Family Story : माटी का प्यार – सरहदों को तोड़ता मां-बेटी का रिश्ता

Family Story : फोन की घंटी की आवाज सुन कर मिथिला ने हाथ का काम छोड़ कर चोगा कान से लगाया.

‘मम्मा’ शब्द सुनते ही समझ गईं कि भूमि का फोन है. वह कुछ प्यार से, कुछ खीज से बोलीं, ‘‘हां, बता, अब और क्या चाहिए?’’

‘‘मम्मा, पहले हालचाल तो पूछ लिया करो, इतनी दूर से फोन कर रही हूं. आप की आवाज सुनने की इच्छा थी. आप घंटी की आवाज सुनते ही मेरे मन की बात समझ जाती हैं. कितनी अच्छी मम्मा हैं आप.’’

‘‘अब मक्खनबाजी छोड़, मतलब की बात बता.’’

‘‘मम्मा, ललित के यहां से थोड़ी मूंगफली मंगवा लेना,’’ कह कर भूमि ने फोन काट दिया.

मिथिला ने अपने माथे पर हाथ मारा. सामने होती तो कान खींच कर एक चपत जरूर लगा देतीं. यह लड़की फ्लाइट पकड़तेपकड़ते भी फरमाइश खत्म नहीं करेगी. फरमाइश करते समय भूल जाती है कि मां की उम्र क्या है. मां तो बस, अलादीन का चिराग है, जो चाहे मांग लो. भैयाभाभी दोनों नौकरी करते हैं. कोई और बाजार दौड़ नहीं सकता. अकेली मां कहांकहां दौडे़? गोकुल की गजक चाहिए, प्यारेलाल का सोहनहलवा, सिकंदराबाद की रेवड़ी, जवे, कचरी, कूटू का आटा, मूंग की बडि़यां, पापड़, कटहल का अचार और अब मूंगफली भी. कभी कहती, ‘मम्मा, आप बाजरे की खिचड़ी बनाती हैं गुड़ वाली?’

सुन कर उन की आंखें भर आतीं, ‘तू अभी तक स्वाद नहीं भूली?’

‘मम्मा, जिस दिन स्वाद भूल जाऊंगी अपनी मम्मा को और अपने देश को भूल जाऊंगी. ये यादें ही तो मेरा जीवन हैं,’ भूमि कहती.

‘ठीक है, ज्यादा भावुक न बन. अब आऊंगी तो बाजरागुड़ भी साथ लेती आऊंगी. वहीं खिचड़ी बना कर खिला दूंगी.’

और इस बार आधा किलोग्राम बाजरा भी मिथिला ने कूटछान कर पैक कर लिया है.

कई बार रेवड़ीगजक खाते समय भूमि खयालों में सामने आ खड़ी होती.

‘मम्मी, सबकुछ अकेलेअकेले ही खाओगी, मुझे नहीं खिलाओगी?’

‘हांहां, क्यों नहीं, ले पहले तू खा ले,’ और हाथ में पकड़ी गजक हाथ में ही रह जाती. खयालों से बाहर निकलतीं तो खुद को अकेला पातीं. झट भूमि को फोन मिलातीं.

‘भूमि, तू हमेशा मेरी यादों में रहती है और तेरी याद में मैं. बहुत हो चुका बेटी, अब अपने देश लौट आ. तेरी बूढ़ी मां कब तक तेरे पास आती रहेगी,’ कहतेकहते वह सुबक उठतीं.

‘मम्मा, आप जानती हैं कि मैं वहां नहीं आ सकती, फिर क्यों याद दिला कर अपने साथ मुझे भी दुखी करती हो.’

‘अच्छा बाबा, अब नहीं कहूंगी. ले, कान पकड़ती हूं. अब अपने आंसू पोंछ ले.’

‘मम्मा, आप को मेरी आंखें दिखाई दीं?’

‘बेटी के आंसू ही तो मां की आंखों में आते हैं. तेरी आवाज सब कह देती है.’

‘मम्मा, आंसू पोंछ लिए मैं ने, लेकिन इस बार जब तुम आओगी तो जाने नहीं दूंगी. यहीं मेरे पास रहना. बहुत रह लीं वहां.’

‘ठीक है, पर तेरे देश की सौगातें तुझे कैसे मिलेंगी?’

‘हां, यह तो सोचना पडे़गा. अब आप को तंग नहीं होना पडे़गा. हम भारत से आनलाइन खरीदारी करेंगे. थोड़ा महंगा जरूर पडे़गा पर कोई बात नहीं. आप की बेटी कमा किस के लिए रही है. पता है मम्मा, यहां एक इंडियन रेस्तरां है, करीब 150 किलोमीटर दूर. जिस दिन भारतीय खाना खाने का मन होता है वहीं चली जाती हूं और वहीं एक भारतीय शाप से महीने भर का सामान भी ले आती हूं.’

बेटी की बातें सुन कर मिथिला की आंखें छलछला आईं. उन्हें लगा कि बिटिया भारतीय व्यंजनों के लिए कितना तरसती है. पिज्जाबर्गर की संस्कृति में उसे आलू और मूली का परांठा याद आता है. काश, वह उस के पास रह पातीं और रोज अपने हाथ से बनाबना कर खिला पातीं.

5 साल हो गए यहां से गए हुए, लौट कर नहीं आई. वह ही 2 बार हो आई हैं और अब फिर जा रही हैं. भूमि के विदेश जाने में वह कहीं न कहीं स्वयं को अपराधी मानती हैं. यदि भूमि के विवाह को ले कर वह इतनी जल्दबाजी न करतीं तो ये सब न होता. भूमि ने दबे स्वर में कहा भी था कि मम्मा, थोड़ा सोचने का वक्त दो.

वह तब उबल पड़ी थीं कि तू सोचती रहना, वक्त हाथ से निकल जाएगा. सोचतेसोचते तेरे पापा चले गए. मैं भी चली जाऊंगी. अब नौकरी करते भी 2 साल निकल गए. रिश्ता खुद चल कर आया है. लड़का स्वयं साफ्टवेयर इंजीनियर है. तुम दोनों पढ़ाई में समान हो और परिवार भी ठीकठाक है, अब और क्या चाहिए?

उत्तर में मां की इच्छा के आगे भूमि ने हथियार डाल दिए क्योंकि  वह हमेशा यही कहती थीं कि तू ने किसी को पसंद कर रखा हो तो बता, हम वहीं बात चलाते हैं. भूमि बारबार यही कहती कि मम्मा, ऐसा कुछ भी नहीं है. आप जहां कहोगी चुपचाप शादी कर लूंगी.

भूमि ने मां की इच्छा को सिरआंखों पर रख, जो दरवाजा दिखाया उसी में प्रवेश कर गई, लेकिन विवाह को अभी 2 महीने भी ठीक से नहीं गुजरे थे कि भूमि पर नौकरी छोड़ कर घर बैठने का दबाव बनने लगा और जब भूमि ने नौकरी छोड़ने से इनकार कर दिया तो उस का चारित्रिक हनन कर मानसिक रूप से उसे प्रताडि़त करना शुरू कर दिया गया.

6 महीने मुश्किल से निकल पाए. भूमि ने बहुत कोशिश की शादी को बचाए रखने की, पर नहीं बचा सकी. इसी बीच कंपनी की ओर से उसे 6 माह के लिए टोरंटो (कनाडा) जाने का अवसर मिला. वह टोरंटो क्या गई बस, वहीं की हो कर रह गई और उस ने तलाक के पेपर हस्ताक्षर कर के भेज दिए.

‘मम्मा, अब कोई प्रयास मत करना,’ भूमि ने कहा था,  ‘इस मृत रिश्ते को व्यर्थ ढोने से उतार कर एक तरफ रख देना ज्यादा ठीक लगा. बहुत जगहंसाई हो ली. मैं यहां आराम से हूं. सारा दिन काम में व्यस्त रह कर रात को बिस्तर पर पड़ कर होश ही नहीं रहता. मैं ने सबकुछ एक दुस्वप्न की तरह भुला दिया है. आप भी भूल जाओ.’

कुछ नहीं कह पाईं बेटी से वह क्योंकि उस की मानसिक यंत्रणा की वह स्वयं गवाह रही थीं. सोचा कि थोडे़ दिन बाद घाव भर जाएंगे, फिर सबकुछ ठीक हो जाएगा. इसी उम्मीद को ले कर वह 2 बार भूमि के पास गईं. प्यार से समझाया भी, ‘सब मर्द एक से नहीं होते बेटी. अपनी पसंद का कोई यहीं देख ले. जीवन में एक साथी तो चाहिए ही, जिस से अपना सुखदुख बांटा जा सके. यहां विदेश में तू अकेली पड़ी है. मुझे हरदम तेरी चिंता लगी रहती है.’

‘मम्मा, अब मुझे इस रिश्ते से घृणा हो गई है. आप मुझ से इस बारे में कुछ न कहें.’

विचारों को झटक कर मिथिला ने घड़ी की ओर देखा. 6 बजने वाले हैं. कल की फ्लाइट है. पैकिंग थोड़ी देर बाद कर लेगी. घर को बाहर से ताला लगा और झट रिकशा पकड़ कर ललित की दुकान से 1 किलो मूंगफली, मूंगफली की गजक, गुड़धानी और गोलगप्पे का मसाला भी पैक करा लाईं.

बहू और विनय के आने में अभी 1 घंटा बाकी है. तब तक रसोई में जा सब्जी काट कर और आटा गूंध कर रख दिया. थकान होने लगी. मन हुआ पहले 1 कप चाय बना कर पी लें, फिर ध्यान आया कि विनय और बहू ये सामान देखेंगे तो हंसेंगे. पहले उस सामान को बैग में सब से नीचे रख लें. चाय उन दोनों के साथ पी लेंगी.

बहूबेटे खा पी कर सो गए. उन की आंखों से नींद कोसों दूर थी. वह बेटी के लिए ले जाने वाले सामान को रखने लगीं. ज्यादातर सामान उन्होंने किलो, आधा किलो के पारदर्शी प्लास्टिक बैगों में पैक कराए हैं ताकि कस्टम में परेशानी न हो और वह आराम से सामान चैक करा सकें. भूमि के लिए कुछ ड्रेस और आर्टी- फिशियल ज्वैलरी भी खरीदी थी. उसे बड़ा शौक है.

सारा सामान 2 बैगों में आया. अपना सूटकेस अलग. मन में संकोच हुआ कि विनय और बहू क्या कहेंगे? इतना सारा सामान कैसे जाएगा. जब से आतंक- वादियों ने धमकी दी है चैकिंग भी सख्त हो गई है. भूमि ने तो कह दिया है कि मम्मा, चिंता न करना. अतिरिक्त भार का पेमेंट कर देना. और यदि खोल कर देखा तो…?

उन की इस सोच को अचानक ब्रेक लगा जब विनय ने पूछा, ‘‘मम्मा, आप की पैकिंग पूरी है, कुछ छूटा तो नहीं, वीजा, टिकट और फौरेन करेंसी सहेज कर रख ली?’’

संकोचवश नीची निगाह किए उन्होंने हां में गरदन हिलाई.

अगले दिन गाड़ी में सामान रख सब शाम 5 बजे ही एअरपोर्ट की ओर चल पड़े. रात 8 बजे की फ्लाइट है. डेढ़ घंटा एअरपोर्ट पहुंचने में ही लग जाएगा. फिर काफी समय सामान की चैकिंग और औपचारिकताएं पूरी करने में निकल जाता है. मिथिला रास्ते भर दुआ करती रहीं कि उन के सामान की गहन तलाशी न हो.

लेकिन सोचने के अनुसार सबकुछ कहां होता है. वही हुआ जिस का मिथिला को डर था. बैग खोले गए और रेवड़ी, गजक व दलिए के पैकेट देख कर कस्टम अधिकारी ने पूछा,  ‘‘मैडम, यह सब क्या है?’’

अचानक मिथिला के मुंह से निकला, ‘‘ये जो आप देख रहे हैं, इस देश का प्यार है, यादें हैं, सौगातें हैं. कोई इन के बिना विदेश में कैसे जी सकता है. मेरी बेटी 5 साल में भी इन का स्वाद नहीं भूली है. यदि मेरे सामान का वजन ज्यादा है तो आप कस्टम ड्यूटी ले सकते हैं.’’

मिथिला का उत्तर सुन कर कस्टम अधिकारी ने आंखों से इशारा किया और वह अपने बैगों को ले कर बाहर निकलने लगीं. तभी मन में विचार कौंधा कि कस्टम अधिकारी भी मेरी बेटी की तरह अपने देश को प्यार करता है, तभी मुझे यों जाने दिया.

हालांकि न तो भार अधिक था और न उन के पास ऐसा कोई आपत्तिजनक सामान था जिस पर कस्टम अधिकारी को एतराज होता. उन्होंने स्वयं सारा सामान माप के अनुसार पैक किया था. बैग खोल कर एक रेवड़ी का पैकेट निकाला और दरवाजे से ही अंदर मुड़ीं. बोलीं, ‘‘सर, एक मां का प्यार आप के लिए भी. इनकार मत करिएगा,’’ कहते हुए पैकेट कस्टम अधिकारी की ओर बढ़ाया.

‘‘थैंक्यू, मैडम,’’ कह कर अधिकारी ने पैकेट पकड़ा, आंखों से लगाया और चूम लिया. मिथिला मुसकरा पड़ीं.

Hindi Kahani : बहादुर लड़की बनी मिसाल

Hindi Kahani : आदिवासियों के जीने का एकमात्र साधन और बेहद खूबसूरत वादियों वाले हरेभरे पहाड़ी जंगलों को स्थानीय और बाहरी नक्सलियों ने छीन कर अपना अड्डा बना लिया था. उन्हें अपने ही गांवघर, जमीन से बेदखल कर दिया था. यहां के जंगलों में अनेक जड़ीबूटियां मिलती हैं. जंगल कीमती पेड़पौधों से भरे हुए हैं.

3 राज्यों से हो कर गुजरने वाला यह पहाड़ी जंगल आगे जा कर एक चौथे राज्य में दाखिल हो जाता था. जंगल के ऊंचेनीचे पठारी रास्तों से वे बेधड़क एक राज्य से दूसरे राज्य में चले जाते थे.

दूसरे राज्यों से भाग कर आए नक्सली चोरीचुपके यहां के पहाड़ी जंगलों में पनाह लेते और अपराध कर के दूसरे राज्यों के जंगल में घुस जाते थे.

कोई उन के खिलाफ मुंह खोलता तो उसे हमेशा के लिए मौत की नींद सुला देते. यहां वे अपनी सरकारें चलाते थे. गांव वाले उन के डर से सांझ होने से पहले ही घरों में दुबक जाते. उन्हें जिस से बदला लेना होता था, उस के घर के बाहर पोस्टर चिपका देते और मुखबिरी का आरोप लगा कर हत्या कर देते थे.

नक्सलियों के डर से गांव वाले अपना घरद्वार, खेतखलिहान छोड़ कर शहरों में रहने वाले अपने रिश्तेदारों के यहां चले गए थे.

डुमरिया एक ऐसा ही गांव था, जो चारों ओर से पहाड़ों से घिरा हुआ था. पहाड़ी जंगल के कच्चे रास्ते को पार कर के ही यहां आया जा सकता था. यहां एक विशाल मैदान था. कभी यहां फुटबाल टूर्नामैंट भी होता था जो अब नक्सलियों के कब्जे में था. एक उच्च माध्यमिक स्कूल भी था जहां ढेर सारे लड़केलड़कियां पढ़ते थे.

पिछले दिनों नक्सलियों ने अपने दस्ते में नए रंगरूटों को भरती करने के लिए जबरदस्ती स्कूल पर हमला कर दिया और अपने मनपसंद स्कूली बच्चों को उठा ले गए. गांव वाले रोनेपीटने के सिवा कुछ न कर सके.

नक्सली उन बच्चों की आंखों पर पट्टी बांध कर ले गए थे. बच्चे उन्हें छोड़ देने के लिए रोतेचिल्लाते रहे, दया की भीख मांगते रहे, लेकिन उन्हें उन मासूमों पर दया नहीं आई. जंगल में ले जा कर उन्हें अलगअलग दस्तों में गुलामों की तरह बांट दिया गया. सभी लड़केलड़कियां अपनेअपने संगीसाथियों से बिछुड़ गए.

अगवा की गई एक छात्रा सालबनी को संजय पाहन नाम के नक्सली ने अपने पास रख लिया. वह रोरो कर उस दरिंदे से छोड़ देने की गुहार करती रही, लेकिन उस का दिल नहीं पसीजा. पहले तो सालबनी को उस ने बहलाफुसला कर मनाने की कोशिश की, लेकिन सालबनी ने अपने घर जाने की रट लगाए रखी तो उस ने उसे खूब मारा. बाद में सालबनी को एक कोने में बिठाए रखा.

सोने से पहले उन के बीच खुसुरफुसुर हो रही थी. वे लोग अगवा किए गए बच्चों की बात कर

रहे थे.

एक नक्सली कह रहा था, ‘‘पुलिस हमारे पीछे पड़ गई है.’’

‘‘तो ठीक है, इस बार हम सारा हिसाबकिताब बराबर कर लेते हैं,’’ दूसरा नक्सली कह रहा था.

‘‘पूरे रास्ते में बारूदी सुरंग बिछा दी जाएंगी. उन के साथ जितने भी जवान होंगे, सभी मारे जाएंगे और अपना बदला भी पूरा हो जाएगा.’’

इस गुप्त योजना पर नक्सलियों की सहमति हो गई.

सालबनी आंखें बंद किए ऐसे बैठी थी जैसे उन की बातों पर उस का ध्यान नहीं है लेकिन वह उन की बातों को गौर से सुन रही थी. फिर बैठेबैठे वह न जाने कब सो गई. सुबह जब उस की नींद खुली तो देखा कि संजय पाहन उस के बगल में सो रहा था. वह हड़बड़ा कर उठ गई.

तब तक संजय पाहन की भी नींद खुल गई. उस ने हंसते हुए सालबनी को अपनी बांहों में जकड़ना चाहा. उस के पीले दांत भद्दे लग रहे थे जिन्हें देख कर सालबनी अंदर तक कांप गई.

सुबह संजय पाहन ने सालबनी से जल्दी खाना बनाने को कहा. खाना खाने के बाद वे लोग तैयार हो कर निकल गए. सालबनी भी उन के साथ थी.

उस दिन जंगल में घुसने वाले मुख्य रास्ते पर बारूदी सुरंग बिछा कर वे लोग अपने अड्डे पर लौट आए.

मौत के सौदागरों का खतरनाक खेल देख कर सालबनी की रूह कांप गई. उस ने मन ही मन ठान लिया कि चाहे जो हो जाए, वह इन्हें छोड़ेगी नहीं. वह मौका तलाशने लगी.

खाना बनाने का काम सालबनी का था. रात के समय वह खाना बनाने के साथ ही साथ भागने का जुगाड़ भी बिठा रही थी. खाना खा कर जब सभी सोने की तैयारी करने लगे तो उन के सामने सवाल खड़ा हो गया कि आज रात सालबनी किस के साथ सोएगी. संजय पाहन ने सब से पहले सालबनी का हाथ पकड़ लिया.

‘‘इस लड़की को मैं लाया हूं, इसे मैं ही अपने साथ रखूंगा.’’

‘‘क्या यह तुम्हारी जोरू है, जो रोज रात को तुम्हारे साथ ही सोएगी? आज की रात यह मेरे साथ रहेगी,’’ दूसरा बोला और इतना कह कर वह सालबनी का हाथ पकड़ कर अपने साथ ले जाने लगा.

संजय पाहन ने फुरती से सालबनी का हाथ उस से छुड़ा लिया. इस के बाद सभी नक्सली सालबनी को अपने साथ सुलाने को ले कर आपस में ही एकदूसरे पर पिल पड़े, वे मरनेमारने पर उतारू हो गए.

इसी बीच मौका देख कर सालबनी अंधेरे का फायदा उठा कर भाग निकली.

वह पूरी रात तेज रफ्तार से भागती रही. भौर का उजाला फैलने लगा था. दम साधने के लिए वह एक ऊंचे

टीले की ओट में छिप कर खड़ी हो गई और आसपास के हालात का जायजा लेने लगी.

सालबनी को जल्दी ही यह महसूस हो गया कि वह जहां खड़ी है, उस का गांव अब वहां से महज 2-3 किलोमीटर की दूरी पर रह गया है. मारे खुशी के उस की आंखों में आंसू आ गए.

सालबनी डर भी रही थी कि अगर गांव में गई तो कोई फिर से उस की मुखबिरी कर के पकड़वा देगा. वह समझदार और तेजतर्रार थी. पूछतेपाछते सीधे सुंदरपुर थाने पहुंच गई.

जैसे ही सालबनी थाने पहुंची, रातभर भागते रहने के चलते थक कर चूर हो गई और बेहोश हो कर गिर पड़ी.

सुंदरपुर थाने के प्रभारी बहुत ही नेक पुलिस अफसर थे. यहां के नक्सलियों का जायजा लेने के लिए कुछ दिन पहले ही वे यहां ट्रांसफर हुए थे. उन्होंने उस अनजान लड़की को थाने में घुसते देख लिया था. पानी मंगा कर मुंह पर छींटे मारे. वे उसे होश में लाने की कोशिश करने लगे.

सालबनी को जैसे ही होश आया, पहले पानी पिलाया. वह थोड़ा ठीक हुई, फिर एक ही सांस में सारी बात बता दी.

थाना प्रभारी यह सुन कर सकते में आ गए. उन्हें इस बात की गुप्त जानकारी अपने बड़े अफसरों से मिली थी कि डुमरिया स्कूल के अगवा किए गए छात्रछात्राओं का पता लगाने के लिए गांव से सटे पहाड़ी जंगलों में आज रात 10 बजे से पुलिस आपरेशन होने वाला है. लेकिन पुलिस को मारने के लिए नक्सलियों ने बारूदी सुरंग बिछाई है, यह जानकारी नहीं थी.

उन्होंने सालबनी से थोड़ा सख्त लहजे में पूछा, ‘‘सचसच बताओ लड़की, तुम कोई साजिश तो नहीं

कर रही, नहीं तो मैं तुम्हें जेल में बंद

कर दूंगा?’’

‘‘आप मेरे साथ चलिए, उन लोगों

ने कहांकहां पर क्याक्या किया है, वह सब मैं आप को दिखा दूंगी,’’ सालबनी ने कहा.

थाना प्रभारी ने तुरंत ही अपने से बड़े अफसरों को फोन लगाया. मामला गंभीर था. देखते ही देखते पूरी फौज सुंदरपुर थाने में जमा हो गई. बारूदी सुरंग नाकाम करने वाले लोग भी आ गए थे.

सालबनी ने वह जगह दिखा दी, जहां बारूदी सुरंग बिछाई गई थी. सब से पहले उसे डिफ्यूज किया गया.

सालबनी ने नक्सलियों का गुप्त ठिकाना भी दिखा दिया. वहां पर पुलिस ने रेड डाली, पर इस से पहले ही नक्सली वहां से फरार हो गए थे. वहां से अगवा किए गए छात्रछात्राएं तो नहीं मिले, मगर उन के असलहे, तार, हथियार और नक्सली साहित्य की किताबें जरूर बरामद हुईं.

इस तरह सालबनी की बहादुरी और समझदारी से एक बहुत बड़ा हादसा होतेहोते टल गया.

Story : राजन भैया – आखिर राजन को किस बात का पछतावा हुआ

Story : शीबा आज भैया के व्यवहार में काफी बदलाव महसूस कर रही थी. फिर भी वह यह बात अपने मन में बारबार दोहरा रही थी कि नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. वह पिछले 4 वर्षों से राजन भैया के साथ एक ही छत के नीचे रहती आई है. राजन एक आदर्श एवं गरिमामय व्यक्तित्व वाला शख्स है. फिर शीबा दिमाग में चल रहे द्वंद्व को  झटक उस खुशनुमा माहौल को याद करने लगी. राजन ने कहा था, ‘‘मां राह देख रही होगीं. रात के 11 बज रहे हैं. चलो घर चलते हैं.’’

शीबा भैया के पीछे हो ली थी. शीबा के साथी उसे छोड़ने गेट तक आए. राजन स्टैंड से अपनी बाइक लेने चला गया. जब तक राजन आता शीबा के साथी उस की जीत की खुशी में बधाई देते रहे. राजन के आते ही शीबा बाइक पर भैया के पीछे बैठ गई. फिर जातेजाते अपने साथियों को देख हाथ हिलाती रही.

फिर शीबा प्रतियोगिता से जुड़ी बातों में खो गई. उसे याद आया कि प्रतियोगिता में भाग लेने आईं बहुत सी लड़कियां तो उसे देख बगलें  झांकने लगी थीं. फिर प्रतियोगिता की घोषणा के बाद तो वह अपनी धड़कनों पर काबू नहीं रख पा रही थी. वह सीधे मेकअप रूम की तरफ भागी थी और आईने में खुद को निहारती रह गई थी.

एक गर्वीली मुसकान उस के चेहरे पर अनायास ही आ गई थी. वह मिस यूनिवर्सिटी चुनी गई थी. उस ने पहन रखा था एक कंपनी द्वारा उपहार में मिला लिबास एवं सलीके से बनाया गया अमेरिकन डायमंड जड़ा ताज.

वह आईना देख कर खुद पर ही मुग्ध हुई जा रही थी. अब मां उसे देख कर क्या कहेंगी, वह यह सुनना चाहती थी, इसीलिए वह उसी लिबास में घर की ओर चल पड़ी थी.

शीबा ने अपने सिर पर रखा ताज छू कर देखा तो बाइक कुछ डगमगा गई. वह

राजन से थोड़ी टकराई तो संभल कर बैठ गई.

थोड़ी देर बाद वह एक बार फिर आयोजन के खयालों में खो गई. आयोजन एक मशहूर गारमैंट कंपनी द्वारा करवाया गया था. शीबा वहां का ताम झाम देख कर डर गई थी. वह अनायास ही मुड़ कर भागी थी तो राजन से टकरा गई थी. राजन ने पूछा था, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘नहीं भैया, मु झ से नहीं होगा. मैं प्रतियोगिता में भाग नहीं लूंगी.’’

राजन ने कहा था, ‘‘अरी पगली, इस में घबराना कैसा? कहीं वक्त पर तुम पीछे मुड़ कर न भागो यही सोच कर मैं ने तुम्हें प्रोफैशनल मौडल के पास भेज कर ट्रेनिंग दिलाई थी. तुम अच्छी तरह जानती हो कि किस चरण में कैसा हावभाव व चालढाल होगी.’’

राजन शीबा को सम झा कर अंदर ले आया. हौल का दृश्य तो और उत्साहवर्धक था. मंच और दर्शक दीर्घा के बीच कुछ फासला रखा गया था, जिस में आगे की 2 कतारें निर्णायकों, कंपनी के मुख्य अधिकारियों और शहर के प्रतिष्ठित व्यक्तियों के लिए थीं. प्रैस वालों के लिए मंच के करीब खास इंतजाम रखा गया था ताकि अच्छाखासा कवरेज मिले. हौल में काफी भीड़ थी. दर्शकों के बीच बैठे थे शीबा के सहपाठी. वे शीबा को देख कर उत्साहित हो गए थे.

शीबा को मेकअप रूम में छोड़ राजन दर्शकों के बीच जा बैठा था. मेकअप रूम में कुछ युवतियां मेकअप करा रही थीं, तो कुछ बैठ कर आयोजकों द्वारा पूछे जाने वाले संभावित प्रश्नों के उपयुक्त जवाबों के विषय में चर्चा कर रही थीं. शीबा ने महसूस किया उन की बातों में दम नहीं है. अपनेआप से इन युवतियों की तुलना करती शीबा अब आत्मविश्वास से भर गई थी.

आयोजन स्थल से 25 कि.मी. दूरी पर शहर के कोने में है राजन का घर, जिस में शीबा और उस की मां पिछले 4 वर्षों से रह रही हैं. शीबा के पिता की मृत्यु के बाद उन के परिवार के लोगों ने शीबा और उस की मां से पीछा छुड़ा लिया था. तब बेसहारा शीबा और उस की मां अपना घर छोड़ राजन के घर आ गई थीं.

 

राजन जब छोटा था. उस के मातापिता की मृत्यु हो गई थी. राजन का

पालनपोषण उस की दादी ने किया था. बूढ़ी दादी से घर का काम नहीं संभलता था इसलिए शीबा की मां ने राजन और उस की दादी की सेवा एवं घर का सारा काम संभाल लिया था. बदले में उन्हें रहने के लिए कमरा मिला था और काम के लिए जो तनख्वाह मिलती थी वह मांबेटी के जीवन निर्वाह के लिए काफी थी. राजन की दादी की मृत्यु के बाद शीबा की मां ही राजन का सहारा बनीं, तो राजन, शीबा और उस की मां का एक परिवार जैसा बन गया था.

शीबा उन दिनों 13 वर्ष की थी. लेकिन वह बहुत दुबलीपतली थी. इसलिए राजन उसे बंदरिया कह कर पुकारा करता था. याद आते ही शीबा

हंस पड़ी. फिर उस को चुहल सू झा तो राजन के कानों के पास मुंह ला कर धीरे से बोली, ‘‘भैया, मैं जीत गई.’’

राजन ने अचानक ब्रेक मारा तो शीबा उस से तेजी से टकराई. राजन ने कुछ कहा तो नहीं, हां सीट का काफी हिस्सा इस बार घेर कर बैठ गया. शीबा बची थोड़ी सी जगह पर सिमट कर बैठ गई.

शीबा फिर अपने खयालों में खो गई. बाइक की रफ्तार से भी तेज शीबा का दिमाग चल रहा था. शीबा को उम्मीद थी कि हमेशा की तरह भैया उस की हंसी उड़ा देंगे या जीत का श्रेय खुद लेते हुए कौलर उठा कर हंस पड़ेंगे, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. शीबा ने घड़ी देखी, रात के 12 बज चुके थे. सड़क दूरदूर तक वीरान थी. बाइक बारबार डगमगा जाती, शीबा बारबार भैया से टकरा जाती. ऐसा आज पहली बार हो रहा था. साफसुथरी नई बनी सड़क, उस पर आखिर भैया गाड़ी इस तरह क्यों चला रहे हैं? राजन शीबा के लिए सीट में काफी जगह छोड़ कर बैठा करता था. पर आज…

राजन को याद आया, प्रदर्शन के समय सर्चलाइट की रोशनी जब शीबा पर ला कर फ्रीज की गई थी तब शीबा मुसकरा रही थी. उस के मोतियों जैसे सफेद दांत, पतले अधखुले गुलाबी होंठ और आंखों में चमक थी. उस ने टाइट स्लैक्स व टौप पहना हुआ था. उस पर ढीला निटेड गाउन था. सारे अंग ढके होने के बावजूद शारीरिक बनावट स्पष्ट रूप से  झलक रही थी. उस का ढीलाढाला गाउन बेफिक्री दर्शा रहा था तो टाइट स्लैक्स और टौप ग्लैमर.

राजन ने बाइक का बैक ग्लास इस तरह सैट किया था कि शीबा उसे स्पष्ट नजर आ रही थी. शीबा की नजर उस पर पड़ी तो उस ने देखा कि राजन उसे टकटकी बांधे देख रहा था. शीबा की नजर ग्लास पर देख राजन ने नजरें घुमा लीं. उस की इस हरकत से शीबा को डर लगा.

उस समय शहर में सन्नाटा सा छा गया था. राजन की बाइक के बगल से इक्कादुक्का औटो या टैक्सी यदाकदा गुजर जाते थे. कहींकहीं कुछ कुत्ते भौंक रहे थे. उन की आवाज दूरदूर तक पहुंच कर वातावरण को डरावना बना रही थी. शीबा को याद आया कि प्रतियोगिता से लौटते

हुए अभी तक भैया ने उस से एक भी शब्द नहीं कहा है.

राजन सोच रहा था कि शीबा इतनी खूबसूरत है तो मेरी आंखें पहले क्यों न देख पाईं? शीबा और उस की मां को आश्रय देने की वजह से पड़ोसी जब उसे शक भरी निगाहों से देखते, दोस्त उस पर हंसते और उस पर पगला और सिरफिरा होने का आरोप लगाते तो उस के अंदर का मानव और जिद्दी हो जाता. शीबा को बहन स्वीकारने की इच्छा और बलवती हो जाती. अकसर मां की आंखों में उपजने वाली दुविधा राजन सहन न कर पाता. तब उस की आंखें उन को आश्वासन दिया करतीं. सिर्फ इतना ही नहीं दुनिया में फैली बुराइयों से लड़ने को उस के बाजू फड़क उठते.

 

पर आज यह सौंदर्य प्रतियोगिता का जादू है या रात की वीरानगी का? राजन, राजन न रहा.

वह उसे पागल कहने वाले दोस्तों में से एक बन गया. इतने दिनों से समेटा बल कहां गया? राजन के अंदर कुछ तड़क गया. कितनी मारक शक्ति है कामवासना में कि निर्जन शहर अपराध के लिए सुरक्षित महसूस होने लगा.

राजन के दिलोदिमाग में जैसे तूफान उठने लगा. शीबाशीबा हर ज्वारभाटे के साथ के साथ शीबा. राजन के लिए मानों अब शीबा, शीबा न रही. फैशन शो में वक्ष उघाड़ कर चलने वाली नागिन बन गई. क्या मालूम कौन सा पल उसे डस ले. फिर वह रात और उस का एकांत उसे डरावना सा लगने लगा. एकांत से डर कर ही तो राजन ने शीबा और उस की मां को शरण दी थी. मां और बहन? हांहां… राजन के अंदर जैसे कोई अट्टहास करने लगा. भरी जवानी और मांबहन का साथ.

राजन ने चारों ओर नजरें घुमा कर देखा. दूर रिकशा वाले स्ट्रीट लाइट के नीचे बैठ कर ताश खेल रहे थे. राजन के अंदर का राक्षस तो हर उठती गिरती सांस के साथ विकराल रूप धारण करता जा रहा था. वह उस का विवेक निगलता जा रहा था.

राजन अकसर मां और बहन से छिप कर रंगीन पत्रिकाओं के पन्ने पलटा करता था. चिकनी नंगी टांगें और आकर्षक देह, सब कुछ तो है शीबा के पास. शीबा से मेरा खून का रिश्ता तो है नहीं. राजन के अंदर कुछ उफनने लगा. शरीर का सारा लहू निर्धारित दिशा की ओर प्रवाहित होने लगा.

 

राजन ने अपनेआप को संभालने के उद्देश्य से चारों ओर देखा. दूरदूर तक फैला

सन्नाटा, सड़क के दोनों ओर नींद के आगोश में ऊंची इमारतें और ठंडी हवा के  झोंके. बाइक के शीशे में राजन ने अपना चेहरा देखा. यह राजन नहीं कोई और था. शीशे में शीबा की हवा में उड़ती जुल्फें ऐसी दिख पड़ीं जैसे किसी नदी में बाढ़ आई हो. उस वेग में एक भाई, एक मुंहबोला बेटा, एक सहृदयी इंसान बहा जा रहा था.

फिल्मों में देखे प्रणय सीन, रंगीन पत्रिकाओं में देखे और पढ़े और दोस्तों द्वारा बताए गए अनुभवों से राजन के अंदर कुछ पा जाने की इच्छा बलवती होती जा रही थी.

राजन जैसे बाइक पर नहीं पशु जैसा पैरों पर चल रहा था. दबे पांव शिकार पर उछल कर दबोच लेने की चाह वाला. उस के मुंह से लार टपकने लगी. आंखों में खूंख्वार इरादे भाई राजन और इस राजन में जमीनआसमान का फर्क दिखा रहे थे. राजन ने निर्णय ले लिया कि शीबा पर मेरा अधिकार है. मैं मांबेटी को सहारा न देता तो अब तक ये इस महानगर में मिट चुकी होतीं. राजन जितना हो सका उतना शीबा से सट कर बैठ गया. उस के अंदर एक योजना काम करने लगी तो उस ने रास्ता बदल लिया.

शीबा ने महसूस किया कि यह रास्ता हमारे घर को नहीं जाता तो वह बहुत डर गई. मन ही मन खुद को कोसने लगी कि आखिर मैं ने इस प्रतियोगिता में भाग ही क्यों लिया? बाइक हवा से बातें कर रही थी. शीबा को कुछ नहीं सू झ रहा था.

शीबा ने आंखें मूंद कर सीट के पीछे की स्टील रौड को कस कर पकड़ लिया ताकि भैया से वह न टकराए. राजन आपा खो चुका था. गाड़ी की रफ्तार और तेज हो गई थी. राजन के दिल की धड़कनें राजन पर ही नहीं सारे माहौल पर हावी हो गई थीं. तेज रफ्तार से चलती बाइक आउट औफ कंट्रोल हो गई तो राजन सड़क पर गिर पड़ा और शीबा उछल गई.

फुटपाथ पर दिन में प्लास्टिक के सामान फैला कर बेचने वाला व्यापारी रात को सारे सामान समेट गठरी बांध उस गठरी के पास ही

सो रहा था. शीबा उस गठरी पर ही जा गिरी. व्यापारी घबरा कर उठ बैठा. राजन सड़क पर औंधा पड़ा हुआ था. बाइक के पीछे का चक्का अभी भी चल रहा था. शीबा को चोट नहीं लगी तो वह खड़ी हो गई.

व्यापारी सारी बातें सम झ, भाग कर गाड़ी बंद कर राजन की ओर लपका. राजन के सिर से खून रिस रहा था और वह बेहोश था. शीबा राजन को इस हाल में देख रो पड़ी और सहायता के लिए गुहार लगाने लगी. व्यापारी ने शीबा को पानी की बोतल ला कर दी. शीबा ने भैया का चेहरा धोया और अपना गाउन फाड़ उस की चोट पर पट्टी बांधी. व्यापारी टैक्सी बुला लाया. शीबा ने बाइक व्यापारी के हवाले कर, भैया को टैक्सी वाले और व्यापारी की सहायता से टैक्सी में लिटाया, ड्राइवर को घर का पता बताया और भैया के पास बैठ गई.

ठंडी हवा के  झोंकों से राजन को होश आ गया तो वह उठ कर बैठ गया. शीबा ने उसे पानी पिलाया, लेकिन वह अभी भी रो रही थी. राजन को अपने अंदर जागा जानवर याद आया तो वह पश्चात्ताप से भर गया पर शीबा को चुप कराने या आश्वस्त करने का साहस न जुटा पाया.

हालांकि रोती हुई शीबा राजन को फिर बच्ची सी नजर आ रही थी फिर भी उस के और शीबा के बीच थोड़ी देर मौन पसरा रहा. राजन ने शीबा की ओर ध्यान से देखा. शीबा के सिर पर ताज न था, उस का गाउन फटा हुआ था और केश बिखर गए थे.

दरअसल, शीबा जब गिरी थी तब उस का ताज टूट गया था. उस का गाउन फटा हुआ इसलिए था, क्योंकि उस ने गाउन फाड़ कर भैया को पट्टी जो बांधी थी. राजन के मन में शीबा के लिए फिर से वात्सल्य जाग उठा. उस ने मन ही मन कसम खाई कि आज के बाद ऐसा कभी नहीं होगा. शीबा मेरी बहन है और इस जन्म में बहन ही रहेगी.

राजन में असीम साहस का संचार हो गया. उस ने शीबा के सिर पर हाथ फेर कर पूछा, ‘‘शीबा, तुम्हारा ताज कहां है और तुम ने अपना गाउन क्यों फाड़ा?’’

शीबा ने उसे कुछ नहीं बताया. उस ने सिर्फ यही कहा, ‘‘भैया आप स्वस्थ हैं, इस से ज्यादा मुझे कुछ नहीं चाहिए.’’

Short Story : तीसरे दर्जे के दोस्तों के हितार्थ

Short Story : मेरी बात से आप भले ही सहमत हों या न हों, पर इस बात से तो सौ फीसदी सहमत होंगे कि पहली श्रेणी के दोस्तों का मिलना आज की तारीख में वैसे ही कठिन है जैसे आप शताब्दी की करंट बुकिंग के लिए 5 बजे भी सीट मिलने की उम्मीद में बदहवास दौड़ते रहते हैं, जबकि ट्रेन छूटने का वक्त सवा 5 बजे का है.

पर हां, दूसरे दर्जे के दोस्त जरूर मिल जाते हैं. ये कुछ ऐसेवैसे दोस्त होते हैं जो अच्छा न करें तो बुरा भी नहीं करते. जब इन के दिमाग में बुरा करने का खयाल आए तो ये उस जैसे दोस्त को फटकारते दिमाग से बाहर कर ही देते हैं. इन दूसरे दर्जे के दोस्तों की सब से बड़ी खासीयत यही होती है कि ये कम से कम अच्छा न कर सकें तो बुरा भी नहीं करते. जो उन्हें लगे कि दोस्त का कुछ बुरा करने के लिए उन का मन ललचा रहा है तो वे मन के ललचाने के बाद भी जैसेतैसे अपने बेकाबू मन पर काबू पा ही लेते हैं.

पर ये तीसरे दर्जे के दोस्त जब तक दोस्त को नीचा न दिखा लें, तब तक इन को चैन नहीं मिलता.

वैसे तो मेरे आप की तरह कहने को बहुत से दोस्त हैं, पर मेरे परम आदरणीय भाईसाहब रामजी लाल मेरे खास दोस्त हैं. बेकायदे से भी जो उन का दर्जा तय करूं तो वे मेरे तीसरे दर्जे के दोस्त हैं. हैं तो वे इस से भी नीचे के दोस्त, पर इस से नीचे जो मैं उन का दर्जा निर्धारित करूं तो यह मुझ पर सितम और उन पर करम करने जैसा होगा.

अगर मैं तीसरे दर्जे में यात्रा न भी करना चाहूं तो भी वे असूहलियतों का पूरा ध्यान रख मेरी तीसरे दर्जे की यात्रा का टिकट हवा में लहराते आगे नाचने का हर मौका तलाशते रहेंगे और मौका मिलते ही मु?ो फुटपाथ पर बैठा कर हवा हो लेंगे. सच कहूं तो हैं तो वे मेरे दोस्त, पर जो सुबहसुबह वे दिख जाएं तो सारा दिन मन यों रहता है कि मानो मन में नीम घुल गया हो.

मेरे इन परम आदरणीय मित्रों में नीचता इस कदर कूटकूट कर भरी है कि वे अपने कद को ऊंचा दिखाने के चक्कर में अपने बाप तक को भी नीचा दिखाने से न चूकें, उन के अहंकार को देख मैं ऐसा मानता हूं. अपने को बनाए रखने के लिए वे बाप की पगड़ी से भी हंसते हुए जाएं. उन का बस चले तो मोमबत्ती को हाथ में ले कर सूरज के आगे चौड़े हो अड़ जाएं.

असल में इस दर्जे के दोस्तों में हीनता का बोध इस कदर भरा होता है कि ये बेचारे अपने थूक को ऊंचाई देने के लिए चांद पर भी थूकने से गुरेज नहीं करते. इन के लिए हर जगह अपना कद महत्त्वपूर्ण होता है, मूल्य नहीं. वे भालू और 2 दोस्तों की कहानी से आगे के चरित्र होते हैं.

इस श्रेणी के दोस्त बहुधा जिस थाली में खाते हैं या तो खाने के बाद उस थाली को ही उठा कर साथ ले जाते हैं या फिर… जिस थाली में खाते हैं उसी में छेद करने वाली कहावत इन के लिए आउटडेटेड होती है. इसलिए ऐसे भाईसाहब अपना कद ऊंचा करने के लिए अपने नीचे औरों के नीचे की सीढ़ी सरकाने से तो परहेज करते ही नहीं, मौका मिलते ही किसी के भी कंधे पर छलांग मार बैठने के बाद उस के सिर के सफेद बाल तक नोचने से परहेज नहीं करते.

पर मैं फिर भी हर बार ऐसों को चांस दे देता रहता हूं, उन्हें अपने कंधे पर बैठा अपने सिर के सफेद बाल नुचवाने का, पता नहीं क्यों? हर बार अपने तीसरे दर्जे के दोस्तों की बदतमीजी को भुनाने का नैसर्गिक अवगुण मु?ा में पता नहीं क्यों है, जबकि मैं यह भी जानता हूं कि आदमी सबकुछ बदल सकता है पर दोस्ती के संदर्भ में अपनी औकात नहीं.

इन्हें देख कर कई बार तो लगता है कि इन में जरूर कोई हीनता इतनी गहरे तक है कि मैं इसे निकालने में हर बार असमर्थ हो जाता हूं. अपनी इस असफलता पर हे मेरे तीसरे दर्जे के दोस्तो, मैं तुम से दोनों हाथ जोड़ क्षमा मांगता हूं.

इन की एक विशेषता यह भी होती है कि पहले तो ये आप के सामने गर्व से मिमियाते हैं और फिर मौका पा कर आप के बाप बन बैठते हैं. इन को अपने दोस्तों का अपमान करने में वह आनंद मिलता है जैसा बड़ेबड़े तपस्वियों को मनवांछित फल पाने के बाद भी क्या ही मिलता होगा.

तीसरे दर्जे के इन सम्मानियों को हम आस्तीन का वह सांप कह सकते हैं, जिसे हम पता नहीं क्यों संवेदनशील हो कर अपनी आस्तीन में लिए फिरते रहते हैं. ये ऐसे होते हैं कि दांव मिलते ही हमारी कमर में डंक मार हमारे शुभचिंतक होने के परम धर्म को पूरी ईमानदारी से निभाते हैं.

पहली श्रेणी के दोस्तों के साथ सब से बड़ी तंगी यह होती है कि ये दोस्ती का दिखावा कभी नहीं करते. आप को इन्हें सहायता करने को कहने की भी जरूरत नहीं होती. ये अपनेआप ही आप को परेशानी में देख आप की सहायता करने चले आएंगे, मुंह का कौर मुंह में और थाली का कौर थाली में छोड़.

लेकिन ये जो आप के तीसरे दर्जे के दोस्त होते हैं न, इन के बारे में आप तो क्या, तथाकथित भगवान तक कोई भी सटीक तो छोडि़ए भविष्यवाणी तक नहीं कर सकते. इन्हें बस, पता चलना चाहिए कि दोस्त कहीं दिक्कत में है. फिर देखिए इन का प्यार कि ये किस तरह गले लगाते हैं. किस तरह अपने जूते तक खोल बरसाते हैं. भले ही बाद में उन के पांव में कांटे चुभ जाएं.

असल में, ये उस लैवल के दोस्त होते हैं जो किसी भी कद के सामने अपने को उस से ऊंचा दिखाने का कोई भी मौका हाथ से नहीं जाने देते. इन्हें अपने अहंकारी कद के आगे हिमालय तक चींटी दिखे तो मोक्ष प्राप्त हो.

इन्हें दोस्ती की नहीं, अपने कद की चिंता होती है. ये किसी के साथ दोस्ती तब तक ही रखते हैं जब तक इन के अहम के कद पर कोई आंच न आए. जैसे ही इन्हें लगता है कि इन के सामने इन से कद्दावर आ गया है तो ये सबकुछ हाशिए पर डाल सड़े दिमाग से आरी निकाल उस के कद को तहसनहस करने में पूरी शिद्दत से जुट जाते हैं.

पहली श्रेणी और इस तीसरे दर्जे के दोस्त में बेसिक अंतर यह होता है कि पहली श्रेणी का दोस्त आप के कद के साथ ईमानदारी से अपने कद को बढ़ाने की कोशिश करता है जबकि तीसरे दर्जे के दोस्त इस फिराक में रहते हैं कि कब व कैसे आप के कद को गिरा तथाकथित मित्रता के धर्म को निभा कृतार्थ हों.

जब तक इस दर्जे के मित्र किसी को किसी रोज नीचा नहीं दिखा लेते, इन को खाना हजम नहीं होता. इसलिए मेरी आप से दोनों हाथ जोड़ विनती है कि अपने इन तीसरे दर्जे के मित्रों के पेट का खयाल मेरी तरह आप भी रखिए. अपने लिए न सही तो न सही, पर इन की जिंदगी के लिए यह बेहद जरूरी है. इन के झूठे, लिजलिजे अहं की हर हाल में रक्षा कीजिए. भले ही आप की इज्जत का फलूदा बन जाए, तो बन जाए.

Stories HIndi : मुखबिर – नीलकंठ और अरुंधती क्या हो गए उग्रवादियों का शिकार

Stories HIndi : शहर भर में यह अफवाह फैल गई कि मुखबिरों को मौत के घाट उतारा जा रहा है. हालांकि पिछले 50 सालों से घाटी में हत्या की एक भी वारदात सुनने में नहीं आई थी पर अब आएदिन 5-10 आदमी गोलियों के शिकार हो रहे थे. हर व्यक्ति के चेहरे पर आतंक और भय के चलते मुर्दनी छाई हुई थी. अपनेआप पर विश्वास करना कठिन हो रहा था. हर कोई अपनेआप से प्रश्न पूछता:

‘कहीं मुखबिरों की सूची में मेरा नाम तो नहीं? किसी पुलिस वाले से मेरी जानपहचान तो नहीं? या फिर मुझे किसी सिपाही से बातें करते हुए किसी ने देखा तो नहीं?’ उस की चिंता बढ़ जाती.

‘मेरे राजनीतिक संबंधों के बारे में किसी को पता तो नहीं?’ यह सोचसोच कर दिल की धड़कनें और भी तेज हो जातीं. ‘किसी उग्रवादी से मेरी दुश्मनी तो नहीं?’ यह सोच कर कइयों का रक्तचाप बढ़ने लगता और वे अगले दिन आंख खुलते ही स्थानीय अखबारों के दफ्तर में जा कर विज्ञापन के माध्यम से स्पष्ट करते कि वे किसी राजनीतिक पार्टी से संबंधित नहीं हैं और न ही सूचनाओं के आदान- प्रदान से उन का कोई लेनादेना है. इन सब कोशिशों के बावजूद उन्हें मानसिक संतोष हासिल नहीं होता था. सारे वातावरण में बेचैनी और अस्थिरता फैली हुई थी.

मौत इतनी भयानक नहीं होती जितनी उस की आहट. हर कोई मौत के इस जाल से बच निकलने के रास्ते तलाश रहा था.

किसी का माफीनामा प्रकाशित करवाना, किसी का अपनी सफाई में बयान छपवाना तो चल ही रहा था मगर कुछ तो घाटी छोड़ कर ही जा चुके थे. नीलकंठ ने ऐसा कुछ भी नहीं किया. उन्होंने अपने जीवन के 65 साल संतोष और संयम से व्यतीत किए थे. विपरीत परिस्थितियों के बावजूद वे अपनी ही धुन में जिए जा रहे थे.

नीलकंठ का पुराना सा मकान था जिस की दीवारें मिट्टी से लिपीपुती थीं और मकान हब्बाकदल में झेलम नदी के किनारे स्थित था. सारे नगर में हब्बाकदल ही एक ऐसी जगह थी जहां मुरगे की पहली बांग के साथ ही जिंदगी चहक उठती. इधर मंदिरों की घंटियां बजतीं और उधर मसजिदों से अजानें गूंजतीं. पुल के दोनों ओर जहांतहां खोमचे वालों की कतारें लग जातीं. चीखतेचिल्लाते सब्जी बेचने वाले, मछली बेचने वाले और मोलभाव करते हुए खरीदार.

एक ओर नानबाइयों के चंगेरों (चंगेरनान रखने का विशेष प्रकार का बरतन) से सोंधीसोंधी खुशबू उठती और दूसरी तरफ हलवाई के कड़ाहों से दूध की महक. फिर दिन भर घोड़ों की टापों की आवाजें, साइकिल की ट्रिनट्रिन और आटोरिकशा की गड़गड़ाहट से पूरा माहौल गरम रहता. यह कोलाहल आधी रात तक भी थमने का नाम नहीं लेता. स्कूल और कालेज टाइम पर इस स्थान की रौनक ही कुछ और होती. सफेद कुरते और सलवार से सुसज्जित अप्सराओं के झुंड के झुंड और उन का पीछा करते हुए छैलछबीले नौजवान हर पल छेड़छाड़ की ताक में लगे रहते. मौका मिला नहीं कि उन्होंने फब्तियां कसनी शुरू कीं और आगे चलती हुई लड़कियों के चेहरों पर पसीने की बूंदें उभर आतीं.

आज नीलकंठ न जाने क्यों गहरी सोच में डूबे हुए थे. उन की बूढ़ी पत्नी अरुंधती ने हुक्के में नल का ताजा पानी भर दिया था. नीलकंठ ने चिलम में तंबाकू डाला और फिर अपनी कांगड़ी (गरमी पाने के लिए छोटी सी अंगीठी) में से 2-3 अंगारे निकाल कर उस पर रख दिए. उन के मुंह से धुएं के बादल छूटने लगे और वे शीघ्र ही विचारमग्न हो गए.

अपने विवाह के दिन नीलकंठ को केवल पुल पार करने की जरूरत पड़ी थी. अरुंधती का मकान दरिया के उस पार था. खिड़की से वे अपनी होने वाली पत्नी का मकान साफतौर पर देख सकते थे. दोनों मकानों के बीच झेलम नदी अपनी चिरपरिचित आवाज से बहती चली जा रही थी. छोटेमोटे घरेलू काम निबटा कर अरुंधती भी पास ही आ कर बैठ गई.

‘‘समय कैसे बीतता चला जाता है, मालूम भी नहीं होता. देखतेदेखते हमारे विवाह को 45 साल बीत गए,’’ नीलकंठ अरुंधती के चेहरे के उतारचढ़ाव को देखते हुए बोले. ‘‘आप को तो मजाक सूझ रहा है. भला आज विवाह की याद कैसे आ गई?’’ अरुंधती को आश्चर्य हुआ.

‘‘बस, यों ही. तुम्हें याद है आज कौन सी तारीख है?’’ ‘‘इस उम्र में तारीख कौन याद रखता है जी. मुझे तो अपना वजूद भी गत साल के कैलेंडर सा लगता है, जो दीवार पर इसलिए टंगा रहता है क्योंकि उस पर किसी की तसवीर होती है जबकि वर्ष बीतते ही कैलेंडर कागज के टुकड़े से ज्यादा महत्त्व नहीं रखता. आप को नहीं लगता कि हम ऐसे ही कागजी कैलेंडर बन कर रह गए हैं?’’

‘‘तुम सच कह रही हो, अरु. हम भी दीवार पर टंगे हुए उन फटेपुराने कैलेंडरों की भांति अपने अंत की ही प्रतीक्षा तो कर रहे हैं.’’ दुबलीपतली अरुंधती को याद आया कि उस ने हीटर पर कहवा चढ़ा रखा है. शायद अब तक उबल गया होगा. वह सोचने लगी और दीवार का सहारा ले कर उठ खड़ी हुई. फिर 2 खासू (कांसे के प्याले) और उबलती चाय की केतली उठा कर ले आई. नीलकंठ ने हुक्के की नली जमीन पर रख दी और अपने हाथ से खासू पकड़ लिया. अरुंधती ने खासू में गरम चाय उड़ेल दी.

‘‘अरु, याद है जब शादी से पहले मैं अपनी छत पर चढ़ कर तुम्हें घंटों निहारता रहता था.’’ ‘‘आज आप को क्या हो गया है. कैसी बहकीबहकी बातें कर रहे हैं आप,’’ पति को टोक कर अरुंधती स्वयं भी यौवन की उस भूलभुलैया में खो गई.

आयु में अरुंधती अपने पति से केवल 5 साल छोटी थी मगर पिछले 10 साल से गठिया ने आ दबोचा था. इसी कारण उस के हाथों की उंगलियों में टेढ़ापन आ चुका था और सूजन भी पैदा हो गई थी. जाड़े में हालत बद से बदतर हो जाती. उठनेबैठने में भी तकलीफ होती मगर लाचार थी. आखिर घर का काम कौन करता. ‘‘बहुत दिनों से मेरी दाहिनी आंख फड़क रही है. मालूम नहीं कौन सी मुसीबत आने वाली है?’’ अरुंधती ने चटाई से घास का एक तिनका तोड़ा फिर उसे जीभ से छुआ कर अपनी दाहिनी आंख पर इस विश्वास के साथ चिपका दिया कि आंख का फड़कना शीघ्र बंद हो जाएगा.

‘‘अरे अरु, बेकार में परेशान हो रही हो. होनी तो हो कर ही रहेगी,’’ नीलकंठ के स्वर में उदासी थी. अरुंधती ने इस से पहले कभी अपने पति को इतना चिंतित नहीं देखा था. बारबार पूछने के बावजूद उसे कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिला. वह मन ही मन कुढ़ती रही. बहुत दिनों से वह महसूस कर रही थी कि नीलकंठ शाम होते ही अपने मकान की खिड़कियां और दरवाजे बंद कर लेते हैं और बारबार इस बात की पुष्टि करते हैं कि वे ठीक तरह से बंद हो गए हैं या नहीं. कभीकभी उठ कर खिड़की के परदों को सावधानी से हटाते और बाहर हो रही हलचल की टोह लेते. वहां फौजी गाडि़यों और जीपों की आवाजाही या फिर गश्ती दस्तों की पदचाप के अलावा और कुछ भी सुनाई न देता.

‘‘आप इतना क्यों घबरा रहे हैं? सब ठीक हो जाएगा,’’ अरुंधती अपने पति को ढाढ़स बंधाने का प्रयत्न करती. ‘‘मैं घबरा नहीं रहा हूं मगर अरु, तुम्हें नहीं मालूम, हालात बहुत बिगड़ चुके हैं. हर जगह मौत का तांडव हो रहा है.’’

अरुंधती को अपनी जवानी के वे दिन याद आए जब कश्मीर की वादी पर कबायलियों ने आक्रमण किया था. उस समय वह सिर्फ 18 साल की थी. आएदिन लूटपाट, हिंसा और बलात्कार की दिल दहला देने वाली घटनाएं घट रही थीं.

एक दिन श्रीनगर शहर में सूचना मिली कि कबायलियों ने बारामुला में हजारों निहत्थे मासूम लोगों को मौत के घाट उतार दिया है. स्थानीय कानवेंट में घुस कर उन्होंने ईसाई औरतों को अपनी वासना का शिकार बनाया और अब वे श्रीनगर की ओर चले आ रहे हैं. शहर की महिलाओं, खासकर लड़कियों ने निश्चय कर लिया कि अपनी इज्जत खोने से बेहतर है कि बिजली की नंगी तारों से लटक कर जान दी जाए. मगर नियति का खेल देखिए, ठीक उसी दिन सारे नगर में बिजली गुल हो गई और मौत उन की पहुंच से बहुत दूर चली गई.

फिर एक दिन सूचना मिली कि भारतीय फौज ने कबायली आक्रमण- कारियों को खदेड़ दिया और वे दुम दबा कर भाग गए. सभी ने चैन की सांस ली. अरुंधती ने उन दिनों काफी साहस और धैर्य से काम लिया था. इस पर वह आज भी गर्व करती है. वह बातबात पर अपनी हिम्मत का दम भरती थी मगर अब फिर वैसा ही समय आ गया था, वह अपने पति को ढाढ़स बंधाते हुए बोली, ‘‘घबराने से कोई लाभ नहीं जी. जैसेतैसे झेल लेंगे इस दौर को भी. आप दिल छोटा न करें.’’ नीलकंठ ने अपनी पत्नी का साहसपूर्ण उत्तर सुन कर चैन की सांस ली. परंतु दूसरे ही पल उन्हें अपनी पत्नी के भोलेपन और सादगी पर दया आई. वे प्रतिदिन सुबह उठ कर समाचारपत्रों की एकएक पंक्ति चाट लेते. पत्रपत्रिकाएं ही ऐसा माध्यम थीं जो बाहर की दुनिया से उन का संपर्क जोड़े रखती थीं. अखबारों के पन्ने दिल दहलाने वाले समाचारों से रंगे रहते. दोनों पिंजरे में परकटे पक्षियों की भांति छटपटाते रहते.

‘‘यह सब आप ही का कियाधरा है. वीरू ने कितनी बार अमेरिका बुलाया. हर बार आप ने मना कर दिया. जाने ऐसा कौन सा सरेस लगा है जिस ने आप को इस जगह से चिपकाए रखा है. माना उस की पत्नी अमेरिकन है तो क्या हुआ. हमें उस से क्या लेनादेना है. आखिर घर से निकाल तो न देती. किसी कोने में हम भी पड़े रहते,’’ अरुंधती ने अपने दिल की भड़ास निकाल दी. ‘‘प्रश्न वीरू की पत्नी का नहीं. तुम नहीं समझोगी. इस उम्र में इतनी दूर जा कर रहने से दिल घबराता है. सारी उम्र बनिहाल से आगे कभी कदम भी न रखा, अब इस बुढ़ापे में समुद्र के उस पार कहां जाएं. क्या मालूम कैसा देश होगा? कैसे लोग होंगे? वहां का रहनसहन कैसा होगा? वहां मौत आई तो जाने कैसा क्रियाकर्म होगा? यहां अपनी धरती की धूल ही मिल जाए तो सौभाग्य की बात है…और फिर तुम सारा दोष मुझ पर ही क्यों मढ़ रही हो. तुम्हारी भी तो जाने की इच्छा न थी.’’

‘‘अच्छा जी, वीरू और अमेरिका की बात छोड़ो. काकी ने मुंबई भी तो बुलाया था. आप ने तो उस को भी मना कर दिया. कहा, बेटी के घर का खाना गोमांस के बराबर होता है. भूल गए क्या?’’ ‘‘अरे, तुम नहीं समझोगी. अगर उन्हें वास्तव में हम से प्यार होता तो आ कर हमें ले जाते. हम मना थोड़े ही करते.’’

‘‘वे बेचारे तो दोनों आने को तैयार थे पर आप से डरते हैं. आप की बात तो पत्थर की लकीर होती है. आप ने तो अपने पत्रों में साफ तौर पर मना कर दिया था.’’

उधर वीरू और काकी दोनों अपनेअपने परिवार की देखरेख में जुट गए थे और यहां बुड्ढा और बुढि़या कैलेंडर की तारीख गिनते हुए जीवन का एकएक पल बिता रहे थे. ‘‘आज श्रावण कृष्ण पक्ष की 7 तारीख है. वीरू के बेटे का जन्मदिन है. उठ कर पीले चावल बना लो,’’ नीलकंठ ने अपनी पत्नी को आदेश दिया.

‘‘आज जन्माष्टमी है. काकी की बेटी आज के दिन ही पैदा हुई थी. उसे तार भेज दिया या नहीं?’’ अरुंधती ने पति को याद दिलाया. दोनों को वीरू, काकी और उन के बच्चों की याद बहुत सताती थी. कई दिन से कोई सूचना भी तो नहीं मिली थी.

बुढ़ापा और उस पर यह दूरी कितनी कष्टप्रद होती है. आंखें तरस जाती हैं बच्चों को देखने के लिए और वे समझते हैं कि इस में हमारा स्वार्थ है. ‘‘कल सुबह बेटे को पत्र लिखना. कह देना कि हमें टिकट भेज दो. हम आने के लिए तैयार हैं,’’ अरुंधती ने आदेशात्मक स्वर में कहा.

‘‘मैं भी यही सोच रहा हूं. काकी से भी टेलीफोन पर बात कर के देख लूंगा. कुछ दिन मुंबई में रहेंगे और फिर वहीं से वीरू के पास अमेरिका चले जाएंगे.’’ ‘‘जैसा उचित समझो, अब रात हो गई है, सो जाओ,’’ अरुंधती ने नाइट लैंप जला कर ट्यूबलाइट बुझा दी.

नीलकंठ की बेचैनी बरकरार थी. वे फिर उठ खड़े हुए. सभी दरवाजों और खिड़कियों का निरीक्षण किया. जब तक उन्हें यह तसल्ली न हुई कि कहीं से कोई खतरा नहीं है तब तक वे कमरे में इधर- उधर टहलते रहे. फिर उन्होंने अपनी सुलगती कांगड़ी अरुंधती को थमा दी और स्वयं अपने बिस्तर में घुस गए.

नींद आंखों से कोसों दूर थी. वे करवटें बदलते रहे. इतने में बाहर दरवाजे पर दस्तक हुई. दोनों कांप उठे. सिमटे सिमटाए वे अपने बिस्तरों में दुबक गए. उन्होंने अपनी सांसों के उतारचढ़ाव को भी रोक लिया. तभी धड़ाम से मुख्य दरवाजे के टूटने की आवाज आई. फिर कमरे के दरवाजे पर किसी ने जोर से लात मारी. दरवाजा भड़ाक की आवाज के साथ खुल गया. 2 नौजवान मुंह पर काले मफलर बांधे हाथों में स्टेनगन लिए कमरे में घुस गए. उन्होंने आव देखा न ताव, अंधाधुंध कई फायर किए. मगर उस से पहले ही दोनों आत्माएं डर और भय के कारण नश्वर शरीर से मुक्त हो चुकी थीं. बहते हुए खून से दोनों बिस्तर लहूलुहान हो गए.

हथियारबंद नौजवान मुड़े और अपने पीछे सन्नाटा छोड़ कर वापस चले गए. दूसरे दिन स्थानीय समाचारपत्रों में सुर्खियां बन कर यह समाचार इस तरह प्रकाशित हुआ : ‘हब्बाकदल में मुजाहिदों ने नीलकंठ और अरुंधती नाम के 2 मुखबिरों को हलाक कर दिया. उग्रवादियों को उन पर संदेह था कि वे फौज की गुप्तचर एजेंसी के लिए काम कर रहे थे.’

White Clothes : सफेद कपड़ो की चमक बरकरार रखने के लिए अपनाएं ये साइंटिफिक तरीके

White Clothes : सफेद कपड़े पहनना हर किसी को पसंद होता है – चाहे वो डेली वियर हो, किसी गेट-टुगेदर की बात हो या फिर आप आउटिंग पर निकले हों. सफेद कपड़े हर मौके पर एलीगेंस और क्लास का तड़का लगाते हैं. ये एफर्टलेस स्टाइलिंग का बेहतरीन विकल्प होते हैं. कहते हैं न – “You can never go wrong with white!” लेकिन एक जगह जरूर आप गलत हो सकते हैं – और वो है सफेद कपड़ों को सही तरीके से धोना.

सफेद की सफेदी बनाए रखना बच्चों का खेल नहीं है. कभी कोई छोटा सा दाग, या फिर गलती से मशीन वॉश करते हुए अगर किसी दूसरे कपड़े का रंग सफेद पर लग गया तो भद्दा लगता है. और अगर दो-तीन बार पहनने के बाद अगर वह पीला पड़ जाए, तो वो कपड़ा आपकी पर्सनैलिटी को भी मटमैला कर देता है.

ऐसे में जरूरी है कि आप जानें कैसे साइंटिफिक तरीके से सफेद कपड़ों की सफेदी को लंबे समय तक बनाए रखा जा सकता है. इस आर्टिकल में आपको मिलेंगे ट्रिक्स जो आपकी वॉर्डरोब की व्हाइटनेस और ब्राइटनेस लौटाएंगे.

क्या पोटेशियम परमैंगनेट और हाइड्रोजन पेरॉक्साइड सच में करते हैं कमाल?

सफेद कपड़े पहनना हमेशा से ही एक स्टाइल स्टेटमेंट रहा है. लेकिन मुसीबत तब होती है जब ये चमकदार सफेद कपड़े कुछ ही वॉश के बाद पीले, मटमैले या दागदार नजर आने लगते हैं. चाहे वो स्कूल यूनिफॉर्म हो, ऑफिस की शर्ट, या फिर आपकी सफेद साड़ी या कुर्ती, हर कोई चाहता है कि उनके कपड़े सालों साल नए जैसे चमचमाते रहें. कई सारे वॉशिंग पाउडर भी आपको कपड़ो की चमक लौटाने का वादा करते हैं लेकिन उसमें अक्सर ब्लीच मिली होती है जो आपके सफेद कपड़ो को कुछ वक्त के लिए जरुर सफेद बनाए रखेगी, लेकिन लगातार ब्लीच के कारण रंगीन कपड़ो की रंगत भी खराब हो जाती है और सफेद कपड़े भी कुछ वॉश के बाद पीले नजर आने लगते हैं. तो चलिए जानते हैं, कैसे हम आसानी से सफेद कपड़ों की चमक को बरकरार रख सकते हैं, और क्या सचमुच पोटेशियम परमैंगनेट और हाइड्रोजन पेरॉक्साइड से सफेदी लौटाई जा सकती है?

क्या है पोटेशियम परमैंगनेट और हाइड्रोजन पेरॉक्साइड?

ये दोनों केमिकल घरों में आमतौर पर नहीं दिखते, लेकिन लॉन्ड्री में बड़े काम के हैं. इनको आप किफायती दामों में फार्मेसी से आसानी से खरीद सकते हैं. पोटेशियम परमैंगनेट सॉल्ट 50 रुपये और हाइड्रोजन पेरॉक्साइड लिक्विड की बोतल आपको आसानी से 150-200 रूपये में मिल जाएगी.

1. पोटेशियम परमैंगनेट (Potassium Permanganate)

यह एक गहरे बैंगनी रंग का ऑक्सीडाइज़र होता है जो पानी में मिलते ही रिएक्शन करने लगता है. इसकी खासियत यह है कि यह ऑर्गेनिक मैटर (जैसे कपड़ों पर लगे तेल, पसीने, फफूंदी आदि) को ब्रैकडाउन यानी तोड़ता है.

हालांकि, इसे सीधे सफेद कपड़ों पर इस्तेमाल करने से वे हल्के ब्राउनिश या मटमैले नजर आ सकते हैं – लेकिन डरे नहीं, यही तो इसकी trick है.

2. हाइड्रोजन पेरॉक्साइड (Hydrogen Peroxide)

ये एक ब्लीचिंग एजेंट होता है, लेकिन क्लोरीन ब्लीच की तरह नुकसानदायक नहीं. जब कपड़े पोटेशियम परमैंगनेट से थोड़े मटमैले हो जाते हैं, तो उन्हें हाइड्रोजन पेरॉक्साइड में डुबाने से एक “chemical reaction” होती है – जो ऑक्सिडेशन के जरिए रंग को हटाती है और कपड़े सफेद करने लगती है. नहीं समझे? चलिए थोड़ा और डीप में चलते हैं.

हाइड्रोजन पेरॉक्साइड जब पोटेशियम परमैंगनेट के अवशेषों के साथ मिलती है, तब वह मैंगनीज़ डाइऑक्साइड (MnO2) बनाता है जो कलर को तोड़ देता है और कपड़े का ओरिजिनल सफेद फाइबर वापस लाता है.

इसे “redox reaction” कहा जाता है, जहां एक केमिकल oxidize करता है और दूसरा reduce – जिससे सफेदी उभरकर सामने आती है. यानी आपका सफेद कपड़ा चकाचक हो जाता है.

बरतें कुछ सावधानियां

चूंकि हम केमिकल्स का बात कर रहे हैं तो जरूरी है कि वो केमिकल्स कपड़ों पर अपना रिएक्शन दिखाएं न कि आपके हाथों में ग्लव्स जरूर पहनें. और बच्चों से इन केमिकल्स को दूर रखें. और कोशिश करें इस ट्रिक को आप हवादार जगह ट्राई करें जिससे जो गैस निकलेगी वो सीधे घर से बाहर जाए.

कैसे करें?

एक बाल्टी पानी में थोड़ा सा पोटेशियम परमैंगनेट मिलाएं.

कपड़े को 5-10 मिनट इसमें डुबोएं.

जब रंग हल्का मटमैला होने लगे, तो निकाल लें. दूसरी बाल्टी में 3% हाइड्रोजन पेरॉक्साइड मिलाएं और उसी कपड़े को उसमें 10-15 मिनट के लिए डालकर सोक करने के लिए छोड़ दें. हां ध्यान ये रखना है कि पोटेशियम परमैंगनेट के बाद कपड़े को सीधे हाइड्रोजन पेरॉक्साइड के पानी में ही डालें, उसे साफ पानी से बीच में धोना नहीं है.

आखिर में कपड़े को सादे पानी से धोकर सुखा लें. और देखें साइंस का चमकता सफेद जादू.

सफेदी के और देसी नुस्खे

ये तो हुई साइंस की बात. अगर आपके पास पोटेशियम परमैंगनेट या हाइड्रोजन पेरॉक्साइड नहीं है, तो घबराने की ज़रूरत नहीं. आपके किचन और घर में ही कई ऐसे नुस्खे मौजूद हैं जो कपड़ों की सफेदी वापस ला सकते हैं.

1. बेकिंग सोडा और नींबू का रस

एक बाल्टी गरम पानी में बेकिंग सोडा और नींबू का रस मिलाएं. कपड़े भिगोकर एक घंटे रखें. नींबू में मौजूद सिट्रिक एसिड और बेकिंग सोडा का अल्कलाइन नेचर मिलकर दाग हटाते हैं. हालांकि हो सकता है कि आपको ज्यादा रंगीन या गहरे दाग वाले कपड़ों में ये प्रोसेस कई बार दोहरानी पड़े.

2. विनेगर (सिरका)

सफेद सिरका की कुछ बूंदें वॉशिंग मशीन या बाल्टी में डालें. यह ना सिर्फ दाग हटाता है बल्कि गंध भी निकालता है. इस ट्रिक को आप चद्दर और तकियों पर भी आजमा सकते हैं. इससे लंबे इस्तेमाल किए कपड़ों की गंध से आप पीछा छुड़ा सकते हैं.

3. नीलगिरी (Indigo) पाउडर या लिक्विड

दादी-नानी के जमाने का फेवरेट तरीका, नील का प्रयोग. हल्की पीली या ग्रे शेड वाले सफेद कपड़ों पर नील लगाने से वे एकदम चमकदार दिखते हैं. यह असल में एक ऑप्टिकल ब्राइटनर की तरह काम करता है. लेकिन ध्यान रखें ये उजाला कुछ ही दिन काम करता है. अगर आपने गलती से नील पाउडर को अच्छे से मिक्स नहीं किया या फिर ज्यादा नील डाल तो कपड़े सफेद की बजाए दागदार और नीले नजर आएंगे.

क्या क्लोरीन ब्लीच से कपड़े ज्यादा सफेद होते हैं?

क्लोरीन ब्लीच (जैसे हाइपो – sodium hypochlorite) का इस्तेमाल पहले बहुत किया जाता था. इससे आपको सफेद प्लेन कपड़ों में कुछ वक्त तो सफेदी मिलेगी लेकिन इसके लॉंग टर्म यूज से कपड़े के फाइबर कमजोर हो जाते हैं. लंबे समय तक इस्तेमाल करने से कपड़ा पीला पड़ सकता है और इससे एलर्जी या स्किन रिएक्शन भी हो सकता है. इसलिए हल्के ब्लीच या नैचुरल ऑप्शन्स को ही प्राथमिकता देना बेहतर है.

कपड़ों पर लगे रंग के दाग कैसे छुड़ाएं?

कई बार रंगीन कपड़ों के साथ धोने से सफेद कपड़ों में रंग चढ़ जाता है. ऐसे में ऑक्सीजन ब्लीच यह बिना क्लोरीन वाला विकल्प है जो रंग को बिना नुकसान पहुंचाए हटा देता है.

– अमोनिया और वॉटर मिक्स

हल्के रंग वाले दाग हटाने में काम आता है. लेकिन इसे कभी ब्लीच के साथ ना मिलाएं.

– रंग छुड़ाने वाला पाउडर

मार्केट में “colour run remover” के नाम से उपलब्ध होता है. यह खासतौर पर रंग चढ़े कपड़ों के लिए होता है.

सफेद कपड़े को सफेद बनाए रखना जितना मुश्किल दिखता है, उतना है नहीं – बस थोड़ी सी केयर, कुछ साइंस की समझ और घरेलू उपाय आपको फैशनेबल और साफ-सुथरा बनाए रख सकते हैं. पोटेशियम परमैंगनेट और हाइड्रोजन पेरॉक्साइड की जोड़ी सही रेशियो में और सावधानी से इस्तेमाल करें, तो पुराना कपड़ा भी नया सा चमकने लगेगा.

तो अगली बार जब आपकी सफेद शर्ट पीली नजर आए, एक बार इन ट्रिक्स को आजमाकर जरूर देखें!

Workload से बढ़ रही हैं रिश्तों में दूरियां? तो करें एक नई शुरुआत

Relationship Tips : रीमा और आदित्य, कभी एक-दूजे की आंखों में सुबह ढूंढ़ते थे, अब काम के मेलबौक्स में खो गए थे. मीटिंग्स, डेडलाइन और मोबाइल स्क्रीन ने रिश्ते में सन्नाटा भर दिया था. एक दिन आदित्य ने रीमा को बिना वजह कौफी पर बुलाया. दोनों अचकचाए, मुस्कुराए, और बातों में पुराने किस्से लौट आए. रीमा बोली, “हम थक गए थे… साथ चलना भूल गए थे.”

आदित्य ने उसका हाथ थामते हुए कहा, “तो क्या हुआ? फिर से चलना शुरू कर लेते हैं.”

कभी-कभी दूरी नहीं, एक कौफी और इरादा ही कौफी होता है… एक नई शुरुआत के लिए.

आजकल की ज़िंदगी में काम और करियर की रेस इतनी तेज हो गई है कि हम अक्सर वो लोग पीछे छोड़ देते हैं जिनके साथ ये सफर शुरू किया था. सुबह की नींद औफिस कौल्स से टूटती है और रातें लैपटौप की नीली रोशनी में बीत जाती हैं. ऐसे में ना जाने कब रिश्तों के बीच एक खामोशी आकर बैठ जाती है — जो बोलती कुछ नहीं, पर बहुत कुछ कह जाती है.

कभी जिनसे घंटों बात करते थे, अब उनसे हफ्तों तक सिर्फ “ठीक हूं” या “बिज़ी हूं” में बातचीत सिमट जाती है. क्या ये सच में बिज़ीनेस है या हम खुद ही अपने रिश्तों से दूरी बना बैठे हैं? लेकिन अच्छी बात ये है कि रिश्ते टूटते नहीं, बस थम जाते हैं. और हर थमे रिश्ते को फिर से चलाने के लिए बस एक छोटी-सी कोशिश काफी होती है.

  1. रिश्तों में भी रिचार्ज ज़रूरी है

जैसे मोबाइल बिना चार्ज के काम नहीं करता, वैसे ही रिश्ते भी बिना समय और संवाद के फीके पड़ जाते हैं. रोज नहीं तो हफ्ते में एक बार, बस 10 मिनट भी साथ बैठकर मुस्कुरा लेना रिश्तों की बैटरी को दोबारा जिंदा कर सकता है.

2. टेक्नोलौजी से नहीं, अपनी मौजूदगी से जुड़िए

वीडियो कॉल्स, वॉट्सऐप और ईमेल से भरे इस दौर में “असली” मौजूदगी की अहमियत और भी बढ़ गई है. एक कॉल के बजाय कभी-कभी एक चाय साथ पीना, या ऑफिस से लौटते हुए फूल ले आना — ये छोटे कदम दिलों को फिर से पास ला सकते हैं.

3. अपने रिश्ते को भी ‘डेडलाइन’ दीजिए

काम की डेडलाइन पर हम जान लगाते हैं, पर क्या अपने रिश्तों के लिए कभी टाइम फिक्स किया है? हफ्ते में एक दिन, एक तय समय जब सिर्फ आप और आपका रिश्ता — ना कोई फोन, ना लैपटॉप — सिर्फ साथ.

4. शिकायतें कम, यादें ज़्यादा बांटिए

हर रिश्ता कभी न कभी थकता है. ऐसे समय में एक-दूसरे को सुनना, बीती अच्छी बातों को याद करना और बिना जज किए सामने वाले की बात समझना बेहद जरूरी होता है. रिश्ते तब नहीं बिगड़ते जब लड़ाई हो, बल्कि तब जब बात ही बंद हो जाए.

5. नई शुरुआत के लिए बड़े प्लान की ज़रूरत नहीं

कभी-कभी एक कप कॉफी, एक वॉक, या बस “चलो बात करते हैं” कह देना भी नई शुरुआत बन सकता है. प्यार दिखाने के लिए बड़े जेस्चर नहीं, बस सच्चा इरादा चाहिए.

Salman Khan को प्यार और शादी से नहीं एली मनी और तलाक से लगता है डर ….

Salman Khan : कहते हैं दूध का जला छाछ भी फूंक फूंक कर कर पीता है, ऐसा ही कुछ हाल सलमान खान का भी है , जिन्होंने शादी तो नहीं की लेकिन शादीशुदा लोगों की बर्बादी बहुत देखी है. उनके खुद के घर में ही दो दो तलाक हो चुके हैं, दोनों भाई अरबाज खान और सोहेल खान का. जिसके चलते हाल ही में जब सलमान को फिर से शादी को लेकर सवाल किया गया, तो सलमान ने जोर से हंसते हुए कहा अरे भाई शादी से तो मुझे बहुत डर लगता है , आज के समय में शादी करना खतरे से खाली नहीं है, क्योंकि आजकल की कुछ बीवियां तलाक दे के दिल तो तोड़ती ही है, लेकिन एलीमनी के नाम पर आधी जायदाद भी साथ ले जाती हैं.

मुझे बच्चे बहुत पसंद है लेकिन उनकी मां से डर लगता है क्योंकि मां पति को तो छोड़ती ही है, साथ ही बच्चों के नाम पर एली मनी के साथ-साथ बच्चों को पालने का खर्चा भी बाप से ही वसूल करती है , इस हिसाब से आज के समय में शादी करने से अच्छा कुंवारे रहना ही ठीक है. गौरतलब है जिस तरह से आजकल खबरों में पति नीले ड्रम में टुकड़ों में और पहाड़ से गिरा कर मारे जा रहे है , यह सब खबरों के बाद सलमान खान तो क्या बाकी लड़के भी शादी के नाम से डरने लगे हैं.

सलमान खान के अगर वर्कफ्रंट की बात करे तो आज कल सलमान अपने नए प्रोजेक्ट की तैयारी में लगे हैं. जल्दी ही वो वॉर ड्रामा पर आधारित अनाम फिल्म में नजर आएंगे, जिसका डायरेक्शन अपूर्व लाखिया कर रहे हैं. इस फिल्म के लिए सलमान स्पेशल ट्रेनिंग ले रहे हैं लेटेस्ट खबरों के मुताबिक इस फिल्म के लिए सलमान कम ऑक्सीजन वाले माहौल में ट्रेनिंग ले रहे हैं , ताकि शूटिंग के दौरान उन्हें परेशानी ना हो. सलमान की इस फिल्म की कहानी 2020 के गलवान घाटी संघर्ष को पर्दे पर लाने की कहानी है.

इस फिल्म में वह सीनियर आर्मी ऑफिसर करनल बीकू मल्ला संतोष बाबू का किरदार निभा रहे हैं. एक सूत्र के मुताबिक सलमान खान लेह जैसे हाई एल्टीट्यूड वाले इलाके में शूटिंग करने वाले हैं. जिसके लिए सलमान शारीरिक और मानसिक फिटनेस पर पूरा ध्यान दे रहे हैं. और अपने आप को पूरी तरह तैयार कर रहे है.

TMKOC की बबीता जी दाल चावल खाकर रखती हैं खुद को फिट एंड फाइन

TMKOC : सब चैनल का अति लोकप्रिय धारावाहिक तारक मेहता का उल्टा चश्मा कई सालों से दर्शकों के दिल पर राज कर रहा है , इस सीरियल की सबसे खूबसूरत अदाकारा बबीता जी जिस पर इस शो के मुख्य किरदार जेठालाल पूरी तरह फिदा है, वही बबीता का किरदार निभाने वाली मुनमुन दत्ता 37 की उम्र में आज भी बला की खूबसूरत है.

हाल ही में एक इंटरव्यू के दौरान बबीता अर्थात मुनमुन दत्ता ने अपनी फिटनेस का राज बताते हुए कहा कि मैंने कभी भी बहुत ज्यादा डाइटिंग नहीं की मैं वह सब खाती हूं जो एक आम इंसान खाता है, जैसे कि मुझे दाल और चावल बहुत पसंद है क्योंकि मैं बंगाली हूं इसलिए मैं रोटी से ज्यादा चावल खाना पसंद करती हूं. क्योंकि चावल के बिना मुझे खाना अधूरा लगता है.

अपनी दिनचर्या बताते हुए मुनमुन दत्ता ने कहा कि वह सुबह 5:30 तक उठ जाती है , सुबह उठते ही वह सबसे पहले दो-तीन गिलास पानी पीती है. उसके बाद जिम जाने से पहले वह भीगे हुए बादाम और केला खाती है. उसके बाद नाश्ते में वह दौसा , पोहा उपमा जैसी आयल फ्री चीज खाते हैं , वही दोपहर के खाने में वह दाल चावल रोटी सब्जी सलाद सब कुछ खाती है . कई बार जब नाश्ता खाने के लिए टाइम नहीं होता तो नाश्ता स्किप कर देती है उसकी जगह मैं दूध पी लेती हैं.

मुनमुन दत्ता के अनुसार मैं डाइटिंग में विश्वास नहीं करती लेकिन बहुत ज्यादा खाना भी गलत है, मेरा मानना है कोई भी चीज की अति बुरी है , फिर चाहे वह खाना हो शराब हो या कोई और चीज . मैं कभी अपने मन को नहीं मारती लेकिन सब कुछ खा पी कर भी मैं अपनी सेहत का भी पूरा ख्याल रखती हूं , और 37 वर्ष की उम्र में फिट रहती है .

Monsoon 2025 : बरसात में किचन को रखना चाहती हैं स्मैल फ्री, तो बड़े काम के हैं ये टिप्स

Monsoon 2025 : मौनसून में नमी बहुत बढ़ जाती है. यह नमी सीधे असर डालती है आप की किचन की चीजों दालें, मसाले, आटा, सब्जियां और यहां तक कि लकड़ी की अलमारियां भी.

अगर इन का ध्यान न रखा जाए तो चीजें खराब हो जाती हैं और फंगस व बैक्टीरिया घर कर लेते हैं, जिस से किचन से बदबू से आने लगती है साथ ही बीमारियां और चीजें खराब होने से ऐक्स्ट्रा खर्च भी आप की जेब पर बढ़ जाता है. तो इसलिए जरूरी है कि आप थोड़ा पहले से ही किचन को तैयार कर लें.

मसाले और दालें फ्रैश रखने के देसी जुगाड़ जानिए :

एअरटाइट डब्बे का करें इस्तेमाल : सभी मसाले और दालों को प्लास्टिक की थैलियों से निकाल कर एअरटाइट कंटेनर में डालें. इस से नमी से बचाव होगा और खुशबू भी बनी रहेगी.

तेजपत्ता और लौंग का कमाल : चावल, आटा और दालों में 1-2 तेजपत्ते या लौंग डाल दें. इस से कीड़े नहीं लगते और एक हलकी सी नैचुरल खुशबू भी बनी रहती है. कोशिश करें कि ज्यादा दालचावल स्टोर कर के न रखें. हफ्ते या 10 दिन के हिसाब से चीजें खरीदें.

दालों को धूप दिखाएं : अगर 1-2 दिन धूप निकलती है तो दालों को प्लेट में निकाल कर छांव में सुखा लें. इस से अंदर की सीलन निकल जाती है.

ड्रायर्स या सिलिका जैल का उपयोग : मसालों के डब्बों में एक छोटा सा ड्रायर पैकेट रखें (जैसे जो जूतों या दवाइयों में आते हैं ), नमी सोखने में मदद करेगा. यह सस्ता और सफल तरीका है चीजों को सीलन से बचाने का.

प्याज व आलू को स्टोर करें स्मार्टली, इस तरह : कपड़े की बोरियों या टोकरी में रखें : प्लास्टिक की थैली में प्याज व आलू जल्दी गलते हैं. इन्हें खुले जूट बैग या बांस की टोकरी में रखें. हर 2 से 3 दिन में इन को उलटपलट दें ताकि हवा पास होती रहे और ये सड़ें नहीं.

एकसाथ न रखें : प्याज और आलू को कभी एकसाथ न रखें. दोनों से निकलने वाली गैसें एकदूसरे को जल्दी सड़ा देती हैं.

सूखे व हवादार स्थान पर रखें : किसी ऐसी जगह रखें जहां थोड़ी हवा आती रहे. बिलकुल बंद जगह में न रखें वरना नमी से सड़न बढ़ती है.

नीचे पेपर या अखबार बिछाएं : इस से नमी सोखने में मदद मिलेगी और सड़ने पर साफ करना भी आसान रहेगा.

किचन क्लीनिंग

बेकिंग सोडा + विनेगर = मैजिक क्लीनर : यह कौंबो न केवल चिकनाई हटाता है, बल्कि बदबू को भी भगाता है. टाइल्स, गैस चूल्हा, सिंक आदि सब के लिए एकदम सही.

नीबू और नमक से चमकाएं स्टील के बर्तन : यह पुराना नुसखा आज भी सब से असरदार है. साथ ही हाथों को नुकसान भी नहीं पहुंचाता.

हैवी ड्यूटी क्लीनर इस्तेमाल करें : मार्केट में कोलीन हैवी ड्यूटी, लाइजोल किचन डीग्रेसर, मि. मसल व डी-40 (Colin Heavy Duty, Lizol Kitchen Degreaser, Mr Muscle, D40) जैसे बजट फ्रैंडली क्लीनर आते हैं जो बिना ज्यादा मेहनत के तेल की परतें हटा देते हैं.

चिमनी की टाइम टू टाइम सफाई जरूरी है : हर 15 दिन में चिमनी के फिल्टर को निकाल कर गरम पानी, बेकिंग सोडा और डिशवौशिंग लिक्विड में भिगो कर साफ करें, वरना तेल जमने से बदबू और कीड़े पनप सकते हैं. आप मार्केट में उपलब्ध ग्रीस क्लीनर भी यूज कर सकते हैं.

स्मार्ट स्टोरेज से नहीं होगी सीलन और गंदगी, इस तरह :

● किचन कैबिनेट्स में नैफ्थलीन बौल्स या कपूर रखें, ताकि फफूंदी न पनपे.

● डस्टबिन में अखबार बिछाएं और रोज खाली करें, नहीं तो नमी और कीड़े पैदा होंगे.

● खाली जगहों में विनेगर और नीम की पत्तियां रखें. यह एक नैचुरल फंगस रिमूवर है.

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