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बेटी को बहू बनाकर कपाड़िया हाउस ले जाएगी Anupama, बरखा का बढ़ेगा पारा

Anupama Written Update In Hindi: रुपाली गांगुली (Rupali Ganguly) स्टारर सीरियल ‘अनुपमा’ (Anupama) में इन दिनों दीवाली सेलिब्रेशन में पाखी की शादी के कारण बवाल मचता दिख रहा है. जहां एक तरफ बेटी पाखी की करतूत ने वनराज का सिर झुका दिया है तो वहीं अब बरखा का गुस्सा भी पाखी और अधिक पर बरसने वाला है. आइए आपको बताते हैं क्या होगा शो में आगे…

पाखी पर बरसा वनराज

अब तक आपने देखा कि बेटी के धोखे से टूटा वनराज गुस्से में पाखी और अधिक को शाह हाउस से बाहर कर देता है. हालांकि अनुपमा और पूरी फैमिली उसे समझाने की कोशिश करते हैं. लेकिन वह नहीं मानता. वहीं पाखी सोचने लगती है कि क्या उसने जल्दबाजी में गलत फैसला तो नहीं ले लिया.

पाखी को कपाड़िया हाउस ले जाएगी अनुपमा

अपकमिंग एपिसोड में आप देखेंगे कि वनराज को अनुज समझाने और पाखी-अधिक को माफ करने की सलाह देगा. लेकिन वनराज उससे कहेगा कि वह पहले उसे अपने बच्चों का बाप नहीं बनने देना चाहता था. पर अब वह पाखी का पिता बन सकता है. दूसरी तरफ बापूजी, अनुज को पाखी और अधिक को कपाड़िया हाउस ले जाने की विनती करेंगे, जिसके चलते ना चाहते हुए भी अनुपमा, पाखी और अधिक को कपाड़िया हाउस ले जाने के लिए राजी हो जाएगी.

बरखा का बढेगा पारा

 

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इसके अलावा ‘अनुपमा’ (Anupama) के अपकमिंग एपिसोड में आप देखेंगे कि पाखी और अधिक कपाड़िया हाउस पहुंचेगे, जिसके चलते बरखा का गुस्सा बढ़ जाएगा और वह घर का सामान इधर-उधर फेंकने लगेगी. इसी के साथ वह पाखी और अधिक की शादी के एक साल भी ना होने की चेतावनी देती दिखेगी तो वहीं अनुपमा, अनुज को दोनों की जिम्मेदारी देते हुए कहेगी कि इन्हें संभालने की बात बापूजी ने उसे कही है. हालांकि देखना होगा कि अपकमिंग एपिसोड में शाह और कपाड़िया फैमिली के बीच कौनसा नया ड्रामा होगा.

संपेरन- भाग 3: क्या था विधवा शासिका यशोवती का वार

‘‘मैं ने आप को यहां आने का कष्ट इसलिए दिया जिस से अपने विधवापन का दंड मैं आप के मुख से ही सुन लूं. अपराधी आप के सम्मुख बैठा है न्यायाधीश महोदय, उस का दंड उसे सुना दीजिए.’’

‘‘राजमहिषी, मुझे लज्जित मत कीजिए. मैं आप से क्षमा चाहता हूं कि आप से एक बार भी भेंट किए बिना केवल सामाजिक व धार्मिक आधार पर मैं ने आप के विरुद्ध विषवमन किया.’’

‘‘पुरोहितजी, मैं तो आप के मुख से वही सब कुछ सुनना चाहती हूं जो अप्रत्यक्ष रूप से आप मुझे सुनाते आ रहे हैं. वही गालियां, अपशब्द, कटुवचन आदि.’’

कहतेकहते यशोवती ने पास में पड़ा घूंघट अपने मुख पर लपेट कर केवल अपने नेत्र खुले रहने दिए.

‘‘ओह,’’ चौंक कर कपिल बोला, ‘‘तो आप प्रतिदिन मेरे  प्रवचनों में देवालय में उपस्थित होती रही हैं? धिक्कार है मुझे कि मैं आप को पहचान भी नहीं पाया.’’

‘‘सचमुच आप का ज्ञान अपरिमित है. आप की कूटनीतिक बातों में गांभीर्य है. आप की नीतिज्ञता की मैं पुजारिन हूं. इसीलिए तो मैं आप से विवाह रचाना चाहती हूं.’’

‘‘जी…?’’ कपिल को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ.

‘‘जी, हां…आप को मेरे वैधव्य और नारी होने से ही तो चिढ़ है? आप ही मेरे वैधव्य को मिटा सकते हैं. और मेरे पति के रूप में कश्यपपुर की गद्दी पर भी बैठ सकते हैं. मेरे इन हाथों, पैरों, माथे व मांग का सूनापन केवल आप ही दूर कर सकते हैं. कहिए, आप को मेरा प्रस्ताव स्वीकार है?’’

कपिल को अपनी कूटनीतिज्ञता व राजनीतिक उपदेशों की होली जलती प्रतीत हुई. यशोवती ने सचमुच उस के गले में स्वादिष्ठ कबाब के साथ हड्डी अटका दी थी. न उसे निगलते बन रहा था, न उगलते.

‘‘आप मौन क्यों हैं? क्या आप मुझे अपने योग्य नहीं समझते हैं?’’ यशोवती ने मानो नहले पर दहला जड़ दिया.

‘‘नहीं, महादेवी, आप से विवाह रचाने वाला तो अपने जीवन को सफल ही मानेगा…पर मैं सोच रहा था कि…’’

‘‘विधवा से कैसे विवाह रचाया जाए, यही न?’’ यशोवती उसे बिना संभलने का अवसर दिए लगातार वार पर वार कर रही थी, ‘‘विधवा विवाह तो हमारे कश्मीरी समाज में पहले से होते रहे हैं. स्वयं आप को अपने धर्मग्रंथों में सहस्रों उदाहरण मिल जाएंगे.’’

‘‘मैं तो सोच रहा हूं कि आप से विवाह रचा कर क्या मेरी कूटनीतिक पराजय नहीं हो जाएगी?’’ कपिल का स्वर पश्चात्तापपूर्ण था.

‘‘ओह, तो आप को यह चिंता है कि लोग क्या कहेंगे? तो ठीक है आप यहीं राजमहलों में रहिए. मैं घोषणा करा देती हूं कि आप कश्यपपुर छोड़ कर कहीं चले गए हैं.’’

‘‘महादेवी, तब तो मेरी स्थिति उस कुत्ते जैसी हो जाएगी जो न घर का रहा, न घाट का. आप मुझे कुछ सोचने का अवसर दीजिए.’’

‘‘जैसी आप की इच्छा. आज से ठीक चौथे दिन अर्थात विधिवत राज्यारोहण से एक दिन पूर्व तक मैं आप के निर्णय की प्रतीक्षा करूंगी.’’

‘‘जी,’’ मन ही मन मुक्ति की संभावना से वह प्रसन्न हो उठा, ‘मूर्खा कहीं की, मुझ से टक्कर लेने चली है? यहां से बाहर निकल कर इसे ऐसा बदनाम कर डालूंगा कि जिंदगी भर नहीं भूलेगी.’

‘‘एक बात और. यदि विवाह कर आप मुझे कहीं अन्यत्र ले जाना चाहें तो मैं उस के लिए भी सहर्ष तैयार हूं. मेरा लक्ष्य राज्य सिंहासन प्राप्त करना नहीं, केवल आप के प्रेम में पगे रहना है. आप की बौद्धिक श्रेष्ठता ने मुझे अत्यधिक प्रभावित कर दिया है, इसलिए यह राज्य, इस से प्राप्त सम्मान, सब गौण हैं. आप को प्राप्त करने के लिए मैं सब को लात मार सकती हूं.’’

‘‘ओह, राजमहिषी, आप को प्राप्त कर मैं वास्तव में गौरव का अनुभव करूंगा,’’ कहतेकहते वह सहसा मौन हो गया. उस ने एक भरपूर दृष्टि यशोवती पर डाली. वैधव्य का सूनापन उस के मुख पर अंकित होते हुए भी यशोवती में एक अनोखी तेजस्विता, एक गर्वीला मान था. उस के सांचे में ढले मुख पर ओस में भीगे गुलाब की पंखडि़यों जैसी ताजगी थी.

उस की काली भौंहों, लंबी, काली व भारी केशराशि के अतिरिक्त उस के अधरों व गालों पर किसी चित्रकार की तूलिका से निर्मित स्वाभाविक लालिमा थी. अपने उन्नत यौवन व दूधिया तन के कारण वह बैठी हुई कोई जीवित प्रतिमा प्रतीत हो रही थी.

कपिल को विश्वास ही नहीं हुआ कि कोई युवती इतनी सुंदर भी हो सकती है, जबकि कश्मीर में एक से एक सुंदर युवतियां उस के संपर्क में आ चुकी थीं. उसे अपना निर्णय परिवर्तित करना पड़ा. उस का मन कह उठा, ‘नहीं…नहीं, वह इस सरल व भोली युवती को कभी धोखा नहीं दे सकता.’

‘‘अद्भुत, अवर्णनीय.’’

‘‘ऐं, क्या बोल रहे हैं आप?’’ मधुर स्मिति बिखेरते हुए यशोवती ने प्रश्न किया.

‘‘महादेवी, आप सचमुच किसी कवि की कविता जैसी निर्मल व पवित्र हैं. वास्तव में मुझे आप का प्रस्ताव स्वीकार है. यदि पहले ही मैं आप के संपर्क में आ जाता तो यह आंदोलन कभी  प्रारंभ न करता.’’

‘‘सोच लीजिए, अपने निर्णय पर कहीं आप को पश्चात्ताप न करना पड़े.’’

‘‘जी, नहीं. मैं ने यह अभियान प्रारंभ किया था अपने अस्तित्व को बचाने व अपने प्रभाव को अक्षुण्ण रखने के लिए. अब आप देखिएगा कि राजनीति का यह पंडित किस प्रकार आप को जनसहयोग दिलाता है.’’

‘‘क्षमा कीजिए, पुरोहितजी, पुरुषों पर मुझे तनिक भी विश्वास नहीं रह गया है. इस क्षण एक निर्णय ले कर दूसरे ही क्षण वे दूसरी विरोधी बात स्वीकार कर सकते हैं. आप तो मुझे लिख दीजिए कि आप मुझ से विवाह के लिए सहमत हैं तथा मेरे विरुद्ध प्रारंभ अभियान को आप वापस लेने को तैयार हैं. आप जानते ही हैं, यह मेरे जीवन का प्रश्न है. मैं सचमुच आप की दासी बन कर आप की सेवा करूंगी,’’ मुग्धा नायिका की भांति यशोवती ने ताड़ का पत्ता व सरिए की कलम आगे रख दी. उस ने एक तीखी चितवन कपिल पर डाली.

‘‘यशोवती, मेरी हृदयेश्वरी, तुम्हें, अभी तक मुझ पर विश्वास नहीं हुआ? लो, तुम जो चाहो लिख लो, मैं ने अपने हस्ताक्षर कर दिए हैं.’’

‘‘दिव्या, तनिक अंगूर का रस लाना. मैं पुरोहितजी को अपने हाथों से पिलाऊंगी. आप ने ही तो अपने प्रवचन में कश्यपपुर की विशेषताओं में से एक अंगूर भी

बताई थी.’’

‘‘हां, मैं तो भूल ही गया था कि तुम मेरी शिष्या भी हो, पर अभीअभी मैं यहां की एक विशेषता और ढूंढ़ चुका हूं और वह है रानी यशोवती, मेरी हृदयेश्वरी, मेरी प्रियतमा…’’ कहतेकहते भावनाओं में बहते हुए कपिल ने यशोवती के गोरेगोरे श्वेत कबूतरों जैसे पैरों को चूम लिया.

उसी पल यशोवती के कक्ष का दरवाजा खुला. एकएक कर शंकराचार्य देवालय में यशोवती के विरुद्ध बढ़चढ़ कर बोलने वाले कपिल के भक्त आ खड़े हुए. उन्हें देख कर यशोवती अपने स्थान से उठ खड़ी हुई. उस ने अपने पैर के दोनों पंजे पीछे हटाने चाहे, पर कपिल उन से और चिपट गया.

‘‘थू है तुम पर, पुरोहित, हमें तुम से ऐसी आशा न थी. जिस के विरुद्ध तुम ने कश्यपपुर की जनता को भड़काया उसी के पैरों में पड़ कर तुम उस से प्रेम जता रहे हो? धिक्कार है तुम्हें,’’ जयेंद्र क्रोध से बोला.

‘‘कश्यपपुर के निवासियो, अपने पुरोहित की एक और करतूत देखिए. इस दुष्ट ने यशोवती से विवाह रचाने और अपना आंदोलन वापस लेने का भी वचन दिया है, देखिए,’’ यशोवती की परिचारिका दिव्या ने कपिल की हस्ताक्षरयुक्त घोषणा सामने रख दी.

‘‘ओह, यह नराधम इतनी नीचता पर उतर आया. आप इसे हमें सौंप दीजिए. हम इस की बोटीबोटी अलग कर देंगे. महादेवी, हम आप को कश्यपपुर की शासिका स्वीकार करते हैं.’’

सब के चले जाने पर यशोवती मुसकराई. वह बोली, ‘‘पुरोहित, तुम इतने मूढ़ होगे, मुझे आशा न थी. शत्रु के घर में पदार्पण से पूर्व कुछ सावधानी तो तुम्हें रखनी चाहिए थी. अपने गर्व, दर्प व ज्ञानी बन जाने के झूठे विश्वास ने तुम्हें कहीं का नहीं छोड़ा.

‘‘मेरे विवाह प्रस्ताव पर तेरी बाछें खिल गईं. मूर्ख, पूरे कश्यपपुर में क्या तू ही बचा था जिस से मैं पुनर्विवाह रचाती? अपने एक साधारण जन से विवाह कर क्या मुझे अपने पद व गौरव की हंसी उड़वानी थी?

‘‘तुम्हारे पतन पर मुझे खेद है, पर मैं ने तुम से ही सीखा राजनीति का अस्त्र प्रयुक्त किया है. तुम ने ही तो एक बार कहा था, ‘शत्रु को शत्रु के हथियार से ही मारना चाहिए.’ ले जाओ इस सांप को और बाहर छोड़ आओ. मैं ने इस के विषैले दांत तोड़ डाले हैं.’’

वास्तव में कपिल उसी रात्रि को कश्यपपुर से गायब हो गया. विधवा यशोवती पूरे 15 वर्ष तक कश्यपपुर पर एकछत्र राज्य करती रही.

संपेरन- भाग 1: क्या था विधवा शासिका यशोवती का वार

‘‘तुम्हारी सूचना विश्वसनीय तो है?’’ शंकराचार्य मंदिर के मुख्यद्वार पर पुरोहित के पांव सहसा रुक गए.

‘‘स्वामी जयेंद्र ने आज तक आप को अविश्वसनीय सूचना नहीं दी है.

1-2 बार नहीं, जितनी बार भी आप पूछेंगे, मेरी सूचना अपरिवर्तित रहेगी कि विधवा यशोवती कश्यपपुर (कश्मीर) की शासिका मनोनीत की गई हैं.’’

‘‘तो क्या राज्य के पंडितों, ज्ञानीध्यानी व्यक्तियों और शिक्षाविदों को एक विधवा की अधीनता स्वीकार करनी होगी? यह बात क्या नीति, वेद, उपनिषद, धार्मिक शिक्षाओं व शालीनता के विपरीत नहीं होगी? प्रात: जीवनचर्या प्रारंभ करने से पूर्व राज्य निवासियों द्वारा ईश्वर के साथ ऐसी स्त्री का  नाम उच्चारित करना क्या पापाचार नहीं होगा?’’ कपिल का स्वर आक्रोशपूर्ण हो गया.

‘‘विप्रश्रेष्ठ, इस से तो भारत व अन्य पड़ोसी  राज्यों में भी हमारी हेठी होगी. सब लोग हमारी बुद्धि व मानसिक संतुलन पर तरस खाएंगे,’’ पुरोहित के साथ चलती भीड़ में से कोई बोल उठा.

‘‘निश्चय ही राज्य की सधवाएं इस प्रस्ताव का घोर विरोध करेंगी,’’ मुख में तांबूल दबाए, चंचल नयनों में काजल व होंठों पर लाल मिस्सी सज्जित युवती का स्वर सुन कर कपिल मन ही मन हर्षित हो उठा.

‘‘एक तो नारी,

ऊपर से विधवा? शिव…शिव…ऐसी शासिका के राज्य में रहने की अपेक्षा आत्महत्या कर लेना या राज्य से कहीं अन्यत्र पलायन कर लेना ही हमारे लिए उचित रहेगा,’’ एक अन्य पुरुष स्वर ने भी कपिल का समर्थन किया.

‘‘यदि आप सब लोगों की सहमति है तो मैं रानी यशोवती के सिंहासनारोहण के विरुद्ध अपने आत्मदाह की घोषणा करता हूं.’’

पुरोहित कपिल की घोषणा का भीड़ ने तुमुल हर्ष व तालियों से स्वागत किया.

‘‘जयेंद्र, तुम कश्यपपुर के प्रत्येक स्त्रीपुरुष तक मेरा यह  प्रण पहुंचा दो कि यदि विधवा यशोवती को राज्य की गद्दी पर बैठाया गया तो राज्यारोहण के दिन ही कोंसरनाग से उत्पन्न वितस्ता (झेलम) की लहरों में डूब कर मैं

अपने प्राण दे दूंगा.’’

‘‘महाज्ञानी, अपने प्रण के साथ हमारे इस निर्णय को भी जोड़ लें कि आप के बाद भी कश्यपपुर का पुरुष समुदाय प्रतिदिन इसी प्रकार अपने प्राण देता रहेगा, जब तक वह दुष्टा राज्य की गद्दी से स्वयं विमुख नहीं हो जाती अथवा उसे सिंहासन से हटा नहीं दिया जाता.’’

शंकराचार्य मंदिर में एक निश्चित समय पर संध्या काल में कपिल द्वारा प्रतिदिन 1-2 घंटे तक पारलौकिक ज्ञान व दर्शन जैसे विषयों पर प्रवचन दिया जाता था. उस के शब्दों में चमत्कार था. उस की वाणी ओजस्वी थी. देवा-लय के निकट

के स्त्रीपुरुष बड़ी संख्या में इन प्रवचनों को सुनने के लिए एकत्रित होते थे.

धर्म व दर्शन के साथसाथ कपिल नीति व कूटनीति का भी पंडित था. अपने गहन अध्ययन के बल पर उस ने चाणक्यनीति का एकएक शब्द कंठस्थ कर लिया था. इन्हीं सब बातों के आधार पर राज्य की नीतियों में उस का अत्यधिक हस्तक्षेप था.

कश्यपपुर के शासकों का पुरोहित कपिल के बढ़ते प्रभाव पर चिंतित होना स्वाभाविक था, पर साथ ही यह भी एक तथ्य था कि उस के सहयोग से शासकों को सफलता भी प्राप्त हो जाती थी. अत: ब्राह्मणवाद के बढ़ते प्रभाव के साथ शासकों की सफलता निश्चित होती जाती थी.

संक्षेप में, शासकों व पुरोहित दोनों ने ही एकदूसरे के अस्तित्व को स्वाभाविक रूप में स्वीकार कर लिया था, पर यशोवती के शासिका बन जाने से कपिल को अपना प्रभाव समाप्त होता दिखाई दिया. वह पुरुषोचित अहं व दंभ के कारण एक नारी का आधिपत्य कैसे सहन कर सकता था.

कपिल के साथ कश्यपपुर की जनता ने यशोवती के राज्यारोहण को अस्वीकार कर दिया था. पुरोहित के मस्तिष्क में इस के लिए कुछ कुतर्क थे, पर भीड़ ने तो केवल अंधानुभक्ति के वशीभूत हो कर ही यह निर्णय लिया था. परिणामस्वरूप यशोवती के विरुद्ध गालियों व कटु वचनों का प्रयोग किया गया. उस की हंसी उड़ाई गई. उस के संबंध में निम्नस्तरीय बातें कही गईं.

शंकराचार्य मंदिर में जमा भीड़ में नारियों की भी अच्छीखासी संख्या थी, पर उन में से अधिकतर का उद्देश्य केवल कपिल के प्रवचनों को सुनना तथा घर के उबाऊ वातावरण से थोड़ी देर के लिए मुक्ति प्राप्त करना था. अत: कपिल बिना किसी औपचारिकता के उन के रूखेसूखे जीवन का एक मनोरम व अविभाज्य अंग बन चुका था. प्रत्येक मूल्य पर वे आनंद के इस साधन को अक्षुण्ण बनाए रखना चाहती थीं. इसीलिए पुरुषों के साथ स्वर मिला कर नारियों ने भी यशोवती को वारांगना सिद्ध कर दिया.

देवालय की भीड़ में एक युवती बिलकुल मौन थी. कपिल उस की सहमति प्राप्त करने के लिए, यशोवती के विरुद्ध विषवमन करते हुए बारबार उस की ओर निहार रहा था. उसे मौन देख कर वह दूसरी ओर दृष्टि मोड़ लेता था. अपनी चालढाल व वेशभूषा से वह कुलीनवर्गीय लग रही थी.

अपने लंबे चोगे के साथ उस ने अपने मुख, नाक तथा होंठों को एक पारदर्शक रेशमी घूंघट से ढक रखा था. घूंघट के बीच टुकुरटुकुर ताकती उस की आंखों में एक अनोखा आकर्षण था. उन में सागर की गहराई थी. कई सुरापात्रों की लालिमा जैसे उन में सिकुड़सिमट गई थी. अपने निकट खड़ी परिचारिका के कानों में वह कुछ फुसफुसाई.

‘‘महोदय,’’ कपिल को संबोधित करते हुए परिचारिका बोली, ‘‘आप में से किसी ने कभी रानी यशोवती से भेंट भी की है?’’

‘‘नहीं तो,’’ सकुचा कर कपिल ने प्रत्युत्तर दिया.

‘‘क्यों न अपना अभियान प्रारंभ करने से पूर्व आप एक बार उन से भेंट कर लें.’’

‘‘महादेवी, रथ स्वयं कभी संचालित नहीं होता, बैल या घोड़े उसे चलाते हैं. अत: रथ तो अपने स्थान पर मौन खड़ा रहता है. वह पुकारपुकार कर अपने संचालनकर्ता को नहीं बुलाएगा. यशोवती व मुझ में आप को कौन क्या प्रतीत होता है, यह मैं आप पर ही छोड़ता हूं. मेरा निश्चय अटल है. वितस्ता की जलराशि जल्दी ही मेरा समाधिस्थल बनेगी.’’

घूंघट ओढ़े युवती फिर भी मौन खड़ी रही.

पुरोहितवाद का विषैला जादू शीघ्र कश्यपपुर की जनता के सिर चढ़ कर बोला. रानी यशोवती के विरुद्ध अचानक ही नगर के चतुर्मार्गों व राजपथों पर जनता का आक्रोश फूट पड़ा, प्रतिदिन नए जुलूसों, भाषणों व गोष्ठियों द्वारा यशोवती को शासिका बनाए जाने के विरुद्ध तीव्र लोकमत प्रकट किया गया.

आंदोलनकर्ता मुख्य रूप से ‘विधवा रानी नाक कटानी, ‘एक ध्येय, उद्देश्य बनाओ, यशोवती से देश ब

चाओ’ अथवा ‘जब तक है सांसों में सांस, नहीं चलेगा विधवा राज’ जैसे नारों से कश्यपपुर को गुंजाते रहे.

आंदोलनकर्ताओं पर जब कुछ अत्याचार किए गए तो आंदोलन और भी अधिक भड़क उठा. लगता था कि कपिल की सफलता असंदिग्ध है.

एक रात्रि को दूसरे प्रहर में कपिल शंकराचार्य मंदिर में निद्रा में लीन था. दिन भर यशोवती विरोधी अभियान के कारण वह थक गया था. उस के अन्य साथी भी निद्रा में मग्न थे. अचानक किसी ने उसे झिंझोड़ कर जगा दिया. पूरी तरह नींद खुलने पर उस ने दीपक के प्रकाश में 4 राज्य सैनिकों को अस्त्रशस्त्रों से सुसज्जित देखा.

‘‘कहिए, क्या बात है?’’

‘‘तुम्हें इसी पल हमारे साथ चलना है.’’

‘‘पर कहां व क्यों?’’

‘‘जनसाधारण के प्रश्नों के उत्तर देना शासनाधिकारियों के लिए आवश्यक नहीं है. हमें केवल इतना ज्ञात है कि आनाकानी करने पर हम तुम्हें जबरदस्ती ले जाएंगे. ऐसा ही हमें आदेश है. आदेशकर्ता का नाम भी हम नहीं बताएंगे.’’

‘‘उस का नाम तो मैं ज्ञात कर लूंगा, पर क्या तुम मेरे प्राणों की सुरक्षा का वचन देते हो?’’

‘‘वचन? शासन के वचन का क्या तुम कोई मूल्य समझते हो? हम तो प्रतिपल वचन दे कर उसी क्षण उसे तोड़ भी डालते हैं. फिर भी हम तुम्हें आश्वस्त कर सकते हैं कि अभी तुम्हारे प्राण लेने की कोई योजना नहीं है. वैसे भी तुम ने राजनीतिक आंदोलन प्रारंभ करने से पूर्व क्या शासन को कोई सूचना दी थी या उस की अनुमति मांगी थी? यदि नहीं तो तुम्हें अपने प्राणों की आशा तो उसी पल छोड़ देनी चाहिए थी. चलो, उठ कर खड़े हो जाओ.’’

‘‘मैं एक बार अपने विश्वस्त मित्रों व साथियों से तो बात कर लूं.’’

‘‘मित्र व साथी?’’ एक सैनिक अट्टहास कर उठा, ‘‘इन्हीं के बल पर क्या तुम ने राज्य क्रांति का बीड़ा उठाया है? तुम्हारे ‘साथी व मित्र’ हमारे आगमन का समाचार सुनते ही नौ दो ग्यारह हो गए हैं. विश्वास न हो तो चारों ओर दृष्टि डाल कर देख लो. वास्तव में एक क्षुद्र भुनगा होते हुए, कश्यपपुर साम्राज्य रूपी पर्वतमाला को चूरचूर करने का निर्णय ले कर तुम ने अपनेआप को सब की हंसी का पात्र बना लिया है. चलो, शीघ्रता करो.’’

‘‘पर यदि मेरे प्राण ले लिए जाएं तो यह तथ्य मेरे सगेसंबंधियों तक तो पहुंचा दिया जाए.’’

‘‘प्राणों की चिंता में घुलने वाले कापुरुष, तुम्हें अपने प्राण इतने ही प्यारे थे तो जनता का नेतृत्व क्यों संभाला था? क्यों उसे भ्रमित किया? मैं विश्वास दिलाता हूं कि तुम्हारे प्राण लिए जाएंगे तो कश्यपपुर की जनता ही नहीं, पड़ोसी देशों तक इस की सूचना पहुंचेगी. अभी तुम इतने महान नहीं बने हो कि तुम से भयभीत हो कर शासन तुम्हें गुप्त रूप से प्राणदंड दे दे. सैनिको, इसे उठा कर बाहर पालकी में ले जा कर डाल दो.’’

आग और धुआं- भाग 2: क्या दूर हो पाई प्रिया की गलतफहमी

उस पल मुझे निशा को अपने पति को छूना अच्छा नहीं लगा. सच तो यह है कि मुझे निशा ही अच्छी लगना बंद हो गई. पार्टी में मेरा उस से कई बार आमनासामना हुआ, पर मैं उस से सहज और सामान्य हो कर बातें नहीं कर पाई.

निशा को ले कर मेरे मन में पैदा हुआ मैल अमित की नजरों से ज्यादा दिन नहीं छिपा रहा. इस विषय पर एक शाम उन्होंने चर्चा छेड़ी, तो मैं ने कई दिनों से अपने मन में इकट्ठा हो रहे गुस्से व शिकायतों का जहर उगल दिया.

‘‘शादी हो जाने के बाद समझदार इनसान अपनी पुरानी सहेलियों से किनारा कर लेते हैं. अब आफिस में अलग से इश्क लड़ाने का चक्कर तुम खत्म करो, नहीं तो ठीक नहीं होगा,’’ मुझे बहुत गुस्सा आ गया था.

‘‘तुम मुझ पर शक कर रही हो,’’ अमित ने जबरदस्त सदमा लगने का नाटक किया.

‘‘मैं ही नहीं, इस बात का सच तुम्हारा पूरा आफिस जानता है.’’

‘‘प्रिया, तुम लोगों की बकवास पर ध्यान दे कर अपना और मेरा दिमाग खराब मत करो.’’

‘‘मेरे मन की सुखशांति के लिए तुम्हें निशा से किसी भी तरह का संबंध नहीं

रखना होगा.’’

‘‘तुम्हारे आधारहीन शक के कारण मैं अपने ढंग से जीने की अपनी स्वतंत्रता को खोने के लिए तैयार नहीं हूं.’’

‘‘निशा का आज से मेरे घर में घुसना बंद है और अगर तुम ने कभी उस के फ्लैट में कदम रखा, तो मैं यहां नहीं रहूंगी.’’

‘‘मुझे बेकार की धमकी मत दो, प्रिया. अगर तुम ने निशा के साथ कभी भी जरा सी बदतमीजी की तो मुझ से बुरा कोई न होगा.’’

‘‘इस का मतलब यह हुआ कि तुम्हें निशा की ज्यादा और मेरी भावनाओं की चिंता कम है.’’

‘‘तुम यों आंसू बहा कर मुझे ब्लैकमेल नहीं कर सकती हो. इस विषय पर और आगे बहस नहीं होगी हमारे बीच. मैं तुम्हारा और सिर्फ तुम्हारा हूं.’’

‘‘मुझे अपने दिल की रानी मानते हो तो निशा से संबध तोड़ लो.’’

‘‘तुम्हारे जैसी बेवकूफ औरत से कौन मगज मारे,’’ गुस्से से आगबबूला हो कर अमित घर से बाहर चले गए.

मेरी इच्छा व भावना की कद्र करते हुए मेरे एक बार कहने पर अमित फौरन निशा से दूर हो जाएंगे, मेरी इस सोच को उन्होंने उस दिन गलत साबित किया. उन की जिंदगी में कोई दूसरी लड़की हो, यह बात मेरे लिए असहनीय थी. उन के दिल पर सिर्फ मेरा हक था. निशा के साथ संबंध समाप्त करने से इनकार कर के उन्होंने मुझे जबरदस्त झटका दिया था.

निशा का हमारे घर आना जारी रहा. मैं उस की उपस्थिति में नाराजगी भरा मौन साध लेती. उन का आपस में हंसनाबोलना असहनीय हो जाता तो सिरदर्द का बहना बना कर अपने शयनकक्ष में जा लेटती.

निशा का मेरे घर में अब स्वागत नहीं है, यह बात अपने हावभाव से स्पष्ट करने में मैं ने कोई कसर नहीं छोड़ी.

निशा पर तो मेरे इस मौन विरोध का खास प्रभाव नहीं पड़ा, पर अमित बुरी तरह से तिलमिला गए. निशा को ले कर हमारे बीच रोज लड़ाईझगड़ा होने लगा.

मुझे इस बात का सख्त अफसोस था कि इन झगड़ों से या मेरे आंसू बहा कर रोने से अमित अप्रभावित रहे. उन का अडि़यल रुख मेरी दृष्टि में उन के मन में चोर होने का सुबूत था. क्रोध और ईर्ष्या की आग में सुलगते हुए मैं रातदिन अपना खून जलाने लगी.

हमारे बीच जबरदस्त टकराव का यह खराब दौर करीब 2 महीनों तक चला. फिर अचानक मेरे मन को उदासी और निराशा के कोहरे ने घेर लिया.

मैं अपनेआप में सिमट कर जीने लगी. मशीनी अंदाज में घर का काम करती. अमित कुछ समझाने की कोशिश करते, तो मेरी समझ में कुछ न आता. तब या तो मैं थकेहारे से अंदाज में उठ कर घर के किसी अन्य हिस्से में चली जाती या मेरी आंखों से टपटप आंसू गिरने लगते. वे कभीकभी मुझे डांटते भी, पर मैं किसी भी तरह की प्रतिक्रिया दर्शाने की शक्ति अपने अंदर महसूस नहीं करती. सच तो यह है कि अमित का सान्निध्य ही मुझे अच्छा नहीं लगता.

मेरा स्वास्थ्य निरंतर गिरता देख मेरे मायके व ससुराल वाले बहुत चिंतित हो उठे. हमारे दांपत्य संबंध किसी निशा नाम की लड़की के कारण बिगड़े हुए हैं, इस तथ्य से वे पहले ही परिचित थे.

जब अमित को वे सब निशा से बिलकुल कट जाने की बात डांटफटकार के साथ समझाते तो मुझे बड़ा सुकून व सहारा मिलता.

मेरे ‘डिप्रैशन’ ने सब को हिला कर रख दिया. अमित पर निशा से दूर हो जाने के लिए जबदस्त दबाव बना. पहले की तरह वे किसी से बहस या झगड़े में तो नहीं उलझे, पर उन्होंने अपने को बेकुसूर कहना जारी रखा. निशा से वे सब संबंध समाप्त कर लेंगे, ऐसा आश्वासन भी कोई उन के मुंह से नहीं निकाल सका. उदासी के कोहरे को चीर कर यह तथ्य मेरे दिलोदिमाग में कांटे की तरह अकसर चुभता.

‘‘प्रिया को कुछ दिन के लिए हम घर ले जा रहे हैं,’’ मेरे मातापिता के इस प्रस्ताव का अमित ने एक बार भी विरोध नहीं किया.

‘‘मैं ने सपने में भी नहीं सोचा था कि ऐसा खराब वक्त कभी हमारे वैवाहिक जीवन में आएगा, प्रिया. तुम वह लड़की नहीं रहीं जिसे मैं ने हमेशा दिलोजान से ज्यादा चाहा. अपने मन में बैठे शक के बीज को जब तुम सदा के लिए जला कर राख करने को तैयार हो जाओ, तब मैं तुम्हें लेने चला आऊंगा. अपना ध्यान रखना,’’ विदा करते वक्त अमित की आंखों में मैं ने आंसू तो देखे, पर उन्होंने निशा से दूर होने का वादा मुंह से नहीं निकाला.

शादी के सिर्फ 4 महीने बाद मैं निराशा, दुखी और उदास हाल में अमित से दूर मायके रहने आ गई. मेरे घर वालों के साथसाथ जो भी मुझे से मिलने आता अमित को बुरा कहता. उन सब के सहानुभूति भरे शब्द मुझे बारबार रुलाते. यह भी सच है कि मेरी समस्या को हल करने का सार्थक सुझाव किसी के भी पास नहीं था.

अमित फोन पर मेरा हालचाल लगभग रोज ही पूछते. मैं अधिकतर खामोश रह कर उन की बातें सुनती. उन्होंने निशा के मामले में अपने को बेकुसूर कहना जारी रखा. उस से संबंध तोड़ने को वे अभी भी तैयार नहीं थे. ऐसी स्थिति में उन्हें समझाने के सारे प्रयास निरर्थक साबित होने ही थे.

मेरा डिप्रैशन धीरेधीरे दूर होने लगा. भूख खुली और नींद ठीक हुई, तो स्वास्थ्य भी सुधरा. मेरी संवेदनशीलता लौटी तो निशा को ले कर मन फिर से टैंशन का शिकार हो गया.

अंतिम प्रहार- भाग 1: क्या शिवानी के जीवन में आया प्यार

उस की सहकर्मी दीप्ति के शब्द उस के कानों में अभी तक गूंज रहे थे, ‘अब क्या करेगी यह शादी? सिर के बाल चांदी होने लगे. 30 को पार कर गई. यह शादी की उम्र थोड़ी है.’

लंच का समय था. स्कूल की सभी अध्यापिकाएं साथ में बैठ कर खाना खा रही थीं. सब एकदोचार के गु्रप में बंटी हुई थीं. शिवानी अपनी 3 सहेलियों के साथ एक गु्रप में थी. औरतों की जैसी आदत होती है, खाते समय भी चुप नहीं रह सकतीं. सभी बातें कर रही थीं. अपनी क्लास के बच्चों से ले कर पिं्रसिपल व सहकर्मी अध्यापिकाओं तक की, घर से ले कर पति, बच्चों और सास तक की बातें कर रही थीं. अंत में हमेशा की तरह बात घूम कर शिवानी के ऊपर आ कर टिक गई.

निकिता ने कहा, ‘‘शिवानी, तू कुछ नहीं बोल रही है?’’‘‘क्या बोले बेचारी? शादी तो की नहीं. न बच्चा, न पति, न सासननद. किस की बुराई करे बेचारी. पता नहीं कब करेगी शादी? उम्र तो निकली जा रही है,’’ संजना ने सहानुभूति दिखाते हुए कहा.

तभी दीप्ति ने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा था, ‘अब क्या करेगी यह शादी…’ उस के ये वाक्य शिवानी के कानों में गरम लोहे की तरह घुसते चले गए थे. पहले ही कम बोलती थी. दीप्ति के वाक्यों ने तो उस के हृदय पर पत्थर रख कर मुंह पर ताला जड़ दिया था. उस के मुख पर हजार रेगिस्तानों की सी वीरानी और गरम धूल की परतें जम गई थीं. आंखें जड़ हो कर बस खाने की प्लेट पर जड़ हो गई थीं. दीप्ति की बात पर निकिता और संजना भी हैरान रह गई थीं. उसे ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए थी. शिवानी की अभी तक शादी नहीं हुई थी, तो उस में उस का क्या दोष था. सब की अपनीअपनी मजबूरियां होती हैं, शिवानी की भी थी. तभी तो अब तक उस की शादी नहीं हो पाई थी.

वे चारों हमउम्र थीं, सहकर्मी थीं. परंतु उन में अकेली शिवानी ही अविवाहिता थी. बाकी तीनों न केवल शादीशुदा थीं बल्कि तीनों के बच्चे भी थे. उन के बीच घरपरिवार और शादी को ले कर बातें होती ही रहती थीं. सभी शिवानी को शादी करने की सलाह देती रहती थीं परंतु इतनी तल्ख बात आज से पहले कभी किसी ने नहीं कही थी.

शिवानी अंतर्मुखी स्वभाव की थी. कम बोलती थी. अपना दुखदर्द भी किसी से नहीं बांटती थी. उस दिन भी दीप्ति की तल्ख बात का उस ने कोई जवाब नहीं दिया. परंतु उस का दिमाग सनसना गया था. क्या अब उस की शादी नहीं होगी? क्या वह बूढ़ी हो गई थी? बाल पकना क्या बुढ़ापे की निशानी है?

आज तक उस ने किसी लड़के से दोस्ती नहीं की, प्रेम करना तो बहुत दूर की बात थी. पारिवारिक संस्कारों और अंतर्मुखी स्वभाव के कारण वह लड़कों से खुल कर बात नहीं कर पाई. वह सुंदर थी. कई लड़के उस के जीवन में आए, उस से प्रेम निवेदन भी किया, उस ने उन का प्यार स्वीकार भी किया, परंतु जब लड़के एक सीमा से आगे बढ़ कर उसे बिस्तर पर लिटाना चाहते, वह भाग खड़ी होती. ‘यह सब शादी के बाद,’ वह कहती, तो लड़के उसे घमंडी, दकियानूसी और बेवकूफ लड़की समझ कर छोड़ देते.

लिहाजा, 30 वर्ष की उम्र तक उस का कोई स्थायी बौयफ्रैंड न बन सका, जिस के साथ वह घर बसाने की बात सोच सकती. अब तो कमउम्र के लड़के उस से दूर भागने लगे थे और उस की उम्र के दायरे वाले आदमी शादीशुदा थे. मां भी उस की शादी के बारे में नहीं सोचती थी. इस में मां का दोष नहीं था. वह डरती थी कि शादी के बाद शिवानी जब अपने घर चली जाएगी तो वह किस के सहारे जीवन व्यतीत करेगी. उन की जीविका का कोई साधन नहीं था. जबकि उन का लड़का था और उस की पत्नी थी. दोनों मां के साथ पुश्तैनी घर में रहते थे. उस के भाई को पिता की जगह पर अनुकंपा के आधार पर नौकरी भी मिली हुई थी. पिता के घर में मां के साथ रहता था परंतु अपनी तनख्वाह का एक पैसा भी मां को नहीं देता था. मां का गुजारा उन की पैंशन और शिवानी की कमाई से चलता था. एक ही घर में 2 परिवार रहते थे. मांबेटी और बेटाबहू. कैसी विडंबना थी?

मां किस तरह बेटी के साथ भेद करती है और बेटे को महत्त्व देती है, यह पहली बार शिवानी को तब पता चला जब उस के पिता की मृत्यु हुई. वह सरकारी सेवा में गु्रप बी औफिसर थे और सेवानिवृत्ति के पहले ही उन की मृत्यु हो गई थी. ग्रैच्युटी,  इंश्योरैंस, जीपीएफ आदि का कुल 20 लाख के लगभग मिला था. सारा पैसा मां ने एमआईएस (मंथली इंकम स्कीम) में डाल दिया था. 20 हजार के लगभग मां की पैंशन बंधी थी. कम नहीं थे.

बाप की जगह पर जब अनुकंपा के आधार पर नौकरी की बात आई, तो सब ने यही सलाह दी कि बेटी शिवानी यह नौकरी कर लेगी. वह 22 साल की थी और ग्रेजुएट थी. आसानी से उसे गु्रप ‘सी’ की नौकरी मिल जाती और उस का भविष्य संवर जाता. भाई छोटा था और उस का ग्रेजुएशन भी पूरा होने में एक साल बाकी था. ग्रेजुएशन के बाद भविष्य में वह कोई अच्छी नौकरी पा सकता था.

सब की बातें सुनने के बाद मां ने अपना निर्णय सुनाया, ‘‘बेटी बाप की जगह नौकरी करेगी तो हमें क्या मिलेगा? एक दिन वह शादी कर के ससुराल चली जाएगी. उस की तनख्वाह ससुराल वालों को जाएगी. बेटे को पढ़लिख कर भी नौकरी नहीं मिली तो उस का क्या होगा? सो, नौकरी बेटा ही करेगा, चाहे जो हो जाए.’’

लोगों ने बहुत समझया परंतु मां अपने निर्णय से नहीं डिगी. विभाग में आवेदन किया तो उन्होंने बेटे की कम उम्र और शिक्षा को ले कर प्रश्न खड़े कर दिए. मां ने बड़े अधिकारी से मिल कर बात की, तो उन्होंने रास्ता सुझया कि वे बेटे के ग्रेजुएशन तक इंतजार कर सकते थे. लिहाजा, मामला एक साल तक अधर में लटका रहा. जब गौरव का ग्रेजुएशन हो गया और वह 21 साल का हो गया, तो उसे पिता के स्थान पर नौकरी मिल गई.

सबकुछ व्यस्थित हो गया तो एक पारिवारिक महिला शुभचिंतका ने शिवानी की मम्मी सुषमा को सलाह दी, ‘‘सुषमा बहन, बेटे को नौकरी मिल गई है. आप को पैंशन मिल रही है. बेटी ग्रेजुएशन कर के घर में बैठी है. अब उस की शादी कर दो.’’

सुषमा को शुभचिंतका की बात नागवार गुजरी, गहरी उसांस ले कर कहा, ‘‘अभी कहां से कर दें. बेटे की अभीअभी नौकरी लगी है. कुछ जमापूंजी हो तो करें.’’शुभचिंतिका ने हैरानी से कहा, ‘‘क्या बात करती हो बहन. पति का पैसा कहां चला गया?’’

‘‘उस को बेटी की शादी में खर्च कर देंगे तो बुढ़ापे में मुझे कौन पूछेगा. बेटा और बेटी दोनों की शादी करनी है परंतु बेटा कुछ कमा कर जोड़ ले तो सोचूंगी. तब तक बेटी भी कोई न कोई नौकरी कर लेगी. आज के जमाने में एक आदमी की कमाई से घर कहां चलता है.’’

‘‘बात तो ठीक है परंतु जवान बेटी समय पर घर से विदा हो जाए तो मां की सारी चिंताएं खत्म हो जाती हैं. वरना हर समय लांछन का दाग लगने का भय सताता रहता है.’’

सच के फूल- भाग 1: क्या हुआ था सुधा के साथ

सुधा भागती चली जा रही थी, भागते हुए उसे पता नहीं चला कि वह कितनी दूर आ गई है. दिमाग ने जैसे काम करना बंद कर दिया हो. उसे जल्दी से जल्दी इस शहर से भाग जाना है. उसे सम झ में आ गया था वह अच्छे से बेवकूफ बनी है. घर से भाग कर उस ने भारी भूल कर दी. विकी ने उसे धोखा दिया है. अगर वह आज भागने में कामयाब हो गई  तभी वह बच पाएगी.  दिल्ली शहर उस के लिए एकदम नया है. वह स्टेशन जाएगी और किसी तरह…

तभी किसी ने उसे पकड़ कर खींचा, ‘‘अरे दीदी देख कर चलो न अभी मोटर के नीचे आ जाती.’’

सुधा कांपने लगी. उसे लगा जैसे विकी ने उसे पकड़ लिया. ये स्कूल से लौटते छोटे बच्चे थे बच्चे आगे बढ़ गए. उस ने औटो को रोका, ‘‘मैडम आप अकेली जाएंगी या मैं और सवारी बैठा लूं.’’

‘नहींनहीं हम को स्टेशन जाना है… ट्रेन पकड़नी है… जल्दी है.’’

‘‘एक सवारी का ज्यादा लगेगा.’’

‘‘ठीक है चलो.’’

संयत हो बोली, ‘‘आप बिहार से है.’’

सुधा घबडाई हुई थी उसे गुस्सा आ गया ‘‘काहे बिहारी को नहीं बैठाते हो उतर जायें.’’

‘‘ अरे नहीं नहीं मैडम इहां का लोग तनी ‘मैं’ ‘मैं’ करके बतियाता है इसी कारण.’’

सुधा को अगर विकी पर शक नहीं होता तब वह भाग भी नहीं पाती. कितना कमीना है विकी उसे बरबाद करना चाहता था. कैसे चालाकी से वह भागी है. वह होटल में घुसी तभी उसे संदेह हो गया था. कितना गंदा लग रहा था वह होटल और वह बूढ़ा रिसैप्शिनष्ट… मोटे चश्में के अंदर से  कितनी गंदी तरह से घूर रहा था. वह बारबार विकी को उस के मामा के यहां चलने के लिए बोल रही थी पर वह सुन नहीं रहा था. फिर भी वह आश्वस्त थी. उस ने घर से भागकर कोई गलती नहीं की है. वह विकी से प्यार करती है. वह जानती है पापा कभी तैयार नहीं होंगे क्योंकि दोनों की जाति अलगअलग है.

जब सुधा वाशरूम गई तो उस ने अपने कानों से सुन लिया, ‘‘हां यार मेरे साथ भाग कर आई है.’’

‘‘शादी करने?’’

‘‘अरे नहीं यार ऐसे सब से शादी करता रहूंगा… तब तो अब तक मेरी 7-8 शादियां हो गई होतीं.’’

अगर सुधा उस का फोन नहीं सुन पाती तब आज उस की इज्जत तारतार हो चुकी होती सोच कर वह अंदर तक कांप गई. वह अभी तक की घटनाओं को याद करने लगी. अभी कल की ही बात है. वह ट्यूशन के बहाने विकी के साथ निकली थी. विकी ने उस से कुछ पैसे लाने को कहा था. मां के बटुए से 17 हजार नकद और मां के कुछ गहने भी ले लिए थे. उस ने सारे पैसे विकी को दे दिए थे.

‘‘बस इतने ही?’’ विकी ने कहा.

‘‘और है देती हूं वाशरूम से आ कर,’’ वाशरूम में जाते उसे सारा मामला सम झ आ गया.

जब उस ने देर लगाई तब विकी ने पुकारा, ‘‘सुधा सब ठीक है न?’’

‘‘हां सब ठीक है आ रही हूं.’’

आ कर उस ने विकी से कहा, ‘‘विकी डियर देखो न बहुत बड़ी गड़बड़ हो गई है.’’

‘‘क्या हुआ?’’ विकी अधीर होने लगा.

‘‘कैसे बताऊं मु झे शर्म आ रही है,’’ सुधा  िझ झकने लगी.

‘‘अरे यार बताओ न अब हम से शर्म कैसी… बताओ जल्दी.’’

‘‘विकी वह बात है कि…’’ वह रुक गई विकी घबरा गया. बोला, ‘‘जल्दी बताओ न सुधा.’’

‘‘मु झे पीरियड आ गया है तुरंत पैड चाहिए.’’

‘‘ले कर नहीं आई हो?’’ वह  झल्ला कर बोला.

‘‘पागल हो किसी तरह भाग कर आई हूं तुम ला दो न.’’

‘‘मैं कैसे लाऊं तुम खुद जा कर ले आओ.’’

‘‘दुकान कहां है… मैं कैसे…’’

‘‘होटल से बाहर जा कर बाएं जाना वहां मैडिकल स्टोर है.’’

‘‘पैसा दो,’’ वह बोली.

‘‘जेवर लाई हो न… हम बोले थे न…’’

‘‘नहीं ला पाई बैंक में हैं,’’ उस ने  झूठ बोला.

‘‘कितने का मिलता है पैड.’’

‘‘मुझे क्या पता मां लाती है.’’

‘‘लो बस वही लेना और खर्च मत करना… बगल में है दुकान पैदल जाना… पैसे बचाने हैं.’’

‘‘हां मैं अभी ले कर आती हूं.’’

बस फिर वह भाग निकली. अगर वह भाग नहीं पाती तब? उस की आंखों में आंसू आ गए. तभी ड्राइवर क मोबाइल बजा तो उसे याद आया उस का मोबाइल तो वहीं छूट गया चार्ज में लगा रह गया. अच्छा हुआ अब वह मेरी लोकेशन पता नहीं लगा पाएगा. अब तक तो उसे पता चल गया होगा कि मैं उस के चंगुल से भाग चुकी हूं.

स्टेशन उतर कर सुधा तेजी से वेटिंगरूम की ओर बढ़ गई. उस ने वाशरूम में जा कर कुरते के अंदर छिपाया हुआ छोटा बटुआ निकाला जिस के बारे में उस ने विकी को नहीं बताया था. उस में मां के कुछ जेवरों के साथ 13 सौ रुपए थे.

कितनी गंदी औलाद है वह… अपने मांबाप की इज्जत की थोड़ी भी परवाह नहीं की. क्या हाल हो रहा होगा उन लोगों का. पापा और मां का सोच वह फूटफूट कर रोने लगी. जब मन शांत हो गया तब सोचने लगी कि कहीं विकी उसे स्टेशन ढूंढ़ने न चला आए पर कैसे बाहर निकले. बाहर अभी भी खतरा है. टिकट तो लेना है कैसे लूं.

तभी पास में 2 औरतें आ कर बैठ गईं, ‘‘दीदी मैं टिकट ले कर आ रही हूं, तुम यहीं बैठो. आप जरा मेरी दीदी को देखेंगी इस की तबीयत ठीक नहीं है,’’ सुधा को देख कर एक औरत बोली,

‘‘पर मु झे भी टिकट लेना है,’’ सुधा बोली.

‘‘मैं जा रही हूं. आप बता दीजिए.’’

‘‘मेरा टिकट पटना के गरीब रथ में चेयर कार का ले लीजिएगा,’’ उस ने पर्स से पैसे निकाल कर दे दिए. दोनों बहनें टिकट ले कर चली गईं.

ट्रेन समय पर थी. सुधा ने चुन्नी से अपने पूरे मुंह को कवर कर लिया कि कहीं कोई पहचान वाला न मिल जाए. बैठने के बाद उसे घर की यादें सताने लगीं. जब वह घर जाएगी तो क्या होगा? अगर मांपापा ने घर के अंदर घुसने नहीं दिया तब?

वह सोच में थी तभी बगल की सीट पर एक सज्जन आ कर बैठे. वे लगातार सुधा को देख रहे थे. सुधा की रोती आंखों को देख कर उन को कुछ शंका हो रही थी. सुधा कोशिश कर रही थी कि वह सामान्य रहे पर मन की चिंताएं, परेशानियां उसे सामान्य नहीं रहने दे रही थीं. घर से भागना मांबाप की बेइज्जती, विश्वास को ठेस पहुंचाना सब उसे और विह्ववल कर रहे थे.

उन सज्जन से नहीं रहा गया तो उन्होंने उस के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘बेटी, तुम ने किसी को खो दिया है?’’

वह कुछ नहीं बोली पर रोना जारी था.

‘‘मु झे लगता है बेटा तुम से कोई बहुत बड़ी गलती हो गई है.’’

सुधा ने बडे़ अचरज से उन को देखा कि यह आदमी है या कोई देवदूत… मन की बात इन्हें कैसे पता चल गई.

‘‘देखो रोओ मत शांत हो कर मु झे बताओ शायद मैं मदद कर सकूं.’’

सुधा बो िझल बैठी थी उसे लगा सचमुच शायद मदद कर दें. उस ने धीरेधीरे सारी बातें बता दीं. उसे कैसे विकी ने  झूठे प्यार के जाल में फंसाया फिर घर से भागने को उकसाया… पैसे मंगवाना…

वे चुपचाप सुनते रहे फिर पूछा, ‘‘कहां रहती हो और कहां जा रही हो?’’

‘‘ मेरा घर पटना में है, लेकिन मैं गया अपनी सहेली के यहां जा रही हूं.’’

‘‘ घर क्यों नहीं?’’

‘‘किस मुंह से जाऊं टिकट पटना का है पर हिम्मत नहीं हो रही है,’’ और वह रोने लगी.

सच के फूल- भाग 2: क्या हुआ था सुधा के साथ

उन्होंने चुप रहने को कहा और बोले, ‘‘सुनो मांबाप से बढ़ कर माफ करने वाला कोई नहीं है. तुम सीधा अपने घर जाओ और सब सचसच बता दो. सचाई में बड़ी ताकत होती है. वे लोग तुम्हारे पछतावे को भी सम झेंगे और माफ भी करेंगे साथ ही सीने से लगाएंगे.’’

‘‘और मैं कैसे अपनेआप को माफ कर पाएंगी,’’ कह कर सुधा रोने लगी.

‘‘अपनेआप को सुधार कर एक अच्छी बेटी बन कर,’’ अंकल ने सम झाया, ‘‘देखो बेटी कुदरत ने सभी को सोचनेसम झने की बराबर शक्ति दी है. जो लोग इस का सही उपयोग करते हैं वे हमेशा विजयी होते हैं. हां हम सभी आखिर हैं तो मनुष्य ही न गलतियां भी हो जाती हैं. पर सही मनुष्य वही है जो अपनी गलतियों को सम झे, माने और उन से सबक ले, सचाई के साथ आगे बढ़े. हां एक बात और याद रखना सच नंगा होता है. उस को देखने और बोलने के लिए बड़ी हिम्मत की जरूरत होती है. यह भी सम झ लो तुम को अब हिम्मत से काम लेना होगा.’’

‘‘अगर मांपापा ने माफ नहीं किया और घर से निकाल दिया तब?’’ सुधा का मन शंकाओं से घिरा था.

‘‘तुम अभी बच्ची हो इसलिए अभी नहीं सम झोगी पर मेरा विश्वास करो वे तुम्हारे मातापिता हैं. तुम किस दर्द से गुजर रही हो तुम बताओ या न बताओ उन को सब पता होगा. अच्छा अब रोना बंद करो और कुछ अच्छी बात सोचो.’’

‘‘अंकल आप कहां जा रहे हैं?’’ सुधा थोड़ा सामान्य हो चली थी.

‘‘मैं भी पटना ही जा रहा हूं. वहीं रहता हूं. पटना में मैं फिजिक्स का प्रोफैसर हूं. दिल्ली में सेमिनार अटैंड करने आया था… लेकिन ट्रेन से उतरने के बाद मैं तुम को नहीं पहचानता.’’

सुधा उन की बात सुन कर हंसने लगी. ट्रेन से उतरने के बाद सुधा ने दोनों हाथ जोड़ कर उन को नमस्ते की. फिर दो कदम आगे बढ़ी और वापस आ कर उस ने अंकल के पैर छू लिए. दोनों की आंखें भर आईं. उन्होंने सुधा के सिर पर हाथ रख कर रुंधे गले से आशीर्वाद दिया, ‘‘कुदरत तुम्हें सही राह दिखाए,’’ और फिर बिना देखे आगे बढ़ गए.

सुधा उस देवपुरुष को भीगी आंखों से जाते देखती रही. अब असली परीक्षा थी… वह घर से संपर्क करे. पहले फोन पर बात कर ले या सीधे घर चली जाए. अगर उन लोगों ने उसे घर में घुसने न दिया तब? पहले बात करते हैं पता चल जाएगा वह घर जा सकती है या नहीं. वह मां को मोबाइल लगाने लगी. लंबी रिंग बजी पर किसी ने फोन नहीं उठाया. वैसे भी मां अपरिचित का फोन नहीं उठातीं. मां को लगातार फोन लगाएंगे तभी उन को शक होगा सोच वह लगातार फोन मिलाने लगी.

इस बार किसी ने उठाया. कहा, ‘‘हैलो.’’

वह कुछ बोल ही नहीं पाई.

‘‘इसीलिए हम अननोन नंबर नहीं उठाते है,’’ मां का गुस्से वाला स्वर था.

सुधा ने  झट से फोन बंद कर दिया.पर फोन काटने से काम नहीं चलेगा बात तो करनी ही पडे़गी. इस बार बात करनी ही है चाहे जो उठाए… उस ने फिर फोन लगाया, ‘‘हैलोहैलो,’’ सुधा सिसकने लगी.

‘‘सुधासुधा तुम हो… बोलो बेटा कहां से फोन कर रही हो. रोओ मत बेटा तुम ठीक हो न?’’

फोन पापा ने उठाया था. सुधा रोती जा रही थी. तभी मां की आवाज आई, ‘‘सुधा कैसी हो बेटी? कहां से बोल रही हो बताओ? हम सभी बहुत परेशान हैं. किसी मुश्किल में तो नहीं हो न बोलो न बेटी. तुम ठीक हो न…’’

सुधा को अपने लिए ‘बेटा’ या ‘बेटी’ शब्द की आशा नहीं थी. उन लोगों की विह्वलता देख उस का मन पीड़ा से भर गया. वह रोरो कर बोलने लगी, ‘‘मां मैं सुधा… पटना स्टेशन से बोल रही हूं…’’ आगे वह बोल नहीं पाई.

‘‘तुम स्टेशन पर रहो. वहीं पास में मंदिर है वहीं पर रुको हम लोग आ रहे हैं. वहीं रहना बेटा कहीं जाना मत. बस हम आ रहे हैं.’’

मां के भीगे स्वर सुधा के आहत मन को चीरते चले गए. वह मंदिर के पास चुपचाप बैठ गई. उस ने अपना मुंह ढक लिया था. शहर उस का था कोई भी पहचान सकता था. करीब 20 मिनट के भीतर उसे मां लीला देवी व पापा रमाकांत दिखे. दोनों के चेहरे का रंग गायब था. सुधा को अपनी गलती और अपने मातापिता की दशा देख कर फिर रोना आ गया वह मां से लिपट कर फूटफूट कर रो पड़ी.

सुधा के मातापिता ने उसे संभालते हुए गाड़ी में बैठाया. एक ओर मां दृढ़ता के साथ हाथ पकड़ कर बैठी दूसरी ओर पापा ने उस के हाथ को बड़ी कठोरता से पकड़ रखा था जैसे कहना चाहते हो कि हम हमेशा तुम्हारे साथ हैं… तुम को प्यार करते हैं. कभी भी चाहे जो भी परिस्थिति हो साथ नहीं छोड़ सकते. तुम को अकेले नहीं छोड़ सकते हैं. मां कभी आंसू पोछती, कभी चुन्नी संभालती तो कभी बड़े प्यार से हवा से  झूलते बालों को चेहरे से हटा रही थी. दोनों के बीच में बैठी सुधा किसी डरीसहमी हुई बच्ची की तरह रोतीसिसकती चली जा रही थी. घर पहुंच कर सुधा सीधे अपने कमरे में जा कर दीवार से लग कर दहाड़ मार रोने लगी. मां चुप कराने को आगे बढ़ने लगी.

तब रमाकांत ने कहा, ‘‘उसे रो लेने दो.’’

सुधा का इस तरह रोना लीला देवी के कलेजे को चीर रहा था. जब बरदाश्त नहीं हुआ तब वह सुधा को चुप कराने लगी.

घर में सब लोग सामान्य होने की कोशिश कर रहे थे. सुधा के लिए यह बड़ा मुश्किल लग रहा था पर घर वालों का साहस उस का हौसला बढ़ा रहा था. सुधा वक्त की मारी खुद को कैसे इतनी जल्दी माफ कर दे. इतने भोलेभाले मातापिता के साथ उसे अपनेआप को सही लड़की और अच्छी बेटी बन कर दिखाना है और वह बन कर दिखाएगी, फिर से मांपापा का खोया विश्वास हासिल करेगी. अभी तक किसी ने भी यहां तक कि उस के छोटे भाई दीपू ने भी नहीं पूछा शायद पापा की हिदायत होगी. खाना खाते वक्त उस ने मां से अपने पास सोने का आग्रह किया.

तब उन्होंने कहा, ‘‘हां बेटा वैसे भी मैं तुम्हारे साथ ही सोने वाली थी.’’

सुधा सम झ गई आज मां उस से सारी बातें जानना चाहती हैं.ठीक है वह सब सचसच बता देगी कुछ भी नहीं छिपाएगी.

मगर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. मां चुपचाप सो गई जैसे कुछ हुआ ही नहीं. सुधा के लिए ये सब असहनीय हो रहा था. सब लोग उसे एक बार भी डांट क्यों नहीं रहे हैं न फटकार लगा रहे हैं. ऐसे मातापिता के लिए उस ने कितनी घृणित बात सोची कैसे कि ‘घर में घुसने नहीं देंगे.

सुधा की नींद उड़ गई थी. वह सारी बातें बता कर अपना मन हलका करना चाहती थी. सब की खामोशी उस के मन को जला रही थी. उस के पास तो  अब नाराजगी या रूठने का हक भी नहीं रहा. मन को चैन नहीं आ रहा था. उस ने सोच लिया यदि मां उस से कुछ भी जानना चाहेगी तब तो ठीक है वरना वह स्वयं ही उन्हें सबकुछ बता देगी. सोचतेसोचते सुधा कब सो गई उसे भी पता नहीं चला.

क्या मिला: उसने पूरी जिंदगी क्यों झेली तकलीफ

अब मैं 70 साल की हो गई. एकदम अकेली हूं. अकेलापन ही मेरी सब से बड़ी त्रासदी मुझे लगती है. अपनी जिंदगी को मुड़ कर देखती हूं तो हर एक पन्ना ही बड़ा विचित्र है. मेरे मम्मीपापा के हम 2 ही बच्चे थे. एक मैं और मेरा एक छोटा भाई. हमारा बड़ा सुखी परिवार. पापा साधारण सी पोस्ट पर थे, पर उन की सरकारी नौकरी थी.

मैं पढ़ने में होशियार थी. मुझे पापा डाक्टर बनाना चाहते थे और मैं भी यही चाहती थी. मैं ने मेहनत भी की और उस जमाने में इतना कंपीटिशन भी नहीं था. अतः मेरा सलेक्शन इसी शहर में मेडिकल में हो गया. पापा भी बड़े प्रसन्न. मैं भी खुश.

मेडिकल पास करते ही पापा को मेरी शादी की चिंता हो गई. किसी ने एक डाक्टर लड़का बताया. पापा को पसंद आ गया. दहेज वगैरह भी तय हो गया.

लड़का भी डाक्टर था तो क्या मैं भी तो डाक्टर थी. परंतु पारंपरिक परिवार होने के कारण मैं भी कुछ कह नहीं पाई. शादी हो गई. ससुराल में पहले ही उन लोगों को पता था कि यह लड़का दुबई जाएगा. यह बात उन्होंने हम से छुपाई थी. पर लड़की वाले की मजबूरी… क्या कर सकते थे.

मैं पीहर आई और नौकरी करने लगी. लड़का 6 महीने बाद आएगा और मुझे ले जाएगा, यह तय हो चुका था. उन दिनों मोबाइल वगैरह तो होता नहीं था. घरों में लैंडलाइन भी नहीं होता था. चिट्ठीपत्री ही आती थी.

पति महोदय ने पत्र में लिखा, मैं सालभर बाद आऊंगा. पीहर वालों ने सब्र किया. हिंदू गरीब परिवार का बाप और क्या कर सकता था? मैं तीजत्योहार पर ससुराल जाती. मुझे बहुत अजीब सा लगने लगा. मेरे पतिदेव का एक महीने में एक पत्र  आता. वो भी धीरेधीरे बंद होने लगा. ससुराल वालों ने कहा कि वह बहुत बिजी है. उस को आने में 2 साल लग सकते हैं.

मेरे पिताजी का माथा ठनका. एक कमजोर अशक्त लड़की का पिता क्या कर सकता है. हमारे कोई दूर के रिश्तेदार के एक जानकार दुबई में थे. उन से पता लगाया तो पता चला कि उस महाशय ने तो वहां की एक नर्स से शादी कर ली है और अपना घर बसा लिया है. यह सुन कर तो हमारे परिवार पर बिजली ही गिर गई. हम सब ने किसी तरह इस बात को सहन कर लिया.

पापा को बहुत जबरदस्त सदमा लगा. इस सदमे की सहन न कर पाने के कारण उन्हें हार्ट अटैक हो गया. गरीबी में और आटा गीला. घर में मैं ही बड़ी थी और मैं ने ही परिवार को संभाला. किसी तरह पति से डाइवोर्स लिया. भाई को पढ़ाया और उस की नौकरी भी लग गई. हमें लगा कि हमारे अच्छे दिन आ गए. हम ने एक अच्छी लड़की देख कर भैया की शादी कर दी.

मुझे लगा कि अब भैया मम्मी को संभाल लेगा. भैया और भाभी जोधपुर में सैटल हो गए थे. मैं ने सोचा कि जो हुआ उस को टाल नहीं सकते. पर, अब मैं आगे की पढ़ाई करूं, ऐसा सोच ही रही थी. मेरी पोस्टिंग जयपुर में थी. इसलिए मैं यहां आई, तो अम्मां को साथ ले कर आई. भैया की नईनई शादी हुई है, उन्हें आराम से रहने दो.

मैं भी अपने एमडी प्रवेश परीक्षा की तैयारी में लगी. राजीखुशी का पत्र भैयाभाभी भेजते थे. अम्मां भी खुश थीं. उन का मन जरूर नहीं लगता था. मैं ने कहा, ‘‘अभी थोड़े दिन यहीं रहो, फिर आप चली जाना.‘‘ ‘‘ठीक है. मुझे लगता है कि थोड़े दिन मैं बहू के पास भी रहूं.‘‘

‘‘अम्मां थोड़े दिन उन को अकेले भी एंजौय करने दो. नईनई शादी हुई है. फिर तो तुम्हें जाना ही है.‘‘
इस तरह 6 महीने बीत गए. एक खुशखबरी आई. भैया ने लिखा कि तुम्हारी भाभी पेट से है. तुम जल्दी बूआ बनने वाली हो. अम्मां दादी.

इस खबर से अम्मां और मैं बहुत प्रसन्न हुए. चलो, घर में एक बच्चा आ जाएगा और अम्मां का मन पंख लगा कर उड़ने लगा. ‘‘मैं तो बहू के पास जाऊंगी,‘‘ अम्मां जिद करने लगी. मैं ने अम्मां को समझाया, ‘‘अम्मां, अभी मुझे छुट्टी नहीं मिलेगी? जैसे ही छुट्टी मिलेगी, मैं आप को छोड़ आऊंगी. भैया को हम बुलाएंगे तो भाभी अकेली रहेंगी. इस समय यह ठीक नहीं है.‘‘

वे भी मान गईं. हमें क्या पता था कि हमारी जिंदगी में एक बहुत बड़ा भूचाल आने वाला है. मैं ने तो अपने स्टाफ के सदस्यों और अड़ोसीपड़ोसी को मिठाई मंगा कर खिलाई. अम्मां ने पास के मंदिर में जा कर प्रसाद भी चढ़ाया. परंतु एक बड़ा वज्रपात एक महीने के अंदर ही हुआ.

हमारे पड़ोस में एक इंजीनियर रहते थे. उन के घर रात 10 बजे एक ट्रंक काल आया. मुझे बुलाया. जाते ही खबर को सुन कर रोतेरोते मेरा बुरा हाल था. मेरे भाई का एक्सीडेंट हो गया. वह बहुत सीरियस था और अस्पताल में भरती था.

अम्मां बारबार पूछ रही थीं कि क्या बात है, पर मैं उन्हें बता नहीं पाई. यदि बता देती तो जोधपुर तक उन्हें ले जाना ही मुश्किल था. पड़ोसियों ने मना भी किया कि आप अम्मां को मत बताइए.

अम्मां को मैं ने कहा कि भाभी को देखने चलते हैं. अम्मां ने पूछा, ‘‘अचानक ही क्यों सोचा तुम ने? क्या बात हुई है? हम तो बाद में जाने वाले थे?‘‘

किसी तरह जोधपुर पहुंचे. वहां हमारे लिए और बड़ा वज्रपात इंतजार कर रहा था. भैया का देहांत हो गया. शादी हुए सिर्फ 9 महीने हुए थे.

भाभी की तो दुनिया ही उजड़ गई. अम्मां का तो सबकुछ लुट गया. मैं क्या करूं, क्या ना करूं, कुछ समझ नहीं आया. अम्मां को संभालूं या भाभी को या अपनेआप को?

मुझे तो अपने कर्तव्य को संभालना है. क्रियाकर्म पूरा करने के बाद मैं भाभी और अम्मां को साथ ले कर जयपुर आ गई. मुझे तो नौकरी करनी थी. इन सब को संभालना था. भाभी की डिलीवरी करानी थी.

भाभी और अम्मां को मैं बारबार समझाती.

मैं तो अपना दुख भूल चुकी. अब यही दुख बहुत बड़ा लग रहा था. मुझ पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा था. उन दिनों वेतन भी ज्यादा नहीं होता था.

मकान का किराया चुकाते हुए 3 प्राणी तो हम थे और चौथा आने वाला था. नौकरी करते हुए पूरे घर को संभालना था.

अम्मां भी एक के बाद एक सदमा लगने से बीमार रहने लगीं. उन की दवाई का खर्चा भी मुझे ही उठाना था.

मैं एमडी की पढ़ाईलिखाई वगैरह सब भूल कर इन समस्याओं में फंस गई. भाभी के पीहर वालों ने भी ध्यान नहीं दिया. उन की मम्मी पहले ही मर चुकी थी. उन की भाभी थीं और पापा बीमार थे. ऐसे में किसी ने उन्हें नहीं बुलाया. मैं ही उन्हें आश्वासन देती रही. उन्हें अपने पीहर की याद आती और उन्हें बुरा लगता कि पापा ने भी मुझे याद नहीं किया. अब उस के पापा ना आर्थिक रूप से संपन्न थे और ना ही शारीरिक रूप से. वे भला क्या करते? यह बात तो मेरी समझ में आ गई थी.

अम्मां को भी लगता कि सारा भार मेरी बेटी पर ही आ गया. बेटी पहले से दुखी है. मैं अम्मां को भी समझाती. इस छोटी उम्र में ही मैं बहुत बड़ी हो गई थी. मैं बुजुर्ग बन गई थी.

भाभी की ड्यू डेट पास में आने पर अम्मां और भाभी मुझ से कहते, ‘‘आप छुट्टी ले लो. हमें डर लगता है?‘‘

‘‘अभी से छुट्टी ले लूं. डिलीवरी के बाद भी तो लेनी है?‘‘

बड़ी मुश्किल से उन्हें समझाया. रात को परेशानी हुई तो मैं भाभी को ले कर अस्पताल गई और उन्हें भरती कराया. अस्पताल वालों को पता ही था कि मैं डाक्टर हूं. उन्होंने कहा कि आप ही बच्चे को लो. सब से पहले मैं ने ही उठाया. प्यारी सी लड़की हुई थी.

सुन कर भाभी को अच्छा नहीं लगा. वह कहने लगी, ‘‘लड़का होता तो मेरा सहारा ही बनता.‘‘

‘‘भाभी, आप तो पढ़ीलिखी हो कर कैसी बातें कर रही हैं? आप बेटी की चिंता मत करो. उसे मैं पालूंगी.‘‘

उस का ज्यादा ध्यान मैं ने ही रखा. भाभी को अस्पताल से घर लाते ही मैं ने कहा, ‘‘भाभी, आप भी बीएड कर लो, ताकि नौकरी लग जाए.‘‘

विधवा कोटे से उन्हें तुरंत बीएड में जगह मिल गई. बच्चे को छोड़ वह कालेज जाने लगी. दिन में बच्ची को अम्मां देखतीं. अस्पताल से आने के बाद उस की जिम्मेदारी मेरी थी. पर, मैं ने खुशीखुशी इस जिम्मेदारी को निभाया ही नहीं, बल्कि मुझे उस बच्ची से विशेष स्नेह हो गया. बच्ची भी मुझे मम्मी कहने लगी.

नौकरानी रखने लायक हमारी स्थिति नहीं थी. सारा बोझ मुझ पर ही था. किसी तरह भाभी का बीएड पूरा हुआ और उन्हें नौकरी मिल गई. मुझे थोड़ी संतुष्टि हुई. पर पहली पोस्टिंग अपने गांव में मिली. भाभी बच्ची को छोड़ कर चली गई. हफ्ते में या छुट्टी के दिन ही भाभी आती. बच्ची का रुझान अपनी मम्मी की ओर से हट कर पूरी तरह से मेरी ओर और अम्मां की तरफ ही था. हम भी खुश ही थे.

पर, मुझे लगा कि भाभी अभी छोटी है. वह पूरी जिंदगी कैसे अकेली रहेगी?

मैं ने भाभी से बात की. भाभी रितु बोली, ‘‘मुझे बच्चे के साथ कौन स्वीकार करेगा?‘‘

मैं ने कहा, ‘‘तुम गुड़िया की चिंता मत करो. उसे हम पाल लेंगे.‘‘

उस के बाद मैं ने भाभी रितु के लिए वर ढूंढ़ना शुरू किया. माधव नाम के एक आदमी ने भाभी से शादी करने की इच्छा प्रकट की. हम लोग खुश हुए. पर उस ने भी शर्त रख दी कि रितु भाभी अपनी बेटी को ले कर नहीं आएगी, क्योंकि उन के पहले ही एक लड़की थी.

मैं ने तो साफ कह दिया, ‘‘आप इस बात की चिंता ना करें. मैं बिटिया को संभाल लूंगी. मैं उसे पालपोस कर बड़ा करूंगी.‘‘

उस पर माधव राजी हो गया और यह भी कहा कि आप को भी आप के भाई की कमी महसूस नहीं होने दूंगा.

सुन कर मुझे भी बहुत अच्छा लगा. शुरू में माधव और रितु अकसर आतेजाते रहे. अम्मां को भी अच्छा लगता था, मुझे भी अच्छा लगता था. मैं भी माधव को भैया मान राखी बांधने लगी. सब ठीकठाक ही चल रहा था.

उन्होंने कोई जिम्मेदारी नहीं उठाई, परंतु अपने शहर से हमारे घर पिकनिक मनाने जैसे आ जाते थे. इस पर भी अम्मां और मैं खुश थे.

जब भी वे आते भाभी रितु को अपनी बेटी मान अम्मां उन्हें तिलक कर के दोनों को साड़ी, मिठाई, कपड़े आदि देतीं.

अब गुड़िया बड़ी हो गई. वह पढ़ने लगी. पढ़ने में वह होशियार निकली. उस ने पीएचडी की. उस के लिए मैं ने लड़का ढूंढा. अच्छा लड़का राज भी मिल गया. लड़कालड़की दोनों ने एकदूसरे को पसंद कर लिया. अब लड़के वाले चाहते थे कि उन के शहर में ही आ कर शादी करें.

मैं उस बात के लिए राजी हो गई. मैं ने सब का टिकट कराया. कम से कम 50 लोग थे. सब का टिकट एसी सेकंड क्लास में कराया. भाभी रितु और माधव मेहमान जैसे हाथ हिलाते हुए आए.

यहां तक भी कोई बात नहीं. उस के बाद उन्होंने ससुराल वालों से मेरी बुराई शुरू कर दी. यह क्यों किया, मेरी समझ के बाहर की बात है. अम्मां को यह बात बिलकुल सहन नहीं हुई. मैं ने तो जिंदगी में सिवाय दुख के कुछ देखा ही नहीं. किसी ने मुझ से प्रेम के दो शब्द नहीं बोले और ना ही किसी ने मुझे कोई आर्थिक सहायता दी.

मुझे लगा, मुझे सब को देने के लिए ही ऊपर वाले ने पैदा किया है, लेने के लिए नहीं. पेड़ सब को फल देता है, वह स्वयं नहीं खाता. मुझे भी पेड़ बनाने के बदले ऊपर वाले ने मनुष्यरूपी पेड़ का रूप दे दिया लगता है.

मुझे भी लगने लगा कि देने में ही सुख है, खुशी है, संतुष्टि है, लेने में क्या रखा है?

मैं ने भी अपना ध्यान भक्ति की ओर मोड़ लिया. अस्पताल जाना, मंदिर जाना, बाजार से सौदा लाना वगैरह.

गुड़िया की ससुराल तो उत्तर प्रदेश में थी, परंतु दामाद राज की पोस्टिंग चेन्नई में थी. शादी के बाद 3 महीने तक गुड़िया नहीं आई. चिट्ठीपत्री बराबर आती रही. अब तो घर में फोन भी लग गया था. फोन पर भी बात हो जाती. मैं ने कहा कि गुड़िया खुश है. उस को जब अपनी मम्मी के बारे में पता चला, तो उसे भी बहुत बुरा लगा. फिर हमारा संबंध उन से बिलकुल कट गया.

3 महीने बाद गुड़िया चेन्नई से आई. मैं भी खुश थी कि बच्ची देश के अंदर ही है, कभी भी कोई बात हो, तुरंत आ जाएगी. इस बात को सोच कर मैं बड़ी आश्वस्त थी. पर गुड़िया ने आते ही कहा, ‘‘राज का सलेक्शन विदेश में हो गया है.‘‘

इस सदमे को कैसे बरदाश्त करूं? पुरानी बातें याद आने लगीं. क्या इस बच्ची के साथ भी मेरे जैसे ही होगा? मेरे मन में एक अनोखा सा डर बैठ गया. मैं गुड़िया से कह न पाई, पर अंदर ही अंदर घुटती ही रही.

शुरू में राज अकेले ही गए और मेरा डर मैं किस से कहूं? पर गुड़िया और राज में अंडरस्टैंडिंग बहुत अच्छी थी. बराबर फोन आते. मेल आता था. गुड़िया प्रसन्न थी. मैं अपने डर को अंदर ही अंदर महसूस कर रही थी.

फिर 6 महीने बाद राज आए और गुड़िया को ले गए. मुझे बहुत तसल्ली हुई. पर अम्मां गुड़िया के वियोग को सहन न कर पाईं. उस के बाद अम्मां निरंतर बीमार रहने लगीं.

अम्मां का जो थोड़ाबहुत सहारा था, वह भी खत्म हो गया. उन की देखभाल का भार और बढ़ गया.

एक साल बाद फिर गुड़िया आई. तब वह 2 महीने की प्रेग्नेंट थी. राज ने फिर अपनी नौकरी बदल ली. अब कनाडा से अरब कंट्री में चला गया. वहां राज सिर्फ सालभर के लिए कौंट्रैक्ट में गया था. अब तो गुड़िया को ले जाने का ही प्रश्न नहीं था. गुड़िया प्रेग्नेंट थी.

क्या आप मेरी स्थिति को समझ सकेंगे? मैं कितने मानसिक तनावों से गुजर रही थी, इस की कल्पना भी कोई नहीं कर सकता. मैं किस से कहती? अम्मां समझने लायक स्थिति में नहीं थीं. गुड़िया को कह कर उसे परेशान नहीं करना चाहती थी. इस समय वैसे ही वह प्रेग्नेंट थी. उसे परेशान करना तो पाप है. गुड़िया इन सब बातों से अनजान थी.

डाक्टर ने गुड़िया को बेड रेस्ट के लिए कह दिया था. अतः वह ससुराल भी जा नहीं सकती थी. उस की सासननद आ कर कभी उस को देख कर जाते. उन के आने से मेरी परेशानी ही बढ़ती, पर मैं क्या करूं? अपनी समस्या को कैसे बताऊं? गुड़िया की मम्मी ने तो पहले ही अपना पल्ला झाड़ लिया था.

मैं जिम्मेदारी से भागना नहीं चाहती थी, परंतु विभिन्न प्रकार की आशंकाओं से मैं घिरी हुई थी. मैं ने कभी कोई खुशी की बात तो देखी नहीं, हमेशा ही मेरे साथ धोखा ही होता रहा. मुझे लगने लगा कि मेरी काली छाया मेरी गुड़िया पर ना पड़े. पर, मैं इसे किसी को कह भी नहीं सकती. अंदर ही अंदर मैं परेशान हो रही थी. उसी समय मेरे मेनोपोज का भी था.

इस बीच अम्मां का देहांत हो गया.

गुड़िया का ड्यू डेट भी आ गया और उस ने एक सुंदर से बेटे को जन्म दिया. मैं खुश तो थी, पर जब तक उस के पति ने आ कर बच्चे को नहीं देखा, मेरे अंदर अजीब सी परेशानी होती रही थी.

जब गुड़िया का पति आ कर बच्चे को देख कर खुश हुआ, तब मुझे तसल्ली आई.

अब तो गुड़िया अपने पति के साथ विदेश में बस गई और मैं अकेली रह गई. यदि गुड़िया अपने देश में होती तो मुझ से मिलने आती रहती, पर विदेश में रहने के कारण साल में एक बार ही आ पाती. फिर भी मुझे तसल्ली थी. अब कोरोना की वजह से सालभर से ज्यादा हो गया, वह नहीं आई. और अभी आने की संभावना भी इस कोरोना के कारण दिखाई नहीं दे रही, पर मैं ने एक लड़की को पढ़ालिखा कर उस की शादी कर दी. भाभी की भी शादी कर दी. यह तसल्ली मुझे है. पर बुढ़ापे में रिटायर होने के बाद अकेलापन मुझे खाने को दौड़ता है. इस को एक भुक्तभोगी ही जान सकता है.

अब आप ही बताइए कि मेरी क्या गलती थी, जो पूरी जिंदगी मैं ने इतनी तकलीफ पाई? क्या लड़की होना मेरा गुनाह था? लड़का होना और मेरी जिंदगी से खेलना मेरे पति के लड़का होने का घमंड? उस को सभी छूट…? यह बात मेरी समझ में नहीं आई? आप की समझ में आई तो मुझे बता दें.

रज्जो: क्यों रोने लगा रामदीन

रज्जो रसोईघर का काम निबटा कर निकली, तो रात के 10 बज रहे थे. वह अपने कमरे में जाने से पहले सुरेंद्र के कमरे में पहुंची. वह उस समय बिस्तर पर आंखें बंद किए लेटा था.

‘‘साहबजी, मैं कमरे पर सोने जा रही हूं. कुछ लाना है तो बताइए?’’ रज्जो ने सुरेंद्र की ओर देखते हुए पूछा.

सुरेंद्र ने आंखें खोलीं और अपने माथे पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘रज्जो, आज सिर में बहुत दर्द हो रहा है.’’

‘‘मैं आप के माथे पर बाम लगा कर दबा देती हूं,’’ रज्जो ने कहा और अलमारी में रखी बाम की शीशी ले आई. वह सुरेंद्र के माथे पर बाम लगा कर सिर दबाने लगी.

कुछ देर बाद रज्जो ने पूछा, ‘‘अब कुछ आराम पड़ा?’’

‘‘बहुत आराम हुआ है रज्जो, तेरे हाथों में तो जादू है,’’ कहते हुए सुरेंद्र ने अपना सिर रज्जो की गोद में रख दिया.

रज्जो सिर दबाने लगी. वह महसूस कर रही थी कि एक हाथ उस की कमर पर रेंग रहा है. उस ने सुरेंद्र की ओर देखा.

सुरेंद्र बोला, ‘‘रज्जो, यहां रहते हुए तू किसी बात की चिंता मत करना. तुझे किसी चीज की कमी नहीं रहेगी. जब कभी जितने रुपए की जरूरत पड़े, तो बता देना.’’

‘‘जी साहब.’’

‘‘आज तेरी मैडम लखनऊ गई हैं. वहां जरूरी मीटिंग है. 4 दिन बाद वापस आएंगी,’’ कह कर सुरेंद्र ने उसे अपनी ओर खींच लिया.

रज्जो समझ गई कि सुरेंद्र की क्या इच्छा है. वह बोली, ‘‘नहीं साहबजी, ऐसा न करो. मुझे तो मांकाका ने आप की सेवा करने के लिए भेजा है.’’

‘‘रज्जो, यह भी तो सेवा ही है. पता नहीं, आज क्यों मैं अपनेआप पर काबू नहीं रख पा रहा हूं?’’ सुरेंद्र ने रज्जो की ओर देखते हुए कहा.

‘‘साहबजी, अगर मैडम को पता चल गया तो?’’ रज्जो घबरा कर बोली.

‘‘उस की चिंता मत करो. वह कुछ नहीं कहेगी.’’

रज्जो मना नहीं कर सकी और न चाहते हुए भी सुरेंद्र की बांहों समा गई.

कुछ देर बाद जब रज्जो अपने कमरे में आ कर बिस्तर पर लेटी, तो उस की आंखों से नींद भाग चुकी थी. उस की आंखों के सामने मांकाका, 2 छोटी बहनों व भाई के चेहरे नाचने लगे.

यहां से 3 सौ किलोमीटर दूर रज्जो का गांव चमनपुर है. काका राजमिस्त्री का काम करता है. महीने में 10-15 दिन मजदूरी पर जाता है, क्योंकि रोजाना काम नहीं मिलता.

रज्जो तो 5 साल पहले 10वीं जमात पास कर के स्कूल छोड़ चुकी थी. उस की 2 छोटी बहनें व भाई पढ़ रहे थे. मां ने उस का नाम रजनी रखा था, पर पता नहीं, कब वह रजनी से रज्जो बन गई.

एक दिन गांव की प्रधान गोमती देवी ने मां को बुला कर कहा था, ‘मुझे पता चला है कि तेरी बेटी रज्जो तेरी तरह बहुत बढि़या खाना बनाती है. तू उसे सुबह से शाम तक के लिए मेरे घर भेज दे.’

‘ठीक है प्रधानजी, मैं रज्जो को भेज दूंगी,’ मां ने कहा था.

2 दिन बाद रज्जो ने गोमती प्रधान के घर की रसोई संभाल ली थी.

एक दिन एक बड़ी सी कार गोमती प्रधान के घर के सामने रुकी. कार से सुरेंद्र व उस की पत्नी माधवी मैडम उतरे. कार पर लाल बत्ती लगी थी. गोमती प्रधान की दूर की रिश्तेदारी में माधवी मैडम बहन लगती थीं.

दोपहर का खाना खा कर सुरेंद्र व माधवी ने रज्जो को बुला कर कहा, ‘तुम बहुत अच्छा खाना बनाती हो. हमें तुम जैसी लड़की की जरूरत है. क्या तुम हमारे साथ चलोगी? जैसे तुम यहां खाना बनाती हो, वैसा ही तुम्हें वहां भी रसोई में काम करना है.’

रज्जो चुप रही.

गोमती प्रधान बोल उठी थीं. ‘यह क्या कहेगी? इस के मांकाका को कहना पड़ेगा.’

कुछ देर बाद ही रज्जो के मांकाका वहां आ गए थे.

गोमती प्रधान बोलीं, ‘रामदीन, यह मेरी बहन है. सरकार में एक मंत्री की तरह हैं. इस को रज्जो के हाथ का बना खाना बहुत पसंद आया, तो ये लोग इसे अपने घर ले जाना चाहते हैं रसोई के काम के लिए.’

‘रामदीन, बेटी रज्जो को भेज कर बिलकुल चिंता न करना. हम इसे पूरा लाड़प्यार देंगे. रुपएपैसे हर महीने या जब तुम चाहोगे भेज देंगे,’ माधवी मैडम ने कहा था.

‘साहबजी, आप जैसे बड़े आदमी के यहां पहुंच कर तो इस की किस्मत ही खुल जाएगी. यह आप की सेवा खूब मन लगा कर करेगी. यह कभी शिकायत का मौका नहीं देगी,’ काका ने कहा था.

सुरेंद्र ने जेब से कुछ नोट निकाले और काका को देते हुए कहा, ‘लो, फिलहाल ये पैसे रख लो. हम लोग हर तरह  से तुम्हारी मदद करेंगे. यहां से लखनऊ तक कोई भी सरकारी या गैरसरकारी काम हो, पूरा करा देंगे. अपनी सरकार है, तो फिर चिंता किस बात की.’

रज्जो उसी दिन सुरेंद्र व माधवी के साथ इस कसबे में आ गई थी.

सुरेंद्र की बहुत बड़ी कोठी थी, जिस में कई कमरे थे. एक कमरा उसे भी दे दिया गया था. माधवी मैडम ने उस को कई सूट खरीद कर दिए थे. उसे एक मोबाइल फोन भी दिया था, ताकि वह अपने घरपरिवार से बात कर सके.

रज्जो को पता चला था कि सुरेंद्र की काफी जमीनजायदाद है. एक ही बेटा है, जो बेंगलुरु में पढ़ाई कर रहा है.

माधवी मैडम बहुत बिजी रहती हैं. कभी पार्टी मीटिंग में, तो कभी इधरउधर दूसरे शहरों में और कभी लखनऊ में.

इन्हीं विचारों में डूबतेतैरते रज्जो को नींद आ गई थी. अगले दिन सुरेंद्र ने रज्जो को कमरे में बुला कर कुछ गोलियां देते हुए कहा, ‘‘रज्जो, ये गोलियां तुझे खानी हैं. रात जो हुआ है, उस से तेरी सेहत को नुकसान नहीं होगा.’’

‘‘जी…’’ रज्जो ने वे गोलियां देखीं. वह जान गई कि ये तो पेट गिराने वाली गोलियां हैं.

‘‘और हां रज्जो, कल अपने घर ये रुपए मनीऔर्डर से भेज देना,’’ कहते हुए सुरेंद्र ने 5 हजार रुपए रज्जो को दिए.

‘‘इतने रुपए साहबजी…?’’ रज्जो ने रुपए लेते हुए कहा.

‘‘अरे रज्जो, ये रुपए तो कुछ भी नहीं हैं. तू हम लोगों की सेवा कर रही है न, इसलिए मैं तेरी मदद करना चाहता हूं.’’

रज्जो सिर झुका कर चुप रही.

सुरेंद्र ने रज्जो का चेहरा हाथ से ऊपर उठाते हुए कहा, ‘‘तुझे कभी अपने गांव जाना हो, तो बता देना. ड्राइवर और गाड़ी भेज दूंगा.’’

सुन कर रज्जो बहुत खुश हुई.

‘‘रज्जो, तू मुझे इतनी अच्छी लगती है कि अगर मैडम की जगह मैं मंत्री होता, तो तुझे अपना पीए बना लेता,’’ सुरेंद्र ने कहा.

‘‘रहने दो साहबजी, मुझे ऐेसे सपने न दिखाओ, जो मैं रोटी बनाना ही भूल जाऊं.’’

‘‘रज्जो, तू नहीं जानती कि मैं तेरे लिए क्या करना चाहता हूं,’’ सुरेंद्र ने कहा.

खुशी के चलते रज्जो की आंखों की चमक बढ़ गई.

4 दिन बाद माधवी मैडम घर लौटीं. इस बीच हर रात को सुरेंद्र रज्जो को अपने कमरे में बुला लेता और रज्जो भी पहुंच जाती, उसे खुश करने के लिए.

अगले दिन रज्जो एक कमरे के बराबर से निकल रही थी, तो सुरेंद्र व माधवी की बातचीत की आवाज आ रही थी. वह रुक कर सुनने लगी.

‘‘कैसी लगी रज्जो?’’ माधवी ने पूछा.

‘‘ठीक है, बढि़या खाना बनाती है,’’ सुरेंद्र का जवाब था.

‘‘मैं रसोई की नहीं, बैडरूम की बात कर रही हूं. मैं जानती हूं कि रज्जो ने इन रातों में कोई नाराजगी का मौका नहीं दिया होगा.’’

‘‘तुम्हें क्या रज्जो ने कुछ बताया है?’’

‘‘उस ने कुछ नहीं बताया. मैं उस के चेहरे व आंखों से सच जान चुकी हूं.

‘‘खैर, मुझे तुम से कोई शिकायत नहीं. तुम कहा करते थे कि मैं बाहर चली जाती हूं, तो अकेले रात नहीं कटती, इसलिए ही तो रज्जो को इतनी दूर से यहां लाई हूं, ताकि जल्दी से वापस घर न जा सके.’’

‘‘तुम बहुत समझदार हो माधवी…’’ सुरेंद्र ने कहा, ‘‘लखनऊ में तुम्हारे नेताजी के क्या हाल हैं? वह तो बस तुम्हारा पक्का आशिक है, इसलिए ही तो उस ने तुम्हें लाल बत्ती दिला दी है.’’

‘‘इस लाल बत्ती के चलते हम लोगों का कितना रोब है. पुलिस या प्रशासन में भला किस अफसर की इतनी हिम्मत है, जो हमारे किसी भी ठीक या गलत काम को मना कर दे.’’

‘‘नेताजी का बस चले तो वह तुम्हें लखनऊ में ही हमेशा के लिए बुला लें.’’

‘‘अगले हफ्ते नेताजी जनपद में आ रहे हैं. रात को हमारे यहां खाना होगा. मैं ने सोचा है कि नेताजी की सेवा में रात को रज्जो को उन के पास भेज दूंगी.

‘‘जब नेताजी हमारा इतना खयाल रखते हैं, तो हमारा भी तो फर्ज बनता है कि नेताजी को खुश रखें. अगले महीने रज्जो को लखनऊ ले जाऊंगी, वहां

2-3 दूसरे नेता हैं, उन को भी खुश करना है,’’ माधवी ने कहा.

सुनते ही रज्जो के दिल की धड़कनें बढ़ने लगीं. वह चुपचाप रसोई में जा पहुंची. उस ने तो साहब को ही खुश करना चाहा था, पर ये लोग तो उसे नेताओं के पास भेजने की सोच बैठे हैं. वह ऐसा नहीं करेगी. 1-2 दिन बाद ही वह अपने गांव चली जाएगी.

तभी मोबाइल फोन की घंटी बज उठी. वह बोली, ‘‘हैलो…’’

‘‘हां रज्जो बेटी, कैसी है तू?’’ उधर से काका की आवाज सुनाई दी.

काका की आवाज सुन कर रज्जो का दिल भर आया. उस के मुंह से आवाज नहीं निकली और वह सुबकने लगी.

‘‘क्या हुआ बेटी? बता न? लगता है कि तू वहां बहुत दुखी है. पहले तो तू साहब व मैडम की बहुत तारीफ किया करती थी. फिर क्या हो गया, जो तू रो रही है?’’

‘‘काका, मैं गांव आना चाहती हूं.’’

‘‘ठीक है रज्जो, मेरा 2 दिन का काम और है. उस के बाद मैं तुझे लेने आ जाऊंगा. मैं जानता हूं कि मैडम व साहब बहुत अच्छे लोग हैं. तुझे भेजने को मना नहीं करेंगे. तू हमारी चिंता न करना. यहां सब ठीक है. तेरी मां, भाईबहनें सब मजे में हैं,’’ काका ने कहा.

रज्जो चुप रही.

अगले दिन सुरेंद्र व माधवी ने रज्जो को कमरे में बुलाया.

सुरेंद्र ने कहा, ‘‘रज्जो, 4-5 दिन बाद लखनऊ से बहुत बड़े नेताजी आ रहे हैं. यह हमारा सौभाग्य है कि वे हमारे यहां खाना खाएंगे और रात को आराम भी यहीं करेंगे.’’

‘‘जी…’’ रज्जो के मुंह से निकला.

‘‘रात को तुम्हें नेताजी की सेवा करनी है. उन को खुश करना है. देखना रज्जो, अगर नेताजी खुश हो गए तो…’’ माधवी की बात बीच में ही अधूरी रह गई.

रज्जो एकदम बोल उठी, ‘‘नहीं मैडमजी, यह मुझ से नहीं होगा. यह गलत काम मैं नहीं करूंगी.’’

‘‘और मेरे पीठ पीछे साहबजी के साथ रात को जो करती रही, क्या वह गलत काम नहीं था?’’

रज्जो सिर झुकाए बैठी रही, उस से कोई जवाब नहीं बन पा रहा था.

‘‘रज्जो, तू हमारी बात मान जा. तू मना मत कर,’’ सुरेंद्र बोला.

‘‘साहबजी, ये नेताजी आएंगे, इन को खुश करना है. फिर कुछ नेताओं को खुश करने के लिए मुझे मैडमजी लखनऊ ले कर जाएंगी. मैं ने आप लोगों की बातें सुन ली हैं. मैं अब यह गलत काम नहीं करूंगी. मैं अपने घर जाना चाहती हूं. 2 दिन बाद मेरे काका आ रहे हैं,’ रज्जो ने नाराजगी भरे शब्दों में कहा.

‘‘अगर हम तुझे गांव न जाने दें तो…?’’ माधवी ने कहा.

‘‘तो मैं थाने जा कर पुलिस को और अखबार के दफ्तर में जा कर बता दूंगी कि आप लोग मुझ से जबरदस्ती गलत काम कराना चाहते हैं,’’ रज्जो ने कड़े शब्दों में कहा.

रज्जो के बदले तेवर देख कर सुरेंद्र ने कहा, ‘‘ठीक है रज्जो, हम तुझ से कोई काम जबरदस्ती नहीं कराएंगे. तू अपने काका के साथ गांव जा सकती है,’’ यह कह कर सुरेंद्र ने माधवी की ओर देखा.

उसी रात सुरेंद्र ने रज्जो की गला दबा कर हत्या कर दी और ड्राइवर से कह कर रज्जो की लाश को नदी में फिंकवा दिया. दिन निकलने पर इंस्पैक्टर को फोन कर के कोठी पर बुला लिया.

‘‘कहिए हुजूर, कैसे याद किया?’’ इंस्पैक्टर ने आते ही कहा.

‘‘हमारी नौकरानी रजनी उर्फ रज्जो घर से एक लाख रुपए व कुछ जेवरात चुरा कर भाग गई है.’’

‘‘सरकार, भाग कर जाएगी कहां वह? हम जल्द ही उसे पकड़ लेंगे,’’ इंस्पैक्टर ने कहा और कुछ देर बाद चला गया.

दोपहर बाद रज्जो का काका रामदीन आया. सुरेंद्र ने उसे देखते ही कहा, ‘‘अरे ओ रामदीन, तेरी रज्जो तो बहुत गलत लड़की निकली. उस ने हम लोगों से धोखा किया है. वह हमारे एक लाख रुपए व जेवरात ले कर कल रात कहीं भाग गई है.’’

‘‘नहीं हुजूर, ऐसा नहीं हो सकता. मेरी रज्जो ऐसा नहीं कर सकती,’’ घबरा कर रामदीन बोला.

‘‘ऐसा ही हुआ है. वह यहां से चोरी कर के भाग गई है. जब वह गांव में अपने घर पहुंचे तो बता देना. थाने में रिपोर्ट लिखा दी है. पुलिस तेरे घर भी पहुंचेगी.

‘‘अगर तू ने रज्जो के बारे में न बताया, तो पुलिस तुम सब को उठा कर जेल भेज देगी.

‘‘और सुन, तू चुपचाप यहां से भाग जा. अगर पुलिस को पता चल गया कि तू यहां आया है, तो पकड़ लिया जाएगा.’’

यह सुन कर रामदीन की आंखों में आंसू आ गए. रज्जो के लिए उस के दिल में नफरत बढ़ने लगी. वह रोता हुआ बोला, ‘‘रज्जो, यह तू ने अच्छा नहीं  किया. हम ने तो तुझे यहां सेवा करने के लिए भेजा था और तू चोर बन गई.’’

रामदीन रोतेरोते थके कदमों से कोठी से बाहर निकल गया.

Winter Special: फैमिली के लिए नाश्ते में बनाएं सुरती लोचा

प्रत्येक सुबह नाश्ते की समस्या से हर गृहिणी को दो चार होना ही  पड़ता है. त्यौहारी सीजन भी समाप्त हो चुका है. जिंदगी अब पुनः पुराने ढर्रे पर लौट चली है. त्योहारों के समय चिकने और मिर्च मसालेदार हैवी नाश्ता और भोजन की अपेक्षा अब  सादा और हैल्दी भोजन और नाश्ता खाने का मन करने लगता है. आज हम आपको ऐसे ही एक हैल्दी नाश्ते को बनाना बता रहे हैं जिसे आप घर की उपलब्ध सामग्री से ही बड़ी आसानी से बना सकते हैं साथ ही इसे बच्चों के टेस्ट के अनुसार ट्विस्ट करके आप उन्हें भी खाने को दे सकते हैं. यही नहीं अपने स्वादानुसार आप विभिन्न तरीकों से इसे सर्व भी कर सकतीं हैं तो आइए देखते हैं कि इसे कैसे बनाया जाता है-

कितने लोगों के लिए              8

बनने में लगने वाला समय        30 मिनट

मील टाइप                            वेज

सामग्री

चना दाल                     1 कप

धुली उडद दाल             1 टेबलस्पून

चावल                          1 टेबलस्पून

पोहा                            1 टेबलस्पून

ताजा दही                     1 टेबलस्पून

बेसन                            1 टेबलस्पून

अदरक  पेस्ट                   1 टीस्पून

हरी मिर्च पेस्ट                  1 टीस्पून

हींग                               1/4 टीस्पून

नमक                              1 टीस्पून

ईनो फ्रूट साल्ट                 1 सैशे

मूंगफली तेल                    1 टीस्पून

विधि

उडद, चना दाल और चावल को दो तीन बार अच्छी तरह धोकर रात भर के लिए भिगोकर रख दें. सुबह इनका पानी अलग कर दें. इन्हें पीसने से आधे घण्टे पहले पोहे को भी भिगो दें. अब दाल और चावल को दरदरा मिक्सी में पीस लें. जब यह लगभग दरदरा सा हो जाये तो बेसन, पोहा और दही डालकर पीस लें. अब इसे एक एयरटाइट कंटेनर में रखकर 8-9 घण्टे के लिए फर्मेंट होने के लिए रख दें.जब मिश्रण में खमीर उठ जाए तो इसमें अदरक, हरी मिर्च पेस्ट, हींग, तेल, 1कप पानी और नमक डालकर अच्छी तरह चलायें. ध्यान रखें कि मिश्रण न बहुत गाढ़ा और न ही बहुत अधिक पतला हो.  2 थालियों में चिकनाई लगाकर तैयार मिश्रण को डाल दें. अब एक कढ़ाई या भगौने में पानी गर्म होने रखें और उसके ऊपर थाली रखकर लोचा को भाप में 10 से 15मिनट तक पकाएं. ठंडा होने पर आप इसे निम्न तरीकों से सर्व कर सकतीं हैं-

-राई,  जीरा, कढ़ी पत्ता,हरी मिर्च और कश्मीरी लाल मिर्च को गर्म तेल में डालकर तड़का लगाएं और तैयार लोचा के ऊपर डालकर सर्व करें.

-गर्म गर्म लोचे के ऊपर चीज किसें और ऊपर से चिली फ्लैक्स और मिक्स हर्ब्स डालकर बच्चों को खाने को दें.

-लोचे के ऊपर खट्टी मीठी चटनी, दही, बारीक सेव, अनार के दाने और कटा प्याज डालकर सर्व कीजिये चाट के स्वाद वाला यह लोचा सभी को बहुत पसंद आएगा.

-लोचे के ऊपर पेरी पेरी मसाला और 1 चम्मच ताजा दही डालकर सर्व करें.

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