नो एंट्री- भाग 3 : ईशा क्यों पति से दूर होकर निशांत की तरफ आकर्षित हो रही थी

मगर वह जवानी ही क्या जो रास्ता ना भटके. जवानी में हमारे हारमोंस हमसे वह सब करवा जाते हैं जिसको बाद में स्वीकारना तक कठिन हो जाए. युवावस्था ऐसा काल है जिसमें केवल वर्तमान होता है, ना भूत, ना भविष्य. आज जो कदम हम उठा रहे हैं उसका कल हमें क्या भुगतान करना पड़ सकता है, यह सोचना जवानी का काम नहीं.

कॉलेज के आखिरी साल में एक दिन ईशा अपने हॉस्टल के कमरे से बाहर आ रही थी कि हेमंत वहाँ आ गया. उसने अचानक उसका हाथ पकड़ लिया, “ईशा, मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूं.”

“क्या हुआ?”, ईशा अचकचा गई.

“ईशा, मैंने तुम्हारी आंखों में अपने लिए कुछ पढ़ा है लेकिन अफसोस तुम मेरी आंखों में झांकने से चूक गईं.”

“यह कैसी बात कर रहे हो, हेमंत? तुम सागरिका के बॉयफ्रेंड हो.”

“क्या केवल एक दिन के लिए… आज के लिए तुम यह बात भूल नहीं सकती? क्या मैं तुम्हें क्यूट नहीं लगता? क्या तुम मुझे पसंद नहीं करती? अगर मैं झूठ बोल रहा हूं तो बेशक तुम फौरन इस कमरे से चली जाओ.”

ईशा का दिमाग यह कह रहा था कि यह सागरिका के साथ धोखा होगा परंतु उसका मन इस बात से हर्षित होने लगा कि जिस हेमंत को वह मन ही मन चाहती थी, वो भी उसे अपने समीप लाना चाहता है. आखिर दिल दिमाग पर हावी हो गया. उस दिन ईशा और हेमंत अपनी सीमाएं लाँघते हुए एक दूसरे की आगोश में समा गए. जवानी का उबाल दूध की तरह उफनने लगा. दोनों ने सारी हदें पार कर दीं.

जब यह तूफान शांत हुआ तब ईशा का ध्यान सागरिका की ओर गया. अपने दिल की बात सुनकर क्षणिक सुख की खातिर ईशा ने हेमंत के साथ जो किया उसके कारण अब उसका मन ग्लानि से भरने लगा. अपनी सबसे प्यारी सखी को धोखा देकर वह बहुत पछताने लगी. उस घटना के पश्चात जब कभी ईशा, सागरिका के सामने आती, उसे धोखा देने का घाव एक बार फिर हरा हो जाता. इससे बचने हेतु ईशा, सागरिका से नजरें चुराती, उससे ना मिलने के बहाने खोजती फिरती. अपने बचपन की सहेली को यूँ खो बैठने का दुख ईशा को बहुत सताता किन्तु सागरिका की आँखों में देखकर बात करने की हिम्मत अब ईशा खो चुकी थी. यहाँ तक कि अंतिम वर्ष की परीक्षाओं के पश्चात उसने माता पिता के सुझाए रिश्ते के लिए फौरन हामी भर दी. ईशा का विवाह हो गया और वह अपनी नई दुनिया में खो गई.

आज सागरिका को पुनः मिलने के कारण ईशा के सामने सारा अतीत फिर से तनकर खड़ा हो गया. उस समय ईशा किसी से जुड़ी नहीं थी. उसके जीवन में किसी के प्रति कोई जवाबदेही नहीं थी. हेमंत ने भी यही कहकर उसके मन में उठ रहे संदेह को दबा दिया था, “तुम किसी प्रकार की ग्लानि क्यों ओढ़ती हो? आखिर तुम तो किसी से कमिटेड नहीं हो. यदि किसी को आपत्ति होनी चाहिए तो वह मैं या सागरिका हैं. मुझे कोई परेशानी नहीं, और सागरिका को इस बात की भनक भी नहीं पड़ने दूंगा.” हेमंत उसके अंदर चल रहे द्वंद को कुचलने में सफल रहा था. परंतु आज स्थिति विलग है.

चाहने, ना चाहने की ये लकीर चाकू की धार से भी ज्यादा पेनी होती है. कुछ कट जाने का डर होता है. ईशा वही गलती दोहराना नहीं चाहती थी. सागरिका उसकी सहेली थी इसलिए वो उससे दूरी बना पायी, किन्तु यदि मयूर को उसपर शक हो गया या उसे निशांत से उसके चोरी-छुपे मिलने-जुलने के बारे में पता चल गया तो क्या वह अपने चंचल मन की खातिर अपनी बसी-बसाई गृहस्थी तोड़ सकेगी? क्या वह इतनी बड़ी कीमत चुकाने को तैयार है?

घर लौटते हुए ईशा का सिर दर्द से फटने लगा. विचारों के अनगिनत घोड़े उसके दिलो-दिमाग को रौंदने लगे.  घर पहुँचकर ईशा ने माथे पर बाम लगाया और बिस्तर पर ढेर हो गई. शाम घिर आई थी. छुटपुट अंधेरा होने लगा. किंतु ईशा का मन आज घर की बत्तियां जलाने का भी नहीं हुआ. यूं ही बैठे-बैठे वह बाहर के वातावरण से मेल खाते अपने हृदय के अंधेरों में भटकने लगी. क्या करे उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था, “कितनी बड़ी बेवकूफ हूँ मैं जो अपने सुनहरे जीवन में खुद ही आग लगाने का काम कर बैठी.” उसका मन दो भागों में बट गया और दोनों ही पलड़े अपनी-अपनी ओर झुकने लगे. एक मन कहता कि जो हो गया सो हो गया. आगे नहीं होगा. इस अध्याय को यहीं समाप्त करो. दूसरा मन कहता कहीं निशांत ने मयूर को बता दिया तो उसकी गृहस्थी का क्या होगा! क्या जवाब देगी वो मयूर को! सिर पकड़कर बैठी ईशा, मयूर के घर लौटने से चेती.

“क्या हुआ? अंधेरे में क्यूँ बैठी हो?”, मयूर ने घर में प्रवेश करते ही पूछा.

“सिर में दर्द है इसलिए रोशनी में जाने की इच्छा नहीं की”, ईशा ने उदासीन सुर में उत्तर दिया.

मयूर ने ईशा के सिर को दबाया, खाना बनाया, फिर उसे दवाई देकर जल्दी सोने भेज दिया. “कितनी बड़ी गलती कर बैठी मैं जो इतना खयाल रखने वाले पति के होते हुए बाहर भटकने लगी. क्या प्यार करने वाले जीवनसाथी के बावजूद मुझे बाहर वालों की प्रशंसा की इतनी लालसा है कि उसके बदले मैं अपना बसा-बसाया जीवन बर्बाद कर दूँ? अपने पीछे चाहनेवालों की कतार की लौलुपता इतनी तीव्र हो गयी कि मैं अपना वर्तमान भुला बैठी. ये कितना बड़ा अनर्थ करने जा रही थी मैं!”, ईशा मानो निद्रा से जाग गयी. केवल बंद नयनों में ही नींद नहीं आती, कितनी बार वो जागृत अवस्था को भी शिथिल बनाने के योग्य होती है. किन्तु जब जागो तभी सवेरा. ईशा के मन-मस्तिष्क में छाया अब हर धुंधलका साफ हो गया.

ईशा एक सुखमय विवाहित जीवन व्यतीत करते हुए अपने मन पर कोई अनावश्यक बोझ नहीं चाहती थी. उसने निशांत से अपने बढ़ रहे संबंधों की इति करने का निश्चय कर लिया. वैसे भी अभी देर नहीं हुई. उन दोनों के मध्य कोई ऐसा अध्याय नहीं खुला था जिसकी कीमत उसे अपना स्वर्णिम कल देकर चुकानी पड़े.

अब जब कभी निशांत ने ईशा के घर आना चाहा, या फिर उसे बाहर मिलने का न्यौता दिया, ईशा ने हर बार कोई न कोई बहाना बना दिया. हर बार वो अबाध गति से स्थिति से निकलने में सफल रही. किन्तु बारंबार ऐसा होने पर निशांत को संदेह होना स्वाभाविक था.

“मुझे ऐसा क्यों लग रहा है जैसे तुम मुझसे मिलना नहीं चाहती. कोई भूल हो गयी क्या मुझसे?”, उसे ईशा की उपेक्षा खलने लगी. वह ईशा की विमुखता का कारण जानना चाहता था.

“नहीं, ऐसी कोई बात नहीं. तुम तो जानते हो कि मैं एक विवाहिता स्त्री हूँ. घर-गृहस्थी के चक्करों में बेहद व्यस्त रहती हूँ”, ईशा गृहस्थ जीवन की व्यस्तता का बहाना देकर सभ्यतः बच गई. “मयूर के साथ आओ कभी घर पर, या फिर किसी संडे हम दोनों आते हैं तुम्हारे घर.”

निशांत एक शातिर लड़का था. ईशा के जवाबों और प्रतिक्रियाओं से उसे समझते देर न लगी कि अब इस इस गली में उसका प्रवेश निषेध है. आखिर ‘नो एंट्री’ के बोर्ड के आगे वो कितनी देर अपनी गाड़ी का हॉर्न बजाता रहता.

मन के दर्पण में– भाग 1

‘केवल मरी मछली ही धारा के साथ बहती हुई ऊपर तैरती है मृदुला, जीवित मछलियां पानी के भीतर और धारा के विपरीत भी उतनी ही ऊर्जा से तैरती हैं जितनी धारा के अनुकूल,’ कंपनी बाग में घुसते ही ललितजी का यह वाक्य अनायास ही मृदुला को याद हो आया. क्या कहना चाहते थे वे इस वाक्य के माध्यम से? सोचती हुई मृदुला की निगाहें बगीचे में लगी सीमेंट की बैंचों पर केंद्रित हो गईं. आज चौथा दिन है, ललितजी दिखाई नहीं दिए, वरना अकसर वे किसी न किसी बैंच पर बैठे दिखाई दे जाते हैं. बीमार पड़ गए हों, यह खयाल आते ही मृदुला का दिल आशंका से धड़कने लगा. हो सकता है, पैर में तकलीफ बढ़ गई हो, इस कारण सुबह सैर को न आ पाते हों.

पति ने ही ललितजी से यहां, बगीचे में उस का परिचय कराया था. उन के दफ्तर के साथी, हंसमुख, जिंदादिल, दुखतकलीफों को हंसतेहंसते झेलने वाले ललितजी अत्यंत संवेदनशील व्यक्ति थे. मृदुला के पति की बीमारी के समय अस्पताल में ललितजी ने मृदुला की हर तरह मदद की थी. उन्हीं की सलाह पर मृदुला ने नौकरी से 2 साल पहले ही वी.आर.एस. ले लिया था. दफ्तरी किचकिच से फुर्सत पा ली थी और अस्पताल में पति की देखरेख करती रही थीं.

 

डायबिटीज के कारण पति का हृदय और गुर्दे जवाब दे गए थे. आंखें लगभग अंधी हो चुकी थीं. पांव के नासूर ने विकराल रूप धारण कर लिया था. सुबह की सैर डाक्टर ने जरूरी बताई थी, कहीं रास्ते में गिर न पड़ें इसलिए मृदुला उन के संग आने लगी थीं. बगीचे में मृदुला के पति ने बताया था कि ललितजी की पत्नी अरसे पहले ब्रेस्ट कैंसर से मर गईं. बेटीदामाद के साथ रहते हैं यहां. स्कूटर ऐक्सीडैंट में कूल्हे की हड्डी टूट गई थी. पांव में रौड पड़ी है इसलिए लंगड़ा कर चलते हैं.

टहलती हुई मृदुला सोचे जा रही थीं कि मन भी तो इसी तन का एक हिस्सा होता है. क्या मन हमें चैन लेने देता है? ललितजी से सुबह यहां इस बगीचे में रोज मिलना क्यों अच्छा लगता है उन्हें? जिस दिन वे नहीं मिलते उस दिन क्यों उदास रहती हैं वे? क्यों सबकुछ सूनासूना, बुराबुरा, खालीखाली सा लगता है? क्या लगते हैं ललितजी उन के?

आज चौथा दिन है जब वे यहां नहीं दिखाई दे रहे. किस से पूछें? किसी आदमी से पूछेगी तो पता नहीं वह उन के बारे में क्या सोचे, क्या धारणा बनाए? स्त्रीपुरुष किसी भी उम्र के हों, उन के रिश्तों को ले कर लोग हमेशा शंकाग्रस्त रहते हैं. और रहें भी क्यों नहीं? स्त्रीपुरुष के बीच लगाव, प्रेम, रागविराग किसी भी उम्र में हो सकता है. लड़का बता रहा था कि अमेरिका में तो लोग बुढ़ापे में भी विवाह कर लेते हैं…अकेलापन सब को खलता है.

ऐसा नहीं है कि मृदुलाजी अपने पति को भूल पाई हों. अपना घर छोड़ कर वे बेटा या बेटी के पास इसलिए रहने नहीं जातीं कि यहां, इस घर में उन के पति की यादें कणकण में बिखरी हुई हैं. विदेश में वे बेटे के साथ पता नहीं किस मंजिल पर आसमान में टंगी रहें. हैदराबाद में बेटीदामाद जिस फ्लैट में रहते हैं वह भी 13वीं मंजिल पर है. नीचे किसी काम से जाना नहीं होगा और ऊपर अकेली दिन भर उन के सुनसान फ्लैट में वे क्या करेंगी? आसपास वाले भी सब नौकरी- पेशा लोग. सुबह ही ताले लगा चले जाने वाले और देर रात काम से लौटने वाले. न किसी से मिलनाजुलना न बोलना- बतियाना.

यहां कम से कम बरसों पुराने परिचित परिवार हैं. मृदुलाजी उन सब को जानती हैं. सब उन्हें जानते हैं. सब के सुखदुख में शामिल होती हैं. मन होता है तो कहीं भी पासपड़ोस में जा बैठती हैं. वहां किस के पास उठेंगीबैठेंगी? कौन उन की सुनेगा, किसे फुर्सत है.

और सब से ऊपर ललितजी…पति के पांव का घाव जब गैंगरीन में बदल गया तो महीनों अस्पताल में रहे. मृदुला पति के साथ ही अधिक वक्त अस्पताल में बिताती थीं. जरूरत की चीजें और दवाएं ललितजी नियमित रूप से लाते रहते थे. कैसे उऋण हो पाएंगी वे ललितजी से? अपने सगेसंबंधी भी इतनी भागदौड़ और सेवाटहल नहीं कर सकते जितनी ललितजी ने उन के पति की की. पता नहीं सिर्फ अपने दोस्त से दोस्ती के कारण या फिर मृदुलाजी के किसी अनजाने आकर्षण के कारण…मृदुलाजी न चाहते हुए भी मुसकरा दीं…किस से पूछें, ललितजी क्यों नहीं आ रहे हैं?

‘हर नई पहल अंधेरे में एक छलांग होती है…अचानक, अनियोजित और नतीजों से अनजानी. परिणाम अच्छा भी हो सकता है, बुरा भी…पर विकास या प्रगति के लिए ऐसी नई पहल जरूरी भी होती है.’ बगीचे में घूमती मृदुलाजी सोचे जा रही थीं.

सहसा ‘राजधानी एक्सप्रेस’ के नाम से बगीचे में प्रसिद्ध रिटायर्ड फौजी महाशय अपने सफेद निकर और टीशर्ट पहने हमेशा की तरह तेजतेज चलते उन की बगल से गुजरे. इन्हें राजधानी एक्सप्रेस नाम ललितजी ने ही दिया है. उन्हीं के पड़ोसी हैं. यहां उन से बातचीत कम ही हो पाती है, कारण है उन की बेहद तेज गति…

‘‘सर, ललितजी 3-4 दिन से नहीं आ रहे हैं. बीमार हो गए हैं क्या?’’ बगल से गुजरते फौजी महोदय से मृदुला ने पूछ ही लिया. अब वे चाहे जो समझें पर वे पूछने से अपने को रोक नहीं पाईं. नतीजा चाहे जो हो.

‘‘आप को नहीं पता?’’ उन्होंने अपनी गति मृदुला के समान मंद की और बोले, ‘‘पैर में रौड पड़ी थी. पकावहो गया. मवाद पड़ गया. अस्पताल में भरती हैं. यहां से सीधा उन्हीं के पास अस्पताल जाता हूं. जरूरत की चीजें दे आता हूं डाक्टरों ने आपरेशन कर के रौड निकाल दी है. डाक्टर कहते हैं कि अगर तुरंत आपरेशन कर रौड न निकाली जाती तो सैप्टिक होने का खतरा था और उस से आदमी की मृत्यु भी हो सकती है.’’

मौत. सुनते ही बुरी तरह डर गईं मृदुला. अस्पताल का नाम, वार्ड आदि की जानकारी ले कर वे बिना देरी किए तुरंत बगीचे से अस्पताल को चल दीं. ललितजी ने उन्हें खबर क्यों नहीं की? इतना पराया क्यों मान लिया उन्होंने? क्या सिर्फ पारंपरिक संबंध ही संबंध होते हैं? बाकी के संबंध अर्थहीन होते हैं?

 

संदेह के बादल- भाग 1

सारी रात सुरभि सो नहीं पाई थी. बर्थ पर लेटेलेटे ट्रेन के साथ भागते अंधकार को कभीकभी निहारने लगती. इतने समय बाद अपने पति प्रारूप से मिलने की सुखद कल्पना से उस के शरीर में सिहरन सी दौड़ गई थी. गाड़ी ठीक सुबह 5 बजे स्टेशन पर आ गई थी. कुली बुलवा कर उस ने सामान उतरवाया और उनींदे मृदुल को गोद में

ले कर स्टेशन पर उतर कर अपने पति प्रारूप को ढूंढ़ने लगी. चिट्ठी तो समय पर डाल दी थी उस ने, फिर क्यों नहीं आए? कहीं डाक विभाग की लाखों चिट्ठियों में उस की चिट्ठी खो तो नहीं गई? वरना प्रारूप अवश्य आते.

हवा में काफी ठंडक थी. सर्दी अभी पूरी तरह खत्म नहीं हुई थी. उस शीतल बयार में भी पसीने के कुछ कण उस के माथे पर उभर आए थे. नया शहर, नए लोग, अनजान जगह. ऐसे में अपना घर ढूंढ़ भी पाएगी या नहीं. उस ने पर्स खोल कर पते की डायरी निकाली और पास खड़े रिकशे वाले को कस्तूरबा गांधी मार्ग चलने का निर्देश दे कर पहले रिकशे में सामान रखवाया और फिर गोद में मृदुल को ले कर खुद भी बैठ गई. कैसी अजीब सवारी है यह रिकशा भी? उस ने सोचा, हर समय गिरने और फिसलने का डर बना रहता है. 2 लोग भी कितनी मुश्किल से बैठ पाते हैं. दिल्ली में होती तो अपनी गाड़ी को दौड़ाती हुई अब तक कई किलोमीटर की दूरी तय कर चुकी होती.

शहर की सुनसान सड़कें लांघता हुआ रिकशा एक बंगले के पास आ कर रुक गया था. बाहर नेमप्लेट पर अधिशासी अभियंता प्रारूप कुमार का नाम पढ़ कर उसे अपने गंतव्य तक पहुंचने की सूचना मिल गई थी. चारों ओर से भांतिभांति के पेड़ों से घिरे छोटे से बंगले तक पहुंचने के लिए उस ने रिकशे वाले को बाहर गेट पर ही पैसे दे कर विदा किया और हाथ में बैग पकड़ कर बंगले के बाहर आ कर खड़ी हो गई थी. पहले का समय होता तो सीढि़यां लांघती हुई, संभवतया धड़धड़ाती हुई अब तक घर के अंदर पहुंच चुकी होती, पर इस समय एक अव्यक्त संकोच उस के पांव जकड़ रहा था. घर तो उस का ही है. प्रारूप के घर को वह अपना ही तो कहेगी, लेकिन पिछले कई दिनों से उन के बीच एक दीवार सी खिंच गई थी, जिसे बींघने का प्रयत्न दोनों ही नहीं कर पा रहे थे. अब तो काफी दिनों से न तो कोई पत्रव्यवहार उन दोनों के बीच था और न ही बोलचाल. उस ने अपने आगमन की सूचना भी मृदुल से करवाई थी. वह बेला, चमेली की झाडि़यों के बीच काफी देर तक यों ही सूटकेस थामे खड़ी रही.

‘‘सुरभि.’’

चिरपरिचित आवाज पर वह पीछे मुड़ गई थी, जैसे मुग्धावस्था से चौंकी हो. इतने समय बाद प्रारूप को देख कर वह किसी अमूल्य निधि को पा लेने की सुखद अनुभूति से अभिपूरित हो उठी थी. उन्हें एकटक निहारती रह गई थी. रंग पहले से अधिक खिल उठा था. शरीर छरहरा पर चुस्तदुरुस्त. हां, कनपटियों पर चांदी के तार खिल आए थे. सुबह की सैर से लौटे थे  शायद.

‘‘चलो, अंदर चलो. यहां क्यों खड़ी हो?’’ अपने कंधे पर कोमल स्पर्श पा कर वह चौंकी.

‘‘शीतला, सामान उठा कर अंदर रखवा दो,’’ आदेश दे कर उन्होंने मृदुल को गोद में उठा लिया और पत्नी से प्रश्न किया, ‘‘चिट्ठी लिख देतीं, मैं तुम्हें लेने स्टेशन आ जाता.’’

‘‘लिखी तो थी, फोन भी करवाया था. पता चला दौरे पर गए हुए थे तुम,’’ उस ने रुकरु क कर कहा.

‘‘अच्छा, शायद शीतला डाक देना भूल गई है. पिछले दिनों काफी व्यस्त रहा,’’ वे अपने विभाग के कई किस्से सुनाते रहे थे, पर उसे लगा, प्रारूप जानबूझ कर टाल गए हैं.

तभी शीतला ट्रे में प्रारूप के लिए नीबूपानी, उस के लिए चाय और मृदुल के लिए गिलास में दूध व कुछ बिस्कुट रख गई थी. पितापुत्र बातों में ऐसे व्यस्त हो गए जैसे सबकुछ एक ही दिन में जान, समझ लेंगे.

चाय की चुस्कियां लेते वह झाड़ू लगाती हुई शीतला को देखने लगी. सांवला चेहरा, कुमकुम की बिंदी, लाल बौर्डर की तांत की साड़ी और कोल्हापुरी चप्पल, छरहरा शरीर जैसे उस की अपनी थुलथुल काया का परिहास कर रहा था. गजब का आकर्षण है इस तरुणी में, चेहरे पर कुटिल मुसकान घिर आई थी. मां को काफी जतन करना पड़ा होगा इसे ढूंढ़ने में? सुरभि ने मन ही मन सोचा था.

चाय की चुस्कियां लेते हुए उस ने चोर दृष्टि से घर के हर कोने की टोह ले ली. घर का हर हिस्सा साफसुथरा और सुव्यवस्थित था. कमरे में नीले रंग के परदे और बरामदे में रखे सुंदर क्रोटोन विगत के कई दृश्यों को सजीव कर गए थे. लाल रंग सुरभि को पसंद था, जबकि प्रारूप को हलका नीला आसमानी रंग भाता था. वे कहते, खुले उन्मुक्त आकाश का परिचय देता है यह रंग, पर उन की कहां चली थी. सुरभि ने ज्यों ही लाल रंग के परदों से अपनी बैठक को सजाया, प्रारूप ने वहां बैठना बंद कर दिया था. उन्होंने खुद को अपने कमरे में कैद कर लिया था.

एक बार यों ही रंगबिरंगे क्रोटोन के कुछ गमले ला कर प्रारूप ने बरामदे में सजाए, तो भी सुरभि का पारा 7वें आसमान पर पहुंच गया था, ‘छोटी सी बालकनी है, 2 आदमी तो ढंग से खड़े नहीं हो सकते, गमले कहां रखोगे?’

उस ने घड़ी की ओर दृष्टि घुमाई. 9 बजने को आए थे. प्रारूप के दफ्तर जाने का समय हो गया था. यह सोच वह नाश्ता बनाने के लिए उठने लगी तो उन्होंने सबल रोक दिया, ‘‘जब से बीमार हुआ हूं, गरिष्ठ भोजन सुबहसुबह पचता नहीं है. शीतला को मां सब समझा गई हैं. वही बना कर ले आएगी, तुम आराम से बैठो.’’

मेज पर रखे बरतनों की खनखनाहट सुन कर उस की नजर उस ओर चली गई थी. इलायची का छौंक लगा कर बनी खिचड़ी की सोंधी महक कमरे में फैल गई थी. नाश्ता कर के दफ्तर जाते समय प्रारूप उस से कहते गए, ‘‘जो भी काम हो, शीतला से कह देना. यह सब काम बड़े सलीके से करती है.’’

अनायास कहे पति के वाक्य उसे अंदर तक बींध गए. वह खुद पर तरस खा कर रह गई थी. ब्याह के बाद कुछ ही दिनों में पतिपत्नी के बीच संबंधों की खाई इसी बात पर ही तो गहराती गई थी. प्रारूप ऐसी सहभागिता, सहधर्मिणी चाहते थे जो ढंग से उन की गृहस्थी की सारसंभाल करती, उन की बूढ़ी मां की सेवा करती और जब वे थकेहारी दफ्तर से लौटे तो मृदु मुसकान चेहरे पर फैला कर उन का स्वागत करती. लेकिन सपनों की दुनिया में विचरण करने वाली, स्वप्नजीवी सुरभि के लिए ये सब बातें दकियानूसी थीं. वह तो पति और सास को यही समझाने का प्रयत्न करती रही कि औरत की सीमाएं घरगृहस्थी की सारसंभाल और पति व सास की सेवा तक ही सीमित नहीं हैं. नौकरी कर के चार पैसे कमा कर जब वह घर लाती है, तभी उसे पूर्णता का एहसास होता है.

आगे पढ़ें- नन्हें मृदुल के मुंह में जब आया…

संदेह के बादल- भाग 2

प्रारूप समझाते रह गए थे कि उन की खासी कमाई है, सिर पर छत है, जिम्मेदारी कोई खास नहीं, और जो है भी, उस का निर्वहन करने में वे पूर्णरूप से सक्षम हैं.

?पर महत्त्वाकांक्षी सुरभि के ऊपर से सबकुछ जैसे चिकने घड़े पर पड़े पानी सा उतर गया. अम्मा सोचतीं कि एक बार मातृत्व बोध होने पर खुद ही घरगृहस्थी में रम जाएगी पर वहां भी निराशा ही हाथ लगी. मृदुल की किलकारियां दादी और पिता ने ही सुनी थीं. उन्हीं दोनों की छत्रछाया में वह पलाबढ़ा था. कुछ समय बाद प्रारूप को पदोन्नति मिली जिस से तनख्वाह भी बढ़ी और रहनसहन का स्तर भी. उन्होंने मृदुल का दाखिला एक अच्छे पब्लिक स्कूल में करवा दिया था. कभी किसी चीज की कमी नहीं थी. एक बार फिर उन्होंने सुरभि को नौकरी छोड़ने के लिए कहा था, समझाया था कि बच्चे की सही परवरिश के लिए मां का घर पर होना बहुत जरूरी है. पर भौतिकवाद में विश्वास करने वाली पत्नी ने उन्हें यह कह कर चुप करवा दिया कि यह परवरिश तो आया और शिक्षिका भी कर सकती हैं. और फिर, दोहरी आय से ये सुविधाएं तो आसानी से जुटाई जा सकती हैं.

नन्हें मृदुल के मुंह में जब आया निवाला डालती तो प्रारूप क्षुब्ध हो उठते. बूढ़ी अम्मा को घर के काम में जुटा देखते तो मन रुदन कर उठता कि उन्होंने ब्याह ही क्यों किया? इस बात का जवाब अपने मन में ढूंढ़ना खुद उन के लिए बहुत बड़ा संघर्ष था. एक बोझ की मानिंद सारे कार्यकलाप निबटाते रहते, पर अपनी सहधर्मिणी से वे कभी लोहा नहीं ले पाए. उन में अपने बिफरते मन को संभालने की अद्भुत क्षमता थी. उन के मन की गहराइयों में जब भी उथलपुथल मचती, लगता ज्वालामुखी फट पड़ेगा, लावा निकलने लगेगा. मनप्राण जख्मी हो कर छटपटाने जरूर लगते थे, पर उन के मुंह से बोल नहीं फूटते थे. शायद समझ गए थे, कुछ भी कह कर अपमानित होने से अच्छा है होंठ सी कर रहा जाए.

उन्हीं दिनों उन का स्थानांतरण दार्जिलिंग हो गया. प्रारूप वहां जाना नहीं चाहते थे.

इसलिए नहीं कि उन्हें दिल्ली से विशेष लगाव था, बल्कि इसलिए कि वे जानते थे कि सुरभि कभी भी उन के साथ चलने को तैयार नहीं होगी और न ही नौकरी से त्यागपत्र देगी. ऐसे में अम्मा और मृदुल को अकेले भी नहीं छोड़ सकते और स्वयं रुक भी नहीं सकते. इसलिए अकेले ही जाने का निश्चय कर के उन्होंने अपना यह निर्णय जब अम्मा को सुनाया तो उन के धैर्य का बांध ढहने लगा. वे उन्हें वहां अकेले कैसे जाने देतीं? कौन उन की देखभाल करेगा?

मां ने सुरभि को समझाया था, ‘पतिपत्नी को एक ही देहरी में रहना होता है. जनमजनम का साथ होता है दोनों का,’ पर सुरभि ने मां की बात समझने के बदले, समझाना उचित समझा था. अपनी ओर से खुद ही सफाई दे कर उस ने पलभर में अपना निर्णय सुना दिया था, ‘3 ही बरस की तो बात है, पलक झपकते ही गुजर जाएंगे. अब तो मृदुल भी अच्छे स्कूल में जाने लगा है. अच्छे स्कूलों में दाखिले आसानी से तो मिलते नहीं. एक बार पूरा तामझाम समेटो और फिर वापस आओ, मुझ से नहीं होगा यह सब.’

वे अपनी अर्धांगिनी से इस से अधिक आशा कर भी नहीं सकते थे. प्रारूप ऐसे मौकों पर गजब की चुप्पी इख्तियार कर लेते थे. वैसे भी, जहां मन की संधि न हो, पतिपत्नी साथ रह कर भी एक दूरी पर ही वास करते है. अम्मा परेशान हो उठी थीं. बेटे से बहू के अलग रहने का खयाल उन्हें सिर से पैर तक हिला गया, पर क्या कर सकती थीं सिवा चुप्पी साधने के.

‘‘बीबीजी, दोपहर में क्या खाना बनाऊं?’’

शीतला के प्रश्न पर अतीत की खोह से निकल कर वह वर्तमान में लौट आई थी.

‘‘साहब क्या खाते हैं इस समय?’’

‘‘आज तो साहब बाहर गए हैं, इसीलिए डब्बा साथ में ही दे दिया. वैसे तो घर में ही आ कर खाते हैं.’’

उसे उस की मासूमियत पर चिढ़ हो आई. वह चिढ़ते हुए सोचने लगी कि अपने पति की पसंदनापसंद भी इस गंवार से पूछनी पड़ रही है. उसे अपना अधिकार छिनता सा लगा. फिर भी शीतला को आलूमटर की सब्जी बनाने का आदेश दे कर वह अपने शयनकक्ष में आ करलेट गई. थकान से पलकें बोझिल थीं, पर नींद कोसों दूर थी.

शीतला मटर छील रही थी. मृदुल उस की पीठ पर झूला झूल रहा था. वह ज्यों ही झुकती, गहरे गले की चोली में से उस का गदराया शरीर दिखाई देता, जिसे लाख प्रयत्न करने के बावजूद उस की साड़ी का झीना आवरण छिपाने में असमर्थ था. सुरभि के मन में कई प्रश्न कुलबुलाने लगे कि कहीं शीतला के मदमाते यौवन और गदराए शरीर ने प्रारूप की संयमित चेतना को छितरा तो नहीं दिया? जब विश्वामित्र जैसे तपस्वी की चेतना को मेनका ने भंग कर दिया था तो प्रारूप तो साधारण पुरुष है. अम्मा ने बताया था. शीतला का पति अपाहिज है, उधर प्रारूप भी तो इतने बड़े बंगले में एकाकी जीवन बिता रहे हैं. 2 युवा प्राणी क्या स्वयं को संयमित कर पाए होंगे.

जब से अम्मां ने उसे प्रारूप के यहां शीतला की नियुक्ति की बात बताई थी, वह परेशान हो उठी थी. उस के मन में शंकाओं के जाल फैलने लगे थे. अपनी कल्पना में कभी वह शीतला और प्रारूप को आलिंगनबद्ध देखती तो कभी उसे मृदुल और प्रारूप के बीच बैठे देखती. कई दिनों से कोरे पड़े दिमाग पर जैसे भावों और विचारों का रेला आ गया हो.

‘यह क्या कर गईं अम्मा?’ उस ने मन ही मन सोचा था. किसी पुरुष को नियुक्त करतीं. आदमी आखिर आदमी होता है और औरत, औरत. इन के आदिम और मूल रिश्तों पर किसीकिसी का ही बस चलता है. उस के पिता ने भी तो यही किया था. मृत्युशय्या पर पड़ी हुई उस की मां की सेवा के लिए नियुक्त नर्स को अपनी अर्धांगिनी बना  कर अपनी वफादारी का सुबूत दिया था.

अम्मा बाबूजी का कितना ध्यान रखती  थीं, उन्हें खिलाए बगैर नहीं खाती थीं. जब तक वे सोते नहीं थे, तब तक खुद भी नहीं सोती थीं और अगर वह देर से उठते तो क्या मजाल, घर में जरा सा भी शोर कर दे कोई. कहतीं, बाबूजी की नींद में खलल पड़ेगा. उन की कितनी सेवा करती थीं, पर एक बार बिस्तर पर पड़ीं तो बाबूजी की सारी ईमानदारी आंधी में उड़ने वाले तिनके समान उड़ गई थी. मां लाख सिर पटकती रही थीं, पर मुट्ठी में बंद रेत की तरह सबकुछ फिसल कर रह गया था.

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संदेह के बादल- भाग 3

अम्मा तो दोषी नहीं थीं. हारीबीमारी पर किसी का जोर नहीं चलता है, पर सुरभि ने तो खुद मुसीबत को न्योता दिया था. ब्याह के बाद से आज तक उस ने पति की सेवा करना तो दूर, कभी उस के दिल में झांकने की भी चेष्टा नहीं की थी. यहां आने के लिए अम्मा ने उस पर कितना जोर डाला था. पर वही नहीं मानी थी. प्रारूप जब भी अपनी परेशानियों की चर्चा उस से करते, वह सुनीअनसुनी कर देती. अम्मा के कानों तक ये बातें न पहुंचें, यही प्रयत्न रहता था उस का. डरती थी कि अम्मा उसे जबरन प्रारूप के पास भेज देंगी, फिर उस की नौकरी का क्या होगा, उज्जवल भविष्य का क्या होगा?

धीरेधीरे प्रारूप दिल्ली कम आने लगे थे. एक तो लंबा सफर उन के तनमन को शिथिल करता, ऊपर से पत्नी की तटस्थता और अवहेलना आहत कर जाती थी. बस, मां का प्यार और मृदुल का दुलार ही उन्हें शांति प्रदान करता था. फोन पर अकसर बात कर लेते थे. वह भी ज्यों ही सुरभि फोन उठाती, उन्हें कई काम याद आ जाते थे. कहनेसुनने को रहा भी क्या था? उन का भावुक मन कहां आहत हुआ था, इस की तो महत्त्वाकांक्षी सुरभि कल्पना भी नहीं कर पाई होगी.

पिछली बार उन्होंने अम्मा को फोन पर बताया था कि वे काफी दिनों से बीमार थे, उन्हें अतिसार हो गया था. अन्न का एक दाना भी नहीं पचता था. बेटे की बीमारी की खबर सुन कर मां सुलग उठी थीं. उन्होंने अपने जमाने की कई पतिव्रता औरतों के उदाहरण दे डाले थे कि ऐसे समय में पत्नी ही तो पति की सेवा करती है. बीमार इंसान दवा के साथसाथ प्यार व सहानुभूति की भी आशा रखता है. पर सुरभि के समक्ष सुनहरा भविष्य और शानदार कैरियर एक बार फिर मुंहबाए खड़ा हो गया था. उन दिनों दफ्तर में पदोन्नति की नई सूची बन रही थी. ऐसे में उस का कहीं भी जाना नामुमकिन था. यों उस ने फोन पर पानी उबाल कर पीने और समय पर दवा लेने की हिदायतें दे कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर दी थी. बेटे के पास अम्मा ही पहुंची थीं. अम्मा ने ही पूरी तरह से उन की देखभाल की थी. जब लौटने लगीं तो शीतला को प्रारूप की देखभाल के लिए नियुक्त कर आई थीं.

घर लौट कर उन्होंने शीतला की प्रशंसा में जमीनआसमान एक कर दिया था. अब यह प्रशंसा बहू को कुढ़ाने के लिए करती थीं या उस के मन में पति के प्रति प्रेम का बीज अंकुरित करने के लिए, यह तो वही जानें, पर सुरभि इस अनदेखी महिला के प्रति ईर्ष्यालु हो उठी थी. शीतला के रूप में उस के समक्ष मानो एक पत्थर की दीवार खड़ी हो गई थी. ठोस, ठंडी और पथरीली दीवार जिस पर वह मुट्ठियां पटकती रहती, पर कोई उत्तर नहीं मिलता था. पतिपत्नी के अंतरंग संसार को नष्टभ्रष्ट करता कोई तीसरा वहां पसर जाए, इस से पहले ही वह यहां आ पहुंची थी.

उसे यहां आए हुए 8 दिन हो गए थे, पर वह पूरी तरह से अपनी गृहस्थी संभाल नहीं पा रही थी. दैनिक दिनचर्या की छोटीछोटी परेशानियों में उस ने कभी दिलचस्पी नहीं ली थी. सभी शीतला कर रही थी.

उस दिन रविवार था. सभी बाहर आंगन में बैठ कर सर्दी की कुनकुनाती धूप का आनंद ले रहे थे. शीतला कपड़े धो रही थी. मृदुल बालटी में से पानी निकाल कर शीतला पर उलीचता जा रहा था और खिलखिलाता भी जा रहा था.

प्रारूप मंत्रमुग्ध से पूरे दृश्य का आनंद ले रहे थे. बोले, ‘‘कुछ ही दिनों में शीतला ने मृदुल को अपने वश में कर लिया है.’’

‘‘हां, बच्चों के साथ बड़ों को भी अपने वश में करने की अद्भुत क्षमता है इस में,’’ प्रारूप तल्खीभरे स्वर में छिपे पत्नी के व्यंग्य को भली प्रकार समझ गए थे.

जब पति की ओर से कोई उत्तर नहीं मिला तो क्रोधावेश में उस ने रस्सी पर प्रारूप की कमीज फैलाते हुए शीतला के हाथों से कपड़े छीन लिए और उसे अंदर जा कर रसोई का काम संभालने का आदेश दिया था.

इस अप्रत्याशित व्यवहार से शीतला कांप कर रह गई थी. वह सोचने लगी थी कि न जाने क्या अपराध हो गया उस से? मालकिन के मन में उठ रहे अंतर्द्वंद्व से पूर्णतया अनिभज्ञ शीतला अंदर जा कर हैंगर उठा लाई और सुरभि से बोली, ‘‘बीबीजी, यह साहब की कमीज हैंगर पर फैला दीजिए.’’

ईर्ष्या का नाग जैसे फन फैला कर खड़ा हो गया. न जाने कितनी देर तक उस की गिद्धदृष्टि शीतला के शरीर पर रेंगती रही. फिर उस के हाथ से हैंगर ले कर सुरभि ने जमीन पर पटक दिया.

प्रारूप कुछ परेशान हो उठे थे, बोले, ‘‘क्या बिगाड़ा  है इस गरीब अबला ने तुम्हारा, जो उसे यों अपमानित करने पर तुली हो?’’

‘‘तुम्हारी देखभाल किस तरह करनी है, यह क्या मुझे इस से सीखना पड़ेगा?’’

वह यों अकस्मात उमड़ आए पत्नीप्रेम पर विस्मित रह गए थे.

सुरभि का तीव्र स्वर दोबारा सुनाई पड़ा, ‘‘अब मैं यहां आ गई हूं. शीतला की क्या जरूरत है यहां?’’ उस की आवाज में दांपत्य के दर्पभरे अधिकार का बोध था.

‘‘तुम चली जाओगी, फिर कौन संभालेगा यह घर?’’ प्रारूप का स्वर कहीं दूर से आता लगा.

‘‘मैं दीर्घावकाश ले कर आई हूं. जब तक तुम्हारा तबादला वापस दिल्ली नहीं हो जाता, मैं और मृदुल यहीं रहेंगे, तुम्हारे पास.’’

‘‘तुम्हारे कैरियर और मृदुल के स्कूल का क्या होगा?’’ फिर अपनी तरफ से सही निर्णयात्मक ढंग से बात समाप्त करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘गरीब, लाचार औरत है बेचारी, आदमी कमाता नहीं है, 3-3 बच्चों का भरणपोषण इसी के जिम्मे है. यहीं काम करने दो इसे. बेचारी तुम्हारी मदद भी करती रहेगी.’’

‘‘दुनियाभर के गरीबों का जिम्मा हम ने तो नहीं ले रखा?’’ बड़बड़ाती हुई पैर पटकती वह घर के अंदर चली गई थी. प्रारूप शायद सुन नहीं पाए थे या सुन कर भी अनसुना कर गए थे. ‘कितनी हमदर्दी है शीतला से,’ सुरभि बड़बड़ाती रही. उस के मन में शंका की लहरें फिर से हिलोरें लेने लगीं कि कहीं उन के हृदय के साम्राज्य पर यह शीतला अपना आधिपत्य तो नहीं जमाती जा रही? संदेह के बीज ने उसे ऐसा कुंठित किया कि वह दिग्भ्रमित सी हो उठी.

रसोई में आ कर उस ने ऊंचे स्वर में शीतला को पुकारा तो बेचारी कांप कर रह गई. हाथ में पकड़ा विदेशी कांच का गिलास धम्म से जमीन पर गिर कर चटक गया. अब तो सुरभि की पराकाष्ठा देखने के काबिल थी. जैसे बेचारी से ड्राइंगरूम का कोई कीमती फानूस टूट गया हो.

शीतला की दबीसहमी सिसकियां सुन कर प्रारूप को यह समझते देर नहीं लगी थी कि वह आक्रोश अपरोक्ष रूप से उन पर ही बरसाया जा रहा है. शीतला की श्रद्धा और स्वामिभक्ति को उस ने दैहिक संबंधों के पलड़े पर ला पटका था. आत्मिक अनुभूतियों का मोल सुरभि कभी नहीं समझ पाएगी क्योंकि यह अनुभूति चेष्टा कर के नहीं लाई जा सकती. इन का संबंध मन की गहराई से होता है. तभी तो कभीकभी अपने, पराए बन जाते हैं और पराए, अपनों से भी अधिक प्रिय लगने लगते हैं. प्रारूप यह सब जानतेसमझते थे.

उस के बाद तो जैसे दोषारोपों का सिलसिला ही शुरू हो गया था. इस घटना को घटे हफ्ताभर भी नहीं बीता था कि एक दिन जब प्रारूप औफिस से शाम को कुछ जल्दी घर लौट आए तो देखा कि घर में कुहराम मचा हुआ था. सुरभि ने रोरो कर पूरा घर सिर पर उठा रखा था. मृदुल सहमा सा खड़ा था. पूछने पर पता चला कि सुरभि की सोने की चेन गुम हो गई थी. सुन कर वे हतप्रभ रह गए.

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मिलन: भाग 1- जयति के सच छिपाने की क्या थी मंशा

लेखक- माधव जोशी

जयंत आंगन में खड़े हो कर जोरजोर से पुकारने लगे, ‘‘मां, ओ मां, आप कहां हैं?’’

‘‘कौन? अरे, जयंत बेटे, तुम कब आए? इस तरह अचानक, सब खैरियत तो है?’’ अंदर से आती हुई महिला ने जयंत को अविश्वसनीय दृष्टि से देखते हुए पूछा.

‘‘जी, मांजी, सब ठीक है,’’ जयंत ने आगे बढ़ कर महिला के पैर छूते हुए कहा तो उन्होंने उस के सिर पर प्यार से हाथ रख दिया.

‘‘मां, जानती हैं, इस बार मैं अकेला नहीं आया. देखिए तो, मेरे साथ कौन है, आप की बहू, जयति,’’ कहते हुए जयंत ने मेरी ओर इशारा कर दिया.

‘‘क्या? तुम ने शादी कर ली?’’ मां हैरानी से मेरा मुआयना करते हुए बोलीं. और फिर ‘‘तुम यहीं ठहरो, मैं अभी आई,’’ कह कर अंदर चली गईं.

‘तो ये हैं, जय की मांजी,’ मैं मन ही मन बुदबुदा उठी. मेरे दिल की धड़कन बढ़ने लगी. घबरा कर जयंत की ओर देखा. वे मेरी तरफ ही देख रहे थे. उन्होंने मुसकरा कर मुझे आश्वस्त किया. तभी हाथ में थाली लिए मांजी आ गईं.

‘‘भई, मेरे घर बहू आई है…पहले इस का स्वागत तो कर लूं,’’ कहते हुए मांजी मेरे पास आ गईं और थाली को चारों तरफ घुमाने लगीं. मैं उन के पांव छूने को झुकी ही थी कि उन्होंने मुझे अपनी बांहों में थाम लिया और माथे को चूमने लगीं. क्षणभर पहले मेरे मन में जो शंका थी, वह अब दूर हो चुकी थी. वे हम दोनों को

सामने वाले कमरे में ले गईं. कमरा बहुत साधारण था. सामने एक दीवान लगा था. एक तरफ 2 कुरसियां, एक मेज और दूसरी तरफ लोहे की अलमारी रखी थी. मांजी ने हमें दीवान पर बैठाया और बीच में स्वयं बैठ गईं. फिर मुझे प्यार से निहारते हुए बोलीं, ‘‘जय बेटा, कहां से ढूंढ़ लाया यह खूबसूरत हीरा? मैं तो दीपक ले कर तलाशती, फिर भी ऐसी बहू न ला पाती.’’

‘‘मांजी, मुझे माफ कर दीजिए. मुझे आप को बिना बताए यह शादी करनी पड़ी,’’ जयंत रुके, मेरी तरफ देखा, मानो आगे बात कहने के लिए शब्द तलाश रहे हों. फिर बोले, ‘‘दरअसल, जयति के पिताजी को अचानक दिल का दौरा पड़ा और डाक्टर ने बताया कि उन का अंतिम समय निकट है. इसलिए उन का मन रखने के लिए हमें तुरंत शादी करनी पड़ी.’’ मैं जानती थी, जयंत अपराधबोध से ग्रस्त हैं. वे मां के कदमों के पास जा बैठे और उन की गोद में सिर रख कर बोले, ‘‘आप ने मेरी शादी को ले कर बहुत से सपने देखे होंगे…पर मैं ने सभी एकसाथ तोड़ दिए. मैं ने आप को बहुत दुख दिया है, मुझे माफ कर दीजिए,’’ कहते हुए वे रोने लगे.

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‘‘पगला कहीं का…अभी भी बच्चे की तरह रोता है. चल अब उठ, बहू क्या सोचेगी. तू मुंह धो, मैं चाय बना कर लाती हूं,’’ उन्होंने प्यार से इन्हें उठाते हुए कहा. मांजी के साथ मेरी यही मुलाकात थी. जयंत ने ठीक ही कहा था. मांजी सब से निराली हैं. उन के चेहरे पर तेज है और वाणी में मिठास है. वे तो सौंदर्य, सादगी व ममता की प्रतिमा हैं. शीघ्र ही मेरे मन में उन की एक अलग जगह बन गई. हमें मांजी के पास आए लगभग एक सप्ताह हो गया था. हमारी छुट्टियां समाप्त हो रही थीं. जयंत एक बड़ी फर्म में व्यवसाय प्रबंधक थे और मैं अर्थशास्त्र की व्याख्याता थी. हम दोनों ही चाहते थे कि मांजी हमारे साथ मुंबई चलें. जयंत अनेक बार प्रयत्न भी कर चुके थे, पर वे कतई तैयार न थीं. एक दिन चाय पीते हुए मैं ने ही बात प्रारंभ की, ‘‘मांजी, हम चाहते हैं कि आप हमारे साथ चलें.’’

‘‘नहीं बहू, मैं अभी नहीं चल सकती. मुझे यहां ढेरों काम हैं,’’ उन्होंने टालते हुए कहा.

‘‘ठीक है, आप अपने जरूरी काम निबटा लीजिए, तब तक मैं यहीं हूं. जयंत चले जाएंगे,’’ मैं ने चाय की चुसकी लेते हुए बात जारी रखी.

‘‘लेकिन जयति,’’ उन्होंने कहना चाहा, पर मैं ने बात काट कर बीच में ही कहा, ‘‘लेकिनवेकिन कुछ नहीं, आप को हमारे साथ मुंबई चलना ही होगा.’’ मैं दृढ़ता से, बिना उन्हें कुछ कहने का मौका दिए कहती गई, ‘‘मांजी, मेरी माताजी बचपन में ही चल बसीं. उन के बारे में मुझे कुछ भी याद नहीं. मुझे कभी मां का प्यार नहीं मिला. अब जब मुझे मेरी मांजी मिली हैं तो मैं किसी भी कीमत पर उन्हें खो नहीं सकती.

‘‘जय ने मुझे बताया कि आप मुंबई इसलिए नहीं जाना चाहतीं, क्योंकि वहां पिताजी रहते हैं,’’ मैं ने क्षणभर रुक कर जयंत को देखा. उन के चेहरे पर विषाद स्पष्ट देखा जा सकता था. पर मैं ने इसे नजरअंदाज करते हुए कहना जारी रखा, ‘‘मांजी, आप अतीत से भाग नहीं सकतीं. कभी न कभी तो उस का सामना करना ही पड़ेगा. खैर, कोई बात नहीं, यदि आप मुंबई न जाना चाहें तो जयंत कहीं और नौकरी देख लेंगे. लेकिन तब तक मैं आप के पास यहीं रहूंगी.’’ मैं ने उन के दिल पर भावनात्मक प्रहार कर डाला. मैं जानती थी कि उन को यह बरदाश्त नहीं होगा कि मैं जयंत से अलग रहूं. मांजी तड़प उठीं. मानो मैं ने उन की दुखती रग छेड़ दी हो. वे बोलीं, ‘‘जयति, मैं ने सदा तुम्हारे ससुर का बिछोह झेला है. जयंत 5 वर्ष का था, जब इस के पिता ने किसी दूसरी स्त्री की खातिर मुझे घर से निकाल दिया. तब से इस छोटे से शहर में अध्यापिका की नौकरी करते हुए न जाने कितनी कठिनाइयां उठा कर इसे पाला है. जो दर्द मैं ने 20 बरसों तक झेला है, उसे इतनी जल्दी नहीं भूल सकती. कभी भी अपने पति से दूर मत होना. मैं यहीं ठीक हूं,’’ उन के शब्दों में असीम पीड़ा व आंखों में आंसू थे.

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‘‘यदि आप हम दोनों को खुश देखना चाहती हैं तो आप को चलना ही होगा,’’ मैं ने उन की आंखों में झांकते हुए दृढ़ता से कहा. उस दिन मेरी जिद के आगे मांजी को झुकना ही पड़ा. वे हमारे साथ मुंबई आ गईं. यहां आते ही सारे घर की जिम्मेदारी उन्होंने अपने ऊपर ले ली. वे हमारी छोटी से छोटी जरूरत का भी ध्यान रखतीं. जयंत और मैं सुबह साथसाथ ही निकलते. मेरा कालेज रास्ते में पड़ता था, सो जयंत मुझे कालेज छोड़ कर अपने दफ्तर चले जाते. मेरी कक्षाएं 3 बजे तक चलती थीं. साढ़े 3 बजे तक मैं घर लौट आती. जयंत को आतेआते 8 बज जाते. अब मेरा अधिकांश समय मांजी के साथ ही गुजरता. हमें एकदूसरे का साथ बहुत भाता. मैं ने महसूस किया कि हालांकि मांजी मेरी हर बात में दिलचस्पी लेती हैं, लेकिन वे उदास रहतीं. बातें करतेकरते न जाने कहां खो जातीं. उन की उदासी मुझे बहुत खलती. उन्हें खुश रखने का मैं भरसक प्रयत्न करती और वे भी ऊपर से खुश ही लगतीं लेकिन मैं समझती थी कि उन का खुश दिखना सिर्फ दिखावा है.

एक रात मैं ने जयंत से इस बात का जिक्र भी किया. वे व्यथित हो गए और कहने लगे, ‘‘मां को सभी दुख उसी इंसान ने दिए हैं, जिसे दुनिया मेरा बाप कहती है. मेरा बस चले तो मैं उस से इस दुनिया में रहने का अधिकार छीन लूं. नहीं जयति, नहीं, मैं उसे कभी माफ नहीं कर सकता. उस का नाम सुनते ही मेरा खून खौलने लगता है.’’ जयंत का चेहरा क्रोध से तमतमाने लगा. मैं अंदर तक कांप गई. क्योंकि मैं ने उन का यह रूप पहली बार देखा था.

फिर कुछ संयत हो कर जयंत ने मेरा हाथ पकड़ लिया और भावुक हो कर कहा, ‘‘जयति, वादा करो कि तुम मां को इतनी खुशियां दोगी कि वे पिछले सभी गम भूल जाएं.’’ मैं ने जयंत से वादा तो किया लेकिन पूरी रात सो न पाई, कभी मां का तो कभी जयंत का चेहरा आंखों के आगे तैरने लगता. लेकिन उसी रात से मेरा दिमाग नई दिशा में घूमने लगा. अब मैं जब भी मांजी के साथ अकेली होती तो अपने ससुर के बारे में ही बातें करती, उन के बारे में ढेरों प्रश्न पूछती. शुरूशुरू में तो मांजी कुछ कतराती रहीं लेकिन फिर मुझ से खुल गईं. उन्हें मेरी बातें अच्छी लगने लगीं. एक दिन बातों ही बातों में मैं ने जाना कि लगभग 7 वर्ष पहले वह दूसरी औरत कुछ गहने व नकदी ले कर किसी दूसरे प्रेमी के साथ भाग गई थी. पिताजी कई महीनों तक इस सदमे से उबर नहीं पाए. कुछ संभलने पर उन्हें अपने किए पर पछतावा हुआ. वे पत्नी यानी मांजी के पास आए और उन से लौट चलने को कहा. लेकिन जयंत ने उन का चेहरा देखने से भी इनकार कर दिया. उन के शर्मिंदा होने व बारबार माफी मांगने पर जयंत ने इतना ही कहा कि वह उन के साथ कभी कोई संबंध नहीं रखेगा. हां, मांजी चाहें तो उन के साथ जा सकती हैं. लेकिन तब पिताजी को खाली लौटना पड़ा था. मैं जान गई कि यदि उस वक्त जयंत अपनी जिद पर न अड़े होते तो मांजी अवश्य ही पति को माफ कर देतीं, क्योंकि वे अकसर कहा करती थीं, ‘इंसान तो गलतियों का पुतला है. यदि वह अपनी गलती सुधार ले तो उसे माफ कर देना चाहिए.’

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Abhishek-Aishwarya Dance: वीडियो ने सोशल मीडिया पर मचाई धूम, फैंस हुए उत्साहित!

1 मार्च से 3 मार्च तक, गुजरात के जामनगर में मुकेश अंबानी और उनकी पत्नी नीता अंबानी के बेटे अनंत अंबानी के प्री-वेडिंग आयोजित हुए. इस खास मौके पर, अंबानी परिवार के सम्मेलन में कई देश-विदेश से सेलिब्रिटीज भाग लेने पहुंचे. बॉलीवुड स्टार्स ने भी इस शानदार अवसर पर अपनी शानदार प्रस्तुति की, जिसके वीडियो और तस्वीरें सोशल मीडिया पर व्यापक रूप से वायरल हो रही हैं.

इस खास मौके पर, ऐश्वर्या राय बच्चन और उनके पति अभिषेक बच्चन का एक डांस वीडियो सोशल मीडिया पर चर्चा का विषय बन गया है. इस वीडियो में, ऐश्वर्या राय बच्चन और अभिषेक बच्चन को किसी धारात्मिक गाने पर डांस करते हुए देखा जा सकता है. इस महोत्सवी आयोजन में साझा किए गए इस विशेष सांगीतिक प्रस्तुति की जानकारी ने इंटरनेट पर धमाल मचा दिया है, और फैंस इसे बेहद पसंद कर रहे हैं.

फैंस ने अभिषेक बच्चन और ऐश्वर्या राय बच्चन का वीडियो पसंद किया


राधिका मर्चेंट और अनंत अंबानी के प्री-वेडिंग फंक्शन में बॉलीवुड स्टार्स ने अपनी शानदार प्रदर्शनी से सभी को प्रभावित किया. समृद्धि और मस्ती से भरा यह इवेंट सभी के दिलों को छू गया. सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे अभिषेक बच्चन और ऐश्वर्या राय बच्चन के रौडी डांस वीडियो ने दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया है. इस डांस के माध्यम से ऐश्वर्या राय बच्चन और अभिषेक बच्चन की खास केमिस्ट्री ने हर किसी को हेरान कर दिया है. इस सफल इवेंट ने दोनों के फैंस को खुशी का अहसास कराया है कि वे एक साथ हैं.

ये सितारे अंबानी परिवार के फंक्शन में उपस्थित हुए

राधिका मर्चेंट और अनंत अंबानी की प्री-वेडिंग धूमधाम से हुई, जिसमें नहीं थे शामिल सिर्फ बॉलीवुड स्टार्स, बल्कि पॉप स्टार रिहाना, फेसबुक के मार्क जुकरबर्ग, और उद्योगपति बिल गेट्स भी. इस में हैरतअंगेज था देशभर से शामिल होने वाले सुपरस्टार्स का एक अद्वितीय संगम, जैसे कि शाहरुख, सलमान, आमिर, रणवीर, दीपिका, रणबीर, आलिया, सैफ, और करीना. अनंत अंबानी और राधिका मर्चेंट के प्री-वेडिंग कार्यक्रम से जुड़े वीडियोज और फोटो सोशल मीडिया पर छाए हुए हैं, जिन्हें देखकर फैंस बेहद उत्साहित हैं.

Women’s Day 2024: लोग मेरे अभिनय को देख कर कई बार रोने तक लग जाते हैं – कृष्णाई प्रभाकर उलेकर कलाकार

शांत, सौम्य और स्पष्टभाषी कृष्णाई प्रभाकर उलेकर महाराष्ट्र के उस्मानाबाद के तुलजापुर तालुका के आरळी बुद्रुक की हैं. वे किसान की बेटी हैं और भारुड कला के माध्यम से समाज में फैली कुरीतियों के प्रति लोगों को जागरूक करने की दिशा में सफल काम कर रही हैं. इस के माध्यम से वे समाज में व्याप्त कन्या भ्रूण हत्या, नशा मुक्ति अभियान, घरेलू अत्याचार, बाल विवाह आदि सोशल इशू का मंचन नाटकों के द्वारा कर रही हैं.

इस कला के साथसाथ कृष्णाई थिएटर में अभिनय और परफौॄमग आट्र्स में पोस्ट ग्रैजुएट भी कर रही हैं. कृष्णाई की इस यात्रा में मातापिता और भाई ने भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है,. वे अपनी हर सफलता का श्रेय भाई अन्ना साहेब, मां सुनीता उलेकर और पिता प्रभाकर उलेकर को देती हैं, जिन के अथक प्रयास और सहयोग से उन का नाम पूरे महाराष्ट्र में मशहूर हो चुका है.

हुईं सम्मानित

आसपास के जिलों में किसान आत्महत्याओं की संख्या अधिक होने के कारण और सूखे की गंभीरता को देखते हुए कृष्णाई ने भारुड कला के माध्यम से किसानों को जागरूक करने का फैसला किया है. वे कहती हैं, ‘‘किसान संकट में हैं उन का मनोबल बढ़ाने की जरूरत है इसलिए मैं भारुड कला से सब को सम?ााने का प्रयास करती हूं. इस सामाजिक काम के लिए मुझे कई पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया है. इन में ‘राज्य युवा पुरस्कार,’ ‘मराठवाड़ा भूषण’ मराठवाड़ा समन्वय समिति पुणे, सामाजिक ‘लोक कला पुरस्कार,’ बावड़ा सातारा ‘आविष्कार पुरस्कार’ आदि हैं.’’

मिली प्रेरणा

कृष्णाई कहती हैं, ‘‘बचपन में मैं लोकनाट्य करती थी. मैं ने कई लोकनाट्य देखे भी थे. पहले मैं समाज की सामाजिक इशू के साथ लोक गीतों का प्रयोग कर परफौर्म किया जाता है. इस में नशामुक्ति, कन्या भू्रण हत्या आदि सामाजिक कुरीतियों को लावनी के जरीए लोगों तक पहुंचाने की कोशिश करती थी.’’

मिली चुनौतियां

भारुड कला के माध्यम से सामाजिक पहलुओं के बारे में खुल कर बात करना कृष्णाई ने अपना मुख्य उद्देश्य बना लिया है. वे कहती हैं, ‘‘मैं ने इस कला को परफौर्म करने के लिए प्रशिक्षण नहीं लिया और 10 साल की उम्र से ही इस कला का स्टेज पर मंचन कर रही हूं. इस में पहले किसी समस्या को ले कर उस की कुरीतियों को बताने के बाद उन का निवारण बताया जाता है. पहले स्टेज शोज मिलने में मुश्किल होती थी क्योंकि लोग मु?ो जानते नहीं थे, लेकिन अब ऐसा नहीं होता.’’

‘‘हमारा ब्रैंड सैटअप ऐसा था जो खुद पेरैंट्स द्वारा तैयार किया गया था’’ – गजल

गजल अलघ एक ऐसा नाम है जिस ने अपने बच्चे की परवरिश के दौरान महसूस की गई प्रौब्लम्स का न सिर्फ खुद के लिए बल्कि दूसरों के लिए भी समाधान कुछ ऐसे निकाला कि एक बड़ा बिजनैस खड़ा कर दिया. उन्होंने नैचुरल बेबी और ब्यूटी प्रोडक्ट्स बनाने वाली कंपनी मामाअर्थ की शुरुआत की. मामाअर्थ मां और गर्भवती मां के जीवन को बेहतर बनाने के साथसाथ बच्चों का स्वस्थ और सुरक्षित दुनिया में स्वागत करता है.

एक कौरपोरेट ट्रेनर, एक कलाकार और एक मां होने के साथसाथ गजल आज एक नामचीन बिजनैस वूमन हैं. गजल सोनी चैनल पर आने वाले शो ‘शार्क टैंक सीजन 1’ के जजों में से एक थीं. गजल फिक्की (एफआईसीसीआई) स्टार्ट अप कमेटी 2024 की सहअध्यक्ष भी हैं.

गजल अलघ चंडीगढ़ की एक जौइंट फैमिली से हैं. उन के पिता बिजनैसमैन थे. गजल बताती हैं कि उन के पापा हमेशा कहते थे कि जब बिजनैस प्रौफिट कमाता है सिर्फ तभी पैसे घर आते हैं. यही बात सुनते वे बड़ी हुईं.

मोस्ट पावरफुल वूमन

गजल को बिजनैस टुडे और फौच्र्यून इंडिया मोस्ट पावरफुल वूमन 2023, ईटी 40 अंडर 40, सीएनबीसी वूमन फास्ट फौरवर्ड वूमन अचीवर अवौर्ड, बिजनैस टुडे मोस्ट पावरफुल वूमन 2024, बिजनैस वल्र्ड 40 अंडर 40 अवार्ड से सम्मानित किया गया है. कला में रुचि रखने वाली गजल अलघ की रचनाओं का प्रदर्शन राष्ट्रीयअंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हुआ और वे देश की शीर्ष 10 महिला कलाकारों की सूची में शामिल हैं.

शादी के बाद आप की ङ्क्षजदगी कैसे बदली और मामाअर्थ की शुरुआत कैसे हुई इस बारे में उन्होंने बताया कि वरुण से मेरी मुलाकात हुई और जल्द ही शादी हो गई. शादी के बाद उन्हें जौब के सिलसिले में फिलीपींस जाना था. हमारी नईनई शादी हुई थी इसलिए मैं ने साथ जाने का फैसला लिया. वहां मेरे पास समय था. सो पेंङ्क्षटग का शौक फिर से उभर आया. घर पर ही पेंङ्क्षटग्स बनानी शुरू कीं. वरुण को मेरी पेंङ्क्षटग्स बहुत अच्छी लगीं. उन्होंने मेरी कई पेंङ्क्षटग्स ले कर कुछ आर्ट अकादमी में भेजीं.

‘न्यूयौर्क आर्ट अकादमी’ से मु?ो कौल आ गया कि मैं वहां आ कर प्रोफैशनली पढ़ सकती हूं. यहां से प्रोफैशनल आर्ट ऐजुकेशन की जर्नी शुरू हुई. सीख कर वापस आई तो आर्ट ऐक्सिबिशन लगाईं. बहुत अच्छा रिस्पौंस मिला. यह वही काम था जिसे मैं ङ्क्षजदगी में करना चाहती थी. पैसा भी अच्छा था और संतुष्टि भी थी.

उन्होंने बताया, ‘‘फिर इस बीच मैं प्रैगनैंट हो गई. बड़ा बेटा पैदा हुआ तब चीजें थोड़ी बदलीं. बेटे के लिए मैं नैचुरल और टौक्सिन फ्री प्रोडक्ट्स ढूंढ़ रही थी.

‘‘मु?ो इस की जानकारी थी क्योंकि मैं यूएस रह कर आई थी. उस दौरान वहां दुकानों की सैल्फ से एक खास ब्रैंड के प्रोडक्ट्स हटाए जा रहे थे क्योंकि माना जा रहा था कि उन में काॢसनोजेंस इन्ग्रीडिएंट्स होते हैं. मेरे बेटे अगस्त्य के लिए जो गिफ्ट्स आए थे उन में उस ब्रैंड के प्रोडक्ट्स भी थे. मैं ने उन का उपयोग करना रोका.

‘‘इधर अगस्त्य को स्किन इशू था. उस की स्किन काफी सैंसिटिव थी. उस समय मैं ने रियलाइज किया कि भारत के ज्यादातर प्रोडक्ट्स उसे सूट नहीं कर रहे. फिर काफी समय तक फ्रैंड्स या फैमिली मैंबर्स जो विदेश आते या जाते उन से रिक्वैस्ट कर प्रोडक्ट्स मंगवाती और स्टोर कर के रखती. मगर यह सब आसान नहीं था. एक तो प्रोडक्ट्स महंगे बहुत थे और दूसरा दूसरों को परेशान करना भी सही नहीं लगता था.’’

कंज्यूमर्स का विश्वास

आप ने कंज्यूमर्स का विश्वास कैसे जीता, इस सवाल पर वे कहती हैं, ‘‘दरअसल, हम ने सोच लिया कि हम बेबी प्रोडक्ट्स बनाएंगे जो सेफ, टौक्सिन फ्री और नैचुरल इन्ग्रीडिएंट्स से तैयार होंगे. उस समय इंडियन पेरैंट्स को इस के बारे में कङ्क्षवस करना आसान नहीं था. इस के लिए हम ने मेड सेफ और्गेनाइजेशन से अपने प्रोडक्ट्स सॢटफाइड कराए. मेड सेफ नौन प्रौफिट और्गेनाइजेशन है जो किसी भी प्रोडक्ट के हर इन्ग्रीडिएंट्स को चेक करता है और यह देखता है कि प्रोडक्ट कैसे बन रहा है, कौन से इन्ग्रीडिएंट्स यूज किए गए हैं.

‘‘उस के बाद ही यह सेफ्टी सील देता है. इस के सेफ्टी स्टैंडर्ड न केवल इंसानों के लिए बल्कि ऐन्वायरन्मैंट मरीन लाइफ के लिए भी होता है. हम एशिया के पहले ब्रैंड थे जो मेड सेफ सॢटफाइड थे. इस से पहले किसी और ब्रैंड ने ब्यूटी की फील्ड में सेफ्टी की बात नहीं की थी. इसलिए कंज्यूमर्स का ट्रस्ट हमें मिला.

‘‘इस के अलावा हमारा ब्रैंड सैटअप ऐसा था जो खुद पेरैंट्स द्वारा तैयार किया गया था. हम खुद पेरैंट्स थे इसलिए दूसरे पेरैंट्स की प्रौब्लम सम?ाते थे. यह भी एक वजह थी कि कंज्यूमर्स ने हमारी बात सुनी. यही नहीं हम ने बहुत से कंज्यूमर से डाइरैक्टली बात की.’’

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