किस की तारीफ करें

डेढ़ करोड़ की गाडि़यां भी अब आम हो गई हैं और लैंबोरगिनी जैसी कंपनियां तो सैकड़ों हर साल बेच लेती हैं. यह बता दें कि गाड़ी के साथ ये लड़कियां मुफ्त नहीं मिलतीं. हां, अगर ऐसी गाड़ी हो तो इस तरह की लड़कियां चुंबक सी अपनेआप आ जाती हैं.

आराधना मिश्रा : प्रतापगढ़ जिले की विधायक

समाज में बेटियों पर तमाम तरह की बंदिशें शुरू से ही लगती आई हैं. बात किसी भी वर्ग की बेटियों की हो, उन की दशा एकजैसी ही होती है. इस के बावजूद बेटियों को जब भी मौका मिला उन्होंने खुद को साबित किया है. आराधना मिश्रा ऐसी ही बेटियों में से एक हैं. उन के पिता प्रमोद तिवारी उत्तर प्रदेश में कांगे्रस के बड़े नेताओं में से एक हैं. वे प्रतापगढ़ जिले की रामपुर खास विधान सभा से 1980 से ले कर 2012 तक लगातार विधायक रहे हैं. जब उत्तर प्रदेश में कांगे्रस का जनाधार लगातार गिरता रहा तब भी प्रमोद तिवारी कांगे्रस के विधायक बनते रहे.

वे जब राज्य सभा के सदस्य बने तो उन की विधान सभा सीट पर हुए उपचुनाव में उन की बेटी आराधना मिश्रा को जीत हासिल हुई. आराधना मिश्रा के स्वभाव और कामकाज पर अपने पिता प्रमोद तिवारी की गहरी छाप पड़ी है. आराधना मिश्रा ने तमाम मुद्दों पर खुल कर बातचीत की:

समाज में बेटियों को आगे लाने के लिए मातापिता को किस तरह से उन की परवरिश करनी चाहिए?

अगर अवसर मिले तो बेटियां किसी से कम नहीं. मैं 12वीं कक्षा की पढ़ाई पूरी करने के बाद ही मैं पिताजी के विधान सभा क्षेत्र में जा कर उन का सहयोग करने लगी थी. मेरी मां अलका तिवारी ने मुझे हमेशा निडर रहना सिखाया. मेरे घर में मातापिता ने जिस तरह की परवरिश की उस से मुझे समाज और परिवार को बड़ी कम उम्र में समझने का मौका मिल गया. मेरे साथ एक अच्छी बात यह भी रही कि मुझे ससुराल में भी मातापिता के घर जैसा ही माहौल मिला. मेरे पति अंबिका मिश्र लखनऊ के प्रतिष्ठित बिजनैसमैन हैं. शादी के बाद मेरी सास ने मुझ से कहा कि मैं पहले की ही तरह अपने सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में काम करती रहूं. सच अगर शादी के पहले मातापिता का और शादी के बाद सासससुर का सहयोग मिले तो आज की औरत आसमान को भी छू सकती है.

अपने बच्चों की परवरिश करते समय किस तरह की बातों का खयाल रखना चाहिए?

मेरी बेटी नंदिजा बड़ी है और बेटा राघव छोटा है. मैं दोनों की एकजैसी परवरिश करती हूं. गलती करने पर बेटे को भी समझाती हूं. दोनों अभी छोटे हैं. मैं पूरी कोशिश करूंगी कि जैसी परवरिश मेरी हुई है वैसी ही उन की भी कर सकूं. बेटी और बेटे की परवरिश में किसी तरह का भेदभाव नहीं करना चाहिए. बेटे की परवरिश ऐसी हो कि वह समाज में बेटियों की इज्जत करे. मेरे बच्चे जीवन में जो करना चाहें उन्हें उस की मेरी तरफ से पूरी आजादी होगी.

राजनीति में महिलाओं की स्थिति कैसी लग रही है?

राजनीति में अब महिलाओं को गंभीरता से लिया जा रहा है. अब वे शो पीस नहीं रह गई हैं. मैं 2001 में जब संग्रामगढ़ ब्लौक की ब्लौक प्रमुख बनी थी, उस समय मैं उत्तर प्रदेश की सब से कम उम्र की ब्लौक प्रमुख थी. लेकिन आज प्रतियोगिता का दौर है. अपनी योग्यता और क्षमता खुद साबित करनी पड़ती है.

आप ने विधान सभा का चुनाव जीता. जीत का मूलमंत्र क्या होता है?

जीत का मूलमंत्र संगठन होता है. चाहे पार्टी का संगठन हो या नेता का अपना खुद का संगठन, जिस दिन वोट पड़ते हैं उस दिन पोलिंगबूथ पर आप के कार्यकर्ता किस तरह से काम करते हैं, इस पर जीत बहुत हद तक निर्भर करती है. मेरे चुनाव प्रचार में मेरे पति और बहन विजयश्री ने बहुत मेहनत की थी.

लोक सभा चुनाव में कांग्रेस की जो हालत रही है उस से उस का भविष्य क्या नजर आता है?

राजनीति में बदलाव एक सतत प्रतिक्रिया का अंग है. भविष्य में फिर बदलाव होगा. हाल के कुछ चुनावों में जीत चमत्कार की तरह दिखी है. मायावती, अखिलेश यादव और नरेंद्र मोदी को इतनी बड़ी जीत की उम्मीद खुद भी नहीं थी. उत्तर प्रदेश में जनता क्षेत्रीय दलों के शासन को देख चुकी है. ऐसे में वह बदलाव करेगी. कांगे्रस का दौर लौटेगा.

राजनीति में सक्रिय होने पर घर के कामकाज को कैसे संभालती हैं?

मुझे शुरू से ही तरहतरह का खाना बनाने का शौक रहा है और मैं हर तरह का खाना बना लेती हूं. इसलिए मुझे जब भी समय मिलता है खाना बनाने का शौक अब भी पूरा कर लेती हूं.

कुछ दूसरे शौक भी आप को हैं, जिन्हें पूरा कर के आप सुकून महसूस करती हों?

पढ़ने का मुझे शौक बचपन से रहा है. आज भी मैं बच्चों की पत्रिका चंपक पढ़ती हूं. बड़ी हो कर मैं ने लिखना भी शुरू किया था. इलाहाबाद में पढ़ाई के दौरान मैं ने आकाशवाणी में आने वाले बच्चों के कार्यक्रम बालवाणी और युववाणी में स्क्रिप्ट लिखी है. लेख लिखने का भी शौक रहा है. सरिता, गृहशोभा जैसी सकारात्मक सोच देने वाली पत्रिकाओं को मैं नियमित पढ़ती हूं.

रियल लाइफ में मैरी कौम से प्रभावित हूं : प्रियंका चोपड़ा

‘मिस वर्ल्ड’ से बौलीवुड की चर्चित अदाकारा बनने तक प्रियंका चोपड़ा ने लंबी यात्रा की है. इस यात्रा में उन्हें कई तरह के पड़ावों से गुजरना पड़ा, पर उन्होंने कभी हार नहीं मानी. बरेली जैसे छोटे शहर से आ कर बौलीवुड में बड़ा नाम बन कर उन्होंने दूसरी लड़कियों के लिए मिसाल कायम की है. इन दिनों वे अर्जुन अवार्ड विजेता मैरी कौम की बायोपिक फिल्म ‘मैरी कौम’ में अभिनय कर उत्साहित हैं.

फिल्म ‘मैरी कौम’ में एक लोरी गा कर प्रियंका चोपड़ा ने 40 साल से बौलीवुड की फिल्मों से गायब हो चुकी लोरी संस्कृति को नया जीवन दिया है.

पेश हैं, उन से हुई गुफ्तगू के प्रमुख अंश:

आप ‘मैरी कौम’ बायोपिक को ले कर बहुत उत्साहित हैं. मगर ट्रेलर देख कर दर्शकों को शिकायत है कि आप मणिपुरी नहीं लगतीं?

यह सच है. मगर जब मेरे पास इस फिल्म का औफर आया, तो मना नहीं कर पाई. मैं ही क्यों कोई भी अभिनेत्री मैरी कौम का किरदार निभाने से मना नहीं करती. मैं दर्शकों से कहूंगी कि वे चेहरे पर न जाएं. कलाकार की प्रतिभा और मैरी कौम की कहानी को समझें.

यह फिल्म स्वीकार करने से पहले आप मैरी कौम के बारे में कितना जानती थीं?

मुझे मैरी कौम के बारे में जानकारी थी. मैं जानती थी कि वे बौक्सर हैं, ओलिंपिक विजेता हैं. मुझे पता था कि वे राष्ट्रीय बौक्सिंग चैंपियन में 5 बार गोल्ड मैडल हासिल कर चुकी हैं. मणिपुर के छोटे से गांव में चावल उगाने वाले किसान की बेटी मैरी कौम इतनी शोहरत पाने के बावजूद आज भी इंफाल से करीब 100 किलोमीटर दूर एक छोटे से गांव में रहती हैं.

जिन्हें अपने भविष्य के लिए दिशा की तलाश है, जिन्हें अपनी ऐनर्जी का सदुपयोग करना है उन्हें यह फिल्म जरूर देखनी चाहिए.

जब आप को फिल्म का औफर मिला, तो आप के दिमाग में पहली बात क्या आई?

यही कि मुझे बौक्सिंग सीखनी पड़ेगी. फिर मेरे दिमाग में आया कि क्या मैं इतना कठिन काम कर पाऊंगी? मुझे 4 माह लगे बौक्सिंग सीखने में. इस के अलावा हर दिन जिम भी जाना पड़ा. बौक्सरों की तरह अपनी मसल्स बनानी पड़ीं. मैरी कौम कैसे चलती हैं, किस तरह लड़तीझगड़ती हैं, वह सब कुछ मैं ने अपने अंदर लाने की कोशिश की.

अपने पति, अपने भाईबहनों के साथ मैरी कौम का जो रिश्ता है, उसे भी हम ने समझ कर निभाने की कोशिश की है. पिता के साथ और कोच के साथ उन का जो रिश्ता है उसे भी हम ने तवज्जो दी है. उन की जिंदगी की कई रीयल घटनाओं को भी इस फिल्म में रखा है.

यह फिल्म एक खिलाड़ी व खेल की बात करती है, तो खेल को ले कर किस तरह के कदम उठाने की जरूरत है?

मैं इस बारे में ज्यादा बात नहीं करना चाहती, क्योंकि हमारी फिल्म इस बारे में बहुत कुछ कहती है. हमारी फिल्म का यह बहुत बड़ा हिस्सा है. उस पर बात करने पर फिल्म के कुछ सीन बताने पड़ेंगे, जो मैं बताना नहीं चाहती.

आप के लिए इस फिल्म को करना कितना कठिन था?

इस फिल्म में अभिनय करना मेरे लिए फिजिकली और मैंटली दोनों तरह से तकलीफदायक था. हम औरतों का शरीर व मसल्स वैसी नहीं होती जैसी पुरुषों की होती हैं. पर मुझे एक खिलाड़ी की तरह अपनी मसल्स बनानी थीं तो यह मेरे लिए बहुत कठिन रहा. इस के अलावा भावनात्मक स्तर पर भी मुझे बहुत मेहनत करनी पड़ी, क्योंकि हर सीन के समय मेरे अंदर डर बना रहता था कि यह बहुत रीयल इंसान की जिंदगी का मसला है. वह गलत ढंग से परदे पर न आए. मैं ने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की कि अपने अभिनय से किरदार को मैरी कौम के ज्यादा से ज्यादा करीब बना सकूं.

यह फिल्म लड़कियों को क्या संदेश देती है?

यह फिल्म सिर्फ लड़कियों की नहीं, बल्कि युवा पीढ़ी की फिल्म है. यह फिल्म उन लोगों के लिए है, जिन से कहा जाता है कि सीमाओं में रहो, अपने सपनों को सीमित रखो, अपने परिवार का बिजनैस जौइन करो, उम्र हो गई है, अब शादी कर लो.

हमारी यह फिल्म कहती है कि इंसान को जिंदगी में कुछ बड़ा काम करने के लिए, कुछ बड़ा बनने के लिए, एक बड़े मुकाम को पाने के लिए, अपने दायरे में नहीं रहना चाहिए. सपनों को इतना बुलंद करना चाहिए कि आप अपने मुकाम तक पहुंच सकें. यह फिल्म आप को अपने पैरों पर खड़े होने की शिक्षा देगी. हमारी युवा पीढ़ी सोचती कुछ है, करती कुछ है. वह अपनी ऐनर्जी गलत दिशा में ही लगाती रहती है. यह फिल्म उसे अपनी ऐनर्जी को सही दिशा में लगाना सिखाएगी.

मैरी कौम की किस बात ने आप को इंस्पायर किया?

मुझे मैरी कौम की मैंटालिटी ने बहुत इंस्पायर किया. जब वे मां होती हैं, तो मां बन जाती हैं, बच्चों के साथ होती हैं, तो बिलकुल बच्चों की तरह बिहेव करने लगती हैं. वे जब जो काम करती हैं, पूरे फोकस के साथ करती हैं. मैं भी उसी तरह हर काम को अच्छे ढंग से करना चाहती हूं. फिर चाहे अपना घर सजाना हो या दोस्तों के साथ गपशप करना अथवा परिवार के साथ समय बिताना.

70 के दशक के बाद फिल्मों से लोरी गायब हो गई थी. 40-45 साल बाद आप ने इस फिल्म में लोरी गाई है?

मेरे मम्मीपापा मेरे लिए लोरी गाया करते थे, पर यह फिल्मों से गायब हो गई है. अब इस फिल्म में लोरी फिल्म का अहम हिस्सा है. बहुत ही बढि़या लोरी है. फिल्म में मैरी कौम अपने बच्चे को लोरी गा कर ही सुलाती हैं. मुझे इस लोरी को गाने में भी बहुत मजा आया.

यूनिसेफ के साथ जुड़ कर क्या कर रही हैं?

मैं यूनिसेफ के साथ 5 सालों से काम कर रही हूं. गुडविल ऐंबैसेडर के रूप में काम किया. हम ने शिक्षा पर बहुत काम किया. 4 साल पहले हम ने ‘दीपशिखा’ नामक कार्यक्रम शुरू किया था. यह अब करीब 3 सौ गांवों में काम कर रहा है, जहां लड़कियों को शिक्षा दी जाती है. यूनिसेफ का एक घर होता है, जहां लड़कियां पढ़ने, सिलाईबुनाई सीखने के लिए आ सकती हैं ताकि वे अपने पैरों पर खड़ी हो सकें, अपना खुद का बिजनैस शुरू कर सकें. यह ऐंपावरमैंट है. चाइल्ड मैरिज के खिलाफ भी काम कर रही हूं.

आप ने अपनी भी कोई संस्था बनाई है?

जी हां, मैं ने अपना फाउंडेशन शुरू किया है. इस का नाम ‘चोपड़ा फाउंडेशन फौर हैल्थ ऐंड ऐजुकेशन’ है. इसे 3 साल हो गए. हम इस संस्था के माध्यम से जरूरतमंदों को उन के औपरेशन वगैरह का खर्च मुहैया करते हैं. जरूरतमंद की स्कूल व कालेज की फीस व किताबें आदि खरीदने के लिए पैसे देते हैं.

आप के लिए ट्विटर इन्फौरमेशन का मीडियम है या?

ट्विटर एकदूसरे से अपने विचारों के आदानप्रदान करने का माध्यम है. इस के जरीए आप विश्व स्तर पर अपने विचारों का आदानप्रदान कर सकते हैं. मगर आजकल लोग नाम छिपा कर किसी भी सैलिब्रिटी से गालीगलौज करते रहते हैं, जो गलत है. आजकल लोग इंसानियत भूल रहे हैं.

क्रूरता की इंतहा

सड़क पर सामान बेचना गुनाह है पर इतना तो नहीं कि पुलिस इस गुनाह पर मार ही डाले. उस ने न्यूयार्क में एक सिगरेट बेचने वाले अश्वेत गरीब को मार डाला तो खासा विवाद खड़ा हो गया है. हट्टाकट्टा 150 किलोग्राम, 6 फुट 6 इंच का इरिक गार्नर अगर मारा गया तो पक्का है उस के साथ बहुत ही क्रूरता की गई होगी. पुलिस हर जगह एक जैसी है और अमेरिका में तो पुलिस वाले मिलिट्री वालों की तरह  व्यवहार करने लगे हैं. द्य

बेहतर प्रबंधन से सजे वाटिका

घर चाहे जितना भी बड़ा हो अगर उस में गृहवाटिका न हो तो आकर्षक नहीं लगता. गृहवाटिका ही घर को खूबसूरत लुक देती है. यदि आप की भी पेड़पौधों में रुचि है और आप के घर में पर्याप्त जगह है तो आप भी अपने घर में गृहवाटिका लगा सकते हैं.

गृहवाटिका में पौधों की वृद्धि व उत्पादन आदि वाटिका के प्रबंध पर निर्भर करते हैं. रोजाना की जरूरत के मुताबिक, फूल, सब्जियां व फल प्राप्त करने के लिए गृहवाटिका का प्रबंध इस तरह करना चाहिए कि कम से कम लागत व समय में, अधिकतम उत्पादन तो मिले ही, साथ ही वह स्वच्छ तथा सुंदर भी बनी रहे.

निराईगुड़ाई

पौधों की उत्तम वृद्धि व उपज के लिए क्यारियों व गमलों की सफाई जरूरी है. इस के लिए समय से निराईगुड़ाई करनी चाहिए. निराईगुड़ाई करने से खरपतवार नियंत्रण के साथसाथ भूमि में वायु संचार बढ़ जाता है जिस से जड़ों को अपना कार्य करने में आसानी रहती है, पोषक तत्त्व जड़क्षेत्र तक पहुंच जाते हैं और वाष्पन की क्रिया अवरुद्ध होने से सिंचाई की आवश्यकता कम हो जाती है.

फसल के साथ उगे अवांछित पौधे यानी खरपतवार भी फसल के पौधों के साथसाथ जमीन से पोषक तत्त्व व पानी ले लेते हैं और वे पत्तियों तक प्रकाश के पहुंचने में बाधक भी होते हैं. ऐसी स्थिति से बचने के लिए समय से निराईगुड़ाई करनी जरूरी है. निराईगुड़ाई करते समय पौधे के तने पर किसी प्रकार की खरोंच लग जाने पर उस में बोडो पेस्ट लगा देना चाहिए.

गृहवाटिका में निराईगुड़ाई करते समय निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए :

  1. निराईगुड़ाई इस तरह करनी चाहिए कि पौधों की जड़ों व तने को किसी तरह का नुकसान न पहुंचे.
  2. यदि खड़ी फसल में उर्वरक दी जाती है तो उसे जमीन में मिलाने के लिए निराईगुड़ाई जरूरी होती है.
  3. बीज की बुआई के बाद क्यारी की मिट्टी कड़ी हो जाने पर उसे भुरभुरी बनाने के लिए हलकी निराईगुड़ाई करनी चाहिए.
  4. बरसात में गुड़ाई करने के बाद पौधों पर मिट्टी भी चढ़ा देनी चाहिए ताकि उन्हें पानी की अधिकता से बचाया जा सके.
  5. पौधशाला में निराई के लिए किसी पतली खुरपी का प्रयोग करना चाहिए ताकि पौध को किसी तरह का नुकसान न हो.
  6. फलदार पौधों में निराईगुड़ाई सक्रिय जड़ क्षेत्र में करनी चाहिए. गुड़ाई करने के बाद उन्हें 2-3 दिन के लिए खुला छोड़ देना चाहिए, फिर हलकी सिंचाई करनी चाहिए.

पलवार लगाना

पानी की कमी वाले क्षेत्रों में गृहवाटिका में पलवार लगाने से सिंचाई की संख्या में कमी आती है, खरपतवार कम उगते हैं जबकि पैदावार बढ़ती है और उपज के दूसरे गुणों में भी बढ़ोत्तरी होती है. पलवार लगाने से पहले क्यारियों की सफाई कर देनी चाहिए और एक हलकी सिंचाई भी करनी चाहिए. इस के बाद पलवार की 5-10 सैंटीमीटर मोटी परत खाली जगहों पर बिछा देनी चाहिए. पलवार बिछाते समय यह ध्यान रखें कि कोई भी शाखा पलवार के अंदर दबी न रह जाए. पलवार की मोटाई सभी जगह एकसमान रहनी चाहिए.

सहारा देना

लतावली फसलों जैसे लौकी, तोरई, खीरा, करेला, अंगूर, स्वीट-पी आदि में यदि पौधों को सुचारु रूप से सहारा दे दिया जाए तो फसल की बढ़वार सही होती है व फलों की गुणवत्ता भी सुधरती है. लौकी में देखा गया है कि यदि पौधों को सुचारु ढंग से सहारा दिया जाए और फलों को लटकने का अवसर मिल जाए तो फल लंबे, चिकने व सुंदर प्राप्त होते हैं. इस तरह के पौधों को ज्यादातर बाड़ के पास उगाना चाहिए ताकि ये बाद में बाड़ पर चढ़ जाएं और अच्छी उपज मिल सके. डहेलिया, ग्लेडिओलस, गुलदाऊदी आदि फूलों को सीधा रखने के लिए बांस की रंगीन खपच्चियों से भी सहारा दिया जा सकता है. वहीं, अंगूर की लता को सहारा देने के लिए तार का उपयोग भी किया जा सकता है.

गृहवाटिका की सुरक्षा भी उतनी ही जरूरी है जितनी कि उसे लगाना. अवांछित पशुपक्षियों के अलावा राहगीरों व बच्चों से भी गृहवाटिका के पौधों का बचाव करना पड़ता है. यदि घर के चारों ओर पक्की चारदीवारी नहीं है तो कांटेदार तार या उपयुक्त पौधों की बाड़ की रोक लगा देनी चाहिए.

खाद उर्वरक प्रबंध

पौधों की वृद्धि व उत्पादन के लिए 16 पोषक तत्त्वों की आवश्यकता पड़ती है. इन पोषक तत्त्वों के अभाव में पौधों की वृद्धि रुक जाती है और पैदावार में कमी आ जाती है. पौधों के पोषक तत्त्वों को 3 भागों में बांटा गया है. पहले वे पोषक तत्त्व जिन की अधिक मात्रा में आवश्यकता होती है, मुख्य तत्त्व कहलाते हैं, जैसे नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटैशियम. दूसरे, वे पोषक तत्त्व जिन की आवश्यकता मध्यम मात्रा में होती है, द्वितीयक तत्त्व कहलाते हैं, जैसे गंधक, कैल्शियम व मैग्नीशियम. तीसरे, ऐसे पोषक तत्त्व जिन की कम मात्रा में आवश्यकता होती है, उन्हें सूक्ष्म तत्त्व कहते हैं, जैसे लोहा, जस्ता, तांबा, क्लोरीन व मैग्नीज.

पौधों की वृद्धि में सहायक पोषक तत्त्वों की आवश्यकता की पूर्ति आमतौर पर मिट्टी से हो जाती है. पर कुछ समय बाद मिट्टी में इन की कमी होने लगती है, ऐसी स्थिति में खाद व उर्वरकों की आवश्यकता होती है. पौधों को संतुलित पोषण प्रदान करने के लिए गोबर की खाद (60 भाग), उपजाऊ मृदा (3 भाग), बालू मृदा (2 भाग), नीम की खली (3 भाग), वर्मी कंपोस्ट (7 भाग), तालाब की मृदा (5 भाग), कंपोस्ट खाद (5 भाग), काकोपिट (5 भाग), एनपी के उर्वरक मिश्रण (10 भाग) व जिप्सम (अल्प मात्रा) का संयुक्त मिश्रण बना कर उसे पौधे के जड़क्षेत्र व गमलों में पौधों के उत्पादन व उम्र के आधार पर थोड़ीथोड़ी मात्रा में देते रहना चाहिए.

कटाईछंटाई

गृहवाटिका में कुछ बहुवर्षीय पौधे भी लगाए जाते हैं, जिन की कटाईछंटाई की आवश्यकता होती है. शोभाकारी झाडि़यों, फलदार वृक्षों (जैसे अंगूर, आड़ू, संतरा, आलूबुखारा, नीबू आदि) और कुछ बहुवर्षी सब्जियों (जैसे परमल, कुंदरू आदि) में कटाईछंटाई की आवश्यकता पड़ती है.

अधिकांश पर्णपाती पौधों में कटाईछंटाई दिसंबर से मार्च तक की जाती है जबकि सदाबहार पौधों में जूनजुलाई व फरवरीमार्च, दोनों मौसमों में कर सकते हैं. रोगग्रस्त व अनावश्यक शाखाओं को निकाल देना चाहिए. ऐसी शाखाओं को काटने के लिए तेज चाकू का प्रयोग करना चाहिए तथा कटाईछंटाई के बाद बोर्डो मिश्रण का छिड़काव करना चाहिए.

खाद उर्वरकों के प्रयोग में सावधानियां

  1. फसल की जरूरत के मुताबिक ही खाद और उर्वरक दिए जाएं. यदि आवश्यकता से अधिक उर्वरक दिए जाएंगे तो पौधों के अंकुरण पर कुप्रभाव पड़ेगा.
  2. खाद और उर्वरक समय पर ही दिए जाएं. यदि वे समय से पहले या बाद में दिए जाते हैं तो उन का सदुपयोग नहीं हो पाता है.
  3. खाद और उर्वरक देते समय जमीन में नमी की पर्याप्त मात्रा होनी चाहिए वरना फसल पर कुप्रभाव पड़ता है.
  4. यदि उर्वरक घोल के रूप में दिया जा रहा है तो पानी में उन की निर्धारित मात्रा ही घोली जानी चाहिए वरना पौधों को नुकसान पहुंच सकता है.
  5. यदि उर्वरक ‘टौप ड्रैसिंग’ के रूप में दिया जा रहा है तो मौसम साफ होना चाहिए. उर्वरक तने के पास नहीं डालना चाहिए और ओस पड़ी हुई नहीं होनी चाहिए.

एम्ब्रोस की गार्डनिंग

‘खिलते हैं गुल यहां…’, ‘मैं ने कहा फूलों से हंसा तो वो खिलखिला कर हंस दिए…’, ‘फूल आहिस्ता फेंको, फूल बड़े नाजुक होते हैं…’, ‘ऐ फूलोंकी रानी बहारों की मलिका…’, ‘फूल तुम्हें भेजा है खत में…’ जैसे गीत गुनगुनाना उन्हें इसलिए पसंद है क्योंकि इन गीतों में फूलों का जिक्र है. तरहतरह के फूलों के रसिया एम्ब्रोस पैट्रिक हमेशा फूलपौधों के बीच घिरे रहना पसंद करते हैं व फूलों और पौधों के बगैर उन की कोई बात पूरी ही नहीं होती. बचपन से फूलों और पौधों को गमले में लगाने के शौकीन रहे एम्ब्रोस ने अपने घर की छत पर काफी बड़ा और हर तरह के फूलों के पौधों से सजा गार्डन बना रखा है. काम के बोझ के बीच भी वे हर दिन 2 से 3 घंटे गार्डन की देखरेख में गुजारते हैं. छुट्टियों के दिन में तो 5-7 घंटे वे अपने फूलपौधों के साथ ही गुजारते हैं.

पटना के पुराने और व्यस्त इलाके पटनासिटी में घुसते ही हर ओर प्रदूषण, गाडि़यों की चिल्लपौं, जाम और गंदगी से भरी तंग सड़कों से गुजरते हुए जब हाजीगंज कैमाशिकोह, जिसे कौआखोह के नाम से भी जाना जाता है, पहुंचते हैं तो दिलोदिमाग में अजीब सी कड़वाहट और बौखलाहट पैदा होती है. उस महल्ले की एक छोटी सी गली से गुजर कर एम्ब्रोस पैट्रिक की विशाल व शानदार हवेली की छत पर पहुंचते हैं तो बड़े ही करीने से सजाए गए गार्डनिंग के करिश्मे को देख दिल को सुकून मिलता है.

बिहार अल्पसंख्यक ईसाई कल्याण संघ के सचिव और जीसस ऐंड मेरी एकेडमी के डायरैक्टर एम्ब्रोस पैट्रिक बताते हैं कि शहर में इतनी जमीन नहीं मिल पाती है कि बागबानी के शौक को बेहतर तरीके से जमीन पर उतारा जाए. घर की छत पर गमलों में कुछ फूलों और सजावटी पौधों को लगा रखा था, पर मन को सुकून नहीं मिल पा रहा था और बड़े पैमाने पर गार्डनिंग करने की इच्छा बढ़ती जा रही थी. एक दिन औफिस में बैठेबैठे अचानक खयाल आया कि क्यों न घर की छत को ही गार्डन के रूप में विकसित किया जाए. उस के बाद ही 4 हजार वर्गफुट की छत को गार्डन का रूप देने के मिशन में जुट गया. एम्ब्रोस की बगिया में करीब 1,200 बड़े और छोटे गमले हैं और सारे के सारे लोहे के स्टैंडों पर सजा कर रखे गए हैं. हरेक गमले में पौधा लगा है. कोई भी गमला खाली या बेकार नहीं पड़ा है. एम्ब्रोस कहते हैं कि इतने सारे गमले होने के बाद भी उन्हें लगता है कि काफी कम गमले हैं, अब ज्यादा जगह नहीं है कि और ज्यादा गमले छत पर रखे जा सकें. उन के गार्डन की सब से बड़ी खासीयत उस में कई किस्मों के गुलाब के पौधे हैं.

मल्टीकलर गुलाब से ले कर हरा, पीला, काला, सफेद, लाल, पिंक कलर के गुलाब के झूमते फूल बरबस ही आने वालों का ध्यान अपनी ओर खींचते हैं. लता वाला गुलाब उन के गार्डन का अनोखा कलैक्शन है. एम्ब्रोस के गार्डन में गेंदा, डहेलिया, कांजी, जूही, बोगनबेलिया, अड़हुल, चंपा, बेला, चमेली, रजनीगंधा समेत फिनिक्स पाम ट्री के पौधे झूमतेगुनगुनाते दिखते हैं. फिनिक्स पाम ट्री की खासीयत है कि वह सालभर हराभरा रहता है. मुसांडा के पौधे की अलग ही खूबसूरती है. इस पौधे के पत्ते सफेद और पिंक रंग के होते हैं.

गार्डनिंग का शौक रखने वालों को एम्ब्रोस यह सलाह देते हैं कि वे पूरी तैयारी के साथ ही गार्डनिंग की शुरुआत करें. पौधों और फूलों की किस्मों, किस पौधे में कब और कितना पानी व खाद डाली जाए, किस पौधे को कितनी धूप और छांव की दरकार है, इस की जानकारी होनी चाहिए. एम्ब्रोस पैट्रिक के जीवन का फलसफा है कि खुद की बगिया को महकाओ और दूसरे को भी इस के लिए प्रेरित करो.

कचरे के ढेर पर शहरी आबादी

100 साल पहले देश में जब शहर बसने शुरू हुए थे, शहरों के बीचोबीच बहुत जगह सरकारी भवनों ने ले ली थी जिन के चारों ओर शहर भी बने और जहां शहरियों को काम भी मिला. पर जिस तेजी से शहर बढ़े और सरकारें जिस तरह सोई रहीं, ये सब शहर कंक्रीट के भद्दे जंगल बन गए. सरकारी भवन जो ब्रिटिश वास्तुकला से बने थे वे तो अच्छे लगते हैं पर जो आजादी के बाद बने, वे शहरी जीवन पर बदनुमा दाग हैं. ऊपर से उन के इर्दगिर्द गैरकानूनी छोटे मकान व दुकानें बन गई हैं.

दूसरी तरफ जमीन के बढ़ते दामों के कारण मकान ऊंचे होने लगे हैं. जहां 5 लोगों का परिवार रहता था वहां अब 50 से 500 लोग रहने लगे हैं. हरियाली दूभर हो गई है. हवा गंदली हो गई है. सीवर भरने लगे हैं, सड़कों पर जगह नहीं बची. अब इन मकानों को न तो नए सिरे से बनाया जा सकता है न ही इन को ठीक ही कराया जा सकता है क्योंकि आम नागरिक की माली हालत सरकारी आंकड़ों में चाहे जितनी सुधरी हो, असल में बुरी ही है. वे अब सड़कों में रह रहे हैं. ऐसी जिंदगी जी रहे हैं, जो मानव ने मानव इतिहास में कभी नहीं देखी. इन लोगों के लिए विज्ञान और तकनीक केवल टैलीविजन, मोबाइल, फ्रिज और रसोईगैस की सुविधाओं तक सीमित हैं. इन शहरों में गंदगी है, बदबू मारते सीवर हैं, संकरी गलियां हैं.

इस का हल शहरियों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने का दिया जाता है. बहुत से शहरों ने झुग्गीझोंपड़ी बस्तियों को उखाड़ा है तो बहुतों ने कारखाने बंद कराए हैं. इस की मानवीय कीमत क्या है- यह बहरी, अंधी, कू्रर और करप्ट सरकार न जानती है न जानने में रुचि रखती है. पैसे वाले लगातार शहर से बाहर जाते रहे हैं पर हर 20-25 साल में बाहर की नई सुंदर कालोनी सड़ जाती है और पुराने शहर के माफिक हो जाती है.

इस का हल यूरोप ने ढूंढ़ा है. उस ने पुराने शहरों को ठीक किया है, उन्हें रहने लायक और पर्यटन का हिस्सा बनाया है. भारत के शहरों को भी ठीक किया जा सकता है बिना जोरजबरदस्ती के. इस का सरल उपाय है कि सरकार अपनी जमीनों को मुक्त कर दे. सरकारी भवन नए इलाकों में ले जाए जाएं. पुराने भवन अगर वास्तुकला की धरोहर न हों तो तोड़ कर बागों में बदल दिए जाएं. सरकारी रिहायशी बिल्डिंगें संवारी जाएं.

शहरों का मध्य शहरी जीवन का केंद्र बने कूड़ाखाना नहीं. लोग 1 या 2 कमरे का ही सही, मकान रख कर गर्व महसूस करें. छुट्टी शहर के बीचोबीच मनाएं.

हाल ही में दिल्ली की बस सेवा अपने को मिली पार्किंग की जगह पर व्यावसायिक केंद्र बनाने की मांग कर रही है. यह गलत है. वे पार्किंग को शहर से बाहर ले जाएं या भूमिगत कर दें और ऊपर बड़ेबड़े खुले चौक छोड़ें, पेड़ लगाएं.

सरकारी विभागों, स्कूलों, कालेजों, अस्पतालों को तोड़ कर वहां सिर्फ खाली जगह रखी जाए या बाग या जंगल उगाए जाएं ताकि आसपास के घने इलाके सांस ले सकें. यदि ऐसा होगा तो घने इलाके स्वयं सुधरेंगे. जब ट्रैफिक कम होगा तो इन संकरे इलाकों को सांस मिलेगी, सुगंध फैलेगी. यहां दाम बढ़ेंगे और लोग रहना शान समझेंगे. सरकार अपने फैसले कर सकती है. सरकार जो कीमत इस की देगी वह जनता की ही जेब से जाएगी, पर धीरेधीरे.

जेहाद हिंसा में नहीं व्यापार में

इसलामिक स्टेट औफ इराक ऐंड सीरिया यानी आईएसआईएस अब सुर्खियों में छाने लगा है. सुन्नी मुसलमानों का यह आतंकवादी गुट अब शिया बहुल इराक के काफी बड़े इलाके पर नियंत्रण जमाए है और सीरिया में भी शियाओं के लिए खतरा है. इराक जहां सब से ज्यादा शिया हैं, सिवा बातें बनाने के कुछ नहीं कर पा रहा है.

इस झगड़े का लाभ आम गृहिणियों को हो रहा हो तो कहा नहीं जा सकता. आईएसआईएस अपने कब्जे के तेल के कुंओं से काफी सस्ते में तेल बेच रहा है. इस गुट को केवल जेहादियों के खानेपीने और हथियारों के लिए खर्च करना है, इसलिए इसे महंगे दामों पर तेल बेचने की जरूरत नहीं है.

सऊदी अरब, इरान, कुवैत, बहरीन आदि कच्चा तेल महंगा बेच रहे थे तो इसलिए कि उन के शासकों को ऐशोआराम चाहिए था. उन्हें चमचमाती गाडि़यां चाहिए थीं, शहर चाहिए थे और महलों की जरूरत थी. वे तेल के दाम बढ़वा रहे थे. तेल व्यापारी चाहे पश्चिमी एशिया के हों या यूरोप अमेरिका के, महंगे तेल से खुश थे कि इस से कमीशन बढ़ता है. अब कुंओं पर जेहादियों का कब्जा है पर फिर भी तेल ठेकेदार दाम बढ़वा नहीं पा रहे क्योंकि जेहादी सस्ता तेल बेच रहे हैं.

भारत में यदि पैट्रोल व गैस सस्ती हुई है तो इस की एक वजह यह भी है कि उत्पादकों को कम मुनाफा मिल रहा है. असल में यह फौर्मूला तो हर जगह लागू होना चाहिए. भारत में टमाटर, प्याज महंगा इसलिए नहीं है कि उगाने की लागत बढ़ गई है, बल्कि इसलिए है कि बिचौलिए मोटा मुनाफा कमा रहे हैं. अगर यहां का किसान अपना सामान खुद सीधे ग्राहकों को बेचने लगे तो वह लागत से ज्यादा पाएगा और उपभोक्ता को सस्ते में भी दिला देगा.

दुनिया में ज्यादा पैसा अब बिचौलिए कमा रहे हैं और आईएसआईएस के जेहादी साबित कर रहे हैं कि बिना बिचौलियों के जीवन ज्यादा अच्छा चलेगा.

धर्म हिंसा को बढ़ावा देता है

‘कुत्ते तेरा खून पी जाऊंगा’, ‘आज तो मेरे हाथों तेरी जान जाएगी…’ इस तरह के वाक्यों को बोलने वाले लोग समाज में जब ज्यादा होने लगें तो हिंसा होगी ही. कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि संभ्रांत लगने वाले 4 युवकों ने एक व्यापारी को दिल्ली में पहले तो अगवा किया और फिर घर पर फोन कर 3 करोड़ रुपए हाथोंहाथ मांगे. न मिलने पर उस की हत्या कर डाली. व्यापारी का पुत्र चिल्लाता रह गया कि उस ने डेढ़ करोड़ रुपए का इंतजाम कर लिया है पर बाकी का नहीं हो पा रहा है.

अगवा करने वाले अपराधी का यह मामला उधारी के लेनदेन का था, यह तो बाद में पता चलेगा पर इतना पक्का है कि हिंसा का माहौल आज इतना अधिक हो गया है कि आदमी जानवर से भी बदतर हो गया है. जानवर हिंसक होते हैं पर वे हिंसा या तो भूख के कारण करते हैं या अपनी सुरक्षा के लिए. मगर आदमी को मजे के लिए हिंसा का पाठ पढ़ाया जा रहा है और बारबार पढ़ाया जा रहा है.

हमारे देवीदेवताओं को ही देख लें. अधिकांश के हाथों में कोई न कोई हथियार रहता है. कोई धनुष लिए है, तो कोई चक्र. कोई गदा लिए है तो कोई त्रिशूल. यह कैसा समाज है, जो हिंसा की पूजा करता है और फिर रोता है कि अपराध बढ़ रहे हैं.

यूरोप, अमेरिका में फौज में जाना और प्रशिक्षण लेना अनिवार्य सा है. यानी सब बंदूकों को खिलौना मानते हैं. कंप्यूटर गेम्स में हिंसा ही हिंसा है. बच्चों को बारबार बताया जाता है कि इसे मारो उसे मारो. कहीं खजाने के लिए मारा जाता है, तो कहीं तथाकथित दुश्मन से निबटने के लिए. हौलीवुड हो या बौलीवुड, हर 4 में से 3 फिल्मों में गोलियों की धायंधायं होती रहती है और दर्शक खुश होते रहते हैं. धार्मिक संस्थानों में भी रातदिन धनुष, तलवार, भाले चलते दिखते हैं. और हौल से बाहर निकलने पर किसी को लड़ते देख कर वे कहते हैं, ‘यह कैसी सरकार है जो अपराधों को कंट्रोल नहीं कर सकती.’

गांधीजी की अहिंसक मूर्तियों की जगह अब देश भर में हथियारधारी देवताओं और देवियों की मूर्तियों ने ले ली है. फिर कौन से अपराधमुक्त समाज का सपना हम देख सकते हैं?

हमारे पड़ोस में चारों ओर हथियारों की रेस हो रही है. पाकिस्तान में तालिबानी व इसलामिस्ट हैं. म्यांमार में सेना शासन में है. श्रीलंका अभी खूनखराबे वाले गृहयुद्ध से निकल कर आया है. पूरा पश्चिमी एशिया धधक रहा है. अफ्रीका में कबीलाई युद्ध हो रहे हैं. ज्यादातर जगह धर्म हिंसा को बढ़ावा देता है पर कहींकहीं सिर्फ पैसे के लिए भी हिंसा का इस्तेमाल हो रहा है.

अभी हाल ही में दिल्ली में एक व्यापारी के पास सैकड़ों नकली रिवाल्वर पकडे़ गए, जो असली जैसे लगते हैं पर मारते नहीं. कहा जा रहा है कि नकली रिवाल्वरों की भी बहुत मांग है.

ऐसे माहौल में उस 60 वर्षीय व्यापारी को अगवा कर मार डाला गया तो क्या आश्चर्य है? यह तो संस्कृति व सामाजिक सोच का हिस्सा बन गया है. बंदूक रखना अमेरिका में संवैधानिक अधिकार है तो यहां त्रिशूल, कटार रखना. क्या घरों को इन हथियारों के बल पर सुरक्षित रखा जा सकता है?

अहिंसक समाज आत्मविश्वासी होता है, नियमों से रक्षा करता है, कानून के अनुसार चलता है. पर जब धर्म हिंसा करना सिखाए, चर्च, मसजिद, मंदिर, गुरुद्वारे लड़नेमरने के पाठ पढ़ाएं तो घर कैसे सुरक्षित रहेंगे? जब सिनेमा, कंप्यूटर प्रेम की नहीं प्रहार की कथाएं सुनाते हों तो कैसे घर के दरवाजों से सुरक्षा मिलेगी? ‘चूंचूं की तो थप्पड़ मारूंगा’ जैसे शब्द अनुशासन के नहीं, कमजोर पर ताकतवर के हिंसा भरे दबाव के हैं और औरतें इस की सब से बड़ी शिकार बनती हैं. वही औरतें जो धर्म को कंधों, सिरों और गलों में डाले घूमती हैं.

शिवानी करेंगी ऐक्टिंग

मशहूर गायिका शिवानी कश्यप अपना ऐक्टिंग कैरियर टेलीविजन धारावाहिक ‘एक वीर की अरदास वीरा’ से शुरू करने जा रही हैं. वे इस में एक परामर्शदाता की भूमिका में नजर आएंगी. उन का कहना है कि यह किरदार उन की वास्तविक जिंदगी के काफी करीब है. धारावाहिक में शिवानी के किरदार का नाम मेघा होगा. मेघा एक ऐसी मशहूर गायिका है, जिसे उस के बड़े नखरों के चलते फिल्मोद्योग से बहिष्कृत कर दिया गया है.

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