कालिमा: भाग 1- कैसे बेटे-बहू ने समझी अम्मां-बाबूजी की अहमियत

बदरीनाथ का दिल बेहद परेशान था. एक ही प्रश्न रहरह कर उन को मथ रहा था. उम्र के इस पड़ाव पर वे दोनों, पतिपत्नी अकेले किस तरह रहेंगे? कौन भागदौड़ और सेवाटहल करेगा? फिर ब्याज व मकान किराए की सीमित आय. खर्चे कैसे पूरे होंगे? वृद्धावस्था में बीमारियां भी तो लग जाती हैं.

बहूबेटों का साथ छोड़ कर शायद उन्होंने ठीक नहीं किया. मगर वह भी क्या करते, तीनों बेटों में से एक भी उन्हें मन से रखना नहीं चाह रहा था. तीनों एकदूसरे पर डाल रहे थे. बातबात पर उन्हें जिल्लत झेलनी पड़ रही थी. उन के  लिए वहां एकएक पल काटना दूभर हो गया था.

जब इसी तरह उपेक्षा से रहना है तो अपने घर जा कर क्यों न रहें, जिसे उन्होंने अपने खूनपसीने से बनाया था. भले ही अकेले रह कर तकलीफें उठाएंगे, यह एहसास तो रहेगा कि अपने घर में रह रहे हैं.

घर की याद आते ही वे बेचैन हो उठे.

बड़ी मुश्किल से 17-18 घंटों का लंबा सफर तय हुआ. 27-28 वर्ष पूर्व, गृहप्रवेश के समय सुख की जो अनुभूति उन्हें हुई थी उस से हजार गुना ज्यादा इस वक्त हो रही थी.

उन का मकान दोमंजिला था. नीचे की मंजिल में वह स्वयं रहते थे, ऊपर वाला किराए पर उठा दिया था. उन के आने की खटरपटर सुन ऊपर छज्जे में से गुडि़या झांकने लगी. 5 साल की प्यारी सी नन्ही गुडि़या, उन के किराएदार श्रुति  और रंजन की बिटिया. उन्हें देखते ही खुशी से किलक कर वह तालियां पीटने लगी, ‘‘ओए होए, बाबा आ गए, अम्मां आ गईं.’’

वे जब तक आंगन में आते, नन्ही गुडि़या तेजी से भागती, सीढि़यां फलांगती नीचे उतरी और उन से आ कर लिपट गई. पीछेपीछे किलकता उस से छोटा चुन्नू भी था. बदरीनाथ और पारो उन दोनों को कस कर भींच बच्चों की मानिंद फूटफूट कर रो पडे़.

तब तक श्रुति व रंजन भी आ गए थे. दोनों की आंखों में आश्चर्य के भाव थे. उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि बाबाअम्मां गए तो थे अपने बेटों के पास स्थायी रूप से रहने के लिए लेकिन इतनी जल्दी वापस क्यों आ गए…और वह भी बिना कोई सूचना दिए…अकेले…एकाएक…अपना पूरा सामान ले कर.

मगर बाबाअम्मां जिस तरह गुडि़याचुन्नू को चूमते हुए रो रहे थे, श्रुति  और रंजन कुछ न पूछ कर भी सब कुछ ताड़ गए. दोनों उन के समीप आ कर बैठ गए और उन के हालचाल पूछने लगे.

बदरीनाथ और पारो का जी हलका होने के बाद श्रुति और रंजन ने उन का सामान उठाया और ऊपर जीने में चढ़ाने लगे. बदरीनाथ ने सामान नीचे ही रखने का आग्रह किया पर श्रुति और रंजन ने स्नेहपूर्वक मना कर दिया कि इतने लंबे सफर के बाद थक गए होंगे. वैसे भी नीचे रसोई का पूरा सामान नहीं था.

वृद्ध दंपती का हृदय भर आया. वे सब ऊपर आ गए. चायनाश्ता करते हुए वे आपस में बतियाने लगे. सब से ज्यादा चहक रहे थे गुडि़या और चुन्नू. दोनों बदरीनाथ व पारो की गोद में इस तरह उछलकूद रहे थे जैसे अपने सगे दादादादी की गोद में हों.

वृद्ध दंपती को यह सब बेहद खुशगवार लग रहा था. पिछले ढाईतीन महीनों में उन्हें उन के अपनों ने जो घाव दिए थे, इन चंद मिनटों में ही उन की सारी कसक वे भूल गए.

मगर नियति ने शायद कुछ और सोच रखा था. इस से पहले कि वे आश्वस्त हो कर चैन की सांस लेते, तभी गुडि़या ने बातों के प्रवाह में अपनी यह

सूचना दे डाली कि उस के पापा ने एक घर खरीद लिया है, वे अब वहीं जा

कर रहेंगे.

सुनते ही बदरीनाथ और पारो जड़वत रह गए. एक पल को उन्हें सूझा ही नहीं कि इस शुभ उपलब्धि पर वे अपनी प्रतिक्रिया किस तरह व्यक्त करें. एक ओर सुख की अनुभूति हो रही थी कि उन के निश्छल सेवाभावी किराएदार का सपना पूरा होने जा रहा है, दूसरी ओर दिल भी बैठा जा रहा था कि जिन के सहारे वे अपनी जिंदगी का कुछ हिस्सा काटना चाहते थे वे ही उन्हें छोड़ कर चले जाएंगे.

उधर श्रुति और रंजन अजीब पसोपेश में पड़ गए थे. अपना घर खरीदने की उन्हें खुशी तो थी, यह जानकारी वे अपने वृद्ध मकान मालिक को देना भी

चाहते थे, मगर अपनों से ठुकरा कर आए इन वृद्धजनों की जो नाजुक मनोस्थिति इस वक्त थी उसे देखते हुए इस बात को वह 1-2 दिन और छिपाना चाहते थे.

श्रुति ने तो मन ही मन निश्चय कर लिया था कि भले ही 2-3 माह का किराया और देना पडे़, 4 दिन बाद होने वाला गृहप्रवेश वह आगे बढ़ा देगी. बाबाअम्मां का वह दिल से सम्मान करती थी. उस की दोनों प्रसूतियां अम्मांजी ने स्वयं इसी घर में करवाई थीं. हालांकि दोनों बार उस की सासूमां गांव से यथासमय आ गई थीं, मगर अम्मांजी ने उन के आने से पहले ही सारी तैयारियां करवा दी थीं. बाद में भी सगी दादी की तरह वह गुडि़या और चुन्नू की देखभाल करती रही थीं.

अब ऐसी स्नेहमयी अम्मां से वह भला एकदम कैसे कह देती कि हम 4 दिन बाद आप को छोड़ कर अपने मकान में जा रहे हैं.

उस की आंखों से बरबस आंसू ढुलक पडे़.

पथराई सी बैठी अम्मांजी ने जल्दी से अपने मनोभावों को नियंत्रित किया. गुडि़या के शुभ समाचार देने के साथ ही वह सोफे से उठीं और आगे बढ़ कर श्रुति को वात्सल्य से भींच लिया, ‘‘अरी पगली, ऐसी खुशखबरी ऐसे रोते हुए देते हैं,’’ साथ ही उन्होंने बटुवे से 100 का नोट निकाल उस के हाथों में जबरदस्ती ठूंस दिया.

बाबा ने भी रंजन व बच्चों को बधाई के रुपए दिए.

रंजन और श्रुति के गलेरुलाई से भर आए.

अगले दिन पौ फटने से पहले ही अम्मांजी उठ गईं. नीचे आ कर वह अपने बंद घर की साफसफाई करने लगीं. खटरपटर सुन कर रंजन व श्रुति भी आ गए और अम्मांजी के काम में हाथ बंटाने लगे. उन का यह अपनत्व देख अम्मांजी का हृदय भर आया.

अम्मांजी अपनी रसोई भी आरंभ करना चाह रही थीं मगर श्रुति ने अधिकारपूर्वक मना कर दिया. रसोई का लगभग सारा सामान बाजार से लाना था. बाबा तुरतफुरत अकेले इतनी भागदौड़ कैसे करेंगे? रंजन के सहयोग से 2-3 दिनों में सारा इंतजाम हो जाएगा. तब तक बाबाअम्मां उन्हीं के संग भोजन करें. वैसे भी अम्मांजी के हाथ का जायकेदार भोजन किए 3 महीने बीत गए थे. गुडि़या तो रोज मुंह फुलाती थी, ‘अम्मांजी जैसी सब्जी आप क्यों नहीं बनातीं, मम्मी?’

आखिर अम्मांजी को हार माननी पड़ी. दोपहर का भोजन कर बाबाअम्मां नीचे आराम करने चले गए. रंजन 10 बजे बैंक जा चुका था. गुडि़या भी स्कूल गई थी. चुन्नू को थपकी देती श्रुति सोच में डूब गई.

रहरह कर बाबाअम्मांजी के भावी जीवन की त्रासदी की कल्पना उसे झकझोर देती, ‘कैसे रहेंगे वे दोनों? क्या बीत रही होगी इस वक्त उन दोनों के दिलों पर? जिन बेटों को पालपोस कर इतना बड़ा किया वे ही पराए हो गए…उन के खर्चे कैसे चलेंगे? रिटायर होने के बाद उन की आय के साधन ही क्या थे? पी.एफ., ग्रेच्युटी का कुछ भाग वे पिछले वर्ष बड़ी पोती की शादी में खर्च कर चुके थे. शेष बचा फंड अन्य पोते- पोतियों के नाम कर दिया था. अपने लिए उन्होंने कुछ नहीं बचाया. मुश्किल से 70-80 हजार रुपयों की एफ.डी. थी बैंक में और था यह मकान. एफ.डी. के ब्याज और मकान के किराए से कैसे चलेगा उन का खर्च. हमारे जाने के बाद पता नहीं कैसे किराएदार आएं. यदि हमारी तरह घर जैसा समझने वाले न आए तब? बाबाअम्मां की बीमारी में सेवाटहल कौन करेगा?’

आगे पढ़ें- श्रुति की उड़ी रंगत देख वे..

Valentine’s Day: नया सवेरा- भाग 2

पिछला भाग- Valentine’s Day: नया सवेरा (भाग-1)

छोटी मां को कभी मैं ने पापा की कमाई पर ऐशोआराम करते नहीं देखा. वे तो घर से बाहर भी नहीं जाती थीं. चुपचाप अपने कमरे में रहतीं. धीरेधीरे मेरी उन के प्रति नफरत कम होती गई, लेकिन अभी भी मैं उन को मां मानने को तैयार नहीं थी. कभीकभी दिल जरूर करता कि मैं उन से पूछूं कि क्यों उन्होंने मेरे उम्रदराज पापा से शादी की जबकि उन्हें तो कोई भी मिल सकता था. आखिर इतनी खूबसूरत थीं और इतनी जवान. लेकिन हमारे बीच बहुत दूरी बन गई थी जिसे न मैं ने कभी दूर करना चाहा, न उन्होंने. ऐसा लगता था मानो घर के अलगअलग 2 कमरों में 2 जिंदा लाशें हों.

घड़ी की घंटी ने सुबह के 3 बजाए. मैं कमरे से बाहर गई और फ्रिज से पानी निकाल कर पिया. तभी मेरी नजर छोटी मां पर पड़ी जो बाहर बालकनी में बैठी थीं और बाहर की तरफ एकटक देख कर कुछ सोच रही थीं.

मु झे अनायास ही हंसी आ गई. मु झे दया आ रही थी इस बंगले पर जहां की महंगी दीवारों और महंगे कालीनों ने महंगे आंसुओं का मोल नहीं सम झा. मैं अपने कमरे में रो रही थी और छोटी मां इसी अवस्था में सुबह के 3 बजे बालकनी में बैठी हैं. खैर, मैं अपने कमरे में जाने के लिए जैसे ही मुड़ी, आज मेरे दिल ने मु झे रोक लिया.

दिमाग ने फिर उसे जकड़ा, कहा कि तु झे क्या मतलब है. यहां सब अपनी जिंदगियां जी रहे हैं. तू भी जी. क्या तु झे तेरी छोटी मां ने कभी कुछ कहा? जब तू उदास थी तब कभी तु झ से उदासी का कारण पूछा? जब कभी तू परेशान थी, कभी तेरे पास आ कर बैठीं वो? यह तो छोड़, कभी तु झ से कुछ बात भी करने की कोशिश की इन्होंने? तेरी जिंदगी में कभी कोई दिलचस्पी दिखाई इन्होंने? नहीं न, फिर तू किस बात की सहानुभूति दिखाना चाहती है? तो सब जैसा सब चल रहा है सदियों से इस घर में, वैसा ही चलने दे. अब और कुछ नए रिश्ते न बना. लेकिन पता नहीं क्या हुआ, आज तो मेरा मन मेरे दिमाग से हारने वाला नहीं था.

कदम वापस अपने कमरे की तरफ बढ़ ही नहीं रहे थे. मैं ने एक नजर फिर छोटी मां पर डाली. उन के गालों से आंसुओं का सैलाब बह रहा था. न जाने मु झे उस वक्त क्या हुआ, मेरे कदम उन की तरफ बढ़ने लगे. मैं उन के पास जा कर खड़ी हो गई.

मैं ने उन से पूछा, ‘‘आप ठीक तो हैं न? इस वक्त अकेले में यहां?’’ छोटी मां ने आंसुओं को पोंछते हुए कहा, ‘‘मैं तो अकसर यहां बैठ कर खुद से बात कर लेती हूं

प्रीति, और अकेले रहना तो इस घर की नियति ही है. तुम भी तो अकेली ही रहती हो. हां, आज बात कुछ और है. प्रीति, कल रात 11 बजे मेरे पिता चल बसे.’’ यह कह कर छोटी मां चुप हो गईं. मु झे सम झ में नहीं आ रहा था मैं क्या कहूं. मैं ने पहली बार ठीक से उन से बात की थी. मैं तो शायद दूसरों से बात करना, उन्हें सांत्वना देना भी भूल गई थी.

मैं कुछ देर चुप रही. फिर छोटी मां ने खुद कहा, ‘‘मेरे पापा बहुत शराब पीते थे. हम 3 बहनें ही थीं. उन्हें बेटा नहीं था. वे कुछ कमाते भी नहीं थे. हमारी मां थोड़ाबहुत जो कमातीं उसी से गुजर चलता था. मां ने उस हालत में भी मेरी बड़ी 2 बहनों को तो पढ़ाया. परंतु जब मेरा स्कूल में दाखिले का समय आया तो वे किसी अनजान बीमारी से ग्रसित हो गईं. हालांकि, मैं 6 वर्ष की थी, मां मु झे बस थोड़ीथोड़ी याद हैं. हां, एक बार पापा ने मां को बहुत मारा था. मैं उस वक्त बहुत डर गई थी.

‘‘मां की मृत्यु के बाद मेरी बड़ी बहनों ने घर की जिम्मेदारी ले ली. वे खुद भी पढ़तीं और मु झे भी पढ़ातीं. मैं स्कूल नहीं जाती थी. उतना पैसा नहीं था हमारे पास. मेरी बहनें मु झे घर पर ही पढ़ातीं. मैं ने पढ़ाई काफी देर से शुरू की थी, परिणामस्वरूप 20 वर्ष की आयु में मैं ने मैट्रिक की परीक्षा ओपन स्कूल से दी. मैं पास तो हो गई, लेकिन अच्छे अंक नहीं आए. फिर घर का खर्चा भी चलाना मुश्किल होता जा रहा था. दोनों बहनों की शादी हो चुकी थी. पापा तो पहले की तरह शराब के नशे में ही डूबे रहते.

‘‘कभीकभी सोचती हूं कि यदि दादाजी ने अपना घर नहीं बनाया होता, तब हमारा क्या होता. कम से कम सिर छिपाने की जगह तो थी. खैर, यही सब देखते हुए मैं ने अस्पताल में नौकरी करने की सोची. तनख्वाह बहुत कम थी, परंतु दालरोटी का खर्च निकल ही आता था. अस्पताल में मु झ पर बुरी नजर डालने वाले बहुत थे. कभीकभी खूबसूरती भी औरत की दुश्मन बन जाती है.

‘‘एक दिन तुम्हारे पिता किसी काम से अस्पताल आए. उन्होंने मु झे वहां देखा. मेरे बारे में पूछताछ की. मेरे घर का पता लिया और मेरे पापा से मिले. औरों की तरह उन्हें भी मेरी खूबसूरती भा गई और गरीब की खूबसूरती को खरीदना अमीरों के लिए शायद ही कभी मुश्किल रहा हो. उन्होंने मेरे पिता के सम्मुख शादी का प्रस्ताव रखा.

‘‘मेरे पिता तो जैसे खुशी से फूले नहीं समाए. 20 साल की बेटी को 42 साल के उम्रदराज से ब्याहने में उन्हें जरा सी भी तकलीफ नहीं हुई, बल्कि उन की खुशी की तो कोई सीमा ही नहीं थी. उन्हें तो विश्वास ही नहीं हो रहा था कि उन की बेटी शहर के जानेमाने रईसजादे के साथ ब्याही जाएगी. पैसों में बहुत बल होता है. बहुत बुरा लगा मु झे. मेरी राय तो कभी ली ही नहीं गई. पापा किस अधिकार से मेरी जिंदगी का निर्णय कर सकते थे? कभी बाप होने का कोई फर्ज निभाया था उन्होंने? मैं बहुत रोई, चिल्लाई लेकिन मेरी कौन सुनने वाला था. मैं ने अपनी बहनों को यह बात कही, परंतु वे भी अपनी घरगृहस्थी के  झमेलों में इस तरह लिप्त थीं कि ज्यादा कुछ कर न सकीं. वे खुद भी इस स्थिति में नहीं थीं कि मेरी कोई सहायता कर सकें.

‘‘परंतु मेरा मन नहीं माना. मैं ने सोच लिया कि कुछ भी हो जाए, मैं यह शादी नहीं करूंगी. लेकिन, तभी मेरी बड़ी बहन के साथ एक दुर्घटना हो गई. वे बस से कहीं जा रही थीं और वह बस खाई में गिर गई. वे बच तो गईं लेकिन इलाज में बहुत पैसा लगता. तब मैं ने ठंडे मन से सोचा. बहन को बचाना जरूरी था. आखिर उन्होंने मां की तरह पाला था मु झे. पैसों की ताकत को मैं ने उस वक्त पहचाना. मैं ने चुपचाप तुम्हारे पापा से शादी करने का मन बना लिया. मु झे पता चला कि उन की एक 12 वर्ष की बेटी भी है परंतु फिर भी मैं ने सिर्फ अपनी बड़ी बहन को बचाने की खातिर यह सब किया.

आगे पढ़ें  तुम्हारे पिता ने हमारी आर्थिक रूप से बहुत मदद की…

Serial Story: कोई अपना – भाग 1

स्थानांतरण के बाद जब हम नई जगह आए तो पिछली भूलीभटकी कई बातें अकसर याद आतीं. कुछ दिन तो नए घर में व्यवस्थित होने में ही लग गए और कुछ दिन पड़ोसियों से जानपहचान करने में. धीरेधीरे कई नए चेहरे सामने चले आए, जिन से हमें एक नया संबंध स्थापित करना था. मेरे पति बैंक में प्रबंधक हैं, जिस वजह से उन का पाला अधिकतर व्यापारियों से ही पड़ता. अभी महीना भर ही हुआ था कि एक शाम हमारे

घर में एक युवा दंपती आए और इतने स्नेह से मिले, मानो बहुत पुरानी जानपहचान हो. ‘‘नई जगह पर दिल लग गया न, भाभीजी? हम ने तो कई बार सुनीलजी से कहा कि आप को ले कर हमारे घर आएं. आप आइए न कभी, हमारे साथ भी थोड़ा सा समय गुजारिए.’’ युवती की आवाज में बेहद मिठास थी, जो कि मेरे गले से नीचे नहीं उतर रही थी. इतने प्यार से ‘भाभीभाभी’ की रट तो कभी मेरे देवर ने भी नहीं लगाई थी.

मेरे पति अभी बैंक से आए नहीं थे, सो मुझे ही औपचारिकता निभानी पड़ रही थी. नई जगह थी, सो, सतर्कता भी आवश्यक थी. शायद? उन्होंने मेरे चेहरे की असमंजसता पढ़ ली थी. युवक बोला, ‘‘मुझे सुनीलजी से कुछ विचारविमर्श करना था. बैंक में तो समय नहीं होता न उन के पास, इसलिए सोचा, घर पर ही क्यों न मिल लें. इसी बहाने आप के दर्शन भी हो जाएंगे.’’

‘‘ओह,’’ उन का आशय समझते ही मेरे चेहरे पर अनायास ही एक बनावटी मुसकान चली आई. शीतल पेय लेने जब मैं भीतर जाने लगी तो वह युवती भी साथ ही चली आई, ‘‘मैं आप की मदद करूं?’’

मेरे चेहरे पर खीझ उभर आई कि अपना काम हो तो लोग किस सीमा तक झुक जाते हैं.

लगभग 4 साल पहले जब नएनए लुधियाना गए थे, तब भी ऐसा ही हुआ था. मधु कैसे घुसी चली आई थी हमारी जिंदगी में. दोनों पतिपत्नी कितने प्यार से मिले थे. मधु के पति केशव ने कहा था, ‘भाभीजी, आप आइए न हमारे घर. मधु आप से मिल कर बहुत खुश होगी.’ ‘जी, जरूर आएंगे,’ मैं कितनी खुश हुई थी, कोई अपना सा लगने वाला जो मिला था. परिवार सहित पहले वे लोग हमारे घर आए और उस के बाद हम उन के घर गए. मधु मुझ से जल्दी ही घुलमिल गई थी जैसे पुरानी दोस्ती हो.

‘ये साहब आप को कैसे जानते हैं?’ मैं ने पति से पूछा. ‘हमारे बैंक की ही एक पार्टी है. अपना व्यवसाय बढ़ाने के लिए बेचारा दौड़धूप कर रहा है. बड़ी फैक्टरी खोलने का विचार है,’ पति ने लापरवाही से टाल दिया था, मानो उन्हें मेरा प्रश्न बेतुका सा लगा हो.

एक दिन मधु ऊन लाई और जिद करने लगी कि मैं उस के बेटे का स्वेटर बुन दूं. काफी मेहनत के बाद मैं ने रंगबिरंगा स्वेटर बुना था. उसे देख कर मधु बहुत खुश हुई थी, ‘भाभी, बहुत सफाई है आप के हाथ में. अब एक स्वेटर अपने देवर का भी बुन देना. ये कह रहे थे, इतना अच्छा स्वेटर तो उन्होंने आज तक नहीं देखा.’

‘मुझे समय नहीं मिलेगा,’ मैं ने टालना चाहा तो वह झट बोल पड़ी, ‘अपना भाई कहेगा तो क्या उसे भी इसी तरह इनकार कर देंगी?’ मधु के स्वर का अपनापन मुझे भीतर तक पुलकित कर गया था.

वह आगे बोली, ‘माना कि हम में खून का रिश्ता नहीं है, फिर भी आप को अपनों से कम तो नहीं जाना. मुझे ऊन से एलर्जी है, तभी तो आप से कह रही हूं.’ आखिर मुझे उस की बात माननी पड़ी. लेकिन मेरे पति ने मुझे डांट दिया था, ‘यह क्या समाजसेवा का काम शुरू कर दिया है? उसे ऊन से एलर्जी है तो पैसे दे कर कहीं से भी बनवा लें. तुम अपनी जान क्यों जला रही हो?’

‘वे लोग हम से कितना प्यार करते हैं, और कुछ बना दिया तो क्या हुआ.’ मेरे पति खीझ कर चुप रह गए थे.

हमारा आनाजाना लगा रहता और हर बार वे लोग ढेर सारा प्यार जताते. धीरेधीरे उन का आना कम होने लगा. 2 महीनों की छुट्टियों में हम अपने घर गए थे. जब वापस आए, तब भी वे हम से मिलने नहीं आए.

एक दिन मैं ने पति से कहा, ‘मधु नहीं आई हम से मिलने, वे लोग कहीं बाहर गए हुए हैं?’ ‘पता नहीं,’ पति ने लापरवाही से उत्तर दिया.

‘क्या, केशव भाईसाहब आप से नहीं मिले?’ ‘कल उस का भाई बैंक में आया था.’

‘तो आप ने उन का हालचाल नहीं पूछा क्या?’ ‘नहीं. इतना समय नहीं होता, जो हर आनेजाने वाले के परिवार का हालचाल पूछता रहूं.’

‘कैसी रूखी बातें कर रहे हैं.’ किसी तरह पति मुझे टाल कर अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गए और मैं यही सोचने लगी कि आखिर मधु आई क्यों नहीं?

15-20 दिनों बाद बच्चों के स्कूल में ‘पेरैंट्स मीटिंग’ थी. मधु का घर रास्ते में ही पड़ता था. अत: सो, वापसी पर मैं उस के घर चली गई. ‘ओह, आप,’ मधु का स्वर ठंडा सा था, मानो उसे मुझ से मिलना अच्छा न लगा हो. जब भीतर आई तो उस की सखियों से मुलाकात हुई. उस ने उन से मेरा परिचय कराया, ‘इन से मिलो, ये हैं मेरी रेखा और निशी भाभी, और आप हैं शालिनी भाभी.’

थोड़ी देर बाद 15-20 वर्ष का लड़का मेरे सामने शीतल पेय रख गया. सोफे पर 4-5 सूट बिछाए, वह अपनी सखियों में ही व्यस्त रही. वे तीनों महंगे सूटों और गहनों के बारे में ही बातचीत करती रहीं. मैं एक तरफ अवांछित सी बैठी, चुपचाप अपनी अवहेलना और उन की गपशप सुनती व महसूस करती रही. शीतल पेय के घूंट गले में अटक रहे थे. कितने स्नेह से मैं उस से मिलने गई थी बेगाना सा व्यवहार, आखिर क्यों?

‘अच्छा, मैं चलूं,’ मैं उठ खड़ी हुई तो वहीं बैठेबैठे उस ने हाथ हिला दिया, ‘माफ करना शालिनी भाभी, मैं नीचे तक नहीं आ पाऊंगी.’ ‘कोई बात नहीं,’ कहती हुई मैं चली आई थी.

मैं मधु के व्यवहार पर हैरान रह गई थी कि कहां इतना अपनापन और कहां इतनी दूरी.

दिनभर बेहद उदास रही. रात को पति से बात की तो उन्होंने बताया, ‘उन्हें बैंक से 2 करोड़ रुपए का कर्ज मिल गया है. नई फैक्टरी का काम जोरों से चल रहा है. भई, मैं तो पहले ही जानता था, उन्हें अपना काम कराना था, इसलिए चापलूसी करते आगेपीछे घूम रहे थे. लेकिन तुम तो उन से भावनात्मक रिश्ता बांध बैठीं.’ ‘लेकिन,’ अनायास मैं रो पड़ी, क्योंकि छली जो गई थी, किसी ने मेरे स्नेह को छला था.

‘कई लोग अधिकारी के घर तक में घुस जाते हैं, जबकि काम तो अपनी गति से अपने समय पर ही होता है. कुछ लोग सोचते हैं, अधिकारी से अच्छे संबंध हों तो काम जल्दी होता है और केशव उन्हीं लोगों में से एक है,’ पति ने निष्कर्ष निकाला था. उस के बाद वे लोग हम से कभी नहीं मिले. मधु का वह दोगला व्यवहार मन में कांटे की तरह चुभता है. कोई ज्यादा झुक कर ‘भाभीजी, भाभीजी’ कहता है तो स्वार्थ की बू आने लगती है.

इसी कारण मैं ने उस युवती को टाल दिया. फिर शीतल पेय उन के सामने रख, पंखा तेज कर दिया क्योंकि गरमी बहुत ज्यादा थी. वे दोनों बारबार पसीना पोंछ रहे थे.

आगे पढ़ें- चंद क्षणों के बाद उस युवक ने पूछा…

कालिमा: भाग 4- कैसे बेटे-बहू ने समझी अम्मां-बाबूजी की अहमियत

सुनते ही श्लेषा का तनाव बढ़ गया. कल शाम से आई है यह मेघनी की बच्ची. पता नहीं कौनकौन सी पट्टी पढ़ा दी होगी इस ने अम्मांजी को? बाबाअम्मां शायद इसी वजह से कुछ खिंचेखिंचे से हैं. श्लेषा के लिए फिर एक पल ठहरना भी दुश्वार हो गया. वह देवरदेवरानी से मिलने का बहाना बना कर तुरंत किचन से बाहर आई.

उसे यूं एकाएक प्रगट हुआ देख अनंत और मेघा बुरी तरह सकपका गए.  भैयाभाभी कब आ गए. इन के आने के बारे में तो बाबाअम्मां ने कोई जिक्र ही नहीं किया था. कहीं बाबा से कोई सांठगांठ तो नहीं कर ली है भैया ने?

आशंका से अनंत की खोपड़ी में खतरे के सायरन बजने लगे. उसी समय सुमंत नहा धोकर कमरे से निकला. गलियारे में अपने छोटे भाई को देखते ही वह तनावग्रस्त हो गया. उफ, यह क्यों आ गया? मेरी योजना में कहीं पलीता न लगा दे.

दोनों भाई एकदूसरे के प्रतिद्वंद्वी बन गए. दोनों को एकदूसरे की उपस्थिति खलने लगी. अपने मन की दुर्भावनाओं को छिपा कर वे मुसकराते हुए मिले जरूर, मगर अंदर ही अंदर वे अपनेअपने जाल बुनने लगे.

दोपहर का 1 बज गया. वे सब भोजन करने बैठे. खाते हुए सुमंत का ध्यान बारबार घर की बदली हुई काया की ओर जाता. बाबा का स्टैंडर्ड काफी ऊंचा हो गया था. बेटों के घर जाने से पूर्व बाबा ने अपना फोन कटवा दिया था. बंद घर में फोन रख कर वह क्या करते? आज उन के पास 2-2 फोन थे, मोबाइल भी था. उन के फोन लगातार घनघना रहे थे.

बाबा के यहां ‘लंच पेक’ की सुविधा भी थी. अधिकांश फोन उसी के लिए आ रहे थे. खाना खाते हुए सुमंत मन ही मन हिसाब लगाने लगा. बाबा कम से कम हजार रुपया रोज छाप रहे थे.

खाना खाने के दौरान बाबा ने श्रुति को बैंक भेज दिया था. उस के साथ ऊपर छात्रावास में रहने वाला अशोक भी था.

जब तक इन का भोजन होता, श्रुति बैंक से 60 हजार रुपए ले कर आ गई. बाबा आफिस में आए. थोड़ी देर में 3 व्यापारी आ गए. बाबा ने पहले ही फोन कर दिया था.

श्रुति ने उन व्यापारियों का हिसाब निकाला. कोने की एक कुरसी पर बैठा सुमंत यह सब देख रहा था. घीतेल के व्यापारी को बाबा ने करीब 16 हजार रुपए का भुगतान किया. सुमंत फटीफटी आंखों से देखता रह गया. उस का वेतन 14 हजार रुपए माहवार था. यानी उस की पगार से ज्यादा रुपए का भुगतान बाबा एकएक व्यापारी को कर रहे थे. और यह भुगतान मात्र 19 दिनों की सप्लाई का था.

सुमंत का कंठ सूख गया. कितनी भारी तरक्की कर ली थी बाबा ने इस बुढ़ापे में.

उस ने चापलूसी करते हुए अपने पिता की तारीफ की. बाबा हौले से मुसकरा दिए, ‘‘सब दामादजी की कृपा है.’’

निखिल ने ही दिया था इस का आइडिया. निखिल का भतीजा पी.एम.टी. की तैयारी करने के लिए कोटा गया था. वहां वह एक परिवार में पेइंग गेस्ट बन कर रहा. कोटा में आजकल बहुत से मकानमालिक छात्रों को अपने घरों में रहने के साथसाथ भोजन की सुविधा भी देते हैं. घर जैसा माहौल, घर जैसा भोजन. छात्रों की पढ़ाई बहुत अच्छी तरह होती है.

निखिल ने बाबा को यही कार्य करने की सलाह दी. बाबाअम्मां हिचकिचाए कि भला इस बुढ़ापे में वे इतनी भागदौड़ कैसे करेंगे. निखिल ने मुसकराते हुए आश्वासन दिया कि सब हो जाएगा. आप बस मैनेजमेंट संभाल लेना.

निखिल पूरे 2 सप्ताह रहा. इधरउधर भाग दौड़ कर उस ने 12 कालिज छात्रों का चयन किया, यह छात्र अभी तक छोटेछोटे से एकएक कमरे में रह रहे थे. बाबा के घर उन्हें अच्छा खुला माहौल मिला. मनोरंजन के लिए नीचे बाबा के पास टी.वी. देखने आ जाते. बाबा के यहां उन्हें एक भारी फायदा और था. गांव से आने वाले उन के रिश्तेदार उन के साथ ठहर जाते. उन के होटल के खर्चे बच जाते.

छात्रों के चयन में निखिल ने विशेष ध्यान रखा. 4 छात्र मेडिकल के थे. जरूरत पड़ने पर वे बाबा और अम्मां को डाक्टरी सहायता भी तुरंत उपलब्ध करवा देते. कुछ छात्र कामर्स कालिज के थे, उन का कालिज सुबह रहने से घर में दिन भर चहलपहल रहती थी.

मेस के लिए निखिल ने 2 भोजन बनाने वाली बाइयों का इंतजाम कर दिया. अम्मां के हाथ की रसोई बहुत स्वादिष्ठ बनती थी. अम्मां सिर्फ मसाले निकालने व छौंक लगाने का काम करतीं, बाकी का सारा काम दोनों बाइयां संभालतीं.

शुरू में मेस सिर्फ उन 12 छात्रों के लिए प्रारंभ हुई थी लेकिन जब उन छात्रों के अन्य मित्रों ने भी वहां भोजन किया तो वे भी अम्मां के पास रोज गुहार करते, ‘‘दादी मां, हमें उधर होटल का खाना अच्छा नहीं लगता…पेट खराब हो रहा है…आप के यहां घर जैसा खाना मिलता है. प्लीज, दादी मां…’’

उन के अनुरोध के आगे बाबाअम्मां को झुकना पड़ा. छात्र बढ़ते गए, काम बढ़ता गया.

श्रुति इस बीच वहां से जा चुकी थी. कमरे में बाबा के अलावा और कोई नहीं था.

सुमंत असली मुद्दे पर आया. बातों की एक योजना बना उस ने अपनी नजरें बाबा के चेहरे पर गड़ा दीं, ‘‘अकेले इतना सारा काम संभालने में आप को दिक्कत आती होगी…’’

‘‘कोई दिक्कत नहीं,’’ बाबा ने बात पूरी होने के पूर्व ही काट दी. ऊपर रहने वाले सभी लड़के उन दोनों का बहुत ध्यान रखते थे. अपने दादादादी की तरह बाबाअम्मां की सेवा करते थे. उन लड़कों के कारण ही बाबा की मेस

का कारोबार बढ़ता गया था. बाबा अब उन से खानेरहने का आधा पैसा लेते. लड़के भी उन्हें दिलोजान से चाहने लगे थे. बाबाअम्मां को इस उम्र में और क्या चाहिए था.

सकपकाए सुमंत से कुछ कहते नहीं बना. थोड़ी देर की चुप्पी के बाद उस ने एक बार फिर गोटी फेंकी, ‘‘लेकिन बाबा, रुपयों का लेनदेन…हिसाबकिताब…इन कामों के लिए घर का व्यक्ति होना जरूरी है…’’

‘‘श्रुति है न, रंजन भी सहयोग करता है. मुझे देखने की जरूरत ही नहीं पड़ती.’’

‘‘क्या मतलब?’’ सुमंत ने शंका का तीर छोड़ा, ‘‘आप हिसाबकिताब कभी चेक ही नहीं करते?’’

‘‘क्या जरूरत है? रंजन स्वयं बैंक में बडे़बडे़ हिसाब देखता है…’’

‘‘फिर भी, बाबा. आखिरकार वह एक पराया…’’

‘‘कौन कहता है कि वह पराया है,’’ बाबा ने अपनी कठोर नजरें उस के चेहरे पर गड़ा दीं, ‘‘इस बुढ़ापे में मुझे किस ने सहारा दिया? उसी ने तो.’’

बाबा की आंखें सुलगने लगीं. 2-3 क्षणों की खामोशी के बाद उन्होंने रूखे स्वर में कहा, ‘‘तुम लोग क्या सोचते हो, यह सारा कारोबार मैं ने जमाया है? मैं ने मेहनत और भागदौड़ की है?’’

वे सुमंत को घूरते रहे, फिर उठ कर टहलने लगे, ‘‘सिर्फ स्कीम बना देने से कोई कारोबार सफल नहीं हो जाता, उस के लिए पूंजी लगती है, मेहनत और भागदौड़ करनी पड़ती है. मेरे पास पैसा बचा था क्या? इस उम्र में रसोई का इतना सारा सामान रोजरोज ले आता? रोज सवेरे सब्जी ले आता? काम वालों का इंतजाम कर लेता?’’

और बाबा ने निखिल की तारीफ करते हुए बताया कि उस ने जब रंजन को योजाना बताई तो रंजन तुरंत तैयार हो गया. वह बाबाअम्मां की सेवा जान दे कर भी करना चाहता था. बैंक से ताबड़तोड़ लोन दिलवा दिया. गांव से उस के बाबूजी ने 2 भोजन बनाने वाली बाइयां भेज दीं. रंजन के बैंक में सैकड़ों व्यापारियों के खाते थे. थोकव्यापारियों के यहां से घी, तेल, अनाज, मसाले…सब आ जाते. सब्जीमंडी के दलालों व व्यापारियों से भी रंजन की बहुत पहचान थी.

कारोबार जमाने के लिए रंजन ने 10-12 दिनों की छुट्टी ले ली. सारी मेहनत तो रंजनश्रुति की ही थी.

‘‘…फिर क्यों न विश्वास रखूं इन दोनों पर.’’

फिर कमरे से निकलतेनिकलते बाबा ने असली तीर छोड़ा, ‘‘तुम सगों ने तो हमें खाली हाथ अपनेअपने घरों से भगा दिया था. यह रंजन ही है, जिस

ने हमें संभाला. हमारा असली बेटा तो यही है…और हमारे कारोबार का आधा भागीदार भी.’’

सुमंत और अनंत सिर झुकाए बैठे रहे. अपनी खुदगर्जी के कारण जो अंधेरा उन्होंने अपने असहाय वृद्ध मातापिता के जीवन में कर दिया था, उस की कालिमा कलंक बन कर उन के ही चेहरों पर पुत गई थी.

कालिमा: भाग 3- कैसे बेटे-बहू ने समझी अम्मां-बाबूजी की अहमियत

भोजन करने के बाद वह रंजन से मिलने चला गया. 4 माह बीत गए. दोपहर के 12 बज रहे थे. बाबाअम्मां बेहद व्यस्त थे.

तभी बाहर एक रिकशा रुका.

रिकशे में बाबा के बड़े बेटेबहू सुमंत और श्लेषा थे. श्लेषा ने अपनी भेदी नजरें चौराहे से ही घर पर गड़ा दी थीं. रिकशा रुकने के साथ ही उस ने घर का जायजा ले लिया. बाहर ढेर सारे स्कूटर मोटरसाइकिलें, अंदर लोगों की चहलपहल. यदि पहले से उसे यह जानकारी नहीं होती कि बाबा ने ‘ढाबा’ खोल लिया है तो घर पर लोगों की ‘भीड़’ देख वह यही समझती कि सासससुर में से कोई एक ‘खिसक’ गया है.

ईर्ष्या से उस ने दांत पीस लिए. पास बैठा सुमंत भी चोर नजरों से सब ताड़ रहा था. पिछले 4 महीनों में उस ने एक बार भी मातापिता की खोजखबर नहीं ली थी. वह आज भी यहां नहीं झांकता, मगर पिछले हफ्ते एक रिश्तेदार के यहां शादी में किसी परिचित ने उसे जानकारी दी कि उस के बाबा रिटायर्ड लाइफ में भी भरपूर कमाई कर रहे हैं, सर्विस लाइफ से भी ज्यादा.

उसे सहसा विश्वास नहीं हुआ था. श्लेषा की तो छाती पर सांप लोट गया था. ऐसा कौन सा तीर मारा होगा बुढ़ऊ ने? कहीं मकान बेच कर ऐश तो नहीं कर रहे बुड्ढेबुढि़या? हिस्सा हमारा भी है उस में. श्लेषा ने तुरंत मोबाइल पर अपने मायके बात की और सारी जानकारियां जुटाने को कहा.

4-5 दिन में उस के भैया ने हैरतअंगेज जानकारियां दीं, ‘‘बाबा ने ऊपरी मंजिल पर दर्जन भर लड़कों का छात्रावास बना दिया…नीचे मेस चालू कर दी…इन छात्रों के कारण मेस में बीसियों और छात्र आने लगे. रंजन के परिचय की वजह से बिना परिवार के रहने वाले बैंककर्मी व अन्य लोग भी. ढाबा ही खोल लिया बाबा ने. टिफिन सर्विस भी है. 200 से ज्यादा परमानेंट मेंबर बन गए हैं.’’

‘‘200 मेंबर…?’’ सुमंत की आंखें आश्चर्य से 2 सेंटीमीटर फैल गईं. यदि प्रति मेंबर कमाई 100 रुपए भी हो तो महीने के 20 हजार…

‘‘बाप रे,’’ वह स्वयं महीने के 14 हजार कमाता था. श्लेषा गरदन तान कर रिश्तेदारों में इस का बखान करती थी. मगर बाबा की कमाई तो…इस बुढ़ापे में…हायहाय…

उस के अंगअंग में ईर्ष्या की आग लग गई. उस का युवा पुत्र सलिल साल भर से अपना व्यापार जमाने का यत्न कर रहा था. 2-3 लाइनें बदल ली थीं. सफलता दूरदूर तक नजर नहीं आ रही थी. उलटे 30-35 हजार रुपयों का घाटा हो गया था.

सुमंत के स्वार्थी जेहन में फौरन एक स्कीम आई. क्यों न सलिल को बाबा के साथ फिट कर दिया जाए? वैसे भी बाबा को सहारे की जरूरत होगी. थक जाते होंगे बेचारे.

निर्णय लेने में फिर उस ने एक मिनट की भी देरी नहीं की. श्लेषा को साथ ले कर वह तुरंत यहां आ धमका.

रिकशे से उतर दोनों लोहे के गेट तक आए, अंदर का दृश्य साफ दिख रहा था. बडे़ हाल को बाबा ने भोजनकक्ष बना दिया था. देसी ढंग से नीचे बैठ कर ग्राहक भोजन ग्रहण कर रहे थे. बाबा की आवाज बाहर तक आ रही थी. बाबा पारिवारिक वात्सल्य से आग्रह करकर के ग्राहकों को भोजन करवा रहे थे. वे घूमघूम कर परोसियों (बेयरों) को निर्देश भी दे रहे थे.

तभी एक नौकर की नजर सुमंत और श्लेषा पर पड़ी, अंगोछे से हाथ पोंछता वह इन की ओर लपका.

करीब आ कर उस ने पूछा, ‘‘भोजन करना है?’’ फिर सूटकेस आदि देख उस ने कहा, ‘‘लेकिन साहब, हमारे यहां ठहरने की व्यवस्था नहीं है. ठहरने के वास्ते आप को किसी होटल में…’’

‘‘अबे,’’ गुस्से से सुमंत ने दांत पीसे, ‘‘बेवकूफ, हमें पहचानता नहीं. हम यहां के मालिक हैं.’’

‘‘मालिक?’’ होंठों में बुदबुदा कर वह सिर खुजाने लगा. मालिक तो अंदर बैठे हैं, फिर फूलगोभी के कीडे़ की तरह  यह कौन एकाएक प्रगट हो गया.

सुमंत ने गुर्रा कर उसे सामान उठाने का हुक्म दिया. नौकर अनसुना कर के खड़ा रहा.

तभी अंदर से बाबा की आवाज आई, ‘‘फतहचंद? पानी लाना, बेटा.’’

‘‘जी, लाया, बाबा,’’ फतहचंद बिना सामान उठाए अंदर भागा. सुमंत सामान उठाने का निर्देश देता रह गया. इस अपरोक्ष अपमान ने सुमंत का चेहरा लाल कर दिया. इच्छा हुई अभी अंदर जा कर इस फत्तू को तड़ातड़ 2-4 थप्पड़ जमा दे. तभी उसे ध्यान आया कि फिलहाल गरज उस की है और यह नौकर बाबा का है. बाबा के नौकरों को डांटने पर बाबा नाराज हो सकते हैं.

दोनों बरामदे में आ कर ठिठक गए. घर में प्रवेश पहले बडे़ हाल से करते थे. वहां ग्राहक भोजन कर रहे थे इसलिए उधर से जाना उचित नहीं रहेगा. जूतेचप्पल उतार कर वे साइड वाले छोटे कमरे में आए. बाबा ने उसे आफिस बना दिया था. कमरे में कोई नहीं था. इस कमरे में अंदरूनी द्वार से वे गलियारे में आए. तभी बाबाअम्मां ने उन्हें देख लिया.

बाबा और अम्मां से नजरें मिलते ही सुमंत और श्लेषा ने अपने होंठों पर गजभर की मीठीमीठी आत्मीय मुसकान बिखेर ली और बेटे ने आगे बढ़ कर आदरपूर्वक अपने मातापिता के चरण स्पर्श किए. बाबाअम्मां मन ही मन मुसकरा दिए. बहुत मानसम्मान उमड़ रहा है बुड्ढेबुढि़या पर (श्लेषा उन्हें यही संबोधन देती थी).

वैसे उन्होंने सुमंत  और श्लेषा को रिकशे से उतरते ही देख लिया था. जानबूझ कर वे अपनेआप को व्यस्त दिखलाते रहे. उन के प्रणाम करने पर बाबाअम्मां ने भावशून्य चेहरे से आशीर्वाद दिया, फिर कुशलक्षेम की 2-3 बातें पूछ कर औपचारिकता निभाई और अपने काम में व्यस्त हो गए. बाबा हाल में चले गए, अम्मां किचन में.

रह गए सुमंत और श्लेषा. उन्हें सूझ नहीं रहा था कि अपना सामान घर के किस कोने में रखें, स्नानादि कहां करें. अपने ही घर में वे उपेक्षित से खडे़ थे.

अचानक श्लेषा को वे दिन याद आ गए जब बाबाअम्मां उस के घर रहने के लिए आए थे. दोनों बूढे़ इनसान अपने ही पुत्र के घर में किस तरह टुकुरटुकुर…बेबसी से अपनेआप में सिमटेदुबके रहते थे. ‘धरती का बोझ’ बोलता था सुमंत उन्हें.

3-4 मिनट बीत गए. बाबा, अम्मां, नौकर किसी ने भी उन की ओर ध्यान नहीं दिया. आखिरकार सुमंत अम्मां के पास गया, ‘‘अम्मां, तैयार होने के लिए हम ऊपर जाते हैं.’’

‘‘ऊपर तो कालिज के लड़के रहते हैं. अभी उन की परीक्षाएं चल रही हैं.’’

फिर सुमंत ने याचक दृष्टि अपनी जननी पर टिका दी.

अम्मां ने फतहचंद को इशारा किया. फतहचंद उन्हें किचन के बाजू वाले कमरे में ले गया.

4-5 माह पूर्व, जब बाबाअम्मां सुमंत के घर रहने गए थे, श्लेषा किचन में झांकती तक नहीं थी. बेचारी अम्मां अकेली खटती रहतीं. मगर आज अम्मां के घर, श्लेषा को किचन में जाने की बहुत जल्दी हो रही थी. आधे घंटे में नहाधो कर वह किचन में पहुंच गई.

अम्मांजी उस वक्त वहां 2 नौकरों से टिफिन भरवा रही थीं. श्लेषा बिना कहे नौकरों के संग काम में जुट गई. अम्मांजी ने इसरार भी किया कि ‘यहां का काम तुम्हें समझ नहीं आएगा,’ मगर श्लेषा ने उन की बात को अनसुना कर दिया और सुघड़ बहू की तरह सास के काम में हाथ  बंटाती रही. भोजन बनाने वालियों के संग रोटियां बेलने में भी उसे संकोच नहीं हुआ.

अम्मां मन ही मन मुसकरा कर स्टोर रूम की तरफ चली गईं. श्लेषा रसोईवाली बाइयों के संग बतियाते हुए फटाफट हाथ चलाने लगी. तभी अचानक उस के कान खडे़ हो गए. बाहर से अनंत और मेघा की आवाज आ रही थी.

देवरदेवरानी की आवाज सुनते ही वह चौंक पड़ी. तुरंत गरदन उचका कर गलियारे में झांका. अनंत और मेघा बतियाते हुए गलियारे में आ रहे थे. उन को देख श्लेषा सकते में आ गई. ये दोनों भला क्यों आए, कहीं इन की भी कोई प्लानिंग तो नहीं है? इन के अंकित ने इसी वर्ष ग्रेजुएशन किया है.

आशंका से श्लेषा की सांस जहां की तहां थम गई. अनंत और मेघा उसे अपने ‘दुश्मन नंबर वन’ नजर आने लगे. इधर रोटी बेल रही गोमतीबाई ने बतलाया, ‘‘दोनों कल शाम को आए थे. अभी कालोनी में शर्माजी से मिलने गए थे.’’

आगे पढ़ें- अनंत और मेघा बुरी तरह सकपका गए….

कालिमा: भाग 2- कैसे बेटे-बहू ने समझी अम्मां-बाबूजी की अहमियत

सोचसोच कर श्रुति का कलेजा मुंह को आने लगा. श्रुति को बेटी समझ कर रखा था बाबाअम्मां ने. दरअसल, उन की स्वयं की बेटी का नाम श्रुतकीर्ति था. नाम की इस समरूपता ने बाबाअम्मां को कुछ ज्यादा ही जोड़ दिया था श्रुति से. अब ऐसे स्नेहिल मातापिता को छोड़ कर वह कैसे चल दे.

तभी नीचे टाटा सूमो के रुकने की आवाज आई. गांव से उस के सासससुर (मांबाबूजी) आने वाले थे. श्रुति उठी और आंसू पोंछतीपोंछती नीचे आई.

मांबाबूजी ही थे. श्रुति की उड़ी रंगत देख वे घबरा गए. श्रुति ने हाथ के इशारे से चुप रहने का संकेत किया और ऊपर आ कर उन्हें सब हाल कह सुनाया. सुन कर उन्हें गहरा सदमा लगा.

बाबा को अपना बड़ा भाई मानने लगे थे बाबूजी. बाबाअम्मां की आत्मीयता देख मांबाबूजी निश्चिंत रहते थे. गांव में रहते हुए उन्हें अपने बेटेबहू की चिंता करने की कभी जरूरत महसूस नहीं हुई.

उन्होंने फौरन निर्णय लिया, रंजन उस मकान को बेच देगा और यहीं रह कर बाबाअम्मां की सेवा करेगा.

बाबा को जब इस निर्णय की जानकारी हुई, उन्होंने इस का विरोध किया. उन्होंने समझाया, ‘‘गहने और मकान बनवा लिए तो बन जाते हैं, वरना योजनाएं ही बनती रहती हैं, इसलिए भावनाओं में बह कर अब हो रहे कार्य को टालो मत.’’

बाबा की दूरंदेशी भरी सलाह के आगे सब को झुकना पड़ा और रंजन के घर का गृह- प्रवेश हो गया.

रंजन अपने घर चला गया. वह तो 2-3 माह बाद जाना चाहता था, पर  बाबाअम्मां ने समझाया, ‘‘गृहप्रवेश के बाद घर सूना नहीं छोड़ते.’’

बाबा का घर खाली हो गया. उस पर ‘किराए से देना है’ की तख्ती लग गई. पूरे 7-8 वर्षों बाद लगी थी यह तख्ती.

रंजन के जाने के बाद बाबाअम्मां को बेहद सूनापन लगने लगा. एक सहारा था उस से. पता नहीं अब जो किराएदार आएं, उन का स्वभाव कैसा हो?

बाबा रोज अगले किराएदार का इंतजार करते. सुबह से शाम हो जाती पर कई दिन तक एक भी किराएदार नहीं आया. अब उन्हें घबराहट होने लगी. एफ.डी. के ब्याज के बमुश्किल 400 रुपए मिलने वाले थे. यदि कोई किराएदार नहीं आया तब? अगले माह का खर्च कहां से निकलेगा? इस किराए की आमदनी का ही तो सहारा था उन्हें? पास की नकदी अब चुकने लगी थी. बचत  खाते में भी कोई विशेष रकम नहीं थी. तो क्या अगले माह एफ.डी. तुड़वानी पड़ेगी?

सोचसोच कर वे परेशान  हो जाते. उन की आंखों के सामने अंधेरा छाने लगता.  कितनी भारी गलती कर बैठे थे वे? उन के एक सहयोगी मित्र ने समझाया भी था, ‘जमाना बहुत खराब है, बदरीनाथ. मांबाप को अपनी मुट्ठी बंद रखने का दौर आ गया है. सब कुछ बच्चों के नाम मत करो.’

घबरा कर वे ऊपरी मंजिल में आए. खाली कमरे भांयभांय कर रहे थे. उन कमरों में घूमते हुए, उस की दीवारों पर हाथ फेरते हुए उन्हें वे दिन याद आ गए जब वह अपने सपनों के इस घर को बनवा रहे थे. इस की एकएक ईंट उन की जानीपहचानी थी. इसे बनवाते समय कितने रंगीन सपने देखे थे उन्होंने. तीनों बेटे बड़े होंगे. उन की शादियां होंगी. नीचे एक बेटा रहेगा, ऊपर दो. कितना अच्छा लगेगा उस वक्त. पूरा घर गुलजार रहेगा. उन का बुढ़ापा चैन से कट जाएगा.

नंगे फर्श पर बैठ वह फफकफफक कर रो पडे़. बुढ़ापे में ये दिन भी देखने थे.

नीचे किसी कार के रुकने की आवाज आई. आंसू पोंछ वह फुरती से उठे और भाग कर गैलरी में आए. श्रुतकीर्ति और निखिल कार से उतर रहे थे. बेटीदामाद को देखते ही उन का जी हरा हो गया.

उन की बूढ़ी थकी रगों में जान आ गई. जवानों की सी चपलता से वह दौड़ते हुए नीचे आए. पारो तब तक द्वार खोल चुकी थी.

श्रुतकीर्ति अंदर आई. मातापिता की दयनीय हालत देख उस का कलेजा मुंह को आ गया. हाय, 3 माह में ही बेचारे कितने बुढ़ा गए हैं.

श्रुतकीर्ति को अपनी रुलाई रोकना दुश्वार हो गया. उसे तो मालूम ही नहीं था कि बाबाअम्मां यहां आ चुके हैं? कल उन से बात करने के लिए उस ने बडे़ भैया के घर फोन लगाया था, भाभी से मालूम पड़ा, ‘बाबाअम्मां का मन नहीं लग रहा था तो वापस चले गए.’

रोरो कर श्रुतकीर्ति का बुरा हाल हो गया. तो इसलिए ‘मन नहीं लग रहा’ था. वह बारबार उलाहना देती. 3 माह में कम से कम 6 बार उस ने फोन पर बात की थी, बाबाअम्मां ने एक बार भी इशारा नहीं किया.

‘‘करते कैसे, बेटी?’’ बाबा का गला रुंध गया, ‘‘जब रहना उन्हीं के संग था… कैसे करते शिकायत?’’

‘‘यहां आने के बाद तो करते?’

अब कैसे कहें बाबा, कैसे बतलाएं अपनी दुर्दशा. आज महज 1 रुपया खर्च करने से पहले भी कईकई बार सोचना पड़ रहा है उन्हें. दूध तक तो बंद कर दिया है. सब्जी भी कंजूसी से खाते हैं.

कितने आशंकित मन से जी रहे थे वे दोनों. एक ही चिंता खाए जा रही थी, अगले माह एफ.डी. न तुड़वानी पडे़.

निखिल की तो क्रोध से मुट्ठियां भिंच गईं. जेब से मोबाइल निकाल लिया, ‘‘अभी लताड़ता हूं तीनों को.’’

श्रुतकीर्ति ने रोक दिया, ‘‘जाने दो, क्या फायदा ऐसे निठल्लों से कुछ कहने का. मातापिता के प्रति लेशमात्र भी दर्द होता तो क्या इस तरह व्यवहार करते.’’

निखिल कसमसा कर रह गया.

श्रुतकीर्ति रसोईघर में गई. वहां एक सरसरी नजर डालते ही सब ताड़ गई. पलट कर उस ने आंखोंआंखों में निखिल को इशारा किया. निखिल भी समझ गया. वह तुरंत बाहर निकल गया.

बाबाअम्मां कनखियों से यह सब देख रहे थे. बेटीदामाद का मंतव्य भांपते ही वे संकोच में पड़ गए. हाय, उन की रसोई का खर्च एक दिन बेटी उठाएगी, ऐसी बदहाली की कल्पना तो उन्होंने सपने में भी नहीं की थी. बुढ़ापा कैसेकैसे दिन दिखला रहा है. शर्मिंदगी से वह व्याकुल हो उठे.

अलमारी में 400 रुपए पडे़ थे. देने के लिए वह उठ कर दरवाजे की ओर लपके. श्रुतकीर्ति ने हाथ पकड़ कर वापस बैठा दिया, ‘‘कहां भागे जा रहे हो? कहीं रेस लगानी है?’’

‘‘बेटी,’’ बाबा का चेहरा एकदम कातर हो गया, ‘‘दामादजी पैसे ले कर तो गए ही नहीं?’’

‘‘आप भी बाबा,’’ श्रुतकीर्ति ने थोड़ा झुंझला कर कहा, ‘‘क्या निखिल आप के बेटे नहीं हैं?’’

‘‘हैं क्यों नहीं…लेकिन, बेटी…जरा सोच…दामाद से यह सब…अच्छा लगेगा हमें?’’

‘‘और घुटघुट कर मन मार कर रहते हुए अच्छा लग रहा है आप को?’’ श्रुतकीर्ति का गला रुंध गया, ‘‘इन पुराने रिवाजों को छोड़ो, बाबा. 3-3 कमाऊ बेटे जब मुंह मोड़ लें तो क्या बेटीदामाद भी आंखकान बंद कर के बैठ जाएं? छोड़ दें मातापिता को लावारिसों की तरह?’’

चायनाश्ता करवा कर श्रुतकीर्ति रसोई बनाने लगी. निखिल और बाबाअम्मां भी वहीं बैठ कर हाथ बंटाने लगे. निखिल बाबाअम्मां को अपने संग चलने के लिए मनाने लगा. बाबाअम्मां संकोच में पड़ गए. बेटी के घर रहने की कल्पना वह कैसे कर सकते थे. उन्होंने दबे स्वर में अपनी लाचारगी जाहिर की. उन की मनोदशा समझ कर निखिल ने फिर और जिदद् नहीं की. वह एक दूसरी योजना पर विचार करने लगा. यदि यह योजना सफल हो गई तो बाबाअम्मां पूरे मानसम्मान से रह सकेंगे. इस में उसे रंजन का पूरा सहयोग चाहिए था, विशेषकर श्रुति का. श्रुति को ही अधिक समय देना पडे़गा इस में.

आगे पढ़े- रिकशे में बाबा के बड़े बेटेबहू…

Holi 2023: हां सीखा मैं ने जीना- भाग 1

‘हां, सीखा मैं ने जीना… जीना कैसे जीना… हां, सीखा मैं ने जीना मेरे हमदम…’ नवनी एक प्रोजैक्ट रिपोर्ट में आंकड़े भर रही थी. पास ही रखे मोबाइल में बजते गाने पर उस के पांव भी ताल दे रहे थे. तभी अचानक गाना रुका और व्हाट्सऐप पर कुंतल का मैसेज का आया. लिखा था, ‘लब्बू.’ नवनी के होंठों पर मुसकान तैर गई. ‘लव यू’ को कुंतल ‘लब्बू’ ही लिखता है.

इस शब्द के पीछे भी एक बहुत रोचक घटना जुङी हुई है. हुआ यों कि एक रोज नवनी अपने एनजीओ के संयोजन में चल रहे कुटीर उद्योग में बने चने के स्पैशल पापड़ कुंतल को टैस्ट करवा रही थी. कुंतल चटखारे ले कर पापड़ खा रहा था और हाथ के इशारे से बता रहा था कि लाजवाब लग रहा है. तभी नवनी ने पापड़ का आखिरी टुकड़ा कुंतल के हाथ से छीन कर अपने मुंह में डाल लिया. कुंतल ने मजाकमजाक में उस से कहा था, “इस गुस्ताखी पर आप को सजा मुकर्रर की जाती है… 10 बार फटाफट बोलो… कच्चा पापड़… पक्का पापड़…” उस ने भी कुंतल के चैलेंज को स्वीकार कर के फटाफट “कच्चा पापड़ पक्का पापड़…” बोलना शुरू कर दिया था. 7वीं बार दोहराते समय जब उस के मुंह से “कच्छा पकड़ कच्छा पकड़…” निकलने लगा था तब कुंतल कितना जोर से खिलखिला कर हंसा था.

नवनी ने झूठमूठ मुंह फुलाने का नाटक किया था. कुंतल ने उसे प्यार से मनाते हुआ कहा था, “सौरी बेबी, आई लव यू.”

“ठीक है… तो फिर अब तुम फटाफट 10 बार इसे दोहराओ… “लव यू लव यू…” नवनी ने नाराजगी से मुंह घुमाते हुए कहा.

“लव यू लव यू…” के शब्द 10वीं बार दोहरातेदोहराते “लब्बू-लब्बू..” हो गए थे. अब खिलखिलाने की बारी नवनी की थी.

“शैतान कहीं की,” कुंतल ने मुसकराते हुए उस का नाक खींच दिया था. बस, उस दिन के बाद जब भी कुंतल को उस पर प्यार आता है, वह उसे ‘लब्बू’ लिख कर मैसेज कर देता है.

कुंतल से मिलने के बाद नवनी की जिंदगी सचमुच प्रेम के नए क्षितिज छूने लगी थी. 40 साल की नवनी, जो एक युवा होती बेटी की मां भी है, की जिंदगी में प्रेम नहीं रहा होगा यह कहना जरा मुश्किल है लेकिन प्रेम जैसा जो कुछ भी था वह सही मायने में प्रेम ही था यह तय करना भी आसान नहीं है क्योंकि गणित के सूत्रों की तरह प्रेम की कोई निश्चित परिभाषा तो होती नहीं… यह तो 2 दिलों के बीच की कैमिस्ट्री होती है जो भौतिक परिभाषाओं और बायोलोजिकल गुणसूत्रों को दरकिनार करते हुए धीरेधीरे पूरे वजूद को अपने आगोश में ले लेती है.

प्रेम जब हलकी फुहारों सा बरसता हुआ धीरेधीरे मुसलाधार बारिश में परिवर्तित हो जाता है तब 7 अलगअलग रंग मिल कर धनक का रूप धर लेते हैं और फिर हर ओर उत्सव सा छा जाता है. दिन इमली से चटपटे और रातें अमिया सी रसभरी हो जाती हैं. कुछ इसी तरह की खट्टीमीठी लहरों में आजकल नवनी डूबउतर रही थी.

नवनी से कुंतल की मुलाकात अनायास ही नहीं हुई थी. जी हां, यह लव ऐट फर्स्ट साइड यानी कि पहली नजर का प्यार नहीं था. यह सुरूर तो नशे जैसा था जो धीरेधीरे गहराता गया और मजे की बात यह कि खुद उन दोनों को ही इस बात से इनकार था कि वे इस नशे की गिरफ्त में आते जा रहे हैं.

नवनी एक एनजीओ चलाती है और प्रोजैक्ट औफिसर कुंतल पिछले दिनों ही उन के एनजीओ द्वारा संचालित होने वाली योजनाओं के निरीक्षण के लिए आया था. दोनों की पहली औपचारिक मुलाकात वहां के ब्लौक अधिकारी ने करवाई थी. नवनी को कुंतल पहली मुलाकात में काफी मिलनसार लगा था. हालांकि वह देखने में काफी धीरगंभीर लग रहा था लेकिन उस की तिरछी चितवन के पीछे छिपा चंचल स्वभाव उस की चुगली कर रहा था.

“कोई भी संस्था एक परिवार की तरह होती है. आप को काम के साथसाथ महीने में कम से कम 1 बार कोई फन ऐक्टिविटी संस्था में करवानी चाहिए जिस से यहां काम करने वाले लोगों में आपसी जुड़ाव पैदा हो. एक फैमिली बौंडिंग की तरह…” कुंतल ने वहां का माहौल देखने के बाद नवनी से कहा था.

“वाह, इंप्रैसिव… आदमी दिलचस्प लगता है…” नवनी उस से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी.

“बहुत अच्छा विचार है सर… इस माह मैं एक पिकनिक का आयोजन करती हूं,” नवनी ने कुंतल के प्रस्ताव पर सहमति जताई.

“वैरी नाइस,” कुंतल ने अंगूठा दिखाते हुए उस के प्रस्ताव की सराहना की. नवनी मुसकरा दी.

कुंतल एक युवा और ऐनर्जी से भरपूर औफिसर था. नवनी ने पहली ही मुलाकात में महसूस कर लिया था कि कुंतल आधुनिक तकनीक में विश्वास रखने वाला टैक्नो फ्रैंड व्यक्ति है जो हर बाधा को पार कर आगे बढ़ने की इच्छा शक्ति रखता है.

“सर, महीने के लास्ट संडे पिकनिक का प्रोग्राम रखा है. आप को तो आना ही है, फैमिली भी साथ लाएंगे तो हमें बहुत अच्छा लगेगा,” नवनी ने कुंतल को मैसेज किया.

“मैं खुद के लिए कोशिश कर सकता हूं लेकिन फैमिली की कोई गारंटी नहीं…” 2 स्माइली इमोजी के साथ कुंतल ने रिप्लाई दिया. नवनी ने भी 2 अंगूठे दिखाते हुए चैट को विराम दे दिया.

एक रिश्ता किताब का: भाग 1- क्या सोमेश के लिए शुभ्रा का फैसला सही था

‘‘बीमार हो तुम, इलाज कराओ अपना. तुम तो इनसान ही नहीं लगते हो मुझे…’’

‘‘तो क्या मैं जानवर हूं?’’

‘‘शायद जानवर भी नहीं हो. जानवर को भी अपने मालिक पर कम से कम भरोसा तो होता है…उसे पता होता है कि उस का मालिक उस से प्यार करता है तभी तो खाना देने में देरसवेर हो जाए तो उसे काटने को नहीं दौड़ता, जैसे तुम दौड़ते हो.’’

‘‘मैं काटने को दौड़ता हूं तुम्हें? अरे, मैं तुम से बेहद प्यार करता हूं.’’

‘‘मत करो मुझ से प्यार…मुझे ऐसा प्यार नहीं चाहिए जिसे निभाने में मेरा दम ही घुट जाए. मेरी एकएक सांस पर तुम ने पहरा लगा रखा है. क्या मैं बेजान गुडि़या हूं जिस की अपनी कोई पसंदनापसंद नहीं. तुम हंसो तो मैं हंसू, तुम नाचो तो मैं नाचूं…हद होती है हर चीज की…तुम सामान्य नहीं हो सोमेश, तुम बीमार हो, कृपा कर के तुम किसी समझदार मनोचिकित्सक को दिखाओ.’’

ऐसा लग रहा था मुझे जैसे मेरे पूरे शरीर का रक्त मेरी कनपटियों में समा कर उन्हें फाड़ने जा रहा है. आवेश में मेरे हाथपैर कांपने लगे. मैं जो कह रही थी वह मेरी सहनशक्ति समाप्त हो जाने का ही नतीजा था. कोई इस सीमा तक भी स्वार्थी और आधिपत्य जताने वाला हो सकता है मेरी कल्पना से भी परे था. ऐसा क्या हो गया जो सोमेश ने मेरी पसंद की उस किताब को आग ही लगा दी. वह किताब जिसे मैं पिछले 1 साल से ढूंढ़ रही थी. आज सुबह ही मुझे सोमेश ने बताया था कि शाम 4 बजे वह मुझ से मिलने आएगा. 4 से 5 तक मैं उस का इंतजार करती रही, हार कर पास वाली किताबों की दुकान में चली गई.

समय का पाबंद सोमेश कभी नहीं होता और अपनी जरूरत और इच्छा के अनुसार फैसला बदल लेना या देरसवेर करना उस की आदत है, जिसे पिछले 4 महीने से मैं महसूस भी कर रही हूं और मन ही मन परेशान भी हो रही हूं यह सोच कर कि कैसे इस उलझे हुए व्यक्ति के साथ पूरी उम्र गुजार पाऊंगी.

कुछ समय बीत गया दुकान में और सहसा मुझे वह किताब नजर आ गई जिसे मैं बहुत समय से ढूंढ़ रही थी. किताब खरीद कर मैं बाहर चली आई और उसी कोने में सोमेश को भुनभुनाते हुए पाया. इस से पहले कि मैं किताब मिल जाने की खुशी उस पर जाहिर करूं उस ने किताब मेरे हाथ से छीन ली और जेब से लाइटर निकाल यह कहते हुए उसे आग लगा दी, ‘‘इसी की वजह से मुझे यहां इंतजार करना पड़ा न.’’

10 मिनट इंतजार नहीं कर पाया सोमेश और मैं जो पूरे घंटे भर से यहां खड़ी थी जिसे हर आताजाता घूर रहा था. अपनी वजह से मुझे परेशान करना जो अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझता है और अपनी जरा सी परेशानी का यह आलम कि उस वजह को आग ही लगा दी.

अवाक् रह गया सोमेश मुझे चीखते देख कर जिसे पुन: हर आताजाता रुक कर देख भी रहा था और सुन भी रहा था. मेरा तमाशा बनाने वाला अपना भी तमाशा बनना सह नहीं पाया और झट से मेरी बांह पकड़ अपनी गाड़ी की तरफ बढ़ने का प्रयास करने लगा.

‘‘बस, सोमेश, अब और नहीं,’’ इतना कह कर मैं ने अपना हाथ खींच लिया और मैं ने सामने खड़े रिकशा को इशारा किया.

रिकशा पर बैठ गई मैं. सोमेश के चेहरे के उड़ते रंग और उस के पैरों के पास पड़ी धूधू कर जलती मेरी प्रिय किताब इतना संकेत अवश्य दे गई मुझे कि सोमेश सामान्य नहीं है. उस के साथ नहीं जी पाऊंगी मैं.

पापा के दोस्त का बेटा है सोमेश और उसे मैं इतनी पसंद आ गई थी कि सोमेश के पिता ने हाथ पसार कर मुझे मांग लिया था जबकि सचाई यह थी कि सोमेश की हैसियत हम से कहीं ज्यादा थी. लाखों का दहेज मिल सकता था उसे जो शायद यहां नहीं मिलता क्योंकि मैं हर महीने इतना कमा रही थी कि हर महीने किस्त दर किस्त दहेज उस घर में जाता.

मैं ही दहेज के विरुद्ध थी जिस पर उस के पिता भारी मन से ही राजी हुए थे. बेटे की जिद थी जिस पर उन का लाखों का नुकसान होने वाला था.

‘‘मेरे बेटे में यही तो कमी है, यह जिद्दी बहुत है…और मेरी सब से बड़ी कमजोरी है मेरा बेटा. आज तक इस ने जिस भी चीज पर हाथ रखा मैं ने इनकार नहीं किया…बड़े नाजों से पाला है मैं ने इसे बेटी. तुम इस रिश्ते से इनकार मत करो.’’

दिमाग भन्ना गया मेरा. मैं ने बारीबारी से अपने मांबाप का चेहरा देखा. वे भी परेशान थे मेरे इस निर्णय पर. शादी की सारी तैयारी हो चुकी थी.

‘‘मैं तुम्हारे लिए वे सारी किताबें लाऊंगा शुभा बेटी जो तुम चाहोगी…’’ हाथ जोड़ता हूं मैं. शादी से इनकार हो गया तो मेरा बेटा पागल हो जाएगा.’’

‘‘आप का बेटा पागल ही है चाचाजी, आप समझते क्यों नहीं? सवाल किताबों का नहीं, किताबें तो मैं भी खरीद सकती हूं, सवाल इस बात का है कि सोमेश ने ऐसा किया ही क्यों? क्या उस ने मुझे भी कोई खिलौना ही मान लिया था कि उस ने मांगा और आप ने लाखों का दहेज ठुकरा कर भी मेरा हाथ मांग लिया…सच तो यही है कि उस की हर जायजनाजायज मांग मानमान कर ही आप ने उस की मनोवृत्ति ऐसी स्वार्थी बना दी है कि अपनी खुशी के सामने उसे सब की खुशी बेतुकी लगती है. बेजान चीजें बच्चे की झोली में डाल देना अलग बात है, आज टूट गई कल नई भी आ सकती है. लेकिन माफ कीजिए, मैं बेजान खिलौना नहीं जो आप के बच्चे के लिए शहीद हो जाऊं.

‘‘हाथ क्यों जोड़ते हैं मेरे सामने. क्यों अपने बेटे के जुनून को हवा दे रहे हैं. आप रोकिए उसे और अपनेआप को भी. सोमेश का दिमाग संतुलित नहीं है. कृपया आप इस सत्य को समझने की कोशिश कीजिए…’’

‘‘मैं कुछ भी समझना नहीं चाहता. मुझे तो बस मेरे बच्चे की खुशी चाहिए और तुम ने शादी से इनकार कर दिया तो वह पागल हो जाएगा. वह बहुत प्यार करता है तुम से.’’

मन कांप रहा था मेरा. क्या कहूं मैं इस पिता समान इनसान से? अपनी संतान के मोह में वह इतना अंधा हो चुका है कि पराई संतान का सुखदुख भी उसे नजर नहीं आ रहा.

‘‘अगर शुभा ऐसा चाहती है तो तुम ही क्यों नहीं मान जाते?’’ पापा ने सवाल किया जिस पर सोमेश के पिता तिलमिला से गए.

‘‘तुम भी अपनी बेटी की बोली बोलने लगे हो.’’

‘‘मैं ने भी अपनी बच्ची बड़े लाड़प्यार से पाली है, जगदीश. माना मेरे पास तुम्हारी तरह करोड़ों की विरासत नहीं है, लेकिन इतना भूखा भी नहीं हूं जो अपनी बच्ची को पालपोस कर कुएं में धकेल दूं. शादी की तैयारी में मेरा भी तो लाखों खर्च हो चुका है. अब मैं खर्च का हिसाब तो नहीं करूंगा न…जब बेटी का भविष्य ही प्रश्नचिह्न बन सामने खड़ा होगा…चलो, मैं साथ चलता हूं. सोमेश को किसी मनोचिकित्सक को दिखा लेते हैं.’’

सोमेश के पिता माने नहीं और दनदनाते हुए चले गए.

‘‘कहीं हमारे हाथों किसी का दिल तो नहीं टूट रहा, शुभा? कहीं कोई अन्याय तो नहीं हो रहा?’’ मां ने धीरे से पूछा, ‘‘सोमेश बहुत प्यार करता है तुम से.’’

‘‘मां, पहली नजर में ही उसे मुझ से प्यार हो गया, समझ नहीं पाई थी मैं. न पहले देखा था कभी और न ही मेरे बारे में कुछ जानता था…चलो, माना… हो गया. अब क्या वह मेरी सोच का भी मालिक हो गया? मां, इतना समय मैं चुप रही तो इसलिए कि मैं भी यही मानती रही, यह उस का प्यार ही है जो कोई मुझे देख रहा हो तो उसे सहन ही नहीं होता. एक दिन रेस्तरां में मेरे एक सहयोगी मिल गए तो उन्हीं के बारे में हजार सवाल करने लगा और फिर न मुझे खाने दिया न खुद खाया. वजह सिर्फ यह कि उन्होंने मुझ से बात ही क्यों की. उस में समझदारी नाम की कोई चीज ही नहीं है मां. अपनी जरा सी इच्छा का मान रखने के लिए वह मुझे चरित्रहीन भी समझने लगता है…मेरी नजरों पर पहरा, मैं ने उधर क्यों देखा, मैं ने पीछे क्यों देखा, कभीकभी तो मुझे अपने बारे में भी शक होने लगता है कि क्या सच में मैं अच्छी लड़की नहीं हूं…’’

आगे पढ़ें- हाथ जोड़ कर जगदीश चाचा से…

Women’s Day 2023: मां का घर- भाग 1

पूजा तेजी से सीढि़यां चढ़ कर लगभग हांफती हुई सुप्रिया के घर की कालबेल दबाने लगी. दोपहर का समय था, उस पर चिलचिलाती धूप. वह जब घर से निकली थी तो बादल घिर आए थे. सुप्रिया ने दरवाजा खोला तो पूजा हांफती हुई अंदर आ कर सोफे पर पसर गई. आने से पहले पूजा ने सुप्रिया को बता दिया था कि वह मां को ले कर बहुत चिंतित है. कल शाम से वह फोन कर रही है, पर मां का मोबाइल स्विच औफ जा रहा है और घर का नंबर बस बजता ही जा रहा है.

सुप्रिया ने फौरन उस के सामने ठंडे पानी का गिलास रखा तो पूजा एक सांस में उसे गटक गई. फिर रुक कर बोली, ‘‘सुप्रिया, मैं ने धीरा आंटी को कल रात फोन किया था और सुबह वे मां के घर गई थीं. वे कह रही थीं कि वहां ताला लगा हुआ है. अब क्या करूं? कहां ढूंढूं उन्हें?’’ रोंआसी पूजा के पास जा कर सुप्रिया बैठ गई और उस के कंधे पर हाथ रख धीरे से पूछा, ‘‘तेरी कब बात हुई थी उन से?’’

‘‘एक सप्ताह पहले, मेरे जन्मदिन के दिन. मां ने सुबहसुबह फोन कर के मुझे बधाई दी थीं.’’ पूजा रुक कर फिर बोलने लगी, ‘‘मैं चाहती थी कि मां यहां आ कर कुछ दिन मेरे पास रहें. मां ने हंस कर कहा कि तेरी नईनई गृहस्थी है, मैं तुम दोनों के बीच क्या करूंगी? देर तक मैं मनाती रही मां को, उन से कहती रही कि 2 दिन के लिए ही सही, आ जाओ मेरे पास. 5 महीने हो गए उन्हें देखे, होली पर घर गई थी, तभी मिली थी.’’

पूजा ने अपनी आंखों से उमड़ आए आंसुओं को रुमाल से पोंछा. सुप्रिया चुप बैठी रही. कल शाम जब पूजा ने उसे फोन पर बताया था कि उस की मां फोन नहीं उठा रहीं तो वह खुद परेशान हो गई थी. पूजा की शादी के बाद मां मुंबई में अकेली रह गई थीं. सुप्रिया और पूजा मुंबई में एकसाथ स्कूलकालेज में पढ़ी थीं. सुप्रिया उस समय भी पूजा के साथ थी जब उस के पापा का एक्सीडेंट से देहांत हो गया था. उस समय वे दोनों 8वीं में पढ़ती थीं.

पूजा की मां अनुराधा बैंक में काम करती थीं. उन्होंने पूजा की पढ़ाई और परवरिश में कोई कमी नहीं रखी. पूजा ने स्नातक की पढ़ाई के बाद एमबीए किया और नौकरी करने लगी. 2 साल पहले सुप्रिया शादी कर दिल्ली आ गई. पिछले साल पूजा ने जब उसे बताया कि उस का मंगेतर सुवीर भी दिल्ली में काम करता है, तो सुप्रिया खुशी से उछल गई. कितना मजा आएगा, दोनों सहेलियां एक ही शहर में रहेंगी. पूजा की मां ने बेटी की शादी बहुत धूमधाम से की. हालांकि पूजा और सुवीर लगातार कहते रहे कि बिलकुल सादा समारोह होना चाहिए. पूजा नहीं चाहती थी कि मां अपनी सारी जमापूंजी उस पर खर्च कर दें, लेकिन मां थीं कि बेटी पर सबकुछ लुटाने को आतुर. पूजा के मना करने पर मां ने प्यार से कहा, ‘यही तो मौका है पूजा, मुझे अपने अरमान पूरे कर लेने दे. पता नहीं कल ऐसा मौका आए न आए.’

आज पूजा को न जाने क्यों मां की कही वे बातें याद आ रही हैं. ऐसा क्यों कहा था मां ने? सुप्रिया ने रोती हुई पूजा को ढाढ़स बंधाया और अपना फोन उठा लाई. उस ने मुंबई अपने भाई को फोन लगाया और बोली, ‘‘अजय भैया, आप से एक जरूरी काम है. मेरी सहेली पूजा को तो आप जानते ही हैं. अरे, वही जो कांदिवली में अपने पुराने घर के पास रहती थी? उस की मां अनुराधाजी कल शाम से पता नहीं कहां चली गईं. प्लीज, भैया, पता कर के बताओ तो. वे बोरिवली के कामर्स बैंक में काम करती हैं. मैं उन का पूरा पता आप को एसएमएस कर देती हूं. भैया, जल्द से जल्द बताइए. पूजा बहुत परेशान है, रो रही है. अच्छा, फोन रखती हूं.’’

सुप्रिया ने अजय भैया को बैंक और घर का पता एसएमएस कर दिया और पूजा के पास आ कर बैठ गई.

‘‘पूजा, भैया सब पता कर बताएंगे, तू चिंता मत कर.’’ पूजा ने सिर उठाया, ‘‘पूरे 24 घंटे हो गए हैं, सुप्रिया. धीरा आंटी बता रही थीं कि पिछले 3 दिन से घर बंद है. पड़ोस के फ्लैट में रहने वाली अमीना आंटी ने 4 दिन पहले मां को बाजार में देखा था. इस के बाद से मां की कोई खबर नहीं है. घर के बाहर न अखबार पड़े हैं न दूध की थैली. इस का मतलब है मां बता कर गई हैं अखबार और दूध वाले को.’’

सुप्रिया ने सिर हिलाया और बोली, ‘‘पूजा, हो सकता है मां कहीं जल्दी में निकल गई हों. पिछले दिनों उन्होंने तुम से कुछ कहा क्या? या कोई बात हुई हो?’’ पूजा कुछ सोचती हुई बोली, ‘‘सुप्रिया, मैं ने अपने जन्मदिन के बारे में तुम को बताया था न कि उस दिन मां ने मुझ से कहा कि वे मुझे जन्मदिन पर कुछ देना चाहती हैं…इस के लिए उन्होंने मेरा बैंक अकाउंट नंबर मांगा था. कल मैं बैंक गई थी. मां ने मेरे नाम 5 लाख रुपए भेजे हैं. यह बात थोड़ी अजीब लगी मुझे, अभीअभी तो मेरी शादी पर इतना खर्च किया था मां ने और…मैं इसी सिलसिले में मां से बात करना चाहती थी तभी तो लगातार फोन पर फोन मिलाती रही, पर…’’

सुप्रिया के चेहरे का भाव बदलने लगा, ‘‘5 लाख रुपए? यह तो बहुत ज्यादा हैं. कहां से आए उन के पास इतने रुपए? अभी तुम्हें देने का क्या मतलब है?’’ पूजा चुप रही. उसे भी अजीब लगा था. मां को इस समय उसे पैसे देने की क्या जरूरत? सुप्रिया दोनों के लिए चाय बना लाई. चाय की चुस्कियों के बीच चुप्पी छाई रही. पूजा पता नहीं क्या सोचने लगी. सुप्रिया को पता था कि पूजा अपनी मां से बेहद जुड़ी हुई है. वह तो चाहती थी कि शादी के बाद मां उस के साथ रहें लेकिन अनुराधाजी इस के खिलाफ थीं. पूजा बड़ी मुश्किल से शादी के लिए राजी हुई थी. उसे हमेशा लगता था कि उस के जाने के बाद मां कैसे जी पाएंगी?

अनुराधा ने उस से बहुत कहा कि 12वीं के बाद वह पढ़ाई करने बाहर जाए, किसी अच्छे कालेज से इंजीनियरिंग या एमबीए करे, लेकिन पूजा मुंबई छोड़ने को तैयार ही नहीं थी. उस ने एक ही रट लगा रखी थी, ‘मैं आप को अकेला नहीं छोड़ सकती. यहीं रहूंगी आप के साथ.’ अनुराधा जब कभी दफ्तर के काम से या अपने किसी रिश्तेदार से मिलने 2 दिन भी शहर से बाहर जातीं, पूजा बेचैन हो जाती. साल में 2 बार अनुराधा अपने किसी गुरु से मिलने जाती थीं. पूजा ने कई बार कहा था कि मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी उन के पास लेकिन मां यह कह कर मना कर देतीं, ‘पूजा, जब मुझे लगेगा कि तुम इस लायक हो गई हो तो मैं खुद तुम्हें ले जाऊंगी.’

आगे पढें- सुप्रिया सोफे पर ढह गई. उस ने आंखें बंद…

फैमिली के लिए बनाएं पापड़ी चाट

फेस्टिव सीजन में अगर आप मीठा खाकर परेशान हो गए हैं तो आज हम आपके लिए लेकर आए हैं पापड़ी चाट की रेसिपी. इस रेसिपी को आप अपनी फैमिली और फ्रेंड्स को खिलाकर तारीफ पा सकते हैं.

सामग्री

–  1 कप सफेद मटर उबले

–  1/4 कप कटा खीरा

–  1/4 कप गाजर कसी

–  1/4 कप प्याज बारीक कटा

–  थोड़े से चुकंदर के लच्छे

–  थोड़े से अदरक के लच्छे

–  10-15 पीस पापड़ी

–  1 छोटा चम्मच चाटमसाला

–  1 छोटा चम्मच रायता मसाला

–  1 छोटा चम्मच जीरा भुना

–  थोड़ी सी धनियापत्ती कटी

–  2 बड़े चम्मच सोंठ चटनी

–  2 बड़े चम्मच हरी चटनी

–  2 बड़े चम्मच बारीक सेव

–  1 बड़ा चम्मच नीबू का रस

–  नमक स्वादानुसार.

विधि

उबले मटरों में चाटमसाला, जीरा, रायता मसाला व नमक मिला लें. फिर नीबू का रस मिलाएं. अब खीरा, गाजर व प्याज मिलाएं. थोड़ी सी हरी चटनी मिला कर अच्छी तरह मिक्स कर लें. ट्रे में पापड़ी लाइन से सजाएं. हर पापड़ी पर चम्मच से तैयार मटरा थोड़ाथोड़ा लगा दें. धनियापत्ती, चुकंदर व अदरक के लच्छे से सजाएं. ऊपर लाल व हरी चटनी डालें. सेव बुरक कर तुरंत परोसें.

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