जोधपुरी लड्डू

सामग्री शुगर सिरप की

1 कप चीनी

1 कप पानी

थोड़ा सा केसर.

सामग्री बूंदी की

1 कप बेसन

थोड़ा सा केसर

3/4 कप पानी

2 बड़ी इलायची के बीज

1/2 छोटा चम्मच खरबूजे के बीज

जरूरतानुसार तेल.

विधि शुगर सिरप की

एक पैन में चीनी, पानी और केसर मिला कर हलका गाढ़ा होने तक पकाएं.

विधि बूंदी बनाने की

बेसन, केसर और पानी मिला कर मिश्रण तैयार करें. मिश्रण न ज्यादा गाढ़ा हो और न ही ज्यादा पतला. कड़ाही में तेल गरम कर के महीन छेद वाले चमचे की सहायता से बूंदी तैयार कर लें. इस के लिए छेद वाले चमचे को कड़ाही के ऊपर रख कर उस पर बेसन का मिश्रण डालें और दूसरे चमचे से दबा कर कड़ाही में बूंदी गिराएं. सुनहरा होने पर बूंदी को निकाल कर गरमगरम ही शुगर सिरप में मिलाएं. अब मिक्सर में बूंदी डाल कर 1 चम्मच गरम पानी डालें और दरदरा पीस लें. यदि तलते समय बूंदी ज्यादा सख्त हो जाए तो 1 चम्मच के बजाय 2 चम्मच गरम पानी मिला कर पीसें. अब इस में खरबूजे और इलायची के बीज मिला कर पीस लें. हथेलियों पर थोड़ा सा तेल लगा कर इस मिश्रण के लड्डू तैयार कर परोसें.

ड्राईफू्रट लड्डू

सामग्री

1 कप खजूर बारीक कटे

2 बड़े चम्मच बादाम कटे

2 बड़े चम्मच किशमिश

1 बड़ा चम्मच काजू कटे

9-10 सूखे अंजीर

1 बड़ा चम्मच सूखा नारियल

2 हरी इलायची के दाने क्रश्ड किए.

विधि

काजू और बादाम को ड्राई रोस्ट कर बाकी सारी सामग्री के साथ ग्राइंड (दरदरा) करें. तैयार मिश्रण से लड्डू तैयार कर परोसें.

कोकोनट लड्डू

सामग्री

11/4 कप नारियल कद्दूकस किया

3 कप दूध द्य 1/2 कप चीनी

थोड़ा सा इलायची पाउडर.

दूध और कद्दूकस किए नारियल को मोटी पेंदी वाले बरतन में मध्यम आंच पर पकाएं. दूध में उबाल आने के बाद आंच धीमी कर के मिश्रण में क्रीमी टैक्सचर आने तक पकाएं. अब उस में चीनी और इलायची पाउडर डाल कर 7-8 मिनट तक और पकाएं. तैयार मिश्रण के ठंडा हो जाने पर लड्डू तैयार करें और परोसें.

कामवाली से कैसे काम लें

मानो या न मानो पर एक औरत की सच्ची साथी एक आज्ञाकारी मेड ही है. हां, यह सवाल जरूर उठता है कि आज्ञाकारी मेड कहां मिलती है? मुझ से पूछें तो बड़ा ही आसान जवाब है. यह आज्ञाकारी मेड हर मेड में है. बस, जरूरत है अपनी मेड को अपनी सहकर्मी समझने की. यह मेरे अपने खयालात हैं, कोई यकीन करे या न करे, पर मैं ने अपनी मेड को कामवाली न मान कर अपनी सहयोगी माना है. आज आप कोई भी कार्य करना चाहें तो आप को एक सहयोगी की जरूरत होगी, जो आप को आप के घर की जिम्मेदारियों से मुक्त रखे. कई कामवालियों से बात करने पर पता चला है कि अपनी मालकिन के बारे में उन के क्या विचार हैं. मुझे अपने बचपन का एक किस्सा आज भी बहुत अच्छी तरह से याद है. हमारे घर में सुमन नाम की एक कामवाली काम करती थी. एक बार उस से मेरी मां का झगड़ा हो गया. वजह थी कि वह एक दिन काम पर नहीं आई थी. मेरी मां और कामवाली सुमन के बीच काफी बहसबाजी हो रही थी. मेरी मां ने उसे शायद कुछ ज्यादा ही डांट दिया. सुमन उठ कर चल दी पर जातेजाते उस ने मेरी मां को गाली दे दी. वह तो चली गई, पर मेरी मां दिन भर रोती रही. आखिर मालकिन तो मालकिन है. उस का भी कोई मान होता है. अपनी भी ईगो होती है. फिर कामवाली तो कामवाली ही है. कामवाली द्वारा की गई बेइज्जती मां से बरदाश्त नहीं हुई और सुमन का हमारे घर पर काम करने आना बंद हो गया. यह घटना मेरे दिमाग पर कुछ ज्यादा ही असर कर गई. 

आज भी मुझे हर कामवाली में सुमन नजर आती है, जो शायद इस बात का एहसास कराती है कि मैडम, अगर इज्जत चाहिए तो पहले इज्जत करो. नहीं तो अपुन की एक ही गाली में तुम्हारी इज्जत का फालूदा बन जाएगा. सच ही तो है, हम उन पर चाहे जितना चिल्लाएं पर उन की एक गाली भी हमें बरदाश्त नहीं होती है.

गुलाम न समझें

गुलाबी नाम की कामवाली के अनुसार, ‘‘आखिर हम भी तो इनसान हैं. हम लोग कोई गिरेपड़े तो नहीं हैं. मेरे पिता गांव में डाक्टर हैं, पर मजबूरी के कारण मैं यह काम करती हूं. घरघर काम करने में मुझे कोई खुशी नहीं होती है.  ‘‘मैं अपना काम अपनी ड्यूटी समझ कर करती हूं. जिस तरह आप आफिस जाती हैं, आप अपना काम करती हैं उसी तरह मैं भी अपना काम अपनी ड्यूटी समझ कर करती हूं. आप को संडे की छुट्टी भी मिलती है. आप अगर बीमार होती हैं तो आप को भी तो छुट्टी मिल जाती है, फिर मुझे क्यों नहीं?’’

अगर उस की बात पर गौर करें तो ठीक ही तो कह रही है. कामवाली एक दिन न आए तो उस की वैल्यू पता चलती है, पर अगले दिन आते ही मालकिन उस पर बरस पड़ती है और अपनी खुन्नस महीने के आखिर में उस की तनख्वाह काट कर निकालती है, बहुत गलत है. मैं यह नहीं कहती कि सभी मैडमें ऐसा करती हैं, पर ऐसा करने वाली मैडमों की गिनती कम भी नहीं है. मेरी अपनी सोच है, जो कामवाली आप का काम कर के साल के 365 दिन आराम कराती है और उन 365 दिनों में से कुछ दिन छुट्टी करती है तो उस पर नाराज होने के बजाय उस की मजबूरी समझनी चाहिए. पाली नामक कामवाली के कथनानुसार, ‘‘मुझे सब से बुरा तब लगता है जब कोई मैडम मेरे पैसे काटती है. आप के पास इतना पैसा है, फिर भी हम गरीब के थोड़े से पैसे क्यों काटते हैं? हम लोग अपने गांव से इतनी दूर, अपने बच्चों को छोड़ कर आते हैं, मेहनत करते हैं.’’ अगर किसी कामवाली की तनख्वाह करीब 500 रुपए प्रतिमाह है तो उस के एक दिन का मेहनताना करीब 16 रुपए हुआ. हमें लगता है, हम ने उस के 16 रुपए काट कर बहुत तीर मार लिया. हमारी यह सोच ही वाहियात है. हमारे लिए 16 रुपए बहुत बड़ी रकम नहीं है, पर उन के लिए एक पूरे दिन का खाना है. तो सोचिए हम उन को एक दिन भूखा रख रहे हैं.

वही कामवाली अपना गुस्सा आप का बेशकीमती फूलदान तोड़ कर निकाल सकती है. मेरे खयाल से हमें ऐसी नौबत आने ही नहीं देनी चाहिए. मैं ने कुछ महीने तंजानिया में दार-ए-सलाम में गुजारे हैं. वहां एक जमाने में दास प्रथा बहुत ज्यादा प्रचलित थी. हालांकि आज दास प्रथा खत्म हो चुकी है पर उस की कड़वाहट आज भी वहां के कुछ घरेलू नौकरों में मिलती है. यकीन करें या न करें, किस्सा सच है. एक कामवाली ने अपनी बेइज्जती का बदला अपनी मालकिन के 4 माह के बच्चे को चलते ओवन में रख कर लिया.

मानसम्मान का खयाल रखें

एक ऐसा वाकेआ हमारे साथ भी हुआ. बात भोपाल शहर की है, जहां हम कुछ साल रहे. वहां एक कपड़े प्रैस करने वाले ने मेरे पति की एक पुरानी टीशर्ट जला दी थी. शिकायत करने पर वह बंदा कुछ ज्यादा ही अकड़ दिखाने लगा. हम भी अपनी अकड़ में आ गए. बात बिगड़ गई. फैसले के तौर पर उस ने 2 महीने तक हमारे कपड़े मुफ्त में प्रैस किए. हम अपनी जीत पर बहुत खुश हुए मानो कोई जंग जीत ली हो. जैसे ही जली हुई शर्ट की कीमत अदा हुई, उस ने हमारे घर के कपड़े प्रैस करने बंद कर दिए. न जाने क्यों मुझे उसी दिन एहसास हो गया कि सच में वह सज्जन था. दुष्ट तो हम थे, जिन्होंने एक पुरानी शर्ट के बदले मेें एक गरीब का इतना शोषण किया. जरा आप भी सोचिए, कहीं अनजाने में आप किसी मेहनत करने वाले का नुकसान तो नहीं कर रहे हैं. उस गरीब का दिल तो नहीं दुखा रहे हैं. बात फिर से एक कपड़े प्रैस करने वाले की है. आप शायद सोच रहे होंगे, मेरा वास्ता कपड़े प्रैस करने वालों से ज्यादा पड़ता है, पर ऐसा नहीं है. यह तो बस, एक इत्तेफाक है. गुड़गांव में, मेरे घर में सोनू नाम का प्रैस वाला कपड़े पै्रस करता है. हिसाब लगाने पर उस का हिसाब अकसर 10 रुपए 50 पैसा या 20 रुपए 50 पैसा होता था. जाहिर है डेढ़ रुपए प्रति कपड़ा लेने वाले का हिसाब अमूमन ऐसा ही आएगा. मैं आदतन ऊपर के पैसे काट लेती थी और कहती, ‘‘क्या सोनू 50 पैसे भी मांग रहा है.’’

वह बेचारा कुछ न कहता और मैं 50 पैसे बचा कर भी बहुत खुश हो जाती. एक दिन मुझे महसूस हुआ कि यही 50 पैसे उस के लिए कितने माने रखते हैं. अगर हर घर से 50 पैसे कम मिलें तो उस का दिन भर में कितना नुकसान होता होगा. आखिर उस का बिजनैस ही पैसे वाला है. उस दिन से आज का दिन, मैं उस का एक पैसा नहीं काटती, बल्कि 50 पैसे अधिक दे कर चिल्लर की समस्या को ही समाप्त कर देती हूं. हमें अपने ऊपर अकसर यह गुमान रहता है कि हम कामवाली को बहुत सारा सामान देते हैं. पर जरा यह भी सोचें कि हम अपना बेकार का टूटाफूटा सामान, फटे कपड़े, बासी खाना ही तो देते हैं. कभी ताजा खाना देते हैं? नहीं, कभी नहीं. दिए हुए सामान का एहसान हम उन पर बारबार जताते रहते हैं.

सावधानी जरूरी

राधा कामवाली के अनुसार, ‘‘कई बार मैडम इतना बेकार सामान देती हैं कि फ्लैट से निकलते ही मैं उसे सड़क पर फेंक देती हूं. मुझे आप का सामान नहीं, अपनी मेहनत का पूरा पैसा चाहिए.’’ बात आदरसम्मान देने की करें तो उस की उम्मीद तो छोड़ देनी चाहिए. पहले के जमाने में होता था, जब घर के पुराने नौकरचाकर घर के बुजुर्गों की तरह डील किए जाते थे. रामू को रामू दादा कह कर संबोधित किया जाता था. बड़ी उम्र की कामवालियों को अम्मां कह कर पुकारा जाता था. आज यह सब घरों से गायब हो चुका है. छोटेछेटे बच्चे कामवालियों को नाम ले कर पुकारते हैं, ‘ऐ कमला इधर आ, पानी ला.’

कुछ कामवालियां चोर भी होती हैं, पर गुलाबी का कहना है, ‘‘भाभी, हर कामवाली तो चोर नहीं होती है. हां, यह जरूर है कि एक मछली सारे तालाब को गंदा करती है. हम लोग खुद ऐसी कामवालियों से दूर रहते हैं.’’ ‘‘तुम लोगों को मैडमों का सामान देख कर कोई लोभ होता है. ईर्ष्या होती है,’’ मेरे यह पूछने पर ज्यादातर का जवाब ‘न’ ही था. और एक बात, आप या आप के पति जहां नौकरी करते हैं, वहां आप को हर दीवाली पर बोनस मिलने की आस होती होगी. क्या आप ने कभी पूरा साल आप की सेवा करने वाली कामवाली को बोनस देने के बारे में सोचा? 

आर्थ्रोप्लास्टी : सुगम बने जीवन

वक्त गुजरने के साथ हर वस्तु घिसती है, चाहे वह कोई मशीन हो या फिर हमारा शरीर. जैसेजैसे हमारी उम्र बढ़ती है, हमारे शरीर के अंग शिथिल पड़ते जाते हैं. ठीक ऐसा ही हमारी हड्डियों के साथ भी होता है. बुजुर्ग लोगों को अकसर आप ने जोड़ों के दर्द से परेशान देखा होगा, जिस का मुख्य कारण हमारी हड्डियों में कार्टिलेज की कमी होना है. कार्टिलेज वास्तव में हड्डियों में रबड़ जैसा चिकना और सख्त पदार्थ होता है, जो हड्डियों को आपस में घर्षण से बचाता है. समय के साथ इस के घिसने से हड्डियां आपस में टकराने लगती हैं. इस कारण व्यक्ति को चलतेफिरते, उठतेबैठते दर्द महसूस होता है और वह सामान्य दिनचर्या भी सुचारु रूप से नहीं चला पाता. ऐसी स्थिति में आर्थ्रोप्लास्टी की आवश्यकता पड़ती है.

क्या है आर्थ्रोप्लास्टी

आर्थ्रोपीडिक सर्जन डा. नवीन तलवार ने बताया कि यह जौइंट रिप्लेसमेंट सर्जरी है, जिस के द्वारा कंधे, घुटने व कूल्हे के खराब जोड़ों को बदला जा सकता है. यह मुख्य रूप से गठिया रोग की उस स्थिति में किया जाता है, जब व्यक्ति का चलनाफिरना बिलकुल बंद हो जाता है और हड्डियां खुरदरी व सफेद दिखने लगती हैं. तब उस खराब हिस्से के ऊपर व नीचे दोनों तरफ एक कैप लगा कर उसे ठीक किया जाता है. यह कैप टाइटैनियम की बनी होती है, जो बेहद हलकी धातु है. इस से मरीज को जोड़ों में भारीपन महसूस नहीं होता और वह आराम से चलफिर सकता है. इस के अलावा इसे जगहजगह से जोड़ने के लिए पौलीइथीलीन का प्रयोग किया जाता है. यह कुछकुछ नाइलोन की तरह होता है.

हिप रिसर्फेसिंग तकनीक

अत्याधुनिक हिप रिसर्फेसिंग तकनीक आर्थराइटिस के मरीजों को स्थायी रूप से आराम देने में सहायक है. दरअसल, कूल्हे का परंपरागत रूप से प्रत्यारोपण उन वृद्ध मरीजों के लिए अच्छा रहता है, जो कम कामकाज करते हैं, क्योंकि जब मैटल से रगड़ कर प्लास्टिक घिसता है तो इस के हटने की नौबत आ जाती है. इस तरह यह अधिक कामकाज करने वाले युवाओं के लिए ठीक नहीं है. साथ ही इस में शाफ्ट सरकने या जोड़ पर से फिसलने का खतरा भी रहता है. इसीलिए युवा मरीजों की समस्याओं को देखते हुए हिप रिसर्फेसिंग पद्धति ईजाद की गई है. इस के तहत फीमर (हड्डी) के बाल के आकार के हैड की सतह को हटा कर धातु की बनी खोखली कैप लगाई जाती है, जो ऐसेटेबुलर कप में फिट हो जाती है. यह तकनीक फीमोरल बोन को सुरक्षित रखती है तथा इस से भार व तनाव सहने की शक्ति भी बराबर बनी रहती है. हिप रिसर्फेसिंग का इलाज करने वाले मरीज एक दिन में 5 मील तक पैदल चल सकते हैं. वे जौगिंग, तैराकी व डांस भी कर सकते हैं. यहां तक कि खेलों में भी भाग ले सकते हैं.

फ्रैक्चर की स्थिति में आर्थ्रोस्कोपी

यदि किसी व्यक्ति को घुटनों में फ्रैक्चर हो जाए तो उस स्थिति में आर्थ्रोस्कोपी की आवश्यकता पड़ती है. वह एक प्रकार की की-होल सर्जरी है, जिस में दूरबीन की मदद से सर्जरी की जाती है. फ्रैक्चर के दौरान चूंकि हड्डी ठीक रहती है, लेकिन जोड़ों के अंदर कुछ फिलामैंट्स टूट जाते हैं, इसलिए उन को रिपेयर करने के लिए जौइंट खोलने की जरूरत नहीं पड़ती. इसी तरह फ्रैक्चर में जब एक तरफ की हड्डी टूट जाती है और दूसरी तरफ की ठीक रहती है तो हैमी आर्थ्रोप्लास्टी भी की जाती है.

सावधानियां

आमतौर पर आर्थ्रोप्लास्टी करने के बाद मरीज 3 दिन बाद थोड़ाथोड़ा चलफिर सकता है. 21 दिन बाद वह पूरी तरह से ठीक हो कर सामान्य दिनचर्या जी सकता है. पहले 3 महीने में उसे हर महीने डाक्टर के पास चेकअप के लिए जाना जरूरी है. इस दौरान सर्जन देखता है कि जौइंट की पोजिशन ठीक है या नहीं. इस के अलावा सर्जरी के बाद फिजियोथेरैपिस्ट व्यायाम करने की सलाह भी देते हैं. सर्जरी के बाद लगभग 2 माह तक लंबी दूरी की यात्राएं, उकड़ू बैठना, आलथीपालथी मारना (घुटने व कूल्हे की सर्जरी की स्थिति में) आदि नहीं करना चाहिए. एक बार आर्थ्रोप्लास्टी कर के जब कोई पार्ट डाला जाता है तो वह 25-30 वर्ष तक चल सकता है. इस के बाद रिविजन आर्थ्रोप्लास्टी कराई जा सकती है. यह भी एक सफल प्रक्रिया है. आर्थ्रोप्लास्टी की यह सुविधा भारत में लगभग हर अस्पताल में उपलब्ध है. किसी निजी अस्पताल में इसे कराने पर 1-2 लाख रुपए तक का खर्च आता है.

सुनिए सनी की सलाह

बिपाशा, शिल्पा के बाद अब हौट बेबी सनी लियोनी फिटैनस के गुर बांटेंगी. अपनी फिटनैस को अपनी सब से बड़ी यूएसपी मानने वाली सनी ने वर्कआउट करते हुए फिटनैस पर अपनी एक डीवीडी लौंच की है. बौलीवुड में किस की फिगर सब से ज्यादा पसंद है? के जवाब पर सनी का कहना है कि प्रियंका और रितिक की बौडी सब से परफैक्ट है. मैं अकसर सोचती हूं कि मेरी फिगर भी प्रियंका जैसी हो जाए. इंडस्ट्री को सीख देते हुए सनी का कहना है कि आजकल सभी ऐक्टर और ऐक्ट्रैस स्लिम ऐंड फिट बौडी चाहते हैं. इस के लिए परफैक्ट गाइडैंस की जरूरत होती है. मेरी फिटनैस डीवीडी ऐसे लोगों का अच्छे से मार्गदर्शन करेगी.

सीढि़यां चढ़ कर फिट रहती हूं

एक फिटनैस उत्पाद का प्रमोशन करने पहुंचे फिल्म ‘बागी’ के हौट कपल्स श्रद्धा कपूर और टाइगर श्रौफ से जब उन के फिट रहने के गुर पूछे गए तो टाइगर ने अपने डेली वर्कआउट और डांस को फिट रहने का श्रेय दिया. वहीं श्रद्धा ने कहा कि मैं रोजाना अपने फ्लैट तक आनेजाने के लिए लिफ्ट का सहारा नहीं लेती बल्कि सीढि़यों से ही आतीजाती हूं, इसलिए मैं ज्यादा स्लिम और फिट हूं. पर अब यह देखना पड़ेगा कि श्रद्धा का फ्लैट किस फ्लोर पर है क्योंकि मैडम का इतनी बेबाकी से यह कहने में कुछ तो संदेह हो ही रहा है.

आइटम शब्द से नफरत

‘मर्डर 3’ और ‘बौस’ में अपने हुस्न का जलवा दिखाने वाली अदिति राव हैदरी को आइटम गर्ल, आइटम सौंग में आइटम शब्द से सख्त चिढ़ है. उन के अनुसार आइटम गाना वह होता है, जिस में लड़की छोटे कपड़े पहनती है और सैक्सी दिखती है.अदिति का कहना है कि मैं घटिया नहीं दिखना चाहती हूं. मेरे लिए शिष्टता महत्त्वपूर्ण है इसलिए मुझे नहीं लगता कि मैं कोई आइटम सौंग करूंगी. लेकिन हां, अगर यह शिष्टतापूर्ण हुआ तो जरूर करूंगी. फिल्म ‘गुड्डू रंगीला’ के बाद अदिति की एक के बाद एक 4 फिल्में रिलीज होने के लिए लाइन में लगी हुई हैं. अब इन फिल्मों में अदिति ने ऐक्सपोज करने से कितना परहेज किया है, यह तो फिल्मों के रिलीज होने के बाद ही मालूम चलेगा.

अंधविश्वास को हवा देने का नया शिगूफा

व्हाट्सऐप पर एसएमएस इधरउधर किया जा रहा है, जिस में कहा गया है कि औरत की बीमारी सिर्फ रात को साईं का सपना  देखने से ठीक हो गई. उस औरत को सुबह एक परचा लिखा मिला शायद अंगरेजी में, गलत अंगरेजी वाले पोस्ट को अंधभक्त, स्मार्ट फोन लिए, पढ़ेलिखे होने का दावा करने वाले निस्संकोच दूसरों को फौरवर्ड कर रहे हैं, क्योंकि इसी में लिखा था कि जो इसे डिलीट कर देगा वह बहुत कमियां झेलेगा. अंधविश्वास लोगों में इस तरह कूटकूट कर सोशल मीडिया द्वारा भरा जा रहा है कि लोगों ने तर्क और बुद्धि का इस्तेमाल करना ही बंद कर दिया है.

व्हाट्सऐप या फेसबुक वैसे ही मात्र इधरउधर करने के प्लैटफौर्म हैं, क्योंकि अपनी बुद्धि या अपने विचारों को बताते हुए लोग कतराते भी हैं और उन से आज के युग में अंगरेजी तो छोडि़ए अपनी मातृभाषा में भी सही व्याकरण से वाक्य नहीं बन पाते. ऐसी हालत में कुछ योग्य ही अपनी बात कह पाते हैं और इन में धर्मप्रचारक सब से ज्यादा हैं, क्योंकि उन को लाभ होता है. धर्म की मार्केटिंग का एक मूल सिद्धांत है कि कभी अपने लिए कुछ न मांगो. हमेशा कहो कि मुझ पर नहीं, भगवान पर भरोसा करो; दान मुझे न दो, सुपात्र को दो; संकट दूर करने के लिए मेरे पास न आओ किसी योग्य पंडे, पादरी के पास जाओ.

धर्म के मार्केटियर जानते हैं कि अगर दूसरे भी यही करेंगे तो ग्राहक उन के पास भी आ जाएंगे और याचक की दृष्टि और व्यवहार से पैसा भी देंगे, केवल हवाहवाई बातों का. साईं बाबा का यह पोस्ट भी ऐसा ही है. इस में भेजने वाले ने अपना पता नहीं लिखा, यह नहीं लिखा कि कहां दान दो, साईं की पूजा के लिए मंदिर जाने को भी नहीं कहा गया. 10 मित्रों को मैसेज फौरवर्ड करने का मतलब है कि ग्राहक फंस गया. 10 लोगों में साईं प्रचार करने के बाद वह निकट के साईं मंदिर में जाएगा, सिर नवाएगा, जेब ढीली करेगा. पोस्ट करने वाला खुश रहता है कि अंधविश्वास का नजारा जितना चमकेगा उतना उसे लाभ होगा.

सोशल मीडिया से आज अच्छेभले पढ़ेलिखे, अपने तर्क पर गरूर करने वाले, वैज्ञानिक दृष्टि रखने का दावा करने वाले इसीलिए मिल जाते हैं कि वे अंधविश्वासी संदेशों के सैलाब से प्रभावित हो कर अंधविश्वास का रास्ता अपनाना सरल समझते हैं. झुंड मानसिकता इसी को कहते हैं. धर्म के नाम पर अनाचार व अत्याचार की यही जड़ है. सोशल मीडिया और स्मार्टफोन इसे अब और हवा दे रहे हैं.

संतुलन बिगड़ा तो बात उलझेगी

भारत में लड़कियों की कमी अब खलने लगी है और कई इलाकों में दूसरे इलाकों से बीवियां खरीद कर लाई जा रही हैं. दिल्ली प्रैस की पत्रिका सरस सलिल ने रिपोर्ट प्रकाशित की है जिस में हरियाणा के एक गांव में कई औरतों से बात करने पर पता चला कि दूसरे इलाकों की आई औरतों को कुछ परेशानियों का सामना तो करना पड़ता है पर उन के घर वालों को दहेज आदि पर पैसा खर्च नहीं करना पड़ता. अमेरिका अब दूसरी तरह की दिक्कत से जूझ रहा है. वहां 25 से 35 वर्ष के कालेज ग्रैजुएट लड़कों की कमी हो गई है और 100 लड़कियों के पीछे 85 लड़के रह गए हैं. बहुत सी लड़कियां या तो जैसेतैसे शादी करने को मजबूर हैं या फिर अकेले रहने को. अमेरिका में अश्वेत कालों को निजी कंपनियों द्वारा चलाई जा रही जेलों में बुरी तरह ठूंसा जा रहा है और यह एक भारी भयानक षड्यंत्र बन गया है. इस की शिकार वे लड़कियां भी हैं जो उन जेलों में बंद बहुधा निर्दोष युवकों से शादी कर सकती थीं.

गोरों में लड़कों को महंगी शिक्षा के कारण कालेज की पढ़ाई छोड़नी पड़ रही है और गोरी लड़कियां अधपढ़े लड़कों से विवाह नहीं करना चाहतीं, जिन का भविष्य अच्छा होने की गारंटी न हो. यह कहा जा सकता है कि प्रकृति अपना संतुलन बनाए रखती ही है. आप जैसे भी फैसले ले लो, जैसी भी नीतियां बना लो, अगर अंत में संतुलन बिगड़ा तो बात उलझेगी. लड़कियों को उपयुक्त साथी जीवन बिताने के लिए मिले यह एक प्राकृतिक, जैविक व सामाजिक आवश्यकता है. धर्म, समाज और कानून बहुधा इस में दखल दे कर प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ने की कोशिश करता है. अगर लड़के कम होंगे तो अविवाहित मांएं ज्यादा होंगी, बिना पिता के बच्चे ज्यादा होंगे, यह सोचे बिना अमेरिका ने विवाहपूर्व सैक्स को सम्मान तो दे दिया पर अब विवाह का बोझ संभालने के लायक लड़के नहीं मिल रहे हैं. हमारे यहां लड़कों की बहुतायत हो रही है और अब जैसीतैसी लड़की से विवाह कर के जीवन गुजारने को मजबूर होने की आशंका है. अमेरिका में कालेज गै्रजुएट लड़कियां ब्लू कौलर पतियों को पालने को प्राकृतिक आवश्यकता मानने लगी हैं. यह अब मजेदार स्थिति बनेगी. शायद भारतीय युवकों को अमेरिकी वीजा विवाह पर मिलने लगे और एक नया ऐक्सपोर्टइंपोर्ट व्यापार शुरू हो जाए.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें