Social Story in Hindi: मैं नंदिता हूं. हर आम कामकाजी महिला की तरह मेरी जिंदगी भी घड़ी के कांटों के इर्दगिर्द घूमती है. कांटों के कुछ ऐंगल जैसे रात के 8 बजे का ऐंगल मुझे बहुत पसंद है. जब मैं पलंग पर पसरी कभी विवेक तो कभी वीनू से फोन पर बतिया रही होती हूं. पर कुछ ऐंगल जिन में सर्वप्रमुख है सुबह 6 बजे का ऐंगल मुझे मुंह चिढ़ाता प्रतीत होता है. मोबाइल का अलार्म बजते ही आंख खुलती है और सामने दीवारघड़ी पर यह 6 बजे का ऐंगल मानो लंबी सी जीभ निकाले खड़ा होता है.
आज भी यही हुआ. उठने में सुस्ती भी नहीं चलेगी. कालेज में परीक्षाएं जो चल रही हैं. फटाफट ब्रश कर के गरम चाय का कप हलक के नीचे उतारा. अभी तो टिफिन भी तैयार करना था. सब्जियां टटोलीं तो बस मटर सही बचे थे. बाकी सारी सब्जियां कुम्हला गई थीं. जल्दीजल्दी वे ही छील कर छोंके और 2 परांठे सेंके. हाथों से भी ज्यादा तेजी से दिमाग चल रहा था. वहां घर पर इतना बड़ा फ्रिज खाली पड़ा होगा. कितने अरमानों से अलमारी जितना बड़ा फ्रिज खरीदा था. कल को वीनू की बहू भी आ जाएगी.
फिर उस के बच्चे होंगे. घर में सदस्य बढ़ते जाएंगे तो फ्रिज तो बड़ा चाहिएगा ही. तब किस ने सोचा था कि वीनू इंजीनियरिंग करने दूसरे शहर चला जाएगा, मैं नौकरी के सिलसिले में इस पिछड़े कसबे में आ पड़ूंगी और विवेक को कभी टिफिन तो कभी बाई के हाथ के खाने से गुजारा करना होगा. अब इच्छा होती है उस भीमकाय फ्रिज के 3 टुकड़े कर के 1-1 तीनों रख लें. टिफिन पैक कर तैयार हो कर मैं नीचे पहुंची. आंटी शायद मेरा ही इंतजार कर रही थीं पर चाबी के लिए नहीं, कटहल के कोफ्तों की रैसिपी के लिए.
मैं ने फुरती से कमरे की चाबी उन्हें पकड़ाई और गाड़ी निकालने लगी, ‘‘रैसिपी शाम को बताऊंगी, देर हो रही है.’’ ‘‘पर मुझे अभी लंच में बनानी है,’’ आंटी चिल्ला कर बोलीं. ‘‘तो काट कर छोंक लीजिए,’’ गाड़ी गेट के बाहर आ चुकी थी. मैं ने गियर बदला और निकल ली. दिमाग फिर चलने लगा… कटहल के कोफ्ते तो वीनू और विवेक को भी बहुत पसंद हैं. पर कितना वक्त हो गया तीनों को साथ बैठ कर खाना खाए. कभी वह छुट्टी ले कर पहुंचती है तो वीनू नहीं आ पाता.
जब वह आया हुआ होता है तो वह यहां से फ्री नहीं हो पाती. बात का सिरा कहीं से भी आरंभ हो मेरी सोच मुझे विवेक और वीनू पर ले जा कर ही छोड़ती है. रास्ते में फिर लोग मुझे अजूबे की तरह घूरघूर कर देख रहे थे. कितना वक्त हो गया है मुझे इस कसबे में आए लेकिन गांव वालों के लिए मैं आज भी देखनेदिखाने की चीज ही बनी हुई हूं. कटे बालों वाली, चुस्त सलवारकमीज पहने, गौगल्स लगाए, गाड़ी चलाती महिला बूढ़ों से ले कर बच्चों तक के लिए कुतूहल का विषय थी. मुझे आज भी याद है जब मैं नईनई यहां आई थी.
कसबेभर में मेरे आने की खबर जिस तेजी और उत्सुकता से एक कान से दूसरे कान तक पहुंची थी मुझे बचपन में पढ़ी कौमिक्स की कहानियां याद आ गई थीं. कैसे फैटम के जंगल में जब कोई अजनबी घुस आता था तो ढोलनगाड़ों से गुप्त संदेश एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाया जाता था और दावानल की तरह पलक झपकते सब जगह अजनबी के आने की सूचना पहुंच जाती थी. वीनू तो फोन पर यह सब सुन कर हंसतेहंसते लोटपोट हो गया था. कालेज पहुंच जाने पर ही विचारों का सिलसिला थम पाया था.
मैं ने तुरंत अपनी उड़नदस्ते वाली ड्यूटी संभाल ली थी. परीक्षाकक्ष का पहला चक्कर लगाते ही मेरी अनुभवी और तीक्ष्ण नजरों ने भांप लिया था कि कोने वाली लड़की सब की आंखों में धूल झंक कर परची से नकल करने का प्रयास कर रही है. दूसरे चक्कर में तो मैं ने उसे रंगे हाथों पकड़ ही लिया था. 1-1 कर वहां सब एकत्रित होने लगे. तब तक लड़की ने सब से नजरें बचा कर चालाकी से परची अपने अंत:वस्त्रों में छिपा ली. प्रिंसिपल के आते ही तो वह फर्श पर लेट गईं. मुंह से झग निकलने लगा और वह बेहोश हो गई.
अब सब मुझ ही पर हावी हो गए. यह सब देख कर मेरे तो हाथों के तोते ही उड़ गए. पर मैं ने हिम्मत से काम लिया. लड़की को उठा कर एक कोने में ले गई. उसे धमकाया कि मैं ने महिला पुलिस को बुलाया है. वह अभी आ कर सब के सामने तलाशी लेगी. सब के सामने इज्जत उतरने से बेहतर है मुझे अकेले में वह परची सौंप दो. मेरी इज्जत रह गई. लड़की मेरे पांवों में लोट गई. पुलिस के हाथों में न देने की गुहार लगाने लगी. मुझे लगा मैं एकाएक ही सब की नजरों में चढ़ गई हूं. पर मेरी गलतफहमी जल्द ही दूर हो गई.
लौटते समय मेरी साथी प्राध्यापिका मीता ने मुझ से कहा, ‘‘तूने आज बेकार की बहादुरी दिखा कर अच्छा नहीं किया नंदिता. तुझे नहीं मालूम ये कितने खतरनाक लोग हैं. पासा उलटा भी पड़ सकता था. मैं तो कहती हूं अब भी संभल कर रहना. तू औरत जात, अकेली और रहती है. कुछ ऊंचनीच हो गई तो?’’ ‘‘लेकिन वह सरेआम सब की आंखों में धूल झंक रही थी. कोई जिंदा मक्खी कैसे निगल सकता है?’’ मैं ने हलका सा प्रतिरोध किया. हालांकि घटना के बाद से मैं खुद भी काफी सहमी सी थी. ‘‘निगलनी पड़ती है. तू क्या समझती है हमें कुछ पता नहीं क्या हो रहा है? सब को पता है. प्रिंसिपल तक को पता है. पर ओखली में कौन सिर डाले? इसलिए मेरी मान, जैसा चलता है चलने दे.’’ ‘‘हूं,’’ मुझे लगा वह ठीक कह रही है.
सब्जीमंडी आ गई थी. मुझे याद आया घर में कोई ताजा सब्जी नहीं है. फ्रिज के अभाव में ज्यादा लेने से भी फायदा नहीं है. शाम के लिए एक लौकी ले लेती हूं. मैं ने गाड़ी में बैठेबैठे ही ठेले वाले से एक लौकी पकड़ाने को कहा. पर्स से पैसे निकाले. तब तक गाड़ी के आसपास हमेशा की तरह बच्चों, बड़ों का हुजूम उमड़ पड़ा था. मैं बुरी तरह खीज उठी कि समझ नहीं आता इन लोगों ने पहले कभी गाड़ी नहीं देखी या औरत नहीं देखी या फिर लौकी नहीं देखी? ‘‘गाड़ी चलाती औरत को लौकी लेते नहीं देखा,’’ मीता ने चुटकी ली. पर उस का यह परिहास भी मेरा मूड ठीक नहीं कर सका.
मैं ने सोच लिया था इस शनिवाररविवार की छुट्टी मैं विवेक के पास घर जाऊंगी और यह सरकारी नौकरी जारी रखनी चाहिए या नहीं इस पर उस से विचारविमर्श कर कोई ठोस निर्णय लूंगी. सारी समस्याएं सुन कर विवेक भी गंभीर हो गए. बोले, ‘‘एक बात तो साफ है तुम्हें आग से नहीं खेलना चाहिए था. वह पूरा इलाका दलित जाति का अड्डा है और तुम बता रही हो कि वह लड़की भी दलित जाति की है. वह तुम पर कोई भी संगीन आरोप लगा कर सलाखों के पीछे करा सकती थी…’’ ‘‘मुझ पर आरोप?’’ मैं हक्कीबक्की थी. ‘‘हां. मसलन, जातिसूचक शब्दों से संबोधित करने का, इज्जत उछालने का…’’ ‘‘ओह,’’ मेरे माथे पर पसीना छलक आया.
मेरी परेशानी भांप विवेक ने मुझे बांहों में भर लिया, ‘‘इतना घबराने की आवश्यकता नहीं है. बस, थोड़ा सा सावधान रहने की जरूरत है और वैसे तुम चाहो तो फिर से यहां वही अपनी प्राइवेट कालेज वाली नौकरी जौइन कर सकती हो.’’ विवेक की समझाइश मुझे काफी हद तक आश्वस्त कर गई थी. मैं ने सोच लिया था अब वैसी बहादुरी दिखाने की बेवकूफी नहीं करूंगी. जब किसी को कोई फर्क नहीं पड़ रहा तो मुझे क्या पड़ी है किसी कीफटे में टांग अड़ाने की? सरकार भी तो हर छोटेबड़े गांव में स्कूलकालेज खोल कर महज आंकड़ों की खानापूर्ति ही तो कर रही है.
वहां कैसी पढ़ाई होती है, कैसा परीक्षा परिणाम रहता है, कैसा वातावरण है यह सब जानने, सुधारने में उस की दिलचस्पी ही नहीं है. मोटी तनख्वाह का लालच प्राध्यापकों को वहां खींच तो लाता है पर वे भी पढ़ाने की महज खानापूर्ति कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं. खुद वह ही कहां अपवाद है? तीन गुनी तनख्वाह का लालच ही तो उसे उस पिछड़े कसबे में खींच ले गया था. ‘‘नंदी सुनो, तुम से एक बात और करनी थी. हमारे किराएदार रमन दंपती के बेटेबहू विदेश से लौट रहे हैं.
स्वदेश में कोई नौकरी मिलने तक वे यहीं रहेंगे. तो वे हमारा बैडरूम मांग रहे थे. क्व5 हजार तक किराया देने को तैयार हैं. मैं तो वैसे भी आजकल टीवी देखतेदेखते लौबी में दीवान पर ही सो जाता हूं. तुम कहो तो उन्हें हां कर दूं,’’ विवेक ने डरतेडरते पूछा था क्योंकि मेरे फट पड़ने की पूरी आशंका थी और ऐसा हुआ भी. ‘‘कैसी बातें करते हो तुम मैं आऊंगी तब? वीनू भी आता रहता है.
फिर कभी मैं…’’ मेरे मन का चोर एक बार फिर जाग उठा था, ‘‘मैं तो स्थाई रूप से यहां लौटने की सोच रही हूं और ये…’’ पर प्रत्यक्ष में मैं ने इतना ही कहा, ‘‘नहीं, मना कर देना.’’ रात की बस से मैं राजगढ़ लौट आई थी. गेट में घुसते ही मेरा माथा ठनक गया था. मेरी गाड़ी ठुकी हुई खड़ी थी. घर की और कार की एक चाबी आंटी के पास छोड़ आती थी. मेरी अनुपस्थिति में वे बाई से घर की सफाई करवा देती थीं. उन की गाड़ी निकालने, पोर्च धुलवाने आदि के लिए कार की एक चाबी भी मैं उन्हें दे आती थी. ‘‘आंटी, यह गाड़ी को क्या हुआ?’’ आंटी को सामने देख कर मैं ने पूछा.
वे एकबारगी तो मुझे सामने पा कर अचकचा गईं. फिर ‘‘मुझे नहीं मालूम, पहले से होगी’’ कहती हुईं कतरा कर अंदर चली गईं. तभी उन की विवाहित बड़ी बेटी बाहर आई, ‘‘दीदी, ये मुझे घुमाने ले गए थे, तभी ठुक गई थी. ठीक करा देंगे.’’ मगर मेरा मन खराब हो चुका था. कितनी मुश्किल से खुद को समझबुझ कर लौटी थी और आते ही… खैर, किसी तरह जल्दीजल्दी तैयार हो कर कालेज पहुंची. पहले पीरियड के बाद ही प्रिंसिपल सर ने बुला लिया. इधरउधर की बात करने के बाद वे मुद्दे पर आ गए. बोले, ‘‘नंदिताजी, उस दिन मैं ने कहना ठीक नहीं समझ था. इतने लोग खड़े थे. सब साक्ष्य भी आप के पक्ष में थे.
पर मैं आप का शुभचिंतक हूं और आप के हित के लिए ही कह रहा हूं कि कुछ चीजों को आप नजरअंदाज करना सीख जाएंगी तो आप के और हम सभी के लिए बेहतर होगा.’’ मैं उन का इशारा समझ रही थी. इस कटु सचाई को मैं पहले ही स्वीकार कर चुकी थी. पर बार बार सब की हिदायतों ने मुझे एक बार फिर खिन्न कर दिया था. क्या दुनिया में अच्छे काम करने पर पीठ थपथपाने वाला एक भी बंदा नहीं बचा है? हरकोई हतोत्साहित करने पर ही क्यों तुला हुआ है? खाली पीरियड में मैं ने वीनू को फोन लगाया. पता चला वह दोस्तों के संग छुट्टियों में दक्षिण भारत भ्रमण पर जा रहा है. ‘‘तू घर नहीं आएगा?’’ मैं ने बेचैनी से पूछा. ‘‘कौन से घर?’’ ‘‘कहीं भी. पापा के पास चला जा या यहां आ जा.’’ ‘‘वहां गांव में क्या देखने आऊं. भैंसें, तालाब और पापा के पास छुट्टी वाले दिन टाइम ही कहां होता है? सप्ताह भर के इकट्ठे कपड़े धोने बैठ जाएंगे. बाई से सफाई करवाएंगे. मुझे भी साथ लगा लेंगे.’’
मेरी चुप्पी से वह समझ गया कि मुझे बुरा लगा है. ‘‘लौटते में सप्ताह भर घर रुकूंगा न… आप भी वहीं आ जाना ममा. कितना वक्त हो गया है हमें साथ बैठे?’’ मैं फिर भीगने लगी थी. मन एक बार फिर क्या खोया क्या पाया के तराजू में उलझ कर बुरी तरह डांवांडोल होने लगा था. घर पहुंचने तक तो तेज सरदर्द उभर आया था. मैं चाय के साथ गोली ले कर लेट गई. कब रात का अंधेरा घिर आया आंख ही नहीं खुली. किसी ने दरवाजा खटखटाया तो मेरी चेतना लौटी, ‘‘कौन है?’’ मैं ने डरतेडरते पूछा. आंटी थीं.
वैजिटेबल बिरयानी की रैसिपी पूछ रही थीं. ‘‘आंटी, सिर में बहुत दर्द हो रहा है. सवेरे बताऊंगी.’’ मगर अब भी छुटकारा नहीं था. थोड़ी देर बाद ही उन की छोटी बेटी खाने की प्लेट ले कर हाजिर थी. मैं सोचने पर मजबूर हो गई थी. अधिकांश रिश्तों के अच्छेबुरे दोनों ही पक्ष होते हैं. इसलिए उन्हें निभाना हमारी मजबूरी बन जाती है. क्या यह नौकरी भी मेरी ऐसी ही मजबूरी नहीं है? सवेरे अलार्म बजने पर ही आंख खुली. आंच पर दूध चढ़ा मैं ब्रश करने लगी. मोबाइल में कोई एसएमएस आया था. कुल्ला कर के देखा. सैलरी आई थी. वाह, मुझे तो ध्यान ही नहीं रहा आज 31 तारीख है.
बेलैंस बढ़ कर फिर 2 लाख तक पहुंच गया था. मैं ने एफएम चला दिया. ‘आज मैं ऊपर, आसमां नीचे, आज मैं आगे, जमाना है पीछे…’ गाने की धुन के साथ मेरे हाथ तेजी से चलने लगे थे. दूध संभाला तो पता चला फट चुका था. पर आज मुझे फ्रिज न होने का कोई अफसोस नहीं था. जाते वक्त पतीली आंटी को पकड़ा दूंगी. पनीर बना लेंगी. मैं कालेज कैंटीन में कौफी पी लूंगी. नाश्ता भी साथ ही कर लूंगी. तो फिर क्यों न बाद में लंच भी वहीं ले लूं? चलो आज मैस बंद.
इत्मीनान से तैयार होती हूं. बहुत दिनों बाद आज मैं करीने से साड़ी बांध कर तैयार हुई थी. हमेशा तो भागतेदौड़ते कोई भी हाथ लगा सूट पहन कर निकल जाती थी. आंटी को पतीली पकड़ाई तो वे मुझे देखती रह गईं. ‘‘बिरयानी मैं शाम को ऊपर ही बना दूंगी आंटी,’’ मैं ने लजाते हुए कहा. ‘‘पर 2 लोग और भी हैं. खुशी को देखने आ रहे हैं.’’ ‘‘अरे वाह, सब के लिए बना दूंगी.’’ ‘‘ठीक है. तू फिर खाना हमारे साथ ही खाना और खुशी को तैयार भी तू ही करना. मैं इतने सलीके से साड़ी नहीं पहना सकती,’’ आंटी की आंखों में तैरते प्रशंसा के भावों ने मेरी सोच को उद्वेलित कर दिया था. दुनिया वाकई इतनी बुरी भी नहीं है. जीने का जज्बा होना चाहिए. तभी उन की बड़ी बेटी बाहर आई, ‘‘दीदी,ये शाम को आपकी गाड़ी ठीक करा लाएंगे.’’ ‘‘अरे जरूरत नहीं. अभी कालेज पहुंचते ही किसी लड़के को बोल दूंगी, करा लाएगा.’’ ‘‘पर पैसे हम ही देंगे.’’ ‘‘कर दी न छोटी बात. दीदी बोलती है तो फिर दीदी का मान रख,’’ मैं शान से गाड़ी निकालने लगी. तभी कुछ ध्यान आने पर मैं ने फोन लगाया, ‘‘हाय विवेक डार्लिंग, मैं सोच रही थी यह गाड़ी तो मैं ले आई. तुम्हें टू व्हीलर पर औफिस जाते परेशानी होती होगी तो एक गाड़ी और बुक करा लेते हैं.
इस की तो वैसे भी अंतिम किस्त है… और हां, वीनू के लिए भी एक बाइक बुक करा देना. बेचारे का बड़ा मन है. हां, ज्यादा तो हो जाएगा पर उस का उपाय भी मैं ने सोच लिया है. वे रमनजी बैडरूम के लिए कह रहे थे न तो थोड़ा ज्यादा किराए पर उन्हें हां कर दो. मैं आऊंगी तब लौबी में ही मैनेज कर लूंगी… ओ के, लव यू बेबी.’ निश्चिंत हो कर मैं ने गाड़ी स्टार्ट की. हमेशा की तरह कुछ अधनंगे बच्चों का हुजूम गाड़ी के पीछे उमड़ पड़ा था. पर आज मेरी पेशानी पर बल पड़ने के बजाय चेहरे पर मुसकराहट उभर आई थी. मैं ने उन्हें वेव किया तो वे और भी उत्साह से गाड़ी के पीछे दौड़ने लगे. मैं ने रेस बढ़ा दी. जिंदगी की भागती हुई गाड़ी के साथ कदम जो मिलाने थे.
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