‘‘कविता क्या हुआ, परेशान क्यों है?’’

‘‘क्या बताऊं पूजा, मेरी सास आजकल न तो कुछ ठीक से खातीपीती हैं और न ही पहले की तरह खुश रहती हैं. उन का स्वास्थ्य दिनबदिन गिरता जा रहा है. वे कभीकभी छोटीछोटी बातों पर या तो गुस्सा करने या फिर रोने लगती हैं, जिस से घर का माहौल खराब हो जाता है. अब तुम्हीं बताओ, मैं क्या करूं?’’

‘‘तू ने इस बारे में अपने पति सुरेश और ननद रीतू से बात की?’’

‘‘हां, उन दोनों से बात की. उन का कहना है कि तुम बेकार में परेशान हो रही हो, बुढ़ापे में ये सब बातें आम होती हैं. लेकिन मैं जानती हूं पूजा, मेरी सास को कोई न कोई गम अंदर ही अंदर खाए जा रहा है, क्योंकि पहले उन का हंसमुख स्वभाव घर की रौनक होता था. उन के उस व्यवहार ने हमें सासबहू के रिश्ते में नहीं, बल्कि मांबेटी के रिश्ते में बांध रखा था, लेकिन अब उन का बातबात पर भड़क उठना मुझे परेशान कर जाता है.’’

अकेलेपन की टीस

कविता की यह समस्या भले छोटी नजर आती हो, लेकिन हकीकत में यह उस मकड़जाल की तरह है, जो समाज में व्याप्त होते हुए भी यदाकदा ही नजर आता है. दरअसल, हम आज भी पुरानी सोच की बेडि़यों में जकड़े हुए हैं, जहां अपने और पराए में हमेशा से ही भेदभाव रहा है. आज भी हम असहाय बुजुर्गों को देख कर यही सोचते हैं कि जरूर इन की दुर्गति में बहू की ही गलती रही होगी. लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि एक पराई (बहू) है तो बाकी तो अपने हैं. लेकिन जब ये अपने ही स्वार्थ की वेदी पर संस्कारों, प्यार और रिश्तों की तिलांजलि देते हुए पराए हो जाते हैं, तब ही बुजुर्ग सही माने में असहाय नजर आते हैं. यह विडंबना ही तो है कि जिस औलाद को मां अपना दूध पिला कर बड़ा करती है, बड़ा होने पर वही औलाद उसे अकेलेपन और तिरस्कार की अंधेरी खोह में धकेल देती है.

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