कुछ अलग हट कर करने का जनून ही संध्या को सिनेमा तक खींच लाया. उन्होंने कमर्शियल सिनेमाई भूमिकाओं से हट कर अलग सिनेमा चुना पर उसमें उन्हें वह पहचान नहीं मिल पाई जो उन की समकक्ष अभिनेत्रियों को मिली.
उम्र के 40 बसंत देख चुकीं संध्या ने अपने करियर की शुरुआत छोटे पर्दे से 1994 में जी टीवी के शो ‘बनेगी अपनी बात’ से की. इस के बाद उन्होंने छोटे पर्दे पर कई शो किए लेकिन वह पहचान हासिल नहीं कर पाईं जो वे चाहती थीं. हिंदी सिनेमा में आने का मौका यशराज की फिल्म ‘साथिया’ से मिला लेकिन दर्शकों की निगाहों में मधुर भंडारकर की फिल्म ‘पेज 3’ से आईं, जिस में सशक्त भूमिका के लिए संध्या को आईफा अवार्ड से सम्मानित किया गया.
फिल्मों के बाद छोटे पर्दे का रुख संध्या ने एक बार फिर पकड़ा है. वह स्टारप्लस पर आ रहे शो ‘पीओडब्ल्यू बंदी युद्ध के’ में सिंगल मदर नाजनीन की भूमिका कर रही हैं. प्रस्तुत हैं शो के प्रमोशन पर गृहशोभा से हुई बातचीत के प्रमुख अंश.
छोटे पर्दे पर आप की वापसी बहुत दिनों बाद हो रही है इस का कारण?
मैं ने जब अपने करियर की शुरुआत ही छोटे पर्दे से की थी तो भला इसे कैसे भूल सकती हूं जिस ने मुझे पहचान दिलाई. मैं एक बात और बताना चाहती हूं कि ऐक्टिंग से मैं ने कभी ब्रेक नहीं लिया, मैं हमेशा कुछ न कुछ करती रही हूं. कुछ फिल्में जैसे ‘द ग्रेट इंडियन बटरफ्लाई’, ‘ऐंग्री इंडियन गौडेस’ के बारे में तो अधिकांश लोगों को मालूम भी न होगा क्योंकि इन की पब्लिसिटी बिलकुल नहीं की गई थी. जब विदेशों में इन फिल्मों को वाहवाही मिली तब यहां के लोगों ने जाना. रही बात छोटे पर्दे की तो मैं बहुत दिनों से किसी ऐसे शो की स्क्रिप्ट की तलाश में थी जिस शो को सारा परिवार साथ बैठ कर देख सके.
फिल्मों में आप का किरदार हमेशा मजबूत व्यक्तित्व वाला होता है इस की कोई खास वजह?
मैं कभी यह सोच कर कोई फिल्म साइन नहीं करती कि इस में मेरा लीड रोल होगा, हां यह जरूर सोचती हूं कि जो रोल मुझे मिला है उसे कैसे सशक्त बनाऊं. एक बात तो है कि महिलाएं ज्यादा मजबूत होती हैं. जब मेरे पिताजी का निधन हुआ तब लगा कि मेरी मम्मी जो हाउस वाइफ हैं बिलकुल टूट जाएगीं, पर ऐसा बिलकुल नहीं हुआ. उन्होंने मजबूती से हमें संभाला और आज तक मैं जितनी भी महिलाओं से मिली हूं उन में वे सब से मजबूत महिला हैं. उन्होंने अपने दर्द को समेटा और वही किया जो करना चाहिए. ऐसे किरदार मुझे वास्तविक लगते हैं. इसीलिए ऐसे किरदारों को मैं करती हूं.
काम के प्रति क्या नजरिया है?
मैं ने कभी पैसों के लिए ऐक्टिंग नहीं की, बल्कि बचपन से ही ऐक्टिंग करना मेरा शौक रहा है. मैं जल्द ही एक तरह के काम कर के उकता जाती हूं. यही बात है कि मैं ने हमेशा अलगअलग भूमिकाओं वाली फिल्मों और टीवी शोज को चुना है. मुझे टाईपकास्ट बनने से चिढ़ है, इसलिए मैं किसी शो या फिल्म को साइन करने से पहले उस के कंटैंट को अच्छी तरह समझती हूं तभी हां करती हूं. इसलिए दर्शक मुझे पहचानते नहीं हैं, क्योंकि मैं आर्ट मूवी करती हूं और देखने वाले दर्शकों की संख्या कितनी है यह सब को पता है. मुझे न तो संजनेसंवरने का शौक है और न ही पब्लिसिटी करने का, सिर्फ एक शौक है और वह है सिर्फ और सिर्फ ऐक्टिंग करने का.
छोटे और बड़े पर्दे में आज क्या बदलाव आए हैं?
मेरे देखते ही देखते सिनेमा में बहुत परिवर्तन हुए हैं. ‘पिंक’ और ‘तलवार’ जैसी फिल्मों का बौक्स औफिस पर सफल होना बताता है कि हमारे दर्शकों का भी फिल्म देखने का टेस्ट बदल गया है. आज की युवा पीढ़ी वास्तविकता और समाज के मुद्दों से भरी फिल्में देखाना चाहती है. लेकिन यह चेंज अभी छोटे पर्दे पर नहीं आया. आज भी नागनागिन, चुड़ैल, धार्मिक अंधविश्वास से भरे शोज की हर चैनल पर भरमार है. कुछ युवा निर्माता अगर सामाजिक मुद्दों से भरे शोज को बनाते भी हैं तो टीआरपी की दौड़ में जल्दी ही वे शोज दम तोड़ देते हैं. लेकिन आज जो सब से बड़ी उपलब्धि मिली है वह है सोशल मीडिया की, जिस की वजह से आप अपने शो की और अपनी पब्लिसिटी कर सकते हैं.
कभी कमर्शियल फिल्में करने का मन नहीं हुआ?
पहले तो कभी नहीं हुआ था, लेकिन एक वक्त ऐसा आया जब मेरी फिल्में बौक्स औफिस पर कब आईं कब गईं इस का पता ही नहीं चलता था. मुझे लोगों को बताना पड़ता था कि मैं ने उस फिल्म में काम किया है तब लगा कि मुझे इस सिनेमा से नाता तोड़ कर कमर्शियल सिनेमा करना चाहिए. पर दिल ने कहा कि वही काम करो जिस में तुम्हें खुशी मिले और मुझे खुशी तो लीक से हट कर फिल्मों में काम कर के मिलती है. दिल की सुनी और सिनेमा करती गई. जितने दर्शक मिले उतने में ही संतोष कर लिया. लेकिन आज संजय मिश्रा, रणवीर शौरी, नंदिता दास जैसे बौलीवुड ऐक्टरों को सफल होते देखती हूं तो लगता है कि मैं सही राह पर चल रही हूं.
आप को लग रहा है कि अब दर्शकों का टेस्ट बदल रहा है?
ऐसी फिल्में देखने वाले दर्शक हर दशक के सिनेमा में मौजूद हैं. ‘अर्धसत्य’ से ले कर ‘तलवार’ फिल्मों तक के लिए हमेशा दर्शक मौजूद रहे हैं. लेकिन उन दर्शकों की संख्या सीमित है. अब हर निर्मातानिर्देशक घाटा उठा कर हमेशा तो सामाजिक मुद्दों वाली फिल्में बना नहीं सकता इसलिए ऐसी फिल्में कम दिखती हैं. दूसरा सब से बड़ा कारण है इन फिल्मों का प्रमोशन नहीं किया जाता. अब तो सोशल मीडिया के प्रमोशन के कारण दर्शकों की नजरों में फिल्म का नाम आ जाता है. मैं जहां भी जाती हूं लोग मेरी फिल्मों के बारे में तारीफ करते हैं. यही सुन कर मुझे तसल्ली हो जाती है.
हमारी फिल्मों को विदेशी ठप्पे की जरूरत क्यों पड़ती है?
कहावत ‘घर की मुरगी दाल बराबर’ हमारी फिल्मों के लिए बिलकुल सटीक बैठती है. मेरी फिल्म ‘ऐंग्री इंडियन गौडेस’ जब रोम में अवार्ड जीत कर आई तब कहीं यहां हमें उस फिल्म के लिए डिस्ट्रीब्यूटर मिले. हमारे यहां की यही सब से बड़ी समस्या है. कई फिल्में हैं जिन्हें जब देश से बाहर वाहवाही मिली तब हमारे देश के दर्शकों में उन्हें देखने की उत्सुकता जगी. इस का कारण यह नहीं कि हमारे दर्शकों को अच्छी फिल्मों की समझ नहीं है. लेकिन आज भी दर्शकों का भारी वर्ग स्टार कलाकारों की फिल्मों को सिरआंखों पर बैठाता है, चाहे उन फिल्मों की कहानी कैसी भी हो.
इस शो को चुनने की कोई खास वजह?
मैं हमेशा से हट कर भूमिकाएं करती रही हूं. जब इस शो के लिए निखिल ने मुझ से संपर्क किया और बताया कि उन का यह शो युद्ध बंदियों के परिवार की कहानियों पर आधारित है तो मैं ने तुरंत हां कर दी, क्योंकि सीमा पर शहीद हुए या युद्ध के दौरान दुश्मन देश में बंदी बने जवान के परिवार पर खासकर उन की पत्नियों पर क्या गुजरती है इस को दिखाना जरूरी है. इन रीयल हीरों की कहानियों को सब के सामने लाना चाहिए ताकि देश जान सके कि एक सैनिक का परिवार किस तरह से देश की सेवा कर रहा है. एक सैनिक जब सीमा से गायब होता है, तब हम लोग उसे सिर्फ एक घटना मान कर भुला देते हैं पर उस का परिवार सालोंसाल सिर्फ इसी उम्मीद पर जिंदा रहता है कि कभी न कभी तो वह वापस आएगा.
इस शो में सिंगल मदर की भूमिका कैसे निभाई?
पहली बात तो यह कि मैं अभी मदर नहीं हूं, पर एक मां के दिल के एहसास को बखूबी समझती हूं. लेकिन एक प्रिजनर की बीवी, जिस के बच्चे हों, की क्या मनोदशा होती है. इस की कल्पना भी नहीं कर सकती थी. यह करना मेरे लिए चैंलेंज था. मैं ने कई सहेलियों से, जो मदर हैं, बात की और खुद सोचा कि अगर इस स्थिति में मैं खुद होती तो कैसा रिएक्ट करती. तभी यह रोल मैं अच्छी तरह कर पाई.
काम से थक जाती हैं तो क्या करती हैं?
जब काम से थक जाती हूं तो कमरा बंद कर के ऋषि दा की फिल्में देखती हूं और अकेले ही खूब हंसती हूं. ‘गोलमाल’, ‘अंगूर’ जैसी फिल्में मेरी पसंदीदा हैं. इन्हें मैं ने न जाने कितनी बार देखा है. इन्हें देख कर मन रिफ्रैश हो जाता है और एक काम मैं रोजाना करती हूं. वह है ऐक्सरसाइज. इस से मैं हमेशा ताजगी महसूस करती हूं.
संध्या की नजर में प्रेम की परिभाषा क्या है?
प्रेम में समर्पण अनिवार्य है. या तो आप खुद को पूरा सौंप दीजिए या फिर प्रेम कीजिए ही नहीं. इस में आप हंसेंगे भी और रोएंगे भी. यह आप से सबकुछ छीन लेता है और मैं ऐसा नहीं कर सकती, इसलिए कभी प्रेम में पड़ी ही नहीं.
18 सालों में कभी पीछे मुड़ कर देखा है?
मुझे पीछे मुड़ कर देखना पसंद नहीं. पीछे वे देखते हैं जिन्होंने कुछ प्लान किया होता है या फिर गलतियां. मुझे नहीं लगता कि मैं ने ऐसा कुछ किया है. मैं ने वही किया जो दिल ने कहा. मैं अपना रीव्यू नहीं करती सिर्फ आगे देखती हूं कि अब क्या करना है. मैं किसी दूसरे के साथ कभी भी रेस नहीं लगाती. रेस लगाती भी हूं, तुलना करती भी हूं तो अपने पिछले काम से अपने नए काम की कि इस
में क्या गलतियां कर गई. मैं रानी मुखर्जी, काजोल और तब्बू की हमेशा प्रशंसक रही हूं. अगर कभी मौका मिलता है तो मैं फिल्म ‘उमराव जान’ में जो रेखाजी का कैरेक्टर है उसे प्ले करना चाहूंगी.