Hindi Stories Online : मोको कहां ढूंढे रे बंदे – कौन थी चीकू

Hindi Stories Online : आज फिर कांता ने छुट्टी कर ली थी और वो भी बिना बताए. रसोई से ज़ोर – ज़ोर से बर्तनों का शोर आ रहा था. बेचारे गुस्से के कारण बहुत पिटाई खा रहे थे. पर इस गुस्से के कारण कुछ बर्तनों पर इतनी जम के हाथ पड़ रहा था कि मानो उनका भी  रंग रूप निखर आया हो. वही जैसे फेशियल के बाद चेहरे पर आता है. अरे, “आज मुझे पार्लर भी तो जाना है.” अचानक याद आया. सारा काम जल्दी – जल्दी निपटा  दिया. थकान भी लग रही थी. पर सोचा चलो, वही रिलैक्स हो जाऊंगी. घर का सारा काम निपटा कर मैं पार्लर पहुंच गई.

जब फेशियल हो गया तो पार्लर वाली बोली…….

“दीदी कल देखना, क्या ग्लो आता है.” उफ़….एक तो उसका “दीदी” बोलना और दूसरा अंग्रेजी का “ग्लो” ग्लो~~ वाह!! सच, मन कितना आनंद से भर जाता है. खुश होकर मैंने कुछ टिप उसके हाथ में रख दी, “थैंक यू दीदी” उसने कहा.सच में अपने आप पर बड़ा गर्व महसूस होने लगा, जैसे न जाने कितना महान काम कर दिया हो.घर वापसी के लिए पार्लर का दरवाज़ा खोलते समय सचमुच में एक सेलेब्रिटी वाली फीलिंग आने लगती है. लगता है जैसे बाहर कई सारे फोटोग्राफर और ऑटोग्राफ लेने वाले इंतजार में खड़े होंगे… मैडम, मैडम!हेल्लो.. हेल्लो.. प्लीज़ प्लीज़ एक फोटो. इधर,  इधर, मैडम. ऐसा सोचते ही एक गर्वीली मुस्कुराहट अनायास ही चेहरे पर आ गई.

पर ये क्या? पार्लर से निकलते ही सब्ज़ी वाला भईया दिख गया. उफ़…मेरे ख्यालों की दुनिया जैसे पल भर में गायब हो गई. मुझे देखते ही वो अपने चिरपरिचित अंदाज़ में बोला “हां,…. चाहिए कुछ?” मैं जैसे सपने से जागी.अरे हां,आलू तो खत्म हो ही गए है. परांठे कैसे बनेंगे कल.सन्डे को कुछ स्पेशल तो सबको चाहिए ही. फिर चाहे लंच में छोले चावल बन जाएंगे. टमाटर भी लेे ही लेती हूं. रखे रहेंगे, बिगड़ते थोड़े ही है. कुछ और सब्जियां भी ‘सेफर साइड योजना’ के तहत लेे ली जाती है.अब आती है असली जिम्मेदारी निभाने की बारी..यानी हिसाब लगवाने की बारी “क्या भईया, क्यूं इतनी मंहगी  लगा रहे हो?”
“हमेशा तो आपसे ही लेती हूं.”

“आज क्या कोई पहली बार सब्ज़ी थोड़े खरीद रही हूं आपसे?”
“उधर, बाहर मार्केट में बैठते हो तो कम भाव लगाते हो” “हमारी कॉलोनी में आते ही सबके भाव बढ़ जाते है”अन्तिम डायलॉग बोलते समय थोड़ा फक्र महसूस होता है. देखा हम कितनी पॉश कॉलोनी के वासी है. परन्तु फ्री का धनिया और हरी मिर्च मांगते वक्त मैं अपने वास्तविक रूप में लौट आती.बनावट तो अस्थाई होती है, वास्तविकता ही हमारे साथ स्थाई रूप से रहती है.पर ये हमें शायद बहुत कम या कहिए देर से समझ आता है.

खैर….सब्जी वाले के साथ मोल भाव करने और कुछ एक्स्ट्रा लेने में अपनी कला पर खुद को ही शाबाशी दे डाली, हमेशा की तरह. वरना, घर पर ये सब बताओ तो इन समझदारी की बातों को भला कौन समझता है? उल्टा प्रवचन अलग मिल जाता है पतिदेव से …”क्या तुम भी, यूं दो – चार रुपयों के लिए इन मेहनतकश लोगो से इतना तोल मोल करती हो” इतनी सुबह- सुबह दूर मंडी से तुम्हें ये सब घर बैठे ही मिल जाता है. ये भी तो फ्री होम डिलीवर ही है. हमें तो इनका शुक्रगुज़ार होना चाहिए.

उहं मैंने मन ही मन  मुंह बनाया. अरे, घर चलाना कोई खेल नहीं है. बहुत सारी बातें सोचनी पड़ती है. ये मर्दों के बस की बात नहीं है. अपने और उनके दोनों के ही हिस्से की बातें मैं मन ही मन सोच रही थी.
जब सब्ज़ियां खरीद ली तो याद आया. ओह, हां.. .’ब्रेड और मख्खन भी तो नहीं है और छोटे बेटे ने अपना शैंपू लाने के लिए भी तो कहा था.’ कुछ चिप्स और चॉकलेट भी लेे लूंगी उसके लिए. घर पहुंचते ही  बोलता है “मेरे लिए क्या लाई हो मम्मी?” दुकान पर पहुंची तो कुछ अन्य वस्तुओं पर भी नज़र गई . उन्हें देख कर सोचा..”अच्छा हुआ जो नजर पड़ गई, ये सामान भी तो लगभग खत्म ही होने लगा है.” ये तो बहुत अच्छा हुआ, जो देखकर याद आ गया. वरना फिर से आना पड़ता. सारा सामान लेे कर  थकी – हारी घर पहुंची. रिक्शे वाले से भी थोड़ी बहस हो गई किराए को लेकर. आज तो सारा मूड ही खराब हो गया.

डोरबेल बजाई तो चीकू ने दरवाज़ा खोला और चिल्ला कर बोला… पापा,  “मम्मी आ गई हैं.” “पता नहीं क्यूं ये हमेशा अपने पापा को सावधान होने का संकेत देता है.” जैसे, “मैं नहीं, कोई खतरे की घड़ी आ गई हो.”
हमेशा की तरह मैंने इस बात को नजर अंदाज़ किया.

चीकू बोला ,”मेरे लिए क्या लाई हो मम्मी?” हर बार उसकी यही जिज्ञासा होती. अरे. “हर बार क्यूं पूछते हो?” “मैं कोई विदेश यात्रा से आती हूं.” थकान अब तल्खी में बदल रही थी.

पतिदेव ने शायद इसे महसूस कर लिया था. वे कमरे से बाहर आये और माहौल की नज़ाकत को समझते हुए चिंटू को अंदर जाने का इशारा किया और सामान भीतर लेे जाने के लिए उठाने लगे. फिर अचानक जैसे उन्हें कुछ याद आया. वे  सहानुभूति जताते हुए बोले…अरे,,”तुम तो पार्लर गई थी ना?”
“क्या पार्लर बंद था?” ओह! “लगता है सारा समय घर की खरीदी में ही निकल गया.”

क्या इन्हें मेरा “ग्लो” नजर नहीं आ रहा? बाल भी तो ठीक कराए थे, क्या वो भी दिखाई नहीं पड़  रहे?
एक वो पार्लर वाली है जो बोल रही थी….”दीदी”, “आप अपने पर बिल्कुल ध्यान नहीं दे रही हो” “देखो तो कितनी ड्रायनेस आ गई है हाथों पर और बाल भी कितने हल्के होते जा रहे है” “आप थोड़ा जल्दी जल्दी विजिट किया करे” सच में मेरा कितना ख्याल करती है, और इन्हें देखो, इतना कुछ करवा कर आने के बाद भी पूछ रहे है…”क्या पार्लर नहीं गई?”

हद है. दिनभर की थकान,  सबसे हुई बहस और पति की नज़र का दोष.एक धमाके का रूप ले चुका था. मैंने जोर से पांव पटके और धड़ाम से दरवाज़ा बंद किया और कहा..

“कभी तो मुझ पर ध्यान दीजिए, कभी तो फुरसत निकालिए” “क्या आपको कहीं भी?… कुछ?.. सुंदरता नजर आती है?” मैंने एक – एक शब्द पर ज़ोर देते हुए कहा “हर समय बस, ये अख़बार और टीवी” “क्या बार बार वही न्यूज सुनते रहते हो””घर -बाहर का सारा काम कर करके मेरे चेहरे का ग्लो ही खत्म हो गया” ये देखो, बर्तन मांज – मांज कर मेरे हाथ कितने ड्राई हो गए है”

“ये नाखून तो जैसे सारे ही टूट गए है.” मैं  गुस्से में बोल रही थी. आवाज़ से लग रहा था, बस रो ही पडूंगी, पर उनके सामने रोना अपनी बात को कमज़ोर बनाना था. मैं सीधे अपने कमरे में चली गई. अचानक एक छोटे से प्रश्न पर इतना भड़क जाना? उनकी कुछ समझ नहीं आ रहा था. पतिदेव ज्यादा बहस के मूड में नहीं  थे. चुपचाप सारा सामान रसोई में रख अख़बार उठा कर पढ़ने लगे.

कुछ देर बाद मैंने अपने कमरे का दरवाज़ा खोला. देखा रसोई में कुछ खुसुर – पुसुर हो रही थी.
चीकू की आवाज़ आ रही थी….”पापा आज बाहर से कुछ मंगवा  ले?”और पतिदेव बोल रहे थे..”यार चीकू मैगी ही बना लेते है.” “अब, मम्मी से कौन पता करे कि उन्हें क्या खाना है?”

अब मुझे अपने आप पर भी गुस्सा आने. आखिर इतना बवाल करने की क्या जरूरत थी.
मैंने रसोई में जाकर बिना प्यास के पानी पिया. बस टोह लेने के लिए कि क्या चल रहा है. फिर सपाट और संयमित स्वर में पूछा..”क्या खाओगे?” दोनों एक साथ बोल उठे…”खिचड़ी”

“ये तो कमाल हो गया, यार चीकू ” पापा ने बड़ी प्रशंसा भरी नज़रों से चीकू को शाबाशी दी और चीकू ने भी अपनी आंखे झपकाकर पापा को “टू गुड” कहा.  “वाह!”

“इतनी अंडरस्टैंडिंग” सच में कमाल ही है. जो खिचड़ी के नाम से ही बिदकते हो आज खुद खिचड़ी खाने के लिए कह रहे हैं. जो मैं अपनी थकान की स्थिति के विकल्प रूप में बनाती हूं. मैं मन ही मन मुस्कुराई पर स्वयं की प्रतिष्ठा के मद्देनजर चेहरा संजीदा ही बनाए रखा.

अब वे दोनों चुपचाप रसोई से बाहर निकल कर टेबल लगाने लगे. खाने के बाद के सारे काम निपटा कर जब मैं चीकू के कमरे में गई तो वो सो चुका था. आज इसे अकारण ही डांट दिया. बहुत बुरा लग रहा था. कॉमिक्स उसके हाथ से निकाल कर हौले से उसके बालों को सहलाया. बत्ती बंद कर  मैंने अपने कमरे की ओर रुख किया.

आश्चर्य है आज उनके हाथ में न अख़बार था न मोबाइल मुझे देख कर वे थोड़ा मुस्कराए मुझे थोड़ा अटपटा लगा. पता नहीं क्या बात है? मैं उनकी ओर पीठ घुमाकर  अपने ड्राई हाथों पर क्रीम मलने लगी. आज थोड़ी ज्यादा देर तक हाथों को क्रीम मलती रही. शायद उनके बुलाने का इंतजार कर रही थी. सोचे जा रही थी…”इतना धैर्य भी भला किस काम का? जो बोलने में भी इतना समय लगे.” मन में बोले गए वाक्य के पूरा होने की देर थी कि आवाज़ आई…”आओ!” “तुम्हें कुछ दिखाना है” ये हो क्या रहा है? शाम के खाने से लेकर अभी तक आश्चर्य ही आश्चर्य इतने आश्चर्य वाली धाराएं तो पहले कभी नहीं देखी.

मैं बिना कुछ कहे बैठ गई..वे अलमारी से एक बड़ा सा लिफाफा निकाल रहे थे. मैं सोच रहीं थीं, अभी न तो मेरा जन्मदिन है, न शादी की सालगिरह. फिर तोहफे लेने देने वाली परंपरा भी तो ज़रा कम ही है हमारे बीच.उन्होंने वो बड़ा सा लिफाफा मेरे सामने रख दिया. “ये क्या?”  “लिफाफा तो पुराना सा दिख रहा है” मुझे कुछ अजीब लगा.

मैंने धीरे से पूछा… .. ….”क्या है इसमें ?”
“आज तुम पार्लर से आकर पूछ रही थी ना…. कि क्या मुझे  कहीं भी, किसी भी रूप में कुछ सुंदरता दिखाई देती है?” “ये वही सुंदरता वाला लिफाफा है.” वे एकदम शांत और संयत आवाज़ में बोले.

अब तो सच में, मैं आश्चर्य के समुद्र में गोते लगाने लगी. देखो, अनु, “सुंदरता की सबकी अपनी परिभाषा होती है.” “सुंदरता देखने का सबका अपना अलग – अलग नज़रिया होता है.”

“किसी को तन की सुंदरता मोहित करती है, तो किसी को मन की, कोई स्वभाव की सुंदरता देखता है तो कोई भाषा की.” “कोई  प्रकृति की सुंदरता में खो जाता है, तो किसी को खेत – खलिहान में काम करने वाले उन मेहनतकश मजदूर और उन पर लगी उस माटी की सुंदरता मोहित करती है.” “कोई रसोई में खाना बनाती उस गृहिणी और उसके माथे पर आने वालेे पसीने की बूंदों में सुंदरता देखता है, जिसमें परिवार के लिए स्नेह झलकता है, जो मैं तुममें भी अक्सर देखता हूं.” “मुझे तुम्हारा वो ग्लो ज्यादा अच्छा लगता है, तो इसमें मेरा क्या कसूर है?” वे बोलते जा रहे थे. मैं अपना सिर नीचे किए बस उन्हें सुन रही थी. आंखों में आंसू डबडबाने लगे थे.

तभी लिफाफे के खुलने की आवाज़ मेरे कानों में पड़ी. “ये देखो.” मैंने पनीली आंखों से देखा….”ये मां की बरसों पुरानी तस्वीर है.” मैंने देखा सासू मां की उस ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीर को … एक सादी सी सुती साड़ी पहने, माथे पर बड़ी सी बिंदी, बालों की एक लंबी ढीली सी चोटी.इतनी सादगी और कितनी सुंदर. मैं मोहित हो कर देखने लगी. सचमुच सुंदर.

फिर निकली एक बड़ी सी राखी जो बचपन में बहन ने बांधी थी. उस समय वो कलाई से भी काफी बड़ी रही होगी. मुझे अपने भाई की याद गई वो भी तो ऐसी ही बड़ी सी राखी बंधवाता था और फिर सारे मोहल्ले को दिखता था. उसे याद कर मैं धीरे से हंस पड़ी.

फिर निकली एक पुरानी सी कैसेट जिसमें मेरी नानी के गाए भजन और उनके साथ की गई बातचीत की पर्ची लगी हुई थी.

पिताजी जी के साथ देखी गई फिल्म का पोस्टर. सचमुच कमाल. हमारी पहली यात्रा के टिकिट, चीकू की पहली पेंटिंग वाला कागज़. सारी चीजे इतने जतन से संभाली हुई.

अब तो मेरी बहुत कोशिश से रोकी हुई रुलाई फूट पड़ी. “देखो अनु,” “मैं तुम्हारा दिल दुखना हरगिज़ नहीं चाहता.” “पार्लर जाना कोई बुरी बात नहीं है.” “न ही मैंने तुम्हें कभी रोका है.”

“अपने आप को अच्छा रखना और लगना कोई गुनाह नहीं है.” “दरसअल, हमें जो अच्छा लगता है, हम चाहते है सामने वाले को भी वो, उसी रूप में अच्छा लगे और वो उसकी तारीफ करे,पर ऐसा हर बार जरूरी तो नहीं.”

“उसकी अपनी सोच हमसे अलग भी तो हो सकती है.” “मुझे लगता है, जब हम सुंदरता का कोई रूप देख कर खुश होते है,तो आपकी आंतरिक खुशी  चेहरे पर अपने आप आ जाती है.”

उस खुशी से चेहरा दमकने लगता है. शायद तभी चेहरे को दर्पण कहा   जाता है. बिना बोले ही कितनी बातें कह जाता है. “मेरा अपना सुंदरता का क्या नज़रिया है, वो मैंने तुम्हें बता दिया.”

“मेरा तुम्हारा मन दुखाने का कभी भी कोई मकसद नहीं होता.”  एक गहरे निःश्वास के साथ वे चुप हो गए. उस दिन मैं एक नए संवेदनशील इंसान से मिली.अब मेरी आंखों में खुशी के आंसू झिलमिला रहे थे. सुंदरता की ऐसी परिभाषा तो शायद मैंने पहले कभी सोची ही नहीं.आज कुछ अलग सा महसूस किया था. सच,एक नया अर्थ समझ आया था.

मुझे लगा जैसे आज संवेदनाओं की कितनी उलझने सुलझ गई थी. दूर बादलों की ओट से चांद बाहर निकल रहा था. ठीक मेरे मन की तरह. शिकवे- शिकायतों के सारे काले बादल शांत, श्वेत चांदनी में बदल गए थे. खिड़की से झांकती चांदनी मुस्कुरा रही थी.

हम दोनों खामोश थे.बस आंखें बोल रही थी. मैंने उनकी ओर देखा और  झूठ – मूठ का गुस्सा दिखाते हुए कहा… चलिए, “अब सो जाइए. कल सुबह मुझे आलू के परांठे भी बनाने है.” “वाकई. तुम्हारे आलू परांठे होते बहुत सुंदर है.” पतिदेव एक शरारती मुस्कान लिए बोले. देखा नहीं? “उन्हें देखते ही मेरे और चीकू के चेहरे पर कितना “ग्लो”~~ आ जाता है.” हम दोनों खिलखिला कर हंस पड़े.

Moral Stories in Hindi : प्यार का पौधा – तीसरे देश की धरती पर

Moral Stories in Hindi :  भारत के बिहार के रहने वाले अजय और पाकिस्तान के लाहौर के रहने वाले जहीर ने अपनी 30 साल से चली आ रही दोस्ती को रिश्ते में बदलने के उपलक्ष्य में अमेरिका के न्यू जर्सी के एक बड़े होटल में दावत का आयोजन किया था.

एक ओर भव्य मुगल लिबास में सजे अजय उन की पत्नी जया व फूलों का सेहरा पहन दूल्हा बने उन के बेटे अमित पाकिस्तान की तहजीब से रुबरू हो रहे थे तो दूसरी तरफ सिल्क का कुरता, अबरक लगी पीली धोती पहने जहीर, सीधे पल्ला किए पीली बनारसी साड़ी में उन की बेगम जीनत गजब ढा रही थीं. आंखों को चौंधियाते सोने के तारों व मोतियों वाला सुर्ख लाल लहंगा, चुन्नी व नयनाभिराम आभूषणों में दिपदिपाती हुई उन की लाड़ली आसमा चांदसितारों को शरमा रही थी.

मोगरा के फूलों में लिपटे हुए उस के बाल, जड़ाऊं मांगटीका से चमकता माथा व उस की मांग में पीला सिंदूर दिपदिपा रहा था. कान के ऊपर लटकता मोतियों की लडि़योंवाले झिलमिलाते झूमर से चांदनी बिखर रही थी. दोनों परिवार एकदूसरे की इच्छाओं का मानसम्मान रखते हुए अपनेअपने देश की गंगायमुनी संस्कृति का मिलन कर के अपनी दोस्ती की मिसाल पेश कर रहे थे.

उन की प्यारभरी दोस्ती की शुरुआत बड़े अजीबोगरीब ढंग से हुई थी. अजय को भारत से आए अभी हफ्ता भी नहीं हुआ था कि रोड दुर्घटना में वे अपना हाथपैर तुड़वा बैठे थे और 2 वर्षों पहले ही लाहौर, पाकिस्तान से आए हुए जहीर, जो अजय के अपार्टमैंट में ही रहते थे, ने पलक झपकते ही उन की सारी जिम्मेदारियों को उठा कर आपसी भाईचारे का अनोखा संदेश दिया था.

भयानक घटना कुछ ऐसे घटी थी. अजय ने गाड़ी चलाना नईनई ही सीखी थी. उसी महीने तो 2 बार कोशिश करने के बाद उन्होंने जैसेतैसे ड्राइविंग टैस्ट पास किया था. ज्यादातर लोग पैरेलल पार्किंग कर नहीं पाते और टैस्ट में असफल हो जाते हैं.

अमेरिका में ड्राइविंग लाइसैंस देने की प्रक्रिया जटिल होने के साथ ईमानदारी पर आधारित रहती है. जब तक भरपूर कुशलता नहीं आती, लाइसैंस मिलने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता है. लाइसैंस मिलने के बाद उन्होंने लोन पर सैकंडहैंड गाड़ी खरीदी. हफ्ताभर भी तो नहीं हुआ था उन्हें गाड़ी चलाते हुए कि औफिस जाते समय ऐक्सिडैंट कर बैठे. वो तो आननफानन घटनास्थल पर पुलिस पहुंच गई थी और लहूलुहान व बेहोश अजय को न्यू जर्सी के रौबर्ट वुड हौस्पिटल में पहुंचाते हुए उन के औफिस और घर पर सूचित करने के लिए स्वयं पहुंच गई. पुलिस ने ही उन की पत्नी को हौस्पिटल भी पहुंचाया.

अमेरिकी पुलिस की यह बहुत बड़ी विशेषता है कि वहां पर रहते हर व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के मदद करने के लिए वह तत्पर रहती है. वहां जिस का कोई अपना नहीं होता, पुलिस उस की देखरेख किसी अपने से बढ़ कर करती है.

हौस्पिटल में अजय की पत्नी जया अकेली, असहाय सी खड़ी आंसू बहा रही थी. नया देश, नए लोग किस से अपना दुख बांटे. वह असमंजस में थी. इंडिया में मायके व ससुराल दोनों की आर्थिक अवस्था इतनी भी मजबूत नहीं कि वहां से कोई यहां आ कर उस की असहायता के इस गहन अंधेरे को साझा कर ले. चारों ओर दुख का उफनता सागर था, जिस का कहीं दूर तक किनारा जया को नजर नहीं आ रहा था.

बहते हुए आंसुओं पर काबू पाते हुए वह अपना आत्मबल संजोने की चेष्टा कर तो रही थी पर सफल नहीं हो पा रही थी. दुर्घटना की खबर पाते ही वे सब परेशान हो जाएंगे. किसी न किसी तरह इस आपत्ति को वह खुद ही झेलने का साहस प्राप्त करेगी. दृढ़ निश्चय की आभा से वह भर उठी. इंश्योरैंस वाले हौस्टिपल का खर्च उठा ही रहे हैं. आगे कोई न कोई राह निकल ही आएगी, ऐसा सोच कर जया के मन को शक्ति मिली.

औपरेशन थिएटर से अजय को केबिन में शिफ्ट कर दिया गया था. लेकिन अभी भी उन पर एनेस्थीसिया का असर था. थकान और परेशानी के कारण जया को झपकी आ गई थी. दरवाजा खुलने की आहट से अचानक उस की पलकें खुल गईं और उस के बाद उस ने जो कुछ भी देखा, अविश्वसनीय था.

जहीर दंपती घबराए हुए अंदर आए और जया से मुखातिब हुए कि उस ने उन्हें इस दुर्घटना की जानकारी क्यों नहीं दी. जवाब में जया सिर झुकाए रही. वे जया की जरूरत के सारे सामान लेते आए थे. उस दिन से दोनों पतिपत्नी अजय के घर लौटने तक जया की हर जरूरत की पूर्ति, चेहरे पर रत्तीभर शिकन लाए बिना करते रहे. इस तरह अजय के उस नाजुक वक्त में जहीर ने शारीरिक व आर्थिक रूप से, अपने किसी भी देशवासी से बढ़ कर, उन्हें सहारा दिया था.

आने वाले दिनों में दोनों की दोस्ती गाढ़ी होती गई. अमित के जन्म के समय एक बार फिर वे सारे रिश्तों के पर्याय बन गए थे. गर्भावस्था के नाजुक पलों को जीनत बेगम ने किसी अपने से बढ़ कर महीनों सांझा किया. घर से ले कर हौस्पिटल तक का भार अपने कंधे पर उठा कर अजय को बेहिसाब तसल्ली दी. अमित का बचपन दोनों परिवारों के लिए खिलौना बना रहा.

2 वर्षों बाद ही आसमा पैदा हुई. अजय और जया ने भी उन नाजुक पलों की जिम्मेदारियों को सहर्ष निभाया. अपनी ओर से कोई कमी नहीं छोड़ी. अमित और आसमा दोनों साथ खेलते हुए बड़े हुए. एक ही स्कूल में उन दोनों ने पढ़ाई की. उन दोनों की नोकझोंक पर दोनों परिवार न्योछावर होते रहे. कहीं कोई दुराव नहीं था. घर अलग थे पर अपनी बेशुमार मोहब्बत से दीवार को उन्होंने पारदर्शी बना लिया था. दोनों परिवारों की दोस्ती सभी के लिए मिसाल बन गई थी.

कहते हैं जब प्यार का सवेरा शाम के सुरमई अंधेरे को गले लगा लेता है तो समय का पंख भी गतिशील हो जाता है. ग्रीनकार्ड मिलते ही दोनों परिवार सभी तरह से सुव्यवस्थित हो गए थे. कुछ वर्षों बाद ही उन्हें वोट देने का अधिकार मिल गया और वे अब वहां के नागरिक थे.

खुशियों की चांदनी में वे भीग रहे थे कि दुनिया का सब से बड़ा प्रभुत्वशाली देश अमेरिका का कुछ हिस्सा आतंकवाद के काले धुएं में समा गया. 2001 के

11 सितंबर, मंगलवार को न्यूयौर्क के वर्ल्ड ट्रेड सैंटर और पैंटागन पर हुए आतंकी हमले ने पूरे विश्व को सहमा कर रख दिया. कितने लोगों की जानें गईं. धनसंपत्ति का बड़ा भारी नुकसान हुआ. वर्ल्ड टे्रड सैंटर की इमारत का ध्वस्त होना पूरी दुनिया की आर्थिक स्थिति को चरमरा गया. इस हमले के पीछे मुसलिम हैं, इस की जानकारी पाते ही अमेरिका में रह रहे मुसलिमों पर आफत आ गई. अमेरिकियों के निशाने पर सारे दाढ़ी रखने वाले आ गए थे.

दाढ़ी वालों पर होते जुल्मोंसितम से जहीर व उन के परिवार को अजय ने अपनी जान पर खेल कर बचाया.

समय के साथ दुख के बादल छंट तो गए पर जहीर की नौकरी जाती रही. दोनों हिस्सों की ठंड को बांटते हुए अजय ने अपने हिस्से की धूप भी उन पर बिखरा दी, जिस की ताप को जहीर ने कभी कम नहीं होने दिया. सबकुछ सामान्य होते ही जहीर की बहाली भी हो गई और एक बार फिर से खुशियां उन के दरवाजे पर दस्तक देने लगीं.

स्कूल की पढ़ाई पूरी कर के अमित और आसमा दोनों आगे की पढ़ाई करने के लिए घर से दूर चले गए. अमित ने कंप्यूटर साइंस की पढ़ाई की तो आसमा ने मैडिकल पढ़ाई की लंबी दूरियां तय कर लीं. जीवन में सुख ही सुख की लाली थी जो पलक झपकते ही दुखों की कालिमा को निगल लिया करती थी. परम संतुष्टि के भाव में विभोर थे दोनों परिवार. अमित और आसमा ने एक लंबा समय साथ बिताया था.

बचपन की चुहलबाजियों ने धीरेधीरे प्यार के नशीले रूप को धारण कर लिया था. इस का अंदाजा उन्हें उस समय हुआ जब वे आगे की पढ़ाई करने के लिए घर से दूर जा रहे थे. धर्म और जाति की दीवारों में उन का प्यार कभी दफन नहीं होगा, इस का उन्हें भरपूर अंदाजा था और वे सभी तरह से आश्वस्त हो कर अपनी मंजिल हासिल करने की होड़ में शामिल हो गए.

उन के प्यार से अनजान उन के मातापिता कुछ ऐसे ही खूबसूरत बंधन के लिए आतुर थे. उन्हें इस का जरा सा भी अंदाजा नहीं था. दोनों के पेरैंट्स को जब उन के प्यार के बारे में पता चला तो उन्हें ऐसा महसूस हुआ मानो अटलांटिक महासागर में ही अनहोनी को होनी करते हुए प्यार के हजारों कमल खिल गए हों.

इस तरह हर ओर से जीवन की हर धूपछांव को बांटते हुए उन्होंने अपनी औलादों को आज सब से खूबसूरत रेशमी रिश्तों में बांध दिया था. वर्षों से चली आ रही अपनी दोस्ती पर खूबसूरत रिश्ते की मुहर लगा दी थी. बधाइयां देने वालों का तांता लगा था. यह दिलकश नजारा था गोली, बारूद की ढेर पर बैठे, निर्दोषोें की लाशों से अपनी सीमाओं को पाट कर रख देने वाले 2 देश हिंदुस्तान व पाकिस्तान की सरहदों के नुकीले तारों से क्षतविक्षत हुए दिल के तारों के किसी तीसरे देश की धरती पर मिलन का.

Latest Hindi Stories : विवाह – विदिशा को किस बात पर यकीन नहीं हुआ

Latest Hindi Stories :  राज आज बहुत खुश था. विदिशा से मिलने के लिए वह पुणे आया था. दोनों गर्ल्स होस्टल के पास ही एक आइसक्रीम पार्लर पर मिले.

‘‘मैं लेट हो गई क्या?’’ विदिशा ने पूछा.

‘‘नहीं, मैं ही जल्दी आ गया था,’’ राज बोला.

‘‘तुम से एक बात पुछूं क्या?’’ विदिशा ने कहा.

‘‘जोकुछ पूछना है, अभी पूछ लो. शादी के बाद कोई उलझन नहीं होनी चाहिए,’’ राज ने कहा.

‘‘तुम ने कैमिस्ट्री से एमएससी की है, फिर भी गांव में क्यों रहते हो? पुणे में कोई नौकरी या कंपीटिशन का एग्जाम क्यों नहीं देते हो?’’‘‘100 एकड़ खेती है हमारी. इस के अलावा मैं देशमुख खानदान का एकलौता वारिस हूं. मेरे अलावा कोई खेती संभालने वाला नहीं है. नौकरी से जो तनख्वाह मिलेगी, उस से ज्यादा तो मैं अपनी खेती से कमा सकता हूं. फिर क्या जरूरत है नौकरी करने की?’’

राज के जवाब से विदिशा समझ गई कि यह लड़का कभी अपना गांव छोड़ कर शहर नहीं आएगा.

शादी का दिन आने तक राज और विदिशा एकदूसरे की पसंदनापसंद, इच्छा, हनीमून की जगह वगैरह पर बातें करते रहे.

शादी के दिन दूल्हे की बरात घर के सामने मंडप के पास आ कर खड़ी हो गई, लेकिन दूल्हे की पूजाआरती के लिए दुलहन की तरफ से कोई नहीं आया, क्योंकि दुलहन एक चिट्ठी लिख कर घर से भाग गई थी.

‘पिताजी, मैं बहुत बड़ी गलती कर रही हूं, लेकिन शादी के बाद जिंदगीभर एडजस्ट करने के लिए मेरा मन तैयार नहीं है. मां के जैसे सिर्फ चूल्हाचौका संभालना मुझ से नहीं होगा. आप ने जो रिश्ता मेरे लिए ढूंढ़ा है, वहां किसी चीज की कमी नहीं है. ऐसे में मैं आप को कितना भी समझाती, मुझे इस विवाह से छुटकारा नहीं मिलता, इसलिए आप को बिना बताए मैं यह घर हमेशा के लिए छोड़ कर जा रही हूं…’

‘‘और पढ़ाओ लड़की को…’’ विदिशा के पिता अपनी पत्नी पर गुस्सा करते हुए रोने लगे. वर पक्ष का घर श्मशान की तरह शांत हो गया था. देशमुख परिवार गम में डूब गया था. गांव वालों के सामने उन की नाक कट चुकी थी, लेकिन राज ने परिवार की हालत देखते हुए खुद को संभाल लिया.

विदिशा पुणे का होस्टल छोड़ कर वेदिका नाम की सहेली के साथ एक किराए के फ्लैट में रहने लगी. उस की एक कंपनी में नौकरी भी लग गई.

वेदिका शराब पीती थी, पार्टी वगैरह में जाती थी, लेकिन उस के साथ रहने के अलावा विदिशा के पास कोई चारा नहीं था. 4 साल ऐसे ही बीत गए.

एक रात वेदिका 2 लाख रुपए से भरा एक बैग ले कर आई. विदिशा उस से कुछ पूछे, तभी उस के पीछे चेहरे पर रूमाल बांधे एक जवान लड़का भी फ्लैट में आ गया.

‘‘बैग यहां ला, नहीं तो बेवजह मरेगी,’’ वह लड़का बोला.

‘‘बैग नहीं मिलेगा… तू पहले बाहर निकल,’’ वेदिका ने कहा.

उस लड़के ने अगले ही पल में वेदिका के पेट में चाकू घोंप दिया और बैग ले कर फरार हो गया.

विदिशा को कुछ समझ नहीं आ रहा था. उस ने तुरंत वेदिका के पेट से चाकू निकाला और रिकशा लेने के लिए नीचे की तरफ भागी. एक रिकशे वाले को ले कर वह फ्लैट में आई, लेकिन रिकशे वाला चिल्लाते हुए भाग गया.

विदिशा जब तक वेदिका के पास गई, तब तक उस की सांसें थम चुकी थीं. तभी चौकीदार फ्लैट में आ गया. पुलिस स्टेशन में फोन किया था. विदिशा बिलकुल निराश हो चुकी थी. वेदिका का यह मामला उसे बहुत महंगा पड़ने वाला था, इस बात को वह समझ चुकी थी. रोरो कर उस की आंखें लाल हो चुकी थीं.

पुलिस पूरे फ्लैट को छान रही थी. वेदिका की लाश पोस्टमार्टम के लिए भेज दी गई. दूसरे दिन सुबह विदिशा को पुलिस स्टेशन में पूछताछ के लिए बुलाया गया. सवेरे 9 बजे से ही विदिशा पुलिस स्टेशन में जा कर बैठ गई. वह सोच रही थी कि यह सारा मामला कब खत्म होगा.

‘‘सर अभी तक नहीं आए हैं. वे 10 बजे तक आएंगे. तब तक तुम केबिन में जा कर बैठो,’’ हवलदार ने कहा.

केबिन में जाते ही विदिशा ने टेबल पर ‘राज देशमुख’ की नेमप्लेट देखी और उस की आंखों से टपटप आंसू गिरने लगे.

तभी राज ने केबिन में प्रवेश किया. उसे देखते ही विदिशा खड़ी हो गई.

‘‘वेदिका मर्डर केस. चाकू पर तुम्हारी ही उंगलियों के निशान हैं. हाल में भी सब जगह तुम्हारे हाथों के निशान हैं. खून तुम ने किया है. लेकिन खून के पीछे की वजह समझ नहीं आ रही है. वह तुम बताओ और इस मामले को यहीं खत्म करो,’’ राज ने कहा.

‘‘मैं ने खून नहीं किया है,’’ विदिशा बोली.

‘‘लेकिन, सुबूत तो यही कह रहे हैं,’’ राज बोला.

‘‘कल जो कुछ हुआ है, मैं ने सब बता दिया है,’’ विदिशा ने कहा.

‘‘लेकिन वह सब झूठ है. तुम जेल जरूर जाओगी. तुम ने आज तक जितने भी गुनाह किए हैं, उन सभी की सजा मैं तुम्हें दूंगा मिस विदिशा.’’

‘‘देखिए…’’

‘‘चुप… एकदम चुप. कदम, गाड़ी निकालो. विधायक ने बुलाया है हमें. मैडम, हर सुबह यहां पूछताछ के लिए तुम्हें आना होगा, समझ गई न.’’

विदिशा को कुछ समझ नहीं आ रहा था. शाम को वह वापस पुलिस स्टेशन के बाहर राज की राह देखने लगी.

रात के 9 बजे राज आया. वह मोटरसाइकिल को किक मार कर स्टार्ट कर रहा था, तभी विदिशा उस के सामने आ कर खड़ी हो गई.

‘‘मुझे तुम से बात करनी है.’’

‘‘बोलो…’’

‘‘मैं ने 4 साल पहले बहुत सी गलतियां की थीं. मुझे माफ कर दो. लेकिन मैं ने यह खून नहीं किया है. प्लीज, मुझे इस सब से बाहर निकालो.’’

‘‘लौज में चलोगी क्या? हनीमून के लिए महाबलेश्वर नहीं जा पाए तो लौज ही जा कर आते हैं. तुम्हारे सारे गुनाह माफ हो जाएंगे… तो फिर मोटरसाइकिल पर बैठ रही हो?’’

‘‘राज…’’ विदिशा आगे कुछ कह पाती, उस से पहले ही वहां से राज निकल गया.

दूसरे दिन विदिशा फिर से राज के केबिन में आ कर बैठ गई.

‘‘तुम क्या काम करती हो?’’

‘‘एक प्राइवेट कंपनी में हूं.’’

‘‘शादी हो गई तुम्हारी? ओह सौरी, असलम बौयफ्रैंड है तुम्हारा. बिना शादी किए ही आजकल लड़केलड़कियां सबकुछ कर रहे हैं… हैं न?’’

‘‘असलम मेरा नहीं, वेदिका का दोस्त था.’’

‘‘2 लड़कियों का एक ही दोस्त हो सकता है न?’’

‘‘मैं ने अब तक असलम नाम के किसी शख्स को नहीं देखा है.’’

‘‘कमाल की बात है. तुम ने असलम को नहीं देखा है. वाचमैन ने रूमाल से मुंह बांधे हुए नौजवान को नहीं देखा. पैसों से भरे बैग को भी तुम्हारे सिवा किसी ने नहीं देखा है. बाकी की बातें कल होंगी. तुम निकलो…’’

रोज सुबह पुलिस स्टेशन आना, शाम 3 से 4 बजे तक केबिन में बैठना, आधे घंटे के लिए राज के सामने जाना. वह विदिशा की बेइज्जती करने का एक भी मौका नहीं छोड़ता था. तकरीबन 2 महीने तक यही चलता रहा. विदिशा की नौकरी भी छूट गई. गांव में विदिशा की चिंता में उस की मां अस्पताल में भरती हो गई थीं. रोज की तरह आज भी पूछताछ चल रही थी.

‘‘रोजरोज चक्कर लगाने से बेहतर है कि अपना गुनाह कबूल कर लो न?’’

विदिशा ने कुछ जवाब नहीं दिया और सिर नीचे कर के बैठी रही.

‘‘जो लड़की अपने मांपिता की नहीं हुई, वह दोस्त की क्या होगी? असलम कौन है? बौयफ्रैंड है न? कल ही मैं ने उसे पकड़ा है. उस के पास से 2 लाख रुपए से भरा एक बैग भी मिला है,’’ राज विदिशा की कुरसी के पास टेबल पर बैठ कर बोलने लगा.

लेकिन फिर भी विदिशा ने कुछ नहीं कहा. उसे जेल जाना होगा. उस ने जो अपने मांबाप और देशमुख परिवार को तकलीफ पहुंचाई है, उस की सजा उसे भुगतनी होगी. यह बात उसे समझ आ चुकी थी.

तभी लड़की के पिता ने केबिन में प्रवेश किया और दोनों हाथ जोड़ कर राज के पैरों में गिर पड़े, ‘‘साहब, मेरी पत्नी बहुत बीमार है. हमारी बच्ची से गलती हुई. उस की तरफ से मैं माफी मांगता हूं. मेरी पत्नी की जान की खातिर खून के इस केस से इसे बाहर निकालें. मैं आप से विनती करता हूं.’’

‘‘सब ठीक हो जाएगा. आप घर जाइए,’’ राज ने कहा.

विदिशा पीठ पीछे सब सुन रही थी. अपने पिता से नजर मिलाने की हिम्मत नहीं थी उस में. लेकिन उन के बाहर निकलते ही विदिशा टेबल पर सिर रख कर जोरजोर से रोने लगी.

‘‘तुम अभी बाहर जाओ, शाम को बात करेंगे,’’ राज बोला.

‘‘शाम को क्यों? अभी बोलो. मैं ने खून किया है, ऐसा ही स्टेटमैंट चाहिए न तुम्हें? मैं गुनाह कबूल करने के लिए तैयार हूं. मुझ से अब और सहन नहीं हो रहा है. यह खेल अब बंद करो.

‘‘तुम से शादी करने का मतलब केवल देशमुख परिवार की शोभा बनना था. पति के इशारे में चलना मेरे वश की बात नहीं है. मेरी शिक्षा, मेरी मेहनत सब तुम्हारे घर बरबाद हो जाती और यह बात पिताजी को बता कर भी कोई फायदा नहीं था. तो मैं क्या करती?’’ विदिशा रो भी रही थी और गुस्से में बोल रही थी.

‘‘बोलना चाहिए था तुम्हें, मैं उन्हें समझाता.’’

‘‘तुम्हारी बात मान कर पिताजी मुझे पुणे आने देते क्या? पहले से ही वे लड़कियों की पढ़ाई के विरोध में थे. मां ने लड़ाईझगड़ा कर के मुझे पुणे भेजा था. मेरे पास कोई रास्ता नहीं था, इसलिए मुझे मंडप छोड़ कर भागना पड़ा.’’

‘‘और मेरा क्या? मेरे साथ 4 महीने घूमी, मेरी भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया, उस का क्या? मेरे मातापिता का इस में क्या कुसूर था?’’

‘‘मुझे लगा कि तुम्हें फोन करूं, लेकिन हिम्मत नहीं हुई.’’

‘‘तुम्हें जो करना था, तुम ने किया. अब मुझे जो करना है, वह मैं करूंगा. तुम बाहर निकलो.’’

विदिशा वहां से सीधी अपने गांव चली गई. मां से मिली. ‘‘मेरी बेटी, यह कैसी सजा मिल रही है तुझे? तेरे हाथ से खून नहीं हो सकता है. अब कैसे बाहर निकलेगी?’’

‘‘मैं ने तुम्हारे साथ जो छल किया?है, उस की सजा मुझे भुगतनी होगी मां.’’

‘‘कुछ नहीं होगा आप की बेटी को, केस सुलझ गया है मौसी. असलम नाम के आदमी ने अपना गुनाह कबूल कर लिया है. वह वेदिका का प्रेमी था. दोनों के बीच पैसों को ले कर झगड़ा था, जिस के चलते उस का खून हुआ.

‘‘आप की बेटी बेकुसूर है. अब जल्दी से ठीक हो जाइए और अस्पताल से घर आइए,’’ राज यह बात बता कर वहां से निकल गया.

विदिशा को अपने कानों पर यकीन नहीं हो रहा था.

‘‘सर, मैं आप का यह उपकार कैसे चुकाऊं?’’

‘‘शादी कर लो मुझ से.’’

‘‘क्या?’’

‘‘मजाक कर रहा था. मेरा एक साल का बेटा है मिस विदिशा.’’

Hindi Kahaniyan : मुरदा – क्यों लावारिस थी वह लाश

Hindi Kahaniyan : भीड़ में से कोई चिल्लाया, ‘अरे जल्दी बुलाओ… 108 नंबर डायल करो… यह तो मर जाएगा…’

कुछ लोग वहां इकट्ठा हो गए थे. मैं ने अपनी गाड़ी के ब्रेक लगाए और लोगों से भीड़ की वजह पूछी, तो पता चला कि मामला सड़क हादसे का है.

मैं भी गाड़ी से उतर कर भीड़ में घुस कर देखने लगा. तकरीबन 50-55 साल का एक आदमी बुरी तरह घायल सड़क पर पड़ा तड़प रहा था.

लोग कह रहे थे कि वह कोई गरीब आदमी है, जो कुछ दिनों से इस इलाके में घूम रहा था. कोई कार वाला उसे टक्कर मार कर चला गया.

सब लोग इधरउधर की बातें कर रहे थे, पर जमीन पर पड़े उस आदमी के हक में कुछ भी नहीं हो रहा था. न अभी तक कोई एंबुलैस वहां आई थी, न ही पुलिस.

मैं ने फोन कर के पुलिस को बुलाया. हादसा हुए तकरीबन आधा घंटा बीत चुका था और उस आदमी का शरीर बेदम हुआ जा रहा था.

तभी सायरन बजाती एंबुलैंस वहां आ पहुंची और उसे अस्पताल ले जाने का इंतजाम हो गया.

एंबुलैंस में बैठे मुलाजिम ने किसी एक आदमी को उस घायल आदमी के साथ चलने के लिए कहा, लेकिन साथ जाने के लिए कोई तैयार न हुआ.

मुझे भी एक जरूरी मीटिंग में जाना था. उधर मन जज्बाती हुआ जा रहा था. मैं पसोपेश में था. मीटिंग में नहीं जाता, तो मुझे बहुत नुकसान होने वाला था. पर उस बेचारे आदमी के साथ नहीं जाता, तो बड़ा अफसोस रहता.

मैं ने मीटिंग में जाने का फैसला किया ही था कि पुलिस इंस्पैक्टर, जो मेरी ही दी गई खबर पर वहां पहुंचा था, ने मुझ से अस्पताल और थाने तक चलने की गुजारिश की. मुझ से टाला न गया. मैं ने अपनी गाड़ी वहीं खड़ी की और एंबुलैंस में बैठ गया.

अस्पताल पहुंचतेपहुंचते उस आदमी की मौत हो गई थी.

मरने वाले के हुलिएपहनावे से उस के धर्म का पता लगाना मुश्किल था. बढ़ी हुई दाढ़ी… दुबलापतला शरीर… थकाबुझा चेहरा… बस, यही सब उस की पहचान थी. उस की जेब से भी ऐसा कुछ न मिला, जिस से उस का नामपता मालूम हो पाता. अलबत्ता, 20 रुपए का एक गला हुआ सा नोट जरूर था.

अस्पताल ने तो उस आदमी को लेने से ही मना कर दिया. पुलिस भी अपनी जान छुड़ाना चाहती थी.

इंस्पैक्टर ने मेरी ओर देखते हुए कहा, ‘‘भाईसाहब, पंचनामा तो हम कर देते हैं, पर आप भी जानते हैं कि सरकारी इंतजाम में इस का अंतिम संस्कार करना कितना मुश्किल है. क्यों न आप ही अपने हाथों से यह पुण्य का काम लें और इस का अंतिम संस्कार करा दें?’’

‘‘क्यों नहीं… क्यों नहीं,’’ कहते हुए मैं ने हामी भर दी.

मन ही मन मैं ने इस काम पर आने वाले खर्च का ब्योरा भी तैयार कर लिया था. मेरे हिसाब से इस में कुछेक हजार रुपए का ही खर्चा था, जिसे मैं आसानी से उठा सकता था. सो, मैं इस काम के लिए तैयार हो गया.

इस तरह पुलिस और अस्पताल की जिम्मेदारी मैं ने अपने ही हाथों या कहें कि अपने कंधों पर डाल ली थी.

‘‘अब मुझे क्या करना होगा?’’ मैं ने इंस्पैक्टर से पूछा.

इंस्पैक्टर ने कहा कि मैं इस मुरदा शरीर को श्मशान घाट ले जाऊं. उन्होंने मुझे एक फोन नंबर भी दिया, जिस पर मैं ने बात की और यह सोच कर निश्चिंत हो गया कि अब सब जल्दी ही निबट जाएगा.

मेरे कहने पर ड्राइवर बताए हुए पते पर एंबुलैंस ले गया. श्मशान घाट पहुंचते ही मैं उस के संचालक से मिला और उस लाश के अंतिम संस्कार के लिए कहा.

पंचनामे में उस आदमी का कोई परिचय नहीं था, सिर्फ हुलिए का ही जिक्र था. संचालक ने मुझ से जब यह पूछा कि परची किस नाम से काटूं और कहा कि इस के आगे की जिम्मेदारी आप की होगी, तो मैं डर गया.

मैं ने उसे बताया, ‘‘यह मुरदा लावारिस है. मैं तो बस यह पुण्य का काम कर रहा हूं, ताकि इस की आत्मा को शांति मिल सके…’’

इस से आगे मैं कुछ बोलता, इस से पहले ही पीछे से आवाज आई, ‘‘भाई, यह लाश तो किसी मुसलिम की लगती है. इस की दाढ़ी है… इस का हुलिया कहता है कि यह मुसलिम है… इसे आग में जलाया नहीं जा सकता. बिना धर्म की पहचान किए हम यह काम नहीं करेंगे… आप इसे कब्रिस्तान ले जाइए.’’

यह बात सुनते ही वहां मौजूद तकरीबन सभी लोग एकराय हो गए.

समय बीतता जा रहा था. बहुत देर हो चुकी थी, इसलिए मैं ने भी उसे कब्रिस्तान ले जाना ही मुनासिब समझा.

मैं ने उन से कब्रिस्तान का पता पूछा और एंबुलैंस ड्राइवर से उस बेजान शरीर को नजदीक के कब्रिस्तान ले चलने को कहा.

मैं मन ही मन बहुत पछता रहा था. हर किसी ने इस मुसीबत से अपना पीछा छुड़ाया, फिर मैं ही क्यों यह बला मोल ले बैठा. खैर, अब ओखली में सिर दे ही दिया था, तो मूसल तो झेलना ही था.

कब्रिस्तान पहुंचते ही वहां मौजूद शख्स बोला, ‘‘पहले यह बताइए कि यह कौन सी मुसलिम बिरादरी का है? इस का नाम क्या है?’’

मैं सन्न था. यहां भी बिरादरी?

मैं ने उन्हें बताया, ‘‘मैं इन सब चीजों से नावाकिफ हूं और मेरा इस मुरदे से कोई वास्ता नहीं, सिवा इस के कि मैं इसे लावारिस नहीं छोड़ना चाहता.’’

पर इन सब बातों का उस आदमी पर कोई असर नहीं हुआ. मुझ से पीछा छुड़ाने के अंदाज में उस ने कहा, ‘‘भाईजान, मालूम हो कि यहां एक खास बिरादरी ही दफनाई जाती है, इसलिए पहले इस के बारे में मुकम्मल जानकारी हासिल कीजिए.’’

मैं ने हाथ जोड़ते हुए कहा, ‘‘यह मुरदा है और इसे मुसलिम बताया गया है. आप मेरी और इस बेजान की मदद कीजिए. आप को सवाब मिलेगा.’’

पर सवाब की चिंता किसे थी? उस आदमी ने लाश दफनाने से साफ मना कर दिया और इस तरह से एक बार फिर मुझे उस लाश को दूसरे कब्रिस्तान में ले जाने को मजबूर कर दिया गया.

इस बीच मुझे समाज की खेमेबाजी का चेहरा साफसाफ नजर आ गया था.

अब मैं दूसरे कब्रिस्तान पहुंच चुका था. वहां एक बुजुर्ग मिले. उन्हें मैं ने पूरा वाकिआ सुनाया. वे सभी बातें बड़े इतमीनान से सुन रहे थे और बस यही वह चीज थी, जो इस घड़ी मेरी हिम्मत बंधा रही थी, वरना रूह तो मेरी अब भी घबराई हुई थी.

जिस का डर था, वही हुआ. सबकुछ सुन कर आखिर में उन्होंने भी यही कहा, ‘‘मैं मजबूर हूं. अगर आदमी गैरमुसलिम हुआ और मेरे हाथों यह सुपुर्द ए खाक हो गया, तो यह मेरे लिए गुनाह होगा, इसलिए पहले मैं इस का शरीर जांच कर यह पुख्ता तो कर लूं कि यह मुसलिम है भी या नहीं.’’

उन्होंने जांच की और असहज हो कर मेरे पास आए. गहरी सांस छोड़ते हुए वे बोले, ‘‘माफी कीजिएगा जनाब, यह तो मुसलिम नहीं है.’’

उन के इन लफ्जों से मेरा सिर चकराने लगा था. एक तरफ रस्मों की कट्टरता पर गुस्सा आ रहा था, तो दूसरी तरफ अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मार कर इस पुण्य कमाने की इच्छा पर मैं खूब पछता रहा था.

कितने आडंबर में जीते हैं हम. एक मरे हुए आदमी के धर्म के प्रति भी इतनी कट्टरता? काश, हम आम जिंदगी में ऐसे आदर्शों का लेशमात्र भी अपना पाते.

मैं थकान और गुस्से से भर चुका था. उस मुरदा शरीर के साथ मैं सीधा पुलिस स्टेशन पहुंचा और अपना गुस्सा उस इंस्पैक्टर के सामने उगल दिया, जिस ने मुझे तकरीबन फुसला कर यह जिम्मेदारी सौंपी थी.

इंस्पैक्टर ने मेरे कंधे पर हाथ रखा और बोला, ‘‘एक ही दिन में थक गए आप? यहां तो यह हर रोज का तमाशा है. आप घर जाइए, इसे हम ही संभालेंगे.’’

मैं हैरान था कि यह खाकी वरदी सब्र और हिम्मत के रेशों से बनी है क्या? मैं माफी मांगते हुए वहां से विदा हुआ.

मैं अगले 2 दिन तक परेशान रहा कि उस लावारिस मुरदे का आखिर क्या हुआ होगा.

यह सोच कर मैं बेचैन होता रहा और तीसरे दिन फिर पुलिस स्टेशन पहुंच गया.

इंस्पैक्टर साहब मुझे देखते ही पहचान गए. शायद वे मेरी हालत और मेरी जरूरत समझ गए थे. उन्होंने अपने सिपाही की तरफ इशारा किया, ‘‘आप इन से जानकारी ले सकते हैं.’’

सिपाही ने बताया कि वह लाश अस्पताल के मुरदाघर में रखवा दी गई थी. उस ने एक कागज भी दिया, जिसे दिखा कर मुझे अस्पताल के मुरदाघर में जाने की इजाजत मिली.

मुरदाघर पहुंचने पर मैं ने देखा कि वहां ऐसी कई लाशें रखी थीं. उन सब के बीच मुझे अपने लाए हुए उस मुरदे को पहचानने में जरा भी समय नहीं लगा.

बदबू से भरे उस धुंधलके में वह मुरदा अभी भी एक मैली सी चादर की ओट में लावारिस ही पड़ा था. सरकारी नियम के हिसाब से उस लाश का उसी दिन दाह संस्कार किया जाना था. मैं तो यह भी पूछने की हिम्मत न कर पाया कि उसे दफनाया जाएगा या जलाया जाएगा.

मैं ठगा सा अपनी गाड़ी की तरफ चला जा रहा था.

Society : पति की पिटाई करने वाली महिलाओं को मीडिया में हाईलाइट करना समाज की मानसिक चाल

Society : इन दिनों ये देखा जा रहा है कि पत्नी द्वारा पति पर अत्याचार किया जा है, कई वायरल वीडियो में पत्नी अपने पति को पिटते हुए और अपशब्द कहते हुए नजर आ रहीं है. हमारे समाज में जब भी कोई महिला अपने पति पर हाथ उठाती है या घरेलू हिंसा का आरोपी बनती है, तो यह खबर तेजी से फैलती है. मीडिया इसे सनसनीखेज बनाकर परोसता है और समाज में यह नैरेटिव गढ़ा जाता है कि महिलाएं अब अत्याचार कर रही हैं. लेकिन क्या यह एक संयोग है, या फिर महिलाओं के खिलाफ एक सोचीसमझी मानसिक चाल?

यह कोई नई बात नहीं है कि महिलाओं को नियंत्रित करने के लिए समाज ने हमेशा नएनए तरीके अपनाए हैं. कभी उन्हें शिक्षा से दूर रखा गया, कभी उन के पहनावे पर सवाल उठाए गए, तो कभी उन के कार्यक्षेत्र को सीमित किया गया. एक बार इतिहास में झांकर देखे तो यह मालूम होता है कि महिलाओं की आवाज को हमेशा ही दबाया गया है. सती प्रथा जैसी चलन ने समाज में महिलाओं के लिए डर का माहौल तैयार किया और उन के पति के मरने के बाद उन से जिंदगी जीने तक का अधिकार छीन लिया था. विधवा औरतों की दूसरी शादी से समाज आज भी उतना ही असहज है जितना आज से सौ साल पहले हुआ करता था. अगर कोई आदमी किसी विधवा औरत से शादी कर ले तो समाज उसे ऐसी हीन भावना से देखता है जैसे कि उस ने कोई अपराध कर दिया हों. आज भी छोटे शहर से लड़कियां बड़े शहरों में अपनी पढ़ाई और नौकरी के लिए कम ही आती है. मांबाप के अन्दर एक अलग ही डर आज भी मौजूद है कि कहीं उनकी बेटी के साथ बड़े शहर में कुछ अप्रिय घटना न घट जाएं. बलात्कार के मामले हर रोज आप को सुनने को मिल ही जाएंगे. इस से कोई शहर अछूता नहीं रह गया है. ऐसे में मांबाप की चिंता एक तरफ तो जायज नजर आती है वहीं दूसरी तरफ एक बेटी के सपने उस के आंखों में ही रह जाते है और कभी भी हकीकत की शक्ल नहीं ले पाते है. अब जब महिलाएं कहीं हिम्मत करके शिक्षा और रोजगार के माध्यम से आत्मनिर्भर हो रही हैं, तो उन्हें ‘दमनकारी’ या ‘हिंसक’ बताने का प्रयास किया जा रहा है. अगर कहीं किसी छोटे कस्बे की कोई लड़की अपनी हक के लिए बगावत कर दें तो समाज उसे डराने से बाज नहीं आता.

सरकार बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ की बात तो करती है लेकिन उसी बेटी के एजुकेशन को और महंगा कर देती है. सरकारी विश्विद्यालयों और कालेजों की बात करें इनमें उतनी सीट तो होती है नहीं कि पुरे भारतवर्ष की बेटियां पढ़ लें, ऐसे में कई बेटियों की पढ़ाई या तो छुट जाती है या फिर उन्हें किसी के घर ब्याह दिया जाता है. क्योंकि प्राइवेट कालेजों में मांबाप बेटे को पढ़ाने के लिए प्राथमिकता देते है. प्राइवेट कालेजों में पढ़ाई इतनी महंगी है कि ज्यादातर परिवार अपनी बेटी को पढ़ाने से बचते है. रही बात छोटे शहरों में सरकारी कालेजों की तो यहां अब भी इन्फ्रास्ट्रक्चर पर शिक्षा विभाग को बहुत काम करना है. ज्यादातर कालजों को हालत खस्ता हो चली है. इस के साथ ही इन कालेजों में शिक्षकों की भी भारी कमी है.

समाज में कुछ अपवादस्वरूप घटनाएं होती हैं, जहां कुछ महिलाएं अपने पति के प्रति हिंसक हो सकती हैं, लेकिन इन्हें पूरे महिला समाज पर थोपना न केवल अनुचित बल्कि दुष्प्रचार भी है. जब कोई पुरुष घरेलू हिंसा करता है, तो इसे ‘निजी मामला’ या ‘सामाजिक समस्या’ कहकर टाल दिया जाता है, लेकिन जब कोई महिला अपने पति के खिलाफ हिंसा करती है, तो इसे बढ़ाचढ़ाकर दिखाया जाता है. आज भी अगर तुलना की जाए तो पुरषों द्वारा महिलाओं पर किए गए हिंसा के मामले ही ज्यादा होंगे. समाज हमेशा से ही पुरुषप्रधान रहा है और आज भी ज्यादा कुछ नहीं बदला है. गिनी चुनी महिलाएं है जो अपना मुकाम हासिल कर पाईं हैं. कार्यस्थलों पर न महिलाओं को पुरुषों के बराबर सम्मान मिलता है और न ही वेतन. खेलों में भी पुरुषों के खेल को ज्यादा तवज्जों दी जाती है. उन्हें मार्केट किया जाता है और अच्छा खासा बिजनेस बनाया जाता है. वहीं महिलाओं के खेल को न दर्शक भारी मात्रा में देखने जाते है और न ही मिडिया इन्हें ज्यादा तरजीह देती है. ऐसे में समानता का अधिकार संविधान में सिमटता नजर आता है.

महिला आयोग तो बना दिया गया है, लेकिन यह आयोग कितनी महिलाओं की आवाज सुन पाता है? अगर आवाजें सुनी जाती तो महिलाओं की सुरक्षा के लिए ठोस कदम उठाए जाते. बेटियां स्वतंत्र होकर अपने सपनों को पंख लगाती और एक नई दुनिया का निर्माण होता. मगर ऐसा होना आज की इस सरकार में तो बहुत मुश्किल लगता है. सरकार और मिडिया दोनों ने वास्तविक मुद्दों से अपना मुंह फेर लिया है और लोगों को आपस में लड़ाकर खुद सत्ता और शक्ति की मलाई खा रही है. ऐसे दौर में भी अगर कोई महिला समाज से लड़कर, हर पड़ाव को पार कर जब इतिहास लिखती है तो सभी नेतागण और मिडिया की टीआरपी नाम की दानव उस महिला के सम्मान में कसीदे पढ़ते नहीं थकते है. वहीं कोई महिला के साथ अगर बलात्कार हो जाए तो इनके मुंह से सिवाय निंदा के और कुछ नहीं निकलता है. ओलंपिक में मेडल लाने वाली बेटियां भी यौन उत्पीड़न और यौन शोषण की शिकार हुईं. वे न्याय के लिए चीखतीं रहीं और एक सांसद संसद में मुस्कुराता रहा और सरकार मौनव्रत रख सब देखती रही. प्रधानमंत्री दुनिया भर के हर विषयों पर भाषण देते है, लेकिन ऐसे मामलों में पता नहीं उन्हें कानों में समस्या हो जाती है, क्योंकि उन के पार्टी में ही कुकर्मी मौजूद है.

महिलाओं से जुड़े कानून और उन की स्थिति

भारत में महिलाओं को सुरक्षा देने के लिए कई कानून बनाए गए हैं, लेकिन पुरुषवादी मानसिकता वाले समाज में इन्हें भी गलत ढंग से पेश किया जाता है.

1. घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005
– यह कानून महिलाओं को उन के पति और ससुराल पक्ष द्वारा की गई हिंसा से सुरक्षा प्रदान करता है. इसमें शारीरिक, मानसिक, यौन और आर्थिक हिंसा को अपराध माना गया है.

2. दहेज प्रतिषेध अधिनियम, 1961
– इस कानून का उद्देश्य दहेज प्रथा को खत्म करना था, लेकिन इसे गलत तरीके से पेश कर यह नैरेटिव बनाया गया कि महिलाएं झूठे केस दर्ज कर पुरुषों को फंसाती हैं. जबकि असल में ऐसे मामलों की संख्या बहुत कम होती है.

3. आईपीसी की धारा 498A
– यह कानून महिलाओं को दहेज प्रताड़ना से बचाने के लिए बनाया गया था, लेकिन इसे लेकर भी दुष्प्रचार किया गया कि महिलाएं इस धारा का दुरुपयोग कर रही हैं. जबकि सच यह है कि अधिकांश महिलाएं डर और सामाजिक दबाव के कारण इस की शिकायत तक दर्ज नहीं कर पातीं.

4. कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न अधिनियम, 2013
– यह कानून महिलाओं को कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से सुरक्षा देने के लिए बना था, लेकिन इस के खिलाफ भी यह तर्क दिया जाता है कि पुरुषों को झूठे मामलों में फंसाया जा रहा है.

महिला सशक्तिकरण को दबाने की कोशिश

जब भी कोई महिला किसी क्षेत्र में प्रगति करती है, तो उस के खिलाफ कुछ न कुछ नैरेटिव गढ़ा जाता है. पहले कहा जाता था कि महिलाएं पढ़ लिखकर भी घर ही संभालेंगी, फिर जब वे नौकरी करने लगीं, तो कहा गया कि वे परिवार को समय नहीं देतीं. अब जब महिलाएं अपने अधिकारों की रक्षा के लिए खड़ी हो रही हैं, तो उन्हें हिंसक बताने की कोशिश की जा रही है और ये सब नैरेटिव गढ़ने के पीछे उसी विचारधारा के लोग खड़े है, जिन्हें महिलाओं की तरक्की शुरू से ही रास नहीं आई. ये वही लोग है जिन्होंने हमेशा ही महिलाओं को वस्तु समझा और उन्हें वस्तु की तरह ही इस्तेमाल किया. रेल गाड़ी से लेकर हवाई जहाज उड़ाने तक का सफ़र तय करने वाली माहिलाओं की सफलता इन्हें कभी रास नहीं आई. ऐसे लोग बस एक बिंदु ढूंढते है कि आखिर कैसे माहिलाओं को बदनाम किया जाएं. महिलाएं भले ही अपने क्षेत्र में कितना भी अच्छा काम कर लें, लेकिन समाज के दकियानूसी लोग हाथ से सलाम करने के बजाए उंगली उठाना पसंद करते है. इन्हें दुनिया में महिला की तरक्की पसंद नहीं, ये दुनिया को उन्हीं बेड़ियों में फिर जकड़ना चाहते है जहां सिर्फ मर्दों की हुकूमत चलती थी और औरतों को किसी तरह का कोई अधिकार नहीं था. समाज में पुरुषों द्वारा की जाने वाली हिंसा को सामान्य मान लिया गया है. लेकिन जब महिलाएं अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाती हैं या किसी हिंसा का जवाब देती हैं, तो उन्हें कठघरे में खड़ा कर दिया जाता है. यह न केवल पितृसत्तात्मक मानसिकता को दर्शाता है, बल्कि महिला सशक्तिकरण को रोकने का एक षड्यंत्र भी है.

समाज को बदलना होगा, कैसे हो शुरुआत ?

मीडिया को निष्पक्ष रिपोर्टिंग करनी चाहिए – महिलाओं से जुड़े अपराधों को सनसनीखेज बनाने के बजाय, उन्हें उचित संदर्भ में दिखाया जाना चाहिए, क्योंकि मिडिया वह माध्यम है जिसके परोसे गए कंटेंट को लोग सच मान लेते है. ऐसे में मिडिया का निष्पक्ष होना बहुत जरुरी हो जाता है. मिडिया अगर खबर को लेकर थोड़ा भी एंगल चेंज करती है तो इससे उस महिला के मानसिक हालत पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है, इससे उबरने में उस महिला को बरसो का समय लग जाता है. निष्पक्ष रिपोर्टिंग न होने की वजह से मिडिया और पुरे देश ने अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत का जिम्मेदार रिया चक्रवर्ती को मान लिया था. अब जब सीबीआई की रिपोर्ट आई है तो एक बड़े चैनल के बड़े पत्रकार ने सोशल मिडिया के माध्यम से सार्वजनिक रूप से रिया चक्रवर्ती से माफी मांगी है.

घरेलू हिंसा के सभी मामलों को गंभीरता से लिया जाना चाहिए – चाहे हिंसा पुरुष करे या महिला, दोनों ही मामलों में निष्पक्ष जांच होनी चाहिए. हालांकि हमारे समाज में अगर पत्नी अपने पति के खिलाफ घरेलु हिंसा की शिकायत पुलिस को करती है तो समाज उसे अपना दुश्मान मान लेता है उस पर तरहतरह के आरोप लगा कर उसे बद्चलन तक करार देता है. वहीं अगर कोई पति अपनी पत्नी के खिलाफ केस कर देता है तो पुरे समाज को पहली नजर में मामला सच नजर आने लगता है और वे सभी पति को पत्नी पीड़ित कह देते है.

महिला सुरक्षा कानूनों का सम्मान किया जाए – यह समझने की जरूरत है कि महिलाओं के लिए बने कानूनों की आवश्यकता क्यों पड़ी और समाज में इनका सही तरीके से क्रियान्वयन हो. कानून का अगर सही से क्रियान्वयन न हुआ तो महिलाओं का न्याय से विश्वास उठ जाएगा. ऐसे ही लंबी कानूनी प्रक्रिया और अदालतों की सुनवाई से महिलाओं को और गहरा सदमा लगता है. अदालत में उन के केस पर जिरह कम उन के अंगों के बारे में ज्यादा सवाल किया जाता है. इस तरह के केस में कई महिलाएं अंदर से टूट जाती है और जिंदा लाश बनकर अपनी जिंदगी जीती है.

महिलाओं की छवि धूमिल करने वाली घटनाओं को तूल न दिया जाए – किसी एक दो मामलों के आधार पर पूरे महिला समाज को कलंकित करना बंद किया जाना चाहिए. महिलाओं की छवि को धूमिल कर समाज आपस में बहुत ज्ञान का आदान प्रदान करता है. समाज के सबसे ज्ञानी लोग अपना कीमती समय इस काम के लिए तो जरुर ही निकालते है कि महिला ने किस तरह के वस्त्र पहने है, वह कैसे बात करती है, कैसे हंसती है और उस महिला के कितने पुरुष मित्र है! लेकिन ये बुद्दजीवी लोग अपने आप को कभी ऐसी संज्ञा नहीं देते है और न ही अपने गुंडागर्दी और नालायकी हरकतों से बाज आते है.

महिलाओं के खिलाफ बनाई जा रही हर मानसिक चाल को समझना जरूरी है. कुछ अपवादस्वरूप घटनाओं की आड़ में पूरे महिला समाज को कलंकित करना गलत है. जब समाज में महिलाएं अपने अधिकारों के लिए लड़ रही हैं, तो उन्हें दमनकारी या हिंसक बताने के प्रयास किए जा रहे हैं. हमें इस नैरेटिव को तोड़ने और महिलाओं के वास्तविक संघर्ष को समझने की जरूरत है ताकि वे अपने अधिकारों से वंचित न रह जाएं. हम सभी को हमेशा ये याद रखना चाहिए कि महिला ही समाज की असली जन्मदाता है.

Mango Cake Recipe : मैंगो से बनाएं घर पर ये स्पेशल केक, ट्राई करें ये रेसिपी

Mango Cake Recipe :  आपने मैंगो केक तो खाया ही होगा. अकसर ही बाजार में मैंगो केक खाते हुए आप सोचती होंगी कि फलों के राजा आम की बात ही कुछ अलग है. इससे बने सभी व्यञ्जन लाजवाब और स्वादिष्ट होता है. तो इस गर्मी के मौसम क्यूं ना आप अपने घर में ही बनाएं मैंगो केक. जानिए इसे बनाने की विधि.

सामग्री

मैदा – 1 कप (110 ग्राम)

आम – 1 (300 ग्राम)

कन्डेन्स्ड मिल्क – आधा कप (200 ग्राम)

शक्कर पाउडर- आधा कप (100 गाम)

दूध – 3-4 बड़े चम्मच

मक्खन – 1/3 कप ( 80 ग्राम)

काजू – 2 बड़े चम्मच

किशमिश – 2 बड़े चम्मच

बेकिंग पाउडर – 1 छोटी चम्मच

बेकिंग सोडा – 1/4 छोटी चम्मच

विधि

सबसे पहले आम को काट कर उसका पल्प निकाल कर उसे अच्छे से फेंट लीजिए. एक बाउल में मैदा लेकर उसमें बेकिंग सोडा मिलाएं और अच्छे से छान लें. दूसरे बड़े प्याले में मक्खन, आम का पल्प, कंडेन्स्ड मिल्क डालकर अच्छे से मिला लें. इसमें पाउडर शक्कर भी मिक्स कर लें. काजू को काट कर रख लें ऐसे ही किशमिश को भी साफ कर के रख लें.

अब ओवन को 180 डि. से. पर प्री हीट करने के लिये लगा दीजिये. एक कंटेनर में बटर या घी लगा कर उसे चिकना कर लीजिए. बटर पेपर या सादा प्लेन पेपर बर्तन के तले के आकार का काट लीजिये और तले में पेपर डालकर उसके ऊपर भी थोड़ा बटर डालकर चिकना कर लीजिये.

आम का पल्प, कन्डेन्स्ड मिल्क में ड्राई इन्ग्रीडियेन्ट यानि कि मैदा और बेकिंग पाउडर मिश्रण को डालकर अच्छी तरह गुठलियां खतम होने तक मिक्स कीजिये. मिश्रण में दूध के साथ काजू और किशमिश भी मिला दीजिये. केक का मिश्रण तैयार है.

कन्टेनर में मिश्रण डालिये और ओवन में रखिये. अब ओवन को 180 डि.से. पर 25 मिनिट के लिये सेट कर दीजिये, 25 मिनिट बाद केक को चेक कर लीजिये. अब चेक कीजिये, केक ऊपर से ब्राउन हो गया है. केक के अन्दर चाकू डालकर भी चेक करें. अगर चाकू केक के मिश्रण से चिपकता नहीं है तो समझ लें कि केक अन्दर से पूरी तरह बेक हो गया है. केक बनकर तैयार है.

केक को ओवन से निकाल कर ठंडा होने दें. अब इसके उपर से लगा पेपर हटा दें. अपने मन पसन्द टुकड़े में केक को काटिये और खाइये.

Health Tips : क्या हाई बीपी में नमक खाना पूरी तरह बंद कर देना चाहिए?

Health Tips : अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है, तो ये लेख अंत तक जरूर पढ़ें…

मैं 45 वर्षीय कामकाजी महिला हूं. मुझे पिछले कुछ महीनों से उच्च रक्तचाप की शिकायत हो गई है. क्या मुझे नमक खाना पूरी तरह बंद कर देना चाहिए?

शरीर के सुचारु रूप से काम करने के लिए उचित मात्रा में नमक का सेवन जरूरी है. मगर आप का रक्तचाप सामान्य से अधिक रहने लगा है, इसलिए नमक का सेवन थोड़ा कम जरूर कर दीजिए पर पूरी तरह बंद मत कीजिए. अधिक नमक का सेवन उन लोगों के रक्तचाप को खतरनाक स्तर तक बढ़ा सकता है, जिन्हें हाइपरटैंशन है, क्योंकि नमक में सोडियम होता है.

यह रक्त नलिकाओं को कड़ा और संकरा कर देता है. इस से हृदय को शरीर में रक्त पंप करने के लिए अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ती है. लेकिन अगर आप नमक का सेवन पूरी तरह से बंद कर देंगी तो आप का रक्तचाप खतरनाक स्तर तक कम हो जाएगा और इस से शरीर के दूसरे अंगों की कार्यप्रणाली भी प्रभावित होगी.

मेरी उम्र 27 साल है. मैं पेशे से वकील हूं. अभी परिवार बढ़ाना नहीं चाहती, इसलिए गर्भनिरोधक गोलियों का सेवन करती हूं. क्या इन से उच्च रक्तचाप की शिकायत हो सकती है?

गर्भनिरोधक गोलियों से रक्तदाब मामूली से ले कर खतरनाक स्तर तक बढ़ सकता है. इन के सेवन से रक्त का थक्का बनने का खतरा भी बढ़ जाता है. जो महिलाएं लंबे समय तक गर्भनिरोधक गोलियों का सेवन करती हैं उन का रक्तदाब कभीकभी अत्यधिक बढ़ जाता है इसलिए आप को गर्भधारण से बचने के दूसरे उपाय अपनाने चाहिए.

जिन महिलाओं को पहले से ही उच्च रक्तचाप की शिकायत हो, अगर वे गर्भनिरोधक गोलियों का सेवन करती हैं तो ब्रेन स्ट्रोक और हार्ट अटैक आने का खतरा बढ़ जाता है. ऐसा माना जाता है कि इन गोलियों में ऐस्ट्रोजन होता है जो रक्तदाब को बढ़ा देता है.

मेरी उम्र 52 वर्षीय एक घरेलू महिला हूं. मेरा रक्तदाब अकसर सामान्य से थोड़ा कम रहता है. आगे चल कर मेरे लिए बीमारियों का खतरा तो नहीं बढ़ जाएगा?

रक्तदाब सामान्य से थोड़ा कम रहना कई प्रकार से हमारे स्वास्थ्य के लिए लाभदायक भी है. अगर रक्त का दाब लगातार सामान्य से थोड़ा कम बना रहता है तो स्ट्रोक और हार्ट अटैक की आशंका कम हो जाती है. स्वस्थ लोगों में अगर निम्न रक्तदाब बिना किसी लक्षण के है तो चिंता की कोई बात नहीं है और इस का उपचार करने की जरूरत भी नहीं है. वैसे कई लोगों का ब्लड प्रैशर आनुवंशिक रूप से ही कम होता है.

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इंडस्ट्री में एक महिला का फिल्म डाइरैक्टर बनना आसान नहीं : निर्देशक विजयेता कुमार

Vijayeta Kumar : राजस्थान के अजमेर में जन्मीं और पलीबड़ी हुई निर्देशक और लेखक विजयेता कुमार की डौक्युमैंट्री शौर्ट फिल्म ‘किकिंग बौल्स’ को न्यूयार्क इंडियन फिल्म फैस्टिवल में बैस्ट शौर्ट फिल्म और जयपुर इंटरनैशनल फिल्म फैस्टिवल में बैस्ट स्क्रिप्ट का अवार्ड मिला है.

इस से पहले भी विजयेता ने सामयिक विषयों को ले कर कई फिल्में बनाई हैं, जिस में उन की शौर्ट फिल्म ‘ब्लाउज’ लोकप्रिय फिल्म रही। इस के अलावा विजयेता ने कई टीवी विज्ञापनों में भी काम किया है.

जागरूकता चाइल्ड मैरिज को ले कर ‘किकिंग बौल्स’ को बनाने को ले कर विजयेता कहती हैं कि मेरा इस फिल्म को बनाने का उद्देश्य लोगों में जागरूकता फैलाना है. इस की कहानी मुझे बहुत रुचिकर लगी. ऐसी घटनाओं को दुनिया में दिखाई जानी चाहिए. अभी भी राजस्थान के अजमेर के पास के गांवों में चाइल्ड मैरिज होते हैं, जिसे लोग धूमधाम से करते हैं. किसी को उस लड़की की लाइफ के बारे में चिंता नहीं होती.

इन सब चीजों को शहरों में रहने वाले लोगों को पता नहीं होता. इस फिल्म को बनाए जाने के बाद लोगों के मन में बहुत सारे सवाल आए, जिस का जवाब मैं ने दिया. मुझे भी कई सारी नई बातों का पता इस फिल्म के दौरान लगा. यह अच्छा लगा कि काफी लोग इस फिल्म को देख कर प्रेरित हुए और फिल्म को कई पुरस्कार भी मिले.

गरीबी और अधिक लड़कियों का पैदा होना

विजयेता कहती हैं कि ऐसी शादियों का मुख्य कारण गरीबी और कम पढ़ेलिखे होना है। साथ ही हर परिवार को लड़का चाहिए, ऐसे में बहुत लोग कई बच्चे पैदा कर लेते हैं, जिस में लड़कियां कई बार अधिक पैदा हो जाती हैं. गांव में ऐसे गरीब लोगों के पास 5 से 6 बेटियां होती हैं. उन की शादियां करना गरीब परिवार के वश में नहीं होता, इसलिए घर में कोई फंक्शन होने पर एकसाथ सब निबटा देते हैं.

चाइल्ड मैरिज का यही मुख्य कारण है, जैसा वहां रहने वाले कहते हैं. यह केवल राजस्थान ही नहीं, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र आदि कई राज्यों के गांवों में आज भी होता है. मुझे जब तमिलनाडु के गांव में चाइल्ड मैरिज के बारे में पता चला तो मुझे बहुत दुख हुआ.

इन दिनों विजयेता एक सोशल कौमेडी फीचर फिल्म पर काम कर रही हैं, जिसे वे जल्दी ही बनाने वाली हैं. उन्होंने गृहशोभा से खास बात की और बताया कि एक महिला निर्देशक का इंडस्ट्री में टिके रहना आसान नहीं होता. आइए, जानते हैं, उन की कहानी उन की जबानी :

मिली प्रेरणा

मुझे कालेज से ही थिएटर में काम करना पसंद था। परिवार ने भी सहयोग दिया। आगे जा कर मैं ने दिल्ली में पढ़ाई पूरी की. फिर मैं मुंबई आ कर कई निर्देशकों के साथ असिस्टैंट के रूप में काम कर अनुभव प्राप्त किया और अब मैं खुद निर्देशक बन चुकी हूं. महिलाओं के लिए यह क्षेत्र काफी चुनौतीपूर्ण है और मुझे भी सामना करना पड़ रहा है, लेकिन अब काफी लड़कियां यहां आने लगी हैं.

पुरुषों के साथ काम करते हुए सब से अधिक समस्या टौयलेट की होती थी। लड़कियों के लिए अलग टौयलेट नहीं होते थे, जिस में घंटों खुद को वाशरूम में जाने से रोकना पड़ता था, जो अब थोड़ा ठीक हुआ है. टौयलेट बनने लगे हैं. इस के अलावा पुरुषों के साथ वूमन की विचारधारा नहीं मिलती, उन्हें समझाना कठिन होता है.

असल में लड़कियों की सोच पुरुषों से हमेशा अलग होती है. साथ ही लड़कियों की पारिश्रमिक पुरुषों की अपेक्षा कम होती है. यह सब अभी भी इंडस्ट्री में मौजूद है. औनग्राउंड परिस्थिती थोड़ी बदली है, लेकिन पहले एक महिला निर्देशक को फिल्मों का डाइरैक्टर बनना वाकई बहुत कठिन था.

ओटीटी ने दिया अवसर

असल में ओटीटी के आने से महिला निर्देशक को काम मिलना आसान हुआ है, क्योंकि अलगअलग फिल्मों की डिमांड बढ़ी है, जिस से महिला निर्देशक को अवसर मिलने लगे हैं. आज उन की अधिकतर फिल्में दर्शक पसंद कर रहे हैं.

विजयेता कहती हैं कि ओटीटी की वजह से महिला निर्देशक अधिक काम कर पा रही हैं, क्योंकि एक स्त्री हर तरह की कहानी को खूबसूरती से परदे पर ला पाती हैं, क्योंकि वह उस कहानी से भावनात्मक तरीके से जुड़ी हुई होती है.

मिला परिवार का सहयोग

वे आगे कहती हैं कि परिवार का सहयोग हमेशा रहा है. उन्होंने कभी किसी काम से मुझे मना नहीं किया, लेकिन सलाह दिया है कि अगर इस फील्ड में मुझे काम करना है, तो मुझे इस की पढ़ाई कर लेनी चाहिए। बिना प्रशिक्षण लिए इस फील्ड में जाना ठीक नहीं. मेरे परिवार में सभी शिक्षित हैं। ऐसे में बिना डिग्री लिए काम करने के बारे में वे सोच भी नहीं सकते. मैं ने भी फिल्म मेकिंग के क्षेत्र में शिक्षा पूरी की और वहां 1-2 निर्देशकों के साथ काम कर मुंबई आ गई.

वे बताती हैं कि यहां संघर्ष करती रही, लेकिन मेरे कालेज के कुछ सिनियर्स ने मेरा साथ दिया. कौंट्रैक्ट मिलते गए और काम शुरू किया.

कहानी में दम नहीं

बौलीवुड के गिरते स्तर और साउथ की फिल्मों के हावी होने को ले कर विजयेता कहती हैं कि यह सही है कि साउथ की फिल्में अधिक चल रही हैं और वे अधिक पैसा भी कमा रहे हैं. मुझे भी मलयालम सिनेमा बहुत पसंद है, क्योंकि ये लोग कम बजट में पावरफुल फिल्में बनाते हैं. मुझे ‘पुष्पा 2’ जैसी वाइलैंट फिल्में पसंद नहीं हैं। मैं वैसी फिल्में नहीं देखती, लेकिन मलयालम फिल्मों में औरतों से संबंधित कई फिल्में बेहद अच्छी होती हैं. हिंदी सिनेमा में कोई नयापन नहीं दिख रहा है, इसलिए फिल्में चल नहीं पा रही हैं. मैं ने इस दिशा में काफी सोचविचार कर फिल्में बनाने की कोशिश कर रही हूं. यह भी सही है कि ऐसी वाइलैंट फिल्में चल रही हैं, तभी इसे बनाया भी जा रहा है. मैं थोड़ी कन्फ्यूज्ड हूं. फिल्ममेकर को भी शायद इसे पता करना मुश्किल हो रहा है, तभी ऐसी फिल्में बन रही हैं.

दर्शकों की पसंद

साउथ की फिल्मों में ऐक्ट्रैस का वल्गर रूप अधिक दिखाई पड़ता है, इस की वजह के बारे में निर्देशक विजयेता कहती हैं कि तेलुगू फिल्मों में अभी भी ऐक्ट्रैस को वैसे ही वल्गर रूप में अधिक दिखाया जाता है। फिल्में भी इसी वजह से अधिक चलती हैं. वहां के दर्शकों को ऐसी फिल्में पसंद होती हैं जबकि मलयालम फिल्मों में प्रोग्रैसिव महिला को दिखाया जाता है.

यह सभी निर्देशक का पर्सनल टेक है. मुझे रिमेक सही नहीं लगता. नई कहानियों को मौका देने की जरूरत है. कभी ऐसा समय था जब नई कहानियों को लोग कहना पसंद करते थे। वैसी ही सोच निर्माता, निर्देशक की होनी चाहिए, तभी फिल्म इंडस्ट्री चल सकेगी.

बौलीवुड में Star Kids के फ्लौप होने की क्या है वजह

Star Kids : हिंदी सिनेमा में इन दिनों स्टार किड्स के लौंच होने के दिन चल रहे हैं. एक के बाद एक स्टार किड की फिल्में आ रही हैं, लेकिन दर्शकों को इन में से एक भी पसंद नहीं आ रहा है. इन सब को देख दर्शक यही कह रहे हैं कि इन्हें अभी ऐक्टिंग की क्लास लेने की सख्त जरूरत है या फिर इन के जींस में ऐक्टिंग है ही नहीं.

ऐक्टिंग नहीं आती

हाल ही में श्रीदेवी की बेटी खुशी कपूर और सैफ अली खान के बेटे इब्राहिम अली खान की फिल्म ‘नादानियां’ रिलीज हुई है. इस फिल्म को काफी ट्रोल भी किया जा रहा है, क्योंकि दर्शकों को स्टारकिड्स की ऐक्टिंग जरा भी पसंद नहीं आ रही.

ऐसा पहली बार नहीं है जब लोगों ने स्टारकिड्स को दोबारा सीखने की सलाह दी हो. खुशी इब्राहिम से पहले इन स्टारकिड्स की ऐक्टिंग को फैंस ने पसंद नहीं किया था. खुशी की ऐक्टिंग देख लोगों ने अपना सिर पकड़ लिया और कह रहे हैं कि इन्हें अभी सीखने की काफी जरूरत है.

इस श्रृंखला में अगर श्रीदेवी की बड़ी बेटी जाह्नवी कपूर की बात की जाए, तो उन की फिल्में या वैब सीरीज कुछ भी नहीं चलीं. दर्शकों ने उन्हें ऐक्टिंग न कर कुछ दूसरा कैरियर चुनने का सलाह दिया. आज जाह्नवी फिल्मों से अधिक विज्ञापनों में दिखाई पड़ती हैं.

फिल्ममेकर शेखर कपूर की बेटी कावेरी कपूर ने फिल्म ‘बौबी’ और ऋषि की लव स्टोरी से डैब्यू किया, लेकिन फिल्म नहीं चली क्योंकि ऐक्टिंग सही नहीं थी। दर्शकों ने फिल्म को नकार दिया. हालांकि अभी कावेरी कपूर की फिल्म ‘मासूम 2’ आने वाली है, जिसे शेखर कपूर खुद बना रहे हैं. सब की नजर उस फिल्म पर टिकी है.

लिजैंड आए प्रोमोशन पर

इब्राहिम अली खान ने हाल ही में फिल्म ‘नादानियां’ से डैब्यू किया. यह उन की पहली फिल्म रही. इब्राहिम ने इस फिल्म के लिए मेहनत तो बहुत की है, लेकिन अभिनय करने वाले दोनों ही नादान दिखें. फिल्म को आधा घंटा भी बैठ कर देखना संभव नहीं था. इस फिल्म के प्रोमोशन के लिए प्रसिद्ध अभिनेत्री रेखा को भी मंच पर लाया गया, लेकिन फिल्म की कहानी और उसे निभाने वाले का काम किसी को पसंद नहीं आया. परदे पर खुशी कपूर के साथ उन की जोड़ी लोगों को रास नहीं आई.

सहायक निर्देशक से अभिनेता बने आमिर खान के बेटे जुनैद खान की जब पहली फिल्म ‘महाराज’ आई थी, तब उन्हें इस फिल्म के लिए सराहना मिली थी, लेकिन जब वह फिल्म ‘लवयापा’ में दिखाई दिए, तो लोगों को इन की ऐक्टिंग एकदम बकवास लगी. हालांकि इस फिल्म की प्रोमोशन के लिए पिता और अभिनेता आमिर खान हर जगह डटे रहे, लेकिन फिल्म ठंडे बस्ते में चली गई.

वर्कशौप किए मगर रिजल्ट नहीं

बात सुहाना खान की करें तो ‘द आर्चिज’ से सुहाना खान ने डैब्यू किया था. निर्देशक जोया अख्तर ने सभी स्टार किड्स को काफी वर्कशौप भी कराया, लेकिन किसी की भी ऐक्टिंग दर्शकों को पसंद नहीं आई. इस फिल्म में सुहाना को भी काफी आलोचना का सामना करना पड़ा था, जिस के बाद लोगों ने कहा था कि इन्हें अभी और सीखने की जरूरत है, ताकि अगली फिल्म में अच्छा काम कर सकें. हालांकि सुहाना खान अब जल्द ही फिल्म ‘किंग’ में नजर आने वाली हैं। उस पर सबकी निगाहें टिकी हुई हैं.

सैफ अली खान की बेटी सारा अली खान ने बेशक से बौलीवुड में अपने पैर जमा लिए हों, लेकिन आज भी लोग उन की ऐक्टिंग को बकवास और ओवरऐक्टिंग ही कहते हैं. फिल्म ‘लव आजकल 2’ के लिए उन्हें काफी ट्रोल भी किया गया था.

सुनील शेट्टी की बेटी अथिया ने पूरी तैयारी के साथ बौलीवुड में डैब्यू किया था. उन की पहली फिल्म ‘हीरो’ फ्लौप हुई थी. उस के बाद वे एकआध फिल्मों में ही दिखाई दीं. उन की ऐक्टिंग को लोगों ने खराब बताया था. यह अच्छा हुआ कि उन्होंने क्रिकेटर केएल राहुल से शादी कर घर बसा लिया और अब एक बेटी की मां बनी हैं.

फिल्म इंडस्ट्री है व्यवसाय

यह सही है कि इन फिल्म सैलिब्रिटीज के बच्चों को फिल्मों में काम मिलना आसान होता है, लेकिन उन्हें ऐक्टिंग के द्वारा ही प्रूव करना पड़ता है कि वे एक प्रतिभाशाली कलाकार हैं, नहीं तो उन की फिल्में नहीं चलतीं. दर्शक उन्हें सिरे से नकार देते हैं. इस से फिल्ममेकर को घाटे का सामना करना पड़ता है.

देखा जाए तो यह एक व्यवसाय है, जहां घाटा किसी को रास नहीं आती.

अभिनेत्री श्रद्धा कपूर ने एक इंटरव्यू में कहा है कि स्टार किड्स को फिल्मों में सफलता हासिल करना आसान नहीं होता, दर्शक उन पर कड़ी नजर रखते हैं। उन्हें किसी प्रकार की छूट नहीं मिलती.

अभिनेत्री आलिया भट्ट ने भी कहा है कि काम का अवसर यहां आसानी से मिलता है, लेकिन प्रूव करना पड़ता है कि आप एक प्रतिभावान कलाकार हैं, नहीं तो गालियां मिलती हैं. इस के लिए मेहनत बहुत करनी पड़ती है.

मेहनत से मिली कामयाबी

फिल्ममेकर कारण जौहर ने आज से 12 साल पहले जब नई आलिया भट्ट को ले कर फिल्म ‘स्टुडैंट औफ द ईयर’ बनाई थी, तो स्टार किड आलिया को कम ही लोगों ने संजीदगी से लिया. उन के बारे में लिखा गया था कि आलिया भट्ट के पास ऐक्टिंग स्किल नहीं है और न ही स्क्रीन प्रेजैंस. केवल आलिया की क्यूटनैस लोगों को पसंद आई थी. फिर साल 2014 में 2 साल बाद ही आई फिल्म ‘हाइवे.’ फिल्म में एक अमीर व रसूखदार परिवार की लाडली बेटी वीरां (आलिया भट्ट) जिस का अपहरण हो जाता है, 3 लोगों का खून कर चुका एक कातिल किडनैपर (रणदीप हुड्डा), हाइवे का लंबा सफर और एक लड़की, जो इस कैद भरे सफर में खुद को और अपनी जिंदगी के सवालों के जवाब तलाशने लगती है, ऐसे में सामने आते हैं कई कड़वे सच.

इस फिल्म में आलिया ने काफी अच्छा अभिनय किया और देखने वालों को यकीन ही नहीं हुआ कि 2 सालों में ‘शनाया’ से ‘वीरां’ तक का आलिया भट्ट का कायाकल्प कैसे हो गया.

अंत में इतना कहना सही होगा कि फिल्ममेकर्स स्टार किड्स को मौका तभी दें जब वे उस भूमिका के लिए उपयुक्त हों, जिस से उन की इमेज दर्शकों के आगे हास्यास्पद न हो और वे अपनी काबिलियत को समझ कर आगे बढ़ सकें.

देश में प्रतिभावान कलाकारों की कमी नहीं है। कई अच्छेअच्छे कलाकार वैब सीरीज और शौर्ट फिल्मों में काम कर रहे हैं, उन्हें मौका दिया जाना चाहिए.

फिल्ममेकर करण जौहर जैसी रिजिड मानसिकता ले कर अगर हिंदी फिल्में बनाई जाएंगी, तो हिंदी फिल्म इंडस्ट्री का खत्म होना स्वाभाविक है.

फिल्म इंडस्ट्री के क्षेत्र में सभी को खुले दिल से स्वीकार करने पर ही शायद हिंदी सिनेमा को बचाया जा सकता है.

Family Issue : मेरे पति मुझ से नौकरी करवाना चाहते हैं, मै क्या करूं?

Family Issue : अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है, तो ये लेख अंत तक जरूर पढ़ें…

सवाल

मेरे विवाह को 2 वर्ष हो चुके हैं. मेरे पति मुझ से नौकरी करवाना चाहते हैं जबकि मैं संतानोत्पत्ति चाहती हूं. मेरे पति की उम्र 38 वर्ष हो चुकी है, इसलिए यदि हम ने अभी से इस विषय में नहीं सोचा तो दिक्कत होगी. मैं भी इस वर्ष 30 की हो गई हूं. कृपया बताएं कि हमें क्या करना चाहिए?

जवाब
आप की उम्र 30 वर्ष हो चुकी है. अधिक विलंब करने से गर्भधारण करने और संतानोत्पत्ति में दिक्कत होगी, इसलिए आप को समय रहते संतानोत्पत्ति के लिए प्रयास करना चाहिए. आप के पति दिनोंदिन बढ़ती महंगाई के कारण चाहते होंगे कि आप नौकरी करें. यदि पति की आमदनी संतोषजनक नहीं है, तो आप घर पर रह कर ट्यूशन आदि कार्य कर के भी उन्हें आर्थिक सहयोग दे सकती हैं.

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आज लड़कियां ऊंची डिगरियां हासिल कर रही हैं. शादी से पूर्व ही वे जौब करने लगती हैं. शादी के बाद भी वे जौब जारी रखना चाहती हैं. पति या ससुराल के अन्य लोगों को भी इस में कोई आपत्ति नहीं होती, क्योंकि आज लड़के भी कामकाजी पत्नी चाहते हैं ताकि दोनों की आमदनी से अपनी गृहस्थी को चला सकें. लेकिन उन की लाइफ में नया मोड़ तब आता है जब उन के बच्चा होता है. जब तक वह स्कूल जाने नहीं लगता तब तक उसे अपनी मां की जरूरत होती है. ऐसे में उसे अपने बच्चे की परवरिश के लिए जौब छोड़ने पर मजबूर होना पड़ता है, क्योंकि उस के पास 2 ही विकल्प होते हैं कि या तो वह जौब कर ले या फिर बच्चे की परवरिश. वह शिशु की परवरिश की खातिर जौब छोड़ने का विकल्प चुनती है.

बच्चा मां पर निर्भर

आजकल एकाकी परिवारों का जमाना है. ऐसे में सासससुर या देवरानीजेठानी साथ नहीं रहतीं. प्रसव के बाद यदि प्रसूता अपनी मां या सास को बुलाती भी है तो वे कुछ दिन रह कर वापस चली जाती हैं. वे 4-5 साल तक साथ नहीं रह सकतीं. पति को भी अपने काम से इतना समय नहीं मिलता कि वह बच्चे की परवरिश में अपनी पत्नी का हाथ बंटाए. फिर वैसे भी बच्चे को पिता से ज्यादा मां की जरूरत होती है. मां की गोद में आ कर ही उसे सुरक्षा का एहसास होता है. कुछ बच्चे तो मां के बगैर 1 घंटा भी नहीं रहते. मां थोड़ी देर भी न दिखे तो रोरो कर बुरा हाल कर लेते हैं.

यद्यपि कामकाजी महिलाओं को प्रसव अवकाश मिलता है, लेकिन उस की भी एक सीमा है. कुछ महिलाएं गर्भावस्था में ही मातृत्व अवकाश लेना शुरू कर देती हैं, जो प्रसव के बाद समाप्त हो जाता है. जन्म के बाद शिशु पूरी तरह अपनी मां के दूध पर निर्भर करता है. शुरू के 6 महीने तक तो वह मां के दूध के अलावा पानी तक नहीं पीता. इस के बाद ही वह मां का दूध छोड़ कर अन्य खाद्य ग्रहण करने लगता है. शिशु स्तनपान की जरूरत को पूरा करने के लिए मां का घर पर रहना जरूरी है. इसलिए भी वह जौब छोड़ देती है.

कुछ दशक पहले तक जब महिलाएं कामकाजी नहीं होती थीं, बच्चे की परवरिश के लिए उन का जौब छोड़ने का प्रश्न ही नहीं था, लेकिन अब जबकि वे कामकाजी हैं, लगीलगाई जौब को छोड़ना उन्हें अखरता है. एक बार जौब छोड़ने के बाद यदि लंबा अंतराल हो जाता है, तो फिर न तो पुन: जौब करने का मन होता है और न ही जौब आसानी से मिलती है. जौब छोड़ने से उन की आर्थिक स्थिति यानी आमदनी पर प्रभाव पड़ता है. परेशानी यह है कि बच्चा होने से खर्च बढ़ते हैं और जौब छोड़ने से आय घटती है. ऐसे में आमदनी और खर्च के बीच तालमेल बैठाना मुश्किल हो जाता है.

बच्चे की खातिर जब जौब छोड़नी पड़ती है तो उन की पढ़ाईलिखाई बेकार चली जाती है. उन्हें इस बात का मलाल होता है. इसलिए यदि आप भी अपने बच्चे की खातिर नौकरी छोड़ रही हैं तो किसी तरह का मलाल नहीं पालें और न ही पछताएं. याद रहे, जौब के लिए तो सारी उम्र पड़ी है, लेकिन अभी आप की जिम्मेदारी अपने बच्चे के प्रति है, जिसे आप ने अपनी कोख से जन्म दिया है.

प्राथमिकता समझें

नौकर या आया के भरोसे बच्चे पल सकते हैं, लेकिन उन में वे संस्कार कहां से आएंगे जो आप दे सकती हैं? यदि आप अपनी मां, बहन, भाभी को बुला कर उन के भरोसे बच्चे को छोड़ कर जौब पर जाती हैं तो यह भी गलत है. उन का अपना घरपरिवार है, जिस के प्रति उन की जिम्मेदारी है. उन्हें परेशानी में डाल कर आप जौब पर चली जाएं, यह कोई बात नहीं हुई.

यदि आप किसी भी कीमत पर जौब छोड़ना नहीं चाहती थीं तो आप को संयुक्त परिवार में शादी करनी चाहिए थी. वहां इतने लोग होते हैं कि बच्चे को मां की जरूरत केवल स्तनपान के समय ही पड़ती है. उस की परवरिश के लिए दादादादी, चाचा, ताऊ, चाची, ताई, बूआ आदि होते ही हैं. ऐसे में आप कुछ महीनों का मातृत्व अवकाश ले कर फिर से जौब पर जा सकती हैं.

मातृत्व अवकाश के बाद काम पर लौटने या न लौटने का फैसला आप को सोचसमझ कर लेना चाहिए. हालांकि इसे ले कर आप दुविधा में हो सकती हैं. पर निर्णय तो लेना ही होगा. यदि आप नौकरी छोड़ने का निर्णय लेती हैं तो इस बात पर भी विचार कर लें कि आप सक्रिय कैसे रहेंगी, क्योंकि जैसेजैसे बच्चा बड़ा होने लगता है उसे आप की जरूरत कम होती जाती है. इसलिए आप नौकरी भले ही छोड़ दें, पर अपनेआप को व्यस्त रखने का कोई उपाय अवश्य ढूंढ़ लें ताकि आप की बुद्धि, योग्यता और प्रतिभा कुंठित न हो.

यदि आप के पति की आमदनी बहुत कम है तो फिर आप को नौकरी न छोड़ने का फैसला लेना पड़ेगा. इस के लिए कुछ समय तक अवैतनिक अवकाश भी लेना पड़े तो लें. हालांकि इस का असर प्रमोशन और कुल सेवा अवधि की गणना पर पड़ेगा, पर नौकरी तो कायम रहेगी.

आपको नौकरी जारी रखने, छोड़ने या ब्रेक लेने का फैसला पति और परिजनों की सहमति से ही लेना चाहिए अन्यथा वे दोष आप को ही देंगे. यदि नौकरी छोड़ती हैं तो क्यों छोड़ी और यदि नहीं छोड़ती हैं, तो क्यों नहीं छोड़ी, के ताने आप को ही सुनने पड़ेंगे. इसलिए इस का निर्णय जल्दबाजी में नहीं लें. इस के दूरगामी परिणाम होते हैं.

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