Short Story : सोने का कारावास

Short Story : अभिषेक अपनी कैंसर की रिपोर्ट को हाथ में ले कर बैठेबैठे यह ही सोच रहा था कि क्या करे, क्या न करे. सबकुछ तो था उस के पास. वह इस सोने के देश में आया ही था सबकुछ हासिल करने, मगर उस का गणित कब और कैसे गलत हो गया, वह समझ नहीं पाया. हर तरह से अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखने के बावजूद क्यों और कब उसे यह भयंकर बीमारी हो गई थी. सब से पहले उस ने अपनी बड़ी बहन को फोन किया तो उन्होंने फौरन अपने गुरुजी को सूचित किया और समस्या का कारण गुरुजी ने पितृदोष बताया था.

छोटी बहन भी फोन पर बोली, ‘‘भैया, आप लोग तो पूरे अमेरिकी हो गए हो, कोई पूजापाठ, कनागत कुछ भी तो नहीं मानते, इसलिए ही आज दंडस्वरूप आप को यह रोग लग गया है.’’ यह सुन कर अभिषेक का मन वापस अपनी जड़ों की तरफ लौटने को बेचैन हो गया. सोने की नगरी अब उसे सोने का कारावास लग रही थी. यह कारावास जो उस ने स्वयं चुना था अपनी इच्छा से.

अभिषेक और प्रियंका 20 वर्षों पहले इस सोने के देश में आए थे. अभिषेक के पास वैसे तो भारत में भी कोई कमी नहीं थी पर फिर भी निरंतर आगे बढ़ने की प्यास ने उसे इस देश में आने को विवश कर दिया था. प्रियंका और अभिषेक दोनों बहुत सारी बातों में अलग होते हुए भी इस बात पर सहमत थे कि भारत में उन का और उन के बेटे का भविष्य नहीं है.

प्रियंका अकसर आंखें तरेर कर बोलती, ‘है क्या इंडिया में, कूड़ाकरकट और गंदगी के अलावा.’

अभिषेक भी हां में हां मिलाते हुए कहता, ‘शिक्षा प्रणाली देखी है, कुछ भी तो ऐसा नहीं है जो देश के विद्यार्थियों को आगे के लिए तैयार करे. बस, रटो और आगे बढ़ो. अमेरिका के बच्चों को कभी देखा है, वे पहले सीखते हैं, फिर समझते हैं. हम अपने सार्थक को ऐसा ही बनाना चाहते हैं.’

प्रियंका आगे बोलती, ‘अभि, तुम अपने विदेश जाने के कितने ही औफर्स अपने मम्मीपापा के कारण छोड़ देते हो, एक बेटे का फर्ज निभाने के लिए. पर उन्होंने क्या किया, कुछ नहीं.’

‘मेरा सार्थक तो अकेला ही पला. उस के दादादादी तो अपना मेरठ का घर छोड़ कर बेंगलुरु नहीं आए.’

यह वार्त्तालाप लगभग 20 वर्ष पहले का है जब अभिषेक को अपनी कंपनी की तरफ से अमेरिका जाने का प्रस्ताव मिला था. अभिषेक के मन में एक पल के लिए अपने मम्मीपापा का खयाल आया था पर प्रियंका ने इतनी सारी दलीलें दीं कि अभिषेक को यह लगा कि उसे ऐसा मौका छोड़ना नहीं चाहिए.

अभिषेक अपनी दोनों बहनों का इकलौता भाई था. उस से बड़ी एक बहन थी और एक बहन उस से छोटी थी. उस के पति अच्छेखासे सरकारी पद से सेवानिवृत्त हुए थे. बचपन से अभिषेक हर रेस में अव्वल ही आता था. अच्छा घर, अच्छी नौकरी, खूबसूरत और उस से भी ज्यादा स्मार्ट बीवी. रहीसही कसर शादी के 2 वर्षों बाद सार्थक के जन्म से पूरी हो गई थी. सबकुछ परफैक्ट पर परफैक्ट नहीं था तो यह देश और इस के रहने वाले नागरिक. वह तो बस अभिषेक का जन्म भारत में हुआ था, वरना सोच से तो वह पूरा विदेशी था.

विवाह के कुछ समय बाद भी उसे अमेरिका में नौकरी का प्रस्ताव मिला था, पर अभिषेक के पापा को अचानक हार्टअटैक आ गया था, सो, उसे मजबूरीवश प्रस्ताव को ठुकराना पड़ा. कुछ ही महीनों में प्रियंका ने खुशखबरी सुना दी और फिर अभिषेक और प्रियंका अपनी नई भूमिका में उलझ गए. वे लोग बेंगलुरु में ही बस गए. पर मन में कहीं न कहीं सोने की नगरी की टीस बनी रही.

जब सार्थक 7 वर्ष का था, तब अभिषेक को कंपनी की तरफ से परिवार सहित फिर से अमेरिका जाने का मौका मिला, जो उस ने फौरन लपक लिया.

खुशी से सराबोर हो कर जब उस ने अपने पापा को फोन किया तो पापा थकी सी आवाज में बोले, ‘बेटा, मेरा कोई भरोसा नहीं है, आज हूं कल नहीं. तुम इतनी दूर चले जाओगे तो जरूरत पड़ने पर हम किस का मुंह देखेंगे.’ अभिषेक ने चिढ़ी सी आवाज में कहा, ‘पापा, तो अपनी प्रोग्रैस रोक लूं आप के कारण. वैसे भी, आप और मम्मी को मेरी याद कब आती है? प्रियंका को आप दोनों के कारण नौकरी छोड़नी पड़ी क्योंकि आप दोनों मेरठ छोड़ कर आना ही नहीं चाहते थे. फिर सार्थक को हम किस के भरोसे छोड़ते और

आज आप को अपनी पड़ी है.’ अभिषेक के पापा ने बिना कुछ बोले फोन रख दिया.

अभिषेक की मम्मी, सावित्री, बड़ी आशा से अपने पति रामस्वरूप की तरफ देख रही थी कि वे उस को फोन देंगे पर जब उन्होंने फोन रख दिया तो उतावली सी बोली, ‘मेरी बात क्यों नहीं कराई पिंटू से?’

रामस्वरूप बोले, ‘पिंटू अमेरिका जा रहा है परिवार के साथ.’

सावित्री बोली, ‘हमेशा के लिए?’

रामस्वरूप चिढ़ कर बोले, ‘मुझे क्या पता. वह तो मुझे ही उलटासीधा सुना रहा था कि हमारे कारण उस की बीवी नौकरी नहीं कर पाई.’

सावित्री थके से स्वर में बोली, ‘तुम अपना ब्लडप्रैशर मत बढ़ाओ, यह घोंसला तो पिछले 10 वर्षों से खाली है. हम हैं न एकदूसरे के लिए,’ पर यह कहते हुए उन का स्वर भीग गया था.

सावित्री मन ही मन सोच रही थी कि वह अभिषेक को भी क्या कहे, आखिर प्रियंका उस की बीवी है. पर वे दोनों कैसे रहें उस के घर में, क्योंकि बहू का तेज स्वभाव और उस से भी तेज कैंची जैसी जबान है. उस के अपने पति रामस्वरूपजी का स्वभाव भी बहुत तीखा था. कोई जगहंसाई न हो, इसलिए सावित्री और रामस्वरूप ने खुद ही एक सम्मानजनक दूरी बना कर रखी थी. पर इस बात को अभिषेक अलग तरीके से ले लेगा, यह उन्हें नहीं पता था.

उधर रात में अभिषेक प्रियंका को जब पापा और उस के बीच का संवाद बता रहा था तो प्रियंका छूटते ही बोली, ‘नौकर चाहिए उन्हें तो बस अपनी सेवाटहल के लिए, हमारा घर तो उन्होंने अपने लिए मैडिकल टूरिज्म समझ रखा है, जब बीमार होते हैं तभी इधर का रुख करते हैं. अब कराएं न अपने बेटीदामाद से सेवा, तुम क्यों अपना दिल छोटा करते हो?’

एक तरह से सब को नाराज कर के ही अभिषेक और प्रियंका अमेरिका  आए थे. साल भी नहीं बीता था कि पापा फिर से बीमार हो गए थे, अभिषेक ने पैसे भेज कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली थी. आखिर, अब उसे सार्थक का भविष्य देखना है.

उस की बड़ी दी ऋचा और उन के पति जयंत, मम्मीपापा को अपने साथ ले आए थे. पर होनी को कौन टाल सकता है, 15 दिनों में ही पापा सब को छोड़ कर चले गए.

अभिषेक ने बहुत कोशिश की पर इतनी जल्दी कंपनी ने टिकट देने से मना कर दिया था और उस समय खुद टिकट खरीदना उस के बूते के बाहर था. पहली बार उसे लगा कि उस ने अपनेआप को कारावास दे दिया है, घर पर सब को उस की जरूरत है और वह कुछ नहीं कर पा रहा है.

प्रियंका ने अभिषेक को सांत्वना देते हुए कहा, ‘आजकल बेटा और बेटी में कोई फर्क नहीं है. वे तो ऋचा दी के पास थे. हम लोग अगले साल चलेंगे जब कंपनी हमें टिकट देगी.’

अगले साल जब अभिषेक गया तो मां का वह रूप न देख पाया, ऐसा लग रहा था मां ने एक वर्ष में ही 10 वर्षों का सफर तय कर लिया हो. सब नातेरिश्तेदार की बातों से अभिषेक को लगा जैसे वह ही अनजाने में अपने पिता की मृत्यु का कारण हो. उस के मन के अंदर एक डर सा बैठ गया कि उस ने अपने पिता का दिल दुखाया है. अभिषेक मां को सीने से लगाता हुआ बोला, ‘मां, मैं आप को अकेले नहीं रहने दूंगा, आप मेरे साथ चलोगी.’

जयंत जीजाजी बोले, ‘अभिषेक, यह ही ठीक रहेगा, सार्थक के साथ वे अपना दुख भूल जाएंगी.’अभिषेक के जाने का समय आ गया, पर मां का पासपोर्ट और वीजा बन नहीं पाया.

मां के कांपते हाथों को अपनी बहनों के हाथ में दे कर वह फिर से सोने के देश में चला गया. फिर 5 वर्षों तक किसी न किसी कारण से अभिषेक का घर आना टलता ही रहा और अभिषेक की ग्लानि बढ़ती गई.

5 वर्षों बाद जब वह आया तो मां का हाल देख कर रो पड़ा. इस बार मां की इच्छा थी कि रक्षाबंधन का त्योहार एकसाथ मनाया जाए उन के पैतृक गांव में. अभिषेक और प्रियंका रक्षाबंधन के दिन ही पहुंचे. प्रियंका को अपने भाई को भी राखी बांधनी थी.

दोनों बहनों ने पूरा खाना अभिषेक की पसंद का बनाया था और आज मां भी बरसों बाद रसोई में जुटी हुई थी. मेवों की खीर, गुलाबजामुन, दहीबड़े, पुलाव, पनीर मसाला, छोटेभठूरे, अमरूद की चटनी, सलाद और गुड़ के गुलगुले. अभिषेक, ऋचा और मोना मानो फिर से मेरठ के घर में आ कर बच्चे बन गए थे. बरसों बाद लगा अभिषेक को कि वह जिंदा है.

2 दिन 2 पल की तरह बीत गए. बरसों से सोए हुए तार फिर से झंकृत हो गए. सबकुछ बहुत ही सुखद था. ढेरों फोटो खींचे गए, वीडियो बनाई गई. सब को बस यह ही मलाल था कि सार्थक नहीं आया था.

मोना ने अपने भैया से आखिर पूछ ही लिया, ‘भैया, सार्थक क्यों नहीं आया, क्या उस का मन नहीं करता हम सब से मिलने का?’

इस से पहले अभिषेक कुछ बोलता, प्रियंका बोली, ‘वहां के बच्चे मांबाप के पिछलग्गू नहीं होते, उन को अपना स्पेस चाहिए होता है. सार्थक भारतभ्रमण पर निकला है, वह अपने देश को समझना चाहता है.’

ऋचा दी बोली, ‘सही बोल रही हो, हर देश की अपनी संस्कृति होती है. पर अगर सार्थक देश को समझने से पहले अपने परिवार को समझता तो उसे भी बहुत मजा आता.’

अभिषेक सोच रहा था, सार्थक को अपना स्पेस चाहिए था, वह स्पेस जिस में उस के अपने मातापिता के लिए भी जगह नहीं थी.

शाम को वकील साहब आ गए थे. मां ने अपने बच्चों और नातीनातिनों से कहा, ‘मैं नहीं चाहती कि मेरे जाने के बाद तुम लोगों के बीच में मनमुटाव हो, इसलिए मैं ने अपनी वसीयत बनवा ली है.’

प्रियंका मौका देखते ही अभिषेक से बोली, ‘सबकुछ बहनों के नाम ही कर रखा होगा, मैं जानती हूं इन्हें अच्छे से.’

वसीयत पढ़ी गई. पापा के मकान के 4 हिस्से कर दिए गए थे, जो तीनों बच्चों और मां के नाम पर हैं, चौथा हिस्सा उस बच्चे को मिलेगा जिस के साथ मां अपना अंतिम समय बिताएंगी.

100 बीघा जमीन जो उन की गांव में है, उस के भी 4 हिस्से कर दिए गए थे. दुकानें भी सब के नाम पर एकएक थी और गहनों के 3 भाग कर दिए गए थे. मां ने अपने पास बस वे ही गहने रखे जो वे फिलहाल पहन रही थीं. वसीयत पढ़े जाने के पश्चात तीनों भाईबहन सामान्य थे पर छोटे दामाद और प्रियंका का मुंह बन गया था. जबकि छोटे दामाद और बहू ने अब तक मां के लिए कुछ भी नहीं किया था.

प्रियंका उस दिन जो गई, फिर कभी ससुराल की देहरी पर न चढ़ी. मां के गुजरने पर अभिषेक अकेले ही बड़ी मुश्किल से आ पाया था. फिर तो जैसे अभिषेक के लिए अपने देश का आकर्षण ही खत्म हो गया था.

पूरे 7 वर्षों तक अभिषेक भारत नहीं गया. बहनों की राखी मिलती रही, पर उस ने अभी कुछ नहीं भेजा क्योंकि कहीं न कहीं यह फांस उस के मन में भी थी कि जब उन्हें बराबर का हिस्सा मिला है तो फिर किस बात का तोहफा.

अमेरिका में वह पूरी तरह रचबस गया था कि तभी अचानक से एक छोटे से टैस्ट ने भयानक कैंसर की पुष्टि कर दी थी. उन्हीं रिपोर्ट्स को बैठ कर वह देख रहा था. न जाने क्यों कैंसर की सूचना मिलते ही सब से पहले उसे अपनी बहनों की याद आई थी.

सार्थक अपनी ही दुनिया में मस्त रहता था, उस से कुछ उम्मीद रखना व्यर्थ था. वह एक अमेरिकी बेटा था. सबकुछ नपातुला, न कोई शिकायत न कोई उलाहना, एकदम व्यावहारिक. कभीकभी अभिषेक उन भावनाओं के लिए तरस जाता था. वह 2 हजार किलोमीटर दूर एक मध्यम आकार के सुंदर से घर में रहता था.

सार्थक से जब अभिषेक ने कहा, ‘‘सार्थक, तुम यहीं शिफ्ट हो जाओ, मुझे और तुम्हारी मम्मी को थोड़ा सहारा हो जाएगा.’’

सार्थक हंसते हुए बोला, ‘‘पापा, यह अमेरिका है, यहां पर आप को काम से छुट्टी नहीं मिल सकती है और सरकार की तरफ से इलाज तो चल रहा है

आप का, जो भारत में मुमकिन नहीं. मुझे आगे बढ़ना है, ऊंचाई छूनी है, मैं आप का ही बेटा हूं, पापा. आप सकारात्मक सोच के साथ इलाज करवाएं, कुछ नहीं होगा.’’

पर अभिषेक के मन में यह भाव घर कर गया था कि यह उस की करनी का ही फल है और उस की बातों की पुष्टि के लिए उस की बहनें भी रोज कोई न कोई नई बात बता देती थीं. अब अकसर ही अभिषेक अपनी बहनों से बातें करता था जो उसे मानसिक संबल देती थीं. सब से अधिक मानसिक संबल मिलता था उसे उन ज्योतिषियों की बातों से जो अभिषेक के लिए इंडिया से ही पूजापाठ कर रहे थे.

भारत में दोनों बहनों ने महामृत्युंजय के पाठ बिठा रखे थे. हर रोज प्रियंका अभिषेक का फोटो खींच कर व्हाट्सऐप से दोनों बहनों को भेजती और उस फोटो को देखने के पश्चात पंडित लोग अपनी भविष्यवाणी करते थे. सब पंडितों का एकमत निर्णय यह था कि अभिषेक की अभी कम से कम 20 वर्ष आयु शेष है. यदि वह अच्छे मुहूर्त में आगे का इलाज करवाएगा तो अवश्य ही ठीक हो जाएगा.

सार्थक हर शुक्रवार को अभिषेक और प्रियंका के पास आ जाता था. उस रात जैसे ही उसे झपकी आई तो देखा. इंडिया से छोटी बूआ का फोन था, वे प्रियंका को बता रही थीं, ‘‘भाभी, आप अस्पताल बदल लीजिए, पंडितजी ने कहा है, जगह बदलने से मरकेश ग्रह टल जाएगा.’’

सार्थक ने मम्मी के हाथ से फोन ले लिया और बोला, ‘‘बूआ, ऐसी स्थिति में अस्पताल नहीं बदल सकते हैं और ग्रह जगह बदलने से नहीं, सकारात्मक सोच से बदलेगा, मेरी आप से विनती है, ऐसी फालतू बात के लिए फोन मत कीजिए.’’

परंतु अभिषेक ने तो जिद पकड़ ली थी. उस ने मन के अंदर यह बात गहरे तक बैठ गई थी कि बिना पूजापाठ के वह ठीक नहीं हो पाएगा. सार्थक ने कहा भी, ‘‘पापा, आप इतना पढ़लिख कर ऐसा बोल रहे हो, आप जानते हो कैंसर का इलाज थोड़ा लंबा चलता है.’’

अभिषेक थके स्वर में बोला, ‘‘तुम नहीं समझोगे सार्थक, यह सब ग्रहदोष के कारण हुआ है, मैं अपने मम्मीपापा का दिल दुखा कर आया था.’’

सार्थक ने फिर भी कहा, ‘‘पापा, दादादादी थोड़े दुखी अवश्य हुए होंगे पर आप को क्या लगता है, उन्होंने आप को श्राप दिया होगा, आप खुद को उन की जगह रख कर देखिए.’’

प्रियंका गुस्से में बोली, ‘‘सार्थक, तुम बहुत बोल रहे हो. हम खुद अस्पताल बदल लेंगे. हो सकता है अस्पताल बदलने से वाकई फर्क आ जाए.’’

सार्थक ने अपना सिर पकड़ लिया. क्या समझाए वह अपने परिवार को. उसे डाक्टरों की चेतावनी याद थी कि जरा सी भी असावधानी उन की जान के लिए खतरा सिद्ध हो सकती है.

अभिषेक की इच्छाअनुसार अस्पताल बदल लिया गया. अगले हफ्ते जब सार्थक आया तो देखा, अभिषेक पहले से बेहतर लग रहा था. प्रियंका सार्थक को देख कर चहकते हुए बोली, ‘‘देखा सार्थक, महामृत्युंजय पाठ वास्तव में कारगर होते हैं.’’

पापा को पहले से बेहतर देख कर सार्थक ने कोई बहस नहीं की. बस, मुसकराभर दिया. पर फिर उसी रात अचानक से अभिषेक को उल्टियां आरंभ हो गईं. डाक्टरों का एकमत था कि  पेट का कैंसर अब गले तक पहुंच गया है, फौरन सर्जरी करनी पड़ेगी.

परंतु प्रियंका मूर्खों की तरह इंडिया में ज्योतिषियों से सलाह कर रही थी. ज्योतिषियों के अनुसार अभी एक हफ्ते से पहले अगर सर्जरी की तो अभिषेक को जान का खतरा है क्योंकि पितृदोष पूरी तरह से समाप्त होने में अभी भी एक हफ्ते का समय शेष है. एक बार पितृदोष समाप्त हो जाएगा तो फिर अभिषेक को कुछ नहीं होगा. कहते हैं जब बुरा समय आता है तो इंसान की अक्ल पर भी परदा पड़ जाता है. अभिषेक अपनी दवाइयों में लापरवाही बरतने लगा पर भभूत, जड़ीबूटियों का काढ़ा वह नियत समय पर ले रहा था. इन जड़ीबूटियों के कारण कैंसर की आधुनिक दवाओं का असर भी नहीं हो रहा था क्योंकि जड़ीबूटियों में जो कैमिकल होते हैं वे किस तरह से कैंसर की इन नई दवाओं को प्रभावित करते हैं, इस पर अमेरिकी शोधकर्ताओं ने कभी ध्यान नहीं दिया था. नतीजा उस का स्वास्थ्य दिनबदिन गिरने लगा. इस कारण से अभिषेक की कीमोथेरैपी के लिए भी डाक्टरों ने मना कर दिया.

सार्थक ने बहुत प्यार से समझाया, सिर पटका, गुस्सा दिखाया पर अभिषेक और प्रियंका टस से मस न हुए. डाक्टरों ने सार्थक को साफ शब्दों में बता दिया था कि अब अभिषेक के पास अधिक समय नहीं है. सार्थक को मालूम था कि अभिषेक का मन अपनी बहनों में पड़ा है. जब उस ने अपनी दोनों बुआओं को आने के लिए कहा तो दोनों ने एक ही स्वर में कहा, ‘‘गुरुजी ने एक माह तक सफर करने से मना किया है क्योंकि दोनों ने अपने घरों में अखंड ज्योत जला रखी है, एक माह तक और फिर गुरुजी की भविष्यवाणी है कि भैया मार्च में ठीक हो कर आ जाएंगे. यदि हम बीच में छोड़ कर गए तो अपशकुन हो जाएगा.’’ सार्थक को समझ आ गया था कि भैंस के आगे बीन बजाने से कोई फायदा नहीं है.

उधर, अभिषेक को सोने की नगरी अब कारावास जैसी लग रही थी. तरस गया था वह अपनों के लिए, सबकुछ था पर फिर भी मानसिक शांति नहीं थी. दोनों बहनों ने अपनी ओर से कोई भी कोरकसर नहीं छोड़ी पर ग्रहों की दशा सुधारने के बावजूद अभिषेक की हालत न सुधरी. मन में अपनों से मिलने की आस लिए वह दुनिया से रुखसत हो गया.

आज सार्थक को बेहद लाचारी महसूस हो रही थी. दूसरे अवश्य उसे अमेरिकी कह कर चिढ़ाते हों पर वह जानता था कि उस के गोरे अमेरिकी दोस्त कैसे मातापिता की सेवा करते हैं. उस की एक प्रेमिका तो मां का ध्यान रखने के लिए उसे ही नहीं, अपनी अच्छी नौकरी को भी छोड़ कर इस छोटे से गांवनुमा शहर में 4 साल रही थी. वह मां के मरने के बाद ही लौटी थी. वह समझता था कि अमेरिकी युवा अपने मन से चलता है पर अपनी जिम्मेदारियां समझता है. अब वह हताश था क्योंकि पूर्वग्रह के कारण उस के मातापिता भारत में बैठी बहनों के मोहपाश में बंधे थे. वे धर्म की जो गठरी सिर पर लाद कर लाए थे, अमेरिका में रह कर और भारी हो गई थी.

सबकुछ तो था उस के परिवार के पास पर इन अंधविश्वासों में उलझ कर वह अपने पापा की आखिरी इच्छा पूरी न कर पाया था, काश, वह अपने पापा और परिवार को यह समझा पाता कि कैंसर एक रोग है जो कभी भी किसी को भी हो सकता है, उस का इलाज पूजापाठ नहीं. सकारात्मक सोच और डाक्टरी सलाह के साथ नियमित इलाज है. अमेरिका न तो सोने की नगरी है और न ही सोने का कारावास, पापा की अपनी सोच ने उन्हें यह कारावास भोगने पर मजबूर किया था. गीली आंखों के साथ सार्थक ने अपने पापा को श्रद्धांजलि दी और एक नई सोच के साथ हमेशा के लिए अपने को दकियानूसी सोच के कारावास से मुक्त कर दिया.

Motivational Story In Hindi : लैफ्टिनैंट सोना कुमारी की कहानी

Motivational Story In Hindi : मैंआईएम से सेना आयुद्ध कोर में स्थाई कमीशन ले कर निकली तो मेरे पांव जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. मैं ने कंप्यूटर इंजीनियरिंग की तो यूपीएससी ने तकनीकी अफसरों की वेकैंसी निकाली. मैं ने अप्लाई किया तो मु झे इस कोर में इन्वैंटरी कंट्रोल अफसर के लिए चुना गया. मेरी पहली पोस्टिंग पठानकोट की एक और्डिनैंस यूनिट में हुई थी.

मेरे लैफ्टिनैंट बनने के मूल में एक जबरदस्त कहानी है. मैं प्रतिलिपि पर एक अनजान पूर्व आर्मी अफसर की प्रकाशित कहानियों से प्रभावित थी. जहां वे कहानियों में भारतीय सेना की बहादुरी के बारे में लिखते थे, वहीं जवानों के व्यक्तिगत जीवन की समस्याओं से भी देशवासियों को अवगत करवाते थे.

मैं शुरू से ही आर्मी अफसरों से प्रभावित थी. मैं मन से आर्मी अफसर से शादी करना चाहती

थी. मम्मीपापा भी मेरे इंजीनिरिंग का डिप्लोमा करने के बाद मेरी शादी की तैयारी कर रहे थे. मेरी इच्छा का उन के सामने कोई महत्त्व नहीं था.

मैं ने इन अनजान आर्मी अफसर को उन की कहानियों पर अपनी प्रतिक्रिया दी और फौलो किया. उन की फ्रैंड रिक्वेस्ट आई जिसे मैं ने सहर्ष स्वीकार किया.

बातोंबातों में मैं ने उन से अपनी इच्छा जताई तो उन्होंने मेरी शिक्षा पूछी. मैं ने बताया कि इंजीनियरिंग का डिप्लोमा कर रही हूं, शिक्षा कम है. सेना के अफसरों को उच्च शिक्षा प्राप्त लड़कियां चाहिए होती हैं.

उन्होंने कहा, ‘‘आप खुद आर्मी अफसर क्यों नहीं बनती हैं?’’

मैं ने कहा, ‘‘सर, यह कैसे हो सकता है?’’

उन्होंने कहा, ‘‘अगर आप के डिप्लोमा में 90% नंबर आते हैं तो आप को बीटैक में एडमिशन मिल सकती है. आप इतने नंबर लें और बीटैक करें.’’

मैं ने कहा, ‘‘सर, मेरे मम्मीपापा नहीं मानेंगे.’’

‘‘आप लड़ने से पहले ही हार रही हैं.’’

‘‘सर, क्या मतलब?’’

‘‘पहले आप 90% नंबर लें. फिर मु झ से बात करना. कहीं ऐसा न हो कि समय गुजर जाए और आप की फौजी अफसर से शादी करने की इच्छा तृष्णा में बदल जाए.’’

‘‘सर, क्या इच्छा और तृष्णा में फर्क होता है? है तो इसे मैं सम झना चाहती हूं.’’

‘‘इच्छाएं वे हैं जो पूरी हो कर समाप्त हो जाती हैं. तृष्णाएं वे हैं जो इच्छाएं कभी पूरी नहीं होतीं. इच्छा प्यास है जो लगती है, पानी मिलते ही बु झ जाती है. तृष्णा वह प्यास है जो जीवन में कभी नहीं बु झती. मान लो, आप की फौजी अफसर से शादी करने की इच्छा किसी कारण से पूरी नहीं होती तो यह इच्छा परिपक्व हो कर तृष्णा बन जाएगी.’’

मैं उन की बात सम झ गई थी. सर ने मुझे फौजी अफसर से शादी करने का रास्ता सु झा

दिया था. ऐसा बीज बोया था, मेरे मन में थोड़ा

सा भी शक नहीं था. खुद फौजी अफसर बनो.

10 अफसर शादी के लिए पीछे घूमेंगे. आप अपनी शर्तों पर शादी कर सकेंगी.

मेरा लक्ष्य 90% नंबर लेने का था. मैं इस के लिए पढ़ाई में जुट गई. जबरदस्त मेहनत की. परीक्षा दी. परिणाम आया तो आशा के अनुरूप मेरे 94% नंबर आए थे.

मैं ने सर को बताया. वे बहुत खुश हुए कहा, ‘‘अब तुम्हारा लक्ष्य बीटैक होना चाहिए.’’

‘‘मेरे मम्मीपापा अभी शादी पर जोर दे रहे हैं. मैं इस के लिए तैयार नहीं हूं.’’

‘‘तुम्हारे घर में कौनकौन हैं?’’

‘‘सर, सब हैं, दादी हैं, चाचे हैं, चाचियां हैं, भाई हैं, सब मु झ से बहुत प्यार करते हैं. मेरे छोटे चाचा सब से ज्यादा प्यार करते हैं.’’

‘‘गलत शब्द का प्रयोग मत करो. प्यार नहीं प्रेम कहो.’’

‘‘सर, क्या प्यार और प्रेम में अंतर है?’’

‘‘है, लेकिन बाद में बताऊंगा. पहले अपने उस चाचा के पास जा कर सारी बात बताओ. कहो कि बीटैक करने से मेरा कैरियर ब्राइट होगा. नंबर भी बहुत अच्छे आए हैं. अभी मैं केवल 20 साल की हूं. 24वें साल में मेरी बीटैक हो जाएगी. फिर अभी मु झे घरगृहस्थी का कुछ भी पता नहीं है. मैं पिस जाऊंगी. मैं ट्यूशनें कर के अपना खर्च निकाल लूंगी. देखो, क्या कहते हैं? उन को लगेगा कि ज्यादा पढ़ जाएगी तो शादी में ज्यादा दहेज देना पड़ेगा. उस के लिए केवल यह कहना कि समय से पहले इस बारे में क्या सोचना?’’

चाचू ने सारी बात सुनी. चाची भी पास खड़ी थी. उस ने भी कहा, ‘‘लड़की बात तो ठीक कहती है. अभी इस की उम्र शादी लायक है ही नहीं. क्या हम अपनी शन्नों की शादी अभी कर देंगे वह भी 20 साल की उम्र में?’’

‘‘ठीक है, बच्चे मैं तुम्हारे मम्मीपापा से बात कर के उन्हें मना लूंगा. तुम बीटैक में जरूर जाओगी. अगर वे पढ़ाई का खर्चा नहीं देंगे तो मैं दूंगा. तुम बीटैक में एडमिशन लेने को तैयारी करो.’’

‘‘ओह, चाचू,’’ मैं आगे बढ़ कर उन के पांव छूने लगी तो उन्होंने बीच में ही रोक दिया. बोले, ‘‘घर की बेटियां पांव नहीं छूती हैं. केवल आशीर्वाद लेती हैं. जाओ, बच्चे पढ़ने की तैयारी करो.’’

चाची ने भी मु झे प्यार किया था. आशा के विपरीत मम्मीपापा भी मान गए. मैं ने

सर को बताया, ‘‘सर, कमाल हो गया. सब मान गए. शुक्रिया, सर.’’

‘‘शुक्रिया मेरा नहीं, अपने चाचाचाची का करो. अगर वे नहीं होते तो तुम्हारी शादी निश्चित थी.’’

‘‘हां, वे सब मु झे बहुत प्यार करते हैं.’’

‘‘फिर गलत शब्द का प्रयोग कर रही हो. प्यार नहीं प्रेम कहो.’’

‘‘सर, मैं प्रेम और प्यार के अंतर को सम झना चाहती हूं, जबकि हम प्रेम और प्यार को एक ही सम झते आए हैं.’’

‘‘यही तो गलतफहमी है. इंग्लिश में केवल एक शब्द है, लव, जिसे हर रिश्ते के लिए प्रयोग करते हैं. लेकिन हिंदी साहित्य उस से अधिक समृद्ध है. इसे मोटे तौर पर इस तरह सम झा जा सकता है. प्रेम एक सात्विक शब्द है जिस में वासना का पुट नहीं होता. प्रेम को आप किसी सीमा में नहीं बांध सकते. प्रेम मां का हो सकता है, प्रेम पिता, भाई, बहन किसी का भी हो सकता है जिस से आप वासना का संबंध नहीं रख सकते वह प्रेम है. प्यार, शृंगारिक शब्द है जिस में वासना का पुट होता है.’’

‘‘मु झे क्रिकेट से प्यार है, इसलिए विराट कोहली से क्रश करती हूं. इसे क्या कहेंगे, सर?’’

‘‘आप को थोड़ा शब्दों को दुरुस्त करना पड़ेगा. आप को क्रिकेट से प्रेम है, वह एक खेल है, उस से आप वासना का संबंध नहीं रख सकतीं. क्रश प्यार का दूसरा रूप है. विराट कोहली पहले शरीर में आया फिर खेल में. आप का क्रश पहले शरीर से हुआ. फिर उस के साथ क्रिकेट से. शरीर से आधार ही वासना है. उस की उत्पत्ति भी वासना से है. इसलिए आप का क्रश प्यार है, प्रेम नहीं.’’

‘‘पर सर मैं ने उसे इस भाव से कभी नहीं देखा नहीं.’’

‘‘आप किस भाव से देखती हैं, प्रश्न यह नहीं है. प्रश्न यह है कि आप का क्रश प्रेम है या प्यार? अच्छा मु झे यह बताओ, अगर विराट कोहली शरीर में न होता तो आप को क्रश होता?’’

‘‘नहीं, सर.’’

‘‘शरीर का आधार वासना है. अगर उस के या किसी के भी मम्मीपापा संघर्ष नहीं करते तो वे पैदा होते? पूरे संसार के शरीर इसी वासना पर आधारित हैं. यही नियति है. विधि का विधान भी यही है.’’

‘‘इस का मतलब यह भी है कि मु झे कभी विराट कोहली से क्रश हुआ ही नहीं. सर, एक बात और सम झा दीजिएगा. ये लड़केलड़कियां बनते ही क्या हैं? कैसे बनते हैं?’’

‘‘आप मानती हैं, इस सारे संसार को कोई ऐसी पावर चला रही है जिसे हम कुदरत कहते हैं. जहां मेल है, वहीं फीमेल भी है.’’

‘‘जी हां, सर. कुदरत है जो पूरे संसार को चलाता है.’’

‘‘आप का दूसरा प्रश्न मैडिकल साइंस से संबंधित है, आप किसी डाक्टर या इस विषय के जानकार से पूछ सकती हैं. मैं एक कहानीकार हूं, मु झे इस का ज्ञान नहीं है.’’

मैं सम झती हूं, वे जानते हैं, लेकिन एक लड़की से कैसे वर्णन करें? उन की  िझ झक को मैं सम झ रही थी. मैं ने उन से कहा, ‘‘आप अपनी कहानियों में नायिकाओं की सुंदरता का वर्णन कैसे करते हैं?’’

‘‘यह कैसा प्रश्न है?’’

‘‘सर, प्रश्न सही क्यों नहीं है. लड़की अपनेआप को कभी नहीं जान पाती है कि वह सुंदर है या नहीं? शीशे में देख कर केवल कुछ भागों का पता चलता है? तकनीकी तौर पर कैसे पता चलेगा कि शरीर का विकास ठीक से हुआ या नहीं?’’

वे फिर हिचकिचाए. मैं ने जोर दिया तो उन्होंने मेरो हाइट पूछी. फिर उन्होंने इस प्रकार वर्णन

किया जैसे मैं उन के सामने खड़ी होऊं. मैं हैरान थी कि यह कैसे संभव है कि कोई व्यक्ति पंजाब में बैठा  झारखंड की एक लड़की के शरीर का हूबहू वर्णन कर सकता है? मेरे कुछ अंगों का विकास उन के मुताबिक कम हुआ था. उस के उन्होंने कारण भी बताए, लेकिन बेहद संस्कारी और संयुक्त परिवार में रहने वाली लड़की इस तरह रात को बेधड़क हो कर कैसे सो सकती थी? रात को ढीले कपड़े न पहन कर सोना इस का बड़ा कारण था.

मैं ने उन से प्रश्न किया, ‘‘आप ने कैसे केवल मेरी हाइट पूछ कर सब बता दिया? मैं हैरान हूं, सर. प्लीज मु झे बताएं?’’

उन्होंने कहा, ‘‘यह सैक्स मनोविज्ञान में है कि अगर किसी लड़की की हाइट इतनी है तो उस के शेष अंगों का साइज यह होना चाहिए. विडंबना से हमारे देश में स्कूलों, कालेजों में इस की शिक्षा नहीं दी जाती है. अगर दी गई होती तो इस प्रकार आप को हैरानी नहीं होती.’’

‘‘ओह,’’ मैं केवल ओह कर के रह गई. मन के भीतर आत्मग्लानि हुई कि सर से कैसा प्रश्न पूछ बैठी? वह भी किसी अनजान लेखक के सामने. वैसे वे कहते ठीक थे. यह शिक्षा का ही अभाव था कि मु झे पहले पीरियड में अधिक परेशान होना पड़ा था. मैं स्कूल बस में ही पीरियड हो गई थी. चाहे यह मां की तरफ से था या स्कूल की तरफ से, था शिक्षा का

ही अभाव.

मैं ने सर से कहा, ‘‘प्लीज, मेरी सारी चैट क्लीयर कर के मु झे स्क्रीन शौट भेजें.’’

सर ने वैसा ही किया. वे मेरे मन की हर बात को जान लेते थे. उन्होंने कहा, ‘‘लेखन के साथसाथ मैं मनोविज्ञान का भी विशेषज्ञ हूं.’’

पर मैं आत्मग्लानि से उभर नहीं पाई. सर ने हर तरह से सम झाने की कोशिश की, लेकिन मैं मन के भीतर की शंकाओं से उभर नहीं पाई. सर, ने उन शब्दों का मतलब भी सम झाया जो मेरी डीपी देख कर कहते थे. सुंदर, तन से भी और मन से भी सुंदर. सुंदर, निस्स्वार्थ, निष्पाप. सुंदर तन में, सुंदर मन का वास होता है. फिर भी मैं अपने मन के भीतर की शंकाओं से उभर नहीं पाई. कहीं सर मु झे ब्लैकमेल न करें. जमाना बहुत खराब है. आत्मग्लानि बढ़ती गई.

धीरेधीरे मेरा सर से संपर्क टूटता गया. कुछ दिनों तक उन का सुप्रभात का संदेश आता रहा, फिर यह संदेश भी बंद हो गया. शायद उन्होंने मु झे ब्लौक कर दिया था. मेरी सारी शंकाएं निराधार थीं. ऐसा कुछ नहीं हुआ जैसा मैं ने सोचा था.

मैं अपनी बीटैक की पढ़ाई में व्यस्त हो गई. अच्छे नंबरों में पास हुई. मैं सर को इस की सूचना न दे पाई. यूपीएससी ने भारतीय सेना के लिए तकनीकी अफसरों की वेकैंसी निकाली तो मैं ने तुरंत अप्लाई किया. सीधे एसएसबी में जाना था. डिगरी होल्डर कैंडीडेट के लिए कोई लिखित परीक्षा नहीं थी. मु झे एसएसबी के चयन में कोई दिक्कत नहीं हुई न ही मैडिकल में.

मैं आईएमए की ट्रेनिंग से पहले सर को बताना चाहती थी, लेकिन मेरे पास कोई साधन नहीं था. सारे रास्ते बंद हो गए थे. मेरे पास उन के घर का पता था. मन में था कि अगर मेरी पोस्टिंग पंजाब साइड हुई तो मैं उन से मिलने जरूर जाऊंगी.

मेरी ट्रेनिंग चलती रही. मन में सर को याद करती रही. मेरे फौजी अफसर बनने के असली सूत्रधार सर ही थे. देखतेदेखते ट्रेनिंग के डेढ़ साल बीत गए. पासिंग आउट परेड में चाचू को न बुला कर, चाचू ने अपने मम्मीपापा को बुलाने के लिए कहा, ‘‘आप के मम्मीपापा को पता चलना चाहिए कि उन की बेटी कैसे सुरक्षित और शानदार

जीवन जीएगी.’’

मन के भीतर से मैं चाचू के समक्ष फिर नतमस्तक हो गई. मम्मीपापा के लिए सर की एक बात याद आ रही थी. वे कहा रहते थे कि जीवन की धुरी इस के इर्दगिर्द घूमती है कि जिस बात का विरोध आज अपनी जान दे कर करते हैं, कोई समय आता है, हम परिस्थितियों द्वारा इतने असहाय हो जाते हैं कि उसी बात को बिना किसी शर्त के चुपचाप स्वीकार कर लेते हैं.

मम्मीपापा के लिए बात सटीक बैठती थी. वे हमेशा मेरी बात का विरोध करते रहे. शादी की रट लगाए रहे. आज जब हवाईजहाज से आईएमए में आए, शानदार कमरा मिला, जबरदस्त टेस्टी खाना मिला, परेड देखने के लिए शानदार कुरसियों पर बैठे. ऐसी परेड देखने का मौका बहुत कम लोगों को ही मिलता है.

परेड के बाद जब मैं मम्मीपापा के पास अपने कंधों के फ्लैप उतरवाने गई

तो मम्मीपापा दोनों ही भावुक हो उठे. फ्लैप उतारते हुए उन की आंखों से आंसू बह निकले. दोनों कंधों पर चमकते स्टार देख कर और अन्य साथियों के अभिभावकों की बधाइयों के बीच वे मु झे गले लगा कर रो नहीं सके. केवल इतना कहा, ‘‘मैं यों ही तुम्हारा विरोध करता रहा. मैं बधाई भी कैसे दूं और तुम इसे स्वीकार भी क्यों करोगी?’’

मु झे लगा पापा के रूप में सर बैठ कर रो रहे हैं.

मेरी आंखें भी नम हो गईं. बोली, ‘‘मैं पापा के पास गई. आप की बधाई और आशीर्वाद दोनों स्वीकार हैं. आप ने उस समय मेरा विरोध, मेरी भलाई के लिए किया था, पर मेरी जगह यहां थी. आप कुछ बुरा न मानें.’’

मम्मी भी पास आ कर खड़ी हो गईं. बधाइयों का तांता लगा हुआ था. लंच के बाद

मु झे दिल्ली की टे्रन पकड़नी थी और मम्मीपापा को लंच के बाद फ्लाइट. उन्हें आईएमए की गाड़ी ले कर चली गई. मैं अपने कमरे में आ गई.

1 बजे लंच किया और 3 बजे गाड़ी ने मु झे और दिल्ली जाने वाले साथियों के साथ रेलवे स्टेशन पर छोड़ दिया.

प्लेटफौर्म पर गाड़ी लगी हुई थी. कुली से कैबिन में सामान रखवाया और मम्मीपापा से बात की. वे जहाज में बैठने जा रहे थे. बहुत खुश थे.

दिल्ली से पठानकोट की मेरी रात की ट्रेन थी. मैं ने सामान क्लौकरूम में जमा करवाया. प्रीपेड टैक्सी ले कर मैं सर के घर की ओर चल दी. मन में जबरदस्त उल्लास था कि मु झे अफसर की वरदी में देख कर वे बहुत खुश होंगे.

मैं सर के घर पहुंची तो मैं ने उन के बारे में पूछा. उन में से एक ने पहली मंजिल पर जाने का इशारा किया. मैं वहां गई, फ्लैट का दरवाजा खुला हुआ था. शायद उन के बड़े बेटे ने मेरा स्वागत किया. सर के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि आप के सर अंदर चिरनिद्रा में सोए हुए हैं और हम उन की अंतिम विदाई की तैयारी में लगे हुए हैं.

मैं पत्थर हो गई, मेरे पांव उठ ही नहीं रहे थे, ‘‘यह कैसे हुआ?’’

‘‘आज सुबह उन के प्राण निकले.’’

मैं उन के कमरे में गई. लगा, वे गहरी नींद सोए हुए हैं. अभी उठ कर मु झे देखेंगे और फिर गहरी नींद सो जाएंगे. मैं ने उन के पांवों की तरफ खड़े हो कुदरत से गुहार लगाई. पर असंभव, संभव नहीं हो सकता था. आंखों से अश्रुधारा बहती रही.

सर के बड़े बेटे ने कहा, ‘‘लैफ्टिनैंट सोना कुमारीजी,

हम सब रो चुके हैं. कोई लाभ नहीं. जो चला जाता है, वह लौट कर नहीं आता है. आइए ड्राइंगरूम में बैठते हैं.’’

मु झे लगा, उन के बेटे के रूप में सर बोल रहे हैं. वे हमेशा मु झे ‘जी’ कहा करते थे. मैं सर को प्रणाम कर के ड्राइंगरूम के सोफे पर आ कर बैठ गई. सामने बड़े बेटे बैठे थे. बोले, ‘‘लैफ्टिनैंट साहिबा, शायद आप  झारखंड से हैं.’’

‘‘जी.’’

‘‘वे आप के बारे में अकसर कहा करते थे कि  झारखंड के जमशेदपुर से एक ऐसी लड़की है जो दबंग है, निस्स्वार्थ है, निष्कलंक है, निष्पाप है, जिस से हर तरह की बात की जा सकती है. वह बेबाक हो कर बात करती है. देश में ऐसी इकलौती लड़की है. मैं हमेशा उस के प्रति नतमस्तक रहा हूं.’’

मेरी आंखें फिर भर आईं, ‘‘मैं सर को कभी सम झ नहीं पाई, इस का मु झे बहुत दुख है.’’

‘‘आप के सर को जब हम भी कभी नहीं सम झ पाए तो आप क्या सम झतीं. खैर, छोड़ो. आप की गाड़ी कब की है? मैं ड्राइवर को कह कर छुड़वा देता हूं.’’

‘‘मेरी ट्रेन रात 10 बजे की है. मैं सर की अंतिम यात्रा में हिस्सा लेना चाहूंगी.’’

‘‘अभी 12 बजे हैं. हम 2 बजे तक यहां से निकलेंगे,’’ कह उन्होंने किचन में खड़ी औरत को आवाज लगाई.

‘‘जी, कहिए?’’

‘‘यह मेरी पत्नी राजी है.’’

मैं ने उन्हेंनमस्कार किया.

‘‘राजी, ये लैफ्टिनैंट सोना कुमारी,  झारखंड की वही लड़की हैं जिन के बारे में अकसर पापा बात किया करते थे. इन्हें पहले पानी दें, फिर चायनाश्ता कराओ.’’

‘‘सोनाजी, पापा आप से बहुत स्नेह करते थे. वे आप को सेना का अफसर देखना चाहते थे. आप जब अफसर बन कर आई हैं तो वे चले गए हैं. होता है जीवन में ऐसा. रात यानी रजनी आंचल में सितारे टांक कर, माथे पर चांद की बिंदिया सजा कर प्रभात की प्रतीक्षा करती है. जब प्रभात आता है तो रजनी को चले जाना होता है. यही जीवन है.’’

‘‘लेकिन मु झे भूख नहीं है. प्लीज, आप कोई फौरमैलिटी न करें.’’

‘‘फौरमैलिटी नहीं है, मरने पर कभी किसी का खानापीना रुका है? इन्होंने भी नहीं खाया है. आप के साथ ये भी खा लेंगे.’’

फिर मैं कुछ नहीं बोल सकी. जो खा सकी, खाया.

2 बजे जब सर की अर्थी उठी तो मन में केवल यह भाव थे कि मैं सर की अंतिम विदाई तो देने नहीं आई थी न. यह कुदरत का कैसा खेल है. विधि का कैसा विधान है? क्यों होता है ऐसा? बस इसी प्रश्न का उत्तर नहीं मिल पाता है. जिन को हम पाना चाहते हैं, उन्हें अनायास ही खो देते हैं.

मैं इन प्रश्नों के उत्तरों की खोज से खुद अप्रश्न बन गई थी. सुबह जब मैं पठानकोट पहुंची तो पूरी रात की जगी हुई थी.

आंखों में अश्रु अभी भी थे. यह कैसे आंसू थे, मैं सम झ नहीं पाई. जीवन की धुरी शायद इसी के इर्दगिर्द घूमती है.

Sad Hindi Story : आंसू छलक आए

Sad Hindi Story :  ‘‘देखो विनोद, अगर तुम कल्पना से शादी करना चाहते हो, तो पहले तुम्हें अपने पिता से रजामंदी लेनी पड़गी…’’ प्रेमशंकर ने समझाते हुए कहा, ‘‘शादी में उन की रजामंदी होना बहुत जरूरी है.’’

‘‘मगर अंकल, वे इस की इजाजत नहीं देंगे,’’ विनोद ने इनकार करते हुए कहा.

‘‘क्यों नहीं देंगे इजाजत?’’ प्रेमशंकर ने सवाल पूछा, ‘‘क्या तुम उन्हें समझाओगे नहीं?’’

‘‘मैं अपने पिता की आदतों को अच्छी तरह से जानता हूं. वे कभी नहीं समझेंगे और हमारी इस शादी के लिए इजाजत भी नहीं देंगे…’’ एक बार फिर इनकार करते हुए विनोद बोला, ‘‘आप उन्हें समझा दें, तो अच्छा रहेगा.’’

‘‘मेरे समझाने से क्या वे मान जाएंगे?’’ प्रेमशंकर ने पूछा.

‘‘हां अंकल, वे मान जाएंगे,’’ यह कह कर विनोद ने गेंद उन के पाले में फेंक दी.

विनोद प्रेमशंकर के मकान में किराएदार था. उसे अभी बैंक में लगे 2 साल हुए थे. इन 2 सालों में विनोद ने किराए के मामले में उन्हें कभी दिक्कत नहीं पहुंचाई थी. एक तरह से उन के घरेलू संबंध हो गए थे.

विनोद के बैंक में ही कल्पना काम करती थी. उसे भी बैंक में लगे तकरीबन 2 साल हुए थे. उम्र में वे दोनों बराबर के थे. दोनों कुंआरे थे. दोनों में कब प्यार पनपा, पता ही नहीं चला.

वे एकदूसरे के कमरे में घंटों बैठे रहते थे. दोनों ही तकरीबन 2 हजार किलोमीटर दूर से इस शहर में नौकरी करने आए थे.

कभीकभी कल्पना की मां जरूर उस के पास रहने आ जाती थीं. तब कल्पना मां से कोई बहाना कर के विनोद के कमरे में आती थी. प्रेमशंकर यह सब जानते थे.

जब कल्पना घंटों विनोद के कमरे में बैठी रहती, तब प्रेमशंकर को लगा कि उन दोनों में प्यार की खिचड़ी पक रही है.

एक दिन मौका देख कर उन्होंने विनोद से खुल कर बात की. नतीजा यही निकला कि विनोद के पिता इस शादी के लिए कभी राजी नहीं होंगे, क्योंकि वह ऊंची जाति का था, जबकि कल्पना निचली जाति की थी.

प्रेमशंकर बोले, ‘‘ठीक है विनोद, अगर तुम कल्पना से शादी करना चाहते हो, तो तुम्हें अपने मातापिता को भरोसे में लेना होगा.’’

मगर विनोद इनकार करते हुए बोला, ‘‘अंकल, वे इस शादी के लिए कभी इजाजत नहीं देंगे.’’

तब प्रेमशंकर ने कहा था, ‘‘आखिर वे भी तो इनसान हैं, कोई जानवर नहीं. तुम उन्हें बुलाओ. अगर वे नहीं आएंगे, तो मैं चलूंगा तुम्हारे साथ उन को समझाने…’’

इस तरह प्रेमशंकर बिचौलिया बनने को राजी हो गए.

विनोद के बुलाने पर पिता अरुण आ गए. साथ में उन की पत्नी मनोरमा भी थीं. प्रेमशंकर ने उन्हें अपने घर में इज्जत से बिठाया.

अरुण बोले, ‘‘बताइए प्रेमशंकर साहब, हमें किसलिए बुलाया है?’’

‘‘अरुण साहब, आप को खास वजह से ही यहां बुलाया है.’’

‘‘खास वजह… मैं समझा नहीं…’’ अरुण बोले, ‘‘जो कुछ कहना है, साफसाफ कहें.’’

‘‘ठीक है, पर इस के लिए आप को दिल थोड़ा मजबूत करना होगा.’’

‘‘मजबूत से मतलब?’’ अरुण ने हैरान हो कर पूछा.

‘‘मतलब यह कि आप ने विनोद की शादी के बारे में क्या सोचा है?’’

‘‘उस के लिए मैं ने एक लड़की देख ली है प्रेमशंकरजी. अब विनोद की हां चाहिए और उस की हां के लिए मैं यहां आया हूं,’’ यह कह कर अरुण ने प्रेमशंकर को अजीब सी निगाह से देखा.

‘‘अगर मैं कहूं कि विनोद ने अपने लिए लड़की देख ली है, तो…’’

‘‘क्या कहा, विनोद ने अपने लिए लड़की देख ली है?’’

‘‘जी हां अरुण साहब, अब आप का क्या विचार है?’’

‘‘कौन है वह लड़की?’’ अरुण ने पूछा.

‘‘उस के साथ बैंक में ही काम करती है. उस का नाम कल्पना है. आप इस पर क्या कहना चाहते हैं?’’

‘‘मतलब, विनोद कल्पना से शादी करना चाहता है?’’

‘‘हां,’’ इतना कह कर प्रेमशंकर ने अरुण के दिल में हलचल पैदा कर दी.

‘‘वह किस जाति की है? क्या समाज है उस का?’’ अरुण जरा गुस्से से बोले.

‘‘वह निचली जाति की है,’’ प्रेमशंकर ने बिना किसी लागलपेट के कहा.

‘‘क्या कहा, वह एक दलित घर से है? मैं यह शादी कभी नहीं होने दूंगा…’’ अरुण ने गुस्से में साफ मना कर दिया, फिर आगे बोले, ‘‘अरे प्रेमशंकरजी, शादीब्याह अपनी ही बिरादरी में होते हैं.’’

‘‘हांहां, होते हैं अरुणजी, मगर आप जिस जमाने की बात कर रहे हैं, वह जमाना गुजर गया. यह 21वीं सदी है.’’

‘‘हां, मैं भी जानता हूं. मुझे समझाने की कोशिश न करें.’’

‘‘जब आप इतना जानते हैं, तब इस शादी के लिए मना क्यों कर रहे हैं?’’

‘‘मैं अपने बेटे की गैरबिरादरी में शादी करा कर बिरादरी पर दाग नहीं लगाना चाहता. मैं यह शादी हरगिज नहीं होने दूंगा.’’

प्रेमशंकर मुसकराते हुए बोले, ‘‘तो आप विनोद की शादी अपनी ही बिरादरी में करना चाहते हैं?’’

‘‘हां, क्या आप को शक है?’’

‘‘आप विनोद से तो पूछ लीजिए.’’

‘‘पूछना क्या है? वह मेरा बेटा है. मेरा कहना वह टाल नहीं सकता.’’

‘‘अपने बेटे पर इतना भरोसा है, तो पूछ लीजिए उस से कि वह आप की पसंद की लड़की से शादी करेगा या अपनी पसंद की लड़की से,’’ कह कर प्रेमशंकर ने भीतर की तरफ इशारा कर के कहा, ‘‘विनोद, यहां आ जाओ.’’

भीतर बैठे विनोद और कल्पना इसी इंतजार में थे. वे दोनों बाहर आ गए. अरुण कल्पना को देखते रह गए.

प्रेमशंकर बोले, ‘‘पूछ लो अपने बेटे से… यह वह कल्पना है, जिस से यह शादी करना चाहता है.’’

‘‘क्यों विनोद, यह मैं क्या सुन रहा हूं?’’ विनोद के पापा अरुण बोले.

‘‘जो कुछ सुन रहे हैं, सच सुन रहे हैं पापा,’’ विनोद ने कहा.

‘‘तुम इस कल्पना से शादी नहीं कर सकते,’’ अरुण ने कहा.

‘‘पापा, मैं शादी करूंगा, तो इस से ही,’’ विनोद बोला.

‘‘मैं तुम्हारी शादी इस लड़की से हरगिज नहीं होने दूंगा.’’

‘‘मैं शादी करूंगा, तो सिर्फ कल्पना से ही.’’

‘‘ऐसा क्या है, जो तुम इस की रट लगाए हुए हो?’’

‘‘कल्पना मेरा प्यार है.’’

‘‘प्यार… 2-4 मुलाकातों को तुम प्यार समझ बैठे हो?’’ चिल्ला कर अरुण बोले, ‘‘कान खोल कर सुन लो विनोद, तुम्हारी शादी वहीं होगी, जहां हम चाहेंगे.’’

‘‘पापा सच कर रहे हैं विनोद…’’ मां मनोरमा बीच में ही बात काटते हुए बोलीं, ‘‘यह लड़की हमारी जातबिरादरी की भी नहीं है. इस से शादी कर के हम समाज में अपनी नाक नहीं कटा सकते हैं, इसलिए इस के साथ शादी करने का इरादा छोड़ दे.’’

‘‘मां, मेरे इरादों को कोई बदल नहीं सकता है. शादी करूंगा तो कल्पना से ही, किसी दूसरी लड़की से नहीं.’’

अपना फैसला सुना कर विनोद कल्पना को ले कर घर से बाहर चला गया.

पलभर के सन्नाटे के बाद प्रेमशंकर बोले, ‘‘अब क्या सोचा है अरुण साहब? अब भी आप इस शादी से इनकार करते हैं?’’

‘‘यह सब आप लोगों की रची हुई साजिश है. आप ने ही मेरे बेटे को बरगलाया है, इसलिए आप उस का ही पक्ष ले रहे हैं,’’ कह कर अरुण ने अपनी बात पूरी की.

‘‘अरुण साहब सोचो, विनोद कोई दूध पीता बच्चा नहीं है…’’ प्रेमशंकर समझाते हुए बोले, ‘‘आप उसे डराधमका कर अपने वश में कर लेंगे, यह भी मुमकिन नहीं है. वह नौकरी करता है, अपने पैरों पर खड़ा है. वह अपना भलाबुरा समझता है.

‘‘वह मेरे यहां किराएदार बन कर जरूर रह रहा है, मगर मैं उस को पूरी तरह समझ चुका हूं कि वह समझदार है. वैसे, वह आप की भावनाओं को भी समझता है. मगर वह शादी करेगा, तो कल्पना से ही. इस के पहले मैं भी यह सब बातें उसे समझा चुका हूं, इसलिए आप उसे समझदार समझें.’’

‘‘क्या खाक समझदार है भाई साहब…’’ मनोरमा झल्ला कर बोलीं, ‘‘वह उस लड़की को अपने साथ ले गया है. कहीं वह गलत कदम न उठा ले. सुनो जी, उस की शादी वहीं करो, जहां हम चाहते हैं.’’

‘‘भाभीजी, विनोद ऐसावैसा लड़का नहीं है, जो गलत कदम उठा ले…’’ प्रेमशंकर समझाते हुए बोले, ‘‘अरुण साहब, अगर आप उस पर दबाव डाल कर शादी कर भी देंगे, तब वह बहू के साथ वैसा बरताव नहीं करेगा, जो आप चाहेंगे. दिनरात उन में कलह मचेगी और आपस में मनमुटाव होगा.

‘‘अगर आप उन की मरजी से शादी नहीं करोगे, तब वे कोर्ट में ही शादी कर सकते हैं, क्योंकि कोर्ट उन्हीं का पक्ष लेगा. इसलिए आप सोचिए मत. मेरा कहना मानिए, इन की शादी आप आगे रह कर करें और पिता की जिम्मेदारी से छुटकारा पा जाएं.’’

‘‘मगर इस शादी से समाज में हमारी कितनी किरकिरी होगी, यह आप ने सोचा है?’’ एक बार फिर अरुण अपनी बात रखते हुए बोले.

‘‘समाज तो दोनों हाथों में लड्डू रखता है. थोड़े दिनों तक समाज ताना दे कर चुप हो जाएगा. इस बात पर जितना विचार कर के गहराई में उतरेंगे, उतनी ही तकलीफ उठाएंगे.

‘‘आप अपनी हठ छोड़ दें. इस के बावजूद भी आप अपनी जिद पर अड़े हो, तो विनोद की शादी अपनी देखी लड़की से कर दो. मैं इस मामले में आप से कुछ नहीं बोलूंगा,’’ प्रेमशंकर के ये शब्द सुन कर अरुण के सारे गरम तेवर ठंडे पड़ गए.

वे थोड़ी देर बाद बोले, ‘‘ठीक है प्रेमशंकरजी, मैं अपनी हठ छोड़ता हूं. विनोद कल्पना से शादी करना चाहता है, तो इस के लिए मैं तैयार हूं.’’

‘‘ओह, शुक्रिया अरुण साहब,’’ कह कर प्रेमशंकर की आंखों में खुशी के आंसू छलछला आए.

Hindi Stories : बचाव – क्या संजय की पत्नी को मिला दूसरा मौका

Hindi Stories : अपने लंबे बाल कंधे तक कटवा कर मैं ने अपना हेयर स्टाइल पूरी तरह बदल लिया था. ब्यूटीपार्लर हो कर आर्ई थी, इसलिए चेहरा भी कुछ ज्यादा ही दमक रहा था. कुल मिला कर मैं यह कहना चाह रही हूं कि उस रात संजय के साथ बाजार में घूमती हुई मैं इतनी सुंदर लग रही थी कि मेरे लिए खुद को पहचानना भी आसान नहीं था.

फिर मुझे संजय के बौस अरुण ने नहीं पहचाना तो कोई हैरानी की बात नहीं, लेकिन मुझे न पहचानना उन्हें बहुत महंगा पड़ा था.

बाजार में एक दुकानदार ने रेडीमेड सूट बाहर टांग रखे थे. मैं उन्हें देख रही थी जब अरुण की आवाज मेरे कानों तक पहुंची. मैं लटके हुए एक सूट के पीछे थी, इस कारण वे मुझे देख नहीं सके.

‘‘हैलो, संजय. हाऊ इज लाइफ?’’ अरुण की जरूरत से ज्यादा ही ऊंची आवाज सुन कर मुझे लगा कि वे पिए हुए थे.

‘‘आई एम फाइन, सर. आप यहां कैसे?’’ संजय का स्वर आदरपूर्ण था.

‘‘हैरान हो रहे हो मुझे यहां देख कर?’’

‘‘नहीं तो.’’

‘‘लग तो ऐसा ही रहा है. कहां गई वो पटाका?’’

‘‘कौन, सर?’’

‘‘ज्यादा बनो मत, यार. भाभी से छिपा कर बड़ी जोरदार चीज घुमा रहे हो.’’

‘‘मैं अपनी वाइफ के साथ ही घूम रहा हूं, सर.’’ मैं ने अपने पति की आवाज में गुस्से के बढ़ते भाव को साफ महसूस किया.

‘‘वाह बेटा, अपने बौस को ही चला रहे हो. अरे, मैं क्या भाभी को पहचानता नहीं हूं.’’

‘‘सर, वह सचमुच मेरी वाइफ…’’

‘‘मुझ से क्यों झूठ बोल रहे हो? मैं भाभी से तुम्हारी शिकायत थोड़े ही करूंगा. आजकल मेरी वाइफ मायके गई हुई है. अगर मौजमस्ती के लिए खाली फ्लैट चाहिए हो तो बंदा सेवा के लिए हाजिर है. अगर तुम मुझे मौजमस्ती में शामिल…’’

‘‘सर, मेरी वाइफ के लिए…’’

‘‘नहीं करोगे तो भी चलेगा. वैसे बच्चे, अगर प्रमोशन बहुत जल्दी चाहिए तो अपने इस बौस को खुश रखो. अगर यह फुलझड़ी चलती चीज हो और तुम्हारा मन इस से भर गया हो तो इसे मुझे ट्रांसफर…’’

‘‘यू बास्टर्ड. अपने सहयोगी की पत्नी के लिए इतनी गंदी भाषा का प्रयोग करने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई?’’ गुस्से से पागल होते हुए मैं ने अचानक सामने आ कर उसे थप्पड़ मारने को हाथ उठा लिया था, पर संजय ने मुझे खींच कर पीछे कर लिया.

‘‘अरे, तुम तो सचमुच भाभी निकलीं. यह तो बहुत बड़ी मिसअंडरस्टैंडिंग हो गई, भा…’’

‘‘डोंट कौल मी भाभी,’’ मैं इतनी जोर से चिल्लाई कि लोग हमारी तरफ देखने लगे, ‘‘संजय तुम से उम्र में छोटा है न, फिर मैं तुम्हारी भाभी कैसे हुई? हर औरत को अश्लील नजरों से देखने वाले गंदी नाली के कीड़े, डोंट यू एवर काल मी भाभी.’’

‘‘यार संजय, अपनी वाइफ को चुप कराओ. यह कुछ ज्यादा ही बकवास कर…’’

‘‘मैं बकवास कर रही हूं और तुम कुछ देर पहले क्या गीता सुना रहे थे. मां कसम, मेरा दिल कर रहा है कि तुम्हारा मुंह नोच लूं.’’ संजय की पकड़ से छुटने की मेरी कोशिश को देख वह डर कर 2 कदम पीछे हट गया.

‘‘प्रिया, शांत हो जाओ. सर अपनी गलती मान रहे हैं. यू कूल डाउन, प्लीज,’’ अपने गुस्से को भूल संजय ने मुझे समझाने की कोशिश की. पर मेरे अंदर गुस्से का लावा उतनी जोर से उबल रहा था कि मुझे उन का बोला हुआ एक शब्द भी समझ नहीं आया.

‘‘ये सर होंगे तुम्हारे. मेरी नजरों में तो ये इंसान जूते से पीटे जाने लायक है. मुझे वेश्या समझा इस ने. तुम मुझे छोड़ो. मां कसम, मैं इसे ऐसे ही नहीं छोडूंगी आज. मैं संजय की गिरफ्त से आजाद होने को फिर जोर से छटपटाई तो अरुण ने वहां से भाग निकलने में ही अपनी भलाई समझी थी.

उस के चले जाने के बाद भी मैं ने उसे नाम धरना बंद नहीं किया था. वैसे संजय के साथसाथ मैं खुद भी मन ही मन हैरान हो रही थी कि मेरे अंदर इतना गुस्सा आ कहां से रहा है.

जब मैं कुछ शांत हुई तो संजय का गुस्सा बढ़ने लगा, ‘‘मेरे बौस को इतनी बुरी तरह से बेइज्जत कर के तुम ने मेरे प्रमोशन को खटाई में डाल दिया है. तुम पागल हो गई थीं क्या.’’

‘‘जब मेरे लिए वह कमीना इंसान अपशब्द निकाल रहा था, तब आप ने उसे डांटा क्यों नहीं,’’ मैं ने शिकायत की.

‘‘तुम ने मुझे उस की तबीयत सही करने का मौका ही कहां दिया. मैं सब संभाल लेता. वह या तो अपनी बकवास बंद कर देता या आज मेरे हाथों पिट कर जाता. लेकिन तुम्हें यों गुस्से से पागल होने की क्या जरूरत थी.’’

‘‘मुझ पर गुस्सा मत करो. मुझे कुछ याद नहीं कि मैं ने तुम्हारे बौस से क्या कहा है. लगता है कि इतना तेज गुस्सा करने से मेरे दिमाग की कोई नस फट गई है. मुझे बहुत जोर से चक्कर आ रहे हैं.’’ यह कह कर मैं ने अपना सिर दोनों हाथों से परेशान अंदाज में थामा तो संजय मुझे डांटना भूल कर चिंतित नजर आने लगे.

वे मुझे डांटें नहीं, इसलिए मैं ने चुपचाप रहना ही मुनासिब समझा. उन के तेज गुस्से से सिर्फ मैं ही नहीं बल्कि उन को जानने वाला हर शख्स डरता है.

यहां बाजार की तरफ आते हुए एक रिकशावाला गलत दिशा से उन की मोटरसाइकिल के सामने आ गया था. संजय ने जब उसे डांटा तो वह उलटा बोलने की हिमाकत कर बैठा था.

संजय ऐसी गुस्ताखी कहां बरदाश्त करते. मेरे रोकतेरोकते भी उन्होंने मोटरसाइकिल रोक कर उस रिकशेवाले के 3-4 झापड़ लगा ही दिए. इन का लंबाचौड़ा डीलडौल देख कर वह बेचारा उलटा हाथ उठाने की हिम्मत नहीं कर सका था.

मेरा मूड उसी समय से खराब हो गया था. अरुण की भद्दी बातें सुन कर जो मैं अपना आपा खो बैठी थी उस की जड़ में मेरी समझ से यह रिकशे वाली घटना ही थी.

हमारी शादी को अभी 6 महीने भी पूरे नहीं हुए हैं. इन के तेज गुस्से के कारण मैं ने काफी परेशानियां झेली हैं. बहुत बार लोगों के सामने नीचा देखना पड़ा है. कई बार खुद को शर्मिंदा और अपमानित महसूस किया है.

ये सडक़ पर चलते हैं तो गुस्सा इन की नाक पर बैठा रहता है. आज शाम को ये चौथा रिकशावाला इन के हाथों पिटा था. अन्य बाइक या स्कूटर वालों से इन की खूब तूतूमैंमैं होती है.

मुझे मेरी सास बताती हैं कि शादी होने से पहले ये गुस्सा हो कर सामने परोसी गई थाली फेंकने में जरा देर नहीं लगाते थे. कोई अगर उलटा बोल दे तो कहर बरपा देते थे. इन्हें जब गुस्सा आता था तो सारे घर वाले बिलकुल चुप्पी साध लेने में ही भलाई समझते थे.

शादी होने से पहले मेरी सास ने इन से अपने सिर पर हाथ रखवा कर वचन लिया था कि ये थाली कभी नहीं फेंकेंगे. इसलिए थाली फेनकने का दृश्य तो मुझे कभी देखने को नहीं मिला पर गुस्से के कारण अधूरा खाना छोड़ कर उठते हुए मैं ने इन्हें कई बार आंसूभरी आंखों से देखा है.

मेरे मायके वालों को भी इन्होंने अपने गुस्से से नहीं बख्शा है. मेरे भानजे सुमित के पहले बर्थडे की पार्टी में इन्होंने बड़ा तमाशा खड़ा कर दिया था.

एक गंवार वेटर ने इन्हें आइसक्रीम के लिए जरूरत से ज्यादा इंतजार करवा दिया था. फिर जब वह ऊपर से बाहर भी करने लगा तो संजय ने आगे झुक कर उस का कौलर पकड़ लिया था.

बात तब ज्यादा बिगड़ गई जब अन्य वेटर भी उस वेटर की हिमायत में बोलने लगे. वे सब काम छोड़ कर भाग जाने की धमकी दे रहे थे. मेरे जीजाजी पार्टी का मजा किरकिरा नहीं होने देना चाहते थे, सो, उन्होंने संजय को झगड़ा बंद कर शांत होने के लिए कुछ ऊंची आवाज में कह दिया था. ‘‘तुम्हारे जीजा ने मेरा अपमान किया है. उन के लिए वह वेटर मुझ से ज्यादा खास हो गया जो उस की तरफ से बोले. उन के घर की दहलीज आज के बाद मैं तो कभी नहीं चढूंगा.’’ उन की ऐसी जिद के चलते मुझे अपनी बहन के घर गए आज 4 महीने से ज्यादा समय बीत चुका है.

मेरे मम्मीपापा व भैयाभाभी इन के सामने खुल कर हंसनेबोलने से डरते हैं. पता नहीं ये किस बात का बुरा मन जाएं. भैयाभाभी जैसा मजाक जीजू के साथ कर लेते हैं वैसा मजाक इन के साथ करने को वो दोनों सपने में भी नहीं सोच सकते.

ये सीनियर मैडिकल रिप्रजेंटेटिव हैं. अपने काम में इन के सहयोगी इन्हें माहिर मानते हैं. अपना सेल्स टारगेट हमेशा वक्त से पहले पूरा कर लेते हैं. मुझे ही कभी समझ में नहीं आता कि इतने गुस्से वाले इंसान की डाक्टरों व कैमिस्टों से कैसे अच्छी निभ रही है. कोविड के दिनों में इन्होंने खासी कमाई कंपनी के लिए की थी. इन का कंपनियों में रुतबा भी था.

हम बाजार में करीब एक घंटा और रुके पर मजा नहीं आया. कुछ खानेपीने का मन नहीं हो रहा था. खरीदारी करने के लिए जो चित्त की प्रसन्नता चाहिए वह गायब थी. दिमाग में कुछ देर पहले अरुण के साथ घटी घटना की यादें ही घूमे जा रही थी.

मैं अगर उन दोनों के बीच में दखल न देती और अरुण मेरे खिलाफ बेहूदी बातें मुंह से निकालता चला जाता तो मुझे यकीन है कि संजय से उस का जरूर झगड़ा होता. संजय और अरुण के बीच जो झगड़ा हो सकता था, मेरी दखलंदाजी ने उस की संभावना को समाप्त कर दिया था.

‘‘तुम ने मुझे उस की तबीयत सही करने का मौका ही कहां दिया,’’ कुछ देर पहले संजय के मुंह से निकला यह वाक्य बारबार मेरे जेहन में गूंजे जा रहा था तो मैं इस वाक्य के महत्त्व को समझने के लिए दिमागी कसरत करने लगी.

जो मेरी समझ में आया उसे सहीगलत की कसौटी पर कसने का मौका मुझे थोड़ी देर में ही मिल गया.

वापस लौटने से पहले हम ने सौफ्टी खरीदी. मैं उसे थोड़ी सी ही खा पाई थी कि एक युवक की टक्कर से वह मेरे हाथ से छुटी और जमीन पर गिर पड़ी.

‘‘अंधा हो गया है क्या?’’ संजय उस पर फौरन गुर्राए.

वह भी कम न निकला और संजय से ज्यादा ऊंची आवाज में बोला, ‘‘ऐसा फाड़ खाता क्यों बोल रहा है? देख नहीं रहा कि भीड़ कितनी हो रही है.’’

‘‘भीड़ है तो क्या तू सांड सा टक्करें मारता घूमेगा?’’

‘‘जबान संभाल के बात कर, नहीं तो ठीक नहीं होगा.’’

इस पल जैसे ही मुझे एहसास हुआ कि अब संजय अपने ऊपर से नियंत्रण खो बैठेंगे, मैं इन दोनों महारथियों के बीच में कूद पड़ी.

उस लडक़े को मैं ने आगे बढ़ कर धक्का दिया और तन कर बोली, ‘‘तेरा इलाज तो पुलिस करेगी. आप जरा सौ नंबर मिलाओ जी. औरतों से मिसबिहेव करता है, टक्करें मारता चलता है. ज्यादा आंखें मत निकाल, नहीं तो फोड़ दूंगी. मां कसम अगर मेरी सैंडिल निकल आई तो तेरी खोपड़ी पर एक बाल नजर नहीं आएगा.’’

ऐसा नहीं है कि मैं बोले जा रही थी और ये दोनों चुपचाप खड़े सुन रहे थे. वह लडक़ा ‘‘मैडम, मैं जानबूझ कर नहीं टकराया था. औरत हो कर आप कैसी अजीब भाषा का इस्तेमाल कर रही हैं…’’ जैसे वाक्य हैरानपरेशान हो कर बोल रहा था पर मैं ने उस के कहे पर जरा भी ध्यान नहीं दिया.

न ही मैं संजय की सुन रही थी. मुझे अपने डायलौग बोलने से फुरसत मिलती तो ही मैं किसी और की सुनती न.

‘‘प्रिया, कूल डाउन. मुझे निबटने दो इस से. अरे, इतना गुस्सा मत करो,’’ संजय इस बार भी लडऩा भूल कर मुझे संभालने में लग गए.

‘‘यह तो मैंटल केस है,’’ हार कर वह लड़का यह बड़बड़ाया और चलता बना.

‘‘मां कसम, इसे जाने मत दो, जी. इसे थाने की हवा खिलाना जरूरी है.’’ मैं संजय की पकड़ से निकली जा रही थी.

‘‘ज्यादा तमाशा मत करो, अब शांत भी हो जाओ,’’ संजय ने उस लडक़े को रोकने की जरा सी भी कोशिश नहीं की और मैं ने साफ नोट किया, आसपास इकट्ठी हो गई भीड़ से नजरें मिलाने में उन्हें बड़ी शर्म आ रही थी.

इंग्लिश की एक कहावत ‘टू गेट द टेस्ट औफ हिज औन मैडिसिन’ इस वक्त उन के ऊपर बिलकुल फिट बैठ रही थी.

जब मैं शांत होने लगी तो उन का गुस्सा बढऩे लगा. तब मैं ने फिर से अपना सिर पकड़ते हुए कमजोर सी आवाज में कहा, ‘‘मेरा सिर फटा जा रहा है. इतना गुस्सा तो मुझे कभी नहीं आता था. मुझे किसी डाक्टर को दिखाओ, जी.’’

उस दिन ही नहीं, बल्कि तब से मैं ने दसियों बार इन्हें झगड़े से दूर रखने में सफलता पाई है. जब भी मुझे लगता है कि ये किसी के साथ झगडऩे वाले हैं तो मैं पहले ही आक्रामक रुख अपनाते हुए सामने वाले से उलझ कर बवंडर खड़ा कर देती हूं.

इन के अंदर उठी क्रोध व हिंसा की नकारात्मक ऊर्जा मुझे संभालने व समझाने की तरफ मुड़ जाती. कुछ देर में मारपीट होने या बात बढऩे का संकट टल जाता है.

मेरे कुछ परिचित मुझे मैंटल केस समझने लगे हैं. कुछ ने मुझे शेरनी का खिताब दे दिया है. कुछ के साथ मेरे संबंध काफी बिगड़ गए हैं लेकिन मैं फिक्रमंद नहीं हूं. मेरे लिए बड़ी खुशी व संतोष की बात यह है कि पिछले 4 महीने से संजय का घर में या बाहर किसी से जोरदार झगड़ा नहीं हुआ है.

वे अब तक मुझे 4 डाक्टरों को दिखा चुके हैं. कहीं मेरी चाल उन की समझ में न आ जाए, इसलिए मैं भी अपना सिर थामे उन के साथ चली जाती हूं.

अब वे बदल रहे हैं. कहीं भी झगड़ा होने की स्थिति पैदा होते ही वे बारबार मेरी तरफ ध्यान से देखना शुरू कर देते हैं. सामने वाले से उलझने के बजाय उन्हें मेरे ज्वालामुखी की तरह अचानक फट पडऩे की चिंता ज्यादा रहती है.

मैं ने फैसला किया है कि यह पूरा साल शांति से निकल गया तो बहुत बड़ी पार्टी दूंगी. अपने खराब व्यवहार से मैं ने जिन परिचितों के दिलों को दुखाया है और भविष्य में दुखाऊंगी, उस पार्टी में उन सब के प्रति प्यार व सम्मान प्रकट करने का मुझे अच्छा मौका मिलेगा.

Stories In Hindi : मातृत्व का अमृत: क्या धोखे को सहन कर पाई विभा

Stories In Hindi : लाल सुर्ख जोडे़ में सजी विभा के चारों तरफ गूंजती शहनाई और विवाह की रौनक थी. सुमित की छवि जैसे विभा की आंखों के सामने घूम रही थी और स्वत: ही उसे याद आती थी, सुमित के साथ उस की पहली मुलाकात.

वह दिन, जब सुमित उसे देखने आया था तो उस से ज्यादा नर्वस शायद सुमित खुद ही था. मुंह नीचा किए वह चुपचाप बैठा था और जैसे ही मां विभा को ले कर ड्राइंगरूम में पहुंचीं, मां के पांव छूने की बजाय गलती से सुमित ने विभा के पांव छू लिए. तब अल्हड़ विभा ने उसे ‘दूधों नहाओ और पूतों फलो’ का आशीर्वाद दिया तो वहां उपस्थित सभी ठहाका मार कर हंस पडे़.

सुमित को विभा की चंचलता बहुत भा गई और वह उस के मनमोहक रूप से आकर्षित हुए बिना भी न रह सका. वहीं विभा को भी सुमित की सादगी पसंद आई थी.

विभा सुमित से अपनी पहली भेंट को जब भी याद करती, बहुत देर तक हंसती थी.

आज फिर विभा लाल सुर्ख जोडे़ में लिपटी बैठी थी. पहले जैसी चहलपहल आज नहीं थी. 11 साल पहले जो उत्सुकता विभा की आंखों में विवाह को ले कर थी वह आज आंसू बन कर बह रही थी और कई सवाल उस के कोमल हृदय पर आघात कर रहे थे पर जवाब तलाशने से भी उसे नहीं मिल रहे थे.

एक समझदार पति के साथसाथ उस का सब से प्यारा दोस्त सुमित याद आ रहा था तो याद आ रही थी उसे अपनी ससुराल, जहां पति का बेइंतहा प्यार मिला और देवर, सासससुर के स्नेहपूर्ण व्यवहार ने उस के जीवन में इंद्रधनुषी रंग भर दिए.

उस का घरेलू जीवन तब और साकार हो गया जब विभा के घर में एक नन्हेमुन्ने की आहट हुई. विभा की ससुराल और मायके में खुशियों का उत्सव छाया हुआ था. लेकिन उस को क्या पता था कि उस की खुशियों पर एक ऐसी बिजली गिरेगी जो सबकुछ जला कर राख कर देगी.

दीवाली के दीपों की ज्योति से अंधेरे जीवन में भी प्रकाश हो जाता है पर इस बार की दीवाली विभा के जीवन में अंधकार भरने आई थी. सुमित दीवाली के अवसर पर बाजार गया. विभा कोे 4 महीने का गर्भ था, इसलिए वह न जा सकी. बाजार में बम विस्फोट हुआ और सुमित लौट कर घर न आ सका. उस की मृत्यु का समाचार और फिर उस का क्षतविक्षत शव देख कर जो सदमा विभा को लगा उसे वह सहन न कर सकी और उस का गर्भपात हो गया.

सुमित की यादें जहां विभा के मुखमंडल पर खास छटा बिखेर देती थीं वहीं उस की मृत्यु की कल्पना से भी विभा सिहर उठती थी.

विभा आज अपने अतीत के सारे पृष्ठ पलट लेना चाहती थी. यादें समय के प्रवाह के साथ धूमिल अवश्य पड़ जाती हैं परंतु खत्म कभी नहीं होतीं, क्योंकि हृदय पर बने उन के निशान सागर की गहराई से भी गहरे होते हैं.

गुजरे हुए कल ने विभा के जीवन पर गहरे निशान छोडे़ थे, ऐसे निशान जो उसे बहुत गहरे आघात दे गए थे.

विधवा विभा अपने सासससुर की सेवा करते हुए जीवन व्यतीत करना चाहती थी, साथ ही एक शिक्षिका होने के नाते अपना सारा जीवन अपने विद्यालय और विद्यार्थियों के हित में समर्पित करना चाहती थी, पर जिस औरत का सुहाग उजड़ जाए उस के अपने भी बेगाने हो जाते हैं. यहां तक कि घर के लोग भी सांप की तरह फुफकारते हैं व दंश भी मारते हैं.

सुमित की मौत के बाद उस के ससुराल वालों का व्यवहार विभा के प्रति अनायास ही बदल गया. सास का छोटीछोटी बातों पर फटकारना, किसी न किसी बात में कमी निकालना, अब आम हो गया था. मगर जब देवर और ससुर की कामुक नजर उसे कचोटने लगी तो उस की सहनशक्ति परास्त हो गई. तब अपना सारा साहस जुटा कर विभा अपने मायके चली आई. घर में मांबाबूजी के अलावा विभा का एक छोटा भाई प्रभात भी था.

घर का सारा काम विभा अकेले ही करती, मांबाबूजी का पूरा खयाल रखती, विद्यालय जाती, शाम को ट्यूशन पढ़ाती और प्रभात की पढ़ाई में सहयोग भी देती. इस तरह उस ने अपनी दिनचर्या को पूरी तरह व्यस्त कर लिया था.

देखते ही देखते 9 साल गुजर गए. प्रभात, विभा के सहयोग की बदौलत आईटी प्रोफेशनल के रूप में अपने पैर जमा चुका था. उस के लिए अच्छेअच्छे रिश्ते आने लगे. मांबाबूजी ने विभा की सलाह से एक सुंदर व सुशिक्षित लड़की सुनैना को देख कर प्रभात का रिश्ता तय कर दिया. विवाह भी हंसीखुशी संपन्न हो गया. घर में एक नई बहू आ गई.

प्रभात की खुशियों में विभा अपनी खुशियां तलाशना सीख गई थी. तभी मुंहदिखाई के समय सुनैना को अपना हीरों जडि़त हार देते वक्त उस ने कहा था, ‘‘सुनैना, तुम्हें इस से भी ज्यादा सुंदर तोहफा तब दूंगी जब तुम हमें एक प्यारा सा, प्रभात जैसा भतीजा दोगी.’’

घर के सारे छोटेबडे़ फैसले विभा की सलाह से लिए जाते थे और प्रभात भी अपनी दीदी के पूरे प्रभाव में था, इसलिए सुनैना के मन में विभा के प्रति द्वेष घर कर गया. अब वह विभा को नीचा दिखाने का कोई न कोई मौका ढूंढ़ती रहती थी.

हालांकि विभा उसे अपनी छोटी बहन की तरह समझती थी और उस की गलतियों को भी क्षमा कर देती थी.

सुनैना मां बनने वाली थी और कमजोरी के कारण डाक्टर ने उसे पूरी तरह आराम की सलाह दी थी, इसलिए बाकी कार्यों के साथसाथ विभा फिर से घर का सारा काम संभालने लगी. सुनैना की हर जरूरत का भी वह पूरापूरा खयाल रखती.

उस दिन विद्यालय से लौटने के बाद विभा फ्रैश हो कर दोपहर के खाने में जुट गई. प्रभात भी घर पर ही था. सब मेज पर खाना खाने के लिए बैठे ही थे कि सुनैना झल्ला उठी.

खाने की थाली में से एक बाल निकल आने के कारण सुनैना गुस्से से लालपीली होते हुए बोली, ‘दीदी, अगर आप को कोई परेशानी है तो यों ही कह दीजिए. वैसे भी हमारी हैसियत तो है ही कि हम एक नौकरानी रख लें.’

आवेश में विभा से यह कटु वचन बोल कर सुनैना प्रभात की सहानुभूति बटोरने के लिए अभिनय करती हुई धम्म से कुरसी पर बैठ गई.

प्रभात ने सुनैना को संभालते हुए तैश में आ कर कहा, ‘दीदी, जरा ध्यान से खाना बनाया कीजिए. सुनैना को डाक्टर ने जरा सा भी स्ट्रेस लेने से मना किया है. आप की ऐसी हरकत की वजह से अगर हमारे बच्चे को कुछ हो गया तो…’

प्रभात के ऐसे व्यवहार से सुनैना को बल मिला और फिर उस ने विभा पर अपने बच्चे को गिराने का आरोप जड़ते हुए कहा, ‘आप तो, जब से मैं इस घर में आई हूं, कुछ न कुछ मेरे खिलाफ करती ही रहती हैं और आज जब मैं मां बनने वाली हूं तो जादूटोना कर के हमारी होने वाली संतान को मारना चाहती हैं. अरे, शैतान भी एक बार खाए हुए नमक की लाज रख लेता होगा और आप जिस घर में बरसों से रह रही हैं उसी घर की दीवारों की नींव को खोद देना चाहती हैं.’

विभा ने जब खुद पर लगे आरोपों का विरोध करना चाहा तो प्रभात ने उसे तमाचा जड़ दिया था. यह चोट सब से गहरी थी और सब से ज्यादा दुखदायी था मांबाबूजी का मूकदर्शक बने रहना. उस दिन एक विधवा की वेदना को विभा पूरी तरह समझ गई थी. विभा ने आवेश में आ कर अकेले ही कहीं और मकान ले कर रहने का फैसला किया पर दिल्ली जैसे शहर में एक महिला का अकेले रहना कहां तक सुरक्षित है, यह सोच कर मांबाबूजी ने उसे रोक लिया.

सुनैना, विभा को परिवार वालों की नजरों में गिराना ही नहीं बल्कि उसे घर से निकलवाना भी चाहती थी, पर अपनी आशाओं पर पानी फिरता देख अवसर पा कर उस ने मांबाबूजी के मन में विभा के दूसरे विवाह का विचार डाल दिया.

मांबाबूजी विभा के लिए किसी उचित वर की तलाश में थे तो सुनैना ने एक लड़के का नाम भी उन्हें सुझाया. उस की बातों में आ कर घर वालों ने ‘विधवा’ विभा का रिश्ता तय कर दिया.

विभा यह तो जान ही चुकी थी कि एक औरत का अस्तित्व उस के पति की मृत्यु के साथ ही समाप्त हो जाता है. और एक सादे समारोह में विभा की दूसरी शादी संपन्न हो गई.

विभा अपने अतीत में खोई हुई थी कि तभी मां ने उसे झकझोरा और कहा, ‘‘विभा बेटा, तुम्हारी विदाई का समय हो गया है.’’

आज विभा, विनोद की दूसरी पत्नी बन कर उस के घर जा रही थी. उस की आंखों से आंसुओं का सागर उमड़ रहा था. किंतु इन आंसुओं का औचित्य समझ पाना उस के बस की बात नहीं थी. यह आंसू अपने उस घर से विदाई के थे जहां से वह 11 साल पहले ही विदा की जा चुकी थी या एक विधवा की बदकिस्मती के, विभा स्वयं नहीं जानती थी.

विभा अब तक विनोद से नहीं मिली थी. उसे केवल इतना बताया गया था कि विनोद पेशे से एक सर्जन है, उस की पहली पत्नी की मृत्यु कुछ समय पहले हुई थी और विनोद के 2 बच्चे हैं. प्रांजल जो 8 वर्ष का है और परिधि 6 वर्ष की है. घर में विनोद और बच्चों के अलावा मातापिता हैं.

विभा इस शादी से खुश नहीं थी पर विदाई के बाद ससुराल पहुंचते ही जब प्रांजल और परिधि ने उसे ‘नई मम्मी’ कह कर पुकारा तो वह गद्गद हो गई. मातृत्व क्या होता है, उसे यह खुशी नसीब नहीं हुई थी मगर प्रांजल और परिधि के एक छोटे से उच्चारण ने उस के भीतर दबी हुई ममता को जागृत कर दिया. उस के सासससुर का व्यवहार बेहद करुणा- मयी और विनम्र था.

विनोद से अब तक उस की भेंट नहीं हुई थी. विभा कमरे में काफी देर तक उस की प्रतीक्षा करती रही और इंतजार करतेकरते कब उस की आंख लग गई उसे पता नहीं चला. शायद विनोद ने उसे जगाना भी ठीक नहीं समझा.

विभा में नईनवेली दुलहनों जैसे नाजनखरे नहीं थे इसलिए विवाह के अगले दिन से ही घर का सारा काम उस ने अपने हाथों में ले लिया. सुबह जल्दी उठ कर अपना पूजापाठ समाप्त कर के पहले वह अपने सासससुर को चाय बना कर देती, फिर नाश्ता तैयार करती, विनोद को नर्स्ंिग होम और बच्चों को स्कूल भेज कर वह अपने विद्यालय जाती.

दोपहर को विद्यालय से आते ही बच्चे उसे घेर लेते. पहले तो उन्हें खाना खिला कर विभा उन का होमवर्क पूरा करवाती और फिर उन के साथ खूब खेलती. अब प्रांजल और परिधि उसे ‘नई मम्मी’ के बजाय ‘मम्मी’ कह कर पुकारने लगे थे. बच्चों के साथ विभा ने अपने सासससुर का भी दिल जीत लिया था.

विनोद देर रात घर आता तब तक विभा सो चुकी होती थी. विनोद के साथ विभा की जो बातें होतीं वे केवल औपचारिकता भर ही थीं. विवाह को दिन ही नहीं महीनों बीत गए थे पर जीवनसाथी के रूप में दोनों को एकदूसरे के विचार जानने का मौका ही नहीं मिला था.

विनोद का व्यवहार घर वालों के प्रति बहुत असहज था. माना वह घर पर कम रहता था मगर जितनी देर रहता उतनी देर भी न तो बच्चों से और न ही मांबाबूजी से वह खुल कर बातें करता था. विभा ने उन सब के बीच एक अजीब सी दूरी का अनुभव किया और वह शंकित हो गई. वह मांबाबूजी से सीधे कुछ भी कहना नहीं चाहती थी मगर विनोद से कहना भी ठीक नहीं था.

एक दिन विभा घर पर ही थी और बच्चे विनोद के साथ कहीं गए थे. विभा ने अवसर पा कर मांजी से पूछ ही लिया, ‘‘मांजी, मैं जब से इस घर में आई हूं उन्होंने कभी मुझ से बात नहीं की और मुझे उन का व्यवहार भी बहुत अजीब लगता है. मुझे कहना तो नहीं चाहिए, मगर लगता है आप लोगों के बीच कोई समस्या…?’’

विभा की बात काटते हुए मांजी बोलीं, ‘‘बेटा, विनोद इस विवाह से…’’

विभा चौंक पड़ी, ‘‘खुश नहीं हैं, क्या?’’

‘‘देखो बेटा, सुनैना और प्रभात को हम ने पहले ही बता दिया था कि विनोद न तो तुम से शादी करना चाहता है और न ही वह तुम्हें पत्नी के रूप में स्वीकार कर पाएगा. विनोद खुद को तुम्हारा अपराधी समझता है,’’ मांजी ने उत्तर दिया.

बाबूजी ने अपनी चुप्पी तोड़ी और बोले, ‘‘बहू, तुम जानती हो कि हमारी बहू ‘पायल’ की मृत्यु एक कार एक्सीडेंट में हुई थी. उस में विनोद भी बुरी तरह घायल हो गया था. उस का काफी खून बह चुका था. आपरेशन के समय उसे खून चढ़ाया गया और यही विनोद की बदकिस्मती थी.’’

‘‘मगर बाबूजी, उस आपरेशन से हमारे रिश्ते का क्या संबंध?’’ विभा अभी भी सकते में थी.

‘‘विनोद के आपरेशन से कुछ समय बाद उसे पता चला कि जो खून उसे चढ़ाया गया था वह एचआईवी पौजीटिव था,’’ कहतेकहते बाबूजी का गला रुंध गया.

विभा खुद को ठगा सा महसूस कर रही थी. वह सुनैना को दोष नहीं दे सकती थी मगर जो विश्वासघात भाई हो कर प्रभात ने उस के साथ किया, उस से वह सोचने को विवश हो गई थी कि क्या विधवा पुनर्विवाह का औचित्य यही है कि उस का प्रयोग केवल अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए किया जाता है. आज वह एक सधवा हो कर भी खुद को विधवा ही महसूस कर रही है.

बाबूजी ने विभा के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहना शुरू किया, ‘‘विनोद के सीडी फोर सेल्स का स्तर अब धीरेधीरे कम होने लगा है. हम बूढ़े हो चुके हैं. विनोद को कुछ हो गया तो हम बूढ़े तो वैसे ही खत्म हो जाएंगे. हम ने सोचा कि हमारे बाद इन फूल से बच्चों को कौन संभालेगा? क्या होगा इन का? यही सोच कर हम ने विनोद का विवाह जबरन तुम्हारे साथ करवाया ताकि इन बच्चों को संभालने वाला कोई तो हो,’’ इतना कह कर बाबूजी कमरे से बाहर निकल गए.

अपने को संभालते हुए मांजी बोलीं, ‘‘बेटी, तुम्हें लग रहा होगा कि हम लोगों ने अपने निजी स्वार्थ के लिए तुम्हारा जीवन बरबाद कर दिया. निर्णय अब तुम्हें ही लेना है. हो सके तो हमें क्षमा कर देना.’’

निरुत्तर खड़ी विभा वहां से भाग निकलना चाहती थी और जा कर प्रभात, मां व बाबूजी से पूछना चाहती थी कि क्या विधवा होना उस का कुसूर है? आज वह दोराहे पर खड़ी थी.

तभी प्रांजल और परिधि स्कूल से आते ही उस से लिपट गए और अपनी स्कूल की दिनचर्या बताबता कर उस की गोद में झूलने लगे. बच्चों का स्पर्श पाते ही विभा की मानो सारी उलझनें सुलझ गई थीं.

उस की नियति लिखी जा चुकी थी. वह विनोद के समर्पण, मांबाबूजी के प्रेम और अपने मातृत्व के सामने नतमस्तक हो गई, फिर प्रांजल और परिधि ने विभा के आंसू पोंछे और उस से लिपट गए. आज सबकुछ खो कर भी विभा ने मातृत्व का अमृत पा लिया था. उसे अपना आज और आने वाला कल साफ नजर आने लगा था.

ग्रामीण परिवेश पर बनी फिल्में दर्शकों को है खास पसंद, आखिर क्या है वजह

Bollywood Films : बौलीवुड फिल्मों के लगातार फ्लौप होने की वजह से आज कुछ सिनेमाहौल या तो बंद हो चुके हैं या बंद होने के कगार पर हैं. ऐसे में आज फिल्म मेकर्स भी डरे हुए हैं और वे उसे हौल में नहीं, बल्कि ओटीटी पर रिलीज करना सुरक्षित महसूस कर रहे हैं.

पिछले दिनों ऐसी ही हालात अभिनेता राजकुमार राव की कौमेडी फिल्म ‘भूलचूक माफ’ के साथ देखने को मिला. फिल्म मेकर ने इसे ओटीटी पर रिलीज का प्लान बनाया और पीवीआर सिनेमाज ने मेकर्स पर ₹60 करोड़ का मुकदमा दायर कर दिया, क्योंकि फिल्म को सिनेमाघरों में रिलीज नहीं किया गया था. कोर्ट ने इस की ओटीटी रिलीज पर रोक लगा दी और अंत में यह फिल्म हौल में रिलीज हुई और दर्शकों ने इसे पसंद किया.

ओटीटी पर वैराइटी अधिक

असल में आज ओटीटी पर दर्शकों को अच्छी कंटैंट वाली फिल्में देखने को मिल जाती हैं और वे अपने तय समय में घर बैठे एक अच्छी कहानी को देख सकते हैं. ऐसे में, उन्हें थिएटर जाना पसंद नहीं होता. वे अपनीअपनी पसंद की फिल्में और वैबसीरीज के अलावा रिएलिटी शोज और शौर्ट फिल्म्स का आनंद भी घर बैठे ही ले सकते हैं.

आज ओटीटी पर मनोरंजन के लिए बड़ी लाइब्रेरी है. इस के अलावा ओटीटी पर कोई रोकटोक नहीं है कि आप केवल और केवल बौलीवुड की ही फिल्में या वैबसीरीज ही देखें. यहां आप को इंटरनैशनल से ले कर देशी और साउथ का मसाला फिल्म भी देखने को मिल जाता है.

ग्रामीण परिवेश अधिक पौपुलर

आजकल एक ट्रैंड दर्शकों के बीच काफी पौपुलर हो रहा है, जिस में उन्हें देहाती या ग्रामीण परिवेश पर बनी ओटीटी फिल्में अधिक पसंद आ रही हैं, क्योंकि ओटीटी पर कुछ फिल्में इतनी उबाऊ होती हैं कि 1 एपिसोड देखने का बाद ही दिमाग खराब हो जाता है.

वहीं ‘पंचायत’ और ‘ग्राम चिकित्सालय’ जैसी सुपरहिट सीरीज दर्शकों के सामने पेश करने वाले निर्माता हर बार नया और मजेदार कंटैंट थाली में परोसते हैं, जो हर किसी को पसंद आता है. इन वैबसीरीज और फिल्मों की वजह से सिनेमाघरों में अब लोग कम और ओटीटी पर अपना मनोरंजन करना ज्यादा पसंद करने लगे हैं. यही वजह है कि अब कई धमाकेदार वैबसीरीज के साथ फिल्में भी ओटीटी पर रिलीज होने लग गई हैं.

स्ट्रौंग कहानी, लोकल कलाकारों का पिछले कुछ सालों में शानदार प्रदर्शन रहा है. कम बजट में बनी इन वैबसीरीज के पहले सीजन से ही ओटीटी प्लेटफौर्म पर धमाका कर दिया था. कम बजट और नई स्टार कास्ट के साथ बनाई गई इन फिल्मों के रिलीज के बाद पूरी कास्ट मशहूर भी हो जाती है. इस का मुख्य कारण इस की स्ट्रौंग कहानियां और स्क्रिप्ट हैं, जिस से इसे बनाने वाले कम बजट में अच्छे कलाकारों के साथ गांव के परिवेश को दिखाते हुए पूरी फिल्म बना जाते हैं, जिस का सैटिस्फैक्शन निर्माता, निर्देशक से ले कर कलाकारों तक को हो जाता है, क्योंकि ओटीटी की सीमा निश्चित नहीं होती.

इतना ही नहीं इन फिल्मों को बनाते वक्त निर्माता निर्देशक मुख्य कलाकारों के अलावा सपोर्टिंग आर्टिस्ट भी उस गांव के कुछ लोकल लोगों को हायर कर लेते हैं, जिस से कम दाम में उन्हें लोकल लोग मिलते हैं और ऐसे स्थानीय लोगों को एक अच्छा काम कुछ दिनों के लिए मिल जाता है और वे खुशीखुशी इसे करने के लिए राजी भी हो जाते हैं.

इधर निर्देशक को एक ओरिजिनल गांव का वातावरण मिल जाता है. इन सीरीजों में प्यार, पैसा, सपने, धोखा सबकुछ एकसाथ देखने को मिलता है, जिस से अधिकतर दर्शक रिलेट कर पाते है.

ओरिजिनल कहानी गांव की

आज के समय में ‘पंचायत’ और ‘ग्राम चिकित्सालय’ दोनों ही लोकप्रिय हिंदी वैबसीरीज हैं, जो ग्रामीण परिवेश से जुड़ी हैं. पंचायत वैबसीरीज एक राजनीतिक ड्रामा है, जो एक युवा इंजीनियर के गांव में पंचायत चुनाव और प्रशासन में शामिल होने की कहानी है. कहानी में ग्रामीण राजनीति, भ्रष्टाचार और लोगों के बीच की असमानता को दिखाने की कोशिश की गई है. कहानी हास्य और संवेदना के मिश्रण के साथ ग्रामीण जीवन और लोगों के बीच के संबंधों को एक अनोखे तरीके से दर्शाती है.

वैबसीरीज ‘ग्राम चिकित्सालय’ एक कौमेडी ड्रामा है, जो एक डाक्टर के ग्रामीण अस्पताल में काम करने और लोगों की मदद करने की कहानी है. इस में भारत के उस गांव की कहानी दिखाता है, जहां अभी भी स्वास्थ्य सेवाएं बदहाल हैं, जहां एक झोलाछाप डाक्टर लोगों का इलाज करता है. उस पर गांव का हर एक आदमी आंख मूंद कर भरोषा करता है. वह इलाज गूगल और अपने अनुमान के सहारे करता है, लेकिन जब वहां एक पढ़ालिखा सही डाक्टर आता है, तो कोई भी उसे सहयोग नहीं करता.

यह कहानी भी गांव की उस स्थिति को दिखाती है, जो आज एआई आने के बाद भी देश में मौजूद है, इसलिए इसे दर्शक काफी पसंद भी कर रहे हैं.

परिवार को कर रहे हैं मिस

यहां इतना कहना सही होगा कि आज के दर्शकों को बड़ी बजट की लार्जर देन लाइफ फिल्में रास नहीं आ रही हैं और वे ग्रामीण परिवेश पर बनी इन फिल्मों को देखना अधिक पसंद कर रहे हैं. इस बारे में निर्माता निर्देशक गुड्डू धनोवा कहते हैं कि यह कंटैंट है, जिसे मैं ने भी देखा है. ‘पंचायत’ वैबसीरीज मुझे बहुत पसंद आई है. सिंपल सी कहानी, साधारण कलाकार, कोई ऐक्शन नहीं। सभी ने अच्छा काम किया है. जब तक मैं ने उसे पूरा देखा नहीं, उसे देखना बंद नहीं किया। इस तरह की चीजें अब सिनेमाहौल के अंदर नहीं आ रहा है.

आज देशी परिवार को दर्शक मिस कर रहे हैं. पब्लिक को अच्छा कंटैंट चाहिए. एक ने अगर किसी फिल्म को देख कर अच्छा कहा, तो सभी उसे देखते हैं और सभी को ऐसी कहानियां पसंद आ रही हैं. आज कंटैंट की मात्रा बहुत अधिक है और लोगों को घर बैठे बहुत सारी चीजें देखने को मिल रही हैं, जिस में उन की चौइस शामिल है. इसलिए लार्जर देन लाइफ फिल्म को देखने दर्शक तब जाएंगे, जब उस का कंटैंट एकदम अलग हो और इतना पैसा खर्च कर हौल तक वे तभी जाना पसंद करेंगे.

वैबसीरीज क्रिमिनल जस्टिस

‘बिहाइंड द क्लोज्ड डोर’ के लेखक अपूर्वा असरानी कहते हैं कि ग्रामीण परिवेश की कहानियां रूट से जुड़ी हुई होती हैं, जिस से आज के दर्शक खुद को रिलेट कर पाते हैं, जबकि विदेशी कहनियों से वे खुद को जोङ नहीं पाते, इसलिए उन फिल्मों को दर्शक नकार देते हैं. खुद की कहानी में दर्शक को सचाई दिखती है. आज की जैनरेशन रिएलिटी में रहना अधिक पसंद करती है और सच्ची, घरगृहस्थी की कहानी उन्हें अधिक इंटरटेन करती है. इसलिए हकीकत से जुड़ी सारी फिल्में और वैबसीरीज आज सफल हो रही हैं.

इसलिए फिल्मों की कहानियां सच्ची हों, दर्शक उन्हें खुद से रिलेट महसूस करेंगे, तभी उन्हें न केवल ओटीटी पर, सिनेमाघरों में भी दर्शक देखना पसंद करेंगे। फिल्म मेकर को भी खास ध्यान देने की जरूरत है, क्योंकि आज के दर्शक जागरूक हैं और उन्हें हकीकत से दूर कुछ भी दिखा कर सिनेमाघरों तक लाना आज संभव नहीं.

सलमान की हरकतों से नाराज थींं Sonali Bendre, लेकिन बुरे वक्त में दिखा उनका असली चेहरा

Sonali Bendre : सलमान खान और सोनाली बेंद्रे एक साथ सूरज बड़जात्या की फिल्म हम साथ साथ हैं में बतौर हीरो हीरोइन काम कर चुके हैं, लेकिन इसी बीच सोनाली बेंद्रे की सलमान से कोई दोस्ती नहीं थी, क्योंकि इसके पीछे यह वजह थी कि सलमान शूटिंग के दौरान सोनाली बेंद्रे को अजीब अजीब हरकतें करके चिढ़ाया करते थे. जब सोनाली कैमरे के सामने क्लोज शॉट दे रही होती थी. वह बहुत मस्तीखोर थे एकदम बच्चों की तरह, लेकिन उस वक्त मुझे सलमान का व्यवहार अच्छा नहीं लगता था. लगता था कि वह एरोगेंट है जानबूझकर मुझे परेशान कर रहे हैं, उनकी हरकतें बहुत इरिटेट करती थी, लेकिन सलमान को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था, भले मुझे उस दौरान उनकी हरकतों से बुरा लगता हो, उस वक्त वह किसी शैतान बच्चे से काम नहीं थे. खैर फिर फिल्म रिलीज हो गई हमारे रास्ते भी बदल गए.

लेकिन कई सालों बाद जब मुझे कैंसर हुआ तो उस दौरान मेरी चिंता करने वालों में सबसे आगे सलमान खान खड़े थे, तो उस वक्त मुझे बहुत आश्चर्य हुआ की क्या यह वही इंसान है जो मुझे शूटिंग के दौरान परेशान किया करता था. मैंने सपने में भी नहीं सोचा था की सलमान मेरी इतनी चिंता करेंगे उन्होंने सिर्फ मेरी चिंता ही नहीं की, बल्कि मेरे पति गोल्डी को डॉक्टरों की लिस्ट भी भेज दी जो न्यूयॉर्क के बेहतरीन डॉक्टर हैं. इतना ही नहीं सलमान दो बार मुझे न्यूयॉर्क भी मिलने आए जब मैं हॉस्पिटल में एडमिट थी.

जब मुझे सलमान का यह दूसरा साइड दिखाई दिया जिसमें कई सारे इमोशन जुड़े थे. वह बहुत ही ज्यादा सेंसिटिव और केयरिंग इंसान है इस बात का एहसास मुझे कैंसर के दौरान ही हुआ वह मुझे अपने बड़े भाई जैसे लगे, सच कहूं तो इंडस्ट्री में सिर्फ वह मेरे ही बड़े भाई नहीं है बल्कि बहुत सारे लोगों के बुरे वक्त में वह काम आए हैं. वह मेरे पति गोल्डी से कहते थे कि मुझे पता है कि तुमने इलाज शुरू कर दिया है लेकिन मैं एक और अच्छे डॉक्टर का नंबर भेज रहा हूं उससे भी बात कर लो, उनकी इस अच्छाई ने मेरे और सलमान के बीच के सारे मतभेद को खत्म कर दिया और मैं यह सोचने पर मजबूर हो गई कि मैंने सलमान को लेकर कितनी गलत धारणा बनाकर रखी थी. जैसे दिखते हैं शरारती शैतान , उससे बिल्कुल विपरीत हैं. इस बात का एहसास मुझे मेरे बुरे वक्त में ही हुआ.

Meghalaya Honeymoon Murder : साथ रहने के लिए शादी की जरूरत ही क्यों ?

Meghalaya Honeymoon Murder : मध्य प्रदेश की सोनम रघुवंशी का मामला इन दिनों सुर्खियों में है. सोनम पर आरोप है कि उस ने अपने प्रेमी के साथ मिल कर अपने पति की हत्या करवा दी. कुछ दिन पहले मेरठ की मुसकान का मामला भी सुर्खियों में था. मुसकान ने अपने प्रेमी के साथ मिल कर पति की हत्या कर दी. औरैया की प्रगति की दिलीप से शादी हुई और शादी के 14वें दिन ही प्रगति ने भाड़े के हत्यारों से अपने पति की हत्या करवा दी.

हैदराबाद के गुरुमूर्ति ने अपनी पत्नी माधवी को मार कर उस के टुकड़े टुकड़े किए और फिर उन टुकड़ों को कुकर में उबाल दिया.

अमरोहा की रहने वाली शबनम ने अपने प्रेमी सलीम के साथ मिल कर 14-15 अप्रैल, 2008 की रात को अपने ही परिवार के 7 लोगों को नशीला पदार्थ दे कर उन का गला काट दिया था.

सलीम और शबनम के बीच शारीरिक संबंध थे, जिस से शबनम कुंआरे में ही प्रैगनैंट हो गई थी. सहारनपुर के योगेश रोहिला को अपनी पत्नी नेहा पर शक था। उस ने पत्नी को गोली मार दी और साथ ही अपने 3 बच्चों को भी गोली मार कर उन्हें छत से नीचे फेंक दिया.

सवाल यह है कि इस तरह घटनाएं क्यों बढ़ रही हैं?

दोषी कौन

ऐसी तमाम घटनाओं के पीछे कई सामाजिक कारण भी छिपे होते हैं जिन पर बात नहीं होती. स्त्रीपुरुषों के बीच प्रेम संबंध होना स्वाभाविक होता है. यह प्रेम संबंध शादी से पहले भी हो सकता है और शादी के बाद भी लेकिन समाज तो शादी से पहले के ही संबंधों को स्वीकार नहीं करता. शादी के बाद होने वाले संबंधों को तो हमारा समाज पाप या गुनाह के तौर पर देखता है. समाज की यह मानसिकता धर्म से निकलती है और यहीं से समस्याएं शुरू होती हैं.

पुरोहित वर्ग कभी नहीं चाहता कि औरतें उस के हाथों से निकल जाएं इसलिए वह इस तरह के प्रेम संबंधों में शामिल औरतों को कुलटा, बदचलन या रंडी शब्द से नवाजता है.

किसी औरत को अपने पति के अलावा किसी और से प्रेम हो जाए यह बात समाज हजम नहीं कर पाता. यहां समाज के अंदर बैठा पुरुषवाद हावी हो जाता है.

योगेश ने अपनी पत्नी और बच्चों की हत्या इसी वजह से की क्योंकि वह अपनी पत्नी के ऐक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर को बरदाश्त नहीं कर पाया. सवाल यह है कि पुरुषों में योगेश जैसी मानसिकता के होते हुए क्या कोई महिला हिम्मत कर सकती है कि वह अपनी जिंदगी को स्वयं तय कर सके? अगर किसी शादीशुदा औरत को किसी और मर्द से प्यार हो जाए तो उस के पास क्या विकल्प बचता है? यही न कि वह अपने पति से तलाक ले ले लेकिन अगर पति तलाक न देना चाहे तब वह क्या करे?

इस तरह की परिस्थितियों में समाज का रवैया कभी भी औरतों के पक्ष में नहीं होता क्योंकि समाज औरतों को इस लायक समझता ही नहीं कि वे अपनी जिंदगी अपने तौर तरीके से जिएं.

कई ऐसे मामले भी हैं जिन में पति का किसी और महिला से अफेयर होने के बाद उस ने अपनी पत्नी को ठिकाने लगा दिया. यहां भी पुरुषवादी सोच ही जिम्मेदार है. क्या मर्द अपनी पहली पत्नी को तलाक दे कर दूसरी से शादी नहीं कर सकता था? लेकिन ऐसा करने पर उस की पहली पत्नी दूसरी शादी कर लेती या अपने पति की बेवफाई का बदला लेने के लिए कहीं और अफेयर चलाती, यह मर्द बरदाश्त नहीं कर सकता इसलिए वह अपनी पहली बीवी की हत्या कर देता है.

2012 मूवी की शुरुआत में एक सीन है जिस में फिल्म का हीरो अपने दोनों बच्चों को लेने अपनी पत्नी के घर जाता है जो अपने बौयफ्रैंड के साथ लिवइन में रहती है. एक सीन में हीरो और उस के बीवीबच्चों के साथ उस की बीवी का बौयफ्रैंड भी हवाई जहाज में साथ होता है. फिल्म का यह दृश्य अमेरिकन समाज की हकीकत है. वहां औरतों को इतनी आजादी है कि वह अपने रास्ते खुद तय कर सकें.

क्या भारतीय में ऐसी कल्पना भी की जा सकती है

सभ्य समाज में इंसान के हाथों इंसान का कत्ल कभी भी माफी के काबिल नही होता. ऐसे हर अपराध में अपराधी को सजा जरूर मिलनी चाहिए. मुसकान हो, शबनम हो या फिर प्रगति ये सब समाज के अपराधी हैं. इन्हें कठोर सजा जरूर मिलनी चाहिए लेकिन इन के अपराधी बनने में सिर्फ और सिर्फ यही जिम्मेदार नहीं हैं, हमारा समाज और हमारी सामाजिकता की संकीर्णताओं से उपजी वृहद विकृतियों में ऐसी उर्वरकता हमेशा मौजूद होती है जहां से थोक के भाव मे ऐसे अपराधी जन्म लेते हैं.

जब कुदरत किसी लड़की को प्रेम के लिए तैयार कर देता है तब समाज उस की इच्छाओं के आगे कई दीवारें खड़ी कर देता है। यहीं से शबनम, प्रगति और मुसकान जैसी चुड़ैलों का उदय होता है.

शादी से पहले सैक्स तो दूर की बात है. लड़की के लिए तो खुल कर हंसना भी वर्जित है. वह क्या करे जब उसे प्रेम हो जाए? वह क्या करे जब वह कुंआरेपन में प्रैगनैंट हो जाए? वह क्या करे जब उसे अपने पति से प्रेम न हो. वह क्या करे जब उसे शादी के बाद किसी और से प्यार हो जाए? समाज में इस तरह की बातों को स्वीकार करने कोई गुंजाइश नहीं. कोई खिड़की कोई दरवाजा भी तो नहीं जहां से इसे हजम करने की कोई गुंजाइश बाकी हो।

2 प्यार करने वालों को खुदकुशी पर मजबूर करने वाला समाज या प्रेमी जोड़ों की थोक के भाव मे हत्याएं करने वाला समाज कभी शबनम, मुसकान और प्रगति के सच को नहीं समझ पाएगा.

शादी की जरूरत ही क्यों

प्रकृति में नर और मादा के मिलन से नया जीवन पैदा होता है। इस में कहीं किसी धर्म की जरूरत नहीं. जन्म की तरह मृत्यु भी एक प्राकृतिक घटना है। इस में भी किसी धर्म की जरूरत नहीं. नर और मादा मिल कर नया जीवन पैदा करें यह भी प्राकृतिक है. पशुपक्षी भी जोड़ी बनाते हैं, सहवास करते हैं और अपनी नस्ल आगे बढ़ाते हैं. इंसान एक सामाजिक पशु ही है इसलिए उसे भी सहवास के लिए विपरीत लिंग की जरूरत पड़ती है.

सामाजिक प्राणी होने के नाते जोड़ी बनाने के लिए सामाजिक नियम तय किए गए ताकि समाजिक व्यवस्था में असंतुलन पैदा न हो, इसलिए कबीलाई दौर में वयस्क होने पर लड़का और लड़की को साथ रहने की अनुमति समाज से लेनी पड़ती थी. यहीं से विवाह, शादी या निकाह की परंपरा शुरू हुई.

आज भी कई आदिवासी जनजातियों में जहां कोई धर्म नहीं पहुंचा वहां उन के अपने कस्टम फौलो किए जाते हैं, जिन में किसी पुरोहित की जरूरत नहीं होती और यह परंपराएं हजारों वर्षों से यों ही चली आ रही हैं.

स्त्री को पुरुष की और पुरुष को स्त्री की जरूरत है. इसी जरूरत को पूरा करने की खातिर कबीलाई युग में शादियों का प्रचलन शुरू हुआ. उस से पहले नर और मादा स्वछंद हो कर जोड़ियां बनाते थे और तब तक साथ रहते थे जब तक दोनों को एकदूजे की जरूरत होती थी.

मातृसत्तात्मक समाज में औरत के लिए बंदिशें नहीं थीं लेकिन जैसेजैसे हम कबीलों से सभ्यताओं की ओर आगे बढ़ते गए, पितृसत्तात्मक समाज बनता गया और इस मर्दवादी समाज में औरतों के दायरे सिमटते चले गए. धीरेधीरे सभ्यताओं के विस्तार का यह दौर सत्ता ताकत और वर्चस्व की होड़ में बदल गया.

ताकत, सत्ता या वर्चस्व की लड़ाई में मरनेमारने वाले लोगों में औरतें नहीं होती थीं. वे घरों में रह कर पति के लौटने का इंतजार करतीं यदि पति मर जाएं तो उस के नाम पर पूरी जिंदगी गुजार देतीं और जिंदगीभर ससुराल में रह कर पति के परिवार की गुलामी करतीं. कभी शिकायत न करतीं. जीवनभर की इस गुलामी के एवज में उसे ‘आदर्श नारी’ का खिताब मिलता था.

जो औरत जितनी शिद्दत और वफादारी के साथ अपनी गुलामी को निभाती वह उतनी ही अच्छी मानी जाती थी.

सहना, औरत का गहना हो गया. उस का आस्तित्व पति, पिता, भाई और बेटा के बिना कुछ नहीं था. इस तरह धीरेधीरे आधी आबादी गुलाम हो कर रह गई. आदर्श नारी के इस कौंसैप्ट में बदचलनी के लिए कोई जगह नहीं थी. किसी भी मामले में नारी की मरजी का तो सवाल ही नहीं था. शादी से पहले उस के जीवन की डोर उस के पिता या भाई के हाथों में थी तो शादी के बाद उस का पति ही उस का मालिक था.

ऐसे दौर में लड़कियां खरीदी जाती थीं, बेची जाती थी, जीती जाती थीं या चुरा ली जाती थीं. सब ताकत का खेल था. जो जितना धनी था उस के पास उसी अनुपात में औरतें होती थीं. संवेदनाओं और मानवता के धरातल पर औरतों की कीमत लगातार घटती चली गई.

एक वक्त आया जब औरत बोझ हो गई. बोझ को निबटाने की खातिर धन खर्च किया जाने लगा. इस तरह पूरब की दुनिया में दहेज प्रथा की शुरुआत हुई. लड़की की मरजी के कोई मायने नहीं थे. शादी के नाम पर हवस की शिकार होने के साथ वह बच्चे पैदा करने की मशीन ही थी. पति के घर में बंधुआ मजदूर बन कर जीवन गुजार देने के उदाहरण पर उस की बेटियां चलतीं और उन बेटियों को आदर्श नारी का गुण सिखाना घर की बड़ीबूढ़ी औरतों की जिम्मेदारी थी.

आप कहेंगे कि जमाना बदल गया है. आजकल की शादियां वैसी नहीं होतीं. आज लड़की की रजामंदी भी पूछी जाती है. आज लड़कियों को तालीम दी जा रही है. वे नौकरियां कर रही हैं लेकिन यह पूरा सच नहीं है. समाज के बहुसंख्यक हिस्से में आज भी लड़कियों की मरजी के कोई मायने नहीं हैं. वे पढ़ रही हैं ताकि दहेज कम लगे. वे नौकरियों में भी खुद की मरजी से नहीं हैं बल्कि घर वालों ने बाकायदा इस के लिए इजाजत दी है.

कोई लड़की अपनी मरजी से अपनी पसंद के लड़के के साथ शादी नहीं कर सकती। जो ऐसा कर पाने में सक्षम होती है उसे बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं और बहुत कुछ झेलना पड़ता है. खाप पंचायतों से बच गई तो औनर किलिंग का खतरा तो होता ही है। इस से भी बच गई तो जीवनभर सामाजिक तिरस्कार का सामना तो उसे करना ही होता है.

पवित्रता की आड़ में और नैतिकता के नाम पर होने वाले कुंठाओं के इस प्रायोजित कार्यक्रम में पवित्रता और नैतिकता जैसी कोई बात तो होती ही नहीं. लड़की की मरजी के बिना उस की शादी कर देने में कैसी पवित्रता है? कन्या को दान की वस्तु समझ कर झटपट उसे निबटा देने में कौन सी नैतिकता है? कन्या अगर दान की सामग्री ही है तो दामाद को मोटा रिश्वत क्यों?

गरीब हो या मिडिल क्लास, विवाह सभी के लिए खुशी कम और मुसीबत ज्यादा है. सक्षम वर्ग या ऐलीट क्लास के लिए परंपराएं कभी बेड़ियां नहीं बनतीं. 90% आबादी जिन परंपराओं के बोझ तले दब कर कराह रही होती हैं, ऊपर की 10% आबादी उन्हीं अकीदों को ऐंजौय करती है. शादियों के मामले में भी यही होता है.

अपनी दादी की शादी की उम्र का पता कीजिये. 10-12 साल में शादी और फिर यौवन की दहलीज तक पहुंचने तक 10-12 बच्चे. 30 की आयु तक तो औरतें नानीदादी बन जाती थीं. 10-12 साल की बच्चियों के साथ विवाह के नाम पर हर घर में पवित्र बालात्कार होता था.

13 साल की उम्र में बच्चा पैदा करते समय लड़की की दर्दनाक मौत पर संवेदनाएं दर्ज करवाने की कोई परंपरा विकसित नहीं हुई थी. यह तो भाग्य का खेल था. लड़की की मय्यत दफनाने के साथ ही लड़के की दूसरी शादी की तैयारियां शुरू हो जाती थीं.

नबी और अवतारों ने शादियों के नाम पर अपनी पत्नियों के साथ जो उदाहरण पेश किए हैं क्या आप अपनी बेटियों को ऐसी शादी का हिस्सा बनने दे सकते हैं?

आज शादी जैसी प्रथा को ढोते रहने की कोई जरूरत ही नहीं है. इस के लिए जरूरी है कि हम मानवीय हो कर स्त्री और पुरुष के नैसर्गिक संबंधों पर तार्किक हो कर सोचना शुरू करें. इश्क को हवा दें. 2 जवां दिलों के बीच की मुहब्बत को स्वीकार करें.

फिलहाल लिव इन रिलेशनशिप परंपरागत शादियों का विकल्प हो सकती है. इसे खुले दिल से स्वीकार करें.

क्या विवाह व्यवस्था खत्म होने से मनुष्य जानवर हो जाएगा

कुछ लोग यह कुतर्क कर सकते हैं कि शादी के बिना तो हम जानवर जैसे हो जाएंगे.

दुनिया के तमाम विकसित देशों में शादियां कोई जन्मजन्मांतर का बंधन नहीं रह गईं। फिर भी वहां की सोसायटी हर मामले में हम से बेहतर हैं. दुनिया के 10 खुशहाल देशों की सामाजिक व्यवस्था को ही देख लीजिए, जहां ज्यादातर लोग बिन शादी के खुशीखुशी रहते हैं. बिन शादी के बच्चे भी होते हैं. वे तो जानवर नहीं हो गए?

शादियों पर होने वाले खर्च के मामले में भारत सब से आगे है और शादियों के बाद दहेज उत्पीड़न, घरेलू कलह या घरेलू हिंसा के मामले में भी हमारा देश दुनिया मे सब से आगे है.

शादी की व्यवस्था कई सामाजिक बुराइयों को जन्म देती है, साथ ही यह व्यवस्था महिला विरोधी भी होती है. औरतों का सब से ज्यादा उत्पीड़न शादियों के नाम पर ही होता है. गरीब तबके की ज्यादातर शादियों में लड़की मैच्योर नहीं होती. जब तक उसे दुनियादारी की समझ होती है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है. ऐसे में उस के पास रिश्ते को झेलने के अलावा कोई और दूसरा विकल्प बचता ही नहीं.

शादी खत्म तो तलाक का झंझट भी खत्म और दोनों के खत्म होते ही शादियों के नाम पर होने वाली सामाजिक हरामखोरी भी खत्म हो जाएगी.

जब तक दिल मिले साथ रहें. जब रिश्ता बोझ बन जाए तो अलग हो जाएं. इस में गलत क्या है?

हमारा समाज नर और मादा की ‘नैचुरल नीड’ को ‘जन्मजन्मांतर का रिश्ता’ बताने का ढोंग करता है और एक औरत को एक मर्द के साथ संस्कारों की मजबूत जंजीरों से बांध कर आशीर्वाद के रूप में दोनों को ताउम्र साथ रहने की जिद थमा देता है और इस गठबंधन पर ईश्वरीय मुहर लगा कर इसे ‘विवाह’ का नाम दे देता है. इस अमानवीय और अप्राकृतिक प्रायोजन में नारी की संवेदनाओं के लिए कोई जगह नहीं होती. भारतीय उपमहाद्वीप में विवाह पद्धति चाहे जो हो, शादी का मतलब बस यही होता है.

ठंडे दिमाग से इस सवाल पर विचार कीजिए कि 2 जवां इंसानों को साथ रहने के लिए शादी की जरूरत ही क्यों?

Glowing Skin : फ्लॉलेस रिच लुक कुछ ही मिनटों में

Glowing Skin : मौनसून सीजन आ चुका है यानी शौर्ट ड्रैस, स्लीवलैस मिडी और टौप्स में अपने रिच लुक को फ्लौंट करने का सीजन. मगर इस के लिए स्किन का स्मूद और ग्लोइंग दिखना भी बेहद जरूरी है. आमतौर पर लड़कियां हेयर रिमूवल क्रीम तो ले लेती हैं मगर क्या उस में नैचुरल प्रौपर्टीज होती हैं जो उन की स्किन टाइप को सूट करें वह भी बिना किसी डैमेज के?

जी हां, हेयर रिमूवल क्रीम लेने से पहले यह भी जानना जरूरी है कि वह आप की स्किन टाइप को सूट करेगी या नहीं. अब मार्केट में ऐसी हेयर रिमूवल क्रीम्स आ गई हैं जो सिर्फ 3 मिनट में आप को अनचाहे बालों से छुटकारा भी दिला देंगी और स्मूदस्किन भी देगी वह भी बिना स्किन को डैमेज किए. बस क्रीम चुनने से पहले इन बातों का ध्यान रखना होगा:

स्किन टाइप का ध्यान रखें

अपनी स्किन टाइप के अनुसार हेयर रिमूवल क्रीम चुनें. यदि स्किन सैंसिटिव है तो नैचुरल प्रौपर्टीज जैसे पपाया और ऐलोवेरा के गुणों वाली क्रीम चुनें. पपाया ऐंटीऔक्सीडैंट रिच होता है जो न सिर्फ स्किन को ड्राई होने से बचाने में मदद करता है बल्कि उस की नमी को भी बरकरार रखता है. वही ऐलोवेरा स्किन को स्मूद बनाए रखता है.

यदि स्किन नौर्मल है और आप को ब्राइट शाइन स्किन लुक चाहिए तो स्ट्राबेरी के गुणों वाली हेयर रिमूवल क्रीम ले सकती हैं. शाइनी स्किन शौर्ट ड्रैसेज में आप के लुक को और भी रिच फील देगी.

अगर स्किन ड्राई है तो डायमंड हेयर रिमूवल क्रीम सही विकल्प हो सकती है. ड्राई स्किन वालों को यह ध्यान रखना चाहिए कि हेयर रिमूवल क्रीम इस्तेमाल करने के बाद त्वचा की नमी बनाए रखने पर खास ध्यान दें.

नई हेयर रिमूवल क्रीम को इस्तेमाल करना भी बेहद आसान है. बस पैक पर लिखे 3 स्टैप्स वाली इंस्ट्रक्शंस को फौलो करें और सिर्फ 3 मिनट में पाएं दमकती हुई स्मूद स्किन. तो फिर देर किस बात की आप भी अपना स्टाइल और लुक फ्लौंट करें बिना किसी बेझिझक के.

True Happiness : कितना जरूरी है आप का खुश रहना

True Happiness : सोहन भैया और भाभी के बारे में अजीब सी खबर मिली कि दोनों अलग हो रहे हैं. मन खिन्न हो गया. शादी के 28 सालों बाद ऐसा फैसला? बेचैन हो कर बेबी ने भाभी को फोन लगा दिया.

‘‘हैलो भाभी, कैसे हैं आप लोग? मिन्नी कैसी है? आज सुबह से आप दोनों की बहुत याद आ रही थी, बस फोन लगा दिया,’’ बेबी ने एक ही सांस में अनेक सवाल कर डाले.

‘‘बहुत अच्छा किया बेबी. जिंदगी चल रही है और क्या बताऊं अच्छा बताओ, तुम सब कैसे हो? मिन्नी मस्त है पति के साथ. आस्ट्रेलिया घूम रही है,’’ भाभी की आवाज में वह चहक नहीं थी. बहुत कम और नपातुला बोल रही थी.

क्षणिक सौंदर्य का परदा

भाभी से बात करने के बाद दिल खुदबखुद अतीत की गलियों में मुड़ गया. सोहन भैया पूरे परिवार की शान थे. किसी भी बच्चे की बात हो,  घूमफिर कर उसे भैया पर ही आना होता था. आखिर भैया थे ही ऐसे या कहूं आज भी वैसे ही हैं. भीड़ में सब से अलग. शुरू से पढ़नेलिखने में अव्वल, ऐक्स्ट्रा करिकुलर ऐक्टिविटीज में अव्वल तिस पर दिखने में भी हीरो से कम न थे. दोनों छोटे भाईबहन सोहन के सगे कहला कर खुश हो जाते थे. अपनी पहचान से कोई खास सरोकार नहीं था उन्हें. आईआईटी से इंजीनियरिंग फिर अमेरिका से एमबीए की डिगरी ले कर भैया अपनी ड्रीम जौब में व्यस्त हो गए. उन के लिए एक से एक रिश्ते आने लगे. जाने कितनी जगह बात बनी, बिगड़ी. पता नहीं कैसी लड़की की कल्पना थी भैया को.

आखिरकार ‘कल्पना’ पसंद आ गई. कल्पना उन की दूर की एक मामी की रिश्तेदारी में थी. मामी ने सुन रखा था भैया सुंदरता के पुजारी बन कर बैठे हैं और बस इसी बात का फायदा उठाते हुए मामी ने कल्पना और भैया को मिलवा दिया. गांव की भोलीभाली गोरी की मासूम सुंदरता पर भैया लट्टू हो गए और ऐलान कर दिया कि अब शादी करेंगे तो इसी लड़की से वरना नहीं.

हालांकि मां अपनी दूरदर्शिता से पहले ही सबकुछ भांप चुकी थीं कि सौंदर्य का यह परदा क्षणिक सुख देने वाला है. मानसिक और बौद्धिक स्तर पर सोहन और कल्पना नदी के 2 किनारे थे. मां ने दबी जबान ने इस रिश्ते का विरोध भी किया पर भैया की जिद के आगे उन की एक न चली. नियति को यही मंजूर था. आखिरकार उन की शादी हो गई और कल्पना बड़ी भाभी के रूप में परिवार में शामिल हो गईं.

धीरेधीरे भैयाभाभी के वैचारिक मतभेद उजागर होने लगे. हालांकि इस बात का रोना भाई साहब ही ज्यादा रोते थे. भाभी वास्तविक रूप से गृहस्थी पार लगा रही थीं. उन के पास समय कहां था इन सब बातों के लिए. बहरहाल, जिंदगी की गाड़ी धीमी गति से चलती रही. इसी बीच मिन्नी का जन्म हो गया और दोनों छोटे भाईबहन भी अपनेअपने घरपरिवार में बिजी हो गए.

जब मनचाहा परिणाम नहीं मिले

सोहन भैया नौकरी में निरंतर उच्च पायदान चढ़तेचढ़ते पिछले 2 साल से लंदन शिफ्ट हो गए. भाभी से उन की दूरी हमेशा से थी. भाभी से बस अपने काम भर का मतलब रखते. गिन्नी की शादी के बाद उन के जीवन का यह एकमात्र सेतु भी टूट गया.

मां सच ही कहा करती थीं, तुम्हारा भाई सब से अलग है. आज इस खबर ने इस बात की एक बार फिर से पुष्टि कर दी. जीवन का एकएक कार्य पूर्वनियोजित और संतुलित मानो दिमाग में हर चीज का खाका पहले से खींच रखा हो कि कब, क्या और कैसे करना है.

यह विस्फोट भी उसी प्लानिंग का नमूना प्रतीत हो रहा था. भाभी जितना ही खुद को भैया के अनुरूप ढालने का प्रयत्न करतीं, भैया उतना ही चिढ़ जाते. वे कुशल नट की तरह जिंदगी की कलाबाजियां दिखाते और भाभी से भी वैसे ही खेल की उम्मीद रखते. मनचाहा परिणाम नहीं मिलने पर भाभी को तिरस्कृत और अपमानित करते. भाभी को डांटते समय वे न जगह देखते, न समय. भैया एक आदर्श बेटा, भाई, पिता, अधिकारी सब बने पर आदर्श पति नहीं बन पाए.

एक स्त्री होने के नाते बेबी भाभी की मनोस्थिति समझ पा रही थी. अस्तित्वहीन जिंदगी जीने से अच्छा है अपनी पहचान कायम कर अपने बलबूते पर जीया जाए. पति की उपेक्षा झेलतेझेलते कल्पना थक चुकी थीं. सहनशक्ति भी एक सीमा तक ही होती है. इस बीच जिंदगी ने उन्हें अनेक शैक्षणिक और व्यावहारिक सबक सिखाए. अपने इन्हीं हुनर के बलबूते उन का खोया स्वाभिमान जाग उठा. पति के दिए झटके से विचलित नहीं हुईं बल्कि इस खोखले दांपत्य से अलग होने का निर्णय ले लिया वह भी बिलकुल शांतिपूर्ण और संयमित तरीके से.

समय रहते स्वयं को पहचानें

आखिरकार वह दिन भी आ गया जब बेबी कल्पना भाभी को रिसीव करने एअरपोर्ट पर थी. सधी चाल से चली आ रही भाभी की स्मार्टनैस और मैच्योरिटी साफ झलक रही थी. उन्हें अब किसी सहारे की जरूरत नहीं थी. उन्होंने तय कर लिया था कि अब खुद की खुशी के लिए जीना है.भाभी ने पास आ कर उसे गले से लगा लिया. उन के चेहरे पर कहीं कोई शिकन या पछतावे का भाव नहीं था. अब तक उन्होंने रिश्ता निभाने की पुरजोर कोशिश की पर अब इस एकतरफा पहल पर लगाम लगाने का समय आ गया है.

सोहन लंदन में ही रह गए. रिटायरमैंट के बाद वापस आएंगे. इतने दिनों में शायद होश ठिकाने आ जाए. कल्पना ससुराल के पैतृक निवास में रह रही हैं. एक बार फिर से सूना, बंद पड़ा घर आबाद हो गया है. यहां आजकल सुबहशाम पेंटिंग और ड्राइंग की क्लासेज चलती हैं और कल्पना अपने हुनर को एक नया आयाम दे रही हैं. उन की कलात्मकता हर तरफ सराही जाती है. एक बार फिर वे पहले की तरह चहकनेफुदकने लगी हैं और यह देख कर दिल को बहुत सुकून मिलता है.

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