वह तो अपने वेतन के 20,000 रुपयों को एकसाथ घर भेजने पर उतारू था. उन्होंने उसे समझाया कि अब तो उसे यहीं रहना है. इसलिए जरूरी सामान और कपड़े खरीद लो. और इस प्रकार उसे जूतेकपड़े आदि के साथ ब्रशमंजन से ले कर शेविंगकिट्स तक की खरीदारी कराई, जिस में उस के 8,000 रुपए निकल गए थे.
वह उस से हंस कर बोले, “यह मुंबई पैसों की नगरी है. यहां सारा खेल पैसों का ही है. अभी अपने पास 2,000 रुपए रखो और बाकी 10,000 रुपए घर भेज दो.”
शर्माजी के एकाउंट की मारफत वह मां के पास 10,000 रुपए भिजवा कर निश्चिंत हो पाया था. लगे हाथ उन्होंने उस का वहीं उसी बैंक में एकाउंट भी खुलवा दिया था.
नवंबर में वह यहां मुंबई आया था. जहाज का यह समुद्री जीवन अजीब था. चारो तरफ समुद्र की ठाठें मारती खारे पानी की लहरें और बजरे का बंद जीवन. दिनभर किसी जहाज में काम करो और फिर शाम को बजरे में बंद हो जाओ. हजारोंलाखों लोगों का जीवन इसी समुद्र के भरोसे चलता है. विशालकाय व्यापारिक जहाजों से ले कर सैकड़ों छोटीबड़ी नौकाएं अपने मछुआरों के संग जाल या महाजाल बिछाए मछली पकड़ती व्यस्त रहती हैं. ऐसे में वह कोई अनोखा तो नहीं, जो यहां रह नहीं पाए. उसे अभी मौजमस्ती की क्या जरूरत. उसे तो अभी अपने परिवार के अभावों के जाल काटना है. यहां खानेपीने की समस्या नहीं. ठेकेदार की तरफ से सभी के लिए यहां निःशुल्क भोजन की भी व्यवस्था है. पंकज शर्मा ने उसे अपना छोटा मोबाइल दे दिया था, जिस से वक्तजरूरत मां या भाईबहन से बात कर लिया करता था.
जिस जहाज पर पंकज शर्मा तैनात थे, उसी पर उस का काम चल रहा था. उस जहाज पर उसे ले कर कुल 24 लोग थे. शाम को वह वापस बजरे पर आ जाते, जहां उन की रिहाइश थी.
बजरा एक सपाट डेक वाली नौका को कहते हैं, जो सिर्फ पानी की सतह पर तैरती रहती है. कुछ बजरों में उसे चलाने के लिए इंजन भी लगा रहता है. लेकिन आमतौर पर बिना इंजन वाले इन बजरों को जहाजों द्वारा खींच कर ही इधरउधर लाया या ले जाया जाता है. इस समय ओएनजीसी के औयल रिंग प्लेटफार्म पर कुछ काम चल रहा था. शाम में सभी ‘राजहंस’ नामक इस बजरे पर चले जाते और वहां के लगभग ढाई सौ छोटेबड़े दड़बेनुमा केबिनों में समा जाते. वहीं खानापीना, नहानाधोना वगैरह होता और अगले दिन के लिए सो जाना होता था. यहां से बहुत जरूरी होने पर ही लोग मुंबई समुद्र तट का रुख करते थे. क्योंकि आनेजाने में ही दिनभर लग जाता था. आमतौर पर महीनेपखवाड़े ही कोई उधर जाता था.
विगत दिनों का वह मनहूस दिन उस के सामने दृश्यमान सा खड़ा था, जब वह पंकज शर्मा के साथ बजरे पर शाम को वापस लौटा था. समुद्र किसी कुपित बाघ की भांति दहाड़ रहा था. पंकज शर्मा पिछले 18 साल से यहां इसी समुद्री तल पर काम करते आए थे. उन्होंने समुद्र के विविध रंग बदलते तेवरों को देखा ही नहीं, झेला भी था. “अरे, कुछ नहीं,” वह बेफिक्री से बोले थे, “तूफान आतेजाते रहते हैं. मनुष्य को अपना काम करते रहना चाहिए.”
“फिर भी सर, इस बार खतरा कुछ ज्यादा ही दिख रहा है,” उन का सहायक मनीश पाटिल सशंकित शब्दों में बोला, “चारों तरफ से वार्निंग की खबरें आ रही हैं. सभी छोटेबड़े जहाज किनारों की ओर चले गए हैं. हमें रिस्क नहीं लेना चाहिए.”
“अब जो होगा, कल ही होगा न,” वह निश्चिंत भाव से बोले, “अब आराम से खाना खाओ और सो जाओ. कल सुबह देखा जाएगा.”
“एक कोरोना से कम तबाह थे क्या, जो ये तूफान आया है,” शिवजी वानखेड़े बोला, “पूरे मुंबई में लौकडाउन लगा है. और यहां ये हाल है कि क्या होगा, क्या पता…”
“इसलिए तो मैं कहता हूं कि हम सुरक्षित जगह में आइसोलेटेड हैं, क्वारंटीन हैं.”
“आप भी सर, गंभीर बातों को हंसी में उड़ा देते हैं,” मनीश पाटिल के यह बोलने पर वह हंसते हुए बोले, “सोच लो, आज से हजार साल पहले जब वास्को-डि-गामा समुद्री मार्ग से आया होगा तो क्या हाल होगा… अभी तो ढेर सारी सुविधाएं हैं, सुरक्षा के इंतजाम भी हैं. अरे, हम जहाजियों का जीवन ही खतरों से खेलने के लिए बना है.”
खैर, रात 9 बजे तक सभी खापी कर अपनेअपने केबिनों में सोने चले गए. वह यों ही डेक पर टहलने जाने का विचार कर ही रहा था, मगर हवा काफी तेज थी. समुद्री लहरें जैसे हर किसी को लपकने के लिए आसमान चूमना चाह रही थीं. वह अपने केबिन में जा कर लेटा रहा. बजरा और दिनों की अपेक्षा आज कुछ ज्यादा ही हिचकोले खा रहा था. चूंकि समुद्री जीवन जीने के अभ्यस्त लोग इसे देखने के आदी हैं, उन्हें बजरे के हिलनेडुलने से विशेष फर्क नहीं पड़ना था.
अचानक तीखी आवाज से बजते सायरन को सुन कर वह चौंक पड़ा. सभी को लाइफ जैकेट पहनने और तैयार रहने को कहा जा रहा था. फोन, पर्स आदि जरूरी सामान के साथ वह लाइफ जैकेट पहने औफिस की ओर आया. वहां वरिष्ठ अधिकारियों के साथ पंकज शर्मा भी गंभीर मुद्रा में लाइफ जैकेट पहने खड़े थे. वे बोले, “सचमुच हम ने तूफान की गंभीरता समझने में भूल की. मगर अब तो बचाव का रास्ता ढूंढ़ना ही एकमात्र उपाय है. बजरे के लंगर टूटते जा रहे हैं. 8 में से 3 टूट चुके हैं और अन्य भी कमजोर पड़ रहे हैं. हमें डर है कि लंगर से मुक्त होते ही यह अनियंत्रित बजरा हिलतेडुलते, तूफान की लहरों के साथ बहते औयल रिंग के प्लेटफार्म से न जा टकराए. प्लेटफार्म पर तेल और गैस की पाइपलाइनें हैं, जो टकराने पर फट कर विस्फोट कर सकती हैं. ऐसे में बचने की सारी संभावना खत्म हो जाएगी.
वे सभी लोग नौसेना अधिकारियों, तटरक्षकों, अपनेअपने मुख्यालयों में हाहाकार भरा त्राहिमाम संदेश फोन से, रेडियो द्वारा और व्हाट्सएप से भी भेज रहे थे. उधर तूफान क्षणप्रतिक्षण विकराल हुआ जाता था. कमजोर पड़ते लंगरों के टूटने के साथ बजरे का हिलनाडुलना बेतरह बढ़ता जाता था. और अंततः वही हुआ, जिस की आशंका थी. लंगरविहीन बजरा अनियंत्रित हो औयल रिंग के प्लेटफार्म की तरफ बढ़ने लगा, जिसे देख सभी का कलेजा मुंह को आने लगा था.
औयल रिंग प्लेटफार्म के पास क्रूर लहरों ने बजरे को पटक सा दिया था. उस से बजरा जोर से टकराया जरूर, मगर कोई विस्फोट नहीं हुआ. लेकिन इस टक्कर से बजरे की पेंदी में एक छेद हो गया था, जिस से उस में पानी भरना आरंभ हो गया था. मतलब, एक मुसीबत से बचे, तो दूसरी मुसीबत में घिर गए थे. रबर के राफ्ट निकाले जाने लगे. उन्हें तैयार कर नीचे समुद्र में डाल दिया गया. मगर थोड़ी ही देर बाद देखा कि राफ्ट किसी नुकीली चीज से पंक्चर हो गया था और उस में बैठे लोग समुद्री लहरों के बीच लापता हो चुके हैं.
“घबराना नहीं राजन, हिम्मत रखना,” पंकज शर्मा जैसे उस के बहाने खुद को दिलासा दे रहे थे, हौसला बढ़ा रहे थे. कह रहे थे, “नौसेना का जहाज अब पहुंचने ही वाला है. अब हम सभी बच जाएंगे.”
सचमुच नौसेना का जहाज ज्यादा दूर नहीं, दोचार मील के अंदर ही रहा होगा. मगर भयंकर तूफान और गहन अंधकार के बीच कम विजिबिलिटी की वजह से कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. वहां से लगातार संदेश आ रहे थे, ‘थोड़ा इंतजार करो, क्योंकि खराब विजिबिलिटी की वजह से नजदीक आने पर नेवी शिप की बजरे से टक्कर हो सकती है.’
और इसी इंतजार के बीच बजरा पानी में तेजी से धंसता चला जा रहा था. लगभग आधे से अधिक बजरे के पानी में समाने पर ही सभी एकएक कर कूदने लगे. जो तैरना नहीं जानते थे, वे कूदने में ज्यादा झिझक रहे थे. हालांकि उन्हें यहां आने पर लाइफ जैकेट पहन कर तैरने का प्रशिक्षण दिया गया था. कुछ कूदे भी. मगर जो भयवश नहीं कूद पाए, उन्होंने बजरे के साथ ही जल समाधि ले ली.
तैराकी में उस की सदैव रुचि रही थी. गांव के समीप बहने वाली बूढ़ी गंडक हो अथवा मामा के गांव के किनारे बहने वाली बागमती, वह नहाने के बहाने काफी देर तक तैराकी करता, करतब दिखाता रहता था. यहां तक कि बाढ़ के दिनों में भी उसे कभी डर नहीं लगा. मगर नदी में तैरना एक बात है और अनंत समुद्र में तूफान का मुकाबला करना बिलकुल दूसरी बात है. वह भी आधी रात के इस गहन अंधेरे में, जब एक हाथ को दूसरा हाथ नहीं सूझ रहा हो, तैरना असंभव को संभव बनाने जैसा है. समुद्र के नमकीन, खारे पानी से आंखों में जलन हो रही थी. तूफानी लहरें शरीर को कभी हवा में उछालती, तो कभी गहरे पानी में खींच ले जाती थी.
मगर मनुष्य की जिजीविषा भी तो बड़ी है. वह इसी की बदौलत प्रकृति से, समय और समाज से संघर्ष करता है. हार होती है. मगर कभीकभी वह जीत भी जाता है. और जो जीतता है, वो इतिहास रचता है. यथार्थ तो यही है कि वह इतिहास रचने के लिए संघर्ष नहीं करता, बल्कि खुद को बचाने के लिए संघर्ष करता है. आने वाला समय उसे विजेता घोषित कर देता है.
यह सब तो बाद की बात है, अभी तो वह खुद को बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है, ताकि वह भविष्य में अपनी मां को, अपने छोटे भाईबहन को पालपोस सके, उन्हें सही शिक्षा दिलवा सके. यही तो उस के जीवन का मकसद है. उसे और क्या चाहिए?
उस के इर्दगिर्द अनेक लोग तैर रहे हैं, डूब या उतरा रहे हैं. लाइफ जैकेट उन्हें डूबने नहीं दे रहा. उन के लाइफ जैकेट में लगी बत्ती जल रही है, जिस से उन के अस्तित्व का पता चल रहा है. जो तैरना नहीं जानते, वे जोरजोर से हाथपैर चलाते हुए खुद को थकाए दे रहे हैं. उन के भय और लाचारगी की कोई सीमा नहीं थी. और तो और यहां सभी को अपनी जान के लाले पड़े थे. इस अथाह समुद्र में मौत से लड़ते लोगों को कोई पहचान कर भी क्या कर पाता.
इसी तरह तैरते चारेक घंटे के बाद नौसेना का जहाज दिखा तो जैसे आशा की किरण फूटी. पूर्व दिशा में भी लालिमा दिखने लगी थी. सूर्योदय होने को था. सभी उस जहाज की दिशा की ओर तैरने लगे.
मगर, यह क्या…? देखते ही देखते आसमान कालेकाले बादलों से भर गया था और उसी के साथ पुनः अंधकार छा गया था. मूसलाधार वर्षा होने लगी थी. आशा की जो एक धूमिल किरण थी, वह भी धुंधली पड़ने लगी थी. समुद्री लहरें पुनः काल के समान अट्टहास करते सभी को कभी आकाश की ओर उछालती, तो कभी गरदन दबा खारे पानी के भीतर खींच ले जाती थी.
प्रकृति के इस रौद्र खेल को खेलने को वे अभिशप्त से थे. समय का ध्यान कहां था? कौन समय का ध्यान रख पाया है?
अचानक आकाश में बादल छंटे, ऊपर सूर्य मुसकराया तो सब ने देखा कि ठीक बगल में नौसेना का जहाज खड़ा है. जहाज में बैठे नौसैनिक चिल्लाते हुए निर्देश दे रहे थे. वे हर संभावित व्यक्ति की तरफ रोप लैडर (रस्सी की सीढ़ियां) फेंक उसे पकड़ने के लिए इशारे कर रहे थे. कोई जैसे ही उसे पकड़ता, वह उसे खींच जहाज के अंदर कर लेते. न जाने कहां से अचानक उस में इतनी ताकत आ गई थी कि अंततः उस ने एक रोप लैडर को पकड़ लिया था.
अब वह नौसेना के जहाज में था. उस का रोआंरोआं अभी तक कांप रहा था. भय और आशंकाएं जैसे पीछा नहीं छोड़ रही थीं. नौसैनिक वहीं डेक पर उसे लिटा उस का प्राथमिक उपचार कर रहे थे. लेकिन उस की चेतना उसी तरह ऊपरनीचे हो रही थी, जैसे कि वह लहरों के द्वारा ऊपरनीचे उछाला जा रहा हो. डेक पर सैकड़ों लोग पड़े थे. उन में कौन जिंदा है और कौन मर गया, कहना मुश्किल था. फिर भी नौसैनिक भागदौड़ करते मेडिकल ट्रीटमेंट दे रहे थे. उन का एक दूसरा दल अभी भी समुद्र में निगाहें टिकाए देख रहा था कि शायद कहीं कोई भूलाभटका दिख जाए. इसलिए नेवी शिप से बंधे रोप लैडर अभी तक पानी में तैर रहे थे.
अगले दिन वह चैतन्य हुआ, तो खुद को आर्मी अस्पताल में पाया. बजरे में फंसे अनेक लोग उस वार्ड में भरती थे.
“यह सौभाग्य की बात है कि आप ठीक हैं,” एक डाक्टर कह रहा था, “आप मेरे सामने थोड़ा चलनेफिरने का प्रयास करें.”
वह उठा और कुछ कदम चल कर वापस अपने बेड पर आ गया.
दोपहर को उसे भोजन कराने के बाद एक नौसैनिक अधिकारी उस के पास आया और बोला, “मुझे आप का सहयोग चाहिए. आशा है, आप ‘ना’ नहीं करेंगे.”
जिन लोगों की वजह से वह जिंदा है, उन का सहयोग कर खुशी ही मिलेगी. मगर अभी तो वह खुद अशक्त है. वह किसी की क्या मदद कर सकता है.
“बस कुछ नहीं. कुछ लोगों की शिनाख्त करनी है,” नौसैनिक अधिकारी कह रहा था, “डेड बौडी विकृत सी हो गई हैं. आप उन्हें पहचान सकें तो बेहतर है, ताकि उन के घर खबर भिजवाई जा सके.”
“ओह, तो यह काम है,” उस ने विचार किया “अब जब वह बच गया है, तो बचाने वाले का सहयोग करना उस का फर्ज बनता है.”
आर्मी अस्पताल के बाहर खुले में अनेक शव सफेद चादरों में लिपटे पड़े थे. उन्हें देखना यंत्रणादायक था. मगर एक शव के पास आते ही वह चित्कार भर कर रो पड़ा. वह पंकज शर्मा का शव था. वह वहां से दौड़ कर भागा और खुले में लोट गया. उस के पीछे जब वह सैन्य अधिकारी आया, तो उस ने उस से फोन मांग कर पहले शिपिंग कंपनी में फोन कर उन्हें इस की जानकारी दी. फिर गांव में आलोक को फोन कर जानकारी देने लगा था.
और इस के बाद तो जैसे गांव से फोन पर फोन आने लगे थे. पंकज शर्मा के भैया नारायण चाह रहे थे कि पंकज का शव गांव आए और वहीं उस की अंत्येष्टि हो. शीघ्र ही शिपिंग कंपनी का मैनेजर भी आ गया और उस से जानकारी लेने लगा था. अब वह उन के शव को उन के गांव भिजवाने की तैयारी में लग गया था.
“उन के शव के साथ तुम जाओगे,” मैनेजर उस से कह रहा था, “अभी तुम्हें भी आराम की जरूरत है. और यह तुम्हें अपने घर पर ही मिल सकता है. एकाध माह वहीं घर पर अपने लोगों के बीच रहोगे तो इस त्रासदी को भूलने में तुम को सुविधा रहेगी. इस के बाद तुम सुविधानुसार आ जाना.”
अचानक उसे लगा कि पंकज शर्मा उस के पास खड़े कह रहे हैं, “देखा, मैं ने कहा था ना कि हम बच जाएंगे. देखो, हम बच कर वापस गांव आ गए हैं.”
अचानक फिर उस के सामने एक और दृश्य उभरा. सफेद चादरों में लिपटे कुछ शव उस की ओर देख रहे थे. उन्हीं के बीच जा कर पंकज शर्मा पुनः लेट गए थे. वह चीख मार कर उठा. बगल में लेटा हुआ उस का भाई सकते में था और पूछ रहा था, “क्या हुआ भैया, कोई खराब सपना देखा क्या?”
“हां रे, बहुत खराब सपना था.”
सुदूर पूर्व में सूर्योदय हो रहा था. अंदर से मां आ रही थी. वह मां से लिपट कर