Family Drama Story: नाज पर नाज- क्या ससुर को हुआ गलती का एहसास

Family Drama Story: अशरफ काफी समय से बीमार रहता था. वह तकरीबन सभी तरह के इलाज करा चुका था, पर कोई फायदा नहीं हुआ. अगर थोड़ाबहुत फायदा होता भी सिर्फ वक्ती तौर पर ही होता और बीमारी बदस्तूर जारी रहती.

अम्मीअब्बा के बहुत जिद करने पर अशरफ ने इस बार शहर जा कर एक नामी डाक्टर को दिखाया. उस डाक्टर ने तमाम जांचें करवाईं, ऐक्सरे भी करवाए और बाद में जो रिपोर्ट आई, उस ने सब के होश उड़ा दिए.

रिपोर्ट में पता चला कि अशरफ की दोनों किडनी पूरी तरह खराब हो चुकी थीं.

डाक्टर साहब ने भी सिर हिलाते हुए कह दिया, ‘‘अब ले जाइए इन्हें. जितनी भी सेवा करनी है कीजिए, बाकी दवाएं चलने दीजिए. आप लोग इन को ज्यादा से ज्यादा खुश रखने की कोशिश कीजिए.’’

अशरफ को ले कर उस के अब्बा ऐसे घर लौट आए, जैसे कोई जुए में अपना सबकुछ हार कर लौट जाता है.

कुछ दिन बीते. अब घर के लोगों ने एकदूसरे से थोड़ाबहुत बोलना शुरू किया. शायद घर के माहौल को खुशनुमा बनाने की एक नाकाम कोशिश.

अशरफ के अब्बू घर के बाहर ही लकड़ी की टाल पर बैठते थे. अब अशरफ भी उन का हाथ बंटाने लगा मानो उस पर अपनी तबीयत का कोई असर ही नहीं हुआ हो.

किसी ने सच ही कहा है कि जब दर्द हद से गुजर जाता है तो दवा बन जाता है. अब यही दर्द अशरफ के लिए दवा बनने वाला था.

एक दिन अब्बू ने घर के सभी लोगों को अपने कमरे में ठीक 8 बजे इकट्ठा होने को कहा. परिवार में अम्मी के अलावा अशरफ और उस का छोटा भाई आदिल थे. एक बहन सबा थी, जिस का निकाह पहले ही हो चुका था.

शाम को ठीक 8 बजे अशरफ, अम्मी और आदिल अब्बू के कमरे में पहुंचे चुके थे.

थोड़ी देर बाद अब्बू भी कमरे में आ गए, पर आज उन की चाल में एक अलग तरह की खामोशी थी.

‘‘देखो अशरफ और आदिल, तुम दोनों मु झे अपनी जिंदगी में सब से प्यारे हो.  तुम दोनों काबिल हो. सबा जैसी प्यारी बेटी है, जो अब अपने ससुराल को रोशन कर रही है. खैर…’’ अब्बू ने एक गहरी सांस छोड़ी और फिर बोलना शुरू किया. इस बार उन के लहजे में थोड़ी सख्ती भी थी, ‘‘जैसा कि तुम लोगों को पता है कि अशरफ बीमार है और डाक्टरों ने बताया है कि हमें उस को हर हाल में खुश रखना है…’’

अशरफ की पीठ पर हाथ फेरते हुए अब्बू ने कहा, ‘‘कभीकभी जिंदगी हम से कुछ ऐसे फैसले कराती है, जो वक्ती तौर पर तो ठीक नहीं लगते, पर धीरेधीरे सही साबित होने लगते हैं. आज हम ऐसा ही फैसला लेने जा रहे हैं.

‘‘दरअसल, डाक्टर ने हम से कहा है कि हो सके तो अशरफ की शादी जल्द से जल्द करा दी जाए, तो इस की तबीयत में सुधार हो सकता है,’’ अब्बू ने एक सांस में कह कर मानो अपना बो झ हलका कर दिया था.

अब्बू का फैसला सुन कर अम्मी तो बुत बनी बैठी रहीं, पर छोटे बेटे आदिल को यह बात कुछ नागवार सी लगी, क्योंकि अशरफ की बीमारी की बात आदिल भी जानता था और वह यह भी जानता था कि अशरफ भाईजान एक या 2 साल के ही मेहमान हैं, क्योंकि जिस आदमी की दोनों किडनी खराब हो चुकी हों, उस की सांसें कभी भी थम सकती हैं और ऐसे में उस का निकाह करा देना, मतलब एक और बेगुनाह की जिंदगी तबाह कर देना था.

इस फैसले का विरोध तो सब से ज्यादा अशरफ की ओर से आना था, पर वह तो खामोश सा बैठा हुआ सब सुन रहा था. तो क्या यह माना जाए कि अशरफ भी मरने से पहले अपनी जिंदगी पूरी तरह से जी लेना चाहता था या फिर यों कह लें कि मरने से पहले वह किसी औरत के जिस्म को पूरी तरह सम झ लेना चाहता था?

बहरहाल, इस समय अशरफ के चेहरे पर बेबसी के साथ एक चमक भी थी, जिसे वह बखूबी सब से छुपा ले रहा था.

‘‘आप लोग जैसा सही सम झें वैसा करें,’’ कह कर आदिल अपने कमरे में आ गया.

आखिरकार आननफानन अशरफ का निकाह तय हो गया. लड़की गरीब घर की थी, पर बेहद खूबसूरत थी.

पूरे घर में निकाह की खुशियां थीं, पर आदिल का मन भारी था. उस का जी चाह रहा था कि वह जाए और लड़की वालों को रिपोर्ट के सारे कागज दिखा कर सबकुछ सच बता दे या फिर अशरफ के पास जा कर खूब खरीखोटी सुनाए, पर यह मुद्दा इतना संजीदा था कि आदिल ने अपनी जबान सिल ली और आंखों पर पट्टी बांध ली.

निकाह हो चुका था. अब्बू और अम्मी के चेहरे पर खुशियां चमक रही थीं, पर इस के पीछे जो काली बदली थी, उस से सब अनजान थे या अनजान होने का दिखावा कर रहे थे.

अशरफ और नाज की शादी को एक साल पूरा हो गया और नाज उम्मीद से थी यानी वह मां बनने वाली थी.

घर में सब खुश थे, पर हमेशा अंदर ही अंदर डरे हुए और फिर वह स्याह दिन भी आ गया, जिस को कोई बुलाना नहीं चाहता था.

अशरफ की तबीयत अचानक बिगड़ गई. पीरफकीर,  झाड़फूंक कोई कसर नहीं छोड़ी गई, पर सब बेमानी साबित हुआ.

नाज अब बेवा हो चुकी थी. उस पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा था. सभी का सम झानाबु झाना बेकार साबित हुआ. वह तो रोरो कर हलकान हुए जाती थी. आंसू थे कि थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे.

कहते हैं कि वक्त बहुत बड़ा मरहम होता है और इस मरहम ने इस परिवार पर भी अपना असर दिखाया. अब रोनापीटना तो नहीं था, पर नाज की उदासी और उस के कमरे से आती सिसकियों का जवाब किसी के पास नहीं था और होता भी कैसे. अगर नाज के बेवा होने में कोई जिम्मेदार था, तो यही सब लोग थे.

अशरफ को गुजरे 6 महीने हो गए. तब अब्बू ने अपने घर में महल्ले के एक बड़े बुजुर्ग, शहर के काजी और नाज के अब्बा को बुलाया.

तय समय पर सभी लोग इकट्ठा हुए, आंगन में कुरसियां डाल दी गईं.

शरबतपानी के बाद अब्बू ने बोलना शुरू किया, ‘‘आप मेरे बुलावे पर मेरे घर तशरीफ लाए हैं, इस का मैं शुक्रिया अदा करता हूं और जैसा कि आप लोगों को मालूम है कि मेरा बड़ा बेटा अशरफ अब नहीं रहा. घर में उस की बेवा है और वह बच्चे की मां भी बनने वाली है. उस की आगे की जिंदगी बेहतरी से गुजरे और हमारे घर की इज्जत घर में ही रहे, इस के लिए हम चाहते हैं कि हमारी बहू को हमारा छोटा बेटा आदिल सहारा दे और नाज से निकाह कर ले, जिस से नाज को सहारा भी मिल जाएगा और उस के आने वाले बच्चे को अपने अब्बा का नाम भी मिल जाएगा.

‘‘अगर मेरी बात से किसी को भी एतराज हो तो बे िझ झक अपनी बात कह सकता है,’’ कह कर अब्बू चुप हो गए.

अब्बू की बात का हर शब्द आदिल के कानों में चुभता चला गया.

‘आज अब्बू क्या करना चाहते हैं. पहले तो बीमार अशरफ का निकाह करा दिया और अब उस की बेवा से मेरी शादी कराना चाहते हैं. ठीक है नाज भाभी को सहारे की जरूरत है, पर मेरे भी ख्वाब हैं, मेरे भी अरमान हैं,’ आदिल सोचता चला गया.

महल्ले के बुजुर्ग, काजी किसी को कोई दिक्कत नहीं थी.

इतने लोगों के सामने आदिल की भी कुछ बोलने की हिम्मत न हुई और सभी के राजीनामे के बाद आदिल और नाज के निकाह का ऐलान किया जाने वाला था कि तभी परदे के पीछे से नाज की धीमी मगर सख्त लहजे वाली आवाज आई, ‘‘आप सब बड़े काबिल लोगों के सामने मु झे यों बोलना नहीं चाहिए और मैं इस गलती के लिए आप सब से माफी मांगती हूं, पर यहां बात 3 जिंदगियों की है, इसलिए मु झे बोलना ही पड़ रहा है.

‘‘सब से पहले अब्बू मैं आप से कहना चाहती हूं कि आप तो मु झे अपनी बेटी बना कर लाए थे. सबा के ससुराल जाने के बाद इस घर की बेटी की कमी मैं ने ही पूरी की थी न, फिर आज अचानक मैं आप को गैर लगने लगी. क्या मेरा और आप का रिश्ता सिर्फ इन तक ही था और इन के जाते ही मैं आप को बो झ लगने लगी?

‘‘और आप सब हजरात ऐसा क्यों सम झ रहे हैं कि एक बेवा को हमेशा ही किसी मर्द के सहारे की जरूरत होती है? क्या इतना काफी नहीं है कि वह अपने पति की यादों के सहारे जिंदगी काट दे? क्या दोबारा निकाह कराना मेरी रूह पर चोट पहुंचाने जैसा नहीं होगा? जिस जिस्म और रूह पर मैं उन का नाम लिख चुकी हूं, उस पर किसी और को हक कैसे दे सकती हूं?

‘‘और जहां तक आदिल की बात है, वह तो अभी पढ़ रहा है और उस की अभी शादी की उम्र भी नहीं है. उस की अपनी एक अलहदा जिंदगी है, जिसे वह अपने अंदाज से जीना चाहेगा. जहां तक मेरी बात है तो मेरे लिए किसी को परेशान होने की जरूरत नहीं है. मैं अपना गुजारा खुद कर सकती हूं. मैं ने बीए तक पढ़ाई की है. मैं बच्चों को ट्यूशन पढ़ा सकती हूं. मु झे सिलाई का काम भी आता है. मैं घर बैठे सिलाई कर सकती हूं. मु झे बाकी कुछ नहीं चाहिए.

‘‘अब्बू और अम्मी, आप लोगों को भी मेरे हाल पर अफसोस करने की जरूरत नहीं है. शादी की पहली ही रात में उन्होंने मु झे अपनी बीमारी के बारे में सबकुछ सचसच बता दिया था और अपनी सारी रिपोर्टें मु झे दिखा दी थीं. उन्होंने यह बता दिया था कि वे कभी भी मेरा साथ छोड़ कर जा सकते हैं.

‘‘उन्होंने यह बात मु झे इसलिए बताई, क्योंकि वे चाहते थे कि उन के जाने के बाद मैं उन्हें धोखेबाज न कहूं और न ही उन के सीने पर कोई भी बो झ रहे. उन्होंने यह सब बताने के बाद मु झ से कहा था कि अब मैं चाहूं तो उन को तलाक दे सकती हूं, पर मैं ने उन को तलाक देने से ज्यादा उन की बेवा बनना ठीक सम झा, क्योंकि मान लीजिए कि उन्हें कोई बीमारी न होती और फिर भी वे किसी हादसे का शिकार हो जाते तो ऐसे में कोई क्या कर लेता.

‘‘उन की निशानी मेरे अंदर पल रही है. मैं उन की यादों के सहारे ही बाकी जिंदगी काट सकती हूं. अब उन की निशानी बेटे के रूप में आए या बेटी के रूप में, रगों में उन का ही खून दौड़ेगा न,’’ इतना कह कर नाज पल्लू से अपनी गीली आंखें पोंछने लगी.

अब्बू परदा हटा कर अंदर आए और नाज को गले से लगा लिया. वे बोले, ‘‘नाज बेटी, तुम्हारा नाम तुम्हारे मायके वालों ने सही रखा है. आज उन की नाज पर हम सब को भी नाज है.’’

सभी लोगों की आंखें ससुरबहू के इस प्यार पर बारबार भर आती थीं. Family Drama Story

लेखक-   नीरज कुमार मिश्रा

Thriller Story: ब्लैकमेलर- कौन था वह अनजान आदमी

Thriller Story: बैडरूम की दीवार पर मर्फी रेडियो के पोस्टर बौय का फोटो आज भी मिलता है. जितना खूबसूरत बच्चा उतनी ही खूबसूरत अदा से मुसकराते हुए होंठों पर उंगली रखे पोज में रंगीन फोटो. यह फोटो शिखा के बैडरूम में पिछले 4 सालों से लगा था. सास

ने कहा था कि सुंदर बच्चे का फोटो देखने से बच्चा भी सुंदर होगा. बच्चे की राह देखतेदेखते पिछले साल उस की सास चल बसीं.

खानापीना खत्म कर शिखा नाइट लाइट की मध्यम रोशनी में मर्फी बौय को देखे जा रही थी. तभी पति अमर ने कमरे में प्रवेश करते ही कहा, ‘‘मैं ने डाक्टर से अपौइंटमैंट ले ली है. अब हमें चल कर टैस्ट करा लेना चाहिए. देखें डाक्टर क्या कहता है.’’

‘‘हां, पर यह पहले होता तो अम्मांजी की इच्छा पूरी होने की उम्मीद तो जरूर रहती.’’

‘‘आज से पहले डाक्टर ने कभी दोनों को टैस्ट करने के लिए नहीं कहा था… तुम्हारी सहेली जो डाक्टर है, उस ने भी कहा था कि कभीकभी प्रैगनैंसी में देर हो जाती है. वैसे हम ने भी

1 साल तक परहेज बरता था.’’

अमर ने ग्रैजुएशन के बाद एक प्राइवेट कंपनी में स्पोर्ट्स कोटे से नौकरी जौइन कर ली थी. वह स्टेट लैवल बौक्सिंग चैंपियन था. अच्छीखासी पर्सनैलिटी थी अमर की. औफिस में उस के दोस्त उस से कहते भी थे, ‘‘अरे यार बौक्सिंग रिंग में तो तुम चैंपियन हो. अब अपनी गृहस्थी जमाओ… कम से कम अपने जैसा बलवान, हृष्टपुष्ट एक फ्यूचर चैंपियन तो पैदा करो.’’

‘‘वह भी हो जाएगा… जल्दी क्या है?’’ अमर कहता.

अब शादी के 5 साल बाद शिखा और अमर दोनों ने डाक्टर से इस विषय पर सलाह लेने की जरूरत महसूस की. डाक्टर ने दोनों के कुछ टैस्ट किए और फिर 2 दिनों के बाद जब वे मिलने गए तो डाक्टर बोला, ‘‘आप की रिपोर्ट्स तैयार हैं. शिखा की रिपोर्ट्स नौर्मल हैं. उन में मां बनने के सभी लक्षण हैं, पर…’’

‘‘पर क्या डाक्टर?’’ शिखा ने बीच में डाक्टर की बात काट कर पूछा.

‘‘आई एम सौरी, बट मुझे कहना ही होगा कि अमर पिता बनने के योग्य नहीं हैं.’’

कुछ पल डाक्टर के कैबिन में सन्नाटा रहा. फिर शिखा ने कहा, ‘‘पर डाक्टर आजकल मैडिकल साइंस इतनी तरक्की कर चुकी है… कोई मैडिसिन या उपाय तो होगा?’’

‘‘हां है क्यों नहीं… आईवीएफ तकनीक

से आप मां बन सकती हैं आजकल यह बहुत

ही आसान हो गया है. किसी सक्षम पुरुष के शुक्राणु का इस्तेमाल कर आप बच्चे को जन्म दे सकती हैं.’’

‘‘डाक्टर, इस के अलावा और कोई उपाय नहीं है?’’

‘‘सौरी, इस के अलावा एक ही उपाय बचता है कि आप किसी बच्चे को गोद ले लें. आप लोग ठीक से विचार कर के बता दें… मैं थोड़ी देर में आता हूं. अगर आप कुछ और समय चाहते हैं, तो आप अपनी सुविधा से अपना फैसला ले सकते हैं.’’

शिखा और अमर दोनों ने कुछ देर तक डाक्टर के क्लीनिक में बैठेबैठे विचार किया कि अब और देर करने से कोई लाभ नहीं होगा और बच्चा आईवीएफ तकनीक से ही होगा. शिखा ने मन में सोचा कि इस से उसे मातृत्व का अनुभव भी होगा. फिर दोनों ने डाक्टर को अपना फैसला बताया.

डाक्टर बोला, ‘‘वैरी गुड. आप के कुछ और टैस्ट होंगे. मेरे क्लीनिक में कुछ डोनर्स के सैंपल्स हैं. देख कर 1-2 दिन में आप को खबर दूंगा. कोई बड़ा प्रोसैस नहीं है. जल्द ही आप का काम हो जाएगा.’’

1 सप्ताह के अंदर ही शिखा आईवीएफ तकनीक की देन से गर्भवती हुई. डाक्टर ने शिखा को नियमित चैकअप कराते रहने को कहा.

कुछ दिनों के बाद जब अमर ने बड़ी शान से औफिस में दोस्तों से कहा कि वह पिता

बनने वाला है, तो एक दोस्त ने कहा, ‘‘आखिर हमारे चैंपियन ने बाजी मार ली. अब तुम्हें हम लोगों का मुंह मीठा कराना होगा.’’

दोस्तों के कहने पर औफिस की कैंटीन में ही उन्हें मिठाई खिलाई. दोस्तों ने उस से कहा, ‘‘इस छोटीमोटी पार्टी से तुम बचने वाले नहीं हो. हम लोगों को सपरिवार पार्टी देनी होगी.’’

‘‘ठीक है, वह भी होगी.’’

करीब 4 महीने बाद डाक्टर ने शिखा से कहा, ‘‘आप के बच्चे की ग्रोथ बिलकुल ठीक है. अब आप निश्चिंत रहें. आप का बच्चा स्वस्थ और हृष्टपुष्ट होगा.’’

इस खुशी में उस दिन रात अमर ने अपने घर पर दोस्तों को सपरिवार आमंत्रित किया. शिखा भी घर पर पार्टी की तैयारी में लगी थी. उसी समय कौल बैल बजी. उस ने दरवाजा खोला तो एक आदमी बाहर खड़ा था. वह बोला, ‘‘नमस्ते मैडम.’’

‘‘मैं ने आप को पहचाना नहीं, पर लगता है पहले कहीं देखा है… अच्छा बोलिए क्या काम है? अभी साहब घर पर नहीं हैं.’’

‘‘कोई बात नहीं है, मुझे सिर्फ आप ही से काम है.’’

‘‘मुझ से? मुझ से भला क्या काम हो सकता है आप को?’’

‘‘मैडम, आप के पेट में जो बच्चा है वह मेरा है.’’

‘‘क्या बकवास कर रहे हो? गैट लौस्ट,’’ बोल कर शिखा दरवाजा बंद करने लगी.

उस आदमी ने हाथ से दरवाजा पकड़ कर कहा, ‘‘अब मेरी बात ध्यान से सुनिए वरना बाद में शर्मिंदगी होगी और पछताना पड़ेगा. अमर बहुत शान से पार्टी दे रहा है बाप बनने की खुशी में. मैं पार्टी के बीच में ही आ कर सब को बताऊंगा कि यह बच्चा अमर का नहीं, मेरा है. उस की सारी मर्दानगी की हवा निकाल दूंगा मैं.’’

शिखा और अमर दोनों ने आईवीएफ की बात छिपा रखी थी और अभी तक सभी से बता रखा था कि यह बच्चा उन का अपना है. वह डर गई और फिर बोली, ‘‘आखिर तुम क्या चाहते हो? हमें परेशान कर के तुम्हें क्या मिलेगा?’’

‘‘मुझे और कुछ नहीं चाहिए, सिर्फ

क्व2 लाख दे दीजिए. मैं अपनी जबान बंद रखूंगा.’’

‘‘इतनी बड़ी रकम हम लोग तुम्हें नहीं दे सकते हैं.’’

‘‘देखिए, पैसे तो आप को देने ही होंगे, हंस कर या रो कर… आज नहीं तो कल… अब आप बताएं मैं रात में पार्टी में आऊं या नहीं.’’

शिखा कुछ देर सोचने लगी, फिर बोली, ‘‘अभी मेरे पास मुश्किल से क्व2 हजार हैं. उन्हें आप को दे रही हूं.’’

‘‘ठीक है, आप अभी वही दे दीजिए. बाकी आप एकमुश्त देंगी… मुझे डिलिवरी के पहले पूरी रकम मिल जानी चाहिए.’’

शिखा ने उस आदमी को क्व2 हजार देते हुए कहा, ‘‘अभी इन्हें रखो. बाकी के लिए मैं अमर से बात करती हूं.’’

‘‘ठीक है, मैं 2 दिन बाद फिर आऊंगा.’’

उस रात पार्टी के बाद शिखा ने अमर को ब्लैकमेलर वाली बात बताई तो अमर बोला,

‘‘क्व2 लाख हमारे लिए बहुत बड़ी रकम होती है. कहां से लाऊंगा… उस के लिए मुझे कर्ज लेना होगा… पर यह तो ब्लैकमेलिंग हुई… उसे हमारा पता किस ने दिया होगा?’’

‘‘मुझे लगता है उस आदमी को कभी मैं ने डाक्टर के क्लीनिक में देखा है.’’

‘‘डाक्टर ऐसा नहीं कर सकता है, फिर भी एक बार मैं उस से बात करता हूं.’’

दूसरे दिन अमर डाक्टर के पास पहुंचा तो डाक्टर ने कहा, ‘‘हम लोग ऐसी सूचनाएं गुप्त रखते हैं. इसीलिए हम 3 शपथ पत्र तैयार करते हैं- पहला आईवीएफ के लिए आप दोनों की सहमति का, दूसरा यह कि आप लोग कभी डोनर के बारे में जानकारी नहीं लेंगे और अगर किसी तरह से आप को यह मालूम भी हो जाए तो आप इसे किसी को नहीं बताएंगे और साथ ही आप के बच्चे का डोनर की संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं होगा.’’

‘‘हां, हमें याद है पर, तीसरा शपथपत्र कौन सा है?’’

‘‘तीसरा हम डोनर से लेते हैं कि वह अपना अंश स्वेच्छा से दे रहा है और उसे यह जानने का हक नहीं होगा कि उस का अंश किसे दिया गया. अगर किसी तरह उसे पता चल भी जाए तो वह इसे किसी को नहीं बताएगा और होने वाले बच्चे पर उस का कोई अधिकार नहीं होगा.’’

‘‘पर शिखा ने कहा है कि उस आदमी को शायद पहले आप के क्लीनिक में देखा है. कहीं आप का ही कोई स्टाफ तो उस से मिला नहीं है?’’

‘‘हम पूरी सावधानी बरतते हैं, पर स्वार्थवश इस के लीक होने की संभावना हो सकती है,’’ डाक्टर बोला.

‘‘हम से गलती सिर्फ इतनी हुई है कि हम ने किसी से इस तकनीक की बात न कह कर इसे अपना बच्चा बताया है,’’ अमर बोला.

‘‘खैर, आप आगे भी यह बता सकते हैं.’’

‘‘नहीं डाक्टर, इट्स टू लेट… वह ब्लैकमेल कर रहा है… लगता है हमें पैसे देने ही होंगे.’’

डाक्टर कुछ देर सोचने के बाद बोला, ‘‘आप उसे एक पैसा भी नहीं देंगे. आप लोग खासकर शिखाजी को थोड़ी होशियारी से काम लेना होगा और जरा साहस भी दिखाना होगा.’’

‘‘वह कैसे?’’

‘‘देखिए 2 रास्ते हैं- या तो अबौर्शन

करवा लें या…’’

‘‘प्लीज डाक्टर अबौर्शन की बात न कीजिए… शिखा टूट जाएगी.’’

‘‘मैं भी यही चाहता हूं… शिखाजी से कहें कि जब वह आदमी पैसों के लिए आए तो बिलकुल न डरें, बल्कि बोल्ड हो कर उसे फेस करें.’’

‘‘वह किस तरह?’’

‘‘अगली बार जब वह आए तो शिखाजी को बोलना होगा कि हां, मुझे अब पता चल गया है कि मेरा रेप तुम ने ही किया था और उसी के चलते मैं प्रैगनैंट हूं. अब मैं पुलिस को सूचित करने जा रही हूं. यह बात उसे धमकाते हुए बोल्डली कहनी होगी.’’

2 दिन बाद वह आदमी बाकी के रुपए लेने आने वाला था. शिखा ने उस दिन अमर को छुट्टी लेने को कहा, क्योंकि उसे डर था कहीं वह आदमी उस पर हमला न कर बैठे.

ठीक 2 दिन बाद ब्लैकमेलर जब पैसे मांगने आया तो शिखा ने ऊंची आवाज में कहा, ‘‘मैं ने भी पता किया है, मेरे गर्भ में तुम्हारा ही अंश है… उस दिन जो तुम ने मेरा बलात्कार किया था उसी का नतीजा है यह. बलात्कार के दिन तुम ने नकाब से चेहरा ढक रखा था, मैं पहचान नहीं सकी थी, पर आज तुम स्वयं चल कर मेरे सामने आए हो, इस से अच्छी बात और क्या हो सकती है. मैं ने उस दिन रुपए देने से पहले सैल फोन से तुम्हारा फोटो भी खींच रखा है. अब आसानी से पुलिस तुम्हें पकड़ सकती है.’’

पासा पलटते देख वह आदमी गिड़गिड़ाने लगा और बोला, ‘‘मैडम, आप ऐसा न

करें, मैं जेल चला जाऊंगा, मैं भी बालबच्चेदार आदमी हूं.’’

‘‘फिर तुम मेहनत कर क्यों नहीं कमाते हो… चलो मेरे क्व2 हजार वापस करो.’’

वह आदमी अपनी जेब से 5 सौ का एक नोट शिखा को देते हुए बोला, ‘‘मैडम, अभी मेरे पास इतने ही हैं… इन्हें रख लो. बाकी मैं जल्द ही लौटा दूंगा.’’

शिखा ने नोट उसे लौटाते हुए कहा, ‘‘इस से अपने बच्चों के लिए खिलौने और मिठाई मेरी तरफ से दे देना. बेहतर होगा कि तुम आगे से इस तरह के गलत काम न करने का वादा करो.’’

नोट वापस ले कर ब्लैकमेलर वहां से तुरंत खिसक लिया.

उस के जाने के बाद शिखा ने पति से पूछा, ‘‘क्या तुम ने सचमुच पुलिस को फोन किया है?’’

‘‘नहीं, एक झूठ रेप का तुम ने कहा और दूसरा झूठ मैं ने कहा… चलो बला टल गई,’’ और फिर दोनों जोर से हंस पड़े. Thriller Story

Sad Hindi Story: पुनर्मरण- क्या अपराधिनी का दाग हटा पाई संध्या

Sad Hindi Story: कुछ सजा ऐसी भी होती है जो बगैर किसी अपराध के ही तय कर दी जाती है. उस दिन अपने परिवार के सामने मैं भी बिना किसी किए अपराध की सजा के रूप में अपराधिनी बनी खड़ी थी. हर किसी की जलती निगाहें मुझे घूर रही थीं, मानो मुझ से बहुत बड़ा अपराध हो गया हो.

मांजी की चलती तो शायद मुझे घर से निकाल दिया होता. मेरे दोनों बेटे त्रिशंक और आदित्य आंगन में अपनी दादी के साथ खड़े थे. पंडितजी कुरसी पर बैठे थे और मांजी को समझा रहे थे कि जो हुआ अच्छा नहीं हुआ. अब विभु की आत्मा की शांति के लिए उन्हें हवन- पूजा करनी होगी.. भारी दान देना होगा, क्योंकि आप की बहू के हाथों भारी पाप हो गया है.

मेरा अपना बड़ा बेटा त्रिशंक मुझे हिकारत से देखते हुए क्रोध में बोला, ‘‘मेरा अधिकार आप का कैसे हो गया, मां? यह आप ने अच्छा नहीं किया.’’

‘‘परिस्थितियां ऐसी थीं जिन में एक के अधिकार के लिए दूसरे के शरीर की दुर्गति तो मैं नहीं कर सकती थी, बेटे,’’ भीगी आंखों से बेटे को देखते हुए मैं ने कहा.

‘‘मजबूरी का नाम दे कर अपनी गलती पर परदा मत डालिए, मां.’’

तभी मांजी गरजीं, ‘‘बड़ी आंदोलनकारी बनती है. अरे, इस से पूछ त्रिशंक कि विभु के कुछ अवशेष भी साथ लाई है या सब वहीं गंगा में बहा आई.’’

‘‘बोलो न मां, चुप क्यों हो? दो जवाब दादी की बातों का.’’

‘‘कैसी बातें कर रहे हो भैया, आखिर पापा पर पहला हक तो मां का ही था न?’’

‘‘चुप बेसऊर,’’ मांजी फिर गरजीं, ‘‘पति की मौत पर पत्नी को होश ही कहां होता है जो वह उस का अंतिम संस्कार करे, इसे तो कोई दुख ही न हुआ होगा, आजाद जो हो गई. अब करेगी समाज सेवा जम कर.’’

‘‘चुप रहिए,’’ मेरी सहनशक्ति जवाब दे गई और मैं गरज पड़ी, ‘‘मेरा कुसूर क्या है? किस बात की सजा दे रहे हैं आप सब मुझे. यही न कि मैं ने अपने पति का उन की मौत के बाद अंतिम संस्कार क्यों कर दिया, तो सुनिए, वह मेरी मजबूरी थी. क्षतविक्षत खून से सनी लाश को मैं 2 दिन तक कैसे संभालती. कटरा से कोलकाता की दूरी कितनी है, क्या आप सब नहीं जानते? मेरे पास कोई साधन नहीं था. कैसे ले कर आती उन्हें यहां तक? फिर अपने पति का, जो मेरे जीवनसाथी थे, हर दुखसुख के भागीदार थे, अंतिम संस्कार कर के मैं ने क्या गलत कर दिया?’’

मेरी आवाज भर्रा गई और मैं ऊपर अपने कमरे में आ गई. मेरी दोनों बहुएं रेवती और रौबिंका भी मेरे पीछेपीछे ऊपर आ गईं. मेरी छोटी बहू रशियन थी. उस की समझ में जब कुछ नहीं आया तो वह अंगरेजी में बस यही कहती रही, ‘‘पापा की आत्मा के लिए प्रार्थना करो, वही ज्यादा जरूरी है, यह कलह क्यों हो रही है.’’

मैं उसे क्या समझाती कि यहां हर धार्मिक अनुष्ठान शोरगुल और चिल्लाहट से ही शुरू होता है. कहीं पढ़ा था कि झूठ को जोर से बोलो तो वह सच बन जाता है. यही पूजापाठ का मंत्र भी है, जो पुजारी जितनी जोर से मंत्र पढे़गा, वह उतना ही बड़ा पंडित माना जाएगा.

मेरी आंखों में आंसू आ गए जो मेरे गालों पर बह निकले. विभु की मौत हो गई है. मेरा सबकुछ चला गया, मैं इस का शोक भी शांति से नहीं मना पा रही हूं. कमरे की खिड़की का परदा जरा सा खिसका हुआ था. दूर गगन में देखते हुए मैं अतीत में चली गई.

बचपन से ही मैं दबंग स्वभाव की थी. मम्मी और पापा दोनों ही नौकरी में थे. घर पर मैं और मुझ से छोटा भाई बस, हम दोनों ही रहते. मां ने यही सिखाया था कि कभी अन्याय न करना और न सहना. हमेशा सच का साथ देना. मेरा पूरा परिवार खुले विचारों का था. मेरी परवरिश इस तरह के माहौल में हुई तो जाहिर है मैं रूढि़यों को न मानने वाली और हमेशा सही का साथ देने वाली बन गई.

बी. एड. में मैं ने प्रवेश लिया था. पहला साल था कि विभु के घर से विवाह के लिए रिश्ता आ गया. मैं शादी से कतरा रही थी पर मां ने समझाया, ‘शुचि, विभु प्रवक्ता है. यानी एक पढ़ालिखा इनसान. तेरा भी पढ़ाई में रुझान ज्यादा है. शादी कर ले, वह तुझे अच्छी तरह समझेगा और जितना पढ़ना चाहेगी पढ़ाएगा भी.’

शादी के बाद जब मैं विभु के घर पहुंची तो यह देख कर आश्चर्य में पड़ गई कि विभु बेहद धार्मिक प्रवृत्ति के थे. विभु ने शादी की रात में ही मुझ से कह दिया था, ‘शुचि, मैं पूजापाठ करता हूं, पर तुम से इतना वादा करता हूं कि तुम्हें यह सब करने के लिए मैं कभी बाध्य नहीं करूंगा. हां, जहां जरूरत होगी वहां साथ जरूर रखूंगा.’

उन दिनों मेरी बी. एड. की परीक्षा चल रही थी, नवरात्र का समय था. सुबह विभु उठ कर शंख, घंटी से पूजा करते. मेरी आदत सुबहसुबह उठ कर पढ़ने की थी. इस शोर से मैं पढ़ नहीं पाती. आखिर मैं ने विभु से कह दिया. उस दिन से विभु मौन पूजा करने लगे. बल्कि मां को भी सुबह जोर से मंत्रोच्चारण करने को मना कर दिया.

हमारा जीवन एक खुशहाल जीवन कहा जा सकता है. शादी के शुरुआती दिनों में हम जहां भी घूमने जाते वहां के मंदिरों में जरूर जाते. मैं तटस्थ ही रहती थी, कभी भी विभु को इस के लिए मना नहीं करती. आखिर अपनीअपनी जिंदगी अपने तरीके से जीने का सभी को हक है. जब मैं अपना खाली समय पत्रिकाओं को पढ़ने में बिताती तो विभु भी नहीं बोलते. हमारे प्यार के बीच एक आपसी समझौता हम दोनों ने कर रखा था.

4 वर्ष बाद त्रिशंक पैदा हुआ. बी.एड. के बाद मैं नौकरी करने लगी थी. त्रिशंक दादी के पास रहता और उस का बचपन दादी की परी, बेताल और धार्मिक किस्सेकहानियों में बीता. इसी कारण वह बचपन से धर्म के मामले में संकीर्ण हो गया.

आदित्य के समय तक मैं ने नौकरी छोड़ दी. अपना पूरा समय मैं बच्चों और परिवार में बिताती. बच्चे पब्लिक स्कूल में पढ़ते थे. एक ने कंप्यूटर विज्ञान में इंजीनियरिंग की, दूसरा अमेरिकन बैंक में लग गया. दोनों ही विदेश चले गए. बड़े ने मेरी देखी हुई लड़की से शादी की परंतु छोटे ने विदेश मेें अपनी एक सहकर्मी के साथ विवाह कर लिया. उस के विवाह में हम सब गए थे. मांजी खूब बड़बड़ाई थीं पर विभु नाराज नहीं हुए थे.

विभु का रिटायरमेंट करीब था. मेरे पास भी समय था. बच्चों के बाहर बसने से मेरे लिए कुछ करने को रह ही नहीं गया था, सो मैं समाजसेवा से जुड़ गई.

एक दिन बैठेबैठे यों ही विभु के मुंह से निकल गया, ‘शुचि, हमारी सारी जिम्मेदारियां पूरी हो गई हैं. चलो, तीर्थ कर आएं.’

मैं हंस दी तो वह भी हंस दिए. बोले, ‘मैं जानता हूं शुचि, तुम पूजापाठ में विश्वास नहीं रखती हो. पर मैं मजबूर हूं. बचपन से ही मां ने मेरे अंदर यह भावना बिठा दी है कि भगवान ही सबकुछ है. जो कुछ भी करो उसे सपर्पित कर के करो. बस, मैं यही कर रहा हूं.’

मैं ने अनायास ही पूछ लिया, ‘आप ने ईश्वर देखा है क्या?’

‘नहीं, पर मैं मानता हूं कि यह धरती, आकाश, परिंदे और वृक्षों को बनाने वाला ईश्वर है.’

विभु थोड़ी देर शांत बैठे रहे, फिर बाहर टहलने चले गए. उन के ध्यान और योग को मैं अच्छा मानती थी. इन दोनों चीजों से व्यक्ति का मस्तिष्क और शरीर दोनों ही स्वस्थ होते हैं.

जुलाई का महीना था. अपने तय कार्यक्रम के अनुसार हम हिमाचल प्रदेश के प्राकृतिक नजारों को देखते धार्मिक स्थानों पर घूमते हुए कटरा पहुंचे थे ताकि वैष्णोदेवी का स्थान देख कर दर्शन कर सकें. कई दिनों की लगातार थकावट से बदन का पोरपोर दुख रहा था. विभु को तभी सांस की तकलीफ होने लगी थी. बाणगंगा पर ही मैं ने जिद कर के उन के लिए घोड़ा करवा दिया ताकि उन की सांस की तकलीफ और न बढ़े.

घोड़े पर बैठ कर जब हम चले तो मुझे डर भी लग रहा था. यह घोड़े अजीब होते हैं. कितनी भी जगह हो पर चलेंगे एकदम किनारे. गजब की सधी हुई चाल होती है इन की. नीचे झांको तो कलेजा मुंह को आ जाए, गहरीगहरी खाइयां.

सवारी की वजह से हम जल्दी ही मंदिर देख कर नीचे वापस आ गए. हमारी इस यात्रा में पटना का एक परिवार भी शामिल हो गया. मेरा थकावट से बुरा हाल था. रात हो गई थी. लौटतेलौटते भूख भी लग रही थी और विश्राम करने की इच्छा भी हो रही थी.

पटना वालों ने बताया कि नीचे बाणगंगा के पास लंगर चलता है, चल कर वहीं भोजन करते हैं. घोड़े वाले ने कहा कि भोजन कर के चले चलिए तो रात में ही होटल पहुंच जाएंगे. फिर वहां आराम करिएगा.

लंगर में लोग खाने के लिए लाइन लगाए खड़े थे. सब तरफ हलवा बांटा जा रहा था. मैं ने गौर किया कि थालियां ठीक से धुली नहीं थीं फिर भी उन में खाना परोस दिया जा रहा था. थालियां ऐसे बांटी जा रही थीं मानो हाथ नहीं मशीन हो. मैं विभु के साथ हाथमुंह धो कर बैठ गई.

‘चलो, दर्शन हो गए, अब घर चल कर एक हवन करा लेंगे.’

मैं होंठ दबा कर हंसी तो विभु ने मुंह दूसरी तरफ फेर लिया. हवन का आशय मेरी समझ से दूसरा था. पिताजी ने ही एक बार समझाया था कि हवन के धुएं से पूरा घर साफ हो जाता है. कीड़े-मकोड़े मर जाते हैं.

भोजन की लाइन में बैठ विभु उस समय काफी तरोताजा लग रहे थे. चारों तरफ गहमागहमी थी. लंगर की यह विशेषता मुझे अच्छी लगती है, जहां एक ही कतार में सेठ भी खाते हैं और उन के मातहत भी. यहां कोई छोटा या बड़ा नहीं होता है.

अचानक मुझे जोर की उबकाई आई. मैं उठ कर बाहर भागी. शायद कुछ न खाने की वजह से पेट में गैस बन गई थी. मैं मुंह धो कर हटी ही थी कि एक जोर का धमाका हुआ और  सारा वातावरण धुएं और धूल से भर गया. लोग जोरजोर से चीखनेचिल्लाने लगे, एकदूसरे पर गिरने लगे. विभु का ध्यान आते ही मैं पागलों की तरह उधर भागी पर वहां धुएं की वजह से कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. 10 मिनट भी न गुजरे होंगे कि एक और जोरदार धमाका हुआ. आतंकवादियों ने कहीं से गोले फेंके थे. मेरे पेट में जोर की ऐंठन हुई और लाख न चाहने के बावजूद मैं अचेत हो कर वहीं गिर पड़ी.

मुझे जब होश आया, भगदड़ कुछ थम गई थी. मैं जमीन पर एक तरफ पड़ी थी. प्रेस वाले और पुलिस वाले वहां मौजूद थे. मैं ने हिम्मत कर के उठने की कोशिश की. मैं जानना चाहती थी कि विभु कहां हैं. पर किस से पूछती, हर कोई अपने साथ वाले के लिए बेचैन था. लोग आपस में बात कर रहे थे कि आतंकवादियों ने कहीं से बम फेंका है जिस में लगभग 7 लोगों की जान चली गई है. कई गंभीर अवस्था में घायल पड़े हैं जिन्हें कटरा अस्पताल ले जाया जा रहा है.

मैं अपने पांवों को घसीटते हुए उधर गई जहां बैठ कर विभु भोजन कर रहे थे. देखा, वहां चावल, रोटी के बीच खून की धारें बह रही थीं. शरीर के चिथड़े बिखरे पड़े थे. इस विस्फोट ने माता के कई भक्तों की जानें ले ली थीं. मुझे विभु कहीं नजर नहीं आए. मैं जिसे देखती उसी से पूछती, ‘क्या आप ने विभु को देखा है?’ पर मेरे विभु को वहां जानता ही कौन था. कौन बताता भला.

घायलों की तरफ मैं गई तो विभु वहां भी नहीं थे. तभी मेरा कलेजा मुंह को आ गया. पांव बुरी तरह कांपने लगे. थोड़ी दूर पर विभु का क्षतविक्षत शव पड़ा हुआ था. मैं बदहवास सी उन के ऊपर गिर पड़ी. मैं चीख रही थी, ‘कोई इन्हें बचा लो…यह जिंदा हैं, मरे नहीं हैं.’

मेरी चीख से एक पुलिस वाला वहां आया. विभु का निरीक्षण किया और सिर हिला कर चला गया. मैं चीखतीचिल्लाती रही, ‘नहीं, यह नहीं हो सकता, मेरा विभु मर नहीं सकता.’ सहानुभूति से भरी कई निगाहें मेरी तरफ उठीं पर मेरी सहायता को कोई नहीं आया.

इस आतंकवादी हमले के बाद जो भगदड़ मची उस में मेरा पर्स, मोबाइल सभी जाने कहां खो गए. मैं खाली हाथ खड़ी थी. किसे अपनी सहायता के लिए बुलाऊं. विभु को ले कर कोलकाता तक का सफर कैसे करूंगी?

मैं ने हिम्मत की. विभु को एक तरफ लिटा कर मैं गाड़ी की व्यवस्था में लग गई. पर मुझे विभु को ले जाने से मना कर दिया गया. पुलिस का कहना था कि लाशें एकसाथ पोस्टमार्टम के लिए जाएंगी. मैं विभु को यों नहीं जाने देना चाहती थी पर पुलिस व्यवस्था के आगे मजबूर थी.

मेरा मन क्षोभ से भर गया, धर्म के नाम पर यह आतंकवादी हमले जाने कब रुकेंगे. क्यों करते हैं लोग ऐसा? मैं सोचने लगी, मेरे पति की तरह कितने ही लोग 24 घंटे के भीतर मर गए हैं. क्या गुजर रही होगी उन परिवारों पर. मैं खुद अनजान जगह पर विवश और परेशान खड़ी थी.

विभु का शव मिलने में पूरा दिन लग गया. मेरे पास पैसा भी नहीं था. एक आदमी मोबाइल लिए घूम रहा था, मैं ने उस से विनती कर के अपने घर फोन मिलाया. घंटी बजती रही, किसी ने फोन नहीं उठाया. मांजी शायद मंदिर गई होंगी. फिर मैं ने बड़े बेटे का नंबर लगाया तो वह सुन कर फोन पर ही रोने लगा, ‘मां, हम जल्दी ही पहुंचने की कोशिश करेंगे पर फिर भी आने में 3 दिन तो लग ही जाएंगे. आप कोलकाता पहुंचिए. हम वहीं पहुंचेंगे.’

विभु का मृत शरीर मेरे पास था. कोई भी गाड़ी वाला लाश को कोलकाता ले जाने को तैयार नहीं हुआ. मैं परेशान, क्या करूं. उधर दूसरे दिन ही विभु का शरीर ऐंठने लगा था. कुछ लोगों ने सलाह दी कि इन का अंतिम संस्कार यहीं कर दीजिए. आप अकेली इन्हें ले कर इतनी दूर कैसे जाएंगी?

विभु जीवन भर पूजापाठ करते रहे. क्या इसी मौत के लिए विभु भगवान को पूजते रहे?

विभु के बेजान शरीर की और छीछालेदर मुझ से सही नहीं गई. मैं ने सोचा, यहीं गंगा के किनारे उन का अंतिम संस्कार कर दूं. कुछ लोगों की सहायता से मैं ने यही किया. विभु का पार्थिव शरीर अनंत में विलीन हो गया. मेरे आंसू सूख चुके थे. मेरे आंसुओं को पोंछने वाला हाथ और सहारा देने वाला संबल दोनों ही छूट गए थे.

मेरी तंद्रा किसी के स्पर्श से टूटी. जाने कितनी देर से मैं बिस्तर पर इसी हाल में पड़ी रह गई थी. दोनों बहुएं मेरे अगलबगल बैठी थीं और छोटी बहू का हाथ मेरे केशों को सहला रहा था.

‘‘उठिए, मां.’’

मैं ने धीमे से अपनी आंखें खोलीं. दोनों बहुएं आंखों में प्यार, सहानुभूति लिए मुझे देख रही थीं. छोटी बहू की आंखों में प्रेम के साथ कौतूहल भी था. वह बेचारी क्या समझ पाती कि यहां क्या कहानी गढ़ी जा रही है. वह बस टुकुरटुकुर मुझे निहारती रहती.

‘‘नीचे चलिए, मां, पंडितजी आ गए हैं और कुछ पूजाहवन करवा रहे हैं,’’ बड़ी बहू रेवती बोली.

‘‘शायद मेरी उपस्थिति मांजी को अच्छी न लगे. तुम लोग जाओ. मैं यहीं ठीक हूं.’’

‘‘पिताजी के किसी भी संस्कार में शामिल होने का आप को पूरा अधिकार है, मां. आप चलिए,’’ बड़ी बहू ने मुझ से कहा.

भारी कदमों से मैं नीचे उतरी तो वहां का दृश्य देख कर मन भारी हो गया. मांजी त्रिशंक से कह रही थीं, ‘‘बेटा, पंडितजी आ गए हैं. यह जैसा कहें वैसा कर, यह ऐसी पूजा करवा देंगे जिस से विभु का अंतिम संस्कार तेरे हाथों से हुआ माना जाएगा.’’

अपने को बिना किसी अपराध के अपराधिनी समझ बैठी हूं मैं. एक मरे इनसान की अनदेखी आत्मा की शांति के लिए जो अनुष्ठान किया जा रहा था वह मेरी सोच के बाहर का था. इस क्रिया से क्या विभु की आत्मा प्रसन्न हो जाएगी? यदि मांजी यह सब करतीं तो शायद मुझे इतना दुख न लगता जितना अपने बड़े बेटे को इस पूजा में शामिल होते देख कर मुझे हो रहा था.

पंडितजी जोरजोर से कोई मंत्र पढ़ रहे थे. त्रिशंक सिर पर रूमाल रखे हाथ जोड़ कर बैठा था. एक ऊंचे आसन पर विभु का शाल रख दिया गया था. मांजी रोते हुए यह सब करवा रही थीं. काश, आज विभु यह सब देख पाते कि उन के संस्कारों ने किस तरह उन के बेटे में प्रवेश कर लिया है. गलत परंपरा की नींव त्रिशंक और मांजी मिल कर डाल रहे हैं. मैं भीगी आंखों से अपने पति को एक बार फिर मरते हुए देख रही थी. Sad Hindi Story

Kapil Sharma :कैफे पर फायरिंग के बाद कौमेडियन हुआ हॉस्पिटल में एडमिट

Kapil Sharma : प्रसिद्ध स्टैंड अप कॉमेडियन कपिल शर्मा ने लोगों को हंसाहंसा कर करोड़ों रुपए कमा लिया है, आजकल वही कपिल शर्मा नेटफ्लिक्स पर अपना कॉमेडी शो पेश करके अच्छा खासा पैसा कमा रहे हैं .
कपिल शर्मा ने हाल ही में कनाडा में अपना एक कैफे रेस्टोरेंट शुरू किया, जो सोशल मीडिया पर काफी चर्चा में था, लेकिन हाल ही में  कुछ लोगों ने होटल के पास फायरिंग की और होटल को नुकसान पहुंचाने की कोशिश की, जिसकी रिपोर्ट कपिल शर्मा ने पुलिस में भी की  लेकिन इस हादसे के बाद बेहद इमोशनल कपिल शर्मा टेंशन में आ गए और उनको हाई ब्लड प्रेशर और सांस लेने में तकलीफें शुरू हो गई .
10 जुलाई की रात को जब सांस लेने में ज्यादा तकलीफ होने लगी तो उनको घर के पास के ही अस्पताल में एडमिट कराया गया और उनका तुरंत इलाज शुरू किया गया. हालत खराब होते देख कपिल के शो की शूटिंग भी कैंसिल कर दी गई . गौरतलब है, कपिल शर्मा पिछले कुछ साल  पहले अपने डाउनफॉल के चलते मानसिक तौर पर बीमार रह चुके हैं.
इतना ही नहीं लंबे समय तक डिप्रेशन में भी थे, काफी मुश्किलों के बाद कपिल शर्मा फिर से अपने पहले वाले मुकाम पर पहुंचे हैं.  यही वजह है कि जरा सा  टेंशन उनको मानसिक तौर पर डिस्टर्ब कर देता है और वो बीमार हो जाते हैं. कनाडा के कैफे में हुए गोलीबारी के बाद कपिल शर्मा अंदर से डर गए और टेंशन के मारे खराब तबीयत के चलते अस्पताल पहुंच गए .
अगर वर्क फ्रंट की बात करें तो कपिल शो के अलावा कपिल शर्मा अपनी पहली फिल्म किस किसको प्यार करूं के पार्ट 2 में फिर से नजर आने वाले हैं , जिसके लिए उन्होंने हाल ही में 11 किलो वजन भी कम किया है . Kapil Sharma

Reduce Dark Circles: मेरी आंखों के नीचे काले घेरे हो गए हैं, मैं क्या करुं?

सवाल

मैं 18 वर्षीय युवती हूं. मेरी आंखों के नीचे काले घेरे हो गए हैं. मैं उन से परेशान हूं. कृपया उन्हें दूर करने का कोई घरेलू उपाय बताएं?

जवाब

Reduce Dark Circles: सब से पहले तो आप इस उम्र में आंखों के नीचे काले घेरे होने का कारण जानें. कई बार आंखों की कमजोरी, तनाव, नींद आदि पूरी न होने से भी आंखों के नीचे काले घेरे बनने लगते हैं. जहां तक घरेलू उपाय की बात है तो आप खीरे और आलू का रस बराबर मात्रा में मिला कर उस में कौटन डिप कर के आंखों पर 10 मिनट लगाए रखें. फिर उसे हटा कर चेहरा धो लें. आप चाहें तो ऐलोवेरा जैल भी काले घेरों पर लगा सकती हैं.

काले घेरों को दूर करने में यूज्ड टी बैग्स भी प्रभावकारी रहते हैं. प्रयोग किए टीबैग्स को फ्रिज में ठंडा कर के 10 मिनट आंखों पर रखें. अवश्य लाभ होगा. आप चाहें तो मार्केट में उपलब्ध अंडरआई जैल व क्रीम का भी प्रयोग कर सकती हैं. इस के अलावा अपने भोजन में कैरोटिन युक्त खाद्यपदार्थों जैसे गाजर का खूब प्रयोग करें.

ये भी पढ़ें- 

आंखो के नीचे काले घेरे की समस्या लगभग सभी के साथ होती है. जो बौडी में कई सारे न्यूट्रिशंस की कमी से होने वाली कमजोरी और तनाव की समस्या का संकेत देते हैं. लेकिन कई बार ये डार्क सर्किल उम्र बढ़ने, ड्राई स्किन, रात भर काम करने और सही तरीके से न सोने के कारण भी हो सकते हैं. आंखों के काले घेरे दूर करने के कुछ घरेलू उपाय हैं, जिन्हें अपनाकर इनसे छुटकारा पाया जा सकता है.

1. बादाम का तेल

बादाम का तेल कई प्राकृतिक गुणों से भरपूर होता है, जो आंखों के आसपास की त्वचा को फायदा पहुंचाता है. बादाम के तेल के नियमित उपयोग से त्वचा का रंग हल्का पड़ जाता है, इसीलिए इसे आंखों के आसपास लगाने से डार्क सर्कल दूर हो जाते है. रात में इसे आंखों के नीचे थोड़ा सा लगाएं और हल्के हाथों से मसाज करें. मसाज करने के बाद ऐसे ही छोड़ दें. सुबह उठने के बाद मुंह धो लें.

सोने जाने से पहले आंखों के नीचे काले घेरों के ऊपर अलमन्ड औयल लगाकर हल्का-सा मसाज करें. रात भर लगा रहने दें. सुबह उठने के बाद इसे ठंडे पानी से धो लें.

2. खीरा

खीरा त्वचा की रंगत सुधारने में बहुत ही कारगर होता है. इसके साथ ही खीरा लगाने से त्वचा ज्यादा फ्रेश और ग्लोइंग नजर आती है. खीरे के पतले-पतले स्लाइस काटकर उसे रेफ्रिजरेटर में 30 मिनट के लिए ठंडा होने के लिए छोड़ दें. फिर इसे डार्क सर्किल पर लगाकर कम से कम 10 मिनट तक रखें. सूखने के बाद इसे पानी से धो लें. दिन में तीन से चार बार इसका इस्तेमाल तकरीबन एक हफ्ते तक करें और फर्क देखें.

Festive Special: गेस्ट रूम को ऐसे बनाएं आरामदायक और स्टाइलिश

Festive Special: यों तो घरों में मेहमानों के आने का चलन कुछ कम सा हो गया है. ऐसे में अगर आप को मौका मिल रहा है कि फैस्टिवल पर कोई गेस्ट आ रहा है, तो उसे अपने लिए प्रिशियस समझें और उन की खातिरदारी कुछ ऐसे करें कि वे आप से खुश हो कर जाएं. इस के अलावा, जिस तरह से रूम को सजाया गया है, वह मेहमानों पर आप की पहचान की छाप छोड़ेगा. वे आप की मेहमाननवाजी को सालों याद रखेंगे. इसलिए आइए जानें कि ऐसा क्या करें कि मेहमान इस बार खुश हो कर जाए :

गेस्ट रूम में फर्नीचर

अगर आप अपने गेस्ट रूम को एक अलग लुक देना चाहते हैं, तो आप गेस्ट रूम को अलगअलग रंगों के कलैक्शन से सजा सकते हैं. इस के लिए छोटा सा दीवान और अलगअलग तरह के फर्नीचर जैसे अलमारी का यूज कर सकते हैं. आप चाहें तो फर्श पर रंगीन गद्दे कमरे को ओर भी आकर्षित बना सकते हैं.

अगर आप के पास छोटा सा रूम है और आप उसे बड़ा दिखाना चाहते हैं, तो स्मार्ट तरीके से फर्नीचर चुनें. जैसे, जो टेबल मुड़ सकें या जो बैड दीवार में फिट हो जाएं. ऐसा करने से आप के रूम खुलाखुला सा महसूस होगा. इस तरह के फर्नीचर से आप के छोटे रूम का सब से अच्छा इस्तेमाल होगा. इस के आलावा एक टेबल लैंप, अलमीरा, चेयर आदि चाहिए.

गेस्ट रूम के लिए सोफा कम बैड

अपने घर के गेस्ट रूम के लिए परफैक्ट और कौंपैक्ट डिजाइन और डेकोर का इस्तेमाल करना अच्छा माना जाता है. इस के लिए आप सोफा कम बैड खरीद सकते हैं. यह एक साथ 2 कामों में उपयोग होता है. इस तरह के फर्नीचर को आप अपने लिविंग रूम में भी उपयोग कर सकते हैं, ताकि वे दिन में लिविंग रूम और रात के समय गेस्ट रूम का काम करें.

खैर, गेस्ट रूम में भी इस तरह के फर्नीचर का उपयोग करना फायदेमंद माना जाता है. यह जगह भी कम घेरता है. जब गेस्ट आएं इसे खोल कर बड़ा बना लें और बाकि टाइम इसे दीवान बना कर रखें और जब कोई आए तो इसे खोल कर बैड बना लें.

मिरर लगाएं

गेस्ट रूम में एक फुललैंथ मिरर भी लगवाएं. इस से गेस्ट को ठीक से तैयार होने में मदद मिलेगी. इस के आलावा अगर आप चाहते हैं कि आप का छोटा सा गेस्ट रूम बड़ा और रोशनी से भरा लगे, तो दीवारों पर बड़े मिरर लगा सकते हैं. ये मिरर कमरे की रोशनी को इधरउधर फैलाते हैं, जिस से कमरा और भी उजाला और बड़ा दिखता है. इस से आप का छोटा रूम भी खुला और आकर्षक लगेगा.

घड़ी भी लगाएं

अगर आप के गेस्ट रूम में घड़ी नहीं है और आप को लगता है कि सब के पास आज के समय स्मार्टफोन है और घड़ी की क्या जरूरत है, तो यह सोच गलत है. स्मार्टफोन भले ही हो लेकिन कमरे में घड़ी का होना आप की सजगता दिखाता है. आप के लिए वह कोई फालतू कमरा नहीं है, यह बताता है. रूम में घड़ी का होना इंटीरियर का अहम पार्ट है. इसलिए इस बार एक अच्छी सी घड़ी लाएं और गेस्ट रूम को सजाएं.

अलमीरा की व्यवस्था भी हो

गेस्ट रूम में एक अलमीरा की व्यवस्था होनी चाहिए. इस से अगर गेस्ट को कुछ दिनों के लिए रुकना हुआ, तो वे सामान व्यस्थित रख सकेंगे. अलमारी भले ही छोटी हो लेकिन होनी चाहिए.

चार्जिंग पौइंट बनाएं

किसी कोने में चार्जिंग पौइंट जरूर बनाएं, ताकि मेहमानों को मोबाइल और लैपटौप चार्ज करने में परेशानी न हो.

इलेक्ट्रौनिक गैजेट्स

आजकल शायद ही घर का कोई ऐसा कमरा हो, जहां इलेक्ट्रौनिक गैजेट्स का यूज नहीं किया जाता हो. घर के लगभग हर कमरे में कोई न कोई इलेक्ट्रौनिक आइटम्स जैसे टेलीविजन, कंप्यूटर या हेयर ड्रैसिंग आदि होते हैं. आप गेस्ट रूम में टेबल रख सकते हैं.

छोटेछोटे इलेक्ट्रौनिक गैजेट्स को टेबल पर रख सकते हैं. आप चाहें तो वहां एक छोटी सी प्रेस, गरम पानी की केतली भी रख सकते हैं, जिस से गेस्ट को आराम रहे. सर्दियों के समय एक छोटा हीटर भी रख सकते हैं. मेहमानों के लिए पानी की बोतलें, चाय या कौफी बनाने का सामान भी रखें.

गेस्ट रूम में लाइट अरैंजमेंट

स्मार्ट लाइटिंग स्पेस को अलग ही लुक देती है. इन दिनों रिफ्लैक्टेड लाइट्स ट्रेंड में हैं. इन से भी आप गेस्ट रूम की सुंदरता बढ़ा सकते हैं. गेस्ट रूम ही नहीं बल्कि घर के सभी रूम्स में लाइट की सही व्यवस्था बेहद जरूरी है. यह व्यक्ति को कई तरह से प्रभावित करती है.

घर में विशेषरूप से गेस्ट रूम में अच्छी रोशनी का उपयोग करना माहौल को जीवंत बनाए रखता है. इस से मेहमानों का कमरा आरामदायक बना रहता है. इस के उलट बीम लाइट का उपयोग करना आंखों के लिए नुकसानदायक साबित हो सकता है, क्योंकि इसे देखना मुश्किल होता है.

कमरे को साफसुथरा रखें

अपने कमरे को साफ और सुथरा रखें, बहुत सारी चीजें न भरें. जो चीजे बेकार हो रहीं हैं उन्हें फेंकने में कंजूसी न करें. जितना कम सामान होगा, कमरा उतना ही बड़ा और हवादार लगेगा. जरूरी चीजें ही रखें और बाकी को अलग कर दें. इस से आप का कमरा खुलाखुला सा नजर आएगा और आप को भी वहां रहने में अच्छा लगेगा.

बुक कौर्नर भी बनाएं

हर घर में कुछ किताबें तो जरूर होती हैं लेकिन पढ़ने के बाद हमें लगता है कि अब इन का क्या करें और हम उन महंगीमहंगी किताबों को कबाड़ में दे देते हैं. लेकिन अब ऐसा करने की जरूरत नहीं है. गेस्ट रूम के किसी कोने को बुक कौर्नर के रूप में उभारें. वहां किताबों से सजी कोई सुंदर बुक शैल्फ, आरामकुरसी, खूबसूरत फ्लोर लैंप आदि लगाएं. इस से कमरा तो स्टाइलिश दिखेगा ही, पढ़नेलिखने के शौकीन मेहमानों को वहां बैठ कर किताबें पढ़ने में अलग ही आनंद आएगा.

बालकनी को खास बनाएं

गेस्ट रूम में बालकनी हो तो वहां छोटे गमलों में 1-2 सुंदर पौधे लगाएं. उस के पास बैठने के लिए कुरसी रखें. एक स्टूल पर ताजा फूल सजाएं. फूलों से आती खुशबू और चाय की चुसकियां मेहमानों की सुबह को यादगार बना देगी.

गेस्ट रूम में कौन सा पेंट कराएं

अगर काफी समय से पेंट नहीं करवाया है तो पेंट करवा लें. आकर्षक पैटर्न वाली दीवारें इन दिनों ट्रेंड में हैं. इस से आप अपने गेस्ट रूम को सुंदर लुक दे सकते हैं. हलके रंग जैसे सफेद, बेज या हलका नीला आप के गेस्ट रूम को खुला और बड़ा दिखाने में मदद करते हैं. ये रंग कमरे को ज्यादा हवादार बनाने में मदद करते हैं. इन का इस्तेमाल कर आप अपने छोटे से कमरे को भी बड़ा और सुंदर बना सकते हैं. इस के आलावा गेस्ट रूम की दीवारों के लिए हमेशा लाइट कलर का पेंट चुनें. व्हाइट, बेंज, ग्रे, ब्लू आदि पेस्टल शेड्स कमरे को अलग लुक देते हैं.

परदे और बैडशीट

आमतौर पर गेस्ट रूम का इस्तेमाल कम होता है इसलिए वहां की चीजें भी कम इस्तेमाल होती हैं. लेकिन इस का मतलब यह नहीं है कि वहां सालोंसाल कुछ बदलाव किए ही न जाएं. ऐसा नहीं होना चाहिए कि कोई गेस्ट 3 साल पहले आया और आज भी उन्हें लही चादर मिले.

फैशन के अनुसार गेस्ट रूम में भी बदलाव करें. ट्रेंड में बैडशीट के जो प्रिंट चल रहें हैं उन्हें खरीदें. ऐसा करना बहुत महंगा भी नहीं पड़ेगा. कोशिश करें कि दीवार, कारपेट और बैडकवर्स के रंग मेल खाते हों, जैसे दीवारों पर अगर लाइट ब्लू का पेंट हो, तो इसी रंग का कारपेट और व्हाइट ब्लू प्रिंट का बैडकवर चुनें.

इस के आलावा अपने गेस्ट रूम को खुला और बड़ा बनाने के लिए छोटे फूलों के प्रिंट वाले हलके रंग के बैडशीट और परदे चुनें. ये आप के कमरे को और भी सुंदर और बड़ा बनाएंगे. ध्यान रखें कि गहरे रंग के परदे या कालीन से कमरा बंद और घुटन भरा लग सकता है.

गेस्ट रूम को फैस्टिवल के हिसाब से डैकोरेट करें

अगर कोई मेहमान फैस्टिवल के लिए आप के घर आ रहे हैं तो उन्हें महसूस भी होना चाहिए कि फैस्टिवल है. इस समय आप कमरे को दीए, मोमबत्तियां, रंगोली आदि से कमरे को सजा सकते हैं. इस के अलावा आप चाहें तो फूलों की माला से कमरे को डैकोरेट करें. इस के बाद बिस्तर पर कुशन और फर्श पर गलीचे लगाएं. वाल डैकोरेट करने के लिए आप परिवार की तसवीरें या कलाकृतियां भी लगा सकते हैं.

फ्लोटिंग शेल्फ

कई बार आने वाले मेहमानों को गेस्ट रूम में सामान रखने में परेशानी होती है. हो सकता है कि आप के घर में भी स्पेस प्रौब्लम हो और इसलिए गेस्ट रूम उतना बड़ा न हो. ऐसे में गेस्ट रूम को सजाने और स्पेस को मैनेज करने के लिए आप वहां पर फ्लोटिंग शेल्फ की मदद ले सकते हैं. यह फ्लोटिंग शेल्फ न सिर्फ गेस्ट रूम को एक ऐलीगेंट लुक देती है, बल्कि इस की मदद से आने वाले मेहमान अपना काफी सारा सामान आसानी से रख पाते हैं.

नया बिस्तर तैयार करें

अपने पुराने तकिए और कुशन को बदल दें. लंबे समय के इस्तेमाल के बाद उन में स्मेल हो जाती है, जिस से गेस्ट को परेशानी हो सकती है. तकिए खरीदना ज्यादा महंगा सौदा भी नहीं है इसलिए उन्हें बदल लें और अगर बदल नहीं सकते हैं तो उन्हें वाश करें या फिर ड्राईक्लीन करा लें.

टौवेल भी रखें

मेहमानों के लिए नया तौलिया, हाथ धोने का साबुन, शैंपू, कंडीशनर और अन्य जरूरत का सामन रखें. यदि संभव हो, एक छोटी सी टोकरी में इन वस्तुओं को सजा कर रखें.

यदि मेहमान बच्चों के साथ आ रहे हैं, तो उन के लिए कुछ खिलौने या खेलने का सामान भी रखें.

मेहमानों के लिए एक छोटा सा उपहार, जैसकि ग्रीटिंग कार्ड या एक छोटी सी कोई किट कमरे में रखें.

यदि आप मेहमानों के नाम जानते हैं, तो उन के नाम के साथ एक छोटा सा नोट भी रख सकते हैं. इस से उन्हें स्पैशल फील होगा.

मेहमानों के लिए गिफ्ट भी लाएं और जाते हुए उन्हें प्यार से गिफ्ट दें. भले ही गिफ्ट ज्यादा महंगा न हो पर वे आप की इस मेहमाननवाजी को सालों याद रखेंगे. Festive Special

Family Kahani: बुआजी – क्या बुआजी पैसे से खुशियां या औलाद खरीद पायी

Family Kahani: जगजीत सिंह, चित्रा सिंह की गजल टेप पर चल रही थी ‘…अपनी सूरत लगी पराई सी, जब कभी हम ने आईना देखा…’ मैं ने जैसे ही ड्राइंगरूम का दरवाजा खोला तो देखा कि सामने बूआजी टेबल पर छोटा शीशा लिए बैठी हैं. शायद वे अपने सिर के तीनचौथाई सफेद बालों को देख रही थीं या फिर शीशे पर जमी वर्षों की परत को हटा कर अपनी जवानी में झांकना चाह रही थीं.

तभी गली में से फल वाले की आवाज पर वे अतीत से वर्तमान में आती हुई बोलीं, ‘‘अरे फल वाले, जरा रुकना. पपीता है क्या?’’ फल वाला शायद रोज ही आता होगा. वह तुरंत बोला, ‘‘बूआजी, आज पपीता छोटा नहीं है. सब बड़े साइज के हैं और आप बड़ा लेंगी नहीं,’’ कहता हुआ वह जवाब की प्रतीक्षा किए बिना ही चलता रहा.

यह सुन कर बूआजी अपनेआप से ही कहने लगीं, ‘अरे भई, क्या करूं, एक समय था कि घर में टोकरों के हिसाब से फल आया करते थे. अब न खाने वाले हैं और न ही वह वक्त रहा.’ मैं सफदरजंग कालोनी, दिल्ली में बूआजी के फ्लैट के ऊपर वाले फ्लैट में रहती थी. मैं ने फल वाले को रोका और नीचे उतर आई. मैं जब भी किसी काम से नीचे उतरती तो अकसर बूआजी से बोल लेती थी, क्योंकि दिल्ली जैसे महानगर में किसी से थोड़ी सी आत्मीयता व ममतामयी संरक्षण का मिल पाना अपनेआप में बहुत बड़ी बात थी.

पहली बार बूआजी की और मेरी मुलाकात इसी फल वाले की रेहड़ी पर हुई थी. एक बार जब मैं अपने मायके से लौटी तो देखा कि आज यह कोई नया चेहरा दिखाई पड़ रहा है. चेहरे पर अनुभवी परछाईं के साथसाथ कष्टों के चक्रव्यूह में आत्मविश्वास भी नजर आ रहा था. संपन्नता की छाप भी स्पष्ट नजर आ रही थी, क्योंकि घर आधुनिक सुखसुविधाओं व विदेशी सामान से सुसज्जित था. बस, घर में कमी थी तो केवल इंसानों व बच्चों की किलकारियों की. उम्र 60-65 के बीच थी. तब इन्होंने पूछा था, ‘बेटी, क्या आप लोग यहां नए आए हो?’

इस पर मैं ने कहा था, ‘नमस्ते बूआजी, मैं तो यहां पर कई दिनों से रह रही हूं. कुछ दिनों के लिए मायके गई थी. कल ही मायके से आई हूं.’ मायके में 15 दिन मैं ने अपनी बूआजी के साथ गुजारे थे. इन की शक्लसूरत मेरी बूआ से मिलती थी, इसीलिए तो मेरे मुंह से अनायास ‘बूआजी’ निकल गया था. इस के बाद तो ये सब्जी वाले, फल वाले, नौकर, आसपास के फ्लैट वालों सभी के लिए जगत कुमारी से बूआजी बन गईं. बहुत जल्द ही उन के साथ हम सभी के घनिष्ठ संबंध स्थापित हो गए.

मेरे पति व दोनों बच्चे भी उन्हें बूआजी कहने लगे. स्कूल से आतेजाते बच्चों से बूआजी बड़े प्यार से बतियाती थीं. उन से मिलना मेरी भी दिनचर्या में शामिल हो गया था. मेरे पति भी आतेजाते फूफाजी को देख आते थे और कामकाज के लिए भी पूछ आते थे. बूआजी बड़ी व्यवहारकुशल व खुले दिमाग की औरत थीं. बूआजी में आत्मविश्वास को बनाए रखने की प्रबल इच्छाशक्ति थी. परंतु फिर भी दिल के एक कोने में अकेलेपन का एहसास व आंसुओं का सागर उमड़ ही आता था.

इसी अकेलेपन के एहसास के कारण वे अपने भविष्य को इतना असुरक्षित पाती थीं. फूफाजी को भी असुरक्षित भविष्य की भयावह कल्पना ने ही इतना मानसिक तनाव से ग्रसित कर दिया था कि वे पिछले 2 साल से पक्षाघात का शिकार बन, अपनी जिंदगी का बोझ ढो रहे थे. बूआजी भी कहां स्वस्थ थीं. वे भी दमे की मरीज थीं, दिन में दोचार बार ‘पफ’ लेती थीं. उन का रक्तचाप भी कम ही रहता था.

वह कभीकभी दोपहर की चाय के लिए मुझे अपने पास बुला लिया करती थीं. मैं उस समय सभी कामों से निवृत्त होती थी. सो, साथसाथ बैठ कर चाय पी लेती थी. एक दिन मैं ने उन से कहा, ‘बूआजी, आप 24 घंटे का एक नौकर रख लीजिए न.’ मेरी बात सुन बूआजी बोलीं, ‘अरे बेटा, ये जो काम करने वाली हैं न, इन से मेरा काम तो चल ही जाता है. और रही बात तेरे फूफाजी की, तो उन की देखभाल के लिए स्वास्थ्य केंद्र से 90 रुपए रोज पर श्याम आता ही है. सुबह 8 बजे से रात 8 बजे तक यह फूफाजी का सारा काम देखता है.

सुबह का नाश्ता, खाना, नहलाना, कसरत, दवा आदि सभी तो कराता है. रही बात रात की, तो रात को मैं स्वयं देख लेती हूं. हमें श्याम का डर नहीं क्योंकि स्वास्थ्य केंद्र में इस का नामपता सब दर्ज है. बेटी, आजकल वैसे भी नौकर रखना इतना आसान नहीं है. आएदिन घरेलू नौकरों द्वारा की गई चोरीडकैती की घटनाएं सुनने को मिलती रहती हैं. दिल्ली में वैसे भी ऐसी वारदातें होती रहती हैं. अरे भई, ऐसे ही कट जाएगी जिंदगी, पता नहीं, कब हम दो में से एक रह जाएं.’

बातें करतेकरते अकसर उन का गला भर आता व आंखों में आंसू आ जाते. पर पलकों की जैसे इन आंसुओं को सोखने की आदत सी हो गई हो. तभी फोन की घंटी बज उठी. बूआजी के बात करने से लगता था जैसे पुरानी मित्रता हो. वे बोलीं, ‘‘इन का क्या ठीक होना, वही हाल है,’’ फिर रुक कर बोलीं, ‘‘अरे, क्या करना है, अभी तो यहां भी 2 कमरे तो बंद ही रहते हैं, कोई आ जाए तो खुल जाते हैं,’’ कहतेकहते उन का गला भर आया. फोन पर बातचीत चालू थी. बूआजी बोलीं, ‘‘अरे अपने लिए तो वही डिफैंस कालोनी है जहां दो आदमियों की शक्ल नजर आ जाए, कोई दो घड़ी बोल ले.

फल, सब्जी, डाक्टर, टैक्सी सब यहां फोन पर उपलब्ध हैं. मुझे उस कोठी को छोड़ कर इस फ्लैट में आने का कोई गम नहीं है. मुझे यहां बड़ा आराम है.’’ फिर मेरी तरफ देख कर हंसते हुए बोलीं, ‘‘और मुझे यहां एक अपनी बेटी, प्यारेप्यारे बच्चे और बेटे जैसे दामाद का सहारा जो मिल गया है.’’ लगता था आज उन की बातें लंबी चलेंगी, सो मैं उन्हें फिर आने का इशारा करते हुए उठ कर चली गई. मैं घर आ कर सोचने लगी कि शायद बूआजी डिफैंस कालोनी में कोठी बेच कर इस छोटे से फ्लैट में आई हैं.

मगर फिर भी कितनी खुश नजर आती हैं. किसी ने सच ही कहा है कि ‘पैसा जवानी की जरूरत और बुढ़ापे की ताकत होता है.’ उन के आत्मविश्वास के पीछे यह ताकत तो थी ही, पर क्या वे पैसे की ताकत से खुशियां, शांति या औलाद का प्यार खरीद पाईं? हम जैसे गैरों से अगर वे चुटकी भर खुशी का एहसास कर पाईं तो वह केवल अपनी व्यवहारकुशलता से. तभी अचानक बेटी के जाग जाने से मेरे विचारों के क्रम में बदलाव आ गया. मैं उसे प्यार से सहलाते हुए दूध गरम करने के लिए उठ गई.

रात को खाना खाते समय सोमेश (पति) ने पूछा, ‘‘फूफाजी की तबीयत कैसी है? 3-4 दिन से मेरी उन से बात नहीं हो पाई है.’’ इस पर मैं बोली, ‘‘फूफाजी की तबीयत का क्या ठीक, क्या खराब. कोई खास फर्क नहीं…वैसे बूआजी ने इमरजैंसी के लिए कोर्डलैस घंटी तो लगा ही रखी है.’’ वैसे तो इस महानगर के कोलाहल में हर आवाज दब कर रह जाती है, पर बूआजी से कुछ लगाव होने की वजह से हम उन की आवाजों का ध्यान भी रखते थे. वे बारबार श्याम को आवाजें लगाती थीं, ‘श्याम, फूफाजी को मंजन करा दो… श्याम, फूफाजी को चाय पिला दो… फूफाजी को कसरत करानी है…अब फूफाजी को दवा दे दो, अब उन्हें सुला कर खाना खा आओ,’ उन के इन संवादों से हमें फूफाजी की उपस्थिति का भान होता रहता था. 

तभी लंबी घंटी ने हमें चौंका दिया. मेरे पति जल्दीजल्दी दोदो सीढि़यां एकसाथ उतर कर नीचे पहुंचे. मैं भी घर बंद कर के नीचे पहुंची. घड़ी पर नजर पड़ी, तो देखा, साढ़े 8 बज रहे थे. श्याम भी जा चुका था. हम ने बूआजी का इतना घबराया चेहरा पहली बार देखा, उन की सांस फूल रही थी. हमारे पूछने पर वे बोलीं, ‘‘बेटी, आज मुझे इन की हालत कुछ ठीक नहीं लग रही है. मैं ने डाक्टर को भी फोन कर दिया है. मन में अजीब सा डर लग रहा है, इसीलिए तुम लोगों को बुला लिया.’’

इस पर हम दोनों बोले, ‘‘यह क्या कह रही हैं आप. यदि हमें नहीं बुलाएंगी तो और किसे बुलाएंगी?’’ तभी घंटी बजी. दरवाजा खोला तो देखा सामने डाक्टर साहब खड़े थे. उन्होंने फूफाजी को देखा व बोले, ‘‘श्रीमती जगत, मैं आज भी वही कहूंगा जो हर बार कहता आया हूं. इस बीमारी का कोई भी इलाज नहीं, न ही मरीज की गिरती व सुधरती हालत पर कोई टिप्पणी की जा सकती है. निकल जाए तो 6 महीने, न निकले तो 6 घंटे भी नहीं. आप हिम्मत रखो, मैं आप का दर्द समझता हूं,’’ कह कर डाक्टर चले गए. 

डाक्टर के जाने के बाद मैं ने कहा, ‘‘बूआजी, यदि आप कहें तो मैं आप के साथ नीचे ही सो जाऊं?’’ इस पर उन की आंखें फिर भर आईं और बोलीं, ‘‘हां बेटी, आज तुम नीचे ही सो जाओ. न जाने आज क्यों मेरा दिल घबरा रहा है.’’ मैं अपने पति को बच्चों के पास भेज कर स्वयं बूआजी के साथ फूफाजी के कमरे में ही लेट गई. वे बड़े प्यार से फूफाजी के सिर पर हाथ फेर कर उन्हें सहलाती रहीं. फूफाजी देखने में आज भी आकर्षक व्यक्तित्व के धनी थे. डाक्टर फूफाजी को नींद की दवा भी दे गए थे.

फूफाजी साफ नहीं बोलते थे, बस ‘अऽऽ’ कर के चिल्लाते थे और रात की शांति में तो उन की आवाज बहुत तेज सुनाई पड़ती थी. थोड़ी देर बाद जब फूफाजी की आंख लग गई तो बूआजी आ कर मेरे पास जमीन पर लेट गईं, पर नींद उन की आंखों से कोसों दूर थी. छत के पंखे से टकटकी लगाए जैसे अपने अतीत के एकएक पल को अपने में समेट लेना चाहती थीं.

मुझे लगने लगा कि आज बूआजी अपनी जिंदगी के बीते एकएक पल को मेरे साथ बांटना चाहती हैं. तभी वे बोलीं, ‘‘बेटी, मैं शुरू से इस तरह अकेली नहीं थी. शादी हुई तो तेरे फूफाजी जैसे सुंदर तन व मन वाले व्यक्ति को पति के रूप में पा कर अपनेआप को धन्य समझने लगी. सासससुर के अलावा एक छोटी ननद थी. घर में संपन्नता की न आज कमी है न उस समय थी. हमारी पीतल की फैक्टरी थी जो मानो सोना उगलती थी. तेरे फूफाजी अपने पिता के इकलौते बेटे होने के कारण उन के बहुत लाड़ले थे. इन्हें घूमनेफिरने का बहुत शौक था. 2 साल में ही पूरे भारत की सैर कर ली.

मैं इन के प्यार में इस कदर डूब गई थी कि मुझे कभी अपने मायके की याद नहीं आती थी. ममतामयी सासससुर ने मेरे सिर किसी भी तरह की गृहस्थी की कोई जिम्मेदारी नहीं डाली थी. घर में इतने नौकरचाकर थे कि कभी खाना खा कर थाली उठाने की भी नौबत नहीं आई. डिफैंस कालोनी में 600 गज में कोठी बनी थी. 2 साल बाद एक सुंदर सी बिटिया ने जन्म लिया. घर में उन किलकारियों का बेसब्री से इंतजार था.

‘‘तुम्हारे फूफाजी की खुशियों का तो ठिकाना ही न रहा था. हम ने बेटी का नाम मंजुला रखा. उस की दादी ने उस की देखभाल के लिए एक आया और रख दी थी. 2 साल कैसे निकले, पता ही नहीं चला कि बेटे अनुराग का पदार्पण हो गया. अब तो घर की खुशियों में चारचांद लग गए थे. दिन पंख लगा कर उड़ने लगे. दादी अनुराग का 10वां जन्मदिन मना कर रात को खुशीखुशी ऐसी सोईं कि फिर वापस कभी न उठ पाईं. गृहस्थी का सारा बोझ मुझ पर आ पड़ा.

सास को गए अभी 2 ही साल हुए थे कि दिल का दौरा पड़ने से ससुर भी कभी न जागने वाली नींद सो गए. अब इन पर ही फैक्टरी की पूरी जिम्मेदारी आ गई.’’ शायद बूआजी आज अपनी बातों को विराम नहीं देना चाहती थीं. मुझे भी उन की बातें सुन कर जैसे अनुभव का अनमोल खजाना मिल रहा था. वे आगे बोलीं, ‘‘दोनों बच्चे पढ़लिख कर बड़े हो गए. बेटी विवाह लायक हो गई थी. सो, मैं उसे जल्दी ही प्रणयसूत्र में बांधना चाहती थी. एक दिन घरबैठे ही बंगलौर से एक अच्छा रिश्ता आ गया व कुछ ही दिनों में हम ने उस की शादी कर दी.

अनुराग का मन था कि वह आगे की शिक्षा अमेरिका से प्राप्त करे तो तुम्हारे फूफाजी ने उस का भी प्रबंध कर दिया. बेटी अपनी सुखसंपन्न गृहस्थी में लीन एक बेटे की मां बन गई और अनुराग 3 साल के लिए अमेरिका चला गया,’’ कहतेकहते बूआजी का जैसे बरसों से रुका आंसुओं का सैलाब न जाने क्यों आज ही बह जाना चाहता था. रोतेरोते उन की सिसकियां बंध गईं.

थोड़ी देर रुक कर वे फिर भारी मन से बोलीं, ‘‘बेटी, मैं व तेरे फूफाजी अनुराग के आने के दिन गिन रहे थे कि एक दिन अचानक उस का पत्र आया जिस में उस ने लिखा था कि वर्ल्ड बैंक में नौकरी लग जाने की वजह से वह सालभर और घर नहीं आ सकता. इसलिए पिताजी से कहना कि वे फैक्टरी का काम कम कर दें. समझदार को इशारा ही काफी होता है. तेरे फूफाजी ने जब अनुराग का पत्र पढ़ा तो जैसे उन्हें कोई करंट सा लगा हो. धड़ाम से पलंग पर लेट गए.

उस दिन के बाद कई बार मुझे उन की बातों से लगने लगा कि जैसे ये अपने बुढ़ापे के बारे में अपनेआप को काफी असुरक्षित महसूस करने लगे हैं. ‘‘हर दोचार महीने में मंजुला व दामाद आ जाया करते थे. एक दिन अनुराग का फिर पत्र आया जिस में उस ने लिखा था कि ‘मेरे साथ नैना नामक लड़की काम करती है और मैं भारत आ कर आप लोगों की आज्ञा से उस से शादी करना चाहता हूं. मैं 2 महीने की छुट्टी पर घर आ रहा हूं. नैना का भी घर लखनऊ में है.’

‘‘तुम्हारे फूफाजी को व मुझे कोई एतराज नहीं था, सोचा, चलो अच्छा हुआ कि लड़की भारतीय तो है. अब हम बड़े उत्साह से उस की शादी की तैयारियों में जुट गए थे. हम ने मंजुला को भी बुला लिया था. हम ने बड़ी धूमधाम से शादी की. तुम्हारे फूफाजी और मैं बहुत खुश थे. शादी के बाद एक महीना कब गुजर गया, पता ही नहीं चला. अनुराग व नैना के वापस जाने की तारीख भी नजदीक आ रही थी.

केवल 7 दिन बचे थे. फिर आखिरकार उन के जाने का दिन भी आ ही गया. हम दोनों अनुराग व नैना को विदा कर घर लौटे कि उसी दिन से घर में नीरवता छा गई. तुम्हारे फूफाजी ने खाट पकड़ ली. ‘‘मैं ने वकील के साथ मिल कर फैक्टरी बेच दी, साथ ही कोठी को भी बेच दिया और इस फ्लैट में आ गई. एक बार बेटेबहू ने कहा भी कि आप लोग अमेरिका ही आ जाओ पर मैं ने कहा कि हम वहां एअरकंडीशनर की कैद में नहीं रह सकते.

तुम दोनों तो काम पर चले जाया करोगे, सो मुझ से इन की देखभाल अकेले नहीं होगी. और अपने जीतेजी मैं इन्हें किसी भी नर्सिंगहोम में नहीं छोड़ूंगी, मेरे बाद तुम्हारी जो मरजी हो सो करना. ‘‘दोनों साल में एकाध बार आ जाते हैं. उन के एक बेटी है. बहू को तो दुनियाभर का भ्रमण करना पड़ता है, श्रीलंका, जापान, जरमनी, स्वीडन वगैरावगैरा. अब तो उन्होंने अमेरिकी नागरिकता भी स्वीकार कर ली है. पूरी तरह से वहीं बस गए हैं.’’

बातों ही बातों में मैं ने घड़ी देखी तो पाया कि सुबह के 5 बज गए हैं. तभी फूफाजी ने जोर से एक हिचकी ली और शांत हो गए. बूआजी ने उठ कर देखा और हिम्मत के साथ उन की आंखें बंद कर मुंह पर कपड़ा ढक दिया और बहुत धीरे से बोलीं, ‘‘फूफाजी नहीं रहे.’’ मैं ने ऊपर से इन्हें बुलाया व सभी रिश्तेदारों को फोन से सूचना करवा दी. बूआजी मेरे पति से बोलीं, ‘‘सोमेश बेटे, 11 बजे तक इंतजार कर लो, यदि लोग पहुंच जाएं तो ठीक अन्यथा गाड़ी बुला कर विद्युत शव दाहगृह में ले जा कर अंतिम संस्कार कर आना.’’ शायद बूआजी को अपने बेटे अनुराग के पहुंच पाने की कोई उम्मीद न थी.

तभी अचानक उन को कुछ याद आ गया. वे कुछ तेज कदमों से चलती हुई मेरे पति के पास पहुंचीं. फिर उन्होंने पति के कान में कुछ कहा तो वे तुरंत फोन की तरफ लपक कर कहीं फोन मिलाने लगे. उन के फोन मिलाने के थोड़ी देर बाद ही एक गाड़ी घर के दरवाजे पर आ कर रुकी. उस में से उतर कर डाक्टर साहब ने घर में प्रवेश किया. इस तरह फूफाजी के नेत्रदान की अंतिम इच्छा को पूरा करते हुए मानो बूआजी की बहती अविरल अश्रुधारा कह रही हो कि ये अनुभवी, प्यार बरसाने वाले नेत्र तो जिंदा रहेंगे. 

दुनिया पर प्यार लुटाने वाली बूआजी का स्वयं का प्यार का स्रोत लुट चुका था. बूआजी की टेप पर चलती गजल मुझे फिर याद आ गई मानो वह उन्हीं के लिए ही गाई गई हो, ‘अपनी सूरत भी लगने लगी पराई सी, जो आईना देखा…’ Family Kahani

Parivarik Kahani: कमाऊ बीवी- आखिर क्यों वसंत ने की बीवी की तारीफ?

Parivarik Kahani: प्राय: कमाऊ बीवी का पति होना बड़ी अच्छी बात समझी जाती है. हम भी इसी गलतफहमी में रहते अगर अपने पड़ोसी प्रदीप की पत्नी को एक दफ्तर में नौकरी न मिली होती. हमारे तथा प्रदीप के घर के बीच केवल पतली लकड़ी की दीवार है. वह भी न होने के बराबर है. इधर बजने वाला अलार्म उन्हें जगा देता है और उन के मुन्ने की चीखपुकार हमारी नींद हराम कर देती है.

हमें याद है, जिस दिन प्रदीप की पत्नी सुनीता के नाम नियुक्तिपत्र आया था प्रदीप और उन के तीनों बच्चे महल्ले के हर घर में यह शुभ समाचार देने दौड़ पड़े थे. यह भी अच्छी तरह याद है कि मिठाई का स्वाद महल्ले भर की ईर्ष्या के कसैलेपन को दबा नहीं पाया था.

सुनीता का दफ्तर घर से काफी दूर पड़ता था. इसलिए उसे समय से दफ्तर पहुंचने के लिए 9 बजते ही घर से निकलना पड़ता था. जिस दिन पहली बार वह दफ्तर के लिए बनठन कर घर से निकली तो पूरे महल्ले की छाती पर सांप लोट गए थे. रसोई में उलझी हुई अपनी पत्नी को जब हम ने सुनीता

के दफ्तरगमन का यह दृश्य दिखलाया तो अनजाने ही हमारी मुद्रा में यह भाव तैर आया कि ‘कितने खुशनसीब हैं आप के पड़ोसी जिन्हें इतनी सुघड़, सुंदर और कमाऊ पत्नी मिली है.’ हमारी पत्नी ने शायद हमारी मुद्रा पढ़ ली थी. एक फीकी मुसकान हम पर डाल कर वह फिर से अपने काम में जुट गई.

नईनई नौकरी के उत्साह में कुछ दिन सब ठीकठाक चलता रहा और पूरे महल्ले के पेट में दर्द होता रहा कि दोनों की नौकरी के साथसाथ आखिर गृहस्थी के काम कैसे ठीकठाक चल रहे हैं? हम खुद यह रहस्य जानने के लिए बेताब थे कि सुबह का खाना निबटा कर और तीनों बच्चों को स्कूल के लिए तैयार कर के दोनों किस तरह समय से दफ्तर रवाना हो जाते हैं.

पर अभी एक महीना भी न बीता था कि लकड़ी की दीवार के दूसरी ओर का तनाव अनायास ही प्रकट होने लगा.

सुबह के 9 बजे थे. अचानक प्रदीप का तेज स्वर सुनाई पड़ा, ‘‘सुनीता, देखो बबली ने अपना फ्राक गंदा कर डाला है. जरा इस का फ्राक बदलती जाना.’’

‘‘मुझे आज वैसे ही देर हो रही है. आप ही बदल लीजिएगा,’’ सुनीता का स्वर सुनाई पड़ा.

‘‘भई, अच्छी मुसीबत है. मुझे भी तो समय से दफ्तर पहुंचना होता है. बरतनों की सफाई और बच्चों को तैयार कर के स्कूल भेजने के चक्कर में हर दिन दफ्तर देर से पहुंच रहा हूं. दिन चढ़ते ही सजनेसंवरने लग जाती हो, इस के बजाय, तुम्हें घर के काम निबटाने की फिक्र करनी चाहिए,’’ प्रदीप का स्वर आक्रोश और व्यंग्य में डूबा हुआ था.

‘‘तो क्या आप चाहते हैं कि मैं घर के ही कपड़ों में बिना हाथमुंह धोए दफ्तर निकल जाऊं? घर के काम के लिए तो आप को महरी लगानी ही पड़ेगी. और फिर मैं क्या अपने शौक या शान के लिए नौकरी कर रही हूं? यह सबकुछ तो आप को मुझे नौकरी के लिए भेजने से पहले सोचना चाहिए था,’’ सुनीता शायद रोआंसी हो उठी थी.

इस के बाद के संवाद स्पष्ट नहीं सुने जा सके, पर हम ने देखा कि अगले ही दिन से प्रदीप के घर सुबह ही सुबह एक महरी आने लगी थी.

प्रदीप के परिवार की आर्थिक स्थिति भले ही दृढ़ हो गई हो पर कुछ समय पूर्व सुनाई पड़ने वाले कहकहे अब बंद हो चले थे. बच्चे अब डांट ज्यादा खाने लगे थे और खाली समय में इधरउधर डोलते दिखाई पड़ने लगे थे.

प्रदीप की तबीयत खराब हुई. वह दफ्तर से 3-4 दिन की छुट्टी ले कर घर पर आराम करने लगे. मिजाजपुर्सी के लिए हम ने उन के घर के भीतर कदम रखा तो घर की अव्यवस्था देख कर हैरान हो गए. बच्चों के फाड़े हुए कागज सारे घर में बिखरे हुए थे. एक ओर मैले कपड़ों का ढेर लगा हुआ था. हर कोने में जूठे बरतन बिखरे हुए थे. प्रदीप लिहाफ ओढ़े हुए थे. उस लिहाफ का गिलाफ शायद पिछले कई महीनों से धुला नहीं था.

हमारे सूक्ष्म निरीक्षण को ताड़ कर प्रदीप कुछ शर्मिंदगी के साथ बोला, ‘‘इधर 2-1 दिन से महरी भी बीमार है. सबकुछ अस्तव्यस्त पड़ा है और फिर आप जानते ही हैं कि सुनीता भी…’’

‘‘जी हां, जी हां, जहां पतिपत्नी दोनों नौकरी करते हों वहां घर की देखभाल में कमी आ जाती है,’’ हम ने कह तो दिया पर लगा कि ऐसा नहीं कहना चाहिए था. इसलिए तुरंत हम ने जोड़ा, ‘‘फिर भी ऐसी कोई खास अस्तव्यस्तता तो दिखाई नहीं देती. बच्चे तो हर घर में ऐसा ही किया करते हैं.’’

प्रदीप के मुंह पर एक फीकी मुसकान आ गई. तकिया पीठ के पीछे लगा कर, पलंग पर बैठते हुए बोला, ‘‘आप को भले ही न दिखाई देता हो पर सबकुछ अस्तव्यस्त हो गया है, मेरे भाई. जब से सुनीता ने नौकरी शुरू की है, यह घर घर न रह कर सराय बन गया है. सराय की भी अपनी एक व्यवस्था होती है. अब यही देखिए, आप मेरा हाल पूछने आए हैं, पर मैं आप को एक कप चाय भी नहीं पिलवा सकता.’’

हमें लगा कि शायद प्रदीप अस्वस्थता के कारण भावुक हुए जा रहे हैं. क्या पता चाय पीने का ही मन हो. हम कह बैठे, ‘‘इतनी सी बात के लिए आप परेशान न हों. अभी चाय ले कर आता हूं. कुछ खिचड़ी या दलिया वगैरह लेना चाहें तो बनवा लाऊं?’’

पर प्रदीप ने हमारा हाथ पकड़ कर हमें उठ कर जाने से रोक लिया. वह खुद किन्हीं विचारों में खो गए. कुछ देर की चुप्पी के बाद करुण स्वर में वह अपनी बीमारी का रहस्य हमें बताने लगे, ‘‘मैं बीमारवीमार कुछ नहीं हूं. हलका  सा जुकाम था. मैं 3 दिन की छुट्टी ले कर लेट गया.’’

वह चुप हो गए और हम प्रश्नसूचक दृष्टि से उन्हें देखने लगे.

उन्होंने फिर कहना शुरू किया, ‘‘मैं तो महज यही देखना चाहता था कि सुनीता मेरी बीमारी और अपनी नौकरी में से किसे अधिक महत्त्वपूर्ण समझती है? पर उस के लिए नौकरी ही सबकुछ बन गई है. मेरी कोई परवा ही नहीं.’’

प्रदीप का मर्ज हमारी पकड़ में आ चुका था. पुरुष होने का खोखला अहंकार उन्हें पीडि़त किए हुए था. वह पत्नी की नौकरी का आर्थिक लाभ भी उठाना चाहते थे और उस की नौकरी को शौक से ज्यादा महत्त्व देने को भी तैयार नहीं थे.

‘‘तो क्या आप चाहते थे कि आप की पत्नी अपने दफ्तर से छुट्टी ले कर घर पर आप की तीमारदारी करे?’’ हम ने सवाल कर डाला.

‘‘हां, इतनी सी तो बात थी. आखिर, इस में उस की नौकरी तो न चली जाती. मुझे भी संतोष हो जाता कि…’’ प्रदीप ने वाक्य अधूरा ही छोड़ दिया.

‘‘कि सुनीता को अपनी नौकरी से ज्यादा फिक्र आप की है,’’ हम ने वाक्य पूरा करते हुए एक सवाल और पूछ लिया, ‘‘अच्छा प्रदीप, एक बात का ईमानदारी से जवाब देना. आप की जगह सुनीता घर पर लेटी होती तो क्या आप दफ्तर से छुट्टी ले कर बैठ गए होते?’’

‘‘जी हां, जी, मैं शायद…’’ प्रदीप को शायद जवाब नहीं सूझ रहा था.

‘‘हां, हां, कहिए. आप शायद…’’ हम मुसकरा रहे थे.

‘‘मैं शायद…’’ कहतेकहते  ही प्रदीप भी मुसकरा उठे और लिहाफ छोड़ पलंग से उठ खड़े हुए.

‘‘क्यों, अब आप कहां चल दिए?’’ उन्हें रसोईघर की तरफ बढ़ते देख हम ने पूछा.

‘‘भई, 5 बज चुके हैं न. दफ्तर से थकी हुई सुनीता आती ही होगी. गैस पर चाय का पानी रख दूं. तीनों इकट्ठे चाय पीएंगे,’’ कहते हुए वह रसोईघर में घुस गए.

अचानक हमारा मन बड़ी जोर से ठहाका लगाने को हुआ, पर दरवाजे पर नजर पड़ते ही हम ने खुद को रोक लिया. दरवाजे पर सुनीता अपने थके हुए चेहरे पर मुसकान लाने की कोशिश में क्षणभर के लिए ठिठक गई थी. Parivarik Kahani

व्यंग्य- वसंतकुमार भट्ट

Social Hindi Story: तभी तो कह रही हूं

Social Hindi Story: लड़कियों की मकान मालकिन कम वार्डेन नीलिमा ने रोज की तरह दरवाजे पर ताला लगा दिया और बोलीं, ‘‘लड़कियो, मैं बाहर की लाइट बंद कर रही हूं. अपनेअपने कमरे अंदर से ठीक से बंद कर लो.’’

एक नियमित दिनचर्या है यह. इस में जरा भी दाएंबाएं नहीं होता. जैसे सूरज उगता और ढलता है ठीक उसी तरह रात 10 बजते ही दालान में नीलिमा की यह घोषणा गूंजा करती है.

उन का मकान छोटामोटा गर्ल्स होस्टल ही है. दिल्ली या उस जैसे महानगरों में कइयों ने अपने घरों को ही थोड़ीबहुत रद्दबदल कर छात्रावास में तबदील कर दिया है. दूरदराज के गांवों, कसबों और शहरों से लड़कियां कोई न कोई कोर्स करने महानगरों में आती रहती हैं और कोर्स पूरा होने के साथ ही होस्टल छोड़ देती हैं. इस में मकान कब्जाने का भी कोई अंदेशा नहीं रहता.

15 साल पहले नीलिमा ने अपने मकान का एक हिस्सा पढ़ने आई लड़कियों को किराए पर देना शुरू किया था. उस काम में आमदनी होने के साथसाथ उन के मकान ने अब कुछकुछ गर्ल्स होस्टल का रूप ले लिया है. आय होने से नीलिमा का स्वास्थ्य और आत्मविश्वास तो अवश्य सुधरा लेकिन बाकी रहनसहन में ठहराव ही रहा. हां, उन की बेटी के शौक जरूर बढ़ते गए. अब तो पैसा जैसे उस के सिर चढ़कर बोल रहा है. घर में ही हमउम्र लड़कियां हैंपर वह तो जैसे किसी को पहचानती ही नहीं.

सुरेखा और मीना एम.एससी.

गृह विज्ञान के फाइनल में हैं. पिछले साल जब वे रांची से आई थीं तो विचलित सी रहती थीं. जानपहचान वालों ने उन्हें नीलिमा तक पहुंचाया.

‘‘1,500 रुपए एक कमरे का…एक कमरे को 2 लड़कियां शेयर करेंगी…’’ नीलिमा की व्यावसायिकता में क्या मजाल जो कोई उंगली उठा दे.

‘‘ठीक है,’’ सुरेखा और मीना के पिताजी ने राहत की सांस ली कि किसी अनजान लड़की से शेयर नहीं करना पड़ेगा.

‘‘खाने का इंतजाम अपना होगा. वैसे यहां टिफिन सिस्टम भी है. कोई दिक्कत नहीं है,’’ नीलिमा बताती जाती हैं.

सबकुछ ठीकठाक लगा. अब तो वे दोनों अभ्यस्त हो गई हैं. गर्ल्स होस्टल की जितनी हिदायतें और वर्जनाएं होती हैं, सब की वे आदी हो चुकी हैं.

‘‘नो बौयफ्रेंड एलाउड,’’ यह नीलिमा की सब से अलार्मिंग चेतावनी है.

सुरेखा और मीना के बगल के कमरे में देहरादून से आई दामिनी और अर्चना हैं. दोनों ग्रेजुएशन कर रही हैं. इंगलिश आनर्स कहते उन के चेहरे पर ऐसे भाव आते हैं जैसे इंगलैंड से सीधे आई हैं और सारा अंगरेजी साहित्य इन के पेट में हो.

दोनों कमरों के बीच में एक छोटा सा कमरा है जिस में एक गैस का चूल्हा, फिल्टर, फ्रिज और रसोई का छोटामोटा सामान रखा है. बस, यही वह स्थान है जहां देहरादूनी लड़कियां मात खा जाती हैं.

सुरेखा नंबर एक कुक है. जबतब प्रस्ताव रख देती है, ‘‘चाइनीज सूप पीना हो तो 20-20 रुपए जमा करो.’’

दामिनी और अर्चना बिके हुए गुलामों की तरह रुपए थमा देतीं. निर्देशों पर नाचतीं. सुरेखा अब सुरेखा दीदी बन गई है. अच्छाखासा रुतबा हो गया है. अकसर पूछ लिया करती है, ‘‘कहां रही इतनी देर तक. आंटी नाराज हो रही थीं.’’

‘‘आंटी का क्या, हर समय टोकाटाकी. अपनी बेटी तो जैसे दिखाई ही नहीं देती,’’ दामिनी भुनभुनाती.

ऊपर की मंजिल में भी कमरे हैं. वहां भी हर कमरे में 2-2 लड़कियां हैं. उन की अपनी दुनिया है पर आंटी की आवाज होस्टल के हर कोने में गूंजा करती है.

आज छुट्टी है. लड़कियां देर तक सोएंगी. जवानी की नींद जो है. नीलिमा एक बार झांक गई हैं.

‘‘ये लड़कियां क्या घोड़े बेच कर सो रही हैं,’’ बड़बड़ाती हुई नीलिमा सुरेखा के कमरे के पास से गुजरीं.

सुरेखा की नींद खुल गई. उसे उन की यह बेचैनी अच्छी लगी.

‘‘अपनी बेटी को उठा कर देखें ये… बस, यहीं घूमती रहती हैं,’’ सुरेखा ढीठ हो लेटी रही. जैसे ऐसा कर के ही वह नीलिमा को कुछ जवाब दे पा रही हो.

उधर होस्टल गुलजार होने लगा. गुसलखाने के लिए चिल्लपौं मची. फिर सबकुछ ठहर गया. कुछ कार्यक्रम बने. मीना की चचेरी बहन लक्ष्मीनगर में रहती है. वहीं लंच का कार्यक्रम था इसलिए सुरेखा और मीना भी चली गईं.

एकाएक दामिनी ने चमक कर अर्चना से कहा, ‘‘चल, बाहर से फोन करते हैं. अरविंद को बुला लेंगे. फिल्म देखने जाएंगे.’’

‘‘अरविंद को बुलाने की क्या जरूरत.’’

‘‘लेकिन अब कौन सा शो देखा जाएगा. 6 से 9 के ही टिकट मिल सकते हैं,’’ अर्चना ने घड़ी देखते हुए कहा.

‘‘तो क्या हुआ?’’ दामिनी लापरवाही से बोली.

‘‘नहीं पागल, आंटी नाराज होंगी…. लौटने में समय लग जाएगा.’’

‘‘ये आंटी बस हम पर ही गुर्राती हैं. अपनी बेटी के लक्षण इन को नहीं दिखते. रोज एक गाड़ी आ कर दरवाजे पर रुकती है… आंटी ही कौन सा दूध की धुली हैं… बड़ी रंगीन जिंदगी रही है इन की.’’

अर्चना, दामिनी और अरविंद ‘दिल से’ फिल्म देखने हाल में जा बैठे. खूब बातें हुईं. अरविंद दामिनी की ओर झुकता जाता. सांसें टकरातीं. शो खत्म हुआ.

कालिज तक अरविंद दोनों को छोड़ने आया था. वहां से दोनों टहलती हुई होस्टल के गेट तक आ गईं. गेट खोलने को हलका धक्का दिया. चूं…चूं… की आवाज हुई.

‘‘तैयार हो जाओ डांट खाने के लिए,’’ अर्चना ने फुसफुसा कर कहा.

‘‘ऊंह, क्या फर्क पड़ता है.’’

गेट खुलते ही सामने नीलिमा घूमते हुए दिखीं. सकपका गईं दोनों लड़कियां.

‘‘आंटी, नमस्ते,’’ दोनों एकसाथ बोलीं.

‘‘कहां गई थीं?’’

‘‘बहुत मन कर रहा था, ‘दिल से’ देखने का,’’ अर्चना ने मिमियाती सी आवाज में कहा.

‘‘यही शो मिला था फिल्म देखने को?’’

‘‘आंटी, प्रोग्राम देर से बना,’’ दामिनी ने बात संभालने की कोशिश की.

‘‘मैं कुछ नहीं जानती. होस्टल का डिसीपिलिन बिगाड़ती हो. आज ही तुम्हारे घर पत्र डालती हूं,’’ नीलिमा यह कहती हुई अपने कमरे की ओर चली गईं.

दामिनी कमरे में आते ही धम से बिस्तर में धंस गई और अर्चना गुसलखाने में चली गई.

‘‘कुछ खानावाना भी है या अरविंद के सपनों में ही रहेगी,’’ अर्चना ने दामिनी को वैसे ही पड़ी देख कर पूछा.

दामिनी वैसे ही मेज पर आ गई. राजमा, भिंडी की सब्जी और चपातियां. दोनों ने कुछ कौर गले के नीचे उतारे. पानी पिया.

‘हेमलेट’ के नोट्स ले कर अर्चना दिन गंवाने का अपराधबोध कुछ कम करने का प्रयास करने लगी. उसे पढ़ता देख दामिनी भी रैक में कुछ टटोलने लगी. सभी के कमरों की लाइट जल रही है.

‘‘जाऊंगी, सौ बार कहती हूं मैं जाऊंगी,’’ आंटी के कमरे की ओर से आती आवाज सन्नाटे को चीरने लगी.

बीचबीच में ऐसा कुछ होता रहता है. इस की भनक सभी लड़कियों को है. आज संवाद एकदम स्पष्ट है.

बेटी की आवाज ऊंची होते देख आंटी को जैसे सांप सूंघ गया. वह खामोश हो गईं. बेटी भी कुछ बड़बड़ा कर चुप हो गई.

सुबह रात्रि के विषाद की छाया आंटी के चेहरे पर साफ झलक रही है. नियमत: वह होस्टल की तरफ आईं पर बिना कुछ कहेसुने ही चली गईं.

फाइनल परीक्षा अब निकट ही है. सुरेखा और मीना प्रेक्टिकल के बोझ से दबी रहती हैं. देहरादूनी लड़कियों को उन्हें देख कर ही पता चला कि गृहविज्ञान कोई मामूली विषय नहीं है. उस पर इस विषय के कई अभ्यास देखे तो आंखें खुल गईं. विषय के साथसाथ सुरेखा और मीना भी महत्त्वपूर्ण हो गईं.

आजकल दामिनी भी सैरसपाटा भूल गई है पर दिल के हाथों मजबूर दामिनी बीचबीच में अरविंद के साथ प्रोग्राम बना लेती है. पिछले दिनों उस के बर्थ डे पर अरविंद एंड पार्टी ने उसे सरप्राइज पार्टी दी. बड़े स्टाइल से उन्हें बुलाया. वहां जा कर दोनों चकरा गईं. सुनहरी पन्नियों की बौछार, हैपी बर्थ डे…हैपी बर्थ डे की गुंजार.

रात के 11 बज रहे हैं. दामिनी और अर्चना ‘शेक्सपियर इज ए ड्रामाटिस्ट’ पर नोट्स तैयार कर रही हैं. दोनों के हाथ तेजी से चल रहे हैं. बगल के कमरे से छन कर आती रोशनी बता रही है कि सुरेखा और मीना भी पढ़ रही होंगी. यहां पढ़ने के लिए रात ही अधिक उपयुक्त है. एकदम सन्नाटा रहता है और एकदूसरे के कमरे की दिखती लाइट एक प्रतिद्वंद्विता उत्पन्न करती है.

बाहर से कुछ बातचीत की आवाज आ रही है. आंटी की बेटी आई होगी. धीरेधीरे सब की श्रवण शक्ति बाहर चली गई. पदचाप…खड़…एक असहज सन्नाटा.

‘‘…अब आ रही है?’’ आंटी तेज आवाज में बोलीं, ‘‘फिर उस के साथ गई थी. मैं ने तुझे लाख बार समझाया है पर क्या तेरा भेजा फिर गया है?’’

‘‘आप मेरी लाइफ स्टाइल में इंटरफेयर क्यों करती हैं? ये मेरी लाइफ है. मैं चाहे जिस तरह जिऊं.’’

‘‘तू जिसे अपना लाइफ स्टाइल कह रही है वह एक मृगतृष्णा है, जहां सिर्फ तुझे भटकाव ही मिलेगा. तू मेरी औलाद है और मैं ने दुनिया देखी है इसलिए तुझे समझा रही हूं. तू समझ नहीं रही है…’’

‘‘मैं कुछ नहीं समझना चाहती. और आप समझा रही हैं…मेरा मुंह आप मत खुलवाओ. पापा से आप की दूसरी शादी…. पता नहीं पहले वाली शादी थी भी या…’’

‘‘चुप, बेशर्म, खबरदार जो अब आगे एक शब्द भी बोला,’’ आज नीलिमा अप्रत्याशित रूप से बिफर गईं.

‘‘चुप रहने से क्या सचाई बदल जाएगी?’’

‘‘तू क्या सचाई जानती है? पिता का साया नहीं था. 6 भाईबहनों के परिवार में मैं एकमात्र कमाने वाली थी. तब का जमाना भी बिलकुल अलग था. लड़कियां दिन में भी घर से बाहर नहीं निकलती थीं और मैं रात की शिफ्ट में काम करती थी. कुछ मजबूर थी, कुछ मैं नादान… यह दुनिया बड़ी खौफनाक है बेटी, तभी तो कह रही हूं…’’

नीलिमा रो रही हैं. वे हताश हो रही हैं. उन की व्यथा को सब लड़कियों ने जाना, समझा. सब ने फिर एकदूसरे को देखा किंतु आज वे मुसकराईं नहीं. Social Hindi Story

कहानी- सरोजिनी नौटियाल

Motivational Story: नई सुबह- क्या हुआ था कुंती के साथ

Motivational Story: शाम से ही कुंती परेशान थी. हर बार तो गुरुपूर्णिमा के अवसर पर रमेशजी साथ ही आते थे पर इस बार वे बोले, ‘‘जरूरी मुकदमों की तारीखें आ गई हैं, मैं जा नहीं पाऊंगा. तुम चाहो तो चली जाओ. वृंदाजी को भी साथ ले जाओ. यहां से सीधी बस जाती है. 5 घंटे लगते हैं. वहां से अध्यक्ष मुकेशजी का फोन आया था, सब लोग तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं.’’

‘‘पर जब तुम चल ही नहीं रहे हो तब मेरा जाना क्या उचित है?’’

‘‘तुम देख लो, बरसों से आश्रम में साल में 2 बार हम जाते ही हैं,’’ रमेशजी बोले.

तब कुंती ने वृंदाजी से बात की थी. वे तो जाने को पहले से ही तैयार थीं. वे स्वामी प्रेमानंदजी से मिलने वृंदावन पहले भी हो आई थीं. वहीं उन के बड़े गुरु महाराजजी का आश्रम था. वे बहुत गद्गद थीं, बोलीं, ‘‘बहुत ही भव्य आश्रम है. वहां विदेशी भी आते हैं. सुबह से ही रौनक हो जाती है. सुबह प्रार्थना होती है, भजन होते हैं फिर कीर्तन होता है. लोग मृदंग ले कर नाचते हैं.
कुंती, सच एक बार तू भी मेरे साथ चलना. ये अंगरेज तो भावविभोर ही हो जाते हैं. वहीं पता लगा था, इस बार गुरुपूर्णिमा पर स्वामी प्रेमानंदजी ही वहां अपने आश्रम पर आएंगे. बड़े महाराज का विदेश का कार्यक्रम बन रहा है. स्वामी प्रेमानंदजी तो बहुत ही बढि़या बोलते हैं. क्या गला है, लगता है, मानो जीवन का सार ही उन के गले में उतर आया है,’’ वृंदाजी बहुत प्रभावित थीं.

कुंती को बस में अच्छा नहीं लग रहा था. कहां तो वह हमेशा रमेशजी के साथ ही कार से जाती थी, किसी दूसरे का रत्ती भर एहसान नहीं. ठहरने की भी अच्छी जगह मिल जाती थी. सोनेठहरने की जगह अच्छी मिल जाए तो प्रवास अखरता नहीं.

पर इस बार उन्हें आते ही सब के साथ बड़े हौल में ठहरा दिया गया था. वहां, वह थी, वृंदाजी थीं तथा 10 महिलाएं और थीं. फर्श पर सब के बिस्तर लगे हुए थे. टैंटहाउस के सामान से उसे चिढ़ थी. उस ने मुकेश भाई से बात कर अपने लिए आश्रम की ही चादरें मंगवा ली थीं. उस ने अपना बिस्तर ढंग से जमाया, वहीं पास में अटैची रख ली थी. कुछ महिलाएं उज्जैन, इंदौर से आई थीं.

कुछ को तो वह पहचानती थी, कुछ नई थीं. तभी रमेशजी का फोन आ गया था. पूछ रहे थे कि रास्ते में तकलीफ तो नहीं हुई? वह क्या कहती, कहां अपनी कार, कहां रोडवेज की बस में यात्रा, तकलीफ तो होनी ही थी, पर अब कहने का क्या मतलब. वह चुप ही रह गई. तभी बाहर से वृंदाजी ने आ कर कहा, ‘‘बाहर जानकी बाई आई हैं, तुम्हें बुला रही हैं.’’

‘‘वे कब आईं?’’

‘‘कल ही कार से आ गई थीं. वे दूर वाले कौटेज में ठहरी हैं.’’

‘‘हूं. वे कार से आई हैं, उन्हें कौटेज में ठहराया गया है, हमें इस हौल में. तभी बताने आई हैं, चलती हूं,’’ वह धीरे से बोली. बाहर कुरसियां लगी हुई थीं, जानकी बाई वहीं बैठी थीं. आश्रम में सभी उन को जानते थे. जब बड़े महाराजजी थे तब जानकी बाई का ही सिक्का चलता था. वे बड़े महाराजजी की शिष्या थीं. वे एक प्रकार से आश्रम पर अपना अधिकार समझती थीं.

कुंती को देखते ही बोलीं, ‘‘तू कब आई, कुंती?’’

‘‘अभी दोपहर में.’’

‘‘तो मेरे ही पास आ जाती, वहां बहुत जगह है.’’

‘‘पर आप के साथ…’’

‘‘सुशील है, उस के दोस्त हैं, इतनी दूर से आते हैं, तो लोग आ ही जाते हैं. पर तू तो ऐडजस्ट हो जाती.’’

‘‘आप की मेहरबानी, पर मेरे साथ वृंदाजी भी आई हैं. हम लोग बस से आए हैं. वहीं से सब पास रहेगा. आप के पास तो गाड़ी है. हमें आनेजाने में यहां से दिक्कत ही होगी, हम वहीं ठीक हैं,’’ कुंती ने कहा. तभी छीत स्वामी उधर ही आ गए थे. वे रसीद बुक ले कर भेंट राशि जमा कर रहे थे.

‘‘भाभीजी, आप आ गईं, अच्छा ही हुआ, वकील साहब का फोन आ गया था. रास्ते में कोई दिक्कत तो नहीं आई, मैं ने उन्हें बता दिया था, समाधि के पास ही बड़े हौल में ठहरा दिया है. वहां टौयलेट है, पंखे भी हैं. रसोईघर पास ही है. हम लोग वहीं हैं.’’

‘‘हां, वह सब तो ठीक है,’’ कुंती बोली.

‘‘स्वामी प्रेमानंदजी कब तक आएंगे?’’ वृंदाजी ने पूछा.

‘‘सुबह तक तो आना ही है, उन का फोन आ गया था. वह प्रवास पर ओंकारेश्वर में थे, रास्ते में दोएक जगह रुकेंगे. इस बार कुंभ का मेला है, वहां भी अपना पंडाल लगेगा. उस की व्यवस्था भी देखते हुए आएंगे,’’ छीत स्वामी बोले. आश्रम में भारी भीड़ थी. गांव वालों में भारी उत्साह था.

भंडारे में सामूहिक भोजन तो होता ही है. छोटामोटा जरूरत का सामान बिक जाता है. अब गांवों में शहर वालों के लिए और्गेनिक फूड की जरूरत को देखते हुए दुकानें भी लग जाती हैं. बाहर चाय की दुकानें लग गई थीं. बच्चों के झूले और गुब्बारे वाले भी आ गए थे. पास का दुकानदार आश्रम की और बड़े महाराज की तसवीर फ्रेम करा कर बेच रहा था. जहां कार्यक्रम होना था वहां लाउडस्पीकर पर अनूप जलोटा, हरिओम शरण के गीत बज रहे थे.

पास के स्कूल के समाजसेवी अध्यापकजी बच्चों की टोली के साथ इधर ही आ गए थे, वे झंडियां लगा रहे थे. आसपास के बुजुर्ग सुबह से ही अपनाअपना बैग ले कर आ गए थे, वे बाहर कुरसियों पर बैठे थे. वे लोग बड़े महाराजजी के जमाने से आश्रम में आ रहे थे. एक  प्रकार से आज मानो उन का यहां अधिकार ही हो गया था. वे बारबार सेवकों से चाय मंगवा रहे थे. लग रहा था, आज के वे ही स्वामी हैं. जो भी नया अतिथि आ रहा था, वह पहले उन से ही मिलता था, झुकता, उन के पांव छूता फिर आगे बढ़ता, फिर समाधि पर जाता. सब के पास अपनीअपनी बातें थीं.

बड़े महाराज की ख्याति आसपास के गांवों में थी. उन के जाने के बाद यहां एक समिति बन गई थी. मुकेश भाई अध्यक्ष बने, पर वे सशंकित रहे, कल कोई आ गया तो? फिर अचानक उन को स्वामी प्रेमानंद मिल गए थे, उन्होंने निमंत्रण दे दिया. वे तब से यहां आने लग गए.

स्वामी प्रेमानंद का आश्रम वृंदावन में था. वे भक्तिमार्गी थे, जबकि यहां बड़े महाराजजी ज्ञानमार्गी थे, भक्ति मार्ग की यहां तब चर्चा ही नहीं होती थी. आश्रम में जमीन बहुत थी. बड़े महाराज के जाने के बाद स्थान खाली हो गया था. दूरदूर तक भक्त फैले हुए थे. हरिद्वार से संत आए थे, कह रहे थे बड़े महाराज उन्हीं के संप्रदाय के थे. प्रेमानंद तो दूसरे संप्रदाय का है. उस के अपने गुरु हैं. उस का यहां क्या लेनादेना? आसपास के संत, भगवाधारी प्रेमानंद के साथ थे, समिति के पदाधिकारी भी प्रेमानंद के साथ हो गए.

लोगों ने प्रेमानंद को ही यहां का स्वामी मान लिया था. समिति बनी हुई थी, जो बड़े महाराज बना गए थे. पर समिति के लोग प्रेमानंद के इशारे पर नाच रहे थे. उस ने यहां आते ही यहां के कर्मचारियों में पैसा बांटा, धार्मिक कर्मकांड किए. उस का गला बहुत अच्छा था. वह बहुत जल्दी लोकप्रिय हो गया. अब आश्रम में बड़े महाराजजी की समाधि थी, जहां चढ़ावा आता, उन की कुटिया थी, पर उस के बाहर स्वामी प्रेमानंद का शासन था. जहां गुड़ की भेली होती है वहां चींटे आ ही जाते हैं. यहां बहुत महंगी जमीन थी, चढ़ावा भी बहुत था. स्वामी प्रेमानंद जम गए थे. अपनी ओर से उन्होंने कई धार्मिक आयोजन किए.

छीत स्वामी ग्रामसेवक थे, बहुत कमा लिया था. जब शिकायतें हुईं, वे स्वैच्छिक रिटायर हो कर मुक्त हो गए थे. वे ही यहां स्वामी प्रेमानंद के पहले गृहस्थ शिष्य बन गए थे. प्रेमानंद के वे विश्वसनीय थे, वे ही आश्रम के कैशियर हो गए थे. प्रेमानंद का मोबाइल उन के ही पास रहता था. उन्हें उन के बारे में पूरी खबर रहती थी.

रमेशजी का बड़े महाराज से बहुत स्नेह था. वे उन के समय में दोचार महीने में एक बार आ ही जाते थे. अब तो आना कम हो गया है पर उन की धार्मिक भावना उन्हें कचोटती रहती है. समिति के अध्यक्ष मुकेशजी ही स्वामी प्रेमानंद के साथ उन के घर गए थे ताकि पहले की तरह आनाजाना शुरू हो जाए.

आश्रम के नए निर्माण पर उन्होंने पैसा भी लगाया था. वे जब भी आते थे, कौटेज में ही उन के ठहरने की व्यवस्था होती थी पर आज जब वे नहीं आए, उन्होंने कुंती को बस से भेज दिया. छीत स्वामी ने उन्हें सूचित कर दिया कि सभी महिलाओं को पूरी सुविधा से सुरक्षित रखा गया है. सुबह तक स्वामीजी आ जाएंगे, तभी पूजा है. 12 बजे भंडारा है, उस के बाद वापसी की बस मिल जाएगी. कोई दिक्कत नहीं होने पाएगी.

आश्रम के बाहर ही कुंती को जगन्नाथजी मिल गए थे. वे अपनी पत्नी के साथ आए हुए थे. वे बता रहे थे कि वे यहां पिछले 50 साल से आ रहे हैं. तब यहां एक छोटी सी कुटिया थी जहां बड़े स्वामीजी विराजते थे. तब वहां बहुत कम लोग आते थे. सुबह एक बस आती थी. वह आगे निमोदा तक जाती थी. वहीं से वह दोपहर में लौटती थी. वहां से आगे बस मिलती थी. पर अब तो सब बदल गया है.

जमीन तो तब भी यही थी, पर अब जमीनों का भाव बहुत बढ़ गया है. अब तो एक बीघा जमीन भी 50 लाख रुपए की है. अब आश्रम में झगड़ा पूजापाठ को ले कर नहीं, संपत्ति को ले कर है. तभी उधर कौटेज से भगवा वेश में काली दाढ़ी पर हाथ फिराता हुआ एक संन्यासी पास आता दिखाई दिया. कुंती उसे देख कर चौंकी, वह उस के पांव छूने के लिए आगे बढ़ गई.

‘‘रहने दे, कुंती, रहने दे, यह साधुसंत नहीं है,’’ जगन्नाथजी धीरे से बोले.

‘‘पर यह तो…,’’ कुंती ने टोका.

‘‘यह तो प्रेमानंदजी का पुराना ड्राइवर है.’’

‘‘ड्राइवर!’’ कुंती चौंक गई.

‘‘हां, ड्राइवर क्या उन का बिजनैस पार्टनर है. मैं तो यहां 7 दिन पहले ही आ गया था, पर पता लगा कौटेज में यही एक माह से ठहरा हुआ है. एक महिला भी है, पर वह बहुत कम बाहर निकलती है. सुना यही है, इस ने या इस के बेटे ने महोबा में कोई कत्ल कर दिया है, या इस के परिवार के साथ कुछ घटना ऐसी ही घटी है. कुछ सही पता नहीं, यही यहां रुका हुआ है. आश्रम का मेहमान है.’’

‘‘किसी ने मना नहीं किया?’’ कुंती ने टोका.

‘‘मना कौन करता? समिति के सभी लोग स्वामी प्रेमानंद के हो गए हैं. मुकेश भाई को प्रेमानंद ने फोन कर दिया था. छीत स्वामी ही सारी व्यवस्था देख रहे हैं. अब तो दान भी यहां बहुत आने लग गया है. बड़े महाराज के जमाने में बहुत ही कम लोग आते थे, अब तो भीड़ रहती है.

‘‘समाधि के आसपास इमारतें बनेंगी. ठेकेदार आया है. कल भंडारा है. 10 हजार आदमी होंगे. भंडारा दिन भर चलेगा. लोगों में श्रद्धा है. चढ़ावा कल ही लाखों में आ जाएगा. खर्च है क्या, हिसाब सब प्रेमानंद ही रखते हैं. 2-4 महात्माओं को वे साथ ले आते हैं. उन्हें हजारों की भेंट दिलवा देते हैं फिर वे महात्मा उन्हें भेंट दिलवा देते हैं. अब धर्म तो रहा नहीं. धंधा ही सब जगह हो गया है.’’

‘‘पर यह ड्राइवर?’’ कुंती ने टोका.

‘‘यही बता रहा था, यह उन का बिजनैस पार्टनर है. इन की बसें चलती हैं. कह रहा था, जो नई बड़ी गाड़ी प्रेमानंद के पास है वह इसी ने दी है.’’ कुंती अवाक् थी. रमेशजी ने तो कभी यह बात उसे नहीं बताई. वे तो वकील हैं. संस्था के उपाध्यक्ष भी हैं. शायद जानते होंगे, तभी नहीं आए, फिर मुझे क्यों भेज दिया? सवाल पर सवाल उस के मन में उभर रहे थे. गांवों की औरतें गीत गाते हुए आने लग गई थीं.

पास ही व्यायामशाला में जोरशोर से धार्मिक आयोजन शुरू हो गया था. लाउडस्पीकर पर कोई भक्त बारबार कह रहा था, स्वामी प्रेमानंद सुबह तक आ जाएंगे. उन के साथ उज्जैन से भी साधुसंन्यासी आ रहे हैं. लोगों में उत्सुकता थी.

‘जगन्नाथजी तो कह रहे थे, वे रात को ही आ जाएंगे. फिर माइक पर बारबार यह क्यों बोला जा रहा है, वे सुबह आएंगे,’ कुंती चौंकी. भोजन बाहर ही बड़े आंगन में हो गया था. बहुत भीड़ थी. जैसेतैसे उस हौल में आई. उस फर्श पर बिछे गदेले पर लेट गई. वृंदाजी तो लगभग सो गई थीं.

घर पर बड़ा सा बैडरूम और यहां इस फर्श पर नींद थकावट के बाद भी नहीं आ रही थी. टैंटहाउस के 2 गद्दे उस ने बिछा लिए थे, बिस्तर भी पंखे के नीचे लगा लिया था. पर नींद को न आना था, न ही आई. वह उठ कर बाहर बरामदे की बैंच पर बैठ गई. दूर रसोईघर में देखा, लोग जग रहे हैं. लगा, वहां चाय बन रही है. उठी और रसोईघर की तरफ बढ़ गई. वहां छीत स्वामी अब तक जगे हुए थे.

‘‘अरे, आप सोए नहीं?’’ वह बोली.

‘‘अभी कहां से, मैं तो घर चला गया था, तभी वहां स्वामीजी का फोन आ गया था. बोले, हम लोग आ रहे हैं. आधे घंटे में पहुंच जाएंगे. व्यवस्था तो पहले से ही थी, पर चायदूध का इंतजाम देखना था. चला आया, पर आप तो विश्राम करो,’’ वे हंसते हुए बोले. ‘तो जगन्नाथजी सही कह रहे थे,’ कुंती बड़बड़ाई, ‘चलो, बाद में भीड़ हो जाएगी, महाराज से अभी ही मिलना हो जाएगा.’

वह आश्वस्त सी हुई. भीतर सब सो रहे थे. वह भी भीतर आ कर लेट गई. अभी झपकी लगी ही थी कि कारों के हौर्न व शोरशराबे से उस की नींद खुल गई. लगता है स्वामीजी आ गए हैं. वह उठी और दरवाजे के पास आ कर खड़ी हो गई. 2-4 गाडि़यां थीं. सामान था, जो उतारा जा रहा था. वहीं पेड़ के नीचे स्वामी आत्मानंद खड़ा हुआ था.

‘‘और आत्मानंद, कैसे हो?’’ स्वामी प्रेमानंद ने उस के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा.

‘‘सब आप की कृपा है.’’

‘‘भदोही कहला दिया है. पुलिस कप्तान अपना ही शिष्य है. वह कह रहा था, भंडारे की परसादी सब जगह जानी होगी. घबराओ मत, वारंट अभी तामील नहीं होगा. तुम पहले वहां जा कर रामभरोसी को पुटलाओ, काबू में करो. गवाह वही है. वह फूट गया तो फिर तुम्हारा कुछ नहीं होगा. यहां तो कोई दिक्कत नहीं हुई. समिति अपनी ही है. जब झंझट निबट जाए तो यहीं आ जाना. यहां के लोग बहुत धार्मिक हैं.’’

‘‘हां महाराज, सब  आप की कृपा है.’’

‘‘और सब ठीक है, देवीजी को तकलीफ तो नहीं हुई?’’ वे मुसकराते हुए बोले.

‘‘प्रसन्न हैं, आप मिल लें, आप की ही प्रतीक्षा में हैं.’’

‘‘तभी तो आधी रात को आया हूं,’’ वे हंसे. स्वामी प्रेमानंद सीधे कौटेज की ओर बढ़ गए, वहां देवीजी उन की ही प्रतीक्षा में थीं. आत्मानंद बाहर ही पेड़ के नीचे बैठ गया था. वह बैठा हुआ निश्ंिचत भाव से बीड़ी पी रहा था. कुंती अवाक् थी, यह क्या हो गया, क्या वह कोई सपना देख रही है या कुछ और. जब बड़े महाराज थे तब आश्रम कैसा था, अब क्या हो गया है? यह आत्मानंद उस का पति है या कुछ और.

उसे लगा उसे चक्कर आ जाएगा, वह निढाल सी बैंच पर ही पसर गई. सुबह पूजा होगी. प्रेमानंद के पांव पखारे जाएंगे. वह झूमझूम कर बड़े महाराज की प्रशंसा में गीत गाएंगे. लोग नाचेंगे. प्रार्थना होगी. कहा जाएगा, बड़े महाराजजी की समाधि की पूजा होगी. हजारों आदमियों का भंडारा होगा. कहा जाता है, भंडारा मुफ्त का भोजन होता है, पर गरीब से गरीब भी रोटी मुफ्त की नहीं खाता, वह भी भेंट करता है. यह भंडारा रहस्य है. हिसाब सब समिति के पास, समिति का हिसाब स्वामी प्रेमानंद के पास.

‘क्यों? तुम्हें अब भी मिलना है प्रेमानंद से?’ कुंती अपने ही सवाल पर घबरा गई थी. कौटेज के बाहर की लाइट बंद हो गई थी. अंदर हलकी नीली रोशनी थी. रोशनदान से प्रकाश बाहर आ रहा था. आत्मानंद उसी तरह बैठा हुआ बीड़ी फूंक रहा था. कुंती किस से कहे, क्या कहे, भीतर आई, वृंदा को जगाया. वृंदा गहरी नींद में थी. कुछ समझी, कुछ नहीं समझी. ‘‘तू भी कुंती…फालतू परेशान है, यह तो होता ही रहता है. इस पचड़े में हम क्यों पड़ें, चुप रह, सो जा, अब यहां नहीं आएंगे,’’ कह कर वह फिर सो गई. कुंती पगलाई सी बाहर बैठी थी. तभी उसे सामने से आते हुए छीत स्वामी दिखाई पड़े. उस ने उन्हें रोका.

‘‘भाई साहब, आप से एक बात कहनी है.’’

‘‘क्या?’’ वे चौंके.

‘‘भाई साहब, स्वामी प्रेमानंदजी आधी रात में सीधे उस कौटेज में…’’

‘‘तो क्या हुआ, वे स्वामीजी की भक्त हैं, इन दिनों परेशानी में हैं, उन की पूजा करती हैं. आप ज्यादा परेशान न हों, सोइए,’’ यह कह वे आगे बढ़ गए. सुबह उठते ही उस ने सोचा, रमेशजी को सारी बात बताई जाए पर वह फोन करती उस के पहले ही रमेशजी का फोन आ गया था.

‘‘क्या बात है, छीत स्वामी का फोन था, तुम रात भर सोईं नहीं, पागलों की तरह बाहर बैंच पर बैठी रहीं?’’

‘‘पर तुम मेरी सुनो तो सही,’’ कुंती बोली.

‘‘क्या सुनना, हर बात का गलत अर्थ ही निकालती हो, तुम नैगेटिव बहुत हो, दोपहर की बस से आ जाना, वहां सभी लोग तुम से नाराज हैं. मुकेश भाई बता रहे थे, तुम किसी पत्रकार से बात कर रही थीं. मेरी बात सुनो, चुप ही रहो, खुद परेशानी में पड़ोगी, मुझे भी परेशानी में डालोगी. उस इलाके के पचासों मुकदमे मेरे पास हैं. मुझे तंग मत करो.’’

‘‘पर वह ड्राइवर तो…तुम बात तो पूरी सुनो.’’

‘‘कह तो दिया है, जितना तुम ने जाना है वह ज्ञान अपने पास ही रखो. मैं नहीं चाहता, मैं किसी बड़ी परेशानी में पडूं. जो भी बस मिले, तुरंत वृंदाजी के साथ लौट आओ,’’ उधर से फोन कट गया था. कुंती अवाक् थी. उस के हजारों सवाल जो तारों की तरह टूटटूट कर गिर रहे थे, उसे किसी गहरे अंधेरे में खींच कर ले जा रहे थे, ‘क्या यही धर्म अब बच गया है? हम क्यों किसी दूसरे के पांवों में रेंगने वाले कीड़े की तरह हो कर रह गए हैं? बस, आलपिनों का ढेर मात्र ही हैं जो हर चुंबक की तरफ आ कर खिंचा चला जाता है. फिर हाथ में कुछ नहीं आता है, इस के विपरीत अपना आत्मविश्वास भी चला जाता है.

अपनी रोशनी, अपना विवेक है, मैं कब तक किस कामना की पूर्ति के लिए मारीमारी फिरूंगी?’ वह अपने सवाल पर खुद चकित थी. यह पहले हम ने क्यों नहीं सोचा? चारों तरफ से आया हुआ अंधेरा अचानक हट गया था. वह अपनी नई सुबह की नई रोशनी में अपनेआप को देख रही थी. वह लौटने के लिए अपनी अटैची संभालने में लग गई थी. Motivational Story

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें