जो भी प्रकृति दे दे – भाग – 3

‘मैं बदल लूंगी, आप जाइए, सोम. और घर की चाबी भी लौटा दीजिए.’’

सोम का चेहरा सफेद पड़ गया, शायद अपमान से. यह क्या हो गया है निशा को? क्या निशा स्वयं को उन के सामीप्य में असुरक्षित मानने लगी है? क्या उन्हें जानवर समझने लगी है?

एक सुबह जबरन सोम ने ही पहल कर ली और रास्ता रोक बात करनी चाही.

‘‘निशा, क्या हो गया है तुम्हें?’’

‘‘भविष्य में आप खुश रहें उस के लिए हमारी दोस्ती का समाप्त हो जाना ही अच्छा है.’’

‘‘सब के लिए खुशी का अर्थ एक जैसा नहीं होता निशा, मैं निभाने में विश्वास रखता हूं.’’

तभी दफ्तर में एक फोन आया और लोगों ने चर्चा शुरू कर दी कि बांद्रा शाखा के प्रबंधक विकास शर्मा की पत्नी और दोनों बच्चे एक दुर्घटना में चल बसे.

सकते में रह गए दोनों. विश्वास नहीं आया सोम को. निशा के पैरों तले जमीन ही खिसकने लगी, वह धम से वहीं बैठ गई.

सोम के पास विकास की बहन का फोन नंबर था. वहां पूछताछ की तो पता चला इस घटना को 2 दिन हो गए हैं.

भारी कदमों से निशा के पास आए सोम जो दीवार से टेक लगाए चुपचाप बैठी थी. आफिस के सहयोगी आगेपीछे घिर आए थे.

हाथ बढ़ा कर सोम ने निशा को पुकारा. बदहवास सी निशा कभी चारों तरफ देखती और कभी सोम के बढ़े हुए हाथों को. उस का बच्चा भी चला गया… एक आस थी कि शायद बड़ा हो कर वह अपनी मां से मिलने आएगा.

भावावेश में सोम से लिपट निशा चीखचीख कर रोने लगी. इतने लोगों में एक सोम ही अपने लगे थे उसे.

विकास दिल्ली वापस आ चुका था. पता चला तो दोस्ती का हक अदा करने सोम चले गए उस के यहां.

‘‘पता नहीं हमारे ही साथ ऐसा क्यों हो गया?’’ विकास ने उन के गले लग रोते हुए कहा.

वक्त की नजाकत देख सोम चुप ही बने रहे. उठने लगे तो विकास ने कह दिया, ‘‘निशा से कहना कि वह वापस चली आए… मैं उस के पास गया था. फोन भी किया था लेकिन उस ने कोई जवाब नहीं दिया,’’ विकास रोरो कर सोम को सुना रहा था.

उठ पड़े सोम. क्या कहते… जिस इनसान को अपनी पत्नी का रिसता घाव कभी नजर नहीं आया वह अपने घाव के लिए वही मरहम चाहता है जिसे मात्र बेकार कपड़ा समझ फेंक दिया था.

‘‘निशा तुम्हारी बात मानती है, तुम कहोगे तो इनकार नहीं करेगी सोम, तुम बात करना उस से…’’

‘‘वह मुझ से नाराज है,’’ सोम बोले, ‘‘बात भी नहीं करती मुझ से और फिर मैं कौन हूं उस का. देखो विकास, तुम ने अपना परिवार खोया है इसलिए इस वक्त मैं कुछ कड़वा कहना नहीं चाहता पर क्षमा करना मुझे, मैं तुम्हारीं कोई भी मदद नहीं कर सकता.’’

सोम आफिस पहुंचे तो पता चला कि निशा ने तबादला करा लिया. कार्यालय में यह बात आग की तरह फैल गई. निशा छुट्टी पर थी इसलिए वही उस का निर्देश ले कर घर पर गए. निर्देश पा कर निशा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई.

‘‘तबीयत कैसी है, निशा? घाव तो भर गया है न?’’

‘‘पता नहीं सोम, क्या भर गया और क्या छूट गया.’’

धीरे से हाथ पकड़ लिया सोम ने. ठंडी शिला सी लगी उन्हें निशा. मानो जीवन का कोई भी अंश शेष न हो. ठंडे हाथ को दोनों हाथों में कस कर बांध लिया सोम ने और विकास के बारे में क्या बात करें यही सोचने लगे.

‘‘मैं क्या करूं सोम? कहां जाऊँ? विकास वापस ले जाने आया था.’’

‘‘आज भी उस इनसान से प्यार करती हो तो जरूर लौट जाओ.’’

‘‘हूं तो मैं आज भी बंजर औरत, आज भी मेरा मूल्य बस वही है न जो 2 साल पहले विकास के लिए था…तब मैं मनु की मां थी…अब तो मां भी नहीं रही.’’

‘‘क्या मेरे पास नहीं आ सकतीं तुम?’’ निशा के समूल काया को मजबूत बंधन में बांध सोम ने फिर पूछा, ‘‘पीछे मुड़ कर क्यों देखती हो तुम…अब कौन सा धागा तुम्हें खींच रहा है?’’

किसी तरह सोम के हाथों को निशा ने हटाना चाहा तो टोक दिया सोम ने, ‘‘क्या नए सिरे से जीवन शुरू नहीं कर सकती हो तुम? सोचती होगी तुम कि मां नहीं बन सकती और जो मां बन पाई थी क्या वह काल से बच पाई? संतान का कैसा मोह? मैं भी कभी पिता था, तुम भी कभी मां थीं, विकास तो 2 बच्चों का पिता था… आज हम तीनों खाली हाथ हैं…’’

‘‘सोम, आप समझने की कोशिश करें.’’

‘‘बस निशा, अब कुछ भी समझना शेष नहीं बचा,’’ सस्नेह निशा का माथा चूम सोम ने पूर्ण आश्वासन की पुष्टि की.

‘‘देखो, तुम मेरी बच्ची बनना और मैं तुम्हारा बच्चा. हम प्रकृति से टक्कर नहीं ले सकते. हमें उसी में जीना है. तुम मेरी सब से अच्छी दोस्त हो और मैं तुम्हें खो नहीं सकता.’’

सोम को ऐसा लगा मानो निशा का विरोध कम हो गया है. उस की आंखें हर्षातिरेक से भर आईं. उस ने पूरी ताकत से निशा को अपने आगोश में भींच लिया. कल क्या होगा वह नहीं जानते परंतु आज उन्हें प्रकृति से जो भी मिला है उसे पूरी ईमानदारी और निष्ठा से स्वीकारने और निभाने की हिम्मत उन में है. आखिर इनसान को उसी में जीना पड़ता है जो भी प्रकृति दे.

YRKKH: अक्षरा ने दिखाया सच्चाई का आईना, खाली हाथ लौटा अभिमन्यु

स्टार प्लस का हिट टीवी सीरियल ‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’ सालों से दर्शकों के दिलों पर राज कर रहा है. इस सीरियल के मेकर्स भी कहानी में जबरदस्त टर्न और ट्विस्ट लाने में कोई कसर नहीं छोड़ते और इसी वजह से प्रणाली राठौड़ (Pranali Rathod) और हर्षद चोपड़ा (Harshad Chopda) स्टारर यह सीरियल टीआरपी की लिस्ट में बना हुआ है. बीते दिनों सीरियल में देखने को मिला था कि अभिमन्यु ने आरोही से शादी के लिए मान जाता है. लेकिन अब अभि को अहसास हुआ है कि वह अक्षरा के बिना नहीं जी सकता. बीते एपिसोड में अभि अपनी अक्षु से प्यार का इजहार करता है. लेकिन अब कहानी में जबरदस्त ट्विस्ट आएगा. आइए आपको अपकमिंग एपिसोड का हाल बताते हैं.

 

अक्षरा के रिजेक्शन के बौखला जाएगा अभिमन्यु

ये रिश्ता क्या कहलाता है (Yeh Rishta Kya Kehlata Hai) के अपकमिंग एपिसोड में देखने के लिए मिलेगा अभिमन्यु अक्षरा द्वारा मिले रिजेक्शन को झेल नहीं पाएगा. कहानी में दिखाया जाएगा कि अक्षरा मंदिर से निकलकर सीधा अभिनव के गले लग जाती है और अभिमन्यु दोनों को देखता रहता जाता है. इसके बाद अभि नंगे पैर ही मंदिर से बाहर निकल जाएगा और वह सड़कों अकेले भटकता रहेगा. दूसरी तरफ बिरला हाउस में सब लोग अभिमन्यु को तलाश कर रहे होते हैं. पूरे घर में हंगामा खड़ा हो जाता है. इसके बाद घर के लोगों को अभि सड़क पर ही मिलेगा.

 

कसौली के जाएगी अक्षरा

इसके आगे कहानी में देखने के लिए मिलेगा कि अभिमन्यु को छोड़कर अक्षरा कसौली के लिए निकल जाती है और वह अभिनव और अबीर के साथ अपने घर पहुंच जाती है. यहां पर अबीर अपने गंदे घर को देखकर हैरान रह जाता है लेकिन अक्षु अपने घर को पूरी तरह ठीक करने की बात कहती है. दूसरी तरफ अक्षरा और अभिमन्यु को मंदिर में साथ देखकर अभिनव अभी भी काफी परेशान है और वह खुद को ठीक से संभाल भी नहीं पाता. वह अपनी सारी परेशानी नीलम मां को बताता है और वह कहता है कि मैं मामूली सा ड्राइवर हूं लेकिन अगर अक्षरा मेरे साथ रहकर मेरा अहसान चुका रही है तो मुझे ऐसा नहीं चाहिए.

अक्षरा से रिश्ते तोड़ेगा अभिमन्यु?

ये रिश्ता क्या कहलाता हैं की कहानी में आगे यह भी देखने के लिए मिलेगा कि अभिनव अक्षरा से कहता है कि जब आप ही पहले जैसी नहीं रही है तो आप घर को पहले जैसे क्यों बनाना चाहती है. इतना ही नहीं, वह खुद को अक्षरा का नाम का पति भी कहता है और बोलता है कि वह अभिमन्यु और अक्षरा के बीच में आ गया है और अब उसे जाना चाहिए. दूसरी तरफ अभिमन्यु भी आरोही को मंदिर में हुई सारी बातें बता देता है.

 

छोटी अनु ने खुद छोड़ा अनुज-अनुपमा का साथ, देखें वीडियो

रुपाली गांगुली और गौरव खन्ना स्टारर ‘अनुपमा’ इन दिनों काफी चर्चा में बना हुआ है. शो की पूरी कहानी छोटी अनु के इर्द-गिर्द घूम रही है. जहां एक तरफ माया ने छोटी के दिमाग में जहर भर दिया है तो वहीं छोटी के जाने से अनुज और अनुपमा के बीच भी दूरियां आनी शुरू हो गई हैं. दुख की बात तो यह है कि इस ट्रैक ने दर्शकों को भी परेशान करके रख दिया है. बीते दिन रुपाली गांगुली के ‘अनुपमा‘ में देखने को मिला कि माया छोटी अनु को लेकर अनुज और अनुपमा से मिलवाने आती है. अनुज और अनुपमा उसे मनाते हैं कि वह वहां रुक जाए और छोटी को कहीं न लेकर जाएं. लेकिन माया उसे ताना मारती है और खुद अनुज भी उसका साथ नहीं देता. हालांकि रुपाली गांगुली और गौरव खन्ना के ‘अनुपमा’ में आने वाले ट्विस्ट यहीं पर खत्म नहीं होते हैं.

 

 

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अनुपमा के सामने जाने का कारण बताएगी छोटी अनु

रुपाली गांगुली के ‘अनुपमा’ में देखने को मिलेगा कि छोटी अनु अनुपमा के गले लगकर भावुक हो जाती है और बताती है कि उसे अनुज व अनुपमा के साथ ज्यादा अच्छा लगता है। इसके साथ ही छोटी बोल पड़ती है कि मैं माया के साथ जाऊंगी, क्योंकि उन्होंने मुझे बताया कि वो अकेली हैं और आपके पास तो सब हैं। छोटी की बात सुनकर अनुपमा हैरान रह जाती है

 

 

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माया की क्लास लगाएंगा परिवार

एंटरटेनमेंट से भरपूर ‘अनुपमा‘ में जल्द ही दिखाया जाएगा कि माया अनुज और अनुपमा के बीच जाने की कोशिश करती है और छोटी को उनसे छीनने की कोशिश करती है. लेकिन पूरा परिवार उसका रास्ता रोककर खड़ा हो जाता है. माया उनसे पूछती है कि वह अनुज-अनुपमा से बात करना चाहती है तो लोग उसे रोक क्यों रहे हैं, लेकिन इसपर बा भी ताना मारती हैं कि ये अनुज-अनुपमा का घर है तो तू हमें रोकने वाली होती कौन है

 

 

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अनुज-अनुपमा को छोड़कर चली जाएगी छोटी अनु

छोटी अनु अनुपमा से बताती है कि अगर वह यहां रही तो माया उन दोनों के बीच झगड़ा कराती रहेगी और छोटी को ले जाने के लिए दोनों को परेशान भी करेगी. छोटी अनु अनुपमा से जिद करती है कि वह उसे माया के साथ जाने दे और यह बात अनुज को भी समझा दें. ‘अनुपमा’ के प्रोमो वीडियो में भी देखने को मिला कि अनुपमा और अनुज रोते-रोते छोटी अनु को विदा करते हैं। दोनों उसकी कार के पीछे भी भागते हैं, लेकिन माया उसे लेकर चली जाती है.

दिखावा: अम्मा से आखिर क्यूं परेशान थे सब- भाग 2

दादी की इकलौती बची बहू ने तो शायद अपनी सास को न छूने का प्रण कर रखा था. घर से चलती तो कम से कम भारी साड़ी पहन कर. साथ में मेलखाता हुआ ब्लाउज. इस के ऊपर रूज, लिपस्टिक का मेकअप. अस्पताल में जा कर पुन: एक बार अपना मेकअप शीशे में देखना न भूलती ताकि राह में कोई गड़गड़ हुई हो तो ठीक की जा सके. उस उम्र में भी चाची का ठसका देखने वाला था. वह तो मु?ा तक से फ्लर्ट कर लिया करती थी.

मैं ने उस से एक दिन कह ही दिया, ‘‘चाची, आप का यह शृंगार यहां शोभा नहीं देता.’’

वह तपाक से बोली, ‘‘तुम क्या जानो. बहुत सारे डाक्टर यहां आते हैं. कुछेक उन के व दामादों के मित्र भी हैं. वे मित्र भी दादी को देखने आते ही हैं. मु?ो सादे कपड़ों में देखेंगे तो क्या कहेंगे. कितनी बेइज्जती होगी तुम्हारे चाचा की एक बड़े व्यापारी की पत्नी के नाते मु?ो यह सब पहनना पड़ता है. घर की इज्जत का सवाल जो है.’’

दादा के एकमात्र सुपुत्र और हमारे यहां मौजूद एक ही अदद चाचा साहब को तो बिजनैस से ही फुरसत नहीं मिलती थी. हां, रोज रात एक बार जरूर इधर से हो जाते थे. रात में ठहरने के नाम पर दुकान के नौकर को बैठा जाते थे, जो आधा सोता तो आधा ऊंघता था. रात में ग्लूकोस आदि चढ़ाते समय दादी के हाथ को पकड़े रहना पड़ता था क्योंकि अकसर वे हाथ को ?ाटक देती थीं. इसलिए रात में दीप्ति और मैं बारीबारी सोते व जागते थे.

घर में करीब 7वें रोज महामृत्युंजय का पाठ प्रारंभ हो गया था, दादी को मोक्ष दिलाने के लिए. साथ ही एक पंडित की नियुक्ति अस्पताल में अम्मांजी को भागवत पढ़ कर सुनाते के लिए कर दी गई थी. वह 1 घंटे के पूरे 200 रुपए लेता था. दादी के स्वस्थ रहते कोई उन्हें एक छोटा किस्सा भी नहीं सुनाता था, पर अब भागवत सुनाई जा रही थी. जब तक दादी ठीक थीं, किसी को उन की चिंता तक न थी, कोई खाने को नहीं पूछता था, लावारिस सी घर के कोने में पड़ी रहती थीं.

जब सुनता था तो इच्छा होती थी दादी को अपने पास ले आऊं पर दादी नहीं आतीं. कह देती थीं, ‘‘बेटा, कुछ ही दिन रह गए है. यहीं गुजार लेने दो.’’

करीब 8वें दिन सुबह दादी का अस्पताल में देहांत हो गया. चाचाचाची, मेरी चचेरी सालियां व उन के पति आ गए थे. उस दिन बच्चे घर ही पर रहने दिए गए.

आते ही सब दादी के शरीर से लिपट गए. (ऐसे वे मेरे सामने पहले कभी नहीं लिपटे थे). थोड़ी ही देर में पूरा कमरा दहाड़ें मार कर रोने की आवाजों से गूंज उठा. यों लगा जैसे एकसाथ कई लोग कत्ल कर दिए गए हों. 5 मिनट में ही सब शांत भी हो गए. किसी के चेहरे को देख कर नहीं लग रहा था कि उस की आंखों से आंसू का एक कतरा भी बहा हो. पूरा सीन मेरी आंखों के सामने नाटक के रिहर्सल की तरह निकल गया. मेरे अपने मातापिता जिंदा थे और दोनों ही मेरी तरह अकेले संतान थे. किसी को मरने के समय देखने का यह पहला मौका था.

दादी के शव को स्ट्रेचर पर डालने के वक्त चूंकि चाचा अकेले थे, मैं ने सोचा दादीको उठाने में मदद कर दूं. अभी हाथ बढ़ाया ही था कि बड़ी साली बोल उठी, ‘‘दिनेश, तुम हाथ न लगाना. तुम तो दामाद हो, तुम्हारा हाथ लग गया तो अम्मां को नर्क जाना होगा,’’ इस बहाने पति को भी हाथ लगाने से बचा लिया.

दादी के मरने तक तो मैं सेवा करता रहा. उस समय किसी को याद नहीं आया कि मैं घर का दामाद हूं. पर यह चूंकि दादी को मोक्ष मिलने की बात थी, अतएव मैं अपना हाथ लगा कर उन के मोक्ष के रास्ते का द्वार बंद नहीं करना चाहता था.

दादी को उठाना चाचाके अकेले के बस की बात नहीं थी. वे खुद 65 के थे. दादी 89 की थीं. फिर भी भाई साहब, मेरी श्रीमतीजी व भाभीजी दादी को उठा कर स्ट्रेचर पर लाने लगे. स्ट्रेचर मेरी दोनों सालियों ने पकड़ रखी थी. इस से पहले कि शव स्टे्रचर पर आ पाता, वह फर्श पर जा गिरा.

जमीन पर से किसी तरह फिर अर्दली की हैल्प से शव उठा कर स्ट्रेचर पर डाल लिया गया.

लाश घर पर ले जाई गई. आननफानन में रैफ्रीजरेटड ग्लास कौफिन गया था. करीब

20 किलोग्राम गुलाब के फूल, इतने ही मखाने मंगवा लिए गए थे. एक प्रतिष्ठित व्यवसायी की मां की शवयात्रा थी. उन की सारी प्रतिष्ठा दांव पर लगी थी. कहीं कोई यह न कह दे, लड़के ने मां के लिए कुछ खर्च नहीं किया.

मेरा पत्ता चूंकि पहले ही कट गया था, इसलिए मैं ऐसी जगह बैठ गया था, जहां से समस्त क्रियाकलाप देखे जा सकें. मु?ो तो वैसे भी सब दामाद सम?ाते थे.

औरतें जत्थों में चली आ रही थीं. जैसे ही वे लाश के करीब आतीं, सब की सब एक सुर में दहाड़ मार कर रो पड़ती थीं. क्या गजब का सामंजस्य था. कुछ ही क्षणों में  फिर शांति छा जाती थी. पहले आई औरतें पीछे हट कर एक ओर खिसक जाती थीं, जहां वे आपस में मृतक अर्थात दादी के बारे में हर तरह की चर्चा प्रारंभ कर देती थीं. भले ही दादी के जीतेजी कभी कानी आंख भी वे सब इधर नहीं ?ांकी होंगी, पर अब कालोनी की तमाम स्त्रियों का हुजूम था.

थोड़ी देर बाद आवाजें आईं, ‘‘नाती कहां है. बुलवाओ, पैर तो छू लें. दादी को मोक्ष मिल जाएगा.’’

मैं किंकर्त्तव्यविमूढ़ था. मेरे छूने मात्र से दादी को नर्क मिल सकता था, पर मेरे लड़के के छूने से नहीं. जब वे बीमार थीं तो कोई उन्हें हाथ नहीं लगा रहा था.

मेरी दोनों सालियां व बहू अपनेअपने लड़कों को शव की तरफ हांकने लगीं. अंतत: सभी दादी के मृत शरीर का चरणस्पर्श कर चुके थे.

मैं ने सोचा, अच्छा हुआ मेरे दोनों साढू भाईर् नहीं आए वरना मेरी तरह तमाशा बनते व मूर्ति की तरह कोनों में बैठे होते.

एक फोटोग्राफर भी था. लाश पर कफन डाला जाने वाला ही था कि भाई साहब की निगाह शायद अम्मां के गले व हाथ की कलाई पर चली गई. सोने का हार व कंगन थे. कम से कम 4 तोला सोना. भाई साहब ने लपक कर निकाल लिया, गोया कोई ले कर भागने वाला था.

शव ऐंबुलैंस पर रखकर सभी लोग घाट की तरफ रवाना हो गए. घाट पर लकड़ी की चिता भी तैयार हो गईर् थी. लाश को चिता पर रखने से पहले नदी का गोता भी लगवाना था. पर अभी भाई साहब की खोपड़ी नहीं घुटी थी. तुरंत ही एक नाई भाई साहब के बाल मूंडने लगा. मुंडन संस्कार के बाद भाई साहब के तन पर श्वेत ?ाना वस्त्र था. सर्द हवा के कारण भाई साहब की कंपकंपी छूट चली थी.

दिल्लगी: क्या था कमल-कल्पना का रिश्ता- भाग 3

वह कब गहरी नींद सो गया, कल्पना को पता ही नहीं चला. भीतरबाहर से थकीहारी कल्पना भी शीघ्र ही सो जाना चाहती थी, पर नींद तो मानो उस की आंखों से कोसों दूर थी. बंद पलकों में बजाय नींद के अतीत की भूलीबिसरी स्मृतियां उमड़घुमड़ रही थीं.

कल्पना एक मध्यवर्गीय परिवार की इकलौती लड़की थी. उस के पिता कृष्णगोपाल की खिलौनों की एक दुकान थी. उन के पड़ोसी घनश्यामलाल कमल के सगे मामा थे. घनश्यामलाल के शहर में दूध के डेरों बूथ थे और बहुत अच्छा काम था. वे काफी पढ़ेलिखे थे इसलिए उस के पिता व घनश्याम घर से बाहर पड़े तख्तों पर घंटों देश की राजनीति और समाज पर चर्चा करते थे.

कल्पना कमल को बचपन से जानती थी. हर साल गरमी की छुट्टियां नैनीताल में बिताने की गरज से कमल का परिवार घनश्यामलाल के यहां आ कर ठहरता था. दोनों घरों में आंगन एक ही था. वह, कमल और उस के 2 अन्य भाईबहन एकसाथ आंखमिचौली खेला करते थे. वह उन के साथ ही खाने भी बैठ जाती और प्राय: रात तो उन के उस बड़े पलंग पर भी जा पहुंचती, जिस पर कमल और उस के छोटे भाईबहन सोते थे. वह बिना किसी संकोच के उन के बीच जा लेटती थी.

कुछ वर्ष बाद कमल ने कल्पना के साथ ही कालेज जीवन में पदार्पण किया था. चूंकि कमल के मामामामी बेऔलाद थे, इसलिए उन्होंने कमल को बजाय होस्टल के अपने पास ही रहने के लिए राजी कर लिया था. दोनों साथसाथ कालेज जाते, साथसाथ ही घर लौटते. उस के पिता और कमल के मामाजी के बीच गहरी आत्मीयता होने के कारण कालेज या घर में उन दोनों के मिलनेजुलने पर कोई रोकटोक नहीं थी.

कल्पना के मन में यह धारण बचपन से ही बैठ गई थी कि कमल पर अन्य लोगों की अपेक्षा उस का कुछ विशेष अधिकार है. उस विशेषाधिकार की भावना से कमल पर वह खूब रोब जमाती थी और उस पर ज्यादती भी करती थी. वह सहनशील बन कर उस की प्रत्येक इच्छा व आज्ञा का पालन करता और जब कभी ऐसा न करता तो कल्पना उसे जो भी सजा देती उसे वह सहर्ष स्वीकार कर लेता था.

प्राय: कल्पना की मां उस के पिता से दबे स्वर में कहती थी, ‘‘देखो, दोनों की जोड़ी कितनी अच्छी लगती है पर…’’

कल्पना तब सम?ादार हो गई थी. मां की इस बात ने उस के मन में कमल के प्रति उस की धारणा को और भी मजबूत कर दिया था. उसे पूरा विश्वास था कि कमल ही उस का जीवनसाथी बनेगा और उसे स्वयं फिर इस संबंध पर कोई आपत्ति नहीं थी. हां वह मां के ‘पर…’ को नहीं सम?ा पाई थी.

बीए की परीक्षा खत्म होते ही कमल अपने मामामामी, उस के मातापिता व उस से विदा लेकर अपने घर चला गया था. चलते वक्त वह उस से यह वादा कर गया था कि शीघ्र ही परिवार सहित लौटेगा. कमल के चले जाने के बाद पहली बार उसे महसूस हुआ था मानो कमल के बिना नैनीलाल की प्रत्येक वस्तु व स्थान का आकर्षण फीका पड़ गया है. अपनेआप को भी वह अस्तित्वहीन सम?ाने लगी थी.

तीसरे दिन उसे कमल का पत्र मिला था. पत्र पढ़तेपढ़ते उस के चेहरे की उदासी बढ़ती चली गई थी. कमल ने लिखा था कि मां की तबीयत खराब होने के कारण उस का परिवार इस साल नैनीताल नहीं जा सकेगा. उस ने वादा पूरा न कर सकने पर खेद प्रकट किया था.

उस के बाद वह रोती हुई घर आ गई. अगले ही दिन उसे पता चला कि कमल और उस के मातापिता कमल की दादी के देहांत के कारण बाजपुर चले गए हैं. कमल फिर नहीं लौटा. उस के मैसेज पहले की तरह आते रहे. कल्पना को मालूम था कि उस का एडवैंचर कमल के मोबाइल में कैद है इसलिए वह भी सामान्य बना रही.

कुछ दिन बाद उस के मांबाप राजीव को ढूंढ़ कर लाए तो उस ने शादी को तुरंत हां कर दी और कमल को आमंत्रण भी भेज दिया. कमल ने मैसेज भी किया कि वह आएगा और तोहफे में एक मोेबाइल दे जाएगा. पर शादी पर वह नहीं आया तो कल्पना को हरदम एक अनजाना भय लगा रहता कहीं कमल उस का भंडाफोड़ न कर दे. आज उस का आना, इस तरह बेतकल्लुफी से मिलना उस पर भारी पड़ रहा था.

मगर कल्पना पर तो मानो कोई भूत सवार ही गया था. कमल की बातों का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था. उस ने कमल को अनेक उलटीसीधी बातें कह डाली थीं. बेचारा कमल हार कर चुप हो गया था. खून के आंसू रोता उस का मन चाह रहा था कि कहीं एकांत में पहुंच कर मन की भड़ास निकाल ले. मगर पुरुष होने के कारण वह ऐसा नहीं कर सका था. कल्पना ने दृढ़ निश्चय कर लिया था कि वह कमल को दिखा देगी कि नारी का स्वाभिमान कितनी बड़ी चीज होती है.

राजीव ने वकालत पास करने के बाद अपनी प्रैक्टिस शुरू कर दी थी. दोनों ही पक्षों के आधुनिक विचार होने के कारण उन का विवाह बेहद साधारण ढंग से हुआ था. विवाह के दौरान वह खामोशी की प्रस्तर प्रतिमा बनी रही थी. उस ने कोई भी आपत्ति नहीं की थी. उलटा कमल को ईर्ष्या की आग में जलाने के लिए उस ने उसे शादी का कार्ड भी भेजा था पर कमल नहीं आया था. उस का पत्र आया था. उस ने लिखा था:

‘‘कल्पना,

‘‘तुम्हारे विवाह में सम्मिलित होने पर मु?ो बेहद प्रसन्नता होती, पर अकस्मात ही हृदयरोग से ग्रस्त मां का निधन हो जाने के कारण मैं पहुंचने में असमर्थ हूं. आशा है मेरी विवशता सम?ाते हुए मेरे न आने को अन्यथा न ले कर क्षमा करोगी. मेरी शुभकामनाएं हमेशा तुम्हारे साथ रहेंगी.

‘‘-कमल’’

पत्र में पिछली किसी बात का उल्लेख न देख कर सहसा तब उस ने ठंडे दिल से सोचा था, कहीं वास्तव में वह कमल के प्रति गलतफहमी की शिकार तो नहीं है. संभव है, कमल अपनी जगह पर सही हो. उस ने सचमुच में ही कभी उसे मित्र से ज्यादा अहमियत न दी हो. मन में जागे इन विचारों ने उस के दिल से कमल के प्रति समाई पूरी घृणा दूर कर दी थी. इस के बाद तो उसे कमल से कोई शिकवाशिकायत नहीं रह गई थी. तब उस ने औपचारिकता के नाते कमल को शोक भरा पत्र भी लिख दिया था.

राजीव की समीपता में 1 वर्ष कब बीत गया, कल्पना को कभी इस का एहसास तक नहीं हुआ.

पन्नों पर फैली पीड़ा

रात थी कि बीतने का नाम ही नहीं ले रही थी. सफलता और असफलता की आशानिराशा के बीच सब के मन में एक तूफान चल रहा था. औपरेशन थिएटर का टिमटिम करता बल्ब कभी आशंकाओं को बढ़ा देता तो कभी दिलासा देता प्रतीत होता. नर्सों के पैरों की आहट दिल की धड़कनें तेज करने लगती. नवीन बेचैनी से इधर से उधर टहल रहा था. हौस्पिटल के इस तल पर सन्नाटा था. नवीन कुछ गंभीर मरीजों के रिश्तेदारों के उदास चेहरों पर नजर दौड़ाता, फिर सामने बैठी अपनी मां को ध्यान से देखता और अंदाजा लगाता कि क्या मां वास्तव में परेशान हैं.

अंदर आई.सी.यू. में नवीन की पत्नी सुजाता जीवन और मृत्यु के बीच संघर्ष कर रही थी. नवीन पूरे यकीन के साथ सोच रहा था कि अभी डाक्टर आ कर कहेगा, सुजाता ठीक है.

कल कितनी चोटें आई थीं सुजाता को. नवीन, सुजाता और उन के दोनों बच्चे दिव्यांशु और दिव्या पिकनिक से लौट रहे थे. कार नवीन ही चला रहा था. सामने से आ रहे ट्रक ने सुजाता की तरफ की खिड़की में जोरदार टक्कर मारी. नवीन और पीछे बैठे बच्चे तो बच गए, लेकिन सुजाता को गंभीर चोटें आईं. उस का सिर भी फट गया था. कार भी बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गई थी. नवीन किसी से लिफ्ट ले कर घायल सुजाता और बच्चों को ले कर यहां पहुंच गया था.

नवीन ने फोन पर अपने दोनों भाइयों विनय और नीरज को खबर दे दी थी. वे उस के यहां पहुंचने से पहले ही मां के साथ पहुंच चुके थे. विनय की यहां कुछ डाक्टरों से जानपहचान थी, इसलिए इलाज शुरू करने में कोई दिक्कत नहीं आई थी.

नवीन ने सुजाता के लिए अपने दोनों भाइयों की बेचैनी भी देखी. उसे लगा, बस मां को ही इतने सालों में सुजाता से लगाव नहीं हो पाया. वह अपनी जीवनसंगिनी को याद करते हुए थका सा जैसे ही कुरसी पर बैठा तो लगा जैसे सुजाता उस के सामने मुसकराती हुई साकार खड़ी हो गई है. झट से आंखें बंद कर लीं ताकि कहीं उस का चेहरा आंखों के आगे से गायब न हो जाए. नवीन ने आंखें बंद कीं तो पिछली स्मृतियां दृष्टिपटल पर उभर आईं…

20 साल पहले नवीन और सुजाता एक ही कालेज में पढ़ते थे. दोनों की दोस्ती कब प्यार में बदल गई, उन्हें पता ही नहीं चला. पढ़ाई खत्म करने के बाद जब दोनों की अच्छी नौकरी भी लग गई तो उन्होंने विवाह करने का फैसला किया.

सुजाता के मातापिता से मिल कर नवीन को बहुत अच्छा लगा था. वे इस विवाह के लिए तैयार थे, लेकिन असली समस्या नवीन को अपनी मां वसुधा से होने वाली थी. वह जानता था कि उस की पुरातनपंथी मां एक विजातीय लड़की से उस का विवाह कभी नहीं होने देंगी. उस के दोनों भाई सुजाता से मिल चुके थे और दोनों से सुजाता की अच्छी दोस्ती भी हो गई थी. जब नवीन ने घर में सुजाता के बारे में बताया तो वसुधा ने तूफान खड़ा कर दिया. नवीन के पिताजी नहीं थे.

वसुधा चिल्लाने लगीं, ‘क्या इतने मेहनत से तुम तीनों को पालपोस कर इसी दिन के लिए बड़ा किया है कि एक विजातीय लड़की बहू बन कर इस घर में आए? यह कभी नहीं हो सकता.’

कुछ दिनों तक घर में सन्नाटा छाया रहा. नवीन मां को मनाने की कोशिश करता रहा, लेकिन जब वे तैयार नहीं हुईं, तो उन्होंने कोर्ट मैरिज कर ली.

नवीन को याद आ रहा था वह दिन जब वह पहली बार सुजाता को ले कर घर पहुंचा तो मां ने कितनी क्रोधित नजरों से उसे देखा था और अपने कमरे में जा कर दरवाजा बंद कर लिया था. घंटों बाद निकली थीं और जब वे निकलीं, सुजाता अपने दोनों देवरों से पूछपूछ कर खाना तैयार कर चुकी थी. यह था ससुराल में सुजाता का पहला दिन.

नीरज ने जबरदस्ती वसुधा को खाना खिलाया था. नवीन मूकदर्शक बना रहा था. रात को सुजाता सोने आई तो उस के चेहरे पर अपमान और थकान के मिलेजुले भाव देख कर नवीन का दिल भर आया था और फिर उस ने उसे अपनी बांहों में समेट लिया था.

नवीन और सुजाता दोनों ने वसुधा के साथ समय बिताने के लिए औफिस से छुट्टियां ले ली थीं. वे दिन भर वसुधा का मूड ठीक करने की कोशिश करते, मगर कामयाब न हो पाते.

जब सुजाता गर्भवती हुई तो वसुधा ने एलान कर दिया, ‘मुझ से कोई उम्मीद न करना, नौकरी छोड़ो और अपनी घरगृहस्थी संभालो.’

यह सुजाता ही थी, जिस ने सिर्फ मां को खुश करने के लिए नौकरी छोड़ दी थी. माथे की त्योरियां कम तो हुईं, लेकिन खत्म नहीं.

दिव्यांशु का जन्म हुआ तो विनय की नौकरी भी लग गई. वसुधा दिनरात कहती, ‘इस बर अपनी जाति की बहू लाऊंगी तो मन को कुछ ठंडक मिलेगी.’

सुजाता अपमानित सा महसूस करती. नवीन देखता, सुजाता मां को एक भी अपशब्द न कहती. वसुधा ने खूब खोजबीन कर के अपने मन की नीता से विनय का विवाह कर दिया. नीता को वसुधा ने पहले दिन से ही सिर पर बैठा लिया. सुजाता शांत देखती रहती. नीता भी नौकरीपेशा थी. छुट्टियां खत्म होने पर वह औफिस के लिए तैयार होने लगी तो वसुधा ने उस की भरपूर मदद की. सुजाता इस भेदभाव को देख कर हैरान खड़ी रह जाती.

कुछ दिनों बाद नीरज ने भी नौकरी लगते ही सुधा से प्रेमविवाह कर लिया. लेकिन सुधा भी वसुधा की जातिधर्म की कसौटी पर खरी उतरती थी, इसलिए वे सुधा से भी खुश थीं. इतने सालों में नवीन ने कभी मां को सुजाता से ठीक तरह से बात करते नहीं देखा था.

दिव्या हुई तो नवीन ने सुजाता को यह सोच कर उस के मायके रहने भेज दिया कि कम से कम उसे वहां शांति और आराम तो मिलेगा. नवीन रोज औफिस से सुजाता और बच्चों को देखने चला जाता और डिनर कर के ही लौटता था.

घर आ कर देखता मां रसोई में व्यस्त होतीं. वसुधा जोड़ों के दर्द की मरीज थीं, काम अब उन से होता नहीं था. नीता और सुधा शाम को ही लौटती थीं, आ कर कहतीं, ‘सुजाता भाभी के बिना सब अस्तव्यस्त हो जाता है.’

सुन कर नवीन खुश हो जाता कि कोई तो उस की कद्र करता है.

फिर विनय और नीरज अलग अलग मकान ले लिए, क्योंकि यह मकान अब सब के बढ़ते परिवार के लिए छोटा पड़ने लगा था. वसुधा ने बहुत कहा कि दूसरी मंजिल बनवा लेते हैं, लेकिन सब अलग घर बसाना चाहते थे.

विनय और नीरज चले गए तो वसुधा कुछ दिन बहुत उदास रहीं. दिव्यांशु और दिव्या को वसुधा प्यार करतीं, लेकिन सुजाता से तब भी एक दूरी बनाए रखतीं. सुजाता उन से बात करने के सौ बहाने ढूंढ़ती, मगर वसुधा हां, हूं में ही जवाब देतीं.

बच्चे स्कूल चले जाते तो घर में सन्नाटा फैल जाता. बच्चों को स्कूल भेज कर पार्क में सुबह की सैर करना सुजाता का नियम बन गया. पदोन्नति के साथसाथ नवीन की व्यस्तता बढ़ गई थी. सुजाता को हमेशा ही पढ़नेलिखने का शौक रहा. फुरसत मिलते ही वह अपनी कल्पनाओं की दुनिया में व्यस्त रहने लगी. उस के विचार, उस के सपने उसे लेखन की दुनिया में ले आए और दुख में तो कल्पना ही इंसान के लिए मां की गोद है. सुबह की सैर करतेकरते वह पता नहीं क्याक्या सोच कर लेखन सामग्री जुटा लेती.

पार्क से लौटते हुए कितने विचार, कितने शब्द सुजाता के दिमाग में आते, लेकिन अकसर वह जिस तरह सोचती, एकाग्रता के अभाव में उस तरह लिख न पाती, पन्ने फाड़ती जाती, वसुधा कभी उस के कमरे में न झांकतीं, बस उन्हें कूड़े की टोकरी में फटे हुए पन्नों का ढेर दिखता तो शुरू हो जातीं, ‘पता नहीं, क्या बकवास किस्म का काम करती रहती है. बस, पन्ने फाड़ती रहती है, कोई ढंग का काम तो आता नहीं.’

सुजाता कोई तर्क नहीं दे पाती, मगर उस का लेखन कार्य चलता रहा.

अब सुजाता ने गंभीरता से लिखना शुरू कर दिया था. इस समय उस के सामने था, सालों से मिलता आ रहा वसुधा से तानों का सिलसिला, अविश्वास और टूटता हौसला, क्योंकि वह खेदसहित रचनाओं के लौटने का दौर था. लौटी हुई कहानी उसे बेचैन कर देती.

उस की लौटी हुई रचनाओं को देख कर वसुधा के ताने बढ़ जाते, ‘समय भी खराब किया और लो अब रख लो अपने पास, लिखने में नहीं, बच्चों की पढ़ाई पर ध्यान दो.’

सुजाता को रोना आ जाता. सोचती, अब वह नहीं लिखेगी, तभी दिल कहता कि न घबराना है, न हारना है. मेहनत का फल जरूर मिलता है और वह फिर लिखने बैठ जाती. धीरेधीरे उस की कहानियां छपने लगीं.

सुजाता को नवीन का पूरा सहयोग था. वह लिख रही होती तो नवीन कभी उसे डिस्टर्ब न करता, बच्चे भी शांति से अपना काम करते रहते. अब सुजाता को नाम, यश, महत्त्व, पैसा मिलने लगा. उसे कुछ पुरस्कार भी मिले, वह वसुधा के पैर छूती तो वे तुनक कर चली जातीं. सुजाता अपने शहर के लिए सम्मानित हस्ती हो चुकी थी. उसे कई शैक्षणिक, सांस्कृतिक समारोहों में विशेष अतिथि की हैसियत से बुलाया जाने लगा. वसुधा की सहेलियां, पड़ोसिनें सब उन से सुजाता के गुणों की वाहवाह करतीं.

‘‘नवीनजी, आप की पत्नी अब खतरे से बाहर हैं,’’ डाक्टर की आवाज नवीन को वर्तमान में खींच लाई.

वह खड़ा हो गया, ‘‘कैसी है सुजाता?’’

‘‘चोटें बहुत हैं, बहुत ध्यान रखना पड़ेगा, थोड़ी देर में उन्हें होश आ जाएगा, तब आप चाहें तो उन से मिल सकते हैं.’’

मां के साथ सुजाता को देखने नवीन आई.सी.यू. में गया. सुजाता अभी बेहोश थी. नवीन ने थोड़ी देर बाद मां से कहा, ‘‘मां, आप थक गई होंगी, घर जा कर थोड़ा आराम कर लो, बाद में जब नीरज घर आए तो उस के साथ आ जाना.’’

वसुधा घर आ गईं, नहाने के बाद सब के लिए खाना बनाया, बच्चे नीता के पास थे. वे सब हौस्पिटल आ गए. विनय और नीरज तो नवीन के पास ही थे. सारा काम हो गया तो वसुधा को खाली घर काटने को दौड़ने लगा. पहले वे इधरउधर देखती घूमती रहीं, फिर पता नहीं उन के मन में क्या आया कि ऊपर सुजाता के कमरे की सीढि़यां चढ़ने लगीं.

साफसुथरे कमरे में एक ओर सुजाता के पढ़नेलिखने की मेज पर रखे सामान को वे ध्यान से देखने लगीं. अब तक प्रकाशित 2 कहानी संग्रह, 4 उपन्यास और बहुत सारे लेख जैसे सुजाता के अस्तित्व का बखान कर रहे थे. सुजाता की डायरी के पन्ने पलटे तो बैड पर बैठ कर पढ़ती चली गईं.

एक जगह लिखा था, ‘‘मांजी के साथ 2 बातें करने के लिए तरस जाती हूं मैं. कोमल, कांतिमय देहयष्टि, मांजी के माथे पर चंदन का टीका बहुत अच्छा लगता है मुझे. मम्मीपापा तो अब रहे नहीं, मन करता है मांजी की गोद में सिर रख कर लेट जाऊं और वे मेरे सिर पर अपना हाथ रख दें, क्या ऐसा कभी होगा?’’

एक पन्ने पर लिखा था, ‘‘आज फिर कहानी वापस आ गई. नवीन और बच्चे तो व्यस्त रहते हैं, काश, मैं मांजी से अपने मन की उधेड़बुन बांट पाती, मांजी इस समय मेरे खत्म हो चले नैतिक बल को सहारा देतीं, मुझे उन के स्नेह के 2 बोलों की जरूरत है, लेकिन मिल रहे हैं ताने.’’

एक जगह लिखा था, ‘‘अगर मांजी समझ जातीं कि लेखन थोड़ा कठिन और विचित्र होता है, तो मेरे मन को थोड़ी शांति मिल जाती और मैं और अच्छा लिख पाती.’’

आगे लिखा था, ‘‘कभीकभी मेरा दिल मांजी के व्यंग्यबाणों की चोट सह नहीं पाता,

मैं घायल हो जाती हूं, जी में आता है उन से पूछूं, मेरा विजातीय होना क्यों खलता है कि मेरे द्वारा दिए गए आदरसम्मान व सेवा तक को नकार दिया जाता है? नवीन भी अपनी मां के स्वभाव से दुखी हो जाते हैं, पर कुछ कह नहीं सकते. उन का कहना है कि मां ने तीनों को बहुत मेहनत से पढ़ायालिखाया है, बहुत संघर्ष किया है पिताजी के बाद. कहते हैं, मां से कुछ नहीं कह सकता. बस तुम ही समझौता कर लो. मैं उन के स्वभाव पर सिर्फ शर्मिंदा हो सकता हूं, अपमान की पीड़ा का अथाह सागर कभीकभी मेरी आंखों के रास्ते आंसू बन कर बह निकलता है.’’

एक जगह लिखा था, ‘‘मेरी एक भी कहानी मांजी ने नहीं पढ़ी, कितना अच्छा होता जिस कहानी के लिए मुझे पहला पुरस्कार मिला, वह मांजी ने भी पढ़ी होती.’’

वसुधा के स्वभाव से दुखी सुजाता के इतने सालों के मन की व्यथा जैसे पन्नों पर बिखरी पड़ी थी.

वसुधा ने कुछ और पन्ने पलटे, लिखा था, ‘‘हर त्योहार पर नीता और सुधा के साथ मांजी का अलग व्यवहार होता है, मेरे साथ अलग, कई रस्मों में, कई आयोजनों में मैं कोने में खड़ी रह जाती हूं आज भी. मां की दृष्टि में तो क्षमा होती है और मन में वात्सल्य.’’

पढ़तेपढ़ते वसुधा की आंखें झमाझम बरसने लगीं, उन का मन आत्मग्लानि से भर उठा. फिर सोचने लगीं कि हम औरतें ही औरतों की दुश्मन क्यों बन जाती हैं? कैसे वे इतनी क्रूर और असंवेदनशील हो उठीं? यह क्या कर बैठीं वे? अपने बेटेबहू के जीवन में अशांति का कारण वे स्वयं बनीं? नहीं, वे अपनी बहू की प्रतिभा को बिखरने नहीं देंगी. आज यह मुकदमा उन के

मन की अदालत में आया और उन्हें फैसला सुनाना है. भूल जाएंगी वे जातपांत को, याद रखेंगी सिर्फ अपनी होनहार बहू के गुणों और मधुर स्वभाव को.

वसुधा के दिल में स्नेह, उदारता का सैलाब सा उमड़ पड़ा. बरसों से जमे जातिधर्म, के भेदभाव का कुहासा स्नेह की गरमी से छंटने लगा.

हम तुम कुछ और बनेंगे

बगल के कमरे से अब फुसफुसाहट सुनाई दे रही थी. कुछ देर पहले तक उन की आवाजें लगभग स्पष्ट आ रही थीं. बात कुछ ऐसी भी नहीं थी. फिर दोनों इतने ठहाके क्योंकर लगा रहे? जाने क्या चल रहा है दोनों के बीच. वार्त्तालाप और ठहाकों का सामंजस्य उस की सोच के परे जा रहा था. उफ, तीर से चुभ रहे हैं, बिलकुल निशाना बैठा कर नश्तर चुभो रही है उन की हंसी. रमण का मन किया कि वह कोने वाले कमरे में चला जाए और दरवाजा बंद कर तेज संगीत चला दुनिया की सारी आवाजों से खुद को काट ले. परंतु एक कीड़ा था जो कुलबुला रहा था, काट रहा था, हृदय क्षतविक्षत कर भेद रहा था, पर कदमों में बेडि़यां भी उसी ने डाल रखी थीं. वह कीड़ा बारबार विवश कर रहा था कि वह ध्यान से सुने कि बगल के कमरे से क्या आवाजें आ रही हैं:

‘‘जीवन की बगिया महकेगी, लहकेगी, चहकेगी,

खुशियों की कलियां झूमेंगी,

झूलेंगी, फूलेंगी,

जीवन की बगिया…’’ काजल इन पंक्तियों को गुनगुना रही थी.

‘रोहन को अब सीटियां बजाने की क्या जरूरत है इस पर? बेशर्म कहीं का,’ सोफे पर अधलेटे रमण ने सोचा. उस का सर्वांग सुलग रहा था. अब जाने उस ने क्या कहा जो काजल को इतनी हंसी आ रही है. रमण अनुमान लगाने की कोशिश कर ही रहा था कि रोहन के ठहाकों ने उस के सब्र के पैमाने को छलका ही दिया. रमण ने कुशन को गुस्से से पटका और सोफे से उठ खड़ा हुआ.

‘‘क्या हो रहा है ये सब? कितनी देर से तुम दोनों की खीखी सुन रहा हूं. आदमी अपने घर में भी कुछ पल चैनसुकून से नहीं रह सकता है,’’ रमण के गुस्से ने मानो खौलते दूध में नीबू निचोड़ दिया.

रोहन, सौरीसौरी बोलता हुआ उठ कर चला गया. पर काजल अभी भी कुछ गुनगुना रही थी. रोहन के जाने के बाद काजल का गुनगुनाना उस की रूह को मानो ठंडक पहुंचाने लगा. उस ने भरपूर नजरों से काजल को देखा. 7वां महीना लग गया है. इतनी खूबसूरत उस ने अपनी ब्याहता को पहले कभी नहीं देखा था. गालों पर एक हलकी सी ललाई और गोलाई प्रत्यक्ष परिलक्षित थी. रंगत निखर कर एक सुनहरी आभा से मानो आलोकित हो दिल को रूहानी सुकून पहुंचा रही थी. सदा की दुबलीपतली छरहरी काजल आज अंग भर जाने के पश्चात अपूर्व व्यक्तित्व की स्वामिनी लग रही थी.

कोई स्त्री गर्भावस्था में ही शायद सर्वाधिक रूपवती होती है. रोमरोम से छलकती मातृत्व से परिपूर्ण सुंदरता अतुलनीय है. रमण अपने दोनों चक्षुओं सहित सभी ज्ञानेंद्रियों से अपनी ही बीवी के इस अद्भुत नवरूप का रसास्वादन कर ही रहा था कि रोहन फिर आ गया और रमण हकीकत की विकृत सचाई से आंखें चुराता हुआ झट कमरे से निकल गया.

रोहन के हाथ में विभिन्न फलों को काट कर बनाया गया फ्रूट सलाद था.

इस बार रमण सच में कोने वाले कमरे में चला गया और तेज संगीत बजा वहीं पलंग पर लेट गया. म्यूजिक भले ही कानफोड़ू हो गया, परंतु उस कमरे से आती फुसफुसाहट को रोकने में अभी भी असमर्थ ही था. रोहन की 1-1 सीटी इस संगीत को मध्यम किए जा रही थी, साथ ही साथ बीचबीच में काजल की दबीदबी खिलखिलाहट भी. ऐसा लग रहा था कि दोनों कर्ण मार्ग से प्रवेश कर उस के मानस को क्षतविक्षत कर के ही दम लेंगे.

इसी बीच स्मृति कपाट पर विगत की दस्तक शुरू हो गई. इस नवआगंतुक ने मानो उस की सुधबुध को ही हर लिया. बगल के कमरे की फुसफुसाहट, तेज संगीत और अब स्मृतियों की थाप. इस स्वर मिश्रण ने उसे आभास दिला दिया कि शायद जहन्नुम यही है.

सच इन दिनों उसे आभास होने लगा है कि वह मानो जहन्नुम की अग्नि में झुलस रहा हो. जिस उत्कंठा से उस ने इस खुशी को पाने की तमन्ना की थी, वह इस अग्नि कुंड से हो कर निकलेगी, यह उस के लिए कल्पनातीत थी.

‘कुछ महीने पहले तक सब कितना मधुर था,’ रमण ने सोचा, ‘पर कैसे कहा जाए कि मधुर था तब तो कुछ और ही शूल चुभ रहे थे,’ चेतना की बखिया उधड़ने लगीं.

विवाह के 10 वर्ष होने को थे. शुरू के वर्षों में नौकरी, कैरियर, पदोन्नति और घर की जिम्मेदारियों के चलते रमण और काजल परिवार बढ़ाने की अपनी योजना को टालते रहे. आदर्श जोड़ी रही है दोनों की. कितना दबाव था सब का कि उन के बच्चे होने चाहिए. काजल के मातापिता, रमण के मातापिता, नातेरिश्तेदार यहां तक कि दोस्त भी टोकने लगे थे. रमण के सासससुर उस की शादी की 7वीं वर्षगांठ परआए थे.

‘‘तुम लोगों ने बड़ा ही अच्छा आयोजन किया अपनी 7वीं वर्षगांठ पर. इस से पहले तो तुम लोग वर्षगांठ मनाने के ही विरुद्ध होते थे. बहुत खुशी हो रही है.’’

रमण के ससुरजी ने ऐसा कहा तो काजल झट से बोल पड़ी, ‘‘हां पापा, इस बार बात ही कुछ ऐसी थी. मेरे देवर ने अपनी पढ़ाई बहुत हद तक पूरी कर ली है. अपने आगे की पढ़ाई का खर्च अब वह खुद वहन कर सकता है. मेरा देवर डाक्टर बन गया, हमारी तपस्या सफल हुई. वर्षगांठ तो बस एक बहाना है अपनी खुशियों को सैलिब्रेट करने का.’’

‘‘बहनजी, अब आप ही रमण और काजल को समझाएं कि ये जल्दी से हमें खुशखबरी सुनाएं. मेरी तो आंखें तरस गई हैं कि कोई शिशु मेरे आंगन में खेले. ऐसा न हो कि कहीं देर हो जाए,’’ रमण की मां ने अपनी समधिन से कहा.

‘‘हां बहनजी, आप सही कह रही हैं. हर चीज का एक वक्त होता है, जो सही वक्त पर पूरी हो जानी चाहिए. हम भी तो बूढ़े हो चले हैं,’’ रमण की सास ने कहा.

कुछ ही महीनों में काजल को यह भान होने लगा कि कहीं तो कुछ गड़बड़ है. फिर शुरू हुआ जांचरिपोर्ट का अंतहीन सिलसिला. जब तक चाह नहीं थी तब तक इतनी बेसब्री और संवेदनाएं भी जाग्रत नहीं थीं. अब जब असफलता और अनचाहे परिणाम मिलने लगे तो दोनों की बच्चे के प्रति उत्कंठा भी उतनी ही तीव्र हो गई. घर के बुजुर्गों की आशंकाएं मूर्त हो रही थीं. रमण की प्रजनन क्षमता ही संदेह के दायरे में आ गई थी. किसी ने कभी सोचा भी नहीं था कि हर तरह से स्वस्थ दिखने वाले और स्वस्थ जीवनशैली जीने वाले रमण को यह समस्या होगी.

‘‘अब जब विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली है, तो हर चीज का समाधान है. हम किसी अच्छे क्लिनिक या अस्पताल से बात करने की सोच रहे हैं, जहां से शुक्राणु ले कर मेरे गर्भ में निषेचित किया जाएगा,’’ पूरे परिवार के सामने काजल ने रमण के हाथ को थामे हुए रहस्योद्घाटन किया.

‘‘आप कहीं और जाने की क्यों सोच रहे हैं? मेरे ही हौस्पिटल में कृत्रिम शुक्राणु निषेचन का अच्छा डिपार्टमैंट है. मैं संबंधित डाक्टर से बात कर लूंगा. सब अच्छी तरह निष्पादित हो जाएगा,’’ रोहन ने कहा.

फिर तो दोनों के मातापिता सिर जोड़े इस समस्या के निदान में जुट गए. वहीं काजल और रमण ने बालकनी से नीचे पार्क में खेलते छोटे बच्चों को देख ख्वाबों का एक लिहाफ बुन लिया.

उन दिनों काजल उस का हाथ मानो एक क्षण को भी नहीं छोड़ती थी. रमण को उस ने यह एहसास ही नहीं होने दिया कि कमी उस में है. दोनों ने इस आती रुकावट को पार करने हेतु जमीनआसमान एक कर दिया. दोनों दो शरीर एक जान हो गए थे.

‘‘लेकिन…पर…’’ अपनी सास की बनतीबिगड़ती माथे की लकीरों को काजल भांप रही थी.

‘‘उस तरीके से जन्मा बच्चा क्या पूरी तरह स्वस्थ होगा?’’ रमण के पिताजी ने पूछा था.

‘‘फिर जाने किस कुल या गोत्र का होगा वह?’’ रमण की सास ने बुझी वाणी में कहा.

‘‘देर तक एक लंबी चुप्पी छाई रही. जब चुप्पी के नुकीले नख रक्तवाहिनियों से खून टपकाने की हद तक पहुंच गए तो रमण ने ही चुप्पी तोड़ी, हमारे पास और कोई रास्ता नहीं है. हम चाहते तो किसी को कुछ नहीं बताते पर आप सब को जानने का हक है.’’

‘‘एक रास्ता है. यदि घर का ही कोई स्वस्थ पुरुष अपने शुक्राणु दान करे इस हेतु तो वह अनजाना कुलपरिवार की भांति नहीं रहेगा,’’ काजल के पिताजी ने कहा.

‘‘आप सब निश्चिंत रहें, बहुत लोग इस विधि से बच्चे प्राप्त कर रहे हैं. हर नए आविष्कार को संशय और अविश्वास की दृष्टि से देखा ही जाता है. मैं खुद ध्यान रखूंगा कि सब अच्छे से संपन्न हो,’’ रोहन के इस आश्वासन ने उन्हें फौरी तौर पर थोड़ी राहत दे दी.

आखिर वर्षों बाद वह दिन आया जब काजल के गर्भवती होने की डाक्टर ने पुष्टि की. काजल ने अपनी नौकरी से अनिश्चितकालीन छुट्टी ले ली. एक बच्चे की आहट से परिवार में हर्ष की लहर दौड़ गई. आंगन में घुटनों के बल चलते शिशु की कल्पना से ओतप्रोत हरेक सदस्य अपनी तरह से खुशियां जाहिर कर रहा था. अचानक घर में काजल सब से महत्त्वपूर्ण हो गई. आखिर क्यों न होती? आती खुशियों को तो उसी ने अपने में सहेज रखा था.

रमण देखता उस की प्रिया उस से ज्यादा उस के मातापिता के साथ वक्त गुजार रही है. आजकल उस के सासससुर भी जल्दीजल्दी आते. रमण भी एक विजयी भाव से हर जाते पल को महसूस कर रहा था. पापापापा सुनने को बेचैन उस के दिल को कुछ ही दिनों में सुकून जो मिलने वाला था.

सब ठीक चल रहा था. डाक्टर हर चैकअप के बाद संतुष्टि जाहिर करते. माह दर माह बीत रहे थे. इस दौरान रमण महसूस कर रहा था कि आजकल रोहन भी कुछ ज्यादा ही जल्दीजल्दी आने लगा है. जल्दी आना तो तब भी चलता, आखिर उस का भी घर है, ऊपर से डाक्टर. सब को उस की जरूरत रहती. कभी मां को, कभी पिताजी को. बूढ़े जो हो चले थे. पर देखता जब रोहन आता, वह काजल की कुछ अधिक ही देखभाल करता. यह बात रमण को अब चुभने लगी थी. शक का बुलबुला उस के मानस में आकार पाने लगा था कि कहीं यह वीर्यदान रोहन ने तो नहीं किया है?

हालांकि उस के पास इस बात का कोई सुबूत नहीं था पर जब कमी खुद में होती है तो शायद ऐसे विचार उठने स्वाभाविक हैं.

रोहन को देखते ही उसे अपनी कमी और बड़ेबड़े स्पष्ट अक्षरों में परिलक्षित होने लगती. रोहन का काजल के साथ वक्त गुजारना उसे बड़ा ही नागवार गुजरता. धीरेधीरे उसे महसूस हो रहा था कि जब तक वह कुछ करने की सोचता है काजल के लिए, रोहन तब तक वह कर गुजरता है. रोहन सहित घर के सभी सदस्य जब आपस में हंसीमजाक कर रहे होते, रमण कोई न कोई बहाना बना वहां से खिसक लेता. धीरेधीरे रमण अपने पलकपांवड़े समेटने लगा जो बिछा रखे थे नव अंकुरण के लिए. एक अजीब सी विरक्ति हो चली उसे जिंदगी से. रमण खुद को बिलकुल अनचाहा सा महसूस कर रहा था. काजल बुलाती रह जाती. वह उस के पास नहीं जाता.

रोहन और काजल की घनिष्ठता उसे बेहद नागवार गुजर रही थी. रमण सोचता, ‘यदि बच्चे का पिता रोहन ही है तो मैं क्यों दालभात में मूसलचंद बनूं?’

इस सोच ने उस की दुनिया पलट दी थी. वह अपना ज्यादा वक्त दफ्तर में गुजारता. कभीकभी तो टूअर का बहाना कर कईकई दिनों तक घर भी नहीं आता था. गर्भावस्था के आखिर के दिन बड़े ही तकलीफदेह थे. काजल को बैठानाउठाना सब रोहन करता. रिश्ते बेहद उलझ गए थे. सिरा अदृश्य था और उलझनों का मकड़जाल पूरे शबाब पर. रमण को याद आता, जब उस की शादी हुई थी तब रोहन छोटा ही था. काजल को भाभी मां कहता था. काजल कितनी फिक्रमंद रहती थी उस की पढ़ाई के लिए.

‘छि: सब गडमड हो गया… इस से अच्छा बेऔलाद रहता.’ बेसिरपैर के खयालात रमण के सहभागी बन उस की मतिभ्रष्ट किए जा रहे थे. तभी रोहन की आवाज आई, ‘‘भैया जल्दी आइए भाभी की तबीयत खराब हो रही है. हौस्पिटल ले जाना होगा तुरंत.’’

‘‘तुम ले जाओ… मैं भला जा कर क्या करूंगा. कोई डाक्टर तो हूं नहीं. मुझे आज ही 15 दिनों के लिए हैदराबाद जाना है,’’ रमण ने उचटती हुई आवाज में कहा.

काजल को लग रहा था कि रमण की यह उदासीनता उस के अपराधभाव के कारण है कि वह होने वाले बच्चे का जैविक पिता नहीं है. डाक्टर ने पहले ही काजल को सचेत कर दिया था कि बहुत से पिता इस तरह का व्यवहार करते हैं और नकारात्मक रवैया अपनाते हैं. उस ने जानबूझ कर बखेड़ा नहीं खड़ा किया.

करीब 10 दिनों के बाद काजल भरी गोद वापस आई. इस बीच रमण एक बार भी हौस्पिटल नहीं गया. 15वें दिन वापस आया था.

मां से उसे पता चला. पहले दिन तो बच्चे को छुआ भी नहीं. काजल से बेहतर उस के मनोभावों को कौन समझता पर उस ने भी शायद अब वही रुख इख्तियार कर लिया था जो रमण ने. उस दिन उसी कोने वाले कमरे में तेज संगीत को चीरती एक मधुर सी रुनझुन संगीतमय लहरी रमण को बेचैन किए जा रही थी.

‘हां, यह तो बच्चे की आवाज है,’ रमण ने कानफोड़ू म्यूजिक औफ किया और ध्यानमग्न हो शिशु की स्वरलहरियों को सुनने लगा. जाने लड़का है या लड़की? उफ कोई चुप क्यों नहीं करा रहा. मन उद्वेलित होने लगा. एक क्षण को चुप्पी छाई फिर रुदन…

रमण कमरे में चहलकदमी करने लगा. अब तो लग रहा था जैसे बच्चे का कंठ सूख रहा हो. इस आरोहअवरोह ने शीत शिला को धीमी आंच पर पिघलाना आरंभ कर दिया. मां भी न जाने क्यों उन्हें छोड़ कर चली गईं. अभी कुछ दिन तो रहना चाहिए था.

इसी बीच उस का मोबाइल बजने लगा. जाने कौन है. नया नंबर है… सोचते उस ने कान से लगाया.

‘‘भैया, मैं रोहन बोल रहा हूं, प्लीज, फोन मत काटिएगा. मैं आज सुबह ही सिडनी, आस्ट्रेलिया आ गया हूं. यहां के एक अस्पताल में मुझे काम मिल गया है. साथ ही मैं कुछ कोर्स भी करूंगा. आप और भाभी मां ने जीवन में मेरे लिए बहुत कुछ किया है. भैया, पिछले कुछ महीनों में भाभी मां बेहद मानसिक संत्रास से गुजरी हैं. आप की बेरुखी उन्हें जीने नहीं दे रही. छोटा मुंह बड़ी बात हो जाएगी पर मैं कहना चाहूंगा कि आप ने भाभी मां को उस वक्त छोड़ दिया जब उन को सर्वाधिक आप की जरूरत थी,’’ इतना कह रोहन फूटफूट कर रोने लगा. एक लंबी सी चुप्पी पसरी रही कुछ क्षण रिसीवर के दोनों तरफ…

‘‘कितना बड़ा और समझदार हो गया है रोहन. मैं ने ही खुद को अदृश्य उलझनों और विकारों में कैद कर लिया था.’’

रमण शायद कुछ और भी कहता कि तभी रोहन बोल पड़ा, ‘‘भैया बच्चे क्यों रो रहे हैं? मुझे उन के रोने की आवाजें आ रही हैं.’’

‘‘बच्चे क्या जुड़वा हैं?’’ रमण उछल पड़ा और दौड़ पड़ा उन की तरफ. 2 नर्मनर्म गुलाबी रुई के फाहे हाथपैर फेंकते समवेत स्वर में आसमान सिर पर उठाए थे.

‘‘धन्यवाद रोहन, धन्यवाद भाई. घर जल्दीजल्दी आते रहना,’’ कह उस ने यह सोचते हुए बच्चों को छाती से लगा लिया कि क्या फर्क पड़ता है कि बच्चे रोहन के स्पर्म से पैदा हुए हैं या किसी और के. अब ये बच्चे उस के हैं. वही उन का पिता है. रोहन के होते तो शायद वह उन्हें छोड़ कर नहीं जाता. यह तसल्ली कम नही है.

मिलेट्स से बने हेल्दी फूड के बारें में क्या कहती है महिला उद्यमी विद्या जोशी, जानें यहां

अगर जीवन में कुछ करने को ठान लिया हो तो समस्या कितनी भी आये व्यक्ति उसे कर गुजरता है. कुछ ऐसी ही कर दिखाई है, औरंगाबाद की महिला उद्यमी विद्या जोशी. उनकी कंपनी न्यूट्री मिलेट्स महाराष्ट्र में मिलेट्स के ग्लूटेन और प्रिजर्वेटिव फ्री प्रोडक्ट को मार्किट में उतारा है, सालों की मेहनत और टेस्टिंग के बाद उन्होंने इसे लोगों तक परिचय करवाया है, जिसे सभी पसंद कर रहे है. उनके इस काम के लिए चरक के मोहा ने 10 लाख रुपये से सम्मानित किया है. उनके इस काम में उनका पूरा परिवार सहयोग देता है.

किये रिसर्च मिलेट्स पर

विद्या कहती है कि साल 2020 में मैंने मिलेट्स का व्यवसाय शुरू किया था. शादी से पहले मैंने बहुत सारे व्यवसाय किये है, मसलन बेकिंग, ज्वेलरी आदि करती गई, लेकिन किसी काम से भी मैं पूरी तरह संतुष्ट नहीं हो पा रही थी. मुझे हमेशा से कुछ अलग और बड़ा करना था, लेकिन क्या करना था, वह पता नहीं था. उसी दौरान एक फॅमिली फ्रेंड डॉक्टर के साथ चर्चा की, क्योंकि फ़ूड पर मुझे हमेशा से रूचि थी, उन्होंने मुझे मिलेट्स पर काम करने के लिए कहा. मैंने उसके बारें में रिसर्च किया, पढ़ा और मिलेट्स के बारें में जानने की कोशिश की. फिर उससे क्या-क्या बना सकती हूँ इस बारें में सोचा, क्योंकि मुझे ऐसे प्रोडक्ट बनाने की इच्छा थी, जिसे सभी खा सके और सबके लिए रुचिकर हो. किसी को परिचय न करवानी पड़े. आम इडली, डोसा जैसे ही टेस्ट हो. इसके लिए मैंने एक न्यूट्रीशनिस्ट का सहारा लिया, एक साल उस पर काम किया. टेस्ट किया, सबको खिलाया उनके फीड बेक लिए और फीडबेक सही होने पर मार्किट में लांच करने के बारें में सोचा.

मिलेट्स है पौष्टिक

विद्या आगे कहती है कि असल में मेरे डॉक्टर फ्रेंड को नैचुरल फ़ूड पर अधिक विशवास था. उनके कुछ मरीज ऐसे आते थे, जो रोटी नहीं खा सकते थे, ऐसे में उन्हें ज्वार, बाजरी, खाने के लिए कहा जाता था, जिसे वे खाने में असमर्थ होते थे. कुछ नया फॉर्म इन चीजो को लेकर बनाना था, जिसे लोग खा सकें. मसलन इडली लोग खा सकते है, मुझे भी इडली की स्वाद पसंद है. उसी सोच के साथ मैंने एक प्रोडक्ट लिस्ट बनाई और रेडी टू कुक को पहले बनाना शुरू किया, इसमें इडली का आटा, दही बड़ा, अप्पे, थालपीठ आदि बनाने शुरू किये. ये ग्लूटेन और राइस फ्री है. उसमे प्रीजरवेटिव नहीं है और सफ़ेद चीनी का प्रयोग नहीं किया जाता है. इसमें अधिकतर असली घी और गुड से लड्डू, कुकीज बनाया जाता है. इन सबको बनाकर लोगों को खिलाने पर उन्हें जब पसंद आया, तब मैंने व्यवसाय शुरू किया. इसमें मैंने बैंक से मुद्रा लोन लिया है. मैंने ये लोन मशीन खरीदने के लिए लिया था. सामान बनाने से लेकर पैकिंग और अधिक आयल को प्रोडक्ट से निकालने तक की मशीन मेरे पास है.

हूँ किसान की बेटी

विद्या कहती है कि नए फॉर्म में मैंने मिलेट्स का परिचय करवाया. इसमें सरकार ने वर्ष 2023 को मिलेट्स इयर शुरू किया जो मेरे लिए प्लस पॉइंट था. मैं रियल में एक किसान की बेटी हूँ, बचपन से मैंने किसानी को देखा है, आधा बचपन वहीँ पर बीता है. मेरे पिता खेती करते थे, नांदेड के गुंटूर गांव में मैं रहती थी. 11 साल तक मैं वही पर थी. कॉलेज मैंने नांदेड में पूरा किया. मैंने बचपन से ज्वार की रोटी खाई है. शहर आकर गेहूँ की रोटी खाने लगी थी. मेरे परिवार में शादी के बाद मैंने देखा है कि उन्हें ज्वार, बाजरी की रोटी पसंद नहीं, पर आब खाने लगे. बच्चे भी अब मिलेट्स की सभी चीजे खा लेते है. ज्वार, बाजरा, नाचनी, रागी, चेना, सावा आदि से प्रोडक्ट बनाते है.

मुश्किल था मार्केटिंग

विद्या को मार्किट में मिलेट्स से बने प्रोडक्ट से परिचय करवाना आसान नहीं था. विद्या कहती है कि मैंने व्यवसाय शुरू किया और कोविड की एंट्री हो चुकी थी. मेरा सब सेटअप तैयार था, लेकिन कोविड की वजह से पहला लॉकडाउन लग गया, मुझे बहुत टेंशन हो गयी. बहुत कठिन समय था, सभी लोग मुझे व्यवसाय शुरू करने को गलत कह रहे थे, क्योंकि ये नया व्यवसाय है, लोग खायेंगे नहीं. लोगों में मिलेट्स खाने को लेकर जागरूकता भी नहीं थी, जो आज है. इसमें भी मुझे फायदा यह हुआ है कि कोविड की एंट्री से लोगों में स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता बढ़ी है. हालाँकि दो महीने मेरा यूनिट बंद था, क्योंकि मैं लॉकडाउन की वजह से कही जा नहीं सकती थी, लेकिन लोग थोडा समझने लगे थे. बैंक का लोन था, लेकिन उस समय मेरे पति ने बहुत सहयोग दिया, उन्होंने खुद से लोन भरने का दिलासा दिया था. इसके बाद भी बहुत समस्या आई, कोई नया ट्राई करने से लोग डर रहे थे. शॉप में भी नया प्रोडक्ट रखने को कोई तैयार नहीं था, फिर मैंने सोशल मीडिया का सहारा लिया. तब पुणे से बहुत अच्छा रेस्पोंस मिला. वह से आर्डर भी मिले. इसके अलावा शॉप के बाहर भी सुबह शाम खड़ी होकर मिलेट्स खाने के फायदे बताती थी. बहुत कठिन समय था. अब सभी जानते है. आगे भी कई शहरों में इसे भेजने की इच्छा है.

मिलेट्स होती है सस्ती

विद्या का कहना है कि ये अनाज महंगा नहीं होता, पानी की जरुरत कम होती है. जमीन उपजाऊं अधिक होने की जरुरत नहीं होती. इसमें पेस्टीसाइड के प्रयोग की आवश्यकता नहीं होती. इसलिए इसके बने उत्पाद अधिक महंगे नहीं होते. मैं बाजार से कच्चे सामान लेती हूँ. आगे मैं औरंगाबाद के एग्रीकल्चर ऑफिस से सामान लेने वाली हूँ. किसान उनके साथ जुड़े होते है. वहां गुणवत्ता की जांच भी की जाती है. अच्छी क्वालिटी की प्रोडक्ट ली जाती है. सामान बनने के बाद भी जांच की जाती है. हमारे प्रोडक्ट में भी प्रिजेर्वेटिव नहीं होते. कई प्रकार के आटा, थालपीठ, ज्वार के पोहे, लड्डू आदि बनाती हूँ. मैं औरंगाबाद में रहती हूँ. गोवा, पुणे, चेन्नई और व्हार्ट्स एप ग्रुप और औरंगाबाद के दुकानों में भेजती हूँ. इसके अलावा मैं जिम के बाहर भी स्टाल लगाती हूँ.

मिला सहयोग परिवार का

परिवार का सहयोग के बारें में विद्या बताती है कि मैं हर दिन 10 से 12 घंटे काम करती हूँ, इसमें किसी त्यौहार या विवाह पर गिफ्ट पैकिंग का आर्डर भी मैं बनाती हूँ. सबसे अधिक सहयोग मेरे पति सचिन जोशी करते है, जो एक एनजीओ के लिए काम करते है. मेरे 3 बच्चे है, एक बड़ी बेटी स्नेहा जोशी 17 वर्ष और जुड़वाँ दो बच्चे बेदांत और वैभवी 13 वर्ष के है. बच्चे अब बड़े हो गए है, वे खुद सब काम कर लेते है. मेरी सास है, वह भी जितना कर सकें सहायता करती है. सहायता सरकार से नहीं मिला, लेकिन चरक के मोहा से मुझे 10 लाख का ग्रांट मिला है, जिससे मैं आगे मैं कुछ और मशीनरी के साथ इंडस्ट्रियल एरिया में जाने की कोशिश कर रही हूँ. अभी मैं मिलेट्स की मैगी पर काम कर रही हूँ. जो ग्लूटेन फ्री होगा और इसका ट्रायल जारी है. 5 लोगों की मेरे पास टीम है. प्रोडक्ट बनने के बाद न्यूट्रशनिस्ट के पास भेजा जाता है, फिर ट्रायल होती है. इसके बाद उसका टेस्ट और ड्यूरेबिलिटी देखी जाती है. फिर लैब में इसकी गुणवत्ता की जांच की जाती है.

सस्टेनेबल है मिलेट्स

स्लम एरिया में प्रेग्नेंट महिलाओं को मैं मिलेट्स के लड्डू देती हूँ, ताकि उनके बच्चे स्वस्थ पैदा हो. अधिकतर महिलायें मेरे साथ काम करती है. इसके अलावा तरुण भारत संस्था के द्वारा महिलाओं को जरुरत के अनुसार ट्रेनिंग देकर काम पर रखती हूँ. उन्हें जॉब देती हूँ, इससे उन्हें रोजगार मिल जाता है.

मिलेट्स से प्रोडक्ट बनाने के बाद निकले वेस्ट प्रोडक्ट को दूध वाले को देती हूँ, जो दुधारू जानवरों को खिलाता है. इस तरह से कुछ भी ख़राब नहीं होता. सब कंज्यूम हो जाता है.

गर्मियों में आइसक्रीम बनाने के 11 टिप्स

गर्मियों का मौसम प्रारम्भ हो चुका है. यूं तो आजकल पूरे वर्ष भर ही आइसक्रीम खाई जाती है परन्तु गर्मियां तो आइसक्रीम के लिए ही जानी जातीं हैं. इन दिनों बाजार में भी भांति भांति के फ्लेवर्स की आइसक्रीम की बहार छाई रहती है. बाजार से हरदम आइसक्रीम लाना महंगा भी पड़ता है और हरदम लाना सम्भव भी नहीं होता इसीलिए आज हम आपको कुछ ऐसे टिप्स बता रहे हैं जिनका ध्यान रखकर आप बड़ी आसानी से घर पर ही बिल्कुल बाजार जैसी आइसक्रीम जमा सकतीं हैं-

ऐसे बनाएं बेसिक आइसक्रीम

-2 कप व्हिपड क्रीम को 1/2 कप कन्डेन्स्ड मिल्क के साथ तब तक फेंटे जब तक कि यह फूलकर दोगुनी न हो जाये. जिस बाउल में आप फेंट रहीं हैं उसे उल्टा कर दें यदि क्रीम न गिरे तो बेसिक आइसक्रीम तैयार है.

-250 लीटर दूध में 4 टीस्पून शकर, 4 टीस्पून कॉर्नफ्लोर, 4 टीस्पून जी. एम. एस. पाउडर और 1/4 टीस्पून सी एम एस पाउडर को अच्छी तरह मिलाकर गैस पर चढ़ाएं उबाल आने पर गैस बंद कर दें. इसे फ्रीजर में जमा दें. जब जम जाए तो निकालकर फेंट लें अब इससे आप मनचाहा फ्लेवर तैयार कर सकतीं हैं.

-ऐसे बनाएं फ्लेवर्ड आइसक्रीम

-यदि आप एसेंस और कलर से आइसक्रीम बना रहीं हैं तो बेसिक आइसक्रीम में मनचाहा कलर और एसेंस डालकर फ्रिज में उच्चतम तापमान पर 7 से 8 घण्टे तक जमाकर सर्व करें उदाहरण के लिए यदि आप वनीला आइसक्रीम जमा रही हैं तो बेसिक आइसक्रीम में 4-5 बूंदे वनीला एसेंस की डालकर अच्छी तरह चलाएं फिर ढककर फ्रीजर में जमाकर सर्व करें.

-नेचुरल आइसक्रीम बनाने के फलों का प्रयोग किया जाता है इसके लिए आप फलों को साफ करके उनकी प्यूरी बनाकर बेसिक आइसक्रीम में मिला दें साथ ही फलों को बारीक काटकर भी मिलाएं ताकि खाते समय फल का स्वाभाविक स्वाद भी मिल सके. आवश्यकतानुसार रंग का प्रयोग भी किया जा सकता है.

-चॉकलेटी आइसक्रीम बनाने के लिए बेसिक आइसक्रीम में कोको पाउडर मिलाएं. कोको पाउडर को चम्मच की अपेक्षा बीटर से फेंटकर ही मिलाएं. ऊपर से कुछ चॉको चिप्स डाल दें.

-क्रीम एंड कुकीज आइसक्रीम को बिस्किट से बनाया जाता है इसे जमाने के लिए किसी भी चॉकलेटी फ्लेवर के बिस्किट को हल्का सा क्रश करके बेसिक आइसक्रीम में मिलाकर जमाएं.
रखें इन बातों का ध्यान

-आइसक्रीम जमाने के लिए हमेशा ढक्कनदार कंटेनर का प्रयोग करें ताकि आइसक्रीम पर बर्फ के क्रिस्टल न जमने पाएं.

-आइसक्रीम को जमाते समय फ्रीजर का तापमान हाई कर दें और जमने के बाद इसे मीडियम रखें ताकि निकालने में आसानी रहे.

-आइसक्रीम सर्व करते समय स्कूपर को गर्म पानी में डालकर रखें इससे आप बहुत आसानी से आइस्क्रीम निकाल पाएंगी.

-यदि आप अमरूद, स्ट्राबेरी, जामुन जैसे खट्टे फलों से आइसक्रीम जमाना चाहतीं हैं तो फलों के टुकड़ों को कुछ देर शुगर सीरप में उबाल लें ताकि उनका खट्टापन बेलेंस हो जाये.

-यदि आप किटी पार्टी या बर्थडे पार्टी के लिए आइसक्रीम जमा रहीं हैं तो कंटेनर की अपेक्षा सीधे कप्स में सिल्वरफॉइल से ढककर आइसक्रीम जमा दें इससे आपको सर्व करने में बहुत आसानी रहेगी.

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