Parenting Tips : पब्लिक प्लेस में बच्चों के टैट्रम्स को कुछ इस तरह करें हैंडल

Parenting Tips : बच्चों का टैट्रम होना एक सामान्य बात है, लेकिन जब यह पब्लिक प्लेस में हो, तो यह मां के लिए काफी तनावपूर्ण और शर्मनाक हो सकता है. ऐसे समय में मां को अपनी भावनाओं को काबू में रखते हुए बच्चे को सही तरीके से संभालना बहुत जरूरी होता है.

पब्लिक जगह पर बच्चा जब रोता है या गुस्से में आता है, तो मां के लिए उसे शांत करना एक चुनौती बन जाती है. लेकिन कुछ आसान तरीके हैं, जिन से मां बच्चे के टैट्रम्स को सुधार सकती हैं :

खुद को शांत रखें

जब बच्चा गुस्से में हो, तो मां को सब से पहले खुद को शांत रखना बहुत जरूरी है. यदि मां खुद गुस्से में आ जाए तो बच्चा और ज्यादा उलझ सकता है. बच्चों के टैट्रम्स में कई बार ऐसा भी होता है कि बच्चा सिर्फ ध्यान आकर्षित करने के लिए गुस्सा करता है. इसलिए खुद को शांत और काबू में रखना सब से पहला कदम है.

* आप का शांत रहना बच्चे को यह सिखाता है कि गुस्से से किसी समस्या का हल नहीं निकलता.

* बच्चे को प्यार से समझाएं.

अगर बच्चा बहुत गुस्से में हो, तो सब से अच्छा तरीका है उसे प्यार से समझाना. आप उसे यह बता सकती हैं कि आप उस का गुस्सा समझ रही हैं, लेकिन सार्वजनिक रूप से ऐसे व्यवहार को बढ़ावा नहीं दिया जा सकता. छोटे बच्चों को बिना गुस्से के और नर्म तरीके से बात करने से वे जल्दी शांत हो जाते हैं।

* सरल शब्दों में समझाना बच्चों को आसानी से आप के संदेश को समझने में मदद करता है.

ध्यान भटकाना (Distraction)

कभीकभी बच्चों का ध्यान भटकाने से उन की समस्या हल हो सकती है. यदि बच्चा किसी चीज को ले कर परेशान हो, तो आप उसे कुछ और दिलचस्प चीज दिखा सकती हैं. जैसे उस का पसंदीदा खिलौना, गाना या कार्टून शो. इस तरह बच्चा थोड़ी देर के लिए अपनी परेशानी भूल सकता है.

* बच्चे का ध्यान दूसरी तरफ लगाने से उस का गुस्सा कम हो सकता है.

प्राइवेट जगह पर ले जाएं

अगर स्थिति ज्यादा बिगड़ जाए, तो मां को बच्चे को पब्लिक जगह से हटा कर एक शांत और प्राइवेट स्थान पर ले जाना चाहिए. बहुत ज्यादा शोर, भीड़ और लोग बच्चे के मूड को और खराब कर सकते हैं. एक शांत जगह पर बच्चा आराम से अपनी भावनाओं को नियंत्रित कर सकता है.

अनुशासन बनाए रखें

अगर मां बच्चों को अनुशासन सिखाती है, तो बच्चे के टैट्रम्स कम हो सकते हैं. अनुशासन का मतलब यह नहीं कि बच्चे को डांटा जाए, बल्कि उन्हें यह समझाना कि किसी व्यवहार का क्या परिणाम हो सकता है. लगातार और सही रूप से यह दिखाना कि गलत व्यवहार के लिए कोई पौजिटिव रिवौर्ड नहीं मिलेगा, बच्चे को सुधारने में मदद करता है.

सकारात्मक प्रोत्साहन (Positive Reinforcement)

जब बच्चा अच्छा व्यवहार करता है या शांत रहता है, तो उसे सराहना दें. इस से बच्चा समझता है कि अच्छे व्यवहार के लिए उसे सराहना मिलती है और उसे सकारात्मक महसूस होता है. सकारात्मक प्रोत्साहन बच्चों को अच्छे आचरण के लिए प्रेरित करता है.

* प्रशंसा और प्रोत्साहन बच्चों को अपनी गलतियों से सीखने में मदद करते हैं.

धैर्य रखें

बच्चों के टैट्रम्स के दौरान धैर्य रखना बहुत जरूरी है. कभीकभी बच्चे गुस्से में या तनाव में होते हैं और उन्हें शांत होने में थोड़ा समय लग सकता है. मां को यह समझना चाहिए कि यह एक अस्थायी स्थिति है और इसे जल्द ही सुधारा जा सकता है.

बच्चे की भावनाओं को समझें

* कभीकभी बच्चे की गुस्से की वजह कुछ और हो सकती है, जैसेकि भूख, थकावट या अनचाही स्थिति. मां को अपने बच्चे की जरूरतों को समझ कर उन के व्यवहार को सुलझाने की कोशिश करनी चाहिए. जब बच्चा मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ रहता है, तो टैट्रम्स कम होते हैं.

* बच्चे के मूड और जरूरतों को पहचानना उन की स्थिति को सुधारने में मदद करता है.

सुंदर आईलैंड पर बसा Andaman, एक बार जरूर जाएं घूमने

Andaman : अपनी यात्राओं के सफर में हम ने सैलूलर अंडमान निकोबार के जेल, हैवलाक और नील आइलैंड जाने का प्रोग्राम बनाया. तीनों जगहों के बारे में बहुत कुछ सुना हुआ था. मुंबई से पोर्ट ब्लेयर जिस का नाम अब विजय नगर कर दिया गया है की फ्लाइट 3 घंटे की थी. तो शुरू हुआ मजेदार सफर.

मेरे बराबर में एक महिला और विंडो सीट पर उस का करीब 10 साल का बेटा गट्टू बैठा था जिस का मुंह लगातार चलता रहा, गट्टू उस का नाम था. गोलमटोल गट्टू खानेपीने वाला बच्चा था. उस का मुंह 3 घंटे लगातार चला.

मैं कभी फ्लाइट में सोती नहीं, किताब ले कर चलती हूं. फ्लाइट टाइम से पहुंची. एअरपोर्ट के बाहर ही सावरकर की बड़ी सी मूर्ति लगी है. बुक की हुई कैब लेने आई थी. होटल के रिसैप्शन पर सब को अच्छी हिंदी आती थी, इस ट्रिप में जहां भी गए, हिंदी सब को आती थी. यहां साउथ इंडियंस और बंगाली बहुत हैं.

फ्रैश हो कर होटल में ही लंच कर के आराम किया, फिर शाम को चाय पी कर यों ही शहर की सैर की, फिर सैलुलर जेल का साढ़े 7 बजे का ‘लाइट ऐंड साउंड’ शो बुक किया. यह नवंबर का आखिरी हफ्ता था. यहां सनसेट साढ़े 4 बजे हो जाता है, यह हमें जाने से पहले नहीं पता था. शो देखने के लिए काफी टूरिस्ट थे. सबकुछ बहुत व्यवस्थित था. अंदर जाने के लिए लंबी लाइन थी. अंदर जाते हुए जेल से जुड़ा इतिहास याद कर के दिल उदास होता है.

ऐतिहासिक आकर्षण

बैठने के लिए अच्छी चेयर्स थीं. आज भी एक ऐतिहासिक, बड़ा पेड़ है जो उस समय की क्रांति, पीड़ा और यातनाओं का साक्षी है. शो में  आवाज गुलजार, कबीर बेदी और आशीष विद्यार्थी की है. सूत्रधार पेड़ में गुलजार की आवाज बहुत प्रभावित करती है.

2 जगह अमर ज्योति जलती रहती है. शो में क्रांतिकारियों और आजादी के मतवालों के बलिदान के बारे में बहुत कुछ बताया गया है. शो काफी असरदार है. जेल के बाहर ही एक छोटा सा गार्डन है जहां कई शहीदों- बाबा भान सिंह, महावीर सिंह, रामरखा, इंदु भूषण राय, मोहन किशोर नामदास, मोहित मोइत्रा और सावरकर की गोल्डन मूर्तियां लगी हैं जो रात में चमक रही थीं.

जेल के बारे में और भी बहुत कुछ जानना था, दिन में भी विस्तार से देखना था इसलिए हम ने अगले दिन गाइडेड टूर लिया. इस का टिकट 2 सौ रुपए का था जिस में 5 फैमिली मैंबर जा सकते हैं. बहुत ईमानदार गाइड था, उस ने टिकट के पैसे भी खुद नहीं मांगे, बस जो रेट 200 बाहर लिखा था चुपचाप वही लिया.

छोटीछोटी कोठरियां देख कर उस समय के हालात का अंदाजा लगाया जा सकता है. जेल 3 फ्लोर की है. कुल 689 एकांत कमरे हैं. इन सैलों के कारण ही जेल का नाम सैलुलर जेल पड़ा. किसी भी एक सैल से दूसरे सेल की ओर देखना संभव नहीं. मनोवैज्ञानिक मानसिक यातनाएं देने का यह षड्यंत्र और उस की व्यवस्था की क्रूरता है. 1942 में इस आइलैंड पर जापान ने कब्जा कर लिया था. कइयों को इसी जेल में बंदी बना कर रखा गया. सुभाष चंद्र बोस भारत को आजाद घोषित करने के नाम पर यहां आए पर जापानियों के जहाज में 3 दिन में चलते बने. जापानी सैनिकों ने यहां के तबके निवासियों के साथ बहुत बुरा व्यवहार किया पर जापानियों ने कुछ न सुनने दिया न बोस को कुछ करने दिया था.

सावरकर की कोठरी कौन सी है, इस का अंदाजा इस बात से लगाया गया है कि उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि फांसी वाले कमरे के सामने उन की कोठरी थी, उसी अंदाजे से उस कमरे में सावरकर की तसवीर रख दी गई है. फोटो ले सकते हैं.

राष्ट्रभक्ति का प्रमाण

विडंबना यह है कि वह गाइड रील बनाने वालों से दुखी था. ऐसी जगह भी बेहद आधुनिक लड़कियां बहुत छोटेछोटे कपड़ों में कोठरियों में रील बना रही थीं, गाइड इस बात से नाराज था कि इतिहास की इतनी गंभीर महत्त्वपूर्ण जगह पर भी लोग रील बना रहे हैं.

15 अगस्त, 1947 को भारत आजाद हुआ तो सब स्वतंत्रता सेनानियों को जेल से मुक्त कर दिया गया. 11 फरवरी, 1979 को सैलुलर जेल राष्ट्रीय स्मारक घोषित हो गई. यह जेल आज देशविदेश में रहने वालों के लिए आकर्षण का केंद्र है और राष्ट्रभक्ति का प्रेरणास्रोत है. यहां रोज शाम को ‘लाइट ऐेंड साउंड’ शो होता है. यातनाओं की यादगार हथकड़ी बेड़ी, टाट के कपड़े, कोल्हू, फांसी के फंदे, बेंत आदि भी रखे हुए हैं.

एक जगह एक स्टैचू बना है, जिस में एक भारतीय कैदी ही एक क्रांतिकारी को कोड़े मार रहा है, यह अंगरेजों की कूटनीति थी. उस समय नारियल का तेल निकालने के लिए क्रांतिकारियों को कोल्हू के बैल की जगह जोत दिया जाता था.

एक स्टैचू में यह बताया गया है. कई क्रांतिकारी डेंगू, मलेरिया से मर जाते थे, कुछ ठंड से. आजादी के लिए संघर्ष करते दीवानों की बात ही कुछ और थी. आज भी अंगरेजों का बनाया हुआ आर्टिटैक्चर ही है, टूटफूट की रिपेयर कर दी जाती है.

क्रांतिकारियों की दुनिया

जहां अब कुछ युवा धार्मिक उन्माद में पागल हुए जा रहे हैं, वहां इन क्रांतिकारियों की दुनिया ही अलग थी. यहां एक म्यूजियम भी है जहां इतिहास से जुड़ी तसवीरें और आज के नेताओं की कुछ तसवीरें हैं.

जेल देख कर जब बाहर निकले तो एक मार्केट दिखी. मेरी आदत है अगर मुझे किसी शहर में कोई बुक शौप दिखती है तो मैं उस का एक चक्कर जरूर लगाती हूं. मुझे बड़ी खुशी हुई जब मुझे यहां 3 हिंदी की पत्रिकाएं- सरिता, गृहशोभा और सत्यकथा दिखी. पत्रिकाओं में यही 3 थीं.

शाम को हम कैब से चिडि़या टापू बीच गए. यह सुंदर बीच शहर से लगभग 28 किलोमीटर दूर है. यह बीच सनसेट देखने, मनोरम प्राकृतिक सुंदरता देखने और समुद्र के दृश्य देखने के लिए प्रसिद्ध है. कैब ड्राइवर ने बताया कि पोर्ट ब्लेयर में हर चीज बाहर से आती है, यहां कुछ भी नहीं बनता. खाने में सीफूड फेमस है. सनसैट का दृश्य बहुत ही सुंदर था.

अगले दिन हैवलाक बीच जो अब स्वराज द्वीप हो गया है, जाना था. नाटिका कंपनी की फेरी में सवा 12 की बुकिंग थी. फेरी 20 मिनट लेट चली. चली तो बहुत स्मूथ थी पर 5 मिनट के बाद ही फेरी ने जो उछाल मारी उस से सब की हालत खराब हो गई. बाद में पता चला कि ‘बे औफ बंगाल’ में फिंगल साइक्लोन के कारण ऐसा हुआ था जिस का फाल चेन्नई में हुआ था. फेरी 2 बज कर 20 मिनट पर हैवलाक पहुंचनी थी तब तक यात्रियों की हालत पस्त हो चुकी थी.

अटैंडैंट लड़की सब के साथ बहुत नम्रता से पेश आ रही थी, किसी यात्री का मुंह पोंछ रही थी तो किसी को हिम्मत बंधा रही थी, उस लड़की का यह काम बहुत मुश्किल रहता होगा.

हमारी हालत भी खराब थी पर हमें उलटी नहीं हुई क्योंकि हम ऐसी यात्राओं में पहले ही एवोमिन टैबलेट ले लेते हैं और उलटी से बच जाते हैं.

अंडरवाटर का रोमांच

इस फेरी में बैठते ही जो ?ाटके लगे थे, उन से पता नहीं क्यों थकान बहुत हुई थी, हम जल्द ही सो गए. अगले दिन सुबह स्कूबा डाइविंग का प्रोग्राम था. इस में 5-5 लोगों का गु्रप बना दिया जाता है. एक फौर्म पर साइन करने होते है. एक व्यक्ति से साढ़े 5 हजार लिए जाते हैं. पानी में अंदर जाने के लिए अलग कपड़े देते हैं. चेंजिंगरूम होता है, डिवाइस से आधा घंटा ब्रीदिंग और बाकी चीजें सिखाते हैं.

बोट से स्पौट पर ले जाते हैं. 1-1 गाइड सब के साथ रहता है, फिर गियर पहना देते हैं तथा हाथों से कुछ इशारे सिखा दिए जाते हैं. नीचे की दुनिया बहुत अलग और सुंदर है. ग्राउंड तक ले जाते हैं, कोरल लीव्स, मछलियां और भी बहुत कुछ होता है. 25 मिनट अंडरवाटर रहते हैं. यह नौनस्विमिंग ऐक्टिविटी है, वे लोग कहते हैं कि अगर स्विमिंग आती भी हो तो करनी नहीं है.

शाम को राधा नगर बीच गए जिसे भारत का बैस्ट बीच कहा जाता है. टाइम्स मैगजीन ने इसे दुनिया का 7वें नंबर का बैस्ट बीच कहा है. ऐसा साफ और सुंदर बीच कि आप हैरान हो जाएंगे, कहीं एक कंकर नहीं, कहीं एक जरा सा भी गंदगी का टुकड़ा नहीं. ऐसा लगता कि रेत जैसे मुलायम सा चिकना आटा या मैदा आप के पैरों के नीचे किसी ने बिछा दिया हो. यहां जाएं तो आराम से बैठनेलेटने के लिए एक चादर, एक तौलिया ले जाएं, जम कर स्विमिंग करें, भीगें, लहरों का आनंद लें. ऐसा बीच हम ने मौरिशस और थाईलैंड में ही देखा था. कोशिश करें कि वहां 3 बजे तक पहुंच जाएं और सनसैट का भरपूर आनंद लें.

Infertility के क्या हैं कारण, इससे बचने के लिए अपनाएं ये उपाय

Infertility : बांझपन के शिकार युगलों को शारीरिक कमी की चिंता मानसिक रूप से डावांडोल करते पूरे शरीर की व्यवस्था बिगाड़ देती है. न कह सकते हैं, न सह सकते हैं. बांझपन की वजह से तकरार की शुरुआत पहले तो एकदूसरे पर शक और दोषारोपण से होती है. दोनों को खुद स्वस्थ और सामने वाले में कमी नजर आती है.

कुछ मामलों में कभीकभी पति गलतफहमी का शिकार होते सोचता है कि शादी से पहले मुझे हस्तमैथुन की आदत थी कहीं उस की वजह से मुझ में तो कोई कमी नहीं आ गई? कहीं मेरा वीर्य तो पतला नहीं हो गया? कहीं शुक्राणु की संख्या तो कम नहीं हो गई. उस काल्पनिक डर की वजह से काम में तो ध्यान नहीं दे पाता साथ में सैक्स लाइफ पर भी उस का बुरा प्रभाव पड़ता है. चाह कर भी न खुद चरम तक पहुंच पाता है, न पत्नी को सुख दे पाता है. जिस की वजह से दोनों एकदूसरे से खींचेखींचे रहते हैं.

खुद को दोषी

ऐसे ही किसी मामले में पत्नी भी खुद को दोषी समझते सोचती है कि पीसीओडी की वजह से मेरे पीरियड्स अनियमित हैं उस की वजह से तो कहीं गर्भाधान नहीं हो पा रहा? या तो कभी किसी लड़की ने कुंआरेपन में किसी गलती की वजह से अबौर्शन करवाया होता है, यह बात न पति को बता सकती है न डाक्टर को. ऐसे में गिल्ट उसे अंदर ही अंदर खाए जाता है, जिस की वजह से अंतरंग पलों में पति को सहयोग नहीं दे पाती. तब प्यासा पति या तो पत्नी पर शक करने लगता है या पत्नी से विमुख होते किसी और के साथ विवाहेत्तर संबंध से जुड़ जाता है.

कई बार संयुक्त परिवार से अलग रहने वाले युगल उन्मुक्त लाइफस्टाइल जीते हैं, जिस में आए दिन पार्टियों में आनाजाना लगा रहता है और आजकल युवाओं की पार्टियां शराब, सिगरेट और जंक फूड के बिना तो अधूरी ही होती है. यों अल्कोहल, तंबाकू और जंक फूड का सेवन भी गर्भाधान में बाधा डालने का एक कारण बन सकता है.

समय और पैसे की बरबादी

कई बार यह भी देखा जाता है कि लाख कोशिश के बाद भी जब गर्भाधान में कामयाबी नहीं मिलती तब कुछ युगल अनपढ़ वैद, हकीम या बाबाओं के चक्कर में पड़ कर समय और पैसे बरबाद करते हैं और ऐसे गलतसलत उपचारों से निराश हो कर उम्मीद ही खो बैठते हैं और ऐसी परिस्थिति में कुछ लोग हार कर कभीकभी प्रयत्न करना ही छोड़ देते हैं.

लेकिन ऐसे हालात में अगर पतिपत्नी दोनों समझदार होंगे तो बांझपन के बारे में एकदूसरे पर दोषारोपण करने की बजाय खुल कर विचारविमर्श कर के डाक्टर के पास जा कर, सारे टैस्ट करवा कर उचित समाधान का रास्ता अपनाते हैं.

बांझपन के कई कारण हो सकते हैं. एक तो आज के दौर में कैरियर ओरिएंटेड लड़केलड़कियां शादी को टालमटोल करते 30-32 के हो जाते हैं, ऊपर से शादी के बाद कुछ समय घूमनेफिरने और ऐश करने में गंवा देते हैं. हर काम उम्र रहते हो जाने चाहिए यह नहीं सोचते.

ऊपर से मौजूदा समय में बदलती जीवनशैली, गलत खानपान, पर्यावरणीय फैक्टर और देरी से बच्चे पैदा करने सहित विभिन्न कारणों की वजह से बांझपन आम हो गया है. माना जाता है कि गर्भनिरोधक गोलियों के उपयोग ने भी बांझपन के बढ़ते मामलों में योगदान दिया है.

बांझपन मैडिकल कंडिशन यानी एक बीमारी है. जहां एक दंपति कई वर्षों से अधिक समय तक प्रयास करने के बाद भी गर्भधारण करने में असमर्थ होते हैं. यह समस्या दुनियाभर में एक चिंता का विषय है. इस बीमारी से लगभग 10% से 15% जोड़े प्रभावित होते हैं. साथ में ओव्यूलेशन की समस्या महिलाओं में बांझपन का सब से आम कारण है. एक महिला की उम्र, हार्मोनल असंतुलन, वजन, रसायनों या विकिरण के संपर्क में आना और शराब या सिगरेट पीना सभी प्रजनन क्षमता पर प्रभाव डालते हैं.

डाक्टर के अनुसार प्रैगनैंट होने के लिए सही उम्र 18 से 28 को मानते हैं. इसलिए इन वर्षों के बीच बच्चे के लिए किए गए प्रयास अधिक सफल होते हैं.

सब से पहले तो शादी सही उम्र में कर लेनी चाहिए और यदि शादी लेट हुई है तो बच्चे की प्लानिंग में देरी नहीं करनी चाहिए नहीं तो प्रैगनैंसी में दिक्कत हो सकती है.

जरूरी हैल्दी सैक्स लाइफ

पतिपत्नी की सैक्स लाइफ हैल्दी होनी चाहिए. जब तक आप बारबार मैदान ए जंग में नहीं उतरेंगे तब तक आप समस्या से लड़ेंगे कैसे, जीतेंगे कैसे? इसलिए प्रैगनैंसी के लिए सब से जरूरी है कि पीरियड्स के बाद जिन दिनों गर्भाधान की संभावना ज्यादा होती है उन दिनों में अपने पार्टनर के साथ नियमित सैक्स करना चाहिए जितना अधिक सैक्स होगा प्रैगनैंसी की संभावना भी उतनी अधिक बढ़ जाएगी.

ऐसे में जब कुदरती रूप से गर्भाधान में कामयाबी नहीं मिलती तब डाक्टर दंपत्ति के सामने कुछ औप्शन रखते हैं जैसे कि आईयूआई ट्रीटमैंट या आईवीएफ पद्धति से प्रैगनैंसी, यह एक सामान्य फर्टिलिटी ट्रीटमैंट है. इस प्रक्रिया में 2 स्टेप ट्रीटमैंट किया जाता है. यदि महिला के अंडाशय में एग का सही तरह से निर्माण नहीं हो रहा है और व फौलिकल से अलग नहीं हो पा रहे है. पुरुष साथी में शुक्राणु कम बन रहे हैं या वे कम ऐक्टिव हैं तो ऐसे में महिला को कुछ इंजैक्शन दिए जाते हैं, जिस से ऐग फौलिकल से सही तरह से अलग हो पाता है.

सफलता की दर

इस के बाद पुरुष साथी से शुक्राणु प्राप्त कर उन्हें साफ किया जाता है और उन में से क्वालिटी शुक्राणुओं को एक सिरिंज द्वारा महिला के गर्भाशय में छोड़े जाते हैं. इस के बाद की सारी प्रक्रिया कुदरती रूप से होती है. इस की सफलता की दर 10 से 15% होती है. कुछ मामलों में आईयूआई से सफलता मिल जाती है, लेकिन यदि समस्या किसी और तरह की है तो आईवीएफ ही सही उपचार होता है.

Besan Bhurji Recipe : डिनर में परोसें बेसन भुरजी, ये रही आसान रेसिपी

Besan Bhurji Recipe : डिनर में क्या बनाएं क्या ना बनाएं यह तय करना मुश्किल होता है तो आज हम आपको आसान रेसिपी के बारे में बताएंगे. बेसन भुरजी खाने में जितनी टेस्टी होती है उतनी ही हेल्दी और आसानी से बनने वाली रेसिपी भी होती है.

हमें चाहिए

–  1 कप बेसन

–  2 हरे प्याज कटे

–  1 टमाटर कटा

–  2 हरीमिर्चें कटी

–  1-1 बड़ा चम्मच लाल, पीली व हरी शिमलामिर्च कटी

–  एकचौथाई कप मटर के दाने

–  1 छोटा चम्मच अदरक कटा

–  1 बड़ा चम्मच तेल

–  एकचौथाई छोटा चम्मच हलदी पाउडर

–  1/2 छोटा चम्मच धनिया पाउडर

–  थोड़ा सा लालमिर्च पाउडर

–  1/2 चम्मच छोला मसाला

–  1 बड़ा चम्मच धनियापत्ती कटी

–  नमक स्वादानुसार.

बनाने का तरीका

कड़ाही में तेल गरम कर अदरक, हरा प्याज सभी शिमलामिर्च भूनें. भुनने पर मटर के दाने व टमाटर व हरीमिर्च डालें. फिर हलदी पाउडर, धनिया पाउडर, लालमिर्च पाउडर व छोला मसाला डालें. बेसन में पानी और नमक डाल कर घोल बनाएं. इसे गरम कड़ाही में डालें और अच्छी तरह चलाती रहें. 3-4 मिनट तक पकाएं. पकने पर धनियापत्ती से सजा कर परोसें.

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सवाल

मैं एक औरत से 2 साल से प्यार कर रहा हूं. उस का पति नहीं है. एक दिन मैं ने उसे उस के देवर के साथ देख लिया, तब से मुझे उस से नफरत हो गई है. वह कहती है कि मैं उसे न छोड़ूं. आप बताएं कि मैं क्या करूं?

जवाब

आप को शादीशुदा औरत के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए. आप को उस से प्यार नहीं है, आप बस उस का फायदा उठा रहे थे. उस का देवर भी मौके का फायदा उठा रहा है. बेहतर होगा कि आप उस से दूर रहें.

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मर्दानगी से है प्यार तो इन 5 आदतों से करें इनकार

शारीरिक सेहत ही किसी पुरुष के स्वस्थ होने की निशानी नहीं होती. एक पुरुष का सेक्स की दृष्टि से भी स्वस्थ होना महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि स्त्री-पुरुष के बीच खुशहाल संबंधों में सेक्स एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है.

अक्सर हम विवाह के टूटने या फिर एक दूसरे में दिलचस्पी कम होने की बात पढ़ते सुनते रहते हैं. हम आपको बता रहे हैं वो 5 आदतें जिससे पुरुषों को दूर रहना चाहिए ताकि उनकी मर्दानगी कायम रह सके.

शराब के सेक्स इफेक्ट्स

हमारे समाज में अब लगभग हर खुशी का जश्न शराब के साथ मनाने का चलन हो गया है. कभी कभार शराब पीने से यूं तो कोई खास नुकसान नहीं होता लेकिन अगर इसकी लत लग जाए तो इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं. उन पुरुषों को हिदायत है कि अगर इसकी लत लग गई है तो इसे फौरन छोड़ दें क्योंकि शराब शुक्राणुओं की सबसे बड़ी दुश्मन है.

सिगरेट से कैंसर ही नहीं नामर्दगी भी होती है

सिगरेट पीना भी हमारे समाज में फैशन बन गया है, बावजूद इसके कि ये साबित हो चुका है कि सिगरेट पीने से कैंसर होता है. लेकिन आपको बता दें कि सिगरेट फेफड़ों को तो खोखला करती ही है साथ ही आपके स्पर्म की संख्या को भी घटा देती है.

चिंता चिता है

चिंता या तनाव एक ऐसे स्थिति है जो इंसान को धीरे-धीरे खाकर आखिरकार मौत के मुंह में ले जाती है. कहा भी जाता है कि चिंता चिता है. हमारी पुरुषों को सलाह है कि वे चिंता को छोड़ दें क्योंकि इससे उनकी प्रजनन क्षमता पर बहुत बुरा असर पड़ता है.

कुछ मीठा हो जाए

भारतीय समाज में खुशी के हर छोटे बड़े मौकों पर लोग मीठा खिलाकर खुशी का इजहार करते हैं. लेकिन आपको आगाह कर दें कि मीठा जरूर हो जाए लेकिन बस कुछ ही क्योंकि ज्यादा मीठा भी पुरुषों की मर्दानगी के लिए खतरे की घंटी साबित हो सकता है.

वजन पर नजर

कहावत है माल-ए-मुफ़्त, दिल-ए- बेरहम. मतलब मुफ़्त का खाने को मिला तो टूट पड़े बिना सेहत की परवाह किए. हमारी आखिरी सलाह है कि अपने वजन पर नजर रखें वर्ना लग सकती है आपकी मर्दानगी पर ही नजर.

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या हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- sampadak@delhipress.biz सब्जेक्ट में लिखे…  गृहशोभा-व्यक्तिगत समस्याएं/ Personal Problem

Open Pores : इन 5 टिप्स से स्किन पोर्स का रखें ख्याल

Open Pores : अगर त्‍वचा पर पोर्स न हों तो हमारी त्‍वचा सांस नहीं ले पाएगी. दरअसल हमारे चेहरे की त्‍वचा के रोम छिद्र ही बता सकते हैं कि हमारी त्‍वचा कितनी स्‍वस्‍थ्‍य है. इसके साथ ही बुढ़ापे की निशानी भी हमारे स्किन पोर्स से ही पता चलती है. यह बताया जाता है कि अगर आपके चेहरे पर बड़े रोम छिद्र हैं तो आप बूढी होने लग गई हैं. इसलिए अगर आप को खिली और स्‍वस्‍थ्‍य त्‍वचा चाहिये तो अभी से ही उसका ख्‍याल रखना शुरु कर दें.

1. ब्‍लैकहेड हटाना : गंदगी से चेहरे पर ब्‍लैकहेड हो जाता है, जो अगर न हटाया गया तो पूरे चेहरे पर धब्‍बा छोड़ जाता है. इसको हटाने के लिए चेहरे को स्‍टीम करना चाहिये और उंगलियों से उसे दबा कर निकालना चाहिये. इसके आलावा आप घरेलू नुस्‍खे जैसे, बेकिंग पाउडर या फ्रूट पील का प्रयोग कर सकती हैं.

2. बंद पोर्स को खोलें : धूल और तेल एक साथ मिल कर आपकी स्‍किन में ब्‍लैकहेड जैसी समस्‍या पैदा करते हैं. इसलिए इस समस्‍या को दूर करने के लिए आपको हर दो घंटे में अपना चेहरा पानी से धोना चाहिये. इससे तेल और गंदगी साफ होगी और साथ में स्‍किन पोर्स भी खुलेंगे.

3. स्‍क्रब करे : आपको हफ्ते में 2-3 बार अपने चेहरे को स्‍क्रब करना चाहिये. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता की आपके चेहरे पर ब्‍लैकहेड हैं या नहीं. इस विधि को अपनी रूटीन में शामिल कर लें जिससे चेहरे पर गंदगी न जमे और ब्‍लैकहेड न बने.

4. टोनर न भूलें : स्‍क्रबिंग के बाद चेहरे पर टोनर लगाना नहीं भूलना चाहिये क्‍योंकि स्‍क्रबिंग से स्‍किन के पोर्स खुल जाते हैं और बड़े हो जाते हैं. इसलिए इस खुले हुए पोर्स को छोटा करने के लिए टोनिंग करें.

5. स्‍किन को सांस लेने दें: जब आप कंपैक्‍ट आदि से अपने बढ़े पोर्स को बंद करने के लिए इस सब कौस्‍मैटिक का प्रयोग करती हैं, तो एक बात आप भूल जाती हैं. आपकी स्‍किन अच्‍छे से सांस ले सके उसके लिए जरुरी है कि कम से कम मेकअप किया जाए. पाउडर लगाने से स्‍किन ब्‍लौक हो जाती है.

Storytelling : महापुरुष – किस एहसान को उतारना चाहते थे प्रोफेसर गौतम

Storytelling : रवि प्रोफेसर गौतम के साथ व्यवसाय प्रबंधन कोर्स का शोधपत्र लिख रहा था. उस का पीएच.डी. करने का विचार था. भारत से 15 महीने पहले उच्च शिक्षा के लिए वह मांट्रियल आया था. उस ने मांट्रियल में मेहनत तो बहुत की थी, परंतु परीक्षाओं में अधिक सफलता नहीं मिली.

मांट्रियल की भीषण सर्दी, भिन्न संस्कृति और रहनसहन का ढंग, मातापिता पर अत्यधिक आर्थिक दबाव का एहसास, इन सब कारणों से रवि यहां अधिक जम नहीं पाया था. वैसे उसे असफल भी नहीं कहा जा सकता, परंतु पीएच.डी. में आर्थिक सहायता के साथ प्रवेश पाने के लिए उस के व्यवसाय प्रबंधन की परीक्षा के परिणाम कुछ कम उतरते थे.

रवि ने प्रोफेसर गौतम से पीएच.डी. के लिए प्रवेश पाने और आर्थिक मदद के लिए जब कहा तो उन्होंने उसे कुछ आशा नहीं बंधाई. वे अपने विश्वविद्यालय और बाकी विश्वविद्यालयों के बारे में काफी जानकारी रखते थे. रवि के पास व्यवसाय प्रबंधन कोर्स समाप्त कर के भारत लौटने के सिवा और कोई चारा भी नहीं था.

रवि प्रोफेसर गौतम से जब भी उन के विभाग में मिलता, वे उस को मुश्किल से आधे घंटे का समय ही दे पाते थे, क्योंकि वे काफी व्यस्त रहते थे. रवि को उन को बारबार परेशान करना अच्छा भी नहीं लगता था. कभीकभी सोचता कि कहीं प्रोफेसर यह न सोच लें कि वह उन के भारतीय होने का अनुचित फायदा उठा रहा है.

एक बार रवि ने हिम्मत कर के उन से कह ही दिया, ‘‘साहब, मुझे किसी भी दिन 2 घंटे का समय दे दीजिए. फिर उस के बाद मैं आप को परेशान नहीं करूंगा.’’

‘‘तुम मुझे परेशान थोड़े ही करते हो. यहां तो विभाग में 2 घंटे का एक बार में समय निकालना कठिन है,’’ उन्होंने अपनी डायरी देख कर कहा, ‘‘परंतु ऐसा करो, इस इतवार को दोपहर खाने के समय मेरे घर आ जाओ. फिर जितना समय चाहो, मैं तुम्हें दे पाऊंगा.’’

‘‘मेरा यह मतलब नहीं था. आप क्यों परेशान होते हैं,’’ रवि को प्रोफेसर गौतम से यह आशा नहीं थी कि वे उसे अपने निवास स्थान पर आने के लिए कहेंगे. अगले इतवार को 12 बजे पहुंचने के लिए प्रोफेसर गौतम ने उस से कह दिया था.

प्रोफेसर गौतम का फ्लैट विश्व- विद्यालय के उन के विभाग से मुश्किल से एक फर्लांग की दूरी पर ही था. उन्होंने पिछले साल ही उसे खरीदा था. पिछले 22 सालों में उन के देखतेदेखते मांट्रियल शहर कितना बदल गया था, विभाग में व्याख्याता के रूप में आए थे और अब कई वर्षों से प्राध्यापक हो गए थे. उन के विभाग में उन की बहुत साख थी.

सबकुछ बदल गया था, पर प्रोफेसर गौतम की जिंदगी वैसी की वैसी ही स्थिर थी. अकेले आए थे शहर में और 3 साल पहले उन की पत्नी उन्हें अकेला छोड़ गई थी. वह कैंसर की चपेट में आ गई थी. पत्नी की मृत्यु के पश्चात अकेले बड़े घर में रहना उन्हें बहुत खलता था. घर की मालकिन ही जब चली गई, तब क्या करते उस घर को रख कर.

18 साल से ऊपर बिताए थे उन्होंने उस घर में अपनी पत्नी के साथ. सुखदुख के क्षण अकसर याद आते थे उन को. घर में किसी चीज की कभी कोई कमी नहीं रही, पर उस घर ने कभी किसी बच्चे की किलकारी नहीं सुनी. इस का पतिपत्नी को काफी दुख रहा. अपनी संतान को सीने से लगाने में जो आनंद आता है, उस आनंद से सदा ही दोनों वंचित रहे.

पत्नी के देहांत के बाद 1 साल तक तो प्रोफेसर गौतम उस घर में ही रहे. पर उस के बाद उन्होंने घर बेच दिया और साथ में ही कुछ गैरजरूरी सामान भी. आनेजाने की सुविधा का खयाल कर उन्होंने अपना फ्लैट विभाग के पास ही खरीद लिया. अब तो उन के जीवन में विभाग का काम और शोध ही रह गया था. भारत में भाईबहन थे, पर वे अपनी समस्याओं में ही इतने उलझे हुए थे कि उन के बारे में सोचने की किस को फुरसत थी. हां, बहनें रक्षाबंधन और भैयादूज का टीका जब भेजती थीं तो एक पृष्ठ का पत्र लिख देती थीं.

प्रोफेसर गौतम ने रवि के आने के उपलक्ष्य में सोचा कि उसे भारतीय खाना बना कर खिलाया जाए. वे खुद तो दोपहर और शाम का खाना विश्वविद्यालय की कैंटीन में ही खा लेते थे.

शनिवार को प्रोफेसर भारतीय गल्ले की दुकान से कुछ मसाले और सब्जियां ले कर आए. पत्नी की बीमारी के समय तो वे अकसर खाना बनाया करते थे, पर अब उन का मन ही नहीं करता था अपने लिए कुछ भी झंझट करने को. बस, जिए जा रहे थे, केवल इसलिए कि जीवनज्योति अभी बुझी नहीं थी. उन्होंने एक तरकारी और दाल बनाई थी. कुलचे भी खरीदे थे. उन्हें तो बस, गरम ही करना था. चावल तो सोचा कि रवि के आने पर ही बनाएंगे.

रवि ने जब उन के फ्लैट की घंटी बजाई तो 12 बज कर कुछ सेकंड ही हुए थे. प्रोफेसर गौतम को बड़ा अच्छा लगा, यह सोच कर कि रवि समय का कितना पाबंद है. रवि थोड़ा हिचकिचा रहा था.

प्रोफेसर गौतम ने कहा, ‘‘यह विभाग का मेरा दफ्तर नहीं, घर है. यहां तुम मेरे मेहमान हो, विद्यार्थी नहीं. इस को अपना ही घर समझो.’’

रवि अपनी तरफ से कितनी भी कोशिश करता, पर गुरु और शिष्य का रिश्ता कैसे बदल सकता था. वह प्रोफेसर के साथ रसोई में आ गया. प्रोफेसर ने चावल बनने के लिए रख दिए.

‘‘आप इस फ्लैट में अकेले रहते हैं?’’ रवि ने पूछा.

‘‘हां, मेरी पत्नी का कुछ वर्ष पहले देहांत हो गया,’’ उन्होंने धीमे से कहा.

रवि रसोई में खाने की मेज के साथ रखी कुरसी पर बैठ गया. दोनों ही चुप थे. प्रोफेसर गौतम ने पूछा, ‘‘जब तक चावल तैयार होंगे, तब तक कुछ पिओगे? क्या लोगे?’’

‘‘नहीं, मैं कुछ नहीं लूंगा. हां, अगर हो तो कोई जूस दे दीजिएगा.’’

प्रोफेसर ने रेफ्रिजरेटर से संतरे के रस से भरी एक बोतल और एक बीयर की बोतल निकाली. जूस गिलास में भर कर रवि को दे दिया और बीयर खुद पीने लगे. कुछ देर बाद चावल तैयार हो गए. उन्होंने खाना खाया. कौफी बना कर वे बैठक में आ गए. अब काम करने का समय था.

रवि अपना बैग उठा लाया. उस ने 89 पृष्ठों की रिपोर्ट लिखी थी. प्रोफेसर गौतम रिपोर्ट का कुछ भाग तो पहले ही देख चुके थे, उस में रवि ने जो संशोधन किए थे, वे देखे. रवि उन से अनेक प्रश्न करता जा रहा था. प्रोफेसर जो भी उत्तर दे रहे थे, रवि उन को लिखता जा रहा था.

रवि की रिपोर्ट का जब आखिरी पृष्ठ आ पहुंचा तो उस समय शाम के 5 बज चुके थे. आखिरी पृष्ठ पर रवि ने अपनी रिपोर्ट में प्रयोग में लाए संदर्भ लिख रखे थे. प्रोफेसर को लगा कि रवि ने कुछ संदर्भ छोड़ रखे हैं. वे अपने अध्ययनकक्ष में उन संदर्भों को अपनी किताबों में ढूंढ़ने के लिए गए.

प्रोफेसर को गए हुए 15 मिनट से भी अधिक समय हो गया था. रवि ने सोचा शायद वे भूल गए हैं कि रवि घर में आया हुआ है. वह अध्ययनकक्ष में आ गया. वहां किताबें ही किताबें थीं. एक कंप्यूटर भी रखा था. अध्ययनकक्ष की तुलना में प्रोफेसर के विभाग का दफ्तर कहीं छोटा पड़ता था.

प्रोफेसर ने एक निगाह से रवि को देखा, फिर अपनी खोज में लग गए. दीवार पर प्रोफेसर की डिगरियों के प्रमाणपत्र फ्रेम में लगे थे. प्रोफेसर गौतम ने न्यूयार्क से पीएच.डी. की थी. भारत से उन्होंने एम.एससी. (कानपुर से) की थी.

‘‘साहब, आप ने एम.एससी. कानपुर से की थी? मेरे नानाजी वहीं पर विभागाध्यक्ष थे,’’ रवि ने पूछा.

प्रोफेसर 3-4 किताबें ले कर बैठक में आ गए.

‘‘क्या नाम था तुम्हारे नानाजी का?’’

‘‘रामकुमार,’’ रवि ने कहा.

‘‘उन को तो मैं बहुत अच्छी तरह से जानता हूं. 1 साल मैं ने वहां पढ़ाया भी था.’’

‘‘तब तो शायद आप ने मेरी माताजी को भी देखा होगा,’’ रवि ने पूछा.

‘‘शायद देखा होगा एकाध बार,’’ प्रोफेसर ने बात पलटते हुए कहा, ‘‘देखो, तुम ये पुस्तकें ले जाओ और देखो कि इन में तुम्हारे मतलब का कुछ है कि नहीं.’’

रवि कुछ मिनट और बैठा रहा. 6 बजने को आ रहे थे. लगभग 6 घंटे से वह प्रोफेसर के फ्लैट में बैठा था. पर इस दौरान उस ने लगभग 1 महीने का काम निबटा लिया था. प्रोफेसर का दिल से धन्यवाद कर उस ने विदा ली.

रवि के जाने के बाद प्रोफेसर को बरसों पुरानी भूलीबिसरी बातें याद आने लगीं. वे रवि के नाना को अच्छी तरह जानते थे. उन्हीं के विभाग में एम.एससी. के पश्चात वे व्याख्याता के पद पर काम करने लगे थे. उन्हें दिल्ली में द्वितीय श्रेणी में प्रवेश नहीं मिल पाया था. इसलिए वे कानपुर पढ़ने आ गए थे. उस समय कानपुर में ही उन के चाचाजी रह रहे थे. 1 साल बाद चाचाजी भी कानपुर छोड़ कर चले गए पर उन्हें कानपुर इतना भा गया कि एम.एससी. भी वहीं से कर ली. उन की इच्छा थी कि किसी भी तरह से विदेश उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए जाएं. एम.एससी. में भी उन का परीक्षा परिणाम बहुत अच्छा नहीं था, जिस के बूते पर उन को आर्थिक सहायता मिल पाती. फिर सोचा, एकदो साल तक भारत में अगर पढ़ाने का अनुभव प्राप्त कर लें तो शायद विदेश में आर्थिक सहायता मिल सकेगी.

उन्हीं दिनों कालेज के एक व्याख्याता को विदेश में पढ़ने के लिए मौका मिला था, जिस के कारण गौतम को अस्थायी रूप से कालेज में ही नौकरी मिल गई. वे पैसे जोड़ने की भी कोशिश कर रहे थे. विदेश जाने के लिए मातापिता की तरफ से कम से कम पैसा मांगने का उन का ध्येय था. विभागाध्यक्ष रामकुमार भी उन से काफी प्रसन्न थे. वे उन के भविष्य को संवारने की पूरी कोशिश कर रहे थे. एक दिन रामकुमार ने गौतम को अपने घर शाम की चाय पर बुलाया.

रवि की मां उमा से गौतम की मुलाकात उसी दिन शाम को हुई थी. उमा उन दिनों बी.ए. कर रही थी. देखने में बहुत ही साधारण थी. रामकुमार उमा की शादी की चिंता में थे. उमा विभागाध्यक्ष की बेटी थी, इसलिए गौतम अपनी ओर से उस में पूरी दिलचस्पी ले रहा था. वह बेचारी तो चुप थी, पर अपनी ओर से ही गौतम प्रश्न किए जा रहा था.

कुछ समय पश्चात उमा और उस की मां उठ कर चली गईं. रामकुमार ने तब गौतम से अपने मन की इच्छा जाहिर की. वे उमा का हाथ गौतम के हाथ में थमाने की सोच रहे थे. उन्होंने कहा था कि अगर गौतम चाहे तो वे उस के मातापिता से बात करने के लिए दिल्ली जाने को तैयार थे.

सुन कर गौतम ने बस यही कहा, ‘आप के घर नाता जोड़ कर मैं अपने जीवन को धन्य समझूंगा. पिताजी और माताजी की यही जिद है कि जब तक मेरी छोटी बहन के हाथ पीले नहीं कर देंगे, तब तक मेरी शादी की सोचेंगे भी नहीं,’ उस ने बात को टालने के लिए कहा, ‘वैसे मेरी हार्दिक इच्छा है कि विदेश जा कर ऊंची शिक्षा प्राप्त करूं, पर आप तो जानते ही हैं कि मेरे एम.एससी. में इतने अच्छे अंक तो आए नहीं कि आर्थिक सहायता मिल जाए.’

‘तुम ने कहा क्यों नहीं. मेरा एक जिगरी दोस्त न्यूयार्क में प्रोफेसर है. अगर मैं उस को लिख दूं तो वह मेरी बात टालेगा नहीं,’ रामकुमार ने कहा.

‘आप मुझे उमाजी का फोटो दे दीजिए, मातापिता को भेज दूंगा. उन से मुझे अनुमति तो लेनी ही होगी. पर वे कभी भी न नहीं करेंगे,’ गौतम ने कहा.

रामकुमार खुशीखुशी घर के अंदर गए. लगता था, जैसे वहां खुशी की लहर दौड़ गई थी. कुछ ही देर में वे अपनी पत्नी के साथ उमा का फोटो ले कर आ गए. उमा तो लाजवश कमरे में नहीं आई. उस की मां ने एक डब्बे में कुछ मिठाई गौतम के लिए रख दी. पतिपत्नी अत्यंत स्नेह भरी नजरों से गौतम को देख रहे थे.

अपने कमरे में पहुंचते ही गौतम ने न्यूयार्क के उस विश्वविद्यालय को प्रवेशपत्र और आर्थिक सहायता के लिए फार्म भेजने के लिए लिखा. दिल्ली जाने से पहले वह एक बार और उमा के घर गया. कुछ समय के लिए उन लोगों ने गौतम और उमा को कमरे में अकेला छोड़ दिया था, परंतु दोनों ही शरमाते रहे.

गौतम जब दिल्ली से वापस आया तो रामकुमार ने उसे विभाग में पहुंचते ही अपने कमरे में बुलाया. गौतम ने उन्हें बताया कि मातापिता दोनों ही राजी थे, इस रिश्ते के लिए. परंतु छोटी बहन की शादी से पहले इस बारे में कुछ भी जिक्र नहीं करना चाहते थे.

गौतम के मातापिता की रजामंदी के बाद तो गौतम का उमा के घर आनाजाना और भी बढ़ गया. उस ने जब एक दिन उमा से सिनेमा चलने के लिए कहा तो वह टाल गई. इन्हीं दिनों न्यूयार्क से फार्म आ गया, जो उस ने तुरंत भर कर भेज दिया. रामकुमार ने अपने दोस्त को न्यूयार्क पत्र लिखा और गौतम की अत्यधिक तारीफ और सिफारिश की.

3 महीने प्रतीक्षा करने के पश्चात वह पत्र न्यूयार्क से आया, जिस की गौतम कल्पना किया करता था. उस को पीएच.डी. में प्रवेश और समुचित आर्थिक सहायता मिल गई थी. वह रामकुमार का आभारी था. उन की सिफारिश के बिना उस को यह आर्थिक सहायता कभी न मिल पाती.

गौतम की छोटी बहन का रिश्ता बनारस में हो गया था. शादी 5 महीने बाद तय हुई. गौतम ने उमा को समझाया कि बस 1 साल की ही तो बात है. अगले साल वह शादी करने भारत आएगा और उस को दुलहन बना कर ले जाएगा.

कुछ ही महीने में गौतम न्यूयार्क आ गया. यहां उसे वह विश्वविद्यालय ज्यादा अच्छा न लगा. इधरउधर दौड़धूप कर के उसे न्यूयार्क में ही दूसरे विश्वविद्यालय में प्रवेश व आर्थिक सहायता मिल गई.

उमा के 2-3 पत्र आए थे, पर गौतम व्यस्तता के कारण उत्तर भी न दे पाया. जब पिताजी का पत्र आया तो उमा का चेहरा उस की आंखों के सामने नाचने लगा. पिताजी ने लिखा था कि रामकुमार दिल्ली किसी काम से आए थे तो उन से भी मिलने आ गए. पिताजी को समझ में नहीं आया कि उन की कौन सी बेटी की शादी बनारस में तय हुई थी.

उन्होंने लिखा था कि अपनी शादी का जिक्र करने के लिए उसे इतना शरमाने की क्या आवश्यकता थी.

गौतम ने पिताजी को लिख भेजा कि मैं उमा से शादी करने का कभी इच्छुक नहीं था. आप रामकुमार को साफसाफ लिख दें कि यह रिश्ता आप को बिलकुल भी मंजूर नहीं है. उन के यहां के किसी को भी अमेरिका में मुझ से पत्रव्यवहार करने की कोई आवश्यकता नहीं.

गौतम के पिताजी ने वही किया जो उन के पुत्र ने लिखा था. वे अपने बेटे की चाल समझ गए थे. वे बेचारे करते भी क्या.

उन का बेटा उन के हाथ से निकल चुका था. गौतम के पास उमा की तरफ से 2-3 पत्र और आए. एक पत्र रामकुमार का भी आया. उन पत्रों को बिना पढ़े ही उस ने फाड़ कर फेंक दिया था.

पीएच.डी. करने के बाद गौतम शादी करवाने भारत गया और एक बहुत ही सुंदर लड़की को पत्नी के रूप में पा कर अपना जीवन सफल समझने लगा. उस के बाद उस ने शायद ही कभी रामकुमार और उमा के बारे में सोचा हो. उमा का तो शायद खयाल कभी आया भी हो, पर उस की याद को अतीत के गहरे गर्त में ही दफना देना उस ने उचित समझा था.

उस दिन रवि ने गौतम की पुरानी स्मृतियों को झकझोर दिया था. प्रोफेसर गौतम सारी रात उमा के बारे में सोचते रहे कि उस बेचारी ने उन का क्या बिगाड़ा था. रामकुमार के एहसान का उस ने कैसे बदला चुकाया था. इन्हीं सब बातों में उलझे, प्रोफेसर को नींद ने आ घेरा.

ठक…ठक की आवाज के साथ विभाग की सचिव सिसिल 9 बजे प्रोफेसर के कमरे में ही आई तो उन की निंद्रा टूटी और वे अतीत से निकल कर वर्तमान में आ गए. प्रोफेसर ने उस को रवि के फ्लैट का फोन नंबर पता करने को कहा.

कुछ ही मिनटों बाद सिसिल ने उन्हें रवि का फोन नंबर ला कर दिया. प्रोफेसर ने रवि को फोन मिलाया. सवेरेसवेरे प्रोफेसर का फोन पा कर रवि चौंक गया, ‘‘मैं तुम्हें इसलिए फोन कर रहा हूं कि तुम यहां पर पीएच.डी. के लिए आर्थिक सहायता की चिंता मत करो. मैं इस विश्वविद्यालय में ही भरसक कोशिश कर के तुम्हें सहायता दिलवा दूंगा.’’

रवि को अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था. वह धीरे से बोला, ‘‘धन्यवाद… बहुतबहुत धन्यवाद.’’

‘‘बरसों पहले तुम्हारे नानाजी ने मुझ पर बहुत उपकार किया था. उस का बदला तो मैं इस जीवन में कभी नहीं चुका पाऊंगा पर उस उपकार का बोझ भी इस संसार से नहीं ले जा पाऊंगा. तुम्हारी कुछ मदद कर के मेरा कुछ बोझ हलका हो जाएगा,’’ कहने के बाद प्रोफेसर गौतम ने फोन बंद कर दिया.

रवि कुछ देर तक रिसीवर थामे रहा. फिर पेन और कागज निकाल कर अपनी मां को पत्र लिखने लगा.

आदरणीय माताजी,

आप से कभी सुना था कि इस संसार में महापुरुष भी होते हैं परंतु मुझे विश्वास नहीं होता था.

लेकिन अब मुझे यकीन हो गया है कि दूसरों की निस्वार्थ सहायता करने वाले महापुरुष अब भी इस दुनिया में मौजूद हैं. मेरे लिए प्रोफेसर गौतम एक ऐसे ही महापुरुष की तरह हैं. उन्होंने मुझे आर्थिक सहायता दिलवाने का पूरापूरा विश्वास दिलाया है.

प्रोफेसर गौतम बरसों पहले कानपुर में नानाजी के विभाग में ही काम करते थे. उन दिनों कभी शायद आप की भी उन से मुलाकात हुई होगी

आप का रवि

Hindi Story : आइडिया – अपने ही घर में क्यों घुटन महसूस करती थी अनु?

Hindi Story :  ब्लैकबोर्डकी ओर टकटकी लगाए अनु अपनी ही दुनिया में खोई थी. तभी जूही उस की पीठ पर चपत लगाती हुई बोली, ‘‘क्यों घर नहीं चलना क्या और यह तू ब्लैकबोर्ड में आंखें गड़ाए क्या देख रही है? रश्मि मैम ने जो समझाया क्या वह हमारी क्लास की टौपर को समझ नहीं आया?’’

रश्मि मैम अपने छात्रों की चहेती और अपने स्कूल के सभी विद्यार्थियों के बीच सब से लोकप्रिय शिक्षिका थीं. स्कूल की हर छात्रा उन की सुंदरता की कायल थी. रश्मि की सादगी और सौम्यता सभी को आकर्षित करती थी.

रश्मि भी अपने विद्यार्थियों का खूब खयाल रखतीं खासकर अनु का, क्योंकि अनु की मां कनक उस की सहपाठी व अभिन्न सहेली थी. अनु के संग रश्मि का दोस्ताना व्यवहार था. जब भी अनु को कोई दुविधा होती और जो बात वह अपनी मां या अपनी सहेली जूही से नहीं कह पाती रश्मि से साझा करती.

अनु जब अपनी मां कनक से नाराज होती तो सीधे रश्मि के घर आ जाती और जब गुस्सा शांत होता तभी घर वापस जाती. रश्झ्मि भी बड़े लाड़प्यार से उसे रखतीं. रश्मि के पति का देहांत हो चुका था और वे अकेली रहती थीं. इसलिए अनु के इस प्रकार आ कर रहने पर उन्हें कोई ऐतराज भी नहीं होता था.

रश्मि बायोलौजी सब्जैक्ट और 10वीं क्लास की टीचर थीं. अनु और जूही दोनों

रिश्म की ही क्लास की छात्राएं थीं.

अनु थोड़ा हड़बड़ाती हुई बोली, ‘‘हां.’’

‘‘अरे… क्या हां, तुझे घर नहीं चलना?’’

‘‘हां चलना है, चल,’’ कहती हुई अनु ने अपना स्कूल बैग कंधे पर लटका लिया.

अनु और जूही दोनों सहेलियां थीं. दोनों बचपन से साथ पढ़ रही थीं और आसपास ही रहती थीं. जूही को अनु की मां बहुत पसंद थीं और अनु को जूही की मां.

जूही अकसर अनु से कहती, ‘‘हाय… अनु तेरी मम्मी कितनी खूबसूरत हैं. आंटी का वे औफ टौकिंग, आउट लुक कितना इंप्रैसिव है और आंटी वैस्टर्न ड्रैस में किसी मौडल से कम नहीं लगतीं और सब से बड़ी बात आंटी सैल्फ डिपैंड हैं.’’

यह सुनते ही अनु चिढ़ जाती, लेकिन कुछ नहीं कहती.

घर पहुंच अनु अपना बैग एक ओर फेंकती हुई सोफे पर धड़ाम से बैठ गई. कनक अनु को स्कूल से आया देख बोली, ‘‘अरे आ गया मेरा बच्चा. कैसा रहा आज का दिन.’’

अनु कोई जवाब दिए बगैर यों ही पड़ी रही.

कनक कई दिनों से महसूस कर रही थी, अनु काफी परेशान दिख रही है. उस का मन न पढ़ने में लग रहा है और न खानेपीने में, उसे खेलनेकूदने में भी रुचि नहीं रही. गुमसुम और उस से खिंची सी रहती है.

कनक जब भी अनु के इस उदासी का कारण जानना चाहती, वह बुरी तरह से बिगड़ जाती. इसलिए कनक इस वक्त अनु से कुछ पूछना मुनासिब न समझते हुए बोली, ‘‘अनु आज मेरा औफ था इसलिए मैं ने तुम्हारी पसंद की सब्जी कड़ाही पनीर बनाई है. चलो आ कर खा लो. शाम को संजय अंकल आने वाले हैं. तुम तैयार हो जाना हम घूमने चलेंगे और खाना भी बाहर खाएंगे ओके.’’

कनक का इतना कहना था कि अनु तमतमाती हुई पैर पटकती अपने कमरे में जा दरवाजा जोर से बंद कर लिया.

कनन अपनी आंखों में पानी लिए कमरे के बाहर खड़ी रही. अनु के व्यवहार में आया परिवर्तन कनक के लिए पहेली बनता जा रहा था. वह कुछ समझ नहीं पा रही थी कि आखिर अनु ऐसा क्यों कर रही है. कनक को लगता अनु उम्र के  उस पड़ाव से गुजर रही है, जहां शरीर में हो रहे हारमोन चेंज और शारीरिक संरचना में बदलाव होने लगता है. शायद यह उसी का परिणाम है, लेकिन ऐसा नहीं था. इस के अलावा कुछ और बात भी थी, जिस से कनक अनजान थी.

अचानक अनु कमरे का दरवाजा खोल अपनी साइकिल की चाबी उठा यह कहती हुई बाहर निकल गई कि मैं रश्मि मैम के घर जा रही हूं. तेज पैडल मारती हुई वह रश्मि के घर जा पहुंची.

धड़ाम से रश्मि के घर का दरवाजा खोल, सीधे अंदर आ गई. हौल का जो नजारा था उसे देख अनु सन्न रह गई. उस ने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि वह रश्मि को कभी इस रूप में भी देखेगी. रश्मि मैम तो उस की रोल मौडल थीं.

अनु को एकाएक इस प्रकार अंदर आया देख रश्मि असहज हो गई. फिर अपने बाल और साड़ी का पल्लू ठीक करती हुई बोलीं, ‘‘अरे अनु तुम इस वक्त, क्या हुआ? आओ.’’

‘‘नहीं मैम मैं बाद में आती हूं शायद मैं गलत समय पर आ गई.’’

‘‘नहींनहीं ऐसा कुछ नहीं है आओ बैठो. इन से मिलो ये हैं मेरे दोस्त जय गवर्नमैंट कालेज में कैमिस्ट्री के प्रोफैसर हैं. हमारी अगले महीने शादी.’’

अनु थोड़ी सकुचाती अभिवादन में सिर झुकाती हुई बैठ गई.

‘‘बोलो क्या बात है?’’

अनु चुप बैठी रही. यह देख जय उठ खड़ा हुआ और रश्मि को आलिंगन करते हुए बोला, ‘‘रश्मि, मैं चलता हूं फिर आऊंगा.

रश्मि दरवाजे तक जय को छोड़ने गई. अनु को जय का इस प्रकार उस की रश्मि मैम को गले लगाना अच्छा नहीं लगा पर वह कर भी क्या सकती थी.

जय के जाने के पश्चात रश्मि अनु के करीब जा बैठी और उस के सिर पर हाथ फेरती

हुई बोलीं, ‘‘क्या हुआ अनु कहो क्या बात है?’’

रश्मि के इतना कहते ही अनु उन से लिपट कर रोती हुई कहने लगी, ‘‘मैम मैं घर से कहीं दूर भाग जाना चाहती हूं. मैं उस घर में नहीं रहना चाहती. मेरा उस घर में दम घुटता है,’’ अनु एक ही सांस में सब बोल गई.

अनु से ये सब सुन रश्मि अवाक रह गईं. शांत करते हुए बोलीं, ‘‘अच्छा ठीक है पहले तुम ये पानी पीयो फिर बताओ क्या हुआ? तुम्हारी मम्मी ने तुम से कुछ कहा?’’

यह सुनते ही अनु उठ खड़ी हुई और चीखती हुई बोली, ‘‘नहीं… वे क्या कहेंगी. उन्हें तो बस अपने काम और खुद को सजानेसंवारने से फुरसत नहीं. उन की वजह से मुझे अपने पापा का प्यार नहीं मिला. मुझे उन से दूर रहना पड़ता है. मैं कोई बच्ची नहीं हूं कि मुझे कुछ समझ न आए. मैं सब समझती हूं वे… संजय अंकल और मम्मी के बीच में…’’ कहती हुई रुक गई.

‘‘यह क्या कह रही हो? तुम अपनी मां के लिए ऐसा कैसे कह सकती हो?’’

अनु झुंझलाती हुई बोली, ‘‘तो क्या कहूं?’’

अनु अब इतनी छोटी नहीं थी कि कुछ समझ न सके. लेकिन इतनी बड़ी भी नहीं कि सबकुछ समझ सके. उस के किशोर मन में कई सवाल उमड़घुमड़ रहे थे जिसे शांत करना अब जरूरी हो गया था. इसलिए रश्मि प्यार से अनु को अपने समीप बैठाती हुई बोलीं, ‘‘पहले तुम अपने मन से यह गुस्सा, जहर और नफरत निकाल फेंको जो तुम ने अपने अंदर भर रखा है.

‘‘मैं जानती हूं अब तुम कोई बच्ची नहीं रही, बड़ी हो गई हो, इसलिए मैं जो कहने जा रही हूं उसे धैर्य से सुनना उस के बाद हम सोचेंगे कि तुम्हें घर से दूर भाग जाना चाहिए या नहीं.

‘‘तुम बताओ क्या तुम ने कभी अपने पापा की तसवीर के अलावा भी उन्हें देखा है? नहीं देखा है न. क्यों… नहीं देखा? क्या तुम्हारे पापा इस दुनिया में नहीं हैं? क्या तुम्हारी मम्मी ने तुम्हें कभी अपने पापा से मिलने या उन के पास जाने से रोका है? नहीं रोका न. क्या तुम्हारे पापा कभी खुद तुम से मिलने आए? नहीं आए न… क्यों नहीं आए? वे तो इसी शहर में रहते हैं.’’

अनु निरुत्तर चुपचाप सुनती रही.

‘‘अब जो मैं कहने जा रही हूं तुम बड़े ध्यान से सुनना. तुम्हारी मम्मी अपने स्कूल, कालेज के समय से ही सुंदर और स्वतंत्र विचारधारा की रही है. वह शादी से पहले भी जौब करती थी. तुम्हारे पापा ने तुम्हारी मम्मी से शादी उस की खूबसूरती और मौडर्ननैस पर फिदा हो कर की थी.

‘‘उस के बाद तुम्हारे पापा को तुम्हारी मां की वही खूबसूरती, मौडर्ननैस और उस का जौब पर जाना खलने लगा. वे चाहते थे कनक सबकुछ छोड़ घर बैठ जाए. तुम्हारे पापा कनक को अपनी निजी संपत्ति समझने लगे थे. उस के साथ दुर्व्यवहार करने लगे और जब तुम्हारी मम्मी विरोध करने लगी तो इस बात को ले कर दोनों के बीच तनाव बढ़ता गया.

‘‘एक दिन जब तुम्हारी मम्मी औफिस में किसी काम की वजह से देर रात घर लौटी तो तुम्हारे पापा ने बगैर कारण जाने ही तुम्हारी मम्मी को घर से निकाल दिया और तुम्हें भी अपने साथ ले जाने को कह दिया, उस वक्त तुम केवल 1 महीने की थी. उस रात संजय ने ही तुम्हारी मम्मी और तुम्हें अपने घर में पनाह दी.

‘‘तुम्हारी मम्मी और संजय अच्छे दोस्त हैं. तुम्हारे पापा ने तो तुम लोगों को छोड़ कर दूसरी शादी कर ली और फिर कभी उन्होंने तुम लोगों की ओर मुड़ कर नहीं देखा. उस वक्त एक संजय ही था जो तुम्हारी मम्मी के साथ खड़ा था दुनिया की परवाह किए बगैर. अब तुम बताओ क्या गलत था?’’

‘‘इतना सब सुनने के बाद अनु ने अपने कान बंद कर लिए जिस पिता के लिए अब तक वह अपनी मां से नफरत करती आई थी आज सचाई जान कर उसे स्वयं के व्यवहार पर अफसोस होने लगा. फिर वह रश्मि से कहने लगी, ‘‘बस मैम मुझे और कुछ नहीं सुनना.’’

‘‘नहीं अनु अभी मेरी बात पूरी नहीं हुई है. मुझे तुम से अभी बहुत कुछ कहना है. तुम्हारी मम्मी क्यों सजसंवर नहीं सकती, क्योंकि तुम्हें अच्छा नहीं लगता या फिर इसलिए कि वह अपने पति के साथ नहीं रहती या फिर इसलिए कि तुम चाहती हो कि तुम्हारी मम्मी जूही की मम्मी की तरह लगे. क्या तुम्हारी मम्मी की अपनी कोई इच्छा या चाहत नहीं हो सकती? तुम्हारी मम्मी की तरह, मेरी तरह की इस दुनियां में न जाने कितनी ही औरतें होंगी, तो क्या उन सब को बाकी औरतों की तरह खुश रहने का अधिकार नहीं?

‘‘तुम्हारी मम्मी जब भी चाहती संजय से शादी कर सकती थी, लेकिन उस ने ऐसा नहीं किया, क्योंकि उसे अपने सुख से ज्यादा तुम्हारी फिक्र थी. वह तुम्हें अपनेआप से ज्यादा प्यार करती है.

‘‘अनु अब तुम छोटी नहीं हो इसलिए अब जो मैं तुम से कहने जा रही हूं उसे तुम

एक बेटी बन कर नहीं एक आम लड़की बन कर समझने की कोशिश करना जैसे खानापीना हमारे शरीर की जरूरत है वैसे ही एक और जरूरत हमारे शरीर की होती है जिसे काम कहते हैं और इस कामरूपी भूख को शांत करना भी उतना ही आवश्यक है जितना बाकियों को.

‘‘हर इंसान इस भूख की पूर्ति अपनी सुविधानुसार करता है और इस में न तो कुछ गलत है और न ही यह अपराध है. यह केवल हमारी सोच और देखने के नजरिए पर निर्भर करता है, क्योंकि यह हमारे शरीर की मांग है और यदि तुम्हारी मम्मी की यह मांग संजय पूरी करता है तो क्या गलत है? अब तक तो तुम यह भी समझ ही गई होगी कि मेरे और जय के बीच का संबंध क्या है.’’

यह सुनने के बाद अनु ने रश्मि से कहा, ‘‘मैम, क्या मुझे आप का मोबाइल मिलेगा.’’

रश्मि ने अपना मोबाइल अनु की ओर बढ़ा दिया. अनु ने नंबर डायल किया. उधर से फोन उठाते ही अनु बोली, ‘‘आई एम सौरी मम्मी. मैं घर आ रही हूं, आप तैयार रहना. हम शाम को घूमने चलेंगे और खाना भी बाहर ही खाएंगे.’’

लेखिका- प्रेमलता यदु

Kahaniyan : डियर पापा- क्यों श्रेया अपने पिता को माफ नही कर पाई?

Kahaniyan : शाम के 7 बज चुके थे. सुजौय किसी भी वक्त औफिस से घर आते ही होंगे. मैं ने जल्दी से चूल्हे पर चाय चढ़ाई और दरवाजे की घंटी बजने का इंतजार करने लगी.  ज्यों ही घंटी की आवाज घर में गूंजी मेरे दोनों नन्हे शैतान श्यामली और श्रेयस उछलतेकूदते अपने कमरे से बाहर आ गए और दरवाजे की कुंडी खोलते ही पापापापा चिल्लाते हुए सुजौय की टांगों से लिपट गए.  सुजौय ने मुसकरा कर अपना ब्रीफकेस मुझे थमा दिया और दोनों बच्चों को बांहों में भर कर भीतर आ गए. तीनों के कहकहे सुन कर दिल को सुकून सा मिल रहा था. सुजौय को चाय दे कर मैं भी वहीं उन तीनों के पास बैठ गई. दोनों बच्चे बड़े प्यार से अपने पापा को दिन भर की शरारतें और किस्से सुना रहे थे. सुजौय भी बड़े गर्व से चाय पीते हुए उन दोनों की बातें सुन रहे थे. अपने पापा का पूरा ध्यान खुद पर पा कर बच्चों की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था.

‘‘पापा, मैं और श्रेयस एक बहुत सुंदर ड्राइंग बना रहे हैं. उसे पूरा कर के आप को दिखाते हैं,’’ कह कर श्यामली ने अपने भाई का हाथ पकड़ा और दोनों भाग कर अपने कमरे में चले गए.

‘‘क्या सोच रही हो मैडम?’’

‘‘कुछ नहीं. आप हाथमुंह धो कर फ्रैश हो जाएं. तब तक मैं खाना गरम कर लेती हूं,’’ सुजौय के टोकने पर मैं ने मुसकरा कर जवाब दिया और फिर उठ कर रसोई की तरफ चल दी.

खाने की मेज पर भी दोनों बच्चे चहकते हुए अपने पापा को न जाने कौनकौन से किस्से सुना रहे थे. खाने के बाद कुछ देर तक सुजौय और मेरे साथ खेल कर बच्चे थक कर सो गए. सारा काम निबटा कपड़े बदलने के बाद जब मैं कमरे में पहुंची तो सुजौय पहले से ही पलंग पर लेटे हुए एकटक छत को निहार रहे थे. बत्ती बुझा कर मैं भी पलंग पर जा कर लेट गई और आंखें बंद कर के सोने की कोशिश करने लगी.

थोड़ी देर बाद सुजौय ने धीमे स्वर में पूछा, ‘‘श्रेया, नींद नहीं आ रही है क्या?’’

‘‘नहीं,’’ मैं ने गहरी सांस भर कर छोड़ते हुए जवाब दिया.

‘‘कोई टैंशन है?’’

‘‘नहीं?’’

‘‘श्यामली बता रही थी आज उस की नानी का फोन आया था.’’

‘‘क्या कहा मां ने? कैसी हैं वे?’’

‘‘ठीक हैं. हम सब का कुशलक्षेम पूछ  रही थीं.’’

‘‘और साकेत कैसा है? उस की परीक्षा कैसी हुई?’’

‘‘वह भी ठीक है. अच्छी हुई.’’

‘‘सिर्फ इतनी ही बात हुई?’’

‘‘हां.’’

‘‘तो फिर इतनी खोई हुई, उदास सी क्यों हो?’’

मेरे कोई जवाब न देने पर सुजौय ने मुझे आगोश में भर लिया और फिर मेरा सिर सहलाने लगे. अचानक हुई प्रेम और अपनेपन की अनुभूति से मेरी आंखों से आंसू बह निकले. मैं कस कर सुजौय से लिपट कर फूटफूट कर रोने लगी. सुजौय ने मुझे जी भर कर रोने दिया.  कुछ देर बाद जब आंसू थमे तो मैं ने हिम्मत कर के कहा, ‘‘कल पापा की बरसी है. मां ने हमें घर बुलाया है.’’

‘‘और तुम हमेशा की तरह वहां जाना नहीं चाहतीं,’’ सुजौय ने कहा.

‘‘आप को सब पता तो है. मैं वहां क्यों नहीं जाना चाहती हूं. मां भी सब जानती हैं. फिर भी हर साल मुझ से घर आने की जिद करती हैं,’’ मैं ने भर्राई आवाज में कहा.

‘‘श्रेया, तुम जानती हो न मां बस पूरे परिवार को एकसाथ खुश देखना चाहती हैं, इसलिए हर बार तुम्हारा जवाब जानते हुए भी तुम्हें पापा की बरसी पर घर आने के लिए कहती हैं.’’

‘‘मैं जानती हूं. मैं मां को दुख नहीं पहुंचाना चाहती हूं. उन्हें दुखी देख कर मुझे भी बहुत दुख होता है. अब आप ही बताएं कि मैं क्या करूं?’’ मैं ने निराश स्वर में पूछा.

‘‘अपने पापा को माफ कर दो.’’

इस से पहले कि मैं विरोध कर पाती सुजौय फिर बोल पड़े, ‘‘देखो श्रेया मैं तुम्हारी हर तकलीफ समझता हूं और तुम्हारे हर फैसले का सम्मान भी करता हूं पर इस तरह दिल में गुस्सा और दर्द दबा कर रखने में किसी का भला नहीं है. तुम अनजाने में ही अपने साथ अपनी मां को भी तकलीफ दे रही हो. अपने अंदर से सारा गुस्सा, सारा गुबार निकाल दो और अपने पापा को माफ कर दो.’’  मुझे समझा कर कुछ देर बाद सुजौय तो सो गए पर मेरी आंखों में नींद का नामोनिशान तक  न था. बीते कल की यादें खुली किताब के पन्नों की तरह मेरी आंखों के सामने खुलती चली जा रही थीं…

छोटा सा परिवार था हमारा- पापा, मम्मी, मैं और साकेत. पापा का अच्छाखासा  कारोबार था. घर में किसी सुखसुविधा की कोई कमी नहीं थी. बाहर से देखने पर सब कुछ ठीक ही लगता था. पर मेरी मां की आंखों में हमेशा एक उदासी, एक डर नजर आता था. शुरू में मैं मां के आंसुओं की वजह नहीं समझ पाती थी, पर जैसेजैसे बड़ी होती गई वजह भी समझ आती गई.  वजह थे मेरे पापा जो अकसर छोटीछोटी बातों पर या फिर बिना किसी बात के मां पर हाथ उठाते थे. मुझे कभी पापा का बरताव समझ नहीं आया. जब प्यार जताते थे तो इतना कि जिस की कोई सीमा नहीं होती थी और जब गुस्सा करते थे तो वह भी इतना कि जिस की कोई हद नहीं होती थी.

पहले पापा के गुस्से का शिकार सिर्फ मां होती थीं, पर वक्त बीतने के साथ उन के गुस्से की चपेट में आने वाले लोगों का दायरा भी बढ़ता गया. पापा ने मुझ पर भी हाथ उठाना शुरू कर दिया था.  जब पापा ने पहली बार मुझ पर हाथ उठाया था तब मैं ने 2 दिनों तक बुखार के कारण आंखें नहीं खोली थीं. जब पापा मुझे मारते थे तो मां मुझे बचाने के लिए बीच में आ जाती थीं. न जाने कितनी बार मां ने हम दोनों के हिस्से की मार अकेले खाई होगी. छोटी उम्र में इतनी मार खा कर मेरे शरीर पर से कई दिनों तक मार के निशान नहीं जाते थे.

स्कूल जाने पर ऐसा महसूस होता था मानो जैसे मेरे सहपाठी मेरी ओर इशारे कर के मेरा मजाक उड़ा रहे हैं. टीचर निशानों के बारे में पूछती थीं तो झूठ बोलना पड़ता था. न जाने कितनी बार साइकिल से गिरने का बहाना बनाया होगा. अब तो गिनती भी याद नहीं है.  शुरूशुरू में मैं मार खाते वक्त बहुत रोती थी, पर वक्त के साथ मेरा रोना भी कम होता गया और कुछ वक्त बाद तो एहसास होना ही बिलकुल बंद सा हो गया था. मां अब बहुत बीमार रहने लगी थीं. मेरी परी, सुंदर मां निढाल सी रहती थीं.

डाक्टरों को भले ही मां की बीमारी की वजह पता न चल पाई हो पर मैं जानती थी. मेरी मां को एक ही बीमारी थी- मेरे पापा. मैं 8 वर्ष की थी जब साकेत का जन्म हुआ था. कितनी प्यारी मुसकान थी मेरे छोटे भाई की. दुनिया की भलाईबुराई, झूठ, फरेब, संघर्षों और तकलीफों से अनजान मासूम हंसी थी उस की. पापा ने साकेत के जन्म का जश्न मनाने में पूरे शहर को दावत दे डाली थी. मुझे लगा कि अब शायद पापा बदल जाएंगे, हम पर हाथ उठाना और गालीगलौच करना छोड़ देंगे. मगर मैं गलत थी. इनसान की फितरत बदलना नामुमकिन है.

पापा के वहशीपन से मेरा भाई भी नहीं बच पाया. मुझे उस के चेहरे पर भोलेपन की जगह खौफ नजर आता था. जब पापा हमें मार चुके होते थे तब मैं ध्यान से उन का चेहरा देखती थी. हमें गालियां देने, मारने कोसने के बाद पापा के चेहरे पर संतोष के भाव होते थे, ग्लानि नहीं. ऐसा लगता था कि हमें रोते, गिड़गिड़ाते, दर्द से कराहते देखने में पापा को खुशी मिलती थी. खुद पर गरूर होता था. कभी मुझे लगता था कि कहीं पापा किसी मानसिक रोग के शिकार तो नहीं वरना यह उन्हें हम से कैसा प्यार था जो हमारी जान का दुश्मन बना हुआ था.  मैं कई बार मां से पूछती थी कि क्या हम पापा से कहीं दूर नहीं जा सकते हैं. इस पर मां रोते हुए इसे हमारी मजबूरी बता देती थीं.  पापा के परिवार वालों ने उन्हें कभी हमें प्रताडि़त करने से नहीं रोका, बल्कि वे

तो पापा को सही बता कर उन का साथ देते थे. पापा कभी अपने परिवार वालों की मानसिकता को समझ ही नहीं पाए. उन के लिए पापा बैंक का वह अकाउंट थे जिस से वे जब चाहें जितने चाहें रुपए निकाल सकते हैं पर अकाउंट कभी खाली नहीं होगा. पापा के भाई और उन के परिवार को मुफ्तखोरी की आदत लग गई थी. पापा को खुश करने के लिए वे लोग हम पर झूठे इलजाम लगाने से भी बाज नहीं आते थे.  मम्मी के परिवार वाले भी कम न थे. वे लोग शुरू से जानते थे कि पापा हमारे साथ क्या करते हैं पर उन्होंने कभी मां का साथ नहीं दिया. वजह मैं जानती थी. मेरे मामा के शौकीन मिजाज के कारण डूबते कारोबार में पापा ही रुपया लगाते थे. पापा की ही तरह उन का पैसा भी हमारा दुश्मन बन गया था.

अब मैं ने किसी से कुछ भी कहनासुनना छोड़ दिया था. पापा के लिए मेरे दिल में गुस्सा और नफरत लावा की तरह बढ़ते जा रहे थे जो अकसर फूट कर बाहर आ जाते थे. मैं अब कामना करती थी कि हमें इस नर्क से मुक्ति मिल जाए.

कुछ सालों तक सब ऐसा ही चलने के बाद अब पापा को शायद उन के कर्मों की सजा मिलनी शुरू हो गई थी. उन के भाई ने उन का सारा कारोबार डुबो दिया. सभी ने पापा का साथ छोड़ दिया था. ऐसे में मां ने अपने सारे गहने और जमापूंजी पापा को दे दिए और दिनरात कोल्हू के बैल की तरह जुत कर काम किया.  इस बीच मारपीट बिलकुल बंद सी ही थी. धीरेधीरे पापा का काम चल निकला. यह मन बड़ा पाजी चोर होता है. बारबार टूटने पर भी उम्मीद नहीं छोड़ना चाहता है. मेरे मन में पापा के बदल जाने की उम्मीद थी जो पापा ने हमेशा की तरह बड़ी बेदर्दी से रौंद डाली थी.

पापा ने फिर से वही रुख अपना लिया था. उन्होंने शायद सांप और बिच्छू की कहानी सुनी ही नहीं थी, इसलिए फिर से अपने धोखेबाज भाई पर भरोसा कर बैठे. बिच्छू ने आदत अनुसार पापा को दोबारा डस लिया और इस बार पापा धोखा बरदाश्त नहीं कर पाए. जब मम्मी एक दिन मुझे और साकेत को स्कूल से ले कर घर लौटीं तो हम ने देखा कि पापा ने आत्महत्या कर ली है. मम्मी बेहोश हो कर गिर गईं. भाई का रोतेरोते बुरा हाल  था पर मेरी आंखों में एक आंसू नहीं आया. पापा हमें रास्ते पर ला कर छोड़ गए थे. जैसा कि मुझे विश्वास था, पापा के घर वालों ने हम से हर नाता तोड़ लिया और मम्मी के घर वाले तो और भी समझदार निकले. उन्हें यह डर सता गया कि कहीं हम उन से वे रुपए न मांग ले जो पापा ने समयसमय पर उन्हें दिए थे.

हर किसी ने हमें देख कर रास्ता बदलना शुरू कर दिया था. मम्मी गहरे अवसाद की गिरफ्त में आती चली गईं. बीमारी के कारण भाई की जान जातेजाते बची.  पाप हम से सब कुछ छीन कर चले गए पर हमारा जीने का हौसला नहीं छीन पाए. बड़ी मुश्किलों से हम ने खुद को संभाला. मां ने दिनरात मेहनत व संघर्ष कर के हमें पाला. हमें कभी किसी चीज की कमी नहीं होने दी. उन की इसी तपस्या का फल बन कर सुजौय मेरे जीवन में आए.  पेशे से अधिकारी सुजौय को मेरे लिए मां ने ही पसंद किया था. मैं शुरूशुरू में उन पर विश्वास करने से डरती थी कि कहीं मेरा पति मेरे पापा जैसा न हो. पहले सुजौय को जीवनसाथी के रूप में पा कर और फिर श्यामली और श्रेयस के मेरी गोद में आने से मेरे सारे दुखों व संघर्षों पर विराम लग गया.

मां भी अब पहले से अच्छी अवस्था में थीं. साकेत भी पढ़ाई में अच्छा प्रदर्शन कर रहा था. ऐसे में दिल में सिर्फ एक कसक थी. मैं अभी तक पापा को माफ नहीं कर पाई थी. मां हर साल पापा की बरसी मनाती थीं. वे हमें भी घर आने को कहती थीं. हमेशा मुझ से कहती थीं कि मैं सब कुछ भुला दूं पर यह मेरे लिए संभव नहीं था. जब मैं सुजौय को अपने बच्चों के साथ देखती हूं तो बहुत खुश होती हूं. लेकिन साथ ही दिल में एक टीस भी उठती है कि क्या मेरे पापा ऐसे नहीं हो सकते थे. सुजौय बहुत अच्छे पति हैं और उस से भी अच्छे पिता हैं. मैं जानती हूं साकेत भी एक दिन अच्छा पति और पिता साबित होगा.

यादों की दुनिया से बाहर निकल कर मैं ने सुजौय की ओर देखा जो गहरी नींद में सो रहे थे. वे ठीक ही तो कहते हैं बीती बातों को दिल में दबाए रख कर खुद को पीड़ा देने से क्या फायदा. मां ने पापा का अत्याचार हम से कहीं ज्यादा सहा. पर फिर भी उन्होंने पापा को माफ कर दिया. अगर माफ नहीं करतीं तो उन के जाने के बाद कभी एक मजबूत चट्टान बन कर हमें सहारा न दे पातीं. सिर्फ एक मां का दिल ही इतना बड़ा हो सकता है.

अब मैं भी तो एक मां हूं फिर मुझ से इतनी बड़ी चूक कैसे हुई. मैं ने यह कैसे नजरअंदाज कर दिया कि मेरे भीतर की घुटन से मेरी मां का दम भी तो घुटता होगा. मैं पापा को सजा देने के नाम पर अनजाने में ही मां को सजा देती आई हूं. कहीं मैं भी पापा की तरह ही तो नहीं बनती जा रही हूं.

फिर मैं ने आंखें बंद कर के गहरी सांस ली और मन में कहा कि डियर पापा, मैं नहीं जानती कि आप ने हमारे साथ वह सब क्यों किया. मैं यह भी नहीं जानती कि आज भी आप को अपने किए का कोई पछतावा है भी या नहीं. मुझे आप से कोई गिलाशिकवा भी नहीं करना. आज मैं पहली और आखिरी बार आप से यह कहना चाहती हूं कि मैं आप से प्यार करती थी, इसलिए आप की मार और गालियां खाने के बाद भी उम्मीद करती थी कि शायद आप बदल जाओगे. खैर, अब इन सब बातों का कोई फायदा नहीं है. मैं बस इतना कहना चाहती हूं कि मैं आप को माफ करती हूं पर आप के लिए नहीं… अपने लिए और अपने परिवार के लिए. गुडबाय. बहुत सालों बाद मैं खुद को इतना हलका महसूस कर के चैन की नींद सोई.

अगली सुबह जब मैं नाश्ता बना रही थी तो सुजौय माथे पर बल डाले रसोई में आए, ‘‘यह क्या श्रेया… तुम ने मुझे जगाया क्यों नहीं… 8 बज चुके हैं. मुझे दफ्तर जाने में देर हो जाएगी… बच्चों को अभी तक स्कूल के लिए तैयार क्यों नहीं किया तुम ने?’’

‘‘आज बच्चे स्कूल नहीं जाएंगे. आप भी दफ्तर में फोन कर के बता दीजिए कि आज आप छुट्टी ले  रहे हैं.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि आज हम सब मम्मी के घर जा रहे हैं. आज पापा की बरसी है न… आप जल्दी से नहा कर तैयार हो जाएं तब तक मैं नाश्ता तैयार कर देती हूं.’’

‘‘श्रेया,’’ सुजौय ने भावुक हो कर मेरे कंधे पर हाथ रखा तो मेरे हाथ रुक गए.

‘‘तुम अपनी इच्छा से यह कररही हो न… देखो कोई जबरदस्ती नहीं है.’’  मैं ने डबडबाई आंखों से सुजौय की ओर देखा, ‘‘नहीं सुजौय, मां ठीक कहती हैं, आप भी  सही हो. अपने भीतर का यह अंधेरा मुझे खुद ही दूर करना होगा. मैं बीते कल की इन कड़वी यादों को भुला कर आप के और अपने परिवार के साथ नई, खूबसूरत यादें बनाना चाहती हूं. मैं पापा की बरसी में जाऊंगी.’’  सुजौय सहमति में सिर हिला कर मुसकरा दिए. उन की आंखों में अपने लिए गर्व और प्रेम की चमक देख कर मुझे विश्वास हो गया कि मैं ने बिलकुल सही निर्णय लिया है.

कुछ ही देर बाद मैं सुजौय और बच्चों के साथ मां के घर पहुंच गई. बच्चे तो नानी और मामा से मिलने की बात सुन कर ही खुशी से उछल रहे थे. मेरे घंटी बजाने के कुछ क्षणों बाद मां ने दरवाजा खोला. मुझे दरवाजे पर खड़ी पा कर मां चौंक गईं. उन्हें तो सपने में भी आज मेरे घर आने की उम्मीद न थी. उन के मुंह से मेरा नाम आश्चर्य से निकला, ‘‘श्रेया… बेटा तू…’’

‘‘मां मुझे तो यहां आना ही था. आज पापा की बरसी है न.’’

मेरे मुंह से यह सुनते ही मां की आंखें भर आईं और उन्होंने आगे बढ़ कर मुझे अपने गले से लगा लिया. आज बरसों बाद हम मांबेटी लिपट कर फूटफूट कर रो रही थीं और हमारे आंसुओं से सारी पुरानी यादों की कालिख धुलती जा रही थी.

Short Story : प्यार में कंजूसी

Short Story : कुछ दिन से मन में बड़ी उथल- पुथल है. मन में कितना कुछ उमड़घुमड़ रहा है जिसे मैं कोई नाम नहीं दे पा रहा हूं. उदासी और खुशी के बीच की अवस्था को क्या कहा जाता है समझ नहीं पा रहा हूं. शायद, स्तब्ध सा हूं, कोई निर्णय लेने की स्थिति में नहीं हूं. चाहूं तो खुश हो सकता हूं क्योंकि उदास होने की भी कोई खास वजह मेरे पास नहीं है.

‘‘क्या बात है पापा, आप चुपचाप से हैं?’’

‘‘नहीं तो, ऐसा तो कुछ नहीं…बस, यही सोच रहा हूं कि पानीपत जाऊं या नहीं.’’

‘‘सवाल ही पैदा नहीं होता. चाचीचाचा ने एक बार भी ढंग से नहीं बुलाया. हम क्या बेकार बैठे हैं जो सारे काम छोड़ कर वहां जा बैठें…इज्जत करना तो उन्हें आता ही नहीं है और बेइज्जती कराने का हमें कोई शौक नहीं है.’’

‘‘मैं उस बेवकूफ के बारे में नहीं सोच रहा. वह तो नासमझ है.’’

‘‘नासमझ हैं तो इतने चुस्त हैं अगर समझदार होते तो पता नहीं क्याक्या कर जाते…पापा, आप मान क्यों नहीं जाते कि आप के भाई ने आप की अच्छाई का पूरापूरा फायदा उठाया है. बच्चों को पढ़ाना था तो आप के पास छोड़ दिया. आज वे चार पैसे कमाने लगे तो उन की आंखें ही पलट गईं.’’

‘‘मुझे खुशी है इस बात की. छोटे से शहर में रह कर वह बच्चों को कैसे पढ़ातालिखाता, सो यहां होस्टल में डाल दिया.’’

‘‘और घर का खाना खाने के लिए महीने में 15 दिन वे हमारे घर पर रहते थे. कभी भी आ धमकते थे.’’

‘‘तो क्या हुआ बेटा, उन के ताऊ का घर था न. उन के पिता का बड़ा भाई हूं मैं. अगर मेरे घर पर मेरे भाई के बच्चे कुछ दिन रह कर खापी गए तो ऐसी क्या कमी आ गई हमारे राशनपानी में? क्या हम गरीब हो गए?’’

‘‘पापा, आप भी जानते हैं कि मैं क्या कहना चाह रहा हूं. किसी को खिलाने से कोई गरीब नहीं हो जाता, यह आप भी जानते हैं और मैं भी. सवाल यह नहीं है कि वे हमारे घर पर रहे और हमारे घर को पूरे अधिकार से इस्तेमाल करते रहे. सवाल यह है कि दोनों बच्चे लंदन से वापस आए और हम से मिले तक नहीं. दोनों की शादी हो गई, उन्होंने हमें शामिल तक नहीं किया और अब गृहभोज कर रहे हैं तब हमें बुला लिया. यह भी नहीं कहा कि 1-2 दिन पहले चले आएं. बस, कह दिया…रात के 8 बजे पार्टी दे रहे हैं… आप सब आ जाना. पापा, यहां से उन के शहर की दूरी कितने घंटे की है, यह आप जानते हैं न. कहां रहेंगे हम वहां? रात 9 बजे खाना खाने के बाद हम कहां जाएंगे?’’

‘‘उस के घर पर रहेंगे और कहां रहेंगे. कैसे बेमतलब के सवाल कर रहे हो तुम सब. तुम्हारी मां भी इसी सवाल पर अटकी हुई है और तुम भी. हमारे घर पर जब कोई आता है तो रात को कहां रहता है?’’

‘‘हमारे घर पर जो भी आता है, वह हमारे सिरआंखों पर रहता है, हमारे दिल में रहता है और हमारे घर में शादी जैसा उत्सव जब होता है तब हम बड़े प्यार से चाचाचाची को बुला कर अपनी हर रस्म में उन्हें शामिल करते हैं. मां हर काम में चाचीचाचा को स्थान देती हैं. मेहमानों को बिस्तर पर सुलाते हैं और खुद जमीन पर सोेते हैं हम लोग.’’

दनदनाता हुआ चला गया अजय. मैं समझ रहा हूं अजय के मनोभाव. अजय उन्हें अपना भाई समझता था. नरेन और महेन को चचेरा भाई समझा कब था जो उसे तकलीफ न होती. अजय की शादी जब हुई तो नईनवेली भाभी के आगेपीछे हरपल डोलते रहते थे नरेन और महेन.

दोनों बच्चे एमबीए कर के अच्छी कंपनियों में लग गए और वहीं से लंदन चले गए. जब जा चुके थे तब हमें पता चला. विदेश जाते समय मिल कर भी नहीं गए. सुना है वे लाखों रुपए साल का कमा रहे हैं…मुझे भी खुशी होती है सुन कर, पर क्या करूं अपने भाई की अक्ल का जिसे रिश्ते का मान रखना कभी आया ही नहीं.  एकएक पैसा दांत से कैसे पकड़ा जाता है, उस ने पता नहीं कहां से सीखा है. एक ही मां के बच्चे हैं हम, पर उस की और मेरी नीयत में जमीनआसमान का अंतर है. रिश्तों को ताक पर रख कर पैसा बचाना मुझे कभी नहीं आया. सीख भी नहीं पाया क्योंकि मेरी पत्नी ने कभी मुझे ऐसा नहीं करने दिया. नरेनमहेन को अजय जैसा ही मानती रही मेरी पत्नी. पूरे 6 साल वे दोनों हमारे पास रहे और इन 6 सालों में न जाने कितने तीजत्योहार आए. जैसा कपड़ा शुभा अजय के लिए लाती वैसा ही नरेन, महेन का भी लाती. घर का बजट बनता था तो उस में नरेनमहेन का हिस्सा भी होता था. कई बार अजय की जरूरत काट कर हम उन की जरूरत देखा करते थे.

हमारी एक ही औलाद थी लेकिन हम ने सदा 3 बेटों को पालापोसा. वे दोनों इस तरह हमें भूल जाएंगे, सोचा ही नहीं था. भूल जाने से मेरा अभिप्राय यह नहीं है कि उन्होंने मेरा कर्ज नहीं चुकाया. सदा देने वाले मेरे हाथ आज भी कुछ देते ही उन्हें, पर जरा सा नाता तो रखें वे लोग. इस तरह बिसरा दिया है हमें जैसे हम जिंदा ही नहीं हैं.  शुभा भी दुखी सी लग रही है.   बातबात पर खीज उठती है. जानता हूं उसे बच्चों की याद आ रही है. किसी न किसी बहाने से उन का नाम ले रही है, खुल कर कुछ कहती नहीं है पर जानता हूं नरेनमहेन से मिलने को उस का मन छटपटा रहा है. दोनों ने एक बार फोन पर भी बात नहीं की. अपनी बड़ी मां से कुछ देर बतिया लेते तो क्या फर्क पड़ जाता.

‘‘कितना सफेद हो गया है इन दोनों का खून. विदेश जा कर क्या इंसान इतना पत्थर हो जाता है?’’

‘‘विदेश को दोष क्यों दे रही हो. मेरा अपना भाई तो देशी है न. क्या वह पत्थर नहीं है?’’

‘‘पत्थर नहीं, इसे कहते हैं प्रैक्टिकल होना. आज सब इतने ज्यादा मतलबी हो गए हैं कि हम जैसा भावुक इंसान बस ठगा सा रह जाता है. हम लोग प्रैक्टिकल नहीं हैं न इसीलिए बड़ी जल्दी बेवकूफ बन जाते हैं.’’

‘‘क्या करें हम? हमारा दिल यह कैसे भूल जाए कि रिश्तों के बिना मनुष्य कितना अपाहिज, कितना बेसहारा है. जहां दो हाथ काम आते हैं वहां रुपएपैसे काम नहीं आ सकते.’’

‘‘आप यह ज्ञान मुझे क्यों समझा रहे हैं? रिश्तों को निभाने में मैं ने कभी कोई कंजूसी नहीं की.’’

‘‘इसलिए कि अगर एक इंसान बेवकूफी करे तो जरूरी नहीं कि हम भी वही गलती करें. जीवन के कुछ पल इतने मूल्यवान होते हैं जो बस एक ही बार जीवन में आते हैं. उन्हें दोहराया नहीं जा सकता. गया पल चला जाता है…पीछे यादें रह जाती हैं, कड़वी या मीठी.

‘‘नरेनमहेन हमारे बच्चे हैं. हम यह क्यों न सोचें कि वे मासूम हैं, जिन्हें रिश्ता निभाना ही नहीं आया. हम तो समझदार हैं. उन का सुखी परिवार देखने की मेरी तीव्र इच्छा है जिसे मैं दबा नहीं पा रहा हूं. अजय का गुस्सा भी जायज है. मैं मानता हूं शुभा, पर तुम्हीं सोचो, हफ्ते भर में दोनों लौट भी जाएंगे. फिर मिलें न मिलें. कौन जाने हमारी जीवनयात्रा कब समाप्त हो जाए.’’

मेरा स्वर अचकचा सा गया. मैं दिल का मरीज हूं. आधे से ज्यादा हिस्सा काम ही नहीं कर रहा. कब धड़कना बंद कर दे क्या पता. मैं दोनों बच्चों से बहुत प्यार करता हूं. चाहता हूं उन की नईनई बसी गृहस्थी देख लूं. उन बच्चियों का क्या कुसूर. उन्हें मेरे बारे में क्या पता कि मैं कौन हूं. उन के ताऊताई उन से कितनाममत्व रखते हैं, उन्हें तभी पता चलेगा जब वे देखेंगी हमें और हमारा आशीर्वाद पाएंगी.

‘‘बस, मैं जाना चाहता हूं. वह मेरे भाई का घर है. वहीं रात काट कर सुबह वापस आ जाऊंगा. नहीं रहूंगा वहां अगर उस ने नहीं चाहा तो…फुजूल मानअपमान का सवाल मत उठाओ. मुझे जाने दो. इस उम्र में यह कैसा व्यर्थ का अहं.’’

‘‘रात में सोएंगे कहां. 3 बैडरूम का उन का घर है. 2 में बच्चे और 1 में देवरदेवरानी सो जाएंगे.’’

‘‘शादी में सब लोग नीचे जमीन पर गद्दे बिछा कर सोते हैं. जरूरी नहीं सब को बिस्तर मिलें ही. नीचे कालीन पर सो जाऊंगा. अपने घर में जब शादी थी तो सब कहां सोए थे. हम ने नीचे गद्दे बिछा कर सब को नहीं सुलाया था.’’

‘‘हमारे घर में कितने मेहमान थे. 30-40 लोग थे. वहां सिर्फ उन्हीं का परिवार है. वे नहीं चाहते वहां कोई जाए… तो क्यों जाएं हम वहां.’’

‘‘उन की चाहत से मुझे कुछ लेनादेना नहीं है. मेरी खुशी है, मैं जाना चाहता हूं, बस. अब कोई बहस नहीं.’’

चुप हो गई थी शुभा. फिर मांबेटे में पता नहीं क्या सुलह हुई कि सुबह तक फैसला मेरे हक में था. बैंगलूरु से पानीपत की दूरी लंबी तो है ही सो तत्काल में 2 सीटों का आरक्षण अजय ने करवा दिया.

जिस दिन रात का भोज था उसी दोपहर हम वहां पहुंच गए. नरेनमहेन को तो पहचान ही नहीं पाया मैं. दोनों बच्चे बड़े प्यारे और सुंदर लग रहे थे. चेहरे पर आत्मविश्वास था जो पहले कभी नजर नहीं आता था. बच्चे कमाने लगें तो रंगत में जमीनआसमान का अंतर आ ही जाता है. दोनों बहुएं भी बहुत अपनीअपनी सी लगीं मुझे, मानो पुरानी जानपहचान हो.

एक ही मंडप में दोनों बहनों को   ब्याह लाया था मेरा भाई. न कोई  नातेरिश्तेदार, न कोई धूमधाम. ‘‘भाईसाहब, मैं फुजूलखर्ची में जरा भी विश्वास नहीं करता. बरात में सिर्फ वही थे जो ज्यादा करीबी थे.’’

‘‘करीबी लोगों में क्या तुम हमें नहीं गिनते?’’

मेरा सवाल सीधा था. भाई जवाब नहीं दे पाया. क्योंकि इतना सीधा नहीं था न मेरे सवाल का जवाब. उस की पत्नी भी मेरा मुंह देखने लगी.

‘‘क्यों छोटी, क्या तुम भी हमारी गिनती ज्यादा करीबी रिश्तेदारों में नहीं करतीं? 6 साल बच्चे हमारे पास रहे. बीमार होते थे तो हम रातरात भर जागते थे. तब हम क्या दूर के रिश्तेदार थे? बच्चों की परीक्षा होती थी तो अजय की पत्नी अपनी नईनई गृहस्थी को अनदेखा कर अपने इन देवरों की सेवाटहल किया करती थी, वह भी क्या दूर की रिश्तेदार थी? वह बेचारी तो इन की शादी देखने की इच्छा ही संजोती रह गई और तुम ने कह दिया…’’

‘‘लेकिन मेरे बच्चे तो होस्टल में रहते थे. मैं ने कभी उन्हें आप पर बोझ नहीं बनने दिया.’’

‘‘अच्छा?’’

अवाक् रह गई शुभा अपनी देवरानी के शब्दों पर. भौचक्की सी. हिसाबकिताब तो बराबर ही था न उन के बहीखाते में. हमारे ममत्व और अनुराग का क्या मोल लगाते वे क्योंकि उस का तो कोई मोल था ही नहीं न उन की नजर में.  नरेनमहेन दोनों वहीं थे. हमारी बातें सुन कर सहसा अपने हाथ का काम छोड़ कर वे पास आ गए. ‘‘मैं ने कहा था न आप से…’’  नरेन ने टोका अपनी मां को. क्षण भर को सब थम गया. महेन ने दरवाजा बंद कर दिया था ताकि हमारी बातें बाहर न जाएं. नईनवेली दुलहनें सब न सुन पाएं.

‘‘कहा था न कि ताऊजीताईजी के बिना हम शादी नहीं करेंगे. हम ने सारे इंतजाम के लिए रुपए भी भेजे थे. लेकिन इन का एक ही जवाब था कि इन्हें तामझाम नहीं चाहिए. ऐसा भी क्या रूखापन. हमारा एक भी शौक आप लोगों ने पूरा नहीं किया. क्या करेंगे आप इतने रुपएपैसे का? गरीब से गरीब आदमी भी अपनी सामर्थ्य के अनुसार बच्चों के चाव पूरे करते हैं. हमारी शादी इस तरह से कर दी कि पड़ोसी तक नहीं जानता इस घर में 2-2 बच्चों का ब्याह हो गया है…सादगी भी हद में अच्छी लगती है. ऐसी भी क्या सादगी कि पता ही न चले शादी हो रही है या किसी का दाहसंस्कार…’’

‘‘बस करो, नरेन.’’

‘‘ताऊजी, आप नहीं जानते…हमें कितनी शर्म आ रही थी, आप लोगों से.’’

‘‘शर्म आ रही थी तभी लंदन जाते हुए भी बताया नहीं और आ कर एक फोन भी नहीं किया. क्या सारे काम अपने बाप से पूछ कर करते हो, जो हम से बात करना भी मुश्किल था? तुम्हारी मां कह रही हैं तुम होस्टल में रहते थे. क्या सचमुच तुम होस्टल में रहते थे? वह लड़की तुम्हारी क्या लगती थी जो दिनरात भैयाभैया करती तुम्हारी सेवा करती थी…भाभी है या दूर की रिश्तेदार…तुम्हारा खून भी उतना ही सफेद है बेटे, बाप को दोष क्यों दे रहे हो?’’  मैं इतना सब कहना नहीं चाहता था फिर भी कह गया.

‘‘चलो छोड़ो, हमारी अटैची अंदर रख दो. कल शाम की वापसी है हमारी. जरा बच्चियों को बुलाना. कम से कम उन से तो मिल लूं. ऐसा न हो कि वे भी हमें दूर के रिश्तेदार ही समझती रहें.’’

चारों चुप रह गए. चुप न रह जाते तो क्या करते, जिस अधिकार की डोर पकड़ कर मैं उन्हें सुना रहा था उसी अधिकार की ओट में पूरे 6 साल हमारे स्नेह का पूरापूरा लाभ इन लोगों ने उठाया था. सवाल यह नहीं है कि हम बच्चों पर खर्चा करते रहे. खर्चा ही मुद्दा होता तो आज खर्चा कर के मैं बैंगलूरु से पानीपत कभी नहीं आता और पुत्रवधुओं के लिए महंगे उपहार भी नहीं लाता.  छोटेछोटे सोने के टौप्स और साडि़यां उन की गोद में रख कर शुभा ने दोनों बहनों का माथा चूम लिया.

‘‘बेटा, क्या पहचानती हो, हम लोग कौन हैं?’’ चुप थीं वे दोनों. पराए खून को अपना बनाने के लिए बड़ी मेहनत करनी पड़ती है. इस नई पीढ़ी को अपना बनाने और समझाने की कोशिश में ही तो मैं इतनी दूर चला आया था.

‘‘हम नरेनमहेन के ताईजी और ताऊजी हैं. हम ने एक ही संतान को जन्म दिया है लेकिन सदा अपने को 3 बच्चों की मां समझा है. तुम्हारा एक ससुराल यहां पानीपत में है तो दूसरा बैंगलूरु में भी है. हम तुम्हारे अपने हैं, बेटा. एक सासससुर यहां हैं तो दूसरे वहां भी हैं.’’  दोनों प्यारी सी बच्चियां हमारे सामने झुक गईं, तब सहसा गले से लगा कर दोनों को चूम लिया हम ने. पता चला ये दोनों बहनें भी एमबीए हैं और अच्छी कंपनियों में काम कर रही हैं.

‘‘बेटे, जिस कुशलता से आप अपना औफिस संभालती हो उसी कुशलता से अपने रिश्तों को भी मानसम्मान देना. जीवन में एक संतुलन सदा बनाए रखना. रुपया कमाना अति आवश्यक है लेकिन अपनी खुशियों के लिए उसे खर्च ही न किया तो कमाने का क्या फायदा… रिश्तेदारी में छोटीमोटी रस्में तामझाम नहीं होतीं बल्कि सुख देती हैं. आज किस के पास इतना समय है जो किसी से मिला जाए. बच्चों के पास अपने लिए ही समय नहीं है. फिर भी जब समय मिले और उचित अवसर आए तो खुशी को जीना अवश्य चाहिए.

‘‘लंदन में दोनों भाई सदा पासपास रहना. सुखदुख में साथसाथ रहना. एकदूसरे का सहारा बनना. सदा खुश रहना, बेटा, यही मेरा आशीर्वाद है. रिश्तों को सहेज कर रखना, बहुत बड़ी नेमत है यह हमारे जीवन के लिए.’’

शुभा और मैं देर तक उन से बातें  करते रहे. उन पर अपना स्नेह, अपना प्यार लुटाते रहे. मुझे क्या लेना था अपने भाई या उस की पत्नी से जिन्हें जीवन को जीना ही नहीं आया. मरने के बाद लाखों छोड़ भी जाएंगे तो क्या होगा जबकि जीतेजी वे मात्र कंगाली ओढ़े रहे.  भोज के बाद बच्चों ने हमें अपने कमरों में सुलाया. नरेनमहेन की बहुओं के साथ हम ने अच्छा समय बिताया. दूसरी शाम हमारी वापसी थी. बहुएं हमें स्टेशन तक छोड़ने आईं. घुलमिल गई थीं हम से.

‘‘ताऊजी, हम लंदन जाने से पहले भाभी व भैया से मिलने जरूर आएंगे. आप हमारा इंतजार कीजिएगा.’’

बच्चों के आश्वासन पर मन भीगभीग गया. इस उम्र में मुझे अब और क्या चाहिए. इतना ही बहुत है कि कभीकभार एकदूसरे का हालचाल पूछ कर इंसान आपस में जुड़ा रहे. रोटी तो सब को अपने घर पर खानी है. पता नहीं शब्दों की जरा सी डोर से भी मनुष्य कटने क्यों लगता है आज. शब्द ही तो हैं, मिल पाओ या न मिल पाओ, आ पाओ या न आ पाओ लेकिन होंठों से कहो तो सही. आखिर, इतनी कंजूसी भी किसलिए?

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