“तुम्हें दोस्त की बेटी की शादी में जाना अधिक आसान लगा बनिस्पत एक बीमार को मिलने के. अपनीअपनी प्राथमिकताएं हैं. तुम ने प्रतिष्ठा को चुना और मैं होती तो शायद प्रेम को चुनती. मैं तुम्हें मिलने के लिए मजबूर नहीं कर सकती लेकिन खुद को तो रोक सकती हूं न… यह मेरी आखिरी सदा है. इस के बाद कभी तुम्हें आवाज नहीं दूंगी,” लिख कर आभा ने रमन को व्हाट्सऐप पर मैसेज कर दिया और रमन की प्रतीक्षा करने लगी लेकिन प्रतिष्ठा भी तो एक कारा ही है न? इस की मोटी सलाखों को तोड़ पाना किसी साधारण व्यक्ति के लिए आसान नहीं. शायद प्रेम करने वाले असाधारण ही होते होंगे. रमन की चुप्पी आभा को निराश करने लगी. प्रेम के अस्तित्व से भरोसा उठने लगा. यह विचार पुष्ट होने लगा कि शायद प्रेम का दैहिक रूप ही अधिक प्रचलन में है.
कई दिन बीत गए. आभा की शरीरिक अस्वस्थता ठीक हो गई लेकिन उस की मानसिक व्याधि दूर नहीं हुई. दिमागी मंथन अब भी जारी है.
“क्या प्रेम जबरदस्ती करवाया जा सकता है? किसी को भी पकड़ कर आप के साथ बांध दिया जाए और यह आदेश दिया जाए कि बस, आज से आप को इसी से प्रेम करना है क्या यह संभव है?” आभा सोचती तो उसे अपने मांबाबूजी याद आ जाते. हर रोज झगड़ते, एकदूसरे पर कटाक्ष करते, ताने मारते और बातबात में नीचा दिखाने की कोशिश करते. मांबाबूजी को देख कर उसे कभी नहीं लगा कि यह भी प्यार का कोई रूप है क्या. बावजूद इस के वे दोनों 4 संतानों के मातापिता बने.
दूर की एक चाची को घर आई देख कर अवश्य ही बाबूजी जरा नरम पड़ते दिखते थे. बाबूजी चाची के बच्चों को भी बहुत प्यार करते थे लेकिन लोकलाज के कारण उस ने कभी चाची को बाबूजी से बात करते नहीं देखा था. हां, उन की मुसकान वह अवश्य महसूस करती थी. इस बीच रमन के फोन आते रहे और आभा प्रेम को ले कर किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सकी थी. शायद पहुंच भी नहीं सकती थी क्योंकि इतना तो वह जान ही गई थी कि प्रेम की परिभाषा हरेक के लिए अलग होती है और शायद निजी भी. रमन के लिए जो प्रेम की धारणा है वह उस की धारणा से पृथक है.
“हैलो…आभा? क्या हुआ? तुम सुन रही हो न?” अचानक रमन की आवाज उसे वर्तमान में ले कर आई. आभा अब तक कुछ सामान्य हो चुकी थी.
“तुम्हारे लिए प्रेम क्या है रमन? क्या तुम इसे परिभाषित कर सकते हो?” आभा ने पूछा.
“लगता है, आज मेरी क्लास ली जा रही है,” रमन ने माहौल को सहज करने की कोशिश की.
“तुम तो साहित्यकार हो न, बताओ? क्या है प्रेम?” आभा ने उसे अनसुना करते हुए फिर से पूछा.
“हमारेतुम्हारे मामले में तो प्रेम अकेले में सौ प्रतिशत और सब के सामने शून्य है आभा. परिस्थितियां तुम भी जानती हो और मैं भी. बस, तुम उन्हें स्वीकार नहीं करना चाहती. हम जिन सामाजिक सीमाओं में बंधे हैं उन्हें तोड़ नहीं सकते. तुम्हें वह गीत याद है, ‘प्यार से भी जरूरी कई काम हैं… प्यार सब कुछ नहीं जिंदगी के लिए…'” रमन ने हारे हुए शब्दों में अपनी विवशता स्वीकार की. फोन पर फिर से चुप्पी की चादर फैल गई.
“प्रेम शब्द की जितनी भी व्याख्या की जाए या फिर उसे जितना भी परिभाषित किया जाए, हमेशा समझ से बाहर का विषय ही रहा है. समाज और संसार की नजरों में भी प्रेम सदैव अबूझ पहेली सा ही रहा होगा, तभी तो जहां पशुपक्षियों, जीवजंतुओं और असहायउपेक्षितों से प्रेम करने वाले को महान करार दिया जाता है, वहीं किसी विपरीत लिंगी से प्रेम करने को हिकारत की दृष्टि से देखा जाता है फिर चाहे वह प्रेम कितना भी निश्छल या वासना रहित क्यों न हो,” आभा प्रेम पहेली में उलझ कर कसमसा रही थी.
“समाज की तो क्या ही कहें, ऐसे प्रेम को तो स्वयं प्रेमी भी सहजता से स्वीकार नहीं कर पाता. उसे भी अपने मीत से मिलने के लिए न जाने कितने झूठ बोलने पड़ते हैं, कितने बहाने रचने पड़ते हैं. और मजे की बात तो यह है कि ये सारे प्रपंच व्यक्ति स्वयं अपनेआप से करता है. शायद समाज में अपनी प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए. रमन भी तो यही कर रहा है,” आभा के विचारों ने और गति पकड़ी.
“क्या मैं रमन को प्रेम करने के लिए बाध्य कर सकती हूं? नहीं न? तो क्या करूं? क्या रमन को भूल जाऊं? क्या यह प्रेम की हार नहीं होगी? आभा अपने प्रश्नजाल से बाहर निकल ही नहीं पा रही थी. तभी मानो रौशनी की 1-1 क्षीण सी रेखा दूर कहीं अंधियारे में कौंधी. आभा साफसाफ देख पा रही थी कि उस रौशनी में प्रेम को परिभाषित होते हुए.
“आभा, अरे यार… कुछ बोलो न? प्लीज, जो सहजता से चल रहा है उसे चलने दो न. क्यों शांत जिंदगी में लहरें लाने की जिद पर अड़ी हुई हो?”रमन ने आभा से अनुनय की लेकिन आभा तो अपना निर्णय ले चुकी थी.
“मैं क्यों इतनी स्वार्थी हुई जा रही हूं. यदि रमन के लिए उस की गढ़ी हुई प्रेम की परिभाषा सही हो सकती है तो मैं भी तो अपनी निजी परिभाषा गढ़ने के लिए स्वतंत्र हूं. उस की वह जाने लेकिन मैं भी तो जिद्दी हुई जा रही हूं न प्रेम को पाने के लिए. शायद यह जिद प्रेम को पाने की नहीं बल्कि रमन को पाने की है. क्या मैं उसे भौतिक रूप से पाए बिना अपने प्रेम को निभा नहीं सकती? यदि नहीं तो फिर मेरा प्रेम स्वार्थ ही हुआ न? अब मैं सबकुछ समय पर छोड़ कर निश्चिंत हो अपना प्रेम निभाउंगी. बिना किसी जिद और स्वार्थ के. बिना किसी शिकायत के. हां, मैं प्रेम की प्रायोजित कारा से आजाद हो कर स्वतंत्र प्रेम करूंगी,” आभा ने तय कर लिया था और ऐसा निश्चय करते ही उसे लगा मानो उस का मष्तिष्क सचमुच किसी भारी बोझे से आजाद हो गया. अब उसे रमन पर गुस्सा नहीं बल्कि प्रेम आ रहा था. वह भी पहले से कई गुणा अधिक.
“तुम सही कहते हो रमन. तुम्हें पाने की मेरी जिद ही मेरी पीड़ा का कारण है. मैं तुम से हमेशा प्यार करूंगी लेकिन अपने प्यार को अपनी जिद नहीं बनने दूंगी. जिस दिन तुम सब के सामने मुझे अपनी जिंदगी का हिस्सा स्वीकार करोगे उस दिन मेरी दुनिया में तुम्हारा स्वागत है. मुझे देह नहीं नेह चाहिए,” कहते हुए आभा ने फोन काट दिया. मानो नेह को देह की कारा से मुक्त कर दिया हो.