Women Empowerment: लड़की हूं पर कमजोर नहीं

Women Empowerment: हमारे समाज में हमेशा कुछ जुमले गूंजते रहते हैं: ‘मर्द को दर्द नहीं होता,’ ‘लड़कियों की तरह क्यों रो रहे हो,’ ‘मर्द बनो, रोना बंद करो.’

ये शब्द केवल मजाक नहीं हैं बल्कि एक ऐसी मानसिकता की नींव हैं जो लड़कों को भावनाओं से काट देती है और लड़कियों को कमजोर मानने लगती है. सदियों से यही सोच महिलाओं को भावनात्मक, मानसिक और सामाजिक रूप से पीछे खींचती रही है.

क्या वाकई महिलाएं भावनात्मक रूप से कमजोर हैं? प्रकृति ने न तो मर्दों को पत्थर दिल बनाया है और न ही औरतों को कमजोर. ये समाज की बनाई हुई सीमाएं हैं, जो हर पीढ़ी को सिखाई जाती हैं जैसे कोई नियम या परंपरा हो. यह सिखाया जाता है कि-

लड़कियां रो सकती हैं क्योंकि वे नाजुक होती हैं, लड़कों को रोना नहीं चाहिए क्योंकि वे मजबूत होते हैं. जबकि सच यह है कि भावनाएं हर इंसान की जरूरत होती हैं. फिर चाहे वह लड़की हो या लड़का.

भावनाएं: इंसानी गुण, न कि लिंग आधारित. आरव और साक्षी भाईबहन थे. एक दिन आरव बहुत परेशान था : उस का स्कूल बैग चोरी हो गया था. वह घर आ कर रो पड़ा.

पापा ने गुस्से में कहा, ‘‘क्या मर्द बनोगे ऐसे? लड़कियों की तरह क्यों रो रहे हो?’’

साक्षी ने धीरे से कहा, ‘‘पापा, दुखी होने पर कोई भी रो सकता है चाहे लड़का हो या लड़की.’’ पापा कुछ नहीं बोले, पर सोच में पड़ गए.

यह एक सामाजिक प्रोग्रामिंग है जो बचपन से ही सिखाई जाती है.

– लड़कों को गाड़ी, बंदूक मिलती है ताकतवर बनने के लिए.

– लड़कियों को गुडि़या ताकि वे मां बनना सीखें.

– समाज ने नहीं छोड़ा कोई भी मोरचा मीडिया, शिक्षा और धर्म.

समाज में लड़कियों को कमजोर और भावनात्मक दिखाने की सोच यों ही नहीं बनी. इस के पीछे सदियों से 3 सब से प्रभावशाली संस्थाओं का हाथ रहा है. मीडिया, शिक्षा और धर्म. इन तीनों ने अपनेअपने तरीकों से यह सोच गढ़ी, पोषित की और आगे बढ़ाई.

फिल्में और टीवी

आप ने ध्यान दिया होगा कि पुरानी फिल्मों में नायिका हमेशा कमजोर, रक्षिता होती थी. उसे नायक बचाता था. मीना कुमारी जैसी अभिनेत्रियों को हमेशा रोने वाले रोल मिलते थे.

आजकल शायद ऐसे टीयर जर्कर (रोने वाले) सीन कम दिखते हैं, लेकिन यह सोच अब भी बनी हुई है. टीवी धारावाहिकों में भी यह प्रवृत्ति बनी रही. सासबहू सीरियल्स में महिलाओं को भावनाओं में बहने वाली, ईर्ष्यालु या हर समय आंसू बहाती हुई दिखाया गया. लड़की को यह बारबार बताया गया कि वह तभी अच्छी है जब वह भावुक है, रोती है, त्याग करती है. ताकत, निर्णय और साहस जैसे गुण केवल पुरुषों के हिस्से रखे गए.

रोना क्यों आता है

रोना एक प्राकृतिक मानवीय प्रक्रिया है, जो कई कारणों से हो सकता है:

– भावनात्मक दर्द जैसे किसी की मृत्यु, धोखा, अकेलापन.

– शारीरिक दर्द चोट या बीमारी.

– तनाव और चिंता मानसिक दबाव या डर कौन सी ग्रंथियां जिम्मेदार होती हैं?

– लैक्रिमल ग्रंथि जो आंखों में आंसू बनाती है.

– नर्वस सिस्टम जो मस्तिष्क और रीढ़ की हड्डी के जरीए रोने की प्रक्रिया को नियंत्रित करता है.

क्या जानवर भी रोते हैं हां, जानवर भी दर्द और दुख में रो सकते हैं. भले ही उन की रोने की प्रक्रिया इंसानों जैसी न हो. कुत्ते, हाथी जैसे कुछ जानवर भावनात्मक जुड़ाव में अपने साथी के खोने पर उदासी दिखाते हैं.

भावनात्मकता कमजोरी नहीं. यह एक गलत धारणा है. समाज ने भावुकता को कमजोरी का प्रतीक बना दिया खासकर महिलाओं के लिए., जबकि आज की दुनिया में इमोशनल इंटैलिजैंस (भावनात्मक बुद्धिमत्ता)को सब से जरूरी योग्यता माना जाता है. चाहे वह नेतृत्व हो, रिश्ते हों या कैरियर.

आत्मविश्वास की हत्या: जब एक लड़की को बचपन से सिखाया जाता है कि तू उतनी तेज नहीं है, लड़कों जैसे काम मत कर, तेरी सीमा घर तक है तो वह धीरेधीरे अपने सपनों से समझौता करने लगती है. वह सोचती है: अगर मैं विफल हो गई तो? क्या लोग मुझे स्वीकारेंगे? क्या मैं सच में कर पाऊंगी? यह डर उस का अपना नहीं है. यह डर समाज ने उस के दिमाग में बो दिया है.

क्या सोच बदली जा सकती है

बिलकुल बदली जा सकती है. लेकिन इस के लिए जरूरी है :

– बचपन से नई सोच की शुरुआत करें. लड़के को रोने से न रोकें. लड़की को चुप रहने को मजबूर न करें.

– शिक्षा में बदलाव लाएं. किताबों में ऐसे पात्र दिखें जो लिंग भेद से परे हों.

– मीडिया को जवाबदेह बनाएं. विज्ञापन, टीवी और फिल्मों को संवेदनशीलता और समानता का आईना बनाएं.

अब समय आ गया है कि हम कहें कि मर्द को भी दर्द होता है, लड़कियों की तरह रोना कोई गाली नहीं है. भावुक होना कमजोरी नहीं बल्कि इंसान होने की निशानी है.

Women Empowerment

Body Odor: पसीने की बदबू से परेशान हैं, अपनाएं ये टिप्स

Body Odor: कुछ लोग रोज नहाते हैं फिर भी उन के शरीर से कुछ समय के बाद ही बड़ी तेज दुर्गंध आने लगती है, जिस का आभास उन्हें तो नहीं होता, लेकिन उन की बगल में बैठे लोग उस से जरूर परेशान हो कर नाक सिकोड़ने के लिए मजबूर हो जाते हैं और सोसाइटी नौर्म्स कि आप को कहीं बुरा न लग जाए, इस असमंजस के चलते उन्हें कुछ कह भी नहीं पाते.

पब्लिक ट्रांसपोर्ट में सफर करते हुए तो यह बैड बौडी ओडोर की समस्या उन्हें सभी की टेढ़ी नजरों का शिकार बना सकती है. शरीर से आती इस गंदी बदबू से पब्लिकली शर्मिंदा न होना पड़े, इस के लिए यह जानना जरूरी है कि आखिर उन का शरीर डस्टबिन के तरह क्यों महक रहा है. इस के पीछे कई कारण हो सकते हैं:

पसीने और बैक्टीरिया की जोड़ी

हमारे शरीर में अपोक्राइन ग्रंथियां होती हैं जो खासतौर पर बगल, गुप्तांग और छाती के पास होती हैं. ये ग्रंथियां पसीना तो छोड़ती हैं, लेकिन उस में मौजूद प्रोटीन और फैटी ऐसिड जब त्वचा पर मौजूद बैक्टीरिया से मिलते हैं, तब दुर्गंध पैदा होती है. ये अपोक्राइन ग्रंथिया हमारे शरीर के बालों वाले हिस्से अंडरआर्म, जांघों के बीच, सिर की स्कैल्प, गुप्तांग जैसी जगहों पर होती हैं, यह पसीना शरीर की भावनात्मक प्रतिक्रिया जैसे तनाव, डर, एक्साइटमैंट के समय भी निकलता है, न कि सिर्फ गरमी और उमस में.

हालांकि ये अपोक्राइन ग्रंथियां शरीर के लिए डिफेस लाइन बनाने का भी काम करती हैं. इस पसीने में मौजूद कुछ फैटी ऐसिड और प्रोटीन स्किन को मौइस्चराइज करते हैं और पीएच बैलेंस को मैंटेन करते हैं. यह पसीना बैरियर की तरह भी काम करता है, जिस से कुछ हानिकारक बैक्टीरिया से सुरक्षा मिलती है.

यह पसीना फेरोमोन सिग्नलिंग का भी काम करता है. अपोक्राइन ग्लैंड्स से निकले पसीने में कुछ ऐसे प्राकृतिक रसायन होते हैं जो बौडी सैंट बनाते हैं. हर इंसान का बौडी सैंट अलग होता है जो किसी को अच्छा तो किसी को बुरी लग सकता है. न्यूबौर्न बेबी का मां से अटैचमैंट, ऐनिमल्स का आप को आप की स्मैल से दूर से ही पहचान लेना या किसी की बौडी ओडोर के लिए किसी मेल या फीमेल का अट्रैक्ट होना कई मामलों में व्यक्ति के बौडी ओडोर पर निर्भर करता है.

अब चूंकि जिक्र बदबू का है तो जानते हैं शरीर पर बैक्टीरिया कहां से आते हैं जो बदबू बनाते हैं?

हमारी स्किन पर लाखों प्राकृतिक

माइक्रोब्स जैसे बैक्टीरिया, फंगी पहले से मौजूद होते हैं, जिसे स्किन माइक्रोबाइम कहते हैं. ये बैक्टीरिया और फंगी कई सारे कारणों से हमारी स्किन पर मौजूद होते हैं जैसे हमारी खुद की स्किन से जैसे मरती हुई स्किन कोशिकाएं, कपड़ों से गंदे या नम कपड़े बैक्टीरिया को पनपने का मौका देते हैं.

हाथों से बारबार छूने से क्योंकि हम अपने हाथों से बहुत से सर्फेस को टच करते हैं, उस के बाद उन्हें साबुन से अच्छे से धोए बिना हम अपने शरीर के बाकी हिस्सों को छू कर उन पर भी बाहरी बैक्टीरिया चिपका देते हैं.

गंदे टौवेल, रजाई, तकिए, फोन या टौयलेट सीट्स से पसीने से नमी बनी रहने पर.

पसीने में बदबू कैसे बनती है

जब अपोक्राइन ग्रंथियां पसीना छोड़ती हैं तो यह पसीना खुद में बदबूदार नहीं होता. लेकिन जब यह त्वचा के बैक्टीरिया से मिलता है तो बैक्टीरिया उस में मौजूद प्रोटीन और फैट को तोड़ते हैं. इस प्रक्रिया में कुछ वोलटाइल ओर्गैनिक कंपाउंड्स बनते हैं जो बौडी ओडोर पैदा करते हैं. थोड़ा और डीप में जानना चाहें तो कोरिनेबैक्टीरियम और स्टीफीलोकस होमिनिस. ये 2 मुख्य बैक्टीरिया हैं जो शरीर में बदबू पैदा करने में लीड रोल में रहते हैं.

स्वच्छता की कमी

जो लोग रोज नहीं नहाते या नहाने के बाद कपड़े न बदल कर उन्हीं पुराने गंदे कपड़ों को रिपीट करते हैं, टाइट कपड़े पहनना जिस से स्किन सांस न ले पाए इन सब कारणों से स्किन पर बैक्टीरिया बढ़ते हैं.

हारमोनल चेंजेस

टीनऐज, प्रैगनैंसी या मेनोपौज के समय हारमोन बदलते हैं, जिस से पसीने की मात्रा और उस की गंध बढ़ सकती है. इस से भी आप को बौडी ओडोर की परेशानी का सामना करना पड़ा सकता है.

डाइट

लहसुन, प्याज, मछली, शराब, मसालेदार भोजन आदि का नियमित सेवन से भी शरीर की गंध को प्रभावित करता है.

बीमारियां

डायबिटीज, लिवर या किडनी की समस्या या हाइपरहाइड्रोसिस यानी ऐक्सैसिव स्वैटिंग जैसी स्थिति में शरीर से आती बदबू सामान्य से अधिक हो सकती है.

तनाव या चिंता

जब हम तनाव में होते हैं तो शरीर में स्ट्रैस से जुड़ी ग्रंथियां अधिक सक्रिय हो जाती हैं, जिस से ज्यादा बदबूदार पसीना निकलता है.

बदबू से कैसे बचें

डेली नहाएं

रोजाना नहाना मजबूरी नहीं बल्कि अच्छी आदत है इसे अपनाएं. गरमियों में दिन में 2 बार नहाएं. ऐंटीबैक्टीरियल साबुन जैसे डिटोल स्किन केयर पीएच बैलैंस्ड बौडी वाश, सीबम्ड लिक्विड फेस ऐंड बौडी वाश, द बौडी सोप टी ट्री बौडी वाश का इस्तेमाल किया जा सकता है. हम यहां किसी ब्रैंड का प्रचार नहीं कर रहे हैं बल्कि आप को औप्शन दे रहे हैं. आप चाहें तो अपने डाक्टर की सलाह पर भी कोई ऐंटीबैक्टीरियल साबुन चुन सकते हैं.

सिर्फ भीग लेना या 2 मिनट में नहा लेना साफसफाई नहीं कहलाता. शरीर की दुर्गंध और त्वचा संबंधी समस्याओं का एक बड़ा कारण यह भी है कि बहुत से लोग नहाने की सही प्रक्रिया और महत्त्व को नहीं सम?ाते.

आप को नहाने के लिए कुनकुने पानी का इस्तेमाल करना चाहिए, इस से पोर्स खुलते हैं और यह गंदगी हटाने में मदद करता है. शरीर को अच्छे से भिगोएं कम से कम 1 मिनट ताकि स्किन नर्म हो जाए. लूफा, बौडी ब्रश या हाथ से साबुन को स्किन में घुमाते हुए 1-2 मिनट तक रगड़ें. जहां बैक्टीरिया ज्यादा पनपते हैं जैसे उंगलियों के बीच, अंडरआर्म्स, गरदन, प्राइवेट पार्ट्स, कमर इन्हें अच्छे से रगड़ें. अगर बाल धोने हैं तो पहले बालों को अच्छे से शैंपू करें ताकि बालों का गंदा पानी बौडी पर न रहे. नहा कर पोंछें भी अच्छे से, कौटन टौवेल यूज करें. अगर ढंग से नहीं पोंछने के कारण नमी रह गई तो फंगल इंफैक्शन और बदबू आ सकती है.

डियोड्रैंट या ऐंटीपर्सपिरैंट लगाएं

डियोड्रैंट गंध को छिपाता है, जबकि ऐंटीपर्सपिरैंट पसीना कम करता है. बगल या पैरों पर लगाने से फायदा मिलता है.

कपड़े बदलें और धोएं

पसीने वाले कपड़े तुरंत बदलें. कौटन या लूज कपड़े पहनें ताकि स्किन सांस ले सके. जिम के कपड़ों को बिना धोए रिपीट करने की गलती न करें.

 समस्या का समाधान क्या हो सकता है

– मसाज के तुरंत बाद कुनकुने पानी और माइल्ड ऐंटीबैक्टीरियल बौडी वाश से नहाएं सिर्फ साबुन से नहीं. बौडी स्क्रब या लूफा से रगड़ कर स्किन को साफ करें. जल्दबाजी न करें, जिनता वक्त मसाज में दिया है उतना ही बौडी को क्लीन करने में भी दें.

– मसाज के लिए औयल भी सोचसमझ कर चूज करें. सिंथैटिक या हैवी सैंटेड तेलों की जगह नारियल, तिल या जोजोबा औयल जैसे लाइट औयल इस्तेमाल करें, हर्बल औयल चुनते वक्त देख लें कि वह कैमिकल फ्री हो.

– हफ्ते में 1 बार डीप क्लीन करें. स्किन पर जमी पुरानी गंदगी और तेल हटाने के लिए मुलतानी मिट्टी, बेसन, दही और नीबू का पैक इस्तेमाल कर सकते हैं.

– पसीने वाले एरिया पर खास ध्यान दें जैसे बगलों, गरदन, पीठ और जांघों की सफाई खासतौर पर करें क्योंकि यहीं से सब से ज्यादा गंध आती है.

– मसाज के बाद पहने गए कपड़े अगर तेल सोख लें तो वे भी बदबू छोड़ सकते हैं. इसलिए तुरंत बदलें और धो कर ही दोबारा यूज करें. ज्यादा पानी पीएं, हरी सब्जियां और फल खाएं ताकि बौडी अंदर से भी डिटौक्स हो.

Body Odor

Footwear Guide: चुनें सही फुटवियर

Footwear Guide: रवीना अपने लिए 6 हजार रुपए के वाकिंग शूज बड़े शौक से खरीद लाई परंतु घर आ कर जब उस ने सौक्स के साथ उन्हें पहना तो वे उसे टाइट लगने लगे. अब चूंकि वह एक दिन वाक कर के आ गई थी इसलिए उन्हें वापस भी नहीं किया जा सकता था.

शर्माजी को औफिस में पहनने के लिए जूते खरीदने थे. बड़ी मुश्किल से उन्हें एक शोरूम पर जूते पसंद आए, चल कर भी देखा पर जब वे औफिस पहन कर गए तो उन्हें जूते बहुत अनकंफर्टेबल लगे क्योंकि जूते उन के पैर के माप से कुछ ढीले थे.

जूते प्रत्येक इंसान की आवश्यकता होते हैं, पहले जहां बाजार में बहुत कम ब्रैंड होते थे और लोगों के पास भी एकाध जोड़ी ही जूते होते थे वहीं आजकल औनलाइन और औफलाइन जूतों के अनेक ब्रैंड उपलब्ध हैं. दूसरे वाकिंग, रनिंग, ट्रैकिंग, औफिस और पार्टी के लिए अलगअलग प्रकार के जूते उपलब्ध हैं, जिन में अवसर और उपयोगिता के अनुकूल कुशनिंग और सोल की बनावट निर्धारित की जाती है.

पैरों के लिए सही जूते होना बहुत आवश्यक होता है अन्यथा पैरों में दर्द, छाले और चुभन जैसी अनेक समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं. आजकल जूतों की कीमत भी हजारों में होती है. ऐसे में यदि आप ने जूते सावधानीपूर्वक नहीं खरीदे तो आप के हजारों रुपए बरबाद होने की संभावना रहती है.

आइए, जानते हैं कि जूते खरीदते समय किन बातों का ध्यान रखना चाहिए:

नाप है सब से अहम

हालिया शोधों के अनुसार इंसान के बड़े हो जाने के बाद भी पैरों के नाप में मामूली सा अंतर आता रहता है इसलिए जूते या चप्पल खरीदने से पहले नाप अवश्य लें. नाप के लिए आप अपने पुराने जूतों का नंबर चैक कर के जाएं ताकि दुकानदार को नंबर बता सकें. यों तो आजकल दुकानदार के पास भी मेजरमैंट के लिए स्केल होता है परंतु कई बार उस पर भी नापने में नाप आप के असली नाप से भिन्न हो जाता है.

पंजों की चौड़ाई देखें

पैर चौड़े हैं तो तंग जूते पहनने से उंगलियों में दर्द और दबाव महसूस होगा और यदि पैर पतले हैं और चौड़ा जूता पहनेंगे तो पैरों को पर्याप्त सपोर्ट नहीं मिलेगी और पैरों में छाले पड़ने की संभावना रहेगी, इसलिए आप के पंजे यदि चौड़े हैं तो आगे से नुकीली बनावट वाले जूतों की जगह चौड़ी बनावट वाले जूतों का चयन करें.

सही समय चुनें

सुबह के समय पैर का नाप सब से सही होता है क्योंकि इस समय पैर अपने कंफर्ट लेबल में होते हैं. शाम तक कई बार एकजर्शन के कारण पैर में सूजन सी आ जाती है इसलिए जूते खरीदने शाम के समय थोड़ा आराम कर के जाएं ताकि पैरों का सही नाप मिल सके.

समझौता न करें

कुछ लोग, ‘थोड़ा से ही टाइट हैं, यूज करने के बाद लूज हो जाएंगे’ या ‘कुछ लूज हैं सौक्स के साथ सैट हो जाएंगे’ सोच कर जूता ले लेते हैं और फिर घर आ कर पछताते हैं इसलिए जूते खरीदते समय जरा भी समझौता न करें क्योंकि आप जूतों के लिए अच्छीखासी कीमत चुका रहे हैं फिर समझता क्यों करना.

उद्देश्य और बजट तय करें

आजकल चूंकि प्रत्येक गतिविधि के लिए अलगअलग जूते होते हैं इसलिए बाजार जाने से पहले यह सुनिश्चित अवश्य कर लें कि आप डेली वियर, वाकिंग, रनिंग या फिर ट्रैकिंग के लिए जूते खरीद रहे हैं. इस से दुकानदार को आप को जूते दिखाने में भी आसानी रहेगी और आप को भी चुनने में सुविधा रहेगी.

अवसर के अनुकूल खरीदें

हर अवसर के लिए अलगअलग जूते खरीदें. मसलन, रनिंग के लिए बनाए जाने वाले जूतों में अलग से कुशनिंग की जाती है ताकि किसी भी तरह के दुष्प्रभाव को रोका जा सके और उन के जोड़ भी सुरक्षित रह सकें, इसी तरह वाकिंग शूज रनिंग शूज से काफी लचीले होते हैं ताकि उन्हें पहन कर आराम से चला जा सके. ट्रैकिंग के लिए टिकाऊ, अच्छी पकड़ और टखनों को स्पोर्ट देने वाले जूते खरीद सकते हैं. वेटलिफ्टिंग के समय ऐसे जूते पहनें जिन के तले फ्लैट और सख्त हों ताकि आप के पैरों को स्पोर्ट मिल सके. खेलने के लिए ऐसे जूते पहनें जिन से एडि़यों और टखनों को स्पोर्ट मिल सके जैसेकि स्लिप औन स्नीकर्स के बजाय ऐंकल शूज चुनें.

सही ब्रैंड चुनें

सस्ता रोए बारबार, महंगा रोए एक बार की कहावत को ध्यान में रखते हुए अच्छे ब्रैंड के जूते खरीदें ताकि आप बारबार जूते खरीदने से बचे रहें क्योंकि अच्छे ब्रैंड के जूते सालोंसाल खराब नहीं होते वहीं लोकल क्वालिटी के जूते बहुत जल्दी खराब हो जाते हैं.

No Needle Mesotherapy: अब खूबसूरती का रास्ता आसान

No Needle Mesotherapy: हर महिला चाहती है कि उस की त्वचा हमेशा चमकदार, मुलायम और जवान बनी रहे. लेकिन जिंदगी की भागदौड़, धूपधूल, बदलता मौसम और स्ट्रैस हमारी स्किन की रौनक चुरा लेता है. कभी पिगमैंटेशन, कभी झुर्रियां तो कभी ड्राइनैस हमें आईने में अपने ही चेहरे को देख कर सोचने पर मजबूर कर देती है.

कई बार महिलाएं स्किन ट्रीटमैंट कराने का सोचती हैं लेकिन सुई, दर्द और निशान के डर से कदम पीछे खींच लेती है. यही डर सब से बड़ा अवरोध था. लेकिन अब टैक्नोलौजी ने इस डर को खत्म कर दिया है और इस का सब से अच्छा उदाहरण है नो नीडल मेसोथेरैपी.

इस में किसी भी तरह की सूई का इस्तेमाल नहीं होता. एक खास मशीन हलकी इलैक्ट्रिक करंट और माइक्रो वेव्स की मदद से स्किन को इतना रिलैक्स कर देती है कि न्यूट्रिशन देने वाले सीरम और एक्टिव इनग्रीडिऐंट्स आसानी से अंदर पहुंच जाते हैं. न दर्द, न रैडनैस, न निशान और असर उतना ही गहरा जितना पहले वाली मैसोथेरैपी में होता था.

इस का सैशन बेहद आरामदायक होता है. मशीन का टच नर्म सा मसाज जैसा एहसास देता है. कोई चुभन नहीं, बस हलकी गरमाहट और रिलैक्सेशन. करीब 20-30 मिनट में सैशन पूरा हो जाता है और आप तुरंत अपनी दिनचर्या में लौट सकती हैं. इसी वजह से इसे ‘लंच टाइम ट्रीटमैंट’ भी कहते हैं लंच ब्रेक में कराया और चेहरे पर ताजगी ले कर लौट आएं.

सैशन के बाद ध्यान रखें कि पहले 24 घंटे चेहरा ज्यादा न रगड़ें, बहुत गरम पानी से न धोएं और धूप में निकलते समय हलका सनस्क्रीन जरूर लगाएं. हलके मौइस्चराइजर और भरपूर पानी का सेवन स्किन के ग्लो को लंबे समय तक बनाए रखता है.

नो नीडल मैसोथेरैपी का असर लंबे समय तक बनाए रखने के लिए घर पर कुछ नए और आसान नुसखे भी अपनाए जा सकते हैं.

ग्रीन टी आइस क्यूब्स मसाज

1 कप ग्रीन टी बना कर ठंडा कर लें और इसे आइस ट्रे में जमाएं. सुबह चेहरा धोने के बाद इन आइस क्यूब्स को हलकेहलके चेहरे और गरदन पर घुमाएं. इस से स्किन में ब्लड सर्कुलेशन बढ़ेगा, पोर्स टाइट होंगे और दिनभर ताजगी बनी रहेगी.

चिया सीड जैल मास्क

2 चम्मच चिया सीड्स को 1/2 कप पानी में 2-3 घंटे भिगो दें. जब यह जैल जैसा बन जाए तो इसे चेहरे पर लगा कर 15 मिनट छोड़ दें और फिर हलके पानी से धो लें. चिया सीड्स में ओमेगा 3 और ऐंटीऔक्सीडैंट होते हैं जो स्किन को डीप हाइड्रेशन और ग्लो देते हैं.

राइस वाटर और ऐलोवेरा टोनर

1/2 कप चावल धो कर उस का पानी अलग कर लें और उस में 2 चम्मच ऐलोवेरा जैल मिलाएं. इसे  एक स्प्रे बोतल में भर कर फ्रिज में रखें. रोज सुबहशाम चेहरा धोने के बाद इसे टोनर की तरह स्प्रे करें. यह स्किन को सौफ्ट, ब्राइट और हैल्दी बनाए रखता है.

No Needle Mesotherapy

Moral Story: बेटी का सुख- बेटा-बेटी में क्या फर्क समझ पाए माता पिता

Moral Story: मैं नहीं जानती बेटे क्या सुख देते हैं, किंतु बेटी क्या सुख देती है यह मैं जरूर जानती हूं. मैं नहीं कहती बेटी, बेटों से अच्छी है या कि बेटे के मातापिता खुशहाल रहेंगे. किंतु यह निश्चित तौर पर आज 70 वर्ष की उम्र में बेटी की मां व उस के 75 वर्षीय पिता कितने खुशहाल हैं, यह मैं जानती हूं. जब वह मेरे घर आती है तो पहनने, ओढ़ने, सोने, बिछाने के कपड़ों का ब्योरा लेती है. बिना इजाजत, बिना मुंह खोले फटापुराना निकाल कर, नई चादर, तकिए के गिलाफ, बैडकवर आदि अलमारी में लगा जाती है. रसोईघर में कड़ाही, भगौने, तवा, चिमटे, टूटे हैंडल वाले बरतन नौकरों में बांट, नए उपकरण, नए बरतन संजो जाती है.

हमारे जूतेचप्पलों की खबर भी खूब रखती है. चलने में मां को तकलीफ होगी, सो डाक्टर सोल की चप्पल ले आती है. पापा के जौगिंग शूज घिस गए हैं, चलो, नए ले आते हैं. वे सफाई देते हैं, ‘अभी तो लाया था.’ ‘कहां पापा, 2 साल पुराना है, फिर आप रोज घूमने जाते हैं, आप को अच्छे ब्रैंड के जौगिंग शूज पहनने चाहिए.’ बाप के पैरों के प्रति बेटी की चिंता देख कर सोचती हूं, ‘बेटे इस से अधिक और क्या करते होंगे.’ जब हम बेटी के घर जाते हैं तब जिस क्षण हवाईजहाज के पहिए धरती को छूते हैं, उस का फोन आ जाता है, ‘जल्दी मत करना, आराम से उतरना, मैं बाहर ही खड़ी हूं.’ एअरपोर्ट के बाहर एक ड्राइवर की तरह गाड़ी बिलकुल पास लगा कर सूटकेस उठाने और कार की डिक्की में रखने में दोनों के बीच प्यारी, मीठी तकरार कानों में पड़ती रहती है, ‘पापा, आप नहीं उठाओ, मम्मी तुम बैठ जाओ, हटो पापा, आप की कमर में दर्द होगा…’

‘तेरे से तो मैं ज्यादा मजबूत हूं, अभी भी.’ उन दोनों की बातें कानों में चाशनी घोल देती हैं. घर के दरवाजे पर स्वागत करती वैलकम नानानानी की पेंटिंग हमारी तसवीरों के साथ चिपकाई होती है. घर का कोनाकोना चहक रहा होता है, शीशे सा साफसुथरा घर हमारे रहने की व्यवस्था, छोटीछोटी चीजों को हमारे लिए पहले से ला कर कमरे में, बाथरूम में रख दिया गया होता है. पापा के लिए उन की पसंद का नाश्ता, चायबिस्कुट मेज पर रखा होता है. उन की पसंद की सब्जियां जैसे करेले, लौकी, तुरई, विशेषरूप से इंडियन शौप से ला कर रखे गए होते हैं.

हमारी पसंद के पकवान ऐसे परोसे जाते मानो हम शाही मेहमान हों. कितने बजे पापा चाय पिएंगे, अपनी कामवाली को सौसौ हिदायतें, ट्रे में गिलास, जग और पानी का खयाल, बिजली का स्विच कहां है, लिफ्ट कौन से फ्लोर पर रुकती है, सुबह पापा घूमने निकलें, उस से पहले उन का फोन वहां के सिमकार्ड के साथ उन के साथ दे देना. दोपहर हो या रात या दिन, हमारे रुटीन का इतना ध्यान रखती है. तकिया ठीक है कि नहीं, एसी अधिक ठंडा तो नहीं है, रात में कमरे का चक्कर मार जाती है मानो हम कोई छोटे बच्चे हों.

‘बेटा, तू सो जा, इतनी चिंता क्यों करती है, तेरा इतना व्यस्त दिन जाता है, पूरा दिन चक्करघिन्नी सी घूमती है, दसदस बार गाड़ी चलाती है, सड़कें नापती है…’ पर वह सुनीअनसुनी कर देती है. बेटियां, बस, ऐसी ही होती हैं. नहीं जानती कि बेटे क्या करते हैं पर बेटी तो चेहरे के भाव पढ़ कर अंतर्मन तक उतर जाती है.

मुझे अपनी 65 वर्षीय मां की बरबस याद चली आई. उस दिन भी 11 बजे थे. लगभग 20-25 साल पहले हम दिल्ली में पोस्टेड थे. मायका पास था, करीब 2 घंटे दूर. सो महीनेपंद्रह दिनों में वृद्ध मातापिता से मिलने चली जाया करती थी. सुबह की बस पकड़ कर घर पहुंची. रिकशा से उतर कर अम्मा को ढूंढ़ा, देखा, घर के एक किनारे खामोश बैठी थीं. बहुत क्षीण लग रही थीं. चेहरा उतरा हुआ. आंखें विस्फारित, फटीफटी सी. पैनी कंटीली झाड़ी सी सूखी झुरियों को, देखते ही समझ गई कि उन्हें प्यास लगी है. भाग कर रसोई में गई. एक लोटा ठंडा नीबू पानी बनाया.

जब उन्होंने 2 गिलास पानी एक के बाद एक गले से नीचे उतार लिए तब अपनी धोती से गिलास पकड़ेपकड़े रुंधे गले से बोलीं, ‘आज मेरा व्रत है, सुबह से किसी ने नहीं पूछा कि तुम ने कुछ लिया कि नहीं.’ वे अपने पति, मेरे पिता के बड़े से घर में रहती थीं, जहां उन का बेटाबहू व 2 पोतियां, आधा दर्जन नौकरचाकर दिनरात काम करते थे. पुत्रवती खुशहाल अवश्य होती है, किंतु उस दिन पुत्रवती मां की गीली आंखें मेरे मानस पर शिलालेख की भांति अमिट छाप छोड़ गईं. ‘आज बड़ी ढीली लग रही हो?’ बेटी ने एक दिन मुझे देर तक सोते देखा तब पास आ कर माथे पर हाथ रखा और थर्मामीटर लगाया. लगभग 100 डिगरी बुखार था. उसी क्षण ब्लडप्रैशर, शुगर आदि सब चैक होने शुरू हो गए. सारे काम एक तरफ, मां की तबीयत पर सब का ध्यान केंद्रित हो गया, बारीबारी, सब हाल पूछने आते.

‘नानी, यू औलराइट?’ धेवता गले लगा कर के स्कूल जाता, धेवती ‘टेक केयर, नानी’ कह कर जाती. बेटी मेरी पसंद की किताबें लाइब्रेरी से ले आई थी. दामाद से ले कर कामवाली तक मात्र थोड़े से बुखार में ऐसी सेवा कर रहे थे मानो मैं अंतिम सांसें ले रही हूं. यह बात जब मैं ने कह दी तो बिटिया के झरझर आंसू टपकने लगे, ‘अच्छा बाबा, मैं अभी नहीं मर रही, पर तू ही बता, 70वें साल में चल रही हूं…’ उस का उदास चेहरा देख कर चुप हो गई. किंतु बोझिल यादों का पुलिंदा अपने बूढ़े मांबाप के बुढ़ापे की ओर एक बार फिर खुल गया. अपने बूढ़े मातापिता को उन के बेटे यानी मेरे भाई के घर में नितांत अकेले समय काटते देखा था. मैं यह नहीं कहती कि उन्होंने क्या किया, किंतु उन्होंने क्या नहीं किया, उस का दर्द टीस बन कर शिरायों में उमड़ताघुमड़ता अवश्य है.

एक प्रोफैसर पिता ने कभी अच्छे दिनों में जमीन खरीद कर एक साधारण सा घर बनाया था. बिना मार्बल, बिना ग्रेनाइट लगाए. उन के जाने के बाद घर, बंगला बन गया. उसे करोड़ों की संपत्ति का दरजा मिल गया. मातापिता की जबानी ख्वाहिश तथा लिखित वसीयत, पांचों बेटों को बराबर दी गई संपत्ति की धज्जियां उड़ा दी गईं. उन का आदेश, उन की इच्छा को झूठ, उन की लिखी वसीयत को बकवास कह कर पुत्र ने रद्दी में फेंक दिया. बेटियां पराई हो जाती हैं, फिर भी आप से जुड़ी रहती हैं. वे एक नहीं, 3 घरों में बंटी रहती हैं. बेटियां पलपल की खबर रखने वाली, मन की धड़कन सुनने वाली बेटियां होती हैं. बेटे क्या करते हैं मुझे नहीं मालूम, किंतु बेटियां क्या करती हैं, अनुभव कर रही हूं. अपने रिटायर्ड पैंशनयाफ्ता पिता के बैंक बैलेंस की धड़कन पर पूरी नजर रखती हैं, उन के आत्मसम्मान को ठेस न पहुंचे, चुपचाप उन के पर्स में डौलर सरका जाती हैं.

देखो, बावली कितने डौलर रख गई है मेरे पर्स में… जानती है उस के पापा को सब्जीफल खरीदने का शौक है, किंतु अपने रुपए से कितना सामान ला सकेंगे.

मेरे ही एक भाई ने मुझे प्रैक्टिकल होने का पाठ पढ़ाया था, जब मां बीमार थीं और मृत्यु से पहले कोमा में चली गई थीं. चेन्नई से आए भाई वापस जाना चाहते थे, उन्होंने अपनी पत्नी से फोन पर मेरे सामने ही बात की थी, ‘क्या करूं? वापस आ जाऊं, कुछ औफिस का काम है.’

उधर से, ‘नहीं, वहीं रुको, एक ही बार आना.’ (निधन के बाद, 2 बार का हवाई खर्च क्यों करना, मां आज नहीं तो 2-4 दिनों में निबट जाएंगी) अनकही हिदायत का अर्थ. और एक तरफ यूरोप से मात्र 15 दिनों के लिए बेटी अपनी बीमार मां से मिलने चली आई थी, जरा भी प्रैक्टिकल नहीं थी. बेटे क्या करते हैं, क्या नहीं, निष्कर्ष निकालना, निर्णय लेना उचित नहीं. बहुत से बेटों वाले उपरोक्त तर्क का जोरदार खंडन करेंगे. मैं तो सिर्फ आपबीती बता रही हूं क्योंकि मेरा कोई बेटा नहीं है. आपबीती ही नहीं, जगबीती का उदाहरण समक्ष आया जब डाक्टर रवि वर्मा ने अपना अनुभव शेयर किया.

उन के पिता ने वृद्धाश्रम बनाया था जिस में 30 कमरे थे और वे बिना शुल्क उन बुजुर्गों की सेवा कर रहे थे जिन को देखने वाला कोई नहीं था. वे बता रहे थे, ‘बुजुर्गों के रिश्तेदार आदि, अलबत्ता तो कोई नहीं आता है, आता है तो भी हम उन्हें उन के कमरे में नहीं जाने देते.’ वे आगे बताते हैं, ‘अकसर बेटे आते थे और अपने पिता को मारपीट कर उन की 8-10 हजार रुपए की पैंशन की रकम छीन कर ले जाते थे. अब हम ने नियम बना दिया है कि मिलने वाले हमारे सामने सिर्फ औफिस में मिल सकते हैं.’ और फिर उन्होंने जोड़ा, ‘बेटियां आती हैं तो अपने वृद्ध मातापिता के लिए कुछ फल, मिठाई, कपड़ालत्ता ले कर आती हैं, बेटे तो सिर्फ छीनने आते हैं.’ यह उन का अनुभव है, मेरा नहीं.

हमारे यहां 13 से ले कर 25 वर्ष की लड़कियां घरों में काम करने आती हैं. उन के भाई महंगे मोबाइल फोन, मोटरसाइकिल, नए फैशन की जींस, और सारा दिन चौराहे पर जमघट लगाए धींगामस्ती करते हैं. 16 वर्षीय मेरी कामवाली रोज अपना मोबाइल याद करती है, ‘तीन बहनों में एक ही तो है, उस ने मांग लिया मैं कैसे न करती. हम अपने भाई को कभी न नहीं करते.’ जन्म से एक मानसिकता, बेटे को घीचुपड़ी, बेटी को बचीखुची. निश्चित रूप से बेटे भी बहुतकुछ करते होंगे, किंतु बेटियां क्या करती हैं, यह मैं दावे से कह सकती हूं. बेटियां मन से जुड़ी रहती हैं, वे कदम से कदम मिला कर अपना समय आप को देती हैं और यकीन मानिए, बुढ़ापे में समय बेशकीमती है, 5 बेटों के मेरे बाऊजी कितने अकेले थे, देखा है उन के चेहरे पर व्यथा के बादलों को.

5 में से 4 तो बाहर रहते थे. साल में एकाध बार मिलने आते थे. किंतु जो उन के साथ उन के घर में रहता था उस के बारे में बाऊजी एक दिन मुझ से बोले, ‘देख, तेरा छोटा भाई सामने के दरवाजे से अंदर आएगा और, परेड करता बाएं मुड़, सीधा अपने कमरे में चला जाएगा. मैं सामने बैठा उसे दिखाई नहीं देता.’ और ऐसा ही हुआ. 6 महीने बाद जब मिलने गई तो पता चला भाई ने अब सामने का दरवाजा छोड़, बरामदे से ही अलग प्रवेशद्वार प्रयोग करना शुरू कर दिया था. बूढ़ा व्यक्ति अपनी स्मृति के गलियारों में भटकता है. वह अपने गांव, अपने पुराने दिनों को किसी के साथ बांटना चाहता है. बस, यही बेटियां घंटों अपने बाप के साथ उन के देहात के मास्टरजी के रोचक किस्से सुनती हैं.

इसलिए, मैं शायद नहीं जानती, पूरी तरह वाकिफ नहीं हूं कि बेटे भी ये सब करत हैं, किंतु अपनी बेटी अपने पापा के साथ समय जैसे धन को खूब लुटाती है. समय बदल रहा है, आज का वृद्ध कह रहा है, हमें अपना स्पेस चाहिए, आधुनिक युग में फाइवस्टार ओल्डएज होम बन रहे हैं. वे ओल्डएज होम नहीं, कब्र कहलाते हैं. न बेटे की न बेटी की किसी की जरूरत नहीं. सभी सुविधाओं से लैस इस प्रकार की व्यवस्था की जा रही है जहां, खाना, रहना, अस्पताल, जिम, मनोरंजन के साधन, हरेभरे लौन, पार्क आदि घरजैसी बल्कि घर से बढ़ कर तमाम जरूरतों का ध्यान रखते हुए, प्रौपर्टी बन और बिक रही हैं.

दृष्टिकोण बदल रहा है. मांबाप कह रहे हैं, यदि बच्चों को पालापोसा तो क्या उन से हम बदला लें? हम ने उन्हें जन्म दे कर उन पर कोई एहसान नहीं किया. सो, उन्हें बुढ़ापे की लाठी की तरह इस्तेमाल करना बंद करो. इस प्रकार की अवधारणा तूल पकड़ रही है. तब तो बेटेबेटी का किस्सा ही खत्म. बेटे कैसे होते हैं? बेटियों से बेहतर, कि बदतर, टौपिक निरर्थक, चर्चा बेमानी और तर्क अर्थहीन. किंतु ऐसे पांचसितारा कब्र में रहने वाले कितने और कौन हैं, अपने देश की कितनी फीसदी जनता उस का उपभोग कर सकती है? मेरे देश का अधिकांश वयोवृद्ध आज भी बेटीबेटे की ओर आशातीत नजरों से निहारता है.

Moral Story

Family Kahani: शर्वरी- बेटी की ननद को क्यों अपने घर ले आई महिमा

Family Kahani: ‘‘ओशर्वरी, इधर तो आ. इस तरह कतरा कर क्यों भाग रही है,’’ महिमा ने कांजीवरम साड़ी में सजीसंवरी शर्वरी को दरवाजे की तरफ दबे कदमों से खिसकते देख कर कहा था. ‘‘जी,’’ कहती, शरमातीसकुचाती शर्वरी उन के पास आ कर खड़ी हो गई.

‘‘क्या बात है? इस तरह सजधज कर कहां जा रही है?’’ महिमा ने पूछा. ‘‘आज डा. निपुण का विदाई समारोह है न, मांजी, कालेज में सभी अच्छे कपड़े पहन कर आएंगे. मैं ऐसे ही, सादे कपड़ों में जाऊं तो कुछ अजीब सा लगेगा,’’ शर्वरी सहमे स्वर में बोली. ‘‘तो इस में बुरा क्या है, बेटी. तेरी गरदन तो ऐसी झुकी जा रही है मानो कोई अपराध कर दिया हो. इस साड़ी में कितनी सुंदर लग रही है, हमें भी देख कर अच्छा लगता है. रुक जरा, मैं अभी आई,’’ कह कर महिमा ने अपनी अलमारी में से सोने के कंगन और एक सुंदर सा हार निकाल कर उसे दिया. ‘‘मांजी…’’ उन से कंगन और हार लेते हुए शर्वरी की आंखें डबडबा आई थीं. ‘‘यह क्या पागलपन है. सारा मुंह गंदा हो जाएगा,’’ मांजी ने कहा. ‘‘जानती हूं, पर लाख चाहने पर भी ये आंसू नहीं रुकते कभीकभी,’’ शर्वरी ने खुद पर संयम रखने का प्रयास करते हुए कहा. शर्वरी ने भावुक हो कर हाथों में कंगन और गले में हार डाल लिया.

‘‘कैसी लग रही हूं?’’ अचानक उस के मुंह से निकल पड़ा. ‘‘बिलकुल चांद का टुकड़ा, कहीं मेरी नजर ही न लग जाए तुझे,’’ वह प्यार से बोलीं. ‘‘पता नहीं, मांजी, मेरी अपनी मां कैसी थी. बस, एक धुंधली सी याद शेष है, पर मैं यह कभी नहीं भूलूंगी कि आप के जैसी मां मुझे मिलीं,’’ शर्वरी भावुक हो कर बोली. ‘‘बहुत हो गई यह मक्खनबाजी. अब जा और निपुण से कहना, मुझ से मिले बिना न चला जाए,’’ उन्होंने आंखें तरेर कर कहा. ‘‘जी, डा. निपुण तो खुद ही आप से मिलने आने वाले हैं. उन की माताजी आई हैं. वह आप से मिलना चाहती हैं,’’ कहती हुई शर्वरी पर्स उठा कर बाहर निकल गई थी.

इधर महिमा समय के दर्पण पर जमी अतीत की धूल को झाड़ने लगी थीं. वह अपनी बेटी नूपुर के बेटा होने के मौके पर उस के घर गई थीं. वह जा कर खड़ी ही हुई थी कि शर्वरी ने आ कर थोड़ी देर उन्हें निहार कर अचानक ही पूछ लिया था, ‘आप लोग अभी नहाएंगे या पहले चाय पिएंगे?’ वह कोई जवाब दे पातीं उस से पहले ही नूपुर, शर्वरी पर बरस पड़ी थीं, ‘यह भी कोई पूछने की बात है? इतने लंबे सफर से आए हैं तो क्या आते ही स्नानध्यान में लग जाएंगे? चाय तक नहीं पिएंगे?’ ‘ठीक है, अभी बना लाती हूं,’ कहती हुई शर्वरी रसोईघर की तरफ चल दी. ‘और सुन, सारा सामान ले जा कर गैस्टरूम में रख दे. अंकुश का रिकशे वाला आता होगा. उसे तैयार कर देना. नाश्ते की तैयारी भी कर लेना…’

‘बस कर नुपूर. इतने काम तो उसे याद भी नहीं रहेंगे,’ महिमा ने मुसकराते हुए कहा. ‘मां, आप नहीं जानती हैं इसे. यह एक नंबर की कामचोर है. एक बात कहूं मां, पिताजी ने कुछ भी नहीं देखा मेरे लिए. पतिपत्नी कैसे सुखचैन से रहते हैं, मैं ने तो जाना ही नहीं, जब से इस घर में पैर रखा है मैं तो देवरननद की सेवा में जुटी हूं,’ अब नूपुर पिताजी की शिकायत करने लगी. ‘ऐसे नहीं कहते, अंगूठी में हीरे जैसा पति है तेरा. इतना अच्छा पुश्तैनी मकान है. मातापिता कम उम्र में चल बसे तो भाईबहन की जिम्मेदारी तो बड़े भाईभाभी पर ही आती है,’ महिमा ने समझाते हुए कहा. ‘वही तो कह रही हूं. यह सब तो देखना चाहिए था न आप को. भाई की पढ़ाई का खर्च, फिर बहन की पढ़ाई. ऊपर से उस की शादी के लिए कहां से लाएंगे लाखों का दहेज,’ नूपुर चिड़चिड़े स्वर में बोली थी. ‘ठीक है, यदि मैं सबकुछ देख कर विवाह करता और बाद में सासससुर चल बसते तो क्या करतीं तुम?’ अभिजीत भी नाराज हो उठे थे.

महिमा ने उन्हें शांत करना चाहा. बेटी और पति के स्वभाव से वह अच्छी तरह परिचित थीं और उन के भड़कते गुस्से को काबू में रखने के लिए उन्हें हमेशा ठंडे पानी का कार्य करना पड़ता था. तभी चाय की ट्रे थामे शर्वरी आई थी. साथ ही नूपुर के पति अभिषेक ने वहां आ कर उस गरमागरम बहस में बाधा डाल दी थी. चाय पीते हुए भी महिमा की आंखें शर्वरी का पीछा करती रहीं. उस ने फटाफट अंकुश को तैयार किया,उस का टिफिन लगाया, अभिषेक को नाश्ता दिया और महिमा और उन के पति के लिए नहाने का पानी भी गरम कर के दिया. महिमा नहा कर निकलीं तो उन्होंने देखा कि शर्वरी सब्जी काट रही थी. वह बोलीं, ‘अरे, अभी से खाने की क्या जल्दी है, बेटी. आराम से हो जाएगा.’

‘मांजी, मैं सोच रही थी, आज कालेज चली जाती तो अच्छा रहता. छमाही परीक्षाएं सिर पर हैं. कालेज न जाने से बहुत नुकसान होता है,’ शर्वरी जल्दीजल्दी सब्जी काटते हुए बोली. ‘तुम जाओ न कालेज. मैं आ गई हूं, सब संभाल लूंगी. इस तरह परेशान होने की क्या जरूरत है. मुझे पता है, इंटर की पढ़ाई में कितनी मेहनत करनी पड़ती है,’ महिमा ने कहा. उन की बात सुन कर शर्वरी के चेहरे पर आई चमक, उन्हें आज तक याद है. कुछ पल तक तो वह उन्हें एकटक निहारती रह गई थी, फिर कुछ इस तरह मुसकराई थी मानो बहुत प्यासे व्यक्ति के मुंह में किसी ने पानी डाल दिया हो. दोनों के बीच इशारों में बात हुई व शर्वरी लपक कर उठी और तैयार हो कर किताबों का बैग हाथ में ले कर बाहर आ गई थी. ‘तो मैं जाऊं, मांजी?’ उस ने पूछा. ‘कहां जा रही हैं, महारानीजी?’ तभी नूपुर ने वहां आ कर पूछा. ‘कालेज जा रही है, बेटी,’ शर्वरी कुछ कहती उस से पहले ही महिमा ने जवाब दे दिया. ‘मैं ने कहा था न, एक सप्ताह और मत जाना,’ नूपुर ने डांटने के अंदाज में कहा. ‘जाने दे न नूपुर, कह रही थी, पढ़ाई का नुकसान होता है,’

महिमा ने शर्वरी की वकालत करते हुए कहा. ‘ओह, तो आप से शिकायत कर रही थी. कौन सी पीएचडी कर रही है? इंटर में पढ़ रही है और वह भी रोपीट कर पास होगी,’ नूपुर ने व्यंग्य के लहजे में कहा. महिमा का मन हुआ कि वे नूपुर को बताएं कि जब वह स्कूल में पढ़ती थी तो उसे कैसे सबकुछ पढ़ने की टेबल पर ही चाहिए होता था और तब भी वह उसी के शब्दों में ‘रोपीट कर’ ही पास होती थी, या नहीं भी होती थी, पर स्थिति की नजाकत देख कर वे चुप रह गई थीं. अभिजीत तो 2 दिन बाद ही वापस चले गए थे पर उन्हें नूपुर के पूरी तरह स्वस्थ होने तक वहीं उस की देखभाल को छोड़ गए थे. शर्वरी दिनभर घर के कार्यों में हाथ बंटा कर अपनी पढ़ाई भी करती और नूपुर की जलीकटी भी सुनती, पर उस ने कभी भी कुछ न कहा. अभिषेक अपने काम में व्यस्त रहता या व्यस्त रहने का दिखावा करता.

छोटे भाई रोहित ने, शायद नूपुर के स्वभाव से ही तंग आ कर छात्रावास में रह कर पढ़ने का फैसला किया था. वह मातापिता की चलअचल संपत्ति पर अपना हक जताता तो नूपुर सहम जाती थी, पर अब सारा गुस्सा शर्वरी पर ही उतरता था. कभीकभी महिमा को लगता कि सारा दोष उन का ही है. वे उसे दूसरों से शालीन व्यवहार की सीख तक नहीं दे पाई थीं. बचपन से भी वह अपने तीनों भाईबहनों में सब से ज्यादा गुस्सैल स्वभाव की थी और बातबात पर जिद करना और आपे से बाहर हो जाना उस के स्वभाव का खास हिस्सा बन गए थे. कुछ दिन और नूपुर के परिवार के साथ रह कर महिमा जब घर लौटीं तो उन के मन में एक कसक सी थी. वे चाह कर भी नूपुर से कुछ नहीं कह सकी थीं. 2 महीने तक साथ रह कर शर्वरी से उन का अनाम और अबूझ सा संबंध बन गया था. कहते हैं, ‘मन को मन से राह होती है,’

पहली बार उन्होंने इस कथन की सचाई को जीवन में अनुभव किया था, पर संसार में हर व्यक्ति को अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी पड़ती है और वे चाह कर भी शर्वरी के लिए कुछ न कर पाई थीं. पर अचानक ही कुछ नाटकीय घटना घट गई थी. अभिषेक को 2 साल के लिए अपनी कंपनी की तरफ से जरमनी जाना था. शर्वरी को वह कहां छोड़े, यह समस्या उस के सामने मुंहबाए खड़ी थी. दोनों ने पहले उसे छात्रावास में रखने की बात भी सोची पर जब महिमा ने शर्वरी को अपने पास रखने का प्रस्ताव रखा तो दोनों की बांछें खिल गई थीं. ‘अंधा क्या चाहे दो आंखें,’ फिर भी अभिषेक ने पूछ ही लिया, ‘आप को कोई तकलीफ तो नहीं होगी, मांजी?’ ‘अरे, नहीं बेटे, कैसी बातें करते हो. शर्वरी तो मेरी बेटी जैसी है. फिर तीनों बच्चे अपने घरसंसार में व्यवस्थित हैं. हम दोनों तो बिलकुल अकेले हैं. बल्कि मुझे तो बड़ा सहारा हो जाएगा,’ महिमा ने कहा. ‘सहारे की बात मत कहो, मां. बहुत स्वार्थी किस्म की लड़की है यह सहारे की बात तो सोचो भी मत,’ नूपुर ने अपनी स्वाभाविक बुद्धि का परिचय देते हुए कहा था.

महिमा की नजर सामने दरवाजे पर खड़ी शर्वरी पर पड़ी थी तो उस की आंखों की हिंसक चमक देख कर वे भी एक क्षण को तो सहम गई थीं. ‘हां, तो पापा, आप क्या कहते हैं?’ उन्हें चुप देख कर नूपुर ने अभिजीत से पूछा था. ‘तुम्हारी मां तैयार हैं तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता. वैसे मुझे भी नहीं लगता कि कोई समस्या आएगी. शर्वरी अच्छी लड़की है और तुम्हारी मां को तो यों भी कभी किसी से तालमेल बैठाने में कोई परेशानी नहीं हुई है,’ अभिजीत ने नूपुर के सवाल का जवाब देते हुए कहा. इस तरह शर्वरी महिमा के जीवन का हिस्सा बन गई थी और जल्दी ही उस ने उन दोनों पतिपत्नी के जीवन में अपनी खास जगह बना ली थी. एक दिन शर्वरी कालेज से लौटी तो महिमा अपने बैडरूम में बेसुध पड़ी थीं. यह देख कर शर्वरी पड़ोसियों की मदद से उन्हें अस्पताल ले गई. बीमारी की हालत में शर्वरी ने उन की ऐसी सेवा की कि सब आश्चर्यचकित रह गए थे. ‘शर्वरी,’ महिमा ने हाथ में साबूदाने की कटोरी थामे खड़ी शर्वरी से कहा था. ‘जी.’ ‘तुम जरूर पिछले जन्म में मेरी मां रही होगी,’ महिमा ने मुसकरा कर कहा था. ‘आप पुनर्जन्म में विश्वास करती हैं क्या?’ शर्वरी ने पूछा. ‘हां, पर क्यों पूछ रही हो तुम?’

‘यों ही, पर मुझे यह जरूर लगता है कि कभी किसी जन्म में कुछ भले काम जरूर किए होंगे मैं ने जो आप लोगों से इतना प्यार मिला, नहीं तो मुझ अभागी के लिए यह सब कहां,’ कहते हुए शर्वरी की आंखें डबडबा गई थीं. ‘आज कहा सो कहा, आगे से कभी खुद को अभागी न कहना. कभी बैठ कर शांतमन से सोचो कि जीवन ने तुम्हें क्याक्या दिया है,’ महिमा ने शर्वरी को समझाते हुए कहा था. अभिजीत और महिमा के साथ रह कर शर्वरी कुछ इस कदर निखरी कि सभी आश्चर्यचकित रह गए थे. उस स्नेहिल वातावरण में शर्वरी ने पढ़ाई में अपनी पूरी ताकत लगा दी थी. जब कठिनाई से पास होने वाली शर्वरी पूरे विश्वविद्यालय में प्रथम आई थी तो खुद महिमा को भी उस पर विश्वास नहीं हुआ था. उसे स्वर्ण पदक मिला था. स्वर्ण पदक ला कर उस ने महिमा को सौंपते हुए कहा था,

‘इस का श्रेय केवल आप को जाता है, मांजी. पता नहीं इस का ऋण मैं कैसे चुका पाऊंगी.’ ‘पगली है, शर्वरी तू तो, मां भी कहती है और ऋण की बात भी करती है. फिर भी मैं बताती हूं, मेरा ऋण कैसे उतरेगा,’ महिमा ने उसे समझाते हुए कहा, ‘तेन त्यक्तेन भुंजीषा.’ ‘क्या?’ शर्वरी ने चौंकते हुए कहा, ‘यह क्या है? सीधीसादी भाषा में कहिए न, मेरे पल्ले तो कुछ नहीं पड़ा,’ कह कर शर्वरी हंस पड़ी. यह मजाक की बात नहीं है, बेटी. जीवन का भोग, त्याग के साथ करो और इस त्याग के लिए सबकुछ छोड़ कर संन्यास लेने की जरूरत नहीं है. परिवार और समाज में छोटी सी लगने वाली बातों से दूसरों का जीवन बदल सकता है. तुम समझ रही हो, शर्वरी?’ महिमा ने शर्वरी को समझाते हुए कहा था.

‘जी, प्रयास कर रही हूं,’ शर्वरी ने जवाब दिया. ‘देखो, नूपुर मेरी बेटी है, पर उस के तुम्हारे प्रति व्यवहार ने मेरा सिर शर्म से झुका दिया है. तुम ऐसा करने से बचना, बचोगी न?’ महिमा ने पूछा. ‘जी, प्रयत्न करूंगी कि आप को कभी निराश न करूं,’ शर्वरी गंभीर स्वर में बोली थी. शीघ्र ही शर्वरी की अपने ही कालेज में व्याख्याता के पद पर नियुक्ति हो गई और अब तो उस का आत्मविश्वास देखते ही बनता था. उस की कायापलट की बात सोचते हुए उन के चेहरे पर हलकी सी मुसकान तैर गई थी. ‘‘कहां खोई हो?’’ तभी अभिजीत ने आ कर महिमा की तंद्रा भंग करते हुए पूछा. ‘‘कहीं नहीं, यों ही,’’ महिमा ने चौंक कर कहा. ‘‘तुम्हारी तो जागते हुए भी आंखें बंद रहती हैं. आज लाइब्रेरी से निकला तो देखा शर्वरी डा. निपुण के साथ हाथ में हाथ डाले जा रही थी,’’ अभिजीत ने कहा. ‘‘जानती हूं,’’ महिमा ने उन की बात का जवाब दिया. ‘‘क्या?’’ अभिजीत ने पूछा. ‘‘यही कि दोनों एकदूसरे को बहुत चाहते हैं,’

’ उन्होंने बताया. ‘‘क्या कह रही हो, पराई लड़की है, कुछ ऊंचनीच हो गई तो हम कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे,’’ अभिजीत ने सकपकाते हुए कहा. ‘‘घबराओ नहीं, मुझे शर्वरी पर पूरा भरोसा है. उस ने तो अभिषेक को सब लिख भी दिया है,’’ महिमा बोलीं. ‘‘ओह, तो दुनिया को पता है. बस, हम से ही परदा है,’’ अभिजीत ने मुसकरा कर कहा था. थोड़ी ही देर में शर्वरी दरवाजे पर दस्तक देती हुई घर में घुसी. ‘‘मां, आज शाम को निपुण अपनी मां के साथ आप से मिलने आएंगे,’’ उस ने शरमाते हुए महिमा के कान में कहा. ‘‘क्या बात है? हमें भी तो कुछ पता चले,’’ अभिजीत ने पूछा. ‘‘खुशखबरी है, निपुण अपनी मां के साथ शर्वरी का हाथ मांगने आ रहे हैं.

चलो, बाजार चलें, बहुत सी खरीदारी करनी है,’’ महिमा ने कहा तो शर्वरी शरमा कर अंदर चली गई. ‘‘सच कहूं महिमा, आज मुझे जितनी खुशी हो रही है उतनी तो अपनी बेटियों के संबंध करते समय भी नहीं हुई थी,’’ अभिजीत गद्गद स्वर में बोले. ‘‘अपनों के लिए तो सभी करते हैं पर सच्चा सुख तो उन के लिए कुछ करने में है जिन्हें हमारी जरूरत है,’’ संतोष की मुसकान लिए महिमा बोलीं.

Family Kahani

Fictional Story: हल है न- शुचि ने कैसे की दीप्ति की मदद?

Fictional Story: दीप्ति ने भरे मन से फोन उठाया. उधर से चहकती आवाज आई, ‘‘हाय दीप्ति… मेरी जान… मेरी बीरबल… सौरी यार डेढ़ साल बाद तुझ से कौंटैक्ट करने के लिए.’’

‘‘शुचि कैसी है तू? अब तक कहां थी?’’ प्रश्न तो और भी कई थे पर दीप्ति की आवाज में उत्साह नहीं था.

शुचि यह ताड़ गई. बोली, ‘‘क्या हुआ दीप्ति? इतना लो साउंड क्यों कर रही है? सौरी तो बोल दिया यार… माना कि मेरी गलती है… इतने दिनों बाद जो तुझे फोन कर रही हूं पर क्या बताऊं… पता है मैं ने हर पल तुझे याद किया… तू ने मेरे प्यार से मुझे जो मिलाया. तेरी ही वजह से मेरी मलय से शादी हो सकी. तेरे हल की वजह से मांपापा राजी हुए जो तू ने मोहसिन को मलय बनवाया. इस बार भी तू ने हल ढूंढ़ ही निकाला. यार मलय से शादी के बाद तुरंत उस के साथ विदेश जाना पड़ा. डेढ़ साल का कौंट्रैक्ट था. आननफानन में भागादौड़ी कर वीजा, पासपोर्ट सारे पेपर्स की तैयारी की और चली गई वरना मलय को अकेले जाना पड़ता तो सोच दोनों का क्या हाल होता.

‘‘हड़बड़ी में मेरा मोबाइल भी कहीं स्लिप हो गया. तुझ से आ कर मिलने का टाइम भी नहीं था. कल ही आई हूं. सब से पहले तेरा ही नंबर ढूंढ़ कर निकाला है. सौरी यार. अब माफ भी कर दे… अब तो लौट ही आई हूं. किसी भी दिन आ धमकूंगी. चल बता, घर में सब कैसे हैं? आंटीअंकल, नवल भैया और उज्ज्वल?’’ एक सांस में सब बोलने के बाद दीप्ति ने कोई प्रतिक्रिया न दी तो वह फिर बोली, ‘‘अरे, मैं ही तब से बोले जा रही हूं, तू कुछ नहीं कह रही… क्या हुआ? सब ठीक तो है न?’’ शुचि की आवाज में थोड़ी हैरानीपरेशानी थी.

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‘‘बहुत कुछ बदल गया है. शुचि इन डेढ़ सालों में… पापा चल बसे, मां को पैरालिसिस, नवल भैया को दिनरात शराब पीने की लत लग गई. उन से परेशान हो भाभी नन्ही पारिजात को ले कर मायके चली गईं…’’

‘‘और उज्ज्वल?’’

‘‘हां, बस उज्ज्वल ही ठीक है. 8वीं कक्षा में पहुंच गया है. पर आगे न जाने उस का भी क्या हो,’’ आखिर दीप्ति के आंसुओं का बांध टूट ही गया.

‘‘अरे, तू रो मत दीप्ति… बी ब्रेव दीप्ति… कालेज में बीरबल पुकारी जाने वाली, सब की समस्याओं का हल निकालने वाली, दीप्ति के पास अपनी समस्या का कोई हल नहीं है, ऐसा नहीं हो सकता… कम औन यार. यह तेरी ही लाइन हुआ करती थी कभी अब मैं बोलती हूं कि हल है न. चल, मैं अगले हफ्ते आती हूं. तू बिलकुल चिंता न कर सब ठीक हो जाएगा,’’ और फोन कट गया.

डोर बैल बजी थी. दीप्ति ने दुपट्टे से आंसू पोंछे और दरवाजा खोला. रोज का वही चिरपरिचित शराब और परफ्यूम का मिलाजुला भभका उस की नाकनथुनों में घुसने के साथ ही पूरे कमरे में फैल गया. नशे में धुत्त नवल को लादफांद कर उस के 4 दोस्त उसे पहुंचाने आए थे. कुछ कम तो कुछ ज्यादा नशे में डगमगाते हुए अजीब निगाहों से दीप्ति को निहार रहे थे. नवल को सहारा देती दीप्ति उन्हें अनदेखा करते हुए अपनी निगाहें झुकाए उसे ऐसे थामने की कोशिश करती कि कहीं उन से छू न जाए. पर वे कभी जानबूझ कर उस के हाथ पर हाथ रख देते तो किसी की गरम सांसें उसे अपनी गरदन पर महसूस होतीं. कोई उस का कंधा या कमर पकड़ने की कोशिश करता. पर उस के नवल भैया को तो होश ही नहीं रहता, प्रतिरोध कहां से करते. घुट कर रह जाती वह.

पिता के मरने के बाद पिता का सारा बिजनैस, पैसा संभालना नवल के हाथों में आ गया. अपनी बैंक की नौकरी छोड़ वह बिजनैस में ही लग गया. बिजनैस बढ़ता गया. पैसों की बरसात में वह हवा में उड़ने लगा. महंगी गाडि़यां, महंगे शौक, विदेशी शराब के दौर यारदोस्तों के साथ रोज चलने लगे. मां जयंती पति के निधन से टूट चुकी थी. नवल की लगभग तय शादी भी इसी कारण रोक दी गई थी. लड़की लतिका के पिता वागीश्वर बाबू भी बेटी के लिए चिंतित थे. सब ने जयंती को खूब समझाया कि कब तक अपने पति नरेंद्रबिहारी का शोक मनाती रहेंगी. अब नवल की शादी कर दो. घर का माहौल बदलेगा तो नवल भी धीरेधीरे सुधर जाएगा. उसे संभालने वाली आ जाएगी.

सोचसमझ कर निर्णय ले लिया गया. पर शादी के दिन नवल ने खूब तमाशा किया. अचानक हुई बारिश से लड़की वालों को खुले से हटा कर सारी व्यवस्था दोबारा दूसरी जगह करनी पड़ी, जिस से थोड़ा अफरातफरी हो गई. नवल और उस के साथियों ने पी कर हंगामा शुरू कर दिया. नवल ने तो हद ही कर दी. शराब की बोतल तोड़ कर पौकेट में हथियार बना कर घुसेड़ ली और बदइंतजामी के लिए चिल्लाता गालियां निकालता जा रहा था, ‘‘बताता हूं सालों को अभी… वह तो बाबूजी ने वचन दे रखा था वरना तुम लोग तो हमारे स्टैंडर्ड के लायक ही नहीं थे.’’

मां जयंती शर्मिंदा हो कर कभी उसे चुप रहने को कहतीं तो कभी वागीश्वर बाबू से क्षमा मांगती जा रही थीं.

दुलहन बनी लतिका ने आ कर मां जयंती के जोड़े हाथ पकड़ लिए, ‘‘आंटी, आप यह क्या कर रही हैं? ऐसे आदमी के लिए आप क्यों माफी मांग रही हैं? इन का स्तर कुछ ज्यादा ही ऊंचा हो गया है. मैं ही शादी से इनकार करती हूं.’’

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बहुत समझाबुझा कर स्थिति संभाली गई और लतिका बहू बन कर घर आ गई. पर वह नवल की आदतें न सुधार सकी. बेटी हो गई. फिर भी कोई फर्क न पड़ा. 2 सालों में स्थिति और बिगड़ गई. शराब की वजह से रोजरोज हो रही किचकिच से तंग आ कर लतिका अपनी 1 साल की बेटी पारिजात उर्फ परी को ले कर मायके चली गई. इधर मां जयंती को पैरालिसिस का अटैक पड़ा और वे बिस्तर पर आंसू बहाने के सिवा कुछ न कर सकीं.

होश में रहता नवल तो अपनी गलती का उसे एहसास होता. वह मां, दीप्ति, उज्ज्वल सभी से माफी मांगता. पर शाम को न जाने उसे क्या हो जाता. वह दोस्तों के साथ पी कर ही घर लौटता.
‘‘उज्ज्वल के बारे में नहीं सोचता तू नवल. बड़ा भाई है, घर में जवान बहन दीप्ति है. उस की शादी नहीं करनी क्या? कैसेकैसे दोस्त हैं तेरे? किस हालत में घर आता है? छोड़ क्यों नहीं देता उन्हें?’’ जयंती कभी धीरेधीरे बोल पातीं.

‘‘हजार बार कहा उन्हें कुछ मत कहिए मां. उन्होंने बाबूजी का बिजनैस संभालने में बहुत मदद की है वरना मुझे आता ही क्या था. उन्हीं सब की वजह से बिजनैस में इतनी जल्दी इतनी तरक्की हुई है.’’

वह भड़क उठता, ‘‘वे सब ऐसेवैसे थोड़े ही हैं. अच्छे घरों के हैं. थोड़ा तो सभी पीते हैं. आजकल वे सब कंट्रोल में रहते हैं. मुझे ही जरा सी भी चढ़ जाती है. कल से नहीं पीऊंगा. वे सभी तो उज्ज्वल को अपना छोटा भाई और दीप्ति को छोटी बहन मानते हैं… और आप क्या बातें करती हैं मां कि…’’ वह आगबबूला होने लगता.

दीप्ति कुछ कहने को होती तो नवल उसे भी झिड़क देता. उज्ज्वल भी सहम जाता. घर का सारा दारोमदार नवल पर था. दीप्ति अपना बीएड का कोर्स पूरा कर रही थी और उज्ज्वल 8वीं की परीक्षा की तैयारी. दोनों नवल के कुछ देर बाद शांत हो जाने पर अपनेअपने काम में अपने को व्यस्त कर लेते.

मां की अनुभवी आंखें हर वक्त नवल के दोस्तों का सच ही बयां करती रहती हैं. पर भैया को दिखता ही नहीं. कितनी बार उस ने नवल के दोस्तों की गंदी नजरें, गंदी हरकतें झेली हैं. नवल को थमाने के बहाने वे कहांकहां उसे छूने की कोशिश नहीं करते… कैसे भैया को विश्वास दिलाए… वे अपने दोस्तों के खिलाफ कुछ भी मानने को तैयार नहीं होते. उलटा उसे झाड़ देते. दीप्ति की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. आंसू निकलने लगते तो बाथरूम में बंद हो जी भर कर रो लेती.

शुचि अगले हफ्ते सच में आ धमकी. उस के गले लग कर दीप्ति खूब रोई और फिर अपना सारा दुख उसे बताया.

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शुचि ने नम आंखों से उसे धैर्य बंधाया, ‘‘दीप्ति सब सही हो जाएगा… हल है न. मैं तेरी ही जबान कह रही हूं… हार थोड़े ही मानते हैं ऐसे… चल, अब बहुत हो गया. आंसू पोंछ और हंस दे.

‘‘याद है जब मैं ने तुझे ‘गुटका खाए सैंया हमार’ वाली प्रौब्लम बताई थी तो तू ने जो मजाकमजाक में हल निकाला था तो वह बड़े काम का निकला था. मैं ने उस के अनुसार एक शादी में मलय की जेब में रखी गुटके की लड़ी को कंडोम की लड़ी में बदल दिया. फिर जब शादी में मलय ने जेब से गुटका निकाला तो पूरी कंडोम की लड़ी जेब से लटक गई. फिर

क्या था. यह देख लोग तो हंसहंस कर लोटपोट हो गए, मगर मलय बुरी तरह झेंप गए. उस दिन से उस ने जेब में गुटका रखना छोड़ दिया था. फिर तेरी ही सलाह पर हम उसे नशा मुक्ति केंद्र ले गए थे. धीरेधीरे मलय का गुटका खाने की लत छूट गई थी,’’ दीप्ति के आंसू रुके देख शुचि मुसकराई.

फ्रैश हो कर शुचि ने अपना बैग खोला और दीप्ति को दिखाते हुए बोली, ‘‘यह देख विदेश से तेरे लिए क्या लाई हूं. हैंडी वीडियो कैमरा.’’

‘‘इतना महंगा… क्या जरूरत थी इतना खर्च करने की?’’ दीप्ति ने प्यार से डांटा.

‘‘हूं, क्या जरूरत है,’’ कह शुचि ने उसे मुंह चिढ़ाया, ‘‘बकवास बंद कर और इस का फंक्शन देख क्या बढि़या वीडियो लेता है.’’

‘‘मेरी दीदी कितना बढि़या वीडियो कैमरा लाई हैं,’’ उज्ज्वल स्कूल से आ गया था.

‘‘हाय उज्ज्वल… कितना लंबा हो गया,’’ शुचि ने प्यार से उसे अपनी ओर खींचा.

‘‘मैं कपड़े चेंज कर के आता हूं दीदी. तब मेरा ब्रेक डांस करते हुए वीडियो बनाना,’’ कह वह चला गया.

‘‘मैं तो सोच रही हूं इस से तेरी समस्या का हल भी हो जाएगा.’’

‘‘वह कैसे?’’

‘‘रात में भैया जब दोस्तों के साथ आएगा तो हम छिप कर सब शूट कर के सुबह टीवी से अटैच कर उन्हें पूरा वीडियो दिखा देंगे. तब वे अपने दोस्तों की ओछी हरकतों से वाकिफ हो जाएंगे. दोस्तों की असलियत जान कर वे उन्हें छोड़ेंगे नहीं.’’

रात के 10 बज रहे थे. शुचि और उज्ज्वल सीक्रेट ऐजेंटों की तरह परदे की आड़ में सही जगह पर कैमरा लिए तैयार खड़े थे. तभी घंटी बजी तो दीप्ति ने दम साधे दरवाजा खोला. रोज का सीन शुरू हो गया. शुचि ने डोरबेल बजते ही रिकौर्डर औन कर लिया था.

‘‘अरे, लो भई संभालो अपने भाई को सहीसलामत घर तक ले आए.’’

‘‘अरे हमें भी तो थाम लो भई,’’ उन में से एक बोला.

‘‘हम इतने भी बुरे नहीं चुन्नी तो संभालो अपनी,’’ कह एक चुन्नी ठीक करने लगा तो एक बहाने से उस की कमर में हाथ डालने लगा.

एक के हाथ उस के बाल और गाल सहलाने की कोशिश में थे, ‘‘ये तुम्हारे गालों पर क्या लग गया जानू,’’ वैसी ही बेहूदा हरकतें… सोफे पर एक ओर लेटे नवल को कोई होश न था कि उस के ये दोस्त उस की बहन के साथ क्या कर रहे हैं.

‘‘थोड़ी नीबू पानी हमें भी पिला दो दीपू… तुम्हें देख कर तो हमारा नशा भी गहरा हो रहा है.’’

दीप्ति उज्ज्वल के हाथ से पानी का गिलास ले कर नवल को पिलाने की कोशिश कर रही थी. उन में से एक दीप्ति से सट कर बैठ गया. दीप्ति ने उसे धक्का दे कर हटाने की कोशिश की.

‘‘डरती क्यों हो दीपू. हम तुम्हें खा थोड़े ही जाएंगे. जा बच्चे पानी बना ला हम सब के लिए,’’ कह वह दीप्ति के माथे पर झूल आई घुंघराली लट को फूंक मारने लगा.

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‘‘पहले आप दीदी के पास से उठो.’’ उज्ज्वल उसे खींचने लगा तो उस आदमी ने उसे परे धकेल दिया.

शुचि का मन किया कि कैमरा वहीं पटक जा कर तमाचे रसीद कर दे… कैसे रोजरोज बरदाश्त कर रही है दीप्ति ये सब… हद होती है किसी भी चीज की. ‘पुलिस को कौल करती हूं तो नवल भैया भी अंदर होता. क्या करें,’ शुचि सोच रही थी, फिर उस ने यह सोच कैमरा एक ओर रखा और हिम्मत कर के बाहर आ गई कि धमका तो सकती ही है उन्हें. प्रूफ भी ले लिया. फिर कड़कती आवाज में चीखते हुए बोली, ‘‘क्या बदतमीजी हो रही है? शर्म नहीं आती?
नवल भैया के दोस्त हो कर तुम सब छोटी बहन से ऐसी हरकतें कर रहे हो? आंटी बिस्तर से उठ नहीं सकतीं, उज्ज्वल छोटा है और भैया होश में नहीं… इस सब का फायदा उठा रहे हो… गैट आउट वरना अभी पुलिस को कौल करती हूं. यह रहा 100 नंबर,’’ मोबाइल स्क्रीन पर रिंग भी होने लगी. उस ने स्पीकर औन कर दिया.

रिंग सुनाई पड़ते ही सब नौ दो ग्याह हो लिए. तब उज्ज्वल ने लपक कर दरवाजा बंद कर दिया. शुचि ने फोन काट दिया. अचानक फिर फोन बज उठा, ‘‘हैलो पुलिस स्टेशन.’’

‘‘सौरी… सौरी सर गलती से दब गया था. थैंक्यू.’’

‘‘ओके,’’ फोन फिर कट गया. उस के बाद तीनों नवल को उस के बिस्तर तक पहुंचाने की कोशिश में लग गए.

सुबह करीब सात बजे नवल जागा. सिर अभी भी भारी था. उस ने अपना माथा सहलाया, ‘‘कल रात कुछ ज्यादा ही हो गई थी. थैंक्स राजन, विक्की, सौरभ और राघव का जो उन्होंने मुझे फिर घर पहुंचा दिया सहीसलामत.’’

उन्हें थैंक्स कहने के लिए नवल मोबाइल उठाया ही था कि शुचि सामने आ गई.

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‘‘अरे शुचि, तू कब आई? अचानक कहां चली गई थी तू? मोहसिन क्या मिल गया हम सब को ही भूल गई,’’ वह दिमाग पर जोर दे कर मुसकराया.

‘‘नमस्ते भैया. मैं मोहसिन नहीं मलय के साथ विदेश चली गई थी. डेढ़ साल के लिए… पर आप तो यहां रह कर भी यहां नहीं रहते… अपने घरपरिवार को ही जैसे भूल गए हैं.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘बहुत बुरा लगा सब बदलाबदला देख कर… अंकल नहीं रहे, आंटी बैड पर हो गईं, भाभी परी को ले कर मायके चली गईं और आप…’’

‘‘हां शुचि वक्त ऐसे ही बदलता है… एक मिनट मैं ब्रश कर के आता हूं तू बैठ.’’

दीप्ति वहीं चाय ले कर चली आई थी. बाथरूम से जब नवल आया तब तक शुचि कैमरा उस के टीवी से अटैच कर चुकी थी. उस ने रिमोट नवल के हाथों में थमाते हुए कहा, ‘‘आप औन कर के देखो भैया, इस कैमरे से बहुत अच्छी वीडियो बनाया है. यह कैमरा दीप्ति के लिए विदेश से लाई हूं… मैं अभी आई भैया आप तब तक देखो.’’ और दोनों अंदर चली गईं.

‘‘वैरी गुड,’’ कह कर नवल तकिए के सहारे बैठ गया. और टीवी औन कर के चाय का कप उठाने लगा.

वीडियो चल पड़ा था. उस की नजर स्क्रीन पर गई, ‘अरे यह तो मैं, मेरे दोस्त मेरा ही वीडियो… ड्राइंगरूम… वही कपड़े यानी कल… वह वीडियो देखता गया और गुस्से और शर्म से भरता चला गया. छि… मैं उन्हें अपना अच्छा दोस्त समझता था… वे मेरी बहन दीप्ति के साथ शिट… शिट…’ उसे दोस्तों से ज्यादा अपनेआप पर क्रोध आने लगा. वह दोनों हाथों से अपना चेहरा ढक अपनी शर्म और गुस्सा छिपाने का प्रयास करने लगा.

तभी शुचि आ गई. वीडियो खत्म हो चुका था.

‘‘भैया… भैया,’’ कह कर उस ने नवल के चेहरे से उस के हाथ हटा दिए, ‘‘दीप्ति और आंटी के लाख कहने पर भी आप अपने दोस्तों की असलियत जाने बिना उन के खिलाफ कुछ नहीं सुनते थे, इसलिए मुझे यह करना पड़ा… सौरी भैया.’

‘‘अरे तू सौरी क्यों बोल रही है… गलती तो मेरी है ही और वह भी इतनी बड़ी… सही किया जो मेरी आंखें खोल दीं. कितना जलील किया है मैं ने दीप्ति को. उज्ज्वल पर भी क्या असर पड़ता होगा और मां को तो मैं इस हालत में भी मौत की ओर ही धकेले जा रहा होऊंगा. शराब ने मुझे इतना गिरा दिया कि अपनों को छोड़ मैं गैरों पर विश्वास करने लगा. उन्हीं के बहकावे में मैं ने लतिका को भी घर से जाने के लिए मजबूर कर दिया. वह मेरी नन्ही परी को ले कर चली गई. वह सिसक उठा. रोज सुबह सोचता हूं नहीं पीऊंगा अब से पर कमबख्त लत है कि छूटती नहीं… शाम होतेहोते मैं… उफ,’’ उस का चेहरा फिर उस की हथेलियों में था.

‘‘छूटेगी जरूर भैया, अगर आप मन में ठान लें… चलेंगे भैया?’’

पूछने के अंदाज में उस ने सिर उठाया, ‘‘कहां?’’

‘‘चलिए आज ही चलिए भैया जहां मैं अपने मियांजी को ले गई थी उन के गुटके की आदत को छुड़वाने के लिए. मेरे घर के पास ही तो है नशामुक्ति केंद्र. मेरे कुलीग के भाई अमन हवां के हैड बन गए हैं,’’ कह कर वह मुसकराई थी, ‘‘चलेंगे न भैया.’’

नवल ने हां में सिर हिलाया, तो पास खड़ी दीप्ति नवल से लिपट खुशी से रो पड़ी. नवल ने उस के सिर पर हाथ फेरा और सीने से लगा लिया. शुचि भी नम आंखों से मुसकरा उठी.

शुचि की शादी की वर्षगांठ पर दीप्ति उस के घर आई थी.

‘‘अब तो नवल भैया ठीक हो गए हैं… अब उदास क्यों है? तेरी भाभी को भी अब जल्दी लाना होगा. तभी तो मैं अपनी भाभी को ला पाऊंगी… पर तू हां तो कर पहले.’’

‘‘मतलब?’’

‘‘मतलब यह तू अमन को पसंद है. मैं ने बहुत पहले अमन से तेरा गुटका बदलने वाला उपाय शेयर किया था तो वे खूब हंसे थे. और तभी से वे तुम से यानी बीरबल से मिलना चाहते थे. वे भी आए हैं मिलेगी उन से?’’

 

‘‘तू पागल है क्या?’’ दीप्ति के लाज और संकोच से कान लाल हो उठे.

तभी अमन को वहां से गुजरते देख शुचि बोली, ‘‘अमन, अभीअभी मैं आप को ही याद कर रही थी… आप मिलना चाहते थे न मेरी बीरबल दोस्त से… यही है वह मेरी प्यारी दोस्त दीप्ति…’’

दीप्ति नमस्ते कर नजरें झुकाए खड़ी थी. अमन से नजरें मिलाने का साहस उस में न था. उस ने महसूस किया, अमन मंदमंद मुसकरा रहा है. सच जानने के लिए उस की पलकें अपनेआप उठीं फिर झुक गईं. अमन कभी दीप्ति को देखता तो कभी शुचि को और फिर मंदमंद मुसकराए जा रहा था. दीप्ति की धड़कनें तेज होने लगी थीं.

‘‘अरे अमन अब कुछ बोलो भी.’’

शुचि दीप्ति से अमन की ओर इशारा करते हुए बोली, ‘‘अब बता बनेगी मेरी भाभी?’’

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अमन ने खुशी को छिपाते हुए बनावटी गुस्से से शुचि को आंख तरेरीं तो उधर दीप्ति ने भी शरमा कर आंखें झुका लीं. शुचि के मुंह से अमन की तारीफें सुन कर और अपने भैया को ठीक करने वाले अमन को साक्षात देख कर वह पहले ही प्रभावित थी.

‘‘वाह, अब जल्दी से आंटी को खुशी की यह खबर देनी होगी,’’ कह कर शुचि ने दीप्ति को बांहों में भर लिया.

Fictional Story

Long Story in Hindi: उजली परछाइयां- क्या अंबर-धरा एक हो पाए?

लेखिका- महिमा दीक्षित

Long Story in Hindi: बीकानेर के सैंट पौल स्कूल के सामने बैठी धरा बहुत नर्वस थी. उसे वहां आए करीब 1 घंटा हो रहा था. वह स्कूल की छुट्टी होने और किट्टू के बाहर आने का इंतजार कर रही थी. किट्टू से उस का अपना कोई रिश्ता नहीं था, फिर भी उस की जिंदगी के बीते हुए हर बरस में किट्टू के निशान थे. अंबर का 14 साल का बेटा, जो अंबर के अतीत और धरा के वर्तमान के 10 लंबे सालों की सब से अहम परछाईं था. उसी से मिलने वह आज यहां आई थीं. आज वह सोच कर आई थी कि उस की कहानी अधूरी ही सही, लेकिन बापबेटे का अधूरापन वह पूरा कर के रहेगी.

करीब 10 साल पहले धरा का देहरादून में कालेज का सैकंड ईयर था जब धरा मिली थी मिस आभा आहलूवालिया से, जो उस के और अंबर के बीच की कड़ी थी. उस से कोई 4-5 साल बड़ी आभा कालेज की सब से कूल फैकल्टी बन के आई थी. वहीं, धरा में शैतानी और बेबाकपन हद दर्जे तक भरा था. लेकिन धीरेधीरे आभा और धरा टीचरस्टूडैंट कम रह गई थीं, दोस्त ज्यादा बन गईं. लेकिन शायद इस लगाव का एक और कारण था, वह था अम्बर, आभा का बड़ा भाई, जिस की पूरी दुनिया उस के इर्दगिर्द बसी थी और उसे वह अकसर याद करती रहती थी.

आभा ने बताया था कि अंबर ने करीब 5 साल पहले लवमैरिज की थी, बीकानेर में अपनी पत्नी रोशनी व 4 साल के बेटे किट्टू के साथ रह रहा था और 3-4 महीने में अपने घर आता था. आभा अकसर धरा से कहती कि उस की आदतें बिलकुल उस के भाई जैसी हैं.

ग्रेजुएशन खत्म होतेहोते आभा और धरा एकदूसरे की टीचर और स्टूडैंट नहीं रही थीं, अब वे एक परिवार का हिस्सा थीं. इन बीते महीनों में धरा उस के घर भी हो आई थी, भाई अंबर और बड़ी बहन नीरा से फेसबुक पर कभीकभार बातें भी होने लगी थीं और छुट्टियां उस के मम्मीपापा के साथ बीतने लगी थीं.

एग्जाम हो गए थे लेकिन मास्टर्स का एंट्रैंस देना बाकी था, इसलिए धरा उस समय आभा के घर में ही रह रही थी. तब अंबर घर आया था. बाहर से शांत लेकिन अंदर से अपनी ही बर्बादी का तूफान समेटे, जिस की आंधियों ने उस की हंसतीखेलती जिंदगी, उस का प्यार, सबकुछ तबाह कर दिया था. आभा के साथ रहते धरा को यह मालूम था कि अंबर की शादी के 2 साल तक सब ठीक था, फिर अचानक उस की बीवी रोशनी अपने मम्मी के घर गई, तो आई ही नहीं.

इस बार जब अंबर आया तो उस के हमेशा मुसकराते रहने वाले चेहरे से पुरानी वाली मुसकान गायब थी. धरा के लिए वह सिर्फ आभा का भाई था, जो केवल उतना ही माने रखता था जितना बाकी घरवाले. लेकिन 1-2 दिन में ही न जाने क्यों अंबर की उदास आंखों और फीकी मुसकान ने उसे बेचैन कर दिया.

करीब एक सप्ताह बाद अंबर ने बताया कि वह अपनी जौब छोड़ कर आया है क्योंकि उस के ससुराल वालों और पत्नी को लगता है कि वह पैसे के चलते वहां रहता है. अब वह यहीं जौब करेगा और कुछ महीनों के बाद पत्नी और बेटा भी आ जाएंगे. यह सब के लिए खुश होने की बात थी. लेकिन फिर भी, कुछ था जो नौर्मल नहीं था.

अंबर ने नई जौब जौइन कर ली थी. कितने ही महीने निकल गए, पत्नी नहीं आई. हां, तलाक का नोटिस जरूर आया. रोशनी ने अंबर से फोन पर भी बात करनी बंद कर दी थी और बेटे से भी बात नहीं कराती थी. इन हालात ने सभी को तोड़ कर रख दिया था. अंबर के साथ बाकी घर वालों ने भी हंसना छोड़ दिया.  उन के एकलौते बेटे की जिंदगी बरबाद हो रही थी. वह अपने बच्चे से बात तक नहीं कर पाता था. परिवार वाले कुछ नहीं कर पा रहे थे.

धरा सब को खुश रखने की कोशिश करती. कभी सब की पसंद का खाना बनाती तो कभी अंबर को पूछ कर उस की पसंद का नाश्ता बनाती. उसे देख कर अंबर अकसर सोचता कि यह मेरी और मेरे घर की कितनी केयर करती है. धरा आज की मौडर्न लड़की थी. लेकिन घरपरिवार का महत्त्व वह अच्छी तरह समझती थी. घर के काम करना उसे अच्छा लगता था. मन साफ सच्चा हो तो सूरत को भी हसीन बना देता है. धरा के चेहरे की खूबसूरती में गजब का आकर्षण था. अभी 23 वर्ष की पिछले महीने ही तो हुई थी. दूसरी ओर धरा जबजब अंबर को देखती तो सोचती थी कि कितना प्यार करता है अपनी बीवी को. काश, मुझे भी ऐसा ही कोई मिले. तलाक की बात सुन कर पहली बार अंबर को रोते देखा था धरा ने और उस के शब्द कानों में अब तक गूंज रहे थे कि ‘मर जाऊंगा लेकिन तलाक नहीं दूंगा. मैं नहीं रह सकता उस के बिना.’

अंबर की गहरी भूरी आंखों में दर्द भरा रहता था. 30 की उम्र हो गई थी लेकिन पर्सनैलिटी उस की ऐसी थी कि देखने वाला प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था. धरा समझ नहीं पाती थी कि रोशनी को अंबर में ऐसी क्या कमी नजर आई थी जो उसे छोड़ गई.

जुलाई में धरा की दीदी देहरादून घूमने आई थी और उस की खूब खातिर की गई. देहरादून का मौसम खुशगवार था. इसलिए घूमनेफिरने का अलग मजा था. अंबर भी उसे पूछ कर ही सारे प्रोग्राम बना रहा था. प्राकृतिक सौंदर्य के लिए मसूरी, सहस्रधारा, चकराता, लाखामंडल तथा डाकपत्थर देखने का प्रोग्राम अंबर ने झटपट बना डाला. अंबर का किसी और को इंपौर्टेंस देते देख न जाने क्यों धरा के मन में जलन हुई और उसे पहली बार एहसास हुआ कि अनजाने में ही वह अंबर को चाहने लगी है. लेकिन क्यों, कब, कैसे, इस की वजह वह खुद नहीं जानती थी. इस की वजह शायद अंबर का इतना प्यारा इंसान होना था या फिर शायद इतनी गहराई से अपनी बीवी के लिए प्यार था कि धरा खुद उस के प्यार में पड़ गई थी.

धरा के दिल में अंबर ने अनजाने में जगह बना ली थी वहीं धरा जिस तरह सब का खयाल रखती और खुश रहती, वह अंबर के घर वालों को अपना बना रही थी. उस की ये आदतें सब के साथ अंबर को भी उस की तरफ खींच रही थीं. जब कोई चीज हमारे पास न हो तो उस की कमी ज्यादा ही लगती है, घर में भी सब को धरा को देख कर बहू की कमी कुछ ज्यादा ही अखरने लगी थी.

अंबर अकसर धरा को तंग करता रहता, कभी उलझे हुए बालों को खींचता तो कभी गालों पर हलकी चपत लगा देता. दोनों के दिलों में अनकही मोहब्बत जन्म ले चुकी थी जिस का एहसास उन्हें जल्दी ही हुआ. एक दिन धरा ने अंबर को छेड़ते हुए कहा, ‘मुझे तंग क्यों करते रहते हो, सब के लिए आप के दिल में प्यार है, फिर मुझ से ही क्या झगड़ा है?’ इस पर अंबर की मां ने जवाब दिया, ‘वह इसलिए गुस्सा करता है कि तू हमें पहले क्यों नहीं मिली.’ इन चंद शब्दों ने सब के दिलों का हाल बयां कर दिया था.

वह अचानक यह सुन कर बाहर भाग गई थी, बाहर बालकनी में रेलिंग पकड़ कर खड़ी थी. सांसें ऊपरनीचे हो रही थीं. अंबर ने पास आ कर कहा, ‘मैं ने और मेरे घर वालों ने तुम्हारी जैसी पत्नी और बहू का सपना देखा था.’ अंबर ने आगे कहा, ‘पता नहीं कब से, लेकिन मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं. हां, मगर मैं तुम से शादी नहीं कर सकता क्योंकि अगर मैं ने ऐसा किया तो अपने बेटे को हमेशा के लिए खो सकता हूं.’

धरा का सुर्ख होता चेहरा सफेद पड़ गया था. उस ने नजरें उठा कर अंबर को देखा, तो अंबर की आंखों में आंसू थे, ‘मेरे पास जीने की वजह सिर्फ यह है कि कभी मेरा बेटा मुझे मिलेगा. मैं तुम से शादी नहीं कर सकता लेकिन अपना बुढ़ापा जरूर सिर्फ तुहारे साथ बिताना चाहूंगा. सुबहसुबह तुम्हारे हाथ की चाय पिया करूंगा,’ उस वक्त दोनों की सांसें महसूस कर सकती थी धरा जब अंबर ने ये शब्द कहे थे जिन्होंने एक पल में ही उस को आसमान पर ले जा कर वापस नीचे धरातल पर पटक दिया था.

एक पल को धरा को लगा यह कैसा प्यार है और कैसी बेतुकी बात कही है अंबर ने, लेकिन दूसरे ही पल उसे भविष्य में अंबर में एक हारा और टूटा हुआ पिता नजर आया जिस का बेटा उसे कह रहा था कि तुम ने दूसरी शादी के लिए मुझे और मेरी मां को छोड़ा. शायद सही भी थी अंबर की बात. 4 साल का बच्चा जब मां के साथ रहता है तो वह उतना ही सच समझेगा जितना उसे बताया जाएगा.

जिस से प्यार करती है उसे अपनी वजह से ही टूटा हुआ कैसे देखती धरा. अगर अंबर बेटे के लिए उस का इंतजार कर सकता है तो धरा भी तो अंबर का इंतजार कर सकती है. फिर अंबर मान भी जाता लेकिन अपने ही घर वालों को मनाना भी तो धरा के लिए आसान नहीं था.

अंबर का हाथ पकड़ कर धरा बोली, ‘अगर सच में हमारे बीच प्यार है तो एक दिन हम जरूर मिलेंगे. मैं इंतजार करूंगी उस दिन का जब सबकुछ सही होगा और रही शादी की बात, तो राधाकृष्णा की भी शादी नहीं हुई थी लेकिन आज भी उन का नाम साथ ही लिया जाता है.’

लेकिन शर्तें तो दिमाग लगाता है, दिल नहीं और सब हालात को जानतेसमझते भी उन दोनों के तनमन भी दूर नहीं रह सके. शादी की बात तो दोबारा नहीं हुई, लेकिन दोनों के ही घर वालों को उन के बीच पनपे रिश्ते का अंदाजा हो गया था. ऐसे ही साथ रहते 2 साल निकल गए थे. अब भी अंबर अपने बेटे किट्टू से बात करने को तरसता था. सबकुछ वैसा ही चल रहा था.

धरा ने जौब जौइन कर ली और एक फ्रैंड की शादी में गई थी. वहां से आ कर एक बार फिर उस के दिल में अंबर से शादी करने की चाहत करवट लेने लगी. बहुत मुश्किल था उस का अंबर के इतने पास होते हुए भी दूर होना और इसीलिए उस का प्यार और उस की छुअन को अपने एहसासों में बसा कर धरा देहरादून छोड़ मुंबई आ गई थी. अब एक ही धुन थी उसे, टीवी इंडस्ट्री में नाम की और बहुत सारे पैसे कमाने की जिस से शादी न सही कम से कम सफल हो कर अपने घर वालों के प्रति कर्तव्य निभा सके.

उस के बाद के अब तक के साल कैसे बीते, यह धरा और अंबर दोनों ही जानते हैं. दूर रह कर भी न तो दूर रह सके, न साथ रह सके दोनों. वे महीनों के अंतराल में मिलते, किट्टू के बड़े होने और साथ जीने के सपने देखते और एकदूसरे की हिम्मत बढ़ाते. लेकिन कभी उन की नजदीकियां ही जब उन्हें कमजोर बनातीं तो दोनों खुद ही टूटने भी लगते और फिर संभलते. रिश्तेदारों, पड़ोस, महल्ले वालों सब से क्या कुछ नहीं सुनना और सहना पड़ा था दोनों को. लेकिन, उन्होंने हर पल हर कदम एकदूसरे को सपोर्ट किया था. बस, कभी शादी की बात नहीं की.

धरा के घर वाले कुछ सालों तक शादी के लिए बोलते रहे. लेकिन बाद में उस ने अपने घर वालों को समझा लिया था कि वे जिस इंडस्ट्री में हैं, वहां शादी इतना माने नहीं रखती है और उस के सपने अलग हैं.  इस बीच, उस ने न कभी अंबर और उस के घर वालों का साथ छोड़ा, न किसी और से रिश्ता जोड़ा. वह अंबर से ले कर उस के बेटे किट्टू तक के बारे में सब खबर रखती थी.

‘‘छुट्टी का टाइम हो गया, मैडमजी,’’ चपरासी की आवाज से धरा की तंद्रा टूटी.

कुछ मिनटों बाद किट्टू को आता देख धरा ने उसे पुकारा, तो किट्टू के चेहरे पर गुस्से और नफरत के भाव उभर आए. फेसबुक पर देखा है उस ने धरा को. यही है वह जिस से शादी करने के लिए पापा हमें छोड़ कर चले गए, ऐसा ही कुछ सुनता आया है वह इतने सालों से मां और नानी से और जब बड़ा हुआ तो उस की नफरत और गुस्सा भी उतना ही बढ़ता गया. अंबर से कभीकभार फोन पर बात होती, तो, बस, हांहूं करता रहता था.

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कहानी- महिमा दीक्षित

‘‘तुम यहां क्या कर रही हो?’’ किट्टू गुस्से में घूरते हुए कहा.

‘‘जरूरी बात करनी है, तुम्हारे पापा से रिलेटेड है,’’ धरा ने शांत स्वर में कहा. 2 दिनों बाद तुम्हारे पापा का बर्थडे है, मैं चाहती हूं कि तुम उस दिन उन के पास रहो…’’

‘‘और मैं तुम्हारी बात क्यों सुनूं?’’ उस की बात पूरी होने से पहले ही किट्टू ने चिढ़ कर जवाब दिया.

‘‘क्योंकि वे भी इतने सालों से तुम्हें उतना ही मिस कर रहे हैं जितना कि तुम करते हो. यह उन की लाइफ का बैस्ट गिफ्ट होगा क्योंकि तुम उन के लिए सब से बढ़ कर हो,’’ धरा ने किट्टू से कहा, ‘‘क्या तुम मेरे साथ कल देहरादून चलोगे?’’

किट्टू का कोल्डड्रिंक जैसा ठंडा स्वर उभरा, ‘‘इतना ही कीमती हूं तो मुझे वे छोड़ कर क्यों गए थे? मैं उन से नहीं मिलना चाहता. वे कभी मेरे बर्थडे पर नहीं आए…या…या फिर तुम्हारी वजह से नहीं आए. मुझे तुम से बात ही नहीं करनी. तुम गंदी औरत हो.’’ अपना बैग उठाते हुए लगभग सुबकने वाला था किट्टू.

‘‘तुम जाना चाहते हो तो चले जाना लेकिन, बस, एक बार ये देख लो,’’ कह कर धरा ने सारे पुराने मैसेज और चैट के प्रिंट किट्टू के सामने रख दिए जिन में घूमफिर कर एक ही तरह के शब्द थे अंबर के कि ‘किट्टू से बात करा दो,’ या ‘मैं मिलने आना चाहता हूं’ या ‘डाइवोर्स मत दो.’ और रोशनी के भी शब्द थे, ‘मैं तुम्हारे परिवार के साथ नहीं रह सकती,’ या ‘शादी जल्दबाजी में कर ली लेकिन तुम्हारे साथ और नहीं रहना चाहती,’ ‘किट्टू से तुम्हें नहीं मिलने दूंगी…’ ऐसा ही और भी बहुतकुछ था.

किट्टू की तरफ देखते हुए धरा ने कहा, ‘‘मेरे पास कौल रिकौर्डिंग्स भी हैं. अगर तुम सुनना चाहो तो. तुम्हारे पापा कभी नहीं चाहते कि तुम अपनी मां के बारे में थोड़ा सा भी बुरा सोचो या सच जान कर तुम्हारा दिल दुखे. इसलिए आज तक उन्होंने तुम्हें सच नहीं बताया. लेकिन मैं उन्हें इस तरह और घुटता हुआ नहीं देख सकती. और हां, हम एकदूसरे से प्यार करते हैं, लेकिन हम ने कभी शादी नहीं की. जानते हो क्यों? क्योंकि तुम्हारे पापा को लगता था कि शादी करने पर तुम उन्हें और भी गलत समझोगे.  क्या अब भी तुम मेरे साथ कल देहरादून नहीं चलोगे?’’ यह कह कर धरा ने हौले से किट्टू के सिर पर हाथ फेरा.

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‘‘चलो, चल कर मम्मी को बोलते हैं कि पैकिंग कर दें,’’ किट्टू को जैसे अपनी ही आवाज अजनबी लगी.

जब धरा के साथ किट्टू घर पहुंचा तो सभी की आंखें फैल गईं. नानी की तरफ देखते हुए किट्टू ने अपनी मां से कहा, ‘‘मैं पापा के बर्थडे पर धरा के साथ 2-3 दिनों के लिए देहरादून जा रहा हूं, मेरी पैकिंग कर दो.’’

रोशनी और बाकी सब समझ गए थे कि किट्टू अभी किसी की नहीं सुनेगा. सुबह उसे लेने आने का बोल धरा होटल के लिए निकल गई. पूरे रास्ते धरा सोचती रही कि आगे न जाने क्या होगा, किट्टू न जाने कैसे रिऐक्ट करेगा. वह अंबर से कैसे मिलेगा और अब क्या सबकुछ ठीक होगा? सुबह दोनों देहरादून की फ्लाइट में थे. किट्टू ने धरा से कोई बात नहीं की.

अगली सुबह का सूरज अंबर के लिए दुनियाजहान की खुशियां ले कर आया. किट्टू को सामने देख एकबारगी तो किसी को यकीन ही नहीं हुआ और अगले ही पल अंबर ने अपने बेटे को गोद में उठा कर कुछ घुमाया. जैसे वह अभी भी 14 साल का नहीं, बल्कि उस का 4 साल का छोटा सा किट्टू हो. पूरे 9 साल बाद आज वह अपने बच्चे को अपने पास पा कर निहाल था और घर में सभी नम आंखों से बापबेटे के इस मिलन को देख रहे थे.

अंबर का इतने सालों का इंतजार आज पूरा हुआ था, अंबर के साथ आज धरा को भी अपना अधूरापन पूरा लग रहा था. शाम में किट्टू ने बर्थडे केक अपने हाथ से कटवाया था और सब से पहला टुकड़ा अंबर ने किट्टू के मुंह में रखा, तो एक बार फिर अंबर और किट्टू दोनों की आंखें नम हो गईं. तभी किट्टू ने अंबर की बगल में खड़ी धरा को अजीब नजरों से देखा तो वह वहां से जाने लगी. अचानक उसे किट्टू की आवाज सुनाई दी, ‘‘पापा, केक नहीं खिलाओगे धरा आंटी को?’’ और धरा भाग कर उन दोनों से लिपट गई.

अगली सुबह धरा जल्दी ही निकल गई थी. उस ने बताया था कि कोई जरूरी काम है बस जाते हुए 2 मिनट को किट्टू से मिलने आई थी. दोपहर में अंबर को धरा का मैसेज मिला, ‘तुम्हें तुम्हारा किट्टू मिल गया. मैं कल आखिरी बार तुम से उस जगह मिलना चाहती हूं जहां हम ने चांदनी रात में साथ जाने का सपना देखा था.’

अंबर जानता था धरा ने उसे जबलपुर में धुआंधार प्रपात के पास बुलाया है. उस ने पढ़ा था कि शरद पूर्णिमा की रात चांद की रोशनी में प्रकृति धुआंधार में अपना अलौकिक रूप दिखाती है. तब से उस का सपना था कि चांदनी रात में नर्मदा की सफेद दूधिया चट्टानों के बीच तारों की छांव में वह अंबर के साथ वहां हो. अगली शाम में जब अंबर भेड़ाघाट पहुंचा तो किट्टू भी साथ था. वहां उन्हें एक लोकल गाइड इंतजार करता मिला जिस ने बताया कि वह उन लोगों को धुआंधार तक छोड़ने के लिए आया है.

करीब 9 बजे जब अंबर वहां पहुंचा तो धरा दूर खड़ी दिखाई दी. चांद अपने पूरे रूप में खिल आया था और संगमरमर की चट्टानों के बीच धरा, यह प्रकृति,? सब उसे अद्भुत और सुरमई लग रहे थे. वह धरा के पास पहुंचा और उस का हाथ पकड़ कर बेचैनी से बोला, ‘‘मुझे छोड़ कर मत जाओ, धरा. मैं नहीं रह सकता तुम्हरे बिना. अब तो सब ठीक हो चुका है. देखो, किट्टू भी तुम से मिलने आया है.’’

धरा ने धीरे से अपना हाथ अंबर के हाथ से छुड़ाया, तो अंबर के चेहरे पर हताशा फैल गई. किट्टू ने धरा की तरफ देखा और दोनों शरारत से मुसकराए. दूर क्षितिज में आसमान के तारे और शहर की लाइट्स एकसाथ झिलमिला रही थीं. तभी धरा ने एक गुलाब निकाला और घुटने पर बैठ कर कहा, ‘‘मुझे भी अपने परिवार का हिस्सा बना लो, अम्बर. क्या अब से रोज सुबह मेरे हाथ की चाय पीना चाहोगे?’’

खुशी और आंसुओं के बीच अंबर ने धरा को जोर से गले लगा लिया था और किट्टू अपने कैमरे से उन की फोटो खींच रहा था.

उन का इतने सालों का इंतजार आज खत्म हुआ था. अंबर के साथसाथ धरा का अधूरापन भी हमेशा के लिए पूरा हो गया था. आज उसे उस का वह क्षितिज मिल गया था जहां अतीत की गहरी परछाइयां वर्तमान का उजाला बन कर जगमगा रही थीं, वह क्षितिज जहां 10 साल के लंबे इंतजार के बाद अंबरधरा भी एक हो गए थे.

Long Story in Hindi

Hindi Social Story: छंटनी- क्या थी रीता की असलियत

Hindi Social Story: शादी से पहले सुधा के मन में हजार डर बैठे थे, सास का आतंक, ससुर का खौफ, ननदों का डर और देवर, जेठ से घबराहट, पर शादी के बाद लगा बेकार ही तो वह डरतीघबराती थी. ससुराल में सामंजस्य बनाना इतना मुश्किल तो नहीं.

वैसे सुधा बचपन से ही मेहनती थी, शादी हुई तो जैसे सब को खुश करने का उस में एक जुनून सा सवार हो गया. सब से पहले जागना और सब के बाद सोना. सासननदों के हिस्से के काम भी उस ने खुशीखुशी अपने सिर ले लिए थे. जब रोजमर्रा की जिंदगी में यह हाल था तो रीतानीता की शादी का क्या आलम होता. रातरात जाग कर उन की चुनरियां सजाने से मेहंदी रचाने तक का काम भी सुधा ने ही किया.

औरों के लिए रीतानीता की शादी 2-4 दिन की दौड़धूप भले ही हो पर सुधा के लिए महीनों की मेहनत थी. एकएक साड़ी का फाल टांकने से ले कर पेटीकोट और ब्लाउज तक उसी ने सिले. चादरें, तकिया, गिलाफ और मेजपोश जो उस ने भेंट में दिए उन को भी जोड़ लें तो सालों की मेहनत हो गई, पर सुधा को देखिए तो चेहरे पर कहीं शिकन नहीं. सहजता से अपनापन बांटना, सरलता से देना, सुंदरता से हर काम करना आदि सुधा के बिलकुल अपने मौलिक गुण थे.

रीता, सुधा की हमउम्र थी इसलिए उस से ज्यादा दोस्ती हो गई. सुधा की आड़ में रीता खूब मटरगश्ती करती. सहेलियों के साथ गप्पें लड़ाती फिल्में देखती और सुधा उसे डांट पड़ने से बचा लेती. सुधा जब मैले कपड़ों के ढेर से जूझ रही होती तो कभीकभी रीता उस के पास मचिया डाल कर बैठ जाती और उसे देखी हुई फिल्म की कहानी सुनाती. यह सुधा के मनोरंजन का एकमात्र साधन था.

रीता की शादी के समय सुधा के ससुर भी जीवित थे. पर इस शादी की लगभग सारी ही जिम्मेदारी सुधा और उस के पति अजीत के ऊपर रही. अजीत को फैक्टरी में नौकरी मिलते ही पिता अपनी दुकान से यों पीछा छुड़ाने लगे जैसे अब उन के ऊपर कोई जिम्मेदारी ही न हो. जब मन होता दुकान पर बैठते, जब मन होता ताला डाल कर घूमने निकल जाते. रिश्तेदारों के यहां आनाजाना भी वह बहुत रखते.

कभीकभी अजीत कहता भी,  ‘पिताजी, रिश्तेदारों के यहां ज्यादा नहीं जाना चाहिए,’ तो उन को डांट पड़ती कि तुम मुझ से ज्यादा दुनियादारी समझते हो क्या? और जाता हूं तो उन पर बोझ नहीं बनता, जितना खाता हूं उस से ज्यादा उन पर खर्च करता हूं, समझे.

अजीत को चुप होना पड़ता. पिता ने बाहर हाथ खोल कर खर्च किया और बेटी की शादी में पूजा, पंडितजी और अपने रिश्तेदारों की विदाई के खर्च के अलावा सारा खर्च अजीत पर डाल दिया. अजीत और सुधा ने मां से बात की तो उन्होंने तटस्थता दिखा दी, ‘‘मुझे कोई मतलब नहीं. अजीत जाने अजीत का बाप जाने. मैं कमाती तो हूं नहीं कि मुझ से पूछते हो,’’ कहतेकहते मां ने अपनी मोटी करधनी अजीत को सौंप दी.

करधनी से रीता के कुछ गहने तो बन गए पर उस का मुंह सूज गया. उस के चेहरे की सूजन तभी उतरी जब सुधा ने अपना इकलौता गले का हार उस के गले में पहना दिया. इस शादी में रीता की मांग पूरी करतेकरते ही अजीत की जमा पूंजी खत्म हो गई. बाकी सबकुछ कर्ज ले कर किया गया. कर्ज चुकाने की जिम्मेदारी से बचतेबचते पिता तो दुनिया से ही चले गए और मां ने अपना मंगलसूत्र अजीत के हाथों में रख दिया. वह मंगलसूत्र सुधा ने नीता के गले में डाला, बेचा नहीं.

अजीत एक दक्ष तकनीशियन था.  आय अच्छी थी. कर्ज चुकाने में वह चूकता नहीं था लेकिन घर के लिए उसे बहुत सी कटौतियां करनी पड़तीं. गौरव व सौरभ के जन्म पर सुधा को ठीक से पोषण नहीं मिल पाया लेकिन उस ने कभी इस की कोई शिकायत नहीं की.

अजीत की मां जैसी तटस्थ थीं अंत तक वैसी ही बनी रहीं. नीता की शादी तय भी नहीं हुई थी और मां दुनिया से चली गईं. अब तो सुधा और अजीत को ही सब करना था. रीता की शादी का कर्ज चुका ही था कि नीता की शादी के लिए कर्ज लेना पड़ा और नीता को विदा कर के कमर सीधी भी न की थी कि फैक्टरी में कर्मचारियों की छंटनी होने लगी.

अजीत को भरोसा था अपने काम पर, अपनी मेहनत पर. उसे विश्वास था, छंटनी की सूची में उस का नाम कभी नहीं होगा. पर एक दिन वह भी आया जब अजीत को भी घर बैठना पड़ा. तमाम खींचतान और प्रयासों के बाद आखिर फैक्टरी बंद हो गई तो फिर कैसा ही कर्मचारी क्यों न हो उस की नौकरी बचती कैसे.

नौकरी जाने का सदमा अजीत के अंदर इस कदर बैठा कि उस ने बिस्तर पकड़ लिया. सुधा के तो मानो पैरों के नीचे से जमीन ही खिसक गई. उस के सामने स्कूल जाते सौरभ, गौरव थे तो बिस्तर पर पड़े अजीत को भी उसे ही खड़ा करना था. रातदिन जुट कर उस ने अजीत को अवसाद के कुएं से निकालने के प्रयास किए. इसी बीच नीता को सरकारी नौकरी मिल गई थी. सुधा के लिए यह डूबते को तिनके का सहारा था.

कर्ज की एक किस्त और सौरभगौरव की फीस उस ने अपने कंगन बेच कर भरी थी. नीता मिलने आई तो सुधा ने उस के आगे सारी बातें रख दीं. नीता 4 दिन रही थी और जाते हुए बोली, ‘‘ठीक है, भाभी, तुम्हारी हालत सही नहीं है इसलिए विदाई की साड़ी और मिठाई मैं अपने पैसों से खरीद लूंगी और यह 100 रुपए भी रखो सौरभ, गौरव के लिए, मेरी ओर से कुछ ले लेना.’’

सुधा ने रुलाई रोकते हुए 100 का नोट ले लिया और आशा भरे स्वर में कहा, ‘‘नीता, इस बार के वेतन से हो सके तो कुछ भेज देना. तुम तो जानती हो हम कर्ज में डूबे हैं. तुम्हारे भैया संभलें तो ही कुछ कर सकेंगे ना.’’

‘‘देखूंगी भाभी,’’ नीता ने अनमनी सी हो कर कहा.

उस कठिन समय में सुधा ने अपनी अंगूठियां और झुमके भी बेचे और एक रेडीमेड कपड़ों की दुकान से घर पर काम लाना भी शुरू कर दिया. फैक्टरी से बकाया पैसा मिलतेमिलते 6 महीने लग गए. इस बीच सुधा ने एक कमरा किराए पर उठा दिया और अपनी सारी गृहस्थी डेढ़ कमरों में ही समेट ली. इन सारे प्रयासों से जैसेतैसे दो समय पेट भर रहा था और बच्चे स्कूल से निकाले नहीं गए थे.

सत्र पूरा होते ही सुधा ने सौरभ, गौरव को पास के एक सस्ते स्कूल में डाल दिया. बच्चों के लिए यह एक बड़ा झटका था पर वे समझदार थे और अपने मातापिता के कष्ट को देखतेसमझते पैदल स्कूल आतेजाते और नए वातावरण में सामंजस्य बनाने की भरपूर कोशिश करते.

नौकरी छूटने के 6 महीने के बाद जो रकम फैक्टरी की ओर से अजीत को मिली वह नीता की शादी का कर्ज चुकाने में चली गई. नीता के पास अच्छा घरवर था. सरकारी नौकरी थी पर उस ने 100 रुपए खर्च करने के बाद 6 महीने में पीछे पलट कर भी नहीं देखा.

रीता सर्दियों में 2 दिन के लिए आई थी. सुधा को फटापुराना कार्डिगन पहना देख कर अपना एक कार्डिगन उस के लिए छोड़ गई थी और सौरभगौरव के लिए कुछ स्केच पेन और पेंसिलरबड़ खरीद कर दे गई थी.

रीता के पति पहले अकसर अपने व्यापार के सिलसिले में आते और कईकई दिनों तक अजीत, सुधा के घर में बेहिचक बिना एक पैसा खर्च किए डटे रहते थे. वह भी इन 6 महीनों में घर के दरवाजे पर पूछने नहीं आए. सुधा मन ही मन सोचती रहती, क्या रीता के पति इस बीच एक बार भी यहां नहीं आए होंगे? आए होंगे जरूर और 1-2 दिन होटल में रुक कर अपना काम जल्दीजल्दी पूरा कर के लौट गए होंगे. यहां आने पर हमारे कुछ मांग बैठने का खतरा जो था.

अजीत से छिपा कर सुधा ने हर उस रिश्तेदार को पत्र डाला जो किसी प्रभावशाली पद पर था या जिन के पास मदद करने लायक संपन्नता थी. ससुर अकसर बड़प्पन दिखाने के सिलसिले में जिन पर खूब पैसा लुटाया करते थे वे संबंधी न कभी पूछने आए और न ही उन्होंने पत्र का उत्तर देने का कष्ट उठाया.

सुधा को अपनी ठस्केदार चाची सास याद आईं जो नीता की शादी के बाद 2 महीने रुक कर गई थीं. सुधा से खूब सेवा ली, खूब पैर दबवाए उन्होंने और सौरभ, गौरव का परीक्षाफल देख कर बोली थीं, ‘‘मेरे होनहारो, बहुत बड़े आदमी बनोगे एक दिन पर इस दादी को भूल न जाना.’’

सुधा ने उन्हें भी पत्र लिखा था कि चाचीजी, अपने बड़े बेटे से कह कर सौरभ के पापा को अपनी आयुर्वेदिक दवाओं की फैक्टरी में ही फिलहाल कुछ काम दे दें. कुछ तो काम करेंगे, कुछ तो डूबने से हम बचेंगे. पर पत्र का उत्तर नहीं आया.

अजीत की बूआ तीसरेचौथे साल भतीजे के घर आतीं और कम से कम महीना भर रह कर जाती थीं. जाते समय अच्छीखासी विदाई की आशा भी रखतीं और फिर आदेश दे जातीं, ‘‘अब की जाड़ों में मेरे लिए अंगूर गुच्छा बुनाई के स्वेटर बुन कर भेज देना. इस बार सुधा, आंवले का अचार जरा बढ़ा कर डालना  और एक डब्बा मेरे लिए भिजवा देना.’’

इन बूआजी को सुधा ने पत्र भेजा कि अपने कंपनी सेक्रेटरी दामाद और आफीसर बेटे से हमारे लिए कुछ सिफारिश कर दें. इस समय हमें हर तरह से मदद की जरूरत है. बूआ का पोस्ट कार्ड आया था. अपनी कुशलता के अलावा बेटे और दामाद की व्यस्तता की बात थी पर न किसी का पता दिया था न फोन नंबर और न उन तक संदेश पहुंचाने का आश्वासन.

6 महीने में सब की परीक्षा हो गई. कितने खोखले निकले सारे रिश्ते. कितने स्वार्थी, कितने संवेदनहीन. सुधा सूरज निकलने तक घर के काम निबटा कर सिलाई मशीन की खड़खड़ में डूब जाती. जब घर पर वह अकेली होती तभी पत्र लिखती और चुपके से डाल आती.

कई महीने के बाद अजीत ने काम करना शुरू किया. मनोस्थिति और आर्थिक स्थिति के दबाव में उसे जो पहला विकल्प मिला उस ने स्वीकार कर लिया. घर आ कर जब उस ने सुधा को बताया कि वह रायल इंटर कालिज का गार्ड बन गया है तो सुधा को बड़ा धक्का लगा. चेहरे पर उस ने शिकन न आने दी लेकिन मन में इतनी बेचैनी थी कि वह रात भर सिलाई मशीन पर काम करती रही और सुबह निढाल हो कर सो गई.

नींद किसी अपरिचित स्वर को सुन कर खुली. कोठरी से निकल कर कमरे में आई तो कुरसी पर एक लड़के को बैठा देखा. तखत पर बैठे अजीत के चेहरे पर चिंता की रेखाएं गहराई हुई थीं.

‘‘सुधा, यह विशाल है. छोटी बूआ की ननद की देवरानी का बेटा. बी.ए. की प्राइवेट परीक्षा देगा यहीं से.’’

सुधा चौंकी, ‘‘यहीं से मतलब?’’

‘‘मतलब आप के घर से,’’ वह लड़का यानी विशाल बिना हिचकिचाहट के बोला.

सुधा पर रात की थकान हावी थी. उस पर सारे रिश्तेदारों द्वारा दिल खट्टा किया जाना वह भूली नहीं थी. उस का पति 2 हजार रुपए के लिए गार्ड बना सारे दिन खड़ा रहे और रिश्तेदारों के रिश्तेदार तक हमारे घर को मुफ्तखोरी का अड्डा बना लें. पहली बार उस ने महसूस किया कि खून खौलना किसे कहते हैं.

‘‘तुम्हारी परीक्षा में तो लंबा समय लगेगा, क्यों?’’ सुधा ने तीखी दृष्टि से विशाल की ओर देखा.

‘‘हां, 1 महीना रहूंगा.’’

‘‘तुम्हें हमारा पता किस ने दिया?’’

‘‘आप की बूआ सासजी ने,’’ लड़का रौब से बोला, ‘‘उन्होंने कहा कि मेरे मायके में आराम से रहना, पढ़ना, परीक्षा देना, तुम्हें कोई परेशानी नहीं होगी.’’

‘‘उन्होंने हम से तो कुछ नहीं पूछा था. भला महीने भर कोई मेरे घर में रहेगा तो मुझे परेशानी कैसे न होगी? डेढ़ कमरे में हम 4 लोग रहते हैं और बूआजी ने तो तुम से यह भी नहीं कहा होगा कि मेरा भतीजा और उस का परिवार भूखों मरने की हालत में हैं. वह क्यों कहेंगी? उन के लिए भतीजे का घर एक आराम फरमाने की जगह है, बस.’’

लड़का अवाक् सा सुधा को देख रहा था. अजीत भी विस्मित था. उस ने सुधा का यह रूप पहले कभी नहीं देखा था. वह सोच ही रहा था कि सुधा उठ कर अंदर चली गई. थोड़ी देर में सुधा चाय ले कर आई और विशाल के चाय खत्म करते ही बोली, ‘‘सुनो विशाल, हम खुद बहुत परेशानी में हैं. हम तुम्हें अपने साथ 1 महीने तो क्या 1 दिन भी नहीं रख सकते.’’

अजीत उठ कर अंदर चला गया. विशाल उलझन में भरा हुआ सुधा को देख रहा था. सुधा उसे इस तरह अपनी तरफ देखते थोड़ी पिघल उठी, ‘‘बेटा, तुम पढ़नेलिखने वाले बच्चे हो. अभी हमारी परेशानियों और कष्टों को क्या समझोगे, पर मैं हाथ जोड़ती हूं, तुम अपने रहनेखाने की व्यवस्था कहीं और कर लो.’’

विशाल को उठ कर जाना पड़ा. उस  के जाते ही अजीत सुधा के पास आ बैठा और बोला, ‘‘सुधा, मुझे तुम से यह उम्मीद न थी.’’

‘‘पर यह जरूरी था, अजीत. हम सौरभ, गौरव की रूखी रोटी में से क्या कटौती कर सकते हैं. क्या बूआ हमारी स्थिति नहीं जानतीं? मैं ने उन्हें पत्र लिखा था, उन्होंने उत्तर तक नहीं दिया. तुम्हें भी समझना चाहिए कि मौके पर सब कैसे बच रहे हैं. मदद को कोई नहीं आया, और न ही कोई आएगा. तुम नाराज क्यों होते हो?’’

‘‘नाराज नहीं हूं. मैं तो यह कह रहा हूं कि तुम ने कितनी सरलता से सुलझा दिया मामला. वरना हम पर नए सिरे से कर्ज चढ़ना शुरू हो गया होता.’’

‘‘नहीं, अजीत, अब ऐसा नहीं होगा  कि जो चाहे जब चाहे चला आए और पैर पसार कर पड़ा रहे.’’

‘‘अच्छा, अगर बूआ लड़ने आ गईं तो क्या करोगी?’’

‘‘जो मुझे करना चाहिए वही करूंगी. पहले प्यार से समझाने की कोशिश करूंगी, नहीं समझेंगी तो अपनी बात कहूंगी. अपने बच्चों की मां हूं, उन का भलाबुरा तो मैं ही देखूंगी. अजीत हमें छंटनी करनी होगी…अपनेपरायों की छंटनी. दूर के रिश्तेदार ही नहीं पास वालों को भी तो आजमा कर देखा. बूआ क्या दूर की रिश्तेदार होती है? या चाची या मामी? ऐसे लोगों से आगे अब मैं नहीं निभा पाऊंगी.’’

‘‘तुम ने जितनी कठिन परिस्थितियों में मेरा साथ निभाया है इस के बाद तो मैं यही कहूंगा कि तुम लाखों में एक हो, क्योंकि मेरे गार्ड बन जाने पर भी तुम ने कोई खराब प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की.’’

‘‘यह थोड़े दिन की बात है, अजीत. वहां गेट पर खड़ेखड़े ही तुम निराश न होना. सोचना क्याक्या संभव है. कहांकहां तुम्हारी योग्यता का उपयोग हो सकता है. उस के अनुसार प्रयास करना. देखना, एक दिन तुम जरूर सफल होगे और हमारी गाड़ी फिर से पटरी पर आ जाएगी.’’

अजीत गार्ड की ड्यूटी देने के बाद बचे समय में उपयुक्त नौकरी के लिए भागदौड़ भी करता रहता. सुधा और बच्चों का पूरा सहयोग उसे मिल रहा था. अजीत और सुधा की कमाई के साथ किराए का पैसा जोड़ कर फैक्टरी के वेतन का आधा भी मुश्किल से हो पाता पर बच्चों की दुर्दशा नहीं होगी, उन्हें इतना विश्वास हो गया था. तभी एक दिन घर के आगे एक चमचमाती कार दिखी और उस से लकदक रीता उतरी. सुधा ने लपक कर रीता को गले लगाया और पूछा, ‘‘कार कब खरीदी?’’

रीता का मुंह फूला हुआ था. अंदर जाते ही वह भैया पर बरस पड़ी, ‘‘तुम ने मेरी भी नाक कटा कर रख दी, अपनी तो खैर कटाई ही कटाई.’’

‘‘कैसे कट गई तुम्हारी नाक?’’ अजीत ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘अरे, क्या जरूरत थी तुम्हें उस स्कूल में गार्ड बनने की? जानते हो वहां मेरे चाचाससुर का पोता पढ़ता है. उस ने हमारी शादी के फोटोग्राफ देखते हुए तुम्हें पहचान लिया. सब के बीच में वह बोला, ‘यह तो अपने स्कूल का गार्ड है.’ तुम्हें गार्ड ही बनना था तो कहीं और बनते. स्कूलों की कमी है क्या?’’

‘‘तो तुम भी कह देतीं कि यह फोटो वाला भाई तो मर चुका है. वह गार्ड कैसे बन सकता है? उस का भूत गार्ड बन गया हो तो बन गया हो,’’ रीता का गुस्सा और तिरस्कार भरा चेहरा देख अजीत भी उबल पड़ा था.

‘‘बुरी बातें न बोलो, अजीत,’’ सुधा ने डांटा.

‘‘मेरा खून खौल रहा है, सुधा. मुझे बोलने दो. यही बहन है जिस की फरमाइशें पूरी करने में मैं ने अपनी सारी जमापूंजी लुटा दी. आज मेरा पैसा मेरे पास होता तो काम आता कि नहीं? पिताजी ने अपनी जिम्मेदारी मेरे सिर डाल दी और इसे भी शर्म नहीं आई. रीता, तुम बड़ी इज्जतदार हो तो अपने घर में रहो, मुझ गरीब के घर क्यों आती हो. अब जा कर कह देना अपने रिश्तेदारों से कि मेरा भाई मर गया.’’

रीता भाई को आंखें तरेर कर देख रही थी.

‘‘भाभी, समझा लो भैया को,’’ आंखें तरेर कर रीता बोली, ‘‘अब मुझे ज्यादा गुस्सा न दिलाएं.’’

‘‘अब भी तुम गुस्सा दिखाने की बेशर्मी करोगी, रीता,’’ सुधा ने आश्चर्य से कहा, ‘‘सब रिश्तेदार आजमाएपरखे मैं ने, कठिन समय में सब झूठे निकले. पर तुम से मेरा मन इतना अंधा मोह रखता था कि तुम्हारी सारी बेरुखी के बावजूद भी मैं तुम से कभी नाराज नहीं हो पाई. इतने लंबे संघर्ष और कष्ट के बावजूद तुम्हारे भैया ने कभी तुम्हें नहीं कोसा और तुम ही यह भाषा बोल रही हो. अभी तो तुम्हारे भैया ने ही कहा था, अब मैं भी कह रही हूं कि समझ लो हम मर गए तुम्हारे लिए, समझी? जितना तुम अपनी विदाई में फुंकवाओगी उतने में हम अपने बच्चों के लिए नए कपड़ेजूते खरीद लाएंगे. सारी कटौती मेरे बच्चों के लिए ही क्यों हो? अब बैठीबैठी मुंहबाए क्या देख रही हो. यहां से उठो और अपनी कार में बैठो. अपने घर जाओ और इज्जतदारों की तरह रहो. हम गरीबों को अपना रिश्तेदार समझो ही मत.’’

रीता पैर पटक बड़बड़ाती चली गई, ‘‘मेरी बला से, भाड़ में जाओ सब. भीख मांगो दरवाजेदरवाजे जा कर, यही बाकी रह गया है.’’

‘‘निश्ंिचत रहो, तुम्हारे दरवाजे पर मांगने नहीं आएंगे,’’ अजीत अंदर से चीखा.

‘‘शांत हो जाओ, अजीत. अच्छा हुआ कि हमारा अंधा मोह टूट गया. देख लिया अपनों को. अपनी प्रतिष्ठा के आगे उन्हें हमारे पेट का भी कोई महत्त्व नहीं दिखता. हम भूखे मर जाएं पर उन की इज्जत न घटे. अच्छा है कि अपनेपरायों की छंटनी हो रही है. उठो, तुम्हें आज इंटरव्यू देने जाना है. नहाधो कर तरोताजा हो जाओ. अगर यह नौकरी तुम्हें मिल गई तो साथ ही रूठी हुई बहन भी मिल जाएगी.’’

‘‘टूटे हुए रिश्तों की डोरियां अगर जुड़ती भी हैं तो उन में गांठ पड़ जाती है. तुम ने इतने लंबे समय तक मुझ में कुंठा की गांठ नहीं पड़ने दी, अब दूसरी गांठों की भी बात मत करो.’’

‘‘नहीं करूंगी, मेरे लिए तुम से बढ़ कर कोई नहीं है. तुम खुश रहो मेरे बच्चे सुखी रहें, मैं बस यही चाहती हूं, और मैं हमेशा इसी कोशिश में लगी रहूंगी.’’

‘‘तुम ने इस गार्ड का मन सुकून से भर दिया है और अब इस का मन बोलता है कि यह कल के दिन से फिर नई जगह पर नए सिरे से तकनीशियन होगा. अपने हुनर और मेहनत के बलबूते, आत्म- विश्वास और आत्मसम्मान से भरापूरा.’’

‘‘तथास्तु’’, सुधा ने वरद मुद्रा बनाई और अजीत मुसकराता हुआ इंटरव्यू के लिए तैयार होने लगा.

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Hindi Fictional Story: खरीदारी- क्यों हैरान रह गया चंद्रमोहन

Hindi Fictional Story: प्रात: के 9 बज रहे थे. नाश्ते आदि से निबट कर बिक्री कर अधिकारी चंद्रमोहन समाचारपत्र पढ़ने में व्यस्त था. निकट रखे विदेशी टेपरिकार्डर पर डिस्को संगीत चल रहा था, जिसे सुन कर उस की गरदन भी झूम रही थी.

तभी उस की पत्नी सुमन ने निकट बैठते हुए कहा, ‘‘आज शाम को समय पर घर आ जाना.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘कुछ खरीदारी करने जाना है.’’

‘‘कोशिश करूंगा. वैसे आज 1-2 जगह निरीक्षण पर जाना है.’’

‘‘निरीक्षण को छोड़ो. वह तो रोज ही चलता है. आज कुछ चीजें खरीदनी जरूरी हैं.’’

‘‘मैं ने अभी 3-4 दिन पहले ही तो खरीदारी की थी. पूरे एक हजार रुपए का सामान लिया था,’’ चंद्रमोहन ने कहा.

‘‘तो क्या और किसी चीज की जरूरत नहीं पड़ती?’’ सुमन ने तुनक कर कहा.

‘‘मैं ने ऐसा कब कहा? देखो, सुमन, हमारे घर में किसी चीज की कमी नहीं है. ऐश्वर्य के सभी साधन हैं हमारे यहां, फ्रिज, रंगीन टेलीविजन, वीसीआर, स्कूटर तथा बहुत सी विदेशी चीजें. नकद पैसे की भी कमी नहीं है. दोनों बच्चे भी अंगरेजी स्कूल में पढ़ रहे हैं.’’

‘‘वह तो ठीक है. जब से चंदनगढ़ में बदली हुई है मजा आ गया है,’’ सुमन ने प्रसन्न हृदय से कहा.

‘‘हां, 2 साल में ही सब कुछ हो गया. जब हमलोग यहां आए थे तो हमारे पास कुछ भी नहीं था. बस, 2-3 पुरानी टूटी हुई कुरसियां, दहेज में मिला पुराना रेडियो, बड़ा पलंग तथा दूसरा सामान. यहां के लोग गाय की तरह बड़े सहनशील और डरपोक हैं. चाहे जैसे दुह लो, कभी कुछ नहीं कहते,’’ चंद्रमोहन बोला.

तभी दरवाजे पर लगी घंटी बजी.

सुमन ने दरवाजा खोला. सामने खड़े व्यक्ति ने अभिवादन कर पूछा, ‘‘साहब हैं?’’

‘‘हां, क्या बात है?’’

‘‘उन से मिलना है.’’

‘‘आप का नाम?’’

‘‘मुझे सोमप्रकाश कहते हैं.’’

कुछ क्षण बाद सुमन ने लौट कर कहा, ‘‘आइए, अंदर चले आइए.’’

चंद्रमोहन को बैठक में बैठा देख कर सोमप्रकाश ने हाथ जोड़ कर नमस्कार किया और प्लास्टिक के कागज में लिपटा एक डब्बा मेज पर रख दिया.

सुमन दूसरे कमरे में जा चुकी थी.

‘‘कहिए?’’ चंद्रमोहन ने पूछा.

‘‘मैं सोम एंड कंपनी का मालिक हूं. अभी हाल ही में आप ने हमारी फर्म का निरीक्षण किया था लेकिन जितने माल की बिक्री नहीं हुई उस से कहीं अधिक की मान ली गई है. अगर आप की कृपादृष्टि न हुई तो मैं व्यर्थ में ही मारा जाऊंगा. आप से यही प्रार्थना करने आया हूं,’’ सोमप्रकाश ने दयनीय स्वर में कहा.

‘‘मैं तुम जैसे व्यापारियों को बहुत अच्छी तरह जानता हूं. जितना माल बेचते हो उस का चौथाई भी कागजात में नहीं दिखाते, और इस तरह दो नंबर का अंधाधुंध पैसा बना कर टैक्स की चोरी कर के सरकार को चूना लगाते हो. तुम लोगों की वजह से ही सरकार को हर साल बजट में घाटा दिखाना पड़ता है,’’ चंद्रमोहन ने बुरा सा मुंह बना कर कहा.

सोमप्रकाश अपमान का कड़वा घूंट पी कर रह गया. आखिर वह कर ही क्या सकता था. उस ने कमरे में दृष्टि डाली. हर ओर संपन्नता की झलक दिखाई दे रही थी. फर्श पर महंगा कालीन बिछा था. वह कहना तो बहुत कुछ चाहता था परंतु गले में मानो कुछ अटक सा गया था. बहुत प्रयत्न कर के स्वर में मिठास घोल कर बोला, ‘‘साहब, मैं आप की कुछ सेवा करना चाहता हूं. ये 2 हजार रुपए रख लीजिए. बच्चों की मिठाई के लिए हैं.’’

‘‘काम तो बहुत मुश्किल है, फिर भी जब तुम आए हो तो मैं कोशिश करूंगा कि तुम्हारा काम बन जाए.’’

‘‘आप की बहुत कृपा होगी. जब आप निरीक्षण पर आए थे तो मैं वहां नहीं था. मुझे रात ही पता चला तो सुबह होते ही मैं आप के दर्शन करने चला आया,’’ सोमप्रकाश बोला और उठ कर बाहर चला गया.

चंद्रमोहन ने सुमन को बुला कर कहा, ‘‘लो, भई, ये रुपए रख लो, अभी एक असामी दे गया है.’’

सुमन रुपए उठा कर दूसरे कमरे में चली गई.

कुछ देर बाद दरवाजे की घंटी फिर बज उठी.

चंद्रमोहन ने दरवाजा खोला. सामने एडवोकेट प्रेमलाल को खड़ा देख चेहरे पर मुसकान बिखेर कर बोला, ‘‘अरे, आप. आइए, पधारिए.’’

प्रेमलाल कमरे में आ कर सोफे पर बैठ गया.

‘‘सब से पहले यह बताइए कि क्या लेंगे. ठंडा या गरम?’’ चंद्रमोहन ने पूछा.

‘‘कुछ नहीं, मैं अभी नाश्ता कर के आ रहा हूं.’’

‘‘फिर भी, कुछ तो लेना ही होगा,’’ कहते हुए चंद्रमोहन ने सुमन को चाय लाने का संकेत किया.

प्रेमलाल की जरा ज्यादा ही धाक थी. बिक्री कर के वकीलों की संस्था में उस की बात कोई न टालता था. इस बार इस संस्था के अध्यक्ष पद के लिए खड़ा हो रहा था. उस के निर्विरोध चुने जाने की पूरी संभावना थी.

चंद्रमोहन ने पूछा, ‘‘कहिए, कैसे कष्ट किया?’’

कल आप ने विनय एंड संस का निरीक्षण किया था. वहां से कुछ कागजात भी पकड़े गए. उस निरीक्षण की रिपोर्ट बदलवाने और आप ने जो कागजात पकड़े हैं उन्हें वापस लेने आया हूं.

‘‘आप के उन लोगों से कुछ निजी संबंध हैं क्या? उस फर्म में बहुत हेराफेरी होती है. वैसे भी ये व्यापारी टैक्स की बहुत चोरी करते हैं. यों समझिए कि खुली लूट मचाते हैं. यदि ये ईमानदारी…’’

‘‘ईमानदारी…’’ हंस दिया प्रेमलाल, ‘‘यह शब्द सुनने में जितना अच्छा लगता है, व्यवहार में उतना ही कटु है. ऐसा कौन व्यक्ति है जो सचमुच ईमानदारी से काम कर रहा हो? आखिर दुकानदार कैसे ईमानदार रह सकता है, जब सरकार उस पर तरहतरह के टैक्स लगा कर उसे स्वयं इन की चोरी करने के लिए प्रेरित करती है. अब आप अपने को ही लीजिए. आप का गिनाचुना वेतन है, फिर भी आप हर महीने हजारों रुपए खर्च करते हैं. क्या आप कह सकते हैं कि आप स्वयं ईमानदार हैं?’’

चंद्रमोहन खिसियाना सा हो कर रह गया.

‘‘हमाम में हम सब नंगे हैं. जिसे आप ने अभी बेईमानी कहा उस में हम सब का हिस्सा है. जब सरकार ने ही बिना सोचेसमझे व्यापारियों पर इतने टैक्स लाद रखे हैं तो वह बेचारा भी क्या करे?’’

तभी सुमन चाय ले कर आ गई.

चाय की चुसकी ले कर प्रेमलाल ने जेब से एक हजार रुपए निकाल कर मेज पर रखते हुए कहा, ‘‘भई, यह काम आज शाम तक कर दीजिएगा. देखिए, कुछ इस ढंग से चलिए कि सभी का काम चलता रहे, अगर मुरगी ही न रही तो अंडा कैसे हासिल होगा? और हां, वे कागजात…’’

‘‘दे दूंगा,’’ मना करने का साहस चंद्रमोहन में नहीं था.

‘‘हां, एक बात और. कल मुझे एक दुकानदार ने एक शिकायत की थी.’’

‘‘कैसी शिकायत?’’

‘‘यह कि आप का चपरासी रामदीन दुकानदारों से यह कह कर सामान ले जाता है कि साहब ने मंगवाया है. कल आप ने कुछ सामान मंगवाया था क्या?’’

‘‘नहीं तो…’’

‘‘तो अपने चपरासी पर जरा ध्यान रखिए. कहीं ऐसा न हो कि मजे वह करता  रहे और मुसीबत में आप फंस जाएं.’’

‘‘ठीक है. मैं उस नालायक को ठीक कर दूंगा,’’ चंद्रमोहन ने रोष भरे स्वर में कहा.

शाम को चंद्रमोहन ने गांधी बाजार में एक दुकान के आगे अपना स्कूटर खड़ा किया और फिर सुमन व दोनों बच्चों के साथ उस दुकान की ओर बढ़ा.

काउंटर पर खड़े दुकानदार  ने चंद्रमोहन को देख कर क्षण भर के लिए बुरा सा मुंह बनाया, मानो उसे कोई बहुत कड़वी दवा निगलनी पड़ेगी. वह चंद्रमोहन की आदत से परिचित था. पहले भी

2-3 बार चंद्रमोहन सपरिवार उस की दुकान पर आ चुका था और उसे मजबूरन सैकड़ों का माल बिना दाम लिए चंद्रमोहन को देना पड़ा था.

यद्यपि चंद्रमोहन ने उस सामान के दाम पूछे थे, पर दुकानदार जानता था कि अगर उस ने दाम लेने की हिमाकत की तो चंद्रमोहन उस का बदला उस का बिक्री कर बढ़ा कर लेगा. इसलिए दूसरे ही क्षण उस ने चेहरे पर जबरदस्ती मुसकान बिखरते हुए कहा, ‘‘आइए, साहब…आइए.’’

‘‘सुनाइए, क्या हाल है?’’

‘‘आप की कृपा है, साहब. कहिए क्या लेंगे, ठंडा या गरम?’’ न चाहते हुए भी दुकानदार को पूछना पड़ा.

‘‘कुछ नहीं, रहने दीजिए.’’

‘‘नहीं साहब, ऐसा कैसे हो सकता है? कुछ न कुछ तो लेना ही होगा.’’ दुकानदार ने नौकर को 4 शीतल पेय की बोतलें लाने को कहा.

सुमन बोली, ‘‘मुझे लिपस्टिक और शैंपू दिखाइए.’’

दुकानदार ने कई तरह की लिप-स्टिक दिखाए हैं. सुमन उन में से पसंद करने लगी.

शीतल पेय पी कर लिपस्टिक, शैंपू, सेंट, स्प्रे, टेलकम, ब्रा तथा अन्य सामान बंधवा लिया था.

‘‘कितना बिल हो गया?’’ चंद्रमोहन ने पूछा.

लगभग 300 रुपए का सामान हो गया था. फिर भी दुकानदार मुसकरा कर बोला, ‘‘कैसा बिल, साहब? यह तो आप ही की दुकान है. कोई और सेवा बताएं?’’

‘‘धन्यवाद,’’ कहता हुए चंद्रमोहन अपने परिवार के साथ दुकान से बाहर निकल आया.

कुछ दुकानें छोड़ कर चंद्रमोहन सिलेसिलाए कपड़ों की दुकान पर आ धमका. दुकानदार वहां नहीं था. उस का 15 वर्षीय लड़का दुकान पर खड़ा था, तथा 2 नौकर भी मौजूद थे.

‘‘इस दुकान के मालिक किधर हैं?’’ चंद्रमोहन ने पूछा.

‘‘किसी काम से गए हैं,’’ लड़के ने उत्तर दिया.

‘‘कब तक आएंगे?’’

‘‘पता नहीं, शायद अभी आ जाएं.’’

‘‘ठीक है, तुम इन दोनों बच्चों के कपड़े दिखाओ.’’

नौकर बच्चों के सूट दिखाने लगा. 2 सूट पसंद कर बंधवा लिए गए.

‘‘कितना बिल हुआ?’’ चंद्रमोहन ने पूछा.

‘‘230 रुपए.’’

‘‘तुम हमें पहचानते नहीं?’’

‘‘जी नहीं,’’ लड़के ने कहा.

‘‘खैर, हम यहां के बिक्री कर अधिकारी हैं. जब दुकान के मालिक आ जाएं तो उन्हें बता देना कि चंद्रमोहन साहब आए थे और ये दोनों सूट पसंद कर गए हैं. वह इन्हें घर पर ले कर आ जाएंगे. क्या समझे?’’

‘‘बहुत अच्छा, कह दूंगा,’’ लड़का बोला.

चंद्रमोहन दुकान से बाहर निकल आया और सुमन से बोला, ‘‘ये दोनों सूट तो घर पहुंच जाएंगे. लड़के का बाप होता तो ये अभी मिल जाते. अच्छा, अब और भी कुछ लेना है?’’

‘‘हां, कुछ क्राकरी भी तो लेनी है.’’

‘‘जरूर. हमें कौन से पैसे देने हैं,’’ कहता हुआ चंद्रमोहन क्राकरी की एक दुकान की तरफ बढ़ा.

देखते ही दुकानदार का माथा ठनका. वह चंद्रमोहन की आदत को अच्छी तरह जानता था. पहले भी कभी चंद्रमोहन, कभी उस की पत्नी और कभी उस का चपरासी बिना पैसे दिए सामान ले गया था. फिर भी दुकानदार को मधुर मुसकान के साथ उस का स्वागत करना पड़ा, ‘‘आइए, साहब, बड़े दिनों बाद दर्शन दिए.’’

‘‘कैसे हैं आप?’’

‘‘बस, जी रहे हैं, साहब, बहुत मंदा चल रहा है.’’

‘‘हां, मंदीतेजी तो चलती ही रहती है.’’

‘‘कल आप का चपरासी रामदीन आया था, साहब. आप ने कुछ मंगाया था न?’’

‘‘हम ने, क्या ले गया वह?’’

‘‘एक दरजन गिलास.’’

चंद्रमोहन चपरासी की इस हरकत पर परदा डालते हुए बोला, ‘‘अच्छा वे गिलास…वे कुछ बढि़या नहीं निकले. वापस भेज दूंगा. अब कोई बढि़या सा टी सेट और कुछ गिलास दिखाइए.’’

चंद्रमोहन व सुमन टी सेट पसंद करने लगे.

तभी अचानक जैसे कोई भयंकर तूफान सा आ गया. बाजार में भगदड़ मचने लगी. दुकानों के दरवाजे तेजी से बंद होने लगे. 2-3 व्यक्ति चिल्ला रहे थे, ‘‘दुकानें बंद कर दो. जल्दी से चौक में इकट्ठे हो जाओ.’’

दुकानदार ने चिल्लाने वाले एक आदमी को बुला कर पूछा, ‘‘क्या हो गया?’’

‘‘झगड़ा हो गया है.’’

‘‘झगड़ा? किस से?’’

‘‘एक बिक्री कर अधिकारी से.’’

‘‘क्या बात हुई?’’

‘‘बिक्री कर विभाग के छापामार दस्ते का एक अधिकारी गोविंदराम की दुकान पर पहुंचा. 500 सौ रुपए का सामान ले लिया. जब उस ने पैसे मांगे तो वह अधिकारी आंखें दिखा कर बोला, ‘हम को नहीं जानता.’ दुकानदार भी अकड़ गया. बात बढ़ गई. वह अधिकारी उसे बरबाद करने की धमकी दे गया है. इन बिक्री कर वालों ने तो लूट मचा रखी है. माल मुफ्त में दो, नहीं तो बरबाद होने के लिए तैयार रहो. मुफ्त में माल भी खाते हैं और ऊपर से गुर्राते भी हैं.’’

‘‘दुकानें क्यों बंद कर रहे हो?’’ दुकानदार ने पूछा.

उस ने कहा, ‘‘बाजार बंद कर के जिलाधिकारी के पास जाना है. आखिर कब तक इस तरह हम लोगों का शोषण होता रहेगा? एक न एक दिन तो हमें इकट्ठे हो कर इस स्थिति का सामना करना ही होगा.

‘‘इन अफसरों की भी तो जांचपड़ताल होनी चाहिए. ये जब नौकरी पर लगते हैं तब इन के पास क्या होता है? और फिर 2-4 साल के बाद ही इन की हालत कितनी बदल जाती है. अब तुम जल्दी दुकान बंद करो. सब दुकानदार चौक में इकट्ठे हो रहे हैं. अब इन मुफ्तखोर अधिकारियों की सूची दी जाएगी. अखबार वालों को भी इन अधिकारियों के नाम बताए जाएंगे,’’ कहता हुआ वह व्यक्ति चला गया.

चंद्रमोहन को लगा मानो यह जलूस छापामार दस्ते के उस अधिकारी के विरुद्ध नहीं, स्वयं उसी के विरुद्ध जाने वाला है. वह भी तो मुफ्तखोर है. आज नहीं तो कल उस का भी जलूस निकलेगा. समाचारपत्रों में उस के नाम की भी चर्चा होगी. उसे अपमानित हो कर इस नगर से निकलना पड़ेगा. नगर की जनता अब जागरूक हो रही है. उसे अपनी यह आदत बदलनी ही पड़ेगी.

दुकानदार ने उपेक्षित स्वर में पूछा, ‘‘हां, साहब, आप फरमाइए.’’

चंद्रमोहन की हालत पतली हो रही थी. उस ने शुष्क होंठों पर जीभ फेर कर कहा, ‘‘आज नहीं, फिर कभी देख लेंगे. आज तो आप भी जल्दी में हैं.’’

‘‘ठीक है.’’ दुकानदार ने गर्वित मुसकान से चंद्रमोहन की ओर देखा और दुकान बंद करने लगा.

चंद्रमोहन दुकान से बाहर निकल कर चल दिया. उसे ग्लानि हो रही थी कि आज वह बहुत गलत समय खरीदारी करने घर से निकला.

‘बच्चू, बंद कर के जाओगे कहां? किसी और दिन सही. आखिर हमारी ताकत तो बेपनाह है,’ मन ही मन बुदबुदाते हुए उस ने कहा.

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