Monsoon Special: एक प्रीमिक्स से बनाएं ये रेसिपीज

Monsoon Special: आजकल की भागदौड़ भरी जिन्दगी में हम सभी के पास समय का अभाव है, कामकाजी महिलाओं के लिए तो घरेलू कार्यों को भली भांति मेनेज करना ही बहुत बड़ी चुनौती होती है ऐसे में घर पर कुछ अच्छा बनाने के बारे में सोचकर ही कई बार घबराहट होने लगती है. हर समय बाहर का खाना न तो स्वास्थ्यप्रद होता है और न ही आर्थिक रूप से सही होता है पर यदि पहले से ही कुछ तैयारी कर ली जाये तो बनाना काफी आसान हो जाता है. आज हम आपको ऐसा ही एक प्रीमिक्स बनाना बता रहे हैं जिसे आप एक बार बनाकर रख लें तो एक प्रीमिक्स से ही आप कई रेसिपीज बना सकतीं हैं तो आइये देखते हैं कि इसे कैसे बनाया जाता है और एक बार बनाकर रखने के बाद इसे कैसे प्रयोग किया जाता है-

सामग्री (प्रीमिक्स के लिए)

धुली मूंग दाल              1 कप

चने की दाल                500 ग्राम

हींग पाउडर                 1 टीस्पून

बेकिंग सोडा                 1/4 टीस्पून

नमक                      1 टीस्पून

सामग्री(मसाले के लिए)

साबुत धनिया               2 टेबल स्पून

साबुत लाल मिर्च            4

साबुत काली मिर्च            1 टेबलस्पून

सौंफ                       2 टेबलस्पून

अजवाइन                   1 टीस्पून

लौंग                       10-12

नमक                      1 टीस्पून

विधि-

प्रीमिक्स की दोनों दालों को साफ पानी से दो बार धोकर पानी निकाल दें और साफ सूती कपड़े से पोंछकर 4-5 घंटे पंखे की हवा में सुखा लें. अब बिना घी या तेल के इन दोनों दालों को धीमी आंच पर लगातार चलाते हुए हल्का सा भून लें ताकि इनकी नमी निकल जाये. ठंडा होने पर दोनों को एक साथ हींग और बेकिंग सोडा डालकर बारीक पीस लें.

सभी मसालों को भी एक साथ मिक्सी में दरदरा पीस लें और तैयार प्रीमिक्स में अच्छी तरह मिला दें. तैयार प्रीमिक्स को एयरटाईट जार में भरकर फ्रिज में रखें और दो से तीन माह तक प्रयोग करें.

कैसे करें प्रयोग

-पकोड़ा बनाने के लिए 2 कप प्रीमिक्स में बारीक कटा प्याज, हरा धनिया, हरी मिर्च, कटी लहसुन और अदरक मिलाकर आधा कप पानी डालकर अच्छी तरह मिलाकर गर्म तेल में पकोड़े तलें.

-कचौरी का भरावन बनाने के लिए डेढ़ कप प्रीमिक्स को 1/4 कप पानी मिलाकर आधे घंटे के लिए ढककर रख दें ताकि दालफूल जाये. अब मैदे या आटे की लोई में तैयार भरावन को भरकर कचौरियो को गर्म तेल में तलकर बटर पेपर पर निकाल लें. इसी प्रकार आप दाल के परांठे भी बना सकतीं हैं.

-तैयार प्रीमिक्स के अंदर चीज, पनीर या आलू की स्टफिंग करके आप टेस्टी बॉल्स तैयार कर सकतीं हैं.

-यदि आप प्रीमिक्स से इंस्टेंट पकोड़ा, कचौरी, बड़ा आदि बनाना चाहती हैं तो ठंडे पानी के स्थान पर गर्म पानी का प्रयोग करें. Monsoon Special

Social Story: एक चुप, हजार सुख- सुधीर भैया हमेशा लड़ाई क्यों करते थे

Social Story: कुछ लोगों की टांगें जरूरत से ज्यादा लंबी होती हैं, इतनी कि वे खुद ही जा कर दूसरों के मामले में अड़ जाती हैं. ऐसे ही अप्राकृतिक टांगों वाले व्यक्ति हैं मेरे बड़े भाई सुधीर भैया. वैसे तो लड़ने या लड़ाई के बीच में पड़ने का उन्हें कोई शौक नहीं है पर किसी दलितशोषित, जबान रहते भी खामोश, मजबूर व्यक्ति पर कुछ अनुचित होते देख कर उन का क्षत्रिय खून उबाल मारने लगता है. फिर वे उस बेचारे के उद्धार में लग जाते हैं. उन के साथ ऐसा बचपन से है. जाहिर है कि स्कूल और महल्ले में वे अपने इस गुण के कारण नेताजी के नाम से प्रसिद्ध रहे हैं.

भैया उम्र में मुझ से 2 वर्ष बड़े हैं. हम दोनों बचपन से बहुत करीब रहे हैं और एक ही स्कूल में होने के कारण हम दोनों को एकदूसरे के पलपल की खबर रहती थी. कब कौन क्लास से बाहर निकाला गया, किस लड़के ने मुझे कब छेड़ा या किस शिक्षक को देखते ही भैया के पांव कांपने लगते थे आदिआदि. जाहिर है कि भैया की अड़ंगेबाजी की नित नई कहानियां मुझे फौरन मिल जाती थीं.

चौथी कक्षा की बात है. भैया को जानकारी मिली कि उन की क्लास के एक शांत सहपाठी का बड़ी क्लास के कुछ उद्दंड छात्रों ने जीना मुश्किल कर रखा था. फिर क्या था, पूरी तफ्तीश करने के बाद लंच के दौरान बाकायदा उन बड़े लड़कों को रास्ते में रोक कर, लंबाचौड़ा भाषण दे कर और बात न मानने की स्थिति में शारीरिक नुकसान पहुंचाने की धमकी दे कर दुरुस्त किया गया.

भैया अपने समाजसेवी कार्य अपने दोस्तों से छिपा कर करते थे. उन्होंने किस बल पर अकेले ही उन लड़कों से लोहा लेने की ठानी, यह मेरे लिए आज भी रहस्य है. उन लड़कों ने भैया के सहपाठी को बिलकुल ही छोड़ दिया, पर उस दिन के बाद से अकसर ही कभी भैया की साइकिल पंक्चर मिलती या होमवर्क कौपी स्याही से रंगी मिलती या कभी बैग में से मेढक निकलते. भैया का उन लड़कों से पीछा तभी छूटा जब हम दोनों का स्कूल बदला.

इस के बाद घटनाएं तो कई हुईं किंतु सब से नाटकीय प्रकरण तब हुआ जब भैया कक्षा 9 में थे. वे गली के मुहाने पर खड़े अपने किसी दोस्त से बतिया रहे थे. सामने सड़क पर इक्कादुक्का गाडि़यां निकल रही थीं. लैंपपोस्ट की रोशनी बहुत अधिक न हो कर भी पर्याप्त थी. एक बूढ़ी दादी डंडे के सहारे मंथर गति से सड़क पार करने लगीं. एक मारुति कार गलती से एफ वन ट्रैक से भटक कर फैजाबाद रोड पर आ गई थी.

दादीजी की गति तो ऐसी थी कि बैलगाड़ी भी उन को टक्कर मार सकती थी. उस कारचालक ने बड़े जोर का ब्रेक लगाया और दादीजी बालबाल बच गईं. वह रुकी हुई कार रुकी ही रही. भैया और उन के मित्र के एकदम सामने ही बीच सड़क पर खड़ी उस कार की अगली सीट की खिड़की का शीशा नीचे गिरा और तीखे स्त्रीकंठ में ‘बुढि़या’ के बाद कुछ अपशब्दों की बौछार बाहर आई. भाईसाहब को बुरा लगना लाजिमी था, टांग अड़ाने का कीड़ा जो था.

‘‘मैडम, वे बहुत बूढ़ी हैं. जाने दीजिए, कोई बात नहीं. वैसे आप लोग भी काफी तेज आ रहे थे.’’ भैया के ये मधुरवचन सुनते ही वह महिला, गोद में बैठे 3-4 साल के बच्चे को अपनी सीट पर पटक, ‘‘तुझे तो मैं अभी बताती हूं,’’ कहते हुए, क्रोध से फुंफकारती हुई भैया की तरफ बड़े आवेश में लपकी. और फिर जो हुआ वह बड़ा अनापेक्षित था. एक जोरदार हाथ भैया के ऊपर आया जिसे उन के कमाल के रिफ्लैक्स ने यदि समय पर रोक न लिया होता तो उन की कृशकाया पीछे बहती महल्ले की नाली में से निकालनी पड़ती और पुलिस को आराम से उन के गाल से अपराधी की उंगलियों के निशान मिल जाते.

बचतेबचते भी उक्त महिला की मैनिक्योर्ड उंगली का नाखून भैया के गाल को छू ही गया. यदि गांधीजी की उस महिला से कभी भेंट हुई होती तो दूसरा गाल आगे कर लेनेदेने की बात के आगे यह क्लौज अवश्य लगा देते कि अतिरिक्त खतरनाक व्यक्ति से सामना होने पर पहले थप्पड़ के बाद उलटेपांव भाग खड़ा होना श्रेयस्कर रहेगा.

असफल हमले की खिसियाहट और छोटीमोटी भीड़ के इकट्ठा हो जाने से वह दंभी महिला क्रोध से कांपती, भैया को अपशब्दों के साथ, ‘‘देख लूंगी’’ की धमकी देते हुए कार में बैठ कर चली गई. उधर, हमारी प्यारी बूढ़ी दादी इस सब कांड से बेखबर अपनी पूर्व धीमी गति से चलते हुए कब गायब हो गईं, किसी को पता भी नहीं चला.

उस दिन भैया और मेरी लड़ाई हुई थी और बोलचाल बंद थी. इस घटना के बाद भैया सीधे मेरे पास आए और पूरी बात बताई. वे घबराए हुए थे. 15 वर्ष की संवेदनशील उम्र में दर्शकगण के सम्मुख अपरिचित से थप्पड़, चेहरे पर भले न लगा हो, अहं पर खूब छपा था. पर क्या भैया सुधरने वालों में से थे.

भैया इंजीनियरिंग के प्रथम वर्ष में थे. घर से दूर जाने का प्रथम अनुभव, उस पर कालेज की नईनई हवा. उन की क्लास में हमारे ही शहर का एक अतिसरल छात्र था जिस पर कालेज के कुछ अतिविशिष्ट, अतिसीनियर और अतिउद्दंड लड़कों की एक टोली ने अपना निशाना साध लिया था. बेचारा दिनरात उन के असाइनमैंट पूरे करता रहता था. छुट्टी वाले दिन उन के कपड़े धोने से ले कर खाना बनाने का काम करता था. यह अगर कम था तो उस गरीब को टोली के ऊबे होने की स्थिति में अपनी नृत्यकला और संगीतकला से मनोरंजन भी करना पड़ता था.

दूरदूर तक किसी में भी उन सीनियर लड़कों को रोक सकने या डिपार्टमैंट हैड तक यह बात पहुंचा सकने की हिम्मत नहीं थी. स्थिति अजीब तो थी पर अकेले व्यक्ति के संभाले जा सकने वाली भी न थी. जान कर अपना सिर कौन शेर के मुंह में देता है? यह प्रश्न भले ही अलंकारिक है पर इस का उत्तर है ‘मेरे बड़े भैया.’ परिणाम निश्चित था. मिला भी. गनीमत यह थी कि इस कांड के तुरंत बाद ही दशहरे की छुट्टियां पड़ गईं.

किंतु भैया अब भी समझ गए होते तो यह कहानी आगे क्यों बढ़ती. जख्मों से वीभत्स बना चेहरा और प्लास्टर लगा पैर ले कर भैया, हमारे चचेरे बड़े भाईबहन, प्रियंका दीदी और आलोक भैया के साथ दिल्ली के अतिव्यस्त रेलवे स्टेशन पर लखनऊ की ट्रेन का इंतजार कर रहे थे. दीदी भैया की नासमझी (छोटी हूं इसलिए ‘मूर्खता’ कहने की धृष्टता नहीं कर सकती) से इतनी नाराज थीं कि उन से बात ही नहीं कर रही थीं. आलोक भैया भाईसाहब से पहले ही लंबीचौड़ी गुफ्तगू कर चुके थे.

स्टेशन पर इन तीनों के पास ही कुछ लड़कियों का समूह विराजमान था. वे सभी अपनी यूनिवर्सिटी की पेटभर बुराई करते हुए, स्टेशन से खरीदे अखबार व पौलिथीन में बंधे भोजन का लुत्फ उठा रही थीं. कहने की आवश्यकता नहीं कि भोज समापन पर कूड़े का क्या हुआ. मुझे रोड पर तिनका डालने के लिए भी डांटने वाले भैया का पारा चढ़ना स्वाभाविक था. अब आप सोचेंगे कि यहां कौन दलित या शोषित था. टौफी का छिलका हो या पिकनिक के बाद का थैलाभर कूड़ा, भैया या तो सबकुछ कूड़ेदान में डालते हैं या तब तक ढोते रहते हैं जब तक कोई कूड़ेदान न मिल जाए.

उन शिक्षित लड़कियों के कर्कट विसर्जन के समापन की देर थी कि भैया दनदनाते हुए (जितना प्लास्टर के साथ संभव था) गए, कूड़ा उठाया और लंगड़ाते हुए जा कर वहां रखे कूड़ेदान में डाल आए. वापस आ कर कोई वजनी बात कहना आवश्यक हो गया था. सो, उधर गए और बहुत आक्रामक मुद्रा में बोले, ‘‘बैठ कर यूनिवर्सिटी की बुराई करना आसान है पर अपनी बुराई देख पाना बहुत कठिन होता है.’’ इस डायलौग संचालन का उद्देश्य था उन युवतियों को ग्लानि से त्रस्त कर उन की बुद्धि जाग्रत करना पर हुआ इस का उलटा.

लड़कियों ने भैया की ओर ऐसे क्रोधाग्नि में जलते बाण लक्ष्य किए कि सब उन की ओर पीठ फेर कर बैठ गए भाईसाहब की कमीज में आग नहीं लगी, आश्चर्य है. उन में से एक के पिताजी, जो साथ ही थे, भैया के पास आए और ज्ञान देने की मुद्रा धारण कर बोले, ‘‘बेटा, प्यार से कहने से बात अधिक समझ आती है. स्वामी दयानंद सरस्वती ने यही बात समझाई है.’’ इस के आगे भी काफी कुछ था जो भैया अवश्य सुनते यदि वे सज्जन अपनी पुत्री और उस की समबुद्धि सहेलियों को भी कुछ समझाते.

सारे प्रकरण का सिर्फ इतना हल निकला कि अगले डेढ़दो घंटे भैया को उस दल ती तीखी नजरों के अलावा बड़ी बहन का अच्छाखासा प्रवचन (जिस का सारांश कुल इतना था, ‘‘अभी भी बुद्धि में बात आई नहीं है? नेता बनना छोड़ दो.’’) और बड़े भाई के मुसकराते हुए श्रीमुख से निकले अनगिनत कटाक्ष बरदाश्त करने पड़े.

घर पहुंच कर दोनों घटनाओं के व्याख्यान के बाद, भाईसाहब की परिवार के प्रत्येक बड़े सदस्य से जम कर फटकार लगवाने और अच्छाखासा लैक्चर दिलवाने के बाद ही दीदी को शांति मिली. भैया मेरे कमरे में आए तो ग्लानि और क्रोध दोनों से ही त्रस्त थे. इस का एक ही परिणाम निकला, पूरी छुट्टियोंभर मेरे सब से अप्रिय विषय की किताब से जम कर प्रश्न हल करवाए गए और स्वयं को मिली डांट का शतांश प्रतिदिन मुझ पर निकाल कर ही भाईसाहब कुछ सामान्य हुए.

ऐसे अनेकानेक प्रकरण हैं जहां मेरे भोलेभाले भैया ने गलत को सही दिशा देने हेतु या किसी मजबूर के हिस्से की आवाज उठाते हुए, कभी रौद्र रूप अपनाया है या कभी आवाज बुलंद की है. घर, कालेज, सड़क, मंदिर, बाजार कहीं भी जहां भाईसाहब को लगा है कि यह गलत है, वहां कभी कह कर, कभी झगड़ कर, कभी डांट कर या लड़भिड़ कर उन्होंने स्थिति सुधारने की बड़ी ईमानदारी से कोशिश है, किंतु हर बार बूमरैंग की भांति उन का सारा आवेश घूम कर आ उन्हें ही चित कर गया है.

नौकरी में आ कर, कई सारे कड़वे अनुभवों के बाद आखिरकार भैया के ज्ञानचक्षु खुले. उन्हें 3 बातों का ज्ञान हुआ. पहली, चुप रहना या बरदाश्त करते रहना हमेशा सीधेसरल या कमजोर व्यक्तियों की मजबूरी नहीं होती बल्कि अकसर ही घाघ, घुन्ने और कांइयां व्यक्तियों का गुण भी होता है. दूसरी, लोगों की जिह्वा और कान दोनों को ही मीठे का चस्का होता है. तीसरी और आखिरी, बेगानी शादी में दीवाने अब्दुल्ला साहब की रेड़ पिटनी तो पहले से ही निश्चित होती है.

मेरे भैया, यह आत्मज्ञान पा जाने के बाद से बहुत ही अधिक शांत हो गए हैं. सदा ही पांव समेट कर चलते हैं. पर मैं, जो उन्हें अच्छी तरह से जानती हूं, यह समझती हूं कि उन के लिए यह कितना भारी काम है. खैर, भैया शांत भले ही हो गए हों लेकिन स्कूल और कालेज के सभी दोस्तों के बीच उन का नाम अभी भी ‘नेताजी’ ही चलता है. Social Story

Alankrita Sahai: बौलीवुड दीवा और अभिनेत्री से जाने उनकी फिटनेस का राज

Alankrita Sahai: मिस इंडिया, मिस अर्थ और बॉलीवुड अभिनेत्री अलंकृता सहाय ने हमेशा अपने जीवन में फिटनेस को पहली प्राथमिकता दी है. उनका कहना है कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप अपनी दिनचर्या में कितने व्यस्त हैं या नही, आपको हमेशा व्यायाम करने के लिए अपने बीजी सिडयूल से समय मिलता है और यह वास्तव में सराहनीय है. में फिटनेस वर्क पिलेट्स से लेकर कोर स्ट्रेंथ ट्रेनिंग तक की पूरी प्रोसेस को नियमित करती हूं, ताकि मैँ फिट रह सकूँ.

आपको बता दें कि बिना गौडफादर के बौलीवुड में कदम रखकर काम करना अभिनेत्री अलंकृता सहाय के लिए कभी आसान नहीं था. हर दिन उन्हे खुद को प्रूव करना पड़ता था कि वह एक अच्छी अदाकारा है. कैरियर की शुरुआत उन्होंने मौडलिंग से की है. उसके बाद उन्होंने कई हिन्दी फिल्मों में अपनी छवि बनाई और आज सफल है. उनकी कुछ फिल्में द इनकम्प्लीट मैन, लव पर स्क्वायर फुट, नमस्ते इंग्लैंड आदि है. काम के अलावा अलंकृता फिटनेस लवर भी है और इस पर पूरा ध्यान देती है.

फिटनेस देती है शरीर को आकार

अलंकृता हमेशा अपनी फिटनेस डायरी के साथ सोशल मीडिया पर सभी को प्रेरित करने के लिए सक्रिय रही हैं और समय – समय पर उन्होंने अपनी व्यायाम दिनचर्या के बारे में महत्वपूर्ण योगदान भी अपने फैंस के साथ शेयर किया है और ये सही भी है कि सही वर्क आउट हमेशा व्यक्ति को फिट रखती है. इसलिए हर उम्र में एक्ट्रेसेस खुद को फिट रखने के लिए वर्कआउट करती है, जिसमें अभिनेत्री मलाइका अरोड़ा, स्वेता शेट्टी, माधुरी दीक्षित आदि सभी का नाम सबसे आगे है, क्योंकि इस उम्र में भी वे फिट एण्ड फाइन दिखती है.

अलंकृता आगे कहती है कि वर्कआउट से व्यक्ति मानसिक और शारीरिक रूप से फिट रहता है और अपने शरीर को सही आकार में रख सकता है. मैँ कितनी ही व्यस्त रहूं, वर्कआउट करना हमेशा मेरी सर्वोच्च प्राथमिकता रहती है. फिटनेस के लिए डेली वर्कआउट के अलावा मैँ योगा और हेल्दी फूड पर भी फोकस रखती हूं. हेल्दी फूड उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना एक्सरसाइज, जिसमें कैलोरी बेसड डाइट लेना लाभदायक होता है.

होती है हैप्पी हार्मोन रिलीज

अलंकृता आगे कहती है कि मैँ उन सभी युवा लड़कियों के लिए जो फिटनेस फ्रीक है और फैशन पसंद
करती है, उन्हे काम के साथ -साथ वर्क आउट को डेली रूटीन में शामिल कर लेना चाहिए. वर्कआउट से शरीर की संरचना के अलावा त्वचा भी सुंदर दिखने लगती है, क्योंकि व्यायाम से शरीर में ब्लड सरकुलेशन बढ़ जाता है, जिससे व्यक्ति पूरे दिन फ्रेश महसूस करता है. मैँ अपनी डेली वर्कआउट रूटीन को फॉलो करने की वजह से मैं बहुत अच्छी नींद लेती हूं. पूरे दिन हाइड्रेटेड रहती हूं.

इसके अलावा जब आप व्यायाम करते हैं, तो हैप्पी हार्मोन रिलीज होता है, जो चेहरे की ग्लो को बनाए रखता है. वर्क आउट के अलावा मैं किताबे पढ़ती हूं, फिल्में देखती हूं और अपने दोस्तों के साथ समय बिताती हूं. मैं कृतज्ञता के साथ जागती हूं और धन्यवाद के साथ सोती हूं. वर्क फ्रन्ट की बात करें, तो इन दिनों अलंकृता एक गाने की वीडियो और एक पौलिटिकल थ्रिलर ड्रामे की सीरीज की शूटिंग पूरी की है और आगे भी कई प्रोजैक्ट पर काम करने की तैयारी में हैं. काम भले ही धीमा हो, लेकिन अलंकृता इससे संतुष्ट हैं. Alankrita Sahai

Family Drama Story: बहूबेटी- सास को जया ने कैसे समझाया

Family Drama Story: घर क्या था, अच्छाखासा कुरुक्षेत्र का मैदान बना हुआ था. सुबह की ट्र्र्रेन से बेटी और दामाद आए थे. सारा सामान बिखरा हुआ था. दयावती ने महरी से कितना कहा था कि मेहमान आ रहे हैं, जरा जल्दी आ कर घर साफ कर जाए. 10 बज रहे थे, पर महरी का कुछ पता नहीं था. झाड़ ूबुहारु तो दूर, अभी तो रात भर के बरतन भी पड़े थे. 2-2 बार चाय बन चुकी थी, नाश्ता कब निबटेगा, कुछ पता नहीं था.

रमेश तो एक प्याला चाय पी कर ही दफ्तर चला गया था. उस की पत्नी जया अपनी 3 महीने की बच्ची को गोद में लिए बैठी थी. उस को रात भर तंग किया था उस बच्ची ने, और वह अभी भी सोने का नाम नहीं ले रही थी, जहां गोद से अलग किया नहीं कि रोने लगती थी.

इधर कमलनाथ हैं कि अवकाश प्राप्त करने के बाद से बरताव ऐसा हो गया है जैसे कहीं के लाटसाहब हो गए हों. सब काम समय पर और एकदम ठीक होना चाहिए. कहीं कोई कमी नहीं रहनी चाहिए. उन के घर के काम में मदद करने का तो कोई प्रश्न ही नहीं था.

गंदे बरतनों को देख कर दयावती खीज ही रही थी कि रश्मि बेटी ने आ कर मां को बांहों में प्यार से कस ही नहीं लिया बल्कि अपने पुराने स्कूली अंदाज से उस के गालों पर कई चुंबन भी जड़ दिए.

दयावती ने मुसकरा कर कहा, ‘‘चल हट, रही न वही बच्ची की बच्ची.’’

‘‘क्या हो रहा है, मां? पहले यह बताओ?’’

मां ने रश्मि को सारा दुखड़ा रो दिया.

‘‘तो इस में क्या बात है? तुम अपने दामाद का दिल बहलाओ. मैं थोड़ी देर में सब ठीक किए देती हूं.’’

‘‘पगली कहीं की,’’ मां ने प्यार से झिड़क कर कहा, ‘‘2 दिन के लिए तो आई है. क्या तुझ से घर का काम करवाऊंगी?’’

‘‘क्यों, क्या अब तुम्हारी बेटी नहीं रही मैं? डांटडांट कर क्या मुझ से घर का काम नहीं करवाया तुम ने? यह घर क्या अब पराया हो गया है मेरे लिए?’’ बेटी ने उलाहना दिया.

‘‘तब बात और थी, अब तुझे ब्याह जो दिया है. अपने घर में तो सबकुछ करती ही है. यहां तो तू बैठ और दो घड़ी हंसबोल कर मां का दिल बहला.’’

‘‘नहीं, मैं कुछ नहीं सुनूंगी. तुम अब यहां से जाओ. या तो इन के पास जा कर बैठो या छुटकी को संभाल लो और भाभी को यहां भेज दो. हम दोनों मिल कर काम निबटा देंगे.’’

‘‘अरे, बहू को क्या भेजूं, उसे तो छुटकी से ही फुरसत नहीं है. यह बच्ची भी ऐसी है कि दूसरे के पास जाते ही रोने लगती है. रोता बच्चा किसे अच्छा लगता है?’’

रश्मि को मां की बात में कुछ गहराई का एहसास हुआ. कहीं कुछ गड़बड़ लगती है, पर उस ने कुरेदना ठीक नहीं समझा. वह भी किसी की बहू है और उसे भी अपनी सास से निबटना पड़ता है. तालमेल बिठाने में कहीं न कहीं किसी को दबना ही पड़ता है. बिना समझौते के कहीं काम चलता है?

बातें करतेकरते रश्मि ने एक प्याला चाय बना ली थी. मां के हाथों में चाय का प्याला देते हुए उस ने कहा, ‘‘तुम जाओ, मां, उन्हें चाय दे आओ. उन को तो दिन भर चाय मिलती रहे, फिर कुछ नहीं चाहिए.’’

मां ने झिझकते हुए कहा, ‘‘अब तू ही दे आ न.’’

‘‘ओहो, कहा न, मां, तुम जाओ और दो घड़ी उन के पास बैठ कर बातें करो. आखिर उन को भी पता लगना चाहिए कि उन की सास यानी कि मेरी मां कितनी अच्छी हैं.’’

रश्मि ने मां को जबरदस्ती रसोई से बाहर निकाल दिया और साड़ी को कमर से कस कर काम में लग गई. फुरती से काम करने की आदत उस की शुरू से ही थी. देखतेदेखते उस ने सारी रसोई साफ कर दी.

फिर भाभी के पास जा कर बच्ची को गोद में ले लिया और हंसते हुए बोली, ‘‘यह तो है ही इतनी प्यारी कि बस, गोद में ले कर इस का मुंह निहारते रहो.’’

भाभी को लगा जैसे ननद ताना दे रही हो, पर उस ने तीखा उत्तर न देना ही ठीक समझा. हंस कर बोली, ‘‘लगता है सब के सिर चढ़ जाएगी.’’

‘‘भाभी, इसे तो मैं ले जाऊंगी.’’

‘‘हांहां, ले जाना. रोतेरोते सब के दिमाग ठिकाने लगा देगी.’’

‘‘बेचारी को बदनाम कर रखा है सब ने. कहां रो रही है मेरे पास?’’

‘‘यह तो नाटक है. लो, लगी न रोने?’’

‘‘लो, बाबा लो,’’ रश्मि ने हंस कर कहा, ‘‘संभालो अपनी बिटिया को. अच्छा, अब यह बताओ नाश्ता क्या बनेगा? मैं जल्दी से तैयार कर देती हूं.’’

भाभी ने जबरन हंसते हुए कहा, ‘‘क्यों, तुम क्यों बनाओगी? क्या दामादजी को किसी दूसरे के हाथ का खाना अच्छा नहीं लगता?’’

हंस कर रश्मि ने कहा, ‘‘यह बात नहीं, मुझे तो खुद ही खाना बनाना अच्छा लगता है. वैसे वह बोल रहे थे कि भाभी के हाथ से बने कबाब जरूर खाऊंगा.’’

‘‘बना दूंगी. अच्छा, तुम इसे जरा गोदी में ले कर बैठ जाओ, सो गई है. मैं झटपट नाश्ता बना देती हूं.’’

‘‘ओहो, लिटा दो न बिस्तर पर.’’

‘‘यही तो मुश्किल है. बस गोदी में ही सोती रहती है.’’

‘‘अच्छा ठहरो, मां को बुलाती हूं. वह ले कर बैठी रहेंगी. हम दोनों घर का काम कर लेंगे.’’

‘‘नहींनहीं, मांजी को तंग मत करो.’’

जया को मालूम था कि एक तो छुटकी मांजी की गोद में ज्यादा देर टिकती नहीं, दूसरे जहां उस ने कपड़े गंदे किए कि वह बहू को आवाज देने लगती हैं. स्वयं गंदे कपड़े नहीं छूतीं.

रश्मि को लगा, यहां भी कुछ गड़बड़ है. चुपचाप धीरे से छुटकी को गोद में ले कर बैठ गई और प्यार से उस का सुंदर मुख निहारने लगी. कुछ ही महीने की तो बात है, उस के घर भी मेहमान आने वाला है. वह भी ऐसे ही व्यस्त हो जाएगी. घर का पूरा काम न कर पाएगी तो उस की सास क्या कर लेगी, पर उस की सास तो सैलानी है, वह तो घर में ही नहीं टिकती. उस का सामाजिक दायरा बहुत बड़ा है. गरदन को झटका दे कर रश्मि मन ही मन बोली, ‘देखा जाएगा.’

मुश्किल से 15 मिनट हुए थे कि बच्ची रो पड़ी. हाथ से टटोल कर देखा तो पोतड़ा गीला था. उस ने जल्दी से कपड़ा बदल दिया, पर बच्ची चुप न हुई. शायद भूखी है. अब तो भाभी को बुलाना ही पड़ेगा. भाभी ने टोस्ट सेंक दिए थे, आमलेट बनाने जा रही थी. पिताजी अभी गरमगरम जलेबियां ले कर आए थे.

भाभी को जबरदस्ती बाहर कर दिया. बच्ची की देखभाल आवश्यक थी. फुरती से आमलेट बना कर ट्रे में रख कर मेज पर पहुंचा दिए. कांटेचम्मच, प्यालेप्लेट सब सही तरह से सजा कर पिताजी और अपने पति को बुला लाई. मां अभी नहा रही थीं. उस ने सोचा वह मां और भाभी के साथ खाएगी बाद में.

नाश्ते के बाद रश्मि ने कुछ काम बता कर पति को बाजार भेज दिया. अब मैदान खाली था. झट से झाड़ ू उठा ली. सोचा कि पति के वापस आने से पहले ही सारा घर साफसुथरा कर देगी. वह नहीं चाहती थी कि पति के ऊपर उस के मायके का बुरा प्रभाव पड़े. घर का मानअपमान उस का मानअपमान था. पति को इस से क्या मतलब कि महरी आई या नहीं.

जैसे ही उस ने झाड़ ू उठाई कि जया आ गई. दोनों में खींचातानी होने लगी.

‘‘ननद रानी, यह क्या कर रही हो? लोग क्या कहेंगे कि 2 दिन के लिए मायके आई और झाड़ ूबुहारु, चौकाबरतन सब करवा लिए. चलो हटो, जा कर नहाधो लो.’’

‘‘नहीं जाती, क्या कर लोगी?’’ रश्मि ने मुसकरा कर कहा, ‘‘मेरा घर है, मैं कुछ भी करूं, तुम्हें मतलब?’’

‘‘है, मतलब है. तुम तो 2 दिन बाद चली जाओगी, पर मुझे तो सारा जीवन यहां बिताना है.’’

रश्मि ने इशारा समझा, फिर भी कहा, ‘‘अच्छा चलो, काम बांट लेते हैं. तुम उधर सफाई कर लो और मैं इधर.’’

‘‘बिलकुल नहीं,’’ जया ने दृढ़ता से कहा, ‘‘ऐसा नहीं होगा.’’

भाभी और ननद झगड़ ही रही थीं कि बच्ची ने रो कर फैसला सुना दिया. भाभी मैदान से हट गई. इधर मां ने दिन के खाने का काम संभाल लिया. छुटकी को नहलानेधुलाने व कपड़े साफ करने में ही बहू को घंटों लग जाते हैं. सास बहू की मजबूरी को समझती थी, पर एक अनकही शिकायत दिल में मसोसती रहती थी. बहू के आने से उसे क्या सुख मिला? वह तो जैसे पहले घरबार में फंसी थी वैसे ही अब भी. कैसेकैसे सपनों का अंबार लगा रखा था, पर वह तो ताश के पत्तों से बने घर की तरह बिखर गया.

वह कसक और बढ़ गई थी. नहीं, शायद कसक तो वही थी, केवल उस की चुभन बढ़ गई थी. दयावती के हाथ सब्जी की ओर बढ़ गए. फिर भी उस का मन बारबार कह रहा था, लड़की को देखो, 2 दिन के लिए आई है, पर घर का काम ऐसे कर रही है जैसे अभी विवाह ही न हुआ हो. आखिर लड़की है. मां को समझती है…और बहू…

संध्या हो चुकी थी. रश्मि और उस का पति विजय अभीअभी जनपथ से लौटे थे. कितना सारा सामान खरीद कर लाए थे. कहकहे लग रहे थे. चाय ठंडी हो गई थी, पर उस का ध्यान किसे था? विजय ने पैराशूटनायलोन की एक जाकेट अपने लिए और एक अपनी पत्नी के लिए खरीदी थी. रश्मि के लिए एक जींस भी खरीदी थी. उसे रश्मि दोनों चीजें पहन कर दिखा रही थी. कितनी चुस्त और सुंदर लग रही थी. दयावती का चेहरा खिल उठा था. दिल गर्व से भर गया था.

बहू रश्मि को देख कर हंस रही थी, पर दिल पर एक बोझ सा था. शादी के बाद सास ने उस की जींस व हाउसकोट बकसे में बंद करवा दिए थे, क्योंकि उन्हें पहन कर वह बहू जैसी नहीं लगती थी.

रात को गैस के तंदूर पर रश्मि ने बढि़या स्वादिष्ठ मुर्गा और नान बनाए. इस बार बहू अपने मायके से तंदूर ले कर आई थी, पर वह वैसा का वैसा ही बंद पड़ा था. उस पर खाना बनाने का अवकाश किसे था. सास को आदत न थी और बहू को समय न था. तंदूर का खाना इतना अच्छा लगा कि विजय ने रश्मि से कहा, ‘‘कल हम भी एक तंदूर खरीद लेंगे.’’

दयावती के मुंह से निकल गया, ‘‘क्यों पैसे खराब करोगे? यही ले जाना. यहां किस काम आ रहा है.’’

कमलनाथ ने कहा, ‘‘ठीक तो है, बेटा. तुम यही ले जाओ. हमें जरूरत पड़ेगी तो और ले लेंगे.’’

बहू चुप. उस के दिल पर तो जैसे किसी ने हथौड़ा मार दिया हो. उस ने अपने पति की ओर देखा. बेटे ने मुंह फेर लिया. एक ही इलाज था. कल ही बहन के लिए एक नया तंदूर खरीद कर ले आए. लेकिन इस के लिए पैसे और समय दोनों की आवश्यकता थी.

बेटी को अपना माहौल याद आया. एक बार तंदूर ले गई तो उस के ससुर व पति दोनों जीवन भर उसे तंदूर पर ही बैठा देंगे. दोनों को खाने का बहुत शौक था. इस के अलावा उसे याद था कि जब मां का दिया हुआ शाल सास ने उस की ननद को बिना पूछे पकड़ा दिया था तो उसे कितना मानसिक कष्ट हुआ था. आंखों में आंसू आ गए थे. भाभी की हालत भी वही होगी.

बात बिगड़ने से पहले ही उस ने कहा, ‘‘नहीं मां, यह तंदूर भाभी का है, मैं नहीं ले जाऊंगी. मेरे पड़ोस में एक मेजर रहते हैं. उन्होंने मुझे सस्ते दामों

पर फौजी कैंटीन से तंदूर लाने के

लिए कहा है. 2-2 तंदूर ले कर मैं

क्या करूंगी?’’

बेटी ने तंदूर के लिए मांग नहीं की थी, परंतु उस ने ससुराल लौटते ही मेजर साहब से तंदूर के लिए कहने का इरादा कर लिया था.

अगले दिन बेटी और दामाद चले गए. घर सूनासूना लगने लगा. चहलपहल मानो समाप्त हो गई थी. इस सूनेपन को तोड़ने वाली केवल एक आवाज थी और वह थी बच्ची के रोने की आवाज. वातावरण सामान्य होने में कुछ समय लगा. मां के मुंह से हर समय बेटी का नाम निकलता था. वह क्याक्या करती थी…क्या कर रही होगी…बच्चा ठीक से हो जाए…तुरंत बुला लूंगी. 3 महीने से पहले वापस नहीं भेजूंगी. बहू सोच रही थी, उसे तो पीछे पड़ कर 1 महीने बाद ही बुला लिया था.

दयावती की बहन की लड़की किसी रिश्तेदार के यहां विवाह में आई थी, समय निकाल कर वह मौसी से मिलने भी आ गई.

‘‘क्या हो रहा है, मौसी?’’

‘‘अरे, तू कब आई?’’ दयावती ने चकित हो कर कहा, ‘‘कुछ खबर भी नहीं?’’

‘‘लो, जब खुद ही चली आई तो खबर क्या भेजनी? आई तो कल ही हूं. शादी है एक. कल वापस भी जाना है, पर अपनी प्यारी मौसी से मिले बिना कैसे जा सकती हूं? भाभी कहां हैं? सुना है, छुटकी बड़ी प्यारी है. बस, उसे देखने भर आई हूं.’’

‘‘अरे, बैठ तो सही. सब देखसुन लेना. देख कढ़ी बना रही हूं. खा कर जाना.’’

‘‘ओहो…बस, मौसी, तुम और तुम्हारी कढ़ी. हमेशा चूल्हाचौका. अब भाभी भी तो है, कुछ तो आराम से बैठा करो.’’

दयावती ने गहरी सांस ले कर कहा, ‘‘क्या आराम करना. काम तो जिंदगी की अंतिम सांस तक करना ही करना है.’’

‘‘हाय, दीदी, तुम्हारा कितना काम करती थी. सच, तुम्हें रश्मि दीदी की बहुत याद आती होगी, मौसी?’’

‘‘अब फर्क तो होता ही है बहू और बेटी में,’’ दयावती ने फिर गहरी सांस ली.

जया सुन रही थी. उस के दिल पर चोट लगी. क्यों फर्क होता है बहू और बेटी में? एक को तीर तो दूसरे को तमगा. जब सास की बहन की लड़की चली गई तो जया सोचने लगी कि इस स्थिति में बदलाव आना जरूरी है. सास और बहू के बीच औपचारिकता क्यों? वह सास से साफसाफ कह सकती है कि बारबार बेटी की रट न लगाएं. पर ऐसा कहने से सास को अच्छा न लगेगा. अब उसे ही बेटी की भूमिका अदा करनी पड़ेगी. न सास रहेगी, न बहू. हर घर में बस, मांबेटी ही होनी चाहिए.

वह मुसकराई. उसे एक तरकीब सूझी. परिणाम बुरा भी हो सकता था, परंतु उस ने खतरा उठाने का निर्णय ले ही लिया. अगले सप्ताह होली का त्योहार था. अगर कुछ बुरा भी लगा तो होली के माहौल में ढक जाएगा. उस ने छुटकी को उठा कर चूम लिया.

प्रात: जब वह कमरे से निकली तो जींस पहने हुए थी और ऊपर से चैक का कुरता डाल रखा था. हाथ में गुलाल था.

‘‘होली मुबारक हो, मांजी,’’ कहते हुए जया ने ननद की नकल करते हुए सास के गालों पर चुंबन जड़ दिए और मुंह पर गुलाल मल दिया. दयावती की तो जैसे बोलती ही बंद हो गई. इस से पहले कि सास संभलती, जया ने खिलखिला कर ‘होली है…होली है’ कहते हुए सास को पकड़ कर नाचना शुरू कर दिया. होहल्ला सुन कर कमलनाथ भी बाहर आ गए और यह दृश्य देख कर हंसे बिना न रह सके.

‘‘यह क्या हो रहा है, बहू?’’ कमलनाथ ने हंसते हुए कहा.

‘‘होली है, पिताजी, और सुनिए, आज से मैं बहू नहीं हूं, बेटी हूं…सौ फीसदी बेटी,’’ यह कहते हुए उस ने ससुर के मुंह पर भी गुलाल पोत दिया.

इस से पहले कि कुछ और हंगामा खड़ा होता, पासपड़ोस के लोग मिलने आने लगे. स्त्रियां तो घर में ही घुस आईं. इसी बीच छुटकी रोने लगी. जया ने दौड़ कर छुटकी को उठा लिया और उस के कपड़े बदल कर सास की गोदी में बैठा दिया.

‘‘मांजी, आप मिलने वालों से निबटिए, मैं चायनाश्ता लगा रही हूं.’’

‘‘पर, बहू…’’

‘‘बहू नहीं, बेटी, मांजी. अब मैं बेटी हूं. देखिए मैं कितनी फुरती से काम निबटाती हूं.’’

लोग आ रहे थे और जा रहे थे. जया फुरती से नाश्ता लगालगा कर दे रही थी. रसोई का काम भी संभाल रही थी. गरमागरम पकौडि़यां बना रही थी, जूठे बरतन इकट्ठा नहीं होने दे रही थी. साथ ही साथ धो कर रखती जाती थी. सास को 2 बार रसोई से बाहर किया. उस का काम केवल छुटकी को रखना और मिलने वालों से बात करना था. सास को मजबूरन 2 बार छुटकी के कपड़े बदलने पड़े. सब से बड़ी बात तो यह थी कि दादी की गोद में छुटकी आज चुप थी, रोने का नाम नहीं. लगता था कि वह भी षडयंत्र में शामिल थी.

जब मेहमानों से छुट्टी मिली तो दयावती ने महसूस किया कि छुटकी कुछ बदल गई है. रोई क्यों नहीं आज? बल्कि शैतान हंस ही रही थी.

कमलनाथ ने आवाज दी, ‘‘बहू, जरा एक दहीबड़ा और दे जाना, बहुत अच्छे बने हैं.’’

रसोई से आवाज आई, ‘‘यहां कोई बहूवहू नहीं है, पिताजी.’’

‘‘बड़ी भूल हो गई बेटी,’’ कमलनाथ ने हंसते हुए कहा, ‘‘अब तो मिलेगा न?’’

‘‘और हां बेटी,’’ सास ने शरमाते हुए कहा, ‘‘अपनी मां का भी ध्यान रखना.’’

सास के गले में बांहें डालते हुए जया ने कहा, ‘‘क्योें नहीं, मां, आप लोगों को पा कर मैं कितनी धन्य हूं.’’

रमेश ने जो यह नाटक देख रहा था, गंभीरता से कहा, ‘‘इन हालात में मेरी क्या स्थिति है?’’ और सब हंस पड़े. Family Drama Story

Digital Parenting: टेक लविंग पेरेंट्स की पहली पसंद

Digital Parenting: जमाने के साथ पेरेंटिंग के तरीकों में काफी बदलाव आ चुके हैं. आज की पेरेंटिंग वही नहीं है जो हमारे मम्मी-पापा के ज़माने में थी. तब प्यार भी मिलता था तो डांट में लिपटकर. लेकिन आज? आजकल बच्चे स्मार्टफोन लेकर पैदा होते हैं, ऐसा सच में तो खैर नहीं, लेकिन लगता ज़रूर है. क्योंकि बोलने से पहले उनको समार्टफोन यूज करना आ जाता है, जिसे पेरेंट्स मजे से सबके सामने फ्लैक्स करते हैं. जब बच्चे इतने स्मार्ट हो गए हैं तो ऐसे में पेरेंटिंग भी अब स्मार्ट हो गई है.

टेक्नोलॉजी का नया रोल

बच्चों की देखभाल से लेकर पढ़ाई, हेल्थ और सेफ्टी तक – हर काम में डिजिटल डिवाइस ने पैरेंट्स की लाइफ आसान बना दी है. अब आप सिर्फ झूला झुलाने या लोरी गाने वाले पैरेंट नहीं, बल्कि ऐप्स और गैजेट्स के सहारे अपने बच्चे के पूरे डेवलपमेंट पर नजर रख सकते हैं. न्यूबोर्न बेबी से लेकर टीएनर्जस तक ऐसे गैजेट्स मार्केट में अवेलेबल हैं जो पेरेंट्स की लाइफ को आसान बना रहे हैं.

बेबी मॉनिटर – सोते हुए बच्चे की लाइव रिपोर्टिंग

पहले हर कुछ देर में कमरे में जाकर देखना पड़ता था कि बच्चा सो रहा है या उठ गया. अब बेबी मॉनिटर में कैमरा, माइक्रोफोन और यहां तक कि हार्टबीट डिटेक्टर भी होता है. ऐप खोलिए और बच्चा कहीं भी हो, आप उसे देख सकते हैं. ये मॉनिटर डार्क विजन के साथ आते हैं तो कमरे में रोशनी न होने से भी आपको टेंशन नहीं रहती. इसमें मोशन डिटेक्टर भी लगा होता है. जिसका मतलब है कि बच्चा करवट भी बदलेगा तो उसका अलर्ट आपको मिलेगा.

साथ ही अगर आप बच्चे के रूम टेम्प्रेचर को लेकर परेशान रहते हैं तो उसका भी सिंपल सोल्यूशन गैजेट्स आपको दे देंगे. जहां आप रूम थर्मामीटर लगाकर रखें वो आपको रूम टेम्प्रेचर के लाइव अपडेट दे देगा, AC ऑन करें या ऑफ ये आपको सोचने की जरुरत नहीं.

पेरेंटिंग ऐप्स – मम्मी पापा के पर्सनल असिस्टेंट

‘BabyCenter’, ‘Kinedu’, ‘Parentune’, ‘FirstCry Parenting’ जैसी ढेरों ऐप्स हैं जो आपकी और बच्चे की उम्र के हिसाब से टिप्स, एक्टिविटीज़ और हेल्थ अपडेट्स देती हैं. बच्चे ने उम्र के हिसाब से अपने माइलस्टोन अचीव किए या नहीं. बच्चे की वेक्सिनेशन का टाइम आने वाला है तो उसके लिए पहले से डॉक्टर की अपोइंटमेंट और अपना शैड्यूल खाली रखने का रिमाइंडर ये ऐप आपको देते हैं. साथ ही बच्चे के खाने में क्या दें, जिससे उसका संपूर्ण विकास अच्छा हो ये सब जानकारी प्लस बेबी फ्रेंडली रेसिपी आपको इन ऐप्स में मिल जाएंगी. सुबह उठते ही अगर गूगल बताए कि आज आपके बच्चे को प्यूरी में गाजर मिलानी चाहिए, तो समझ जाइए – आप 2025 में जी रहे हैं.

बॉटल वॉर्मर एंड फॉर्मूला डिस्पेंसर

बदलते जमाने के साथ महिलाओं की फीडिंग प्रेफरेंस भी बदले हैं. अब सिर्फ ब्रेस्टफीडिंग का जमाना
नहीं है. फॉर्मूला मिल्क आज के वक्त की जरुरत बन गयी है. मिल्क सप्लाई कम हो या दफ्तरी
मजबूरी में औरत घंटो घर से बाहर हो, ऐसे में फॉर्मूला मिल्क वरदान से काम नहीं. ऐसे में फॉर्मूला
मिल्क का डायलूट करने के लिए पानी ज्यादा ठंडा या गर्म तो नहीं, इसकी टेंशन आपको करने की
जरुरत नहीं है. मात्र 1500 से 3000 में आप बॉटल वॉर्मर ले सकते हैं जिसमें आपको रात को किचन
के चक्कर काटने के जरुरत नहीं, बस मिल्क बोतल में पानी भरकर रखें और ये वॉर्मर सही टेम्प्रेचर
पर पानी को गर्म रखेगा.

साथ ही परेशानी ये भी कि कहीं फॉर्मूला ज्यादा या कम न हो जाए. तो उसका सोल्यूशन भी उपलब्ध
है. सिंपल फॉर्मूला डिस्पेंसर खरीदें जो सेट क्वांटिटी के हिसाब से पानी और फॉर्मूला आपको मिक्स
करके देगा.

ब्रेस्ट मिल्क पंप एंड मिल्क स्टोरेज सोल्यूशन

महिलाएं अब ब्रेस्टफीड के साथ मिल्क पंप के ऑप्शन को खासा पसंद कर रही हैं. क्योंकि इससे उन्हें
मी-टाइम की आजादी मिलती है और पिता को भी एक्टिव पैरेंटिंग का मौका मिलता है. जिसके लिए
आपकी रेंज के हिसाब से मैन्यूअल और इलैक्ट्रिक ब्रेस्ट पंप मौजूद हैं. आजकल डाइपर से पहले
महिलाएं पंप खरीदना पसंद करती हैं ताकि वो पंप करके अपने मिल्क सप्लाई को भी मैंटेन कर सकें
और अपने लिए कुछ वक्त भी निकाल सकें. जब आप ट्रैवल कर रहे हों तो भी ये ऑप्शन काफी
अच्छा है.

मिल्क पंप के साथ स्टोरेज इशू भी आता है, तो टैंशन नोट उसका सोल्यूशन भी है हमारे पास. स्टेरेलाइज मिल्क पाउच मार्केट में 150 की रेंज में आसानी से उपलब्ध हैं जिसमें आप एक्सट्रा मिल्क फ्रिजर में स्टोर कर सकें. मार्किंग के साथ की कब आपने उसको पंप किया है. आप कूल कैरियर भी ले सकते हैं जिसमें आप ट्रैवल के वक्त आइस पैक डालकर दूध स्टोर कर सकते हैं इसमें 24 घंटे तक स्टोर मिल्क खराब नहीं होता है. ये 1200 से 5000 में बहुत से ब्रांड आपको ऑफर करते हैं.

GPS ट्रैकर – “बच्चा कहां है” सवाल का स्मार्ट जवाब

टोडलर पार्क में हों या टीएनर्जस कोचिंग में, घर से बाहर निकलते ही बच्चों की सेफ्टी एक बड़ा टेंशन
बन जाती है. अब वियरेबल GPS ट्रैकर, स्मार्टवॉच या मोबाइल ऐप से आप जान सकते हैं कि बच्चा
स्कूल में है या पनवाड़ी की दुकान पर. एक टाइम था जब बच्चे घर से बाहर भगवान भरोसे जाते थे,
अब तो भगवान से पहले गूगल बता देता है की बच्चा कहां है. इसके लिए आजकल मार्केट में स्मार्ट
वॉच जोकि 3 से 5 हजार की कीमत में आसानी से उपलब्ध हैं. ये घड़ी न सिर्फ आपको बच्चों की
लाइव लोकेशन बताती है बल्कि आप इसमें इमरजेंसी में कॉल भी कर सकते हैं. और कैमरे से
रिकोर्डिंग की सुविधा भी मिलती है.

अगर आप भीड़ भाड़ के इलाके में जा रहे हों तो आप एंटी लॉस डिवाइस जिसे टैग बोलते हैं उनका
भी इस्तेमाल कर सकते हैं. ये मार्के में 500 से लेकर 5000 की रेंज में उपलब्ध हैं. इनका आविष्कार
तो ट्रैवल में सामान की सेफ्टी के लिए हुआ था ताकि आप अपने सामान को ट्रैक कर पाएं. लेकिन
स्मार्ट पैरेंट्स घर के बाहर जाते हुए बच्चों के ड्रैस या शूज इनसोल में इनको डाल देते हैं जिससे
उनकी लाइव लोकेशन पैरेंट्स ट्रैक कर सकें.

व्हाइट नोइस मशीन या साउंड मशीन

बच्चे अगर रात को बार-बार उठते हैं, या हल्के शोर से उनकी नींद खराब होती है तो आपको ये डिवाइस जरुर ट्राय करना चाहिए. ये मशीन हल्की बारिश या वैक्यूम मशीन चलने जैसी हल्की और लगातार आवाज करती है जिससे बाहर के शोर से बच्चा बेखबर हो चैन से सोता है. ये काफी बजट फ्रैंडली है, आपको 1 हजार से कम कीमत में भी मिल जाएगी. साथ ही इसमें नाइट लाइट का भी ऑप्शन रहता है जिससे बच्चे के रूम की छत पर तारों से टिमटिमाता आसमान या बच्चों के फैवरेट कैरेक्टर शैडो में दिखते हैं.

स्टीमर एंड ब्लैंडर

बच्चों ने यदि सोलेड फूड शुरु कर दिया है तो उनके खाने को कितनी देर स्टीम करें या किस कंसिसटेंसी में ब्लैंड करें ये बड़ी टेंशन है. फिर दिन में 2 से तीन बार उनका अलग से खाना बनाना वर्किंग मदर्स के लिए मुश्किल हो सकता है. ऐसे में आप स्टीम एंड ब्लैंड मशीन खऱीद सकते हैं जिसमें बस आप सब्जियां या दाल-चावल जो बनाना चाहें रखें. मशीन खुद ही खाने को सही स्टीम करके बच्चे की सेट उम्र के हिसाब से उसे दरदरा या बारीक पीस देगी.

स्टेरेलाइजर

बच्चों की मिल्क बोतल या टीथर को साफ करना. हर इस्तेमाल के बाद उन्हें 10 मिनट तक उबालना काफी टाइम टेकिंग टास्क है. इसको आसान करने के लिए स्टेरेलाइजर खरीद सकते हैं. 1500 से 4000 की रेंज में विभिन्न ब्रांड में उपलब्ध हैं. जिसमें आपको बस पानी डालना है बच्चे की बोतल या खिलौनों को रखकर बटन दबाना है. उसके बाद उन्हें जर्म फ्री करना का काम ये मशीन खुद कर देगी.

ओटोमैटिक रॉकिंग चेयर

कुछ बच्चों को लगातार गोद में रहने की आदत हो जाती है, आलम ये हो जाता है कि वो सोना भी गोद में ही पसंद करते हैं, बैड या बेसीनेट में लेटाते ही बच्चे रोने लगते हैं. इनका सोल्यूशन है ओटोमैटिक रॉकिंग चेयर. इन रॉकिंग चेयर को सोकेट से कनेक्ट करें और बच्चे को लेटा दें. जिससे ये चेयर हल्की मूव करती हैं जिससे बच्चे को गोद में होने का ही अहसास होता है, और वो वह अच्छे से सोता है. डरें नहीं, इसमें करंट लगने का कोई खतरा नहीं होता. बहुत सेफ्टी के साथ ये चेयर डिजाइन किए होते हैं.

स्क्रीन टाइम कंट्रोल – ‘मोबाइल नीचे रखो’ अब ऐप कहेगा

आज के बच्चों के लिए मोबाइल जरुरत से शुरु होकर उनकी आदत बन गया है. लेकिन अब पैरेंट्स ‘Family Link’ जैसे ऐप से स्क्रीन टाइम सेट कर सकते हैं, ऐप्स ब्लॉक कर सकते हैं और हिस्ट्री देख सकते हैं. इन सिक्योरिटी एप से अब बच्चे छुपा नहीं सकते कि वो पढ़ाई कर रहे हैं या PubG’. मोबाइल खुद रिपोर्ट भेज देता है. जिससे बच्चों कि स्क्रीन टाइम पर नजर रखी जा सके.

डिजिटल हेल्थ डिवाइस – बच्चे की सेहत पर 24×7 नजर

स्मार्ट थर्मामीटर, डिजिटल डायपर सेंसर, बेबी फिटनेस बैंड – अब बच्चे की बॉडी टेम्परेचर से लेकर नींद तक सब मापने के डिवाइस हैं. मम्मी को सिर्फ एक बार सिखा दो, फिर वो हर टाइम रिपोर्ट चेक करेंगी जैसे शेयर मार्केट में उतार चढ़ाव की लिस्ट हमारे पास होती है. वैसा ही बेबी ने कितनी देर नींद ली, जिसमें कितनी नींद में वो गहरी नींद में था ये सब इन डिवाइस में कैप्चर हो जाता है.

टेक्नोलॉजी से फायदों के साथ जिम्मेदारी भी

डिजिटल डिवाइसेज पेरेंटिंग को स्मार्ट बनाते हैं, लेकिन हद से ज्यादा भरोसा न करें. हर चीज का बैलेंस जरूरी है – टेक्नोलॉजी मददगार है, पर प्यार, धैर्य और आपके समय की जगह नहीं ले सकती. आजकल के बच्चे “Hey Alexa” कह कर लोरी सुनते हैं और “Ok Google” से होमवर्क पूछते हैं. पर उन्हें “मम्मी की कहानी” और “पापा की पीठ पर घोड़ा” भी चाहिए. Digital Parenting

Family Story: माधवीलता खुश हैं- क्या मिनी के लिए सही था वह रिश्ता

Family Story: बहुत देर से ऐसी अस्तव्यस्त गतिविधियों को देख रही हूं. वे शीशे की मेज पर पेपरवेट नचा रही हैं. कभी पिनकुशन से पिन निकाल कर नाखूनों का मैल साफ करती हैं. अब नाखून ही कुतरना शुरू कर दिया. हैरानी होती है. होनी ठीक भी है. कोई और ऐसे करे तो समझ भी आए. ये सब बातें कोई संसार का 8वां आश्चर्य नहीं. अकसर लोग करते हैं. पर माधवीलता ऐसा करेंगी, यह नहीं सोचा जा सकता. फिर जब उन्होंने शून्य में ताकते हुए उंगली नाक में डाल कर घुमानी शुरू की तो सचमुच हैरानी अपनी चरम सीमा पर पहुंच गई. ऐसी असभ्य, अशिष्ट हरकत माधवीलता तो कतई नहीं कर सकतीं.

माधवीलता हमारे कार्यालय में निदेशिका हैं. सुशिक्षित, उच्च अधिकारी. पति भी भारत सरकार में उच्चाधिकारी हैं. सुखी, संपन्न, सद्गृहस्थ. अब उम्र हो चली है, पर अभी खंडहर नहीं हुईं. उम्र 50-52 के करीब. बालों में सफेदी की झलक है, जिसे उन्होंने काला करने की कोशिश नहीं की. वे सुंदर हैं. अच्छी कदकाठी की हैं. पहननेओढ़ने का सलीका है उन में.

वे माथे पर बिंदी सजाती हैं. मांग में सिंदूर की हलकी सी छुअन. कार स्वयं चला कर आती हैं. 2 बच्चे हैं. बेटा आईपीएस में चुना गया है और आजकल प्रशिक्षण पर है. बेटी की हाल ही में  धनीमानी व्यापारी परिवार में शादी की है. लड़का इकलौता है. उस के मांबाप अशिक्षित, आढ़तिए नहीं हैं, खूब पढ़ेलिखे हैं.

व्यापारी वर्ग के लोग भी अब जब बहू की तलाश करते हैं तो सुंदर, सुशील, कौनवैंट में पढ़ी, भले घर की कन्या चाहते हैं. व्यापारी घराने की न हो तो उच्च अधिकारी परिवार की कन्या की जोड़ी भी ठीक मानी जाती है. शायद सोचते होंगे कि सरकारी अधिकारी रिश्तेदार हो तो शायद कुछ न कुछ सरकारी काम निकाल सकें.

सरकारी अधिकारी सोचते हैं कि नौकरीपेशा क्यों, मिल सके तो व्यापारी परिवार बेटी को मिले. नौकरी में रखा क्या है. हमेशा पैसों की किल्लत. मन का खर्च कर सको, मन का खापी सको, ऐसा कम ही होता है.

‘‘पैसे तो बस इतने ही होने चाहिए कि न खर्च करने से पहले सोचना पड़े और न पर्स के पैसे गिनने पड़ें,’’ माधवीलता ने अपनी बेटी की बात सुनाई थी.

मौका था उन की बेटी की सगाई की पार्टी का. वे बेटी की इच्छा को पूरा कर पा रही हैं, ऐसा संतोष आवाज से छलक रहा था. सचमुच सफलता की चमक होती ही कुछ और है, कहनी नहीं पड़ती, खुदबखुद बोलती है. उन की बेटी की शादी के मौके पर ही पहली बार पंचतारा होटल अंदर से देखने का सुअवसर मिला था. क्या शान, क्या ठाटबाट, क्या कहने.

जो गया सो ‘वाहवाह’ करता लौटा. इसे कहते हैं खानदानी आदमी. ‘फलों से लदे वृक्ष खुदबखुद झुक जाते हैं.’ होगा मुहावरा, माधवीलता के रूप में हम ने उन्हें इंसानी रूप धारण करते देखा है. शील, शिष्टाचार, सौंदर्य, संपन्नता, शोभा, सुखसंतोष आदि का अर्थ क्या होता है, वही माधवीलता के चेहरे पर वर्षों से देखा है.

वही माधवीलता आज अनमनी सी बैठी उंगली से नाक साफ कर रही हैं. अपनेआप होंठों ही होंठों में कुछ बुदबुदा रही हैं.

माधवीलता अपनेआप से खफा मालूम पड़ती हैं. कभी तो न ऐसे चिड़चिड़ाती थीं, न ऐसी अशिष्ट हरकतें करती थीं. क्या हुआ? प्रत्यक्षतया कोई कारण दिखाई न दे रहा था. हमेशा की मृदुभाषिणी, सुभाषिणी माधवीलता का ऐसा आचरण?

रहस्य ज्यादा दिन रहस्य न रहा. आदमी की फितरत ही ऐसी है कि न सुख पी सकता है अकेले, न दुख. दोनों में ही कहने को अपना साथी तलाश करता है. घरबाहर की अपनी बातें आमतौर पर वे करती नहीं हैं, पर उस दिन माधवीलता ने स्वयं बुला भेजा. दोचार इधरउधर की बातें हुईं, फिर बोलीं, ‘‘दिल्ली में अच्छा मनोचिकित्सक बताइए कोई.’’

मैं ने 5-6 नाम सुझाए. बात साफ न हुई. मन में खटक गया कि अंदर कुछ और तूफान है. बेटी को ले कर कुछ परेशानी हो सकती है. लेकिन कहें कैसे. बेटी की बात, मुंह से निकली और पराई हुई.

पूछने की जरूरत न हुई. 3-4 दिन बाद फिर बुला भेजा. ज्यादा उद्वेलित दिखीं. बोलीं, ‘‘दांपत्य असमंजस्य पर आप का भी तो बहुत काम है, आप ने शायद कुछ कार्यक्रम भी किए हैं…’’

‘‘जी, कार्यक्रम भी किए हैं और एक किताब भी छपी है.’’

फिर वे गोलगोल बात न कर थोड़ी ही देर में खुल गईं. शक साफ था. बात उन की विवाहित बेटी की उलझन को ले कर ही निकली. पता चला कि दामाद बेटी की नहीं सुनता, मां का आज्ञाकारी पुत्र है. मांबाप और बेटा तीनों ही लड़की को तंग करते हैं.

हमारा फर्ज था कि लड़की को भरपूर सहानुभूति दें और आजकल जैसे दुलहनों को दहेज के लिए सताया जा रहा है, उस पर अपने सुनेदेखे किस्से भी सुना दिए जाएं. पर क्या ऐसे किस्सों का पठनपाठन किसी के घर को बसा सकता है?

‘‘पुलिस में रिपोर्ट करें?’’ उन्होंने सलाह चाही.

‘‘थाने, कचहरी से घर नहीं बसते,’’ मैं जानती थी कि उन्हें सलाह नहीं, सहायता की आवश्यकता है. किंतु सलाह हमेशा सही देनी चाहिए.

मैं ने अपनी सहायता स्पष्ट की और फिर पूछा, ‘‘क्या आप ने विश्लेषण किया है कि वे बेटी को तंग क्यों कर रहे हैं?’’

‘‘वे हैं ही बुरे. गलत जगह रिश्ता हो गया,’’ वे दोटूक फैसला दे बैठीं.

‘‘बुरे होते तो आप उन्हें पसंद ही क्यों करतीं. अपनी प्यारीदुलारी बेटी को गलत जगह आप ने दिया ही क्यों होता? आइए, सोचें कि गलती क्या है. हो सकता है, कोई गलती न हो, सिर्फ गलतफहमी ही हो,’’ मैं ने उन्हें स्थिति पर साफसाफ सोचने पर आमंत्रित किया.

वे बहुत अनमनी सी मानीं, ‘‘दरअसल, वह मिन्नी को कुछ समझता नहीं. जो कुछ है, उस की मां है. वह जो कहती है, चाहती है, वही होता है.’’

‘‘घर उस का है.’’

‘‘घर मिन्नी का भी तो है.’’

‘‘उस का है. मिन्नी को बनाना है. ऐसा तो है नहीं कि बेटी इधर डोली से उतरी, उधर घर की चाबी सास ने उस के हवाले की. ऐसा तो सिर्फ सिनेमा में होता है. घर बनता है आपसी प्यार से, सद्भाव से, अधिकार से नहीं. सद्भावना अर्जित करनी पड़ती है, कहीं से अनुदान में नहीं मिलती.’’

‘‘ये सब मिन्नी की ससुराल वाले नहीं समझते.’’

‘‘यह ससुराल वालों को नहीं, मिन्नी को समझना है.’’

‘‘आप का मतलब है कि उन लोगों के साथ एडजस्ट करने के लिए मिन्नी खुद को मिट्टी में मिला ले?’’ उन के चेहरे पर साफसाफ नाराजगी दिखी.

मैं ने सोचा, ‘अपनी सलाह की गठरी बांध कर चुपचाप उठ जाऊं. मैं क्यों बेवजह माधवीलता की नाराजगी मोल लूं. उन की बेटी है, वे उस के बारे में जो सोचें. शायद ऐसा ही कुछ उन्होंने सोचा होगा कि ये क्यों मुख्तार बन रही हैं.’

बात वहीं थमी. शायद 20-25 दिन बीते होंगे. फुरसत के क्षणों में मैं ने पूछा, ‘‘मिन्नी कैसी है?’’

‘‘हम उसे ले आए हैं. वहां तो वे लोग उसे मार ही देते.’’

‘‘आप ने फैसला कुछ जल्दी में नहीं किया?’’

‘‘नहीं, बहुत सोचसमझ कर किया है.’’

‘‘क्या सोचा? मिन्नी का क्या करोगे?’’

‘‘हम तलाक का केस दायर करेंगे. इन लोगों से पीछा छूटे तो फिर दूसरी जगह बात चलाएंगे.’’

‘‘मिन्नी से पूछा?’’

‘‘उस से क्या पूछना. वह तो बहुत परेशान है. उस की हालत देख कर मुझे बहुत दुख होता है.’’

सुन कर दुख तो मुझे भी हुआ. पर लगा, हाथ पर हाथ धर कर बैठना भी ठीक नहीं. यह कोई तमाशा नहीं कि दूर बैठे ताकते रहो.

एक समारोह में अचानक मिन्नी से  भेंट हो गई. उतरा चेहरा, सूनी

मांग, सूना माथा, सूनी आंखें… देख कर धक्का सा लगा. ब्याह के दिन कैसी सुंदर लगी थी. कुछ लड़कियों पर रूप चढ़ता भी बहुत है. अब वही लुटे शृंगार सी खड़ी थी. कंधे पर पत्रकारों वाला झोला लटक रहा था.

‘‘क्या कर रही हो आजकल?’’ मैं ने सहज भाव से पूछा.

‘‘स्वतंत्र पत्रकारिता,’’ उस का संक्षिप्त उत्तर था. माधवीलता की कही बात फिर याद हो आई, ‘पर्स में पैसे गिनने न पड़ें, खर्च करने से पहले सोचना न पड़े,’ यह इसी मिन्नी की इच्छा थी. जब वही मिला जो चाहा था तो फिर गड़बड़ कहां हुई?

संयोग से मिन्नी से छिटपुट मुलाकातें होती रहीं. लड़की टूटी सी मालूम होती थी. वह दृढ़ता न दिखाती जो ऐसा कड़ा निर्णय लेने के बाद चेहरे पर होनी चाहिए थी. पता नहीं, शायद कुछ तार कांपते थे जो टूटने से रह गए थे. मैं उस की सखी नहीं, उस की मां की सखी नहीं, उस की ताईचाची नहीं, फिर किस हक से पूछूं.

‘‘क्या कुछ हो रहा है?’’ आखिर एक दिन पूछ ही बैठी.

‘‘किस बारे में?’’

‘‘केस के संबंध में,’’ सहज भाव से कहा.

लड़की हतप्रभ. मां ने दफ्तर में बताया होगा, यह नहीं समझ सकी. झट से पूछा, ‘‘उन्होंने कहा आप से?’’

‘‘हां,’’ मैं जानती थी कि यह सच न था. पर मैं ने माना कि ‘उन्होंने’ का अर्थ मेरे लिए माधवीलता हैं और उस के लिए उस  का पति. उस ने चेहरे पर उत्सुकता छिपाई नहीं, सरलता से बोली, ‘‘मिले थे वे?’’

रेखांकित करने को इतना ही काफी था कि मन में कहीं कोई आकर्षण शेष है, वरना कहा होता, ‘मिला था क्या?’

मैं ने उसे कौफी के लिए आमंत्रित किया तो वह मना न कर सकी. मैं उस के ‘मिले थे’ वाले सूत्र को पकड़े बैठी थी. वहीं से कुरेदा. लड़की अपनी रौ में बोलती गई, ‘‘बहुत खराब लोग हैं. पता नहीं कैसे पढ़ेलिखे जानवर हैं. उन्होंने मेरा जीना दूभर कर दिया है.’’

‘‘क्या उस घर में सभी तुम से बुरा व्यवहार करते हैं?’’

‘‘जी.’’

‘‘अच्छा चलो, सोचें कि क्या बुरा बरताव करते हैं?’’

‘‘मैं आप को बता ही नहीं सकती. कल्पना ही नहीं की जा सकती. वे लोग एकदम आदिमकाल के हैं. औरतों को कुछ समझते ही नहीं. वे समझते हैं कि औरतें सिर्फ उन की जिंदगी को आसान बनाने के लिए हैं. उन को अपनेआप कुछ सोचनासमझना नहीं चाहिए, उन्हें देखने के लिए उन की आंखें इस्तेमाल करनी चाहिए, सुनने के लिए उन के कान. उस को उन की मरजी के बिना कुछ नहीं करना चाहिए.’’

‘‘कुछ ठोस बात? ये तो सब बड़ी अस्पष्ट सी बातें हैं. ऐसा तो आम हिंदुस्तानी घरों में होता ही है. शादी से पहले भी तो सारे फैसले पिता करते हैं, बाद में पति को यह अधिकार मिल जाता है.’’

‘‘आप इसे कम समझती हैं? क्या औरत होने का मतलब मन, कर्म और वचन के स्वातंत्र्य को पति के चरणों में समर्पित कर निरे शून्य में बदल जाना ही है? मिट्टी में मिल जाएं?’’ उस का गोरा चेहरा लाल हो गया.

मैं ने उसे समझाया, ‘‘अगर बीज अपने बीजत्व को ही संभाले रहे तो भरेपूरे वृक्ष का विस्तार कभी नहीं पा सकता. अगर अपने अंदर समाए उस विस्तार का एहसास है तो बीज का स्वरूप भी बदलना ही होता है. उसे मिट्टी में मिलना कहो या विस्तार पाना, मरजी तुम्हारी है.’’

पहले वह झिझकी. फिर बोली, ‘‘अगर मिट्टी में ही मिलना था तो फिर इस पढ़ाईलिखाई का मतलब क्या हुआ?’’

‘‘आम पढ़ीलिखी प्रतिभाशाली कन्याओं के सपनों में एक ऐसा घर बसा होता है जिस में रांझा, फरहाद या मजनूं से भी अधिक प्रेम करने वाला पति होता है, जिस का काम केवल प्यार करना है. वह कमाता है, धनी है, सुंदर है, शिष्ट है और शक्तिशाली भी है. सपनों में कोई लड़नेझगड़ने वाला, कुरूप, दुर्बल, कायर, व्यसनी व्यक्ति को तो नहीं देखता.

‘‘लेकिन जिंदगी सपनों से नहीं चलती. सच तो यह है कि संपूर्ण कोई नहीं होता. अगर पति में कमियां हैं तो कमियां पत्नी में भी हो सकती हैं, बल्कि होती हैं. उन की ओर कोई लड़की नहीं देखती. लड़की ही क्यों, कोई भी नहीं देखता. सपनों के इस घर में केवल एक पति, पत्नी और बस.

‘‘हां, कल्पना के शिशु जरूर होते हैं, लेकिन गोरे, गुदकारे, हंसते हुए. बच्चे रोते हैं, बीमार होते हैं, यह तो नहीं सोचा जाता. सपनों का महल होता है, जिस में शहजादा होता है और वह बालिका उस की रानी होती है. क्या इस घर में एक सासससुर, देवरजेठ, ननद, देवरानी, जेठानी होती हैं? जी नहीं, सपनों में खलनायिकाओं का क्या काम?

‘‘जिंदगी में ये सब होते हैं, अपने समस्त मानवीय गुणों और अवगुणों के साथ. संगसाथ रहने का मतलब यह है कि दूसरों के गुणों को बढ़ा कर देखा जाए और अवगुणों को नजरअंदाज किया जाए.’’

‘‘फिर सारी पढ़ाईलिखाई का मतलब?’’ मिन्नी बोली.

‘‘पढ़ाईलिखाई का मतलब यह है कि वह आप के व्यक्तित्व को कितना निखारती है. डिगरी का मतलब रास्ते का रोड़ा बनना नहीं, पथ को सुगम बनाना है. कितने बेहतर ढंग से आप चीजों को सुलझा सकती हैं…न कि आप डिगरी ले कर खुद अपने अहंकार में ऐसे कैद हो जाएं कि दूसरों को कम आंकना शुरू कर दें. जिन में सौ अवगुण हैं उन का एक गुण याद करने की कोशिश करो. हो सकता है उस में 99 अवगुण हों, लेकिन एक तो गुण होगा?’’

वह चुप रह गई. मैं ने फिर कुरेदा. उस के होंठ कुछ कहने को फड़के, पर शायद शब्द न मिले. मैं ने पकड़ने को तिनका सा दिया, ‘‘वे लोग तुम्हें प्यार करते हैं?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘वे लोग तुम्हें पसंद करते हैं?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘करते थे, न करते होते तो अपने प्यारे बेटे का ब्याह तुम से क्यों करते?’’

सचमुच उस के पास जवाब न था.

‘‘पति प्यार करता है?’’ मैं ने पूछा.

उस ने इनकार में सिर हिलाया.

‘‘कभी किसी दिन…?’’

मिन्नी की पलकें न उठीं. सचमुच सही नब्ज पकड़ी थी. कितना ही बुरा आदमी हो, एक क्षण को कभी तो अच्छा होता है. सीधे म्यान से तलवार निकाल कर कोई विवाह मंडप में नहीं पहुंचता. चीजें धीरेधीरे बिगड़ती हैं. अपनी नासमझी से उन्हें और बिगाड़ते हैं, लड़की के मातापिता अपनी बेटी के प्यार में और लड़के के मातापिता अपने बेटे के प्यार में.

हर कोई गिरह पर हाथ रखता है, सिरा कोई नहीं देता. स्नेह की डोर है कि उलझती चली जाती है. ज्यादा उलझी हो तो सुलझाने का समय और सब्र कम पड़ जाता है. ताकत से वह तोड़ी जाती है और तोड़ कर वहीं जोड़ो या कहीं और, गांठ तो पड़ती ही है.

मिन्नी की पलकें झुकी थीं. यादों में प्यार का कोई क्षण तो रहा होगा ही. लेकिन कैसे माने. जिसे शत्रु घोषित किया है उसी के लिए इस कोमल संवेदन को कैसे स्वीकारे, यह संकोच है और अहं भी है. उधर लड़का भी अकड़ा बैठा होगा. यह उस के ऐब गिनाती है, लेकिन गिनाने के लिए ऐब उस के पास भी कम न होंगे. ऐसे में कोई किसी को दूसरे के गुण नहीं गिनाता.

माधवीलता से बात की, ‘‘आप बेटी को ससुराल भेज दें.’’

‘‘कैसे? वे लोग कैसा व्यवहार करेंगे? कहीं मार ही न दें?’’ उन की बीसियों शंकाएं थीं.

‘‘बिगड़ तो रही है, बनाने की कोशिश एक बार करने में हर्ज ही क्या है? फिर मिन्नी भी चाहती है पति को. प्रयास करने में नुकसान क्या है?’’

‘‘सास ताने मारेगी कि आ गई,’’ मिन्नी को शंका थी.

‘‘अपने ही घर तो जाओगी. वह भड़केगी, उबलेगी, लेकिन फिर धीरेधीरे शांत हो जाएगी. पति के सामने सिर उठा लो तो बाहर वालों के सामने झुकता है. अच्छा तो यही है कि नजर उठने से पहले ही सिर झुका लेती. पहले नजरें उठेंगी फिर उंगलियां. दूसरी जगह क्या सबकुछ तुम्हारे मनमुताबिक का होगा? कोई भी बिंदी अतीत के इस दाग को नहीं छिपा सकती. घाव सब भर जाते हैं, दाग रह जाते हैं.

‘‘बाकी जिंदगी में भी तो समझौते करने पड़ेंगे. इस से अच्छा है कि पहली बार ही समझौता कर लो. बाद में बाहर वालों की हजार बातें सुनने से अच्छा है कि चार बातें घर वालों की ही सुन ली जाएं. चाहो तो सद्भावना अर्जित करने के लिए इसे सद्भावना निवेश मान लो. बिना किए तो प्रतिदान नहीं मिलता. अभी अहं का टकराव है और असल में अहं से भी अधिक सपनों का टकराव है.

‘‘अगर तुम्हारा पति तुम्हारा स्वप्नपुरुष नहीं निकला तो इस की भी उतनी ही संभावना है कि तुम भी अपने पति की स्वप्नसुंदरी न निकली हो. उस ने भी तो ऐसी छवि मन में बसाई होगी जिस की गरदन केवल स्वीकृति में ही हिलती होगी. एकदूसरे के सपनों को समझो और सपनों को अलगअलग देखने के बजाय साझे सपने देखने की कोशिश करो.’’

‘‘हम कोर्ट में चले गए हैं. अब लोग क्या कहेंगे?’’ उस की झिझक वाजिब थी.

‘‘लोग तो कहेंगे, जो चाहेंगे. लेकिन सब प्रसन्न ही होंगे कि एक घर टूटने से बच गया. इस पर बधाई ही देंगे. कोई अफसोस प्रकट करने नहीं आएगा. तुम्हारा फैसला क्यों बदल गया, यह भी कोई नहीं पूछेगा. जाओगी तो वह अकड़ेगा जरूर, फिर? सारी हायतौबा के बाद क्या करने को बचेगा?

‘‘तृप्ति के क्षण का यह मोल ज्यादा नहीं है. हो सकता है कि कुछ भी न कहे. तब लगेगा न कि अपनेआप इधर इतने दिन न आ कर भूल ही की. हो सकता है कि वह भी अपने मन के अंदर स्वीकारे कि तुम हार कर जीत गई हो और वह जीत कर हार गया है. दरअसल, जिंदगी में जीतहार कुछ होती ही नहीं है. जीतता वही है जो हार जाता है. जब दोनों जीतते हैं, तो दोनों ही हार जाते हैं, अपने सामने भी और जग के सामने भी. हार का आनंद कह कर नहीं समझाया जा सकता, उसे भुक्तभोगी ही समझ सकता है.’’

माधवीलता को झिझक थी कि पता नहीं बेटी को क्याक्या झेलना पड़ेगा. उन्हें भी लगा कि बाद में जो झेलना पड़ेगा, उस से तो कम ही होगा.

कहानी होती तो शायद यों होती कि उस के बाद दोनों सुख से रहने लगे. पर यह कहानी नहीं है, जिंदगी है. इस का अंत कुछ यों है कि माधवीलता हैं वही सभ्य, शिष्ट, सुसंस्कृत, शालीन महिला. वे चिड़चिड़ाती नहीं हैं. वही सौम्य, मृदु मुसकान उन के अधरों पर है.

आज उन्होंने सवाल उठाया है कि नवजात शिशुओं के पालनपोषण पर विशेष अभियान की आवश्यकता है ताकि नई माताएं लाभान्वित हो सकें. बच्चों का अच्छा पालनपोषण राष्ट्रीय आवश्यकता है.

सभा में हम सब सहज भाव से मुसकराए हैं, अफसरों के सुंदर प्रस्तावों की सब से सहज और सरल प्रतिक्रिया यही है.

माधवीलता खुश हैं और साथ ही हम सब भी. Family Story

Sad Story: दुख में अटकना नहीं- नंदिता के घर लौटने के बाद क्या हुआ

Sad Story: नंदिता ने जल्दी से घर का ताला खोला. 6 बज रहे थे. उन का पोता यश स्कूल से आने ही वाला था. उन्होंने फौरन हाथमुंह धो कर यश के लिए नाश्ता तैयार किया, साथसाथ डिनर की भी तैयारी शुरू कर दी. उन के हाथ खूब फुरती से चल रहे थे, मन में भी ताजगी सी थी. वे अभीअभी किटी पार्टी से लौटी थीं. सोसायटी की 15 महिलाओं का यह ग्रुप सब को बहुत अपना सा लगता था. सब महिलाओं को महीने के इस दिन का इंतजार रहता था. ये सब महिलाएं उम्र में 30 से 40 के करीब थीं. नंदिता उम्र में सब से बड़ी थीं लेकिन उन की चुस्तीफुरती देखते ही बनती थी. अपने शालीन और मिलनसार स्वभाव के चलते वे काफी लोकप्रिय थीं.नंदिता टीचर रही थीं और अभीअभी रिटायर हुई थीं. योग और सुबहशाम की सैर ने उन्हें चुस्तदुरुस्त रखा हुआ था. उन के इंजीनियर पति का कुछ साल पहले देहावसान हुआ था. वे अपने इकलौते बेटे मयंक और बहू किरण के साथ रहती थीं.

किटी पार्टी से जब वे घर आती थीं, उन का मूड बहुत तरोताजा रहता था. सब से मिलना जो हो जाता था. किरण भी औफिस जाती थी. घर की अधिकतर जिम्मेदारियां नंदिता ने अपने ऊपर खुशीखुशी ली हुई थीं. मयंक और किरण शाम को आते तो वे रात का खाना तैयार कर चुकी होती थीं. किरण घर में घुसते ही चहकती, ‘‘मां, बहुत अच्छी खुशबू आ रही है, आप ने तो सब काम कर लिया, कुछ मेरे लिए भी छोड़ देतीं.’’

मयंक हंसता, ‘‘किरण, क्या सास मिली है तुम्हें, भई वाह.’’

किरण नंदिता के गले में बांहें डाल देती, ‘‘सास नहीं, मां हैं मेरी.’’

बहूबेटे के इस प्यार पर नंदिता का मन खुश हो जाता, कहतीं, ‘‘सारा दिन तो अकेली रहती हूं, काम करते रहने से समय का पता नहीं चलता.’’

नंदिता का हौसला सब ने उन के पति की मृत्यु पर देख लिया था, उन के बेटेबहू का लियादिया स्वभाव किसी को पसंद नहीं आया था.

अपने पति की मृत्यु के बाद जब अगले महीने की किटी पार्टी में नंदिता आईं तो सब महिलाएं उन के दुख से दुखी व गंभीर थीं लेकिन उन्होंने अपनेआप को बहुत ही सामान्य रखा. सब महिलाओं के दिल में उन के लिए इज्जत और बढ़ गई. उन्होंने सब के चेहरे पर छाई गंभीरता को दूर करते हुए कहा, ‘‘तुम लोग याद रखना, सुख में भटकना नहीं और दुख में अटकना नहीं, जब सुख मिले उसे जी लो, दुख मिले उसे भी उतनी ही खूबी से जिओ, बिना किसी शिकायत के. उस का अंश, उस की खरोंचें मन पर न रहने दो. उस के परिणाम भी बड़ी हिम्मत से स्वीकार लो और सहज ही पार हो जाओ. जीवन का यही तो मर्म है जो मैं समझ चुकी हूं.’’

सब महिलाएं नम आंखों से उन्हें सुनती रहीं. स्वभाव से अत्यंत नम्र, सहनशील, शांत, स्वाभिमानी, अपनी अपेक्षा दूसरों के सुखों और भावनाओं का ध्यान रखने वाली, जितनी तारीफ करें उतनी कम. इतने सारे गुण इस एक में कैसे आ गए, यह सोच कई बार महिलाएं हैरान रह जातीं.

फिर उन में आए कुछ परिवर्तन सभी ने महसूस किए. वे अचानक सुस्त और बीमार रहने लगीं और जब वे किटी में भी नहीं आईं तो सब हैरान हुईं. ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था, उन्हीं की बिल्ंिडग में रहने वाली रेनू और अर्चना उन्हें देखने गईं तो वे बहुत खुश हुईं, ‘‘अरे, आओ, आज कैसी रही पार्टी, लेटेलेटे तुम्हीं लोगों में मन लगा रहा आज तो मेरा.’’

उन्हें कई दिनों से बुखार था, उन के कई टैस्ट हुए थे, रिपोर्ट आनी बाकी थी. उन की तबीयत ज्यादा खराब हुई तो उन्हें अस्पताल में भरती करना पड़ा. सब उन्हें देखने अस्पताल जाते रहे. वे सब को देख कर खुश हो जातीं.

उन की रिपोर्ट्स आ गईं. मयंक को बुला कर डा. गौतम ने कहा, ‘‘मि. मयंक, आप की मदर का एचआईवी टैस्ट पौजिटिव आया है, इंफैक्शन अब स्टेज-3 एड्स में बदल गया है जिस की वजह से उन के शरीर के कई अंग जैसे किडनी, बे्रन आदि प्रभावित हुए हैं.’’

मयंक अवाक् बैठा रहा, थोड़ी देर बाद अपने को संयत कर बोला, ‘‘मम्मी तो अपने स्वास्थ्य का इतना ध्यान रखती हैं, धार्मिक हैं,’’ फिर थोड़ा सकुचाते हुए बोला, ‘‘पापा भी कुछ साल पहले नहीं रहे, उन्हें यह बीमारी कहां से हो गई?’’

डा. गौतम गंभीरतापूर्वक बोले, ‘‘आप तो पढ़ेलिखे हैं, धर्म और एड्स का क्या लेनादेना? क्या शारीरिक संबंध ही एक जरिया है एचआईवी फैलने का और अब कब, क्यों, कैसे से ज्यादा जरूरी है कि उन की जान कैसे बचाई जाए? आज कई तरह के इलाज हैं जिन से इस बीमारी को रोका जा सकता है पर सब से जरूरी है उन्हें इस बारे में बताना जिस से वे खुद भी सारी सावधानियां बरतें और इलाज में हमारा साथ दें क्योंकि अब हमें उन्हें एड्स सैल में शिफ्ट करना पड़ेगा.’’

मयंक ने डा. गौतम को ही उन्हें बताने के लिए कहा. पता चलने पर नंदिता सन्न रह गईं. कुछ देर बाद मयंक आया तो मां से नजरें मिलाए बिना सिर नीचा किए बैठा रहा. नंदिता गौर से उस का चेहरा देखती रहीं, फिर अपने को संभालती हुई हिम्मत कर के बोलीं, ‘‘इतने चुप क्यों हो, मयंक?’’

‘‘मां, आप को यह बीमारी कैसे…’’

बेटे को सारी स्थिति समझाने के लिए स्वयं को तैयार करते हुए उन्होंने बताना शुरू किया, ‘‘तुम्हें याद होगा, तुम्हारे पापा का जब वह भयंकर ऐक्सिडैंट हुआ था तो उन्हें खून चढ़ाना पड़ा था. उस समय किसी को होश नहीं था और जिन लोगों ने ब्लड डोनेट किया था उन में से शायद किसी को यह बीमारी थी, ऐसा डाक्टरों ने बाद में अंदाजा लगाया था. तुम्हारे पापा उस दुर्घटना में उस समय तो बच गए लेकिन इस बीमारी ने उन के शरीर में तेजी से फैल कर उन की जान ले ली थी. मैं ने सब को यही बताया था कि उन का हार्टफेल हुआ है. मैं उन की मृत्यु को कलंकित नहीं होने देना चाहती थी.

‘‘तुम्हें याद होगा तुम भी उस समय होस्टल में थे और उन की मृत्यु के बाद ही घर पहुंचे थे. हमारा समाज ऊपर से परिपक्व दिखता है पर अंदर से है नहीं. एड्स को ले कर हमारा समाज आज भी कई तरह के पूर्वाग्रहों से पीडि़त है.’’

मयंक की आंखें मां का चेहरा देखतेदेखते भर आईं. वह उठा और चुपचाप घर लौट गया.

नंदिता को एड्स सैल में शिफ्ट कर दिया गया. वे सोचतीं यह बीमारी इतनी भयानक नहीं है जितना कि इस से बनने वाला माहौल. सब अपनेअपने दर्द से दुखी थे. उस वार्ड में 60 साल के बूढ़े भी थे और 18 साल के युवा भी. उस माहौल का असर था या बीमारी का, उन की हालत बद से बदतर होती जा रही थी. रोज किसी न किसी टैस्ट के लिए उन का खून निकाला जाता जिस में उन्हें बहुत कष्ट होता, कितनी दवाएं दी जातीं, कितने इंजैक्शन लगते, वे दिनभर अपने बैड पर पड़ी रहतीं. अब उन के साथ बस उन का अकेलापन था. वे रातदिन मयंक, किरण और यश से बात करने के लिए तड़पती रहतीं लेकिन बीमारी का पता चलने के बाद से किरण ने तो अस्पताल में पैर ही नहीं रखा था और अब मयंक कईकई दिन बाद आता भी तो खड़ेखड़े औपचारिकता सी निभा कर चला जाता.

नंदिता का कलेजा कट कर रह जाता, यह क्या हो गया था. उन्हें देखने सोसायटी से उन के ग्रुप की कोई महिला आती तो जैसे वे जी उठतीं. कुछ महिलाएं समय का अभाव बता कर कन्नी काट जातीं लेकिन कई महिलाएं उन से मिलने आती रहतीं. वे सब के हालचाल पूछतीं. किसी का मन होता जा कर मयंक और किरण से उन के हालचाल पूछें लेकिन दोनों का स्वभाव देख कर कोई न जाता. वैसे भी महानगर के लोगों को न तो ज्यादा मतलब होता है और न ही कोई आजकल अपने जीवन में किसी तरह का हस्तक्षेप स्वीकार करता है, खासकर मयंक और किरण जैसे लोग.

कोई जब भी नंदिता को देखने जाता तो लगता उन्हें कहीं न कहीं जीने की इच्छा थी, इसी इच्छाशक्ति के जोर पर वे बहुत तेजी से ठीक होने लगीं और 5 महीने बाद वे पूरी तरह से स्वस्थ और सामान्य हो गईं. वे बहुत खुश थीं. एक बड़ा युद्ध जीत कर मृत्यु को हरा कर वे घर लौट रही थीं पर वे यह नहीं जानती थीं कि इन 5 महीनों में सबकुछ बदल चुका था.

उन्हें घर लाते समय मयंक बहुत गंभीर था. नंदिता ने सोचा इतने दिनों से सब को असुविधा हो रही है, थोड़े दिनों में सब पहले की तरह ठीक हो जाएगा. वे जल्दी से जल्दी यश को देखना चाहती थीं और यश की वजह से किरण भी उन से नहीं मिलने आ पाई. उसे कितना दुख होता होगा. यही सब सोचतेसोचते घर आ गया. मयंक पूरे रास्ते चुप रहा था. बस, हांहूं करता रहा था.

मयंक ने ही ताला खोला तो वे चौंकी, ‘‘किरण नहीं है घर पर?’’

मयंक चुप रहा. उन का बैग अंदर रखा. नंदिता ने फिर पूछा, ‘‘किरण और यश कहां हैं?’’

‘‘मां, आप की बीमारी पता चलने के बाद किरण यश के साथ यहां नहीं रहना चाहती थी. हम लोगों ने किराए पर फ्लैट ले लिया है.’’

नंदिता को लगा, सारी मोहमाया, प्यार और विश्वास के बंधन एक झटके में टूट गए हैं, उन की सारी संवेदनाएं ही शून्य हो गईं. उदास, शुष्क, खालीखाली, विरक्त आंखों से मयंक को देखती रहीं, फिर चुपचाप हतप्रभ सी वेदना के महासागर में डूब कर बैठ गईं. वे एकाकी, मौन, स्तब्ध बैठी रहीं तो मयंक ने ही चुप्पी तोड़ी, ‘‘मां, एक फुलटाइम मेड का प्रबंध कर दिया है, वह आने वाली होगी. आप को कोई परेशानी नहीं होगी और फोन तो है ही.’’

नंदिता चुप रहीं और मयंक चला गया.

लताबाई ने आ कर सब काम संभाल लिया. नंदिता के अस्पताल से घर आने का पता चलते ही उन की सहेलियां उन से मिलने पहुंच गईं. उन के घर का सन्नाटा महसूस कर के उन की आंखों की उदासी देख कर उन की सहेलियां जिन भावनाओं में डूबी थीं, उन्हें व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं थे उन के पास और जहां शब्द हार मानते हैं वहां मौन बोलता है.

नंदिता सब के हालचाल पूछती रहीं और स्वयं को सहज रखने का प्रयत्न करते हुए मुसकराने लगीं, बोलीं, ‘‘तुम लोग मेरे अकेले रहने के बारे में मत सोचो, इस की भी आदत पड़ जाएगी, सब ठीक है और तुम लोग तो हो ही, मैं अकेली कहां हूं.’’

सब उन की जिंदादिली पर हैरान हुए फिर अपनीअपनी गृहस्थी में सब व्यस्त हो गए. उन का अपना नियम शुरू हो गया. सुबहशाम सैर करतीं, अपनी हमउम्र महिलाओं के साथ गार्डन में थोड़ा समय बिता कर अपने घर लौट जातीं. सब ने गौर किया था वे अब कभी भी अपने बेटेबहू, पोते का नाम नहीं लेती थीं.

कुछ समय और बीता. आर्थिक मंदी की चपेट में किरण की नौकरी भी आ गई और मयंक को औफिस की टैंशन के कारण उच्च रक्तचाप रहने लगा. उस की तबीयत खराब रहने लगी. छुट्टी वह ले नहीं सकता था. दवा की एक प्राइवेट कंपनी में सेल्स मैनेजर था, काम का प्रैशर था ही. दोनों के शाही खर्चे थे, कोई खास बचत थी नहीं. अभी तक नंदिता के साथ रहता आया था. नंदिता के पास अपनी जमापूंजी भी थी, पति द्वारा सुरक्षित भविष्य के लिए संजोया धन था जिस से वे आज भी आर्थिक रूप से सक्षम थीं. अब लताबाई फुलटाइम मेड की तरह नहीं, बस सुबहशाम आ कर काम कर देती थी. नंदिता ने अकेले रहने की आदत डाल ली थी.

किरण के मातापिता अपने बेटे के साथ अमेरिका में रहते थे. किरण अपने जौब के लिए भागदौड़ कर रही थी. यश की देखभाल उचित तरीके से नहीं हो पा रही थी. मयंक और किरण को नंदिता की याद आने लगी. अब उन्हें नंदिता की जरूरत महसूस हुई. वैसे भी नंदिता अब स्वस्थ हो चली थीं.

एक दिन दोनों यश को ले कर नंदिता के पास पहुंच गए. नंदिता के पास उन की कुछ सहेलियां बैठी हुई थीं. मयंक पहले चुपचाप बैठा रहा, फिर उन से धीरे से बोला, ‘‘मां, आप से कुछ अकेले में बात करनी है.’’

उन की सहेलियों ने उठने का उपक्रम किया तो नंदिता ने टोका, ‘‘ये सब मेरी अपनी हैं, मेरे दुखसुख की साथी हैं, जो कहना हो, कह सकते हो.’’

मयंक को संकोच हुआ, किरण सिर झुकाए बैठी थी, यश नंदिता की गोद में बैठ चुका था.

मयंक ने कहा, ‘‘मां, हम यहां आप के पास आ कर रहना चाहते हैं. हम से गलती हुई है, हमें माफ कर दो.’’

नंदिता ने सपाट स्वर में कहा, ‘‘नहीं, अब तुम लोग यहां नहीं रहोगे.’’

मयंक सिर झुकाए अपनी परेशानियां बताता रहा, अपनी आर्थिक और शारीरिक समस्याओं को बताते हुए वह माफी मांगता रहा. सुषमा और अर्चना ने नंदिता के कंधे पर हाथ रख कर बात खत्म करने का इशारा किया तो नंदिता ने कहा, ‘‘नहीं सुषमा, इन्हें भी एहसास होना चाहिए कि परेशानी के समय जब अपने हाथ खींचते हैं तो जीवन कितना बेगाना लगता है, विश्वास नाम की चीज कैसे चूरचूर हो जाती है. मैं समझ चुकी हूं और सब से कहती हूं अपने बच्चों को पालते हुए अपने बुढ़ापे को नहीं भूलना चाहिए, वह तो सभी पर आएगा.

‘‘संतान बुढ़ापे में तुम्हारा साथ दे न दे पर तुम्हारा बचाया पैसा ही तुम्हारे काम आएगा. संतान जब दगा दे जाती है तब इंसान कैसे लड़ता है बुढ़ापे के अकेलेपन से, बीमारियों से, कदम दर कदम पास आती मौत की आहट से, कैसे? यह मैं ही जानती हूं कि पिछला समय मुझे क्या सिखा कर बीता है. मां बदला नहीं चाहती लेकिन हर मातापिता अपनी संतान से कहना चाहते हैं कि जो हमारा आज है वही उन का कल है लेकिन आज को देख कर कोई कल के बारे में कहां सोचता है बल्कि कल के आने पर आज को याद करता है,’’ बोलतेबोलते उन का कंठ भर आया.

कुछ पल मौन छाया रहा. मयंक और किरण ने हाथ जोड़ लिए, ‘‘हमें माफ कर दो, मां. हम से गलती हो गई.’’

यश ने चुपचाप सब को देखा फिर नंदिता से पूछा, ‘‘दादी, मम्मीपापा सौरी बोल रहे हैं? अब भी आप गुस्सा हैं?’’

नंदिता यश का भोला चेहरा देख कर मुसकरा दीं तो सब के चेहरों पर मुसकान फैल गई. सुषमा और अर्चना खड़ी हो गईं, मुसकराते हुए बोलीं, ‘‘हम चलते हैं.’’

नंदिता को लगा जीवन का सफर भी कितना अजीब है, कितना कुछ घटित हो जाता है अचानक, कभी खुशी गम में बदल जाती है तो कभी गम के बीच से खुशियों का सोता फूट पड़ता है. Sad Story

Hindi Family Story: अपराधबोध- क्या हुआ था अंजु के साथ

Hindi Family Story: अपने मकान के दूसरे हिस्से में भारी हलचल देख कर अंजु हैरानी में पड़ गई थी कि इतने लोगों का आनाजाना क्यों हो रहा है. जेठजी कहीं बीमार तो नहीं पड़ गए या फिर जेठानी गुसलखाने में फिसल कर गिर तो नहीं गईं.

जेठानी की नौकरानी जैसे ही दरवाजे से बाहर निकली, अंजु ने इशारे से उसे अपनी तरफ बुला लिया.

चूंकि देवरानी और जेठानी में मनमुटाव चल रहा था इसलिए जेठानी के नौकर इस ओर आते हुए डरते थे.

अंजु ने चाय का गिलास नौकरानी को पकड़ाते हुए कहा, ‘‘थोड़ी देर बैठ कर कमर सीधी कर ले.’’

चाय से भरा गिलास देख कर नौकरानी खुश हो उठी, फिर उस ने अंजु को बहुत कुछ जानकारी दे दी और यह कह कर उठ गई कि मिठाई लाने में देरी हुई तो घर में डांट पड़ जाएगी.

यह जान कर अंजु के दिल पर सांप लोटने लगा कि जेठानी की बेटी निन्नी का रिश्ता अमेरिका प्रवासी इंजीनियर लड़के से पक्का होने जा रहा है.

जेठानी का बेटा डाक्टर बन गया. डाक्टर बहू घर में आ गई.

अब तो निन्नी को भी अमेरिका में नौकरी करने वाला इंजीनियर पति मिलगया.

ईर्ष्या से जलीभुनी अंजु पति और पुत्र दोनों को भड़काने लगी, ‘‘जेठजेठानी तो शुरू से ही हमारे दुश्मन रहे हैं. इन लोगों ने हमें दिया ही क्या है. ससुरजी की छोड़ी हुई 600 गज की कोठी में से यह 100 गज में बना टूटाफूटा नौकर के रहने लायक मकान हमें दे दिया.’’

हरीश भी भाई से चिढ़ा हुआ था. वह भी मन की भड़ास निकालने लगा, ‘‘भाभी यह भी तो ताने देती कहती हैं कि भैया ने अपनी कमाई से हमें दुकान खुलवाई, मेरी बीमारी पर भी खर्चा किया.’’

‘‘दुकान में कुछ माल होता तब तो दुकान चलती, खाली बैठे मक्खी तो नहीं मारते,’’ बेटे ने भी आक्रोश उगला.

अंजु के दिल में यह बात नश्तर बन कर चुभती रहती कि रहन- सहन के मामले में हम लोग तो जेठानी के नौकरों के बराबर भी नहीं हैं.

जेठजेठानी से जलन की भावना रखने वाली अंजु कभी यह नहीं सोचती थी कि उस का पति व्यापार करने के तौरतरीके नहीं जानता. मामूली बीमारी में भी दुकान छोड़ कर घर में पड़ा रहता है.

बच्चे इंटर से आगे नहीं बढ़ पाए. दोनों बेटियों का रंग काला और शक्लसूरत भी साधारण थी. न शक्ल न अक्ल और न दहेज की चाशनी में पगी सुघड़ता, संपन्नता तो अच्छे रिश्ते कहां से मिलें.

अंजु को सारा दोष जेठजेठानी का ही नजर आता, अपना नहीं.

थोड़ी देर में जेठानी की नौकरानी बुलाने आ गई. अंजु को बुरा लगा कि जेठानी खुद क्यों नहीं आईं. नौकरानी को भेज कर बुलाने की बला टाल दी. इसीलिए दोटूक शब्दों में कह दिया कि यहां से कोई नहीं जाएगा.

कुछ देर बाद जेठ ने खुद उन के घर आ कर आने का निमंत्रण दिया तो अंजु को मन मार कर हां कहनी पड़ी.

जेठानी के शानदार ड्राइंगरूम में मखमली सोफों पर बैठे लड़के वालों को देख कर अंजु के दिल पर फिर से सांप लोट गया.

लड़का तो पूरा अंगरेज लग रहा है, विदेशी खानपान और रहनसहन अपना-कर खुद भी विदेशी जैसा बन गया है.

लड़के के पिता की उंगलियों में चमकती हीरे की अंगूठियां व मां के गले में पड़ी मोटी सोने की जंजीर अंजु के दिल पर छुरियां चलाए जा रही थी.

एकाएक जेठानी के स्वर ने अंजु को यथार्थ में ला पटका. वह लड़के वालों से उन लोगों का परिचय करा रहे थे.

लड़के वालों ने उन की तरफ हाथ जोड़ दिए तो अंजु के परिवार को भी उन का अभिवादन करना पड़ा.

जेठजी कितने चतुर हैं. लड़के वालों से अपनी असलियत छिपा ली, यह जाहिर नहीं होने दिया कि दोनों परिवारों के बीच में बोलचाल भी बंद है. माना कि जेठजी के मन में अब भी अपने छोटे भाई के प्रति स्नेह का भाव छिपा हुआ है पर उन की पत्नी, बेटा और बेटी तो दुश्मनी निभाते हैं.

भोजन के बाद लड़के वालों ने निन्नी की गोद भराई कर के विवाह की पहली रस्म संपन्न कर दी.

लड़के की मां ने कहा कि मेरा बेटा विशुद्ध भारतीय है. वर्षों विदेश में रह कर भी इस के विचार नहीं बदले. यह पूरी तरह भारतीय पत्नी चाहता था. इसे लंबी चोटी वाली व सीधे पल्लू वाली निन्नी बहुत पसंद आई है और अब हम लोग शीघ्र शादी करना चाहते हैं.

अंजु को अपने घर लौट कर भी शांति नहीं मिली.

निन्नी ने छलकपट कर के इतना अच्छा लड़का साधारण विवाह के रूप में हथिया लिया. इस चालबाजी में जेठानी की भूमिका भी रही होगी. उसी ने निन्नी को सिखापढ़ा कर लंबी चोटी व सीधा पल्लू कराया होगा.

अंजु के घर में कई दिन तक यही चर्चा चलती रही कि जीन्सशर्ट पहन कर कंधों तक कटे बालों को झुलाती हुई डिस्को में कमर मटकाती निन्नी विशुद्ध भारतीय कहां से बन गई.

एक शाम अंजु अपनी बेटी के साथ बाजार में खरीदारी कर रही थी तभी किसी ने उस के बराबर से पुकारा, ‘‘आप निन्नी की चाची हैं न.’’

अंजु ने निन्नी की होने वाली सास को पहचान लिया और नमस्कार किया. लड़का भी साथ था. वह साडि़यों केडब्बों को कार की डिग्गी में रखवा रहा था.

‘‘आप हमारे घर चलिए न, पास मेंहै.’’

अंजु उन लोगों का आग्रह ठुकरा नहीं पाई. थोड़ी नानुकुर के बाद वह और उस की बेटी दोनों कार में बैठ गईं.

लड़के की मां बहुत खुश थी. उत्साह भरे स्वर में रास्ते भर अंजु को वह बतातीरहीं कि उन्होंने निन्नी के लिए किस प्रकारके आभूषण व साडि़यों की खरीदारी की है.

लड़के वालों की भव्य कोठी व कई नौकरों को देख अंजु फिर ईर्ष्या से जलने लगी. उस की बेटी के नसीब में तो कोई सर्वेंट क्वार्टर वाला लड़का ही लिखा होगा.

अंजु अपने मन के भाव को छिपा नहीं पाई. लड़के की मां से अपनापन दिखाती हुई बोली, ‘‘बहनजी, कभीकभी आंखों देखी बात भी झूठी पड़ जाती है.’’

‘‘क्या मतलब?’’

अंजु ने जो जहर उगलना शुरू किया तो उगलती ही चली गई. कहतेकहते थक जाती तो उस की बेटी कहना शुरू कर देती.

लड़के की मां सन्न बैठी थी, ‘‘क्या कह रही हो बहन, निन्नी के कई लड़कों से चक्कर चल रहे हैं. वह लड़कों के साथ होटलों में जाती है, शराब पीती है, रात भर घर से बाहर रहती है.’’

‘‘अब क्या बताऊं बहनजी, आप ठहरीं सीधीसच्ची. आप से झूठ क्या बोलना. निन्नी के दुर्गुणों के कारण पहले भी उस का एक जगह से रिश्ता टूट चुका है.’’

अंजु की बातों को सुन कर लड़के की मां भड़क उठी, ‘‘ऐसी बिगड़ी हुई लड़की से हम अपने बेटे का विवाह नहीं करेंगे. हमारे लिए लड़कियों की कमी नहीं है. सैकड़ों रिश्ते तैयार रखे हैं.’’

अंजु का मन प्रसन्न हो उठा. वह यही तो चाहती थी कि निन्नी का रिश्ता टूट जाए.

लोहा गरम देख कर अंजु ने फिर से चोट की, ‘‘बहनजी, आप मेरी मानें तो मैं आप को एक अच्छे संस्कार वाली लड़की दिखाती हूं, लड़की इतनी सीधी कि बिलकुल गाय जैसी, जिधर कहोगे उधर चलेगी.’’

‘‘हमें तो बहन सिर्फ अच्छी लड़की चाहिए, पैसे की हमारे पास कमी नहीं है.’’

लड़के की मां अगले दिन लड़की देखने के लिए तैयार हो गईं.

एक तीर से दो निशाने लग रहे थे. निन्नी का रिश्ता भी टूट गया और अपनी गरीब बहन की बेटी के लिए अच्छा घरपरिवार भी मिल गया.

अंजु ने उसी समय अपनी बहन को फोन कर के उन लोगों को बेटी सहित अपने घर में बुला लिया.

फिर बहन की बेटी को ब्यूटीपार्लर में सजाधजा कर उस ने खुद लड़के वालों के घर ले जा कर उसे दिखाया पर लड़के को लड़की पसंद नहीं आई.

अंजु अपना सा मुंह ले कर वापस लौट आई.

फिर भी अंजु का मन संतुष्ट था कि उस के घर शहनाई न बजी तो जेठानी के घर ही कौन सी बज गई.

निन्नी का रिश्ता टूटने की खुशी भी तो कम नहीं थी.

एक दिन निन्नी रोती हुई उस के घर आई, ‘‘चाची, तुम ने उन लोगों से ऐसा क्या कह दिया कि उन्होंने रिश्ता तोड़ दिया.’’

अंजु पहले तो सुन्न जैसी खड़ी रही, फिर आंखें तरेर कर निन्नी की बात को नकारती हुई बोली, ‘‘तुम्हारा रिश्ता टूट गया, इस का आरोप तुम मेरे ऊपर क्यों लगा रही हो. तुम्हारे पास क्या सुबूत है कि मैं ने उन लोगों से तुम्हारी बातें लगाई हैं.’’

‘‘लेकिन वे लोग तो तुम्हारा ही नाम ले रहे हैं.’’

‘‘मैं भला उन लोगों को क्या जानूं,’’ अंजु निन्नी को लताड़ती हुई बोली, ‘‘तुम दोनों मांबेटी हमेशा मेरे पीछे पड़ी रहती हो, रिश्ता टूटने का आरोप मेरे सिर पर मढ़ कर मुझे बदनाम कर रही हो. यह भी तो हो सकता है कि तुम्हारी किसी गलती के कारण ही रिश्ता टूटा हो.’’

‘‘गलती… कैसी गलती? मेरी बेटी ने आज तक निगाहें उठा कर किसी की तरफ नहीं देखा तो कोई हरकत या गलती भला क्यों करेगी?’’ दीवार की आड़ में खड़ी जेठानी भी बाहर निकल आई थीं.

जेठानी की खूंखार नजरों से घबरा कर अंजु ने अपना दरवाजा बंद कर लिया.

इस घटना को ले कर दोनों घरों में तनाव की अधिकता बढ़ गई थी. फिर जेठजी ने अपनी पत्नी को समझा कर मामला रफादफा कराया.

एक रात अंजु का बेटा दफ्तर से घर लौटा तो उस के पास 500 और 1 हजार रुपए के नएनए नोट देख कर पूरा परिवार हैरान रह गया.

अंजु ने जल्दी से घर का दरवाजा बंद कर लिया और धीमी आवाज में रुपयों के बारे में पूछने लगी.

बेटे ने भी धीमी आवाज में बताया कि आज सेठजी अपना पर्स दुकान में ही भूल गए थे.

हरीश को बेटे की करतूत नागवार लगी, ‘‘तू ने सेठजी का पर्स घर में ला कर अच्छा नहीं किया. उन्हें याद आएगा तो वे तेरे ही ऊपर शक करेंगे. तू इन रुपयों को अभी उन्हें वापस कर आ.’’

आंखें तरेर कर अंजु ने पति से कहा, ‘‘तुम सचमुच के राजा हरिश्चंद्र हो तो बने रहो. हमें सीख देने की जरूरत नहीं है.’’

मांबेटा दोनों देर रात तक रुपयों को देखदेख कर खुश होते रहे और रंगीन टेलीविजन खरीदने के मनसूबे बनाते रहे.

सुबह किसी ने घर का दरवाजा जोरों से खटखटाया.

अंजु ने दरवाजा खोलने से पहले खिड़की से बाहर देखा तो उस की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई. बेटे की दुकान का मालिक कई लोगों के साथ खड़ा था.

अंजु घबरा कर पति को जगाने लगी, ‘‘देखो तो, यह कौन लोग हैं?’’

बाहर खड़े लोग देरी होते देख कर चिल्लाने लगे थे, ‘‘दरवाजा खोलते क्यों नहीं? मुंह छिपा कर इस तरह कब तक बैठे रहोगे. हम दरवाजा तोड़ डालेंगे.’’

शोर सुन कर जेठजेठानी का पूरा परिवार बाहर निकल आया. उन को बाहर खड़ा देख कर अंजु का भी परिवार बाहर निकल आया.

‘‘आप लोग इस प्रकार से हंगामा क्यों मचा रहे हैं?’’ हरीश ने साहस कर के प्रश्न किया.

‘‘तुम्हारा लड़का दुकान से रुपए चुरा कर ले आया है,’’ मालिक क्रोध से आगबबूला हो कर बोला.

‘‘सेठजी, आप को कोई गलत- फहमी हुई है. मेरा बेटा ऐसा नहीं है. इस ने कोई रुपए नहीं चुराए हैं,’’ अंजु घबराहट से कांप रही थी.

‘‘हम तुम्हारे घर की तलाशी लेंगे अभी दूध का दूध पानी का पानी हो जाएगा,’’ सारे लोग जबरदस्ती घर में घुसने लगे.

तभी जेठजी अंजु के घर के दरवाजे में अड़ कर खड़े हो गए, ‘‘तुम लोग अंदर नहीं जा सकते, हमारी इज्जत का सवालहै.’’

‘‘हमारे रुपए…’’

‘‘हम लोग चोर नहीं हैं, हमारे खानदान में किसी ने चोरी नहीं की.’’

‘‘यह लड़का चोर है.’’

‘‘आप लोगों के पास क्या सुबूत है कि इस ने चोरी की?’’ जेठजी की कड़क आवाज के सामने सभी निरुत्तर रह गए थे.

तभी जेठजी का डाक्टर बेटा सामने आ गया, उस के हाथों में नोटों की गड्डियां थीं. आक्रोश से बोला, ‘‘बोलो, कितने रुपए थे आप के. जितने थे इस में से ले जाओ.’’

वे लोग चुपचाप वापस लौट गए.

जेठजी व उन के बेटे के प्रति अंजु कृतज्ञता के भार से दब गई थी. अगर जेठजी साहस नहीं दिखाते तो आज उन सब की इज्जत सरे बाजार नीलाम हो जाती.

अंजु रोने लगी. लालच में अंधी हो कर वह कितनी बड़ी गलती कर बैठी थी. उस ने वे सारे रुपए निकाल कर बेटे के मुंह पर दे मारे, ‘‘ले, दफा हो यहां से, चोरी करेगा तो इस घर में नहीं रह पाएगा. मालिक को रुपए लौटा कर माफी मांग कर आ नहीं तो मैं तुझे घर में नहीं घुसने दूंगी,’’ फिर वह जेठजेठानी के पैरों पर गिर कर बोली, ‘‘आप लोगों ने आज हमारी इज्जत बचा ली.’’

‘‘तुम लोगों की इज्जत हमारी इज्जत है. खून तो एक ही है, आपस में मनमुटाव होना अलग बात है पर बाहर वाले आ कर तुम्हें नीचा दिखाएं तो हम कैसे देख सकते हैं,’’ जेठजी ने कहा.

अंजु शरम से पानीपानी हो रही थी. जेठजी के मन में अब भी उन लोगों के प्रति अपनापन है और एक वह है कि…उस ने जेठजी के प्रति कितना बड़ा अपराध कर डाला. उफ, क्या वह अपनेआप को कभी माफ कर सकेगी.

अंजु मन ही मन घुलती रहती. निन्नी का कुम्हलाया हुआ चेहरा उसे अंदर तक कचोटता रहता.

निन्नी छोटी थी तो उस का आंचल थामे पूरे घर में घूमती फिरती. मां से अधिक वह चाची से हिलीमिली रहती.

अपने बच्चे हो गए तब भी अंजु निन्नी को अपनी गोद में बैठा कर खिलातीपिलाती रहती. और अब ईर्ष्या की आग में जल कर उस ने अपनी उसी प्यारी सी निन्नी की भावनाओं का गला घोंट दिया था.

एक दिन अंजु के मन में छिपा अपराधबोध, सहनशक्ति से बाहर हो गया तो वह निन्नी को पकड़ कर अपने घर में ले आई, उस पर अपनापन जताती हुई बोली, ‘‘खानापीना क्यों बंद कर दिया पगली, क्या हालत बना डाली अपनी. लड़कों की कमी है क्या…’’

निन्नी उस की गोद में गिर कर बच्चों की भांति फूटफूट कर रो पड़ी, ‘‘चाची, मुझे माफ कर दो, मैं उस दिन आप से बहुत कुछ गलत बोल गई थी, उन लोगों की बातों पर विश्वास कर के मैं ने आप को गलत समझ लिया, मैं जानती हूं कि आप मुझे बहुत प्यार करती हैं.’’

‘‘हां, बेटी मैं तुझे बहुत प्यार करती हूं, पर मुझ से भी गलती हो सकती है. इनसान हूं न, फरिश्ता थोड़े ही हूं,’’ अंजु की आंखों से आंसू बहने लगे थे, ‘‘पता नहीं इनसानों को क्या हो जाता है जो कभी अपने होते हैं वे पराए लगने लगते हैं पर तू चिंता मत कर, मैं तेरे लिए उस विदेशी इंजीनियर से भी अच्छा लड़का ढूंढ़ निकालूंगी. बस, तू खुश रहा कर, वैसे ही जैसे बचपन में रहती थी. मैं तुझे अपने हाथों से दुलहन बना कर तैयार करूंगी, ससुराल भेजूंगी, मेरी अच्छी निन्नी, तू अब भी वही बचपन वाली गुडि़या लगती है.’’

जेठानी छत पर खड़ी हो कर देवरानी की बातें सुन रही थी.

अंजु के शब्दों ने उस के अंदर जादू जैसा काम किया. नीचे उतर कर पति से बोली, ‘‘झगड़ा तो हम बड़ों के बीच चल रहा है, बच्चे क्यों पिसें. तुम अंजु के बेटे की कहीं अच्छी सी नौकरी लगवा दो न.’’

‘‘तुम ठीक कहती हो.’’

‘‘अंजु की लड़कियां पूरे दिन घर में खाली बैठी रहती हैं. एक बिजली से चलने वाली सिलाई मशीन ला कर उन्हें दे दो. मांबेटियां सिलाई कर के कुछ आर्थिक लाभ उठा लेंगी.’’

‘‘ठीक है, जैसा तुम कहती हो वैसा ही करेंगे. इन लोगों का और है ही कौन.’’

अंजु ने निन्नी पर प्यार जताया तो जेठानी के मन में भी उस के बच्चों के प्रति ममता का दरिया उमड़ पड़ा था. Hindi Family Story

Social Story: उलटा दांव- डा. मोहन की कौनसी आस टूटी थी

Social Story: पटना अहमदाबाद ऐक्सप्रैस ट्रेन अपनी पूरी गति से चली जा रही थी. पटना रेलवे स्टेशन पर इस ट्रेन पर सवार जितेंद्र अपनी बेटी मालती के साथ अहमदाबाद जा रहे थे. वहां उन्हें बेटी को मैडिकल ऐडमिशन के लिए टैस्ट दिलवाना था.

एक प्राइवेट फर्म के क्लर्क जितेंद्र के लिए यह एक अच्छा अवसर था. सो, वे खुशी से जा रहे थे. वहीं उन की 17 वर्षीया बेटी मालती की खुशी का ठिकाना नहीं था. स्टेशन पर उन की पत्नी और बाकी बच्चे उन्हें छोड़ने आए थे. वे गाड़ी पर चढ़ गए. उन के सामने की बर्थ पर

2 लड़के विराजमान थे, 24-25 वर्ष के रहे होंगे, जींसपैंट व शर्ट में कम के ही लग रहे थे.

‘‘पापा, आजकल किसी ने कुछ उलटीसीधी हरकत की तो एक मैसेज रेलमंत्री को करने से अपराधी फौरन पकड़ा जाता है,’’ मालती शायद इन बातों से अपना डर कम कर रही थी या उन युवकों को सुना रही थी.

‘‘हां बेटा, आप ठीक कह रहे हो, हम अब पूरी तरह सुरक्षित हैं,’’ पिता बेटी की हां में हां मिला रहे थे.

‘‘परंतु पापा, क्या वास्तव में कार्रवाई होती है या फिर नाम कमाने के लिए…’’ वह शायद बात को लंबा खींचना चाहती थी.

‘‘बेटा, कार्रवाई वास्तव में होती है और कई पकड़े भी जा चुके हैं,’’ यह पिता का स्वर था. इधर, ये दोनों युवक अपनी पुस्तक पढ़ने में लगे थे. एक बार भी उन की बातों की ओर ध्यान नहीं दिया था.

‘‘क्यों, आप दोनों का क्या मत है?’’ इन्होंने उन दोनों युवकों से प्रश्न किया.

‘‘जी, आप ने मु झ से कुछ कहा,’’ एक युवक बोला.

‘‘हां, कार्य के संबंध में पूछा था,’’ जितेंद्र ने बात प्रारंभ करने की गरज से कहा.

‘‘सौरी, मैं सुन नहीं पाया था,’’ कहते वह इन की बात सुनने की मुद्रा में आ गया.

‘‘क्या रेलमंत्री को मैसेज करने पर कार्यवाही वास्तव में होती है?’’ यह मालती का स्वर था.

‘‘जी, अगर शिकायत सही हो तो, वरना गलत शिकायत करने पर उलटा पेनल्टी लगने की संभावना भी है,’’ इसी लड़के ने कहा और पढ़ने में खो गया.

इधर मालती को चैन नहीं आ रहा था. वह उभरे गले का टौप, नीचे टाइट जींस पहने हाथ में बैग हिलाती गाड़ी पर आई थी, जिस के पिता कुली के समान सामान ढोते आए थे. वह अपने पिता को मानो कुली सम झ रही थी, जबकि स्वयं को राजकुमारी. ऐसी दशा में पूरे 2 घंटे गाड़ी को दौड़ते हुए हो गए और इन दोनों लड़कों ने एक बार भी उस की ओर ध्यान नहीं दिया. सो, उसे गवारा नहीं हुआ या यों कहें कि वह पचा नहीं पा रही थी.

‘‘सुनिए,’’ मालती से जब नहीं रहा गया तो बोल उठी.

‘‘जी,’’ एक ने उस की ओर देखते कहा.

‘‘पीने का पानी होगा आप के पास?’’ वह बोली. इस पर बिना कुछ बोले एक युवक ने पानी उस की ओर बढ़ा दिया. पानी पी कर मालती ने थैंक्स कहा तो वह बिना बोले मुसकरा कर अभिवादन स्वीकार करते, बोतल वापस बैग में रख फिर पढ़ने में खो गया.

डाक्टर राकेश, डाक्टर मोहन मिश्रा, टीटीई ने नाम ले कर पुकारा तो दोनों ने मुसकरा कर सिर हिला दिया.

‘‘डाक्टर साहब, आप अहमदाबाद में?’’ टीटीई न जाने क्यों पूछ बैठा.

‘‘हम दोनों वहां एमजीएमसी में कार्यरत हैं,’’ एक युवक ने संक्षिप्त उत्तर दिया.

‘‘डाक्टर साहब? तो क्या आप दोनों डाक्टर हैं?’’ जितेंद्र टीटीई के बाद बोल पड़े.

‘‘जी सर, हम दोनों भाई हाउस सर्जन के रूप में कार्यरत हैं और एमएस भी कर रहे हैं,’’ इस बार दूसरा युवक यानी डा. मोहन बोल उठा.

‘‘हम वहीं अपनी बिटिया का ऐडमिशन टेस्ट दिलवाने ले जा रहे हैं,’’ जितेंद्र बिना पूछे बोल उठे.

‘‘जी, परंतु मैडिकल की पढ़ाई तो पटना में भी हो सकती है. फिर इतनी दूर?’’ इस बार डा. राकेश ने प्रश्न किया.

‘‘बात यह है कि बाहर पढ़ने का मजा कुछ और है और वहां किसी की ज्यादा टोकाटाकी नहीं होती,’’ यह उन की बेटी मालती थी जो बीच में टपक पड़ी थी.

‘‘अच्छा,’’ एक शब्द बोल दोनों फिर चुप हो गए.

‘‘आप लोग कहां के रहने वाले हैं?’’ जितेंद्र ने पूछा.

‘‘पटना का ही हूं. मेरे पिताजी पटना में ही नौकरी में हैं और वहीं से एमबीबीएस किया. फिर यहां नौकरी करने चले आए.’’

अब इन की आंखों में दूसरा स्वप्न तैरने लगा. एक जवान होती बेटी के पिता की आंखों में बेटी के भावी वर की तसवीर तैरती रहती है.

‘‘आप लोग पटना के हैं, लगते तो नहीं?’’ यह मालती का प्रश्न था.

‘‘हम लोग 2 साल से अहमदाबाद में काम कर रहे हैं. हो सकता है बोली में बदलाव आ गया हो,’’ डा. मोहन ने बात को खत्म करने की गरज से कहा.

‘‘मेरी बेटी कुछ ज्यादा ही बोलती है,’’ जितेंद्र ने बेटी का बचाव करते हुए कहा.

‘‘ऐसा कुछ नहीं है. बड़े होने पर संभल जाएगी,’’ यहां भी दोनों बात को समाप्त कर फिर पढ़ने में खोते हुए बोले.

अब दोनों बापबेटी इन दोनों से परेशान हो गए थे. ये लोग कभी भी कुछ भी बोलना नहीं चाहते. मात्र पढ़ते रहते हैं. बीच में चाय मंगा कर दोनों ने पी. एक बार भी नहीं पूछा.

जितेंद्र को  झट मौका मिल गया. जैसे ही मुगलसराय से गाड़ी आगे चली, एक चाय वाला चाय ले कर आया.

उन्होंने 3 चाय का और्डर दिया. एक खुद के लिए और 2 उन दोनों डाक्टरों के लिए.

‘‘नो थैंक्स, हम दोनों चाय पी चुके हैं,’’ दोनों स्पष्ट मना करते बोले.

‘‘मगर हम ने खरीद ली है. मैं पीने लगा तो सोचा आप को भी पिला दूं. आखिर आप पटना के हैं न,’’ इन्होंने बातों की कड़ी जोड़नी चाही.

‘‘जी धन्यवाद, परंतु हम अभी चाय पी चुके हैं,’’ संक्षिप्त उत्तर दे कर दोनों चुप हो गए.

जितेंद्र ने चाय का कप अन्य 2 पास की सीटों पर विराजमान लोगों को पकड़ा दिया. उन्हें बोलने की आदत थी, वहीं वे दोनों मानो न बोलने की कसम खाए बैठे थे.

इधर टे्रन अपनी गति से दौड़ती जा रही थी. अनायास ही एक फोन डाक्टर मोहन के पास आया, ‘‘जी, हम परसों सुबह पहुंच जाएंगे. दोपहर 1 बजे तक औपरेशन कर सकते हैं. आप पेशेंट को तब तक एक दवा दे कर रखें.’’ इस जवाब ने बाकी पैसेंजर्स को चौंका दिया. वे उन की ओर देख रहे थे.

डाक्टर मोहन फोन सुनने के बाद राकेश से कह रहे थे, ‘‘कुल 5 औपरेशन परसों करने हैं. पांचों मेजर हैं. तुम सफर के बाद…’’

‘‘आप चिंता न करें. रिजर्व कूपे में आराम से जा रहे हैं. रात भरपूर नींद ले लेंगे. सो, मन ताजा रहेगा. अलबत्ता डिस्कस करना जरूरी है,’’ राकेश ने भी भाई की हां में हां मिलाई.

अब सारे पैसेंजर्स की निगाहों में मानो दोनों हीरो बने जा रहे थे.

‘‘डाक्टर साहब, ट्रेन में एक को अटैक आ गया. क्या आप…’’ यह भागते आते टीटीई का स्वर था.

‘‘बिलकुल, चलिए,’’ कहते अपना बैग उठाए दोनों डाक्टर चल दिए.

करीब 1 घंटे बाद दोनों लौटे. पसीने से तरबतर थे. डाक्टर का यह रूप यात्रियों ने नहीं देखा था.

‘‘थैंक्स डाक्टर, आप ने उन की जान बचा ली. रेलवे पर एहसान किया है.’’

‘‘थैंक्स कैसा सर, हम ने बस अपना फर्ज निभाया है. उन्हें अंडरकंट्रोल कर नींद का इंजैक्शन दे दिया है. जबलपुर या इटारसी कहीं भी हौस्पिटल में शिफ्ट कर दीजिएगा,’’ अत्यंत सरल स्वर में ये दोनों युवक बोल रहे थे.

थोड़ी देर बाद उस आदमी के साथ का अटैंडैंट इन के पास आया और फीस लेने का आग्रह करने लगा.

‘‘नो थैंक्स, हम सरकारी डाक्टर हैं. पैसेंजर का इलाज करना हमारा फर्ज बनता है,’’ इन्होंने मना करते कहा.

अब तो टीटीई से ले कर टे्रन के सारे पैंसेजर इन दोनों डाक्टरों को पहचान गए थे. इधर जितेंद्र के दिमाग में अलग खिचड़ी पकने लगी. अपनी बिरादरी के हैं. काबिल डाक्टर हैं. उम्र भी ज्यादा से ज्यादा 25 की होगी. बेटी भी 18 की है, कौन सी छोटी है. फिर 7-8 साल का अंतर तो हर जगह रहता है.

‘‘क्यों डाक्टर साहब, आप के पूरे परिवार के सदस्य पटना में ही रहते हैं?’’ जितेंद्र ने सवाल पूछा.

‘‘पूरे कहां, हम दोनों भाई अहमदाबाद में, शेष बचे मांपापा पटना में हैं,’’ डाक्टर ने बात पूरी की, या यों कहें कि जवाब दिया.

‘‘फिर उन की देखरेख?’’

इस प्रश्न पर दोनों भाई मानो चौंक गए, ‘‘मेरे पितामाता दोनों पूरी तरह स्वस्थ हैं. पिताजी नौकरी में हैं.’’

‘‘परंतु आप कभीकभार ही देख पाते होंगे न?’’ जितेंद्र ने फिर से प्रश्न किया.

‘‘हम दोनों में से कोई एक 2-4 माह में आ ही जाता है. फिर पास में चाचाका परिवार है,’’ डा. मोहन का जवाब था.

नौकरी में दांवपेंच ज्यादा चलाने वाले, काम से कोसों दूर रहने वाले जितेंद्र अपना निश्चय लगभग कर चुके थे. वे 2 बार बाथरूम जाने के बहाने वहां से हट कर अपनी पत्नी को इन के बारे में बता चुके थे. पत्नी की राय भी यही थी कि लड़के के परिवार का पता ले लिया जाए तो एक लड़का अवश्य अपनी लड़की के लिए मांग लेंगे. अगर देने से मना किया तो पैसे दे कर…

उन्होंने टीटीई के पास जा कर उन्हें चाय पिला कर यात्रियों की सूची से इन दोनों का पता मालूम कर लिया था. बस, ट्रेन अहमदाबाद तो पहुंचे. वहां बेटी के बहाने इनका होस्टल देख लेंगे. और पटना लौट कर शादी भी पक्की कर लेंगे इतने काबिल डाक्टर दोनों भाई हैं कहीं किसी दूसरे ने इन्हें लपक लिया तो… 15-20 लाख में भी सस्ता सौदा होगा. मकान 3-4 साल बाद ले लेंगे या किराए में जिंदगी काट लेंगे.

यह सब सोचतेसोचते पता नहीं इन के खयालों की उड़ान कहां तक पहुंच जाती. सब से खराबी यह थी कि दोनों भाई एक शब्द नहीं बोले थे. बस, सवाल का जवाब दे रहे थे. यदि लड़का मान जाए तो पटना में

इस का कौल फिक्स कर ही लाखों कमाया जा सकता है. बड़ा काबिल डाक्टर है.

पता नहीं वे कहां तक और क्याक्या सोचते, मगर उन की सोच पर पत्थर पड़ गया जब मोहन ने फोन पर अपनी पत्नी से बात की. ‘‘सुनो, परसों सुबह अहमदाबाद में हम लोग होंगे, दोपहर औपरेशन का टाइम दे रखा है. सो, परेशान मत होना.’’

‘अच्छा, तो मोहन विवाहित है. तो कोई बात नहीं. दूसरा भाई यदि कुंआरा हो तो…’ टूटती उम्मीद के बीच एक चिराग उन्हें दिखने लगा.

‘‘आप दोनों भाई परिवार से इतनी दूर रहते हैं?’’ जितेंद्र न जाने क्यों यह पूछ बैठे.

‘‘अकेले कहां हम दोनों अपने परिवार के साथ रहते हैं.’’ डा. मोहन के इस जवाब को सुनते ही जितेंद्र धम्म से बर्थ पर गिर पड़े.

उन के शरीर को इस प्रकार पसीने से गीला देख कर दोनों हड़बड़ा गए, ‘‘क्या हुआ जितेंद्रजी, आप की तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘बस, घबराहट हो रही है,’’ वे अपने हृदय को दबाते बोले.

‘‘आप लेटिए,’’ कहते हुए डाक्टरों ने उन्हें बैड पर लिटा दिया और उन का बीपी चैक करने लगे. टीटीई फिर आ गया. बीपी की दवा के साथ नींद की गोलियां भी खिला दीं.

‘‘अब 4 घंटे बाद इन्हें होश आ जाएगा. हम अहमदाबाद में होंगे,’’ डा. मोहन टीटीई को बता रहे थे.

‘‘मगर हुआ क्या?’’ टीटीई ने हैरानी से पूछा.

‘‘पता नहीं, जैसे ही मैं ने कहा कि मैं परिवार के साथ रहता हूं, सुनते ही ये धम्म से बिस्तर पर गिर पड़े.’’

‘‘क्या आप के परिवार के बारे में पूछा था?’’ टीटीई ने प्रश्न किया.

‘‘जी, पूरे रास्ते हमारे बारे में पूछते रहे हैं,’’ यह बताते हुए डाक्टर का चेहरा अजीब हो रहा था. वहीं टीटीई गंभीर स्वर में बोला, ‘‘कोई बात नहीं, इन की आस की डोर टूट गई है. हर बेटी का बाप आस की डोर टूटने पर ऐसे ही बिखरता है. वही बिखरन है.’’

‘‘क्या मतलब?’’ ये मुंहबाए पूछ बैठे.

इस पर टीटीई ने कहा, ‘‘कुछ नहीं, उन्होंने आप में भावी दमाद देख लिया था. सो, आप की शादी की बात सुन कर झटका खा गए.’’ Social Story

Monsoon Special: डिनर में बनाएं भरवां बैगन

Monsoon Special: बैंगन की सब्जी ज्यादातर लोगों को पसंद नहीं आती. लेकिन आज हम आपको भरवां बैंगन की खास रेसिपी बताएंगे, जो आपकी फैमिली को बेहद पसंद आएगी.

सामग्री

1 गोल बैगन

1/4 कप ब्रोकली बारीक कटी

1/4 कप बारीक कटा आलू

1 बड़ा चम्मच बारीक कटी गाजर

1 बड़ा चम्मच लालपीलीहरी शिमलामिर्च बारीक कटी

1/4 कप कटे टमाटर

1/2 कप टोमैटो प्यूरी

1 छोटा चम्मच अदरकलहसुन का पेस्ट

1 छोटा चम्मच चाटमसाला

1 छोटा चम्मच तंदूरी मसाला

1 बड़ा चम्मच टोमैटो सौस

1 बड़ा चम्मच मक्खन

सजाने के लिए अलसी के भूने बीज

नमक स्वादानुसार.

विधि

बैगन को बीच में से लंबाई में काट लें और दोनों टुकड़ों के बीच का गूदा निकाल कर अलग रख दें. एक पैन में मक्खन गरम करें. उस में अदरकलहसुन का पेस्ट व टोमैटो प्यूरी डाल कर कुछ देर भूनें. फिर मसाले व टोमैटो सौस डाल दें और टमाटर डाल कर कुछ देर पकाएं. अब सारी कटी सब्जी डाल कर कुछ देर पकाएं. लेकिन ध्यान रखें कि सब्जी गले नहीं. इस तैयार सब्जी को बैगन के खोल में भर लें. ऊपर से अलसी के बीच सजाएं. बैगन के बाहरी हिस्से में मक्खन चुपड़ दें और उसे 3-4 मिनट माइक्रोवेव में बेक कर लें. गरमगरम परोसें. Monsoon Special

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