Crime Story: फेसबुक- श्वेता और राशी क्या बच पाई इस जाल से

Crime Story: कालेज में फ्री पीरियड में जैसे ही श्वेता ने अपनी सहेली अमिता और राशी को अपने बौयफ्रैंड रोहन के बारे में बताया तो राशी हैरान होते हुए बोली, ‘‘तू बड़ी छिपीरुस्तम निकली, पिछले 6 महीने से तुम दोनों का चक्कर चल रहा है और हमें तू आज बता रही है.’’

‘‘तो तुम ने कौन सा अपने जयपुर वाले बिजनैसमैन बौयफ्रैंड संचित से हमें अभी तक मिलवाया है,’’ श्वेता ने पलट कर जवाब दिया.

‘‘प्लीज, दोनों लड़ो मत. चलो, कैंटीन चलते हैं, बाकी बातें वहीं कर लेना,’’ अमिता दोनों को चुप कराते हुए बोली.तीनों क्लास रूम से उठ कर कैंटीन की तरफ चल दीं.

राशी ने 3 बर्गर और हौट कौफी और्डर करते हुए श्वेता से पूछा, ‘‘चल छोड़, अब यह बता, तुम मिले कहां? रोहन के परिवार में कौनकौन है? हमें उस से कब मिलवा रही है?’’

‘‘क्या एक के बाद एक सवालों की बौछार कर रही है, आराम से एकएक कर के पूछ,’’ अमिता ने राशी को टोका.

‘‘अभी तो मैं ही रोहन से नहीं मिली तो तुम्हें कैसे मिलवाऊं,’’ श्वेता ने मजबूरी जताई.

‘‘तो पिछले 6 महीने से तुम एक बार भी नहीं मिले,’’ राशी ने हैरानी से पूछा.

‘‘तो तुम कौन सा संचित से मिली हो,’’ श्वेता ने उसी लहजे में राशी से पूछा.

‘‘संचित बिजनैस के सिलसिले में अकसर विदेश जाता है, उस ने तो मुझे अपने साथ सिंगापुर चलने के लिए कहा था, पर मैं ने ही मना कर दिया. शादी के बाद उस के साथ दुनिया घूमूंगी,’’ राशी चहकते हुए बोली.

‘‘चलो, चलो, बर्गर खाओ, ठंडा हो रहा है,’’ अमिता ने कहा.

‘‘अच्छा, यह तो बता रोहन दिखता कैसा है, उस का कोई फोटो तो दिखा,’’ राशी श्वेता का मोबाइल उठाते हुए बोली.

‘‘अभी उस की आर्मी की ट्रेनिंग पूरी नहीं हुई है, इसलिए उस ने कोई फोटो नहीं भेजा,’’ श्वेता ने जवाब दिया, ‘‘सुनो, कल उस का बर्थडे है, मैं तुम सब को ट्रीट दूंगी,’’ उस ने आगे कहा.

‘‘क्या तू ने रोहन के लिए कोई गिफ्ट नहीं भेजा,’’ अमिता ने श्वेता से पूछा.

‘‘क्यों नहीं, मैं ने उस की मनपसंद घड़ी कोरियर से एक हफ्ते पहले ही भेज दी थी,’’ श्वेता बोली.

‘‘पिछले महीने तेरे बर्थडे पर रोहन ने क्या दिया,’’ राशी ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘उस ने कहा कि वह ट्रेनिंग खत्म होते ही दिल्ली आएगा और मुझे मनपसंद शौपिंग कराएगा,’’ श्वेता चहकते हुए बोली.

‘‘ग्रेट,’’ राशी ने कहा.

‘‘एक मिनट, मुझे तो तुम दोनों के बौयफ्रैंड्स में कुछ गड़बड़ लग रही है,’’ अमिता परेशान होते हुए बोली.

‘‘तेरा कोई बौयफ्रैंड नहीं है, इसलिए तू हम से जलती है,’’ राशी तुनक कर बोली.

तीनों कैंटीन से आ कर क्लास रूम में बैठ गईं, पर अमिता का मन पढ़ने में नहीं लग रहा था, वह यही सोचती रही कि जिन लड़कों को इन्होंने देखा नहीं, उन से मिली नहीं, उन के सपनों में खो कर अपना कीमती समय बरबाद कर रही हैं. कहीं ऐसा तो नहीं कि इन दोनों को एक ही लड़का बेवकूफ बना रहा हो, लेकिन इन्हें समझाना बहुत मुश्किल है. उस ने मन ही मन एक प्लान बनाया और कालेज की छुट्टी के समय दोनों से बोली, ‘‘सुनो, तुम दोनों संडे को मेरे घर आ जाओ, मैं घर पर अकेली हूं, मम्मीपापा कहीं बाहर जा हे हैं.’’

राशी और श्वेता दोनों संडे को 11 बजे अमिता के घर पहुंच गईं. अमिता दोनों के लिए गरमागरम मैगी बना कर लाई. इसी बीच अमिता अपना लैपटौप भी उठा लाई और दोनों से बोली, ‘‘चलो, आज रोहन और संचित से चैटिंग करते हैं.’’

यह सुन कर श्वेता ने जल्दी से अपना फेसबुक अकाउंट ओपेन किया और रोहन से चैटिंग करने लगी.

‘‘सुन, तू उसे यह मत बताना कि मेरी सहेलियां भी साथ हैं. उस से उस के कुछ फोटो मंगा,’’ अमिता ने श्वेता को सलाह दी.

‘‘6 महीने में रोहन को पूरा विश्वास हो गया था कि श्वेता उस के जाल में पूरी तरह फंस चुकी है, इसलिए उस ने अपने कुछ फोटो उसे भेज दिए.’’

फोटो देखते ही राशी चौंक उठी और बोली, ‘‘ये तो संचित के फोटो हैं.’’

अमिता उसे शांत करते हुए बोली, ‘‘चौंक मत, संचित और रोहन अलग न हो कर एक ही शख्स है, यह न तो आर्मी में है और न ही बिजनैसमैन. यह तुम दोनों को अपने अलगअलग नामों से बेवकूफ बना रहा है.’’

‘‘यह तू क्या कह रही है, क्या तू इसे जानती है?’’ राशी ने अमिता से पूछा.

उस ने हंसते हुए कहा, ‘‘तुम ही सोचो, तुम ने अपने बौयफ्रैंड्स को महंगे गिफ्ट भेजे, लेकिन उन्होंने तुम्हें कुछ नहीं दिया, मिलने के मौकों को टाला, यह तो अच्छा है कि तुम दोनों समय रहते बच गईं.’’

‘‘आजकल सोशल नैटवर्किंग साइट्स पर आएदिन ऐसे किस्से सुनने को मिल रहे हैं. इसलिए इन सब से सावधान रहना चाहिए,’’ उस ने आगे कहा.

‘‘पर मुझे तो रोहन ने अपना एड्रैस दिया था, जिस पर मैं ने गिफ्ट भेजे हैं,’’ श्वेता ने कहा.

‘‘मेरी भोली सहेली, जब तक तुम उस का पता करने उस के एड्रैस पर पहुंचोगी तब तक वह शातिर वहां से भाग चुका होगा, ऐसे लोग बहुत शातिर होते हैं, इसलिए कभी भी वे एक एड्रैस पर लंबे समय तक नहीं ठहरते. बस, अपना उल्लू सीधा किया और नौदो ग्यारह हो गए.’’ अमिता ने कहा.ॉ

‘‘कम औन, पहले अपनी ग्रैजुएशन पूरी करो फिर बौयफ्रैंड बनाना,’’ उस ने दोनों को सुझाव दिया.

‘‘तू ठीक कहती है अमिता, तू ने हमें हकीकत से परिचित करवा कर समय रहते बचा लिया, न जाने यह हमें कितना बेवकूफ बनाता,’’ राशी बोली.

‘‘चलो, तुम दोनों किसी अनहोनी से बच गईं अन्यथा ताउम्र उन्हें इस का खमियाजा भुगतना पड़ता. आओ, इसी बात पर पकौड़े बनाते हैं,’’ कह कर अमिता दोनों सहेलियों को ले कर किचन की ओर बढ़ गई.

Crime Story

Hindi Story: विरोधाभास- सबीर ने कैसे अपने चरित्र का सच दिखाया

Hindi Story: मुजफ्फरपुर आए 2-3 दिन हो चुके थे. अभी मैं दफ्तर के लोगों को जानने, समझने, स्थानीय राजनीति की समीक्षा करने में ही लगा हुआ था. मेरा विभाग गुटबंदी का शिकार था. यूनियन 3 खेमों में बंटी थी और हर खेमा अपनी प्रमुखता और दूसरे की लघुता प्रमाणित करने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ता था. 3 गेंदों को एकसाथ हवा में उछालने वाला जादूगर बिस्मार्क मुझे रहरह कर याद आता था. अचानक, ‘क्या मैं अंदर आ सकता हूं,’ का स्वर मेरे कानों में पड़ा. मैं काफी देर से फाइलों में उलझा हुआ था. इस स्वर में निहित विनम्रता तथा संगीतमय खनक ने मेरा ध्यान बरबस अपनी ओर आकृष्ट कर लिया. मैं ने गरदन ऊपर उठाई और चेहरे पर थोड़ी सी मुसकान ला कर कहा, ‘‘हांहां, आइए.’’

‘‘नमस्कार, सर. आप कैसे हैं ’’ आगंतुक सबीर अहमद ने बुलबुल की तरह चहकते हुए कहा. मैं ने हाथ के संकेत से उसे बैठने का इशारा कर दिया था. वह शायद संकेतों की भाषा में माहिर था. मुसकराते हुए मेरे सामने रखी कुरसियों में से एक पर बैठ गया.

‘‘मैं ठीक हूं. आप कैसे हैं, मि. अहमद ’’ मैं ने पूछा. ‘‘सर, पहली बात तो यह कि आप मुझे ‘मि. अहमद’ न कहें. यह बेहद औपचारिक लगता है. मेरी इल्तिजा है, मेरा अनुरोध है कि आप मुझे सबीर ही कहें. आप से हर मामले में छोटा हूं, उम्र में, नौकरी में, पद में, प्रतिष्ठा में…’’

‘‘बसबस, आगे कुछ मत कहिए, सबीर साहब. तारीफ जब सीमा लांघने लगती है तो उस में चापलूसी की बू आ जाती है, जो कहने और सुनने वाले, यानी दोनों के लिए नुकसानदेह होती है,’’ मैं ने प्यार से मुसकराते हुए कहा तो सबीर ने बड़ी अदा से सिर झुका कर आंखें बंद कर हथेलियों को माथे से सटाया.

मैं ने कहा, ‘‘और दूसरी बात क्या है ’’ ‘‘सर, दूसरी बात यह है कि आप बड़े चिंतित लग रहे हैं, पर ऊपर से सामान्य दिख रहे हैं. कृपया इसे चापलूसी न समझें. अगर आप मुझे अपने छोटे भाई की जगह दें तो मुझे बहुत खुशी होगी.’’

पता नहीं क्यों, सबीर के स्वर में मुझे सचाई की झलक महसूस हुई और मैं ने घंटी बजा कर चपरासी को बुला कर कहा, ‘‘2 कौफी…’’ चपरासी के जाने के बाद मैं ने गहरी सांस ली. अंदर की सारी परेशानी मानो थोड़ी देर के लिए बाहर निकल गई.

‘‘मैं गुडि़या और डौली के दाखिले को ले कर बहुत परेशान हूं. महिला कालेज में कई बार जा चुका हूं, पर रिसैप्शनिस्ट हर बार एक ही जवाब देती है कि सीट नहीं है. बेचारी लड़कियां नाउम्मीद सी हो गई हैं,’’ मैं ने कहा. ‘‘सर, आप बेफिक्र रहें, समझ लें कि यह काम हो गया. मैं वाइस चांसलर को जानता हूं. उन से कह कर यह काम करा लूंगा. बस, इस नाचीज को 24 घंटे की मुहलत दे दें और दोनों बेटियों के कागजात भी मुझे दे दें,’’ उस ने इतमीनान से कहा.

‘‘शुक्रिया, दोस्त. अगर यह काम हो गया तो मैं चैन की सांस ले सकूंगा,’’ मैं ने कहा. तभी कौफी आ गई और सबीर मुझे कौफी पर कई शेर सुनाता चला गया. उस की आवाज तो दिलकश थी ही, शेरों का चयन भी उम्दा था. मैं ने उस की खूब तारीफ की. थोड़ी देर बाद मुसकराता हुआ वह कागजात ले कर चला गया.

अगले दिन वह दोपहर के भोजन के समय मेरे घर पर आ गया. मुझे देखते ही बोला, ‘‘सर, दाखिला हो गया. यह रही रसीद और ये रहे बाकी पैसे.’’ डौली और गुडि़या, जो बेमन से खाना सजा रही थीं, यह बात सुनते ही उछल पड़ीं.

‘‘यह तुम्हारे सबीर चाचा हैं. इन्होंने ही इस काम को करवाया,’’ मैं ने बेटियों से कहा तो दोनों ने उन्हें धन्यवाद दिया. पत्नी ने अपनी खुशी का इजहार, ‘सबीर भाईसाहब, खाना खा कर ही जाइएगा,’ कह कर किया.

सबीर ने पहले तो इनकार किया, पर मां, बेटियां उस पर इतनी मेहरबान थीं कि बिना खिलाए जाने ही नहीं दिया. 2 दिनों बाद रविवार था. मैं बरामदे में बैठा अखबार पढ़ रहा था. अचानक सबीर को जीप से उतरते देखा. ‘यह तो मोटरसाइकिल सवार है, जीप से कैसे ’ मैं अभी सोच ही रहा था कि ड्राइवर ने पीछे से 2 गैस सिलिंडर उतारे और सबीर के निर्देश पर भीतर ले आया.

उसी समय मेरी पत्नी भी बाहर आ गई. गैस सिलिंडर देख कर वह बहुत प्रसन्न हुई. शायद मैं ने उसे बहुत कम मौकों पर इतना पुलकित देखा था. वह खिलखिलाती हुई बोली, ‘‘वाह, भाईसाहब, वाह, स्टोव से पीछा छुड़ाने का लाखलाख शुक्रिया.’’ सबीर नए दूल्हे की तरह शरमाता हुआ बोला, ‘‘इस में शुक्रिया काहे का, मालूम होता तो यह काम पहले ही हो जाता.’’

‘‘पर तुम्हें गैस के लिए किस ने और कब कहा ’’ मैं ने परेशान होते हुए पूछा. ‘‘मैं ने कहा था जब उस दिन आप स्नानघर में घुसे हुए थे. इन्होंने पूछा, ‘और कोई सेवा ’ और मैं ने अपना दुखड़ा सुना दिया,’’ जवाब पत्नी ने दिया.

‘‘पर यह सब करनेकराने की क्या जरूरत थी, 2-4 माह स्टोव पर ही…’’ मैं ने पत्नी पर नाराजगी उतारते हुए कहा, ‘‘तुम यूनियन वालों को नहीं जानतीं, वे लोग हंगामा खड़ा कर देंगे कि क्षेत्रीय प्रबंधक स्टाफ को अपना घरेलू नौकर समझते हैं. बनीबनाई इज्जत धूल में मिल जाएगी.’’ ‘‘सर, मैं ने आप से प्रार्थना की थी कि मुझे अपना छोटा भाई समझें. क्या भाभीजी का छोटामोटा काम आप के भाई नहीं करते क्या घर वाले एकदूसरे पर एहसान करते हैं ’’ उस ने दुखी स्वर में कहा.

‘‘माफ करना, भई, मेरा इरादा तुम्हें दुख पहुंचाना नहीं था, पर…’’ कहतेकहते मैं रुक गया. मुझे शब्द ही नहीं मिल रहे थे. ‘‘परवर कुछ नहीं, सर, डीएम का पीए मेरा भाई है, उसी से कह कर महीनों का काम कुछ दिनों में करवा लिया, वरना गैस एजेंसी वाले तो ऐसा चक्कर डालते हैं कि कभीकभी 2 साल भी लग जाते हैं. मैं आखिर किस मर्ज की दवा हूं…’’

मेरा परिवार सबीर पर फिदा था. पत्नी तो उसे घर का सदस्य ही समझती थी. चंद दिनों में उस ने राशनकार्ड भी बनवा दिया. घर की हर जरूरत, हर समस्या वह ‘भाभीजी’ यानी मेरी श्रीमती की इच्छानुसार पूरी करवाता. सबीर की निकटता ने मुझे यूनियन के झगड़ों से भी मुक्त कर दिया था. वह सभी गुटों का काम करता, करवाता. सब के बच्चों के दाखिले और शादीब्याह वगैरा में मदद करता. वह सब की आंखों का तारा, हरदिल अजीज सबीर भाई था.

वह औफिस के काम में भी बहुत चुस्त था. जो सूचना चाहिए, सबीर अहमद मिनटों में दे देता. औफिस के सांस्कृतिक कार्यक्रमों की तो वह जान ही था. अकसर मैं सोचता, ‘प्रकृति ने इस आदमी में एकसाथ इतने गुणों को भर दिया है कि सामने वाला न चाहते हुए भी खुद को इस पर निर्भर मानता है.’

वह मोतिहारी में क्षेत्राधिकारी था. मुजफ्फरपुर से मोतिहारी की दूरी 80-85 किलोमीटर है, पर उस के लिए यह सामान्य सी बात थी. मैं अभी मोतिहारी गया भी नहीं

था, सारे क्षेत्राधिकारी महीने में 1-2 बार मुख्यालय आते और आवश्यक जानकारी दे जाते. एक दिन सबीर ने प्रार्थनापत्र देते हुए कहा, ‘‘सर, मैं ने मोतिहारी में किराए का मकान ले लिया है, गांव से पत्नी और बच्चों को ले आया हूं. सरकारी नियमों के अनुसार, मकान में दफ्तर रखने पर किराया मिल जाता है, आप निरीक्षण कर लेते और ओसीआर यानी औफिस कम रैजीडैंस प्रमाणपत्र दे देते तो मुझे प्रतिमाह 15 सौ रुपए मिल जाते.’’

‘‘ठीक है, पता मेरे ड्राइवर को बता दो. मैं अगले सप्ताह मोतिहारी कार्यालय का निरीक्षण करने आऊंगा तो यह कार्य भी कर दूंगा.’’ ‘‘शुक्रिया, सर,’’ कहता हुआ वह उठ खड़ा हुआ. थोड़ी देर बाद उस की मोटरसाइकिल के स्टार्ट होने की आवाज आई, जो धीरेधीरे दूर होती चली गई.

मैं ने पान की पीक थूकने के लिए खिड़की का परदा उठाया. आसमान पर हलकेहलके बादल तैर रहे थे, धूप की चमक फीकी हो रही थी, जो कि वर्षा आने का संकेत था. मौसम तेजी से बदल रहा था, जो कि स्वास्थ्य के लिए बुरा था.

मोतिहारी में सबीर का मकान ढूंढ़ना नहीं पड़ा. चांदमारी महल्ले के मोड़ पर ही सबीर मुझे पान की एक दुकान पर मिल गया. फिर अपने मकान पर ले गया. बाहर नेमप्लेट पर लिखा था, ‘सबीर अहमद, फील्ड औफिसर, इफको.’ वह मुझे बैठक में ले गया. कमरे को दफ्तर कहना ज्यादा श्रेष्ठ था. एक बड़ी सी मेज व 6 कुरसियां लगी थीं. मेज पर मेरे विभाग का कैलेंडर रखा था, डायरी थी, फाइलें थीं और कागज आदि थे. दीवार पर विभागीय मोनोग्राम लटका हुआ था. एक कोने में सोफासैट था, हम उस पर बैठ गए.

थोड़ी देर बाद 8-9 वर्ष की प्यारी सी गुडि़या कौफी ले कर आई. उस ने सलीके से ‘नमस्ते, अंकल,’ कहा और ट्रे मेज पर रख कर बाहर चली गई. सबीर ने हंस कर कहा, ‘‘बड़ी शरमीली बिटिया है.’’ मैं ने कहा, ‘‘नहीं, बड़ी प्यारी बिटिया है.’’

इस पर हम दोनों हंस पड़े. सबीर फाइलें लाता रहा, मुझे दिखाता रहा और अपने बारे में भी बताता रहा. उस ने कहा कि एक कमरे में उस की गर्भवती बहन रह रही है, जो प्रसव के लिए आई है, दूसरे में उस का परिवार है. बैठक को औफिस बना लिया है. एक स्टोर, रसोई और भोजनकक्ष है.

कुछ देर बाद वह भीतर गया और जल्दी ही लौट कर बोला, ‘‘सर, खाना तैयार है, अम्मी बुला रही हैं.’’ निरीक्षण के दौरान उस के घर खाना खाना मेरे अुनसार गलत कार्य था. मैं ने मना कर दिया, मगर उस के पैने तर्कों के आगे मेरे सिद्धांत फीके लग रहे थे. वह मां की ममता का वास्ता दे रहा था, ‘‘अम्मी बहुत दुखी हो जाएंगी. वे कह रही हैं कि हम मुसलमान हैं, इसलिए हमारे घर का खाना…’’

अंत में मुझे भोजन के लिए उठना ही पड़ा. पता नहीं मन की किस भावना ने मुझे खाने से ज्यादा उस की भावना के प्रति नतमस्तक कर दिया. रसोई सामने थी. एक बूढ़ी, विधवा औरत वहां मौजूद थी. मैं ने ‘प्रणाम, माताजी,’ कहा तो उन्होंने ‘जीते रहो, भैया,’ कह कर ममता का सागर उड़ेल दिया. खाना शाकाहारी व बेहद स्वादिष्ठ था. 2 स्त्रियां दूसरे कमरे में दिखीं, मगर मैं ने सोचा ‘परदे की वजह से शायद वे सामने नहीं आईं.’ चलते समय वह बच्ची फिर आई और ‘नमस्ते, अंकलजी, फिर कभी आएइगा,’ कह कर अपने नन्हे हाथों से बायबाय

कर गई. मैं संतुष्ट था, उस का मकान वास्तव में 15 सौ रुपए के लायक था, उस में दफ्तर मौजूद था ही, परिवार भी रहता था. मैं ने तुरंत ही ओसीआर रिपोर्ट पटना भेज दी. कुछ दिनों बाद उस की स्वीकृति भी आ गई और सबीर को हर माह 15 सौ रुपए मिलने लगे.

लगभग 4-5 महीने बाद मेरे बड़े भाई की लड़की की शादी मोतिहारी में होनी तय हुई. लड़का तो दिल्ली में नौकरी करता था. पर उस के मातापिता मोतिहारी में ही रहते थे. भैया को केवल उन का नाम और चांदमारी महल्ला ही पता था. अचानक बादलों में जैसे बिजली कौंध गई, सबीर का खयाल आते ही मैं स्फूर्ति से भर उठा. ड्राइवर ने मोतिहारी में सबीर के मकान के आगे गाड़ी रोकी. मैं अभी गाड़ी से उतर भी नहीं पाया था कि सबीर की नन्ही सी प्यारी सी, बिटिया ने ‘नमस्ते, अंकल,’ कहा.

मैं ने बिस्कुट का पैकेट बच्ची को पकड़ाते हुए कहा, ‘‘बेटा, पापा घर पर हैं ’’

‘‘जी हां.’’ थोड़ी देर में एक सज्जन अंदर से आए. लंबा कद और आंखों पर चश्मा. मैं ने पूछा, ‘‘सबीर घर पर हैं क्या ’’

वे हैरानी से बोेले, ‘‘कौन सबीर ’’ मैं ने प्रत्युत्तर में पूरी दास्तान सुनाते हुए कहा, ‘‘आप सबीर को नहीं जानते’’

‘‘अच्छाअच्छा, सबीर साहब, देखिए, उस दिन एक रोज के लिए यह घर उन्होंने एक हजार रुपए किराए पर लिया था. मेरी ‘नेमप्लेट’ उतारी गई और उन की पहचान टांगी गई और नौकरानी ने मां बन कर खाना खिलाया. मेरी बेटी ने उन की बेटी की भूमिका निभाई. बस, खेल खत्म पैसा हजम.’’ मैं ने वितृष्णा से कहा, ‘‘शर्म आनी चाहिए.’’

वे छूटते ही बोले, ‘‘किसे मुझे या सबीर साहब को अरे साहब, यह सब इस बिहार में दाल में नमक के बराबर भी नहीं, समुद्र में एक चम्मच चीनी मिलाने जैसा है. यहां आएदिन घोटाले हो रहे हैं, मंत्री अरबों लूट रहे हैं तो सरकारी कर्मचारी हरिश्चंद्र क्यों बने रहें ’’ मैं वापस चल पड़ा. नुक्कड़ पर पान वाले से आ कर पता पूछा. आज उस से अंतिम फैसला करना है. मैं गुस्से से उबल रहा था. मेरा विश्वास, मेरी ईमानदारी को सबीर ने दांव पर लगा दिया था.

पान वाले ने उस का नाम सुनते ही कहा, ‘‘हां साहब, जानते हैं हम. उन्हें हम ही क्या, इस शहर का हर पान वाला एक उम्दा इंसान समझता है. बड़े रईस आदमी हैं, मोतिहारी के चांदमारी में भी एक मकान है, चकिया में स्वयं रहते हैं. पीपराकोड़ी में उन का विशाल फार्महाउस है, वहां मेरा भाई दरबान है, हुजूर.’’ ‘स्वयं चकिया में, फार्महाउस पीपराकोठी में और पता चांदमारी का. वाह रे सबीर, क्या गुल खिलाया है तुम ने,’ मैं ने मन ही मन भन्नाते हुए कहा. मूड खराब हो चुका था. सो, लौट जाने का निर्णय किया.

अचानक मैं ने ड्राइवर से पीपराकोठी फार्महाउस चलने को कहा. ज्यादा परेशानी नहीं हुई. मुख्य सड़क से 14-15 किलोमीटर अंदर झखराग्राम में उस का फार्महाउस मिल गया. दरबान को उस के भाई का हवाला दिया तो उस ने विशाल फाटक खोल दिया. अंदर किले सा दृश्य था. चमचमाती सड़क और सुंदर सा गैस्टहाउस. गैस्टहाउस के पीछे एक विशाल गोदाम और वहां खड़े दर्जनों ट्रक. मैं ने वहां खड़े एक व्यक्ति से कहा, ‘‘मैं सीबीआई इंस्पैक्टर राणा हूं.’’

फार्महाउस में इफको खाद में नदी की बारीक रेत मिलामिला कर 1 टन खाद को 3 टन बनाया जा रहा था और करोड़ों रुपए गैरमामूली तौर पर कमाए जा रहे थे. पूछताछ से ज्ञात हुआ कि इस काले व्यापार में मंत्री महोदय भी बराबर के हिस्सेदार हैं. मैं सबीर के चरित्र के इस विरोधाभास पर हतप्रभ था.

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Vitamin B12 Deficiency: ऐसे करें विटामिन बी12 की कमी को पूरा

Vitamin B12 Deficiency: विटामिन बी12, जिसे खनिज कोबाल्ट की उपस्थिति के कारण कोबालामिन भी कहा जाता है, एक महत्त्वपूर्ण पानी में घुलनशील विटामिन है. यह अनेक शारीरिक गतिविधियों के लिए आवश्यक होता है. विटामिन बी12 के कई रूप होते हैं. इन की प्रत्येक की रासायनिक संरचना थोड़ी भिन्न होती है. इन में साइनोकोबालामिन (सीएनसीबीएल), हाइड्रोक्सिकोबालामिन, मिथाइलकोबालामिन (एमईसीबीएल) और एडेनोसिलकोबालामिन (एडोसीबीएल) होते हैं. जब आप एक विटामिन बी12 सप्लिमैंट चुनते हैं तो आप को यह पता चलेगा कि इन उत्पादों में बी12 के निम्नलिखित में से कोई एक रूप शामिल हो सकता है.

वर्तमान में साइनोकोबालामिन विटामिन बी12 का सब से अधिक उपयोग किया जाने वाला रूप है जो आहार सप्लिमैंट्स में पाया जाता है.
हालांकि इस के अतिरिक्त एडेनोसिलकोबालामिन, मेथाइलकोबालामिन और हाइड्रोक्सिकोबालामिन जैसे अन्य रूप भी सप्लिमैंट्स के रूप में उपलब्ध हैं.

लोगों की अलगअलग जरूरतों और पसंद को ध्यान में रखते हुए विटामिन बी12 सप्लिमैंट्स विभिन्न रूपों में उपलब्ध हैं जैसे:

– मुंह से निगली जाने वाली टैबलेट्स.
– सब्लिंगुअल टैबलेट्स जो जीभ के नीचे रख कर घुलने दी जाती हैं.
– इंजैक्शन के रूप में दी जाने वाली दवाइयां और नाक में स्प्रे के रूप में उपयोग किए जाने वाले फार्म.
ये सभी विकल्प इस बात पर निर्भर करते हैं कि व्यक्ति को किस प्रकार का अवशोषण सब से अधिक लाभदायक होता है और उस की चिकित्सकीय जरूरतें क्या हैं?

इस के अतिरिक्त एक विटामिन सप्लिमैंट एक एकलघटक उत्पाद हो सकता है, जिस में केवल विटामिन बी12 हो या यह एक अधिक व्यापक मल्टीविटामिन और मिनरल फौर्मूलेशन हो सकता है.

क्यों शरीर को विटामिन बी12 की जरूरत होती है

विटामिन बी12 शरीर के लिए एक बेहद जरूरी पोषक तत्त्व है जो हमें स्वस्थ रखने में कई अहम भूमिकाएं निभाता है खासतौर पर विटामिन बी12 स्वस्थ लाल रक्त कोशिकाओं के उत्पादन के लिए जरूरी है जो हमारे पूरे शरीर में औक्सीजन पहुंचाती हैं. यह डीएनए संश्लेषण की प्रक्रिया में भी शामिल होता है जो नई कोशिकाएं बनाने की प्रक्रिया है. इस के अलावा यह हमारे ऊर्जा उपापचय में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जिस से हमारा शरीर भोजन को ऊर्जा में बदल पाता है और यह हमारे मस्तिष्क और तंत्रिकाओं के सही तरीके से कार्य करने में भी मदद करता है.

इन सभी कार्यों के कारण स्वस्थ विकास और समग्र स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए विटामिन बी12 वास्तव में आवश्यक है. यह सुनिश्चित करना कि हमें इस विटामिन की पर्याप्त मात्रा मिले, हमारे स्वास्थ्य के लिए अहम है.

कौन से खा-पदार्थ विटामिन बी12 के अच्छे स्रोत होते हैं

सभी विटामिनों की तरह शरीर विटामिन बी12 का निर्माण नहीं कर पाता और यह मुख्य रूप से भोजन से प्राप्त होता है. विटामिन बी12 मुख्य रूप से पशु आधारित खा-पदार्थों में पाया जाता है.

विटामिन बी12 के लिए सिफारिश की गई दैनिक खुराक क्या है

विटामिन बी12 के लिए सिफारिश किए गए आहार की अनुमति (आरडीए) किशोरों और वयस्कों के लिए 2.4 माइक्रोग्राम प्रतिदिन है. गर्भवती महिलाओं 2.6 माइक्रोग्राम प्रतिदिन या स्तनपान कराने वाली महिलाओं 2.8 माइक्रोग्राम प्रतिदिन के लिए यह थोड़ा ज्यादा है.

विटामिन बी12 के पर्याप्त स्तर को बनाए रखने और इस की कमी को रोकने के लिए प्रतिदिन 2.4 माइक्रोग्राम का सेवन करने की सलाह दी जाती है.

विटामिन बी12 सप्लिमैंट लेने की आवश्यकता का पता कैसे लगाएं

अनुमान है कि लगभग 75% भारतीय आबादी में विटामिन बी12 की कमी है. शाकाहारियों, बुजुर्गों, बच्चों, गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं, पुराने शराब के आदी लोगों और कुछ आंत संबंधी विकारों से ग्रस्त व्यक्तियों में विटामिन बी12 की कमी होने का खतरा अधिक होता है. यदि आप को निम्नलिखित में से कोई भी शिकायत है तो हो सकता है कि आप को विटामिन बी12 की कमी हो:
– सामान्य कमजोरी, थकान.
– त्वचा और नाखूनों का पीला पड़ना.
– जीभ का पीलापन या दर्द.
– भूख न लगना और कब्ज.
– पैरों और हाथों में सुन्नपन और झनझनी.
– चलने और संतुलन बनाए रखने में कठिनाई.
– मनोदशा में बदलाव, याददाश्त कमजोर होना, भटकाव और मनोभ्रंश.

शरीर में विटामिन बी12 की कमी का पता कैसे किया जाए

यह पता लगाने के लिए कि किसी व्यक्ति को विटामिन बी12 सप्लिमैंट लेने की आवश्यकता है या नहीं, उस के लिए निम्नलिखित रक्त परीक्षण किए जाते हैं:
– सीरम विटामिन बी12 का लैवल.
– सीरम मिथाइलमेलोनिक ऐसिड (एएमएएमए) का लेवल.
– सीरम होमोसिस्टीन का लैवल.
– सीरम होलोट्रांसकोबालामिन (होलोटीसी) का लैवल.

इन परीक्षणों के परिणामों के आधार पर डाक्टर विटामिन बी12 की कमी के निदान की पुष्टि कर सकते हैं. क्लीनिकल प्रयोगशालाएं विटामिन बी12 की कमी को उस स्थिति में परिभाषित करती हैं जब रक्त में विटामिन बी12 का स्तर 150 पिकोग्राम प्रति मिलीलिटर (110.67 पिकोमोल प्रति लिटर) से कम होता है या कुछ मामलों में 200 पिकोग्राम प्रति मिलीलिटर से कम होना भी कमी माना जाता है.

क्या विटामिन बी12 सप्लिमैंट से कोई साइड इफैक्ट होता है

विटामिन बी12 की सिफारिश की गई दैनिक मात्रा (2.4 माइक्रोग्राम) से 1,000 गुना अधिक खुराक तक सुरक्षित मानी गई है और यह गर्भावस्था के दौरान भी सुरक्षित होता है. यहां तक कि अधिक मात्रा में लेने पर भी विटामिन बी12 आमतौर पर सुरक्षित माना जाता है क्योंकि शरीर इस का अतिरिक्त हिस्सा संग्रहित नहीं करता. हालांकि कभीकभी कुछ लोगों को विटामिन बी12 के इंजैक्शन लेने के बाद चक्कर आना, खुजली, त्वचा पर रैशेज या मितली जैसी हलकी प्रतिक्रियाएं हो सकती हैं.

क्या विटामिन बी12 का अधिक मात्रा में सेवन हानिकारक होता है

बिलकुल नहीं. विटामिन बी12 एक जल में घुलनशील विटामिन है, जिस की अधिक मात्रा लेने पर शरीर उसे मूत्र के माध्यम से बाहर निकाल देता है. वर्तमान में उपलब्ध शोधों के अनुसार, विटामिन बी12 को अत्यधिक मात्रा में लेने चाहे मौखिक रूप से या अंत:शिरा इंजैक्शन द्वारा से कोई विषाक्त प्रभाव या प्रतिकूल प्रतिक्रिया सामने नहीं आई है. स्वस्थ व्यक्तियों द्वारा मुंह या सप्लिमैंट्स से उच्च मात्रा में इस का सेवन सुरक्षित पाया गया है. यह देखा गया है कि जब विटामिन बी12 अधिक मात्रा में मुंह से लिया जाता है, तब भी केवल एक सीमित प्रतिशत ही शरीर द्वारा अवशोषित किया जाता है. यह सीमित जैवउपलब्धता इस की न्यून विषाक्ता का एक संभावित कारण हो सकता है.

विटामिन बी12 की अत्यंत कम विषाक्तता को ध्यान में रखते हुए अमेरिकी खा- एवं पोषण बोर्ड ने इस के लिए ली जाने की ऊपरी सेवन सीमा निर्धारित नहीं की है.
अत्यधिक मात्रा की खुराक जैसेकि 2 मिलीग्राम प्रतिदिन मुंह से या 1 मिलीग्राम मासिक इंट्रामस्क्युलर (आईएम) इंजैक्शन द्वारा, बिना किसी महत्त्वपूर्ण दुष्प्रभाव के खतरनाक ऐनीमिया रोग के इलाज के लिए उपयोग किया गया है.
किसी भी विटामिन सप्लिमैंट को शुरू करने से पूर्व ध्यान रखने वाली बातें:

– स्वस्थ और संतुलित आहार आमतौर पर शरीर के लिए आवश्यक सभी विटामिन और खनिज पदार्थ प्रदान करता है.
– कोई भी विटामिन सप्लिमैंट अपनी मरजी से लेने से पहले हमेशा अपने डाक्टर से परामर्श करें.
– अपनी विभिन्न स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं और उन के लिए आप कौन सी दवाएं ले रहे हैं, इस के बारे में अपने डाक्टर को बताएं.
– आप जो विटामिन सप्लिमैंट ले रहे हैं उन के कंटैंट के बारे में जानकारी प्राप्त करें. अलगअलग विटामिन सप्लिमैंट में अलगअलग विटामिन और खनिज पदार्थ होते हैं और उन की मात्रा भी अलगअलग होती है.
– विटामिन सप्लिमैंट केवल अपने डाक्टर की सलाह के अनुसार ही लें.
– अपने डाक्टर से यह मालूम करें कि विटामिन सप्लिमैंट कितनी खुराक में और कितने समय तक लेना है.
– अगर विटामिन सप्लिमैंट लेने के बाद कोई भी अवांछित दुष्प्रभाव दिखाई दे तो तुरंत अपने डाक्टर को बताएं.

वैज्ञानिक सलाहकार,
एल्कोमेक्स जीबीएन फार्मा गु्रप, यूएसए
ई-मेल www.drsanjayagrawal.in

Vitamin B12 Deficiency

Kitchen Cleaning: फैस्टिवल में रसोई की सफाई, रखें इन बातों का ध्यान

Kitchen Cleaning: किचन का इस्तेमाल आप को खाना बनाने के लिए सुबहशाम करना है इसलिए दीवाली की सफाई में इस की क्लीनिंग जल्दी कर लेनी चाहिए. तेल के धब्बे साफ करने से ले कर चिपचिपे डब्बे और रसोई में उपयोग होने वाले खाद्यपदार्थों समेत सभी कुछ की सफाई करनी होती है. ऐसे में आप किचन क्लीनिंग के लिए ब्लीचिंग पाउडर और डिटर्जैंट का इस्तेमाल कर सकती हैं. इस के आलावा बाजार में भी कई तरह के किचन क्लीनर मिलते हैं. उन्हें भी खरीदा जा सकता है. इस से किचन की टाइल्स और प्लेटफौर्म आसानी से चमक सकेगा. आप चाहें तो बेकिंग सोडा और विनेगर का भी यूज कर सकती हैं.

इस के आलावा किचन में धूलमिट्टी और तेल के दागधब्बे दीवार और फर्श पर आ जाते हैं. इन्हें साफ करते समय डिश सौप, गरम पानी, स्क्रैच क्लीनर की मदद ले सकती हैं. किचन की दीवारों, रैंप और सिंक साफ करें. किचन में रखे डब्बों आदि को भी झाढ़पोंछ लें. धब्बों को साफ करने के लिए एल्बो ग्रीस का इस्तेमाल करें.

आइए, जाने कैसे करें अपनी किचन की सफाई:

दीवारों के धब्बों को डिटर्जेंट की मदद से साफ करें

जब हम किसी भी सब्जीदाल में छौंक आदि लगते हैं तो तेल के छींटे उठ कर दीवारों को गंदा करते हैं. इस के आलावा जब कुछ तलते हैं तो भी चिकनाई दीवारों पर बैठ जाती है. इसे साफ करने के लिए ब्लीच व डिटर्जैंट का उपयोग कर सकती हैं. किचन स्लैब को डिटर्जैं से साफ कर के चमकाया जा सकता है. ध्यान रखें अगर किचन की दीवारों में टाइल्स लगी हैं तो उन्हें डिटर्जैंट से साफ करें. सीमेंट व पेंट वाली दीवार पर कपड़े से पोंछें या पेंट कराएं.

कांच के बरतन आला से साफ करें

आला एक तरह का क्लीनर होता है, जिस के इस्तेमाल से आप कांच के बरतनों पर लगे दागों या चाय के निशानों को हटा सकती हैं. इस के लिए आला को थोड़ाथोड़ा सभी कांच के बरतनों में डालें और कुछ देर छोड़ कर रगड़ दें. फिर बरतन मांज लें. वह चमक उठेगा.

चांदी के बरतन कुछ यों चमकाएं

चांदी के बरतनों की सफाई के लिए किसी बड़े बरतन में थोड़ा पानी ले कर उस में ऐल्यूमीनियम फौइल का एक टुकड़ा, थोड़ा सा खाने वाला सोडा और कपड़े धोने के साबुन का एक टुकड़ा मिलाएं और उबाल लें. इस पानी में चांदी के बरतनों को कुछ देर के लिए छोड़ दें, फिर ठंडे पानी से धो लें. इस के अलावा चांदी के बरतनों पर टूथपेस्ट लगा कर और कुछ देर बाद रगड़ कर धोने से भी वे चमक उठते हैं. 1 लिटर पानी में 1 चम्मच बेकिंग सोडा डाल कर चांदी के बरतनों को इस में डाल दें. उस के बाद फौइल पेपर से रगड़ें. बरतन चमक उठेंगे.

पीतल के बरतनों की सफाई के लिए लिक्विड तैयार करें

पीतल के बरतनों या दूसरी चीजों को साफ करने के लिए इमली, नमक, नीबू और सिरका का इस्तेमाल कर सकती हैं. वैसे पीतल के शो पीस और पुराने बरतनों को साफ करने के लिए मार्केट में खास लिक्विड भी मिलता है.

प्लास्टिक का सामान बेकिंग सोडा से साफ करें

अगर किचन में प्लास्टिक का सामान रखा है तो उसे साफ करने के लिए एक बालटी में गरम पानी भर कर पानी में 3 चम्मच बेकिंग सोडा मिलाएं. अब इस पानी में प्लास्टिक की चीजों को डाल कर आधा घंटा रख दें. फिर उन चीजों को साफ पानी से धो लें.

माइक्रोवेव की सफाई भी है जरूरी

नीबू में ऐसिडिक गुण होते हैं जो सफाई के लिए बहुत अच्छे होते हैं. आधे कटोरे पानी में आधा नीबू निचोड़ें और इसे अच्छे से मिला लें. अब इसे माइक्रोवेव में अच्छे से उबाल कर 10 मिनट के लिए छोड़ दें. इस की नमी माइक्रोवेव में फैल जाएगी. अब इसे मुलायम कपड़े से पोंछ कर साफ कर लें. इस में थोड़ा सा व्हाइट विनेगर मिलाने से यह और भी ज्यादा चमक जाएगा.

किचन का सिंक जरूर साफ करें

किचन के गंदे सिंक की सफाई करने के लिए बेकिंग सोडा सब से अच्छा औप्शन है. इस के लिए आप सब से पहले खाली सिंक को नौर्मल पानी से धो लीजिए. अब पूरे सिंक पर सोडा पाउडर बुरक कर उसे कवर कर दीजिए. 10 मिनट तक ऐसे ही रहने देने के बाद स्क्रबर या ब्रश की मदद से रगड़ कर साफ कर लें.
सिरका भी एक अच्छे क्लीनिंग एजेंट के रूप में काम करता है.

किचन के सिंक की गंदगी और चिकनाई को क्लीन करने के लिए पहले थोड़ा बेकिंग सोडा डालें और उस के बाद सिरके का इस्तेमाल करें. इस से कैमिकल रिएक्शन होने से बुलबुले बनने लगेंगे और सिरका बेकिंग सोडा को डिजौल्व कर देगा जिस से किचन सिंक पर जमी गंदगी और चिकनाई साफ हो जाएगी.

वुडन कैबिनेट्स को साफ करने का तरीका

2 चम्मच बेकिंग सोडा को 2 चम्मच नीबू के रस में मिलाएं और इस में एक कप गरम पानी डालें. इस घोल को किसी स्प्रे बोतल में भर लें. अब इस लिक्विड को कैबिनेट में छिड़क कर लगभग 20-30 मिनट के लिए छोड़ दें. उस के बाद कौटन कपड़े से पोंछ दें.

वुडन कैबिनेट को साफ करने का दूसरा तरीका है व्हाइट विनेगर. इस के लिए 1 कप पानी में 1/4 कप व्हाइट विनेगर मिलाएं. साथ ही 2 चम्मच नारियल तेल और 2 चम्मच डिश वाशिंग भी. अब इसे एक बोतल में भर दें और इस से कैबिनेट को साफ करें. गंद और गंदगी दूर हो जाएगी.

हैंडल साफ करें

एक साफ कौटन के कपड़े को पानी में भिगोएं और अच्छी तरह निचोड़ लें. अब हैंडल को इस गीले कपड़े से पोंछना शुरू करें.
क्लीनिंग घोल बनाने के लिए एक कटोरी गरम पानी में 2 चम्मच डिश वाशिंग जैल और 1 चम्मच नीबू का रस डालें. इस मिश्रण को अच्छी तरह मिलाएं. अब हैंडल को साफ करना शुरू करें. एक स्क्रबिंग पैड को घोल में डुबो कर हैंडल साफ करें. 1 मिनट तक अच्छे से स्क्रब करें. नीबू के रस में मौजूद गुण तेल के जमाव को बहुत जल्दी मिटाते हैं. बीचबीच में स्क्रबिंग पैड को निचोड़ती रहें. कोनों को साफ करने के लिए टूथब्रश का इस्तेमाल किया जा सकता है. स्क्रब करने के बाद साफ स्पंज को पानी में भिगो कर हैंडल को पोंछें.

पंखों की सफाई

पंखों की सफाई करने से पहले फर्नीचर, बैड आदि पर पुरानी बैडशीट या पुराने अखबार डाल दें ताकि पंखों की गंदगी उन पर न गिरे. फिर सूखे कपड़े से पंखा साफ करें. इस के बाद साबुन वाले पानी में कपड़ा भिगो कर पंखा साफ करें और आखिर में सूखे कपड़े से पोंछ दें. बेहतर होगा कि सीढ़ी पर खड़े हो कर पंखे साफ करें. ऐसा मुमकिन नहीं हो तो एक लंबी राड़ में सूखा कपड़ा बांध लें और उस से पंखे साफ करें. फिर गीला कपड़ा बांध कर साफ करें. इस के अलावा एक पुराने तकिए के कवर को पंखे के ब्लेड में डालें जैसेकि आप इसे तकिए पर चढ़ाते हैं. इस के बाद ऊपर से ब्लेड पकड़ कर साफ करें. इस तरह, इस पर जमी सारी गंदगी कवर के जरीए बाहर आ जाएगी.

डोरबैल और स्विच बोर्ड भी साफ करें

डोरबैल और दूसरे स्विच बोर्ड भी साफ करें. इन्हें कई लोग छूते हैं, साथ ही इन पर धूलधब्बे भी जमते रहते हैं. इन्हें साफ करने के लिए सब से पहले आप घर का मेन स्विच औफ कर दें. फिर कपड़े को डिटर्जैंट घोल में गीला करें और स्विच पर रगड़ें. जब ये अच्छी तरह सूख जाएं तभी पावर औन करें.

काउंटरटौप को साफ करें

आप के काउंटरटौप पर सब्जियां काटने से ले कर आटा बेलने तक बहुत सारे काम होते हैं. इसलिए इस की सफाई पर भी खास ध्यान देने की जरूरत होती है. सब से पहले चैक करें कि आप का काउंटरटौप किस चीज से बना है और फिर उसे सही से साफ करने वाले क्लीनर से साफ करें. अगर यह लैमिनेटेड है तो सिरका और पानी का मिश्रण अच्छा काम करता है.

बाजार में मिलने वाले किचन क्लीनर

हैप्पी प्लेनिट कचन क्लीनर, कम स्क्रबिंग के लिए फौमिंग फौर्मूलेशन 500एमएल स्टोव, चिमनी, काउंटर टौप, उपकरण, दीवारों और कैबिनेट के लिए उपयुक्त है, वूकी ईको फैं्रडली हैवी ड्यूटी औन पर्पज हार्ड स्टेन क्लीनर, सीआईएफ पावर ऐंड शाइन किचन क्लीनर स्प्रे, टफ ग्रीस और स्टेन रिमूवल, चिमनी, गैस स्टोव, हौब, टैप, टाइल्स और सिंक के लिए उपयुक्त, लाइजोल ट्रिगर पावर किचन क्लीनर, मिस्टर मसल रसोई क्लीनर, अरबन वाइप किचन क्लीनर स्प्रे सभी किचन सतहों, गैस स्टोव, काउंटरटौप, टाइल्स, चिमनी और सिंक के लिए उपयुक्त है. ये सभी क्लीनर औनलाइन उपलब्ध हैं.

Kitchen Cleaning

Hair Transplant: हेयर ट्रांसप्लांट जानलेवा न बन जाए

Hair Transplant: आज के समय में बाल झड़ना, गंजापन और कमजोर बालों की समस्या आम है. खासकर युवाओं में यह परेशानी तेजी से बढ़ रही है. इस के पीछे कई कारण हैं जैसे बढ़ता प्रदूषण, खराब लाइफस्टाइल, तनाव, नींद की कमी, हैल्दी खानपान की कमी, हेरिडिटरी और जंकफूड से प्यार. सोशल मीडिया पर परफैक्ट लुक के दबाव के चलते युवा तेजी से कौस्मैटिक ट्रीटमैंट्स की ओर आकर्षित हो रहे हैं, जिन में से एक है हेयर ट्रांसप्लांट इसे हेयर रैस्टोरेशन या हेयर रिप्लेसमैंट भी कहा जाता है.

हालांकि हेयर ट्रांसप्लांट एक सर्जिकल प्रक्रिया है जो सही तरीके और अनुभवी डाक्टर की निगरानी में कराई जाए तो असरदार साबित हो सकती है लेकिन इस में छोटी सी लापरवाही गंभीर नतीजे दे सकती है. यहां तक कि जान भी जा सकती है. हाल ही में कानपुर में 2 लोगों की मौत के मामले सामने आया, जिन्होंने हेयर ट्रांसप्लांट कराया था.

ऐसे में यह बेहद जरूरी है कि इस प्रक्रिया को ले कर जागरूकता फैलाई जाए. हम यह नहीं कह रहे हैं कि आप अगर गंजेपन की समस्या से जूझ रहे हैं तो उस के लिए कोई उपाय न करें. आप को भी अपनी पर्सनैलिटी को बेहतर बनाने का पूरा हक है, लेकिन जरूरी है कि आप हेयर ट्रांसप्लांट से पहले उस से संबंधित सारी जानकारी ले लें ताकि आप का ऐक्सपीरिएंस न बिगड़े.

हेयर ट्रांसप्लांट क्या है

हेयर ट्रांसप्लांट एक सर्जरी होती है, जिस में सिर के किसी भाग से बालों की जड़ें (फौलिकल्स) निकाल कर गंजी जगह या पतले बालों वाले हिस्सों में प्रत्यारोपित की जाती हैं. बालों के झड़ने और गंजेपन से जूझ रहे युवा जब बाल उगाने के सब नुसखे आजमा चुके होते हैं तब सीन में आखिरी और स्थायी विकल्प के तौर पर हेयर ट्रांसप्लांट की हीरो की तरह ऐंट्री होती है.

कितने तरह का हेयर ट्रांसप्लांट

फौलिक्युलर यूनिट ट्रांसप्लांटेशन (एफयूटी)

इस में सिर के पीछे के हिस्से में चीरा लगा कर स्किन की एक पतली पट्टी निकाली जाती है, जिस में हजारों हेयर फौलिकल्स होते हैं. उस स्किन स्ट्रिप को माइक्रोस्कोप की मदद से कई छोटेछोटे ग्राफ्ट्स (फौलिक्युलर यूनिट्स) में बांटा जाता है, जिन में 1 से 4 बालों की जड़ें होती हैं. इन स्किन ग्राफ्ट्स को जिन जगहों पर बाल कम हैं या नहीं हैं, वहां छोटेछोटे छेद कर के लगाया जाता है. बाद में स्किन को टांके लगा कर सिल दिया जाता है और कुछ हफ्तों में वहां बाल उगने लगते हैं. बहरहाल, इस में सिर के पीछे की तरफ लंबा कट ठीक होने में वक्त लगता है और व्यक्ति को टांके ठीक होने तक सोने में भी परेशानी होती है. कट का निशान भी काफी वक्त तक विजिबल रहता है.

फौलिक्युलर यूनिट ऐक्सट्रैक्शन (एफयूई)

इस के लिए सब से पहले उस हिस्से को ट्रिम किया जाता है यानी बालों की लैंथ को कम किया जाता है, जहां से बाल निकाले जाने हैं. फिर एक माइक्रो पंच टूल की मदद से बालों की जड़ों (फौलिक्युलर यूनिट्स) को निकाला जाता है. इस में सर्जिकल स्ट्रिप नहीं निकाली जाती, इसलिए कोई लंबा कट नहीं लगाया जाता. एफयूई की अच्छी बात ये भी है कि इस में बाल केवल सिर से ही नहीं बल्कि शरीर के अन्य हिस्सों जैसे दाढ़ी, छाती, पेट और प्यूबिक एरिया से भी निकाले जा सकते हैं. इस में जहां से बाल लिए जाते हैं यानी डोनर एरिया में ठीक होने का वक्त भी कम लगता है.

किन लोगों को हेयर ट्रांसप्लाट की जरूरत

वे लोग जो बाल उगाने के अन्य तरीके आजमा चुके हैं और जिन्हें कोई रिजल्ट नहीं मिल रहा हो, जिन के सिर के 50त्न के आसपास बाल झड़ चुके हों, हेयर फौल की समस्या स्थायी हो और आनुवंशिक यानी हेरिडिटरी हो, सिर के पीछे के हिस्से यानी डोनर एरिया में बाल हों और उम्र 25 साल से ज्यादा हो.

बरतें ये सावधानियां

– किसी अनुभवी और प्रमाणित हेयर ट्रांसप्लांट सर्जन से ही सलाह लें.
– डाक्टर की योग्यता, अनुभव और पुराने मरीजों के रिव्यू जान लें.
– अपनी हैल्थ कंडीशन, ऐलर्जी और दवाओं की पूरी जानकारी डाक्टर को दें.
– क्लीनिक में इमरजेंसी सुविधाएं,
स्टरलाइजेशन और औक्सीजन सपोर्ट की व्यवस्था होनी चाहिए.
– ऐनेस्थीसिया देने के दौरान विशेषज्ञ मौजूद
होना चाहिए.
– सर्जरी से पहले कोई टैक्नीशियन या काउंसलर नहीं बल्कि डाक्टर ही आप का मार्गदर्शन करे.

हेयर ट्रांसप्लांट के बाद बाल कब आते हैं

3 से 4 महीने में 10-20% बाल उगते हैं.
6 महीने में 50% तक ग्रोथ होती है.
8 से 9 महीने में लगभग 80% परिणाम दिखते हैं.
12 महीने के भीतर अधिकतर मामलों में 100% ग्रोथ हो जाती है. हालांकि यह समय हर व्यक्ति के शरीर, स्किन और फौलिकल्स की क्षमता पर निर्भर करता है.

ट्रांसप्लांट के बाद सावधानी

– सर्जरी के बाद कुछ दिनों तक सीधा न सोएं, करवट ले कर और सिर को ऊंचा कर के ही लेटें. सर्जरी से पहले न तो मेंहदी लगाएं न ही हेयर डाई करें. सिर में तेल या जैल लगा कर सर्जरी के लिए न पहुंचें. सर्जरी से पहले बाल और स्कैल्प साफ और धुली हुई हो.
– अगर किसी दूसरे शहर में ट्रीटमैंट कराया है तो 2-3 दिन तक उसी शहर में रहें.
– पहली पट्टी क्लीनिक जा कर ही हटवाएं.
पहला हेयर वाश क्लीनिक में डाक्टर की निगरानी में ही कराएं.
– बालों पर ऊपर से सेलाइन स्प्रे करें, हाथ लगाने या खुजली करने से बचें.
– सीधे धूप में जाने से बचें, बाहर जाते समय सर्जरी टोपी पहनें. हैलमेट या नौर्मल कैप
10-15 दिन बाद पहनें.
– बाल धोने के लिए केवल ऊपर से शैंपू का पानी डालें, मसलें नहीं. सिर को खुला नहीं रखना है जब तक घाव भर नहीं जाते तब तक सिर को सर्जिकल कैप या कौटन के कपड़े से ढक कर ही रखें.
– ट्रांसप्लांट वाली जगह पर मक्खीमच्छर न बैठने दें.
– शराब तथा सिगरेट के सेवन से दूरी ही भली. डाक्टर ने जो ऐंटीबायोटिक आप को दी हैं उन का समय से सेवन करें. सर्जरी से 24 घंटे पहले तक डाक्टर को बताए बगैर किसी भी दवा का सेवन न करें.

हेयर ट्रांसप्लांट के साइड इफैक्ट्स

ट्रांसप्लांट की प्रक्रिया आमतौर पर सुरक्षित मानी जाती है लेकिन कुछ हलके और अस्थाई साइड इफैक्ट्स हो सकते हैं:
– सिर पर सूखे घाव या पपडि़यां बनना.
– हलकी खुजली या जलन.
– सुन्नपन या सनसनाहट.
– हलका सिरदर्द या असहजता.
– सूजन या टाइटनैस की भावना.

हेयर ट्रांसप्लांट कितना खतरनाक

एक स्टडी के अनुसार हेयर ट्रांसप्लांट में 4.7% मामलों में नकारात्मक परिणाम देखे गए. हालांकि संख्या कम है लेकिन इस में रिएक्शन, इन्फैक्शन और सेप्सिस जैसे मामले भी शामिल हैं जो जानलेवा हो सकते हैं.
कानपुर की घटना इस बात का उदाहरण है कि बिना जरूरी मैडिकल जांच और सावधानी के की गई हेयर ट्रांसप्लांट सर्जरी जीवन के लिए खतरा बन सकती है. ऐसे में सिर्फ सस्ता औफर देख कर जल्दबाजी में कदम न उठाएं.
हेयर ट्रांसप्लांट आज के समय में एक आम कौस्मैटिक सर्जरी बन चुकी है पर इस के कौंप्लिकेशन को आम मानना ठीक नहीं है. इसलिए इसे कराने से पहले अपनी स्वास्थ्य स्थिति, प्रक्रिया की बारीकियों, डाक्टर की योग्यता और क्लीनिक की विश्वसनीयता की पूरी जांचपड़ताल करनी चाहिए. बालों की चाह में कोई जल्दबाजी या लापरवाही जानलेवा साबित हो सकती है. जरूरी है कि सजग रहें, सही जानकारी जुटाएं और जरूरत पड़े तो वैकल्पिक तरीकों को भी अपनाएं. बालों से बढ़ कर जिंदगी है, इसलिए फैसला सोचसमझ कर लें.

Hair Transplant

Modern Girl Outfit: लड़कियां क्यों न पहनें सहज परिधान

Modern Girl Outfit: स्त्री पैदा नहीं होती बल्कि बनाई जाती है’ सिमोन द बोउवार की यह पंक्ति दुनियाभर में स्त्री की सचाई बयां करती है. हमारे यहां स्त्री को गढ़ने में पितृसत्तात्मक परिवेश, समाज का संकीर्ण दृष्टिकोण, धर्मग्रंथ, नियमकानून और जरूरत पड़ने पर मारपिटाई महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है. यह काम बेटी छोटी सी होती है तभी से शुरू हो जाता है. उसे बताया जाता है कि वह लड़की है इसलिए उस के खानपान, रहनसहन, पहनावे और यहां तक कि पढ़ाईलिखाई पर भी एक शिकंजा कायम रहेगा. उसे पलपल जीवन में समझते करने होंगे और अपने सपनों को दफन करना होगा.

उसे हमेशा पुरुष वर्ग के अधीन रहना होगा. उसे अपना चेहरा और बदन छिपा कर तथा सिर झका कर जीने की आदत डालनी होगी वरना उस का जीना दूभर हो जाएगा.

यही वजह है कि उसे बचपन से अलग तरह के कपड़े पहनाए जाते हैं, अलग तरह के काम कराए जाते हैं और अलग तरह से खिलायापिलाया जाता है. यानी उसे लड़की बनाया जाता है जो कभी लड़कों की बराबरी नहीं कर सकती. अगर उसे बराबरी करनी है तो बहुत कुछ बदलना पड़ता है.
फिल्म ‘दंगल’ एक छोटा सा दृश्य है जिस में महावीर सिंह फोगाट अपनी बेटियों गीता और बबिता को पहलवान बनाना चाहते हैं और इस के लिए रोज सुबह दौड़ने के लिए कहते हैं. वे रोज दौड़ने भी निकलती हैं. लेकिन कुछ दिन दौड़ने के बाद दोनों अपने पिता से बोलती हैं कि पापा सूट में दौड़ा नहीं जाता. तब उन के पिता महावीर सिंह दोनों को चचेरे भाई का निक्कर और शर्ट को छोटा कर पहनने के लिए देते हैं. दोनों उन्हें पहन कर बिना परेशानी के दौड़ लगाती हैं.

भेदभाव की ओर इशारा

फिल्म का यह छोटा सा दृश्य स्त्रीपुरुष के बीच पहनावे में उस भेदभाव की ओर इशारा करता है जिस ने औरत को असुविधाजनक कपड़ों में बांध दिया है. हमारे समाज में स्त्रीपुरुष के लिए अलगअलग पहनावा तय किया गया है. समय के साथ इस में बदलाव भी आए लेकिन अंतर हमेशा कायम रहा. लड़कियों के पहनावे हमेशा से असुविधाजनक और भारीभरकम रहे हैं. आजकल कुछ लड़कियां लड़कों जैसे पहनावे भी पहनने लगी हैं मगर उन की संख्या बहुत कम है.

पहनावे में लैंगिक भेदभाव

बचपन से ही देखें तो छोटी लड़कियों को फ्रौक और स्कर्ट पहनाई जाती है जबकि लड़के पैंट और टीशर्ट में आराम से रहते हैं. फ्रौक एक ऐसा पहनावा है जिस में तेजी से भागनादौड़ना और तुरंत उठनाबैठना मुश्किल होता है. ऊपर से लड़कियों को अपना शरीर छिपाने को ले कर भी मातापिता अति सजग करने लगते हैं. अब फ्रौक और स्कर्ट जैसे पहनावे में लड़कियों को हमेशा उन्हें सिमटा कर बैठना या दौड़ते हुए उड़ने से बचाना पड़ता है. वहीं पैंटशर्ट जैसा पहनावा इन सब चिंताओं से मुक्त होता है.
इसी तरह बड़े होने पर सूटसलवार पहनने और चुन्नी ओढ़ने के लिए दे दिए जाते हैं. यह ऐसा पहनावा है जिस में लड़कियों को आधा ध्यान अपनी चुन्नी संभालने पर ही लगाना पड़ता है. चुन्नी संभालने की बात हमेशा उन के दिमाग में घूमती रहती है. वहीं बिना जेब के इन कपड़ों के साथ उन्हें एक हैंड बैग तो हमेशा ले जाना पड़ता है. इस सब के साथ अगर तेजी से चलना या दौड़ना पड़ जाए तो कितना असुविधाजनक होगा यह हम खुद सोच सकते हैं.

यही हाल साड़ी का है. पल्ला संभालना और जरा सा दौड़ने पर साड़ी का टांगों में फंसना या ढीला होने का डर होना स्वाभाविक है. ऊपर से इसे पहनने में लगने वाला समय भी अपनेआप में एक दिक्कत है.

खूबसूरत दिखने की चाह

अब अगर बुरके की बात करें तो उस में ठीक से चल पाना तक मुश्किल लगता है. गरमी हो या सर्दी हमेशा दोगुने कपड़ों को शरीर पर ढोना ऐसे ही आप को थका देगा. उस पर चेहरा छिपाने की जद्दोजहद और उलझ कर रख देती है. आधुनिक जमाने के साथ आए गाउन, मिडी और लहंगे वाले सूट भी स्त्री की ऐक्टिविटी को धीमा कर देते हैं.

इन के अलावा फुटवियर भी काफी अलग होते हैं. खूबसूरत लड़कियों को स्टाइलिश दिखने के लिए हील्स पहनने का लालच दिया जाता है. हील पहनना भी आसान नहीं है. जब कोई लड़की हील पहनती है तो वह बहुत धीरेधीरे चल पाती है और पैरों में दर्द होना ये हील के साइड इफैक्ट्स हैं. लेकिन स्टाइलिश और खूबसूरत दिखने की चाह में लड़कियां ये सारी दिक्कतें नजरअंदाज कर देती हैं.

स्त्री की सक्रियता पर पहनावे का असर

औरत के लिए तय किए गए कपड़े ऊपरी तौर पर तो असुविधाजनक नहीं लगते क्योंकि वे रोज उन्हें पहन कर चलती हैं और अब उसे आदत बना लिया है. लेकिन अगर स्त्री और पुरुष के कपड़ों की तुलना की जाए तो अंतर साफ नजर आता है. बच्चियों और महिलाओं के कपड़े न सिर्फ इस तरह तैयार किए गए हैं कि पूरा शरीर ढक दें बल्कि इन कपड़ों की वजह से इन की सक्रियता और चुस्तीफुरती भी कम हो जाती है.

मसलन, कई दफा देर होने पर हमें बस और मैट्रो भाग कर पकड़नी पड़ती है. बस में तो लोग लटक कर भी जाते हैं. आप खुद ही अंदाजा लगा सकते हैं कि ऐसी हालत में साड़ी और सूट में महिला कितनी असहज हो जाएगी. वह दौड़ तो सकती है लेकिन पुरुष जितनी तेजी से नहीं. बस में लटकना तो उस के लिए और मुश्किल होता है. अगर आप जल्दबाजी में हैं और जल्दी मैट्रो या बस लेने के लिए जींस या पैंट पहने हुए लड़कियां फट से रेलिंग लांघ कर स्टेशन या बस की सीढि़यां चढ़ सकती हैं लेकिन साड़ी और सूट पहनने वाली लड़कियां धूम कर उस जगह से आती हैं जहां से रेलिंग टूटी हो क्योंकि छोटी सी दिवार फांदना भी उन के लिए संभव नहीं होता. उन्हें इस तरह के हर काम में यानी दौड़भाग में कुछ समय ज्यादा लगता है.
साइकिल चलानी हो या बाइक सूट, साड़ी पहन कर लड़की यह सब नहीं कर सकती. उसे जींसशर्ट पहननी होती है. स्कूल में ही देखें तो लड़कियों को स्कर्ट में खेलने में सहज महसूस नहीं होता. स्पोर्ट्स में भाग लेने वाली लड़कियां कभी स्कर्ट पहन कर नहीं खेलतीं. ऐसे में थोड़ाथोड़ा कर के ही सही लेकिन लड़कियां पीछे छूट जाती हैं.

यह भेदभाव क्यों

दूसरी तरफ लड़कों के कपड़ों को देखें तो उन के कपड़े उन्हें ऐक्टिव बनाए रखने में मदद करते हैं. वक्त के साथ पैंटशर्ट और जींसशर्टटीशर्ट जैसे कपड़े उन के पहनावे का हिस्सा बन गए हैं. अमूमन हम अपने घरों में देखते हैं कि लड़कों को बाहर जाना हो तो पर्स जेब में डाला और जूते पहन कर चल दिए क्योंकि घर में भी वे अमूमन पैंट, टीशर्ट पहने होते हैं और बाहर जाने के लिए भी वही पहनना होता है. बाहर निकल कर दौड़नेभागने में भी उन्हें दिक्कत नहीं होती. उन के दोनों हाथ फ्री होते हैं. हाथ में कुछ संभालना है इस पर उन का ध्यान नहीं बंटता और वे तेजी से जहां जाना हो चले जाते हैं.

हम इस फर्क को ऊपरी तौर पर नहीं समझ पाते क्योंकि हमारे समाज में महिलाएं घर के अंदर ही रही हैं. खेलकूद भी एक समय बाद छुड़वा दिया जाता है. लेकिन अब जो महिलाएं बाहर निकल रही हैं, हर तरह के काम कर रही हैं तो ऐसे में यह अंतर अधिक महसूस होता है.

इस मसले पर यह भी तर्क दिया जाता है कि कौन सा महिलाओं को बाहर जा कर मैराथन में दौड़ना है जो कपड़ों से समस्या आएगी. लेकिन छोटीछोटी चीजों पर गौर करें तो पता लगेगा कि कितने ही काम ऐसे थे जो हम ज्यादा आसानी से कर सकते थे. वैसे भी बाहर निकल कर व्यक्ति एक रेस में अपनेआप शामिल हो जाता है. स्त्री शरीर को छिपाने की कोशिश में स्त्री पर ऐसेऐसे लबादे डाल दिए गए हैं जिन्होंने उस के शरीर को बांध दिया है. आज अगर लड़कियां अपने पहनावे में बदलाव लाने की कोशिश करती हैं तो उस पर संस्कृति का हवाला दे कर सवाला खड़े किए जाते हैं. लेकिन पुरुष उस संस्कृति को तोड़ कर अपने लिए सब से सुविधाजनक विकल्प अपना चुका है इस पर कोई सवाल नहीं उठता. ऐसे में लड़कियां भी क्यों नहीं अपने लिए सब से सहज विकल्प चुनें?

महिलाओं का पहनावा और पितृसत्ता का शिकंजा

जैसे ही बात महिलाओं की आती है तो समाज अपनी पूरी ऊर्जा और दिमाग इस बात पर लगा देता है कि महिलाओं के लिए कपड़े कैसे होने चाहिए जो उन की गतिशीलता को सीमित करें. वे महिलाओं के आगे ज्ञान बघारना शुरू कर देते हैं कि किस धर्मग्रंथ में क्या लिखा है. औरतों को कैसे रहना चाहिए, कितने ही तरह के निर्देश दिए जाते हैं. मसलन, ‘ऐसे कपड़े पहनो कि शरीर का प्रदर्शन न हो,’ ‘औरतों को कपड़े पहनने का ढंग तो जरूर आना चाहिए,’ ‘लड़कियों के कपड़ों से उन का चरित्र पता चलता है’ आदि.
पहनावे हमारी संस्कृति से प्रेरित होते हैं और संस्कृति समाज के विचारों से क्योंकि हमारा भारतीय समाज पितृसत्तात्मक है इसलिए जब भी बात पहनावे की आती है तो यह जैंडर के आधार पर महिलापुरुष के पहनावे का खास ध्यान रखता है.

कपड़ों से जुड़े उन पहलुओं के बारे में जो महिलाओं को जैंडर के ढांचे में ढालने और उन की गतिशीलता को प्रभावित करने का काम करते हैं. बढ़ती, चलती और अपने सपनों के पीछे भागती लड़कियां हमारे समाज को बिलकुल भी पसंद नहीं हैं. इसलिए उन की चाल को धीमा करने के लिए बचपन से ही उन्हें ऐसे कपड़े पहनाए जाते हैं जिन से वे कहीं भी आनेजाने में उलझन महसूस करें. फिर वह फ्रौक हो, स्कर्ट हो, सूटसलवार हो या साड़ी, इन्हीं कपड़ों को हमारे समाज में महिलाओं के लिए सही पहनावा माना जाता है. हमारा समाज महिलाओं का चरित्र प्रमाणपत्र देता है. ऐसे में जब भी कोई महिला अपनी पसंद से कपड़े पहनने की कोशिश भी करती है, पूरे समाज की दिक्कत जैसे बढ़ने लगती है. उस पर पचासों तरह की पाबंदियां लगाई जाती हैं.

सुरक्षा हेतु सिर से पैर तक ढके कपड़े पहनने की पाबंदी

महिलाओं को अकसर यह सलाह दी जाती है कि उन्हें ऐसे कपड़े पहनने चाहिए जिन से उन के शरीर का एक भी नाजुक अंग दिखाई न पड़े. इस के लिए सूटसलवार, साड़ी और बुरके जैसे अलगअलग तरह के कपड़ों को महिलाओं के लिए सही बताया जाता है. महिलाओं के शरीर का कपड़ों से ढका रहना उन की सुरक्षा के लिहाज से भी बहुत जरूरी बताया जाता है. इस का उदाहरण हम आए दिन महिलाओं के साथ होने वाली यौन हिंसा के रूप में देख सकते हैं जब महिलाओं के कपड़ों को उन के साथ होने वाली हिंसा का जिम्मेदार बताया जाता है.

यह अलग बात है कि जब 60 साल की बूढ़ी महिला और 2 महीने की बच्ची के साथ यौन हिंसा और उत्पीड़न की घटना सामने आती हैं तो सारी दलीलें किनारे हो जाती है. लेकिन इन तमाम तथ्यों और बहस के बावजूद बचपन से ही हम महिलाओं को इस बात की घुट्टी पिलाई जाती है कि हमेशा ऐसे कपड़े पहनो जिन में पूरा शरीर ढका रहे. कई बार पूरे शरीर को ढकने के चक्कर में महिलाएं अपने कपड़ों में ही उलझने को मजबूर हो जाती हैं.

तंग कपड़े न पहनने की पाबंदी

अगर कोई महिला टाइट कपड़े पहने तो उसे बुरा माना जाता है और उस के पहनावे को अंग प्रदर्शन से जोड़ दिया जाता है. कई बार इसे यौन हिंसा का जिम्मेदार भी माना जाता है. इस के बाद अगर कोई महिला ढीले कपड़े पसंद करती है तो उसे भी बुरा माना जाता है क्योंकि इस में उस के शरीर की बनावट साफ पता नहीं चलती. इसलिए महिलाओं पर हमेशा ऐसे कपड़े पहनने का दबाव बनाया जाता है जो समाज की नजर में सही हो. यह पितृसत्ता का महिलाओं की यौनिकता पर ही कंट्रोल है जो पूरी तरह महिलाओं के पहनावे को कंट्रोल करता है.

कपड़ों में जेब नहीं लटकन जरूरी

हम आज भी जब दर्जी के पास कपड़े सिलवाने जाते हैं तो कपड़े में जेब लगाने के नाम पर दर्जी हम महिलाओं को ऊपर से नीचे देखने लगता है. भारतीय समाज में महिलाओं के लिए डिजाइन की गई पारंपरिक पोशाकों में जेब लगवाने के बजाय जगहजगह सुंदरता के नाम पर रंगबिरंगी लटकनें और बटन लगाए जाते हैं. जैसाकि हमारे समाज में पैसे कमाने का काम पुरुषों का बताया गया है इसलिए महिलाओं के कपड़ों में कभी भी जेब की जरूरत समझ ही नहीं जाती. कहीं न कहीं आज भी यह बात समाज के गले नहीं उतरती कि महिलाएं भी पैसे कमा सकती हैं और खुद खर्च भी कर सकती हैं जिन्हें रखने के लिए उन्हें अपने कपड़ों में पुरुषों की ही तरह जेब की जरूरत होती है.

सुंदरता के पितृसत्तात्मक मुखौटे अपनाती लड़कियां

गोरा रंग, नैननक्श, भरे हुए होंठ, सुडौल गढ़ा बदन और खुशबूदार परफ्यूम का सम्मोहन. लड़कियों पर सुंदरता के इन्हीं पितृसत्तात्मक पैमाने के खांचे में फिट होने का दबाव डाला जाता है. इन पैमानों पर खरे उतरने वाली स्त्री ही पितृसत्तात्मक समाज के लिए एक सुंदर स्त्री है.

भारत की स्त्रियों में सुंदर दिखने की कामना बचपन से ही भर दी जाती है और इस वजह से सौंदर्य प्रसाधनों और ब्यूटी पार्लर्स की भीड़ बढ़ती जा रही है जिस ने अनजाने ही स्त्री को एक वस्तु के रूप में देखने के लिए बाध्य कर दिया है. हर गलीमहल्ले में खुले ब्यूटीपार्लर इस बात की ओर इशारा करते हैं कि सुंदरता लड़कियों के जीवन में कितनी अनिवार्य चीज है. मनचाही सुंदरता को न पाने की चिंता और अवसाद उन्हें हमेशा घेरे रहता है. उन का बहुत सारा समय चेहरे पर लीपापोती करने में बरबाद होता है. यह सुंदरता आरोपित और इतनी सहज है कि महिलाएं इसे ही अपनी वास्तविक पहचान मान चुकी हैं.

मेकअप जो चेहरे के फीचर्स उभारने में सहायक होता है वह एक मुखौटा बन चुका है. सुंदरता को ले कर आलम यह है कि भारतीय कौस्मैटिक इंडस्ट्री में पिछले कुछ सालों में बहुत बड़ा उछाल आया है और यह अमेरिका और यूरोप की तुलना में दोगुनी ग्रोथ कर रही हैं. भारतीय कौस्मैटिक्स इंडस्ट्री का 6.5 बिलियन डौलर का कारोबार है. 2025 तक इस के 20 बिलियन डौलर के पार होने का अनुमान है.

असहजता ही सुंदरता का पर्याय बन चुकी है और स्त्रियां इस में अपनेआप को ढालने का काम बखूबी करती हैं. दुनियाभर में महिलाएं अपने कंफर्ट और सुरक्षा के लिए बेझिझक लड़ी हैं. ‘बर्निंग ब्रा’ मूवमैंट इस का उदाहरण है. यही जागरूकता हर स्तर की महिला में आनी जरूरी है ताकि हमारे जीने का ढंग किसी और के नियंत्रण में न हो या वह सहज और सुरक्षित हो. आजादी जरूरी है. आंखों में आंखें डाल कर देखते इंसान के बजाय देखी जा रही चीज होने से. संकोच से आजादी. आजादी तकलीफदेह कपड़ों से जिन का पहना जाना मर्दों को रिझने के लिए जरूरी है. उन जूतों से आजादी जो हमें छोटे कदम लेने पर मजबूर करते हैं.

कभीकभी लगता है ये ऐसी अनावश्यक बाधाएं हैं जिन पर लड़कियों ने कभी सोचना जरूरी नहीं समझ. क्या वाकई इतना कुछ करना आवश्यक होता है? सुंदरता को इतनी अहमियत क्यों दी जाए? पितृसत्ता हमारे व्यवहार, सोचने के तरीके को अनुशासित करती है. कई बार यह सहमति से होता है कई बार आरोपित वरना सहज वस्त्रों का चयन करने में क्या बुराई हो सकती है, बेझिझक अपने रंग को स्वीकार कर सकते हैं. खुद को सितारेमोतियों से सजाना फुजूल लगने लगेगा. यह बात अजीब नहीं लगेगी कि सलवार पर भी जूते पहने जा सकते हैं. ट्रेंडी लगने की जगह फूहड़ नजर न आएं इसलिए असहजता भी स्वीकार्य होती है. स्त्रियों के शरीर से निष्क्रिय सुंदर वस्तुओं की तरह पेश आ कर हम स्त्री और उस के शरीर दोनों को विकृत कर देते हैं.

सब से पहला संघर्ष स्त्री का स्वयं के साथ है, दूसरा पुरुष की मानसिकता के साथ. सर्वप्रथम उसे गढ़ी हुई स्त्री से दूरी बनानी होगी और मनुष्य होने की गरिमा को धारण करना होगा. यदि वह स्वयं को बराबरी और समानता का दरजा नहीं दे सकती तो स्त्रीवाद का झंडा उठाने या नारा लगाने से उस की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आने वाला.

उसे बहुत से स्टीरियोटाइप से मुक्ति पानी होगी. मसलन, सौंदर्य का अर्थ महंगे ब्यूटीपार्लर्स में जा कर सौंदर्य प्रसाधनों पर खर्च कर के लीपापोती करना नहीं बल्कि अपनी सुविधानुसार सजनासंवरना है. कपड़े दूसरों के हिसाब से नहीं बल्कि अपने कंफर्ट के हिसाब से पहनना जरूरी है खासकर औफिस में या अपने काम की जगह खुद को स्मार्ट बना कर रखना है. मन और शरीर से मजबूत बनाना है.

Modern Girl Outfit

Family Story: तुम्हारे हिस्से में

Family Story: बाइक ‘साउथ सिटी’ मौल के सामने आ कर रुकी तो एक पल के लिए दोनों के बदन में रोमांच से गुदगुदी हुई. मौल का सम्मोहित कर देने वाला विराट प्रवेशद्वार. द्वार के दोनों ओर जटायु के विशाल डैनों की मानिंद दूर तक फैली चारदीवारी. चारदीवारी पर फ्रेस्को शैली के भित्तिचित्र. राष्ट्रीयअंतर्राष्ट्रीय उत्पादों की नुमाइश करते बड़ेबड़े आदमकद होर्डिंग्स और विंडो शोकेस. सबकुछ इतना अचरजकारी कि देख कर आंखें बरबस फटी की फटी रह जाएं.

भीतर बड़ा सा वृत्ताकार आंगन. आंगन के चारों ओर भव्यता की सारी सीमाओं को लांघते बड़ेबड़े शोरूम. बीच में थोड़ीथोड़ी दूर पर आगतों को मासूमियत के संग अपनी हथेलियों पर ले कर ऊपर की मनचाही मंजिलों तक ले जाने के लिए तत्पर एस्केलेटर.

‘‘कैसा लग रहा है, जेन?’’ नाम तो संजना था, पर हर्ष उसे प्यार से जेन पुकारता. शादी के पहले संजना मायके में ‘संजू’ थी. शादी के बाद हर्ष उसे बांहों में भरते हुए ठुनका था, ‘संजू कैसा देहाती शब्द लगता है. ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में सबकुछ ग्लोबल होना चाहिए, नाम भी. इसलिए आज से मैं तुम्हें जेन कहूंगा, माय जेन फोंडा.’

‘‘अद्भुत,’’ संजना के होंठों की लिपस्टिक में गर्वीली ठनक घुल गई. चेहरा ओस में नहाए गुलाब सा खिल गया, ‘‘लगता है, पेरिस का मिनी संस्करण ही उतर आया हो यहां.’’

‘‘एक बात जान लो. यहां हर चीज की कीमत बाहर के स्टोरों की तुलना में दोगुनी मिलेगी,’’ हर्ष चहका.

संजना खिलखिला कर हंस पड़ी तो लगा जैसे छोटीछोटी घंटियां खनखना उठी हों. होंठों की फांक के भीतर करीने से जड़े मोतियों से दांत चमक उठे. वह शरारत से आंखें नचाती बोली, ‘‘कुछ हद तक बेशक सही है तुम्हारी बात. पर जनाब, इस तरह के मौल में खरीदारी का रोमांच ही कुछ और है. इस रोमांच को हासिल करने के लिए थोड़ा त्याग भी करना पड़ जाए तो सौदा बुरा नहीं.’’

‘‘लगता है, इस क्रैडिट कार्ड का कचूमर निकाल देने का इरादा है आज,’’ हर्ष ने जेब से आयताकार क्रैडिट कार्ड निकाल कर संजना के आगे लहराते हुए कहा. संजना फिर से खिलखिला पड़ी. इस बार उस की हंसी में रातरानी सी महक घुली थी. हंसने से देह में थिरकन हुई तो बालों की एक महीन लट आंखों के पास से होती हुई होंठों तक चली आई.

‘‘तुम औरतों में बचत की आदत तो बिल्कुल नहीं होती,’’ होंठों पर लोटते लट को मुग्ध भाव से देखता हर्ष मुसकराया.

‘‘न, ऐसा नहीं कह सकते तुम. उचित जगह पर भरपूर किफायत और बचत भी किया करती हैं हम औरतें. विश्वास करो, तुम्हारे इस क्रैडिट कार्ड पर जो भी खरोंचें लगेंगी आज, उन पर जल्द ही बचत की पौलिश भी लगा दूंगी. ठीक? पर अभी स्टेटस सिंबल…’’

दोनों एस्केलेटर की ओर बढ़ गए.

‘‘जानते हो हर्ष, पड़ोस के 402 नंबर वाले गुप्ताजी तुम से जूनियर हैं न? उन की मिसेज इसी मौल से खरीदारी कर गई हैं कल,’’ संजना हाथ नचानचा कर बता रही थी, ‘‘आज मैं खबर लूंगी उन की.’’

‘‘नारीसुलभ डाह,’’ हर्ष ने चुटकी ली.

‘‘नहीं, केवल स्टेटस सिंबल,’’ दोनों की आंखों में दुबके शरारत के नन्हे चूजे पंचम स्वर में चींचीं कर रहे थे.

पहली मंजिल. मौल का सब से मशहूर शोरूम ‘अप्सरा’. दोनों शोरूम के भीतर चले आए. अंदर का माहौल तेज रोशनी से जगमगा रहा था. चारों ओर बड़ीबड़ी शैल्फें. वस्त्र ही वस्त्र. राष्ट्रीयअंतर्राष्ट्रीय ब्रांड. फैशन व डिजाइनों के नवीनतम संग्रह. जीवंत से दिखने वाले पुतले खड़े थे, तरहतरह के डिजाइनर कपड़ों को प्रदर्शित करते हुए.

शोरूम का विनम्र व कुशल सेल्समैन उन्हें खास काउंटर पर ले आया. साडि़यां, जींसटौप, पैंटशर्ट, अंडरगार्मेंट्स…रंगों के अद्भुत शेड्स. एक से बढ़ कर एक कसीदाकारी की नवीनतम बानगी. मनपसंद को चुन लेने की प्रक्रिया 3 घंटे तक चली. आखिरकार चुने हुए वस्त्र ढेर से अलग हुए और आकर्षक भड़कीले पैकेटों में बंद हो कर आ गए. पेमेंट काउंटर पर बिल पेश हुआ, 18,500 रुपए का. क्रैडिट कार्ड पर कुछ खरोंचें लगीं और भुगतान हो गया.

संजना के चेहरे पर संतुष्टि के भाव झलक रहे थे. पैकेटों को चमगादड़ की तरह हाथों में झुलाए कैप्सूल लिफ्ट से नीचे उतरे ही थे कि संजना के पांव थम गए.

‘‘दीवाली के इस मौके पर जींसटौप का एक सैट बुलबुल के लिए भी ले लिया जाए तो कैसा रहेगा, हर्ष? जीजू की ओर से गिफ्ट पा कर तो वह नटखट बौरा ही जाएगी.’’

‘‘अरे, वंडरफुल आइडिया, यार,’’ बुलबुल के जिक्र मात्र से ही हर्ष रोमांच से भर गया.

बुलबुल संजना की इकलौती बहन थी. शोख व चंचल. रूप और लावण्य में संजना से दो कदम आगे. 12वीं कक्षा में कौमर्स की छात्रा. शादी की गहमागहमी में तो परिचय बस औपचारिक ही रहा था, पर सप्ताह भर बाद ‘पीठफेरी’ पर संजना को लिवाने हर्ष गया तो संकोचों की बालुई दीवार को ढहते देर नहीं लगी. 3 दिनों का प्रवास था. एक दिन मैथान डैम की सैर का प्रोग्राम बना. डैम देख चुकने के बाद तीनों समीप के पार्क में चले गए. अचानक संजना की नजर दूर खड़े आइसक्रीम के ठेले पर पड़ी तो वह उठ कर आइसक्रीम लाने चली गई. बरगद की ओट. रिश्ते की अल्हड़ता और बुलबुल की आंखों से झरती महुआ की मादक गंध. हर्ष ने आगे बढ़ कर बुलबुल के होंठों पर चुंबन जड़ दिया.

हर्ष की उंगलियां अनायास ही होंठों पर चली गईं. बुलबुल के होंठों का गीलापन अभी भी कुंडली मारे बैठा था वहां. सिहरन से लरज कर हर्ष चहका, ‘‘जींसटौप के साथसाथ एक साड़ी भी ले लो. अपनी जैसी प्राइस रेंज की लेना, ठीक?’’

दोनों वापस एस्केलेटर पर सवार हो कर ऊपर की ओर बढ़ गए.

रमा सिलाई मशीन से उठ कर बाहर बरामदे में आ गई. मशीन पर लगातार 5 घंटे बैठने से पीठ और कमर अकड़ गई थी. सूई की ओर लगातार नजरें गड़ाए रखने से आंखें जल रही थीं. रात के 11 बज रहे थे. बाहर रात की काली चादर पर आधे चांद की धूसर चांदनी झर रही थी. अंधेरे के अदृश्य कोनों से झींगुरों का समवेत रुदन सन्नाटे को रहस्यमय बना रहा था.

चैन नहीं पड़ा तो वापस कोठरी में लौट आई. कोठरी के भीतर बिखरे सामान को देख कर हंसी छूट गई. मरम्मत की हुई पुरानी सिलाई मशीन. पास ही कपड़ों के ढेर, जो महाजनों के यहां से रफू के लिए आए थे. मरम्मत की हुई पुरानी खड़खड़ करती टेबल. बरतनभांडे, दीवार, छत, कपड़ेलत्ते, खाटखटोले सब के सब जैसे रफूमय हों, मरम्मत किए हुए.

रमा ब्याह कर पहली बार आई थी यहां तो उम्र 16 साल थी. रमेसर एक एल्युमिनियम कारखाने में लेबर था. जिंदगी की गाड़ी सालभर ठीकठाक चली. उस के बाद श्रमिक संगठनों व प्रबंधन के आपसी मल्लयुद्ध में लहूलुहान हो कर एशिया का यह सब से बड़ा संयंत्र भीष्म पितामह की तरह शरशय्या पर ऐसा पड़ा कि फिर उठ नहीं सका. हजारों श्रमिक बेकारी की अंधी सुरंग में धकेल दिए गए.

रमेसर ने काम के लिए बहुत हाथपांव मारे पर कहीं भी जुगाड़ नहीं बैठ पाया. अंत में वह रिकशा चलाने लगा. पर दमे का पुराना मरीज होने के कारण कितनी सवारियां खींच पाता भला? खाने के लाले पड़ने लगे. तब बचपन में सीखा सिलाई और रफूगीरी का शौकिया हुनर काम आया. रमा ने पुरानी सिलाई मशीन का जुगाड़ किया. धैर्य रखते हुए पास के रानीगंज व आसनसोल शहर के व्यापारियों से संपर्क साधा और इस तरह सिलाई व रफूगीरी के पेशे से जिंदगी की फटी चादर पर रफू लगाने की कवायद शुरू हुई.

फिर हर्ष पेट में आया. तबीयत ढीली रहने लगी. डाक्टरों के पास जाने की औकात कहां? देशी टोटकों को देह पर सहेजा. देखतेदेखते 9वां महीना आ गया. फूले पेट के भीतर हर्ष की कलाबाजियों से मरणासन्न रमा वेदना को दांत पर दांत जमा कर बर्दाश्त करने की नाकाम कोशिश करती रही, तभी डाक्टर ने ऐलान किया, ‘केस सीरियस हो गया है और जच्चा या बच्चा दोनों में से किसी एक को ही बचाया जा सकता है.’

रमा की आंखों के आगे अंधेरा छा गया, पर दूसरे ही पल उस ने दृढ़ता के साथ डाक्टर से कहा, ‘सिर्फ और सिर्फ बच्चे को बचा लेना हुजूर. रमेसर की गोद में हमारे प्यार की निशानी तो रह जाएगी जो इस सतरंगी दुनिया को देख सकेगी.’

डाक्टर ने हर्ष को जीवनदान दे दिया. रमा कोमा में चली गई. कोमा की यह स्थिति 15 दिनों तक बनी रही. डाक्टरों ने उस की जिंदगी की उम्मीद छोड़ दी थी. पर मौत के संग लंबे संघर्ष के बाद आखिरकार रमा बच ही गई.

हर्ष पढ़नेलिखने में औसत था. पढ़ने से जी चुराता. स्कूल के नाम पर घर से निकल जाता और स्कूल न जा कर आवारा लड़कों के संग इधरउधर मटरगश्ती करता रहता. राजमार्ग के पास वाली पुलिया पर बैठ कर आतीजाती लड़कियों को छेड़ा करता. इन सब बातों को ले कर रमेसर अकसर उस की पिटाई कर देता.

‘तेरे भले के लिए ही कह रहे हैं रे,’ रमा उसे प्यार से समझाती, ‘पढ़लिख लेगा तो इज्जत की दो रोटियां मिलने लगेंगी, नहीं तो अभावों और जलालत की जिंदगी ही जीनी पड़ेगी.’

किसी तरह मैट्रिक पास हो गया तो रमा ने उसे कोलकाता भेज देने का निश्चय कर लिया. पुराने आवारा दोस्तों का साथ छूटेगा, तभी पढ़ाई के प्रति गंभीर हो सकेगा.

‘पर वहां का खर्च क्या आसमान से आएगा?’ रमेसर ने शंका जाहिर की तो रमा के चेहरे पर आत्मविश्वास की पुखराजी धूप खिल आई, ‘आसमान से कभी कोई चीज आई है जो अब आएगी? खर्चा हम पूरा करेंगे. आधा पेट खा कर रह लेंगे. जरूरतों में और कटौती कर लेंगे. चाहे जैसे भी हो, हर्ष को पढ़ाना ही होगा. उस की जिंदगी संवारनी होगी.’

रमा की जीवटता देख कर रमेसर चुप हो गया. हर्ष को कोलकाता भेज दिया गया. एक सस्ते से पीजी होम में रहने का इंतजाम हुआ. नए दोस्तों की संगत रंग लाने लगी. रमा पैसे लगातार भेजती रही. इन पैसों का जुगाड़ किन मुसीबतों से गुजर कर हो रहा है, हर्ष को कोई मतलब नहीं था. पहले इंटर, फिर बीए और फिर एमबीए. एकएक सीढि़यां तय करता हुआ हर्ष अपनी मंजिल तक पहुंच ही गया.

एमबीए की डिगरी का झोली में आ जाना टर्निंग पौइंट साबित हुआ हर्ष के लिए. पहले ही प्रयास में एक बड़ी स्टील कंपनी में जौब मिल गया. फिर सुंदर और पढ़ीलिखी संजना से ब्याह हो गया. कोलकाता में पोस्ंिटग और अलीपुर में कंपनी के आवासीय कौंप्लैक्स में शानदार फ्लैट. अरसे से दानेदाने को मुहताज किसी वंचित को जैसे अथाह संपदा के ढेर पर ही बैठा दिया गया हो. एकबारगी ढेर सारी सुविधाएं, ढेर सारा वैभव. सबकुछ छोटे से आयताकार क्रैडिट कार्ड में कैद.

उस स्टील कंपनी में जौब लगे 3 साल हो गए. जौब लगते ही हर्ष ने कहा था, ‘नई जगह है मम्मी, सैट होने में हमें वक्त लगेगा. सैट होते ही तुम्हें यहां अपने पास बुला लेंगे. इस जगह को हमेशा के लिए अलविदा कह देंगे.’

सुन कर अच्छा लगा. रफूगीरी का काम करतेकरते तन और मन पर इतने सारे रफू चस्पां हो गए हैं कि घिन्न आने लगी है इन से. अब वह भी सामान्य जिंदगी जीना चाहती है, जिस दिन भी हर्ष कहेगा, चल देगी. यहां कौन सी संपत्ति पड़ी है? सारी गृहस्थी एक छोटी सी गठरी में ही समा जाएगी.

लेकिन 3 साल गुजर गए. इसी बीच हर्ष कई बार आया यहां. 2 दिनों के प्रवास के डेढ़ दिन ससुराल में बीतते. फिर बिना कुछ कहे लौट जाता. ‘मम्मी, इस बार तुम्हें भी साथ चलना है,’ इस एक पंक्ति को सुनने के लिए तड़प कर रह जाती रमा.

‘तो क्या अपने साथ ले चलने के लिए हर्ष के आगे हाथ जोड़ते हुए, गिड़गिड़ाते हुए विनती करनी होगी? मां की तनहाइयों और मुसीबतों का एहसास खुद ही नहीं होना चाहिए उसे? न, वह ऐसा नहीं कर सकती. उस के जमीर को ऐसा कतई मंजूर नहीं होगा. सिर्फ एक बार, कम से कम एक बार तो हर्ष को मनुहार करनी ही होगी. अगर वह ऐसा नहीं कर सकता तो न करे. वह भी कहीं जाने के लिए मरी नहीं जा रही.’

शोरूम में आधे घंटे का वक्त और लगा. जींसटौप के साथ सीक्वेंस वर्क की खूबसूरत साड़ी भी खरीद ली. क्रैडिट कार्ड पर एक और गहरी खरोंच. हाथों में झूलते चमगादड़ों के गुच्छों में एक चमगादड़ और जुड़ गया. लिफ्ट से नीचे उतर कर दोनों शाही अंदाज से चलते हुए मुख्यद्वार तक आए ही थे कि हर्ष एकाएक चौंक पड़ा.

‘‘मम्मी को तो भूल ही गए. उन के लिए साड़ी,’’ हर्ष मिमियाया.

‘‘ओह,’’ संजना भी थम गई.

‘‘एक बार फिर वापस अप्सरा,’’ हर्ष हंसा और हड़बड़ा कर वापस भीतर जाने को मुड़ा तो संजना ने उसे बांह से पकड़ कर रोक लिया, ‘‘अब उतर ही आए हैं तो चलो न, बाहर के किसी स्टोर से ले लेंगे.’’

‘‘बाहर के स्टोर से?’’ हर्ष सकपका गया.

‘‘ऐनी प्रौब्लम?’’ संजना ने आंखें मटकाईं, ‘‘मां ही तो हैं, मैडम मिशेल ओबामा जैसी बड़ी तोप तो नहीं कि साउथ मौल की साड़ी न हुई तो शान में गुस्ताखी हो जाएगी. हुंह…वैसे भी उन जैसी कसबाई महिला को क्या फर्क पड़ेगा कि साड़ी कहां से खरीदी गई है. बाहर के स्टोर से खरीदने पर सस्ती भी तो मिलेगी, आखिर बचत ही तो होगी.’’

‘‘सचमुच, यह तो मैं ने सोचा ही नहीं. यू आर रियली जीनियस, जेन,’’ हर्ष संजना के तर्क पर मुग्ध हो उठा, ‘‘पर लेनी तो प्योर सिल्क ही है यार.’’

‘‘प्योर सिल्क?’’ संजना चौंक पड़ी, ‘‘प्योर सिल्क के माने जानते भी हो?’’

‘‘पिछली बार वहां गया था तो दीवाली पर प्योर सिल्क देने का वादा कर के आया था,’’ हर्ष अपराधबोध से भर गया.

‘‘उफ, तुम भी न…’’ संजना बड़बड़ाई, ‘‘इस तरह के उलटेसीधे वादे करने से पहले थोड़ा तो सोचना चाहिए था न.’’

‘‘अब कुछ नहीं हो सकता, जेन. वादा कर आया हूं न. नहीं दी तो मम्मी क्या सोचेंगी?’’

‘‘ठीक है. कोई उपाय करते हैं,’’ संजना सोच में पड़ गई.

बाइक अलीपुर की ओर दौड़ने लगी. पीछे बैठी संजना ने बायां हाथ आगे ले जा कर हर्ष की कमर को लपेट लिया. संजना की सांसों की मखमली खुशबू हर्ष को सनसनी से भर दे रही थी.

रासबिहारी मैट्रो स्टेशन के पास एक ठीकठाक शोरूम के आगे बाइक रुकी. दोनों भीतर चले आए. उन के हाथों में भारीभरकम भड़कीले पैकेट्स देख कर काउंटर के पीछे बैठे मुखर्जी बाबू मन ही मन चौंके. ऐसे हाईफाई ग्राहक का उन के साधारण से शोरूम में क्या काम?

‘‘वैलकम मैडम, क्या सेवा करें?’’ हड़बड़ा कर खड़े हो गए मुखर्जी बाबू.

‘‘प्योर सिल्क की एक साड़ी लेनी है हमें. कुछ बढि़या डिजाइनें दिखाइए.’’

मुखर्जी बाबू ने सहायक को संकेत दिया. देखते ही देखते काउंटर पर दसियों साडि़यां आ गिरीं. मुखर्जी बाबू उत्साहपूर्वक एकएक साड़ी खोल कर डिजाइन व रंगों की प्रशंसा करने लगे. संजना ने साड़ी पर चिपके प्राइस टैग पर नजर डाली, 3 से 4 हजार की थीं साडि़यां. उस ने हर्ष की ओर देखा.

‘‘तनिक कम रेंज की दिखाइए दादा,’’ संजना धीमे से बोली.

‘‘मैडम, इस से कम प्राइस में अच्छी क्वालिटी की प्योर सिल्क नहीं आएगी. सिंथेटिक दिखा दें?’’ मुखर्जी बाबू सोच रहे थे, ‘इतना मालदार आसामी प्राइस देख कर हड़क क्यों रहा है?’

‘‘प्योर सिल्क ही लेनी है,’’ संजना रुखाई से बोली. फिर तमतमाई आंखों से हर्ष की ओर देखा. दोनों अंगरेजी में बातें करने लगे.

‘‘तुम्हारी मम्मी का दिमाग सनक गया है. माना 40-45 की ही हैं अभी, पर हमारे समाज में विधवा स्त्री को ज्यादा कीमती और फैशनेबल साड़ी पहनना वर्जित है. यह बात उन्हें सोचनी चाहिए. मुंह उठाया और प्योर सिल्क मांग लिया, हुंह. प्योर सिल्क का दाम भी पता है? प्योर सिल्क पहनने का चाव चढ़ा है.’’

‘‘आय एम सौरी, जेन. वायदा कर चुका हूं न. अब कोई उपाय नहीं,’’

हर्ष ने भूल स्वीकारते हुए अफसोस जाहिर किया.

उसे अच्छी तरह याद है. उस दिन दोस्तों के संग घूमफिर कर घर लौटा तो रात के 10 बज रहे थे. मम्मी बिना खाए उस का इंतजार कर रही थीं. दोनों ने साथ भोजन किया. फिर वह मम्मी की गोद में सिर रख कर लेट गया. नीचे मम्मी की गोद की अलौकिक ऊष्मा. ऊपर चेहरे पर उस के ममता भरे हाथों का शीतल स्पर्श. न जाने कैसा सम्मोहन घुला था इन में कि झपकी आ गई. काफी दिनों के बाद एक सुकून भरी नींद. 3 घंटे बाद अचानक नींद टूटी तो देखा, मम्मी ज्यों की त्यों बैठी बालों में उंगलियां फिरा रही हैं.

उन्हीं क्षणों के दौरान उस के मुंह से निकल गया, ‘इस बार दीवाली पर अच्छी सी प्योर सिल्क की साड़ी दूंगा तुम्हें.’ यह सुन कर मम्मी सिर्फ मुसकरा भर दी थीं.

हर्ष और जेन के बीच बातचीत भले ही अंगरेजी में हो रही थी और मुखर्जी बाबू को अंगरेजी की समझ कम थी, फिर भी उन्हें ताड़ते देर नहीं लगी.

‘‘मैडम,’’ मुखर्जी बाबू ने सिर खुजलाते हुए अत्यंत विनम्रतापूर्वक कहा, ‘‘यदि बुरा न मानें तो क्या हम पूछ सकते हैं कि साड़ी किस के लिए ले रही हैं?’’

इस के पहले कि इस अटपटे प्रश्न पर दोनों हत्थे से उखड़ जाते, मुखर्जी बाबू ने झट से स्पष्टीकरण भी पेश कर दिया, ‘‘न, न, मैडम, अन्यथा न लें, सिर्फ इसलिए पूछा कि हम उस के अनुकूल दूसरा किफायती औप्शन बता सकें.’’

संजना ने हिचकिचाते हुए मन की गांठ खोल दी, ‘‘साहब की विडो (विधवा) मदर के लिए.’’

पलक झपकते मुखर्जी बाबू के जेहन में पूरा माजरा बेपरदा हो गया. मैडम ने साहब की मां को ‘मम्मी’ नहीं कहा, ‘सासूमां’ भी नहीं कहा, बल्कि ‘साहब की विडो मदर’ कहा और साहब कार्टून की तरह खड़ा दुम हिलाता ‘खीखी’ करता रहा.

‘‘आप का काम हो गया,’’ उन्होंने सहायक को कुछ अबूझ से संकेत दिए. थोड़ी देर में ही काउंटर पर प्योर सिल्क का नया बंडल दस्ती बम की तरह आ गिरा. एक से एक खूबसूरत प्रिंट. एक से एक लुभावने कलर.

‘‘वैसे तो ये साडि़यां भी 4 हजार से ऊपर की ही हैं मैडम, पर हम इन्हें सिर्फ 800 रुपए में सेल कर रहे हैं. लोडिंगअनलोडिंग के समय हुक लग जाने से या चूहे के काट देने से माल में छोटामोटा छेद हो जाता है. हमारा ट्रैंड कारीगर प्लास्टिक सर्जरी कर के उस नुक्स को इस माफिक ठीक करता है कि साड़ी एकदम नई हो जाती है. सरसरी नजर से देखने पर नुक्स बिलकुल भी पता नहीं चलेगा.’’

‘‘यानी कि रफू की हुई,’’ संजना हकला उठी.

‘‘रफू नहीं मैडम, प्लास्टिक सर्जरी बोलिए. रफू तो देहाती शब्द है. आप खुद देखिए न.’’

सचमुच, बिलकुल नई और बेदाग साडि़यां. जहांतहां छोटेछोटे डिजाइनर तारे नजर आ रहे थे जो साड़ी की खूबसूरती को बढ़ा ही रहे थे. सरसरी तौर पर कोई भी नुक्स नहीं दिख रहा था साडि़यों में, दोनों की बाछें खिल उठीं. आंखों में ‘यूरेकायूरेका’ के भाव उभर आए, मन तनावमुक्त हो गया जैसे जेन का.

आननफानन ढेर में से एक साड़ी चुनी गई और पैक हो कर आ गई. यह नया पैकेट मौल के पैकेटों के बीच ऐसा लग रहा था जैसे प्राइवेट स्कूल के बच्चों के बीच किसी सरकारी स्कूल का बच्चा आ घुसा हो.

‘‘मैं ने कहा था न, सही मौका आते ही क्रैडिट कार्ड की खरोंचों पर रफू लगा दूंगी. देख लो, तुम्हारा वादा भी पूरा हो गया और चिराग पर पूरे 3 हजार का रफू भी लग गया.’’

‘‘यू आर जीनियस, जेन,’’ हर्ष की प्रशंसा सुन कर संजना खिलखिलाई तो बालों की कई महीन लटें पहले की ही तरह आंखों के सामने से होती हुई होंठों तक चली आईं. बाइक की ओर बढ़ते हुए दोनों के चेहरे खिले हुए थे.

Family Story

Short Story in Hindi: मेरा संसार

Short Story in Hindi: प्यार की किश्ती में सवार मैं समझ नहीं पा रहा था कि मेरा साहिल कौन है, रचना या ज्योति? एक तरफ रचना जो सिर्फ अपने बारे में सोचती थी. दूसरी ओर ज्योति, जिस की दुनिया मुझ तक और मेरी बेटी तक सीमित थी.

आज पूरा एक साल गुजर गया. आज के दिन ही उस से मेरी बातें बंद हुई थीं. उन 2 लोगों की बातें बंद हुई थीं, जो बगैर बात किए एक दिन भी नहीं रह पाते थे. कारण सिर्फ यही था कि किसी ऐसी बात पर वह नाराज हुई जिस का आभास मुझे आज तक नहीं लग पाया. मैं पिछले साल की उस तारीख से ले कर आज तक इसी खोजबीन में लगा रहा कि आखिर ऐसा क्या घट गया कि जान छिड़कने वाली मुझ से अब बात करना भी पसंद नहीं करती?

कभीकभी तो मुझे यह भी लगता है कि शायद वह इसी बहाने मुझ से दूर रहना चाहती हो. वैसे भी उस की दुनिया अलग है और मेरी दुनिया अलग. मैं उस की दुनिया की तरह कभी ढल नहीं पाया. सीधासादा मेरा परिवेश है, किसी तरह का कोई मुखौटा पहन कर बनावटी जीवन जीना मुझे कभी नहीं आया. सच को हमेशा सच की तरह पेश किया और जीवन के यथार्थ को ठीक उसी तरह उकेरा, जिस तरह वह होता है.

यही बात उसे पसंद नहीं आती थी और यही मुझ से गलती हो जाती. वह चाहती है दिल बहलाने वाली बातें, उस के मन की तरह की जाने वाली हरकतें, चाहे वे झूठी ही क्यों न हों, चाहे जीवन के सत्य से वह कोसों दूर हों. यहीं मैं मात खा जाता रहा हूं. मैं अपने स्वभाव के आगे नतमस्तक हूं तो वह अपने स्वभाव को बदलना नहीं चाहती. विरोधाभास की यह रेखा हमारे प्रेम संबंधों में हमेशा आड़े आती रही है और पिछले वर्ष उस ने ऐसी दरार डाल दी कि अब सिर्फ यादें हैं और इंतजार है कि उस का कोई समाचार आ जाए.

जीवन को जीने और उस के धर्म को निभाने की मेरी प्रकृति है अत: उस की यादों को समेटे अपने जैविक व्यवहार में लीन हूं, फिर भी हृदय का एक कोना अपनी रिक्तता का आभास हमेशा देता रहता है. तभी तो फोन पर आने वाली हर काल ऐसी लगती हैं मानो उस ने ही फोन किया हो. यही नहीं हर एसएमएस की टोन मेरे दिल की धड़कन बढ़ा देती हैं, किंतु जब भी देखता हूं मोबाइल पर उस का नाम नहीं मिलता.

मेरी इस बेचैनी और बेबसी का रत्तीभर भी उसे ज्ञान नहीं होगा, यह मैं जानता हूं क्योंकि हर व्यक्ति सिर्फ अपने बारे में सोचता है और अपनी तरह के विचारों से अपना वातावरण तैयार करता है व उसी की तरह जीने की इच्छा रखता है. मेरे लिए मेरी सोच और मेरा व्यवहार ठीक है तो उस के लिए उस की सोच और उस का व्यवहार उत्तम है. यही एक कारण है हर संबंधों के बीच खाई पैदा करने का. दूरियां उसे समझने नहीं देतीं और मन में व्यर्थ विचारों की ऐसी पोटली बांध देती है जिस में व्यक्ति का कोरा प्रेममय हृदय भी मन मसोस कर पड़ा रह जाता है.

जहां जिद होती है, अहम होता है, गुस्सा होता है. ऐसे में बेचारा प्रेम नितांत अकेला सिर्फ इंतजार की आग में झुलसता रहता है, जिस की तपन का एहसास भी किसी को नहीं हो पाता. मेरी स्थिति ठीक इसी प्रकार है. इन 365 दिनों में एक दिन भी ऐसा नहीं गया जब उस की याद न आई हो, उस के फोन का इंतजार न किया हो. रोज उस से बात करने के लिए मैं अपने फोन के बटन दबाता हूं किंतु फिर नंबर को यह सोच कर डिलीट कर देता हूं कि जब मेरी बातें ही उसे दुख पहुंचाती हैं तो क्यों उस से बातों का सिलसिला दोबारा प्रारंभ करूं?

हालांकि मन उस से संपर्क करने को उतावला है. बावजूद उस के व्यवहार ने मेरी तमाम प्रेमशक्ति को संकुचित कर रख दिया है. मन सोचता है, आज जैसी भी वह है, कम से कम अपनी दुनिया में व्यस्त तो है, क्योंकि व्यस्त नहीं होती तो उस की जिद इतने दिन तक तो स्थिर नहीं रहती कि मुझ से वह कोई नाता ही न रखे. संभव है मेरी तरह वह भी सोचती हो, किंतु मुझे लगता है यदि वह मुझ जैसा सोचती तो शायद यह दिन कभी देखने में ही नहीं आता, क्योंकि मेरी सोच हमेशा लचीली रही है, तरल रही है, हर पात्र में ढलने जैसी रही है, पर अफसोस वह आज तक समझ नहीं पाई.

मई का सूरज आग उगल रहा है. इस सूनी दोपहर में मैं आज घर पर ही हूं. एक कमरा, एक किचन का छोटा सा घर और इस में मैं, मेरी बीवी और एक बच्ची. छोटा घर, छोटा परिवार. किंतु काम इतने कि हम तीनों एक समय मिलबैठ कर आराम से कभी बातें नहीं कर पाते. रोमी की तो शिकायत रहती है कि पापा का घर तो उन का आफिस है. मैं भी क्या करूं? कभी समझ नहीं पाया. चूंकि रोमी के स्कूल की छुट्टियां हैं तो उस की मां ज्योति उसे ले कर अपने मायके चली गई है.

पिछले कुछ वर्षों से ज्योति अपनी मां से मिलने नहीं जा पाई थी. मैं अकेला हूं. यदि गंभीरता से सोच कर देखूं तो लगता है कि वाकई मैं बहुत अकेला हूं, घर में सब के रहने और बाहर भीड़ में रहने के बावजूद. किंतु निरंतर व्यस्त रहने में उस अकेलेपन का भाव उपजता ही नहीं. बस, महसूस होता है तमाम उलझनों, समस्याओं को झेलते रहने और उस के समाधान में जुटे रहने की क्रियाओं के बीच, क्योंकि जिम्मेदारियों के साथ बाहरी दुनिया से लड़ना, हारना, जीतना मुझे ही तो है.

गरमी से राहत पाने का इकलौता साधन कूलर खराब हो चुका है जिसे ठीक करना है, अखबार की रद्दी बेचनी है, दूध वाले का हिसाब करना है, ज्योति कह कर गई थी. रोमी का रिजल्ट भी लाना है और इन सब से भारी काम खाना बनाना है, और बर्तन भी मांजना है. घर की सफाई पिछले 2 दिनों से नहीं हुई है तो मकडि़यों ने भी अपने जाले बुनने का काम शुरू कर दिया है.

उफ…बहुत सा काम है…, ज्योति रोज कैसे सबकुछ करती होगी और यदि एक दिन भी वह आराम से बैठती है तो मेरी आवाज बुलंद हो जाती है…मानो मैं सफाईपसंद इनसान हूं…कैसा पड़ा है घर? चिल्ला उठता हूं.

ज्योति न केवल घर संभालती है, बल्कि रोमी के साथसाथ मुझे भी संभालती है. यह मैं आज महसूस कर रहा हूं, जब अलमारी में तमाम कपडे़ बगैर धुले ठुसे पडे़ हैं. रोज सोचता हूं, पानी आएगा तो धो डालूंगा. मगर आलस…पानी भी कहां भर पाता हूं, अकेला हूं तो सिर्फ एक घड़ा पीने का पानी और हाथपैर, नहाधो लेने के लिए एक बालटी पानी काफी है.

ज्योति आएगी तभी सलीकेदार होगी जिंदगी, यही लगता है. तब तक फक्कड़ की तरह… मजबूरी जो होती है. सचमुच ज्योति कितना सारा काम करती है, बावजूद उस के चेहरे पर कोई शिकन तक नहीं देखी. यहां तक कि कभी उस ने मुझ से शिकायत भी नहीं की. ऊपर से जब मैं दफ्तर से लौटता हूं तो थका हुआ मान कर मेरे पैर दबाने लगती है. मानो दफ्तर जा कर मैं कोई नाहर मार कर लौटता हूं. दफ्तर और घर के दरम्यान मेरे ज्यादा घंटे दफ्तर में गुजरते हैं. न ज्योति का खयाल रख पाता हूं, न रोमी का. दायित्वों के नाम पर महज पैसा कमा कर देने के कुछ और तो करता ही नहीं.

फोन की घंटी घनघनाई तो मेरा ध्यान भंग हुआ.

‘‘हैलो…? हां ज्योति…कैसी हो?…रोमी कैसी है?…मैं…मैं तो ठीक हूं…बस बैठा तुम्हारे बारे में ही सोच रहा था. अकेले मन नहीं लगता यार…’’

कुछ देर बात करने के बाद जब ज्योति ने फोन रखा तो फिर मेरा दिमाग दौड़ने लगा. ज्योति को सिर्फ मेरी चिंता है जबकि मैं उसे ले कर कभी इतना गंभीर नहीं हो पाया. कितना प्रेम करती है वह मुझ से…सच तो यह है कि प्रेम शरणागति का पर्याय है. बस देते रहना उस का धर्म है.

ज्योति अपने लिए कभी कुछ मांगती नहीं…उसे तो मैं, रोमी और हम से जुडे़ तमाम लोगों की फिक्र रहती है. वह कहती भी तो है कि यदि तुम सुखी हो तो मेरा जीवन सुखी है. मैं तुम्हारे सुख, प्रसन्नता के बीच कैसे रोड़ा बन सकती हूं? उफ, मैं ने कभी क्यों नहीं इतना गंभीर हो कर सोचा? आज मुझे ऐसा क्यों लग रहा है? इसलिए कि मैं अकेला हूं?

रचना…फिर उस की याद…लड़ाई… गुस्सा…स्वार्थ…सिर्फ स्वयं के बारे में सोचनाविचारना….बावजूद मैं उसे प्रेम करता हूं? यही एक सत्य है. वह मुझे समझ नहीं पाई. मेरे प्रेम को, मेरे त्याग को, मेरे विचारों को. कितना नजरअंदाज करता हूं रचना को ले कर अपने इस छोटे से परिवार को? …ज्योति को, रोमी को, अपनी जिंदगी को.

बिजली गुल हो गई तो पंखा चलतेचलते अचानक रुक गया. गरमी को भगाने और मुझे राहत देने के लिए जो पंखा इस तपन से संघर्ष कर रहा था वह भी हार कर थम गया. मैं समझता हूं, सुखी होने के लिए बिजली की तरह निरंतर प्रेम प्रवाहित होते रहना चाहिए, यदि कहीं व्यवधान होता है या प्रवाह रुकता है तो इसी तरह तपना पड़ता है, इंतजार करना होता है बिजली का, प्रेम प्रवाह का.

घड़ी पर निगाहें डालीं तो पता चला कि दिन के साढे़ 3 बज रहे हैं और मैं यहां इसी तरह पिछले 2 घंटों से बैठा हूं. आदमी के पास कोई काम नहीं होता है तो दिमाग चौकड़ी भर दौड़ता है. थमने का नाम ही नहीं लेता. कुछ चीजें ऐसी होती हैं जहां दिमाग केंद्रित हो कर रस लेने लगता है, चाहे वह सुख हो या दुख. अपनी तरह का अध्ययन होता है, किसी प्रसंग की चीरफाड़ होती है और निष्कर्ष निकालने की उधेड़बुन. किंतु निष्कर्ष कभी निकलता नहीं क्योंकि परिस्थितियां व्यक्ति को पुन: धरातल पर ला पटकती हैं और वर्तमान का नजारा उस कल्पना लोक को किनारे कर देता है. फिर जब भी उस विचार का कोना पकड़ सोचने की प्रक्रिया प्रारंभ होती है तो नईनई बातें, नएनए शोध होने लगते हैं. तब का निष्कर्ष बदल कर नया रूप धरने लगता है.

सोचा, डायरी लिखने बैठ जाऊं. डायरी निकाली तो रचना के लिखे कुछ पत्र उस में से गिरे. ये पत्र और आज का उस का व्यवहार, दोनों में जमीनआसमान का फर्क है. पत्रों में लिखी बातें, उन में दर्शाया गया प्रेम, उस के आज के व्यवहार से कतई मेल नहीं खाते. जिस प्रेम की बातें वह किया करती है, आज उसी के जरिए अपना सुख प्राप्त करने का यत्न करती है. उस के लिए पे्रेम के माने हैं कि मैं उस की हरेक बातों को स्वीकार करूं. जिस प्रकार वह सोचती है उसी प्रकार व्यवहार करूं, उस को हमेशा मानता रहूं, कभी दुख न पहुंचाऊं, यही उस का फंडा है.

Short Story in Hindi

Hindi Long Story: सहारे की तलाश

Hindi Long Story: दिल आज फिर दिमाग से विद्रोह कर बैठा. क्या ऐसी ही जिंदगी की उम्मीद की थी उस ने? क्या ऐसे ही जीवनसाथी की कल्पना की थी उस ने? खुद वह कितनी संभावनाओं से भरी हुई थी, अपना रास्ता तलाश कर मंजिल तक पहुंचना वह जानती है, रिश्तों के तारों के छोर सहला कर उन्हें जोड़ना भी उसे आता है. जीवनसाथी ऐसा हो जिस पर नाज कर सके. उस का कोई तो रूप ऐसा हो, वह शारीरिक रूप से ताकतवर हो या मानसिक रूप से परिपक्व हो, खुला व्यक्तित्व हो या फिर आर्थिक रूप से हर सुख दे सके या फिर भावनात्मक रूप से इतना प्रेमी हो कि उस के माधुर्य में डूब जाओ. कोई तो कारण होना चाहिए किसी पर आसक्ति का. प्यार सिर्फ साथ रहने भर से हो सकता है, एकदूसरे की कुछ मूलभूत जरूरतें पूरी करने से हो सकता है. लेकिन आसक्ति, बिना काण नहीं हो सकती.

छलकपट से भरा दिमाग, कभी किसी को निस्वार्थ प्यार नहीं कर सकता और न पा सकता है. ऐसे इंसान पर प्यार लुटाना लुटने जैसा प्रतीत होता है. दिमाग समझता है जिंदगी को नहीं बदल सकते हम. इंसान को नहीं बदल सकते. पति की काबिलीयत, स्वभाव या क्षमता को घटाबढ़ा नहीं सकते, सबकुछ ले कर चालाकी से अपनी टांग ऊपर रखने की आदत को नहीं बदल सकते.

पर खुद को बदल सकते हैं, खुद के नजरिए को बदल सकते हैं. दिमाग की यह घायल समझ दिल से आंसुओं के सैलाब में बह जाती है जब दिल नहीं सुन पाता है किसी की, जब दिल खुद से ही तर्क करने लग जाता है. पूरी जिंदगी रीत गई, अब क्या समेटना है. अब तक जिंदगी के हर पहलू को अपने सकारात्मक नजरिए से देखती रही. पर कब तक दिल में उठ रही नफरत को दबाती रहती. क्या किसी ऐसे ही जीवनसाथी की कल्पना की थी उस ने जो सिर्फ बिस्तर पर ही रोमांटिक प्रणयी हो.

आज वैभवी के दिल के तार झनझना गए थे. उस के पिताजी ने अपनी छोटी सी जायदाद के 2 हिस्से कर अपने दोनों बच्चों में बांट दिए थे. भैया का परिवार मुंबई में रहता था. उस की नौकरी वहीं पर थी. वह खुद दिल्ली में रहती थी और मांपिताजी चंडीगढ़ में रहते थे. डाक्टर ने पिताजी को हर्निया का औपरेशन कराने के लिए कह दिया था. पिताजी काफी समय से तकलीफ में थे. जब वह पिछली बार चंडीगढ़ गई थी तो मां ने पिताजी की तकलीफ के बारे में उसे बताया था. वह विचलित हो गई थी. उस ने भैया से फोन पर बात की तो भाई ने यह कह कर मजबूरी जता दी थी कि इतनी छुट्टी उसे एकसाथ नहीं मिल सकती कि वह चंडीगढ़ जा कर औपरेशन करा सके और साथ ही मां से तेरी भाभी की बिलकुल नहीं बनती, इसलिए मुंबई ला कर भी औपरेशन की बात नहीं सोच सकता.

‘‘वैसे भी तू जानती है वैभवी, छोटा सा फ्लैट, पढ़ने वाले बच्चे, बीमार आदमी के साथ बडे़ शहर में बहुत मुश्किल हो जाती है,’’ भैया ने मजबूरी जताते हुए कहा.

‘‘तो फिर क्या पिताजी को ऐसे ही तकलीफ में मरने के लिए छोड़ दें,’’ वैभवी के स्वर में तल्खी आ गई थी.

‘‘तो फिर तू चली जा या फिर प्रकाश चला जाए. उस की तो सरकारी नौकरी है, छुट्टी मिलने में इतनी दिक्कत भी नहीं होगी,’’ उस के स्वर की तल्खी भांप कर वह भी चिढ़ गया था.

‘‘लेकिन भैया, बेटे के होते हुए दामाद का एहसान लेना क्या ठीक है?’’ वह अपने को संयमित कर लाचारी से बोली थी.

‘‘क्यों? जब हिस्सा मिला तब तो बेटीदामाद जैसी कोई बात नहीं हुई और जब जिम्मेदारी निभाने की बात आई तो वह दामाद हो गया,’’ भैया भुन्नाता हुआ बोला.

वह दुखी हो गई थी. दिल किया कि कोई तीखा सा जवाब दे दे. पर चुप रह गई. आखिर गलत भी नहीं कहा था. पर यह सब कहने का अधिकार भी भैया को तब ही था जब वह अपने कर्तव्य का हर समय पालन करता.

वह तो जायदाद में हिस्सा बिलकुल भी नहीं चाहती थी. उस ने पिताजी को बहुत मना भी किया था पर एक तो मांपिताजी की जिद और दूसरे, प्रकाश की चाहत भांप कर उस ने हां बोल दी. सोचा, जायदाद पा कर ही सही, प्रकाश उस के मांपिताजी के लिए नरम रुख अपना ले. इस के अलावा जरूरत पड़ने पर उसे चंडीगढ़ जाने में भी आसानी हो जाएगी. एकदम मना नहीं कर पाएगा प्रकाश उसे. पर भैया के व्यवहार में तब से तटस्थता आ गई थी. भाभी तो हमेशा से ही तटस्थ थीं. पर भैया का व्यवहार वैसे सामान्य था. उसे अपनी परवा नहीं थी. बस, मांपिताजी का ध्यान रख ले भैया, इसी से वह खुश रहती. पर भैया के जवाब से उस का दिल टूट गया था. भैया का अगर जवाब ऐसा है तो प्रकाश का जवाब तो वह पहले से ही जानती है. फिर भी उस ने सोचा एक बार तो प्रकाश से बात कर के देख ले. उस से और मां से पिताजी के औपरेशन का तामझाम नहीं संभलेगा. कोई भी परेशानी खड़ी हो गई तो एक पुरुष का साथ तो होना ही चाहिए औपरेशन के समय. प्रकाश का मूड ठीक सा भांप कर एक दिन उस ने प्रकाश से बात कर ही ली.

‘‘पिताजी की तकलीफ बढ़ती ही जा रही है प्रकाश, कल भी बात हुई थी मां से. डाक्टर कह रहे हैं कि समय से औपरेशन करवा लो.’’

‘‘हां तो करवा लें,’’ प्रकाश के चेहरे के भाव एकदम से बदल गए थे.

‘‘तुम चलोगे चंडीगढ़, कुछ दिन की छुट्टी ले कर?’’

‘‘क्यों, उन के बेटे का क्या हुआ?’’

‘‘किस तरह से बोल रहे हो, प्रकाश. बात की थी मैं ने भैया से, छुट्टी नहीं मिल रही उन्हें. थोड़े दिन की छुट्टी तुम ले लो न. औपरेशन करवा कर तुम आ जाना. फिर कुछ दिन मैं रह लूंगी. फिर थोड़े दिन के लिए भैया भी आ जाएंगे. तो पिताजी की देखभाल हो जाएगी.’’

‘‘मुझे भी छुट्टी नहीं मिलेगी अभी,’’ कह कर प्रकाश उठ कर बैडरूम की तरफ चल दिया, ‘‘और हां,’’ वह रुक कर बोला, ‘‘तुम भी वहां लंबा नहीं रह सकती हो, यहां खानेपीने की दिक्कत हो जाएगी मुझे,’’ इतना कह कर प्रकाश चला गया.

उस ने भी हार नहीं मानी. और उस के पीछे चल दी, चलतेचलते उस ने कहा, ‘‘प्रकाश, उन्होंने हम दोनों भाईबहन को अपना सबकुछ बांट दिया है तो हमारा भी तो उन के प्रति फर्ज बनता है.’’

‘‘तो,’’ प्रकाश तल्खी से बोला, ‘‘बेटी को ही दिया है क्या, बेटे को नहीं दिया, वह क्यों नहीं आ जाता?’’

‘‘उफ,’’ वैभवी का सिर भन्ना गया. प्रकाश के तर्क इतने अजीबोगरीब होते हैं कि जवाब में कुछ भी कहना मुश्किल है. संवेदनहीनता की पराकाष्ठा तक चला जाता है. दिल घायल हो गया. पिताजी के 2 अपंग सहारे प्रकाश और भैया जिन पर पिताजी ने अपना सबकुछ लुटा दिया, जिन्हें पिताजी ने अपना आधार स्तंभ समझा, आज कैसा बदल गए हैं. इस के बाद उस ने प्रकाश से कोई बात नहीं की. चुपचाप अपना रिजर्वेशन करवाया और जाने की तैयारी करने लगी. प्रकाश के तने हुए चेहरे की परवा किए बिना वह चंडीगढ़ चली गई. उस की बेटी इंजीनियर थी और जौब कर रही थी. 2 दिन बाद वह कुछ दिनों की छुट्टी में घर आ रही थी. वैभवी ने उसे वस्तुस्थिति से अवगत करवाया और चंडीगढ़ चली गई. मां ने वैभवी को देखा तो उन्हें थोड़ा सुकून मिला.

वैभवी को देख मां ने कहा, ‘‘दामाद जी नहीं आए?’’

‘‘तुम्हारा बेटा आया जो दामाद आता,’’ वह चिढ़ कर बोली, ‘‘बेटी काफी नहीं है तुम्हारे लिए?’’

मां चुप हो गईं. एक वाक्य से ही सबकुछ समझ में आ गया था. पिताजी ने कुछ नहीं पूछा. दुनिया देखी थी उन्होंने. फिर कुछ पूछना और उस पर अफसोस करने का मतलब था पत्नी के दुख को और बढ़ाना. सबकुछ समझ कर भी ऐसा दिखाया जैसे कुछ हुआ ही न हो. पिताजी का जिस डाक्टर से इलाज चल रहा था उन से जा कर वह मिली. औपरेशन का दिन तय हो गया. उस ने प्रकाश व भाई को औपचारिक खबर दे दी. डरतेडरते उस ने पिताजी का औपरेशन करवा दिया. मन ही मन डर रही थी कि कोई ऊंचनीच हो गई तो क्या होगा. पर पिताजी का औपरेशन सहीसलामत हो गया, उस की जान में जान आई. पिताजी को जिस दिन अस्पताल से घर ले कर आई, मन में संतोष था कि वह उन के कुछ काम आ पाई. पिताजी को बिस्तर पर लिटा कर, लिहाफ उढ़ा कर उन के पास बैठ गई. उन के चेहरे पर उस के लिए कृतज्ञता के भाव थे जो शायद बेटे के लिए नहीं होते. आज समाज में बेटी को पिता की जायदाद में हक जरूर मिल गया था लेकिन मातापिता अपना अधिकार आज भी बेटे पर ही समझते हैं.

पिताजी ने आंखें बंद कर लीं. वह चुपचाप पिताजी के निरीह चेहरे को निहारने लगी. दबंग पिताजी को उम्र ने कितना बेबस व लाचार बना दिया था. भैया व प्रकाश, पिताजी के 2 सहारे कहां हैं? वह सोचने लगी, उसे व भैया को पिताजी ने कितने प्यार से पढ़ायालिखाया, योग्य बनाया, वह लड़की होते हुए भी अपने पति की इच्छा के विरुद्ध अपने पिता की जरूरत पर आ गई. लेकिन भैया, वह पुरुष होते हुए भी अपनी पत्नी की इच्छा के विरुद्ध अपने पिता के काम नहीं आ पाए. सच है रिश्ते तो स्त्रियां ही संभालती हैं, चाहे फिर वह मायके के हों या ससुराल के. लेकिन पुरुष, वह ससुराल के क्या, वह तो अपने सगे रिश्ते भी नहीं संभाल पाता और उस का ठीकरा भी स्त्री के सिर फोड़ देता है. पिताजी कुछ दिन बिस्तर पर रहे. उन की तीमारदारी मां और वह दोनों मिल कर कर रही थीं. भैया ने पापा की चिंता इतनी ही की थी कि एक दिन फुरसत से मां व पिताजी से फोन पर बातचीत करने के बाद मुझ से कहा, ‘‘कुछ जरूरत हो तो बता देना, कुछ रुपए भिजवा देता हूं.’’

‘‘उस की जरूरत नहीं है, भैया,’’ रुपए का तो पिताजी ने भी अपने बुढ़ापे के लिए इंतजाम किया हुआ है. उन्हें तो तुम्हारी जरूरत थी. उस ने कुछ कहना चाहा पर रिश्तों में और भी कड़वाहट घुल जाएगी, सोच कर चुप्पी लगा गई और तभी फोन कट गया.

वैभवी 15 दिन रह कर घर वापस आ गई. प्रकाश का मुंह फूला हुआ था. उस ने परवा नहीं की. चुपचाप अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गई. प्रकाश ने पिताजी की कुशलक्षेम तक नहीं पूछी पर उस की सास का फोन उस के लिए भी और उस के मांपिताजी के लिए भी आया, उसे अच्छा लगा. सभी बुजुर्ग शायद एकदूसरे की स्थिति को अच्छी तरह से समझते हैं. उस की बेटी वापस अपनी नौकरी पर चली गई थी. पिताजी की हालत में निरंतर सुधार हो रहा था, इसलिए वह निश्ंिचत थी. उस के सासससुर देहरादून में रहते थे. सबकुछ ठीक चल रहा था कि तभी एक दिन उस की सास का बदहवास सा फोन आया. उस के ससुरजी की तबीयत अचानक बिगड़ गई थी और उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ा था. वे दोनों तुरंत देहरादून के लिए निकल पड़े. प्रकाश का भाई अविनाश, जो पुणे में रहता था, अपनी पत्नी के साथ देहरादून पहुंच गया. पता चला कि प्रकाश के पापा को दिल का दौरा पड़ा था. एंजियोग्राफी से पता चला कि उन की धमनियों में रुकावट थी. अब एंजियोप्लास्टी होनी थी.

अविनाश की पत्नी छवि स्कूल में पढ़ाती थी, वह 2-4 दिन की छुट्टी ले कर आई थी. पापा को तो एंजियोप्लास्टी और उस के बाद की देखभाल के लिए लंबे समय की जरूरत थी. प्रकाश के पापा अभी अस्पताल में ही थे. छवि की छुट्टियां खत्म हो गई थीं. वह वापस जाने की तैयारी करने लगी.

‘‘मैं भी चलता हूं, भैया,’’ अविनाश बोला, ‘‘छवि अकेले कैसे जाएगी?’’

‘लेकिन अविनाश, पापा को लंबी देखभाल और इलाज की जरूरत है. कुछ दिन हम रुक लेते हैं, कुछ दिन तुम छुट्टी ले कर आ जाओ,’’ प्रकाश बोला.

‘‘भैया, हम दोनों की तो प्राइवेट नौकरी है, इतनी लंबी छुट्टियां नहीं मिल पाएंगी और मम्मीपापा को पुणे भी नहीं ले जा सकता, छवि भी नौकरी करती है,’’ कह कर उन्हें कुछ कहने का मौका दिए बिना दोनों पतिपत्नी पुणे के लिए निकल गए.

अब प्रकाश पसोपेश में पड़ गया. बड़ा भाई होने के नाते वह अपनी जिम्मेदारियों से नहीं भाग सकता था. उस ने सहारे के लिए वैभवी की तरफ देखा. पर वहां तटस्थता के भाव थे. मौका पा कर धीरे से बोला, ‘‘वैभवी, मम्मीपापा को अपने साथ ले चलते हैं, वहां आराम से इलाज और देखभाल हो जाएगी. यहां तो हम इतना नहीं रुक पाएंगे. या फिर एंजियोप्लास्टी करवा कर मैं चला जाता हूं, तुम रुक जाओ, मैं आताजाता रहूंगा.’’

‘‘क्यों? मैं क्यों रुकूं, फालतू हूं क्या? नौकरी नहीं कर रही हूं? तो क्या मेरी ही ड्यूटी हो गई, छवि या अविनाश नहीं रह सकता यहां?’’

‘‘लेकिन जब वे दोनों जिम्मेदारियां नहीं उठाना चाह रहे हैं तो पापा को ऐसे तो नहीं छोड़ सकते हैं न. किसी को तो जिम्मेदारी उठानी ही पड़ेगी.’’

‘‘हां तो, जिम्मेदारी उठाने के लिए सिर्फ हम ही रह गए. और सेवा करने के लिए सिर्फ मैं. कल को पापा की संपत्ति तो दोनों के बीच ही बंटेगी, सिर्फ हमें तो नहीं मिलेगी, मुझ से नहीं होगा.’’ कह कर पैर पटकती हुई वैभवी कमरे से बाहर निकल गई. बाहर लौबी में सास बैठी हुई थीं, उदास सी. उन का हाथ पकड़ कर किचन में ले गई वैभवी. उन्होंने सबकुछ सुन लिया था, उन के चेहरे से ऐसा लग रहा था. आंखों में आंसू डबडबा रहे थे. चेहरे पर घोर निराशा थी.

‘‘मां,’’ वह उन का चेहरा ऊपर कर के बोली, ‘‘खुद को कभी अकेला मत समझना, हम हैं आप के साथ और आप की यह बेटी आप की सेवा करने के लिए है, मुझ पर विश्वास रखना, मैं प्रकाश के साथ सिर्फ नाटक कर रही थी, मैं उन्हें कुछ एहसास दिलाना चाहती थी, मुझे गलत मत समझना. आप के पास कुछ भी न हो, तब भी आप के बच्चों के कंधे बहुत मजबूत हैं, वे अपने मातापिता का सहारा बन सकते हैं.’’

सास रो रही थीं. उस ने उन्हें गले लगा लिया. सास को सबकुछ मालूम था, इसलिए सबकुछ समझ गई थीं. मांबेटी जैसा रिश्ता कायम कर रखा था वैभवी ने अपनी सास के साथ. और हर प्यारे रिश्ते का आधार ही विश्वास होता है. उस की सास को उस पर अगाध विश्वास था.

‘‘मां, चलने की तैयारी कर लो चुपचाप. यहां लंबा रहना संभव नहीं हो पाएगा. आप और पापा हमारे साथ चलिए, दिल्ली में अच्छी चिकित्सा सुविधा मिल जाएगी और पापा की देखभाल भी हो जाएगी, आप बिलकुल भी फिक्र मत करो, मां. सारी जिम्मेदारी हमारे ऊपर डाल कर निश्ंिचत रहो. पापा की देखभाल हमारी जिम्मेदारी है.’’ सास का मन बारबार भर रहा था. वे चुपचाप अपने कमरे में आ गईं. वैभवी भी अपने कमरे में गई और अटैची में कपड़े डालने लगी. प्रकाश सिटपिटाया सा चुपचाप बैठा था. वह स्वयं जानता था कि वह वैभवी को कुछ भी बोलने का अधिकार खो चुका है. अटैची पैक करतेकरते वैभवी चुपचाप प्रकाश को देखती रही. अपनी अटैची पैक कर के वैभवी प्रकाश की तरफ मुखातिब हुई, ‘‘तुम्हारी अटैची भी पैक कर दूं.’’

‘‘वैभवी, एक बार फिर से सोच लो, पापा को ऐसे छोड़ कर नहीं जा सकते हम. मुझे तो रुकना ही पड़ेगा, लेकिन नौकरी से इतनी लंबी छुट्टी मेरे लिए भी संभव नहीं है. मांपापा को साथ ले चलते हैं, वरना कैसे होगा उन का इलाज?’’

प्रकाश का गला भर्राया हुआ था. वह प्रकाश की आंखों में देखने लगी, वहां बादलों के कतरे जैसे बरसने को तैयार थे. अपने मातापिता से इतना प्यार करने वाला प्रकाश, आखिर उस के मातापिता के लिए इतना संवेदनहीन कैसे हो सकता है?

पिताजी की याद आते ही उस का मन एकाएक प्रकाश के प्रति कड़वाहट और नकारात्मक भावों से भर गया. लेकिन उस के संस्कार उसे इस की इजाजत नहीं देते थे. वह अपने सासससुर के प्रति ऐसी निष्ठुर नहीं हो सकती. कोई भी इंसान जो अपने ही मातापिता से प्यार नहीं कर सकता, वह दूसरों से क्या प्यार करेगा. और जो अपने मातापिता से प्यार करता हो, वह दूसरों के प्रति इतना संवेदनहीन कैसे हो सकता है? उसे अपनेआप में डूबा देख कर प्रकाश उस के सामने खड़ा हो गया, ‘‘बोलो वैभवी, क्या सोच रही हो, पापा को साथ ले चलें न? उस ने प्रकाश के चेहरे पर पलभर नजर गड़ाई, फिर तटस्थता से बोली, ‘‘टैक्सी बुक करवा लो जाने के लिए.’’

कह कर वह बाहर निकल गई. प्रकाश कुछ समझा, कुछ नहीं समझा पर फिर घर के माहौल से सबकुछ समझ गया. पर वैभवी उसे कुछ भी कहने का मौका दिए बगैर अपने काम में लगी हु थी. तीसरे दिन वे मम्मीपापा को ले कर दिल्ली चले गए. पापा की एंजियोप्लास्टी हुई, कुछ दिन अस्पताल में रहने के बाद पापा घर आ गए. उन की देखभाल वैभवी बहुत प्यार से कर रही थी. प्रकाश उस के प्रति कृतज्ञ हो रहा था. पर वह तटस्थ थी. उस के दिल का घाव भरा नहीं था. प्रकाश को तो उस के पिताजी की सेवा करने की भी जरूरत नहीं थी. उस ने तो सिर्फ औपरेशन के वक्त रह कर उन को सहारा भर देना था, जो वह नहीं दे पाया था. उस के भाई के लिए भलाबुरा कहने का भी प्रकाश का कोई अधिकार नहीं था. जबकि उस ने अपना भी हिस्सा ले कर भी अपना फर्ज नहीं निभाया था. ये सब सोच कर भी वैभवी के दिल के घाव पर मरहम नहीं लग पा रहा था. पापा की सेवा वह पूरे मनोयोग से कर रही थी, जिस से वह बहुत तेजी से स्वास्थ्य लाभ कर रहे थे. उस के सासससुर उस के पास लगभग 3 महीने रहे. उस के बाद सास जाने की पेशकश करने लगीं पर उस ने जाने नहीं दिया, कुछ दिनों के बाद उन्होंने जाने का निर्णय ले लिया. प्रकाश और वैभवी उन्हें देहरादून छोड़ कर कुछ दिन रुक कर, बंद पड़े घर को ठीकठाक कर वापस आ गए.

सबकुछ ठीक हो गया था पर उस के और प्रकाश के बीच का शीतयुद्ध अभी भी चल रहा था, उन के बीच की वह अदृश्य चुप्पी अभी खत्म नहीं हुई थी. प्रकाश अपराधबोध महसूस कर रहा था और सोच रहा था कि कैसे बताए वैभवी को कि उसे अपनी गलती का एहसास है. उस से बहुत बड़ी गलती हो गई थी. वह समझ रहा था कि इस तरह बच्चे मातापिता की जिम्मेदारी एकदूसरे पर डालेंगे तो उन की देखभाल कौन करेगा. कल यही अवस्था उन की भी होगी और तब उन के बेटाबेटी भी उन के साथ यही करें तो उन्हें कैसा लगेगा. एकाएक वैभवी की तटस्थता को दूर करने का उसे एक उपाय सूझा. वह वैभवी को टूर पर जाने की बात कह कर चंडीगढ़ चला गया. प्रकाश को गए हुए 2 दिन हो गए थे. शाम को वैभवी रात के खाने की तैयारी कर रही थी, तभी दरवाजे की घंटी बज उठी. उस ने जा कर दरवाजा खोला. सामने मांपिताजी खड़े थे.

‘‘मांपिताजी आप, यहां कैसे?’’ वह आश्चर्यचकित सी उन्हें देखने लगी.

‘‘हां बेटा, दामादजी आ गए और जिद कर के हमें साथ ले आए, कहने लगे अगर मुझे बेटा मानते हो तो चल कर कुछ महीने हमारे साथ रहो. दामादजी ने इतना आग्रह किया कि आननफानन तैयारी करनी पड़ी.’’

तभी उस की नजर टैक्सी से सामान उतारते प्रकाश पर पड़ी. वह पैर छू कर मांपिताजी के गले लग गई. उस की आंखें बरसने लगी थीं. पिताजी के गले मिलते हुए उस ने प्रकाश की तरफ देखा, प्रकाश मुसकराते हुए जैसे उस से माफी मांग रहा था. उस ने डबडबाई आंखों से प्रकाश की तरफ देखा, उन आंखों में ढेर सारी कृतज्ञता और धन्यवाद झलक रहा था प्रकाश के लिए. प्रकाश सोच रहा था उस के सासससुर कितने खुश हैं और उस के खुद के मातापिता भी कितने खुश हो कर गए हैं यहां से. जब अपनी पूरी जवानी मातापिता ने अपने बच्चों के नाम कर दी तो इस उम्र में सहारे की तलाश भी तो वे अपने बच्चों में ही करेंगे न, फिर चाहे वह बेटा हो या बेटी, दोनों को ही अपने मातापिता को सहारा देना ही चाहिए.

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Thriller Story: वह काली रात- क्या हुआ था रंजना के साथ

Thriller Story: जैसे ही रंजना औफिस से आ कर घर में घुसीं, बहू रश्मि पानी का गिलास उन के हाथ में थमाते हुए खुशी से हुलसते हुए बोली, मांजी, 2 दिनों बाद मेरी दीदी अपने परिवार सहित भोपाल घूमने आ रही हैं. आज ही उन्होंने फोन पर बताया.’’

‘‘अरे वाह, यह तो बड़ी खुशी की बात है. तुम्हारी दीदीजीजाजी पहली बार यहां आ रहे हैं, उन की खातिरदारी में कोई कोरकसर मत रखना. बाजार से लाने वाले सामान की लिस्ट आज ही अपने पापा को दे देना, वे ले आएंगे.’’

‘‘हां मां, मैं ने तो आने वाले 3 दिनों में घूमने और खानेपीने की पूरी प्लानिंग भी कर ली है. मां, दीदी पहली बार हमारे घर आ रही हैं, यह सोच कर ही मन खुशी से बावरा हुआ जा रहा है,’’ रश्मि कहते हुए खुशी से ओतप्रोत थी.

‘‘बड़ी बहन मेरे लिए बहुत खास है. 12वीं कक्षा में पापा ने जबरदस्ती मुझे साइंस दिलवा दी थी और मैं फेल हो गई थी. मैं शुरू से प्रत्येक क्लास में अव्वल रहने की वजह से अपनी असफलता को सहन नहीं कर पा रही थी और निराशा से घिर कर धीरेधीरे डिप्रैशन में जाने लगी थी. तब दीदी की शादी को 2 महीने ही हुए थे. मेरी बिगड़ती हालत को देख कर दीदी बिना कुछ सोचेविचारे मुझे अपने साथ अपनी ससुराल ले गईर् थीं. जगह बदलने और दीदीजीजाजी के प्यार से मैं धीरेधीरे अपने दुख से उबरने लगी थी. मेरा मनोबल बढ़ाने में जीजाजी ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी थी. उन्हीं की मेहनत और प्यार का फल है कि डौक्टरेट कर के आज कालेज में पढ़ा कर खुशहाल जिंदगी जी रही हूं. मां, कितना मुश्किल होता होगा अपनी नईनवेली गृहस्थी में किसी तीसरे, वह भी जवान बहन को शामिल करना,’’ रश्मि ने अपनी दीदी की सुनहरी यादों को ताजा करते हुए अपनी सास से कहा.

‘‘हां, सो तो है बेटा, पर तुम उन की यादों में ही खोई रहोगी कि कुछ तैयारी भी करोगी. दीदी के कितने बच्चे हैं?’’ रंजना ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘2 बेटे हैं मां, बड़ा बेटा अमन इंजीनियरिंग के आखिरी साल में है और छोटा अर्णव 12वीं कर रहा  है,’’ रश्मि ने खुशी से उत्तर दिया.

‘‘अच्छा,’’ कहते हुए रंजना ने अपने

2 कमरों के छोटे से घर पर नजर डाली जो 4 लोगों के आ जाने से भर जाता था. उन्होंने पति के साथ मिल कर बड़े जतन से इस घर को उस समय बनाया था जब बेटे का जन्म हुआ था. तब आर्थिक स्थिति भी उतनी अच्छी नहीं थी. सो, किसी तरह 2 कमरे बनवा लिए थे. उस के बाद परिवार बड़ा हो गया पर घर उतना ही रहा. कितनी बार सोचा भी कि ऊपर 2 कमरे और बनवा लें, ताकि किसी के आने पर परेशानी न हो, पर सुरसा की तरह मुंह फाड़ती इस महंगाई में थोड़ा सा पैसा बचाना भी मुश्किल हो जाता है. खैर, देखा जाएगा.

2 दिनों बाद सुबह ही रश्मि की दीदी परिवार सहित आ गईं. सभी लोग हंसमुख और व्यवहारकुशल थे. शीघ्र ही रश्मि के दोनों बच्चे 12 वर्षीय धु्रव और 8 वर्षीया ध्वनि दीदी के बेटों के साथ घुलमिल गए. पुरुष देशविदेश की चर्चाओं में व्यस्त हो गए. वहीं रश्मि और उस की दीदी किचन में खाना बनाने के साथसाथ गपों में मशगूल हो गईं. रंजना स्वयं भी नाश्ता कर के अपने औफिस के लिए रवाना हो गईर्ं.

नहाधो कर सब ने भरपेट नाश्ता किया. रश्मि ने खाना बना कर पैक कर लिया ताकि घूमतेघूमते भूख लगने पर खाया जा सके. पूरे दिन भोपाल घूमने के बाद रात का खाना सब ने बाहर ही खाया. मातापिता के लिए खाना रश्मि के पति ने पैक करवा लिया. घर आ कर ताश की महफिल जम गई जिस में रंजना और उन के रिटायर्ड पति भी शामिल थे.

रात्रि में हौल में जमीन पर ही सब के बिस्तर लगा दिए गए. सभी बच्चे एकसाथ ही सोए. बाकी सदस्य भी वहीं एडजस्ट हो गए. रश्मि की दीदी ने पहले ही साफ कह दिया था कि मम्मीपापा अपने कमरे में ही लेटेंगे ताकि उन्हें कोई डिस्टर्ब न करे. अपने रात्रिकालीन कार्य और दवाइयां इत्यादि लेने के बाद जब रंजना हौल में आईं तो कम जगह में भी सब को इतने प्यार से लेटे देख कर उन्हें बड़ी खुशी हुई. अचानक बच्चों के बीच ध्वनि को लेटे देख कर उन का माथा ठनका, वे अचानक बहुत बेचैन हो उठीं और बहू रश्मि को अपने कमरे में बुला कर कहा, ‘‘बेटा, ध्वनि अभी छोटी है, उसे पास सुलाओ.’’

‘‘मां, वह नहीं मान रही. अपने भाइयों के पास ही सोने की जिद कर रही है. सोने दीजिए न, दिनभर के थके हैं सारे बच्चे, एक बार आंख लगेगी तो रात कब बीत जाएगी, पता भी नहीं चलेगा,’’ कह कर रश्मि वहां से खिसक गईं.

वे सोचने लगीं, ‘यह तो सही है कि थकान में रात कब बीत जाती है, पता नहीं चलता, पर रात ही तो वह समय है जब सब सो रहे होते हैं और करने वाले अपना खेल कर जाते हैं. रात ही तो वह पहर होता है जब चोर लाखोंकरोड़ों पर हाथ साफ करते हैं. दिन में कुलीनता, शालीनता, सज्जनता और करीबी रिश्तों का नकाब पहनने वाले अपने लोग ही अपनी हवस पूरी करने के लिए रात में सारे रिश्तों को तारतार कर देते हैं.

कहते हैं न, दूध का जला छाछ भी फूंकफूंक कर पीता है, सो, उन का मन नहीं माना और कुछ देर बाद ही वे फिर हौल में जा पहुंचीं. ध्वनि उसी स्थान पर लेटी थी. उन्होंने धीरे से उस के पास जा कर न जाने कान में क्या कहा कि वह तुरंत अपनी दादी के साथ चल दी. बड़े प्यार से अपनी बगल में लिटा कर वे ध्वनि को कहानी सुनाने लगीं और कुछ ही देर में ध्वनि नींद की आगोश में चली गई. पर नातेरिश्तों पर कतई भरोसा न करने वाला उन का विद्रोही मन अतीत के गलियारे में जा पहुंचा.

तब वे भी अपनी पोती ध्वनि की उम्र की ही थीं. परिवार में उन के अलावा

4 वर्षीया एक छोटी बहन थी. मां गांव की अल्पशिक्षित सीधीसादी महिला थीं. एक बार ताउजी का 23 वर्षीय बेटा मुन्नू उन के घर दोचार दिनों के लिए कोई प्रतियोगी परीक्षा देने आया था. भाई के आने से घर में सभी बहुत खुश थे, आखिर वह पहली बार जो आया था. गरमी का मौसम था. उस समय कूलरएसी तो होते नहीं थे, सो, मां ने खुले छोटे से आंगन में जमीन पर ही बिस्तर लगा दिए थे.

वे अपने पिता से कहानी सुनाने की जिद कर रही थीं कि तभी भाई ने कहानी सुनाने का वास्ता दे कर उसे अपने पास बुला लिया. वह भी खुशीखुशी भैया के पास कहानी सुनतेसुनते सो गई. आधी रात को जब सब सोए थे, अचानक उन्हें अपने निचले वस्त्र के भीतर कुछ होने का एहसास हुआ. कुछ समझ नहीं आने पर वे अचकचाईं और करवट ले कर लेट गईं. कुछ देर बाद भाई ने दोबारा उन्हें अपनी ओर कर लिया और वही कार्य फिर से शुरू कर दिया. न जाने क्यों उसे यह सब अच्छा नहीं लग रहा था. जब असहनीय हो गया तो एक झटके से उठी और जा कर मां से चिपक कर लेट गई. उस दिन बहुत देर तक नींद ही नहीं आई. वह समझ ही नहीं पा रही थीं कि आखिर भैया उस के साथ क्या कर रहे थे?

8 साल की बच्ची क्या जाने कि उस के ही चचेरे भाई ने उस के साथ दुष्कर्म करने का प्रयास किया था. उस समय मोबाइल, टीवी और सोशल मीडिया तो था नहीं जो मां के बिना बताए ही सब पता चल जाता. यह सब तो उसे बाद में समझ आया कि उस दिन भाई अपनी ही चचेरी बहन के साथ…छि… सोच कर उस का मन आज भी मुन्नू भैया के प्रति घृणा से भर उठता है. अगले दिन सुबह मां ने पूछा, ‘क्या हुआ रात को उठ कर मेरे पास क्यों आ गई थी.’

उसे समझ ही नहीं आया कि क्या कहे? सो वह ‘कुछ नहीं, ऐसे ही’ कह कर बाहर चली गई. उस समय तो क्या वह तो आज तक मां से नहीं कह पाई कि उन के लाड़ले भतीजे ने उस के साथ क्या किया था. पर क्या वह उस समय मां को बताती तो मां उस की बातों पर भरोसा करतीं? शायद नहीं, क्योंकि मां की नजर में वह तो बच्ची थी और मुन्नू भैया उन के लाड़ले भतीजे.

उस जमाने में मांबेटी में संकोच की एक दीवार रहती थी. वे इतने खुल कर हर मुद्दे पर बात नहीं करती थीं जैसे कि आज की मांबेटियां करती हैं. वह कभी किसी से इस विषय में बोल तो नहीं पाई परंतु पुरुषों और सैक्स के प्रति एक अनजाना सा भय मन में समा गया. पुरानी यादों की परतें थीं कि धीरेधीरे खुलती ही जा रही थीं. समय बीतता गया. जब उन्होंने जवानी की दहलीज पर पैर रखा तो मातापिता को शादी की चिंता सताने लगी. आखिर एक दिन वह भी आया जब पेशे से प्रोफैसर बसंत उन के जीवन में आए.

उन्हें याद है जब वे शादी कर के ससुराल आईं तो बहुत डरी हुई थीं. पति बसंत बहुत सुलझे और समझदार इंसान थे. उन्होंने आम पुरुषों की तरह संबंध बनाने की कोई जल्दबाजी नहीं की. जब सारे मेहमान चले गए तो एक दिन परिस्थितियां और माहौल अनुकूल देख कर बसंत ने जब उन के साथ संबंध बनाने की कोशिश करनी चाही तो वे घबरा कर पसीनापसीना हो गईं और उन की आंखों से आंसुओं की अविरल धारा बहने लगी. इस के बाद जब भी बसंत उन के नजदीक आने की कोशिश करते, उन की यही स्थिति हो जाती.

उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से कई बार रंजना से इस का कारण जानने की कोशिश की परंतु रंजना हर बार टाल गईं. एक दिन जब घर में कोई नहीं था, समझदार बसंत ने मानो समस्या हल करने का बीड़ा ही उठा लिया. वे रंजना का हाथ पकड़ कर जमीन पर बैठ गए और बड़े प्यार से इस मनोदशा का कारण पूछने लगे. पहले तो रंजना चुप रहीं पर फिर बसंत के प्यारभरे स्पर्श से सालों से जमी बर्फ की पर्त मानो पिघलने को आतुर हो उठी, उन की आंखों से आंसुओं के रूप में लावा बह निकला और रोतेरोते पूरी बात उन्होंने बसंत को कह सुनाई, जिस का सार यह था कि जब भी बसंत उन के नजदीक आते हैं उन्हें वह काली रात याद आ जाती है और वे घबरा उठती हैं.

बसंत कुछ देर तो शांत रहे, वातावरण में चारों ओर मौन पसर गया. वे मन ही मन घबराने लगीं कि न जाने बसंत की प्रतिक्रिया क्या होगी. परंतु कुछ देर बाद माहौल की खामोशी को तोड़ते हुए बसंत उठ कर उन की बगल में बैठ गए, रंजना का हाथ अपने हाथ में ले कर बड़े ही प्यार से बोले, ‘रंजू, जो हुआ उसे एक बुरा सपना समझ कर भूल जाओ. तुम्हारी उस में कोई गलती नहीं थी. गलती तो तुम्हारे उस भाई की थी जिस ने एक कोमल कली को कुचलने का प्रयास किया. जिस ने तुम्हारे मातापिता के साथ विश्वासघात किया. जिस ने रिश्तों की गरिमा को तारतार कर दिया. वह भाई के नाम पर कलंक है. जहां तक मां का सवाल है वे यह कभी सपने में भी नहीं सोच पाईं होंगी कि उन का सगा भतीजा ऐसा कुकृत्य कर सकता है. परंतु अब मैं तुम्हारे साथ हूं. हम पतिपत्नी हैं. तुम्हारा और मेरा हर सुखदुख साझा है.

‘कल हम एक मनोवैज्ञानिक काउंसलर के पास चलेंगे जिस से तुम अपने मन की सारी पीड़ा को बाहर ला कर अपने और मेरे जीवन को सुखमय बना पाओगी. इतना भरोसा रखो अपने इस नाचीज जीवनसाथी पर कि जब तक तुम स्वयं को मानसिक रूप से तैयार नहीं कर लेतीं मैं कोई जल्दबाजी नहीं करूंगा. बस, इतना प्रौमिस जरूर चाहूंगा कि यदि भविष्य में हमारी कोई बेटी होगी तो उसे तुम संभाल कर रखोगी. उसे किसी भी हालत में परिचितअपरिचित की हवस का शिकार नहीं होने दोगी. बोलो, मेरा साथ देने को तैयार हो.’

‘हां, बसंत, मैं अपनी बेटी तो क्या इस संसार की किसी भी बेटी को उस तरह की मानसिक यातना से नहीं गुजरने दूंगी, जिसे मैं ने भोगा है, पर मुझे अभी कुछ वक्त और चाहिए,’ रंजना ने बसंत का हाथ अपने हाथ में ले कर कहा, तो बसंत मुसकराते हुए प्यार से बोले, ‘यह बंदा ताउम्र अपनी खूबसूरत पत्नी की सहमति का इंतजार करेगा.’

अचानक रंजना कुछ सोचते हुए बोलीं, ‘बसंत, मैं धन्य हूं जो मुझे तुम जैसा समझदार पति मिला. मुझे लगता है हर महिला बाल्यावस्था में कभी न कभी पुरुषों द्वारा इस प्रकार से शोषित होती होगी. अगर आज तुम्हारे जैसा समझदार पति नहीं होता तो मुझ पर क्या बीतती.’

‘तुम बिलकुल सही कह रही हो, कितने परिवारों में ऐसा ही दर्द अपने मन में समेटे महिलाएं जबरदस्ती पति के सम्मुख समर्पित हो जाती हैं. कितनी महिलाएं अंदर ही अंदर घुटती रहती हैं और कितनों के इसी कारण से परिवार टूट जाया करते हैं, जबकि इस प्रकार की घटनाओं में महिला पूरी तरह निर्दोष होती है, क्योंकि बाल्यावस्था में तो वह इन सब के माने भी नहीं जानती. चलो, अब कुछ खाने को दो, बहुत जोरों से भूख लगी है,’ बसंत ने कहा तो वे मानो विचारों से जागी और फटाफट चायनाश्ता ले कर आ गईं.

कुछ दिनों की कांउसलिंग सैशन के बाद वे सामान्य हो गईं और एक दिन जब वे नहा कर बाथरूम से निकली ही थीं कि बसंत ने उन्हें अपने बाहुपाश में बांध लिया और सैक्सुअल नजरों से उन की ओर देखते हुए बोले, ‘‘अब कंट्रोल नहीं होता, बोलो, हां है न.’’

बसंत की प्यारभरी मदहोश कर देने वाली नजरों में मानो वे खो सी गईं और खुद को बसंत को सौंपने से रोक ही नहीं पाईं. बसंत ने उन्हें 2 प्यारे और खूबसूरत से बच्चे दिए. बेटी रूपा और बेटा रूपेश. उन्हें अच्छी तरह याद है जैसे ही रूपा बड़ी होने लगी, वे रूपा को अपनी आंखों से ओझल नहीं होने देती थीं. दोनों बच्चों के साथ बसंत और उन्होंने ऐसा दोस्ताना रिश्ता कायम किया था कि बच्चे अपनी हर छोटीबड़ी बात मातापिता से ही शेयर करते थे.

वे चारों आपस में मातापिता कम दोस्त ज्यादा थे. बेटी रूपा जैसे ही 7-8 वर्ष की हुई, उन्होंने उसे अच्छीबुरी भावनाओं, स्पर्श और नजरों का फर्क भलीभांति समझाया. ताकि उस के जीवन में कभी कोई रात काली न हो. सोचतेसोचते कब आंख लग गई, उन्हें पता ही नहीं चला. सुबह आंख देर से खुली तो देखा कि सभी केरवा डैम जाने की तैयारी में थे. वे भी फटाफट तैयार हो कर औफिस के लिए निकल लीं. अगले दिन रश्मि की दीदी का सुबह की ट्रेन से जाने का प्रोग्राम था. 3 दिन कैसे हंसीखुशी में बीत गए, पता ही नहीं चला.

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