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उस समय डूबता सूरज जातेजाते दो पल को ठिठक गया था. सांझ अधिक सिंदूरी हो उठी थी और वक्त अपनी सांसें रोक कर थम गया था.

‘‘क्या सोच रही हैं मैडम? आप की चाय ठंडी हो रही है,’’ मोहना ने फिर उसे वर्तमान के कठोर धरातल पर ला पटका था, जहां न तो मोगरे से महकते बचपन की सुगंध थी और न ही गुलाब से महकते कैशोर्य की मादकता.

घड़ी की सूइयों के साथ समय अगले दिन मं प्रवेश कर चुका था. मां सुबहसुबह ही

एअरपोर्ट के लिए निकल गई थीं. दिन में मंत्री महोदय के साथ मीटिंग काफी अच्छी रही थी. मंत्री भी भैरवी के काम करने के तरीके से बहुत प्रभावित थे. वैसे भी लखनऊ जैसे शहर का जिलाधिकारी होना कोई मामूली बात नहीं थी, जिस में हर दिन उस का अलगअलग पार्टियों के नेताओं से आमनासामना होता रहता था. सभी से अच्छे संबंध बना कर रखना भैरवी को भलीभांति आता था.

दिनभर रहरह कर भैरवी को मल्हार का खयाल आता रहा, जबकि उसे यह भी ठीक तरीके से पता नहीं था कि यह वही ‘मल्हार वेद’ है अथवा नहीं. उस के मन में मल्हार के लिए कोई बेचैनी या तड़प नहीं थी, बस एक उत्सुकता भर थी कि वह अब न जाने कैसा दिखता होगा. उस ने विवाह कर लिया होगा तो उस की पत्नी भी साथ आईर् होगी. न जाने उस के परिवार में कौनकौन होगा.

आर्ट गैलरी के उद्घाटन का कार्यक्रम समाप्त होतेहोते शाम के 6 बज गए थे. मल्हार का कार्यक्रम आरंभ होने में अभी भी 1 घंटा शेष था इसलिए भैरवी ने ड्राइवर से अपनी सरकारी गाड़ी घर की ओर मोड़ने के लिए कहा. घर पहुंच कर उस ने हलके वसंती रंग की हरे बौर्डर वाली अपनी मनपसंद साड़ी निकाली.

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