संन्यास की बात हर किसी के मन में कभी भी आ सकती है, जिस की एक वजह तो भगवान या भगवान के बराबर बनने की आदिम ख्वाहिश है तो दूसरी उस से ज्यादा अहम और चारों तरफ बिखरी पड़ी है वह है धार्मिक माहौल का दबाव, जिस में जीने वाले लोग नशे की हद तक आदी हो गए हैं. सुबह से ले कर देर रात तक धर्म और उस के दुकानदार इस तरह लोगों के इर्दगिर्द मंडराते रहते हैं कि उन के न होने की कल्पना भी लोग नहीं कर पाते. धर्म की बेडि़यां सदियों से लोगों के पैरों में पड़ी रही हैं, जिन से अब धर्मभीरु खुद छुटकारा नहीं पाना चाहते. यह मानसिक गुलामी चूंकि ऐच्छिक है, इसलिए इस के बारे में बात करने से भी लोग घबराते हैं कि कहीं ऐसा न हो कि ईश्वर और धर्म के प्रति मन में जो संशय है उसे कोई तर्क से सही साबित न कर दे. दरअसल में इस संशय जो डर भी है और असुरक्षा की भावना भी का फायदा संन्यासी सदियों से उठा रहे हैं. उन का एक ही काम होता है कि धर्मग्रंथों में लिखी बातों को दोहराते रहो, उन के किस्सों को कहानियां, कविताएं और चुटकुले बना कर भक्तों को सुना कर उन्हें बरगलाते रहो ताकि वे तर्क की बात सोचें ही नहीं और जो थोड़ेबहुत लोग सोचें उन्हें नास्तिक और पापी करार देते हुए समाज से ही बहिष्कृत करवाने के टोटके करते रहो ताकि अपनी दुकान सही चलती रहे.
इस दुकान के मुख्य प्रचलित उत्पाद पाप, पुण्य, कष्ट, आनंद, स्वर्ग, नर्क, मोक्ष, मुक्ति वगैरह है, जो रोज बिकते हैं और इन के बारे में सुनने डरेसहमे लोग मुंह मांगी कीमत अदा करते हैं. हर धर्म में यह व्यवस्था है कि अपनी कमाई का इतना फीसदी हिस्सा धर्म व दान में लगाने का ईश्वरीय निर्देश है. mइन तथाकथित दिशानिर्देशों का पालन हर धर्म के अनुयायी करते हैं, उन्हीं में से एक दिल्ली के कारोबारी भंवरलाल दोशी भी थे, जो अब संन्यास लेने के बाद भव्य रत्न महाराज के नाम से जाने जाते हैं. राजस्थान के सिरोही जिले के रहने वाले भंवरलाल दोशी मामूली खातेपीते जैन परिवार में पैदा हुए थे पर कुछ करने की कशिश उन्हें दिल्ली खींच लाई. भंवरलाल मेहनती थे और दिमाग वाले भी, लिहाजा देखते ही देखते प्लास्टिक के अपने कारोबार को इतनी ऊंचाइयों तक ले गए कि लोग उन्हें दिल्ली का प्लास्टिक किंग तक कहने लगे थे. 1978 में उन्होंने महज क्व30 हजार से कारोबार शुरू किया था, जो 2015 तक में क्व1,200 करोड़ का हो गया था. mगत पहली जून को भंवरलाल ने संन्यास ले लिया तो इस की चर्चा देश भर में रही जिस की वजह यह थी कि उन्होंने अपने संन्यास पर क्व100 करोड़ खर्च किए थे. संन्यास लेने के लिए भंवरलाल खासतौर पर अहमदाबाद गए थे, क्योंकि उन के गुरु दिल्ली नहीं आ सकते थे. 3 दिन उन्होंने अहमदाबाद में भव्य धार्मिक आयोजन किए, जिन में आकर्षण का बड़ा केंद्र वह जहाज रहा, जिस में वे 3 दिन तक सवार हो कर जुलूस निकाल कर अपने संन्यास का प्रचार करते रहे. करोड़ों रुपए से बने उस जहाज का नाम संयम जहाज रखा गया था. भंवरलाल के संन्यास समारोह में जैन बाहुल्य शहर अहमदाबाद के लाखों लोग शामिल हुए थे जो भंवरलाल दोशी के भवसागर से पार पाने के इस कृत्य के साक्षी बने.
सम्मोहन धर्म का
व्यापार में शिखर तक पहुंचने के लिए भंवरलाल ने संघर्ष किया था, क्योंकि उन में कुछ कर गुजरने का जज्बा था. अरबों रुपयों का अपना कारोबारी साम्राज्य खड़ा करने के पीछे उन की बुद्धि, मेहनत और काबिलीयत थी. संघर्ष के दिन अकसर बेहद आनंददायक भी होते हैं, क्योंकि इन दिनों में आदमी कुछ हासिल कर रहा होता है. अपनी युवावस्था में भंवरलाल दोशी बेहद शौकीन और जिंदादिल शख्सीयत थे. मगर साथ ही नियमित मंदिर जाने की बीमारी भी उन्हें थी, जो धीरेधीरे बढ़ कर संन्यास की वजह बनी. मंदिरों में क्या होता है, यह हर कोई जानता है कि उन में दाखिल होते ही भक्त एक अजीब से सम्मोहन में जकड़ जाता है. चारों तरफ धूपबत्तियां, पूजापाठ, ध्यान और प्रार्थना का माहौल रहता है. संत और मुनि यहां अपने आसन या कालीन पर बैठे भक्तों को सांसारिक कष्टों, मोहमाया से मुक्ति का पाठ पढ़ाते हैं. यहां आ कर आदमी को लगता है कि वह जो कुछ कर रहा है वह व्यर्थ, मिथ्या और नश्वर है. सच्चा सुख तो दानदक्षिणा करने में है, जिस से परलोक सुधरता है. अत: मेहनत की गाढ़ी कमाई को उदारतापूर्वक लुटाने में कोई हरज नहीं. यही भंवरलाल करते रहे पर शुरू के दिनों में व्यवसाय उन का जनून था जो, उम्र के ढलतेढलते धर्म में तबदील होने लगा. धीरेधीरे संन्यास का भाव उन के मन में आया तो दिनोंदिन और पुख्ता होता गया. वे मेहनत से जो पैसा कमा रहे थे उसे ऊपर वाले की मेहरबानी मानने की चूक भी उन से हुई.
जैनमुनियों और संतों के प्रति उन की श्रद्धा बढ़ती गई. वे भी आम भक्तों की तरह सोचने लगे कि ये लोग कितने महान और त्यागी हैं, जो धर्म के काम में जीवन की आहुति दे रहे हैं और कष्ट भोग रहे हैं. ऐसा मैं भी करूं तो जीवन सार्थक हो जाए. क्यों दुनियादारी के चक्कर में पड़े रह कर कीड़ेमकोड़ों जैसी जिंदगी जी जाए जिस का अंत मृत्यु ही है? उस वक्त भंवरलाल दोशी जैसे लोगों को यह बताने वाला कोई नहीं होता कि वे जो सोच रहे हैं वह दीर्घकालिक धार्मिक प्रभाव का दबाव है, मुद्दत से एक झूठ बारबार अलगअलग तरीके से बोला जा रहा है जिसे वे सच मान बैठे हैं. इस बाबत कोई मौलिक चिंतनमनन या तर्क उन्होंने नहीं किया है. जो संन्यासी कह रहे हैं उसे वे आंख मूंद कर सच मानते जा रहे हैं. स्वर्गनर्क का चित्रण सांसारिक कष्ट और भगवान वगैरह मनगढ़ंत बाते हैं. जैसे भंवरलाल अपने प्लास्टिक के कारोबार को बढ़ाने में लगे थे ठीक वैसे ही ये संत धर्म के अपने कारोबार को आगे बढ़ाने में लगे हैं.
परिवार की नहीं चिंता
जिंदगी भर अपनी जिम्मेदारियां बखूबी निभाने वाले भंवरलाल अगर ढलती उम्र में धर्म के झांसे में आ गए, तो बात कतई हैरत की नहीं. मुमकिन है उन के मन में भी संन्यासियों की तरह पुजने का भाव आ गया हो. जिन संतोंसंन्यासियों ने सब कुछ त्याग दिया है, उन के सामने अच्छेअच्छे पैसे वालों के सिर झुकते हैं. बहुतों को रोजगार देने वाले हजारों भंवरलाल भिक्षुओं की तरह उन के आशीर्वाद और कृपा को तरसते रहते हैं, तो हम से बेहतर तो वे हुए. बहरहाल, जब संन्यास की ठान ली तो परिवारजनों को भी इस इच्छा से अवगत कराया. शुरू में तो पत्नी और बेटों ने इसे धर्म का तात्कालिक प्रभाव समझा, लेकिन जब वे हर समय संन्यास का राग अलापने लगे तो परिवार परेशान हो उठा. वे धर्मकर्म करें, दान दें यहां तक किसी को एतराज नहीं था, लेकिन संन्यास ही ले लें, यह वाकई चिंता और तनाव की बात थी. भंवरलाल की पत्नी मधुबेन की मानें तो वे संन्यास की बात 1982 से ही कह रहे थे पर पिछले 3-4 सालों से कुछ ज्यादा ही करने लगे थे, जिस से वे भी चिंतित थीं और बेटे भी परेशान थे. वे उन का मन संन्यास से हटाने के लिए उन्हें तरहतरह से बहलायाफुसलाया करते थे, लेकिन सारी कोशिशें बेअसर साबित हुईं. नवंबर, 2014 में भंवरलाल दोशी ने अंतिम तौर पर परिवारजनों को संन्यास का अपना फैसला सुना दिया. मधुबेन बताती हैं कि कभी वे जिंदादिल इंसान हुआ करते थे. फिल्में देखने का तो बड़ा चाव था और बढि़या खाने और पहनने के भी खासे शौकीन थे. इस से सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह वक्त भंवरलाल दोशी की पत्नी और बेटों के लिए कितना कठिन और तनाव भरा रहा होगा कि घर का वही मुखिया जिस ने ताजिंदगी मेहनत कर इतना बड़ा कारोबार खड़ा किया वह कितनी आसानी से उसे छोड़ संन्यास लेने की बात कह रहा है.
मिला क्या
पति की जिद के आगे असहाय साबित हुईं मधुबेन की जिंदगी में अब जो खालीपन आ गया है वह तो भरने से रहा. वे शायद ही कभी तय कर पाएं कि क्यों उन के पति ने अच्छीखासी धनदौलत, कारोबार और हंसताखेलता परिवार छोड़ संन्यास ले लिया और इस से उन्हें क्या हासिल होगा. यही हाल उन के बेटों का भी है. संभव है वे पिता के संन्यास में अपनी कोई गलती ढूंढ़ने में लगे हों. ,मिला भंवरलाल दोशी को भी कुछ नहीं है, उलटे जो उन्हें जिंदगी में मिला था वह भी खो दिया. अब वे भिक्षुओं की तरह रह रहे हैं. तमाम वैभव और सुखसुविधाएं छोड़ शारीरिक कष्ट उठा रहे हैं. मिली सिर्फ धर्म प्रचारकों की तारीफ और भक्तों की जयजयकार, जो अनुपयोगी है, व्यावहारिक दृष्टिकोण से बेमानी है. दरअसल, संन्यास एक फुतूर और अवसाद है. दोटूक शब्दों में कहें तो सलीके से जिंदगी न जीने की सजा है, जिसे वक्त रहते न रोका जाए तो आदमी कहीं का नहीं रहता यानी न इस लोक का न परलोक का और इस बनावटी परलोक को किसी ने भी नहीं देखा है. इस संन्यास से एक गलत पलायनवादी परंपरा को प्रोत्साहन जरूर मिला है. वजह, भव्य रत्न महाराज अब एक आइटम की तरह पेश किए जाएंगे कि देखा धर्म का प्रताप. कल तक ये भंवरलाल दोशी दिल्ली के प्लास्टिक किंग थे जिन पर दैवीय कृपा हुई तो संन्यास बन गए. तुम्हारे मन में भी संन्यास का भाव आए तो संत समुदाय में शामिल होने से हिचकिचाना नहीं और न ही इस दैवीय कृपा की अवहेलना करना. सच में यह कृपा नहीं आपदा थी जिस की जड़ में धार्मिक बातों की पुनरावृत्ति है जो सीधे तार्किक बुद्धि को मंद और कुंद करती है. संन्यासियों की जैन या दूसरे किसी धर्म में कमी नहीं, जिन्हें खानेकमाने के लिए मेहनत नहीं करनी पड़ती, बल्कि तरहतरह से धर्म प्रचार करना पड़ता है. यही अब भंवरलाल करेंगे जो शायद ही कभी समझ पाएं कि उन्होंने संन्यास नहीं लिया है, बल्कि धार्मिक दबाव ने दिलाया है.