इस की देखभाल के लिए नेताओं ने दोहरी व्यवस्था कर रखी थी. एक तरफ तो बड़ी पार्टियां अपने प्रत्याशी का चुनाव प्रचार संभाल रही थीं तो दूसरी ओर प्रत्याशी के परिवार के करीबी लोग चुनाव प्रचार अभियान की अगुआई कर रहे थे ताकि पैसे का सही उपयोग हो सके. परिवार के दखल के बाद गुटबाजी से होने वाले नुकसान को भी कम करने का पूरा प्रयास किया गया. प्रत्याशी निर्वाचन आयोग को जितना अपना खर्च दिखा रहा था सच में वह उस से कहीं ज्यादा खर्च कर रहा था. नेता यही ध्यान रख रहे थे कि कार्यकर्ता उन से नाराज न हों. केवल चुनाव प्रचार ही नहीं बूथ लेवल का इंतजाम करने में भी कार्यकर्ताओं का बड़ा रोल था. ऐसे में नेताओं को कार्यकर्ताओं की धौंस सहनी पड़ी. कार्यकर्ताओं ने जिधर कहा उधर नेताओं को जाना पड़ा. हर जातबिरादरी, धर्म के लोगों के सामने झुकना पड़ा.

लखनऊ से भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह चुनाव प्रचार कर रहे थे. कुछ लोगों ने अफवाह फैला दी कि पहाड़ी यानी उत्तराखंड के रहने वाले और ब्राह्मण राजनाथ सिंह के विरोध में जा कर उन की विरोधी कांगे्रस नेता रीता बहुगुणा जोशी को वोट दे सकते हैं. इस नाराजगी को रोकने के लिए राजनाथ सिंह को कार्यकर्ता उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री नारायणदत्त तिवारी के पास ले कर गए. राजनाथ सिंह ने नारायणदत्त तिवारी से जीत का आश्ीर्वाद लिया. नारायणदत्त तिवारी ने बड़े प्यार से राजनाथ के सिर पर हाथ रख कर कहा कि तुम्हारी जीत पक्की.

अगले दिन नारायणदत्त तिवारी के पास रीता बहुगुणा जोशी भी गईं तो नारायणदत्त तिवारी ने उन को भी आशीर्वाद दिया. राजनाथ सिंह को शिया धर्म गुरु मौलाना कल्बे जव्वाद से मिलने जाना पड़ा. कब्ले जव्वाद ने राजनाथ की तुलना भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेई तक से कर दी. दरअसल, कार्यकर्ता जानते थे कि अगर नेता को लगा कि वह आसानी से चुनाव जीत जाएगा तो वह कार्यकर्ताओं की नहीं सुनेगा. उन की परवाह नहीं करेगा. इसलिए उस के दिल में इतना हौआ बैठा दिया कि वह कार्यकर्ताओं की हर बात मानता रहे. जब तक नेता के मन में हार का हौआ बैठा रहेगा तब तक वह कार्यकर्ताओं की धौंस सुनता रहेगा और इसी धौंस में कार्यकर्ताओं के लाभ का गणित छिपा रहता है.

नेता की करीबी कार्यकर्ता की पूंजी

पूरे चुनाव में नेता लाख अपना प्रबंधन कर ले, कार्यकर्ता उसे अपने अनुसार चलने के लिए मजबूर कर ही लेते हैं. उत्तर से ले कर दक्षिण तक और पूर्व से ले कर पश्चिम तक नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच ऐसा चुनाव भर चलता रहा. दरअसल, कार्यकर्ता इस के द्वारा लोगों को यह दिखाना चाहते थे कि उन की नेताओं पर कितनी पकड़ है. यही पहचान भविष्य में उन के आगे बढ़ने का रास्ता मजबूत कर सकती है. कार्यकर्ताओं को यह भी पता था कि चुनाव के समय ही वे नेताओं से मनमाना काम करा सकते हैं. वे नेताओं के करीब रह कर फोटो खिंचवाना पसंद करते हैं. इस के लिए दिनरात मेहनत करते हैं. चुनाव के दौरान ही उन्हें मनचाहा खर्च मिलता है. नेता कार्यकर्ताओं की हर फरमाइश पूरा करने में अपनी भलाई समझते हैं. नेताओं को लगता था कि कार्यकर्ताओं को खुश नहीं रखा तो वोट के लिए प्रचारप्रसार ढीला पड़ सकता है, जिस से वे हार भी सकते हैं.

कीमत समझी कार्यकर्ता ने

चुनाव प्रचार और प्रबंधन देखने वाली एजेंसी चलाने वाले धीरेंद्र कुमार रस्तोगी कहते हैं, ‘‘राजनीति में पैसे का प्रभाव बढ़ा है, यह कार्यकर्ताओं को भी समझ आ गया है. वे पहले नेताओं से करीबी बनाए रखने के लिए प्रचार करते थे पर अब ज्यादातर मामलों में ऐसा नहीं होता है, क्योंकि अब पैसा ले कर चुनाव प्रचार करने की शुरुआत हो चुकी है. चुनाव लड़ने वाले हर नेता के घर या कहीं और खानेपीने का पूरा प्रबंध होता है और कार्यकर्ताओं के लिए गाडि़यों का इंतजाम होता है. अब कार्यकर्ताओं ने अपनी मेहनत की कीमत वसूलनी शुरू कर दी है.’’

राजनीतिक स्तंभकार डाक्टर सुरेंद्र प्रताप सिंह कहते हैं, ‘‘पहले नेता कार्यकर्ताओं का काम बिना किसी लेनदेन के करा देते थे, जिस की लालच में कार्यकर्ता भी तनमनधन से अपने नेता का प्रचार करते थे. पर अब ऐसा नहीं है. कुरसी पाने के बाद नेताजी के चारों ओर चाटुकारों की फौज जमा हो जाती है. असल कार्यकर्ता उन के करीब पहुंच ही नहीं पाते हैं. कभी नेताजी मीटिंग में हैं तो कभी सो रहे हैं, तो कभी नहा रहे हैं ऐसे उत्तर सुनने को मिलते हैं. ऐसे में कार्यकर्ताओं को यह समझ आ गई है कि नेताजी से जो लेना है चुनाव के समय ही ले लो. उस के बाद नेताजी उन की कम चाटुकारों की ज्यादा सुनेंगे.’’

प्रचार प्रबंधन देखने वाले धीरेंद्र कुमार रस्तोगी कहते हैं, ‘‘राजनीति अब समाजसेवा नहीं कैरियर बन गई है. हर कार्यकर्ता को लगता है कि अगर उसे कल नेता बनना है, चुनाव लड़ना है तो कार्यकर्ता जुटाने होंगे. कार्यकर्ताओं को अब मेनपावर कहा जाने लगा है. इस के लिए पैसों की जरूरत होगी. पैसा कमाने के लिए छोटाबड़ा हर कार्यकर्ता नेताजी के ज्यादा से ज्यादा करीब जा कर पूरा लाभ उठा कर सफल होना चाहता है.’’

व्यक्तिगत समस्याएं

मैं एक लड़की से प्यार करता हूं. हमारी सगाई हो चुकी है पर लड़की के घर वाले हमारी शादी नहीं करा रहे. वे शादी की तारीख आगे बढ़ाते जा रहे हैं. जबकि हम दोनों ही जल्दी से जल्दी शादी करना चाहते हैं. कृपया बताएं कि क्या करें ताकि लड़की वाले हमारी शादी जल्दी कराने के लिए राजी हो जाएं?

लगता है, लड़की के घर वालों ने लड़की की जिद की वजह से बेमन से इस रिश्ते को स्वीकृति दी. इसीलिए वे शादी की बात को टाल रहे हैं. सही बात तो लड़की जान सकती है कि उस के घर वालों के दिमाग में क्या चल रहा है. क्यों वे इस तरह ढुलमुल रवैया अपना रहे हैं.

यदि लड़की इस रिश्ते से खुश है तो वह घर में बात कर सकती है. आप के घर वाले भी जल्दी शादी करने के लिए लड़की वालों पर दबाव डाल सकते हैं. हो सकता है कि वे शादी की तैयारी भी कर रहे हों, मगर बेहतर व्यवस्था के लिए तारीख आगे बढ़ाते जा रहे हों. बेहतर होगा कि एक बार पारिवारिक स्तर पर बात करा लें, ताकि स्थिति स्पष्ट हो जाए.

मैं एक समस्या को ले कर काफी तनावग्रस्त हूं. मैं 4 वर्षों से एक लड़के से प्यार करती हूं. हम दोनों इस रिश्ते को ले कर काफी गंभीर थे. पर 2 महीनों से वह किसी और लड़की से बात करता है. मेरे सामने उस का फोन आने पर फोन काट देता है. मैं ने जब उस से इस बाबत पूछा तो उस ने यह कह कर टाल दिया कि बस सामान्य सी दोस्ती है और कुछ नहीं. मेरा शक इसलिए गहरा रहा है, क्योंकि रात 2-2 बजे तक उस का फोन बिजी जाता है. कृपया बताएं कि कैसे सचाई का पता लगाऊं कि उस के दिल में क्या है?

यदि आप के प्रेमी का व्यवहार आप के साथ सामान्य है अर्थात उस में कोई बदलाव नहीं आया है और वह आप को भरपूर समय देता है, आप की परवाह करता है तो आप को अपने प्रेमी की बात का यकीन करना चाहिए कि उक्त लड़की से उस की दोस्ती भर है. पर यदि आप को उस के व्यवहार में कुछ अंतर दिखता है, वह आप से कन्नी काटने लगा है तो आप को उस से खुल कर बात कर लेनी चाहिए.

उस की मंशा जान कर ही आप कोई निर्णय कर पाएंगी कि दोस्ती बनाए रखनी है या इस रिश्ते को यहीं विराम लगाना है. जो भी निर्णय करें सोचसमझ कर करें. जल्दबाजी न करें.

मैं शादीशुदा हूं. मेरे 2 बेटे हैं. शादी के 3 साल बाद मेरी साली ने मुझे आई लव यू बोला तो मैं भी बहक गया. हम ने नैतिकता की सारी हदें पार कर ली हैं. हम दोनों एकदूसरे से बहुत प्यार करते हैं. मेरी पत्नी भी हमारे रिश्ते के बारे में जानती है. साली की सगाई हो चुकी है और शीघ्र शादी होने वाली है. मैं जब भी ससुराल जाता हूं वह मुझे चुंबन दे कर बांहों में भर लेती है. मैं जानता हूं कि यह ठीक नहीं है पर स्वयं को रोक नहीं पाता. घर कर भी उस की बहुत याद आती है. कृपया उसे भुलाने का कोई उपाय बताएं?

आप अल्हड़ किशोर नहीं हैं, जो बहक गए. उस पर हिमाकत इतनी कि पत्नी को भी अपने व्यभिचार की बाबत बता दिया. यदि आप वास्तव में किसी एक कमजोर पल में बहक गए थे तो आप को अपने किए पर पछतावा होता. पर आप जानतेबूझते यह सब कर रहे हैं, जो बहुत ही निंदनीय है. आप की साली भी बराबर की कुसूरवार है. यदि आप दोनों ने इस अवैध संबंध को समाप्त नहीं किया तो आप की साली की शादीशुदा जिंदगी में तूफान उठ सकता है. साथ ही आप की भी समाज में थूथू होगी. इसलिए अच्छा होगा कि इस अनाचार को जल्दी से जल्दी छोड़ दें.

मैं 4 सालों से एक लड़के के साथ संबंध बनाए हुए हूं. हमारे घर वाले इस रिश्ते के खिलाफ थे, इसलिए हम ने चुपके से मंदिर में शादी कर ली. मेरे जन्म प्रमाणपत्र के अनुसार मैं अब 18 वर्ष की हुई हूं जबकि वैसे मेरी उम्र 18 वर्ष से ज्यादा है. यही कारण था कि हम कोर्ट मैरिज नहीं कर पाए. अब मेरे घर वाले मेरी शादी कहीं और करने वाले हैं. कृपया बताएं मुझे क्या करना चाहिए?

आप की उम्र अभी इतनी नहीं हुई कि आप जीवन का इतना अहम फैसला ले सकें. इस के अलावा मंदिर में चोरीछिपे शादी कर लेने को वैध नहीं माना जाएगा. इसलिए घर वालों की मरजी से शादी कर लें. वे आप की भलाई ही चाहेंगे.

मैं 20 वर्षीय युवती हूं. सगाई हो चुकी है. 2015 में हमारी शादी होनी तय हुई है. मेरा मंगेतर फोन पर मुझे हस्तमैथुन आदि क्रियाएं करने के लिए कहता है. वह जैसेजैसे बताता जाता है, मैं वैसावैसा करती जाती हूं. मैं जानना चाहती हूं कि कहीं इन क्रियाओं का हमारे वैवाहिक जीवन पर कोई दुष्प्रभाव तो नहीं पड़ेगा और यदि हम 1 बार संबंध बना लें तो क्या कोई हरज है?

विवाहपूर्व कामोत्तेजना होने पर युवा इस तरह की अप्राकृतिक क्रियाओं को आजमाते हैं. इस में कोई हरज नहीं है. रही विवाहपूर्व संबंध बनाने की बात तो इस की सलाह हम नहीं देते. इस रोमांच को विवाह के बाद भोगना नवदंपती के लिए उत्कंठा का विषय बना रहता है. थोड़े से इंतजार के बाद जब आप को पति के साथ प्रथम समागम का आनंद मिलेगा तो उस की बात ही कुछ और होगी. अत: उन हसीन लमहों का बेसब्री से इंतजार कीजिए.

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