Family Story: मैं शादी के लिए तैयार हूं

Family Story: शशि ने जब पायल से विवाह की बात दोबारा छेड़ी तो पायल ने कहा, ‘‘इस उम्र में विवाह? क्यों मजाक करती हो. लोग क्या कहेंगे?’’

शशि ने पहले भी कई बार पायल से विवाह की चर्चा की थी. आज फिर कहा, ‘‘अपने बारे में सोचो. आधा जीवन अकेले काट लिया. तुम्हारी परेशानी, अकेलेपन में कोई आया तुम्हारा हाल पूछने? और लोगों का क्या है, वे तो कुछ न कुछ कहते ही हैं. शादी नहीं हुई तब भी और हो जाएगी तब भी. कहने दो जिस को जो कहना है.’’

शशि अपने घर चली गई. दोनों सहेलियां थीं. एक ही कालोनी में रहती थीं. शशि विवाहित और 2 बच्चों की मां थी, जबकि 45 की उम्र में भी पायल कुंआरी थी. शशि के जाने के बाद पायल ने खुद को आईने में देखा. ठीक उसी तरह जैसे वह 20 साल की उम्र में खुद को आईने में निहारा करती थी. बालों को कईकई बार संवारा करती थी.

इधर कुछ सालों से तो वह आईने को मात्र बालों में कंघी करने के लिए झटपट देख लिया करती थी. पिछले कई वर्षों से उस ने खुद को आईने में इस तरह नहीं देखा. शशि शादी की बात कर के गई तो पायल ने स्वयं को आईने में एक बार निहारना चाहा. आधे पके हुए बाल, चेहरे का खोया हुआ जादू, आंखों के नीचे काले गड्ढे. स्वयं को संवारना भूल गई थी पायल. आज फिर संवरने का खयाल आया और आईने में झांकते हुए वह अपने अतीत में खो गई.

जब वह 20 साल की थी तब पिता की असमय मृत्यु हो गई थी. जवान होती लड़कियों की तरह स्वयं को भी आईने में निहारती रहती थी. मां को पेंशन मिलने लगी. लेकिन किराए के मकान में 2 बेटियों और 1 बेटे के साथ मां को घर चलाने में समस्या होने लगी. 2 लड़कियों की शादी और बेटे को पढ़ालिखा कर रोजगार लायक बनाना मां के लिए कठिन प्रतीत हो रहा था. पायल कालेज में थी और 5 साल छोटा भाई अनुज अभी स्कूल में था.

पिता की मृत्यु के बाद पायल ने नौकरी के लिए तैयारी करना शुरू कर दी. वह घर के हालात समझती थी और मां का हाथ भी बंटाना चाहती थी. कुछ दिनों बाद पायल की नौकरी लग गई. वह शिक्षा विभाग में क्लर्क बन गई. पायल को समझ ही नहीं आया कि नौकरी उस के लिए वरदान था या श्राप. मां ने भाईबहन की जिम्मेदारी उसे सौंप दी. पायल ने सहर्ष स्वीकार भी कर ली. पायल के लिए रिश्ते आते तो मां मना कर देती. कहती, ‘‘पहले छोटी की शादी हो जाए और बेटा अपने पैरों पर खड़ा हो जाए. उस के बाद पायल की शादी के बारे में सोचूंगी.’’

पायल की कमाई घर आने लगी तो भाईबहन के शौक बढ़ गए. मां भी दिल खोल कर खर्च करती. पायल ने भी भाईबहन और मां की इच्छाओं को हमेशा पूरा किया. 20 बरस की पायल की जवानी शुरू होते ही खत्म सी हो गई.

अब उसे एक ही सबक मां बारबार सिखाती, ‘‘अब तुम्हें अपने लिए नहीं, अपने भाईबहन के लिए जीना है.’’

जरूरतें व्यक्ति को स्वार्थी बना देती हैं. पायल को औफिस में देर हो जाती

या औफिस का कोई घर छोड़ने आता तो मां उस से पचासों सवाल करती. पायल क्या बात कर रही है, मां की नजरें और कान इसी पर लगे रहते.

मां कहती, ‘‘यह ठीक नहीं है. कोई प्यार की बीमारी मत पाल लेना. तुम कमाऊ लड़की हो. दसों लोग डोरे डालेंगे. लेकिन ध्यान रखना, तुम्हारे ऊपर परिवार की जिम्मेदारी है. फिर भी यदि करना ही चाहो तो कोई क्या कर सकता है? तुम्हारी खुशी में हमारी खुशी. हम अपना देख लेंगे.’’

मां की आंखों में आंसू भर आते और पायल को कई प्रकार से समझाते हुए कसम खानी पड़ती कि जब तक भाईबहन को किनारे नहीं लगा देती तब तक ऐसाकुछ नहीं होगा.

पायल जब 30 वर्ष की हुई तब रुचि की शादी हुई. रिश्ते बहुत आए लेकिन रुचि को पसंद नहीं आए. रुचि के अपने सपने थे. उस के सपनों का राजकुमार ढूंढ़ने में एक दशक लग गया. पायल जब उसे समझाती कि हम बहुत बड़े लोग नहीं हैं. इतने बड़े सपने मत पालो. अपने बराबर वालों में से किसी को पसंद कर लो. पायल की बात पर मां उलाहना देते हुए कहतीं, ‘‘समय लग रहा है तो लगे. रुचि को लड़का पसंद तो आना चाहिए. मन मार कर शादी करने का क्या अर्थ है? तुम्हें रुचि की शादी की इतनी जल्दी क्यों है? तुम चाहो तो…’’

पायल को चुप होना पड़ा. खातेपीते घर के इंजीनियर से शादी तय हुई तो उस के मुताबिक खर्च भी करना पड़ा. पायल को अपने पीएफ के अलावा विभागीय लोन भी लेना पड़ा. विवाह में अच्छाखासा खर्च हुआ. इस वजह से उसे 5 साल अपने वेतन से लोन चुकाना पड़ा.

यदाकदा आने वाले रिश्तों को भी यह कह कर अस्वीकृत कर दिया जाता कि बस भाई अपने पैर पर खड़ा हो जाए. फिर मांबेटे मिल कर पायल के हाथ पीले करेंगे. पायल ने आईना देखना छोड़ दिया. बस झट से कंघी कर के पीछे चोटी कर लेती. स्वयं को जी भर कर देखना ही भूल गई पायल. छोटा भाई अनुज बीटैक कर रहा था. पढ़ाई में होने वाला खर्चा पायल को ही प्रतिमाह भेजना था. शुरू में तो अनुज फोन पर अकसर कहता पायल से कि दीदी, एक बार मुझे नौकरी मिल गई फिर आप की शादी धूमधाम से करूंगा. लेकिन नौकरी मिलते ही वह अपनी नौकरी में व्यस्त हो गया.

मां की इच्छा थी कि एक बार बहू का मुंह देख लूं तो समझो गंगा नहा लिया. फिर कोई परवाह नहीं. पायल के विषय में नहीं सोचा मां ने. पायल को दुख तो हुआ लेकिन मां के कई कड़वे घूंट की तरह वह इसे भी पी गई. अनुज के लिए शादी के प्रस्ताव आने लगे थे. मां के अपने तौरतरीके थे लड़की पसंद करने के. दहेज, सुंदर लड़की… और इतने तामझाम से निबटने के बाद मां किसी लड़की को शादी के लिए पसंद करती तो अनुज के नखरे शुरू हो जाते. पायल 40 साल की हो गई. अपनी शादी के बारे में उस ने न जाने कब से सोचना बंद कर दिया. अनुज की शादी हुई तो अपनी पत्नी को ले कर वह मुंबई चला गया.

कुछ महीनों बाद मां चल बसी. मां की मृत्यु के बाद पायल अकेली रह गई. भाईबहन फोन करते या कभीकभार मिलने भी आते तो अकेली कमाऊ बहन के कुछ देने की बजाय उस से ही आर्थिक मदद मांगते.

पायल का तबादला हो गया नए शहर में. इस नए शहर में उसे शशि जैसी सहेली मिली. शशि को जब पायल के बारे में पता चला तो उस ने समझाया, ‘‘ठीक है तुम ने अपनी जिम्मेदारी निभाई, लेकिन अब तो सोचो अपने बारे में.’’

पायल कहती, ‘‘मेरी उम्र 45 साल के आसपास है. इस उम्र में शादी? लोग क्या सोचेंगे? मेरे भाईबहन, उन के रिश्तेदार क्या कहेंगे?’’

शशि कहती, ‘‘अब निकलो इस जंजाल से. तुम्हारे बारे में किस ने सोचा? तुम ने अपनी जिम्मेदारी निभाई. अब क्या तुम्हारे भाईबहन की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती या अब उन के बच्चों की जिम्मेदारी भी उठाने वाली हो? इस से पहले कि भाईबहन अपना बच्चा यह कह कर तुम्हारे पास छोड़ जाएं कि बहन तुम अकेली हो, मेरे बच्चे को रख लो. आप का मन लगा रहेगा और आप की देखभाल भी हो जाएगी, अच्छा होगा कि तुम अपना नया जीवन शुरू करो.’’

पायल ने स्वयं को काफी देर तक गौर से आईने में निहारा. उसे लगा जैसे

जिम्मेदारी के नाम पर छल किया गया हो उस के साथ. लेकिन शिकायत करे तो किस से करे? वह कमाती थी इसलिए जिम्मेदारी भी उसी की बनती थी. उस ने तय किया कि वह आज ही ब्यूटीपार्लर जाएगी.

शशि ने एक अधेड़ युवक से उस का परिचय करवाया था. युवक के चेहरे पर जिंदगी के पूरे निशान मौजूद थे. करीने से कटे और रंगे हुए बाल. उम्र को मात देने की भरपूर कोशिश करता हुआ उस का क्लीन शेव चेहरा और जींस टीशर्ट पहने हुए पूरी जिंदादिली के साथ जीता हुआ वह युवक रमेश था.

पहला विवाह असफल हो चुका था. चोट के निशान तो थे जीवन पर लेकिन भरपूर जीने के लिए मरहमपट्टी के साथ मुसकराता चेहरा था. अच्छी नौकरी में था. पायल से विवाह के लिए तैयार था. कई बार मिल भी चुका था. लेकिन पायल के मन में मोती बिखर चुके थे. वह हर बार कुछ न कुछ बहना बना कर टाल जाती. लेकिन आज जब उस ने स्वयं को आईने में निहारा तो अमृत की चंद बूंदें उस के चेहरे पर स्पष्ट झलक रही थीं. जीवन हर अवस्था में खूबसूरत रहता है. पायल ने शशि को फोन किया,

‘‘मैं विवाह के लिए राजी हूं.’’ शशि की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. रुचि और अनुज को जब उस ने अपने विवाह की बात बताई तो दोनों ने मिलीजुली बात ही कही.

‘‘दीदी इस उम्र में शादी? लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे? आप को सहारा ही चाहिए, तो मेरे बेटे को अपने पास रख लो.’’

‘‘मुझे सहारा नहीं जीवन चाहिए. मुझे जीना है. अपनी खुशी के लिए, अपने लिए.’’

रुचि और अनुज कुछ पल खामोश रहे. उन्हें अपने स्वार्थ का एहसास हुआ. दोनों ने कहा, ‘‘हम आप के विवाह में शामिल होने के लिए कब आएं. होने वाले जीजा से तो मिलाओ.’’

‘‘जल्दी खबर करती हूं,’’ पायल ने खुशी से चहकते हुए कहा. कोई आप के विषय में सोचे यह अच्छी बात है. न सोचे तो स्वयं सोचना चाहिए. अपनी खुशियां तलाशने का हक हर किसी को है. Family Story

Hindi Family Story: बहू मुबारक हो शैली

Hindi Family Story: पहियों की घड़घड़ाहट में अचानक ठहराव आ जाने से शैला की ध्यान समाधि टूट गई. अपने घर, अपने पुराने शहर, अपने मातापिता के पास 4 बरस बाद लौट कर आ रही थी. घर तक की 300 किलोमीटर की दूरी, अपने अतीत के बनतेबिगड़ते पहलुओं को गिनते हुए कुछ ऐसे काट दी कि समय का पता ही न चला.

पूरे दिन गाड़ी की घड़घड़ और डब्बे में कुछ बंधेबंधे से परिवेश में बैठे विभिन्न मंजिलों की दूरी तय करते उन सहयात्रियों में शैला को कहीं कुछ ऐसा न लगा था कि उन की उपस्थिति से वह जी को उबा देने वाली नीरस यात्रा के कुछ ही क्षणों को सुखद बना सकती. हर स्टेशन पर चाय, पान और मौसमी फलों को बेचने वालों के चेहरों पर उसे जीवन में किसी तरह झेलते रहने वाली मासूम मजबूरी ही दिखाई देती थी.

शैला घर जा रही थी. यह भी शायद उस की एक आवश्यक मजबूरी ही थी. 4 साल से हर लंबी छुट   ्टी में वह किसी न किसी पहाड़ी स्थान पर चली जाती थी. इसलिए नहीं कि वह उस की आदी हो गई थी, पर शायद इसलिए कि उसी बहाने वह अपने घर न जाने का एक बहाना ढूंढ़ लेती थी, क्योंकि घर पर सब के साथ रह कर भी तो वह अपने मन के रीतेपन से मुक्ति नहीं पा सकती थी. घर के लोगों के लिए भी शायद वह अपने में ही मगन, किसी तरह जिंदगी का भार ढोने वाली एक सदस्य बन कर रह गई थी.

25 वर्ष पहले एम.एससी. की पढ़ाई पूरी कर के शैला 1 वर्ष के लिए विदेश में रह कर प्रशिक्षण भी ले आई थी. भारत लौटते ही उस की मेधा में डा. रजत जैसे होनहार सर्जन की मेधा का मेल विवाह के पावन बंधन ने कर दिया था. सबकुछ मिला शैला को…प्यार, अपनत्व, विश्वास, सम्मान और रजत पर अपना संपूर्ण एकाधिकार.

27 वर्ष की आयु में ही डाक्टरी की कई उपाधियां ले कर रजत विदेश से लौटा था. शैला साल भर भी अपने जीवन के उन सुखद क्षणों को अपनी खाली झोली में भर कर संजो न पाई थी कि    डा. हरीश के यहां से डिनर से लौटते हुए रास्ते में कार दुर्घटना और फिर अंतिम क्षणों में रजत का शैला के हाथ को मुट्ठी में जकड़ कर चिरनिद्रा में सो जाना शैला कभी नहीं भूल सकती थी.

हर सफल आपरेशन के बाद रजत के चेहरे की चमक और स्नेहसिक्त आंखों से शैला को देख कर कहना, ‘शैला, तुम मेरी प्रेरणा हो,’ शैला के मन को कहां भिगो जाता, उस कोने को शैला शायद स्वयं अपनी खुशी के छिपे ढेर में ढूंढ़ न पाती.

तब से ले कर अब तक अपने सेवारत समय के 25 वर्ष शैला ने अपने हिसाब से तो बड़ी अच्छी तरह बिता दिए थे. इतना अवश्य था कि अपनी कठोर अनुशासनप्रियता या कुछ व्यक्तिगत आदर्शों की आलोचना, कभी अपने ऊपर लगाए कुछ झूठे सामाजिक आरोप, जो कभी उस के चरित्र से जोड़ कर लगाए जाते थे, वह सुनती थी. फिर समय ही सब स्पष्ट कर के कहने वालों के मुंह पर पछतावे की छाप छोड़ देता था.

शैला का सब सुनना और सब झेल जाना, अब उस का स्वभाव बन गया था. घर पर कभीकभी आना आवश्यक भी हो जाता था.

4 बरस पहले छोटी बहन सोनी की शादी में आई थी. वह भी बरात आने के 2 दिन पहले. सोनी की शादी के मौके पर ही छोटी भाभी ने पूछा था, ‘खूब पैसा जोड़ लिया होगा तुम ने तो शैला. क्या करोगी इतने धन का?’

शैला मुसकराई थी, ‘जोड़ा तो नहीं, हां, जुड़ गया है सब अपनेआप.’

किसी चीज की कमी नहीं थी उसे. उस के पास सभी भौतिक सुख के साधन थे और उस से बढ़ कर उस की सामाजिक प्रतिष्ठा और सम्मान था. पर जो कभी उस के रीते मन पर निरंतर हथौड़े की चोट करती थी.

उसे वह कभी कह भी तो नहीं सकती थी. उस ने बचपन का वह मस्त और आनंदपूर्ण रूप नहीं देखा था, जो अन्य भाईबहनों में था. कुछ ऐसे हालात रहे कि वह शुरू से ही हंसना चाह कर भी खुल कर हंस न सकी. नियमित, सीमित, अपनेआप से बंधा हुआ एक जीवन. कालिज में पढ़ती थी तो कभी अगर छोटा भाई उस की पेंसिल ले लेता था या ‘डिसेक्शन बाक्स’ से छुरी निकाल लेता था तो कभी दीदी का और कभी मां का यही स्वर सुनाई देता था, ‘देबू देख, अभी शैला आएगी, कैसी हायहाय मचा देगी.’

शायद शैला की गंभीरता ने ही उस घर में आतंक फैला दिया था. देबू के मन में शैला के प्रति पहले भय उपजा और फिर वही भय पलायन और कालांतर में आंशिक घृणा में बदल गया था. ऐसा शैला कभीकभी अब महसूस करती थी.

देबू अब डा. देवेंद्र था पर कभी उस ने शैला से खुल कर बातें नहीं की थीं. शैला चाहती थी कि देबू उस का पल्ला पकड़ कर उस से अपना अधिकार जताए और कहे, ‘दीदी, इस बार कश्मीर घुमा दो.’

‘ऐसा सूट बनवा दो.’

‘कुछ खिलातीपिलाती नहीं,’ आदि.

फिर अब तो देबू भी बीवी वाला हो गया था. सुंदरसलोनी बड़े ही सरल मन की सुनंदा उस की पत्नी थी. शादी के कुछ दिनों बाद ही देबू ने सुनंदा से कहा था, ‘नंदा, दीदी की खातिर यही है कि इन का कमरा बिलकुल ठीक रहे, इन की कोई चीज इधरउधर न हो.’

शैला के मन में कहीं चोट लगी थी. ठीक रहने को तो उस का खूबसूरत बंगला सवेरे से रात तक कई बार झाड़ापोंछा जाता था. उस के बगीचे के बराबर और कोई बगीचा पास में नहीं था. पर हर साल ‘पुष्पप्रदर्शनी’ में प्रथम पुरस्कार पाने वाले बगीचे के फूल क्या कभी उस के सूनेपन को महका सके थे?

ससुराल से उजड़ी मांग और सूने माथे पर सादी धोती का पल्ला डाल कर रोते वृद्ध ससुर के साथ जब शैला मांपिताजी के सामने अचानक आ कर तांगे से उतरी थी तो उस के सारे आंसू सूख चुके थे. चेहरा गंभीर था. निस्तेज ठहरी हुई आंखें थीं और वह अपने कमरे में आ गई थी. वह 1 वर्ष पहले छोड़े चिरपरिचित स्थान पर आ कर शांत हो कर बैठ गई थी, बस, ऐसे ही, जैसे एक यात्रा पर गई हो. उसी यात्रा में अपनी चिरसंचित निधि गंवा कर लौट आई हो.

फिर दूसरे वर्ष नैनीताल में साइंस कालिज की पिं्रसिपल हो कर चली गई थी. कुछ जीवन का खोखलापन और जीवन के प्रति विरक्तिपूर्ण उदासीनता में अगर कहीं आनंद की आशा और अपनत्व का कोई अंश था तो परेश.

परेश उस के बड़े भैया का बड़ा बेटा था. जबजब घर आई, परेश का आकर्षण उसे खींच लाया. जीवन के इतने मधुर कटु अनुभव ले कर भी अगर कहीं शैला ने अपने पूर्ण अधिकार का प्रयोग किया था तो वह परेश पर. घर वह आए या न आए, पर दूसरे क्लास की प्रगति रिपोर्ट से ले कर मेडिकल कालिज के तीसरे वर्ष तक का परिणाम उसे परेश के हाथों का लिखा निरंतर मिलता रहा था. उसी के साथ लगी हर पत्र में एक सूची होती थी जिस में कभी सूट, कभी घड़ी और कभी पिताजी से छिपा कर दोस्तों को पिकनिक पर ले जाने के लिए रुपयों की मांग.

परेश का इस प्रकार मांगना और अंत में ‘बूआजी, अब्दुल के हाथ जल्दी भिजवा देना’ वाक्य शैला को अपनत्व की कौन सी सुखानुभूति दे जाता था, वह स्वयं नहीं जानती थी. मातापिता को अगर कहीं शैला के प्रति संतोष था तो वह परेश और शैला के इस ममतापूर्ण संबंध को देख कर.

घर जाती थी तो इधरउधर के हाल ले कर फिर भैयाभाभी और उस की परेश को ले कर विविध समस्या समाधान की वार्त्ता. वह क्या खाता था, क्यों उस के साथ घर के अन्य बच्चों सा व्यवहार होता था, जब वह शैला का एकमात्र वारिस था आदि.

कभीकभी मजाक में भाभी कहती थीं, ‘परेश तो बूआ का हकदार है, बूआ का बेटा है.’

सुन कर शैला कितनी खुश होती थी. खून का रिश्ता कभी झूठा नहीं होता, न ही हो सकता है. उस के गंभीर चेहरे पर खुशी की एक रेखा सी खिंच जाती थी. जिस साल परेश का जन्म हुआ था, उस के 3 साल के अंदर शैला ने घर के 4-5 चक्कर लगाए थे, कुछ अनुभवी प्रौढ़ महिलाएं दबी जबान से शैला से हंसहंस कर कहती थीं, ‘दीदी, भतीजा ऐसी जंजीर ले कर पैदा हुआ है जिस का फंदा बूआ के गले में है. जरा सी जंजीर कसी और बूआजी चल पड़ती हैं घर की ओर.’

और शैला के चेहरे पर आ जाता था गर्वीला ममत्वपूर्ण भाव. वह हलके से मुसकरा कर कहती, ‘बहुत प्यारा है मेरा भतीजा. घर जाती हूं तो पल्ला पकड़ कर पीछेपीछे घूमता रहता है.’ इस वाक्य के साथ ही शैला एक आनंदमिश्रित तृप्ति का अनुभव करती थी. 3 बरस के बच्चे को उस से कितना प्यार था.

जब से परेश बड़ा हो कर सफर करने लायक हुआ था, शैला उसे छुट्टियों में लगभग हर वर्ष अपने पास बुला लेती थी और भूल जाती थी कि वह अकेली है.

कभी परेश कहता, ‘बूआजी, आज तो पिक्चर चलना ही है, चाहे जो हो.’  तब शैला परेश को टाल न पाती.

अब तो परेश पूरे 24 साल का हो गया था. डाक्टरी के अंतिम वर्ष में था. शैला शुरू से जानती थी कि अगर वह मुंह खोल कर कह देती तो बड़े भैया व भाभी परेश को स्वयं आ कर उस के पास छोड़ जाते. पर कहने से पहले जाने क्यों मन के कोने में कहीं एक बात उठती, ‘अपनी गोद तो सूनी थी ही. भाभी से परेश जैसा प्यारा और होनहार बेटा ले कर उस के मन में सूनापन कैसे भर दूं.’

इधर कई बार वह तैयार हो कर आती, भैया से कुछ कहने को. पर जहां बात का आरंभ होता, वह सब के बीच से हट कर स्नानघर में जा कर खूब रो आती. एक बार फिर रजत का वाक्य कानों में गूंज उठता, ‘शैला, कभी बेटा होगा तो उसे ऐसा अव्वल दरजे का सर्जन बनाऊंगा कि बाल चीर कर 2 टुकड़े कर देगा.’

कल्पना में ही दोनों जाने कितने नाम दे चुके थे अपने अजन्मे बेटे को. उन्हीं नामों में से एक नाम ‘परेश’ भी था. यह शैला के सिवा कोई नहीं जानता था. पर शैला के ये सब सपने तो रजत की मृत्यु के साथ ही टूट गए थे. भाभी को जब बेटा हुआ था तब अस्पताल में ही भरे गले, भारी मन से अतीत के घावों को भुला कर, शैला मुसकराते चेहरे से भतीजे का नाम रख आई थी, ‘परेश.’

आज 4 वर्ष बाद शैला घर आई तो परेश में बड़े परिवर्तन पा रही थी. कुछ आधुनिकता का प्रभाव, कुछ बदलते समय को जानते हुए भी शैला ने परेश पर अपना वही अधिकार और अपनी पसंद के अनुसार परेश को ढालने के प्रयासों में कोई कमी न की. लंबाचौड़ा, खूबसूरत युवक के रूप में परेश, शैला को स्टेशन लेने आया तो बस ‘हाय बूआ’ कह कर उस के हाथ से सूटकेस ले लिया. भविष्य की कल्पना में खोई शैला को परेश का वह व्यवहार कहीं भीतर तक साल गया. कार पर बैठते ही बोली, ‘‘क्यों रे परेश, अब ऐसा आधुनिक हो गया कि बूआ के पैर तक छूना भूल गया. देख तो घर पहुंच कर तेरी क्या खबर लेती हूं.’’

और शैला अधिकारपूर्ण अपनत्व की गरिमा से खिलखिला कर हंस पड़ी थी. पर शायद वह परेश के चेहरे पर आतेजाते भावों को देख न पाई थी.

15 दिन की छुट्टी पर आई थी शैला इस बार. भैयाभाभी हर खुशी उसे देने को उतावले नजर आते थे. मातापिता थके हुए, पर संतुष्ट मालूम होते थे. शैला दिन भर मातापिता के साथ बगीचे में बैठ कर, कभी पीछे नौकरों के क्वार्टरों में जा कर बूढ़े माली, चौकीदार, महाराज सब का हाल पूछती, तो कभी परेश से घंटों बातें करती.

परेश पास बैठता था, पर शाम होते ही अजीब सी बेचैनी महसूस करता और किसी न किसी बहाने वहां से उठ जाता था.

जाने से 5 दिन पहले यों ही घूमते- घूमते शैला, परेश के कमरे में पहुंच गई. पढ़ने की मेज पर तमाम किताबों, कागजों के बीच सिगरेट के अधजले टुकड़ों से भरी ऐश ट्रे थी. उस के नीचे एक मुड़ा रंगीन कागज रखा था. शैला ने उसे यों ही उत्सुकतावश उठा लिया. पत्र था किसी के नाम. लिखा था :

‘सोनाली, तुम्हें मैं कितना चाहता हूं, शायद मुझे अब यह लिखने की कोई जरूरत नहीं. मैं जानता हूं, मेरे उत्तर न देने पर तुम कितना नाराज होगी. कारण बस, यही है कि आजकल मेरी बूआजी आई हुई हैं, जो आज भी शायद 18वीं शताब्दी के कायदेकानूनों की कायल हैं. उन के सामने अभी तुम्हारा जिक्र नहीं करना चाहता. बेकार में आफत उठ जाएगी. मातापिता की कोई चिंता नहीं. वह तो आखिरकार मान ही जाएंगे. अंत में अपनी ही जीत होगी. पर बूआजी के सामने कुछ कहने की अभी हिम्मत नहीं है मेरी.

‘अब तुम ही समझ लो, ऐसे में कैसे तुम्हें घर ले जाऊं. पर वादा करता हूं कि उन के जाते ही मांपिताजी के पास तुम्हें ला कर उन्हें सब बता दूंगा और तुम्हें मांग लूंगा. बूआजी के रहते हुए ऐसा संभव नहीं है. समझ रही हो न? फिर यों भी मुझे कुछ तो आदर दिखाना ही चाहिए. आखिर वह मेरी बूआजी हैं. मैं क्षत्रिय और तुम ब्राह्मण, वह जमीनआसमान एक कर देंगी.’

और शैला वहीं पसीने में भीग गई थी. वह आंखों के सामने घिरते अंधेरे को ले कर कुरसी पकड़ कर किसी तरह बैठ गई थी. उस की आंखों के सामने, साड़ी का पल्लू पकड़ कर पीछेपीछे घूमने वाला परेश, फिर भविष्य की कल्पना में घोड़े पर चढ़ा दूल्हा परेश और जीवन की अंतिम घडि़यों में शैला की मृत्यु शैया के पास बैठा परेश अपने विभिन्न रूपों में घूम गया.

शैला वर्षों बाद स्नानघर में खड़ी हो कर रो रही थी. ऐसे ही जैसे बड़े अरमानों और त्यागों से जीवन की सारी संचित निधि से बनाया अपना घर कोई ईंटईंट के रूप में गिरता देख रहा हो. दिमाग पर बारबार लोहे की गरम सलाखें चोटें कर रही थीं.

‘आखिर वह मेरी बूआजी हैं… बूआजी…बस, और कुछ नहीं.’

तभी शैला के मन का एक कोना प्रश्नवाचक चिह्न बन कर सामने आ गया. क्या वह स्वयं जिम्मेदार नहीं थी परेश की उन भावनाओं के लिए? ठीक था, वह स्वयं अपने लिए अब तक समाज की परंपराओं और कहींकहीं खोखले आदर्शवाद को भी स्वीकारती आई थी. पर इस का अर्थ यह तो नहीं था कि वह उन्हें इस पीढ़ी पर भी थोपती रहेगी. क्यों वह इतनी उम्मीदें रखती थी परेश से? क्या हुआ जो वह आधुनिक ढंग से पहनता- घूमता था.

शैला अब सोचती थी कि शायद उस का उन छोटीछोटी बातों को गंभीर रूप देना ही उसे परेश से इतना दूर ले आया था. वह क्यों नहीं सोचती थी कि समाज बहुत आगे आ चुका है. ब्राह्मण, क्षत्रिय जैसे जातीय भेदभाव को सोचना क्या शैला जैसी पढ़ीलिखी, अच्छे संस्कारों में पलीबढ़ी स्त्री को शोभा देता था? शैला समझौता करेगी उस स्थिति से. वह उस नई पीढ़ी पर हावी होने का प्रयास नहीं करेगी. पुरानी लकीरों पर चलती आई जिंदगी को नया मोड़ दे कर, वह परंपरागत रूढि़यों व मान्यताओं की अंत्येष्टि स्वयं करेगी.

रात को खाने के बाद उस ने परेश को बगीचे में बुलाया. ओस से भीगी घास पर टहलती शैला का मन प्रफुल्लित था. परेश आया और चुपचाप खड़ा हो गया. शैला का हाथ उठ कर सहज ढंग से परेश के कंधे पर टिक गया. आंखों में सारा लाड़ उमड़ आया. बोली, ‘‘क्यों रे, परेश, मैं क्या इतनी बुरी हूं जो तू ने मेरी बहू को मुझ से छिपा कर रखा? यह बता, क्या मुझ से अलग हो पाएगा? मैं जानती हूं, अपनी बूआजी के लिए तेरा सीना फिर धड़केगा. बता, कहां रहती है सोनाली? यों ही ले आएगा उसे? बेटे, मेरे मन की आग तभी ठंडी होगी जब तू मुझे सोनाली के पास ले चलेगा. पहला आशीर्वाद तो मैं ही दूंगी उसे. तू शायद नहीं जानता कि मैं ने कितने अरमान संजोए हैं इन दिनों के लिए. मैं तेरी खुशी के बीच में कहीं भी ब्राह्मण, क्षत्रिय जैसी घटिया बात नहीं लाऊंगी.’’

और दूसरे दिन मेजर विक्रम के ड्राइंगरूम में भैयाभाभी और परेश के साथ बैठी शैला के सामने सौम्य, शालीन और सुंदर सी सोनाली ने प्रवेश किया. उस की मां ने उसे भाभी के सामने करते हुए उन के पैर छूने को कहा ही था कि भाभी ने सोनाली को बड़े प्यार से पकड़ कर शैला की तरफ करते हुए कहा, ‘‘इन का आशीर्वाद पहले लो. भले ही मैं ने परेश को जन्म दिया है, पर बेटा तो यह बूआ का ही है.’’

और शैला की आंखों से खुशी की ज्यादती से बहती आंसुओं की धारा उस के बरसों से जलते दिल को शीतलता देती चली गई.

परेश ने अपने पुराने दुलार भरे भाव से शैला को पकड़ते हुए इतना ही कहा, ‘‘बूआजी, आशीर्वाद दो कि तुम्हारे और अपने सब स्वप्न साकार कर सकूं.’’

शैला की सारी उदासी छिटक कर कहीं दूर जाने लगी और दूर होतेहोते उस की छाया तक विलीन हो गई. वह देख रही थी. उस की कल्पना में मृतक पति  डा. रजत की धुंधली छाया उभर आई. वह मुसकरा रहे थे. शायद कह भी रहे थे, ‘पुत्रवधू मुबारक हो शैली.? Hindi Family Story

Makeup Tips: इन 8 टिप्स से बनाएं Lipstick को लॉन्ग लास्टिंग

Makeup Tips: लिपिस्‍टिक लगाना भी अपने आप में एक कला ही होती है. लिपिस्टिक को होठों पर अप्लाय करना अपने आप में कोई कठिन कार्य तो नहीं है, पर लिपिस्‍टिक लगाने के लिए थोड़ी पसा तयारी करनी पड़ती है और साथ ही आपको प्रोडक्ट को चुनाव भी ध्यान से करना पड़ता है.

हम यहां कुछ टिप्स आपको दे रहे हैं, जिन्हें अपनाकर आप लिपिस्टिक को लंबे समय तक के लिए रख सकती हैं..

1. सबसे पहले आपको इस बात के लिए सुनिश्चित होना होगा कि आपके लिप्स पर कोई मृत त्वचा तो नहीं है. अगर ऐसा है तो इसे हटाने के लिए किसी अच्छे प्रोडक्ट का इस्तेमाल कर पहले होठों पर स्क्रब करें.

2. अब इसके बाद ऐसे लिप बाम का इस्तेमाल करें जिसमें तैल न हो.

3. लिपिस्टिक लगाने से पहले अपने होठों के ऊपर थोड़ा सा क्लिंजर लगा कर साफ करें और बाद में फाउंडेशन का प्रयोग करें. ये आपके लिपिस्टिक के सही रंग को निखारने में आपकी मदद करता है.

4. अगर आप किसी बोल्ड या गहरे रंग का लिपिस्टिक इस्तेमाल करना चाहती हैं, तो कंसीलर की मदद से अपने होठों को आउटलाइन करें. ऐसा करने से आपके लिप्स्टिक का रंग बाहर की तरफ नहीं फैलेगा.

5. लिप लाइनर का भी इस्तेमाल करें. यह लिप्स्टिक की अपेक्षा थोड़ा ड्राय होता है, जो लंबे समय तक आपकी लिपिस्टिक को बनाये रखने में मदद करता है.

6. अब इन लाइन्स के अंदर लिपिस्टिक को लगाएं. लिपिस्टिक लगाने के बाद एक टिश्यु लेकर इसे अपने होठों के उपर रखें और इसके उपर कोई मेकअप पाउडर लगालें. ये तरीका अक्सर फैशन शो में मॉडल्स अपनाया करती हैं. ये तरीका आपके लिपिस्टिक रंग को लंबे समय के लिए सेट करता है.

7. अब इसके उपर थोड़ा और लिपिस्टिक लगा लें. इसके बाद कोई अच्छी सा लिप-ग्लॉस अप्लाय करें और इसे फिनिशिंग टच दें.

8. क्या आपको पता है कि ऐसा कोई लिप ग्लॉस नहीं होता है जो पूरे दिन तक चलता हो. ऐसा करने के लिए आपको पूरे दिन इसका इस्तेमाल करते रहना पड़ेगा या फिर आप चाहें तो होठ के बीच में लिपिस्टिक की मात्रा को बढ़ाकर इसे एक ग्लॉसी लुक दे सकते हैं.

हम आपको बता देना चाहते हैं कि आपको लिपिस्टिक का उपयोग हमेशा ब्रश के साथ ही करना चाहिए. Makeup Tips

Intimate Hygiene: हर मौसम के लिए जरूरी टिप्स और उपाय

Intimate Hygiene: इंटीमेट हाइजीन को हर मौसम में अच्छी तरह से बनाए रखना बहुत आवश्यक है, यह न केवल व्यक्तिगत स्वास्थ्य के लिए, बल्कि समग्र स्वास्थ्य के लिए भी महत्वपूर्ण है. इंटीमेट हाइजीन को ठीक से फॉलो न करने पर बैक्टीरिया और फंगल इन्फेक्शन हो सकते हैं, जो जलन, खुजली और अन्य स्वास्थ्य समस्याओं का कारण बन सकते हैं. खराब इंटीमेट हाइजीन से मूत्र पथ के संक्रमण (UTI) और अन्य बीमारियां हो सकती हैं.

स्वच्छता बनाए रखने से बदबू और बेचैनी से बचा जा सकता है. इस बारें में विरार, नोवा आईवीएफ फर्टिलिटी की आईवीएफ एक्सपर्ट डॉ. ज्योत्सना पालगामकर कहती है कि हमारे यहाँ प्रमुख रूप से तीन मौसम की मार सबको झेलनी पड़ती है और हर मौसम में इंटीमेट हाइजीन को बनाए रखना जरूरी होता है. इंटीमेट हाइजीन को कभी भी निग्लेक्ट नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि बार – बार वेजाइनल इन्फेक्शन से आज की लड़कियों को आगे चलकर प्रेग्नेंसी में भी खतरा हो जाता है. कुछ सुझाव निम्न है.

मॉनसून में इंटीमेट हाइजीन

मॉनसून में इंटीमेट हाइजीन को बनाए रखना काफी मुश्किल होता है. इस मौसम में इसकी समस्या अधिक बढ़ने लगती है, क्योंकि इस समय वातावरण में नमी की मात्रा अधिक होती है, जिससे यूरिनरी ट्रैक्ट इन्फेक्शन की समस्या, महिलाओं में अधिक हो जाती है. गर्मी और पसीने की वजह से बेक्टेरिया के पनपने से वेजाइनल इन्फेक्शन का खतरा अधिक बढ़ जाता है.

  • इंटिमेट पार्ट को हमेशा ड्राइ रखें, क्योंकि लगातार बारिश होते रहने की वजह से कपड़ों को अच्छी तरह सूखाना एक समस्या हो जाता है, ऐसे में जो भी इनरवेयर पहने, वे अच्छी तरह से ड्राई हो, इसका ख्याल रखें, क्योंकि इस मौसम में अधिक पसीना आता है, ऐसे में इनरवियर के फैब्रिक ब्रीदेबल होनी चाहिए. सिंथेटिक फैब्रिक नमी को बाहर निकलने से रोकती है, जिससे इरीटेशन और फ्रिक्शन होता है, जो त्वचा के लिए भी ठीक नहीं. इसलिए ऐसे इनरवेयर या लौन्जरी को थोड़े समय के लिए ही पहने. इसके अलावा अगर आप बारिश में भींग चुकी है, तो घर आने पर तुरंत नहा लें और खुद को अच्छी तरह से सुखा लें.
  • इस मौसम में टाइट कपड़े पहनने से बचें, जिसमें स्किनी जींस और टाइट शॉर्ट्स को पहनना अवॉयड करें, इससे पसीने अधिक होते है और एयर फ्लो शरीर में ठीक से नहीं हो पाता, जिससे त्वचा में जलन और घर्षण होने लगता है. आरामदायक और ढीले कपडे इस मौसम में पहने. सोते समय भी आरामदायक हल्के शॉर्ट्स पहने, ताकि एयर फ्लो सही तरीके से हो सकें, जिससे जलन और घर्षण कम से कम हो.
  • बारिश के मौसम में खुद को हाइड्रेटेड रखना जरूरी होता है, अधिक मात्रा में पानी और फ्रूट जूस पियें, ताकि यूरिन सही मात्रा में हो और यूरिनरी ट्रैक साफ़ और हेल्दी रहे. पानी शरीर के टोक्सिन को बाहर निकालती है और बॉडी की पीएच वैल्यू को संतुलित रखती है. इस मौसम में गर्मी और नमी की वजह से पसीना अधिक आता है. इससे शरीर की बॉडी फ्लूइड कम हो जाती है, जिससे युरिनेट के समय जलन का अनुभव होता है, जो कई बार यूरिनरी ट्रैक्ट इन्फेक्शन का रूप ले लेती है.
  • मॉनसून में हेल्दी फ़ूड हैबिट को मेंटेन करना जरूरी होता है. अधिक स्पाइसी फ़ूड खाने से परहेज करें, एसिडिक फ़ूड पीएच के संतुलन को बिगाडती है, जिससे इंटिमेट एरिया से गन्दी बदबू आने लगती है. प्री और प्रोबायोटिक युक्त भोजन अधिक लें, जिसमें प्लेन दही, प्याज, लहसुन, स्ट्राबेरी, और हरी पत्तेदार सब्जियां जो वेजाइना में हेल्दी बेक्टेरिया को पनपने में मदद करती है और आपका इंटिमेट हेल्थ अच्छा रहता है.

गर्मी में इंटीमेट हाइजीन

गर्मी में हर व्यक्ति को पूरे दिन पसीना आता है, भले ही किसी को कम, तो किसी को ज़्यादा. पसीना सूखने के बाद भी हमारे शरीर पर जर्म्स रह जाते हैं.  जिसे तुरंत साफ़ करना चाहिए, वरना इंफेक्शन या एलर्जी होने का खतरा रहता है. इस मौसम में त्वचा को साफ़ रखना बहुत जरूरी है, इसलिए हर रोज हो सके तो दिन में दो बार अच्‍छे साबुन या लिक्विड का इस्‍तेमाल करते हुए नहाएं. गर्मियों का मौसम पसीना, रेशेज और कई तरह के इन्‍फेक्‍शन भी साथ लेकर आता है. इसलिए इस दौरान जरूरी है कि आप अपनी इंटीमेट हाइजीन पर खास ध्‍यान दें.

  • पसीने और बैक्टीरिया से अपने इंटीमेट एरिया को हमेशा साफ़ रखें.
  • नहाते व़क्त रोज़ गुनगुने गरम पानी से इंटीमेट एरिया को साफ करें, बाहरी कॉस्मेटिक प्रोडक्ट का जितना हो सकें, कम प्रयोग करें, इससे वेजाइना का नैचुरल PH वैल्यू डिस्टर्ब नहीं होता.
  • प्युबिक हेयर को हमेशा साफ़ करते रहें, वरना वहां बॉइल्स व बैक्टीरियल इंफेक्शन हो सकते हैं, लेकिन ध्यान रहें कि रेज़र का इस्तेमाल सावधानी से करें, छीलने से खुद को बचाए, पाउडर या क्रीम का प्रयोग न करें. जरूरत पड़ने पर बैक्टीरियल क्रीम लगाएँ.

डॉक्टर आगे कहती है कि आजकल की लड़कियां पीरियड्स के दौरान मेंस्ट्रुअल कप का अधिक प्रयोग करती है, कप को अच्छे से हल्के गरम पानी से धोकर प्रयोग करें, गीला पैंटी न पहने. इससे फंगल इन्फेक्शन, ईस्ट इन्फेक्शन आदि बढ़ जाते है. मैरिड लड़की अगर रिलेशन के बाद वेजाइना का प्रोपर क्लीन नहीं करती है, तो इन्फेक्शन का खतरा बढ़ता है.

सही इलाज न मिलने पर कई बार यही इन्फेक्शन यूट्रेस तक फैल जाता है, और गर्भाशय एरिया में इन्फेक्शन के अलावा पेलविक इंफलेमेटरी डीसीज होने पर यूट्रेस की ट्यूब ब्लॉक हो सकता है, अबॉर्शन हो सकता है और इंफर्टिलिटी बढ़ती है.

गर्मियों में पैड या टैम्पोन को हर 4 से 6 घंटे में जरूर बदलें, भले ही ब्लीडिंग कम हो. बहुत देर तक एक ही पैड इस्तेमाल करने से इंफेक्शन का खतरा बढ़ जाता है. पैड बदलने के बाद उस हिस्से को हल्के हाथों से पानी की मदद से साफ करें और टिशू से पोंछें.

इसके अलावा गर्मियों का मौसम पसीना, रेशेज और कई तरह के इन्‍फेक्‍शन भी साथ लेकर आता है. ज़्यादा देर तक टाइट अंडरवेयर्स या स्किन फिट जींस न पहनें. इससे पसीना बाहर नहीं निकल पाता और बैक्टीरिया को पनपने में मदद करता है. मोटापे के शिकार लड़कियों को फंगल इन्फेक्शन अधिक होता है, इसलिए वजन हमेशा कंट्रोल में रखें.

सर्दी के मौसम में इंटीमेट हाइजीन 

डॉ. ज्योत्सना आगे कहती है कि सर्दी के मौसम में गर्मी और मॉनसून की तुलना में इन्फेक्शन कम होता है, लेकिन सर्दी में ठंड की वजह से अधिकांश लोग हायजीन के प्रति लापरवाह हो जाते हैं. अधिक ठंड होने की वजह से कई बार वे नियमित गतिविधियों के साथ टालमटोल करना शुरू कर देते हैं. इस प्रकार की लापरवाही सबसे पहले इंटिमेट एरिया को प्रभावित करती है. यही वजह है कि विंटर सीजन में यूटीआई का रिस्क अधिक बढ़ जाता है.

  • सर्दी के मौसम में पसीना नहीं आता, जिसकी वजह से महिलाएं रिलैक्स हो जाती हैं और उन्हें लगता है कि बार-बार अंडर गारमेंट्स बदलने की आवश्यकता नहीं है. वहीं कुछ महिलाएं सोचती हैं कि एक दिन यदि वेजाइना को वॉश न किया जाए, तो कोई परेशानी नहीं होगी, लेकिन यह एक गलती सीधे यूईटीआई का कारण बन सकती है.
  • सर्दी ड्राई सीजन है और इस दौरान वेजाइना पहले से ही ड्राई होती है. जिसकी वजह से आपकी छोटी सी भी लापरवाही बैक्टीरिया और वायरस को अट्रैक्ट कर सकती है.
  • पूरी तरह से हाइड्रेटेड रहने की कोशिश करें, ठंड के मौसम में लोग पानी कम पीते है, जो सबसे बड़ी गलती होती है. इसकी वजह ठंड की वजह से प्यास का कम लगना. कम पानी पीने की वजह से उनमें तमाम स्वास्थ्य समस्याओं का खतरा बढ़ जाता है. खासकर डिहाइड्रेशन की वजह से महिलाओं में यूटीआई होने का खतरा बढ़ जाता है.
  • उचित मात्रा में पानी पीने से ब्लैडर में बैक्टीरिया का ग्रोथ नहीं होता और अनचाहे बैक्टीरियल ग्रोथ को फ्लश आउट करने में भी मदद मिलती है. इसके अलावा यह बॉडी से टॉक्सिक सब्सटेंस को बाहर निकाल देते हैं जिससे कि शरीर में किसी प्रकार के अनहेल्दी बैक्टीरिया का ग्रोथ नहीं होता. पर्याप्त मात्रा में पानी पिएं और खुद को हाइड्रेटेड रखें.
  • लंबे समय तक यूरिन को होल्ड बिल्कुल भी न करें, बहुत से लोगों में यूरिन होल्ड करने की आदत होती है. खास कर सर्दियों में लोग वॉशरूम जाने के आलस में लंबे समय तक पेशाब को रोके रहते हैं, जिसकी वजह से ब्लैडर में हानिकारक बैक्टीरिया का ग्रोथ बढ़ सकता है. वहीं ये यूरिनरी ट्रैक इन्फेक्शन का कारण बनता है. यदि आप ऐसी किसी भी परेशानी को बुलावा नहीं देना चाहती हैं, तो सर्दियों में भी वॉशरूम जाने में आलस न करें. यूरिन पास करने की इच्छा होने पर फौरन ब्लैडर खाली कर दें, ताकि किसी प्रकार की परेशानी का सामना न करना पड़े.
  • प्रॉपर हाइजीन मेंटेन करने के लिए सर्दियों में भी अपनी पैंटी को कम से कम दो बार जरूर बदलें. हर बार यूरिन पास करने के बाद वेजाइना को टिशु से आगे से पीछे की तरफ ड्राई अवश्य करें.
  • सर्दियों में वेजाइना ड्राई हो जाती है, जिसकी वजह से इचिंग और इन्फेक्शन का खतरा बना रहता है. इन स्थितियों से बचने के लिए वेजाइना को मॉइश्चराइज रखें. इसके लिए एंटीबैक्टीरियल और एंटी इन्फ्लेमेटरी गुणों से भरपूर कोकोनट ऑयल का इस्तेमाल कर सकती हैं. कोकोनट ऑयल की 4 से 5 बूंदे वेजाइना को अच्छी तरह से मॉइश्चराइज रहने में मदद करेंगी.
  • हालांकि, आजकल बाजार में तरह-तरह के वेजाइनल क्रीम्स उपलब्ध है, जिसे डॉक्टर की सलाह पर ही प्रयोग करें, क्योंकि इन्हें बनाने में केमिकल्स का इस्तेमाल किया जाता है, जो आपकी वेजाइना को मॉइश्चराइज करने की जगह इन्हें बैक्टीरिया और वायरस का घर बना सकते है.
  • वेजाइना को हर मौसम में पर्याप्त हवा की आवश्यकता होती है और उनकी त्वचा को भी खुलकर सांस लेने की आजादी मिलनी चाहिए. इसके लिए पूरे दिन वूलन और टाइट कपड़े पहन कर न रहे, कुछ देर ढीले और लूज कपड़े भी पहने.
  • डाइट में संतरा, जो विटामिन सी का एक समृद्ध स्रोत है, यह इम्यूनिटी को बढ़ावा देता है और यूरिन में एसिड के स्तर को सामान्य रखता है और इंफेक्शन फैलाने वाले बैक्टीरिया का ग्रोथ सीमित रहता है.

इस प्रकार इंटीमेट एरिया की हाइजीन को बनाए रखना एक आदत है, जिसे हर लड़की को छोटी उम्र से सीखना जरूरी है, ताकि किसी प्रकार की बीमारी का सामना उन्हे न करना पड़े. अगर कुछ समस्या है, तो समय रहते डॉक्टर की सलाह अवश्य लें. Intimate Hygiene

Hindi Family Story: गलतफहमी- बहन के बारे में समीर ने क्या जाना

Hindi Family Story: भारत और पाकिस्तान के बीच पुन: एक दोस्ती का पैगाम. एक बार फिर से दिल्लीलाहौर बस सेवा शुरू होने जा रही है. जैसे ही रात के समाचारों में यह खबर सुनाई दी, रसोई में काम करतेकरते मेरे हाथ अचानक रुक गए. दिल में उठी हूक के साथ मां की ओर देखा तो उन का सपाट व शांत चेहरा थोड़ी देर के लिए हिला और फिर पहले जैसा शांत हो गया. आज के समाचार ने मुझे 2 साल पीछे धकेल दिया. वे सारी घटनाएं, जिन्होंने इस परिवार की दुनिया ही बदल दी, मेरी आंखों के सामने सिनेमा की तसवीर की तरह घूमने लगीं.

हम 2 बहन और 1 भाई थे. मातापिता का लाड़प्यार हर पल हमें मिलता रहता था. मैं सब से छोटी थी. भैया व दीदी जुड़वां थे. दीदी मात्र 4 मिनट भैया से बड़ी थीं. बचपन से ही वे आपस में काफी घुलेमिले थे पर झगड़े भी दोनों में खूब होते थे.

मैं उन दोनों से 7 साल छोटी होने के कारण दोनों की लाड़ली थी. मुझे तो शायद याद भी नहीं कि मेरी लड़ाई उन दोनों से कभी हुई हो. संजय भैया पढ़ाई में काफी होशियार थे. यद्यपि दीदी भी पढ़ने में तेज थीं किंतु उन का मन खेलकूद की ओर अधिक लगता था. जिला स्तर पर खेलतेखेलते कई बार उन का चुनाव राज्य स्तर पर भी हुआ जोकि मां को कभी अच्छा नहीं लगा क्योंकि मुझे व दीदी को ले कर मां की सोच पापा से थोड़ी संकरी थी. खासकर तब जब दीदी को खेलने के लिए अपने शहर से बाहर जाने की बात होती थी, तब भैया का साथ ही मां और पापा के प्रतिरोध को हटा पाता था और इस तरह दीदी को बाहर जा कर खेलने का मौका मिलता था.

मलयेशिया की राजधानी क्वालालम्पुर में कई देशों की टीमें आई थीं. वहीं पर दीदी की मुलाकात अनुपम से हुई जो किसी पाकिस्तानी खिलाड़ी का रिश्तेदार था और उस के साथ ही क्वालालम्पुर आया था. दोनों की मुलाकात काफी दिलचस्प थी. दिन में दोनों एकसाथ कौफी पीने जाया करते थे. चेहरे के नैननक्श अपने जैसे होने के कारण दोनों ने एकदूसरे से बात करने में दिलचस्पी दिखाई. धीरेधीरे दोनों ने ही महसूस किया कि उन में दोस्ती के अलावा कुछ और भी है. इसी तरह 7 दिन की मुलाकात में ही उन का प्यार परवान चढ़ने लगा था. दीदी जब लौट कर आईं तो कुछ बदलीबदली सी थीं. मां की अनुभवी आंखों को समझते देर न लगी कि दीदी के मन में कुछ उथलपुथल मची है. मां के थोड़े से प्रयासों से पता चला कि दीदी जिसे चाहती हैं वह पाकिस्तानी हिंदू है. यद्यपि लड़का पाकिस्तान में इंजीनियर है पर वह पाकिस्तान से बाहर किसी अच्छी नौकरी की तलाश में है. कुल मिला कर लड़का किसी भी तरफ से अनदेखा करने योग्य न था. बस, उस का पाकिस्तानी होना ही सब के लिए चुभने वाली बात थी.

यहां भी भैया ने दीदी का साथ दिया. आखिर एक दिन हम सब को छोड़ कर दीदी अपने ससुराल चली गई. हालांकि पाकिस्तान के नाम से दीदी के मन में भी थोड़ा अलग विचार आया था लेकिन वहां ऐसा कुछ नहीं था. अनुपम के परिवार ने दीदी का खुले दिल से स्वागत किया. एक खिलाड़ी के रूप में दीदी की शोहरत वहां पर भी थी, तो तालमेल बैठाने में दीदी को कोई परेशानी नहीं हुई.

दीदी के जाते ही पूरा घर सूना हो गया. भैया का मन नहीं लगता तो दीदी के घर का चक्कर लगा आते थे. मां कहतीं कि बेटी के घर इतनी जल्दीजल्दी जाना ठीक नहीं, पर भैया का यही उत्तर होता कि देखो न मां, दीदी के ससुराल जाते ही हमारी सरकार ने भारतपाकिस्तान के बीच बस सेवा शुरू कर दी है.

पढ़ाई समाप्त कर भैया ने भी नौकरी की तलाश शुरू कर दी. हमारा मध्यवर्गीय परिवार था. घर की आर्थिक स्थिति को देखते हुए भैया को नौकरी की जरूरत महसूस होने लगी. उन के प्रथम श्रेणी में पास होने के प्रमाणपत्र भी उन्हें कोई नौकरी नहीं दिला सके तो उन्होंने सोचा, जब तक नौकरी नहीं मिलती क्यों न राजनीति में ही हाथपांव मारे जाएं. कालिज में 2 बार उपाध्यक्ष पद पर रह चुके थे. ऐसे में उन्हें अपने दोस्त समीर की याद आई, जोकि उन के साथ कालिज में अध्यक्ष पद के लिए चुना गया था.

समीर हमारे घर भी काफी आताजाता था. उस के पिता विधायक थे. भैया को लगा, वे शायद कुछ मदद कर सकते हैं. पर भैया ने एक बात नोट नहीं की, वह थी कि दीदी की शादी होते ही समीर ने भैया के साथ अपनी दोस्ती काफी सीमित कर ली थी.

समीर के पिता ने आश्वासन दिया कि अच्छी नौकरी में वे भैया की मदद करेंगे, यदि कोई बात नहीं बनी तो राजनीति में तो शामिल कर ही लेंगे. इसी दौरान किसी काम के सिलसिले में भैया को दीदी के घर जाना पड़ा. इस बार समीर भी उन के साथ पाकिस्तान गया. दीदी के ससुराल वाले बड़ी आत्मीयता के साथ समीर से मिले. केवल बाबूजी यानी दीदी के ससुर से समीर की ज्यादा बातचीत नहीं हो सकी क्योंकि वे उस दौरान सरहदी मामलों को ले कर काफी व्यस्त थे और 2 ही दिन बाद भैया व समीर को वापस भारत आना था.

वापस आ कर भैया जब समीर के घर गए तो उस के पिता ने घुसते ही उन से सीधे सवाल पूछा, ‘संजय, क्या तुम बता सकते हो कि तुम्हारी बहन क्या जासूसी करती है?’

उन के मुंह से यह सवाल सुन कर भैया सन्न रह गए. उन्हें सपने में भी इस तरह के सवाल की उम्मीद नहीं थी. अत: वह पूछ बैठे, ‘अंकल, आप के इस तरह सवाल पूछने का मतलब क्या है?’

‘बड़े भोले हो तुम, संजय,’ वह बोले, ‘तुम्हारी बहन की शादी को 2 साल हो गए. अभी तक तुम वास्तविकता से अनजान हो. अरे, उस पाकिस्तानी ने जानबूझ कर तुम्हारी बहन को फंसाया है ताकि पत्नी के सहारे वह भारत की सारी गतिविधियों की खबर लेता रहेगा. यही नहीं उस का ससुर सेना में अधिकारी है. इसलिए उस ने तुम्हारी बहन को अपने घर की बहू बनाना स्वीकार किया ताकि देश के अंदर की जानकारी उसे हो सके.’

‘यह सब बेबुनियाद बातें हैं,’ इतना कह कर भैया घर वापस आ गए. पर जासूस वाली बात उन के दिल में कहीं चुभ गई. भैया ने नोट किया कि दीदी अपने ससुर से काफी हिलीमिली हैं. लगता ही नहीं कि दीदी उन की बहू हैं. वह उन के आफिस भी आतीजाती हैं. बाबूजी भी दीदी से काफी प्यार जताते हैं और जब भी मैं दीदी से मिलने जाता हूं तो मुझ से बात करने का भी उन के पास समय नहीं रहता. शक का छोटा बुलबुला जब कुछ बड़ा हुआ तो भैया दीदी से फोन पर घर के हालचाल से ज्यादा भारत के अंदर की खबरों के बारे में बात करते. दीदी सिर्फ सुनतीं और हां हूं में ही जवाब देतीं तो भैया को लगता कि दीदी पहले जैसी नहीं रहीं, सिर्फ पाकिस्तानी बन कर रह गई हैं.

पिछली बार जब समीर घर आया तो भैया से कहने लगा कि देख संजय, पिताजी की बातों में कुछ तो दम है. जब मैं तेरे साथ दीदी के घर गया था तो शायद तू ने ध्यान नहीं दिया हो, किंतु मैं ने ऐसी कई बातें नोट कीं जोकि मुझे शक करने को मजबूर कर रही थीं. जैसे तेरी दीदी के साथ उन के ससुराल वालों का हमेशा हिंदुस्तानी खबरों पर बात करना. और हमारे देश में भी उतारचढ़ाव होते रहे हैं, उन के बारे में विस्तार से चर्चा करना.

भैया उस की बातें चुपचाप सुनते रहे थे. एक बार भैया ने दीदी को फोन किया व जानबूझ कर अपनी नौकरी व देश के माहौल के बारे में बात करने लगे. थोड़ी देर तक दीदी उन की बातें सुनती रहीं फिर एकाएक भैया की बात काट कर वह बीच में ही बोल पड़ीं, ‘संजय, मैं तुम से रात में बात करती हूं, अभी मुझे कुछ जरूरी काम के सिलसिले में बाहर जाना है.’

अब तो भैया के मन में शक के बीज पनपने लगे. उन्होंने गौर किया कि आमतौर पर दीदी मेरा फोन नहीं काटतीं पर आज जब मैं ने थोड़ी अपने देश के अंदर की कुछ बातें उन्हें बताईं तो मेरा फोन काट कर फौरन अपने बाबूजी को खबर देने चली गईं.

इस दौरान जीजाजी को अमेरिका में नौकरी मिल गई. पतिपत्नी अमेरिका चले गए. वहां पर पाकिस्तानी ग्रुप एसोसिएशन के कारण काफी पाकिस्तानी लोग मिले. इन सब से वहां पर दीदी का मन लगने लगा. पिछली बार फोन कर के जब दीदी ने इस गु्रप के बारे में भैया को बताया तो वह बीच में ही बोल पड़े, ‘तुम कोई इंडियन ग्रुप क्यों नहीं ज्वाइन करतीं? ऐसा तो है नहीं कि अमेरिका में इंडियन नहीं हैं.’

भैया की यह बात सुन कर दीदी बोली थीं, ‘क्या फर्क पड़ता है…मात्र एक दीवार से दिल नहीं बंटते. वैसे भी बाहर आ कर सब एक ही लगते हैं…क्या हिंदुस्तानी क्या पाकिस्तानी.’

अब भैया का शक अंदर ही अंदर साकार रूप लेने लगा. इधर हम सब इन बातों से काफी अनजान थे. भैया परेशान दिखते तो हम सब को यही लगता कि नौकरी को ले कर परेशान हैं. वह जब भी दीदी से बात करते तो दीदी जानबूझ कर चिढ़ाने के लिए पाकिस्तानी ग्रुप की बातें ज्यादा किया करती थीं. पर उन्हें क्या पता कि यही सब बातें एक दिन उन की जान की दुश्मन बन जाएंगी.

समीर व उस के पिता की बातें सुनतेसुनते भैया के अंदर एक कट्टर विचारधारा ने जन्म ले लिया था. दीदी कुछ दिनों के लिए घर आ रही थीं. उन्हें पहले अपनी ससुराल पाकिस्तान जाना था फिर मायके यानी हिंदुस्तान आना था. उन का प्लान कुछ ऐसा बना कि वह पहले मायके आ गईं और एक हफ्ते रह कर अपनी ससुराल चली गईं.

‘देखा संजय, तुम्हारी बहन पहले अपनी ससुराल जाने वाली थी फिर यहां हिंदुस्तान आती पर नहीं, यदि वह ऐसा करती तो यहां की ताजा खबरें कैसे अपने ससुर को दे पाती? वाह, मान गए तुम्हारी बहन को,’ ऐसा कह कर समीर के पिता ने जोर से ठहाका लगाया.

इस घटना के दूसरे ही दिन भैया मां से बोले, ‘मैं दीदी से मिलने पाकिस्तान जा रहा हूं. हो सका तो साथ ले कर आऊंगा.’

‘अभी तो हफ्ते भर रह कर गई है. थोड़ा उसे अपने ससुराल वालों के साथ भी रहने दे. वरना वे क्या सोचेंगे?’ मां बोलीं.

भैया ने मां की बात अनसुनी कर दी. मां को लगा शायद भाईबहन का प्यार उमड़ रहा है.

दीदी के घर पहुंच कर उन के घर वालों से भैया बोले कि घर पर पापा की तबीयत अचानक खराब हो गई है इसलिए कुछ दिनों के लिए दीदी को ले कर जा रहा हूं. जल्दी ही वापस छोड़ जाऊंगा.

जीजाजी तो नहीं आए पर भैया दीदी को ले कर लाहौर से दिल्ली वाली बस पर बैठ गए. बस में ही भैया ने दीदी से उलटेसीधे सवाल करने शुरू कर दिए. दीदी को लगा, यों ही पूछ रहा है पर उन के चेहरे पर गुस्सा व ऊंची होती आवाज से दीदी हैरान रह गईं. फिर भी उन्होंने भैया से यही कहा, ‘इस बस में तो ऐसी बातें मत करो, संजय, और भी पाकिस्तानी बैठे हैं.’

भैया को उस समय किसी की परवा नहीं थी. उन्हें सिर्फ अपने ढेरों सवालों के जवाब चाहिए थे. किसी तरह दीदी, भैया को धीरे बोलने के लिए राजी कर पाईं.

‘सुनो संजय, मुझे अपना घर सब से प्यारा है. भले ही वह पाकिस्तान में क्यों न हो और सब से ज्यादा घर वाले, ससुराल वाले प्यारे हैं,’ इतना कह दीदी चुप हो कर खिड़की से बाहर की ओर देखने लगीं. भैया भी चुपचाप बैठ गए.

लाहौर से निकलने के बाद विश्राम के लिए एक स्थान पर बस रुकी. सभी यात्री नीचे उतर कर सड़क पार करने लगे. भैया व दीदी दूसरे यात्रियों से थोड़ा पीछे थे क्योंकि दोनों का मूड खराब था. वे एकदूसरे से बात भी नहीं कर रहे थे. जैसे ही दीदी व भैया सड़क पार करने लगे कि सामने से दूसरी बस को आती देख वे रुक गए.

सामने से आती बस उन्हें क्रास करने वाली थी कि जाने कहां से भैया के हाथों में हैवानी शक्ति आ गई और पूरे जोर से उन्होंने दीदी को बस के सामने धकेल दिया पर दीदी ने बचाव के लिए भैया की बांह भी जोर से थाम ली, दोनों एकसाथ बीच सड़क पर बस के आगे जा गिरे और दोनों को रौंदती हुई बस आगे चली गई. इस हादसे को देख कर सारे यात्री सन्न रह गए. आननफानन में एंबुलेंस बुलाई गई. दोनों में प्राण अभी बाकी थे.

‘यह क्या किया मेरे भैया, अपनी बहन पर इतना विश्वास नहीं,’ दीदी रोरो कर, अटकअटक कर बोलती रहीं मानो जाने से पहले सारी गलतफहमी दूर कर देना चाहती थीं, ‘यह तुम्हारा ही दिया संस्कार है न मां कि पति का घर ही शादी के बाद अपना घर होता है व उस के घर वाले अपने. बोलो न मां, मेरी क्या गलती है? अरे, मैं तो बाबूजी को खाना देने उन के आफिस जाया करती थी. उन के कोई बेटी नहीं थी इसी से वह मुझे बेटी बना कर रखते थे. वे लोग तो बहुत ही सीधे हैं मेरे भैया. हमेशा मुझे मानसम्मान देते रहे हैं.’

‘मुझे माफ करना, दीदी, मैं लोगों की बातों में न आ कर काश, अपने दिल की सुनता,’ इतना कह कर भैया भी अटकअटक कर रोने लगे.

कुछ ही पल बाद दोनों भाईबहन शांत हो गए. एकसाथ ही इस दुनिया में आए थे और साथ ही चले गए.

मांपापा को तो जैसे होश ही नहीं रहा. उन की आंखों के सामने ही उन की 2 संतानों ने अपनी जान गंवा दी, महज एक गलतफहमी के कारण. मैं पागलों की भांति कभी मां को देखती, कभी पापा को चुप कराती. एक ही पल में सबकुछ बिखर गया.

दूसरे दिन समाचार की सुर्खियों में छाया रहा, ‘देश की भूतपूर्व खिलाड़ी की उस के भाई के साथ बस दुर्घटना में दर्दनाक मौत.’

तब से समीर हमारे घर नहीं आया. आता भी क्यों, उस की मनोकामना जो पूरी हो चुकी थी. उजड़ा तो हमारा घर था.

घड़ी ने 10 बजने का अलार्म दिया, मेरी तंद्रा भंग हुई. अभी तक मम्मीपापा ने खाना नहीं खाया है. उन्होंने अपने को बंद कमरे में समेट लिया है. वहीं उन की सुबह होती है, वहीं रात होती है. उन्हें अपनी परवा नहीं है किंतु मुझे तो है. आखिर, मेरे अलावा उन्हें देखने वाला और कौन है? Hindi Family Story

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Monsoon Special: अगर आप अपने बच्चों के लिए फ्राइड राइस घर पर बनाना चाहते हैं तो ग्रीन फ्राइड राइस की ये आसान रेसिपी ट्राय करना ना भूलें.

सामग्री

2 कप चावल उबले

6 टुकड़े ब्रोकली के ब्लांच किए

6 फ्रैंचबींस छोटे टुकड़ों में कटी व ब्लांच की हुई

2 बड़े चम्मच शिमलामिर्च छोटे टुकड़ों में कटी

1/4 कप मूंग अंकुरित

1/4 कप पालक बारीक कटा

1/2 कप हरे प्याज के पत्ते बारीक कटे

1/4 कप प्याज स्लाइस किया

3 बड़े चम्मच ग्रीन चिली सौस

1 बड़ा चम्मच रिफाइंड औयल

नमक स्वादानुसार.

विधि

नौनस्टिक पैन में तेल गरम कर के प्याज सौते करें. फिर ब्रोकली, फ्रैंचबींस, शिमलामिर्च व अंकुरित दाल डाल कर 2 मिनट पकाएं. इस में पालक, हरी प्याज व नमक डाल दें. 1 मिनट बाद ग्रीन चिली सौस डालें व 1 मिनट पकाएं. अब चावल डाल कर अच्छी तरह मिक्स करें और 1 मिनट उलटपलट कर गरमगरम ग्रीन फ्राइड राइस सर्व करें. Monsoon Special

Social story: हम तो हैं ही इसी लायक- साहब को किसने ठगा था

Social story: उन्होंने पूरी गंभीरता से टीवी पर ओपनली कहा कि उन की पुत्रबटी बेटावेटा कुछ नहीं देती, उस का तो कोरा शास्त्रीय नाम पुत्रजीवक है. अब समझने वाले जो समझ कर उन की दवाई खाते रहें. उसे खा देश के तमाम बेटे की चाह रखने वाले इस भ्रम में न रहें कि यह दवाईर् खाने वालों के बेटा होगा. चांस नो प्रतिशत.

मित्रो, यह सुन कर मेरे तो पैरोंतले से जमीन खिसक गई है. इतने ज्ञानी होने के बाद भी वे हम जैसों के साथ कैसे छल कर सकते हैं? सिर के ऊपर छत तो पहले ही नहीं थी, जो बचाखुचा आसमान था, अब तो वह भी सरक गया है. सिर और पैर दोनों ही जगह से आधारहीन हो कर रह गया हूं. इन्होंने तो विपक्ष वालों से अपना पिंड छुड़ाने के लिए हड़बड़ाहट में सच कह दिया पर मेरे तो हाथपांव ही नहीं, मैं तो पूरा ही फूल गया हूं. यह तो कोई बात नहीं होती कि साहब, बस कह दिया, सो कह दिया. पर पैसे डूबे किस के? मेरे जैसों के ही न. और आप तो जानते हैं कि हर वर्ग के बंदे के लिए पैसे से अधिक कुछ प्यारा नहीं होता. फिर मैं तो ठहरा मिडल क्लास का बंदा. चाय के 5 रुपए भी 10 बार गिन कर देता हूं. चमड़ी चली जाए, पर दमड़ी न जाए.

कम से कम एक जिम्मेदार सिटिजन होने के नाते जनाब से यह उम्मीद कतई न थी कि आप मेरे जैसे लाखों आंखों के अंधों को बेटे का सपना दिखा हम से दवाई की डाउन पेमैंट ले राह चलते को बेटे का हाथ अंधेरे में थमाएंगे. बेटे का बाप बनाने के लालच दे हमें हरकुछ खिलाएंगे. वह भी डब्बे पर छपी पूरी कीमत पहले ले कर.

जनाब, बेटे के लिए हरकुछ ही खाना होता तो अपने महल्ले के खानदानी दवाखाने वाले से ही शर्तिया बेटा होने की दवाई क्यों न ले लेता, जो बेटा होने के बाद ही दवाई की पूरी पेमैंट लेता है, वह भी आसान किस्तों में, जितने की किस्त ग्राहक को बिठानी हो, अपनी सुविधा से बिठा ले. चाहे तो पैसे बेटा दे जब वह कमाने लग जाए. वह भी बिना किसी ब्याज के.

बेटे के नाम पर दवाई की डोज कम या अधिक लेने पर बेटी हो तो कोई पेमैंट नहीं. सारी की सारी खुराकों की पेमैंट माफ. सरकार भी ऐसा नहीं कर सकती. वह तो थोड़ीबहुत टोकन मनी लेता है, उसे भी 2 रुपया सैकड़ा की दर से बेटी होने पर ब्याज सहित सादर वापस कर देता है. पर आप के बंदों ने तो मुझ जैसों को जो भ्रम की दवाई खिलाई उस ने दिमाग का चैन भी छीना और जेब का भी. पर उस ने महल्ले के जिनजिन बापों को बेटा होने की दवाई दी, उन के, जिस की भी दया से हुए हों, बेटे ही हुए.

साहब, आप का तो जो कुछ भी होगा, भला ही होगा, पर अब मेरा क्या होगा, बाबा. मैं तो इस आस में आप की दवाई की डोज बिना नागा पूरी ईमानदारी से ले रहा था कि इधर मेरे बेटा हुआ और उधर अच्छे दिनों का द्वार खुला. पर आप ने तो मेरे लिए बुरे दिनों का द्वार भी बंद कर दिया. मैं तो पूरी आस्था से आप के डाक्टरों द्वारा बताए जाने पर एक साल से रोटी के बदले भी ये दवाई प्रसाद समझ खा रहा था.

आप भी कमाल के बंदे हो जनाब. माना आप हमारे ग्रुप के नहीं, पर फिर भी हम केवल बेटे की चाह रखने वाले मानसिक रोगियों से आप मजाक कैसे कर सकते हैं? हम बेटे की चाह रखने वाले तो समाज में हरेक के मजाक का शिकार होते रहते हैं. अपने घर में ही हमें हमारी बीवियां मजाक की दृष्टि से देखती हैं. पर एक हम ही आप जैसे के भरोसे चलने वाले हैं, जो नहीं मानते, तो नहीं मानते. आज की डेट में माना बंदा पैसे दे कर सबकुछ खरीदता है पर कम से कम मजाक तो नहीं खरीदता. मजाक तो बिन पैसे लिए सरकार हम बंदों के साथ काफी कर लेती है.

साहब, हम तो वे बंदे हैं जो दिन में बीसियों बार हर रोज किसी न किसी के हाथों ठगे जाते हैं. अब तो उस दिन हमें नींद नहीं आती जिस रोज हम ठगे न गए हों. ऐसे में, एक ठगी और सही. आखिर, हम तो हैं ही इसी लायक. Social story

Payal Ghosh: लड़की को इंडस्ट्री में न्याय नहीं, हुईं कास्टिंग काउच का शिकार

Payal Ghosh: बांग्ला, तमिल, कन्नड, तेलगू और बॉलीवुड फिल्मों में काम करने वाली खूबसूरत और हंसमुख अभिनेत्री पायल घोष कोलकाता की है. पायल ने अभिनय की शुरुआत में एक कनाडाई फिल्म से किया, जिसमें उन्होंने अपने पड़ोसी के नौकर के साथ प्यार करने वाली एक स्कूली लड़की की भूमिका निभाई थी. वह एक ट्रैन्ड भरतनाट्यम डान्सर है, उन्होंने फिल्म पटेल की पंजाबी शादी से बॉलीवुड में डेब्यू किया.

टीवी सीरियल ‘साथ निभाना साथिया’ में भी उन्होंने काम किया है, जिसमें उनके काम को काफी सराहना मिली. वर्ष 2020 में पायल घोष ने निर्देशक अनुराग कश्यप पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया, जिसे अनुराग कश्यप ने अपने रुतबे की वजह से दबा दिया. आज भी पायल को इस बात का मलाल है कि उसे सही न्याय नहीं मिला.

अभी पायल एक हिन्दी फिल्म शक द डाउट में मुख्य भूमिका निभाने वाली है, जिसे लेकर वह बहुत खुश है. वह कहती है कि इस फिल्म में मैंने मुख्य भूमिका निभाई है, ये एक मर्डर मिस्ट्री थ्रिलर फिल्म है, जिसमें मैं ब्लाइन्ड गर्ल की भूमिका निभा रही हूँ. इसके लिए मैंने काफी वर्कशॉप किये है और अच्छी ऐक्टिंग के लिए काफी प्रैक्टिस भी की है.

भाषा चुनौती नहीं

पायल ने कई भाषाओं में फिल्में की है, इसमें आई चुनौती के बारें में उनका कहना है कि अलग – अलग भाषाओं में काम करने की चुनौती काफी होती है, उस भाषा को सीखना और समझना पड़ता है. मुझे ऐक्टिंग पसंद है, ऐसे में उससे जुड़ी किसी भी बात को जानना और सीखना मेरे लिए एक इक्साइटमेंट होता है. साउथ में भाषा न जानने की वजह से किसी संवाद को सही तरीके से डेलीवर करना थोड़ा मुश्किल होता था, लेकिन मैंने कई फिल्में की है. इसलिए मैँ भाव समझ जाती हूं और कुछ हद तक उसे सीख भी लिया है.

इसके अलावा डायरेक्टर किसी भी संवाद को अच्छी तरह इक्स्प्लैन शूट से एक दिन पहले कर देते है, जिससे अभिनय करना आसान हो जाता है. बाद में वे डबिंग कर लेते है. शुरू में बहुत मुश्किल होता था, अब नहीं होता.

मिली प्रेरणा

पायल का कहना है कि मेरे क्लोज़ में कोई भी ऐक्टिंग फील्ड से नहीं है, साथ ही मेरा परिवार थोड़ा कॉनजरवेटिव भी है, जहां किसी भी फील्ड में लड़कियों के काम करने को अच्छा नहीं माना जाता था. इसके अलावा मेरी माँ नहीं है, बचपन में जब मैँ केवल 7 साल की थी, तब उनका देहांत हो गया था. इसलिए मेरे लिए उनका सपोर्ट भी नहीं था. मेरे परिवार में दूर के रिश्तेदार ने अभिनेत्री महुआ रॉय चौधरी से शादी की थी, लेकिन उनका मेरे साथ कोई कनेक्शन नहीं है.

मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैँ अभिनय कर पाऊँगी. असल में मैँ बचपन से ही माधुरी दीक्षित, करीना कपूर, शाहरुख खान आदि की फिल्में बहुत देखती थी. बचपन में सभी मुझे सभी माधुरी दीक्षित कहकर बुलाते थे, क्योंकि मैँ अच्छा डांस कर लेती थी. इससे मेरे अंदर अभिनय की प्रेरणा जगी.

परिवार का सहयोग

पायल कहती है कि मेरी माँ नहीं है और हम दो बहने है, ऐसे में पिता की सोच रही थी कि 18 साल होने पर मेरी शादी कर देंगे और पढ़ाई भी वहाँ जाकर ही पूरा करना है, क्योंकि मैँ सुंदर थी और काफी लड़के मेरे पीछे पड़ते थे, उन्हे ये सब पसंद नहीं था. खासकर मेरे पिता बहुत डरे रहते थे, मुझे घर से बाहर नहीं निकलने देते थे. जब मैँ 15 साल की हुई, तो मुझे लगा कि मैँ शादी कर अपने सपने को पूरा नहीं कर सकूँगी, मैँ सोच में पड़ गई. एक दिन मैंने मन में निश्चय कर लिया कि मैँ अभिनय के क्षेत्र में कोशिश करूंगी और 12 वीं की परीक्षा के बाद मैँ किसी को बिना बताए कजिन सिस्टर के पास मुंबई आ गई. पैसों का जुगाड़ मैंने अपने काजीन्स और अपने कुछ जमा किये हुए से किया था. मैंने सुबह की फ्लाइट ली, इसलिए किसी को मेरे घर से निकलने की आहट तक नही मिली.

बाद में जब उन्हे पता चला, तो सभी को शॉक लगा. मेरी कजिन ने फोनकर उन्हे मेरी सलामती बताई. मेरे पिता इतने गुस्से हुए कि 6 महीने तक उन्होंने मुझसे बात तक नहीं की, लेकिन मेरे खर्चे के पैसे वे भेज दिया करते थे.

ली ऐक्टिंग की ट्रेनिंग

पायल मुंबई आकर किशोर नमित कपूर ऐक्टिंग इंस्टिट्यूट में जॉइन किया, 7 से 10 दिन में उन्हे पहली तेलगू फिल्म मिल गई थी. पहले उन्होंने मना किया था, क्योंकि मैँ उस इंडस्ट्री से परिचित नहीं थी, लेकिन बाद में राजी हो गई.

मिला ब्रेक

वह आगे कहती है कि असल में मेरी एक फ्रेंड ऑडिशन के लिए जा रही थी, मैँ भी उसके साथ ऑडिशन के प्रोसेस को जानने के लिए चल दी, वहाँ उनको नई और फ्रेश चेहरा चाहिए था. मैँ उस समय 17 साल की थी, मैंने जैसे ही ऑडिशन दिया, उन्हे मैँ पसंद आ गई. पहले मैंने मना कर दिया था, लेकिन बाद में मेरी भूमिका समझाने और नैशनल अवॉर्ड डायरेक्टर की वजह से मैंने उस फिल्म को किया.

संवाद को याद रखना था मुश्किल

पायल हंसती हुई कहती है कि पहली बार कैमरे के सामने आना मेरे लिए मुश्किल मुझे नहीं था, क्योंकि मैंने ऐक्टिंग का प्रशिक्षण लिया था, लेकिन भाषा मेरे लिए बाधा थी, क्योंकि भाषा को समझकर लिपसिंग करना मेरे लिए पहली फिल्म में थोड़ा मुश्किल था, जिसके लिए मुझे काफी मेहनत करनी पड़ी. इसके बाद हिन्दी फिल्म पटेल की पंजाबी शादी में मैने मुख्य भूमिका निभाई जिसे दर्शकों ने काफी पसंद किया.

किये संघर्ष

पायल को पहली तेलगू फिल्म प्रायानम आसानी से मिली, फिल्म के रिलीज का बाद कई सारे ऑफर भी उन्हे मिलने लगे, क्योंकि फिल्म सुपर हिट रही. इतना ही नहीं पहली फिल्म में उन्हे 10 लाख के ऑफर वर्ष 2009 में मिला था, जो एक अच्छी रकम थी, लेकिन पायल को हिन्दी फिल्म में काम करने की इच्छा थी, इसलिए वह कुछ सालों तक वहाँ काम करने के बाद हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री में आ गई.

साउथ की इंडस्ट्री में उन्हे पैसे, प्यार और रेसपेक्ट सब मिले, जिसकी कमी हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री में है.
वह कहती है कि मैंने काफी संघर्ष एक अच्छी फिल्म करने के लिए किया है और मुझे मिला. जबकि मेरे कई फ़्रेंड्स बहुत सारे ऑडिशन देकर भी उन्हे काम नहीं मिला और अंत में वे वापस चले गए. कुछ तो अभी भी संघर्ष कर रहे है. साउथ में संघर्ष कम है, जबकि हिन्दी सिनेमा में एक अच्छी भूमिका के लिए संघर्ष अधिक करना पड़ता है.

 

कंट्रोवर्सी का किया सामना

पायल कहती है कि शुरू में मैंने मलयालम फिल्म इसलिए नहीं किया था, क्योंकि लोग कहते थे कि मलयालम फिल्मों में हिरोइन को काफी इक्स्पोज़ किया जाता है, जिससे मैँ डर गई थी और काफी ऑफर ठुकरा दिए थे, क्योंकि तब मैँ इंटीमेट सीन्स करने में सहज नहीं थी, लेकिन अब मैँ देखती हूं कि मलयालम फिल्मों की कहानी काफी स्ट्रॉंग होती है, वे हॉलिवुड को भी टक्कर दे सकते है.

अब कोई काम मिलने पर अवश्य करना चाहूँगी. इसके अलावा जब तक साउथ में थी किसी प्रकार की
परेशानी मैंने नहीं झेली, हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री में मुझे बहुत कुछ सहना पड़ा. मैंने खुद को कई बार
असहाय भी महसूस किया. मैंने कई सारे हिन्दी फिल्में छोड़ दिया था, क्योंकि मुझे निर्माता, निर्देशक
के साथ कोम्प्रमाइज़ करने की बात सीधा कहा गया, इस वजह से मैंने कई फिल्मों को छोड़ दिया था.

हुई कास्टिंग काउच की शिकार

पायल आगे कहती है कि इंडस्ट्री में किसी नए कलाकार की बात को लोग सीरीयसली नहीं लेते, मेरे साथ भी यही हुआ था. डायरेक्टर अनुराग कश्यप की वजह से मैँ डिप्रेशन में चली गई थी, इतनी बीमार हो गई थी कि अधिक फिल्में नहीं कर पाती थी. मुझे घर से निकलने में भी डर लगता था.

मेरे साथ जो उन्होंने जो किया, उससे मुझे सारे लोगों से डर लगने लगा था. अंदर ही अंदर मैँ घुटती
रहती थी, पूरी रात सोती नहीं थी, क्योंकि मुझे सब याद आता था. मीडिया और लोगों ने मेरे इस बात
को गलत बताया, क्योंकि मेरे सपोर्ट में कोई नहीं था, क्योंकि वे बड़े डायरेक्टर है. जब किसी के घर
परिवार में ऐसा होता है, तब वे इस बात की गहराई को समझ सकते है. फिल्म हंसी तो फंसी फिल्म
की ऑडिशन के लिए अनुराग कश्यप ने घर पर बुलाया, पहले दिन बहुत अच्छे से पेश आए, खाना
बनाकर खिलाया.

ऑडिशन देने के बाद उन्होंने घर पर रात को बुलाया, मुझे लगा कि कुछ अच्छा बताने के लिए वे मुझे बुला रहे है, मैँ खुश हुई. मैंने मैनेजर से पूछा, तो उन्होंने भी मुझे जाने के लिए कहा और आने वाली साउथ की फिल्म के बारें में भी बताने को कहा. मैँ सबको बताकर ही गई थी. वहाँ जाने के बाद उन्होंने थोड़ी बातचीत की, फिर दूसरे रूम में ले गए, वहाँ वे अपने कपड़े उतारने लगे. मेरे साथ बदतमीजी की. मैँ समझ नहीं पा रही थी कि मैँ क्या करूँ, क्योंकि ये सब कर मैँ आगे बढ़ नहीं सकती, मैँ बदनाम हो जाऊँगी. मैँ शॉकड हो गई और अंदर ही अंदर डर गई, उस समय मैँ केवल 22 साल की थी.

मैँ आज भी डिप्रेशन की दवा लेती हूँ और ट्रस्ट वाले लोगों के साथ ही काम करती हूँ. मैंने पुलिस कॉम्प्लैन किया, लेकिन पुलिस का सहयोग नहीं मिला, फिर मैंने छोड़ दिया, क्योंकि पुलिस अनुराग का पक्ष लेगी, मेरा नहीं. इंडस्ट्री में किसी अकेले को न्याय नहीं मिलता. आगे मैँ हिन्दी के साथ मैँ साउथ की फिल्में भी करूंगी. मैँ बहुत अधिक इंटीमेट सीन्स करने में सहज नहीं. मैँ अच्छी कंटेन्ट वाली फिल्में करना पसंद करती हूँ. खाली समय में मैँ फिल्में देखना पसंद करती हूँ. Payal Ghosh

Social Story in Hindi: अंधेरी आंखों के उजाले- मदन बाबू ने कैसे की मदद

Social Story in Hindi: खंभे की पच्चीकारी को जहां तक हाथ पहुंचता, छू कर देखते, एकदूसरे को बताते, फिर कहीं बातों मैं दूर बैठा उन्हें देख रहा था. जान गया कि वे दोनों अंधे हैं. एक तीव्र इच्छा यह जानने को जागी कि नेत्रहीन होते हुए भी इस दर्शनीय स्थल पर वे क्यों आए थे. सोच में डूबा मैं उन्हें देख रहा था.

घड़ी भर भी न बीता होगा कि बच्चों की चहक पर ध्यान चला गया. तीनों बच्चे उन दोनों के पास दौड़ कर आए थे. इसलिए थोड़ा हांफ रहे थे.

‘‘मां, चल कर देखो न, वहां पूरे मंदिर का छोटा सा एक मौडल रखा है. बिलकुल मेरी गुडि़या के घर जैसा है.’’

‘‘हांहां, बहुत अच्छा है,’’ मां ने हामी भरी.

‘‘अच्छा है? पर आप ने देखा कहां? चल कर देखो न,’’ बच्चे मचल रहे थे.

वे दोनों अपने तीनों बच्चों को समेटे मंदिर के छोटे पर अत्यंत सुघड़ मौडल को देखने चल दिए.

पास बैठ कर दोनों ने मौडल को हर कोने से छू कर देखा. मैं ने देखा, उन दोनों के हाथों में उलझी थीं उन के बच्चों की उंगलियां.

देखने के इस क्रम में आंखों की जरूरत कहां थी. मन था, मन का विश्वास था, एकदूसरे को समझनेसमझाने की चाहत थी, उल्लास था, उत्साह था. कौन कहता है कि आंखें भी चाहिए. बिना आंखों के भी दुनिया का कितना सौंदर्य देखा जा सकता है. आंखों वाले मांबाप क्या अपने बच्चों को सामीप्य का इतना सुख दे पाते होंगे? इस तरह के विचार मेरे मन में आए जा रहे थे.

हंसतेबतियाते वे पांचों फिर मंदिर में इधरउधर टहलते रहे. 3 जोड़ी आंखों से पांचों निहारते रहे, फिर वहीं बैठ

कर उन्होंने अपने नन्हेमुन्नों को गोद में समेट लिया.

उन की अंधेरी आंखों में कितने उजाले थे. मेरा मन उन से मिलने को कर रहा था. मुझ से रहा नहीं गया तो उठ कर उन के पास चला आया.

‘‘जी, नमस्ते,’’ और इस संबोधन को सुन कर अपने में डूबे वे दोनों चौंक गए.

‘‘पापा, कोई अंकल हैं, आप को नमस्ते कर रहे हैं,’’ एक बच्चे ने कहा.

‘‘हांहां समझा, कोई काम है क्या?’’

‘‘नहीं, बस यों ही आप से बात करने का मन कर आया.’’

‘‘हम से क्यों? हम…मतलब कोई खास बात है क्या?’’

‘‘खास बात तो नहीं है, बस, थोड़ी देर आप से बात करना चाहता हूं.’’

एक तरफ को सरक कर उन्होंने मेरे लिए जगह बना दी.

‘‘रणकपुर देखने आए हैं?’’ अच्छी जगह है…मतलब बहुत सुंदर है… आप ने तो देखा?’’

अटपटा सा वार्त्तालाप. समझ नहीं पा रहा था कि सूत्र किधर से पकड़ूं. उन के बारे में जानने की उत्सुकता अधिक थी पर शब्द नदारद थे.

‘‘हम दोनों जन्मजात अंधे हैं.’’

क्या प्रश्न था और क्या उत्तर आया. एकदम अचकचा गया. यही तो पूछना चाहता था. कैसे एकदम ठीक जान लिया इन लोगों ने.

‘‘पर यह तो कुदरत की मेहरबानी है कि हमारे तीनों बच्चे स्वस्थ व संपूर्ण हैं. छोटे हैं पर सबकुछ समझते हैं. इन्हें शिकायत नहीं कि हम देख नहीं सकते. हमें दिखा देने की भरपूर कोशिश करते हैं. इसलिए कहा कि संपूर्ण हैं.’’

‘‘आप की समझ बहुत अच्छी है वरना संपूर्ण का मतलब तो अच्छेअच्छे भी नहीं जानते.’’

‘‘ठीक कहा आप ने. पढ़ालिखा हूं, फैक्टरी में वरिष्ठ लिपिक हूं पर सच कहूं तो संपूर्ण होने का दावा करने वाली यह दुनिया… सच में बड़ी खोखली है. उस का बस चले तो मेरा यह आधार भी छीन ले.’’

कितना तल्ख स्वर हो आया उन का. चोट खाना और निरंतर खाते रहना हर किसी के बस का नहीं होता.

इतना स्नेहिल व्यक्तित्व अपनी दुनिया का सबकुछ था पर बाहर की दुनिया उसे कुछ न होने का एहसास हर पल कराती.

पत्नी का हाथ पति के कंधे तक आ गया. बच्चे उन के और करीब सिमट गए. एक अनकही सांत्वना के घेरे में वह सुरक्षित हो गए. मैं बाहर था, बाहर ही रह गया. बातचीत का सिल- सिला टूट गया. मैं फिर भी न जाने किस आशा में बैठा रहा. वे भी अपने में सिमटे गुम थे.

‘‘आप…’’ मैं ने पूछना चाहा.

‘‘महाशय, आज नहीं, फिर कभी… आज का दिन इन बच्चों का है.’’

प्रश्न अनुत्तरित रह गया. वे उठ गए. मंदिर में प्रसाद का प्रबंध हो रहा था. प्रसाद में पूरा खाना. पंगत में बैठे, खाना खाते वे परिवारजन अपने भीतर एक खुशी समाए हुए थे. सच में वे संपूर्ण थे. दुनिया उन्हें कुछ दे पाती उस की क्या बिसात थी. वे ही दुनिया को देने के काबिल थे. एक आदर्श पतिपत्नी, एक आदर्श मातापिता.

फिर भी मैं सोच रहा था कि यह तो उन का आज था. यहां तक आतेआते जीवन के कितने पड़ावों पर समय ने उन्हें कितना तोड़ा होगा? ये बच्चे ही जब छोटे होंगे तो क्याक्या कठिनाइयां न आई होंगी उन के सामने. निश्चय ही कितने दुख, दुविधाएं और असहजताएं पहाड़ बन कर टूट पड़ी होंगी.

मैं मंदिर से बाहर आ गया. घर आ कर भी कितने ही दिन तक उन को ले कर मन में विचार खुदबुदाते रहे थे.

फिर धीरेधीरे दिन बीतने लगे. वे कभीकभार याद आते थे, पर वक्त ने धीरेधीरे सबकुछ धूमिल कर दिया और मैं अपनी दुनिया में खो गया.

उन दिनों आफिस के काम से मुझे गुजरात के सांबल गांव जाना पड़ा. सांबल गांव क्या था, अच्छा शहरनुमा कसबा था. दिन तो कार्यालय में अपना काम पूरा करतेकरते बीत गया. शाम हो गई पर काम पूरा न हो पाया. लगता था कि कम से कम 2-3 दिन तो खा ही जाएगा यह काम. रुकने का मन बना लिया. स्टाफ में मदन भाई को थोड़ाबहुत जानता था क्योंकि वह भी इसी तरह टूर में 1-2 बार हमारे कार्यालय आए थे. बाकी 1-2 से काम के साथ ही जान- पहचान हुई.

मदन बाबू का घर पास ही था सो उन के आग्रह पर चाय उन के घर ही पीनी थी. दिन भर की थकान के बाद अदरक की चाय ने बदन में जान डाल दी. चुस्ती महसूस करता मैं ड्राइंगरूम का निरीक्षण करता रहा. मदन बाबू भीतर थे. 15-20 मिनट बाद की वापसी के बाद ही वे एकदम तरोताजा बदलेबदले लगे. तय हुआ कि वे मुझे डाक बंगले छोड़ देंगे.

मैं वहां जल्दी पहुंचना चाहता था. थकान व चिपचिपाहट से नहाने का मन कर रहा था.

डाक बंगले में पहुंच कर मदन बाबू ने विदा लेनी चाही. मैं ने भी यों ही पूछ लिया, ‘‘अब सवारी किधर को निकलेगी?’’

मदन बाबू हंस दिए, ‘‘जरा ब्लाइंड स्कूल तक जाऊंगा.’’

‘‘ब्लाइंड स्कूल? वहां क्यों?’’ मन में रणकपुर वाली घटना अनायास कौंध गई.

‘‘महीने में एक बार जाता हूं. इसी बहाने थोड़ा मन बहल जाता है कि कुछ तो किया.’’

उत्सुकता से सिर उठा लिया था, ‘‘यार, मैं भी चलूंगा तुम्हारे साथ.’’

‘‘क्या करोगे, राव? यहीं आराम कर लो. दिन भर में थके नहीं क्या? मुझे तो वहां समय लग जाता है. तुम बेकार बोर होगे.’’

‘‘नहीं…नहीं. बस, 10 मिनट,’’ मैं हड़बड़ा कर बोला, ‘‘किसी खास मकसद से जा रहे हो?’’

‘‘मकसद तो कोई नहीं…मातापिता की याद में जाना शुरू किया था. उन के नाम से खानाकपड़ा बांट आता था. फिर मुझे लगा कि उन्हें इन चीजों से भी अधिक प्यार की जरूरत है.’’

‘‘ओह, अब तो मैं जरूर ही चलूंगा, मिनटों में हाजिर हुआ.’’

मेरे दिल में रणकपुर में मिले उन लोगों ने दस्तक दी. वे न सही, वैसे ही कुछ और लोग मिलेंगे.

मैं मदन बाबू के साथ निकल पड़ा. रास्ते मेरे पहचाने न थे. कई सड़कें, मोड़, चौराहे पार कर के हम एक इमारत के सामने रुक गए. अंध स्कूल एवं बोर्डिंग आ गया था.

भीतर प्रवेश करने पर सीधे हाथ को कुछ आफिस जैसे कमरे थे. बाएं हाथ को सामने काफी बड़ा मैदान था. कुछ बच्चे वहां खेल रहे थे. कुछ पौधों में पानी दे रहे थे. कुछ आजा रहे थे. एक जगह कुछ खेल भी चल रहा था.

मदन बाबू ने किसी को आवाज दी तो सारे बच्चे मुड़ कर उन की तरफ आ गए और उन को चारों ओर से घेर लिया. किसी ने हाथ पकड़ा, किसी ने उंगली तो किसी ने बुशर्र्ट का कोना ही पकड़ लिया. एकलौते बटन की कमीज पहने एक छोटा लड़का पैरों से चिपट गया. देख कर लगा सब के सब उन के बहुत नजदीक होना चाहते थे. उन्होंने भी किसी  का गाल थप- थपाया तो किसी की पीठ पर हाथ फेर कर प्यार किया. कुछ बच्चे उन से पटाखे लाने के लिए भी कह रहे थे.

मदन बाबू ने बच्चों से उन का सामान लाने का वादा किया और हम भीतर के हिस्से में चल पड़े. अगलबगल के कमरों से गुजरते हुए मैं ने बच्चों को कुरसियां बुनते, बढ़ईगीरी का काम करते, बेंत के खिलौने बनाते देखा था. एक छोटी सी लाइब्रेरी भी देखी, जहां बच्चे ब्रेल लिपि का साहित्य पढ़ रहे थे. 5-6 बिस्तरों वाला छोटा सा अस्पताल भी देखा.

यों ही घूमते हुए हम थोड़ी खुली जगह में आ गए.

‘‘चलिए, राव साहब, अब आप को एक हीरे से मिलवाते हैं,’’ मदन बाबू मुझ से बोले.

अब हम कुछ गलियारे पार कर एक बडे़ से कमरे तक आ गए. रोशनी में डूबे इस कमरे की धड़कन कुछ अलग सी लगी, तनिक खामोश सी.

‘‘विनोद बाबू, देखिए तो कौन आया है?’’

‘‘अरे, मदनजी… किसे लाए हैं?’’ चेहरा हमारी तरफ घूम गया. मेरा दिल तेजी से धड़क उठा. आंखें पहचानने में भूल नहीं कर सकती थीं. यह वही सज्जन थे, वही रणकपुर वाले. आंखें एक बार फिर खुशी से नाच उठीं.

‘‘अपने राव साहब हैं,’’ मदन बाबू बोले, ‘‘राजस्थान से टूर पर आए हैं. आप तक ले आया इन्हें.’’

‘‘अच्छा किया,’’ और मेरी तरफ हाथ बढ़ा कर विनोद बाबू बोले, ‘‘आइए, प्रशांतजी…’’

मैं ने बढ़ कर उन का हाथ थाम लिया. दूसरे हाथ का सहारा लगाते हुए उन्होंने हाथ मिलाया.

‘‘पहली बार आए हैं गुजरात…’’ विनोद बाबू बोले.

‘‘जी…’’ बहुत इच्छा हो रही थी कि रणकपुर की याद दिलाऊं, पर इस वक्त अनजान बने रहना ठीक लगा. मैं उन्हें सचमुच जानना चाहता था. उन के हर अनछुए पहलू को, उन के व्यक्तित्व को, जीवन को, उन के संपूर्ण बच्चों को…और मेरे होंठों पर यह सोच कर हंसी तिर आई. आखिर वे मिल ही गए.

मदन बाबू उन से बातें करने लगे. बातें सामान्य थीं, अधिकतर संस्था से संबंधित.

मदन बाबू ने बताया कि वह कितना यत्न कर के इस संस्था को संभाल रहे थे और यह भी बताया कि वह अपने काम के प्रति कितने निष्ठावान, सच्चरित्र, महत्त्वाकांक्षी और मेहनती हैं.

तो मैं ने उन्हें ठीक ही भांपा था. शायद यही सब था जो मैं जानना चाहता था. उन के चेहरे पर सलज्ज आभा थी. अपनी इतनी तारीफ सुनने में उन के चेहरे पर किस कदर सकुचाहट थी. आंखें होतीं तो वे भी सपनों को पूरा होते देख भूरिभूरि सी चमक उठतीं.

अपनी शारीरिक क्षमता की सीमा के बावजूद उन के हौसलों के परिंदे कितनी ऊंची उड़ान भरना चाहते थे, वह भी सरकारी महकमे में, जहां आंख वाले तक अंधे हो जाते हैं. काम से दूर भागते, काहिल से, पीक थूकते, चाय गटकते, टिन के जंग लगे पुतलों की तरह बेवजह बजते. विनोद बाबू इन सब का अपवाद बने सामने खड़े थे.

‘‘प्रशांतजी, कैसी लगी आप को हमारी संस्था?’’

‘‘काफी व्यवस्थित सी.’’

‘‘आप तो बहुत ही कम बोलते हैं पर आप ने सही शब्द कहा है. इस व्यवस्था को बनाने में कई साल लग गए हैं. सरकारी छल तो आप जानते ही हैं. पैसों की तंगी झेलनी ही पड़ती है.’’

‘‘जानता हूं, फिर भी आप ने…’’

‘‘मैं ने नहीं, सब ने, यहां बड़ा स्टाफ है. हाथपैरों से सब करते हैं पर सुविधाएं जुटाना… पूरा दम लग जाता है.’’

‘‘कुछ ठीक से बताएंगे… आज तो मैं तल्लीन श्रोता ही हो जाता हूं.’’

खनकती हंसी हंस दिए विनोद बाबू. मदन बाबू भी बहुत उत्कंठित लगे.

‘‘प्रशांतजी, जब आया था तो सचमुच निराश था. मेरी योग्यता को ओछा बना दिया गया था. कैसे भी, कहीं भी, कोई भी काबिल, नाकाबिल सब आगे बढ़ते जाते थे. मेरी सारी शिक्षा, मेरी सारी मेहनत, मेरी इन आंखों से माप दी जाती थी. मैं ने मन मसोस कर, अंतहीन दुख पा कर बहुत समय बिताया, जगहजगह काम किया पर सब बेकार ही रहा. सब के पास आंखें थीं पर कान न थे, दिमाग न था, दिल न था. मुझे अनसुना, अनबूझा, अनजाना रहना था सो रह गया. उस कठिन घड़ी में मेरे बच्चे और मेरी पत्नी ही मेरा अंतिम सहारा थे.’’

मदन बाबू और मैं चुप थे. सन्नाटे ख्ंिचे उस प्रकाश में उन का दुख शायद अरसे बाद बाहर रिस आया था.

‘‘7-8 साल की मायूसी में डूबताउतराता मैं अंधेरे में डूब ही जाता कि रोशनी की सूरत में यह संस्थान मिल गया. प्रशांतजी, रोशनी की दुनिया का ठुकराया मेरा अस्तित्व जैसे अपनों के बीच आ मिला. जो कुछ मैं ने झेला वह ये बच्चे न झेलें, यही सोचता हूं हर दम. हौसला बांधे हुए तभी से जुटा हूं. मदनजी से बड़ी मदद है.’’

‘‘मैं नहीं विनोद बाबू, यह तो आप की यात्रा है.’’

‘‘मदन बाबू, तिनके का सहारा भी डूबते के लिए बहुत होता है. आप ने तो सब देखा ही है. कितनी बदइंतजामी थी. न खाना, न पीना, न पहनना, न जानना, न समझना. सब बेढंगा… बड़ी पीड़ा हुई थी. यहां इतना बिखराव था कि समझ में नहीं आता था कि कहां से समेटूं. बच्चों को छोड़ कर मातापिता भी जैसे भूल चुके थे.’’

‘‘क्या मतलब? इन के मातापिता हैं क्या?’’

‘‘हां, हैं न, 10-15 बच्चे अनाथ हैं यहां, पर बाकी को मांबाप की लापरवाही ने अनाथ बना दिया है. मैं ने सब से पहले यही किया. सभी बच्चों का ब्योरा बनाया. मैं भी समझ रहा था कि ये अनाथ हैं, पर राव साहब, यह अंध स्कूल है, अंध अनाथाश्रम नहीं. बच्चे दिन भर यहीं रहते हैं. खानापीना, पढ़नालिखना, रोजमर्रा के कामों की ट्रेनिंग और जो कोई कारीगरी सीख पाए तो वह भी. शाम को इन्हें घर जाना चाहिए, पर इस में नियमितता नहीं है. रात गए तक मांबाप की प्रतीक्षा करता बच्चा…क्या कहूं…कलेजा मुंह को आता है.

‘‘मांबाप को टोको तो सौ बहाने बना देते हैं. उन के लिए दुनिया के सारे काम जरूरी हैं और उन का सहारा खोजता उन का अपना बच्चा कुछ भी नहीं.

‘‘प्यार के भूखे ये बच्चे. सच इन्हें थोड़ी सी देखभाल, पर ढेर सारा प्यार चाहिए और कुछ नहीं चाहिए. ये अपनी दुनिया में संपूर्ण हैं.’’

सच में वे संपूर्ण थे. न केवल अपने परिवार के लिए वरन सामाजिक सरोकार में भी. शतरंज और लूडो खेलते, कुरसी बुनते, टाइपिंग करते, कंप्यूटर पर काम करते, एकदूसरे का कंधा थामे गणतंत्र दिवस पर परेड करते, बागबानी करते इन बालकों के जीवन में कला के कितने ही रंग, स्वर और गंध समा गई थी. Social Story in Hindi

हर 3-4 महीने में लेटैस्ट मोबाइल खरीदने का मुझे शौक हो गया है, मैं क्या करूं?

सवाल-

19 वर्षीय युवती हूं. मुझे मोबाइल फोबिया हो गया है. हर 3-4 महीने के बाद लेटैस्ट मोबाइल खरीदने का मुझे शौक है. देर रात तक मोबाइल पर गेम्स खेलना और चैटिंग करना मेरी आदत में शुमार है. इस वजह से पढ़ाई में भी मन नहीं लगता. इस से मेरा रिजल्ट भी प्रभावित हो रहा है. बताएं मैं क्या करूं?

जवाब-

मोबाइल से चिपके रहना न सिर्फ शारीरिक रूप से नुकसानदायक है, बल्कि मानसिक रूप से भी व्यक्ति को कमजोर कर देता है. आप को अभी अपने कैरियर पर ध्यान देना चाहिए. इस के लिए मोबाइल को छोड़ पत्रपत्रिकाओं में ध्यान लगाएं. अच्छा साहित्य पढ़ें. इस से आप का सामान्य ज्ञान बढ़ेगा. रूटीन लाइफ और अच्छा साहित्य पढ़ना शुरू करेंगी तो स्वत: ही मोबाइल की गंदी लत से छुटकारा मिल जाएगा.

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कॉलेज में पढ़ाई का खर्च ज्‍यादा होता है. ऐसे में परिवार की फाइनेंशियल हालत अच्‍छी नहीं हो तो परेशानी आ सकती है. हालांकि, इस तरह के हालात से बचा जा सकता है. आप पढ़ाई के साथ कुछ घंटे काम करके कॉलेज के दौरान 10 से 20 हजार रुपए मंथली कमा सकते हैं.

सोशल मीडिया स्ट्रैटेजिस्ट

सोशल मीडिया के बढ़ते असर को देखते हुए कॉरपोरेट कंपनियां, पॉलिटीशियन, सरकारी महकमों आदि में सोशल मीडिया मैनेज करने वालों की मांग तेजी से बढ़ी है. इसमें वैसे लोगों की मांग बढ़ी है, जिनको फेसबुक, ट्विटर, लिंक्‍ग‍इन, यूटूब आदि की समझ हो और इसको अच्‍छे से मैनेज करने की क्षमता रखते हों. अगर, आप कॉलेज स्‍टूडेंट हैं तो इस काम को पढ़ाई के साथ बेहतर तरीके से कर सकते हैं. इसके लिए कोई एक्‍सट्रा नॉलेज या स्‍पेस की जरूर नहीं होगी. आपको कंटेंट और टेक्‍नोसेवी होना होगा.

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