हैल्थ इंश्योरैंस चुनने से पहले

जी वन में बढ़ रही व्यस्तताओं के बीच जोखिम में भी कई गुना इजाफा हुआ है. ऐसे में दुर्घटना, मृत्यु या फिर विकलांगता जैसी आपातकालीन स्थिति में आप के परिवार को किसी तरह की परेशानी न उठानी पड़े, यह सुनिश्चित करना भी आप की जिम्मेदारी है. बीमा विशेषज्ञ अविनाश खन्ना बताते हैं कि ज्यादातर लोगों को यह पता है कि स्वास्थ्य बीमा जीवन के जोखिम से आप को और आप के परिवार को सुरक्षित करने में बड़ी भूमिका निभाता है, इस के बावजूद अपने लिए उपयुक्त हैल्थ इंश्योरैंस पौलिसी का चुनाव करना सब के बस की बात नहीं. हालांकि यह काम उतना मुश्किल भी नहीं है. जरा सी सूझबूझ और सतर्कता से आप अपने लिए उपयुक्त बीमा पौलिसी का चुनाव आसानी से कर सकते हैं.

ध्यान रहे

पौलिसी का चुनाव: पौलिसी लेने से पहले आप को यह पता होना चाहिए कि बाजार में 2 तरह की हैल्थ इंश्योरैंस पौलिसियां उपलब्ध हैं. ये हैं इंडेम्निटी और बैनीफिट. अस्पताल में भरती होने की स्थिति में इंडेम्निटी पौलिसी आप के डाक्टर का खर्च, दवाओं, अस्पताल के कमरे के किराए आदि का भुगतान करती है, जबकि किसी गंभीर बीमारी की स्थिति में बैनीफिट पौलिसी काम आती है. इस पौलिसी से आप को इलाज के लिए एकमुश्त रकम मिल जाती है. यदि यह आप की पहली पौलिसी है, तो आप को इंडेम्निटी पौलिसी का चुनाव करना चाहिए.

टौप अप प्लान

स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च में सालाना 15 से 18 फीसदी की दर से इजाफा हो रहा है. हालांकि यह हर व्यक्ति के बस की बात नहीं है कि भारीभरकम प्रीमियम भर कर के ज्यादा से ज्यादा बीमारियों के कवर वाला प्लान ले सके. ऐसी स्थिति में टौप अप प्लान काफी काम आते हैं. ये प्लान तब काम आते हैं जब आप के इलाज का खर्च एक सीमा से बाहर चला जाता है. उदाहरण के तौर पर यदि इलाज के दौरान आप का खर्च 3 लाख रुपए आता है तो इंडेम्निटी प्लान से आप को 2 लाख रुपए का ही भुगतान किया जाएगा. ऐसे में यदि आप ने पहले से टौप अप प्लान ले रखा है तो अतिरिक्त भुगतान आप को टौप अप प्लान से कर दिया जाएगा. हालांकि टौप अप प्लान कुछ विशेष परिस्थितियों के लिए ही होते हैं. लिहाजा, इन का चुनाव अपनी सुविधा के अनुसार करें.

मैटर्निटी कवर

भविष्य में क्या होने वाला है, इस बात का अंदाजा पहले से लगाना काफी मुश्किल होता है. हालांकि कुछ विशेष परिस्थितियों का अंदाजा व्यक्ति को पहले से ही होता है. हर परिवार में एक न एक दिन बच्चे का जन्म होता है और उस पर होने वाले भारीभरकम खर्च से भी सब वाकिफ होते हैं. जब आप बीमा पौलिसी का चुनाव करें तो मैटर्निटी कवर लेना कभी न भूलें. ऐसा नहीं है कि अब तक बीमा कंपनियां मैटर्निटी कवर नहीं दे रही थीं. बाजार में इस तरह की पौलिसी पहले से मौजूद थी. यह जरूर है कि इस के लिए कंपनियों ने अब पौलिसी का वेटिंग पीरियड घटा दिया है. वेटिंग पीरियड का मतलब यह है कि पौलिसी लेने के एक निश्चित समय के बाद ही आप को मैटर्निटी क्लेम दिया जाएगा. उदाहरण के तौर पर कई कंपनियों ने अब इस के लिए 9 महीने से 1 साल का वेटिंग पीरियड कर दिया है. जिस के बाद आप मैटर्निटी बैनीफिट का लाभ उठा सकते हैं.

वेटिंग पीरियड

आप को किसी भी बीमारी के लिए क्लेम उस के वेटिंग पीरियड के बाद ही मिलता है. उदाहरण के तौर पर यदि आप को पौलिसी लेने के तत्काल बाद पता चलता है कि आप को डायबिटीज है, तो आप को इस के इलाज के लिए पौलिसी से कोई मदद नहीं मिलने वाली. अच्छा यही रहता है कि आप कम उम्र में ही बीमा पौलिसी ले लें, क्योंकि इस उम्र में बीमारियां कम होती हैं. साथ ही आप ने जिन बीमारियों का कवर लिया है उन सभी का वेटिंग पीरियड भी पूरा हो चुका होता है.

पौलिसी की लागत

कई बार लोग ज्यादा कवर लेने के चक्कर में खुद पर अतिरिक्त भार डाल लेते हैं. यह अक्लमंदी की बात नहीं है. पौलिसी लेने से पहले अपनी जरूरत, जोखिम और पौलिसी पर आने वाली लागत की ठीक प्रकार से समीक्षा कर लें. उदाहरण के तौर पर हो सकता है कि आप की आय के अनुरूप आप प्रतिमाह 1 हजार रुपए तक की पौलिसी का खर्च वहन कर पाएं. ऐसी स्थिति में यदि आप क्षमता से ज्यादा के प्रीमियम वाली पौलिसी ले भी लेते हैं तो इसे जारी रख पाना आप के लिए मुश्किल होगा.

तुलना जरूर करें

बाजार में कई कंपनियां अलगअलग विशेषताओं वाली ढेरों पौलिसियां उपलब्ध करा रही हैं. यदि पौलिसी का चुनाव गलत हो जाए तो जरूरत पड़ने पर आप उस के फायदों से भी वंचित रह जाएंगे. लिहाजा, विभिन्न पौलिसियों के बीच तुलना करना बेहद जरूरी है. इंटरनैट पर आप को ऐसी कई वैबसाइटें मिल जाएंगी जहां आप औनलाइन हैल्थ इंश्योरैंस पौलिसी की तुलना कर सकते हैं. इस से आप के लिए यह फैसला करना बेहद आसान हो जाएगा कि आखिर आप के लिए कौन सी पौलिसी उपयुक्त है.

अनारकली रैंप पर चली

जब डिजाइनर अर्पिता मेहता का डिजाइन किया हुआ गोल्डन गाउन पहन कर छैयांछैयां गर्ल मलाइका अरोड़ा खान लैक्मे फैशन वीक के रैंप पर आईं तो देखने वाले दर्शक आह भरते रह गए. जिंदगी के 40 वसंत देखने के बाद भी मलाइका का गलैमर आज भी चकाचौंध करता है. हमेशा बौलीवुड में सक्रिय रहने वाली मलाइका टीवी शो ‘झलक दिखला जा’ में करण जौहर की जगह आ गई हैं. करण को अपनी फिल्मों के कारण शो छोड़ना पड़ा है. मलाइका ने एक बयान में कहा कि मैं करण की जगह लेने और शाहिद एवं दूसरे निर्णायकों के साथ शानदार डांस प्रदशनों का आनंद उठाने के लिए बहुत उत्साहित हूं. इस से पहले भी मलाइका कई रिऐलिटी शो के निर्णायक मंडल में शामिल रही हैं.

भारत की वाइल्ड लाइफ ड्रैगन के निशाने पर

ऐसा लगता है कि चीन पूरी दुनिया के दुर्लभ जानवरों को खा जाएगा. बहुत सारी प्रजातियां भारत से लुप्त हो रही हैं और उन के शरीर के अंग चीन में बिक रहे हैं. केकड़ों से ले कर शार्कों और चीतों जैसे अनेक जंतुओं का शिकार हमारा पड़ोसी मुल्क अवैध ढंग से कर रहा है. चीन से सटे राज्यों में कौए लगभग समाप्त हो चुके हैं. अब हमारे पेड़पौधों पर भी खतरा मंडरा रहा है. चीन का पारंपरिक दवाओं के नाम पर अवैध कारोबार इस का उत्तरदायी है. आयुर्वेद की तरह ट्रैडिशनल चीन परंपरागत तरीके से दवा बनाने के लिए पेड़पौधों, जानवरों के शरीर के अंगों और खनिज पदार्थों का इस्तेमाल करता है. चीनी पारंपरिक चिकित्सा के अनुसार शरीर को सेहतमंद बनाए रखने के लिए उस में जीवंत ऊर्जा ‘की’ समाहित करना बेहद जरूरी है. यह ज्ञान तीसरी सदी में लिखी गई किताब ‘नाइजिंग’ पर आधारित है. चीन वैद्यिकी लगभग 1,000 प्रजातियों के पेड़पौधों, 36 तरह के जानवरों और 100 से भी ज्यादा प्रजातियों के कीड़ेमकोड़ों का इस्तेमाल करता है, जिन में ज्यादातर भारत में पाए जाते हैं.

समुद्र में पाए जाने वाले अश्वमीन यानी सीहौर्स का शिकार करना कानूनन अपराध है. लेकिन लाखों सीहौर्सेज से भरे जहाजों, जोकि चेन्नई से चीन जा रहे थे, को पकड़ा गया था. चीन में खाने के शौकीनों की मांग को पूरा करने के लिए हम अपने जंगली भालुओं को लगभग खत्म कर चुके हैं, जो बचे हैं वे संरक्षण में हैं. शेरों पर खतरा: पिछले 100 सालों में भारतीय शेरों की संख्या 1 लाख से घट कर 1,000 रह गई है. इन में से करीब 60 हजार शेरों को चीन के लिए ही मारा गया है. शेरों और तेंदुओं की खाल को तिब्बत में खुलेआम बिकते देखा जा सकता है. आखिर किस अचूक दवा के काम आते हैं हमारे शेर? चीनी वैद्यिकी में इन की हड्डियों का इस्तेमाल प्लास्टर के तौर पर किया जाता है ताकि जोड़ों से संबंधित परेशानियों का इलाज किया जा सके. मिरगी के रोगी इन की आंखें खाते हैं, मूंछों का इस्तेमाल दांतदर्द के लिए किया जाता है, गुप्तांग को पौरुष बढ़ाने के लिए खाया जाता है.

दुनिया के ज्यादातर शेरों को चीन समाप्त कर चुका है और इन में साइबेरिया और सुमात्रा के शेर भी शामिल हैं. अब वह इन की पैदावार खुद बढ़ा रहा है ताकि इन को अपने उपयोग के लिए मारा जा सके. चीनी फार्महाउसों में लगभग 5,000 शेर पैदा किए जा रहे हैं और मारे जा रहे हैं  2007 में चीन ने स्पष्ट किया कि अब सिर्फ फार्महाउसों में पलेबढ़े शेरों के अंगों का ही इस्तेमाल किया जाएगा. दरअसल, यह उन का नया तरीका था कि दुनिया में कहीं भी शेरों का खुलेआम शिकार करवाओ और फिर उन्हें फार्महाउस के शेर बताओ. ची के चिडि़याघरों के शेरों को उन के मर जाने तक भूखा रखा जाता है, क्योंकि जितनी कमाई चिडि़याघर में शेरों की प्रदर्शनी से होती है उस से कई गुना ज्यादा इन के अंगों को बेचने से होती है. चीनी वैद्यिकी ने अपने फार्माकोपिया से शेरों की हड्डियों से इलाज को अधिकृत रूप से हटा दिया है और इस की जगह जंगली चूहों, कुत्तों, गायों और बकरियों ने ले ली है. यदि इलाज के लिए शेरों के अंगों के अलावा दूसरे जानवरों का विकल्प उपलब्ध है, तो फिर इस दुर्लभ जीव पर ही प्रयोग क्यों? हालांकि सर्वे कुछ और ही कहता है. उस के अनुसार रोक के बावजूद 3 से 5% चीन की दुकानें और दुनिया भर में चीनी पारंपरिक चिकित्सा की लगभग 45% दुकानों में शेरों के अंगों का कारोबार अब भी जारी है. ऐसी कुछ दुकानें अमेरिका में भी चीनियों ने खोल रखी हैं.

भालुओं पर मंडरा रहा खतरा: काले भालुओं के पित्त का इस्तेमाल लिवर से जुड़ी समस्याओं और सिरदर्द को ठीक करने में किया जाता है. भालू के पित्त के अलावा भी और विकल्प हैं, जो बीमारियों में काम आ सकते हैं, लेकिन चीनी वैद्यिकी असली चीजों की ही मांग करती है. शिकार के कारण एशिया के जंगलों में लगातार कम हो रही काले भालुओं की संख्या को देखते हुए उन की फार्मिंग भी चीन में 1984 से होने लगी. फार्महाउसों में लगभग 7,000 भालुओं को छोटेछोटे पिंजरों में कस के रखा जाता है जैसे चूजों को रखा जाता है. पिंजरे इतने तंग होते हैं कि भालू उन के अंदर हिलडुल भी नहीं सकते. इन के उदर में एक कैथेटर लगा दिया जाता है जिस से पित्त को निकाल लिया जाता है. ऐसे में भालू पिंजरों में दर्द से कराहते हुए पिंजरे की दीवारों में सिर पटकपटक कर भयानक मौत मरते हैं. कस्तूरी हिरन की कस्तूरी का इस्तेमाल खून के बहाव की प्रक्रिया को संतुलित रखने, त्वचा के संक्रमण और पेट दर्द से राहत दिलाने में किया जाता है. पर्यावरण की रक्षा के लिए बनाई गई पशु प्रेमी संस्था ट्रैफिक की रिपोर्ट के अनुसार चीन में हर साल 1,000 किलोग्राम कस्तूरी की खपत होती है जिसे पूरा करने के लिए लगभग 1 लाख हिरनों की ग्रंथियों की जरूरत होती है. भारतीय कस्तूरी हिरनों का शिकार चाइनीज इतनी तेजी से करवा रहे हैं कि इन की संख्या घट कर 1,000 रह गई है.

सीहौर्स का इस्तेमाल चीनी चिकित्सा में 90 मैडिसिन प्रोडक्ट्स में किया जाता है. इस से बनी दवा से किडनी प्रौब्लम, रक्तप्रवाह से जुड़ी समस्या और नपुंसकता का इलाज किया जाता है. 32 देशों में 2 करोड़ सीहौर्सेज को हर साल मौत के घाट उतार दिया जाता है ताकि चीन में इन की 250 टन की सालाना डिमांड को पूरा किया जा सके. विलुप्त हो रहे गैंड़े: गैंड़ों के सींग चीनी चिकित्सा की जरूरत हैं, जिस के चलते भारत में मात्र 500 गैंड़े ही बचे हैं. वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड के अनुसार, 3 हजार गैंडे़ अफ्रीका में और 3 एशियाई देशों- सुमात्रा, जावा और भारत में 2,800 गैंड़े ही बचे हैं. गैंड़ों के सींगों का इस्तेमाल बुखार, मरोड़, सिरदर्द, टायफाइड, पेट संबंधी विकार, दस्त, आर्थ्राइटिस, मानसिक उदासी, आवाज चले जाने, रक्तस्राव, नकसीर, छोटा चेचक, फूड पौइजनिंग इत्यादि में किया जाता है  ऐसा लगता है कि गैंड़ों की नाक पर उगा छोटा सा बालों का बना अंग किसी भी परेशानी को दूर कर सकता है. जिन अधिकारियों को गैंडों के संरक्षण के लिए नियुक्त किया गया है वे भ्रष्ट हैं. गैंडों के अवैध शिकार में ज्यादातर बड़े गैंग लिप्त हैं. पिछले 80 सालों में गैंड़ों के सींगों के सब से बड़े खरीदार चीन, हौंगकौंग और ताईवान रहे हैं.

हालांकि भारत सरकार ने सींगों को खरीदनेबेचने पर 1979 में ही रोक लगा दी थी पर इस के बावजूद इन की स्मगलिंग मकाऊ, बर्मा, इंडोनेशिया, मलयेशिया, भारत, ताईवान और साउथ अफ्रीका से जारी रही. पिछले 30 सालों में गैंड़ों की संख्या में 95% की गिरावट आई है और इन पर लगातार जारी चीनी आक्रमण को देखते हुए यह अनुमान लगाया जा रहा है कि इन का अगले 5 सालों तक भी जीवित रहना मुश्किल है. साउथ अफ्रीका में रोज 1 गैंड़े को मारा जा रहा है. डब्ल्यूडब्ल्यूएफ के अनुसार लगभग 340 से भी ज्यादा गैंड़ों को 2013 में दक्षिण अफ्रीका में मार गिराया गया. द इंटरनैशनल यूनियन फौर कंजरवेशन औफ नेचर ने असुरक्षित प्रजातियों की एक रिपोर्ट जारी की, जिस में वैस्टर्न ब्लैक राइनों (काला गैंड़ा) को विलुप्त प्रजातियों में शुमार किया गया.

कोरिया भी पीछे नहीं: कोरिया का दवा बनाने का तरीका चीन के दवा बनाने के तरीके से मिलताजुलता है. कोरियाई भी गैंड़ों के सींगों का इस्तेमाल जिन बीमारियों के इलाज के लिए करते हैं, उन में दिल का दौरा, डर्माटाइटिस, फेशियल, पैरालाइसिस, हाई ब्लडप्रैशर और कोमा प्रमुख हैं. मछलियां भी नहीं बचीं: जीवों के अंगों की बढ़ती मांग से विशालकाय मंता रे मछली भी नहीं बची. इन की संख्या में पिछले दिनों विश्व स्तर पर भारी कमी दर्ज की गई है. आस्ट्रेलिया की सरकार ने इस खतरे को भांपते हुए मंता रे को संरक्षित जीव घोषित कर दिया है. इस के शिकार और इसे आस्ट्रेलिया से बाहर ले जाने पर पाबंदी लगाते हुए ऐसा करना अपराध घोषित किया है. एक बार फिर मंता रे की घटती संख्या के पीछे भी चीन का ही हाथ है. चीन में इस के गलफड़ के रेकर (एक पतला हिस्सा जिस से मछली खाना ढूंढ़ती है) की मांग चिकनपौक्स के इलाज के लिए ज्यादा है. इन का शिकार भारत, श्रीलंका, इंडोनेशिया और पेरु में भी किया जाता है.

लुप्त होने के कगार पर जीव: हिरन की तरह दिखने वाला जीव साइगा ऐंटिलोप लगभग विलुप्त होने के कगार पर है. इन का शिकार इन के सींगों के लिए किया जाता है. चीनी घडि़यालों की संख्या 200 से भी कम रह गई है. इन को चीन के आन्हुई इलाके में संरक्षित रखा गया है. इन घडि़यालों के मांस और अंगों का इस्तेमाल चीन वैद्यिकी कैंसर और कोल्ड दोनों की दवा बनाने में करती है. ऐलिफैंट फुट का पेस्ट बना कर उस का हार्निया के इलाज के लिए इस्तेमाल किया जाता है. जंगली भैसों का शिकार बुखार से ले कर मरोड़ तक के इलाज की दवाओं को बनाने के लिए कंबोडिया, लाओस, बंगलादेश, इंडोनेशिया और श्रीलंका में इतनी तेजी से किया गया कि यह प्रजाति समाप्ति के कगार पर आ खड़ी हुई. शार्कों की संख्या में भी भारी कमी आई है, क्योंकि इन के फिन चाइनीज डिश के तौर पर और दूसरे अंग दवा बनाने में होने लगे हैं. शार्क फिन की 95% आपूर्ति भारत से की जाती है. फिन निकालने के लिए शार्क को पकड़ कर फिन काट लिया जाता है और फिर उसे जिंदा ही तड़पतड़प कर मरने के लिए पानी में फेंक दिया जाता है. दरअसल, जानवरों के अंग दवा में काम नहीं करते. बेजुबान धीरेधीरे विलुप्त हो रहे हैं और वह भी इस कारण नहीं कि इन के अंदर कोई खास जादुई गुण है, बल्कि एक देश की क्रूरता और उदासीनता के कारण. बहुत शर्म महसूस होती है जब हमारा कोई नेता चीनियों के सामने झुक जाता है.

लो हो गई मुरगी दाल बराबर

‘घर की मुरगी दाल बराबर’ कहावत पूरे देश में मशहूर है. कहावत में मुरगी और दाल में जमीनआसमान का अंतर समझाने की कोशिश की गई है. मुरगी को महंगा और दाल को सस्ता बताया गया है. इस कहावत का अर्थ है कि आसानी से मिलने वाली चीज की कोई कीमत नहीं है. जिस समय यह कहावत बनी होगी उस समय किसी ने यह सोचा भी नहीं होगा कि एक दिन ऐसा आएगा कि मुरगी और दाल की कीमत एकसमान हो जाएगी. आज बाजार में अरहर की दाल क्व120 प्रति किलोग्राम हो गई है. मुरगी की कीमत भी इतनी ही है. मुरगी की कीमत हो सकता है किसी दुकान में कम भी हो पर दाल कहीं भी क्व120 प्रति किलोग्राम से कम नहीं है. सरकार उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतों पर नियंत्रण करने की बहुत कोशिश कर रही है, बावजूद इस के इस दाल की कीमत कम नहीं हो रही.

किचन में प्रयोग होने वाली चीजों में सब से अधिक भाव अरहर दाल का ही बढ़ा है. इस की सब से बड़ी वजह है कि अब किसानों ने अरहर की बोआई कम कर दी है. अनाज में अरहर ऐसी फसल होती है, जिस की पैदावार में 9 माह का समय लगता है. पहले लोगों के पास जमीन ज्यादा होती थी तो कुछ खेत अरहर की खेती के लिए छोड़ दिए जाते थे. जिस जमीन में सिंचाई की सुविधा कम होती थी उस में गेहूं और धान जैसी फसलें नहीं होती थीं. अरहर की खेती वहीं की जाती थी. अब खेतों के लगातार घटने से किसान अपने खेतों को 9 माह के लंबे समय तक नहीं फंसाना चाहता है. फिर पहले जिन जगहों पर सिंचाई की सुविधा नहीं होती थी अब वहां भी सिंचाई की सुविधा होने लगी है, इसलिए भी किसान अरहर की खेती बंद कर दूसरी फसलों की खेती करने लगा है.

कम हो रही भोजन की पौष्टिकता

अरहर दाल में कार्बोहाइड्रेट, आयरन व कैल्सियम भरपूर मात्रा में पाया जाता है. इस दाल की सब से बड़ी खासीयत यह है कि यह आसानी से पच जाती है. इसी वजह से इसे रोगियों को देने को कहा जाता है. पहले गांवों में दाल का प्रयोग खाने में खूब होता था, जिस से कम खाने के बाद भी लोगों में पोषण की कमी नहीं होती थी. अब भरपेट खाना खाने के बाद भी शरीर में पोषण की कमी होने लगी है खासकर बच्चों पर इस का ज्यादा प्रभाव पड़ रहा है. शरीर में प्रोटीन की कमी से दूसरे तमाम रोग भी जन्म लेने लगे हैं.

पूर्वी उत्तर भारत में अरहर दाल मुख्य फसलों में आती है. उत्तर प्रदेश में इस की सब से अधिक खेती की जाती है. करीब 30 लाख एकड़ जमीन में इस की खेती होती है. अरहर के लिए दोमट मिट्टी वाले खेत उपयोगी होते हैं. अरहर की बोआई बरसात के समय की जाती है और यह फसल अप्रैल में जा कर तैयार होती है. अरहर के साथ कोंदो, ज्वार, बाजरा, तिल और मूंगफली की भी खेती की जाती है. एक ही खेत में एकसाथ 2 फसलें लेने से किसान का मुनाफा बढ़ जाता है. अब किसानों ने अरहर के साथ दूसरी फसलों की बोआई कम कर दी है. वे अपने खेतों में मेंथा, केला, आलू, टमाटर और दूसरी सब्जियों की पैदावार करने लगे हैं, जिन में कम समय में ही अरहर से ज्यादा मुनाफा होने लगा है.

बढ़ गया समर्थन मूल्य

पहले देश में अरहर दाल की पैदावार करीब 180 से 200 लाख टन तक होती थी. पिछले कुछ सालों से पैदावार घट रही है. पिछले साल देश में 170 लाख टन अरहर का उत्पादन हुआ, जो मांग से करीब 40 से 50 लाख टन कम है. इस की वजह से अरहर की दाल का भाव बढ़ रहा है. केंद्रीय खाद्यमंत्री रामविलास पासवान और वित्तमंत्री अरुण जेटली इस बात को समझते हैं. दाल की बढ़ती कीमत सरकार के लिए मुसीबत का कारण न बने, इस के लिए सरकार ने करीब 5 हजार टन अरहर दाल विदेश से मंगवाने की तैयारी कर ली है. यही नहीं सरकार ने दाल की पैदावार को बढ़ाने के लिए किसानों के लिए दाल के समर्थन मूल्य में भी क्व275 प्रति क्विंटल की बढ़ोतरी कर दी है. अब किसानों को सरकार क्व4,625 प्रति क्विंटल देगी. सरकार ने अरहर की दाल की कीमत को कम करने का प्रयास शुरू कर दिया है. अरहर दाल की जमाखोरी कर मुनाफा कमाने की राह देख रहे आढ़तियों पर सरकार शिकंजा कसने की तैयारी कर रही है. बाजार भाव के जानकारों और अनाज का कारोबार करने वालों का मानना है कि अरहर की दाल की देश में खपत बढ़ रही है, जबकि पैदावार पहले से कम हो गई है, जिस की वजह से इस की कीमत का कम होना मुमकिन नहीं लगता है.

अपशब्दों का प्रहार बारबार

रिद्धिमा अपने कमरे में तकिए में मुंह छिपाए सुबक रही है. उसे लग रहा है कि उस के जीने का कोई औचित्य ही नहीं है. उसे मर जाना चाहिए. अपने पति शशांक के रोजरोज के तानों और अपशब्दों के प्रहार से अपमानित हो वह अंदर ही अंदर टूटती जा रही है. सुबह की ही बात है. शशांक औफिस के लिए तैयार हो रहा था. रिद्धिमा ने शशांक के औफिस पहन कर जाने वाले कपड़े बैड पर निकाल कर रखे और किचन में जा कर उस का टिफिन पैक करने लगी. तभी शशांक दनदनाता हुआ किचन में आया और रिद्धिमा पर चिल्लाने लगा, ‘‘तुम से कोई काम ढंग से नहीं होता, धेले भर की अक्ल नहीं है.’’ रिद्धिमा की कुछ समझ में नहीं आया कि आखिर उस की गलती क्या है. उस ने जैसे ही शशांक से पूछने की कोशिश की, शशांक ने हर बार की तरह उस पर ‘निकम्मी’, ‘फूहड़’, ‘नकारा’, ‘अनपढ़’, ‘गंवार’ जैसे अपशब्दों का प्रहार कर दिया.

शशांक के हृदयभेदी शब्द रिद्धिमा को छलनी किए जा रहे थे. उस का आत्मसम्मान, आत्मविश्वास खोता जा रहा था. वह भावनात्मक रूप से टूटती जा रही थी. वह शशांक के डर के मारे हर काम गलत कर देती. वह सचमुच खुद को नकारा समझने लगी थी. पति द्वारा पत्नी पर अपशब्दों का प्रहार आम बात है. बातबात पर पति पत्नी पर अपशब्दों का प्रहार कर अपमानित करता रहता है और वह बेचारी बन कर सब सहती रहती है और फिर धीरेधीरे अपना वजूद खोने लगती है. कहा जाता है कि शारीरिक प्रताड़ना के घाव तो समय के साथ भर जाते हैं पर वर्बल ऐब्यूज यानी मौखिक प्रताड़ना के घाव हमेशा हरे रहते हैं यानी इन का प्रभाव गहरा और स्थायी होता है. जहां शारीरिक प्रताड़ना को पहचाना जा सकता है, वहीं मौखिक प्रताड़ना को समझना कठिन होता है. यह वह झूठ होता है जो आप के बारे में आप से ही बोला जाता है. जो कमियां आप में नहीं होतीं उन के बारे में बारबार बोल कर आप को नीचा दिखाया जाता है, प्रताडि़त किया जाता है. प्रताडि़त करने वाले का उद्देश्य आप को अपमानित करना होता है, आप के आत्मविश्वास को चोट पहुंचा कर आप को मानसिक रूप से कमजोर करना होता है. मौखिक प्रताड़ना के भीतर चीखनाचिल्लाना, बातबात पर गलती निकालना, आलोचना करना, उन बातों पर बात न करना जो आप को परेशान कर रही हों, काम करने के तरीकों पर टोकाटाकी करना, परिवार वालों को ताने देना आदि आता है.

बर्बल ऐब्यूज की पहचान

जब पति आप की जिंदगी को नियंत्रित करने की कोशिश करने लगे. आप के पहननेओढ़ने, खानेपीने, कहीं आनेजाने पर अपना निर्णय थोपने लगे.

आप के विचारों, भावनाओं, इच्छाओं को महत्त्व न दे.

आप की हर बात में आलोचना करे. बातबात पर धमकी दे.गुस्सा करे. किसी अन्य पुरुष से बात करने पर, मिलने पर आप के चरित्र पर आरोप लगाए.

बच्चों को हथियार बना कर धमकी दे.

हर गलती के लिए आप को जिम्मेदार ठहराए.

आप को घरपरिवार, दोस्तों से दूर करे.

‘तुम अपना दिमाग क्यों नहीं लगातीं’, ‘तुम तो मजाक भी नहीं समझतीं’, ‘तुम्हें पता होना चाहिए मुझे कैसे खुश रखना है’, ‘तुम्हें खानेपीने पहननेओढ़ने, बात करने की तमीज नहीं है’, ‘तुम तो ज्यादा पढ़ीलिखी हो न’, ‘तुम्हारे मांबाप तो टाटाबिरला के खानदान से हैं’, ‘पूरा दिन करती क्या हो’, ‘मुफ्त की रोटियां तोड़ती हो’, ‘तुम से कोई काम ढंग से नहीं होता’, ‘क्या गंवारों जैसे कपड़े पहनती हो’, ‘मुझे पता है तुम्हारा कहीं चक्कर चल रहा है’, ‘मैं तुम जैसी गंवार के मुंह नहीं लगना चाहता’ आदि अपवाक्यों के प्रहार से आप समझ सकती हैं कि सामने वाला आप को मौखिक रूप से, मानसिक रूप से प्रताडि़त कर रहा है.

मौखिक प्रताड़ना के पीछे छिपी मानसिकता

प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक, विक्टिमोलौजिस्ट व सोशल ऐक्टिविस्ट अनुजा कपूर का मानना है कि वर्बल ऐब्यूज करने व सहने वाले के बीच नेचर व नर्चर का सिद्धांत काम करता है. यहां एक ऐब्यूसिव होता है, जो प्रताडि़त करता है और दूसरा प्रताडि़त होता है. दोनों के बीच का रिश्ता नैगेटिव यानी नकारात्मक होता है और प्रताडि़त करने वाला अपने साथी पर अपना हक जमा लेता है. हक जमाने वाले या प्रताडि़त करने वाले को ऐल्फा कहा जाता है. ऐल्फा कैटेगरी में आने वाले लोग स्ट्रौंग, अग्रैसिव व गुस्सैल स्वभाव के होते हैं, वे हमेशा सामने वाले पर हावी होना चाहते हैं. वे हमेशा खुद को ऊपर रखते हैं. उन का उद्देश्य सामने वाले को नीचा दिखाना, अपमानित करना होता है.जब एक बेटा अपने घर में अपने पिता को अपनी मां पर हावी होते देखता है, तो वह अपने पिता की इस प्रवृत्ति का शिकार हो कर पिता को अपना रोल मौडल मानने लगता है. इसी तरह से बेटियां अपनी मां को रोल मौडल मानती हैं और पति द्वारा दी गई प्रताड़ना को मां की तरह सहना अपनी नियति मानने लगती हैं यानी बच्चे अपने परिवार से वर्बल व इमोशनल ऐब्यूज करना व सहना सीखते हैं.

धार्मिक दबाव

अनुजा कपूर कहती हैं, ‘‘हमारे यहां लड़कियों को बचपन से सिखाया जाता है कि पति परमेश्वर होता है, पति का पत्नी पर हक बनता है, पत्नी को पति के हमेशा नीचे रहना चाहिए और तो और वैवाहिक संस्कारों में भी कहा जाता है कि पति को ही हर संस्कार में आगे रहना चाहिए, जीतना चाहिए वरना पत्नी उस पर हावी हो जाएगी. इन्हीं दबावों के चलते पत्नी पति से प्रताडि़त होती है, उस से डौमिनेट होती है. भले ही किसी महिला के मां न बनने का कारण पति हो, लेकिन पति उसे बांझ कह कर, बेटा जन्म न दे सकने का उत्तरदायी मान कर उस को मौखिक रूप से प्रताडि़त करता रहता है.’’

इस दौरान क्या करें

अनुजा कपूर मानती हैं कि जिंदगी में किसी को भी अपने साथ दुर्व्यवहार करने का मौका नहीं देना चाहिए, फिर चाहे वह मौखिक, आर्थिक, इमोशनल हो या फिर शारीरिक प्रताड़ना. मौखिक प्रताड़ना यानी शब्दों का प्रहार चाहे किसी को शारीरिक तौर पर चोट न पहुंचा पाए पर जिंदगी भर के गम दे सकता है. कोई भी महिला वर्बल ऐब्यूज, पारिवारिक दबाव, आर्थिक रूप से निर्भरता व डर सामने वाले से जुड़ाव के कारण सहती है. जबकि शब्दों का प्रहार करने वाला इस स्थिति का फायदा उठाता है और सामने वाले पर हावी होता जाता है. यह ट्रौमा की स्थिति होती है. इस में प्रताडि़त होने वाले को चाहिए कि वह प्रताडि़त करने वाले की बातों को दिल पर न ले, खुद को अपराधी न माने. अगर सामने वाला उसे गंवार, अनपढ़, फूहड़ मानता है तो वह खुद को ऐसा न मानने लगे, फाइट बैक करे. समस्या को गंभीर माने, क्योंकि वर्बल ऐब्यूज कब फिजिकल ऐब्यूज में बदल जाता है, पता ही नहीं चलता. इसलिए खुद को अपराधी न माने. अपने निर्णय खुद ले, खुद पर विश्वास रखे. अपनी ताकत को इकट्ठा करे. स्वयं के आत्मविश्वास को वापस लाने को प्राथमिकता दे.

अगर कोई सामने वाले को खुद पर हावी होने देता है तो उस का आत्मविश्वास टूटने लगता है और वह खुद को गलत मानने लगता है. अत: जब भी सामने वाला आप पर शब्दों का प्रहार करे, आप को इमोशनली प्रताडि़त करे, आप अपनी भावनाओं को नियंत्रण में रखें. उसे बताएं कि उस के व्यवहार से आप प्रताडि़त हो रही हैं और आप को यह व्यवहार कदापि स्वीकार्य नहीं है. अपनी सीमाएं निर्धारित करें कि आप क्या स्वीकारेंगी और क्या नहीं. वर्बल ऐब्यूज की ज्यादातर घटनाएं पुरुषों द्वारा महिलाओं पर देखने को मिलती हैं, पर कई केसेज में पत्नी या महिला भी पति को शब्दों की मार से प्रताडि़त करती है, सास बहू को, बहू सास को प्रताडि़त करती है.

पुरुषों के मामले में उन के पालनपोषण का तरीका, उन का पारिवारिक माहौल जहां उन्हें महिलाओं का सम्मान करने का तरीका नहीं सिखाया जाता और जहां महिलाओं को बराबरी का अधिकार नहीं दिया जाता, जिम्मेदार होता है. कुछ केसेज में पुरुषों में श्रेष्ठता का भाव होता है. वे महिलाओं को अपने पैर की जूती मानते हैं और इस तरह का घटिया व्यवहार करते हैं. जबकि कुछ केसेज में पुरुषों में हीनभावना होती है और वे अपनी पत्नी को जो उन से अधिक पढ़ीलिखी, सुघड़, खूबसूरत हो नीचा दिखाने के लिए उसे अपशब्दों द्वारा प्रताडि़त करते हैं. उसे बातबात पर सुनाते हैं कि ज्यादा पढ़लिख क्या गईं पता नहीं खुद को क्या समझती हो. अगर पत्नी खूबसूरत हो तो पति कहते हैं कि मुझे पता है तुम किस के लिए सजतीसंवरती हो. ऐसा कहते समय के सैक्सुअली ऐब्यूज करने से भी बाज नहीं आते. हीनभावना से ग्रस्त ऐसे लोगों को काउंसलिंग, कपल थेरैपी द्वारा सुधारा जा सकता है, अगर तब भी न सुधरें तो कानून की मदद लें.

महिला संरक्षण अधिनियम-2005

महिलाओं पर होने वाले शारीरिक, मानसिक एवं आर्थिक उत्पीडन की रोकथाम हेतु भारत में अनेक कानून बनाए गए हैं, जिन में सब से प्रभावशाली ‘डोमैस्टिक वायलैंस ऐक्ट-2005’ है. इस कानून में पहली बार घरेलू हिंसा को सिर्फ शारीरिक हिंसा तक सीमित न रख कर मानसिक, लैंगिक, मौखिक, भावनात्मक व आर्थिक हिंसा को भी घरेलू हिंसा में शामिल किया गया है. इस ऐक्ट के तहत कोई भी महिला जो बहन, बेटी, मां, पत्नी, विधवा है, इस कानून का लाभ उठा सकती है. इस कानून के तहत अगर उसे किसी भी तरह अपमानित किया जाता हो, नौकरी करने से रोका जाता हो, उस के चरित्र पर लांछन लगाया जाता हो, किसी व्यक्ति विशेष से बात करने, मिलने से रोका जाता हो, घर छोड़ने पर विवश किया जाता हो या और किसी तरीके से दुर्व्यवहार किया जाता हो, तो वह इस ऐक्ट का लाभ उठा सकती है.

मौखिक व भावनात्मक हिंसा से पीडि़त महिलाएं सहायता के लिए प्रार्थनापत्र पुलिस थाने, महिला एवं बाल विकास विभाग या सीधे न्यायालय में दाखिल करा सकती हैं. मौखिक व भावनात्मक हिंसा के अंतर्गत अपमान, उपहास, नाम से बुलाना खासतौर पर बच्चा न होने या लड़का पैदा न करने का ताना दे कर अपमानित करना, गालीगलौज करना, शारीरिक हिंसा की धमकी देना आदि भी आते हैं.दिल्ली स्थित एक सामाजिक संस्था द्वारा कराए गए अध्ययन के अनुसार भारत में लगभग 5 करोड़ महिलाओं को अपने घर में ही हिंसा का सामना करना पड़ता है. इन में से मात्र 0.1% ही हिंसा के खिलाफ रिपोर्ट लिखाती हैं. हैरानी की बात है कि भारत में आज भी ज्यादातर महिलाएं इस बात से वाकिफ नहीं हैं कि घरेलू हिंसा से बचाव के लिए घरेलू हिंसा अधिनियम बना है. इस अधिकार के बारे में जानकारी न होने के कारण महिलाएं घर की चारदीवारी में शब्दों की मार सहती रहती हैं और अपना आत्मसम्मान और आत्मविश्वास खोती रहती हैं. अत: अपशब्दों की मार का शिकार होने से बचने के लिए महिलाओं को अपने कानूनी और आर्थिक अधिकारों के प्रति जागरूक होना होगा. तभी वे इस प्रताड़ना से खुद को बचा पाएंगी व सम्मान से जिंदगी जी पाएंगी.

बचे तेल के प्रयोग से बचें

बचे तेल का प्रयोग स्वाद को ही नहीं, सेहत को भी खराब करता है. जानिए, कैसे…

भारतीय खाने में सप्ताह में 2-3 दिन डीप फ्राई कुकिंग की जाती है. उस के बाद जो तेल बचता है उसे विभिन्न खाद्यपदार्थ बनाने के लिए पुन: प्रयोग किया जाता है. आहार विशेषज्ञों के अनुसार बारबार पके तेल का प्रयोग करने से वह खराब हो जाता है. उस की गंध व पौष्टिकता नष्ट हो जाती है. उस में कैंसर पैदा करने वाले तत्त्व उत्पन्न हो जाते हैं. कड़ाही में बचे तेल में गंदे मौलक्यूल्स भी उत्पन्न हो जाते हैं, जो सेहत पर बुरा असर डालते हैं. इस से कई बार अपच और कब्ज की समस्या हो जाती है एक अन्य शोध के अनुसार जब एक बार तेल गरम किया जाता है, तो उस में एचएनई (हाइड्रौक्सीनोनेनल) पदार्थ बनने शुरू हो जाते हैं. ये वे विषाक्त पदार्थ होते हैं, जो सेहत पर बुरा असर डालते हैं. जितनी बार तेल को गरम किया जाता है उस में उतने ही अधिक एचएनई बनते हैं यानी तेल उतने ही अधिक विषैले पदार्थों से युक्त हो जाता है. एचएनई उस तेल में ज्यादा बनते हैं, जिस में लिनोलेइक ऐसिड अधिक होता है. ग्रेपसीड, कौर्न औयल और सैफलाउट तेल का प्रयोग कुकिंग के लिए किया जा सकता है. मगर डीप फ्राई करने के लिए ये तेल उपयुक्त नहीं होते.

आहार विशेषज्ञों के अनुसार जब इन्हें बारबार गरम किया जाता है तो इस में फ्रीरैडिकल्स उत्पन्न हो जाते हैं और जब इन में पका भोजन खाया जाता है तो ये रैडिकल्स स्वस्थ कोशिकाओं से जुड़ कर बीमारियां पैदा करते हैं. ये धमनियों में बैड कोलैस्ट्रौल भी बढ़ाते हैं. बचे तेल को दोबारा प्रयोग करने से ऐसिडिटी, हार्ट डिजीज, अल्जाइमर, पार्किंसंस जैसी समस्याएं हो जाती हैं.

कौनकौन से तेल उपयुक्त

डीप फ्राई करने के लिए उसी तेल का प्रयोग किया जाना चाहिए जिस का स्मोकिंग पौइंट हाई अर्थात 190 डिग्री सैल्सियस हो. स्मोकिंग पौइंट हाई होने के कारण उसे एक से अधिक बार गरम किया जा सकता है. ये तेल हैं- पाम, पीनट, कोकोनट, सनफ्लौवर, तिल और सरसों का तेल.

कितनी बार करें प्रयोग

यदि तेल का प्रयोग शैलो फ्राई करने के लिए किया गया है, तो उसे पुन: गरम किया जा सकता है, लेकिन उस से बचे तेल को पुन: डीप फ्राई करने के बजाय सब्जी आदि बनाने या फिर मोयन में इस्तेमाल करना ही उचित रहता है.

कुकिंग का सही तरीका

खाना बनाते समय हर बार नए तेल का प्रयोग करने की कोशिश करें, परंतु भारतीय खाने में शैलो के बजाय डीप फ्राई अधिक की जाती है, जिस से कड़ाही में तेल बच ही जाता है. पूरियां, कचौडि़यां, मठरी, पकौड़े, मालपूए आदि बनाने के बाद बचे तेल को मलमल के कपड़े में बांध कर लटका दें ताकि उस में निहित अन्न के कण निकल जाएं. किसी भी तेल को बहुत अधिक तापमान पर न पकाएं. फ्राइड फूड अधिकतम 190 डिग्री सैल्सियस पर ही पकाएं. काम होते ही आंच बंद कर दें. जहां तक संभव हो पकाने के लिए लोहे या कौपर की कड़ाही का प्रयोग न करें.

बचे तेल का प्रयोग करने से पूर्व उसे जांच लें. यदि वह बहुत अधिक गाढ़ा, चिपचिपा, गंधयुक्त और काला सा लगे तो प्रयोग न करें.

ध्यान दें

एकसाथ कई तेलों का प्रयोग न करें. एक बार में केवल एक ही तेल का प्रयोग करें.

यदि तेल का वास्तविक रंग बदल गया है, तो उसे फेंक दें.

औलिव औयल का प्रयोग डीप फ्राई करने के बजाय केवल सलाद, ड्रैसिंग, बघार आदि के लिए ही करें.

सस्ते तेल जो आंच पर रखते ही धुआं छोड़ने लगते हैं उन का प्रयोग न करें. ये शरीर के लिए नुकसानदायक होते हैं.

डीप फ्राई करने और सब्जी बनाने आदि के लिए अलगअलग तेल का प्रयोग करें.

जल्दी गरम होने वाले तेल जैसे औलिव आयल, कैनोला आदि का प्रयोग केवल भूनने के लिए करना ही सही रहता है.

द्य डीप फ्राई करने के लिए सदैव छोटे बरतन का ही प्रयोग करें ताकि तेल अधिक न बचे.

जो शुक्रवार से चिपके पीछे रह गए

फिल्म ‘तुझे मेरी कसम’ से बतौर सोलो हीरो कैरियर शुरू करने वाले रितेश देशमुख को बहुत जल्दी अपनी गलती का एहसास हो गया और उन्होंने अपना ट्रैक बदलते हुए ‘मस्ती’, ‘मालामाल वीकली’, ‘ब्लफ मास्टर’, ‘गोलमाल’, ‘कैश’, ‘अपना सपना मनीमनी’, ‘अलादीन’ जैसी मल्टीस्टारर और कौमेडी फिल्में कर अपना नाम व पहचान बनाई. मगर पिछले दिनों फिल्म ‘एक विलेन’ में विलेन के किरदार के अलावा स्वनिर्मित व निशिकांत कामत द्वारा निर्देशित मराठी भाषा की फिल्म ‘लय भारी’ में ठीक उस के विपरीत कौमर्शियल हीरो के डबल रोल में न सिर्फ नजर आए, बल्कि यह भी साबित कर दिया कि वे किसी भी तरह के किरदार को निभाने में सक्षम हैं.

पेश हैं, रितेश देशमुख से हुई गुफ्तगू के अंश:

आप ने जब मराठी भाषा की फिल्म ‘लय भारी’ में अभिनय किया, तब मराठी भाषा को ले कर समस्या आई होगी?

‘लय भारी’ में 2 तरह की मराठी भाषा थी. एक ब्राह्मणप्रधान पुणे की मराठी बोलचाल की भाषा थी तो दूसरी गांव वाली मराठी थी. गांव वाली मराठी भाषा का जो लहजा था, वह मेरे गांव यानी लातूर का था. उस का टोन मुझे पता था. पर दूसरी ब्राह्मणप्रधान भाषा से मेरा परिचय नहीं था, इसलिए इसे मैं सैट पर निर्देशक निशिकांत कामत से सीखता था.

आप ने मराठी भाषा में 3 फिल्में बनाईं. अब आगे की क्या योजना है?

मैं ने मराठी भाषा में सब से पहले बच्चों की फिल्म ‘बालक पालक’ बनाई, फिर ‘येलो’ बनाई. उस के बाद कौमर्शियल फिल्म ‘लय भारी’ बनाई. अब चौथी फिल्म ‘माउली’ बना रहा हूं. इस फिल्म का भी निर्देशन निशिकांत कामत ही कर रहे हैं. यह भी एक ऐक्शन फिल्म होगी, जिस में मैं ही अभिनय करने वाला हूं.

‘बालक पालक’ को आप ने हिंदी में क्यों नहीं बनाया?

हिंदी में बनाने की सोच रहे थे, पर फिल्म बनाना मुद्दा नहीं है. मुद्दा उसे दर्शकों तक पहुंचाने का है. उस की मार्केट क्या है? यह सोचना पड़ता है, क्योंकि फिल्म बनने के बाद रिलीज की तारीख नहीं मिलती. हमारे यहां साल में कम से कम 2 सौ फिल्में बनती हैं. साल में 52 सप्ताह होते हैं. हर सप्ताह 4 फिल्में रिलीज हों, तो थिएटर की मारामारी शुरू हो जाती है. फिर बच्चों की फिल्म है, तो थिएटर जल्दी मिलेंगे नहीं. बड़ी फिल्में पहले ही थिएटर पर कब्जा कर लेती हैं.

पर आप ने ‘बालक पालक’ में जो मुद्दा उठाया था वह हिंदी में भी पसंद किया जा सकता था?

हमारी फिल्म ‘बालक पालक’ का मुद्दा किसी भाषावर्ग के दर्शकों तक सीमित नहीं है. यह तो एक यूनिवर्सल समस्या पर बनी फिल्म है. इस फिल्म का शौर्ट नाम ‘बी पी’ था. महाराष्ट्र में ब्लू फिल्मों को ‘बीपी’ कहते हैं. मैं ने उसी बीपी को ले कर ‘बालक पालक’ यानी बच्चा और पेरैंट्स की कहानी बताई. इस फिल्म में सैक्स एजुकेशन को ले कर बच्चों व उन के मातापिता के बीच बातचीत का चित्रण है. इस में यह मुद्दा उठाया गया है कि अगर हम सैक्स जैसे विषय पर अपने बच्चों से इस बारे में बात करते हुए शरमाते हैं, तो यह सही नहीं है. बच्चों के पास कहीं न कहीं से जानकारी पहुंच जाएगी. पर हो सकता है कि वह जानकारी उन्हें गलत तरीके से मिले.

क्या आप मानते हैं कि स्कूलों में सैक्स एजुकेशन मिलनी चाहिए?

सैक्स की सही जानकारी लोगों तक पहुंचनी जरूरी है. लोगों के बीच सही जानकारी न होने की वजह से ही रेप की घटनाएं बढ़ रही हैं. यह हमारे शिक्षातंत्र की नाकामयाबी है, हमारे देश में कानून को सही ढंग से लागू न किए जाने का परिणाम है. हमारा कानून लोगों के मन में डर नहीं पैदा कर पा रहा है. लोगों को इस बात का डर नहीं सताता कि गलत काम करने पर उन्हें सख्त सजा मिलेगी. मेरा मानना है कि रेप जैसे अपराध तभी खत्म होंगे, जब लोगों के दिलों में डर पैदा होगा. इस के लिए सख्त कानून बनने चाहिए.

आप अपने कैरियर के पिछले 2 वर्षों को किस तरह से देखते हैं? आप को नहीं लगता कि पिछले 2 वर्षों में दर्शकों के सामने कलाकार के तौर पर आप का एक नया रूप उभरा है?

सच यह है कि पिछले 2-3 वर्षों में सिनेमा के प्रति दर्शकों की रुचि काफी बदली है. अब फिल्मकार भी कलाकार को बारबार एक ही तरह के किरदार में लेना नहीं चाहते. फिल्मकार अपनी फिल्मों के लिए अलग हट कर कलाकार चुनने लगे हैं. वहीं दर्शक भी अब कलाकार को अलग रूप में देखना चाहते हैं. इस बदलाव ने मुझे अपनी प्रतिभा के अनुरूप चुनौतीपूर्ण किरदार चुनने का अवसर दिया. इसी के चलते मैं ने ‘एक विलेन’ जैसी फिल्म की. ‘बालक पालक’, ‘येलो’ और ‘लय भारी’ जैसी मराठी भाषा की फिल्मों का निर्माण किया. इन्हीं फिल्मों की वजह से मुझे ‘बंगिस्तान’ और ‘बैंक चोर’ फिल्में मिलीं.

आप ने एक तरफ ‘ग्रैंड मस्ती’ तो दूसरी तरफ ‘एक विलेन’ की. दोनों एकदूसरे से काफी अलग तरह की फिल्में हैं. दोनों फिल्मों ने बौक्स औफिस पर सौ करोड़ रुपए कमाए. इस से आप दुविधा में नहीं पड़े कि आप को कौन सी फिल्म करनी चाहिए?

पिछले 10-12 सालों के अपने कैरियर में मैं ने एक बात सीखी कि एक बार शुक्रवार बीत गया, तो सब कुछ भूल कर आगे बढ़ो. मैं ने तमाम लोगों को देखा जो शुक्रवार से चिपके रहते हैं, वे पीछे ही रह गए. कलाकार के तौर पर मेरे लिए खुशी या गम मनाने का एकमात्र दिन शुक्रवार होता है. शनिवार से मैं फिर से नए जोश व उत्साह के साथ अपने काम में लग जाता हूं.

आप ‘ग्रेट ग्रैंड मस्ती’ कर रहे हैं, मगर ‘क्या कूल हैं हम 3’ करने से मना क्यों कर दिया?

मैं ऐडल्ट कौमेडी वाली फिल्में नहीं करना चाहता. मगर मैं ‘ग्रेट ग्रैंड मस्ती’ महज इंद्र कुमार की खातिर कर रहा हूं.

पिछली बार ‘ग्रैंड मस्ती’ की बहुत आलोचना हुई थी. अब आप उस का सीक्वल ‘ग्रेट गैंड मस्ती’ बना रहे हैं?

मुझे पता है कि इस की आलोचना होने वाली है. मगर मेरी राय में इस तरह की फिल्में बननी चाहिए. जितना मेरा ज्ञान है, उस आधार पर कह सकता हूं कि जब फिल्में नहीं बनती थीं, तब लोग मनोरंजन के लिए उत्तर भारत में ‘नौटंकी’ और महाराष्ट्र में ‘लावणी’ या ‘तमाशा’ देखते थे. इन में डबल मीनिंग के संवाद हुआ करते थे. कहने का अर्थ यह कि पहले भी किसान दिन भर खेतों में मेहनत करता था और शाम को ‘नौटंकी’, ‘तमाशा’ या ‘लावणी’ देखने पहुंच जाता था. यह हमारी सभ्यता व संस्कृति का हिस्सा रहा है. दादा कोडके भी डबल मीनिंग की फिल्में बनाते रहे हैं. हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि ‘ग्रैंड मस्ती’ ने सौ करोड़ रुपए कमाए थे.

भारतीय सैंसर बोर्ड के रवैए को ले कर क्या कहेंगे?

भारतीय सैंसर बोर्ड तो ‘गाइड लाइंस’ के आधार पर काम करता है. यह गाइड लाइन, सैंसर बोर्ड से जुड़े लोगों की सोच के अनुसार थोड़ी सी अलग हो जाती है. मेरी राय में किसी भी फिल्म को बैन नहीं किया जाना चाहिए. जब 18 साल की उम्र के बच्चे यह निर्णय ले सकते हैं कि देश का प्रधानमंत्री कौन बने, देश का सांसद कौन बने, तो उन्हें यह निर्णय करने का भी हक होना चाहिए कि वे कौनकौन सी फिल्में देखें.

बेटे का नाम ‘रियान’ रखने के पीछे क्या सोच रही?

मैं और मेरी पत्नी लड़के व लड़कियों के कई नामों पर विचार कर रहे थे. जब मैं पोलैंड में फिल्म ‘बंगिस्तान’ की शूटिंग कर रहा था, तो एक दिन मेरी पत्नी जिनेलिया ने कहा कि मैं बच्चे के नाम को ले कर कुछ सोचता ही नहीं हूं. मुझे लगा कि यह तो बड़ी गलत बात है. मैं यों ही विचार करने लगा. फिर जब शाम को शूटिंग खत्म होने के बाद मैं और जिनेलिया होटल से बाहर टहलने निकले तो मेरे दिमाग में अचानक ‘रियान’ आया. मैं ने पत्नी से कहा कि यह नाम कैसा रहेगा? उस ने पूछा कि इस का मतलब? मैं ने कहा पता नहीं. बाद में मैं ने इंटरनैट पर ‘रियान’ का मतलब खोजा तो पता चला कि यह तो एक पुराना संस्कृत का शब्द है. इस का मतलब ‘छोटा राजा’ या ‘शासक’ होता है. हम ने यह नाम बच्चे की कुंडली या उस के जन्म नक्षत्र आदि के आधार पर नहीं रखा. 

कंगना बनीं 11 करोड़ी

कंगना आज बौलीवुड की उस पोजिशन पर पहुंच गई हैं जहां कभी टौप की ऐक्ट्रैसों ने कब्जा जमाया हुआ था. तभी तो उन से जुड़ी हर खबर आज सुर्खियों में छा जाती है. ‘तनु वैड्स मनु रिटर्न’ के बाद तो कंगना रीयल बौलीवुड क्वीन बन गई हैं. तभी तो जो पैसा खान तिकड़ी को औफर किया जाता है, आज वही कंगना को फिल्म करने के लिए औफर किया जा रहा है. खबर है कि कंगना को एक फिल्म करने के लिए 11 करोड़ का औफर आया है. इतना बड़ा औफर दीपिका, प्रियंका को भी कभी नहीं आया. फिलहाल तो कंगना 18 सितंबर को रिलीज होने वाली अपनी फिल्म ‘कट्टीबट्टी’ को ले कर उत्साहित हैं और फिल्म के बारे में वे बताती हैं कि यह एक अलग तरह की रोमांटिक फिल्म है. इस के मैडी और पायल नाम के किरदार लिवइन में रहने के बाद अलग हो जाते हैं.

सोनम की फुटबौल

पिछले दिनों आस्ट्रेलिया के मेलबर्न शहर में इंडियन फिल्म फैस्टिवल में शामिल हुईं सोनम को वहां चल रहे आस्ट्रेलियाई फुटबौल लीग का मुख्य मेहमान बनाया गया और एक फुटबौल मैच के दौरान उन को टौस का सिक्का उछालने के लिए मैदान के अंदर बुलाया गया. इस के बाद सोनम ने उस मैच की दोनों टीमों के मुकाबले का लुत्फ उठाया. सोनम को तोहफे के रूप में एक फुटबौल भी दी गई जिस पर सभी खिलाडि़यों के हस्ताक्षर थे.

बौर्डर पार जाना चाहती हैं बेबो

जब से फिल्म ‘बजरंगी भाईजान’ रिलीज हुई है करीना के मन में भी सरहद पार पाकिस्तान जाने की इच्छाएं हिलोरें मारने लगी हैं. लेकिन यह कोई दोनों देशों के बीच शांतिदूत बन कर जाने की इच्छा नहीं है. दरअसल, सैफ के कई रिश्तेदार पाकिस्तान में रहते हैं और करीना ने सैफ से कई बार वहां के खाने और खातिरदारी की तारीफें सुनी हैं. वे बताती हैं कि बहुत बार पाकिस्तान से बुलावा आया है. मैं भी वहां जाने की ख्वाहिशमंद हूं. मुझे वहां का खानपान बहुत पसंद है और लोग कहते हैं कि हमारी फैन फौलोइंग वहां पर बहुत है. फिलहाल कोई प्लान तो नहीं बना है, लेकिन मैं वहां जाना पसंद करूंगी.

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