1950 से जब से भारतीय संविधान बना है और बराबरी का हक मौलिक अधिकार घोषित किया गया है, समाज के अनेक वर्ग, जिन में सब से बड़ा और महत्त्वपूर्ण औरतें हैं, इस हक की छिटपुट लड़ाइयां लड़ती रही हैं और कभी जीतती रही हैं तो कभी हारती. अब फरवरी में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सेना में औरतों के साथ भेदभाव नहीं किया जा सकता है और उन्हें पुरुषों के समकक्ष नियमों के अनुसार ही सुविधाएं देनी होंगी.

यह लड़ाई सेना में स्थान पाई औरतें अफसर काफी समय से लड़ रही थीं पर अदालतों की कछुआ चाल के कारण यह मामला दायर होने के वर्षों बाद सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा. सुप्रीम कोर्ट ने यह दलील ठुकरा दी कि औरतों और आदमियों में मूलभूत शारीरिक अंतर है और सरकार और सेना दोनों उन के लिए 2 अलग तरह के कानून व नियम बना सकते हैं. उन्होंने कहा कि यह तर्क कि पुरुष सैनिक औरत अफसरों का मजाक उड़ाएंगे या उन के अधीन काम नहीं करेंगे गलत है और संविधान इस तर्क की पुष्टि नहीं करता.

सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि लिंग के आधार पर स्त्रीपुरुष का भेद कर के कुछ अलग नियम नहीं बनाए जा सकते. दोनों को बराबरी का अवसर देना आवश्यक है.

अब तक यदि महिला अफसरों की नियुक्ति हो भी जाती तो उन्हें 14 साल की सेवा के बाद रिटायर नहीं किया जा सकेगा. उन के लिए रिटायरमैंट की शर्तें वही होंगी जो उस यूनिट में पुरुष अफसरों के लिए हैं.

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