Emotional Story: पुरस्कार- रिटायरमेंट के बाद पिता और परिवार की कहानी

Emotional Story: उन्हें एक निष्ठावान तथा समर्पित कर्मचारी बताया गया और उन के रिटायरमेंट जीवन की सुखमय कामना की गई थी. अंत में कार्यालय के मुख्य अधिकारी ने प्रशासन तथा साथी कर्मचारियों की ओर से एक सुंदर दीवार घड़ी, एक स्मृति चिह्न के साथ ही रामचरितमानस की एक प्रति भी भेंट की थी. 38 वर्ष का लंबा सेवाकाल पूरा कर के आज वह सरकारी अनुशासन से मुक्त हो गए थे.

वह 2 बेटियों और 3 बेटों के पिता थे. अपनी सीमित आय में उन्होंने न केवल बच्चों को पढ़ालिखा कर काबिल बनाया बल्कि रिटायर होने से पहले ही उन की शादियां भी कर दी थीं. इन सब जिम्मेदारियों को ढोतेढोते वह खुद भारी बोझ तले दब से गए थे. उन की भविष्यनिधि शून्य हो चुकी थी. विभागीय सहकारी सोसाइटी से बारबार कर्ज लेना पड़ा था. इसलिए उन्होंने अपनी निजी जरूरतों को बहुत सीमित कर लिया था, अकसर पैंटशर्ट की जगह वह मोटे खद्दर का कुरतापजामा पहना करते. आफिस तक 2 किलोमीटर का रास्ता आतेजाते पैदल तय करते. परिचितों में उन की छवि एक कंजूस व्यक्ति की बन गई थी.

बड़ा लड़का बैंक में काम करता था और उस का विवाह साथ में काम करने वाली एक लड़की के साथ हुआ था. मंझला बेटा एफ.सी.आई. में था और उस की भी शादी अच्छे परिवार में हो गई थी. विवाह के बाद ही इन दोनों बेटों को अपना पैतृक घर बहुत छोटा लगने लगा. फिर बारीबारी से दोनों अपनी बीवियों को ले कर न केवल अलग हो गए बल्कि उन्होंने अपना तबादला दूसरे शहरों में करवा लिया था.

शायद वे अपने पिता की गरीबी को अपने कंधों पर ढोने को तैयार न थे. उन्हें अपने पापा से शिकायत थी कि उन्होंने अपने बच्चों को अभावों तथा गरीबी की जिंदगी जीने पर विवश किया पर अब जबकि वह पैरों पर खड़े थे, क्यों न अपने श्रम के फल को स्वयं ही खाएं.

हाथ की पांचों उंगलियां बराबर नहीं होतीं. उन का तीसरा बेटा श्रवण कुमार साबित हुआ और उस की पत्नी ने भी बूढ़े मातापिता के प्रति पति के लगाव को पूरा सम्मान दिया और दोनों तनमन से उन की हर सुखसुविधा उपलब्ध कराने का प्रयास करते रहते थे.

सब से छोटी बहू ने तो उन्हें बेटियों की कमी भी महसूस न होने दी थी. मम्मीपापा कहतेकहते दिन भर उस की जबान थकती न थी. सासससुर की जरा भी तबीयत खराब होती तो वह परेशान हो उठती. सुबह सो कर उठती तो दोनों की चरणधूलि माथे पर लगाती. सीमित साधनों में जहां तक संभव होता, उन्हें अच्छा व पौष्टिक भोजन देने का प्रयास करती.

सुबह जब वह दफ्तर के लिए तैयार होने कमरे में जाते तो उन का साफ- सुथरा कुरता- पजामा, रूमाल, पर्स, चश्मा, कलम ही नहीं बल्कि पालिश किए जूते भी करीने से रखे मिलते और वह गद्गद हो उठते. ढेर सारी दुआएं अपनी छोटी बहू के लिए उन के होंठों पर आ जातीं.

उस दिन को याद कर के तो वह हर बार रोमांचित हो उठते जब वह रोजाना की तरह शाम को दफ्तर से लौटे तो देखा बहूबेटा और पोतापोती सब इस तरह से तैयार थे जैसे किसी शादी में जाना हो. इसी बीच पत्नी किचन से निकली तो उसे देख कर वह और हैरान रह गए. पत्नी ने बहुत सुंदर सूट पहन रखा था और आयु अनुसार बड़े आकर्षक ढंग से बाल संवारे हुए थे. पहली बार उन्होंने पत्नी को हलकी सी लिपस्टिक लगाए भी देखा था.

‘यह टुकरटुकर क्या देख रहे हो? आप का ही घर है,’ पत्नी बोली.

‘पर…यह सब…बात क्या है? किसी शादी में जाना है?’

‘सब बता देंगे, पहले आप तैयार हो जाइए.’

‘पर आखिर जाना कहां है, यह अचानक किस का न्योता आ गया है.’

‘पापा, ज्यादा दूर नहीं जाना है,’ बड़ा मासूम अनुरोध था बहू का, ‘आप झट से मुंहहाथ धो कर यह कपड़े पहन लीजिए. हमें देर हो रही है.’

वह हड़बड़ाए से बाथरूम में घुस गए. बाहर आए तो पहले से तैयार रखे कपड़े पहन लिए. तभी पोतापोती आ गए और अपने बाबा को घसीटते हुए बोले, ‘चलो न दादा, बहुत देर हो रही है…’ और जब कमरे में पहुंचे तो उन्हें अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ. रंगबिरंगी लडि़यों तथा फूलों से कमरे को सजाया गया था. मेज पर एक बड़ा सुंदर केक सजा हुआ था. दीवार पर चमकदार पेपर काट कर सुंदर ढंग से लिखा गया था, ‘पापा को स्वर्ण जयंती जन्मदिन मुबारक हो.’

वह तो जैसे गूंगे हो गए थे. हठपूर्वक उन से केक कटवाया गया था और सभी ने जोरजोर से तालियां बजाते हुए ‘हैपी बर्थ डे टू यू, हैपी बर्थ डे पापा’ कहा. तभी बहू और बेटा उन्हें एक पैकेट पकड़ाते हुए बोले, ‘जरा इसे खोलिए तो, पापा.’

पैकेट खोला तो बहुत प्यारा सिल्क का कुरता और पजामा उन के हाथों में था.

‘यह हम दोनों की ओर से आप के 50वें जन्मदिन पर छोटा सा उपहार है, पापा,’ उन का गला रुंध गया और आंखें नम हो गईं.

‘खुश रहो, मेरे बच्चो…अपने गरीब बाप से इतना प्यार करते हो. काश, वह दोनों भी…बहू, एक दिन…एक दिन मैं तुम्हें इस प्यार और सेवा के लिए पुरस्कार दूंगा.’

‘आप के आशीर्वाद से बढ़ कर कोई दूसरा पुरस्कार नहीं है, पापा. यह सबकुछ आप का दिया ही तो है…आप जो सारा विष स्वयं पी कर हम लोगों को अमृत पिलाते रहते हैं.’

सेवानिवृत्त हो कर जब वह घर पहुंचे तो पत्नी ने आरती उतार कर स्वागत किया. बहूबेटे, पोतेपोती ने फूलों के हार पहनाए और चरणस्पर्श किए. कुछ साथी घर तक छोड़ने आए थे. कुछ पड़ोसी भी मुबारक देने आ गए थे, उन सब को जलपान कराया गया. बड़े बेटे व बहुएं इस अवसर पर भी नहीं आ पाए. किसी न किसी बहाने न आ पाने की मजबूरी जता कर फोन पर क्षमा याचना कर ली थी उन्होंने.

अतिथियों के जाने के बाद उन्होंने बहूबेटे से कहा था, ‘‘लो भई, अब तक तो हम फिर भी कुछ न कुछ कमा लाते थे, आज से निठल्ले हो गए. फंड तो पहले ही खा चुका था, ग्रेच्युटी में से सोसाइटी ने अपनी रकम काट ली. यह 80 हजार का चेक संभालो, कुछ पेंशन मिलेगी. कुछ न बचा सका तुम लोगों के लिए. अब तो पिंकी और राजू की तरह हम बूढ़ों को भी तुम्हें ही पालना होगा.’

बहू रो दी थी. सुबकते हुए बोली थी, ‘‘बेटी को यों गाली नहीं देते, पापा. यह चेक आज ही मम्मी के खाते में जमा कर दीजिए. आप ने अपनी भूखप्यास कम कर के, मोटा पहन कर, पैदल चल कर, एकएक पैसा बचा कर, बेटेबेटियों को आत्मनिर्भर बनाया है. आप इस घर के देवता हैं, पापा. हमारी पूजा को यों लज्जित न कीजिए.’’

उन्होंने अपनी सुबकती हुई बहू को पहली बार सीने से लगा लिया था और बिना कुछ कहे उस के सिर पर हाथ फेरते रहे थे.

समय अपनी निर्बाध गति से चलता जा रहा था. अचानक एक दिन उन के हृदय की धड़कन के साथ ही जैसे समय रुक गया. घर में कोहराम मच गया. भलेचंगे वह सुबह की सैर को गए थे. लौट कर स्नान आदि कर के कुरसी पर बैठे अखबार पढ़ रहे थे. बहू चाय का कप तिपाई पर रख गई थी. अचानक उन्होंने बाईं ओर छाती को अपनी मुट्ठी में भींच लिया. उन के चेहरे पर गहरी पीड़ा की लकीरें फैलती गईं और शरीर पसीने से तर हो गया.

उन के कराहने का स्वर सुन कर सभी दौड़े आए थे पर मृत्यु ने डाक्टर को बुलाने तक की मोहलत न दी. देखते ही देखते वह एकदम शांत हो गए थे. यों लगता था जैसे बैठेबैठे सो गए हों पर यह नींद फिर कभी न खुलने वाली नींद थी.

शवयात्रा की तैयारी हो चुकी थी. बाहर रह रहे दोनों बेटों का परिवार, बेटियां व दामाद सभी पहुंच गए थे. बेटियों और छोटी बहू ने रोरो कर बुरा हाल कर लिया था. पत्नी की तो जैसे दुनिया ही वीरान हो गई थी.

शवयात्रा के रवाना होतेहोते लोगों की काफी भीड़ जुट गई थी. बेटे यह देख कर हैरान थे कि इस अंतिम यात्रा में शामिल बहुत से चेहरे ऐसे थे जिन्हें उन्होंने पहले कभी न देखा था. पिता के कोई लंबेचौड़े संपर्क नहीं थे. तब न जाने यह अपरिचित लोग क्यों और कैसे इस शोक में न केवल शामिल होने आए थे बल्कि वे गहरे गम में डूबे हुए दिखाई दे रहे थे.

क्रियाकर्म के बाद दोनों बड़े बेटेबहुएं और बेटियां विदा हो गए. अंतिम रस्मों का सारा व्यय छोटे बेटे ने ही उठाया था, क्योंकि बड़ों का कहना था कि पिता की कमाई तो वही खाता रहा है.

मेहमानों से फुरसत पा कर छोटे बहूबेटे का जीवन धीरेधीरे सामान्य होने लगा. बेटे के आफिस चले जाने के बाद घर में बहू व सास प्राय: उन की बातें ले बैठतीं और रोने लगतीं, फिर एकदूसरे को स्वयं ही सांत्वना देतीं.

कुछ ही दिन बीते थे. रविवार को सभी घर पर थे. किसी ने दरवाजा खटखटाया. बेटे ने द्वार खोला तो एक अधेड़ उम्र के सज्जन को सामने पाया. बेटे ने पहचाना कि पिताजी की शवयात्रा में वह अनजाना व्यक्ति आंसू बहाते हुए चल रहा था.

‘‘आइए, अंकल, अंदर आइए, बैठिए न,’’ बेटे ने विनम्रता से कहा.

‘‘तुम मुझे नहीं जानते बेटा, तुम मुझ जैसे अनेक लोगों को नहीं जानते, जिन के आंसुओं को तुम्हारे पिताजी ने हंसी में बदला, उन की गरीबी दूर की.’’

‘‘मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा, अंकल…आप…’’ बेटा बोला.

‘‘मैं तुम्हें समझाता हूं बेटे. 10 साल पहले की बात है. तुम्हारे पिता दफ्तर जाते हुए कभीकभी मेरे खोखे पर एक कप चाय पीने के लिए रुक जाते थे. मैं एक टूटे खोखे में पुरानी सी केतली में चाय बनाता और वैसे ही कपों में ग्राहक को देता था. मैं खुद भी उतना ही फटेहाल था जितना मेरा खोखा. मेरे ग्राहक गरीब मजदूर होते थे क्योंकि मेरी चाय बाजार में सब से सस्ती थी.

‘‘तुम्हारे पिता जब भी चाय पीते तो कहते, ‘क्या गजब की चाय बनाते हो दोस्त, ऐसी चाय बड़ेबड़े होटलों में भी नहीं मिल सकती, अगर तुम जरा ढंग की दुकान बना लो, साफसुथरे बरतन और कप रखो, ग्राहकों के बैठने का प्रबंध हो तो अच्छेअच्छे लोग लाइन लगा कर तुम्हारे पास चाय पीने आएं.’

‘‘मैं कहता, ‘क्या कंरू बाबूजी, घरपरिवार का रोटीपानी मुश्किल से चलता है. दुकान बनाने की तो सोच ही नहीं सकता.’

‘‘और एक दिन तुम्हारे पिताजी बड़ी प्रसन्न मुद्रा में आए और बोले, ‘लो दोस्त, तुम्हारे लिए एक दुकान मैं ने अगले चौक पर ठीक कर ली है. 3 माह का किराया पेशगी दे दिया है. उस में कुछ फर्नीचर भी लगवा दिया है और क्राकरी, बरतन भी रखवा दिए हैं. रविवार को सुबह 8 बजे मुहूर्त है.’

‘‘मैं उन की बातें सुन कर हक्काबक्का रह गया. उन की कोई बात मेरी समझ में नहीं आई थी तो उन्होंने सीधेसादे शब्दों में मुझे सबकुछ समझा दिया. शायद यह बात आप लोग भी नहीं जानते कि वह अपनी नौकरी के साथसाथ ओवरटाइम कर के कुछ अतिरिक्त धन कमाते थे.

‘‘उन्होंने मुझे बताया कि ओवरटाइम की रकम वह बैंक में जमा कराते रहते थे. मेरी दुर्दशा को देख कर उन्होंने योजना बनाई थी और वह कई दिनों तक मेरे खोखे के आसपास किसी उपयुक्त दुकान की तलाश करते रहे और आखिर उन की तलाश सफल हो गई. वह दुकान को पूरी तरह तैयार करवा कर मुझे बताने आए थे कि अगले रविवार मुझे अपना काम वहां शुरू करना है.

‘‘अगले रविवार को मेरी उस दुकान का मुहूर्त हुआ तो बरबस मेरी आंखों से आंसुओं की धारा बह निकली. मैं उन के चरणों में झुक गया. मुझे कुछ नहीं सूझ रहा था कि किन शब्दों में मैं उन का धन्यवाद करूं. उन्होंने तो मेरे जीवन की काया ही पलट दी थी.

‘‘एक दिन मुझे एक बैंक पासबुक पकड़ाते हुए उन्होंने कहा था, ‘मैं ने यह सब तुम्हारे उपकार के लिए नहीं किया. इस में मेरा भी स्वार्थ है. नई दुकान पर तुम्हें जितना भी लाभ होगा, उस का 5 प्रतिशत तुम स्वयं ही मेरे इस खाते में जमा कर दिया करना.

‘‘उन के आशीर्वाद ने ऐसा करिश्मा कर दिखाया कि मेरी दुकान दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करती गई और आज वह दुकान एक शानदार रेस्तरां का रूप ले चुकी है. मैं और मेरा बेटा तो अब उस का प्रबंध ही देखते हैं. आज तक नियमित रूप से मैं लाभ का 5 प्रतिशत इस पासबुक में जमा करा रहा हूं.

‘‘इसी तरह एक बूढ़ा सिर पर फल की टोकरी उठाए गलीगली भटक कर अपनी रोजीरोटी चलाता था. बढ़ती उम्र के साथ उस का शरीर इतना कमजोर हो गया था कि टोकरी का वजन सिर पर उठाना उस के लिए कठिन होने लगा था. एक दिन इसी तरह केलों की टोकरी उठाए जब वह बूढ़ा चिलाचिलाती धूप में घूम रहा था तो संयोग से तुम्हारे पापा पास से गुजरे थे. सहसा बूढ़े को चक्कर आ गया और वह टोकरी समेत गिर गया.

‘‘तुम्हारे पापा उसे सहारा दे कर फौरन एक डाक्टर के पास ले गए और उस का उपचार कराया. उस के बाद उस बूढ़े ने उन्हें बताया कि वह 600 रुपए मासिक पर एक अमीर आदमी के लिए फल की फेरी लगाता है, जिस ने इस तरह के और भी 10-15 लाचार लोगों को इस काम के लिए रखा हुआ है जो गलीगली घूम कर उस का फल बेचते हैं.

‘‘तुम्हारे पिताजी उस बूढ़े की हालत देख कर द्रवित हो उठे और मुझ से बोले, ‘मैं इस बुजुर्ग के लिए कुछ करना चाहता हूं, जरा मेरी पासबुक देना.’

‘‘कुछ ही दिन बाद उन्होंने एक ऐसी रेहड़ी तैयार करवाई जो चलने में बहुत हलकी थी. रेहड़ी उस बूढ़े के हवाले करते हुए उन्होंने कहा था, ‘इस रेहड़ी पर बढि़या और ताजा फल सजा कर निकला करना. आप की रोजीरोटी इस से आसानी से निकल आएगी. काम शुरू करने के लिए यह 10 हजार रुपए रख लो और हां, मैं आप के ऊपर कोई एहसान नहीं कर रहा हूं. अपने काम में आप को जो लाभ हो उस का 5 प्रतिशत श्यामलाल को दे दिया करना, ताकि यह मेरे खाते में जमा करा दे.’

‘‘वह बूढ़ा तो अब इस दुनिया में नहीं है पर उसी रेहड़ी की कमाई से अब उस का बेटा एक बड़ी फल की दुकान का मालिक बन चुका है. वह भी अब तक नियमित रूप से लाभ का 5 प्रतिशत मेरे पास जमा कराता है, जिसे मैं तुम्हारे पिताजी की पासबुक में जमा करता रहता हूं. उस बूढ़े के बाद उन्होंने 7-8 वैसे ही दूसरे फेरी वालों को रेहडि़यां बनवा कर दीं जो अब खुशहाली का जीवन बिता रहे हैं और उन के लाभ का भाग भी इसी पासबुक में जमा हो रहा है.

‘‘इतना ही नहीं, एक नौजवान की बात बताता हूं. एम.ए. पास करने के बाद जब उस को कोई नौकरी न मिली तो उस ने पटरी पर बैठ कर पुस्तकें बेचने का काम शुरू कर दिया. एक बार तुम्हारे पिताजी उस ओर से निकले तो उस पटरी वाली दुकान पर रुक कर पुस्तकों को देखने लगे. यह देख कर उन्हें बहुत दुख हुआ कि उस युवक ने घटिया स्तर की अश्लील पुस्तकें बिक्री के लिए रखी हुई थीं.

‘‘लालाजी ने जब उस युवक से क्षोभ जाहिर किया तो वह लज्जित हो कर बोला, ‘क्या करूं, बाबूजी. साहित्य में एम.ए. कर के भी नौकरी न मिली. घर में मां बिस्तर पर पड़ी मौत से संघर्ष कर रही हैं. 2 बहनें शादी लायक हैं. ऐसे में कुछ न कुछ कमाई का साधन जुटाना जरूरी था. अच्छी पुस्तकें इतनी महंगी हैं कि बेचने के लिए खरीदने की मेरे पास पूंजी नहीं है. ये पुस्तकें काफी सस्ती मिल जाती हैं और लोग किराए पर ले भी जाते हैं. इस तरह कम पूंजी में गुजारे लायक आय हो रही है.’

‘‘‘यदि चाहो तो मैं तुम्हारी कुछ आर्थिक सहायता कर सकता हूं. यदि तुम वादा करो कि इस पूंजी से केवल उच्च स्तर की पुस्तकें ही बेचने के लिए रखोगे, तो मैं 40 हजार रुपए तुम्हें उधार दे सकता हूं, जिसे तुम अपनी सुविधानुसार धीरेधीरे वापस कर सकते हो. मेरा तुम पर कोई एहसान न रहे, इस के लिए तुम मुझे अपने लाभ का 5 प्रतिशत अदा करोगे.’

‘‘शायद तुम्हें यह जान कर आश्चर्य होगा कि तुम्हारे पिताजी द्वारा लगाया गया वह पौधा आज फलफूल कर कैपिटल बुक डिपो के रूप में एक बड़ा वृक्ष बन चुका है और शहर में उच्च स्तर की पुस्तकों का एकमात्र केंद्र बना हुआ है.

‘‘एक बार मैं ने तुम्हारे पिताजी से पूछा था, ‘बाबूजी, बुरा न मानें, तो एक बात पूछूं?’

‘‘वह हंस कर बोले थे, ‘तुम्हारी बात का बुरा क्यों मानूंगा. तुम तो मेरे छोटे भाई हो. कहो, क्या बात है?’

‘‘‘आप ने बीसियों लोगों की जिंदगी को अंधेरे से निकाल कर उजाला दिया है. उन की बेबसी और लाचारी को समाप्त कर के उन्हें स्वावलंबी बनाया है पर आप स्वयं सदा ही अत्यंत सादा जीवन व्यतीत करते रहे हैं. कभी एक भी पैसा आप ने अपनी सुविधा या सुख के लिए व्यय किया हो, मुझे नहीं लगता. आखिर बैंक में जमा यह सब रुपए…’

‘‘और बीच में ही मेरी बात काट दी थी उन्होंने. वह बोले थे, ‘यह सब मेरा नहीं है, श्यामलाल. इस पासबुक में जमा एकएक पैसा मेरे छोटे बेटे और बहू की अमानत है. तुम्हें छोटा भाई कहा है तभी तुम से कहता हूं, मेरे बड़े बेटे और बहुएं अपनेअपने बच्चों को ले कर मेरे बुढ़ापे का सारा बोझ छोटे बेटे पर छोड़ कर दूसरे शहरों में जा बसे हैं और ये मेरे छोटे बच्चे दिनरात मेरे सुख और आराम की चिंता में रहते हैं. बहू ने तो मेरी दोनों बेटियों की कमी पूरी कर दी है. मेरा उस से वादा है श्यामलाल कि मैं उसे एक दिन उस की सेवा का पुरस्कार दूंगा. मेरी बात गांठ बांध लो. जब मैं न रहूं, तब यह पासबुक जा कर मेरी बहू के हाथ में दे देना और उन्हें सारी बात समझा देना. मैं ने अपनी वसीयत भी इस लिफाफे में बंद कर दी है जिस के अनुसार यह सारी पूंजी मैं ने अपनी बहू के नाम कर दी है. यही उस का पुरस्कार है.’’’

बहू की आंखों से गंगाजमुना बह चली थीं. श्यामलाल ने उसे ढाढ़स बंधाते हुए एक लिफाफा और पासबुक उस के हाथों में थमा दिए. बहू रोतेरोते उठ खड़ी हुई और धीरेधीरे चल कर पिता की तसवीर के सामने जा पहुंची और हाथ जोड़ कर खड़ी हो गई. उस की आंखों से निरंतर आंसू बह रहे थे. उस के मुख से केवल इतना ही निकला, ‘‘पापा…’’

Emotional Story

Family Love Story: क्या वही प्यार था

Family Love Story: दादी और बाबा के कमरे से फिर जोरजोर से लड़ने की आवाजें आने लगी थीं. अम्मा ने मुझे इशारा किया, मैं समझ गई कि मुझे दादीबाबा के कमरे में जा कर उन्हें लड़ने से मना करना है. मैं ने दरवाजे पर खड़े हो कर इतना ही कहा कि दादी, चुप हो जाइए, अम्मा के पास नीचे गुप्ता आंटी बैठी हैं. अभी मेरी बात पूरी भी नहीं हुई कि दादी भड़क गईं.

‘‘हांहां, मुझे ही कह तू भी, इसे कोई कुछ नहीं कहता. जो आता है मुझे ही चुप होने को कहता है.’’

दादी की आवाज और तेज हो गई थी और बदले में बाबा उन से भी जोर से बोलने लगे थे. इन दोनों से कुछ भी कहना बेकार था. मैं उन के कमरे का दरवाजा बंद कर के लौट आई.

दादीबाबा की ऐसी लड़ाई आज पहली बार नहीं हो रही थी. मैं ने जब से होश संभाला है तब से ही इन दोनों को इसी तरह लड़ते और गालीगलौज करते देखा है. इस तरह की तूतू मैंमैं इन दोनों की दिनचर्या का हिस्सा है. हर बार दोनों के लड़ने का कारण रहता है दादी का ताश और चौपड़ खेलना. हमारी कालोनी के लोग ही नहीं बल्कि दूसरे महल्लों के सेवानिवृत्त लोग, किशोर लड़के दादी के साथ ताश खेलने आते हैं. ताश खेलना दादी का जनून था. दादी खाना, नहाना छोड़ सकती थीं, मगर ताश खेलना नहीं.

दादी के साथ कोई बड़ा ही खेलने वाला हो, यह जरूरी नहीं. वे तो छोटे बच्चे के साथ भी बड़े आनंद के साथ ताश खेल लेती थीं. 1-2 घंटे नहीं बल्कि पूरेपूरे दिन. भरी दोपहरी हो, ठंडी रातें हों, दादी कभी भी ताश खेलने के लिए मना नहीं कर सकतीं. बाबा लड़ते समय दादी को जी भर कर गालियां देते परंतु दादी उन्हें सुनतीं और कोई प्रतिक्रिया दिए बगैर उसी तरह ताश में मगन रहतीं. कई बार बहुत अधिक गुस्सा आने पर बाबा, दादी के 1-2 छड़ी भी टिका देते. दादी बाबा से न नाराज होतीं न रोतीं. बस, 1-2 गालियां बाबा को सुनातीं और अपने ताश या चौपड़ में मस्त हो जातीं.

एक खास बात थी, वह यह कि दोनों अकसर लड़ते तो थे मगर एकदूसरे से अलग नहीं होना चाहते थे. जब दोनों की लड़ाई हद से बढ़ जाती और दोनों ही चुप न होते तो दोनों को चुप कराने के लिए अम्मा इसी बात को हथियार बनातीं. वे इतना ही कहतीं, ‘‘आप दोनों में से किसी एक को देवरजी के पास भेजूंगी,’’ दोनों चुप हो जाते और तब दादी, बाबा से कहतीं, ‘‘करमजले, तू कहीं रहने लायक नहीं है और न मुझे कहीं रहने लायक छोड़ेगा,’’ और दोनों थोड़ी देर के लिए शांत हो जाते.

खैर, गुप्ता आंटी तो चली गई थीं मगर अम्मा को आज जरा ज्यादा ही गुस्सा आ गया था. सो, अम्मा ने दोनों से कहा, ‘‘बस, मैं अब और बर्दाश्त नहीं कर सकती. अभी देवरजी को चिट्ठी लिखती हूं कि किसी एक को आ कर ले जाएं.’’

अम्मा का कहना था कि बाबा हाथ जोड़ कर हर बार की तरह गुहार करने लगे, ‘‘अरी बेटी, तू बिलकुल सच्ची है, तू हमें ऊपर बनी टपरी में डाल दे, हम वहीं रह लेंगे पर हमें अलगअलग न कर. अरी बेटी, आज के बाद मैं अपना मुंह सी लूंगा.’’

अभी बात चल ही रही थी कि संयोग से चाचा आ गए. चायनाश्ते के बाद अम्मा ने चाचा से कहा, ‘‘सुमेर, दोनों में से किसी एक को अपने साथ ले कर जाना. जब देखो दोनों लड़ते रहते हैं. न आएगए की शर्म न बच्चों का लिहाज.’’

चाचा लड़ने का कारण तो जानते ही थे इसलिए दादी को समझाते हुए बोले, ‘‘मां, जब पिताजी को तुम्हारा ताश और चौपड़ खेलना अच्छा नहीं लगता तो क्यों खेलती हैं, बंद कर दें. ताश खेलना छोड़ दें. पता नहीं इस ताश और चौपड़ के कारण तुम ने पिताजी की कितनी बेंत खाई होंगी.

‘‘भाभी ठीक कहती हैं. मां, तुम चलो मेरे साथ. मेरे पास ज्यादा बड़ा मकान नहीं है, पिताजी के लिए दिक्कत हो जाएगी. मां, तुम तो बच्चों के कमरे में मजे से रहना.’’

आज दादी भी गुस्से में थीं, एकदम बोलीं, ‘‘हां बेटा, ठीक है. मैं भी अब तंग आ गई हूं. कुछ दिन तो चैन से कटेंगे.’’

दादी ने अपना बोरियाबिस्तर बांध कर तैयारी कर ली. अपनी चौपड़ और ताश उठा लिए और जाने के लिए तैयार हो गईं.

यह बात बाबा को पता चली तो बाबा ने वही बातें कहनी शुरू कर दीं जो दादी से अलग होने पर अम्मा से किया करते थे, ‘‘अरी बेटी, मैं मर कर नरक में जाऊं जो तू मेरी आवाज फिर सुने.’’

अम्मा के कोई जवाब न देने पर वे दादी के सामने ही गिड़गिड़ाने लगे, ‘‘सुमेर की मां, आप मुझे जीतेजी क्यों मार रही हो. आप के बिना यह लाचार बुड्ढा कैसे जिएगा.’’

इतना सुनते ही दादी का मन पिघल गया और वे धीरे से बोलीं, ‘‘अच्छा, नहीं जाती,’’ दादी ने चाचा से कह दिया, ‘‘तेरे पिताजी ठीक ही तो कह रहे हैं न, मैं नहीं जाऊंगी,’’ और दादी ने अपना बंधा सामान, अपना बक्सा, ताश, चौपड़ सब कुछ उठा कर खुद ही अंदर रख दिया.

चाचा को उसी दिन लौटना था अत: वे चले गए. शाम को मैं चाय ले कर बाबा के पास गई तो बाबा ने कहा, ‘‘सिम्मी बच्ची, पहले अपनी दादी को दे,’’ और फिर खुद ही बोले, ‘‘सुमेर की मां, सिम्मी चाय लाई है, चाय पी लो.’’

दादी भी वाणी में मिठास घोल कर बड़े स्नेह से बोलीं, ‘‘अजी आप पियो, मेरे लिए और ले आएगी.’’

एक बात और बड़ी मजेदार थी, जब अलग होने की बात होती तो तूतड़ाक से बात करने वाले मेरे बाबा और दादी आपआप कर के बात करते थे जो हमारे लिए मनोरंजन का साधन बन जाती थी. लेकिन ऐसे क्षण कभीकभी ही आते थे, और दादीबाबा कभीकभी ही बिना लड़ेझगड़े साथ बैठते थे. आज भी ऐसा ही हुआ था. ये आपआप और धीमा स्वर थोड़ी ही देर चला क्योंकि पड़ोस के मेजर अंकल दादी के साथ ताश खेलने आ गए थे.

बाबा की तबीयत खराब हुए कई दिन हो गए थे. दादी को विशेष मतलब नहीं था उन की तबीयत से. एक दिन बाबा की तबीयत कुछ ज्यादा ही खराब हो गई. बाबा कहने लगे, ‘‘आज मैं नहीं बचूंगा. अपनी दादी से कहो, मेरे पास आ कर बैठे, मेरा जी बहुत घबरा रहा है.’’

दादी की ताश की महफिल जमी हुई थी. हम उन्हें बुलाने गए मगर दादी ने हांहूं, अच्छा आ रही हूं, कह कर टाल दिया. वह तो अम्मा डांटडपट कर दादी को ले आईं. दादी बेमन से आई थीं बाबा के पास.

दादी बाबा के पास आईं तो बाबा ने बस इतना ही कहा था, ‘‘सुमेर की मां, तू आ गई, मैं तो चला,’’ और दादी का जवाब सुने बिना ही बाबा हमेशा के लिए चल बसे.

तेरहवीं के बाद सब रिश्तेदार चले गए. शाम को दादी अपने कमरे में गईं. वे बिलकुल गुमसुम हो गई थीं हालांकि बाबा की मृत्यु होने पर न वे रोई थीं न ही चिल्लाई थीं. दादी ने खाना छोड़ दिया, वे किसी से बात नहीं करती थीं. ताश, चौपड़ को उन्होंने हाथ नहीं लगाया. जब कोई ताश खेलने आता तो दादी अंदर से मना करवा देतीं कि उन की तबीयत ठीक नहीं है. अम्मा या पापा दादी से बात करने का प्रयास करते तो दादी एक ही जवाब देतीं, ‘‘मेरा जी अच्छा नहीं है.’’

एक दिन अम्मा, दादी के पास गईं और बोलीं, ‘‘मांजी, कमरे से बाहर आओ, चलो ताश खेलते हैं, आप ने तो बात भी करना छोड़ दिया. दिनभर इस कमरे में पता नहीं क्या करती हो. चलो, आओ, लौबी में ताश खेलेंगे.’’

दादी के चिरपरिचित जवाब में अम्मा ने फिर कहा, ‘‘मांजी, ऐसी क्या नफरत हो गई आप को ताश से. इस ताश के पीछे आप ने सारी उम्र पिताजी की गालियां और बेंत खाए. जब पिताजी मना किया करते थे तो आप खेलने से रुकती नहीं थीं और अब वे मना करने के लिए नहीं हैं तो 3 महीने से आप ने ताश छुए भी नहीं. देखो, आप की चौपड़ पर कितनी धूल जम गई है.’’

अब दादी बोलीं, ‘‘परसों होंगे 3 महीने. मेरा उन के बिना जी नहीं लगता. सुमेर के पिताजी, मुझे भी अपने पास बुला लो. मुझे नहीं जीना अब.’’

दादी की मनोकामना पूरी हुई. बाबा के मरने के ठीक 3 महीने बाद उसी तिथि को दादी ने प्राण त्याग दिए. यानी दादी अपने कमरे में जो गईं तो 3 महीने बाद मर कर ही बाहर आईं.

दादीबाबा को हम ने कभी प्रेम से बैठ कर बातें करते नहीं देखा था, लेकिन दादी बाबा की मौत का गम नहीं सह पाईं और बाबा के पीछेपीछे ही चली गईं. उन के ताश, चौपड़ वैसे के वैसे ही रखे हुए हैं.

Family Love Story

Family Story: तुम्हारा जवाब नहीं

Family Story: अपनी शादी का वीडियो देखते हुए मैं ने पड़ोस में रहने वाली वंदना भाभी से पूछा, ‘‘क्या आप इस नीली साड़ी वाली सुंदर औरत को जानती हैं?’’

‘‘इस रूपसी का नाम कविता है. यह नीरज की भाभी भी है और पक्की सहेली भी. ये दोनों कालेज में साथ पढ़े हैं और इस का पति कपिल नीरज के साथ काम करता है. तुम यह समझ लो कि तुम्हारे पति के ऊपर कविता के आकर्षक व्यक्तित्व का जादू सिर चढ़ कर बोलता है,’’ मेरे सवाल का जवाब देते हुए वे कुछ संजीदा हो उठी थीं.

‘‘क्या आप मुझे इशारे से यह बताने की कोशिश कर रही हैं कि नीरज और कविता भाभी के बीच कोई चक्कर है?’’

‘‘मानसी, सच तो यह है कि मैं इस बारे में कुछ पक्का नहीं कह सकती. कविता के पति कपिल को इन के बीच के खुलेपन से कोई शिकायत नहीं है.’’

‘‘तो आप साफसाफ यह क्यों नहीं कहतीं कि इन के बीच कोई गलत रिश्ता नहीं है?’’

‘‘स्त्रीपुरुष के बीच सैक्स का आकर्षण नैसर्गिक है. यह देवरभाभी के पवित्र रिश्ते को भी दूषित कर सकता है. जल्द ही तुम्हारी कविता और कपिल से मुलाकात होगी. तब तुम खुद ही अंदाजा लगा लेना कि तुम्हारे साहब और उन की लाडली भाभी के बीच किस तरह के संबंध हैं.’’

‘‘यह बात मेरी समझ में आती है. थैंक यू भाभी,’’ मैं ने उन के गले से लग कर उन्हें धन्यवाद दिया और फिर उन्हें अच्छा सा नाश्ता कराने के काम में जुट गई.

पहले मैं अपने बारे में कुछ बता देती हूं. प्रकृति ने मुझे सुंदरता देने की कमी शायद जीने का भरपूर जोश व उत्साह दे कर पूरी की है. फिर होश संभालने के बाद 2 गुण मैं ने अपने अंदर खुद पैदा किए. पहला, मैं ने नए काम को सीखने में कभी आलस्य नहीं किया और दूसरा यह है कि मैं अपने मनोभाव संबंधित व्यक्ति को बताने में कभी देर नहीं लगाती हूं.

मेरा मानना है कि इस कारण रिश्तों में गलतफहमी पैदा होने की नौबत नहीं आती है. जिंदगी की चुनौतियों का सामना करने में मेरे इन सिद्धांतों ने मेरा बहुत साथ दिया है. तभी वंदना भाभी की बातें सुनने के बावजूद कविता भाभी को ले कर मैं ने अपना मन साफ रखा था.

हम शिमला में सप्ताह भर का हनीमून मना कर कल ही तो वापस आए थे. मैं तो वहां से नीरज के प्रेम में पागल हो कर लौटी हूं. लोग कहते हैं कि ऐसा रंगीन समय जिंदगी में फिर कभी लौट कर नहीं आता. अत: मैं ने तय कर लिया कि इस मौजमस्ती को आजीवन अपने दांपत्य जीवन में जिंदा रखूंगी.

उसी दिन कपिल भैया ने नीरज को फोन कर के हमें अपने घर रात के खाने पर आने के लिए आमंत्रित किया था. वहां पहुंचने के आधे घंटे के अंदर ही मुझे एहसास हो गया कि इन तीनों के बीच दोस्ती के रिश्ते की जड़ें बड़ी मजबूत हैं. वे एकदूसरे की टांग खींचते हुए बातबात में ठहाके लगा रहे थे.

मुझे कपिल भैया का व्यक्तित्व प्रभावशाली लगा. वे जोरू के गुलाम तो बिलकुल नहीं लगे पर कविता का जादू उन के भी सिर चढ़ कर बोलता था. मेरे मन में एकाएक यह भाव उठा कि यह इनसान मजबूत रिश्ता बनाने के लायक है. अत: मैं ने विदा लेने के समय भावुक हो कर उन से कह दिया, ‘‘मैं ने तो आप को आज से अपना बड़ा भाई बना लिया है. इस साल मैं आप को राखी बांधूंगी और आप से बढि़या सा गिफ्ट लूंगी.’’

‘‘श्योर,’’ मेरी बात सुन कर कपिल भैया के साथसाथ उन की मां की आंखें भी नम हो गई थीं. मुझे बाद में नीरज से पता चला कि उन की इकलौती छोटी बहन 8 साल की उम्र में दिमागी बुखार का शिकार हो चल बसी थी.

अगले दिन शाम को मैं ने फोन कर के नीरज से कहा कि वे कपिल भैया के साथ आफिस से सीधे कविता भाभी के घर आएं.

वे दोनों आफिस से लौटीं. कविता भाभी के पीछेपीछे घर में घुसे. यह देख कर उन सब ने दांतों तले उंगलियां दबा ली थीं कि कविता भाभी का सारा घर जगमग कर रहा था. मैं ने कविता भाभी की सास के बहुत मना करने के बावजूद पूरा दिन मेहनत कर के सारे घर की सफाई कर दी थी.

कविता भाभी की सास खुले दिल से मेरी तारीफ करते हुए उन सब को बारबार बता रही थीं, ‘‘तेरी बहू का जवाब नहीं है, नीरज. कितनी कामकाजी और खुशमिजाज है यह लड़की.’’

‘‘तुम अभी नई दुलहन हो और वैसे भी ये सब तुम्हें नहीं करना चाहिए था,’’ कविता भाभी कुछ परेशान और चिढ़ी सी प्रतीत हो रही थीं.

‘‘भाभी, मेरे भैया का घर मेरा मायका हुआ और नई दुलहन के लिए अपने मायके में काम करने की कोई मनाही नहीं होती है. अपनी कामकाजी भाभी का घर संवारने में क्या मैं हाथ नहीं बंटा सकती हूं?’’ उन का दिल जीतने के लिए मैं खुल कर मुसकराई थी.

‘‘थैंक यू मानसी. मैं सब के लिए चाय बना कर लाती हूं,’’ कह कर औपचारिक से अंदाज में मेरी पीठ थपथपा कर वे रसोई की तरफ चली गईं.

मुझे एहसास हुआ कि उन की नाराजगी दूर करने में मैं असफल रही हूं. लेकिन मैं भी आसानी से हार मानने वालों में नहीं हूं. उन्हें नाराजगी से मुक्त करने के लिए मैं उन के पीछेपीछे रसोई में पहुंच गई.

‘‘आप को मेरा ये सब काम करना

अच्छा नहीं लगा न?’’ मैं ने उन से भावुक हो कर पूछा.

‘‘घर की साफसफाई हो जाना मुझे क्यों अच्छा नहीं लगेगा?’’ उन्होंने जबरदस्ती मुसकराते हुए मुझ से उलटा सवाल पूछा.

‘‘मुझे आप की आवाज में नापसंदगी के भाव महसूस हुए, तभी तो मैं ने यह सवाल पूछा. आप नाराज हैं तो मुझे डांट लें, पर अगर जल्दी से मुसकराएंगी नहीं तो मुझे रोना आ जाएगा,’’ मैं किसी छोटी बच्ची की तरह से मचल उठी थी.

‘‘किसी इनसान के लिए इतना संवेदनशील होना ठीक नहीं है, मानसी. वैसे मैं नाराज नहीं हूं,’’ उन्होंने इस बार प्यार से मेरा गाल थपथपा दिया तो मैं खुशी जाहिर करते हुए उन से लिपट गई.

उन्हें मुसकराता हुआ छोड़ कर मैं ड्राइंगरूम में लौट आई. वे जब तक चाय बना कर लाईं, तब तक मैं ने कपिल भैया और नीरज को अगले दिन रविवार को पिकनिक पर चलने के लिए राजी कर लिया था.

रविवार के दिन हम सुबह 10 बजे घर से निकल कर नेहरू गार्डन पहुंच गए. मैं बैडमिंटन अच्छा खेलती हूं. उस खूबसूरत पार्क में मेरे साथ खेलते हुए भाभी की सांसें जल्दी फूल गईं तो मैं उन के मन में जगह बनाने का यह मौका चूकी नहीं थी, ‘‘भाभी, आप अपना स्टैमिना बढ़ाने व शरीर को लचीला बनाने के लिए योगा करना शुरू करो,’’ मेरे मुंह से निकले इन शब्दों ने नीरज और कपिल भैया का ध्यान भी आकर्षित कर लिया था.

‘‘क्या तुम मुझे योगा सिखाओगी?’’ भाभी ने उत्साहित लहजे में पूछा.

‘‘बिलकुल सिखाऊंगी.’’

‘‘कब से?’’

‘‘अभी से पहली क्लास शुरू करते हैं,’’ उन्हें इनकार करने का मौका दिए बगैर मैं ने कपिल भैया व नीरज को भी चादर पर योगा सीखने के लिए बैठा लिया था.

‘‘मुझे योगा भी आता है और एरोबिक डांस करना भी. मेरी शक्लसूरत ज्यादा अच्छी  नहीं थी, इसलिए मैं ने सजनासंवरना सीखने पर कम और फिटनेस बढ़ाने पर हमेशा ज्यादा ध्यान दिया,’’ शरीर में गरमाहट लाने के लिए मैं ने उन्हें कुछ एक्सरसाइज करवानी शुरू कर दीं.

‘‘तुम अपने रंगरूप को ले कर इतना टची क्यों रहती हो, मानसी?’’ कविता भाभी की आवाज में हलकी चिढ़ के भाव शायद सब ने ही महसूस किए होंगे.

मैं ने भावुक हो कर जवाब दिया, ‘‘मैं टची नहीं हूं, बल्कि उलटा अपने साधारण रंगरूप को अपने लिए वरदान मानती हूं. सच तो यही है कि सुंदर न होने के कारण ही मैं अपने व्यक्तित्व का बहुमुखी विकास कर पाई हूं. वरना शायद सिर्फ सुंदर गुडि़या बन कर ही रह जाती… सौरी भाभी, आप यह बिलकुल मत समझना कि मेरा इशारा आप की तरफ है. आप को तो मैं अपनी आइडल मानती हूं. काश, कुदरत ने मुझे आप की आधी सुंदरता दे दी होती, तो मैं आज अपने पति के दिल की रानी बन कर रह रही होती.’’

‘‘अरे, मुझे क्यों बीच में घसीट लिया और कौन कहता है कि तुम मेरे दिल की रानी नहीं हो?’’ नीरज का हड़बड़ा कर चौंकना हम सब को जोर से हंसा गया.

‘‘वह तो मैं ने यों ही डायलौग मारा है,’’ और मैं ने आगे बढ़ कर सब के सामने ही उन का हाथ चूम लिया.

वह मेरी इस हरकत के कारण शरमा गए तो कपिल भैया ठहाका मार कर हंस पड़े. हंसी से बदले माहौल में भाभी भी अपनी चिढ़ भुला कर मुसकराने लगी थीं.

कविता भाभी योगा सीखते हुए भी मुझे ज्यादा सहज व दिल से खुश नजर नहीं आ रही थीं. सब का ध्यान मेरी तरफ है, यह देख कर शायद कविता भाभी का मूड उखड़ सा रहा था. उन के मन की शिकायत को दूर करने के लिए मैं ने तब कुछ देर के लिए अपना सारा ध्यान भाभी की बातें सुनने में लगा दिया. उन्होंने एक बार अपने आफिस व वहां की सहेलियों की बातें सुनानी शुरू कीं तो सुनाती ही चली गईं.

जल्द ही मैं उन के साथ काम करने वाले सहयोेगियों के नाम व उन के व्यक्तित्व की खासीयत की इतनी सारी जानकारी अपने दिमाग में बैठा चुकी थी कि उन के साथ भविष्य में कभी भी आसानी से गपशप कर सकती थी.

‘‘आप के पास बातों को मजेदार ढंग से सुनाने की कला है. आप किसी भी पार्टी की रौनक बड़ी आसानी से बन जाती होंगी,

कविता भाभी,’’ मेरे मुंह से निकली अपनी इस तारीफ को सुन कर भाभी का चेहरा फूल सा खिल उठा था.

उस रात को नीरज ने जब मुझे मस्ती भरे मूड में आ कर प्यार करना शुरू किया तब मैं ने भावुक हो कर पूछा, ‘‘मैं ज्यादा सुंदर नहीं हूं, इस बात का तुम्हें कितना अफसोस है?’’

‘‘बिलकुल भी नहीं,’’ वह मस्ती से डूबी आवाज में बोले.

‘‘अगर मैं भाभी से अपनी तुलना करती हूं तो मेरा मन उदास हो जाता है.’’

‘‘पर तुम उन से अपनी तुलना करती ही क्यों हो?’’

‘‘आप के दोस्त की पत्नी इतनी सुंदर और आप की इतनी साधारण. मैं ही क्या, सारी दुनिया ऐसी तुलना करती होगी. आप भी जरूर करते होंगे.’’

‘‘तुलना करूं तो भी उन के मुकाबले तुम्हें इक्कीस ही पाता हूं, यह बात तुम हमेशा के लिए याद रख लो, डार्लिंग.’’

‘‘सच कह रहे हो?’’

‘‘बिलकुल.’’

‘‘मैं शादी से पहले सोचती थी कि कहीं मैं अपने साधारण रंगरूप के कारण अपने पति के मन न चढ़ सकी तो अपनी जान दे दूंगी.’’

‘‘वैसा करने की नौबत कभी नहीं आएगी, क्योंकि तुम सचमुच मेरे दिल की रानी हो.’’

‘‘आप अगर कभी बदले तो पता है क्या होगा?’’

‘‘क्या होगा?’’

मैं ने तकिया उठाया और उन पर पिल पड़ी, ‘‘मैं तकिए से पीटपीट कर तुम्हारी जान ले लूंगी.’’

वह पहले तो मेरी हरकत पर जोर से चौंके पर फिर मुझे खिलखिला कर हंसता देख उन्होंने भी फौरन दूसरा तकिया उठा लिया.

हमारे बीच तकियों से करीब 10 मिनट तक लड़ाई चली. बाद में हम दोनों अगलबगल लेट कर लड़ने के कारण कम और हंसने के कारण ज्यादा हांफ रहे थे.

‘‘आज तो तुम ने बचपन याद करा दिया, स्वीट हार्ट, यू आर ग्रेट,’’ उन्होंने बड़े प्यार से मेरी आंखों में झांकते हुए मेरी तारीफ की.

‘‘तुम्हें बचपन की याद आ रही है और मेरे ऊपर जवानी की मस्ती छा गई है,’’ यह कह कर मैं उन के चेहरे पर जगहजगह छोटेछोटे चुंबन अंकित करने लगी. उन्हें जबरदस्त यौन सुख देने के लिए मैं उन की दिलचस्पी व इच्छाओं का ध्यान रख कर चल रही हूं. अपना तो यही फंडा है कि एलर्ट हो कर संवेदनशीलता से जिओ और नएनए गुण सीखते चलो.

मेरी आजीवन यही कोशिश रहेगी कि मैं अपने व्यक्तित्व का विकास करती रहूं ताकि हमारे दांपत्य में ताजगी व नवीनता सदा बनी रहे. उन का ध्यान कभी इस तरफ जाए ही नहीं कि उन की जीवनसंगिनी की शक्लसूरत बहुत साधारण सी है.

वे होंठों पर मुसकराहट, दिल में खुशी व आंखों में गहरे प्रेम के भाव भर कर हमेशा यही कहते रहें, ‘‘मानसी, तुम्हारा जवाब नहीं.’’

Family Story

Relationship Tips: ऐक्स कांट बी गैस्ट

Relationship Tips: आज राकेश के आंसू नहीं रुक रहे थे. आखिर प्रियंका दुलहन बन किसी से शादी जो कर रही थी. दोनों के बीच का प्यार खत्म हो चुका था लेकिन दोस्ती आज भी थी. इसी दोस्ती के चलते प्रियंका ने राकेश को शादी में बुलाया था और राकेश भी उस का मान रखने चला गया. लेकिन क्या अब राकेश के आंसू और लोगों की कानाफूसी प्रियंका और उस के घर वालों का मान रख पाएगी? क्या प्रियंका का दूल्हा ये सब इतनी आसानी से स्वीकार कर पाएगा? जवाब है नहीं.

माना जमाना बदल रहा है मगर इतना भी नहीं कि अपनी शादी में अपने ऐक्स बौयफ्रैंड अर्थात पुराने प्रेमी को न्योता दिया जाए. पुराने प्रेमी की मौजूदगी भले कुछ देरी के लिए क्यों न हो वह आप के वर्तमान साथी को एक पल भी हजम नहीं होगी और जब बुलाने वाली एक लड़की हो तो बात और गंभीर हो जाती है.

भारत में आज भी लड़की का कोई बौयफ्रैंड होना अपनेआप में ही समाज और परिवार के लिए एक आपत्ति का विषय है. दूसरा अब उस की शादी में कोई ऐक्स आ जाए तो यह तो सीधा परिवार की मानमर्यादा को ठेस पहुंचाने और लड़की के चरित्रहीन होने का रूप ले लेता है.

चाहे आप का पति कितना ही मौडर्न क्यों न हो इन बातों के लिए एक पुरानी और कठोर सोच ही रखेगा और वैसे भी मौडर्न होने का मतलब यह नहीं कि ऐक्स से तालमेल बना कर चलें. मौडर्न होने का मतलब यह है कि पुराने प्रेमी को और उस की हर याद, बात को पीछे छोड़ आगे बढ़े अपने पुराने रिश्ते अपने वर्तमान रिश्तों से हमेशा कोसों दूर रखें. पुराने समय की बातें, वादे, यहां तक कि यादें भी और यह बात लड़कालड़की दोनों पर पूरी लागू होती है.

जो रिश्ते टूट गए और जो लोग छूट गए उन्हें पीछे ही रहने दिया जाना चाहिए न कि आज में शामिल कर अपना आने वाला कल संकट में डालना चाहिए. भारत क्या, इतने मौडर्न तो यूरोपीयन, अमेरिकन लोग भी नहीं जो अपने ऐक्स को अपनी शादी में इन्वाइट करें. वे भी अपने ऐक्स को अपनी मौजूदा जिंदगी से दूर रखना पसंद करते हैं.

ऐक्स को अपनी शादी में बुलाना अपने जीवन में एक तूफान को न्योता देने से कम नहीं. इसी तर्क की गंभीरता को कुछ पौइंट्स से समझाने का प्रयास करें:

इमोशनल डैमेज: आप का पार्टनर भले ही बहुत प्रैक्टिकल और मैंटली स्ट्रौंग हो लेकिन आप के ऐक्स को अपनी ही शादी में देख वह मैंटली डिस्टर्ब या अनकंफर्टेबल जरूर महसूस करेगा. आप के ऐक्स की मौजूदगी वह भी इतने खास दिन उसे सैल्फ डाउट में डाल देगी.

ड्रामा: ऐक्स का होना पुरानी यादों की बरात लाने जैसा होगा जो किसी भी वक्त पूरे खुशनुमा माहौल को एक फिल्मी ड्रामा में बदल सकता है. न जाने कब आप के प्रेमी की दिली उमंगें जोर मारने लगें और वह आप की बरात में आप के और अपने पुराने गीत गुनगुनाना शुरू कर दे.

कानाफूसी और तिरस्कार: ऐसा तो होगा नहीं कि शादी में आप के ऐक्स को आप के अलावा कोई जानता न हो. उसे जाननेपहचाने वाले वहां कुछ लोग तो मौजूद होंगे ही. अब वे आप के ऐक्स को ले कर तरहतरह की बातें करेंगे जो धीरेधीरे आप के और आप के ससुराल वालों के कान तक चली जाएंगी. अब आप खुद ही सोचिए कि क्या ये बातें सुन वे शादी में सीना चौड़ा करेंगे या शादी में हंगामा अथवा आप से रुसवाई? भला कोई भी परिवार अपनी बेटी या बहू के पुराने प्रेमी की आवभगत करेगा?

संदेह: अपने ऐक्स को अपनी शादी में बुला आप स्वयं ही अपनी ईमानदारी और चरित्र पर अपने पार्टनर और समाज को उंगली उठाने या संदेह करने का मौका दे रही हैं. आप का पार्टनर यही सोचेगा कि आप आज तक अतीत को भूल नहीं पाई हैं या आप अपना आज और बीता कल दोनों साथ ले कर चलना चाहती हैं जो किसी भी व्यक्ति को मंजूर नहीं होगा और न ही यह करना किसी भी रूप में उचित है.

भविष्य पर प्रश्न चिह्न: जिस तरह आप ने बड़ी सहजता से उसे यानी अपने ऐक्स को अपने आज, अपनी शादी में शामिल कर लिया क्या गारंटी है कि आप उसे अपने आने वाले कल यानी भविष्य में नहीं जोड़ेंगी? जिस तरह आज आप ने उसे अपनी शादी में बुलाया है क्या पता कल आप उसे घरप्रवेश या अपने बच्चे के बर्थडे पर भी इनवाइट करें.

हां यह भी सच है कि कुछ लोग ब्रेकअप के बाद भी अच्छे दोस्त रह एकदूसरे का हालचाल जान लेते हैं या एकदूसरे के फंक्शन में आतेजाते हैं लेकिन ये लोग कुछ चुनिंदा लोग ही है. जैसे पुराने समय से दोस्त या किसी गु्रप का हिस्सा जो आज भी सब लोगों को जोड़े हुए है ठीक वैसे ही अगर आप भी और आप का पार्टनर और आप का ऐक्स तीनों ही दोस्त थे या किसी सेम गु्रप का हिस्सा थे जैसे स्कूल फ्रैंड, कालेज या औफिस गु्रप तो जाहिर है आप तीनों ही एकदूसरे को अच्छे से जानते होंगे और आप का कोई भी रिश्ता आप तीनों से छिपा नहीं होगा. इस सूरत में अगर आज भी आप का ऐक्स आप के किसी फ्रैंड सर्कल का हिस्सा है तो हां उसे इन्वाइट कर सकते हैं. लेकिन इस में भी कुछ शर्ते हैं जैसे:

– दोनों का ब्रेकअप एकदूसरे की सहमति से हुआ हो.

– ब्रेकअप में किसी ने कोई मर्यादा भंग न की हो.

– किसी भी तरह की हिंसा न हुई हो.

– आज की वर्तनाम स्थिति में आप दोनों हर रूप से एकदूसरे के लिए सिर्फ एक आम दोस्त हों.

– ऐक्स को बुलाने का फैसला सहमति से लिया गया हो अर्थात आप और आप के साथी यानी होने वाले पति ने एकदूसरे से परामर्श कर के ही लिया हो.

– अगर उस की मौजूदगी से आप या आप के साथी पर व्यंग्य कसे जाएं तो आप उस के लिए पहले से मैंटली और इमोशनली तैयार हों.

– सब से महत्त्वपूर्ण यह कि आप को यह पूरा भरोसा हो कि वह आप की शादी में एक अतिथि की मर्यादा में ही रहेगा कोई हंगामा या ड्रामा नहीं करेगा.

अब यहां आप यह प्रश्न करें कि आप के होने वाले पति की मंजूरी या उस से परामर्श क्यों जरूरी है? तो आप इतना समझ लीजिए कि कोई भी आदमी चाहे कितना भी मौडर्न हो अपने साथी का ऐक्स अपनी बगल में सहन नहीं करेगा. भले वह उस घड़ी चुप रह जाए लेकिन बाद में आप से कई सवाल करेगा. यह आप के बनते रिश्ते में पहली दरार का काम करेगा. दूसरा वी बाद में भी चुप्पी लगा जाए लेकिन मन ही मन इतना चोटिल होगा कि आप पर से उस का विश्वास अब एक शक के दायरे में आ चुका होगा.

आप का पति यही सोचता रहेगा कि आप आज भी अपने ऐक्स से जुड़ी हैं. उसे मन ही मन आज भी चाहती हैं या फिर येह कि आप भविष्य में कभी भी अपने ऐक्स के पास वापस जा सकती हैं. इस तरह आप का पति आप पर विश्वास कर पाएगा और न प्यार और आप का शादीशुदा जीवन हमेशा एक कमजोर रिश्ता बन कर रह जाएगा. आप यह जानतीसमझती हैं कि कमजोर रिश्ते ज्यादा दिन नहीं बने रहते.

आप यहां यह नहीं कह सकतीं कि आप का पति शक्की है और सारी गलती उसी की है क्योंकि आप के पति के मन के भीतर शक का बीज स्वयं आप ने बोया है.

आजकल हरकोई अपनी शादी बौलीवुड मूवीज की शादी की तरह ड्रामैटिक बनाना चाहता है, जिस के लिए बहुत लड़कियां अपने ऐक्स को अपनी शादी में बुलानचा और गवा रही हैं और वे लड़के भी बड़ी सहजता से ट्रेंडिंग होने के लिए शादी में शामिल हो नाचगा रहे हैं जो एडवांस्ड समाज में उदाहरण नहीं बल्कि एक ओछी हरकत है. यहां बुलाने वाली लड़की यानी दुलहन और आने वाला उस का ऐक्स दोनों सिर्फ सोशल प्लेटफौर्म पर वायरल और ट्रेंडिंग होने के लिए हर रिश्ते और उस से जुड़ी गरिमा का मजाक बना रहे हैं ये इतनी भी समझ नहीं रखते कि ऐसा कर इस तरह 2 परिवारों की खिल्ली उड़ा रहे हैं.

अपेक्षा दूसरों से ही क्यों

समाज आज इतना भी एडवांस्ड नहीं हुआ जहां आप खुलेआम अपने पुराने प्रेमी को अपनी ही शादी में अपने पति से मिलाएं. आप स्वयं सोचिए कि अगर आप के पति अपनी पुरानी गर्लफ्रैंड को शादी में इन्वाइट करें और आप की बगल में बैठा तसवीर लें तो क्या आप को खुशी होगी? क्या आप पोस बना फोटो शूट करवाएंगी. नहीं बल्कि आप तो मन ही मन उस की ऐक्स के बाल और मुंह नोचने की सोच रखती होंगी. तो फिर ऐक्स को बुलाने और उसे अतिथि की तरह सहज स्वीकार करने की अपेक्षा अपने पति से क्यों रखी है?

जिस तरह 2 नावों में पैर रख सवारी करना मुमकिन नहीं ठीक वैसे ही एक पांव अतीत में और दूसरा वर्तमान में रख भविष्य की दूरी तय नहीं की जा सकती. फिर भी आप यह दुहाई दें कि आप और आप का होने वाला पति बहुत ओपन माइंडेड है, उसे आप के ऐक्स के आने से कोई प्रौब्लम नहीं होगी और ऐक्स को बुलाना कोई हरज की बात नहीं तो यह आप का निजी फैसला है. इसलिए इस का परिणाम भी आप ही को भुगतना होगा.

Relationship Tips

Kids Nicknames: स्नेह की मीठी पुकार

Kids Nicknames:  जब मैं 4-5 साल की थी, मेरी दादी मुझे ‘गोलू’ बुलाती थीं. स्कूल से लौटते समय थकान और परेशानी के बावजूद दादी की यह पुकार मेरे सारे दुख भुला देती. यह सिर्फ नाम नहीं था, यह उन का प्यार और अपनापन था. मगर बड़े होने के बाद जब मुझे इस नाम से पुकारा जाने लगा तो मुझे सुन कर झिझक होती थी क्योंकि अब मैं गोलू यानी मोटी नहीं कहलाना चाहती थी.

मुझे लगता था कि इस से बेहतर मेरा कोई दूसरा प्यारा सा निक नेम होता तो ज्यादा अच्छा रहता क्योंकि निक नेक बचपन के प्यार के साथसाथ अपनापन जताने का भी तरीका लगता है मुझे. बचपन में किसी भी बच्चे की दुनिया उस के घर के आंगन से शुरू होती है, जहां मां की ममता, पिता का साया, दादीदादा की कहानियां और भाईबहनों की शरारतें होती हैं.

इसी स्नेहिल संसार में जन्म लेते हैं निकनेम यानी उपनाम जो सिर्फ नाम नहीं बल्कि प्यार का दूसरा नाम होते हैं. गोलू, चिंटू, बबलू, मुन्नी, सोनू, पिंकी इन नामों में कोई तर्क नहीं होता, लेकिन इन में सच्चा प्रेम और अपनापन होता है. ये नाम हमारे रिश्तों की जान होते हैं ऐसे रिश्ते जो औपचारिकता नहीं, भावना में जीते हैं.

बड़े होने पर झिझक क्यों जैसेजैसे हम बड़े होते हैं, इन नामों से घबराने के पीछे केवल ‘इमेज’ की चिंता नहीं होती. इस के अलावा कई और भावनात्मक और सामाजिक कारण भी होते हैं जैसे: इमेज की चिंता: हम समाज में अपनी प्रोफैशनल या गंभीर पहचान बनाना चाहते हैं. बचपन का निकनेम हमें बचपन की याद दिलाता है, जिस से हम दूरी बनाने लगते हैं.

मजाक बनने का डर: कभीकभी उपनाम इतना अलग या बचकाना होता है कि लोग चिढ़ाते हैं.

निजता की सीमा: कुछ नाम इतने निजी होते हैं कि केवल करीबी लोगों से सुनना अच्छे लगते हैं.

बीते अनुभवों से जुड़ी पीड़ा: अगर किसी नाम से जुड़ी कोई नकारात्मक या दुखद स्मृति हो तो वह नाम व्यक्ति को असहज कर देता है.

स्वछवि में बदलाव: हम अपनी नई पहचान लेखक, डाक्टर या प्रोफैशनल के रूप में बनाना चाहते हैं, मगर पुराने उपनाम कभीकभी नई छवि से मेल नहीं खाते.

विदेश बनाम भारत में सामाजिक अंतर

विदेशों में लोग बचपन के उपनाम को सहजता से स्वीकार करते हैं. वहां इसे मजाक या शर्म के बजाय अपनापन और व्यक्तिगत पहचान के रूप में देखा जाता है.

भारत में सामाजिक रूप से औपचारिकता और इमेज पर अधिक ध्यान दिया जाता है. बचकाने नामों को सार्वजनिक रूप से लेना ‘सिर झुकाने’ जैसा लगता है. समाज की तुलना, व्यंग्य और प्रतिष्ठा की भावना कारण बनती है कि लोग झिझकते हैं.

मातापिता के लिए सुझाव

– प्यार के साथ सम्मान दें. उपनाम स्नेहिल हो, अपमानजनक न हो.

– शारीरिक या मानसिक विशेषताओं पर आधारित नाम से रखने बचें.

– नाम में मिठास रखें, मजाक नहीं.

– प्राइवेसी का ध्यान रखें. कुछ नाम केवल घर की दीवारों तक सीमित रखें.

निकनेम क्या रखें और क्या न रखें

क्या रखें

– प्यार और स्नेह से प्रेरित नाम.

– बच्चों की पसंद शामिल करें.

– सकारात्मक अर्थ वाला नाम.

– आसान उच्चारण वाला और याद रखने योग्य.

– केवल करीबी परिवार या दोस्तों तक सीमित.

– भावनात्मक जुड़ाव और यादों से प्रेरित.

क्या न रखें

– अपमानजनक या चिढ़ाने वाला नाम.

– बच्चों की असहजता के बावजूद नाम चुनना.

– शारीरिक दोष या कमजोरियों पर आधारित नाम.

– जटिल, लंबा या अजीब नाम.

– सार्वजनिक रूप से मजाक बनाने वाला नाम.

– किसी पुरानी नकारात्मक स्मृति से जुड़ा नाम.

निकनेम से जुड़ी झिझक को कम करने के उपाय

– नाम के पीछे की भावना को समझें.

– इसे अपनी कहानी का हिस्सा मानें.

– अपनों को नाम का अधिकार दें.

– निकनेम को विशेषता समझें, कमजोरी नहीं.

– हलके अंदाज में ह्यूमर अपनाएं

– बच्चों को यह दृष्टिकोण सिखाएं.

– सोशल सर्कल में सीमाएं तय करें.

तो अगली बार जब कोई आप को गोलू, पिंकी या शोनू, कहे तो झेंपिए नहीं. मुसकराइए क्योंकि वह सिर्फ नाम नहीं, वह आप का रिश्ता बोल रहा है. यह आप को आप की जड़ों और प्यार से जोड़ता है. असली परिपक्वता तब है जब हम अपने भीतर के बच्चे को भी सहेजना जानें.

Kids Nicknames

Aparna Thyagarajan: फैशन और टैक से महिलाओं को आधुनिक बना रही हैं

Aparna Thyagarajan: (एडिटर्स चौइस अवार्ड थ्रैड औफ चेंज)अपर्णा त्यागराजन एक ऐसा नाम जो सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में एक असाधारण उ-मी और रणनीतिक निवेशक/साझेदार के रूप में जाना जाता है.

अपर्णा विश्व स्तर पर मान्यताप्राप्त डी2सी एथनिक फैशन ब्रैंड, शोबितम की सहसंस्थापक और मुख्य उत्पाद अधिकारी, शोबितम गिव और केयर फाउंडेशन की स्थापक और एक प्रमुख ऐंजेल निवेशक हैं.

टैक्नोलौजी, फैशन और सामाजिक उद्देश का समावेश लिए बदलाव की ओर अपर्णा की अग्रता बहुत ही सराहनीय है. अपर्णा की इसी अग्रता को प्रोत्साहित करते हुए गृहशोभा ने उन्हें गृहशोभा इंस्पायर अवार्ड्स में एडिटर्स चौइस अवार्ड से सम्मानित किया.

एक संस्थापक बनने से पहले का सफर

मद्रास यूनिवर्सिटी से कंप्यूटर ऐप्लिकेशन में मास्टर करने के बाद अपर्णा ने अपने इंजीनियरिंग कैरियर की शुरुआत की और अपने ज्ञान और कौशल से आगे बढ़ते हुए अमेरिका के सिएटल और सिलिकौन वैली में माइक्रोसौफ्ट में 7 साल से अधिक समय एक टेक लीड की भूमिका निभाई. बिंग, एमएसएन, फेसबुक इंटीग्रेशन और डायनेमिक्स एएक्स जैसे उत्पादों में अपना पूर्ण योगदान दिया. साथ ही ईकौमर्स, सौफ्टवेयर विकास और वैश्विक ब्रैंड बिल्डिंग में उन की निपुणता ने उन के भविष्य के लिए फैशन टैक्नोलौजी में एक मजबूत नींव तैयार की.

शोबितम ब्रैंड

महिला उ-मिता की चैंपियन के रूप में उन्होंने अपने पति के साथ बिट्स पिलानी में महिला उ-मिता के लिए शोबिटम सैंटर की स्थापना की है साथ ही अपर्णा ने सैंटर की स्थापना के लिए 1 करोड़ रुपए का दान दिया ताकि कालेज के दिनों से ही महिला उ-मियों को पोषण और समर्थन मिल सके. अपर्णा का यह योगदान महिला उ-मियों को प्रेरित करने की उन की निष्ठा को दर्शाता है.

आज शोबितम विश्व स्तर पर एक ऐसा ब्रैंड तैयार कर रहा है जो सुंदर, किफायती होने के साथसाथ दुनियाभर में उपलब्ध हो. भारत के 24 समूहों और 640 से अधिक कुशल बुनकरों और कारीगरों के साथ मिल कर शोबितम अनूठी डिजाइनें तैयार करते हैं. विश्व स्तरीय औनलाइन प्लेटफौर्म के माध्यम से पिछले

3 वर्षों में अपने शुद्ध रेशम, कीमतों और फाइव स्टार सर्विस से शोबितम ने 12 गुना की बढ़ोतरी की है, 45+देशों में सैकड़ों हजारों ग्राहकों को सेवा प्रदान की है.

शोबितम द्वारा जीते गए कुछ मुख्य अवार्ड्स

– सर्वश्रेष्ठ डी2सी फैशन अवार्ड.

– कस्टमर ऐक्सीलैंस अवार्ड.

– रिटेल स्टार्टअप औफ द ईयर अवार्ड

– डी2सी समिट पिनेकल अवार्ड.

– और कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार.

शोबितम के अनुभव में ग्राहक जनून मुख्य स्रोत है, जिस की झलक साफतौर पर उन के 11000+ ग्राहकों के फाइव स्टार समीक्षाओं में देखने को मिलती है.

शोबितम गिव और केयर फाउंडेशन

अपने देश के प्रति सामाजिक कर्तव्य को पूरा करते हुए अपर्णा ने शोबितम गिव और केयर फाउंडेशन की स्थापना की जो पूरे भारत में बुनकरों और कारीगरों के 700 से अधिक परिवारों को भोजन और घरेलू आपूर्ति के साथसाथ उन के बच्चों के लिए शैक्षिक सहायता भी प्रदान करती है. इस के अलावा भारत भर में जरूरतमंदों की मदद करने के लिए शोबितम ने ऐक्ट्रैस विद्या बालन के साथ मिल कर भूख निवारण के लिए एक नया अभियान शुरू किया, प्तशोबितम ट्रांस्फौर्मिंग लिव्स. इस अभियान के तहत बेची गई प्रत्येक साड़ी से प्राप्त की गई धनराशि का उपयोग भारत में एक जरूरतमंद व्यक्ति को भोजन कराने के लिए किया जा रहा है.

अमेरिका और भारत की एक अनुभवी निवेशक के रूप में अपर्णा JIO इंडियन ऐंजेल्स शो में लीड ऐंजेल थीं. इनोवेशन को बढ़ावा देने के लिए और ट्रांसफौर्मेशन दृष्टिकोण का समर्थन करने की पहल में अपर्णा ने एक ऐंजेल के रूप में कई उ-मों को रणनीतिक समर्थन प्रदान किया और 8 होनहार भरोसेमंद स्टार्टअप को उड़ान देने के लिए एक पथ प्रशस्त करने में भी बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई. यही नहीं अपर्णा ने दर्जनों उ-मों में निवेश किया है, जिस से वे कई होनहार महिला उद्यमियों में निवेश कर वे एक प्रमुख ऐंजेल निवेशक के रूप में सामने आईं. उन की प्रतिबद्धता एक वित्तीय सहायता तक ही सीमित नहीं है बल्कि वे इनइनोवेटिव स्टार्टअप में अपनी पूरी क्षमता से सक्रिय मार्गदर्शन, सहयोग और परामर्श देने की भूमिका निभाती हैं.

Aparna Thyagarajan

Dr. Kamini Rao: भारत के सहायक प्रजनन के क्षेत्र में अग्रणी भूमिका

Dr. Kamini Rao: (एडिटर्स चौइस अवार्ड हैल्थ केयर लीडरशिप) डा. कामिनी राव भारत की एक प्रतिभाशाली और विशेष मैडिसिन विशेषज्ञों में से एक हैं. इन की विशेषज्ञता से इन्हें रिप्रोडक्टिव (प्रजनन) मैडिसिन में पद्मश्री पुरस्कार का सम्मान प्राप्त हुआ जो भारत का एक सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार है. आज एक ओर डा. कामिनी के नेतृत्व में बहुत से मैडिकल विशेषज्ञ शिक्षा और ट्रेनिंग ले आईवीएफ और रिप्रोडक्टिव मैडिसिन क्षेत्र में सफल हो रहे हैं तो दूसरी ओर कई संतानहीन महिलाएं मातृत्व का वरदान प्राप्त कर रही हैं.

डा. कामिनी के मातृ कल्याण और स्वास्थ्य के प्रति मैडिकल क्षेत्र में उन के प्रयासों की सरहाने करते हुए, गृहशोभा ने उन्हें गृहशोभा इंस्पायर अवार्ड्स में ऐडिटर्स चौइस अवार्ड (हैल्थ केयर लीडरशिप) पेश दिया.

आईवीएफ सैंटर के लिए एक मजबूत ढांचा ‘मिलन’

डा. कामिनी राव भारत में रिप्रोडक्टिव (प्रजनन) मैडिसिन, साइंस और ऐजुकेशन में एक बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं. महिलाओं के बच्चे को जन्म देने के मौलिक अधिकार को पूरा करने के लिए वे हर संभव प्रयास करती आ रही हैं, जिस का उदाहरण है ‘मिलन.’ ‘मिलन’ एक प्रजनन शृंखला है जिस की स्थापना डा. कामिनी ने की. ‘मिलन’ को पहले बीएसीसी हैल्थकेयर के नाम से जाना जाता था. आज वह एक ब्रैंड है जो अपनी गुणवत्ता, चिकित्सा विशेषज्ञता, उत्कृष्ट रोगी देखभाल और दुनिया में अपनी सर्वश्रेष्ठ सफलता दर के उच्च मानकों के रूप में जाना जाता है.

बीएसीसी हैल्थकेयर कई चिकित्सकों और भ्रूणविज्ञानी दोनों के लिए शिक्षा और प्रशिक्षण प्राप्त करने का एक प्रमुख स्थान हैं. साथ ही इसी संस्थान के पूर्व छात्र देश के कई प्रमुख आईवीएफ केंद्रों के आधार बने हुए हैं.

कामिनी केयर फाउंडेशन

इतना ही नहीं उन्होंने कामिनी केयर फाउंडेशन की स्थापना भी की. यह संगठन देशभर में लड़कियों और महिलाओं के जीवन को बेहतर बनाने, बढ़ाने और प्रबुद्ध करने की दिशा में कार्य करने पर केंद्रित है, जिस का प्राथमिक उद्देश्य महिलाओं की क्षमताओं की पहचान करना और उन के सपनों को हासिल करने और तलाशने में मदद करना है. इस संगठन का अंतिम उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि सभी महिलाओं के पास अपने जीवन और नियति को नियंत्रित करने की क्षमता हो और साथ ही वे पर्याप्त भोजन, शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल प्राप्त कर सकें.

वर्तमान में डा. कामिनी एक ऐसी प्रयोगशाला स्थापित करने में लगी हैं, जहां जेनेटिक बीमारियां जैसे हेमोफिलिया, डाउंस सिंड्रोम, थैलेसीमिया आदि की प्रसवपूर्व जांच हो सके. वहां पर प्राप्त डाटाबेस के आधार पर अधिक शोध कर, बेहतर उपचार मिलने में आसानी हो, जिस से लोगों के जीवन में भी सुधार आएगा.

अवार्ड्स ऐंड अचीवमैंट्स

– भारत सरकार द्वारा रिप्रोडक्टिव मैडिसिन के क्षेत्र में पद्मश्री पुरस्कार 2014.

– चिकित्सा के क्षेत्र में अमूल्य सेवा के लिए कर्नाटक राज्य पुरस्कार (राज्योत्सव पुरस्कार) 1997.

– लाइफटाइम लिगेसी अवार्ड, रिप्रोडक्टिव मैडिसिन 2025.

– लाइफटाइम अचीवमैंट अवार्ड, टाइम्स पावर वूमन 2025.

– महिला माणिक्य अवार्ड 2025.

– लाइफटाइम अचीवमैंट अवार्ड, रिप्रोडक्टिव मैडिसिन 2025.

– इंडियन मैडिकल ऐसोसिएशन द्वारा नैशनल बैस्ट टीचर अवार्ड 2024.

– चिकित्सा के क्षेत्र में कर्नाटक विद्या रतन पुरस्कार 2024.

– विजय कर्नाटक और बैंगलुरु मिरर्र द्वारा लाइफस्टाइल अचीवमैंट अवार्ड 2025.

– ञ्जश्वष्ठ3 स्पीकर अवार्ड 2023.

– आर्यभट्ट सांस्कृतिक संगठन से चिकित्सा के क्षेत्र में उत्कृष्टता के लिए आर्यभट्ट पुरस्कार.

– इंडियन मैडिकल ऐसोसिएशन की इकाई, शिमोगा से जिला बी.सी. राय जिला पुरस्कार.

– स्त्रीरोग एवं प्रसूति के बैंगलुरु समाज से लाइफटाइम अचीवमैंट पुरस्कार.

– प्रसूति और स्त्रीरोग सोसायटी औफ इंडिया संघ से लाइफटाइम अचीवमैंट पुरस्कार.

– नैशनल ऐकैडमी औफ मैडिकल साइंसेज से निर्वाचित फैलोशिप.

Best Hindi Story: कौन जाने- व्यर्थ की पीड़ा, द्वेष से क्यों छिनता है सुख चैन?

Best Hindi Story: कितना क्षणिक है मानव जीवन. अगर मनुष्य जीवन का यह सार जान ले तो व्यर्थ की पीड़ा, द्वेष में अपने आज का सुखचैन न गंवाए. कितनी चिंता रहती थी वीना को अपने घर की, बच्चों की. लेकिन न वह, न कोई और जानता था कि जिस कल की वह चिंता कर रही है वह कल उस के सामने आएगा ही नहीं.

घर में मरघट सी चुप्पी थी. सबकुछ समाप्त हो चुका था. अभी कुछ पल पहले जो थी, अब वो नहीं थी. कुछ भी तो नहीं हुआ था, उसे. बस, जरा सा दिल घबराया और कहानी खत्म.

‘‘क्या हो गया बीना को?’’

‘‘अरे, अभी तो भलीचंगी थी?’’

सब के होंठों पर यही वाक्य थे.

जाने वाली मेरी प्यारी सखी थी और एक बहुत अच्छी इनसान भी. न कोई तकलीफ, न कोई बीमारी. कल शाम ही तो हम बाजार से लंबीचौड़ी खरीदारी कर के लौटे थे.

बीना के बच्चे मुझे देख दहाड़े मार कर रोने लगे. बस, गले से लगे बच्चों को मैं मात्र थपक ही रही थी, शब्द कहां थे मेरे पास. जो उन्होंने खो दिया था उस की भरपाई मेरे शब्द भला कैसे कर सकते थे?

इनसान कितना खोखला, कितना गरीब है कि जरूरत पड़ने पर शब्द भी हाथ छुड़ा लेते हैं. ऐसा नहीं कि सांत्वना देने वाले के पास सदा ही शब्दों का अभाव होता है, मगर यह भी सच है कि जहां रिश्ता ज्यादा गहरा हो वहां शब्द मौन ही रहते हैं, क्योंकि पीड़ा और व्यथा नापीतोली जो नहीं होती.

‘‘हाय री बीना, तू क्यों चली गई? तेरी जगह मुझे मौत आ जाती. मुझ बुढि़या की जरूरत नहीं थी यहां…मेरे बेटे का घर उजाड़ कर कहां चली गई री बीना…अरे, बेचारा न आगे का रहा न पीछे का. इस उम्र में इसे अब कौन लड़की देगा?’’

दोनों बच्चे अभीअभी आईं अपनी दादी का यह विलाप सुन कर स्तब्ध रह गए. कभी मेरा मुंह देखते और कभी अपने पिता का. छोटा भाई और उस की पत्नी भी साथ थे. वो भी क्या कहते. बच्चे चाचाचाची से मिल कर बिलखने लगे. शव को नहलाने का समय आ गया. सभी कमरे से बाहर चले गए. कपड़ा हटाया तो मेरी संपूर्ण चेतना हिल गई. बीना उन्हीं कपड़ों में थीं जो कल बाजार जाते हुए पहने थी.

‘अरे, इस नई साड़ी की बारी ही नहीं आ रही…आज चाहे बारिश आए या आंधी, अब तुम यह मत कह देना कि इतनी सुंदर साड़ी मत पहनो कहीं रिकशे में न फंस जाए…गाड़ी हमारे पास है नहीं और इन के साथ जाने का कहीं कोई प्रोग्राम नहीं बनता.

‘मेरे तो प्राण इस साड़ी में ही अटके हैं. आज मुझे यही पहननी है.’

हंस दी थी मैं. सिल्क की गुलाबी साड़ी पहन कर इतनी लंबीचौड़ी खरीदारी में उस के खराब होने के पूरेपूरे आसार थे.

‘भई, मरजी है तुम्हारी.’

‘नहीं पहनूं क्या?’ अगले पल बीना खुद ही बोली थी, ‘वैसे तो मुझे इसे नहीं पहनना चाहिए…चौड़े बाजार में तो कीचड़ भी बहुत होता है, कहीं कोई दाग लग गया तो…’

‘कोई सिंथेटिक साड़ी पहन लो न बाबा, क्यों इतनी सुंदर साड़ी का सत्यानास करने पर तुली हो…अगले हफ्ते मेरे घर किटी पार्टी है और उस में तुम मेहमान बन कर आने वाली हो, तब इसे पहन लेना.’

‘तब तो तुम्हारी रसोई मुझे संभालनी होगी, घीतेल का दाग लग गया तो.’

किस्सा यह कि गुलाबी साड़ी न पहन कर बीना ने वही साड़ी पहन ली थी जो अभी उस के शव पर थी. सच में गुलाबी साड़ी वह नहीं पहन पाई. दाहसंस्कार हो गया और धीरेधीरे चौथा और फिर तेरहवीं भी. मैं हर रोज वहां जाती रही. बीना द्वारा संजोया घर उस के बिना सूना और उदास था. ऐसा लगता जैसे कोई चुपचाप उठ कर चला गया है और उम्मीद सी लगती कि अभी रसोई से निकल कर बीना चली आएगी, बच्चों को चायनाश्ता पूछेगी, पढ़ने को कहेगी, टीवी बंद करने को कहेगी.

क्याक्या चिंता रहती थी बीना को, पल भर को भी अपना घर छोड़ना उसे कठिन लगता था. कहती कि मेरे बिना सब अस्तव्यस्त हो जाता है, और अब देखो, कितना समय हो गया, वहीं है वह घर और चल रहा है उस के बिना भी.

एक शाम बीना के पति हमारे घर चले आए. परेशान थे. कुछ रुपयों की जरूरत आ पड़ी थी उन्हें. बीना के मरने पर और उस के बाद आयागया इतना रहा कि पूरी तनख्वाह और कुछ उन के पास जो होगा सब समाप्त हो चुका था. अभी नई तनख्वाह आने में समय था.

मेरे पति ने मेरी तरफ देखा, सहसा मुझे याद आया कि अभी कुछ दिन पहले ही बीना ने मुझे बताया था कि उस के पास 20 हजार रुपए जमा हो चुके हैं जिन्हें वह बैंक में फिक्स डिपाजिट करना चाहती है. रो पड़ी मैं बीना की कही हुई बातों को याद कर, ‘मुझे किसी के आगे हाथ फैलाना अच्छा नहीं लगता. कम है तो कम खा लो न, सब्जी के पैसे नहीं हैं तो नमक से सूखी रोटी खा कर ऊपर से पानी पी लो. कितने लोग हैं जो रात में बिना रोटी खाए ही सो जाते हैं. कम से कम हमारी हालत उन से तो अच्छी है न.’

जमीन से जुड़ी थी बीना. मेरे लिए उस के पति की आंखों की पीड़ा असहनीय हो रही थी. घर कैसे चलता

है उन्होंने कभी मुड़ कर भी नहीं देखा था.

‘‘क्या सोच रही हो निशा?’’ मेरे पति ने कंधे पर हथेली रख मुझे झकझोरा. आंखें पोंछ ली मैं ने.

‘‘रुपए हैं आप के घर में भाई साहब, पूरे 20 हजार रुपए बीना ने जमा कर रखे थे. वह कभी किसी से कुछ मांगना नहीं चाहती थी न. शायद इसीलिए सब पहले से जमा कर रखा था उस ने. आप उस की अलमारी में देखिए, वहीं होंगे 20 हजार रुपए.’’

बीना के पति चीखचीख कर रोने लगे थे. पूरे 25 साल साथ रह कर भी वह अपनी पत्नी को उतना नहीं जान पाए थे जितना मैं पराई हो कर जानती थी. मेरे पति ने उन्हें किसी तरह संभाला, किसी तरह पानी पिला कर गले का आवेग शांत किया.

‘‘अभी कुछ दिन पहले ही सारा सामान मुझे और बेटे को दिखा रही थी. मैं ने पूछा था कि तुम कहीं जा रही हो क्या जो हम दोनों को सब समझा रही हो तो कहने लगी कि क्या पता मर ही जाऊं. कोई यह तो न कहे कि मरने वाली कंगली ही मर गई.

‘‘तब मुझे क्या पता था कि उस के कहे शब्द सच ही हो जाएंगे. उस के मरने के बाद भी मुझे कहीं नहीं जाना पड़ा. अपने दाहसंस्कार और कफन तक का सामान भी संजो रखा था उस ने.’’

बीना के पति तो चले गए और मैं किंकर्तव्यविमूढ़ सी सोचती रही. जीवन कितना छोटा और क्षणिक है. अभी मैं हूं  पर क्षण भर बाद भी रहूंगी या नहीं, कौन जाने. आज मेरी जबान चल रही है, आज मैं अच्छाबुरा, कड़वामीठा अपनी जीभ से टपका रही हूं, कौन जाने क्षण भर बाद मैं रहूं न रहूं. कौन जाने मेरे कौन से शब्द आखिरी शब्द हो जाने वाले हैं. मेरे द्वारा किया गया कौन सा कर्म आखिरी कर्म बन जाने वाला है, कौन जाने.

मौत एक शाश्वत सचाई है और इसे गाली जैसा न मान अगर कड़वे सत्य सा मान लूं तो हो सकता है मैं कोई भी अन्याय, कोई भी पाप करने से बच जाऊं. यही सच हर प्राणी पर लागू होता है. मैं आज हूं, कल रहूं न रहूं कौन जाने.

मेरे जीवन में भी ऐसी कुछ घटनाएं घटी हैं जिन्हें मैं कभी भूल नहीं पाती हूं. मेरे साथ चाहेअनचाहे जुड़े कुछ रिश्ते जो सदा कांटे से चुभते रहे हैं. कुछ ऐसे नाते जिन्होंने सदा अपमान ही किया है.

उन के शब्द मन में आक्रोश से उबलते रहते हैं, जिन से मिल कर सदा तनाव से भरती रही हूं. एकाएक सोचने लगी हूं कि मेरा जीवन इतना भी सस्ता नहीं है, जिसे तनाव और घृणा की भेंट चढ़ा दूं. कुदरत ने अच्छा पति, अच्छी संतान दी है जिस के लिए मैं उस की आभारी हूं.

इतना सब है तो थोड़ी सी कड़वाहट को झटक देना क्यों न श्रेयस्कर मान लूं.  क्यों न हाथ झाड़ दूं तनाव से. क्यों न स्वयं को आक्रोश और तनाव से मुक्त कर लूं. जो मिला है उसी का सुख क्यों न मनाऊं, क्यों व्यर्थ पीड़ा में अपने सुखचैन का नाश करूं.

प्रकृति ने इतनी नेमतें प्रदान की हैं  तो क्यों न जरा सी कड़वाहट भी सिरआंखों पर ले लूं, क्यों न क्षमा कर दूं उन्हें, जिन्होंने मुझ से कभी प्यार ही नहीं किया. और मैं ने उन्हें तत्काल क्षमा कर दिया, बिना एक भी क्षण गंवाए, क्योंकि जीवन क्षणिक है न. मैं अभी हूं, क्षण भर बाद रहूं न रहूं, ‘कौन जाने.’

Best Hindi Story

Long Story In Hindi: सावित्री और सत्य- त्याग और समर्पण की गाथा

Long Story In Hindi: सावित्री को नींद नहीं आ रही थी. अभी पिछले साल ही उस के पति की मौत हुई थी. उस की शादीशुदा जिंदगी का सुख महज एक साल का था. सावित्री ससुराल में ही रह रही थी. उस का पति ही बूढ़े सासससुर की एकलौती औलाद था. ससुराल और मायका दोनों ही पैसे वाले थे. सावित्री अपने मायके में 4 बच्चों में सब से छोटी और एकलौती लड़की थी. मांबाप और भाइयों की दुलारी… मैट्रिक पास होते ही सावित्री की शादी हो गई थी. पति की मौत के बाद उस का बापू उसे लेने आया था, पर वह मायके नहीं गई. उस ने बापू से कहा था कि आप के तो 3 बच्चे और हैं, पर मेरे सासससुर का तो कोई नहींहै. पहाड़ी की तराई में एक गांव में सावित्री का ससुराल था. गांव तो ज्यादा बड़ा नहीं था, फिर भी सभी खुशहाल थे. उस के ससुर उस इलाके के सब से धनी और रसूखदार शख्स थे. वे गांव के सरपंच भी थे.

पहाडि़यों पर रात में ठंडक रहती ही है. थोड़ी देर पहले ही बारिश रुकी थी. सावित्री कंबल ओढ़े लेटी थी, तभी अचानक ही जोर के धमाके की आवाज से वह चौंक पड़ी थी.

वह बिस्तर से नीचे उतर आई. शाल से अपने को ढकते हुए बगल में सास के कमरे में गई. वहां उस ने देखा कि सासससुर दोनों ही जोरदार धमाके की आवाज से जाग गए थे.

उस के ससुर स्वैटर पहन कर टौर्च व छड़ी उठा कर बाहर जाने के लिए निकलने लगे, तो सावित्री ने कहा, ‘‘बाबूजी, मैं आप को रात में अकेले नहीं जाने दूंगी. मैं भी आप के साथ चलूंगी.’’

काफी मना मरने के बावजूद सावित्री भी उन के साथ चल पड़ी थी. जब सावित्री बाहर निकली, तो थोड़ी दूरी पर ही खेतों के बीच उस ने आग की ऊंची लपटें देखीं. गांव के कुछ और लोग भी धमाके की आवाज सुन कर जमा हो चुके थे. करीब जाने पर देखा कि एक छोटे हवाईजहाज के टुकड़े इधरउधर जल रहे थे. लपटें काफी ऊंची और तेज थीं. किसी में पास जाने की हिम्मत नहीं थी. देखने से लग रहा था कि सबकुछ जल कर राख हो चुका है.

तभी सावित्री की नजर मलबे से दूर पड़े किसी शख्स पर गई, जिस के हाथपैरों में कुछ हरकत हो रही थी. वह अपने ससुर के साथ उस के नजदीक गई. कुछ और लोग भी साथ हो लिए थे.

उस नौजवान का चेहरा जलने से काला हो गया था. हाथपैरों पर भी जलने के निशान थे. वह बेहोश पड़ा था, पर रहरह कर अपने हाथपैर हिला रहा था.

तभी एक गांव वाले ने उस की नब्ज देखी और फिर नाक के पास हाथ ले जा कर सावित्री के ससुर से बोला, ‘‘सरपंचजी, इस की सांसें चल रही हैं. यह अभी जिंदा है, पर इस की हालत नाजुक दिखती है. इस को तुरंत इलाज की जरूरत है.’’

सरपंच ने कहा, ‘‘हां, इसे जल्द ही अस्पताल ले जाना होगा. प्रशासन को अभी इस की सूचना भी शायद न मिली हो. सूचना मिलने के बाद भी सुबह के पहले यहां पर किसी के आने की उम्मीद नहीं है. तुम में से कोई मेरी मदद करो. मेरा ट्रैक्टर ले कर आओ. इसे शहर के अस्पताल ले चलते हैं.’’

थोड़ी देर में ही 2-3 नौजवान ट्रैक्टर ले कर आ गए थे. उस घायल नौजवान को ट्रैक्टर से ही शहर के बड़े अस्पताल ले गए. सावित्री भी सरपंचजी के साथ शहर तक गई थी.

अस्पताल में डाक्टर ने देख कर कहा कि हालत नाजुक है. पुलिस को भी सूचित करना होगा. यह काम सरपंच ने खुद किया और डाक्टर को तुरंत इलाज शुरू करने को कहा.

इमर्जैंसी वार्ड में चैकअप करने के बाद डाक्टर ने उसे इलाज के लिए आईसीयू में भेज दिया. पर उस शख्स के पास से कोई पहचानपत्र या बोर्डिंग पास भी नहीं मिला.

हादसे की जगह के पास से एक बुरी तरह जला हुआ पर्स मिला था. उस पर्स में ऐसा कुछ भी सुबूत नहीं मिला था, जिस से उस की पहचान हो सके.

डाक्टर ने इलाज तो शुरू कर दिया था. सरपंचजी खुद गारंटर बने थे यानी इलाज का खर्च उन्हें ही उठाना था.

सुबह होते ही इस हादसे की खबर रेडियो और टैलीविजन पर फैल चुकी थी.

पुलिस भी आ गई थी. पुलिस को सारी बात बता कर उस की सहमति ले कर सरपंचजी अपनी बहू सावित्री के साथ अपने घर लौट आए थे.

शहर के एयरपोर्ट पर अफरातफरी का सा माहौल था. एयरपोर्ट शहर से 20 किलोमीटर दूर और गांव की विपरीत दिशा में था. लोग उस उड़ान से आने वाले अपने रिश्तेदारों का हाल जानने के लिए बेचैन थे.

एयरलाइंस के मुलाजिमों ने तो सभी सवारियों और हवाईजहाज के मुलाजिमों की लिस्ट लगा रखी थी, जिस में सब को ही मरा ऐलान किया गया था.

थोड़ी ही देर में टैलीविजन पर एक ब्रेकिंग न्यूज आई कि एक मुसाफिर इस हादसे में बच गया है, जिस की हालत नाजुक है, पर उस की पहचान नहीं हो सकी है. सब के मन में उम्मीद की एक किरण जग रही थी कि शायद वह उन्हीं का सगा हो.

अस्पताल में भीड़ उमड़ पड़ी थी. डाक्टर ने कहा कि अभी वह वैंटिलेटर पर है और हालत नाजुक है. मरीज के पास तो अभी कोई नहीं जा सकता है, उसे सिर्फ बाहर से शीशे से देखा जा सकता है. लोग बाहर से ही उस को देख कर पहचानने की कोशिश कर रहे थे, पर यह मुमकिन नहीं था. उस का चेहरा काफी जला हुआ था. उस पर दवा का लेप भी लगा था.

इधर सरपंच रोज सुबह अस्पताल आते थे, अकसर सावित्री भी साथ होती थी. वह उन को अकेला नहीं छोड़ना चाहती थी, क्योंकि सरपंच खुद दिल के मरीज थे.

कुछ दिनों के बाद डाक्टर ने सरपंच से कहा, ‘‘मरीज खतरे से बाहर तो है, पर वह कोमा में जा चुका है. कोमा से बाहर निकलने में कितना समय लगेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता है. कुछ ही दिनों में उसे आईसीयू से निकाल कर स्पैशल वार्ड में भेज देंगे.

‘‘दूसरी बात यह कि उस का चेहरा बहुत खराब हो चुका है. अगर वह कोमा से बाहर भी आता है, तो आईने में अपनेआप को देख कर उसे गहरा सदमा लगेगा.’’

सरपंच ने पूछा, ‘‘तो इस का इलाज क्या है?’’

डाक्टर बोला, ‘‘उस के चेहरे की प्लास्टिक सर्जरी करनी होगी, पर इस में काफी खर्च होगा. अभी तक के इलाज का खर्च तो आप देते आए हैं.’’

सरपंच ने कहा, ‘‘आप पैसे की चिंता न करें. अगर यह ठीक हो जाता है, तो मैं समझूंगा कि मेरा बेटा मुझे दोबारा मिल गया है.’’

कुछ दिनों के बाद उस मरीज को स्पैशल वार्ड में शिफ्ट किया गया था. वहां उस की देखभाल दिन में तो अकसर सावित्री ही किया करती थी, लेकिन रात में सरपंच के कहने पर गांव से भी कोई न कोई आ जाता था.

तकरीबन 2 महीने बाद उस की प्लास्टिक सर्जरी भी हुई. उस आदमी को नया चेहरा मिल गया था.

इसी बीच सरपंच के ट्रैक्टर की ट्रौली पर एक बैल्ट मिली. हादसे के बाद उस नौजवान को इसी ट्रौली से अस्पताल पहुंचाया गया था. शायद किसी ने उसे आराम पहुंचाने के लिए बैल्ट निकाल कर ट्रौली के एक कोने में रख दी थी, जिस पर अब तक किसी की नजर नहीं पड़ी थी. बैल्ट पर 2 शब्द खुदे थे एसके. उस बैल्ट को देख कर सरपंच को लगा कि उस आदमी की पहचान में यह एक अहम कड़ी साबित हो.

इस की सूचना उन्होंने पुलिस को दे दी. साथ ही, लोकल टैलीविजन चैनल और रेडियो पर भी इसे प्रसारित किया गया.

अगले ही दिन एक बुजुर्ग दंपती उसे देखने अस्पताल आए थे. उन का शहर में काफी बड़ा कारोबार था, पर चेहरा बदल जाने के चलते वे उसे पहचान नहीं पा रहे थे. बैल्ट भी पुलिस को दे दी गई थी.

वहां पर उन्होंने सावित्री को देखा, जो मन लगा कर मरीज की सेवा कर रही थी. अस्पताल से निकल कर वे सीधे पुलिस स्टेशन गए और वहां उस बैल्ट को देख कर कहा कि ऐसी ही एक बैल्ट उन के बेटे की भी थी, जिस पर एसके लिखा था. यह बैल्ट जानबूझ कर उन के बेटे ने खरीदी थी, क्योंकि एसके उस के नाम ‘सत्य कुमार’ से मिलती थी. फिर भी संतुष्ट हुए बिना उसे अपना बेटा मानने में कुछ ठीक नहीं लग रहा था. फिलहाल वे अपने घर लौट गए थे. पर सरपंच का मन कह रहा था कि यह सत्य कुमार ही है.

तकरीबन एक महीना गुजर चुका था. सरपंच और सावित्री दोनों ही सत्य कुमार की देखभाल कर रहे थे.

एक दिन अचानक सावित्री ने देखा कि सत्य कुमार के होंठ फड़फड़ा रहे थे और हाथ से कुछ इशारा कर रहा था. उस ने तुरंत डाक्टर को यह बात कही.

डाक्टर ने कहा कि दवा अपना काम कर रही है और उन्हें पूरी उम्मीद है कि अब वह बिलकुल ठीक हो जाएगा.

कुछ दिन बाद सावित्री उसे जब अपने हाथ से खाना खिला रही थी, सत्य कुमार ने उस का हाथ पकड़ कर कुछ बोलने की कोशिश की थी.

उसी शाम जब सावित्री अपने घर जाने के लिए उठी, तो सत्य कुमार ने उस का हाथ पकड़ कर बहुत कोशिश के बाद लड़खड़ाती जबान में बोला, ‘‘रुको, मैं यहां कैसे आया हूं? मैं तो हवाईजहाज में था. मैं तो कारोबार के सिलसिले में बाहर गया हुआ था.’’

फिर अपने बारे में उस ने कुछ जानकारी दी थी. सरपंच और सावित्री दोनों की खुशी का ठिकाना न था. उन्होंने डाक्टर को बुलाया. डाक्टर ने उसे चैक कर कहा, ‘‘मुबारक हो. अब यह होश में आ गया है. इस के मातापिता को सूचना दे दें.’’

सावित्री और सरपंच अस्पताल में ही रुक कर सत्य कुमार के मातापिता का इंतजार कर रहे थे. वे लोग भी खबर मिलते ही दौड़े आए थे. सत्य कुमार ने अपने मातापिता को पहचान लिया था और हादसे के पहले तक की बात बताई. उस के बाद का उसे कुछ याद नहीं था.

सत्य कुमार के पिता ने सरपंच और सावित्री का शुक्रिया अदा करते हुए कहा, ‘‘आप के उपकार के लिए हम लोग हमेशा कर्जदार रहेंगे. यह लड़की आप की बेटी है न?’’

सरपंच बोले, ‘‘मेरे लिए तो बेटी से भी बढ़ कर है. है तो मेरी बहू, पर शादी के एक साल के अंदर ही मेरा एकलौता बेटा हम लोगों को अकेला छोड़ कर चला गया, पर सावित्री ने हमारा साथ नहीं छोड़ा.

‘‘मैं तो चाहता था कि यह अपने मांबाप के पास चली जाए और दूसरी शादी कर ले, पर यह तैयार नहीं थी.’’

सत्य कुमार के पिता ने कहा, ‘‘अगर आप को कोई एतराज नहीं है, तो मैं सावित्री को अपनी बहू बनाने को तैयार हूं, क्यों सत्य कुमार? ठीक रहेगा न?’’

सत्य कुमार ने सहमति में सिर हिला कर अपनी हामी भर दी थी. फिर सेठजी ने सत्य कुमार की मां की ओर देख कर मुसकराते हुए कहा, ‘‘अरे सेठानी, तुम भी तो कुछ कहो.’’

सेठानी बोलीं, ‘‘आप लोगों ने तो मेरे मुंह की बात छीन ली है. मेरे बोलने को कुछ बचा ही नहीं है.’’

फिर वे सावित्री की ओर देख कर बोलीं, ‘‘तुम्हें कोई एतराज तो नहीं है?’’

सावित्री की आंखों से आंसू की कुछ बूंदें छलक कर उस के गालों पर आ गई थीं. वह बोली, ‘‘मैं आप लोगों की भावनाओं का सम्मान करती हूं, पर मैं अपने सासससुर को अकेला छोड़ कर नहीं जा सकती.’’

सरपंच ने सावित्री को समझाते हुए कहा, ‘‘तुम्हें एतराज नहीं होना चाहिए, क्योंकि हम सभी लोगों की खुशी इसी में है. और हम लोगों को अब जीना ही कितने दिन है, जबकि तुम्हारी सारी जिंदगी आगे पड़ी है.’’

सेठजी ने भी सरपंच की बातों को सही ठहराते हुए कहा, ‘‘तुम जब भी चाहो और जितने दिन चाहो, सरपंचजी के यहां बीचबीच में आती रहना.’’

सावित्री सेठजी से बोली, ‘‘सत्यजी को आप ने जन्म दिया है और बाबूजी ने इन्हें दोबारा जन्म दिया है, तो इन की भी तो कुछ जिम्मेदारी बनती है मेरे ससुरजी के लिए.’’

सेठजी बोले, ‘‘मैं मानता हूं और मेरा बेटा भी इतनी समझ रखता है. सत्य कुमार को तो 2-2 पिताओं का प्यार मिलेगा. सत्य कुमार सरपंचजी का उतना ही खयाल रखेगा, जितना वह हमारा रखता है.’’

सावित्री और सत्य दोनों एकदूसरे को देख रहे थे. उन लोगों की बातें सुन कर वह कुछ संतुष्ट लग रही थी.

उस दिन सारी रात लोगों ने अस्पताल में ही बिताई थी. सावित्री के मायके में भी सरपंच ने यह बात बता दी थी. सभी को यह रिश्ता मंजूर था. सरपंच ने धूमधाम से अपने घर से ही सावित्री की शादी की थी.

Long Story In Hindi

Drama Story: उसके हिस्से की जूठन- क्यों निखिल से नफरत करने लगी कुमुद

Drama Story: इस विषय पर अब उस ने सोचना बंद कर दिया है. सोचसोच कर बहुत दिमाग खराब कर लिया पर आज तक कोई हल नहीं निकाल पाई. उस ने लाख कोशिश की कि मुट्ठी से कुछ भी न फिसलने दे, पर कहां रोक पाई. जितना रोकने की कोशिश करती सबकुछ उतनी तेजी से फिसलता जाता. असहाय हो देखने के अलावा उस के पास कोई चारा नहीं है और इसीलिए उस ने सबकुछ नियति पर छोड़ दिया है.

दुख उसे अब उतना आहत नहीं करता, आंसू नहीं निकलते. आंखें सूख गई हैं. पिछले डेढ़ साल में जाने कितने वादे उस ने खुद से किए, निखिल से किए. खूब फड़फड़ाई. पैसा था हाथ में, खूब उड़ाती रही. एक डाक्टर से दूसरे डाक्टर तक, एक शहर से दूसरे शहर तक भागती रही. इस उम्मीद में कि निखिल को बूटी मिल जाएगी और वह पहले की तरह ठीक हो कर अपना काम संभाल लेगा.

सबकुछ निखिल ने अपनी मेहनत से ही तो अर्जित किया है. यदि वही कुछ आज निखिल पर खर्च हो रहा है तो उसे चिंता नहीं करनी चाहिए. उस ने बच्चों की तरफ देखना बंद कर दिया है. पढ़ रहे हैं. पढ़ते रहें, बस. वह सब संभाल लेगी. रिश्तेदार निखिल को देख कर और सहानुभूति के चंद कतरे उस के हाथ में थमा कर जा चुके हैं.

देखतेदेखते कुमुद टूट रही है. जिस बीमारी की कोई बूटी ही न बनी हो उसी को खोज रही है. घंटों लैपटाप पर, वेबसाइटों पर इलाज और डाक्टर ढूंढ़ती रहती. जैसे ही कुछ मिलता ई-मेल कर देती या फोन पर संपर्क करती. कुछ आश्वासनों के झुनझुने थमा देते, कुछ गोलमोल उत्तर देते. आश्वासनों के झुनझुनों को सच समझ वह उन तक दौड़ जाती. निखिल को आश्वस्त करने के बहाने शायद खुद को आश्वस्त करती. दवाइयां, इंजेक्शन, टैस्ट नए सिरे से शुरू हो जाते.

डाक्टर हैपिटाइटिस ‘ए’ और ‘बी’ में दी जाने वाली दवाइयां और इंजेक्शन ही ‘सी’ के लिए रिपीट करते. जब तक दवाइयां चलतीं वायरस का बढ़ना रुक जाता और जहां दवाइयां हटीं, वायरस तेजी से बढ़ने लगता. दवाइयों के साइड इफैक्ट होते. कभी शरीर पानी भरने से फूल जाता, कभी उलटियां लग जातीं, कभी खूब तेज बुखार चढ़ता, शरीर में खुजली हो जाती, दिल की धड़कनें बढ़ जातीं, सांस उखड़ने लगती और कुमुद डाक्टर तक दौड़ जाती.

पिछले डेढ़ साल से कुमुद जीना भूल गई, स्वयं को भूल गई. उसे याद है केवल निखिल और उस की बीमारी. लाख रुपए महीना दवाइयों और टैस्टों पर खर्च कर जब साल भर बाद उस ने खुद को टटोला तो बैंक बैलेंस आधे से अधिक खाली हो चुका था. कुमुद ने तो लिवर ट्रांसप्लांट का भी मन बनाया. डाक्टर से सलाह ली. खर्चे की सुन कर पांव तले जमीन निकल गई. इस के बाद भी मरीज के बचने के 20 प्रतिशत चांसेज. यदि बच गया तो बाद की दवाइयों का खर्चा. पहले लिवर की व्यवस्था करनी है.

सिर थाम कर बैठ गई कुमुद. पापा से धड़कते दिल से जिक्र किया तो सुन कर वह भी सोच में पड़ गए. फिर समझाने लगे, ‘‘बेटा, इतना खर्च करने के बाद भी कुछ हासिल नहीं हो पाया तो तू और बच्चे किस ठौर बैठेंगे. आज की ही नहीं कल की भी सोच.’’

‘‘पर पापा, निखिल ऐसे भी मौत और जिंदगी के बीच झूल रहे हैं. कितनी यातना सह रहे हैं. मैं क्या करूं?’’ रो दी कुमुद.

‘‘धैर्य रख बेटी. जब सारे रास्ते बंद हो जाते हैं और कोई रास्ता नहीं सूझता तब ईश्वर के भरोसे नहीं बैठ जाना चाहिए बल्कि तलाश जारी रखनी चाहिए. तू तानी के बारे में सोच. उस का एम.बी.ए. का प्रथम वर्ष है और मनु का इंटर. बेटी इन के जीवन के सपने मत तोड़. मैं ने यहां एक डाक्टर से बात की है. ऐसे मरीज 8-10 साल भी खींच जाते हैं. तब तक बच्चे किसी लायक हो जाएंगे.’’

सुनने और सोचने के अलावा कुमुद के पास कुछ भी नहीं बचा था. निखिल जहां जरा से संभलते कि शोरूम चले जाते हैं. नौकर और मैनेजर के सहारे कैसे काम चले? न तानी को फुर्सत है और न मनु को कि शोरूम की तरफ झांक आएं. स्वयं कुमुद एक पैर पर नाच रही है. आय कम होती जा रही है. इलाज शुरू करने से पहले ही डाक्टर ने सारी स्थिति स्पष्ट कर दी थी कि यदि आप 15-20 लाख खर्च करने की शक्ति रखते हैं तभी इलाज शुरू करें.

असहाय निखिल सब देख रहे हैं और कोशिश भी कर रहे हैं कि कुमुद की मुश्किलें आसान हो सकें. पर मुश्किलें आसान कहां हो पा रही हैं. वह स्वयं जानते हैं कि लिवर कैंसर एक दिन साथ ले कर ही जाएगा. बस, वह भी वक्त को धक्का दे रहे हैं. उन्हें भी चिंता है कि उन के बाद परिवार का क्या होगा? अकेले कुमुद क्याक्या संभालेगी?

इस बार निखिल ने मन बना लिया है कि मनु बोर्ड की परीक्षाएं दे ले, फिर शो- रूम संभाले. उन के इस निश्चय पर कुमुद अभी चुप है. वह निर्णय नहीं कर पा रही कि क्या करना चाहिए.

अभी पिछले दिनों निखिल को नर्सिंग होम में भरती करना पड़ा. खून की उल्टियां रुक ही नहीं रही थीं. डाक्टर ने एंडोस्कोपी की और लिवर के सिस्ट बांधे, तब कहीं ब्लीडिंग रुक पाई. 50 हजार पहले जमा कराने पड़े. कुमुद ने देखा, अब तो पास- बुक में महज इतने ही रुपए बचे हैं कि महीने भर का घर खर्च चल सके. अभी तो दवाइयों के लिए पैसे चाहिए. निखिल को बिना बताए सर्राफा बाजार जा कर अपने कुछ जेवर बेच आई. निखिल पूछते रहे कि तुम खर्च कैसे चला रही हो, पैसे कहां से आए, पर कुमुद ने कुछ नहीं बताया.

‘‘जब तक चला सकती हूं चलाने दो. मेरी हिम्मत मत तोड़ो, निखिल.’’

‘‘देख रहा हूं तुम्हें. अब सारे निर्णय आप लेने लगी हो.’’

‘‘तुम्हें टेंस कर के और बीमार नहीं करना चाहती.’’

‘‘लेकिन मेरे अलावा भी तो कुछ सोचो.’’

‘‘नहीं, इस समय पहली सोच तुम हो, निखिल.’’

‘‘तुम आत्महत्या कर रही हो, कुमुद.’’

‘‘ऐसा ही सही, निखिल. यदि मेरी आत्महत्या से तुम्हें जीवन मिलता है तो मुझे स्वीकार है,’’ कह कर कुमुद ने आंखें पोंछ लीं.

निखिल ने चाहा कुमुद को खींच कर छाती से लगा ले, लेकिन आगे बढ़ते हाथ रुक गए. पिछले एक साल से वह कुमुद को छूने को भी तरस गया है. डाक्टर ने उसे मना किया है. उस के शरीर पर पिछले एक सप्ताह से दवाई के रिएक्शन के कारण फुंसियां निकल आई हैं. वह चाह कर भी कुमुद को नहीं छू सकता.

एक नादानी की इतनी बड़ी सजा बिना कुमुद को बताए निखिल भोग रहा है. क्या बताए कुमुद को कि उस ने किन्हीं कमजोर पलों में प्रवीन के साथ होटल में एक रात किसी अन्य युवती के साथ गुजारी थी और वहीं से…कुमुद के साथ विश्वासघात किया, उस के प्यार के भरोसे को तोड़ दिया. किस मुंह से बीते पलों की दास्तां कुमुद से कहे. कुमुद मर जाएगी. मर तो अब भी रही है, फिर शायद उस की शक्ल भी न देखे.

डाक्टर ने कुमुद को भी सख्त हिदायत दी है कि बिना दस्ताने पहने निखिल का कोई काम न करे. उस के बलगम, थूक, पसीना या खून की बूंदें उसे या बच्चों को न छुएं. बिस्तर, कपड़े सब अलग रखें.

निखिल का टायलेट भी अलग है. कुमुद निखिल के कपड़े सब से अलग धोती है. बिस्तर भी अलग है, यानी अपना सबकुछ और इतना करीब निखिल आज अछूतों की तरह दूर है. जैसे कुमुद का मन तड़पता है वैसे ही निखिल भी कुमुद की ओर देख कर आंखें भर लाता है.

नियति ने उन्हें नदी के दो किनारों की तरह अलग कर दिया है. दोनों एकदूसरे को देख सकते हैं पर छू नहीं सकते. दोनों के बिस्तर अलगअलग हुए भी एक साल हो गया.

कुमुद क्या किसी ने भी नहीं सोचा था कि हंसतेखेलते घर में मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ेगा. कुछ समय से निखिल के पैरों पर सूजन आ रही थी, आंखों में पीलापन नजर आ रहा था. तबीयत भी गिरीगिरी रहती थी. कुमुद की जिद पर ही निखिल डाक्टर के यहां गया था. पीलिया का अंदेशा था. डाक्टर ने टैस्ट क्या कराए भूचाल आ गया. अब खोज हुई कि हैपिटाइटिस ‘सी’ का वायरस आया कहां से? डाक्टर का कहना था कि संक्रमित खून से या यूज्ड सीरिंज से वायरस ब्लड में आ जाता है.

पता चला कि विवाह से पहले निखिल का एक्सीडेंट हुआ था और खून चढ़ाना पड़ा था. शायद यह वायरस वहीं से आया, लेकिन यह सुन कर निखिल के बड़े भैया भड़क उठे थे, ‘‘ऐसा कैसे हो सकता है? खून रेडक्रास सोसाइटी से मैं खुद लाया था.’’

लेकिन उन की बात को एक सिरे से खारिज कर दिया गया और सब ने मान लिया कि खून से ही वायरस शरीर में आया.

सब ने मान लिया पर कुमुद का मन नहीं माना कि 20 साल तक वायरस ने अपना प्रभाव क्यों नहीं दिखाया.

‘‘वायरस आ तो गया पर निष्क्रिय पड़ा रहा,’’ डाक्टर का कहना था.

‘‘ठीक कहते हैं डाक्टर आप. तभी वायरस ने मुझे नहीं छुआ.’’

‘‘यह आप का सौभाग्य है कुमुदजी, वरना यह बीमारी पति से पत्नी और पत्नी से बच्चों में फैलती ही है.’’

कुमुद को लगा डाक्टर ठीक कह रहा है. सब इस जानलेवा बीमारी से बचे हैं, यही क्या कम है, लेकिन 10 साल पहले निखिल ने अपना खून बड़े भैया के बेटे हार्दिक को दिया था जो 3 साल पहले ही विदेश गया है और उस के विदेश जाने से पहले सारे टैस्ट हुए थे, वायरस वहां भी नहीं था.

न चाहते हुए भी कुमुद जब भी खाली होती, विचार आ कर घेर लेते हैं. नए सिरे से विश्लेषण करने लगती है. आज अचानक उस के चिंतन को नई दिशा मिली. यदि पति पत्नी को यौन संबंधों द्वारा वायरस दे सकता है तो वह भी किसी से यौन संबंध बना कर ला सकता है. क्या निखिल भी किसी अन्य से…

दिमाग घूम गया कुमुद का. एकएक बात उस के सामने नाच उठी. बड़े भैया का विश्वासपूर्वक यह कहना कि खून संक्रमित नहीं था, उन के बेटे व उन सब के टैस्ट नेगेटिव आने, यानी वायरस ब्लड से नहीं आया. यह अभी कुछ दिन पहले ही आया है. निखिल पर उसे अपने से भी ज्यादा विश्वास था और उस ने उसी से विश्वासघात किया.

कुमुद ने फौरन डाक्टर को फोन मिलाया, ‘‘डाक्टर, आप ने यह कह कर मेरा टैस्ट कराया था कि हैपिटाइटिस ‘सी’ मुझे भी हो सकता है और आप 80 प्रतिशत अपने विचार से सहमत थे. अब उसी 80 प्रतिशत का वास्ता दे कर आप से पूछती हूं कि यदि एक पति अपनी पत्नी को यह वायरस दे सकता है तो स्वयं भी अन्य महिला से यौन संबंध बना कर यह बीमारी ला सकता है.’’

‘‘हां, ऐसा संभव है कुमुदजी और इसीलिए 20 प्रतिशत मैं ने छोड़ दिए थे.’’

कुमुद ने फोन रख दिया. वह कटे पेड़ सी गिर पड़ी. निखिल, तुम ने इतना बड़ा छल क्यों किया? मैं किसी की जूठन को अपने भाल पर सजाए रही. एक पल में ही उस के विचार बदल गए. निखिल के प्रति सहानुभूति और प्यार घृणा और उपेक्षा में बदल गए.

मन हुआ निखिल को इसी हाल में छोड़ कर भाग जाए. अपने कर्मों की सजा आप पाए. जिए या मरे, वह क्यों तिलतिल कर जले? जीवन का सारा खेल भावनाओं का खेल है. भावनाएं ही खत्म हो जाएं तो जीवन मरुस्थल बन जाता है. अपना यह मरुस्थली जीवन किसे दिखाए कुमुद. एक चिंगारी सी जली और बुझ गई. निखिल उसे पुकार रहा था, पर कुमुद कहां सुन पा रही थी. वह तो दोनों हाथ खुल कर लुटी, निखिल ने भी और भावनाओं ने भी.

निखिल के इतने करीब हो कर भी कभी उस ने अपना मन नहीं खोला. एक बार भी अपनी करनी पर पश्चात्ताप नहीं हुआ. आखिर निखिल ने कैसे समझ लिया कि कुमुद हमेशा मूर्ख बनी रहेगी, केवल उसी के लिए लुटती रहेगी? आखिर कब तक? जवाब देना होगा निखिल को. क्यों किया उस ने ऐसा? क्या कमी देखी कुमुद में? क्या कुमुद अब निखिल का साथ छोड़ कर अपने लिए कोई और निखिल तलाश ले? निखिल तो अब उस के किसी काम का रहा नहीं.

घिन हो आई कुमुद को यह सोच कर कि एक झूठे आदमी को अपना समझ अपने हिस्से की जूठन समेटती आई. उस की तपस्या को ग्रहण लग गया. निखिल को आज उस के सवाल का जवाब देना ही होगा.

‘‘तुम ने ऐसा क्यों किया, निखिल? मैं सब जान चुकी हूं.’’

और निखिल असहाय सा कुमुद को देखने लगा. उस के पास कहने को कुछ भी नहीं बचा था.

Drama Story

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