सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक नए फैसले में बलात्कार के मामलों में समझौते की कोशिश को गैरकानूनी बताते हुए निर्देश दिया है कि यदि बलात्कारी और पीडि़ता के बीच कोई लेनदेन हो जाए, यहां तक कि विवाह भी हो जाए तो भी मुकदमा चलेगा ही. मध्य प्रदेश के गुना की अदालत में चल रहे बलात्कार के एक मामले में पीडि़ता, जो नाबालिग थी, बलात्कारी को 5 साल की सजा हुई पर उच्च न्यायालय ने उसे रिहा कर दिया, क्योंकि दोनों पक्षों में समझौता हो गया था. उच्च न्यायालय ने जब तक बलात्कारी को छोड़ा था तब तक उस ने सिर्फ 1 साल की सजा काटी थी. मामला सुप्रीम कोर्ट में क्यों आया यह तो साफ नहीं पर सुप्रीम कोर्ट ने फटकार लगाते हुए कहा कि बलात्कार का अपराध एक लड़की पर नहीं पूरे समाज पर है और आपसी समझौते से इसे नकारा नहीं जा सकता. मुकदमा तो चलेगा ही. सर्वोच्च न्यायालय पहले भी इस तरह के चेन्नई, मुंबई व कोलकाता उच्च न्यायालयों के मामलों में अपने निर्देश दे चुका है कि बलात्कार जैसे जघन्य अपराध को लेनदेन का अपराध नहीं बनाया जा सकता. सुप्रीम कोर्ट की भावना चाहे अच्छी और काबिलेतारीफ हो पर फैसला गलत नहीं, बहुत गलत है. बलात्कार यकीनन पूरे समाज के खिलाफ अपराध है. यकीनन यह हत्या से भी ज्यादा जघन्य अपराध है. बिना शक यह मर्दों की अपनी शक्ति को औरतों पर थोपने की कोशिश है पर इस की व्यावहारिकता को नहीं भुलाया जाना चाहिए.

यह कहना आसान है कि मुकदमा चलाओ पर जिस देश में बलात्कार के मामलों को 10-12 साल घसीटा जाए वहां क्या कोई भी फैसला लड़की को राहत देने वाला होगा? यदि बलात्कारी 10-12 साल छुट्टे सांड की तरह घूम रहा हो तो क्या पीडि़ता का हर रोज मानसिक और कानूनी बलात्कार नहीं हो रहा होगा? जब भी तारीख पास आएगी, बलात्कारी के आदमी पीडि़ता के पास समझौते और अगर समझौते के लिए नहीं तो डराने के लिए ही पहुंच जाएंगे तो क्या जख्मों को नहीं कुरेदेंगे? पुलिस अफसर और सरकारी वकील क्या पीडि़ता को बारबार हर पेशी से पहले बुला कर मामले के बारे में पूछताछ नहीं करेंगे? मामला जब तक चलेगा तब तक हर रोज पीडि़ता के सिर पर तलवार लटकी रहेगी कि कहीं बलात्कारी छूट गया तो वह घर के सामने सीना तान कर खड़ा न हो जाए. जब आपराधिक मामला चलता है तो 2-3 साल तक तो गवाहियां चलती रहती हैं और हर गवाही के पहले पीडि़ता को अपने साथ हुए कांड को दोहराना पड़ता है. पहला बयान दूसरेतीसरे बयान से अलग न हो जाए यह ध्यान रखना पड़ता है यानी पीडि़ता हर बार उस कांड को याद करती है.

मध्य प्रदेश का यह मामला जब सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा तब तक 10 साल तो बीत ही चुके थे. अब उच्च न्यायालय में फिर आ गया. किस सरकारी वकील को चिंता है कि अपराधी को सजा हो हो? पीडि़ता को ही पीछे पड़ना होगा तभी कुछ संभव है वरना सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद कहा जा सकता है कि पीडि़ता के साथ संबंध हुए ही नहीं थे, सारी कहानी अविश्वसनीय है. बलात्कार के बाद पहली शिकायत करना आसान है पर मामले को अदालत के लायक बनाना बेहद कठिन है. समझौता ही इस तरह के मामलों में सही उपाय है. यही पीडि़ता को सही राहत देगा. उसे पैसा मिले, बलात्कारी से उस की शादी हो जाए, वह मामले को भूल जाए तभी वह अपना नया जीवन शुरू कर सकती है. बलात्कारी के पास तो समय ही समय होता है पर पीडि़ता के पास कुछ ही महीने होते हैं. पर हमारी व्यवस्था उसे वर्षों लटकाए रखती है. सर्वोच्च न्यायालय का फैसला बेहद कानूनी हो सकता है, सही सामाजिक चेतावनी हो सकता है पर उस पीडि़ता के लिए घातक है, जो पुरानी टीस भुला कर नया जीवन जैसेतैसे शुरू करना चाहती है. मामला चला तो वह घर बदल कर कहीं और भी नहीं जा पाएगी. अदालती फैसला तो उस जंजीर की तरह होगा जो पानी में गिरने से बचाने के लिए लगाई गई पर बन गई हाथ और गले की जंजीर.

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