‘कुत्ते तेरा खून पी जाऊंगा’, ‘आज तो मेरे हाथों तेरी जान जाएगी…’ इस तरह के वाक्यों को बोलने वाले लोग समाज में जब ज्यादा होने लगें तो हिंसा होगी ही. कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि संभ्रांत लगने वाले 4 युवकों ने एक व्यापारी को दिल्ली में पहले तो अगवा किया और फिर घर पर फोन कर 3 करोड़ रुपए हाथोंहाथ मांगे. न मिलने पर उस की हत्या कर डाली. व्यापारी का पुत्र चिल्लाता रह गया कि उस ने डेढ़ करोड़ रुपए का इंतजाम कर लिया है पर बाकी का नहीं हो पा रहा है.

अगवा करने वाले अपराधी का यह मामला उधारी के लेनदेन का था, यह तो बाद में पता चलेगा पर इतना पक्का है कि हिंसा का माहौल आज इतना अधिक हो गया है कि आदमी जानवर से भी बदतर हो गया है. जानवर हिंसक होते हैं पर वे हिंसा या तो भूख के कारण करते हैं या अपनी सुरक्षा के लिए. मगर आदमी को मजे के लिए हिंसा का पाठ पढ़ाया जा रहा है और बारबार पढ़ाया जा रहा है.

हमारे देवीदेवताओं को ही देख लें. अधिकांश के हाथों में कोई न कोई हथियार रहता है. कोई धनुष लिए है, तो कोई चक्र. कोई गदा लिए है तो कोई त्रिशूल. यह कैसा समाज है, जो हिंसा की पूजा करता है और फिर रोता है कि अपराध बढ़ रहे हैं.

यूरोप, अमेरिका में फौज में जाना और प्रशिक्षण लेना अनिवार्य सा है. यानी सब बंदूकों को खिलौना मानते हैं. कंप्यूटर गेम्स में हिंसा ही हिंसा है. बच्चों को बारबार बताया जाता है कि इसे मारो उसे मारो. कहीं खजाने के लिए मारा जाता है, तो कहीं तथाकथित दुश्मन से निबटने के लिए. हौलीवुड हो या बौलीवुड, हर 4 में से 3 फिल्मों में गोलियों की धायंधायं होती रहती है और दर्शक खुश होते रहते हैं. धार्मिक संस्थानों में भी रातदिन धनुष, तलवार, भाले चलते दिखते हैं. और हौल से बाहर निकलने पर किसी को लड़ते देख कर वे कहते हैं, ‘यह कैसी सरकार है जो अपराधों को कंट्रोल नहीं कर सकती.’

गांधीजी की अहिंसक मूर्तियों की जगह अब देश भर में हथियारधारी देवताओं और देवियों की मूर्तियों ने ले ली है. फिर कौन से अपराधमुक्त समाज का सपना हम देख सकते हैं?

हमारे पड़ोस में चारों ओर हथियारों की रेस हो रही है. पाकिस्तान में तालिबानी व इसलामिस्ट हैं. म्यांमार में सेना शासन में है. श्रीलंका अभी खूनखराबे वाले गृहयुद्ध से निकल कर आया है. पूरा पश्चिमी एशिया धधक रहा है. अफ्रीका में कबीलाई युद्ध हो रहे हैं. ज्यादातर जगह धर्म हिंसा को बढ़ावा देता है पर कहींकहीं सिर्फ पैसे के लिए भी हिंसा का इस्तेमाल हो रहा है.

अभी हाल ही में दिल्ली में एक व्यापारी के पास सैकड़ों नकली रिवाल्वर पकडे़ गए, जो असली जैसे लगते हैं पर मारते नहीं. कहा जा रहा है कि नकली रिवाल्वरों की भी बहुत मांग है.

ऐसे माहौल में उस 60 वर्षीय व्यापारी को अगवा कर मार डाला गया तो क्या आश्चर्य है? यह तो संस्कृति व सामाजिक सोच का हिस्सा बन गया है. बंदूक रखना अमेरिका में संवैधानिक अधिकार है तो यहां त्रिशूल, कटार रखना. क्या घरों को इन हथियारों के बल पर सुरक्षित रखा जा सकता है?

अहिंसक समाज आत्मविश्वासी होता है, नियमों से रक्षा करता है, कानून के अनुसार चलता है. पर जब धर्म हिंसा करना सिखाए, चर्च, मसजिद, मंदिर, गुरुद्वारे लड़नेमरने के पाठ पढ़ाएं तो घर कैसे सुरक्षित रहेंगे? जब सिनेमा, कंप्यूटर प्रेम की नहीं प्रहार की कथाएं सुनाते हों तो कैसे घर के दरवाजों से सुरक्षा मिलेगी? ‘चूंचूं की तो थप्पड़ मारूंगा’ जैसे शब्द अनुशासन के नहीं, कमजोर पर ताकतवर के हिंसा भरे दबाव के हैं और औरतें इस की सब से बड़ी शिकार बनती हैं. वही औरतें जो धर्म को कंधों, सिरों और गलों में डाले घूमती हैं.

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