Passenger Parenting: बच्चों के लिए कितना फायदेमंद

Passenger Parenting एक नई परवरिश की शैली है जिस में मातापिता बच्चों के जीवन में सहभागी तो होते हैं, लेकिन निर्णय लेने की बागडोर बच्चों को सौंपते हैं. इस में बच्चा खुद निर्णय लेता है, जिस से वह आत्मविश्वासी बनता है और अपने समय का प्रबंधन भी खुद करता है. यह पद्धति बच्चों को स्वतंत्रता देती है, पर साथ ही कुछ चुनौतियां भी लाती है.

रचनात्मक सोच को बढ़ावा

इस शैली के सकारात्मक पहलुओं में आत्मनिर्भरता का विकास शामिल है, जिस में बच्चा समस्याओं को स्वयं हल करना सीखता है.

रचनात्मक सोच को बढ़ावा मिलता है क्योंकि सीमाओं की कमी नवाचार को प्रेरित करती है. साथ ही, बच्चों पर परफैक्शन का दबाव न होने से वे तनावमुक्त रहते हैं.

नकारात्मक पक्ष

हालांकि, इस के नकारात्मक पक्ष भी हैं. बिना मार्गदर्शन बच्चे दिशाहीन हो सकते हैं. वे गैजेट्स पर अधिक निर्भर हो सकते हैं और मातापिता से भावनात्मक दूरी बना सकते हैं. अकेले निर्णय लेते रहने से वे असुरक्षित और अकेला महसूस कर सकते हैं. इसलिए कुछ बातों का ध्यान रखना जरूरी है.

मातापिता को मार्गदर्शक की भूमिका निभाते रहना चाहिए. गैजेट्स के उपयोग पर नियम बनाए जाने चाहिए. बच्चों से नियमित संवाद करना और उन्हें स्पष्ट लेकिन प्रेमपूर्वक सीमाएं बताना जरूरी है.

कितना सही

पैसेंजर पेरेंटिंग बच्चों में आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास को बढ़ावा देती है, बशर्ते कि मातापिता सच्चे साथी, संरक्षक और मार्गदर्शक की भूमिका निभाएं. बच्चों को यह एहसास दिलाना जरूरी है कि वे चाहे खुद निर्णय लें, लेकिन मातापिता हमेशा उन के साथ हैं. यह परवरिश की वह शैली है जिस में आजादी, प्रेम और मार्गदर्शन का संतुलन होता है और यही संतुलन बच्चे के उज्ज्वल भविष्य की नींव रखता है. Passenger Parenting

Saree With Denim: साड़ी के साथ डेनिम को पेयर कर पाएं अट्रैक्टिव लुक

Saree With Denim: जेनजी की पहली पसंद होती है डेनिम फिर चाहे वह जींस, स्कर्ट, टौप, शर्ट, मिडी या फिर फुललेंथ ड्रैस हो. यही नहीं, आजकल तो डेनिम साड़ी भी नई पीढ़ी के सिर चढ़ कर बोल रही है.

हाल ही में एक इवेंट में एक फिल्मी हीरोइन द्वारा डेनिम ब्लाउज को लिनेन साड़ी के साथ कैरी किया गया था जो सोशल मीडिया पर काफ़ी सुर्खियों में रहा. आने वाले फैस्टिव सीजन में यदि आप खुद को सब से अलग दिखाना चाहते हैं तो आप भी डेनिम ब्लाउज को साड़ी के साथ पेयर कर के खुद को आकर्षक लुक दे सकते हैं. डेनिम की खासियत होती है कि इसे आप किसी भी रंग के साथ पेयर कर सकते हैं.

आइए, जानते हैं कुछ ट्रिक्स और टिप्स जो डेनिम के साथ साड़ी पेयर करने में काफी मददगार साबित होंगे:

शर्ट को बनाएं स्टेटमैंट ब्लाउज

स्टेटमैंट ब्लाउज आजकल बहुत फैशन में है. किसी भी डेनिम शर्ट को आप आधा टक करें या फिर कमर पर नौट लगा कर पहनें. स्लीव्स को मोड़ लें ताकि ब्लाउज को एक स्ट्रक्चर्ड लुक मिल सके. अब आप बांधनी, बनारसी या बौर्डर वाली ब्राइट सिल्क की साड़ियां इस के साथ कैरी करें. गजरा, टेंपल ज्वैलरी, बिंदी और कमरबंद से अपने लुक को फेस्टिव टच दें.

इंब्रौयडर्ड डेनिम ब्लाउज

डेनिम के इंब्रौयडर्ड ब्लाउज के साथ फैस्टिव प्रिंट वाली या प्लेन साड़ियां पेयर करें. इसे आप गरबा नाइट्स, दीवाली पार्टी या अन्य किसी भी फैमिली फंक्शन में बड़े आराम से पहन सकती हैं. बड़े झुमके, बोल्ड लिपस्टिक और रंगबिरंगी चूड़ियां पहन कर खुद को अट्रैक्टिव लुक दें.

डेनिम शर्ट

डेनिम शर्ट को क्रौप टौप की तरह पहन कर लिनेन, जौर्जेट या फिर किसी फ्लोई फैब्रिक की साड़ी को धोती या लहंगा स्टाइल में टक करें और पल्लू सामने की तरफ प्लेट्स के साथ रखें. शर्ट यदि कुछ लंबी है तो नीचे के 2 बटन खुले रखें. बैंगल्स, बेल्ट, फैस्टिव टोट बैग और पोटली के साथ अपने लुक को कंप्लीट टच दें.

लेयरिंग विद डेनिम

किसी भी टाई डाई, फौयल प्रिंट, रेडी टू वियर साड़ियों के ऊपर क्रौप्ड ओवरसाइज्ड डेनिम शर्ट को जैकेट की तरह लेयर करें. ध्यान रखें कि ब्लाउज एकदम प्लेन या मिनिमल डिजाइन वाला हो. डेनिम शर्ट के ऊपर ब्रोच या फैस्टिव बैच लगाएं. इस के साथ कानों में लंबे झुमके पेयर करें.

डेनिम क्रौप टौप

ट्रैडिशनल कांजीवरम, रिच सिल्क, पैठनी या ब्रोकेड साड़ी को डार्क वाश क्रौप टौप के साथ पेयर करें. मैटेलिक हील्स, कुंदन चोकर और स्लीक बैक हेयरस्टाइल बनाएं.

ध्यान रखें

  • डेनिम के साथ साड़ी कैरी करते समय मिड वाश या इंडिगो डेनिम चुनें ताकि ऐथनिक और मौडर्न का मेल दिखने में अच्छा लगे क्योंकि डार्क डेनिम हर रंग की साड़ी के साथ मेल भी नहीं खाएगा.
  • यदि आप किसी त्योहार पर साड़ी पहन रहीं हैं तो चूंकि डेनिम औलरेडी आप को मौडर्न लुक प्रदान कर रहा है, इसलिए नथ, माथापट्टी, पायल जैसी ऐक्सैसरीज को पहन कर अपने लुक को फैस्टिव बनाएं.
  • बोल्ड काजल, ग्लोइंग स्किन, मैरून या बेरी शेड की लिपस्टिक से खुद को अट्रैक्टिव लुक दें.
  • ब्लौक हील्स, इंब्रौयडर्ड जूती या कोल्हापुरी चप्पलें पहनें.
  • चूंकि आप परंपरा और आधुनिकता का संयोजन कर रही हैं इसलिए बहुत अधिक गहरा मेकअप करने से बचें.
  • साड़ी को अच्छी तरह सैफ्टी पिन से टक करें ताकि चलते समय खुलने का डर न रहे. Saree With Denim

Ear Pain: कान में दर्द से परेशान? ये हैं इसके कारण और बचाव के तरीके

Ear Pain: कान का दर्द एक आम समस्या है, जो बच्चों से ले कर बड़ों तक किसी को भी हो सकती है. अकसर लोग इसे मामूली दर्द समझ कर घरेलू उपायों से निबटने की कोशिश करते हैं, जिस से स्थिति और बिगड़ सकती है.

विशेषज्ञों के अनुसार, कान दर्द की अनदेखी गंभीर समस्याओं जैसे बहरेपन का कारण भी बन सकती है.

कान दर्द के प्रकार

प्राथमिक (जो सीधे कान की बीमारी से जुड़ा होता है) और निर्दिष्ट (जो शरीर के अन्य हिस्सों की समस्याओं जैसे दांत दर्द, जुकाम या गले के संक्रमण से संबंधित होता है. प्रमुख कारणों में मध्य कान का संक्रमण (ओटाइटिस मीडिया), कान में वैक्स का जमाव, साइनस इन्फैक्शन, कान का परदा फटना, फंगल संक्रमण (औटोमीकोसिस) और एअर प्रेशर बदलाव (इयर बैरोट्रोमा) शामिल हैं.

बच्चों में यह समस्या अधिक पाई जाती है, खासकर जब वे करवट ले कर दूध पीते हैं, जिस से दूध यूस्टेचियन ट्यूब के जरीए कान तक पहुंच जाता है और संक्रमण हो सकता है. वैक्स या मैल जमा होने से भी दर्द और सुनाई देने में कमी आती है.

बचाव के उपाय

  • कान में पिन, चाबी, तिल्ली जैसी चीजें डालने से बचें.
  • नहाने या तैरने के बाद कान को सूखा रखें.
  • प्लेन यात्रा के दौरान च्युइंगम चबाएं या वाल्साल्वा व्यायाम करें.
  • कान की नियमित सफाई डाक्टर की सलाह से कराएं.
  • बच्चों को दूध पिलाते समय उन के सिर को ऊंचा रखें.

उपचार के तौर पर हलकी सिंकाई, दर्द निवारक दवाएं (बगैर डाक्टर सलाह के नहीं) और डाक्टर द्वारा सुझाई गई ईयर ड्रौप्स उपयोगी होती हैं. लेकिन अगर दर्द 2-3 दिनों से अधिक बना रहे या कान से मवाद निकले तो तुरंत ईएनटी विशेषज्ञ से परामर्श लें.

कान की सेहत को नजरअंदाज न करें. समय पर उपचार से गंभीर दिक्कतों से बचा जा सकता है. Ear Pain

Emotional Story in Hindi: जिंदगी के साथ भी जिंदगी के बाद भी

Emotional Story in Hindi: वह औरत कौन थी? कार में धीरज के साथ कहां जा रही थी? धीरज के साथ उस का क्या रिश्ता था? धीरज के पास से तो उस का मोबाइल और पर्स मिल गया था, लेकिन उस औरत का कोई पहचानपत्र या मोबाइल घटनास्थल से बरामद नहीं हुआ. इस वजह से यह सब एक रहस्य बन गया था.

धीरज के मित्र, औफिस वाले, रिश्तेदार और पड़ोसी सब जानना चाहते थे कि आखिर वह औरत थी कौन? और उस का धीरज से क्या रिश्ता था? सब को धीरज की मौत का गम कम, उस राज को जानने की उत्सुकता ज्यादा थी.

जिंदगी में कभीकभी ऐसा घटित हो जाता है कि इंसान समझ ही नहीं पाता कि यह क्या हो गया? ऐसी ही एक घटना नहीं बल्कि दुर्घटना घटी शोभा के साथ. उस का पति धीरज एक औरत के साथ सड़क दुर्घटना में मारा गया था.

पुलिस ने अपनी खानापूर्ति कर दी. दोनों लाशों का पोस्टमौर्टम हो गया. उस औरत की लाश को लेने कोई नहीं आया, सो, उस का अंतिम संस्कार पुलिस द्वारा कर दिया गया.

वह औरत शादीशुदा थी क्योंकि उस की मांग में सिंदूर था. सवाल यह था कि वह गैरमर्द के साथ कार में क्यों थी? कार के कागजात के आधार पर पता चला कि वह कार धीरज के मित्र की थी. एक दिन पहले ही धीरज ने उस से यह कह कर ली थी कि वह एक जरूरी काम से चंडीगढ़ जा रहा है, लेकिन कार दुर्घटनाग्रस्त हुई दिल्लीआगरा यमुना ऐक्सप्रैसवे पर यानी धीरज ने अपने मित्र से झूठ बोला.

जब दुर्घटना की गुत्थी नहीं सुलझ सकी तो लोगों ने खुल कर कहना शुरू कर दिया कि उस औरत के साथ धीरज के अवैध रिश्ते रहे होंगे और वे दोनों मौजमस्ती के लिए निकले होंगे.

लोगों की इस बेहूदा सोच पर शोभा खासी नाराज थी लेकिन वह कर भी क्या सकती थी. किसी का मुंह वह बंद तो नहीं कर सकती थी.

धीरज उसे बहुत प्यार करता था. शादी के 5 वर्षों में जब उन्हें संतान सुख नहीं मिला तब उन दोनों ने अपनाअपना मैडिकल चैकअप कराया. रिपोर्ट में पता चला कि वह मां नहीं बन सकती जबकि धीरज पिता बनने के काबिल था. यह जान कर वह बहुत रोई और धीरज से बोली, ‘तुम दूसरी शादी कर लो, मैं अपना जीवन काट लूंगी.’

‘शोभा, अगर कमी मुझ में होती तो क्या तुम मुझे छोड़ कर दूसरी शादी कर लेतीं,’ कहते हुए धीरज ने उसे अपनी बांहों में भर लिया था.

क्या उस से इतना प्यार करने वाला धीरज उस के साथ इस तरह बेवफाई कर सकता है? शोभा ने अपने मन को यह कह कर तसल्ली दी, हो सकता है उस औरत ने धीरज से लिफ्ट मांगी हो. लेकिन दिमाग में कुछ सवाल बिजली की तरह कौंध रहे थे कि धीरज ने अपने दोस्त से गाड़ी चंडीगढ़ जाने को कह कर ली तो फिर वह आगरा जाने वाले यमुना ऐक्सप्रैसवे पर क्यों गया? मित्र से उस ने झूठ क्यों बोला? आखिर वह जा कहां रहा था? और उसे भी कुछ बता कर नहीं गया जबकि वह उस को छोटी से छोटी बात भी बताता था. कुछ बात तो जरूर है तभी धीरज ने उस से अपने बाहर जाने की बात छिपाई थी.

शोभा को दुखी और परेशान देख कर उस के पिता ने कहा, ‘‘बेटी, जो होना था वह तो हो गया, तुम अब खुद को मजबूत करो और आर्थिक रूप से अपने पांवों पर खड़ी होने की कोशिश करो. धीरज की कोई सरकारी नौकरी तो थी नहीं कि जिस के आधार पर तुम्हें नौकरी या पैंशन मिलेगी. उस के कागजात देखो, शायद उस ने कोई इंश्योरैंस पौलिसी वगैरह कराई हो. उस के बैंक खातों को भी देखो. शायद तुम्हें कुछ आर्थिक मदद मिल सके.’’

‘‘नहीं पापा, मुझे सब पता है. उन्होंने कोई पौलिसी वगैरह नहीं कराई थी. न ही बैंक में कोई खास रकम है, क्योंकि उन की नौकरी मामूली थी और वेतन भी कम था. कुछ बचता ही कहां था जो वे जमा करते. वे अपने मांबाप की भी आर्थिक मदद करते थे.’’

‘‘फिर भी बेटा, एक बार देख लो, हर इंसान अपने आने वाले वक्त के लिए करता है और फिर धीरज जैसे समझदार इंसान ने भी कुछ न कुछ अवश्य किया होगा.’’

दुखी मन से शोभा ने धीरज की अलमारी खोली, शायद उस के कागजात के साथ ही उस के साथ हुए हादसे का भी कोई सूत्र मिल जाए. अलमारी में बैंक की एक चैकबुक मिली और भारतीय जीवन बीमा निगम की एक डायरी मिली. उस ने उसे जोश के साथ से खोला. पहले ही पृष्ठ पर लिखा था, ‘जिंदगी के साथ भी, जिंदगी के बाद भी.’ कुछ पृष्ठों पर औफिस से संबंधित कार्यों का लेखाजोखा था.

डायरी के बीच में एक मैडिकल स्टोर का परचा मिला, जिस में कुछ दवाइयां लिखी थीं. ये कौन सी दवाइयां थीं, खराब लिखावट की वजह से कुछ भी समझ नहीं आ रहा था. जिस तारीख का परचा था, शोभा को खासा याद था कि उस ने उस दौरान कोई दवाई नहीं मंगाई थी. इस का मतलब धीरज ने अपने लिए दवा खरीदी थी. यह सोच कर वह भयभीत हो उठी कि कहीं धीरज किसी गंभीर बीमारी से पीडि़त तो नहीं था.

उस ने फौरन मैडिकल स्टोर जाने का फैसला लिया. वह मैडिकल स्टोर उस के घर से काफी दूर था, लेकिन वह वहां गई. मैडिकल स्टोर वाले ने परचे पर लिखी दवाएं तो बता दीं लेकिन दवाएं लेने कौन आया था, वह न बता सका. दवाइयां दांतों की बीमारी से संबंधित थीं.

उस दौरान धीरज को दांतों से संबंधित कोई समस्या नहीं थी. अगर थी भी तो वह अपने घर या औफिस के नजदीक के मैडिकल स्टोर से दवा लेता. इतनी दूर आने की क्या जरूरत थी? तो इस का मतलब साफ था कि धीरज ने किसी और के लिए दवाइयां खरीदी थीं. किस के लिए खरीदी थीं, यह जानने के लिए शोभा ने घर आ कर धीरज का सामान फिर से टटोला.

उस ने उस की डायरी दोबारा अच्छी तरह से चैक की. 15 अगस्त वाले पृष्ठ पर उस ने लिखा था, ‘आज आजादी का दिन मेरे लिए खास बन गया.’ आखिर 15 अगस्त को ऐसा क्या हुआ था जो उस के लिए खास बन गया था, इस बात का जिक्र नहीं था.

उस ने उस के मोबाइल पर भी एक चीज नोट की, उस ने अपने मोबाइल के वालपेपर पर तिरंगे के साथ अपनी हंसतीमुसकराती तसवीर लगा रखी थी. तभी उस का मोबाइल बज उठा. बच्चे की खिलखिलाहट की रिंगटोन थी. यह सत्य था कि उसे बच्चों से बहुत प्यार था, इसलिए उस ने बच्चे की खिलखिलाहट की रिंगटोन लगा रखी थी. लेकिन आज ध्यान से सुना तो बीच में कोई धीरे से बोल रहा था, ‘पापा, बोलो पापा.’

यह सुन कर उस का माथा ठनका. हो न हो, 15 अगस्त और बच्चे की खिलखिलाहट में कुछ न कुछ राज जरूर छिपा है.

वालपेपर को उस ने गौर से देखा. धीरज के पीछे एक अस्पताल था. अस्पताल का नाम साफ नजर आ रहा था. शायद उस ने सैल्फी ली थी यानी 15 अगस्त को धीरज उस अस्पताल के पास था. वह वहां क्यों गया था, यह जानने के लिए वह तुरंत उस अस्पताल के लिए चल पड़ी. वह भी काफी दूर था. वहां गई तो वास्तव में अस्पताल के बाहर तिरंगा लहरा रहा था. यह तो तय हो गया था कि धीरज ने सैल्फी यहीं ली थी. लेकिन वह यहां करने क्या आया था. अचानक उस के मस्तिष्क में बच्चे की खिलखिलाहट की रिंगटोन और ‘पापा, बोलो पापा’ की ध्वनि बिजली की तरह कौंध गई और वह फौरन अस्पताल के अंदर चली गई.

मैटरनिटी होम के रिसैप्शन पर जा कर उस ने 15 अगस्त को जन्मे बच्चों की जानकारी चाही. पहले तो उसे मना कर दिया गया, लेकिन काफी रिक्वैस्ट करने पर बताया गया कि उस दिन 7 बच्चे हुए थे जिन में 4 लड़के और 3 लड़कियां थीं. उन बच्चों के पिता के नाम में धीरज का नाम नहीं था. सातों मांओं के नाम उस ने नोट कर लिए. अस्पताल के नियम के मुताबिक उसे उन के पते और मोबाइल नंबर नहीं दिए गए.

घर आ कर उस ने धीरज के मोबाइल में उन नामों के आधार पर नंबर ढूंढ़े, लेकिन कोई नंबर नहीं मिला. एक नंबर जरूर ‘एस’ नाम से सेव था. उस ने उस नंबर पर फोन लगाया तो उधर से एक नारीस्वर गूंजा, ‘‘कौन?’’

‘‘जी, मैं बोल रही हूं.’’

‘‘कौन? तू सीमा बोल रही है क्या?’’

यह सुन कर वह थोड़ा घबराई, ‘‘आप मेरी बात तो सुनिए.’’

‘‘अरे सीमा, क्या बात सुनूं तेरी? तू उस दिन शाम तक आने को कह कर गई थी और आज चौथा दिन है. तेरे बच्चे का रोरो कर बुरा हाल है. जल्दबाजी में तू अपना मोबाइल और पर्स भी यहीं भूल गई. तेरे फोन भी आ रहे हैं. समझ नहीं आ रहा कि क्या कहूं कि तू है कहां?’’

‘‘जी, वह बात यह है कि…’’

‘‘तू इतना घबरा कर क्यों बोल रही है? कोई परेशानी है तो मुझे बता, क्या पति से झगड़ा हो गया है?’’

‘‘जी, मैं सीमा नहीं, उस की बहन शोभा बोल रही हूं.’’

‘‘शोभा? लेकिन सीमा ने कभी आप का जिक्र ही नहीं किया. आप बोल कहां से रही हैं?’’ उस ने हैरानी से पूछा.

‘‘मैं आप को फोन पर कुछ नहीं बता पाऊंगी. आप से मिल कर सबकुछ विस्तार से बता दूंगी. शीघ्र ही मैं आप से मिलना चाहती हूं. प्लीज, आप अपना पता बता दीजिए,’’ निवेदन करते हुए उस ने कहा.

‘‘ठीक है, मैं अभी आप को अपना पता एसएमएस करती हूं.’’ चंद मिनटों में ही उस का पता मोबाइल स्क्रीन पर आ गया और शोभा शीघ्र ही वहां के लिए रवाना हो गई.

जैसे ही शोभा ने दरवाजे की घंटी बजाई, एक अधेड़ उम्र की महिला ने दरवाजा खोला, ‘‘आप शोभाजी हैं न,’’ कहते हुए वे उसे बहुत सम्मान के साथ अंदर ले गईं.

पानी का गिलास पकड़ाते हुए बोलीं, ‘‘सीमा ने कभी आप का जिक्र तक नहीं किया था. वह मेरे यहां किराए पर अपने पति के साथ रहती थी. अभी 15 अगस्त को उस के बेटा  भी हुआ है. उस की ससुराल और मायके से कोई नहीं आया था. सारा काम मैं ने और उस के पति ने ही संभाला था. वह मुझे मां समान मानती है. अभी 4 दिनों पहले ही सुबह 6 बजे अपने बेटे को मेरे पास छोड़ कर जाते हुए बोली थी, ‘‘आंटी, एक बहुत जरूरी काम से हम दोनों जा रहे हैं, शाम तक वापस आ जाएंगे, प्लीज, तब तक आप आर्यन को संभाल लेना.’’

अपने पर्स से धीरज का फोटो निकाल कर उन्हें दिखाते हुए शोभा बोली, ‘‘आंटी, क्या यही सीमा के पति हैं?’’

‘‘हां, यही इस के पति हैं, लेकिन आप क्यों पूछ रही हैं? आप को तो सबकुछ पता होना चाहिए, क्योंकि आप तो सीमा की बहन हैं,’’ उन्होंने शंका जाहिर की.

‘‘आंटी, बात दरअसल यह है कि सीमा ने परिवार की मरजी के खिलाफ प्रेमविवाह किया था, इसलिए हमारा उस से संपर्क नहीं था. लेकिन अभी 4 दिनों पहले ही सीमा और उस के पति की एक कार ऐक्सिडैंट में मौत हो गई है. आखिरी समय में उस ने पुलिस को हमारा पता और आप का मोबाइल नंबर बताया था. उसी के आधार पर मैं यहां आई हूं,’’ कहते हुए उस ने अखबार की कटिंग जिस में दुर्घटना के समाचार के साथसाथ सीमा और धीरज की तसवीर थी, दिखा दी, और फिर सुबक पड़ी.

वे बुजुर्ग महिला भी रो पड़ीं और सिसकते हुए बोलीं, ‘‘अब आर्यन तो अनाथ हो गया.’’

‘‘नहीं आंटी, आर्यन क्यों अनाथ हो गया. उस की मौसी तो जिंदा है. मैं पालूंगी उसे. आखिर मौसी भी तो मां ही होती है.’’

‘‘हां शोभा, तुम ठीक कह रही हो. अब तुम ही संभालो नन्हें आर्यन को,’’ कहते हुए वे अंदर से एक 7-8 माह के बच्चे को ले आईं जो हूबहू धीरज की फोटोकौपी था.

शोभा ने बच्चे को अपनी छाती से ऐसे चिपका लिया जैसे कोई उसे छीन न ले. वह जल्दी से जल्दी वहां से निकलना चाह रही थी.

आंटी ने कहा, ‘‘आप सीमा का कमरा खोल कर देख लो. बच्चे का जरूरी सामान तो अभी ले जाओ, बाकी सामान जब जी चाहे ले जाना. उस के बाद ही मैं कमरा किसी और को किराए पर दूंगी.’’

उस ने सीमा का कमरा खोला. कमरे में खास सामान नहीं था. बस, जरूरी सामान था. बच्चे का सामान और सीमा का पर्स व मोबाइल ले कर वह आंटी को फिर आने को कह कर घर चल पड़ी.

सारे रास्ते सोचती रही कि धीरज ने उस के साथ कितना बड़ा धोखा किया. दूसरी शादी रचा ली और बच्चा तक पैदा कर लिया. जब खुद उस ने दूसरी शादी के लिए कहा था तब कितनी वफादारी दिखा रहा था. ऐसे दोहरे व्यक्तित्व वाले इंसान के प्रति उस का मन घृणा से भर गया.

घर आ कर उस ने सब से पहले सीमा का पर्स चैक किया. पर्स में थोड़ेबहुत रुपए, दांतों के डाक्टर का परचा और थोड़ाबहुत कौस्मैटिक का सामान था. पैनकार्ड और आधारकार्ड से पता चला कि सीमा धीरज के ही शहर की थी. इस का मतलब धीरज शादी के पहले से ही सीमा को जानता था और उस का प्रेमप्रसंग काफी पुराना था.

फिर उस ने सीमा का मोबाइल चैक किया. वालपेपर पर सीमा, धीरज और बच्चे का फोटो लगा था.

व्हाट्सऐप पर काफी मैसेज थे जो डिलीट नहीं किए गए थे.

‘‘सीमा, इतने सालों बाद तुम मुझे मैट्रो में मिली. मुझे अच्छा लगा. लेकिन यह जान कर दुख हुआ कि तुम्हारा पति से तलाक हो चुका है.’’

‘‘नहीं, मैं तुम्हारे घर नहीं आऊंगा क्योंकि अब मैं शादीशुदा हूं और अपनी पत्नी से बहुत प्यार करता हूं. वैसे भी तुम अकेली रहती हो, मुझे देख कर तुम्हारी मकानमालकिन आंटी क्या सोचेंगी?’’

‘‘तुम ने आंटी को अपना परिचय मेरे पति के रूप में दिया, यह मुझे अच्छा नहीं लगा.’’

‘‘हमारे बीच जो कुछ क्षणिक आवेश में हुआ, उस के लिए मैं तुम से माफी चाहता हूं और अब मैं तुम से कभी नहीं मिलूंगा.’’

‘‘क्या? मैं पिता बनने वाला हूं.’’

‘‘सीमा, प्लीज जिद छोड़ दो, मैं शोभा को तलाक नहीं दे सकता. मैं

उसे सचाई बता दूंगा. वह स्वीकार कर लेगी. उस का दिल बहुत बड़ा है. हम सब साथ रहेंगे. हमारे बच्चे को 2-2 मांओं का प्यार मिलेगा.’’

‘‘सीमा, मुझे अपने बच्चे से मिलने दो. उस के बिना मैं मर जाऊंगा.’’

इस के अलावा औरों के भी मैसेज थे. तभी अचानक सीमा के मोबाइल की घंटी बजी. उस ने तुरंत रिसीव किया, ‘‘कौन?’’

‘‘कौन की बच्ची? इतने दिनों से फोन लगा रही हूं. हर बार तेरी खड़ूस आंटी उठाती है और कहती है कि तू अभी तक वापस नहीं आई. क्या बात है? मथुरा में शादी कर के वहीं से हनीमून मनाने भी निकल गई.’’

शोभा चुप रही. बस, ‘‘हूं’’ कहा.

‘‘अच्छा, व्यस्त है हनीमून में. वैसे सीमा, यह ठीक ही रहा वरना धीरज तो तुझे अपने घर में अपनी बीवी की नौकरानी बना कर रख देता. तेरा बच्चा भी तेरा अपना नहीं रहता. बच्चे से न मिलने देने की धमकी सुन कर आ गया न लाइन पर. मेरा यह आइडिया कामयाब रहा. अब मंदिर में तू ने शादी तो कर ली है लेकिन ऐसी शादी कोई नहीं मानेगा, इसलिए बच्चे को ढाल बना कर जल्दी से जल्दी धीरज को अपनी बीवी से तलाक के लिए राजी कर.’’

‘‘हांहां,’’ शोभा ने अटकते स्वर में कहा.

‘‘हांहां मत कर, पार्टी की तैयारी शुरू कर. मैं अगले हफ्ते ही दिल्ली आ रही हूं औफिस के काम से.’’

‘‘ठीक है,’’ कहते हुए शोभा ने फोन काट दिया.

धीरज के प्रति उस के मन में जो गलत भाव आ गए थे, वे एक पल में धुल गए. सच में धीरज ने एक पति होने के नाते उसे पूरा मानसम्मान और प्रेम दिया. वह धीरज पर गौरवान्वित हो उठी. धीरज की निशानी नन्हें आर्यन को पा कर उस का तनमन महक उठा. उस ने उसे कस कर सीने से लगा लिया और बरसों से सहेजा ममता का खजाना उस पर लुटा दिया.

उस के अनुभवी पिता ने सत्य ही कहा था कि धीरज जैसे समझदार इंसान ने भविष्य के लिए कुछ न कुछ जरूर किया होगा. वास्तव में उस ने अपनी जिंदगी की एक महत्त्वपूर्ण पौलिसी करा ही दी थी जो शोभा का सुरक्षित भविष्य बन गई थी. बीमा कंपनी की टैग लाइन ‘जिंदगी के साथ भी जिंदगी के बाद भी’ को सार्थक कर दिया था धीरज ने. वह जिंदगी में शोभा के साथ था और जिंदगी के बाद भी उस के साथ है नन्हें आर्यन के रूप में.

Emotional Story in Hindi

Hindi Fictional Strory: श्रद्धांजलि- क्या था निकिता का फैसला

Hindi Fictional Story: ‘‘निक्की, पापा ने इतने शौक से तुम्हारे लिए पिज्जा भिजवाया है और तुम उसे हाथ भी नहीं लगा रही, क्यों?’’ अमिता ने झल्ला कर पूछा.

‘‘क्योंकि उस में शिमलामिर्च है और आप ने ही कहा था कि जिस चीज में कैपस्किम हो उसे हाथ भी मत लगाना,’’ निकिता के स्वर में व्यंग्य था.

अमिता खिसिया गई.

‘‘ओह, मैं तो भूल ही गई थी कि तुझे शिमलामिर्ची से एलर्जी है. तेरे पापा को यह मालूम नहीं है.’’

‘‘उन्हें मालूम भी कैसे हो सकता है क्योंकि वे मेरे पापा हैं ही नहीं,’’ निकिता ने बात काटी.

अमिता ने सिर पीट लिया.

‘‘निक्की, अब तुम बच्ची नहीं हो, यह क्यों स्वीकार नहीं करतीं कि तुम्हारे अपने पापा मर चुके हैं और अब जगदीश लाल ही तुम्हारे पापा हैं?’’

‘‘मैं उसी दिन बड़ी हो गई थी मां जिस दिन मैं ने ही तुम्हें फोन पर पापा के न रहने की खबर दी थी, मेरी गोद में ही तो घायल पापा ने दम तोड़ा था. रहा सवाल जग्गी अंकल का तो आप उन्हें पति मान सकती हैं लेकिन मैं पापा नहीं मान सकती और मां, इस से आप को तकलीफ भी क्या है? आप की आज्ञानुसार मैं उन्हें पापा कहती हूं, उन की इज्जत करती हूं.’’

‘‘लेकिन उन्हें प्यार नहीं करती. जानती है कितनी तकलीफ होती है मुझे इस से, खासकर तब जब वे तेरा इतना खयाल रखते हैं. इतना पैसा लगा कर हमें यहां टूर पर इसलिए साथ ले कर आए हैं कि तू अपने स्कूल प्रोजैक्ट के लिए यह देखना चाहती थी कि छोटी जगहों में जिंदगी कैसी होती है. आज रास्ते में कहीं पिज्जा मिलता देख कर, ड्राइवर के हाथ तेरे लिए भिजवाया है, जबकि वे कंपनी के ड्राइवर से घर का काम करवाना पसंद नहीं करते.’’

‘‘इस सब के लिए मैं उन की आभारी हूं मां, बहुत इज्जत करती हूं उन की लेकिन पापा की तरह उन्हें प्यार नहीं कर सकती. बेहतर रहे कि आइंदा इस बारे में बात कर के न आप खुद दुखी हों, न मुझे दुखी करें. मैं वादा करती हूं, जग्गी अंकल की भावनाओं को मैं कभी आहत नहीं होने दूंगी,’’ निकिता ने पिज्जा को दोबारा पैक करते हुए कहा, ‘‘शाम को उन के पूछने पर कह दूंगी कि आप के साथ खाएंगे और फिर जब पिज्जा गरम हो कर आएगा तो आप मुझे खाने से रोक देना एलर्जी की वजह से. बात खत्म.’’ यह कह कर निकिता अपने कमरे में चली गई.

लेकिन बात खत्म नहीं हुई. निकिता को रहरह कर अपने पापा की याद आ रही थी. वह और पापा भी कालोनी के दूसरे लोगों की तरह अकसर कालोनी की सडक़ पर बैडमिंटन खेला करते थे. उस रविवार की सुबह मां बाजार गई थीं और निकिता पापा के साथ सडक़ पर बैडमिन्त्न खेल रही थी कि एक लौंग शौट मारने के चक्कर में उछल कर पापा एक नए बनते मकान की नींव के लिए रखे पत्थरों के ढ़ेर पर जा गिरे और उन का सिर फट गया. जब तक शोर सुन कर पड़ोस में रहने वाले डाक्टर चौधरी पहुंचे, पापा अंतिम सांस ले चुके थे.

मोबाइल पर निकिता से खबर मिलते ही मां ने शायद जग्गी अंकल को फोन कर दिया था क्योंकि वे मां से पहले पहुंच गए थे और विह्लïल होने के बावजूद उन्होंने बड़ी कुशलता से सब संभाल लिया था. मां और पापा के परिवार वालों का तो रोरो कर हाल बेहाल था. पापा के अंतिम संस्कार के बाद जग्गी अंकल ने सब से गंभीर स्वर में कहा था, ‘जो चला गया उस के लिए रोने के बजाय जिन्हें वह पीछे छोड़ गया है, उन की जिंदगी फिर से पटरी पर लाने के लिए क्या करना है, उस पर शांति से सोचिए.’

‘सोचना क्या है, इन्हें हम अपने साथ ले जाएंगे,’ अमिता की सास ने कहा.

‘मैं भी यही सोच रही हूं. अब अमिता की मरजी है, जहां चलना चाहे, चले,’ अमिता की मां बोली. ‘मेरा कहीं जाने का सवाल ही नहीं उठता क्योंकि यहां मेरी स्थायी नौकरी है, निक्की का स्कूल है और हमारा अपना घर है. बीमे के पैसे से घर का लोन चुकता हो जाएगा और मेरे वेतन से हम मां बेटी का खर्च चल जाया करेगा,’ अमिता ने संयत स्वर में कहा.

‘फिर भी, छोटी बच्ची के साथ तुझे अकेले कैसे छोड़ सकते हैं?’ मां ने पूछा.

‘लेकिन फिलहाल आप न मिड टर्म में निक्की का स्कूल छुड़वा सकती हैं, न ही इतनी जल्दी अमिताजी की लगीलगाई नौकरी और न इस घर को बिकवा या किराए पर चढ़ा सकती हैं?’ अमिता के बोलने से पहले जग्गी ने पूछा, ‘बेहतर रहेगा कि अभी आप लोगों में से कोई बारीबारी इन के साथ रहे, मैं तो आताजाता रहूंगा ही. इस बीच इत्मीनान से कोई स्थायी हल भी ढूंढ लीजिएगा.’

‘जग्गी का कहना बिलकुल ठीक है,’’ अमिता के ससुर ने कहा. और सब ने भी उन का अनुमोदन किया.

निकिता की दादीनानी बारीबारी से उन के साथ रहने लगीं. जग्गी अंकल तो हमेशा की तरह आते रहते थे. पापा के बीमे, प्रौविडैंट फंड और अन्य विदेशों से पैसा निकलवाने में उन्होंने बहुत दौड़धूप की थी और उस रकम का निकिता के नाम से निवेश करवा दिया था. नानीदादी के रहने से और जग्गी अंकल के आनेजाने से पापा के जाने से कोई दिक्कत तो महसूस नहीं हो रही थी लेकिन जो कमी थी, वह तो थी ही. किसी तरह साल भी गुजर गया.

पापा की बरसी पर फिर सब लोग इकट्ठे हुए और उन्होंने जो फैसला किया उस से निकिता बुरी तरह टूट गई थी.

सब का कहना था कि जगदीश लाल से बढ़ कर अमिता और निकिता का कोई  हितैषी हो ही नहीं सकता. सो, वे मांबेटी को उन्हें ही सौंप रहे हैं यानी दोनों की शादी करवा रहे हैं. जगदीश लाल और अमिता ने जिस नाटकीय ढंग से सब की आज्ञा शिरोधार्य की थी उस से निकिता बुरी तरह बिलबिला उठी थी. वह चीखचीख कर कहना चाहती थी कि बंद करो यह नौटंकी, तुम दोनों तो कब से इस दिन के इंतजार में थे. आंखमिचौली तो पापा के सामने ही शुरू कर चुके थे.

पापा के दोस्त जगदीश लाल एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के मार्केटिंग विभाग में काम करते थे. अकसर वे टूर पर उन के शहर में आते थे. पहले तो होटल में ठहरा करते थे, फिर पापा की जिद पर उन के घर पर ही ठहरने लगे. उन के आने से पापा तो खुश होते ही थे, निकिता को भी बहुत अच्छा लगता था क्योंकि अंकल उस के लिए हमेशा कुछ न कुछ ले कर आया करते थे. उस के साथ खेलते थे और होमवर्क भी करवा देते थे. शरारत करने पर डांटते भी थे जो निकिता को बुरा नहीं लगता था. लेकिन जगदीश लाल के आने पर सब से ज्यादा चहकती थीं मां. इंसान अपना गम तो किसी तरह छिपा लेता है मगर खुशी को स्वयं में समेटना शायद आसान नहीं होता, तभी तो मां ने एक दिन शीला आंटी के बगैर कुछ पूछे ही कहा था, ‘न जाने आजकल क्यों मैं बहुत तरोताजा महसूस कर रही हूं खुशी और उत्साह से भरी हुई.’

‘तो खुश रह, वजह ढूंढऩे की क्या जरूरत है?’ शीला आंटी ने लापरवाही से कहा.

लेकिन निकिता ने बताना चाहा था कि उसे वजह पता है, आजकल जगदीश लाल जो आए हुए हैं.

फिर मैनेजर बन कर अंकल की पोस्टिंग उन्हीं के शहर में हो गई थी. पापा के कहने पर कि ‘अब तो शादी कर ले’, अंकल ने कहा था, ‘करूंगा यार, मगर उम्र थोड़ी और बड़ी हो जाने पर ताकि बड़ी उम्र की औरत को अकेले रहते डर न लगे. मार्केटिंग का आदमी हूं, सो, शहर से बाहर जानाआना तो उम्रभर ही चलेगा.’

अंकल के आने के बाद मां का औफिस में देर तक रुकना भी कुछ ज्यादा ही बढ़ गया था. अकसर उन का फोन आता था, ‘मैं तो 8 बजे से पहले नहीं निकल पाऊंगी, आप मुझे लेने मत आओ, निक्की का होमवर्क करवा कर उसे समय पर खाना खिला दो. मैं कैसे भी आ जाऊंगी या ठीक समझो तो जगदीश जी से कह दो.’ जगदीश अंकल भी उन लोगों को दावत पर बुलाते रहते थे और तब मां उस के और पापा के पहुंचने से पहले ही औफिस से सीधे वहां पहुंच चुकी होती थीं. कई बार मां अचानक ही कहीं घूमने जाने का प्रोग्राम बना लेती थीं और वहां घूमते हुए जग्गी अंकल भी मिल जाते थे.

ऐसी छोटीछोटी कई बातें थीं जो तब तो महज इत्तफाक लगती थीं मगर अब सोचो तो लगता है कि पापा की आंखों में धूल झोंकी जा रही थी. जाने वह कब तक इस बारे में सोचती रहती कि मां के पुकारने पर उस की तंद्रा भंग हुई. ‘‘बाहर आओ निक्की, पापा आ गए हैं.’’

‘‘आज अनिता से फोन पर बात हुई थी. कह रही थी कि आधे रास्ते तक तो आए हुए ही हो, फिर मुझ से मिलने भी आ जाओ,’’ अमिता ने बताया.

‘‘बात तो सही है,’’ जगदीश ने कहा, ‘‘मौसी से मिलना है निक्की?’’ निकिता ने खुशी से सहमति में सिर हिलाया.

‘‘आप को छुट्टी मिल जाएगी?’’ अमिता ने पूछा.

‘‘टूर के दौरान छुट्टी लेना नियम के विरुद्ध है, कुछ दिनों बाद तुम्हें लिवाने के लिए छुट्टी ले कर आ सकता हूं. दिन का 7-8 घंटे का सफर है, एसी चेयर में आरक्षण करवा देता हूं, तुम दोनों आराम से चली जाना.’’

मौसी के बच्चे निकिता के समवयस्क थे. सो, उस का समय उन के साथ बड़े मजे में कट रहा था. लेकिन मौसी की आंखों से उस की उदासी छिपी न रह सकी. एक दोपहर जब अमिता सो रही थी, मौका देख कर उन्होंने पूछ ही लिया.

‘‘जग्गी का व्यवहार तेरे साथ कैसा है निक्की?’’

‘‘बहुत अच्छा. वे हमेशा ही मुझे बहुत प्यार करते हैं.’’

‘‘तो फिर तू खुश क्यों नहीं है, इतनी उदास क्यों रहती है?’’

‘‘पापा बहुत याद आते हैं मौसी.’’

‘‘वह तो स्वाभाविक ही है, उन्हें कैसे भुलाया जा सकता है.’’

‘‘लेकिन मां ने तो उन्हें भुला दिया है?’’

‘‘भुलाने का नाटक करती है बेचारी सब के सामने. हरदम रोनी सूरत बना कर कैसे रह सकती है?’’

‘‘रोनी सूरत बनाने का नाटक करती हैं,’’ निक्की फट पड़ी, ‘‘पापा की जिंदगी में ही उन की जग्गी अंकल के साथ लुक्काछिप्पी शुरू हो गई थी…’’ और उस ने धीरेधीरे अनिता को सब बता दिया.

‘‘मगर तेरे पापा की मृत्यु तो दुर्घटना ही थी न?’’

‘‘हां मौसी, वह तो मेरी आंखों के सामने ही हुई थी, उस के लिए तो किसी को दोष नहीं दे सकते लेकिन उस के बाद जो भी हुआ उस के लिए आप सब भी दोषी हैं.

आप सब ने ही तो मां की शादी जग्गी अंकल से करवा कर, पापा का अस्तित्व ही मिटा दिया उन की जिंदगी से.’’

अनिता सुन कर स्तब्ध रह गई. निक्की ने जो भी कहा उसे नकारा नहीं जा सकता था. लेकिन इस के सिवा कोई और चारा भी तो नहीं था. अकेले कैसे पालती अमिता निक्की को और अगर निक्की का जग्गी और अमिता के बारे में कहना सही है, तब तो उन लोगों ने समय रहते उन के रिश्ते पर सामाजिक मोहर लगवा कर परिवार की बदनामी होने को रोक लिया.

‘‘यह क्या कह रही है निक्की? अपने पापा की जीतीजागती धरोहर तू है न अमिता की जिंदगी में. कितने लाड़प्यार से पाल रहे हैं तुझे दोनों. और वैसे भी निक्की, तेरे पापा की यादों के सहारे जीना और तुझे पालना तो बहुत मुश्किल होता अकेली अमिता के लिए. याद है यहां पहुंचने के बाद तूने ही फोन पर जग्गी से कहा था कि तुम लोगों को लेने के लिए तो उसे आना ही पड़ेगा, तू अकेली अमिता के साथ सफर नहीं करेगी.’’

‘‘हां मौसी, हम दोनों को अकेली देख कर कुछ लोगों ने बहुत तंग किया था. रैक पर से सामान उतारने और रखने के बहाने बारबार हमारी सीट से सट कर खड़े हो जाते थे.’’

‘‘जब 7-8 घंटे के सफर में ही लोगों ने तुम्हारे अकेलेपन का फायदा उठाना चाहा तो जिंदगी के लंबे सफर में तो न जाने क्याक्या होता? मैं तुम्हें अपने पापा को भूलने को या उन के अस्तित्व को नकारने को नहीं कह रही निक्की, मन ही मन उन का नमन करो, उन से जीवन में आगे बढऩे की प्रेरणा मांगो, उन से उन की प्रिय अमिता और जिगरी दोस्त जग्गी को खुश करने की शक्ति मांगो. उन दोनों की खुशी के लिए तो तुम्हारे पापा कुछ भी कर सकते थे न?’’ अनिता ने पूछा.

‘‘जी, मौसी.’’

‘‘और उन्हीं दोनों को तू दुखी रखती है उदास रह कर. जानती है निक्की, अपने पापा के लिए तेरी सब से उपयुक्त श्रद्धांजलि क्या होगी?’’

‘‘क्या मौसी?’’ निक्की ने उतावली हो कर पूछा.

‘‘खुश रह कर अमिता और जग्गी को भी खुशी से जीने दे.’’

‘‘जी, मौसी,’’ निकिता ने सिर झुका कर कहा.

बेटा, पिता के मरने के बाद बच्चों से ज्यादा उन की कमी मां को खलती है. तुम तो 5-7 साल में बड़ी हो कर पर लगा कर उड़ जाओगी, पता है तुम्हारी मां अगले 30-40 साल कैसे गुजारेंगी? क्या तुम चाहती हो कि वे अकेले रहें, तुम्हें रातबिरात परेशान करें. हर समय अपनी बीमारियों का रोना रोएं? जग्गी अंकल हैं तो तुम्हें भरोसा है न, कि मां की देखभाल कोई कर रहा है. अपने साथी को खो चुकी मां को यह गिफ्ट तो दे ही सकती है तू.

Hindi Fictional Story

Motivational Story: पापा के लिए- क्या त्यागना पड़ा सौतेली बेटी नेहा को?

Motivational Story: जिस स्नेह और अपनेपन से मेरी मम्मी ने पापा के पूरे परिवार को अपना लिया था, उस का एक अंश भी अगर पापा उन की बेटी को यानी मुझे दे देते तो… लेकिन नहीं, पापा मुझे कभी अपनी बेटी मान ही नहीं सके. उन के लिए जो कुछ थे, उन की पहली पत्नी के दोनों बच्चे थे अमन और श्रेया. अमन तो तब मेरे ही बराबर था, 7 साल का, जब उस के पापा ने मेरी मम्मी से शादी की थी और श्रेया मात्र 3 बरस की थी.

दादी के बारबार जोर देने पर और छोटे बच्चों का खयाल कर के पापा ने मम्मी से, जो उन्हीं की कंपनी में मार्केटिंग मैनेजर थीं, शादी तो कर ली. लेकिन मन से वे उन्हें नहीं अपना पाए. मम्मी भी कहां मेरे असली पापा को भुला सकी थीं.

अचानक रोड ऐक्सीडैंट में उन की डैथ हुई थी. उस के बाद अकेले छोटी सी बच्ची यानी मुझे पालना उन के लिए पुरुषों की इस दुनिया में बहुत मुश्किल था. पापा के जाने के बाद 2 साल में ही इस दुनिया ने उन्हें एहसास करा दिया था कि एक अकेली औरत, जिस के सिर पर किसी पुरुष का हाथ नहीं, 21वीं सदी में भी बहुत बेबस और मजबूर है. उस का यों अकेले जीना बहुत मुश्किल है.

ननिहाल और ससुराल में कहीं भी ऐसा कोई नहीं था जिस के सहारे वे अपना जीवन काट सकतीं. इसलिए एक दिन जब औफिस में पापा ने उन्हें प्रपोज किया तो वे मना नहीं कर सकीं. सोचा, कि ज्यादा कुछ नहीं तो इज्जत की एक छत और मुझे पापा का नाम तो मिल जाएगा न. और वैसा हुआ भी.

पापा ने मुझे अपना नाम भी दिया और इतना बड़ा आलीशान घर भी. उन की कंपनी अच्छी चलती थी और समाज में उन का नाम, रुतबा सब कुछ था. नहीं मिली तो मुझे अपने लिए उन के दिल में थोड़ी सी भी जगह.

मेरे अपने पापा कैसे थे, यह तो विस्मृत हो गया था मेरी नन्ही यादों से, लेकिन बढ़ती उम्र के साथ यह बखूबी समझ आ रहा था कि ये वाले पापा वाकई दुनिया के बैस्ट पापा थे, जो अपने दोनों बच्चों पर जान छिड़कते थे. मम्मी के सब कुछ करने के बावजूद भी उन्हें खुद स्कूल के लिए तैयार करते, उन्हें गाड़ी से स्कूल छोड़ने जाते, शाम को उन्हें घुमाने ले जाते, उन के लिए बढि़याबढि़या चीजें लाते, खिलौने लाते, तरहतरह की डै्रसेज लाते और भी न जाने क्याक्या. मेरे अकेले के लिए अगर मम्मी कभी कुछ ले आतीं, तो बस बहुत जल्दी सौतेलीमां की उपाधि से उन्हें सजा दिया जाता.

उन बच्चों को तो मेरी मम्मी पूरी तरह से मिल गई थीं. वे उन के संग हर जगह जातीं, संग खेलतीं, संग खातीं, मगर शायद उन की हरीभरी दुनिया में मेरे लिए कोई जगह नहीं थी. यहां तक कि अगर मम्मी मेरा कुछ काम कर रही होतीं और इस बीच यदि श्रेया और अमन, यहां तक कि पापा और दादी का भी कोई काम निकल आता, तो मम्मी मुझे छोड़ कर पहले उन का काम करतीं. इस डर से कि कहीं पापा गुस्सा न हो जाएं, कहीं दादी फिर से सौतेलीमां का पुराण न शुरू कर दें.

हमारे समाज में हमेशा सौतेली मां को इतनी हेय दृष्टि से देखा जाता रहा है कि वह चाहे अपना कलेजा चीर कर दिखा दे, लेकिन कोई उस की अमूल्य कुरबानी और प्यार को नहीं देखेगा, बस उस पर हमेशा लांछन ही लगाए जाएंगे.

अच्छी मम्मी बनने के चक्कर में मम्मी मेरी तरफ से लापरवाह हो जातीं. सब को सब मिल गया था, मगर मेरा तो जो अपना था वह भी मुझ से छिनने लगा था. मम्मी को मुझे प्यार भी छिप कर करना पड़ता और मेरा काम भी. मैं उन की मजबूरी महसूस करने लगी थी,

मगर मैं भी क्या करती. उन के सिवा मेरा और था ही कौन? उन के बिना तो मैं पूरे घर में अपने को बहुत अकेला महसूस करती थी. चारों लोग कहीं तैयार हो कर जा रहे होते और अगर मैं गलती से भी उन के संग जाने का जिक्र भर छेड़ देती तो मम्मी मारे डर के मुझे चुप करा देतीं.

मेरा बालमन तब पापा की तरफ इस उम्मीद से देखता कि शायद वे मुझे खुद ही साथ चलने को कहें, मगर वहां तो स्नेह क्या, गुस्सा क्या, कोई एहसास तक नहीं था मेरे लिए. जैसे मेरा अस्तित्व, मेरा वजूद उन के लिए हो कर भी नहीं था. वे सब लोग गाड़ी में बैठ कर चले जाते और मैं वहीं दरवाजे पर बैठी रोतेबिसूरते उन के लौटने का इंतजार करती रहती. इतने बड़े घर में अकेले मुझे बहुत डर लगता था. तब सोचती, क्या मम्मी ने इन नए वाले पापा से शादी कर के ठीक किया? पता नहीं उन्होंने क्या पाया, लेकिन जातेजाते बारबार आंसू भरी आंखों से पीछे मुड़मुड़ कर उन का मुझे निहारना मुझ से उन के रीते हाथों की व्यथा कह जाता.

दादी का तो होना न होना बराबर ही था. वे भी मुझ से तब ही बात करती थीं जब उन्हें कोई काम होता था, वरना वे तो शाम को

जल्दी ही खापी कर अपने कमरे में चली जाती थीं. फिर पीछे दुनिया में कुछ भी होता रहे, उन की बला से. मैं आंखों में बस एक ही अरमान ले कर बड़ी होती रही कि एक दिन तो जरूर ही पापा कहेंगे – तू मेरी बेटी है, मेरी सब से प्यारी बेटी…

पूरे 16 साल हो गए इस घर में आए, बचपन की दहलीज को पार कर जवानी भी आ गई, लेकिन नहीं आई तो वह घड़ी, जिस को आंखों में सजाए मैं इतनी बड़ी हो गई. इस बीच अमन और श्रेया तो मुझे थोड़ाबहुत अपना समझने लगे थे लेकिन पापा… हर वक्त उन के बारे में सोचते रहने के कारण मुझ में उन का प्यार पाने की चाह बजाय कम होने के बढ़ती ही जा रही थी. मैं हर वक्त पापा के लिए, अपने छोटे भाईबहन के लिए कुछ भी करने को तत्पर रहती.

बचपन में कितनी ही बार अमन और श्रेया का होमवर्क पूरा करवाने के चक्कर में मेरा खुद का होमवर्क, पढ़ाई छूट जाते थे. मुझे स्कूल में टीचर की डांट खानी पड़ती और घर में मम्मी की. वे मुझ पर इस बात को ले कर गुस्सा होती थीं कि मैं उन लोगों के लिए क्यों अपना नुकसान कर रही हूं, जिन्हें मेरी कोई परवाह ही नहीं. जिन्होंने अब तक मुझे थोड़ी सी भी जगह नहीं दी अपने दिल में.

जब 12 साल की थी तो मुझे अच्छी तरह याद है कि एक दिन श्रेया की तबीयत बहुत खराब हो गई थी. मम्मीपापा कंपनी के किसी काम से बाहर गए थे, दादी के साथ हम तीनों बच्चे ही थे. दादी को तो वैसे ही घुटनों के दर्द की प्रौब्लम रहती थी, इसलिए वे तो ज्यादा चलतीफिरती ही नहीं थी. पापामम्मी ने अमन को कभी कुछ करने की आदत डाली ही नहीं थी, उस का हर काम लाड़प्यार में वे खुद ही जो कर देते थे. मुझे ही सब लोगों के तिरस्कार और वक्त ने समय से पहले ही बहुत सयानी बना दिया था. तब मैं ने डाक्टर को फोन कर के बुलाया, फिर उन के कहे अनुसार सारी रात जाग कर उसे दवा देती रही, उस के माथे पर ठंडी पट्टियां रखती रही.

अगले दिन जब मम्मीपापा आए श्रेया काफी ठीक हो गई थी. उस ने पापा के सामने जब मेरी तारीफ की कि कैसे मैं ने रात भर जाग कर उस की देखभाल की है, तो उन कुछ

पलों में लगा कि पापा की नजरें मेरे लिए प्यार भरी थीं, जिन के बारे में मैं हमेशा सपने देखा करती थी.

उस के बाद एक दिन वे मेरे लिए एक सुंदर सी फ्राक भी लाए. शायद अब तक का पहला और आखिरी तोहफा. मुझे लगा कि अब मुझे भी मेरे पापा मिल गए. अब मैं भी श्रेया की तरह उन से जिद कर सकूंगी, उन से रूठ सकूंगी, उन के संग घूमनेफिरने जा सकूंगी, लेकिन वह केवल मेरा भ्रम था.

2-4 दिन ही रही स्नेह की वह तपिश, पापा फिर मेरे लिए अजनबी बन गए. उन का वह तोहफा, जिसे देख कर मैं फूली नहीं समा रही थी, उन की लाडली बेटी की देखभाल का एक इनाम भर था. लेकिन अब मेरा सूना मन उन के स्नेह के स्पर्श से भीग चुका था. मैं पापा को खुश करने के लिए अब हर वह काम करने की फिराक में रहती थी, जिस से उन का ध्यान मेरी तरफ जाए. अब बरसों बाद मुझे उन के लिए कुछ करने का मौका मिला है, तो मैं पीछे क्यों हटूं? मम्मी की बात क्यों सुनूं? वह क्यों नहीं समझतीं कि पापा का प्यार पाने के लिए मैं कुछ भी कर सकती हूं.

पापा की तबीयत इधर कई महीनों से खराब चल रही थी. बुखार बना रहता था हरदम. तमाम दवाएं खा चुके लेकिन कोई फायदा ही नहीं. अभी पिछले हफ्ते ही पापा बाथरूम में चक्कर खा कर गिर पड़े. उन्हें तुरंत अस्पताल में ऐडमिट करना पड़ा. सारे चैकअप होने के बाद डाक्टर ने साफ कह दिया कि पापा की दोनों किडनी खराब हो चुकी हैं. अगर हम उन्हें बचाना चाहते हैं तो तुरंत ही एक किडनी का इंतजाम करना होगा. घर का कोई भी स्वस्थ सदस्य अपनी एक किडनी दे सकता है. एक किडनी से भी बिना किसी परेशानी के पूरा जीवन जिया जा सकता है, कुछ लोग हौस्पिटल में मजबूरीवश अपनी किडनी बेच देते हैं, लेकिन फिलहाल तो हौस्पिटल में ऐसा कोई आया नहीं. पापा को तो जल्दी से जल्दी किडनी प्रत्यारोपण की जरूरत थी. उन की हालत बिगड़ती ही जा रही थी. पापा की हालत देखदेख मेरा मन रोता रहता था. समझ ही नहीं आता था कि क्या करूं अपने पापा के लिए?

हफ्ते भर से पापा अस्पताल में ही ऐडमिट हैं. अभी तक किडनी का इंतजाम नहीं हो पाया है. दादी, श्रेया, मैं, अमन, मम्मी सभी अस्पताल में थे इस वक्त. दादी की किडनी के लिए तो डाक्टर ने ही मना कर दिया था कि इस उम्र में पता नहीं उन की बौडी यह औपरेशन झेल पाएगी या नहीं. दादी के चेहरे पर साफ राहत के भाव दिखे मुझे.

पापा की अनुपस्थिति में मम्मी पर ही पूरी कंपनी की जिम्मेदारी थी, इसलिए वे आगे बढ़ने से हिचक रही थीं, वैसे ही तबीयत खराब होने की वजह से पापा बहुत दिनों से कंपनी की तरफ ध्यान नहीं दे पा रहे थे. कंपनी के बिगड़ते रिजल्ट इस के गवाह थे. मम्मी भी क्याक्या करतीं. श्रेया तो थी ही अभी बहुत छोटी, उसे तो अस्पताल, इंजैक्शन, डाक्टर सभी से डर लगता था. और अमन, उसे तो दोस्तों के साथ घूमनेफिरने और आवारागर्दी से ही फुरसत नहीं है. पापामम्मी के ज्यादा लाड़प्यार और देखभाल ने उसे निरंकुश बना दिया था. मेरे साथ उस ने भी इस साल ग्रैजुएशन किया है, लेकिन जिम्मेदारी की, समझदारी की कोई बात नहीं. पता नहीं, सब से आंख बचा कर कब वह बाहर निकल गया, हमें पता ही नहीं चला. तब मम्मी ही आगे बढ़ कर बोलीं, ‘‘डाक्टर, अब देर मत करिए, मेरी एक किडनी मेरे पति को लगा दीजिए.’’

तभी इतनी देर से विचारों की कशमकश में हिचकोले सी खाती मैं ने, उन की बात बीच में काटते हुए कहा, ‘‘नहीं मम्मी, हम सब को, पूरे परिवार को आप की बहुत जरूरत है. पापा को किडनी मैं दूंगी और कोई नहीं.’’

मेरी बात सुन कर मम्मी एकदम चीख कर ऐसे बोलीं, मानो बरसों का आक्रोश आज एकसाथ लावा बन कर फूट पड़ा हो, ‘‘दिमाग तो सही है तेरा नेहा. उस आदमी के लिए अपना जीवन दांव पर लगा रही है, जिस ने तुझे कभी अपना माना ही नहीं, जिस ने कभी दो बोल प्यार के नहीं बोले तुझ से… तू उसे अपने शरीर की इतनी कीमती चीज दे रही है… नहीं, कभी नहीं, यह बेवकूफी मैं तुझे नहीं करने दूंगी मेरी बच्ची, कभी नहीं. अभी तेरे सामने पूरा जीवन पड़ा है. पराए घर की अमानत है तू. अरे, जिन बच्चों पर वे अपना सर्वस्व लुटाते रहे, वे करें यह सब. अमन का फर्ज बनता है यह सब करने का, तेरा नहीं. तू ही है सिर्फ क्या उन के लिए.’’

‘‘मैं उन के लिए चाहे कुछ न हूं लेकिन मेरे लिए वे बहुत कुछ हैं. मैं ने तो दिल से उन्हें अपना पापा माना है मम्मी. मैं अपने पापा के लिए कुछ भी कर सकती हूं और फिर मम्मी, प्यार का प्रतिकार प्यार ही हो, यह कोई जरूरी तो नहीं.’’

मम्मी मुझे हैरत से देखती रह गई थीं. उन का पूरा चेहरा आंसुओं से भीग गया था. शायद सोच रही थीं – काश, इस बेटी के दिल को भी पढ़ा होता उन्होंने कभी. इस बेटी को भी गले लगाया होता कभी. अपने दोनों बच्चों की तरह कभी इस की भी पढ़ाई, होमवर्क और ऐग्जाम्स की फिक्र की होती. कभी डांटा होता, तो कभी पुचकारा होता इसे भी. कभी झिड़का होता तो कभी समझाया होता इसे भी. मगर उन्होंने तो कभी इसे नजर भर देखा तक नहीं और यह है कि…

और फिर किसी की भी नहीं सुनी मैं ने. पापा ने भले न बनाया हो, मैं ने अपनी एक किडनी दे कर उन्हें अपने शरीर का एक हिस्सा बना ही लिया. दोनों को हौस्पिटल से एक ही दिन डिस्चार्ज किया गया. मैं गाड़ी में कनखियों से बराबर देख रही थी कि पापा बराबर मुझे ही देख रहे थे. उन की आंखों में आंसू थे. कुछ कहना चाह रहे थे, मगर कह नहीं पा रहे थे. ऐसा महसूस हो रहा था कि जैसे उन के दिल के अनकहे शब्द मेरे दिल को स्नेह की तपिश से सहला रहे हों, जिस से बरसों से किया मेरे प्रति उन का अन्याय शीशा बन कर पिघला जा रहा हो.

घर आने के भी कई दिनों बाद एक दिन अचानक वे मेरे कमरे में आए. मुझे तो अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ. आज तक वो मेरे इतने करीब, वे भी अकेले में आए भी तो नहीं थे और आज वे मेरे करीब, बिलकुल मेरे करीब. मेरे बैड पर बैठ गए थे. मैं ने उन की तरफ देखा. वे उदासी भरी, दर्दभरी, आंसुओं भरी आंखों से मुझे देख रहे थे. मैं भी देखती ही रही उन्हें… अपने पापा को. मुझे तो अब तक कि जिंदगी का एक दिन भी या यह कहूं कि एक लमहा भी याद नहीं, जब उन्होंने मुझे देखा भी हो. आंखों ही आंखों में उन्होंने बहुत कुछ कह दिया और बहुत कुछ मैं ने सुन लिया. मुझे लगा कि अगर एक शब्द भी उन्होंने जबानी बोला तो अपने आंसुओं के वेग को न मैं थाम सकूंगी और शायद न वे. भरभरा कर बस गिर ही पड़ूंगी अपने पापा की गोद में, जिस के लिए मैं अतृप्त सी न जाने कब से तरस रही थी. फड़फड़ाए ही थे उन के होंठ कुछ कहने को कि तड़प कर उन के हाथ पर अपना हाथ रख दिया मैं ने. बोली ‘‘न पापा न, कुछ मत कहना. मैं ने कोई बड़ा काम नहीं किया है. बस अपने पापा के लिए अपना छोटा सा फर्ज निभाया है.’’

अंतत: रोक ही नहीं सकी खुद को, रो ही पड़ी फूटफूट कर. पापा भी रो पड़े जोर से. उन्होंने मुझे अपने से लिपटा लिया, ‘‘मुझे माफ कर दे मेरी बच्ची… माफ कर दे अपने इस गंदे से पापा को… बेटी है मेरी तू तो, दुनिया की सब से अच्छी बेटी है तू तो.’’

जिन लफ्जों और जिस स्नेह से मैं अब तक अपने ख्वाबों में ही रूबरू होती रही थी, आज हकीकत बन कर मेरे सामने आया था. इन पलों ने सब कुछ दे दिया था मुझे. बरसों के गिलेशिकवे आंसुओं के प्रवाह में बह गए थे. तभी पापा को देख कर मम्मी भी वहीं आ गईं तो उन्होंने मम्मी को भी अपने गले से लगाते हुए कहा, ‘‘तुम दोनों के साथ मैं ने बहुत अन्याय किया है, अतीत की यादों में इतना उलझा रहा कि वर्तमान के इतने खूबसूरत साथ और रिश्ते को नकारता रहा. मुझे माफ कर दो तुम दोनों… मुझे माफ कर दो…’’

बरसों बाद ही सही, यह परिवार आज मेरा भी हो गया था. मम्मी की भी आंखें खुशी से भीग गई थीं.

उस के बाद तो जैसे मेरी जिंदगी ही बदल गई. पापा ने मुझे और अमन दोनों को एकसाथ एम.बी.ए. में ऐडमिशन दिला दिया था. वे चाहते थे कि अब हम दोनों भाईबहन नई सोच और नई तकनीक से उन की कंपनी को नई ऊंचाइयों तक पहुंचा दें. अमन का तो मुझे पता नहीं, लेकिन मैं अपने पापा के लिए कुछ भी करूंगी…

Motivational Story

Hindi Love Story: वही खुशबू- आखिर क्या थी भैरों सिंह की असलियत

Hindi Love Story: बहुत दिनों से सुनती आई थी कि भैरों सिंह अस्पताल के चक्कर बहुत लगाते हैं. किसी को भी कोई तकलीफ हो, किसी स्वयंसेवक की तरह उसे अस्पताल दिखाने ले जाते. एक्सरे करवाना हो या सोनोग्राफी, तारीख लेने से ले कर पूरा काम करवा कर देना जैसे उन की जिम्मेदारी बन जाती. मैं उन्हें बहुत सेवाभावी समझती थी. उन के लिए मन में श्रद्धा का भाव उपजता, क्योंकि हमें तो अकसर किसी की मिजाजपुरसी के लिए औपचारिक रूप से अस्पताल जाना भी भारी पड़ता है.

लोग यह भी कहते कि भैरों सिंह को पीने का शौक है. उन की बैठक डाक्टरों और कंपाउंडरों के साथ ही जमती है. इसीलिए अपना प्रोग्राम फिट करने के लिए अस्पताल के इर्दगिर्द भटकते रहते हैं. अस्पताल के जिक्र के साथ भैरों सिंह का नाम न आए, हमारे दफ्तर में यह नामुमकिन था.

पिछले वर्ष मेरे पति बीमार हुए तो उन्हें अस्पताल में दाखिल करवाना पड़ा. तब मैं ने भैरों सिंह को उन की भरपूर सेवा करते देखा तो उन की इंसानियत से बहुत प्रभावित हो गई. ऐसा लगा लोग यों ही अच्छेखासे इंसान के लिए कुछ भी कह देते हैं. कोई भी बीमार हो, वह परिचित हो या नहीं, घंटों उस के पास बैठे रहना, दवाइयों व खून आदि की व्यवस्था करना उन का रोज का काम था. मानो उन्होंने मरीजों की सेवा का प्रण लिया हो.

उन्हीं दिनों बातोंबातों में पता चला कि उन की पत्नी भी बहुत बीमार रहती थी. उसे आर्थ्राइटिस था. उस का चलनाफिरना भी दूभर था. जब वह मेरे पति की सेवा में 4-5 घंटे का समय दे देते तो मैं उन्हें यह कहने पर मजबूर हो जाती, ‘आप घर जाइए, भाभीजी को आप की जरूरत होगी.’

पर वे कहते, ‘पहले आप घर हो आइए, चाहें तो थोड़ा आराम कर आएं, मैं यहां बैठा हूं.’

यों मेरा उन से इतनी आत्मीयता का संबंध कभी नहीं रहा. बाद में बहुत समय तक मन में यह कुतूहल बना रहा कि भैरों सिंह के इस आत्मीयतापूर्ण व्यवहार का कारण क्या रहा होगा? धीरेधीरे मैं ने उन में दिलचस्पी लेनी शुरू की. वे भी किसी न किसी बहाने गपशप करने आ जाते.

एक दिन बातचीत के दौरान वे काफी संकोच से बोले, ‘‘चूंकिआप लिखती हैं, सो मेरी कहानी भी लिखें.’’मैं उन की इस मासूम गुजारिश पर हैरान थी. कहानी ऐसे हीलिख दी जाती है क्या? कहानी लायक कोई बात भी तो हो. परंतु यह सब मैं उन से न कह सकी. मैं ने इतना ही कहा, ‘‘आप अपनी कहानी सुनाइए, फिर लिख दूंगी.’’

बहुत सकुचाते और लजाई सी मुसकान पर गंभीरता का अंकुश लगाते हुए उन्होंने बताया, ‘‘सलोनी नाम था उस का, हमारी दोस्ती अस्पताल में हुई थी.’’

मुझे मन ही मन हंसी आई कि प्यार भी किया तो अस्पताल में. भैरों सिंह ने गंभीरता से अपनी बात जारी रखी, ‘‘एक बार मेरा एक्सिडैंट हो गया था. दोस्तों ने मुझे अस्पताल में भरती करा दिया. मेरा जबड़ा, पैर और कूल्हे की हड्डियां सेट करनी थीं. लगभग 2 महीने मुझे अस्पताल में रहना पड़ा. सलोनी उसी वार्ड में नर्स थी, उस ने मेरी बहुत सेवा की. अपनी ड्यूटी के अलावा भी वह मेरा ध्यान रखती थी.

‘‘बस, उन्हीं दिनों हम में दोस्ती का बीज पनपा, जो धीरेधीरे प्यार में तबदील हो गया. मेरे सिरहाने रखे स्टील के कपबोर्ड में दवाइयां आदि रख कर ऊपर वह हमेशा फूल ला कर रख देती थी. सफेद फूल, सफेद परिधान में सलोनी की उजली मुसकान ने मुझ पर बहुत प्रभाव डाला. मैं ने महसूस किया कि सेवा और स्नेह भी मरीज के लिए बहुत जरूरी हैं. सलोनी मानो स्नेह का झरना थी. मैं उस का मुरीद बन गया.

‘‘अस्पताल से जब मुझे छुट्टी मिल गई, तब भी मैं ने उस की ड्यूटी के समय वहां जाना जारी रखा. लोगों को मेरे आने में एतराज न हो, इसीलिए मैं कुछ काम भी करता रहता. वह भी मेरे कमरे में आ जाती. मुझे खेलने का शौक था. मैं औफिस से आ कर शौर्ट्स, टीशर्ट या ब्लेजर पहन कर खेलने चला जाता और वह ड्यूटी के बाद सीधे मेरे कमरे में आ जाती. मेरी अनुपस्थिति में मेरा कमरा व्यवस्थित कर के कौफी पीने के लिए मेरा इंतजार करते हुए मिलती.

‘‘जब उस की नाइट ड्यूटी होती तो वह कुछ जल्दी आ जाती. हम एकसाथ कौफी पीते. मैं उसे अस्पताल छोड़ने जाता और वहां कईकई घंटे मरीजों की देखरेख में उस की मदद करता. सब के सो जाने पर हम धीरेधीरे बातें करते रहते. किसी मरीज को तकलीफ होती तो उस की तीमारदारी में जुट जाते.

‘‘कभी जब मैं उस से ड्यूटी छोड़ कर बाहर जाने की जिद करता तो वह मना कर देती. सलोनी अपनी ड्यूटी की बहुत पाबंद थी. उस की इस आदत पर मैं नाराज भी होता, कभी लड़ भी बैठता, तब भी वह मरीजों की अनदेखी नहीं करती थी. उस समय ये मरीज मुझे दुश्मन लगते और अस्पताल रकीब. पर यह मेरी मजबूरी थी क्योंकि मुझे सलोनी से प्यार था.’’

‘‘उस से शादी नहीं हुई? पूरी कहानी जानने की गरज से मैं ने पूछा.’’

भैरों सिंह का दमकता मुख कुछ फीका पड़ गया. वे बोले, ‘‘हम दोनों तो चाहते थे, उस के घर वाले भी राजी थे.’’

‘‘फिर बाधा क्या थी?’’ मैं ने पूछा तो भैरों सिंह ने बताया, ‘‘मैं अपने मांबाप का एकलौता बेटा हूं. मेरी 4 बहनें हैं. हम राजपूत हैं, जबकि सलोनी ईसाई थी. मैं ने अपनी मां से जिद की तो उन्होंने कहा कि तुम जो चाहे कर सकते हो, परंतु फिर तुम्हारी बहनों की शादी नहीं होगी. बिरादरी में कोई हमारे साथ रिश्ता करने को तैयार नहीं होगा.

‘‘मेरे कर्तव्य और प्यार में कशमकश शुरू हो गई. मैं किसी की भी अनदेखी करने की स्थिति में नहीं था. इस में भी सलोनी ने ही मेरी मदद की. उस ने मुझे मां, बहनों और परिवार के प्रति अपना फर्ज पूरा करने के लिए मानसिक रूप से तैयार किया.

‘‘मां ने मेरी शादी अपनी ही जाति में तय कर दी. बड़ी धूमधाम से शादी हुई. सलोनी भी आई थी. वह मेरी दुलहन को उपहार दे कर चली गई. उस के बाद मैं ने उसे कभी नहीं देखा. विवाह की औपचारिकताओं से निबट कर जब मैं अस्पताल गया तो सुना, वह नौकरी छोड़ कर कहीं और चली गई है. बाद में पता चला कि  वह दूसरे शहर के किसी अस्पताल में नौकरी करती है और वहीं उस ने शादी भी कर ली है.’’

‘‘आप ने उस से मिलने की कोशिश नहीं की?’’ मैं ने पूछा.

‘‘नहीं,’’ भैरों सिंह ने जवाब दिया, ‘‘पहले तो मैं पगला सा गया. मुझे ऐसा लगता था, न मैं घर के प्रति वफादार रह पाऊंगा और न ही इस समाज के प्रति, जिस ने जातपांत की ये दीवारें खड़ी कर रखी हैं. परंतु शांत हो कर सोचने पर मैं ने इस में भी सलोनी की समझदारी और ईमानदारी की झलक पाई. ऐसे में कौन सा मुंह ले कर उस से मिलने जाता. फिर अगर वह अपनी जिंदगी में खुश है और चाहती है कि मैं भी अपने वैवाहिक जीवन के प्रति एकनिष्ठ रहूं तो मैं उस के त्याग और वफा को धूमिल क्यों करूं? अब यदि वह अपनी जिंदगी और गृहस्थी में सुखी है तो मैं उस की जिंदगी में जहर क्यों घोलूं?’’

‘‘अब अस्पताल में इतना क्यों रहते हैं? और यह कहानी क्यों लिखवा रहे हैं?’’ मैं ने उत्सुकता दिखाई.

भैरों सिंह ने गहरी सांस ली और धीमी आवाज में कहा, ‘‘मैं ने आप को बताया था न कि मैं उस का अधिक से अधिक साथ पाने के लिए उस की ड्यूटी के दौरान उस की मदद करता था, पर दिल में उस की कर्मनिष्ठा और सेवाभाव से चिढ़ता था. अब मुझे वह सब याद आता है तो उस की निष्ठा पर श्रद्धा होती है, खुद के प्रति अपराधबोध होता है. अब मैं मरीजों की सेवा, प्यार की खुशबू मान कर करता हूं और मुझे अपने अपराधबोध से भी नजात मिलती है.’’

भैरों सिंह की आवाज और धीमी हो गई. वह फुसफुसाते हुए से बोले, ‘‘अब मैं सिर्फ एक बात आप को बता रहा हूं या कहिए कि राज की बात बता रहा हूं. इस अस्पताल के समूचे वातावरण में मुझे अब भी वही खुशबू महसूस होती है, सलोनी के प्यार की खुशबू. रही बात कहानी लिखने की, तो मेरे पास उस तक अपनी बात पहुंचाने का कोई जरिया भी तो नहीं है. अगर वह इसे पढ़ेगी तो समझ जाएगी कि मैं उसे  कितना याद करता हूं. उस की भावनाओं की कितनी इज्जत करता हूं. यही प्यार अब मेरी जिंदगी है.’’Hindi Love Story

Family Story: साक्षी के बाद- संदीप ने जल्दबाजी में क्यों की दूसरी शादी

Family Story: भोर हुई तो चिरैया का मीठासुरीला स्वर सुन कर पूर्वा की नींद उचट गई. उस की रिस्टवाच पर नजर गई तो उस ने देखा अभी तो 6 भी नहीं बजे हैं. ‘छुट्टी का दिन है. न अरुण को दफ्तर जाना है और न सूर्य को स्कूल. फिर क्या करूंगी इतनी जल्दी उठ कर? क्यों न कुछ देर और सो लिया जाए,’ सोच कर उस ने चादर तान ली और करवट बदल कर फिर से सोने की कोशिश करने लगी. लेकिन फोन की बजती घंटी ने उस के छुट्टी के मूड की मिठास में कुनैन घोल दी. सुस्त मन के साथ वह फोन की ओर बढ़ी. इंदु भाभी का फोन था.

‘‘इंदु भाभी आप? इतनी सुबह?’’ वह बोली.

‘‘अब इतनी सुबह भी नहीं है पुरवैया रानी, तनिक परदा हटा कर खिड़की से झांक कर तो देख, खासा दिन चढ़ गया है. अच्छा बता, कल शाम सैर पर क्यों नहीं आई?’’

‘‘यों ही इंदु भाभी, जी नहीं किया.’’

‘‘अरी, आती तो वे सब देखती, जो इन आंखों ने देखा. जानती है, तेरे वे संदीप भाई हैं न, उन्होंने…’’

और आगे जो कुछ इंदु भाभी ने बताया उसे सुन कर तो जैसे पूर्वा के पैरों तले की जमीन ही निकल गई. रिसीवर हाथ से छूटतेछूटते बचा. अपनेआप को संभाल कर वह बोली, ‘‘नहीं इंदु भाभी, ऐसा हो ही नहीं सकता. मैं संदीप भाई को अच्छी तरह जानती हूं, वे ऐसा कर ही नहीं सकते. आप से जरूर देखने में गलती हुई होगी.’’

‘‘पूर्वा, मैं ने 2 फुट की दूरी से उस मोटी खड़ूस को देखा है. बस, लड़की कौन है, यह देख न पाई. उस की पीठ थी मेरी तरफ.’’

इंदु भाभी अपने खास अक्खड़ अंदाज में आगे क्या बोल रही थीं, कुछ सुनाई नहीं दे रहा था पूर्वा को. रिसीवर रख कर जैसेतैसे खुद को घसीटते हुए पास ही रखे सोफे तक लाई और बुत की तरह बैठ गई उस पर. सुबहसुबह यह क्या सुन लिया उस ने? साक्षी के साथ इतनी बड़ी बेवफाई कैसे कर सकते हैं संदीप भाई और वह भी इतनी जल्दी? अभी वक्त ही कितना हुआ है उस हादसे को हुए. बमुश्किल 8 महीने ही तो. हां, 8 महीने पहले की ही तो बात है, जब भोर होते ही इसी तरह फोन की घंटी बजी थी. वह दिन आज भी ज्यों का त्यों उस की यादों में बसा है…

उस रात पूर्वा बड़ी देर से अरुण और सूर्य के साथ भाई की शादी से लौटी थी. थकान और नींद से बुरा हाल था, इसलिए आते ही बिस्तर पर लेट गई थी. आंख लगी ही थी कि रात के सन्नाटे को चीरती फोन की घंटी ने उसे जगा दिया. घड़ी पर नजर गई तो देखा 4 बजे थे. ‘जरूर मां का फोन होगा… जब तक बेटी के सकुशल पहुंचने की खबर नहीं पा लेंगी उन्हें चैन थोड़े ही आएगा,’ सोचते हुए वह नींद में भी मुसकरा दी, लेकिन आशा के एकदम विपरीत संदीप का फोन था.

‘पूर्वा भाभी, मैं संदीप बोल रहा हूं,’ संदीप बोला.

वह चौंकी, ‘संदीप भाई आप? इतनी सुबह? सब ठीक तो है न?’

‘कुछ ठीक नहीं है पूर्वा भाभी, साक्षी चली गई,’ भीगे स्वर में वह बोला था.

‘साक्षी चली गई? कहां चली गई संदीप भाई? कोई झगड़ा हुआ क्या आप लोगों में? आप ने उसे रोका क्यों नहीं?’

‘भाभी… वह चली गई हमेशा के लिए…’

‘क्या? संदीप भाई, यह क्या कह रहे हैं आप? होश में तो हैं? कहां है मेरी साक्षी?’ पागलों की तरह चिल्लाई पूर्वा.

‘पूर्वा, वह मार्चुरी में है… हम अस्पताल में हैं… अभी 2-3 घंटे और लगेंगे उसे घर लाने में, फिर जल्दी ही ले जाएंगे उसे… तुम समझ रही हो न पूर्वा? आखिरी बार अपनी सहेली से मिल लेना…’ यह सुनंदा दीदी थीं. संदीप भाई की बड़ी बहन.

फोन कट चुका था, लेकिन पूर्वा रिसीवर थामे जस की तस खड़ी थी. तभी अपने कंधे पर किसी हाथ का स्पर्श पा कर डर कर चीख उठी वह.

‘अरेअरे, यह मैं हूं पूर्वा,’ अरुण ने सामने आ कर उसे बांहों में भर लिया, ‘बहुत बुरा हुआ पूर्वा… मैं ने सब सुन लिया है. अब संभालो खुद को,’ उसे सहारा दे कर अरुण पलंग तक ले गए और तकिए के सहारे बैठा कर कंबल ओढ़ा दिया, ‘सब्र के सिवा और कुछ नहीं किया जा सकता है पूर्वा. मुझे संदीप के पास जाना चाहिए,’ कोट पहनते हुए अरुण ने कहा तो पूर्वा बोली, ‘मैं भी चलूंगी अरुण.’

‘तुम अस्पताल जा कर क्या करोगी? साक्षी तो…’ कहतेकहते बात बदल दी अरुण ने, ‘सूर्य जाग गया तो रोएगा.’

अरुण दरवाजे को बाहर से लौक कर के चले गए. कैसे न जाते? उन के बचपन के दोस्त थे संदीप भाई. उन की दोस्ती में कभी बाल बराबर भी दरार नहीं आई, यह पूर्वा पिछले 9 साल से देख रही थी. पिछली गली में ही तो रहते हैं, जब जी चाहता चले आते. यों तो संदीप अरुण के हमउम्र थे, लेकिन विवाह पहले अरुण का हुआ था. संदीप भाई को तो कोई लड़की पसंद ही नहीं आती थी. खुद तो देखने में ठीकठाक ही थे, लेकिन अरमान पाले बैठे थे स्वप्नसुंदरी का, जो उन्हें सुनंदा दीदी के देवर की शादी में कन्या पक्ष वालों के घर अचानक मिल गई. बस, संदीप भाई हठ ठान बैठे और हठ कैसे न पूरा होता? आखिर मांबाप के इकलौते बेटे और 2 बहनों के लाड़ले छोटे भाई जो थे. लड़की खूबसूरत, गुणवान और पढ़ीलिखी थी, फिर भी मां बहुत खुश नहीं थीं, क्योंकि उन की तुलना में लड़की वालों का आर्थिक स्तर बहुत कम था. लड़की के पिता भी नहीं थे. बस मां और एक छोटी बहन थी.

बिना मंगनीटीका या सगाई के सीधे विवाह कर दुलहन को घर ले आए थे संदीप भाई के घर वाले. साक्षी सुंदर और सादगी की मूरत थी. पूर्वा ने जब पहली बार उसे देखा था, तो संगमरमर सी गुडि़या को देखती ही रह गई थी.

संदीप भाई के विवाह के 18वें दिन बाद सूर्य का पहला जन्मदिन था और साक्षी ने पार्टी का सारा इंतजाम अपने हाथों में ले लिया था.

संदीप भाई बहुत खुश और संतुष्ट थे अपनी पत्नी से, लेकिन घोर अभावों में पली साक्षी को काफी वक्त लगा था उन के घर के साथ सामंजस्य बैठाने में. फिर 5 महीने बाद जब साक्षी ने बताया कि वह मां बनने वाली है तो संदीप भाई खुशी से नाच उठे थे. पलकों पर सहेज कर रखते थे उसे.

डाक्टर ने सुबहशाम की सैर बताई थी साक्षी को और यह जिम्मेदारी संदीप भाई ने पूर्वा को सौंप दी थी यह कहते हुए कि पूर्वा भाभी, आप तो सुबहशाम सैर पर जाती हैं न, मेरी इस बावली को भी ले जाया करें. मेरी तो ज्यादा चलने की आदत नहीं.

और सुबहशाम की सुहानी सैर ने पूर्वा और साक्षी के दिलों के तारों को जैसे जोड़ दिया था. साक्षी चलतेचलते थक जाती तो पार्क की बेंच पर बैठ जाती और छोटी से छोटी बात भी उसे बताती, ‘पूर्वा भाभी, बाकी सब तो ठीक है. संदीप तो जान छिड़कते हैं मुझ पर, लेकिन मम्मीजी मुझे ज्यादा पसंद नहीं करतीं. गाहेबगाहे सीधे ही ताना देती हैं कि मैं खाली हाथ ससुराल आई हूं, एक से एक धन्नासेठ उन के घर संदीप के लिए रिश्ता ले कर आते रहे पर… और दुनिया में गोरी चमड़ी ही सब कुछ नहीं होती वगैरहवगैरह.’

‘बसबस, तुम्हें इस हाल में टैंशन नहीं लेनी है, साक्षी. मम्मीजी भी जल्द ही बदल जाएंगी. तुम इतनी प्यारी हो कि कोई भी तुम से ज्यादा दिन नाराज नहीं रह सकता.’

साक्षी को बेटी हुई. परियों सी प्यारी, गुलाबी, गोलमटोल. बिलकुल साक्षी की तरह. मां को पोते की चाह थी शिद्दत से, लेकिन आई पोती. साक्षी डर रही थी कि न जाने उसे क्याक्या सुनना पड़ेगा, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. मम्मीजी ने नवजात कन्या को झट से उठा कर सीने से लगा लिया. खुशी से उन की पलकें भीग गईं, ‘मेरी सोनीसुहानी बच्ची,’ वे बोलीं और बस, उसी दिन से बच्ची का नाम ‘सुहानी’ हो गया.

अच्छी जिंदगी गुजर रही थी साक्षी की. वह न के बराबर ही मायके जाती थी. 4 बरस की थी सुहानी, जब फिर से साक्षी गर्भवती हुई पर इस बार वह बेटा चाहती थी.

‘पूर्वा भाभी, मैं सोनोग्राफी करवाऊंगी, अगर लड़का हुआ तो रखूंगी, नहीं तो…’

‘नहीं तो क्या?’

साक्षी ने खामोशी से सिर झुका लिया.

‘इतनी पढ़ीलिखी हो कर कैसी सोच है तुम्हारी साक्षी? मुझे तुम से यह उम्मीद नहीं थी. ऐसा कभी सोचना भी नहीं, समझीं?’

‘भाभी, लड़कियों के साथ कितने झंझट हैं, आप क्या जानें. आप की तो कोई बहन नहीं, बेटी नहीं, आप के पास तो बेटा है भाभी, इसीलिए आप ऐसा कह रही हैं.’

‘मैं भी लड़की चाहती थी साक्षी, सूर्य आया तो इस में मेरा क्या कुसूर? रही बात बेटी की तो क्या सुहानी मेरी बेटी नहीं?’

‘वह तो है भाभी, फिर भी…’

‘जाने दो न. कौन जाने बेटा ही हो तुम्हें.’

बात आईगई हो गई. अभी तो कुछ ही दिन चढ़े थे साक्षी को.

‘‘पूर्वा, लो चाय लो.’’

पूर्वा जैसे गहरी बेहोशी से बाहर आई. अरुण कब लौटे, कब ताला खोल कर भीतर आए और कब चाय भी बना लाए, वह जान ही नहीं पाई.

‘‘पी लो पूर्वा, थोड़ा आराम मिलेगा, फिर हमें चलना भी है. साक्षी घर आ गई है.’’

पूर्वा के पेट में जैसे एक गोला सा उठा. दर्द की एक तीखी लहर पोरपोर दुखा गई. नहीं भर सकी वह चाय का 1 घूंट भी.

वह दिसंबर की एक सुबह थी. हड्डियां कंपा देने वाली ठंड पड़ रही थी, लेकिन पूर्वा पर जैसे कोई असर नहीं कर रही थी ठंड. जब अरुण का हाथ थामे वह साक्षी के घर पहुंची, तो उस का कलेजा मुंह को आ गया यह देख कर कि उस हाड़ कंपा देने वाली ठंड में बर्फीले संगमरमर के फर्श पर मात्र एक चटाई पर साक्षी की निष्प्राण देह पड़ी थी.

साक्षी की सास बिलख रही थीं. अब तक रुके पूर्वा के आंसू जैसे बांध तोड़ कर बह निकले. साक्षी से लिपट कर चीखचीख कर रोने लगी वह. इसी ड्राइंगरूम में ही तो 6 साल पहले, पहला पग धरा था साक्षी ने. यहीं, इसी जगह बिछे कालीन पर बैठ कर ही तो कंगना खुलवाया था संदीप से साक्षी ने. सहसा पीठ पर एक स्नेहिल स्पर्श का आभास हुआ और किसी ने सुबकते हुए उसे बांहों में बांध लिया. वह सुनंदा दीदी थीं.

साक्षी की मां सूना मन और भरी आंखें लिए उस के सिरहाने बैठी थीं मौन भाव से, एकटक बेटी को निहारती. एक आंसू भी नहीं टपका उन की आंखों से.

साक्षी की बहन स्वाति कंबल में लिपटी सोई हुई सुहानी को कस कर सीने से लगाए एक कोने में बैठी थी… खामोश… बस आंखों से आंसुओं की धारा बह रही थी.

हाय, कितनी बार मना किया बिटिया को पर एक न सुनी इस ने… कहते हुए साक्षी की सास फिर से रोने लगीं.

पूर्वा का जी चाहा कि चीख कर कहे कि नहीं मम्मीजी, झूठ न बोलिए. आप ने बिलकुल मना नहीं किया साक्षी को, बल्कि उस से ज्यादा तो आप चाहती थीं कि दूसरी बेटी न आए.

उसे याद आया, उस के आगरा जाने से 1 दिन पहले की ही तो बात है. संदीप और सुहानी को दफ्तरस्कूल भेज कर सुबह 9 बजे ही आ गई थी साक्षी. चेहरे का रंग उड़ा हुआ था. बोली, ‘पूर्वा भाभी, वही हुआ जिस का मुझे डर था.’

‘क्या हुआ साक्षी?’

‘सोनोग्राफी रिपोर्ट आ गई है, पूर्वा भाभी. लड़की ही है. मुझे अबौर्शन करवाना ही होगा.’

‘एक मां हो कर अपने ही बच्चे को मारोगी साक्षी, तो क्या चैन से जी पाओगी?’

‘मुझे नहीं चाहिए लड़की बस,’ दोटूक फैसला सुना दिया दृढ़ स्वर में साक्षी ने.

‘क्यों नहीं चाहिए? क्या संदीप भाई नहीं चाहते?’

‘नहीं, ऐसा होता तो प्रौब्लम ही क्या थी. संदीप को तो बहुत पसंद हैं बेटियां, भाभी.’

‘तो क्या मम्मीजी नहीं चाहतीं?’

‘पूर्वा भाभी, बहुत सहा है लड़की बन कर मैं ने, मेरी मां ने औैर बहन स्वाति ने भी. जानती हैं भाभी, हम 3 बहनें थीं. पापा जब गए तब मैं सिर्फ 10 साल की थी, स्वाति 6 साल की और सब से छोटी सिमरन, जो बेटे की आस में हुई थी, सिर्फ सवा साल की थी. पापा के गम में डूबी मां उस की ठीक से देखभाल नहीं कर पाईं और उसे डायरिया हो गया.

इलाज के लिए पैसे नहीं थे मां के पास…

उस का डायरिया बिगड़ता गया और वह मर गई. मैं ने, मां और स्वाति ने बहुत तकलीफें उठाई हैं. मैं तो निकल आई पर वे दोनों अब भी… उन के दर्द की आंच हर पल झुलसाती है मुझे, पूर्वा भाभी. संघर्षों की आग में झोंकने के लिए एक और लड़की को मैं दुनिया में नहीं ला सकती.’

फिर साक्षी एक तटस्थ भाव चेहरे पर लिए चली गई थी और पूर्वा अगली सुबह अरुण और सूर्य के साथ आगरा चली गई भाई की शादी में. 5 दिन बाद लौटी तो ये सब. वहां मौजूद लोगों से पता चला कि वह अबौर्शन के लिए अकेली ही अस्पताल पहुंच गई थी. सास को पता चला तो वह भी पीछेपीछे पहुंच गईं और उस की मरजी देखते हुए उसे इजाजत दे दी. फिर अबौर्शन ऐसा हुआ कि बच्ची के साथसाथ वह भी चली गई.

देखते ही देखते साक्षी विदा हो गई सदा के लिए. कई दिन तक हर दिन पूर्वा वहां जाती और कलेजे को पत्थर बना कर वहां बैठी रहती. उस दौरान स्वाति और उस की मां कई दिन पूर्वा के घर ही रहीं. एक दिन पारंपरिक रस्म अदायगी के बाद साक्षी का अध्याय बंद हो गया. सुहानी मौसी के साथ इन दिनों में इतना घुलमिल गई थी कि पल भर भी नहीं रहती थी उस के बिना, इसलिए फैसला यह हुआ कि फिलहाल तो मौसी व नानी के साथ ही जाएगी वह.

एक दौर गुजरा और दूसरा दौर शुरू हुआ उदासी का, साक्षी के संग गुजारे अनगिनत खूबसूरत पलों की यादों का. संदीप भाई भी जबतब इन यादों में हिस्सा बंटाने चले आते और सिर्फ और सिर्फ साक्षी की बातें करते तो पूर्वा तड़प उठती. लगता था संदीप भाई कभी नहीं संभल पाएंगे, लेकिन हर अगले दिन रत्तीरत्ती कर दुख कम होता जा रहा था. यही तो कुदरत का नियम भी है.

‘‘अरे, ऐसे कैसे बैठी हो गरमी में, पूर्वा और इतनी सुबह क्यों उठ गईं तुम?’’ अरुण ने पंखा चलाते हुए कहा तो पूर्वा वर्तमान में लौट आई.

‘‘लोग कितनी जल्दी भुला देते हैं उन्हें, जिन के बिना घड़ी भर भी न जी सकने का दावा करते हैं, है न अरुण?’’ एक सर्द सांस लेते हुए सपाट स्वर में कहा पूर्वा ने.

‘‘किस की बात कर रही हो पूर्वा?’’

‘‘इंदु भाभी का फोन आया था. आप के संदीप ने दूसरी शादी कर ली.’’

सुन कर चौंके नहीं अरुण. बस तटस्थ से खामोश बैठे रहे.

हैरानी हुई पूर्वा को. पूछा, ‘‘आप कुछ कहते क्यों नहीं अरुण? हां, क्यों कहोगे, मर्द हो न, मर्द का ही साथ दोगे. अच्छा चलो, एक बात का ही जवाब दे दो. यही हादसा अगर संदीप भाई के साथ गुजरा होता तो क्या साक्षी दूसरी शादी करती, वह भी इतनी जल्दी?’’

‘‘नहीं करती, बिलकुल नहीं करती, मैं मानता हूं. औरत में वह शक्ति है जिस का रत्ती भर भी हम मर्द नहीं छू सकते. तभी तो मैं दिल से इज्जत करता हूं औरत की और इंदु भाभी या उन जैसी कोई और रिपोर्टर तुम्हें नमकमिर्च लगा कर कल को कुछ बताए, उस से पहले मैं ही बता देता हूं तुम्हें कि मैं भी संदीप के साथ था. कल मैं औफिस के काम से नहीं, संदीप के लिए बाहर गया था.’’

‘‘क्या, इतनी बड़ी बात छिपाई आप ने मुझ से? लड़की कौन है?’’ घायल स्वर में पूछा पूर्वा ने.

‘‘साक्षी की बहन स्वाति.’’

‘‘क्या, ऐसा कैसे कर सकते हैं संदीप भाई और वे साक्षी की मां, कैसा दोहरा चरित्र है उन का? उस वक्त तो सब की नजरों से बचाबचा कर यहां छिपा रही थीं स्वाति को. कहती थीं, बिटिया गरीब हूं तो क्या जमीर बेच दूं? खूब समझ रही हूं मैं इन सब के मन की बात, पर कैसे कर दूं अपनी उस बच्ची को इन के हवाले, जहां से मेरी एक बेटी गई. जीजूजीजू कहते जबान नहीं थकती लड़की की, अब कैसे उसे पति मान पाएगी? और संदीप भाई

का क्या यही प्यार था साक्षी के प्रति कि वह चली गई तो उसी की बहन ब्याह लाए? और कोई लड़की नहीं बची थी क्या दुनिया में?’’ अपने स्वभाव के एकदम विपरीत अंगारे उगल रही थी पूर्वा.

अरुण ने आगे बढ़ कर उस के मुंह पर अपनी हथेली रख दी. बोले, ‘‘शांत हो जाओ, पूर्वा. यह सब इतना आसान नहीं था संदीप के लिए और न ही स्वाति के लिए. रही बात साक्षी की मां की, तो यह उन की मरजी नहीं थी, स्वाति का फैसला था. उस का कहना था कि मेरे लिए साक्षी दीदी अब सिर्फ सुहानी में बाकी हैं. उस के सिवा और कोई खून का रिश्ता नहीं बचा मेरे पास. मैं सुहानी के बिना नहीं जी सकती. अगर इस की नई मां आ गई तो सुहानी के साथ नहीं मिलनेजुलने देगी हमें. तब इसे देखने तक को तरस जाऊंगी मैं और शादी तो मुझे कभी न कभी करनी ही है, तो क्यों न जीजू से ही कर लूं. सब समस्याएं हल हो जाएंगी.

‘‘साक्षी की मां ने मुझे अलग ले जा कर कहा था कि मैं अपने ही कहे लफ्जों पर शर्मिंदा हूं अरुणजी, संदीपजी के साथ स्वाति का रिश्ता न जोड़ने की बात एक मां के दिल ने की थी और अब जोड़ने का फैसला एक मां के दिमाग का है. कहां है मेरे पास कुछ भी, जो स्वाति को ब्याह सकूं. होता तो कब की ब्याह चुकी होती. और भी बहुत कुछ था, जो अनकहा हो कर भी बहुत कुछ कह रहा था. तुम ने उन की गरीबी नहीं देखी पूर्वा, मैं ने देखी है. एक छोटे से किराए के कमरे में रहती हैं मांबेटी. एक नर्सरी स्कूल में नौकरी करती हैं आंटी और थोड़ी तनख्वाह में से घर भी चला रही हैं और स्वाति को भी पढ़ा रही हैं.

‘‘अब रही बात संदीप की, तो उस का कहना था कि अरुण, मम्मीजी मेरा ब्याह किए बिना तो मानेंगी नहीं, इकलौता जो हूं मैं. फिर कोई और लड़की क्यों, स्वाति क्यों नहीं? एक वही तो है, जो मेरा दर्द समझ सकती है, क्योंकि यही दर्द उस का भी है. और एक वही है, जो मेरी सुहानी को सगी मां की तरह पाल सकती है. कोई और आ गई तो सब कुछ तहसनहस हो जाएगा.’’

पूर्वा खामोश बैठी रही बिना एक शब्द बोले, तो अरुण ने तड़प कर कहा, ‘‘यों खामोश न बैठो पूर्वा, कुछ तो कहो.’’

‘‘बसबस, बहुत हो गया. मैं चाय बना कर लाती हूं. चाय पी कर घर के कामों में मेरी मदद करो. आज बाई छुट्टी पर है. साथ ही, यह सोच कर रखो कि स्वाति को शगुन में क्या देना है. यह काम भी सुबहसुबह निबटा आएंगे और स्वाति और संदीप भाई को भी अच्छा लगेगा.’’

एक मीठी मुसकराहट के साथ पूर्वा उठ खड़ी हुई तो राहत भरी मुसकान अरुण के होंठों पर भी बिखर गई. Family Story

लेखक- कमल कपूर

Drama Story: अच्छा सिला दिया तूने मेरे प्यार का

Drama Story: ‘‘अरेवाह मां, ये झुमके तो बहुत सुंदर हैं. कब खरीदे? रंजो ने अपनी मां प्रभा के कानों में झूलते झुमके को देख कर पूछा.

‘‘वो पिछले महीने हमारी शादी की सालगिरह थी न, तभी अपर्णा बहू ने मुझे यह झुमके और तुम्हारे पापा को घड़ी ले कर दी थी. पता नहीं कब वह यह सब खरीद लाई,’’ प्रभा ने कहा.

अपनी आंखें बड़ी कर रंजो बोली, ‘‘भाभी ने? क्या बात है. फिर आह भरते हुए कहने लगी, मुझे तो कभी इस तरह से कुछ नहीं दिया उन्होंने. हां भाई, सासससुर को मक्खन लगाया जा रहा है, लगाओलगाओ खूब मक्खन लगाओ.’’ लेकिन उस का ध्यान तो उन झुमकों पर ही अटका हुआ था. कहने लगी, ‘‘जिस ने भी दिया हो मां, पर मेरा दिल तो इन झुमकों पर आ गया.’’

हां तो ले लो न बेटा, इस में क्या है, कह कर प्रभा ने तुरंत झुमके उतार कर अपनी बेटी रंजो को दे दिए. लेकिन उस ने एक बार यह नहीं सोचा कि अपर्णा को कैसा लगेगा जब वह जानेगी कि उस के दिए झुमके उस की सास ने अपनी बेटी को दे दिए.

प्रभा के देने भर की देरी थी कि रंजो ने झट से झुमके अपने कानों में डाल लिए, फिर बनावटी सा मुंह बना कर कहने लगी, ‘‘मन नहीं है तो ले लो मां, नहीं तो फिर मेरे पीठ पीछे घर वाले, खास कर पापा कहेंगे, जब आती है रंजो, कुछ न कुछ तो ले कर ही जाती है.’’

‘‘कैसी बातें करती हो बेटा, कोई क्यों कुछ कहेगा? और क्या तुम्हारा हक नहीं है इस घर पर? तुम्हें पसंद है तो रख लो न इस में क्या है. तुम पहनो या मैं बात बराबर है.’’

‘‘सच में मां? ओह… मां आप कितनी अच्छी हो’’, कह कर रंजो अपनी मां के गले में झूल गई. हमेशा से तो वह यही करते आई है जो पसंद आया उसे रख लिया. यह भी नहीं सोचा कि वह चीज किसी के लिए कितना मायने रखती है. कितने प्यार से और किस तरह से पैसे जोड़ कर अपर्णा ने अपनी सास के लिए वे झुमके खरीदे थे, पर प्रभा ने बिना सोचेसमझे झुमके अपनी बेटी को दे दिए. कह तो सकती थी न कि ये झुमके तुम्हारी भाभी ने बड़े शौक से मुझे खरीद कर दिए इसलिए मैं तुम्हें दूसरा बनवा कर दे दूंगी, पर नहीं, कभी उस ने बेटी के आगे बहू की भावना को समझा है जो अब समझेगी.

‘‘मां देखो तो मेरे ऊपर ये झुमके कैसे लग रहे हैं, अच्छे लग रहे हैं न, बोलो न मां?’’ आईने में खुद को निहारते हुए रंजो कहने लगी, ‘‘वैसे मां, आप से एक शिकायत है.’’

‘‘अब किस बात की शिकायत है?’’ प्रभा ने पूछा.

‘‘मुझे नहीं, बल्कि आप के जमाई को है. कह रहे थे आप ने वादा किया था उन से ब्रैसलैट देने का जो अब तक नहीं दिया.’’

‘‘अरे हांहां याद आया.’’ अपने दिमाग पर जोर डालते हुए प्रभा बोली, ‘‘पर अभी पैसे की थोड़ी तंगी है बेटा, और तुझे तो पता ही है तेरे पापा को कितनी कम पेंशन मिलती है. घर तो अपर्णा बहू और मानव की कमाई से ही चलता है,’’ अपनी मजबूरी बताते हुए प्रभा ने कहा.

‘‘वो सब मुझे नहीं पता है मां, वह आप जानो और आप के जमाई. बीच में मुझे मत घसीटो,’’ झुमके अपने पर्स में सहेजते हुए रंजो ने कहा और चलती बनी.

‘‘बहू के दिए झुमके तुम ने रंजो को दे दिए?’’ प्रभा के कान में वे झुमके न देख कर भरत ने पूछा. उन्हें समझ में आ गया कि अभी रंजो आई थी और वह वे झुमके ले कर चली गई.

‘‘आ… हां उसे पसंद आ गया तो दे दिया,’’ हकलाते हुए प्रभा ने कहा और वहां से जाने लगी. क्योंकि जानती थी अब भरत चुप नहीं रहने वाले.

‘‘क्या कहा तुम ने, उसे पसंद आ गया? हमारे घर की ऐसी कौन सी चीज है जो उसे पसंद नहीं आती है, बोलो? जब भी आती है कुछ न कुछ उठा कर ले ही जाती है. क्या जरा भी शर्म नहीं है उसे? उस दिन आई थी तो बहू का पर्स, जो उस की दोस्त ने उसे दिया था, वह उठा कर ले गई. कोई कुछ नहीं कहता, इस का मतलब यह नहीं कि वह अपनी मनमरजी करेगी,’’ गुस्से से आगबबूला होते हुए भरत ने कहा.

अपने पति की बातों पर तिलमिला उठी प्रभा. बोली, ‘‘ऐसा कौन सा जायदाद उठा कर ले गई वह जो तुम इतना सुना रहे हो? अरे एक जोड़ी झुमके ही तो ले गई, वह भी तुम से सहन नहीं हुआ? जाने क्यूं रंजो हमेशा तुम्हारी आंखों में खटकती रहती है?’’

लेकिन आज भरत का गुस्सा सातवें आसमान पर था इसलिए कहने लगे, ‘‘किस ने मना किया तुम्हें जायदाद देने से, दे दो न जो देना है. लेकिन किसी का प्यार से दिया हुआ उपहार यूं ही किसी और को देना, क्या यह सही है? अगर बहू ऐसा करती तो तुम्हें कैसा लगता? कितने अरमानों से वह तुम्हारे लिए झुमके खरीद कर लाई थी और तुम ने एक मिनट भी नहीं लगाया उसे किसी और को देने में.’’

‘‘ये किसी और किसी और क्या लगा रखा है? अरे, बेटी है वह हमारी और मैं ने अपनी बेटी को दिया जो दिया, समझे, बड़े आए बहू के चमचे, हुंह,’’ मुंह बिचकाते हुए प्रभा बोली.

‘‘अरे तुम्हारी बेटी तुम्हारी ममता का फायदा उठा रही है और कुछ नहीं. किस बात की कमी है उसे? हमारे बेटेबहू से ज्यादा कमाते हैं वे दोनों पतिपत्नी, फिर भी कभी हुआ उसे की अपने मांबाप के लिए 2 रुपए का भी उपहार ले कर आए कभी, नहीं? हमारी छोड़ो, क्या कभी उस ने अपनी भतीजी को एक खिलौना भी खरीद कर दिया है आज तक, नहीं? बस लेना जानती है. क्या मेरी आंखें नहीं है? देखता हूं मैं, तुम बहूबेटी में कितना फर्क करती हो. बहू का प्यार तुम्हें ढकोसला लगता है और बेटी का ढकोसला प्यार. ऐसे घूरो मत मुझे, पता चल जाएगा तुम्हें भी एक दिन देखना.’’

‘‘कैसे बाप हो तुम सच में. जो बेटी के सुख पर भी नजर लगाते रहते हो. पता नहीं क्या बिगाड़ा है रंजो ने तुम्हारा जो हमेशा वह तुम्हारी आंखों की किरकिरी बनी रहती है?’’ अपनी आंखें लाल करते हुए प्रभा बोली.

ओ… कमअक्ल औरत, रंजो मेरी आंखों की किरकिरी नहीं बनी है, बल्कि अपर्णा बहू तुम्हें फूटी आंख नहीं सुहाती है. पूरे दिन घर में बैठी आराम फरमाती रहती हो, हुक्म चलाती रहती हो कभी यह नहीं होता कि बहू के कामों में थोड़ा हाथ बटा दो और तुम्हारी बेटी, वह तो यहां आ कर अपना हाथपैर हिलाना भी भूल जाती है. क्या नहीं करती है बहू इस घर के लिए. बाहर जा कर कमाती भी है और अच्छे से घर भी संभाल रही है फिर भी तुम्हें उस से कोई न कोई शिकायत रहती ही है. जाने क्यों तुम बेटीबहू में इतना भेद करती हो?’’

‘‘कमा कर लाती है और घर संभालती है तो कौन सा एहसान कर रही है हम पर. घर उस का है तो संभालेगा कौन?’’ झुंझलाते हुए प्रभा बोली.

‘‘अच्छा, सिर्फ उस का घर है तुम्हारा नहीं? बेटी जब भी आती है उस की खातिरदारी में जुट जाती हो, पर कभी यह नहीं होता कि औफिस से थकीहारी आई बहू को एक गिलास पानी ही पकड़ा दो. बस ताने मारना आता है तुम्हें. अरे, बहू तो बहू उस की दोस्त को भी तुम देखना नहीं चाहती हो. जब भी आती है कुछ न कुछ सुना ही देती हो. तुम्हें लगता है कहीं वह अपर्णा के कान न भर दे तुम्हारे खिलाफ, तुम्हारी बेटी के खिलाफ, इसलिए उसे देखना नहीं चाहती हो. जाने दो, मैं भी किस पत्थर पर अपना सिर फोड़ रहा हूं तुम से तो बात करना ही बेकार है,’’ कह कर भरत अपना पैर पटकते हुए वहां से चले गए. और प्रभा बड़बड़ाती रही. सहन नहीं हुआ उसे की भरत ने रंजो के खिलाफ कुछ बोल दिया.

लेकिन सही तो कह रहे थे भरत, अपर्णा क्या कुछ नहीं करती है इस घर के लिए, पर फिर भी प्रभा को उस से शिकायत ही रहती थी. नातेरिश्तेदार हों या आसपड़ोस, हर किसी से वह यही कहती फिरती थी, भई, अब बहू के राज में जी रहे हैं तो मुंह बंद कर के ही जीना पड़ेगा न, वरना जाने कब बहूबेटे हम बूढ़ेबूढ़ी को वृद्धाश्रम भेज दें. आज कल उलटा जमाना है. अब बहू नहीं, बल्कि सास को बहू से डर कर रहना पड़ता है सुन कर कैसे अपर्णा अपना चेहरा नीचे कर लेती थी पर अपने मुंह से एक शब्द भी नहीं बोलती थी. पर उस की आंखों से बहते आंसू उस के मन के दर्द को जरूरत बयां कर देते थे.

अपर्णा ने तो प्रभा को आते ही अपनी मां मान लिया था पर प्रभा तो आज तक उसे पराए घर की लड़की ही समझती रही. अपर्णा जो भी करती प्रभा के लिए, वह उसे बनावटी ही लगता था और रंजो का एक बार सिर्फ यह पूछ लेना, ‘‘मां आप की तबीयत तो ठीक है न?’’ सुन कर प्रभा खुशी से फूल कर कुप्पा हो जाती और अगर जमाई ने हालचाल पूछ लिया तो फिर प्रभा के पैर ही जमीन पर नहीं पड़ते थे.

उस दिन सिर्फ इतना ही कहा था अपर्णा ने, ‘‘मां, ज्यादा चाय आप की सेहत के लिए नुकसानदायक हो सकती है और वैसे भी डाक्टर ने आप को चाय पीने से मना किया है. होर्लिक्स लाई हूं आप यह पी लीजिए. कह कर उस ने गिलास प्रभा की ओर बढ़ाया ही था कि प्रभा ने गिलास उस के हाथों से झटक लिया और टेबल पर रखते हुए तमक कर बोली, ‘‘तुम मुझे ज्यादा डाक्टरी का पाठ मत पढ़ाओ समझी, जो मांगा है वही ला कर दो, फिर बुदबुदाते हुए कहने लगी, ‘बड़ी आई मुझे सिखाने वाली, अच्छे बनने का नाटक तो कोई इस से सीखे.’ अपर्णा की हर बात उसे नाटक और बनावटी ही लगती थी.

मानव औफिस के काम से शहर से बाहर गया हुआ था और अपर्णा भी अपने कजिन भाई की शादी में गई हुई थी. लेकिन मन ही मन अपर्णा यह सोच कर डर रही थी कि अकेले सासससुर को छोड़ कर जा रही हूं कहीं इन की तबीयत खराब हो गई तो. यही सोच कर जाने से पहले उस ने रंजो को दोनों का खयाल रखने और दिन में कम से कम एक बार उन्हें देख आने को कहा. जिस पर रंजो ने आग उगलते हुए कहा, ‘‘आप नहीं भी कहती न भाभी, तो भी मैं अपने मांपापा का खयाल रखती. आप को क्या लगता है एक आप ही हैं इन का खयाल रखने वाली? अरे, बेटी हूं मैं इन की, बहू नहीं समझीं.’’ रंजो की बातों से अपर्णा बेहद आहत हुई थी, मगर चुप रही. मगर अपर्णा के जाने के बाद वह एक बार भी अपने मायके नहीं आई. क्योंकि यहां उसे काम जो करना पड़ जाता. कभीकभार फोन पर हालचाल जरूर पूछ लेती और साथ में यह बहाना भी बना देती कि वक्त नहीं मिलने के कारण वह उन से मिलने नहीं आ पा रही, पर वक्त मिलते आएगी जरूर. और प्रभा सोचती, बेटी को सच में उन से मिलने का समय नहीं मिलता होगा, वरना आती जरूर.

एक रात अचानक भरत की तबीयत बहुत बिगड़ गई. प्रभा इतनी घबरा गईं कि उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे. उस ने मानव को फोन लगाया पर उस का फोन नैटवर्क क्षेत्र से बाहर बता रहा था, फिर उस ने अपनी बेटी रंजो को फोन लगाया. लेकिन घंटी तो बज रही थी पर कोई उठा नहीं रहा था. जमाई को भी फोन लगाया उस का भी वही हाल था. जितनी बार भी प्रभा ने रंजो और उस के पति को फोन लगाया उन्होंने नहीं उठाया, ‘शायद वे सो गए होंगे इसलिए फोन की आवाज उन्हें सुनाई नहीं दे रही होगी.’ प्रभा के मन में यह ख्याल आया. फिर हार कर उस ने अपर्णा को फोन लगाया. इतनी रात गए प्रभा का फोन आया देख कर अपर्णा घबरा उठी.

प्रभा कुछ बोलती उस से पहले ही वह बोल पड़ी, ‘‘मां… क्या हुआ पापा ठीक है न?’’ लेकिन जब उसे प्रभा की सिसकियों की आवाज आई तो वह समझ गई कि कुछ बात जरूरत है. घबरा कर वह बोली, ‘‘मां, मां आप रो क्यों रही हैं? कहिए न क्या हुआ मां?’’ लेकिन फिर अपने ससुर के बारे में सब जान कर वह कहने लगी, ‘‘मां, आप घबराइए मत कुछ नहीं होगा पापा को. मैं कुछ करती हूं. उस ने तुरंत अपनी दोस्त शोना को फोन लगाया और सारी बातों से उसे अवगत कराते हुए कहा कि तुरंत वह पापा को अस्पताल ले कर जाए.’’

अपर्णा की जिस दोस्त को प्रभा देखना तक नहीं चाहती थी और उसे बंगालन बंगालन कह कर बुलाती थी आज उसी की बदौलत भरत की जान बच पाई, वरना पता नहीं क्या हो जाता. डाक्टर का कहना था कि मेजर अटैक था. अगर और थोड़ी देर हो जाती मरीज को लाने में तो इन्हें बचाना मुश्किल हो जाता.

तब तक अपर्णा और मानव भी अस्पताल पहुंच चुके थे, फिर कुछ देर बाद रंजो भी अपने पतिबेटे के साथ वहां आ गई. बेटेबहू को देख कर बिलखबिलख कर रो पड़ी प्रभा और कहने लगी, आज अगर शोना न होती तो शायद तुम्हारे पापा जिंदा न होते.

अपर्णा के भी आंसू रुक नहीं रहे थे. उसे लगा उस के ससुर को कुछ हो जाता, तो वह खुद को कभी माफ नहीं कर पाती. सास को अपने सीने से लगा कर ढाढ़स बंधाया कि अब सब ठीक हो जाएगा. अपनी दोस्त शोना को तहे दिल से धन्यवाद दिया कि उस की वजह से उस के ससुर कि जान बच पाई.

इधर अपनी भाभी को मां के करीब देख कर रंजो भी मगरमच्छ के आंसू बहाते हुए कहने लगी, ‘‘मां, मैं तो मर ही जाती अगर पापा को कुछ हो जाता तो. कितनी खराब हूं मैं जो आप का कौल नहीं देख पाई. वह तो सुबह आप की मिस्डकाल देख कर वापस आप को फोन लगाया तो पता चला, वरना यहां तो कोई कुछ बताता भी नहीं मुझे,’’ अपर्णा की तरफ घूरते हुए रंजो बोली. उस का इशारा उस की तरफ ही था. चिढ़ हो रही थी उसे अपर्णा को प्रभा के करीब देख कर.

अभी वह बोल रही थी कि तभी उस का 7 साल का बेटा अमोल बोला पड़ा, मम्मी आप झूठ क्यों बोल रही हो? नानी, ‘‘मम्मी झूठ बोल रही है. जब आप का फोन आया था हम टीवी पर फिल्म देख रहे थे. मम्मी यह कह कर फोन नहीं उठा रही थी कि पता नहीं कौन मर गया जो मां इतनी रात को हमें परेशान कर रही है. पापा ने कहा भी उठा लो हो सकता है कोई जरूरी बात हो. मगर फिर भी मम्मी ने आप का फोन नहीं उठाया और फिल्म देखती रही.’’

अमोल की बातें सुन सब हतप्रभ रह गए. और रंजो को तो काटो तो खून नहीं. प्रभा एकटक कभी अपने नातिन को देखती तो कभी अपनी बेटी को. उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि अमोल जो कह रहा है वह सही है.

सचाई खुलते ही रंजो की तो सिट्टीपिट्टी गुम हो गई. उसे तो जैसे सदमा लग गया. अपने बेटे को एक थप्पड़ लगाते हुए बोली, ‘‘पागल कहीं का, कुछ भी बकवास करता रहता है. फिर हकलाते हुए कहने लगी, अ… अरे वो तो किसी और का फोन आ रहा था, मां. और मैं ने उस के लिए कहा था,’’ वो शब्द, फिर दांत निपोरते हुए कहने लगी, ‘‘देखो न मां कुछ भी बोलता है, बच्चा है न इसलिए.’’

प्रभा को अब भी अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था कि उस ने जो कुछ सुना सही है. कहने लगी, ‘‘इस का मतलब तुम उस वक्त जागी हुई थी और तुम्हारा फोन भी तुम्हारे आसपास ही था? तुम ने एक बार भी यह नहीं सोचा कि इतनी रात को तुम्हारी मां किसी कारणवश ही तुम्हें फोन कर रही होगी? अच्छा सिला दिया तूने मेरे प्यार और विश्वास का बेटा. आज मेरा सुहाग उजड़ गया होता अगर ये शोना न होती तो. जिस बहू के प्यार को मैं ढकोसला और बनावटी समझती रही, आज पता चल गया कि वह असल में प्यार ही था. मैं तो आज भी इस भ्रम में ही जीती रहती अगर तुम्हारा बेटा हमें सचाई न बताता तो.’’

अपने हाथों से सोने का अंडा देने वाली मुर्गी निकलते देख कहने लगी रंजो, ‘‘नहीं, मां, आप गलत समझ रही हैं.’’

‘‘समझ रही थी बेटा, पर अब मेरी आंखों पर से पर्दा हट चुका है. सही कहते थे तुम्हारे पापा की तुम मेरी ममता का सिर्फ फायदा उठा रही हो. कोई मोह नहीं है तुम्हारे दिल में मेरे लिए,’’ कह कर प्रभा ने अपना चेहरा दूसरी तरफ फेर लिया और अपर्णा से बोली, ‘‘चलो बहू, देखें तुम्हारे पापा को कुछ चाहिए तो नहीं?’’ रंजो, मां मां कहती रही पर पलट कर एक बार भी प्रभा ने फिर उसे नहीं देखा, क्योंकि मोहभंग हो चुका था उस का. Drama Story

Magazines on the Move : अब गृहशोभा और चंपक तेजस एक्सप्रेस के पैसेंजर्स को भी मिलेंगे

Magazines on the Move :  पुराने दिनों की यादें फिर से ताजा होने जा रही है.  रेलयात्रा के दौरान पैसेंजर्स पत्रिकाओं को एंजॉय कर सकेंगे.
एसोसिएशन ऑफ इंडियन मैगजीन्स ( AIM ) ने प्रसार भारती के WAVES OTT और ONDC (ओपन नेटवर्क फॉर डिजिटल कॉमर्स) डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर मैगजीन स्टोर को लॉन्च किया. इस स्टोर में 100 से अधिक मैगजीन ब्रांड्स  पूरे भारत में उपलब्ध होंगे. इसे क्लिक करते ही आप अपनी पसंदीदा पत्रिका को एंजौय कर सकेंगे. 

 8 अगस्त 2025 को दिल्ली में 14वां इंडियन मैगज़ीन कांग्रेस 2025 का आयोजन किया गया. इस अवसर पर कई मशहूर प्रकाशन समूहों के प्रकाशक, संपादक, डिजिटल मीडिया प्रमुख, नीति निर्माता, मार्केटर मौजूद थे.  The Deep Connect – Building Communities. Nurturing Trust. Re-imagining the Future विषय पर आयोजित कांग्रेस में इस बात पर जोर दिया गया कि आज भी पत्रिकाएं  तेजी से भाग रही डिजिटल दुनिया की नकल करने की बजाय गहराई से जुड़ने में यकीन करती है और इसी वजह से उसने अपने रीडर्स का भरोसा कायम कर रखा है.

एसोसिएशन ऑफ इंडियन मैगजीन्स यानि ‘एआईएम’, देशभर में 40 से अधिक पब्लिशर्स और 300 से भी अधिक मैगजीन्स का प्रतिनिधित्व करती है. एआईएम की ओर से आयोजित इस कांग्रेस में 3 ऐतिहासिक डिजिटल और भौतिक वितरण पहल की घोषणा की गई. वे हैं –

1. WAVES OTT पर मैगजीन स्टोर – यह सौ से अधिक मैगजीन को एक क्लिक में रीडर्स को उपलब्ध कराएगा. 

2. ONDC पर सेलर-साइड ऐप लॉन्च किया गया, इसकी मदद से विक्रेता यानि सेलर्स सीधे प्लेटफॉर्म के माध्यम से प्रिंट या डिजिटल मैगजीन बेच सकेंगे.  DigiHaat पर भी मैगजीन की शुरुआत की गई है.  यह ओएनडीसी आधारित डिजिटल बाजार है. 

3. “Magazines on the Move” नाम से एक बेहद रोचक पहल की शुरुआत IRCTC  (भारतीय रेलवे खान-पान एवं पर्यटन निगम) के साथ की गई है. इसके तहत तेजस एक्सप्रेस के यात्रियों को उनकी सीट पर ही पत्रिकाएं उपलब्ध कराई जाएगी.  फिलहाल यह सुविधा मुंबई–अहमदाबाद और दिल्ली–लखनऊ रूट के तेजस ट्रेनों में उपलब्ध है. इस सुविधा के तहत पैसेंजर्स को एक क्यूरेटेड मेन्यू मिलेगा, जिससे वे अपनी पसंद की मैगजीन चुन सकेंगे. इन्हें आईआरसीटीसी स्टाफ के जरिए पैसेंजर की सीट तक पहुंचाया जाएगा.  जल्दी ही इस पहल को 100 से अधिक प्रीमियम ट्रेनों में उपलब्ध कराए जाने की योजना है. 

एआईएम के प्रेसिडेंट और दिल्ली प्रेस के एग्जीक्यूटिव पब्लिशर अनंत नाथ ने कहा कि ‘द इंडियन मैगजीन कांग्रेस’ हमेशा से विचारों और अवसरों को जोड़ने का जरिया रहा है. इन नई पहलों का उद्देश्य हर किसी के लिए मैगजीन उपलब्ध करना है फिर चाहे वह प्रिंट हो या डिजिटल. उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि एआईएम का उद्देश्य वितरण के अलग अलग माध्यमों का इस्तेमाल कर रीडर्स से कनेक्ट करना है.
प्रसार भारती के मुख्य कार्यकारी अधिकारी और अध्यक्ष गौरव द्विवेदी ने WAVES OTT पर मैगजीन स्टोर शुरू किए जाने को एक ऐतिहासिक पल बताया.  वहीं आरआरसीटीसी के निदेशक राहुल हिमालयन ने मैग्जीन्स ऑन द मूव पहल की शुरआत की. इस अवसर पर दिल्ली प्रेस के एडिटर इन चीफ परेश नाथ, बी डब्लू बिजनेस वर्ल्ड और एक्सचेंज 4 मीडिया ग्रुप के चेयरमैन डॉ अनुराग बत्रा भी उपस्थित रहे.  इस मौके पर AIM-e4m Magzimise Awards के दौरान दिल्ली प्रेस की मैगजीन  गृहशोभा, चंपक और मोटारिंग वर्ल्ड को कई अलगअलग श्रेणियों में अवार्ड दिया गया.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें