Winter Special: फैमिली के लिए बनाएं स्प्रिंग रोल

वीकेंड पर अगर आप अपनी फैमिली के लिए स्नैक्स में कुछ परोसना चाहते हैं तो स्प्रिंग रोल में ये रेसिपी ट्राय करना ना भूलें.

सामग्री

11/2 कटोरी बेसन

1 छोटा चम्मच अदरकलहसुन का पेस्ट

1/2 छोटा चम्मच लालमिर्च

1/2 छोटा चम्मच अजवाइन

1/2 छोटा चम्मच चाटमसाला

3-4 अरवी के पत्ते द्य तलने के लिए तेल

नमक स्वादानुसार.

भरावन के लिए

1/2 कप उबले सफेद चने

1/4 कप उबले मटर

1/4 कप कसी गाजर

1 प्याज बारीक कटा

1/2 छोटा चम्मच नमक

1/4 छोटा चम्मच लालमिर्च

1 बड़ा चम्मच इमली का रस.

विधि-

भरावन की सारी सामग्री को मिलाएं व हाथ से मसल कर दरदरा कर लें. अरवी के पत्तों को धो लें. उन के डंठल और मोटी नस निकाल कर उन्हें रूमाल जैसा काट लें. अब प्रत्येक पत्ते में बेसन के पतले घोल की एक परत लगाएं, ऊपर भरावन सामग्री रखें तथा पोटली की तरह बंद कर के टूथपिक लगा दें. फिर इन्हें कुछ देर स्टीम कर लें.बचे बेसन में तेल को छोड़ कर बाकी सारी सामग्री मिलाएं व पकौड़े के घोल जैसा बना लें. एक कड़ाही में तेल गरम करें तथा प्रत्येक पोटली को बेसन में डुबो कर तल लें. गरमगरम परोसें

वीआईपी: क्या था पुरुष नौकर का सच

स्टोर पर लंबी लाइन लगी थी. अभी भी कोविड-19 का आतंक खत्म नहीं हुआ था. लोग भरभर कर खरीदारी कर रहे थे. चिलचिलाती धूप के कारण लोग पसीने से नहा रहे थे. ऐसी हालत में अगर कोई व्यक्ति किसी को अपने आगे खड़ा होने दे तो निश्चय ही आश्चर्य की बात थी. ऐसी शराफत की आशा करना इस युग में सपने की ही चीज है. किंतु उन 2 व्यक्तियों ने मुझे अपने आगे खड़े होने दिया. वे मेरे गांव के ही थे और जानते थे कि मुझे आमतौर पर जल्दी होती है.

इन दोनों के साथ मैं ने जाने कितनी रातें गुजारी हैं और ये जानते थे कि मेरी मालकिन जब चली जाती है तो फ्लैट पर बुला लेती है. और तो और कोई दूसरी लड़की को ले कर आए तो उसे भी आने देती हूं.

ऐसा नहीं कि इस युग में ये कालिदास के समान नारी को कोमलांगी समझ कर दया करते हैं. मैं ने तहेदिल से कामना की कि इन लफंगों का भला हो वरना आजकल तो मर्द बस में भी औरतों की सीट पर से उठने पर ताने देने लगे हैं कि जब औरतें मर्दों से कदम से कदम मिला कर चल रही हैं तथा हर मामले में बराबरी की होड़ कर रही हैं तो बस में खड़ी रहने से गुरेज क्यों? मैं ने आंख मार कर दोनों को धन्यवाद किया.

मैं अभी ठीक से खड़ी भी न हो पाई थी कि उन की खिलखिलाहट की आवाज सुनाई पड़ी. वे कितने मस्त और फक्कड़ हैं न गरमी की परवाह, न लंबी लाइन की. ऊपर से यह मुफ्त हंसी. उन के इसी फक्कड़पन की वजह से मैडम की सभी कविता की लाइनें याद दिला दीं.

मेरी जगह अगर मैडम वाले कवि होते तो

वे इन 2 लफंगों को लाइन में खड़े और लोगों

से अलग जान एक बहुत बड़ा निबंध लिख डालते. उनकी मस्ती निश्चय ही उन्हें कबीर

से भी रंगीली जान पड़ती. खैर, उन की हंसी

की छिपी बात जानने के लिए मैं ने अपने कान खड़े कर लिए. वैसे तो मैं उन के सारे कारण जानती थी पर कुछ बातें जो वे जल्दबाजी में

फ्लैट में नहीं कह पाते थे यहां लाइन में कह रहे हों शायद. चाहे कैसी भी हालत में ऐसे खुश रहने का गुर हमारे मालिकों को तो मालूम ही नहीं.

‘‘अरे, मेरी मालकिन तो तुम्हारी मालकिन से भी बूढ़ी है. मुझे मीठा बहुत पसंद है. घर में कुछ भी मिठाई आए, उस में अपना हिस्सा होता ही है. कारण, हम उस चीज को ऐसी निगाह से देखते हैं कि वे समझ जाती हैं कि हम को न देने से खाने वाले का पेट दुखेगा. अगर मेरे से छिपा कर खाते हैं तो भनक मिलते ही बरतन उठाने के बहाने कमरे में घुस जाता हूं, फिर तो उन को देनी ही पड़ती है. फिर भी मीठा खाने से दिल नहीं भरता. जब मालकिन मेरा खाना निकाल कर चौके से बाहर जाती हैं तो मौका देख तुरंत 2 चम्मच चीनी दाल में डाल लेता हूं. उन को कुछ पता ही नहीं चल पाता,’’ एक कह रहा था.

‘‘आखिर हो तो दरभंगा जिले के ही, तभी इतनी चीनी खाते हो. पर मैं तो मधुबनी का हूं, इसलिए ताकत की चीज अधिक खाता हूं.

चीनी से तो शुगर की बीमारी हो जाती है. मैं

जब थाली में अपने चावल डालता हूं तो पहले

2 चम्मच घी थाली में डाल ऊपर से चावल

पसार लेता हूं. दाल में डालने से तो पता चल जाता है.’’

उन दोनों की बातें सुन कर मैं ने कहा, ‘‘मैं तो मैडम का केक हजम कर जाती हूं और कह देती हूं कि उस में बास आने लगी थी.’’

मैं उन को ढीला समझ रही थी पर वे

तो चतुर थे. बाप रे. उन के कपड़े देख कर ही मुझे अपनेआप पर शर्म आने लगी थी. मेरी सलवार मैली थी, मैडम के सामने तो यही

पहनना पड़ता था. उस में मेरे बदन के हिस्से दिख रहे थे. उसे उलटपुलट कर छिपाने लगी थी. तो एक बोली, ‘‘अरे क्यों छिपा रही है, हम क्या पराए हैं?’’

मैं ने कहा कि जरा देखें तो कितनी मैडमें भी लाइन में लगी हैं. समझदारी से काम लें. लाइन धीरेधीरे आगे सरक रही थी. गंजी धोती पहने मोटीमोटी मूंछों वाले एक व्यक्ति ने मेरे पीछे खड़े वाले से पूछा, ‘‘क्यों रे बंसी, क्या हाल है? कुछ पगार बढ़ी कि नहीं?’’

‘‘अरे, बढ़ेगी क्यों नहीं. 2 दिन लगातार बाहर निकला और शाम को 7-8 बजे काम पर पहुंचा. मालकिन पहले दिन तो चुप रही, दूसरे दिन बिगड़ गई. बस, फिर क्या था. मूंछों पर

ताव देते हुए मैं भी बोला, ‘‘कौन सा रोजरोज जाता हूं. चचा बीमार हो गए तो संभालने भी

नहीं जाएंगे क्या? सारा दिन बस बैल की तरह जुते रहो, जरा भी आराम मत करो. आखिर कितनी पगार देते हैं? ठीक है, हम को नहीं

काम करना.’’

तभी मालिक कमरे से निकल आए.

महीना भी बढ़ गया और चचा की काल्पनिक बीमारी के नाम पर 50 रुपए इलाज के लिए भी मिल गए.

‘‘आ न, रामेसर, तू भी हम दोनों के बीच खड़ा हो जा.’’

‘‘नहीं रे बंसी, अपन तो पीछे ही ठीक हैं. जल्दी राशन मिलेगा तो घर जा कर ज्यादा काम करना पड़ेगा.’’

‘‘पर काम चाहे अभी करो या देरी से, करना तो तुम्हीं को पड़ेगा.’’

‘‘नहीं रे मालकिन नौकरों के भरोसे काम नहीं पड़ा रहने देती. उस का सब काम समय पर होना चाहिए. वह खुद ही कर लेती है और फिर आज रविवार है. घूमने जाएगी तो साली अपनेआप जल्दी काम निबटाएगी.’’

उन लोगों की बातें सुन कर मेरा तो सिर घूमने लगा. मुझे पता चल गया कि क्यों उन दोनों ने मुझे आगे खड़े होने दिया था. पता नहीं कब मेरा नंबर आ गया.

‘‘अपना और्डर दो,’’ चिल्ला कर जब दुकानदार ने कहा, तब कहीं मुझे होश आया. मैं तो अपने को होथियार समझती थी, ये तो मेरे से भी 24 निकले.

उन दोनों की बात से दिल में इतनी उथलपुथल मची हुई थी कि घर का रास्ता नापना भी मुश्किल हो गया. थैला बरामदे में रख तुरंत फोन पड़ोस वाली श्यामा को किया और कहा, ‘‘सुनते हो, दिमाग की कसरत?’’

वह शायद रसोई में थी, ‘‘ग्रौसरी लाने में तेरे दिमाग की कसरत कैसे हो गई?’’

‘‘बात तो सुन मजाक बाद में करना पहले करने लगते हो. मैं अपने दिमाग की थोड़े कह

रही हूं, उन नालायकों के दिमाग के विषय में कह रही हूं.’’

‘‘कुछ साफ  बोल, तुम तो पहेलियां बुझ रही हो.’’

‘‘देखो, झगड़ा मत करो. मैं तुम्हें नौकरों की…’’

‘‘भई, हम नौकर तो आजकल मालकिनों से भी ज्यादा वीआईपी अति महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हो गए हैं.’’

मैं ने राशन की लाइन में सुनी सब बातें उन्हें सुना दी.

‘‘जीं.’’

श्यामा ने कहा, ‘‘सही है, जब तक ये मालकिनें अपना काम खुद करना

नहीं सीखेंगी, हम लोगों का तो राज है, थोड़े ही दिनों के लिए चाहे.’’

मैं ने भी कहा, ‘‘जानती हो, बराबर वाली सोसायटी में एक बेमतलब नौकर ढूंढ़ रही थी.’’

‘‘इन दिनों कोई 4-5 नौकर जा चुके हैं. कोई सुबह आया तो शाम को चला गया. अगर शाम को आया तो उस का इस घर में सवेरा नहीं हुआ. कोई जाने के लिए अपनी मां को मार गया तो कोई बाबा को. यही नहीं, कई हजरत तो कुछ कहे बिना ही चले गए.’’

‘‘पर वह जो पहले रहता था, वह कहां गया?’’ श्यामा ने अपनी साड़ी ठीक करते हुए पूछा.

‘‘वह तो एक नंबरी चोर था. मालकिन बच्चों को चीज दिलाने के लिए पैसे देती थी. कम दाम की घटिया चीजें दिला कर बाकी पैसे खुद खा जाता था. एक तो इतनी पगार और फिर ऊपर से यह चोरी. एक दिन मालकिन ने पकड़ लिया तो सिवा उसे निकालने के कोई और चारा नहीं था. अब रोज इंटरव्यू लेती है, रोज बरतन घिसती है,’’ और दोनों जोर से हंसने लगीं.

 

आ बैल मुझे मार: मुसीबत को बुलावा देते शख्स की कहानी

मुसीबत का क्या है, आती ही रहती है. अगर हिम्मत से काम लिया जाए तो मुसीबत टल भी जाती है. लेकिन उस इनसान का क्या करें, जो मुसीबत से खुद ही अपना सिर फोड़ने को तड़प रहा हो. शायद, ऐसे ही बेवकूफ लोगों के लिए ‘आ बैल मुझे मार’ वाली कहावत बनी है.

बात शायद आप की भी समझ में नहीं आ रही है. दरअसल, हम अपनी ही बात कर रहे हैं. चलिए, आप को पूरा किस्सा सुना देते हैं.

तकरीबन 2 हफ्ते पहले हम अपनी खटारा मोटरसाइकिल पर शहर से बाहर रहने वाले एक दोस्त से मिल कर वापस लौट रहे थे. शाम हो गई थी और अंधेरा भी घिर आया था. हम जल्दी घर पहुंचने के चक्कर में खूब तेज मोटरसाइकिल चला रहे थे.

अचानक हम ने सड़क के किनारे एक आदमी को पड़े देखा. पहले तो हमें लगा कि कोई नशेड़ी है जो सरेआम नाली में पड़ा है, लेकिन नजदीक पहुंचने पर हमें उस के आसपास खून भी दिखा. लगता था कि किसी ने उस को अपनी गाड़ी से टक्कर लगने के बाद किनारे लगा दिया था.

पहले तो हम ने भी खिसकने की सोची. यह भी दिमाग में आया कि इस लफड़े में पड़ना ठीक नहीं, लेकिन ऐन वक्त पर दिमाग ने खिसकने से रोक दिया.

हम ने उस आदमी को उठा कर अच्छी तरह से किनारे कर दिया. उस के सिर में गहरी चोट लगी थी. खून रुक नहीं रहा था. शायद उस के हाथ की हड्डी भी टूट गई थी.

गनीमत यह थी कि वह आदमी जिंदा था और धीरेधीरे उस की सांसें चल रही थीं. हम ने भी उसे बचाने की ठान ली और आतीजाती गाडि़यों को रुकने के लिए हाथ देने लगे.

बहुत कोशिश की, पर कोई गाड़ी  नहीं रुकी. परेशान हो कर जैसे ही हम ने हाथ देना बंद किया, वैसे ही एक टैक्सी हमारे पास आ कर रुकी. शायद वह भी हमारी तरह अपने खालीपन से परेशान था. जो भी हो, उस ने हमें बताया कि शहर तक जाने के लिए वह दोगुना किराया लेगा और मुरदे के लिए तिगुना.

हम ने बड़े सब्र के साथ बताया कि यह मुरदा नहीं, जिंदा है और हमारी यह पूरी कोशिश होगी कि इसे बचाया जा सके. हम ने उस से यह भी कहा कि वह जख्मी को टैक्सी में ले कर चले, जबकि हम अपनी खटारा मोटरसाइकिल से पीछेपीछे आएंगे. हमारे लाख समझाने पर भी टैक्सी वाला उसे अकेले टैक्सी में ले जाने को तैयार नहीं हुआ.

अब हम ने सिर पर कफन बांध

लिया था, सो खटारा मोटरसाइकिल

को अच्छी तरह से तालों से बंद किया और टैक्सी में बैठ गए. थोड़ी देर

में जख्मी को साथ ले कर सरकारी अस्पताल पहुंच गए.

बड़ी मुश्किल से हम वहां डाक्टर ढूंढ़ पाए, पर उस ने भी जख्मी को भरती करने से साफ इनकार कर दिया. हम से कहा गया कि यह पुलिस केस है. पुलिस को बुला कर लाओ, तब देखेंगे.

हम ने फोन मांगा, तो डाक्टर ने फोन खराब होने का बहाना बना दिया. तब हम ने थाने का रास्ता पूछा.

जब हम थाने पहुंचे तो पूरा थाना खाली पड़ा था. महज एक सिपाही

कोने में खड़ा था. हम ने उसे जल्दीजल्दी पूरा हाल बताया और साथ में चलने

को कहा.

वह थोड़ी देर कुछ सोचता रहा, फिर बोला, ‘‘देखिए, थोड़ी देर रुक जाइए. अभी साहब लोग अंदर वाले कमरे में बिजी हैं, क्योंकि एक मुजरिम से पूछताछ हो रही है. वे आ जाएंगे, तभी कोई फैसला लेंगे.’’

हम अभी उसे आदमी की जान की कीमत समझाने की कोशिश कर ही रहे थे कि अंदर वाले कमरे से 3-4 पुलिस वाले पसीना पोंछते हुए बाहर आए. उन के चेहरे से लग रहा था कि वे मुजरिम से अपने तरीके से पूछताछ कर के निकले हैं.

हम वरदी पर सब से ज्यादा सितारे लगाए एक पुलिस वाले के पास फुदक कर पहुंचे और अपनी बात कहने की कोशिश की. ठीक से बात शुरू होने से पहले ही उस ने एक जोर की उबासी ली और हम से कहा कि अपनी रामकहानी जा कर हवलदार को सुनाओ और रिपोर्ट भी लिखवा दो. उस के बाद देखा जाएगा कि क्या किया जा सकता है.

हम भाग कर हवलदार साहब के पास गए और जख्मी का इलाज कराने की अपील की.

हवलदार ने पूछा, ‘‘आप का क्या लगता है वह?’’

‘‘जी, कुछ नहीं.’’

‘‘तो मरे क्यों जा रहे हैं आप? देखते नहीं, हम कितना थक कर आ रहे हैं.

2 मिनट का हमारा आराम भी आप से बरदाश्त नहीं होता क्या?’’

‘‘देखिए हवलदार साहब, आप का यह आराम उस बेचारे की जान भी ले सकता?है. आप समझते क्यों नहीं…’’

‘‘आप क्यों नहीं समझते. मरनाजीना तो लगा रहता है. जिस को जितनी सांसें मिली हैं, उतनी ही ले पाएगा.

‘‘और आप से किस ने कहा था कि मौका ए वारदात से उसे हिलाने के लिए. बड़े समझदार बने फिरते हैं, सारा सुबूत मिटा दिया. गाड़ी का नंबर भी नोट नहीं किया. अब कैसे पता चलेगा कि उसे कौन साइड मार कर गया था. पता लग जाता तो केस बनाते.’’

हम भी तैश में आ गए, ‘‘आप को सुबूतों की पड़ी है, जबकि यहां किसी भले आदमी की जान पर बनी है. आप की ड्यूटी यह है कि पहले उसे बचाएं. सारे कानून आम आदमी की सहूलियत के लिए बनाए गए हैं, न कि उसे तंग करने के लिए.’’

‘‘अच्छा, तो अब आप ही हम पर तोहमत लगा रहे हैं कि हम आप को तंग कर रहे हैं.’’

‘‘जी नहीं, हमारी ऐसी मजाल कहां कि हम आप को…’’

‘‘अच्छाअच्छा चलेंगे. जहां आप ले चलिएगा, वहां भी चलेंगे. बस, जरा यहां साहब का राउंड आने वाला है, उस को थोड़ा निबटा लें. उस के बाद चलते हैं. तब तक आप हमें कहानी सुनाइए कि क्या हुआ था और आप उसे कहां से ले कर आए हैं?’’

‘‘जी, हम उसे हाईवे पर सुलतानपुर चौक के पास से ले कर आए हैं और…’’

‘‘रुकिएरुकिए, क्या कहा आप ने? सुलतानपुर चौक. अरे, तो आप यहां हमारा टाइम क्यों खराब कर रहे हैं? वह इलाका तो सुलतानपुर थाने में आता है. आप को वहीं जाना चाहिए था.’’

‘‘लेकिन, वह यहां के अस्पताल में भरती होने जा रहा है. आप एफआईआर तो लिखिए.’’

‘‘अरे साहब, आप भी न… देखिए तो, कितनी मेहनत से आज कई एफआईआर की किताबें कवर लगा कर तैयार की हैं, राउंड के लिए. आप इसे खराब क्यों करना चाहते हैं?’’ इतना कह कर हवलदार एक सिपाही की ओर मुंह कर के फिर चिल्लाया, ‘‘अबे गोपाल, आज रमुआ नहीं आया था क्या रे? देख तो ठीक से झाड़ू तक नहीं लगी दिखती है. डीसीपी साहब देखेंगे तो क्या सोचेंगे कि हम लोग कितने गंदे रहते हैं.’’

हमें खीज तो बहुत आ रही थी, मगर क्या कर सकते थे? मन मार कर सब्र किए उन की अपनी वरदी के लिए वफादारी को देखते रहे. हम भी कुछ देर तक कोशिश करते रहे शांत रहने की, लेकिन उन के रवैए से हमारा खून खौलने लगा और हम भड़क उठे, ‘‘आप का यह राउंड किसी की जान से ज्यादा जरूरी है क्या?

‘‘अगर राउंड के समय डीसीपी साहब को सैल्यूट मारने वाले 2 आदमी कम हो जाएंगे तो क्या भूकंप आ जाएगा? आप भी कामचोर हैं. जनता के पैसे से तनख्वाह ले कर भी काम करने में लापरवाही करते हैं.’’

दारोगा बाबू को इस पर गुस्सा आ गया और वे चिल्ला कर बोले, ‘‘अबे धनीराम, बंद कर इसे हवालात के अंदर. इतनी देर से चबरचबर किए जा रहा है. डाल दे इस पर सुबूत मिटाने का इलजाम. और अगर गाड़ी ठोंकने वाला न पकड़ा जाए, तो बाद में वह इलजाम भी इसी पर डाल देना. हमें हमारा काम सिखाता है. 2 दिन अंदर रहेगा, तो सारी हेकड़ी हवा हो जाएगी.’’

सचमुच हमारी हेकड़ी इतने में ही हवा होने लगी. कहां तो किसी की जान बचाने के लिए मैडल मिलने की उम्मीद कर रहे थे और कहां हथकड़ी पहनने की नौबत आ गई.

हम ने घिघियाते हुए कहा, ‘‘हेंहेंहें… आप भी साहब, बस यों ही नाराज हो जाते हैं. हम लोग तो सेवक हैं आप के. गुस्सा थूक दीजिए और जब मरजी आए चलिए, न मरजी आए तो न चलिए. रिपोर्ट भी मत लिखिए, मरने दीजिए उस को यों ही… हम चलते हैं, नमस्ते.’’

हम जान बचा कर भागने की फिराक में थे कि अगर अपनी जान बची, तभी तो दूसरों को बचाने की कोशिश कर सकेंगे. इतने में डीसीपी साहब थाने में दाखिल हो गए.

हुआ यह कि डीसीपी साहब ने हम से आने की वजह पूछ ली. खुन्नस तो खाए हुए थे ही, सो हम ने झटपट पूरी कहानी सुना दी.

उन्होंने पूरे थाने को जम कर लताड़ा और दारोगा बाबू को हमारे साथ जाने को कहा. सुलतानपुर थाने को भी खबर कर अस्पताल पहुंचने का निर्देश देने को कहा. अभी उन का जनता और पुलिस के संबंधों पर लैक्चर चल ही रहा था कि हम चुपके से सरक गए.

हम दारोगा बाबू और हवलदारजी के साथ अस्पताल पहुंचे, जहां वह घायल बेचारा एक कोने में बेहोश पड़ा था.

हम चलने लगे तो दारोगा ने कहा, ‘‘कहां चल दिए आप? अभी तो आप ने मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डाला है. उस का डंक नहीं भुगतेंगे?

‘‘अब यह मामला कानून के लंबे हाथों में पहुंच गया है, तो सरकारी हो गया. आप का काम तो अभी शुरू ही हुआ है.

‘‘आप बैठिए इधर ही, इसे होश में आने के बाद इस का बयान लिया जाएगा. तब तक आप अपना बयान लिखवा कर टाइम पास कीजिए. उस के बाद ही हम मिल कर सोचेंगे कि आप का क्या करना है.

‘‘अगर गाड़ी वाला गलती से पकड़ा गया, तो समझिए कि आप को कोर्ट में हर पेशी पर गवाही के लिए आना होगा. आज की दुनिया में भलाई करना इतना आसान थोड़े ही रह गया है.’’

‘‘मेरे बाप की तोबा हवलदार साहब, अगर मैं ने दोबारा कभी ऐसी गलती की तो… अभी तो मुझे यहां से जाने दीजिए, बालबच्चों वाला आदमी हूं. बाद में जब बुलाइएगा, तभी मैं हाजिर हो जाऊंगा,’’ कहते हुए हमारा दिमाग चकराने लगा.

इतनी देर में ही डाक्टर साहब बाहर निकल आए और आते ही उन्होंने ऐलान किया कि मरीज को होश आ गया है. कोई एक पुलिस वाला जा कर उस का बयान ले सकता है.

दारोगा बाबू हवलदार साहब को हमारे ऊपर निगाह रखने की हिदायत दे कर अंदर चले गए.

उस आदमी का अंदर बयान चल रहा था और बाहर बैठे हम सोच रहे थे कि वह अपनी जान बचाने के लिए किस तरह से हमारा शुक्रगुजार होगा. कहीं लखपति या करोड़पति हुआ, तो अपने वारेन्यारे हो जाएंगे.

20-25 मिनट बाद दारोगा बाबू वापस आए और हमें घूरते हुए हवलदार से बोले, ‘‘धनीराम, हथकड़ी डाल इसे और घसीटते हुए थाने ले चल. वहां इस के हलक में डंडा डाल कर उगलवाएंगे कि इस जख्मी के 50,000 रुपए इस ने कहां छिपा रखे हैं.

‘‘उस ने बयान दिया है कि किसी ने उसे पीछे से गाड़ी ठोंक दी थी और उस के पैसे भी गायब हैं.

‘‘मैं ने इस का हुलिया बताया, तो उस ने कहा कि ऐसा ही कोई आदमी टक्कर के बाद सड़क पर उसे टटोल रहा था. खुद को बहुत चालाक समझता है.

‘‘यह सोचता है कि इसे बचाने

की इतनी ऐक्टिंग करने से हम पुलिस वाले इस पर शक नहीं करेंगे. बेवकूफ समझता है यह हम को. ले चल इसे, करते हैं खातिरदारी इस की.’’

देखते ही देखते हमारे हाथों में हथकड़ी पड़ गई और हम अपने सदाचार का मातम मनाते हुए पुलिस वालों के पीछे चल पड़े.

कौल सैंटर: विवाहित महिलाओं का बढ़ता दबदबा

कौल सैंटर का जिक्र आते ही जेहन में कौंध जाते हैं हैडफोन लगाए, धाराप्रवाह अंगरेजी बोलते, खास शैली व अंदाज में ग्राहकों के प्रश्नों का उत्तर देते हुए, उन्हें उत्पाद की खूबियों का यकीन दिलाने में माहिर युवा लड़केलड़कियों के चेहरे.

कौल सैंटर को ले कर हमेशा मन में एक ही धारणा व्याप्त रहती है कि कालेज से निकले छात्रों को पैसा कमाने के लिए पार्टटाइम नौकरी करने की चाह यहां खींच लाती है. कौल सैंटरों में मिलने वाली सुविधाएं व पैसा दोनों उन्हें चकाचौंध करते हैं. यही वजह है कि नियमित काम के घंटे न होने पर भी युवाओं की एक बड़ी जमात को वहां काम करते देखा जा सकता है.

मगर अब कौल सैंटर का स्वरूप बदलने लगा है. किसी भी कौल सैंटर में अब आसानी से विवाहित महिलाओं को भी कंप्यूटर के आगे कान पर हैडफोन लगाए ग्राहकों से बातचीत करते देखा जा सकता है. विवाहित महिलाओं द्वारा कौल सैंटर में काम कराने का ट्रैंड मार्च, 2004 से शुरू हुआ था.

हालांकि पहले भी विवाहित महिलाएं काम कर रही थीं पर उन की तादाद ज्यादा नहीं थी. गृहिणियों को ले कर इस तरह का प्रयोग पहली बार विप्रो कंपनी ने किया. इस क्षेत्र में महिलाओं का दखल अभी सिर्फ 5 फीसदी तक ही है, लेकिन इस क्षेत्र से जुड़े विशेषज्ञ मानते हैं कि इस में अप्रत्याशित वृद्धि होने की संभावना है.

एक अनोखा प्रयोग

अभी तक कौल सैंटर में कार्य करने वालों की उम्र 18 से 25 साल के बीच निर्धारित होती थी. विकसित उम्र के इस दौर में काम सीखने के बाद कंपनी बदलने का औसत इन के बीच पिछले वर्ष तक 33 फीसदी तय था. इस साल यह बढ़ कर 40 फीसदी पहुंच गया है. एक से दूसरी कंपनी में पलायन के बढ़ते इस औसत पर लगाम लगाने के लिए अब विवाहित महिलाओं को हैडफोन पहनाया जा रहा है खासकर 5 आईटी कंपनियों- विप्रो, आईगेट, सौफ्टवेयर पार्क, जी कैपिटल, और ई फंड्स ने एक और नया प्रयोग इस में किया है कि वे उन महिलाओं को अधिक प्रमुखता देंगे जिन के बच्चे स्कूल जाने लायक हों तथा उन का संयुक्त परिवार हो.

उत्पादन के तौर पर कौग्निजैंट कंपनी विवाहित महिलाओं को जो दिन या रात में कभी भी अपना समय दे सकती हैं नौकरी दे रही है जिस में बोलना आना ज्यादा जरूरी है. 12 से 15 हजार की सैलरी का वादा किया जा रहा है जो बाद में कार्यकुशलता को देख कर बढ़ाया जा सकता है.

विप्रो स्थित कौल सैंटर में कार्यरत केरल की 29 वर्षीय शशिकला कंपनी के इस नए रवैए से काफी खुश है क्योंकि शादी के बाद उसे एक अच्छी नौकरी मिली है. उस की एक 4 साल की बेटी है. वह कहती है कि कंपनियों द्वारा विवाहिताओं को नौकरी देने के चलन में 30 से 40 वर्ष के बीच की महिलाओं में कैरियर बनाने की आस दोबारा जगाई है. बेशक मेरे साथ मेरे सासससुर नहीं करते हैं, लेकिन कंपनी ने मु  झे सुविधानुसार जौब टाइमिंग दिया हुआ है. विवाह के बाद नौकरी करने का यह अद्भुत अनुभव है.

अद्भुत क्षमता

विवाहित महिलाओं की उम्र 27 से 40 वर्ष तय की गई है. ऐसा इसलिए क्योंकि इस उम्र की कामकाजी विवाहित महिलाओं में इस रखाव की अद्भुत क्षमता होती है. वे हर काम जिम्मेदारी से निभाने में सक्षम होती हैं जबकि इस के विपरीत फ्रैशर्स में चाहत की लालसा अधिक होती है, इसलिए टिकते नहीं हैं. उन में अनुभव की कमी तो होती ही है, साथ ही काम के प्रति जिम्मेदारी की भावना भी काम होती है. अधिक पैसा मिलते ही वे दूसरी कंपनियों में चले जाते हैं जिन में अधिक नुकसान के साथसाथ प्रशिक्षण के लिए कंपनियों को रोज नए कर्मियों को ढूंढ़ना पड़ता है.

काम के प्रति ज्यादा समर्पित

नोएडा स्थित एक कंपनी से कौल सैंटर में टीम लीडर के रूम में कार्यरत पुष्पांजलि का कहना है कि मैं 3 साल से इस कौल सैंटर में काम कर रही हूं. मु  झे कभी यहां काम करना इसलिए मुश्किल नहीं लगा क्योंकि मैं विवाहित हूं. पहले मैं यूएस शिफ्ट में काम करती थी जो रात की थी पर अब यूके शिफ्ट में हूं जो दिन के ढाई बजे से रात साढ़े बारह तक होती है. आराम से परिवार भी संभाल लेती हूं.

मु  झे लगता है कि युवाओं की अपेक्षा परिपक्व औरतें काम के प्रति ज्यादा समर्पित होती हैं क्योंकि वे एक जगह टिक कर काम करती हैं और प्रलोभन उन्हें लुभाते नहीं हैं. इतवार के अलावा सप्ताह में एक दिन और छुट्टी मिलती है, इसलिए परिवार में तालमेल बैठाने में भी कोई दिक्कत नहीं आती है.

मेरे पति बिजनैसमैन हैं और मु  झे पूरा सहयोग देते हैं. रात की शिफ्ट में काम करने वाला औरतों को ले कर जो नजरिया है, वह बदल रहा है. गंदगी फैलाने वाले हर जगह होते हैं.

इस से हर औरत खराब नहीं हो जाती.

यहां अच्छा वेतन है, ड्रौप और पिक की सुविधा है, खाना मिलता है और इस के अलावा अन्य इंसैटिव भी मिलते हैं. मु  झे लगता है कि कौल सैंटर में काम कर के कैरियर बनाने के

विवाहित महिलाओं के संभावनाओं के नए

द्वार खुल गए हैं.

भारत में आज विदेशी कंपनियां कौल सैंटर खोल रही हैं. इस के पीछे मुख्य वजह बेरोजगारी और वहां के हिसाब से कम वेतन में लोग मिल जाते हैं. विवाहित महिलाओं के लिए जिस उन्मुकता के साथ कौल सैंटरों ने दरवाजे खोले हैं, वे सराहनीय कदम तो है ही, साथ ही इस से काम में भी वृद्धि होगी.

कौल सैंटर में जरूरत होती है ऐसे लोगों की जिनकी आवाज तो अच्छी हो, लेकिन इस के साथ ही वे ग्राहकों के साथ संवाद स्थापित करने में भी कुशल हों, धाराप्रवाह और स्पष्ट अंगरेजी, सही दृष्टिकोण व सीखने की अद्भुत क्षमता का समन्वय भी आवश्यक होता है. यह कैरियर जो अब तक युवाओं के लिए सीमित था, गृहिणियों के लिए भी खुल गया है. ऐसा इसलिए क्योंकि फ्लैक्सी टाइम होने की वजह से विवाहित महिलाएं अब कौल सैंटरों में काम करना पसंद करने लगी हैं.

अचानक कौल सैंटरों में गृहिणियों की

वृद्धि हुई है क्योंकि अब परिवार ज्यादा सुल  झे व खुले विचारों के हो गए हैं और रात को काम करना भी टैबू नहीं रहा है. अच्छा वेतन तथा पिक ऐंड ड्रौप की सुविधा ने काम करना आसान बना दिया है.

समस्याओं को सुलझाने की क्षमता

कौल सैंटर कंपनियां अब ऐसी औरतों को प्राथमिकता दे रही हैं जो परिपक्व व निष्ठावान हों, विवाहित महिलाएं परिपक्व होती हैं और

उन्हें निरंतर पारिवारिक दबावों से गुजरते रहना होता है. इस वजह से उन में घंटों के साथ समस्याओं को सुल  झाने की क्षमता अविवाहिताओं से बेहतर होती है.

कई लोगों का मानना है कि कौल सैंटर की नौकरी बहुत ही उबाऊ और बोरियत भरी होती है और इस में विकास के विकल्प कम होते हैं पर यह बात अब गलत साबित हो चुकी है. ऐसा इसलिए क्योंकि यह बहुत ही चुनौतीपूर्ण नौकरी होती है.

5-10 वर्ष पहले कौल सैंटर उद्योग बिलकुल शिशु अवस्था में था. कालेज से निकले फ्रैशर इस की ओर आकर्षित होते थे. पढ़ने के साथसाथ वे अपना कैरियर बनाने को भी इच्छुक रहते थे, पर चूंकि वह उन की शुरुआत होती थी इसलिए उस के प्रति गंभीर नहीं रहते थे. इस से कंपनियों को उन के चले जाने से फिर नए सिरे से नए लोगों को प्रशिक्षण देना पड़ता था.

विश्वास व दूरदृष्टि

हालांकि काबिलीयत इस बात पर निर्भर नहीं करती कि महिला विवाहित है या अविवाहित पर यह जरूर है कि विवाहित महिलाएं एक जगह टिक कर काम करना पसंद करती हैं. ज्यादातर युवा औफिस के माहौल में कालेज का वातावरण उत्पन्न करने की कोशिश करते हैं, पर विवाहित महिलाएं निष्ठा, विश्वास व एक दूरदृष्टि रखते हुए काम करती हैं.

उन के लिए नौकरी पार्टटाइम नहीं होती वरन घर चलाने के लिए जरूरत होती है. एक सही कैरियर के साथ वे इस का चुनाव करती हैं. अनुभवी होने के कारण काम के दबाव को आसानी से बरदाश्त कर लेती हैं.

घर में चकलाबेलन चलाने वाले हाथ, अब दिनरात तेजी से कंप्यूटर पर ऊंगलियां चलाते हैं. पति, सासससुर व बच्चों की शिकायतें और मांगें सुनने वाले कान अब हैडफोन लगा ग्राहकों के अंदर उत्पाद के प्रति विश्वसनीयता पैदा करते हैं. नतीजा उत्पाद की बेहतर बिक्री के रूप में सामने आता है. गृहिणियां विदेशी बाजार की मार्केटिंग क्षमता का विस्तार करने में जुट गई हैं. वे जानती हैं कि उन के पास अपार क्षमता है और विभिन्न आईटी कंपनियों ने उन की क्षमताओं को पहचान भी लिया है.

वर्क फ्रौम होम और नई मोबाइल टैक्नोलौजी के कारण अब डिस्टैंड कौल सैंटर भी चल सकते हैं जिन में घरेलू महिलाएं घर बैठे कंप्यूटर और फोन की सहायता से काम कर रही हैं. कोविड-19 का एक लाभ यह हुआ है कि लोगों को अब फेस टू फेस काम कराने की आदत कम होने लगी है और वे घर बैठे काम करना चाहते हैं. जूम मीटिंगों की तरह दसियों तरह के प्लेटफौर्म इन औरतों को ट्रेन भी कर सकते हैं.

TV एक्टर सिद्धांत वीर सूर्यवंशी का 46 साल की उम्र में निधन, वर्कआउट के दौरान आया हार्ट अटैक

एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री से आए दिन बुरी खबरें सामने आ रही हैं. जहां बीते दिनों भाभी जी घर पर हैं एक्टर का अचानक निधन हो गया था तो वहीं अब एक और पौपुलर टीवी एक्टर का कम उम्र में निधन हो गया है. दरअसल, खबरे हैं कि एक्टर सिद्धांत वीर सूर्यवंशी (Siddhaanth Vir Surryavanshi Died) का अचानक निधन हो गया है. आइए आपको बताते हैं पूरी खबर…

जिम में आया हार्ट अटैक

खबरों की मानें तो कसौटी जिंदगी फेम एक्टर सिद्धांत (Siddhaanth Vir Surryavanshi Passed Away) का जिम में वर्कआउट के दौरान निधन हो गया है. बताया जा रहा है कि 46 साल के एक्टर को हार्ट अटैक आया, जिसके बाद उन्हें अस्पताल ले जाया गया था. हालांकि डॉक्टरों ने करीब 45 मिनट तक उनका इलाज करने की कोशिश की. लेकिन आखिर में उन्हें बचा नहीं सके. खबर मिलने के बाद से फैंस हैरान हैं और सोशलमीडिया के जरिए उन्हें श्रद्धांजलि दे रहे हैं.

इन सीरियल्स में कर चुके हैं काम

सिद्धांत ने हाल ही में अपना नाम बदला था. लेकिन वह कई हिट टीवी सीरियल्स में काम करके घर-घर में अपनी पहचान बना चुके हैं. ‘सूफियाना इश्क मेरा’ कसौटी जिंदगी के जैसे शोज में काम कर चुके एक्टर सिद्धांत को आखिरी बार ‘क्यू रिश्तों में कट्टी बत्ती’ में देखा गया था. हालांकि वह सीरियल में नजर आने के अलावा सोशलमीडिया पर भी काफी एक्टिव रहते थे, जिसके चलते फैंस काफी हैरान हैं.

एक्ट्रेस सारिका के लिए क्या तकलीफदायक है? पढ़ें इंटरव्यू 

सारिका अपने समय की सबसे तरक्कीपसंद अभिनेत्रियों में रही हैं. उन्होंने कमल हासन के साथ करीब 16 साल बिताए. दोनों ने पहली बेटी श्रुति के जन्म के बाद साल 1988 में विवाह किया और उनकी दूसरी बेटी अक्षरा का जन्म वर्ष 1991 में हुआ, लेकिन 2004 में सारिका ने कमल हासन से अलग हो जाने का फैसला किया.

सारिका का बचपन कई समस्याओं से घिरा हुआ था, जब वह बहुत छोटी थी, तब उसके पिता ने परिवार छोड़ दिया था और इसलिए वह स्कूल नहीं जा पा रही थी, उसे परिवार का मुखिया और पैसा कमाने वाला सदस्य बनना था. यही वजह थी कि उन्होंने अपने अभिनय करियर की शुरुआत 4 साल की उम्र में एक बाल एक्ट्रेस के रूप में की थी.बाद में, उन्होंने राजश्री प्रोडक्शंस के साथ और प्रसिद्ध अभिनेता सचिन के साथ कई हिंदी और मराठी फिल्मों में अभिनय किया.जब वह करियर की ऊंचाई पर थी, तब उन्होंने शादी के बाद अभिनय करियर को छोड़कर अपने पति के साथ चेन्नई चली गईं

वर्ष 2000 में, उन्होंने फिल्म ‘हे राम’ के लिए सर्वश्रेष्ठ ड्रेस डिजाइन के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार और फिल्म परजानिया में उनके प्रदर्शन के लिए सर्वश्रेष्ठ एक्ट्रेस का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीता. सारिका की खूबसूरती और अभिनय ने हर निर्माता निर्देशक को उनका पसंदीदा बनाया था.

इतनी सफल एक्ट्रेस के निजी जीवन में कई उतार-चढ़ाव आये, लेकिन उन्होंने इसे हिम्मत  से सामना किया. कोविड और कुछ अच्छी प्रोजेक्ट हाथ न लग पाने की वजह से उन्हें कई साल तक इंतज़ार करना पड़ा, लॉकडाउन के समय उनके पास पैसे की तंगी होने की वजह से उन्होंने थिएटर में काम किया और अपना घर चलाया, वह एक खुद्दार और हंसमुख स्वभाव की है. अब उनकी फिल्म ‘ऊंचाई’ रिलीज पर है, जिसे राजश्री प्रोडक्शन ने बनाया है. ये फिल्म अत्यंत भावुक और एक गहरी दोस्ती को बयान करती है. एक बार फिर से राजश्री के साथ जुड़ना उनके लिये अच्छी बात है, उन्होंने गृहशोभा के लिए खास बात की, आइये जाने उनकी कहानी उनकी जुबानी.

जुड़ना होता है आसान

राजश्री प्रोडक्शन के साथ सालों बाद फिर से जुड़ना सारिका के लिए एक अच्छी बात रही, वह कहती है कि पहले जब मैं काम करती थी, तो हर प्रोडक्शन हाउस के साथ एक जुड़ाव रहता था,लेकिन राजश्री से जुड़ना एक अलग अनुभव रहा. निर्देशक सूरज बडजात्या का निर्देशन और एक अच्छी कहानी में भाग लेना मेरे लिए सबसे ख़ुशी की बात है. इसमें मैं माला त्रिवेदी, जो एक स्वतंत्र महिला की भूमिका निभा रही हूं, जो परिवार के साथ व्यवसाय करती है और एक खास पल में दोस्तों से जुडती है.

सही कहानी सही इमोशन

इतनी ऊंचाई पर जाकर इतनी ठण्ड में शूट करना सारिका के लिए आसान नहीं था. फिल्म की शूटिंग नेपाल में 13 हजार फीट की ऊंचाई पर शूट की गई है, जिसे करने में बहुत मजा आया. वह कहती है कि एक महीने का शिड्यूल था, जिसमे ऊपर-नीचे चलना, चलते-चलते काम करना, करीब 300 लोगों की यूनिट के साथ शारीरिक रूप से बहुत कठिन था, लेकिन दिल में ऐसा नहीं लगा कि जल्दी ख़त्म हो और घर जाएँ. ऐसी फीलिंग यहाँ नहीं आने की वजह मजे हुए कलाकार के साथ काम करना है, बदन थक जाता था, लेकिन इमोशन में कभी कमी नहीं आई.

नया काम नई चुनौती

सारिका आगे कहती है कि इतने सालों तक काम करने के बाद भी मुझे हमेशा नया कुछ करने की इच्छा रहती है. मैंने पहले जो काम किया है वो अब भूलकर हमेशा नया करने की इच्छा होती है. पुरानी चीजों को याद मैं कभी नहीं करना चाहती, क्योंकि इससे आप नए जेनरेशन के साथ जुड़ नहीं पाते, इसके लिए मुझे काम करते रहना है ताकि आज के नए बच्चे जाने, एक्ट्रेस सारिका भी एक अदाकारा है जो अच्छा अभिनय करती है और वही मेरी उपलब्धि है.

आजादी फिल्म मेकिंग में

इंडस्ट्री की परिवर्तन के बारें में एक्ट्रेस सारिका का कहना है कि परिवर्तन को देखे तो आज कहानी कहने का ढंग बहुत बदल गया है, अभी फिल्म मेकिंग में एक फ्रीडम आ गयी है, जो पहले नहीं था,स्ट्रक्चर में बदलाव आ गया है. फिल्म से लेकर वेबसीरीज, टीवी शो सभी में एक आज़ादी होने की वजह वर्ल्ड सिनेमा का एक्स्पोजर बहुत अधिक हो गया है. पहले कुछ निर्देशक बाहर जाकर विदेशी फिल्में फेस्टिवल में देखते थे, अब वो बात नहीं रही. वर्ल्ड सिनेमा से अब सभी परिचित है. फिल्ममेकर आज लगातार कोशिश कर रहे है कि अच्छी से अच्छी फिल्मे दर्शकों को दी जाय. समाज भी बहुत बदल चुका है. उसकी रिफ्लेक्शन भी फिल्मों में आती है. हालाँकि फिल्मे काल्पनिक होती है, लेकिन वह भी आसपास की सच्चाई से ही ली जाती है. उसकी क्रिएशन भी इन्ही के आधार पर की जाती है. इसके अलावा तकनीक का भी प्रयोग आज बहुत होने लगा है. क्रिएटिविटी बहुत बढ़ी है, सभी को एक ओपनिंग मिल गई है. सभी को अपनी हुनर दिखाने का चांस मिल रहा है. एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री की ये सबसे बेहतर समय है.

प्रतिभावान कलाकार को मिला मौका

पुराने और लीजेंड एक्टर अभी पहले से अधिक अच्छा काम कर पा रहे है, क्योंकि ओटीटी ने इन्हें कुछ अलग करने या जो भूमिका वे आज तक नहीं निभा पाए थे, उन्हें निभाने का मौका मिला है. पुराने दिनों को याद करती हुई सारिका कहती है कि शुरू में जब कलर टीवी आई थी, तब सभी दर्शकों को कुछ अच्छा देखने की इच्छा था, जिसमे गोविन्द निहलानी की तमस, सत्यजित रे की फिल्म आएगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ और टीवी किसी दूसरी दिशा में चला गया. ओटीटी आने के बाद बॉक्स ऑफिस कलेक्शन या थिएटर भरने का प्रेशर निर्माता,निर्देशक पर नहीं था. ऐसे में निर्माता, निर्देशक ने उन्ही कलाकारों को कास्ट किया, जो सही थे, दिल से काम निकला और बहुत सारें ऐसे कलाकार की कला बाहर निकली, जिन्हें कोई नहीं जानता था. अब सिनेमा की क्वालिटी में किसी भी प्रकार का कोई फर्क नहीं दिखता.

नए कलाकारों के साथ काम करना हुआ आसान

नए कलाकारों के साथ काम करने के अनुभव के बारें में पूछने परसारिका हंसती हुई कहती है कि नये कलाकार के साथ काम करना अच्छा होता है, क्योंकि नई चीजें सीखने के साथ- साथ उनका रेस्पेक्ट बहुत मिलता है, क्योंकि कई बार पुराने कलाकारों के साथ काम करना तकलीफदायक होता है. असल में सच्चे आर्टिस्ट के साथ काम करना चाहिए, वो मुझे अच्छा लगता है, सामने अगर आर्टिस्ट काम कर रहा हो, तो काम का नशा ही कुछ और होता है. मेरी ट्रेकअमिताभ बच्चन, अनुपम खेर और बोमन ईरानी के साथ है, मुझे बहुत मजा आया. मुझे हमेशा अपने को स्टार के साथ इंटरेक्ट करने में बहुत अच्छा लगता है. सीन ठक-ठककर एक के बाद एक आती रहती है, ऐसी अभिनय मुझे बहुत पसंद है. ये तीनों बहुत ही मजेदार है.

फिटनेस मंत्र

खूबसूरत सारिका की डेली रूटीन में दो अच्छे लोगों से मुलाकात करना चाहती है, जिससे उनका मन खुश रहे. खान-पान पर खास ध्यान रखने के अलावा नियमित फिटनेस रिजीम का पालन करती है. बच्चों की अच्छी परवरिश के बारें में सारिका बताती  है कि बच्चे जब छोटे होते है, उन्हें उनके संस्कारों और सीख दिया जाता है, लेकिन जब वे बड़े होते है, तो उनकी अपनी शख्सियत निकलने लगती है. ये हर व्यक्ति की अलग होती है और ये हमारे जैसा होनी भी नहीं चाहिए. अगर आज मेरी दोनों बेटियां, श्रुति हसन और अक्षरा हसन अच्छा काम कर रही है, तो उनका क्रेडिट है. मेहनत करती है, स्ट्रोंग है. आगे भी वे अच्छा करें यही मैं चाहती हूं.

बेटी पाखी को धक्के मारकर घर से निकालेगी Anupama, देखें वीडियो

सीरियल ‘अनुपमा’ (Anupama) की कहानी दिलचस्प मोड़ लेती नजर आ रही है. वहीं मेकर्स भी सीरियल में नए-नए ट्विस्ट लाने के लिए तैयार हैं. इसी बीच अनुपमा के रोल में नजर आने वाली एक्ट्रेस रुपाली गांगुली (Rupali Ganguly) ने शो से जुड़ा एक नया प्रोमो (Anupama New Promo) रिलीज कर दिया है, जिसमें वह पाखी को थप्पड़ मारती हुई नजर आ रही हैं. आइए आपको दिखाते हैं शो के अपकमिंग प्रोमो की झलक…

पाखी को पड़ा जोरदार तमाचा

 

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हाल ही में लीड एक्ट्रेस रुपाली गांगुली द्वारा रिलीज किए गए प्रोमो में ‘अनुपमा’ (Anupama) भरी महफिल में पाखी को घर से निकालती दिख रही है. दरअसल, प्रोमो में पाखी के संगीत सेरेमनी में हर कोई डांस करता हुआ दिख रहा है. इस बीच मेहमान और परिवार के सामने अनुपमा जोर से पाखी का नाम चिल्लाती है और उसे जोरदार तमाचा जड़ देती है. वहीं अनुपमा तमाचा मारने के बाद वह कहती है कि “तूने किसी रिश्ते का मोल नहीं रखा तो आज से कोई रिश्ता तेरा मोल नहीं रखेगा.” लेकिन पाखी कहती दिखती है कि आज मेरा संगीत था, पर अनुपमा जवाब देती हुई कहती है, “था, तू अब इस घर में नहीं रहेगी और ये अधिक भी नहीं. इसी के साथ वह अधिक और पाखी कपाड़िया हाउस से निकलते हुए नजर आ रहे हैं.

फैंस हुए खुश

‘अनुपमा’ (Anupama) का लेटेस्ट प्रोमो देखने के बाद रुपाली गांगुली के फैंस काफी खुश हैं. दरअसल, इन दिनों पाखी के बिहेवियर से अनुपमा फैंस काफी नाराज थे. वहीं शो में उसे सबक सिखाने की बात कह रहे थे. लेकिन शो का नया वीडियो देखने के बाद फैंस को राहत मिली है, जिसे वह पोस्ट के कमेंट में जाहिर करते दिख रहे हैं.

सीरियल में हुई वेदिका की एंट्री

 

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सीरियल के लेटेस्ट ट्रैक की बात करें तो पाखी के लालच का फायदा उठाकर बरखा, अनुपमा को परेशान करती दिख रही है. हालांकि हाल ही में अनुपमा की दोस्त वेदिका ने आकर बरखा की चालों को नाकाम करना शुरु कर दिया है, जिसके चलते फैंस काफी खुश हैं.

जहां पर सवेरा हो-भाग 1 : उसे क्यों छोड़ना पड़ा अपना ही देश

रमनड्राइंग रूम में बैठा लेनिन की पुस्तक ‘राज्य और क्रांति’ पढ़ रहा था. तभी दरवाजे पर आहट हुई. उस ने सोचा कि शायद कानों को धोखा हुआ हो. सुबह के टाइम कौन हो सकता है. कोई और्डर भी नहीं दिया था. सभी फ्लैट्स आपस में हलकी सी दीवार से जुड़े हुए थे. वह पढ़ने में ही मग्न रहा.

दोबारा आहट हुई. बिजली इन दिनों बहुत आंखमिचौली खेल रही थी, इसलिए डोर बेल नहीं बज रही थी.

‘‘रमन, देखो कौन है. मैं बाथ लेने जा रही हूं. बड़ी चिपचिप हो रही है. इस लाइट ने भी बहुत परेशान कर दिया है,’’ बालकनी से कपड़े ले कर बाथरूम की ओर जाती हुई जयश्री बोली.

रमन पहले दरवाजा खोल कर जाली के अंदर से ही पूछता है, ‘‘कौन?’’

गले में गमछामफलर लपेटे 2 लड़के जाली के दरवाजे में मुंह घुसाए खड़े थे. मुंह में पान या  गुटका होने का अंदेशा. बोलने के साथ ही महक आ रही थी और कभीकभी छींटे भी. रमन को इन चीजों से बड़ी नफरत थी. हर साल 31 मई को कालेज की ओर से तंबाकू के खिलाफ अभियान छेड़ा जाता था, जिस का प्रतिनिधित्व रमन और उस के दोस्त ही करते.

‘‘आप लोग?’’

‘‘ले साले, बता भी दे अब अपने जीजा को कि हम कौन हैं,’’ पहला दूसरे से बोला.

‘‘अबे पहले अपना नाम बता दे. पता चला कि बिना बात के कोई दूसरा पिट गया,’’ दूसरा थोड़ी बेशर्मी से बोला.

रमन जाली का दरवाजा खोल कर बाहर चला गया. आसपास रहने वाले लोगों को सचेत करने के इरादे से थोड़ा जोर से बोला. हालांकि सभी फ्लैट्स के दरवाजे अंदर से बंद थे. शहर की संस्कृति यही थी. सब को अपनी प्राइवेसी प्यारी. दूसरों के मसले में दखल देना अच्छा भी नहीं माना जाता.

‘‘भाई आप लोग कौन हैं? यहां क्यों

आए हैं?’’

‘‘कहां छिपा कर रखा है उसे?’’

तभी जयश्री भी नहा कर बाहर आ गई.

‘‘रमन कहां हो? कौन आया है?’’ कहते हुए वह दरवाजे तक पहुंची.

‘‘जयश्री, तुम अंदर ही रुको. मैं अभी

आता हूं.’’

बाहर आए दोनों लोग जयश्री को देख भी लेते हैं और नाम से भी पहचान लेते हैं.

‘‘बस यार, अब कुछ नहीं पूछना. कन्फर्म है,’’ उन में से एक ने कहा.

फिर रमन की ओर देखते हुए बोले, ‘‘ठीक है फिर मिलते हैं.’’

रमन ने उन से आने का मकसद पूछना

चाहा पर वे कुछ नहीं बोले. रमन अंदर आ गया. वह थोड़ा परेशान सा लगा. सम झ नहीं पा रहा था कि ये कौन लोग थे और इस तरह धमकी देने

का क्या मकसद था. उसे जयश्री की चिंता भी सताने लगी.

‘‘रमन कौन थे ये लोग? कुछ तो बताओ?’’

‘‘अरे, मैं कुछ नहीं जानता. उन्होंने अपने बारे में कुछ भी नहीं बताया, न मेरे बारे में कुछ पूछा. हां, तुम्हें देख कर पूरी तरह कन्फर्म हो गया जरूर कहा और दोबारा आने की बात कही है.’’

शाम को मार्केट जाते समय उस ने सोसाइटी के एकमात्र गार्ड से इस बात को लेकर एतराज़ भी जताया कि बिना फोन किए किसी को भी ऊपर आने की अनुमति न दी जाए. लेकिन यह एक खुली सोसाइटी थी. लोगों ने मिलजुल कर एक गार्ड रखा था. वह काफी समय से पैसे बढ़ाने की मांग पर अड़ा हुआ था. मांग पूरी ना होने पर अकसर गायब रहता.

उस दिन सबकुछ सामान्य रहा. अगले दिन शाम को 3-4 नवयुवकों ने सोसाइटी में प्रवेश किया. उन्हें गेट के पास गार्ड मिला पर उसे अपनी बातों की चाशनी में लपेट लिया. बातों से जब वह काबू में नहीं आया तो उसे शराब औफर की. गार्ड को भला और क्या चाहिए था. उस ने उन्हें ऐंट्री दे दी और खुद गायब हो गया.

फ्लैट नंबर 2027 पर डोर बेल बजी. जयश्री दरवाजे पर पहुंची. पीप होल से बाहर

देख कर थोड़ा घबरा गई.

‘‘रमन, दरवाजे पर दस्तक हो रही है. देखो तो कुछ लोग खड़े हैं.’’

‘‘फिर से?’’ शायद रमन भी थोड़ा घबरा गया.

दरवाजे पर जा कर पूरी ताकत से चिल्लाया, ‘‘कौन हैं आप लोग? क्यों परेशान कर रहे हैं हमें?’’

‘‘दरवाजा खोलो.’’

रमन दरवाजा खोल घर बाहर चला गया.

‘‘क्या नाम है तेरा और यह जो लड़की साथ में रहती है कौन है?’’

‘‘रमन कुमार नाम है मेरा और यह मेरी मित्र है.’’

तभी रमन ने एक जोर का मुक्का अपनी छाती पर महसूस किया.

‘‘मित्र है… मित्रता का मतलब पता है तु झे? बड़ा आया लड़की को मित्र बताने वाला. अपनी जातऔकात पता है तु झे?’’

बाहर बहस बढ़ती जा रही थी और अंदर जयश्री बड़ी दुविधा और घबराहट महसूस कर रही थी. उस के एक हाथ में फोन था. वह कभी पुलिस का हैल्पलाइन नंबर सलैक्ट करती? फिर बैक कर देती. कैरियर बनाने के दिन हैं. अगर किसी कानूनी पचड़े में फंस गए तो म झधार में रहने वाली बात हो जाएगी. वह बाहर जाना चाहती थी, लेकिन रमन ने उसे इशारे से अंदर ही रहने को कहा.

रमन को 2-4 घूंसे और जड़ कर वे लोग धमकी देते हुए चले गए. जातेजाते उसे जातिसूचक शब्दों से भी संबोधित करते गए. रमन खुद को संभालता हुआ अंदर आ गया.

जयश्री ने उसे सहारा दे कर बैठाया.

‘‘कौन हो सकते हैं रमन ये लोग? तुम कहो तो मैं पुलिस में शिकायत करूं?’’

फिर सहसा उसे रमन की चोट का ध्यान आ गया, ‘‘तुम्हें ज्यादा चोट तो नहीं लगी? डाक्टर के पास चलें?’’

‘‘नहीं मैं ठीक हूं.’’

जयश्री ने घबरा कर दरवाजा अच्छी तरह बंद कर दिया. यहां तक कि पीप होल में भी एक टेप चिपका देती है. फिर रमन से बैडरूम में चलने का आग्रह किया. बाहर के कमरे में अब उसे डर सताने लगा था. फिर बैडरूम की बालकनी में जा कर देखा तो 3-4 लोग गेट के पास खड़े दिखाई दिए और गेटकीपर से हंसहंस कर बातें कर रहे थे. उस ने सारे परदे अच्छी तरह लगा दिए. अब उस का खाना बनाने का बिलकुल भी मन नहीं हो रहा था.

‘‘रमन क्या खाओगे? बाहर से और्डर कर रही हूं.’’

‘‘कुछ भी मंगा लो. कोई खास चौइस नहीं.’’

‘‘तो घर में ही रखा कुछ रैडीमेड खा लेते हैं? और्डर वाले को बुलाने में भी डर लग रहा है.’’

छाती पर लातघूंसे पड़ने से चोट तो रमन को जरूर लगी थी पर वह जयश्री का मन रखने के लिए खुद को ठीक बताने की कोशिश कर रहा था. अपमान की जो मार पड़ी थी उस ने तन से ज्यादा मन को आहत किया था.

जयश्री भी रातभर सोचती रही कि ये आतंक फैलाने वाले लोग कौन होंगे और इन्हें इन से क्या शिकायत होगी? बिलकुल अप्रत्याशित घटना थी यह. कालेज के दौरान भी किसी से उन का कोई  झगड़ा नहीं था.

जहां पर सवेरा हो-भाग 3 : उसे क्यों छोड़ना पड़ा अपना ही देश

दोनों ही यंत्रणा और दुख  झेल रहे थे. कभी विद्रोही तो कभी हताश हो उठते. जीवन

के कुरूप यथार्थ का सामना कर रहे थे दोनों. कुछ दिन पहले वाली घटना से भी वे बहुत डर गए थे.

‘‘यहां रहना खतरे से खाली नहीं. कहीं और बसते हैं.’’

‘‘दूसरा ठिकाना ढूंढ़ लेंगे, लेकिन अभी कुछ दिन तो यहीं रहना होगा. महीनेभर का किराया दिया है. फिर फ्लैट खाली करने से पहले 1 महीने का नोटिस भी जरूरी है.’’

‘‘जयश्री ऐसे में किराए की फिक्र नहीं की जाती. हमें तुरंत नया ठिकाना ढूंढ़ना होगा.’’

मानवतावादी दृष्टिकोण के अभाव में मुख्यधारा से अलग किया तबका कितना दुख  झेलता है. यह फ्लैट उन के लिए कई मामलों में एक सुरक्षित स्थान था. हजारों, लाखों फ्लैट के मालिक खुद वहां नहीं रहते और जातिधर्म के नाम पर किराएदारों की तहकीकात भी नहीं करते. उन्हें तो बस पैसा चाहिए और अपना घर सलामत. लेकिन रातदिन गुंडों के साए में जीना मुश्किल था. क्या पता फिर कभी आ धमकें… इसलिए औनलाइन घर की तलाश शुरू हो गई.

कुछ ही दिनों में दोनों ने फिर घर बदल लिया. इस बार सोसाइटी में न जा कर आबादी वाले एरिया में किसी घर में खाली सिंगल रूम सैट को अपना ठिकाना बनाया. वैरिफिकेशन, एडवांस पेमैंट और सिक्यूरिटी की सारी औपचारिकताएं और शर्तें एजेंट के माध्यम से पूरी हो गईं.

रमन सोचता कि एक ओर उस के पास रखी पुस्तकों में मार्क्स, लेनिन, गांधी, सुकरात जैसे नाम हैं, उन की समानतावादी नीति है, दूसरी तरफ अमानवतावादी दृष्टिकोण. वह नफरत करे तो किस से… क्या ये किताबें  झूठी हैं या समाज ने इन्हें पढ़ा नहीं और अगर पढ़ा तो गुना क्यों नहीं? यह सोचतेसोचते देर रात उस की आंख लग गई.

अगली सुबह उसे एक नई कंपनी में जौइन करना था. जयश्री की आवाज से उस की नींद टूटी, ‘‘रमन उठो, औफिस जाना है. पहले दिन एक सैकंड भी लेट नहीं चलेगा.’’

कुछ दिनों तक जिंदगी ठीकठाक चली. रमन का औफिस भी बढि़या चल रहा था. जयश्री हायर स्टडी के लिए ऐग्जाम की तैयारी कर रही थी. इसी बीच मालकिन को सम झ में आ गया कि ये लोग लिव इन में रहते हैं और युवक दलित वर्ग से है. फिर क्या था. उस ने भी फिकरे कसने शुरू कर दिए.

रमन तो किसी तरह खुद को संभाल लेता पर जयश्री बहुत विचलित हो जाती. उदासी में दिन काट रहे थे. रमन अकसर कहता कि उस के वर्तमान के लिए इतिहास जिम्मेदार है.

तभी अचानक दिन मेहरबान हुए. रमन को माइक्रोसौफ्ट

कंपनी से ही जौब का औफर आ गया. उसे वाशिंगटन जाना था. दोनों के वीरान चेहरों पर मुसकराहट खिल उठी.

देश और क्रांति में से जब एक को चुनने की नौबत आई तो उन्होंने पलायन और क्रांति को चुना. अपनी संस्कृति और मातृभूमि को अपनाने पर अपने प्रेम की बलि देनी होती जो उन्हें कदापि मंजूर नहीं था और संस्कृति की रक्षा तो विदेश में रह कर भी की जा सकती है. फिर जो सभ्यता जिंदगी की गारंटी ना दे पाए, उस के संरक्षण की भला युवा कैसे सोच सकते हैं? कुछ ही समय पहले डेढ़ लाख डालर का औफर ठुकराने वाला युवा अब खुशीखुशी विदेश जाना चाहता था.

उसे लेनिन का कथन याद आया, ‘‘कल बहुत जल्दी होता और कल बहुत देर हो चुकी होगी, समय है आज.’’

जयश्री को साथ ले जाने के लिए शादी करना जरूरी था. आननफानन ने दोनों ने दोनों ने कोर्ट में शादी कर ली. कुछ समय बाद रमन यूएसए के लिए रवाना हो गया पर जयश्री को जाने के लिए कुछ औपचारिकताएं पूरी करनी थीं. कुछ समय बाद उस ने भी अप्लाई कर दिया. लगभग 6 महीने बाद उसे भी प्लेसमैंट मिल गया.

जयश्री ने रमन को खुशखबरी सुनाने के लिए वीडियोकौल पर उस ने नहीं उठाया. जयश्री को बहुत चिंता होने लगी. तभी कुछ देर बाद रमन ने उसे कौल किया.

‘‘सौरी डियर, नींद आ गई थी. बायोलौजिकल क्लौक सैट होने में अभी समय लगेगा.’’

मुसकरा कर बोली, ‘‘तुम्हें व्हाट्सएप मैसेज किया है. देखो.’’

‘‘वाह जयश्री, मुबारक. अब जल्दी से मेरे पास आ जाओ.’’

जयश्री मुसकरा दी. आज उस की निर्भीक मुसकान देख कर रमन को विदेश बसने के फैसले पर गर्व हो रहा था. एक और प्रतिभा देश छोड़ कर जाने वाली थी. वीजा तैयार था. वह दूसरी औपचारिकताएं पूरी करने की तैयारी में लगी थी. भारत की प्रतिभा अमेरिका में अपना जलवा दिखाने जा रही थी. हमें तो ब्रेनड्रेन की आदत है. रूढि़यां बची रहें,  ढकोसले बचे रहें. एकता और समानता की बात कर रहे संविधान के शब्द भी अपनी सार्थकता खोते दिखाई दे रहे थे.

जयश्री दिल्ली के अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डे पर अपनी फ्लाइट का इंतजार कर रही थी. पुराने दिनों की यादें उस के स्मृतिपटल पर लगातार हथौड़े सरीखे वार कर रही थीं. उसे याद आ रहा था कि आईआईटी दिल्ली में चयन होने पर जब एक पत्रकार ने भविष्य को ले कर सवाल किया था तो इंटरव्यू में उस ने कहा था कि अपने देश के लिए काम करूंगी. तकनीकी के क्षेत्र में अपने देश को अमेरिका और दूसरे पश्चिमी देशों से आगे ले जाने का सपना है मेरा. फ्लाइट तैयार थी. जयश्री खिड़की से बाहर देखा और फिर अनमने से भाव ले कर उड़ गई अपने सपनों का आसमान पाने के लिए.

जहां पर सवेरा हो- भाग 2 : उसे क्यों छोड़ना पड़ा अपना ही देश

पढ़ाई के अलावा उन दोनों को कुछ और सू झता ही कहां था. हां, उन के प्रेम प्रसंग पर कालेज के कुछ लड़केलड़कियां चुटकियां जरूर लेते. कभी वह सोचती कि ये कालेज में उन के सीनियर तो नहीं थे. पर रमन ने सीनियर्स के होने की संभावना से इनकार कर दिया.

तभी जयश्री को ध्यान आया कि उस के घर और गांव में भी इस अंतरजातीय  प्यार का बहुत विरोध हुआ था.कही उस के गांव के लोग तो नहीं? मगर उन के पास दिल्ली का पता कहां से आएगा? वह सोचविचार में मग्न थी. तभी उसे याद आया कि एक बार पासपोर्ट के लिए अप्लाई करने पर उस के कुछ जरूरी कागजात वैरिफिकेशन के लिए गांव गए थे. इस के लिए उस ने अपना दिल्ली का पता दिया था.

जयश्री का शक यकीन में बदलने लगाऔर शक की सूई दिल्ली में रहने वाले अपने पड़ोसी गांव के सुनील की ओर घूम गई. इस से पहले भी जब वह गांव गई थी तो कितना अपमान सहना पड़ा था उसे. न जाने कैसे गांव के लोगों को खबर लग गई कि वह अपने सहपाठी के प्रेम में पड़ गई है. प्रेमी के बारे में पूछताछ हुई. लड़का दलित जाति का है, यह पता लगने पर तो मां बाप और भाइयों ने उसे बहुत ताने सुनाए. दरअसल, पास के गांव का ही एक लड़का दिल्ली में रह कर नौकरी कर रहा था और एक बार जयश्री के मातापिता ने उस के लिए गांव से कुछ सामान भेजा, वहीं से उसे इस बात की खबर लग गई थी. गांव में तो इस तरह की बातें आग की तरह फैलती हैं. मांबाप तो पढ़ाईलिखाई छुड़ाने को ही आमादा थे. वह तो उस ने किसी तरह गिड़गिड़ा कर उन से विनती करी तो चेतावनी दे कर छोड़ दिया गया.

उत्तराखंड का सुदूर पर्वतीय अंचल. सामाजिक बंधन बहुत कड़े थे. मान्यताओं, परिपाटियों को वर्षों से बिना किसी बदलाव के और तार्किक विचार के निभाया जाना हमेशा से ग्रामीण अंचल की विशेषता रही है. इस गांव में सिर्फ ब्राह्मण परिवार ही रहते थे. पंडितजी की बेटी जयश्री बहुत मेधावी थी. 8वीं कक्षा में एकीकृत परीक्षा में उत्तीर्ण करने पर शहर के स्कूल में एडमिशन मिल गया. कुछ दिन दुविधा के  झूले में  झूलने के बाद पिता और अन्य परिवार वाले उस भेजने पर सहमत हो गए.

गांव में सुखसुविधाओं का अभाव था, लेकिन शहर पहुंच कर जयश्री को खुला आकाश मिल गया. मेधावी तो वह थी ही, उस की योग्यता को पहचान कर फिजिक्स के शिक्षक ने उसे आगे चल कर जेईई परीक्षा की तैयारी करने की प्रेरणा दी, साथ में परीक्षा के बारे में जानकारी भी दी. उन दिनों हौस्टल में रहने वाले बच्चों के लिए स्कूल के बाद ऐक्स्ट्रा क्लासेज भी होती थीं, जिस में उन्हें प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए पढ़ाया जाता था.

आईआईटी परीक्षा पास करना जयश्री ने अपना लक्ष्य बना लिया था. खूब मेहनत की थी उस ने और देखते ही देखते परिणाम वाला दिन भी आ गया. मैंस और एडवांस दोनों ही परीक्षाओं में उस ने बेहतरीन प्रदर्शन किया था. आखिरकार उस ने जेईई एडवांस के माध्यम से आईआईटी में होने वाले दाखिले को ही चुना.

जयश्री की खुशी का तब कोई ठिकाना न रहा जब उसे आईआईटी दिल्ली में इलेक्ट्रौनिक्स ऐंड कम्युनिकेशन ब्रांच मिली. गांव की वह पहली बेटी थी जो आईआईटी में पढ़ने जा रही थी. इस से कई वर्षों पहले पड़ोस के गांव के मात्र एक लड़के ने आईआईटी की परीक्षा पास की थी. गांव में खुशी का माहौल था. अधिकतर ग्रामीण आईआईटी संस्थान के बारे में कुछ नहीं जानते थे. बस इतना पता था कि पंडितजी की बेटी किसी बड़ी परीक्षा में पास हो गई है और 4 साल बाद बड़ी इंजीनियर बनेगी. स्कूल से अपनी मार्कशीट और ट्रांसफर सर्टिफिकेट ले कर वह जरूरी सामान लेने अपने गांव गई और कुछ समय बाद बड़े भाई के साथ काउंसलिंग के लिए रवाना हो गई.

 

जयश्री को गर्ल्स हौस्टल में कमरा भी मिल गया. दीपक बड़े भाई होने का फर्ज निभाते हुए उसे कुछ जरूरी निर्देश देने के बाद गांव लौट गया.कुछ दिनों में कालेज में पढ़ाई भी शुरू हो गई. जयश्री का परिवार इस बात को लेकर निश्चिंत था कि लड़की का भविष्य सुरक्षित हो गया. फिर भी परिवार वाले डरते और उस से सिर्फ पढ़ाई और पढ़ाई में ही ध्यान देने की सलाह बारबार देते.

 

कालेज में पढ़ने वाली एक जवान लड़की जहां साथ में बहुत सारे लड़के भी हों, ऐसा कैसे संभव हो सकता कि वह सिर्फ पढ़ाई पर ही ध्यान देती? इंट्रोडक्शन वाले दिन उस की जानपहचान कंप्यूटर साइंस के छात्र रमन से हुई. आईआईटी दिल्ली में कंप्यूटर साइंस मिलना गौरव की बात थी. बातों ही बातों में जयश्री को पता चला कि रमन को तो आईआईटी मद्रास में कंप्यूटर साइंस मिल रही थी परंतु उस के मातापिता के लिए उतनी दूर भेजना संभव नहीं था. गाजियाबाद के पास ही किसी गांव में उस का घर था, इसलिए उसे दिल्ली में एडमिशन लेने के लिए राजी करा लिया गया.

गाजियाबाद के पास एक गांव जहां पर अधिकतर दलित परिवार रहते थे, पक्के मकान बहुत कम थे. छपरों में गुजारा होता था. लोगों की धर्म में भी बहुत अधिक आस्था नहीं थी क्योंकि जिस धर्म में जीने की आज़ादी मिल जाए उसी का अनुसरण कर लेते थे. अंधाधुंध फ्लैट्स के निर्माण की वजह से खेती तो अब बची नहीं थी. यहां के मर्द कोई भी छोटामोटा काम पकड़ लेते और महिलाएं सोसाइटी में जा कर लोगों के घरों में काम करतीं क्योंकि वहां पर रहने वाले युवावर्ग को इन की बहुत जरूरत थी और जातिपाती पर भी उन का कोई विश्वास नहीं था.

इसी गांव से निकला था गुदड़ी का लाल रमन. चिथड़ो में पलाबढ़ा पर ठान लिया था कि जिस आईटी इंजीनियर के घर उस की मां  झाड़ूपोंछा, बरतन करने जाती है, उसी के बराबर बनूंगा और जब लगन लग जाए तो मंजिल पाने से कौन रोक सकता है… सरल स्वभाव का यह मेधावी छात्र जयश्री के मन को भा गया. समय के साथसाथ ये जानपहचान अच्छी दोस्ती में बदल गई और पता भी न चला कि कब प्यार में. तभी जयश्री को पता चला कि रमन दलित परिवार से है और उस का परिवार आर्थिक मामले में भी काफी पिछड़ा हुआ. लेकिन प्यार ये सब कहां देखता है? आखिर प्यार है कोई व्यापार नहीं. हां, कभीकभी घरपरिवार का डर उसे सताना कि कभी तो बताना ही पड़ेगा. कैसे बता पाएगी… जैसे कई सवाल उस के मन को परेशान करने लगे.

एक कट्टरवादी ब्राह्मण परिवार दलित लड़के को अपने दामाद के रूप में स्वीकार कर पाएगा यह कहना मुश्किल था. लेकिन उसे यह भी डर था कि अगर इन सब बातों में उल झी रहेगी तो वह अपने लक्ष्य से भटक जाएगी. लक्ष्य यही था कि अच्छे सीजीपीए से बैचलर डिगरी मिले और आगे की राह आसान हो जाए.

थर्ड ईयर के आखिरी सेमैस्टर में रमन को माइक्रोसौफ्ट कंपनी से इंटर्नशिप का औफर मिला और वह यूएसए चला गया. जय श्री समर वैकेशन में बैंगलुरु जा कर इंटर्नशिप करने लगी. दोनों का ही आगे पढ़ने का विचार था. इस दौरान कुछ समय नौकरी कर पैसा बचा लेना चाहते थे क्योंकि घर वालों से और उम्मीद करना उचित नहीं था. 4 साल तो होस्टल में कट गए थे. आगे रहने का इंतजाम खुद ही करना था. दोनों यह फ्लैट ले कर रहने लगे और जयश्री के गांव के गुंडे यहां भी पहुंच गए.

लिवइन में रहने का फैसला यों ही नहीं ले लिया. आर्थिक पहलू तो था ही. अपना बचाव भी जरूरी था क्योंकि कालेज में भी कई तथाकथित रसूखदार छात्रछात्राएं उन के प्रेम का मखौल बनाते. विदेशी कंपनियों से रमन के लिए औफर आना उन्हें फूटी आंखें नहीं सुहाता.

इसी बीच रमन को डेढ़ लाख डालर का औफर विदेशी कंपनी से मिला पर उसे धुन थी अपने परिवार के साथ रहने की, अपने देश के लिए कुछ करने की. वह नहीं गया. इस पर भी कुछ साथी छात्र उसे आरक्षण की बैसाखी का तंज कसते, कभी प्रोफैसरों की कृपा का पात्र होने का. जबकि सचाई यह थी कि उस ने आरक्षण लेने के बावजूद बहुत मेहनत की थी और अपने संबंधित प्रोफैसरों के साथ भी वह कुछ न कुछ नया सीखने के लिए ही जीजान से लगा रहता. प्रोजैक्ट के नाम पर प्रोफैसरों के पास विदेशी कंपनियों से काफी  आर्थिक सहायता आती, जिस का वितरण प्रोजैक्ट में काम करने वाले छात्रों खासकर रिसर्च स्टूडैंट्स के बीच में होता. इन के साथ रमन को भी छोटीछोटी आर्थिक सहायता हो जाती तो उस का खर्च चलाना आसान हो जाता.

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