एक्सरसाइज से ब्रेक भी है फायदेमंद

डायबिटीज, हाई ब्लड प्रेशर, ह्रदय रोग, जैसी गम्भीर बीमारियों के साथ साथ वजन घटाने और सेहतमंद रहने के लिए चिकित्सा विशेषज्ञ नियमित व्यायाम करने की सलाह देते हैं. योग, मॉर्निंग वॉक, जिमिंग तथा प्राणायाम आदि व्यायाम के ही प्रकार हैं जिन्हें हम अपनी सुविधा के अनुसार करने का प्रयास करते हैं. नियमित व्यायाम से होने वाले सकारात्मक सोच, मजबूत, लचीला, और स्वस्थ शरीर जैसे लाभों से हम सभी भली भांति परिचित हैं परन्तु हाल ही में अमेरिकी फिटनेस फर्म “एल आई टी मेथड” के द्वारा की गई रिसर्च के मुताबिक शरीर को सप्ताह में कम से कम एक दिन व्यायाम से ब्रेक अवश्य दिया जाना चाहिए. रिसर्च के अनुसार सप्ताह में एक दिन ब्रेक देकर हम व्यायाम से अधिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं. व्यायाम से एक दिन के ब्रेक की हमें इसलिए आवश्यकता होती है-

1. सेल्स रिपेयर होते हैं

मुख्य शोधकर्ता टेलर नॉरिस के अनुसार व्यायाम करने के दौरान हमारे शरीर की हड्डियों और मांसपेशियों पर बहुत दबाब पड़ता है जिससे उनके टूटनेफटने की संभावना बढ़ जाती है परन्तु जब हम एक दिन का ब्रेक लेते हैं तो उन्हें आराम तो मिलता ही है साथ ही शरीर उनकी मरम्मत के लिए वक़्त भी निकाल पाता है. ब्रेक न मिल पाने की स्थिति में लगातार थकावट होने से हड्डियों और मांसपेशियों में क्षरण की शिकायत उत्पन्न हो सकती है.

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2. मांसपेशियां मजबूत होती हैं

नॉरिस के अनुसार बिना ब्रेक दिए व्यायाम करने से मांसपेशियों और हड्डियों में थकावट होती है जिससे इंसान मांसपेशियों में खिंचाव और जोड़ों में दर्द की समस्या से जूझता है और कई बार ध्यान न देने पर यह समस्या काफी गम्भीर रूप ले लेती है. वे कहते हैं एक या दो दिन के ब्रेक से मांसपेशियों को आराम मिलता है और वे पुनः मेहनत करने के लिए तैयार हो जातीं हैं.

3. मस्तिष्क को आराम मिलता है

रिसर्च के अनुसार एक्सरसाइज करते समय शरीर में स्ट्रेस हार्मोन कार्टिसोल का स्राव तीव्र हो जाता है जिससे दिमाग को संदेश जाता है कि इस समय शरीर कठिन स्थिति से गुजर रहा है और दिमाग तुरन्त ग्लूकोज को भावी इस्तेमाल के लिए सहेजना प्रारम्भ कर देता है परिणामस्वरूप फैट और कार्बोहाइड्रेट के ऊर्जा में तब्दील होने की गति बहुत धीमी पड़ जाती है और दिमाग आराम की अवस्था में आ जाता है.

4. नवीन ऊर्जा संजय कर पाता है

शोधकर्ताओं के अनुसार एक्सरसाइज से ब्रेक मांसपेशियों का घनत्व बढ़ाने में असरदार है. इससे शरीर नवीन ऊर्जा के साथ कसरत करने के लिए तैयार होता है उनके अनुसार ब्रेक के दिन अच्छी नींद लेने के साथ साथ मनपसन्द फ़िल्म या कार्य करना चाहिए जिससे शरीर में फील गुड हार्मोन का स्राव तेजी से हो और शरीर तेजी से अपनी मरम्मत का कार्य कर सके.

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5. ऊबन दूर करने के लिए

लगातार एक जैसा कार्य करने से मन ऊब जाता है. एक दिन का ब्रेक आपको नया सोचने का समय देता है और अपनी इच्छानुसार व्यायाम को और अधिक रोचक बनाने का अवसर भी देता है जिससे आप अधिक मन लगाकर कार्य कर पाते हैं.

प्रदूषण से बचाना सामूहिक जिम्मेदारी

बढ़ता प्रदूषण, कूड़े के ढेर, बदबू, नालियों का बंद होना,  सड़कों पर बेतहाशा भीड़ पर लोग अकसर गुस्सा होते हैं पर वे भूल जाते हैं कि वे ज्यादातर खुद ही इस के जिम्मेदार हैं. औरतें और ज्यादा, क्योंकि घरों का कूड़ा वे ही इधरउधर फेंकती रहती हैं.

जब से मशीनों की सहायता से तरहतरह की चीजें सस्ते में बनाना आसान हुआ है, लोगों में खरीदारी की होड़ लग गई है. दिल्ली का करोलबाग हो या चेन्नई का टी नगर, खरीदारों से भरा होता है और वहां न गाडि़यां खड़ी करने की जगह बचती है, न सामान रखने की.

यह सामान अंत में घरों में पहुंचता है जहां और जगह और जगह का शोर मचता रहता है. नई अलमारियां बनती हैं, अलमारियों के ऊपर ओवरहैड कपबर्ड बनते हैं. कौरीडोरों में लौफ्ट बनते हैं. उन में ठूंसठूंस कर सामान रखा जाता है पर फिर भी रोना रोया जाता है कि जगह कम है.

दूसरी ओर न इस्तेमाल किया या थोड़ा इस्तेमाल किया सामान फालतू में कोनों में सड़ कर कूड़े के ढेरों को बढ़ाता है और शहरी रोते हैं कि शहर और आसपास का पर्यावरण गंदा हो रहा है.

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आर्थिक उन्नति के नाम पर बेमतलब में इजिप्ट के पिरामिड या दिल्ली की कुतुब मीनार बनाना जरूरी नहीं है. लोगों को मौसम से बचाने के लिए सुविधाजनक घर चाहिए, जहां दम न घुटे पर जब उन में सामान भर दिया जाएगा तो वे ही कबाड़खाना बन जाएंगे जो वे घर ही घर का पर्यावरण खराब करते हैं, जो बाहर के खराब पर्यावरण से भी ज्यादा खतरनाक  होताहै.

अमेरिकी गायिका मैडोना ने तय किया है कि वह कुछ नहीं खरीदेगी. सालभर तक कोविड ने इस में हैल्प की कि लौकडाउन हो गया, पार्टियां बंद हो गईं. अब तो आदत हो गई है कि 3-4 जोड़ी कपड़े रखो, धोधो पहनो.

महात्मा गांधी का सामान न के बराबर था और वे 100 करोड़ लोगों के दिलों पर राज करते थे, 1-1 पिन बचा कर रखते थे.

अगर दुनिया को प्रदूषण से बचना है तो घर का, बच्चों का, खुद का व औरों का सामान न खरीदें. पुराने से काम चलाएं. जब तक कोई चीज खराब न हो, बदलें नहीं. उत्पादकों से कहें कि हम तो ‘दादा खरीदे पोता बरते’ वाला सामान चाहते हैं. यह बनाया जा सकता है और बनाना आसान है.

उत्पादक समझ गए हैं कि लोगों में नए की ललक है, इसलिए थोड़ा सा बदलाव कर के नया, अब शक्तिशाली, ‘अब नए के फीचरों के साथ’ के शब्दों का धुआंधार इस्तेमाल करते हुए प्रचार करते हैं क्योंकि उन्हें मुनाफे से मतलब होता है, उन से जो प्रदूषण फैल रहा उस की चिंता नहीं.

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उत्पादक, कंपनियां, बिजली घर, पैट्रोल रिफाइनरियां प्रदूषण का कारण नहीं, प्रदूषण का कारण सीधेसादे घर के लोग हैं, वहां रहती औरतें हैं, जिन की अलमारियों में सामान ठूंसठूंस कर भरा है, जो हर रोज ड्रम भर कर सामान फेंकते हैं. सब से ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाले को देखना है तो दूर न जाइए, बस शीशे के सामने खड़े हो जाएं, दिख जाएगा.

कुकिंग में समय बचाएंगी ये 5 तकनीक

महिलाएं चाहे कामकाजी हों या होममेकर किचिन और कुकिंग से तो दो दो हाथ करने ही पड़ते हैं, महिलाएं ही नहीं बल्कि आजकल तो पुरुष भी अक्सर कुकिंग करते नजर आते हैं. आजकल के व्यस्त जीवन में अक्सर हमारे पास समय का अभाव रहता है तो क्यों न कुछ ऐसे उपाय किये जायें जिससे खाना बनाना चुटकियों का खेल हो जाये और आप कम से कम समय में स्वादिष्ट खाना बना सकें. तो आइए हम आपको 5 ऐसी तकनीक बताते हैं जिन्हें अपनाकर आपका खाना बनाने में लेशमात्र  का समय लगेगा.

क्यूब्स फ्रीजिंग

इमली, टमाटर, नीबू का रस, पिसी चटनी, कच्चा आम, शिकंजी, शर्बत, आम पना आदि के फ्रिज में क्यूब्स जमाकर रखें. इन क्यूब्स से आप मीठी चटनी, सब्जी फटाफट बना सकेंगी. शिकंजी, शर्बत और आम पने  के क्यूब्स को आवश्यकतानुसार ठंडे पानी में डालकर प्रयोग करें.

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ग्राइंडिंग

अदरक, हरी मिर्च और लहसुन को 1 टीस्पून वेजिटेबल आयल के साथ ग्राइंड करें और कांच के एयरटाइट जार में भरकर रखें. इसी प्रकार आप अन्य पेस्ट भी तैयार कर सकतीं हैं.

टमाटर, प्याज, लहसुन को हल्दी, धनिया और लाल मिर्च पाउडर के साथ अच्छी तरह पीसें और तेल में भूनकर फ्रिज में रखें और सब्जी बनाते समय प्रयोग करें.

तिल, मूंगफली दाना, काजू, मगज के बीज आदि को बिना तेल घी के भूनकर ग्राइंड करें और अलग अलग एयरटाइट जार में भरकर फ्रिज में रखें जब भी रिच ग्रेवी वाली सब्जी बनानी हो इसका प्रयोग करें. इससे आपकी सब्जी 5 मिनट में बन जाएगी.

विविध प्रकार की चटनियों को भी आप पीसकर कांच के जार में स्टोर करें और खाने के साथ प्रयोग करें.

बॉईलिंग

पालक, बथुआ, आलू, अरबी, शकरकंद, कॉर्न और मटर को उबालकर फ्रिज में रखें और आवश्यकता पड़ने पर सब्जी, परांठा, पूरी, कटलेट, चाट और रायता आदि बनाने में प्रयोग करें.

फ्राइंग

प्याज को पतला पतला काटकर नमक के पानी में आधे घण्टे के लिए डालें और फिर निकालकर 10 मिनट के लिए साफ सूती कपड़े पर फैलाएं. अब तेल में धीमी आंच पर सुनहरा भूनकर बटर पेपर पर निकाल लें और इसे एयरटाइट जार में भरकर रखें. आवश्यकतानुसार पुलाव, खिचड़ी, वेजिटेबल दलिया और दाल चावल आदि पर ऊपर से डालकर सर्व करें.

भरवां सब्जियों और रसेदार सब्जियों के मसाले को तेल में अच्छी तरह भूनकर

एयरटाइट जार में भरकर रखें और सब्जी बनाते समय प्रयोग करे.

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कटिंग और क्लीनिंग

सभी सब्जियों को धोकर, साफ कपड़े से पोंछकर ही फ्रिज में रखें. हरी सब्जियों को छोड़कर अन्य को काटकर प्लास्टिक कंटेनर में रखें ताकि 5 मिनट में आप सब्जी बना सकें. ध्यान रखें कि सलाद को काटकर रखने के स्थान पर खाते समय ही काटें ताकि उसके पौष्टिक तत्व बरकरार रहें.

मंगेतर शादी से पहले संबंध बनाना चाहता है, मैं क्या करुं?

सवाल-

मैं 25 वर्षीय युवती हूं. 2-3 महीने बाद मेरी शादी होने वाली है. मंगेतर एक बड़ी कंपनी में अच्छे ओहदे पर कार्यरत है. मगर इस के बावजूद एक चिंता भी है. दरअसल, मंगेतर शादी से पहले संबंध बनाना चाहता है. इतना ही नहीं वह मोबाइल पर पोर्न वीडियो भी भेजता रहता है और जब भी बात करो तो सैक्स पर बातचीत अधिक करना चाहता है. वीडियो कौल के दौरान वह मुझे न्यूड होने के लिए भी बोलता है. कहीं मेरा मंगेतर किसी मानसिक विकृति का शिकार तो नहीं है? मुझे क्या करना चाहिए, कृपया सलाह दें?

जवाब

शादी से पहले सैक्स संबंध बनाना कतई उचित नहीं है. अगर आप का मंगेतर आप पर इस के लिए दबाव डाल रहा है, तो उसे साफ मना कर दें. रही बात उस के किसी मानसिक विकृति से ग्रस्त होने की तो यह तभी जाना जा सकता है जब कोई उस के नजदीक रहे.

अगर आप का मंगेतर सिर्फ सैक्स की ही बात करता है, पोर्न फिल्में देखने का शौकीन है, तो जाहिर है यह एक विकृति ही है, जिसे सैक्स ऐडिक्शन कहते हैं.

सैक्स ऐडिक्शन यानी सैक्स की लत एक मानसिक रोग है, जो न सिर्फ मानसिक स्वास्थ्य, बल्कि कैरियर के साथसाथ रिश्तों को भी प्रभावित करता है.

शोधकर्ता मानते हैं कि इस से पीडि़त व्यक्ति सैक्स फैंटेसी में खोया रहता है और उसे सैक्स पर बातें करना, पोर्न मूवी देखना, सैक्स करना अच्छा लगता है.

शोधकर्ताओं का मानना है कि सैक्स के मामले में खुद पर काबू नहीं रखने वाले लोग अपने साथसाथ दूसरों की जिंदगी भी प्रभावित कर देते हैं. यदि ऐसा व्यक्ति खुद को परेशान या तनाव में महसूस करता है तो वह बारबार सैक्स करना चाहता है ताकि उस का तनाव यानी स्ट्रैस कम हो सके.

आप का मंगेतर सैक्स ऐडिक्शन से पीडि़त है, यह तभी जाना जा सकता है जब वह खुद बताए या उस का कोई नजदीकी.

आप जो भी करें सोचसमझ कर और सावधानीपूर्वक. शादी गुड्डेगुडि़यों का खेल नहीं है. अगर आप को मंगेतर के व्यवहार से किसी विकृति का पता लग रहा हो तो आप यह खुद निर्णय लें कि आप को उस के साथ शादी करनी है अथवा नहीं.

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अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz
 
सब्जेक्ट में लिखे…  गृहशोभा-व्यक्तिगत समस्याएं/ Personal Problem

शादी की खबरों के बीच ट्रैडिशनल लुक में छाईं Mouni Roy, PHOTOS VIRAL

टीवी से लेकर बौलीवुड की फिल्मों में नजर आ चुकीं एक्ट्रेस मौनी रॉय इन दिनों वेकेशन मूड में हैं. दरअसल, बीते दिनों शादी की खबरों के चलते सुर्खियों में आने वाली मौनी इन दिनों वेकेशन का लुत्फ उठा रही हैं, जिसकी फोटोज वह अपने फैंस के लिए शेयर कर रही हैं. लेकिन इस बार मौनी ने अपनी कोई हौट फोटोज नही बल्कि ट्रैडिशनल लुक में फोटोज शेयर की हैं, जिसके बाद फैंस उनकी तारीफें करते नही थक रहे हैं. आइए आपको दिखाते हैं मौनी के लेटेस्ट ट्रैडिशनल लुक की झलक…

सूट में जीता फैंस का दिल

मौनी रॉय ने अपने इंस्टाग्राम अकाउंट पर कुछ फोटोज शेयर की हैं, जिसमें वह ब्लैक कलर के सूट में नजर आ रही हैं. वहीं इसके साथ मैचिंग झुमके उनके लुक पर चार चांद लगा रहे हैं. इस खूबसूरत लुक में फोटो शेयर करने के बाद से वह सोशलमीडिया पर छा गई हैं.

 

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लुक में दिए खास पोज

रिपोर्ट्स की मानें तो मौनी रॉय इस साल शादी के बंधन में बंध सकती हैं. इन्हीं खबरों के बीच अपने लुक को फ्लौंट करने में मौनी रॉय पोज देती नजर आई. जहां वह फूलों के साथ फोटो खिचवातें हुए दिखीं तो वहीं  पेड़ों और फूलों के बीच सुकून के पल बिताती नजर आईं.

साड़ी में भी शेयर की थी फोटो

 

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जहां सूट में शेयर की गई फोटोज से मौनी फैंस को खुश कर रही हैं तो वहीं इससे पहले शिमरी साड़ी में मौनी ने फैंस को हैरान कर दिया था. शिमरी साड़ी के साथ औफ शोल्डर ब्लाउज में मौनी फैंस का दिल जीत रही थीं.

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हौट फोटोज से जीतती हैं फैंस का दिल

 

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मौनी अक्सर अपने इंस्टाग्राम अकाउंट पर हौट फोटोज शेयर करती रहती हैं, जिसे फैंस भी काफी पसंद करते हैं. वहीं शादी की बात करें तो खबरें हैं कि मौनी रॉय इस साल शादी के बंधन में बंध सकती हैं.

गुनाह: श्रुति के प्यार में जब किया अपनी गृहस्थी को तबाह

Serial Story: गुनाह- भाग 1

लेखक- शिव अवतार पाल   

‘रेवा…’ बाथरूम में घुसते ही ठंडे पानी के स्पर्श से सहसा मेरे मुंह से निकला गया. यह जानते हुए भी कि वह घर में नहीं है. आज ही क्यों, पिछले 2 महीनों से नहीं है. लेकिन लगता ऐसा है जैसे युगों का पहाड़ खड़ा हो गया.

रेवा का यों अचानक चले जाना मेरे लिए अप्रत्याशित था. जहां तक मैं समझता हूं वह उन में से थी, जो पति के घर डोली में आने के बाद लाख जुल्म सह कर भी 4 कंधों पर जाने की तमन्ना रखती हैं. लेकिन मैं शायद यह भूल गया था कि लगातार ठोंकने से लोहे की शक्ल भी बदल जाती है. खैर…उस वक्त मैं जो आजादी चाहता था वह मुझे सहज ही हासिल हो गई थी.

श्रुति मेरी सेक्रेटरी थी. उस का सौंदर्य भोर में खिले फूल पर बिखरी ओस की बूंदों सा आकर्षक था. औफिस के कामकाज संभालती वह कब मेरे करीब आ गई पता ही नहीं चला. उस की अदाओं और नाजनखरों में इतना सम्मोहन था कि उस के अलावा मुझे कुछ और सूझता ही नहीं था. मेरे लिए रेवा जेठ की धूप थी तो श्रुति वसंती बयार. रेवा के जाने के बाद मेरे साथसाथ घर में भी श्रुति का एकाधिकार हो गया था.

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सब कुछ ठीक चल रहा था कि एक दिन अचानक पश्चिम से सुरसा की तरह मुंह बाए आई आर्थिक मंदी ने मेरी शानदार नौकरी निगल ली. इस के साथ ही मेरे दुर्दिन शुरू हो गए. मैं जिन फूलों की खुशबू से तर रहता था, वे सब एकएक कर कैक्टस में बदलने लगे. मैं इस सदमे से उबर भी नहीं पाया था कि श्रुति ने तोते की तरह आंखें फेर लीं. उस के गिरगिटी चरित्र ने मुझे तोड़ कर रख दिया. अब मैं था, मेरे साथ थी आर्थिक तंगी में लिपटी मेरी तनहाई और श्रुति की चकाचौंध में रेवा के साथ की ज्यादतियों का अपराधबोध.

रेवा का निस्स्वार्थ प्रेम, भोलापन और सहज समर्पण रहरह कर मेरी आंखों में कौंधता है. सुबह जागने के साथ बैड टी, बाथरूम में गरम पानी, डाइनिंग टेबिल पर नाश्ते के साथ अखबार, औफिस के वक्त इस्तिरी किए हुए कपड़े, पौलिश किए जूते, व्यवस्थित ब्रीफकेस और इस बीच मुन्नी को भी संभालना, सब कुछ कितनी सहजता से कर लेती थी रेवा. इन में से कोई भी एक काम ठीक वक्त पर नहीं कर सकता मैं… फिर रेवा अकेली इतना सब कुछ कैसे निबटा लेती थी, सोच कर हैरान हो जाता हूं मैं. उस ने कितने करीने से संवारा था मुझे और मेरे घर को… अपना सब कुछ होम दिया था उस ने. उस के जाने के बाद यहां के चप्पेचप्पे में उस की उपस्थिति और अपने जीवन में उस की उपयोगिता का एहसास हो रहा है मुझे. उसे ढूंढ़ने में रातदिन एक कर दिए मैं ने. हर ऐसी जगह, जहां उस के मिलने की जरा भी संभावना हो सकती थी मैं दौड़ताभागता रहा. पर हर जगह निराशा ही हाथ लगी. पता नहीं कहां अदृश्य हो गई वह.

मन के किसी कोने से पुलिस में कंप्लेन करने की बात उठी. पर इस वाहियात खयाल को जरा भी तवज्जो नहीं दी मैं ने. रेवा को मैं पहले ही खून के आंसू रुला चुका हूं. हद से ज्यादा रुसवा कर चुका हूं उसे. पुलिस उस के जाने के 100 अर्थ निकालती, इसलिए अपने स्तर से ही उसे ढूंढ़ने के प्रयास करता रहा.

मेरे मस्तिष्क में अचानक बिजली सी कौंधी. रीना रेवा की अंतरंग सखी थी. अब तक रीना का खयाल क्यों नहीं आया… मुझे खुद पर झुंझलाहट होने लगी. जरूर उसी के पास गई होगी रेवा या उसे पता होगा कि कहां गई है वह. अवसाद के घने अंधेरे में आशा की एक किरण ने मेरे भीतर उत्साह भर दिया. मैं जल्दीजल्दी तैयार हो कर निकला, फिर भी 10 बज चुके थे. मैं सीधा रीना के औफिस पहुंचा.

‘‘मुझे अभी पता चला कि रेवा तुम्हें छोड़ कर चली गई,’’ मेरी बात सुन कर वह बेरुखी से बोली, ‘‘तुम्हारे लिए तो अच्छा ही हुआ, बला टल गई.’’

मेरे मुंह से बोल न फूटा.

‘‘मैं नहीं जानती वह कहां है. मालूम होता तो भी तुम्हें हरगिज नहीं बताती,’’ उस की आवाज से नफरत टपकने लगी, ‘‘जहां भी होगी बेचारी चैन से तो जी लेगी. यहां रहती तो घुटघुट कर मर जाती.’’

‘‘रीना प्लीज’’, मैं ने विनती की, ‘‘मुझे अपनी भूल का एहसास हो गया है. श्रुति ने मेरी आंखों में जो आड़ीतिरछी रेखाएं खींच दी थीं, उन का तिलिस्म टूट चुका है.’’

‘‘क्यों मेरा वक्त बरबाद कर रहे हो,’’ वह पूर्ववत बोली, ‘‘बहुत काम करना है अभी.’’

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रात गहराने के साथ ठिठुरन बढ़ गई थी. ठंडी हवाएं शरीर को छेद रही थीं. इन से बेखबर मैं खुद में खोया बालकनी में बैठा था. बाहर दूर तक कुहरे की चादर फैल चुकी थी और इस से कहीं अधिक घना कुहरा मेरे भीतर पसरा हुआ था, जिस में मैं समूचा डूबता जा रहा था. देर तक बैठा मैं कलपता रहा रेवा की याद में. उस के साथ की ज्यादतियां बुरी तरह मथती रहीं मेरे मस्तिष्क को. जिस ग्लेशियर में मैं दफन होता जा रहा था, उस के आगे शीत की चुभन बौनी साबित हो रही थी.

अगले कई दिनों तक मेरी स्थिति अजीब सी रही. रेवा के साथ बिताया एकएक पल मेरे सीने में नश्तर की तरह चुभ रहा था. काश एक बार, सिर्फ एक बार रेवा मुझे मिल जाए फिर कभी उसे अपने से अलग नहीं होने दूंगा. उस के हाथ जोड़ कर, झोली फैला कर क्षमायाचना कर लूंगा. वह जैसे चाहेगी मैं अपने गुनाहों का प्रायश्चित्त करने के लिए तैयार हूं. उसे इतना प्यार दूंगा कि वह सारे गिलेशिकवे भूल जाएगी. उस के हर एक आंसू को फूल बनाने में जान की बाजी लगा दूंगा. अपनी सारी खुशियां होम कर दूंगा उस के हर एक जख्म को भरने में. पर इस के लिए रेवा का मिलना निहायत जरूरी था, जो कि किसी भी एंगिल से संभव होता नजर नहीं आ रहा था.

वह भीड़भाड़ भरा इलाका था. आसपास ज्यादातर बड़ीबड़ी कंपनियों के औफिस थे. शाम को वहां छुट्टी के वक्त कुछ ज्यादा ही भागमभाग हो जाती थी. एक दिन मैं खुद में खोया धक्के खाता वहां से गुजर रहा था कि मेरे निर्जीव से शरीर में करंट सा दौड़ गया. जहां मैं था, उस के ऐन सामने की बिल्डिंग से रेवा आती दिखाई दी. मेरा दिल हाई स्पीड से धड़कने लगा. मैं दौड़ कर उस के पास पहुंच जाना चाहता था पर सड़क पर दौड़ते वाहनों की वजह से मैं ऐसा न कर सका. लाल बत्ती के बाद वाहनों का काफिला थमा, तब तक वह बस में बैठ कर जा चुकी थी. मैं ने तेजी से दौड़ कर सड़क पार की पर सिवा अफसोस के कुछ भी हासिल न कर सका. मेरा सिर चकराने लगा.

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Serial Story: गुनाह- भाग 2

लेखक- शिव अवतार पाल   

अगले दिन सैकंड सैटरडे था और उस के अगले दिन संडे. इन 2 दिनों की दूरी मेरे लिए आकाश और पाताल के बराबर थी. कुछ सोचता हुआ मैं उसी तेजी से उस औफिस में दाखिल हुआ, जहां से रेवा निकली थी. रिशेप्सन पर एक खूबसूरत सी लड़की बैठी थी. तेज चलती सांसों को नियंत्रित कर मैं ने उस से पूछा क्या रेवा यहीं काम करती हैं  उस ने ‘हां’ कहा तो मैं ने रेवा का पता पूछा. उस ने अजीब सी निगाहों से मुझे घूर कर देखा.

‘‘मैडम प्लीज,’’ मैं ने उस से विनती की, ‘‘वह मेरी पत्नी है. किन्हीं कारणों से हमारे बीच मिसअंडरस्टैंडिंग हो गई थी, जिस से वह रूठ कर अलग रहने लगी. मैं उस से मिल कर मामले को शांत करना चाहता हूं. हमारी एक छोटी सी बेटी भी है. मैं नहीं चाहता कि हमारे आपस के झगड़े में उस मासूम का बचपन झुलस जाए. आप उस का ऐड्रैस दे दें तो बड़ी मेहरबानी होगी. बिलीव मी, आई एम औनेस्ट,’’ मेरा गला भर आया था.

वह कुछ पलों तक मेरी बातों में छिपी सचाई को तोलती रही. शायद उसे मेरी नेकनीयती पर यकीन हो गया था. उस ने कागज पर रेवा का पता लिख कर मुझे थमा दिया.

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मैं हवा में उड़ता वापस आया. सारी रात मुझे नींद नहीं आई. मन में एक ही बात खटक रही थी कि रेवा का सामना कैसे करूंगा मैं  कैसे नजरें मिला सकूंगा उस से  पता नहीं वह मुझे माफ करेगी भी या नहीं  उस के स्वभाव से मैं भलीभांति परिचित था. एक बार जो मन में ठान लेती थी, उसे पूरा कर के ही दम लेती थी. अगर ऐसा हुआ तो…  मन के किसी कोने से उठी व्यग्रता मेरे समूचे अस्तित्व को रौंदने लगी. ऐसा हरगिज नहीं हो सकता. मन में घुमड़ते संशय के बादलों को मैं ने पूरी शिद्दत से छितराने की कोशिश की. वह पत्नी है मेरी. उस ने दिल की गहराइयों से प्यार किया है मुझे. वक्ती तौर पर तो वह मुझ से दूर हो सकती है, हमेशा के लिए नहीं. मेरा मन कुछ हलका हो गया था. उस की सलोनी सूरत मेरी आंखों में तैरने लगी थी.

सुबह उस का पता ढूंढ़ने में कोई खास परेशानी नहीं हुई. मीडियम क्लास की कालोनी में 2 कमरों का साफसुथरा सा फ्लैट था. आसपास गहरी खामोशी का जाल फैला था. बाहर रखे गमलों में उगे गुलाब के फूलों से रेवा की गंध का एहसास हो रहा था मुझे. रोमांच से मेरे रोएं खड़े हो गए थे. आगे बढ़ कर मैं ने कालबैल का बटन दबाया. भीतर गूंजती संगीत की मधुर स्वर लहरियों ने मेरे कानों में रस घोल दिया. कुछ ही पलों में गैलरी में पदचाप उभरी. रेवा के कदमों की आहट मैं भलीभांति पहचानता था. मेरा दिल उछल कर हलक में फंसने लगा था.

‘‘तुम…’’ मुझे सामने खड़ा देख कर वह बुरी तरह चौंक गई थी.

‘‘मैं ने तुम्हें कहांकहां नहीं ढूंढ़ा रेवा. हर ऐसी जगह जहां तुम मिल सकती थीं, मैं भटकता रहा. तुम ने मुझे सोचनेसमझने का अवसर ही नहीं दिया. अचानक ही छोड़ कर चली आईं.’’

‘‘अचानक कहां, बहुत छटपटाने के बाद तोड़ पाई थी तुम्हारा तिलिस्म. कुछ दिन और रुकती तो जीना मुश्किल हो जाता. तुम तो चाहते ही थे कि मर जाऊं मैं. अपनी ओर से तुम ने कोई कोरकसर बाकी भी तो नहीं छोड़ी थी.’’

‘‘मैं बहुत शर्मिंदा हूं रेवा.’’ मेरे हाथ स्वत: ही जुड़ गए थे, ‘‘तुम्हारे साथ जो बदसुलूकी की है, मैं ने उस की काफी सजा भुगत चुका हूं, जो हुआ उसे भूल कर प्लीज क्षमा कर दो मुझे.’’

‘‘लगता है मुझे परेशान कर के अभी तुम्हारा दिल नहीं भरा, इसलिए अब एक नया बहाना ले कर आए हो,’’ उस की आवाज में कड़वाहट घुल गई थी, ‘‘मैं आजिज आ चुकी हूं तुम्हारे इस बहुरुपिएपन से. बहुत रुलाया है मुझे तुम्हारी इन चिकनीचुपड़ी बातों ने. अब और नहीं, चले जाओ यहां से. मुझे कोई वास्ता नहीं रखना है तुम्हारे जैसे घटिया इंसान से.’’

मैं हतप्रभ सा उस की ओर देखता रहा.

‘‘तुम्हारी नसनस से अच्छी तरह वाकिफ हूं मैं. अपने स्वार्थ के लिए तुम किसी भी हद तक गिर सकते हो. तुम्हारा दिया एकएक जख्म मेरे सीने में आज भी हरा है.’’

‘‘मुझे प्रायश्चित्त का एक मौका तो दो रेवा. मैं…’’

‘‘मैं कुछ नहीं सुनना चाहती,’’ मेरी बात काट कर वह बिफर पड़ी, ‘‘तुम्हारी हर एक याद को अपने जीवन से खुरच कर फेंक चुकी हूं मैं.’’

‘‘अंदर आने को नहीं कहोगी ’’ बातचीत का रुख बदलने की गरज से मैं बोला.

‘‘यह अधिकार तुम बहुत पहले खो चुके हो.’’

मैं कांप कर रहा गया.

‘‘ऐसे हालात तुम ने खुद ही पैदा किए हैं आकाश. अपने प्यार को बचाने की हर संभव कोशिश की थी मैं ने. अपना वजूद तक दांव पर लगा दिया पर तुम ने कभी समझने की कोशिश ही नहीं की. जब तक सहन हुआ सहा मैं ने. और कितना सहती और झुकती मैं. झुकतेझुकते टूटने लगी थी. मैं ने अपना हाथ भी बढ़ाया था तुम्हारी ओर इस उम्मीद से कि तुम टूटने से बचा लोगे, पर तुम तो जैसे मुझे तोड़ने पर ही आमादा थे.’’

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मैं मौन खड़ा रहा.

‘‘अफसोस है कि मैं तुम्हें पहचान क्यों न सकी. पहचानती भी कैसे, तुम ने शराफत का आवरण जो ओढ़ रखा था. इसी आवरण की चकाचौंध में तुम्हारे जैसा जीवनसाथी पा कर खुद पर इतराने लगी थी. पर कितनी गलत थी मैं. इस का एहसास शादी के कुछ दिन बाद ही होने लगा था. मैं जैसेजैसे तुम्हें जानती गई, तुम्हारे चेहरे पर चढ़ा मुखौटा हटता गया. जिस दिन मुखौटा पूरी तरह हटा मैं हतप्रभ रह गई थी तुम्हारा असली रूप देख कर,’’ वह अतीत में झांकती हुई बोली.

‘‘शुरुआत में तो सब कुछ ठीक रहा. फिर तुम अकसर कईकई दिनों तक गायब रहने लगे. बिजनैस टूर की मजबूरी बता कर तुम ने कितनी सहजता से समझा दिया था मुझे. मैं भी इसी भ्रम में जीती रहती, अगर एक दिन अचानक तुम्हें, तुम्हारी सेक्रेटरी श्रुति की कमर में बांहें डाले न देख लिया होता. रीना के आग्रह पर मैं  सेमिनार में भाग लेने जिस होटल में गई थी, संयोग से वहीं तुम्हारे बिजनैस टूर का रहस्य उजागर हो गया था. तुम्हारी बांहों में किसी और को देख कर मैं जैसे आसमान से गिरी थी, पर तुम्हारे चेहरे पर क्षोभ का कोई भाव नहीं था. मैं कुछ कहती, इस से पहले ही तुम ने वहां मेरी उपस्थिति पर हजारों प्रश्नचिह्न खड़े कर दिए थे. मैं चाहती तो तुम्हारे हर बेहूदा तर्क का करारा जवाब दे सकती थी, पर तुम्हारी रुसवाई में मुझे मेरी ही हार नजर आती थी. मेरी खामोशी को कमजोरी समझ कर तुम और भी मनमानी करने लगे थे. मैं रोतीतड़पती तुम्हारे इंतजार में बिस्तर पर करवटें बदलती और तुम जाम छलकाते हुए दूसरों की बांहों में बंधे होते.’’

‘‘वह गुजरा हुआ कल था, जिसे मैं कब का भुला चुका हूं,’’ मुश्किल से बोल पाया मैं.

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Serial Story: गुनाह- भाग 3

लेखक- शिव अवतार पाल   

‘‘तुम्हारे लिए ये सामान्य सी बात हो सकती है, पर मेरा तो सब कुछ दफन हो गया है, उस गुजरे हुए कल के नीचे. कैसे भूल जाऊं उन दंशों को, जिन की पीड़ा में आज भी सुलग रही हूं मैं. याद करो अपनी शादी की सालगिरह का वह दिन, जब तुम जल्दी चले गए थे. देर रात तक तुम्हारा इंतजार करती रही मैं. हर आहट पर दौड़ती हुई मैं दरवाजे तक जाती थी. लगता था कहीं आसपास ही हो तुम और जानबूझ कर मुझे परेशान कर रहे हो. तुम लड़खड़ाते हुए आए थे. मैं संभाल कर तुम्हें बैडरूम में ले गई थी. खाने के लिए तुम ने इनकार कर दिया था. शायद श्रुति के साथ खा कर आए थे. मैं पलट कर वापस जाना चाहती थी कि तुम ने भेडि़ए की तरह झपट्टा मार कर मुझे दबोच लिया था. तुम देर तक नोचतेखसोटते रहे थे मुझे… और तुम्हारी वहशी गिरफ्त में असहाय सी तड़पती रही थी मैं. उस वक्त तुम्हारे चेहरे पर मुझे एक और चेहरा नजर आया था और वह था राक्षस का चेहरा. तुम्हारी दरिंदगी से मेरी आत्मा तक घायल हो गई थी. बोलो, कैसे भूल जाऊं मैं यह सब ’’

‘‘बस करो रेवा,’’ कानों पर हाथ रख कर मैं चीत्कार कर उठा, ‘‘मेरे किए गुनाह विषैले सर्प बन कर हर पल मुझे डसते रहे हैं. अब और सहन नहीं होता. प्लीज, सिर्फ एक बार माफ कर दो मुझे. वादा करता हूं भविष्य में तुम्हें तकलीफ नहीं होने दूंगा.

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‘‘तुम पहले ही मुझे इतना छल चुके हो कि अब और गुंजाइश बाकी नहीं है. सच तो यह है कि तुम्हारे लिए मेरी अहमियत उस फूल से अधिक कभी नहीं रही, जिसे जब चाहा मसल दिया. तुम ने कभी समझने की कोशिश ही नहीं की कि बिस्तर से परे भी मेरा कोई वजूद है. मैं भी तुम्हारी तरह इंसान हूं. मेरा शरीर भी हाड़मांस से बना हुआ है, जिस के भीतर दिल धड़कता है और जो तुम्हारी तरह ही सुखदुख का अनुभव करता है.’’

‘‘इस बीच रीना ने मेरी बहुत सहायता की. जीने की प्रेरणा दी. कदमकदम पर हौसला बढ़ाया. वह भावनात्मक संबल न देती तो कभी की बिखर गई होती. अपना अस्तित्व बचाने के लिए मैं अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती थी, उस ने भरपूर साथ दिया. तुम ने कभी नहीं चाहा मैं नौकरी करूं. इस के लिए तुम ने हर संभव कोशिश भी की. अपने बराबर मुझे खड़ी होते देख तुम विचलित होने लगे थे. दरअसल मेरे आंसुओं से तुम्हारा अहं तुष्ट होता था, शायद इसीलिए तुम्हारी कुंठा छटपटाने लगी थी.’’

‘‘मुझे अपने सारे जुर्म स्वीकार हैं. जो चाहे सजा दो मुझे, पर प्लीज अपने घर लौट चलो,’’ मैं असहाय भाव से गिड़गिड़ाता हुआ बोला.

‘‘कौन सा घर ’’ वह आपे से बाहर हो गई, ‘‘ईंटपत्थर की बेजान दीवारों से बना वह ढांचा, जहां तुम्हारे तुगलकी फरमान चलते हैं  तुम्हें जो अच्छा लगता वही होता था वहां. बैडरूम की लोकेशन से ले कर ड्राइंगरूम की सजावट तक सब में तुम्हारी ही मरजी चलती थी. मुझे किस रंग की साड़ी पहननी है… किचन में कब क्या बनना है… इस का निर्णय भी तुम ही लेते थे. वह सब मुझे पसंद है भी या नहीं, इस से तुम्हें कुछ लेनादेना नहीं था. मैं टीवी देखने बैठती तो रिमोट तुम झपट लेते. जो कार्यक्रम मुझे पसंद थे उन से तुम्हें चिढ़ थी.

‘‘वहां दूरदूर तक मुझे अपना अस्तित्व कहीं भी नजर नहीं आता था… हर ओर तुम ही तुम पसरे हुए थे. मेरे विचार, मेरी भावनाएं, मेरा अस्तित्व सब कुछ तिरोहित हो गया तुम्हारी विक्षिप्त कुंठाओं में. तुम्हारी हिटलरशाही की वजह से मेरी जिंदगी नर्क से भी बदतर बन गई थी. उस अंधेरी कोठरी में दम घुटता था मेरा, इसीलिए उस से दूर बहुत दूर यहां आ गई हूं ताकि सुकून के 2 पल जी सकूं… अपनी मरजी से.’’

‘‘अब तुम जो चाहोगी वही होगा वहां. तुम्हारी मरजी के बिना एक कदम भी नहीं चलूंगा मैं. तुम्हारे आने के बाद से वह घर खंडहर हो गया है. दीवारें काट खाने को दौड़ती हैं. बेटी की किलकारियां सुनने को मन तरस गया है. उस खंडहर को फिर से घर बना दो रेवा,’’ मेरा गला भर आया था.

‘‘अपनी गंदी जबान से मेरी बेटी का नाम मत लो,’’ उस की आवाज से नफरत टपकने लगी, ‘‘भौतिक सुख और रासायनिक प्रक्रिया मात्र से कोई बाप कहलाने का हकदार नहीं हो जाता. बहुत कुछ कुरबान करना पड़ता है औलाद के लिए. याद करो उन लमहों को, जब मेरे गर्भवती होने पर तुम गला फाड़फाड़ कर चीख रहे थे कि मेरे गर्भ में तुम्हारा रक्त नहीं, मेरे बौस का पाप पल रहा है. तुम्हारे दिमाग में गंदगी का अंबार देख कर मैं स्तब्ध रह गई थी. कितनी आसानी से तुम ने यह सब कह दिया था, पर मैं भीतर तक घायल हो गई थी तुम्हारी बकवास सुन कर. जी तो चाहा था कि तुम्हारी जबान खींच लूं, पर संस्कारों ने हाथ जकड़ लिए थे मेरे.

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‘‘तुम ऐबौर्शन चाहते थे. अपनी बात मनवाने के लिए जुल्मोजोर का हथकंडा भी अपनाया पर मैं अपने अंश को जन्म देने के लिए दृढ़संकल्प थी. प्रसव कक्ष में मैं मौत से संघर्ष कर रही थी और तुम श्रुति के साथ गुलछर्रे उड़ा रहे थे. एक बार भी देखने नहीं आए कि मैं किस स्थिति में हूं. तुम तो चाहते ही थे कि मर जाऊं मैं, ताकि तुम्हारा रास्ता साफ हो जाए. इस मुश्किल घड़ी में रीना साथ न देती तो मर ही जाती मैं.’’

आंखों में आंसू लिए मैं अपराधी की भांति सिर झुकाए उस की बात सुनता रहा.

‘‘मुझे परेशान करने के तुम ने नएनए तरीके खोज लिए थे. तुम मेरी तुलना अकसर श्रुति से करते थे. तुम्हारी निगाह में मेरा चेहरा, लिपस्टिक लगाने का तरीका, हेयर स्टाइल, पहनावा और फिगर सब कुछ उस के आगे बेहूदे थे. मेरी हर बात में नुक्स निकालना तुम्हारी आदत में शामिल हो गया था. मूर्ख, पागल, बेअक्ल… तुम्हारे मुंह से निकले ऐसे ही जाने कितने शब्द तीर बन कर मेरे दिल के पार हो जाते थे. मैं छटपटा कर रह जाती थी. भीतर ही भीतर सुलगती रहती थी तुम्हारे शब्दालंकारों की अग्नि में. इतनी ही बुरी लगती हूं तो शादी क्यों की थी मुझ से  मेरे इस प्रश्न पर तुम तिलमिला कर रह जाते थे.

‘‘उकता गई थी मैं उस जीवन से. ऐसा लगता था जैसे किसी ने अंधेरी कोठरी में बंद कर दिया हो. मेरी रगरग में विषैले बिच्छुओं के डंक चुभने लगे थे. जहर घुल गया था मेरे लहू में. सांस घुटने लगी थी मेरी. उस दमघोंटू माहौल में मैं अपनी बेटी का जीवन अभिशप्त नहीं कर सकती. उपेक्षा के जो दंश मैं ने झेले हैं, उस की छाया मुन्नी पर हरगिज नहीं पड़ने दूंगी. बेहतर है तुम खुद ही चले जाओ, वरना तुम जैसे बेगैरत इंसान को धक्के मार कर बाहर का रास्ता दिखाना भी मुझे अच्छी तरह आता है. एक बात और समझ लो,’’ मेरी ओर उंगली तान कर वह शेरनी की तरह गुर्राई. ‘‘भविष्य में भूल कर भी इधर का रुख किया तो बाकी बची जिंदगी जेल में सड़ जाएगी,’’ मेरी ओर देखे बिना उस ने अंदर जा कर इस तरह दरवाजा बंद किया, जैसे मेरे मुंह पर तमाचा मारा हो.

मैं कई पलों तक किंकर्तव्यविमूढ सा खड़ा रहा. इंसान के गुनाह साए की तरह उस का पीछा करते हैं. लाख कोशिशों के बाद भी वह परिणाम भुगते बगैर उन से मुक्त नहीं हो सकता. कल मैं ने जिस का मोल नहीं समझा, आज मैं उस के लिए मूल्यहीन था. ये दुनिया कुएं की तरह है. जैसी आवाज दोगे वैसी ही प्रतिध्वनि सुनाई देगी. जो जैसे बीज बोता है वैसी ही फसल काटना उस की नियति बन जाती है. तनहाई की स्याह सुरंगों की कल्पना कर मेरी आंखों में मुर्दनी छाने लगी. आवारा बादल सा मैं खुद को घसीटता अनजानी राह पर चल दिया. टूटतेभटकते जैसे भी हो, अब सारा जीवन मुझे अपने गुनाहों का प्रायश्चित्त करना था.

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सिर पर मैला उठाने की परंपरा अमानवीय और शर्मनाक है- आदित्य ओम

फिल्म अभिनेता,  लेखक,  गीतकार,  निर्देशक, निर्माता, समाज सेवक और तेलुगु फिल्मों के लोकप्रिय अभिनेता आदित्य ओम लगातार सामाजिक सारोकारों से जुड़े विषयों पर फिल्मों का निर्माण व निर्देशन कर अपनी एक अलग पहचान रखते हैं. जबकि दक्षिण भारत में उनकी पहचान अभिनेता के तौर पर है. अब तक वह 25 सफलतम तेलगु फिल्मों में अभिनय कर चुके हैं.

तेलगू फिल्मों में अभिनय से धन कमाते हुए वह सामाजिक सरोकारों वाली हिंदी फिल्में बना रहे हैं. उन्होने सबसे 2012 में फिल्म‘‘शूद्र‘‘ का सह निर्माण किया था.  फिर ‘बंदूक’का निर्माण व निर्देशन किया. उसके बाद मूक फिल्म ‘‘मिस्टर लोनली मिस प्यारी‘‘ का निर्देशन किया. उनके द्वारा निर्देशित लघु फिल्मों ‘‘माया मोबाइल‘‘ और ‘‘मेरी मां के लिए‘‘को काफी सराहा गया. आदित्य ओम द्वारा लिखित और निर्देशित अंगे्रजी भाषा की फीचर फिल्म‘‘द डेड एंड‘‘को अंतरराष्ट्ीय फिल्म समारोहो में काफी पुरस्कार मिले हैं. सिनेमा व्यवसाय में बढ़ते एकाधिकार के खिलाफ लड़ाई वह लड़ाई लड़ चुके हैं. इन दिनों आदित्य ओम अपनी शिक्षातंत्र पर आधारित हिंदी फिल्म ‘‘मास्साब‘‘ को लेकर चर्चा में हैं, जिसने विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में 48 पुरस्कार जीते हैं. आदित्य ओम की तीन पटकथाएं प्रतिष्ठित औस्कर पुस्तकालय का हिस्सा हैं. जबकि उनकी बहुभाषी फीचर फिल्म‘बंदी’ भी चर्चा में है.

आदित्य ओम सामाजिक कार्यों में सक्रिय रहते हैं. उन्होने तेलंगाना में चेरूपल्ली व आंध्रा में चार गॉंव गोद ले रखे हैं. वह अपने एनजीओ ‘एडुलाइटमेंट‘ (म्कनसपहीज उमदज) के तहत पिछले दस वर्षों से साथ शैक्षिक सुधारों के लिए भी काम कर रहे हैं. गॉंवो में आदित्य ओम ने एक पुस्तकालय के अलावा डिजिटल सेवा केंद्र खोला है. गाँव के स्कूल और लोगों को लैपटॉप और सोलर लाइट दी है. वह अपने एनजीओ ‘एडुलाइटमेंट‘ (म्कनसपहीजउमदज) के तहत शैक्षिक सुधारों के लिए अथक प्रयास कर रहे हैं. कोरोना के समय में पॉंच सौ किसानों को आम व नारियल के बीज उपलब्ध कराए.

प्रस्तुत है आदित्य ओम से हुई एक्सक्लूसिब बातचीत के अंश. . .

फिल्म‘‘बंदूक’’से लेकर अब तक की आपकी निर्देशक के तौर पर जो यात्रा है, उसे लेकर क्या कहना चाहेंगें?

-इमानदारी से कहूं तो जब मैंने फिल्म ‘बंदूक’बनायी थी, उस वक्त सिनेमा उद्योग बदल रहा था. कारपोरेट युग अपने उफान पर था और सिंगल निर्माता खत्म हो रहे थे. कारपोरेट ही सारी चीजें अपने अधिकार में लेता जा रहा था. तो वहीं दर्शकों की सिनेमा को लेकर रूचि बदल रही थी. उस वक्त मुझे बतौर निर्देशक अहसास नही था कि हालात इतने बदल गए हैं. अब स्वतंत्र रूप से फिल्म बनाना और उसे प्रदर्शित करना आसान नही रहा. प्रचार में भी अब काफी धन खर्च होने लगा है, एक हजार से कम सिनेमाघरों में फिल्म के प्रदर्शित होने पर लोग फिल्म का प्रदर्शित होना भी नहीं मानते हैं. वगैरह वगैरह. . इस तरह की चीजो की समझ नही थी.  लेकिन फिल्म‘बंदूक’बनाने के बाद मैने यह सारे सबक सीखे कि हिंदी सिनेमा के परिप्रेक्ष्य में दो तरह का ही सिनेमा बचा है. एक वह जो शुद्ध व्यावसायिक सिनेमा है, जो कि पचास करोड़ से अधिक के बजट मंे बनता है. दूसरा ऐसा सिनेमा बचा है, जो कि अवार्ड या यूं कहें कि फिल्म फेस्टिवल वाला सिनेमा है, जिसे कम से कम बजट में बनाया जाना चाहिए. मेरे उपर कोई भी कारपोरेट पैसा लगाने को तैयार नही है, कोई बड़ा स्टार मेरे निर्देशन में काम करने को तैयार नहीं है या यूं कहें कि कोई मुझ पर यकीन करने को तैयार न था. ऐसे में मैंने छोटी फिल्मों का सहारा लिया. उस कड़ी में मैने ‘बंदूक’ के बाद सबसे पहले ‘मास्साब’बनायी. जिसका निर्माण ‘पुरूषोत्तम स्टूडियो’ने किया है. सबसे बड़ी बात यह है कि ‘पुरूषोत्तमस्टूडियो’ किसानों की कोआपरेटिब सोसायटी है. मैं गामीण पृष्ठभूमि पर फिल्म बनाने की सोच रहा था. मैने ‘पुरूषोत्तम स्टूडियों वालों को कहानी सुनायी, तो उन्हे कहानी अच्छी लगी और उन्होने कहा कि हम इसे बंुदेलखंड में फिल्माए,  तो हमने इस फिल्म को बुंदेलखंड में ही फिल्माया. यह बात है 2017 की. 2018 तक इसकी शूटिंग और प्रोडक्शन का काम पूरा हो सका. फिर यह फिल्म राष्ट्रीय पुरस्कार और अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में घूमती रही. दो वर्ष के अंदर तकरीबन 35 फिल्म समारोहों में इसे 48 राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं. जिस तरह से अब यह फिल्म 29 जनवरी 2021 को सिनेमाघरों में प्रदर्शित हो रही है. वहीं इस फिल्म को ओटीटी प्लेटफार्म से अच्छे आफर आ रहे हैं, उससे मुझे यही सीख मिली है कि आप कम बजट में अच्छा कंटेंट बनाएं. सीमित साधन में रहकर बनायी जाने वाली बेहतरीन फिल्मों के लिए जगह है. ऐसा नही है कि किसी कारपोरेट ने आपके कंधे पर हाथ नहीं रखा या किसी स्टार कलाकार ने आपके साथ काम करने को तैयार नहीं हुआ, तो आपके लिए सारे रास्ते बंद हो चुके हैं. पर ऐसे हालात में यात्रा थोड़ी लंबी और कष्टकारी जरुर जाती है. तो सबक लेते हुए मैने अपनी दूसरी फिल्म ‘मैला’भी बना ली है, यह फिल्म बुंदेलखड में अभी भी सतत जारी‘मैला प्रथा’पर हैं. यह फिल्म अभी ‘ईफ्फी’के बाजार सेक्शन में थी. तो मेरा सबक यही है कि हर फिल्मकार को बजट की चिंता किए बगैर सामाजिक सारोकार से जुडे़ विषयों पर सिनेमा बनाना चाहिए, सार्थक सिनेमा बनाना चाहिए, जो कि शायद समाज में कुछ कर जाए. ऐसे सिनेमा को जितने भी लोग देखंे, उनके जीवन में बदलाव आए. मेरी राय में सिनेमा हमेशा के लिए होता है, तो हम आज जो सिनेमा बना रहे हैं, उसे पांच वर्ष बाद भी यदि कोई देखे, तो वह कहे कि इस फिल्मकार ने अच्छा काम किया है.

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फिल्म‘मास्साब’का विषय क्या है. और इसकी प्रेरणा कहां से मिली?

-एक सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर मुझे छोटे शहरों और गांवों की कहानियां, उनकी समस्याएं हमेशा झिंझोड़ती रहती है. मगर ‘मास्साब’का विषय फिल्म के नायक शिवा सूर्यवंशी मेरे पास लेकर आए थे. उनके पास कहानी की एक पंक्ति थी कि एक शिक्षक दूर दराज के गांव में जाकर वहां की शिक्षा और फिर गॉंव की शक्ल ही बदल देता है. इस पर मैने नए सिरे कहानी व पटकथा लिखी. मैने उसे शिक्षक की बजाय एक आईएएस अफसर बनाया. एक आईएएस अफसर अशीश कुमार शिक्षा के प्रति इस कदर समर्पित है कि वह आईएस की नौकरी छोड़कर दूर दराज के गांव में शिक्षा बांटने के लिए पहुंच जाता है. हमारी फिल्म मे एक दृश्य है जब अशीश कुमार को बड़े बड़े स्कूल व कॉलेज से जुड़ने के लिए आफर आते हैं, तो वह कहता है-‘‘शिक्षा व्यक्ति का मौलिक अधिकार है, जिसे आप लोगो ने व्यवसाय बना रखा है. शिक्षा आपके लिए धन कमाने का जरिया है. लेकिन मेरे लिए शिक्षा ही धन है. ’गांव वालों को यह बात बहुत अच्छी लगती है. वह गॉंव वालों से कहता है-‘‘शिक्षा तो खुला खजाना है. लेकिन इसे बांटने वालों की कमी है. मैं यहां इस खजाने को बांटने के लिए आया हॅूं. बटोरने वालों को भेजने की जिम्मेदारी आपकी है. ’’

जैसा कि आप खुद जानते है कि मैं एक समाज सेवक भी हूं. आपको पता है कि मैने शिक्षा के क्षेत्र में काफी काम किया है. शिक्षा के क्षेत्र में काम करते समय मुझे जो जो खामियां लगती थी, उन सभी को मैने अपनी फिल्म‘मास्साब’में पिरोया है. जो मैं चाहता था कि शिक्षा को लेकर सरकार की नीति का हिस्सा होना चाहिए, वह सब मैंने अपनी फिल्म के नायक अशीश कुमार के माध्यम से कहने का प्रयास किया है. मैने अपनी फिल्म ‘मास्साब’में प्रायमरी स्कूल के अंदर जो प्रयोग कराएं, वह सारे प्रयोग मैं निजी स्तर पर अपने गोद लिए गए गांवों के स्कूलों में करवा चुका हॅूं, जिसके बेहतरीन परिणाम आए हैं. हमारी फिल्म का नायक गॉंव में हठधर्मिता, अंधविश्वास, अज्ञानता और भ्रष्टाचार में डूबी हुई ताकतों से लड़ता है.

जैसा कि मैने बताया कि मैंने अपनी इस फिल्म को 2017 में लिखा था और इसे हमने 2018 में फिल्मा लिया था. दो वर्ष से यह फिल्म, फिल्म फेस्टिवल में घूम रही थी. पर आपको जानकर आश्चर्य होगा कि सरकार अपनी नई शिक्षा नीति में मेरी फिल्म में उठाए गए कई मुद्दों को शामिल कर रही है.

आपने अपनी फिल्म‘‘मास्साब’’में शिक्षा नीति में किस तरह के बदलावों की बात की है?

-वर्तमान समय में जिस तरह की शिक्षा नीति है या सरकारी प्रायमरी स्कूलों मंे जिस तरह से पढ़ाई हो रही है, उसमें ‘सीखने की खुशी’गायब है. सीखने की अपनी खुशी होती है, जब बच्चे को वह खुशी मिलती है, तभी वह पढ़ना चाहता है. वर्तमान समय में जिस तरह की शिक्षा प्रणाली है, वह बच्चों से सीखने की खुशी छीन लेती है. बच्चे स्कूल जाने से डरते है और बच्चे स्कूल न जाने के बहाने बनाते हैं. मैने अपनी फिल्म में सबसे पहला यही मुद्दा उठाया है. इसके अलावाबच्चों को सवाल पूछने की आजादी होनी चाहिए. सवाल पूछने के लिए उनका हौसला बढ़ाया जाना चाहिए. उनके अंदर की हिचक दूर करनी चाहिए. इसके अलावा समाज के अंदर निहित जो जाति, धर्म, उंच नीच, छुआछूत पर भी बात की है, यह सारी बातें किस तरह स्कूल या गांव के स्तर पर प्रभावित करती है. कुछ उंची जाति के बच्चे अपने आपको सर्वश्रेष्ठ समझते हैं, तो छोटी जाति का बच्चा स्कूल इसलिए नहीं जाना चाहता कि नीची जाति का होने की वजह से शिक्षक उन्हे ही डांटते या पीटते है. शिक्षा को ‘फन’बनाने को लेकर भी हमने बात की है. बच्चों के ‘मिड डे मील’में भ्रष्टाचार से लेकर स्कूलांे मंे शिक्षकों के फर्जीवाड़े के मुद्दे को भी उठाया है. हमने शिक्षा के क्षेत्र में विज्युअल को महत्व देने की बात की है, जिससे बच्चों को सिखाने की जरुरत न पड़े, बच्चा खुद ब खुद देखकर सीख जाए. हमारी फिल्म कहती है कि शिक्षा में नीरसता की वजह से बच्चों का पढ़ाई में मन नहीं लगता. इसके अलावा आज भी कुछ गांवों व समाज में लड़कियों को पढ़ाने का रिवाज नही है, तो उस पर भी मंैने कटाक्ष किया है. प्रायमरी में ही बच्चों को कम्प्यूटर शिक्षा की उपयोगिता पर भी रोशनी डाली है. मैने फिल्म में व्यावहारिक रूप से दिखाया है कि जिस गांव के बेटे ठीक से हिंदी नही बोलते थे, वह फर्राटेदार अंग्रेजी कैसे बोलने लगे. सरकारी प्रायमरी स्कूल के बच्चे किस तरह हाई फाई पब्लिक स्कूल में जाकर वाद विवाद प्रतियोगिताएं जीतने लगे. बच्चों के आत्म विश्वास को कैसे बढ़ाया जाए, इस पर भी बात की है.

जब मैं अपनी इस फिल्म की शूटिंग बंुदेलखंड के एक गांव में कर रहा था, तब मैने स्वयं इस बात को अनुभव किया. मैने वास्तविक सरकारी प्रायमरी स्कूल में वास्तविक विद्यार्थियों के साथ इस फिल्म की शूटिंग कर रहा था. तीसरे दिन से वह बच्चे एक्शन व कट बोलने लगे थे. यदि हमसे गलती हो जाती थी, तो बच्चे बताते थे कि सर पिछली बार छड़ी इस जगह पर नहीं, वहां पर थी. आप मानकर चले कि भारत के बच्चों में असीमित प्रतिभा है, मगर इनकी नब्बे प्रतिशत प्रतिभाएं सरकारी प्रायमरी स्कूलों की व्यवस्था और जो हमारे देश की शिक्षा प्रणाली है, उसकी भेंट चढ़ जाती है. दसवीं की परीक्षा पास करते करते बच्चे की सारी प्रतिभा को मार दिया जाता है. सभी को यहां एक ही दौड़ में दौड़ा दिया जाता है. जरुरत यह होती है कि बच्चे के अंदर विद्यमान प्रतिभा को कितनी जल्दी तलाशा जाए और फिर उसे निखारा जाए. जिस बच्चे का दिमाग गणित में नही चलता, उस पर गणित जबरन क्यों थोपी जाए?

आप समाज सेवा के रूप में जो काम कर रहे हैं, उसका जुड़ाव इस फिल्म के साथ कैसे हुआ?

-जो जो मेरे अरमान हैं, मतलब समाज सेवक के रूप में मैं जो कुछ शिक्षा जगत में देखना चाहता था, उन सभी अरमानों को मैने अशीश कुमार के किरदार के माध्यम से पूरा किया है. फिल्म में अशीश कुमार की फिलोसफी मेरे अपने अनुभव हैं. फिल्म के अंत में अशीश कुमार गांव वालों से कहता है-‘‘दुनिया की चार पांच बातें सीखकर मुझे लगा कि मैं बहुत बड़ा शिक्षक बन गया, पर मैं जब इस गॉंव में आया, तो मैंने सीखा कि सबसे बड़ी शिक्षा प्रेम की है, और मैं यही शिक्षा भूल गया. मैं यहां शिक्षक बनकर आया था, पर यहां से जा रहा हूं एक विद्यार्थी बनकर. . ’’इस फिल्म के लेखन व निर्देशन में मेरे समाज सेवा के अनुभवों का अमूल्य योगदान रहा.

इस फिल्म को राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में प्रदर्शन के दौरान किस तरह की प्रतिक्रियाएं मिली?

-इस फिल्म को 48 पुरस्कार मिले हैं. लगभग 35 फिल्म फेस्टिवल में जा चुकी है. जो चार बहुत नामचीन अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह हैं, वहां मेरी फिल्म नहीं पहुंच पायी, क्योंकि इसी विषय पर उनके पास पहले से फिल्में थीं. ‘कॉन्स अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह’के निदेशक बेंजामिन एलोस ने हमारी फिल्म का एक पेज का रिव्यू समीक्षा लिखी और बताया कि इस विषय को वह लोग पहले ही डील कर चुके हैं, इसलिए इसे नही ले पा रहे हैं. जबकि अमरीका सहित कई देशों में यह फिल्म दिखायी जा चुकी है और हर जगह इसे सराहा गया. मेरा मानना है कि अच्छी फिल्में बनायी नहीं जाती, मगर फिल्म बन जाती हैं. यह फिल्म सामूहिक चेतना वाली है. वैसे कुछ लोगो ने कहा कि फिल्म लंबी हो गयी है. अमरीका में फिल्म के नायक शिवा सूर्यवंशी को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार भी मिला. पर मैं यह नहीं कहता कि इसमें खामियां नहीं है. इसकी प्रोडक्शन वैल्यू कमतर है, पर कंटेंट जबरदस्त है.

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दक्षिण भारत में किस तरह की गतिविधियां हो रही हैं?

-दक्षिण भारत में बतौर अभिनेता इस वर्ष मेरी पांच फिल्में प्रदर्शित होने जा रही हैं. इसमें से कुछ कोरोना की वजह से 2020 में प्रदर्शित नहीं हो पायी. पॉंच फरवरी को मेरी तेलगू भाषा की फिल्म प्रदर्शित हो रही है. इसके अलावा मैने बतौर अभिनेता दो हिंदी फिल्मों की शूटिंग पूरी की है. जसमें से एक है- ‘शूद्र-भाग दो’, जो कि 2012 में प्रदर्शित हिंदी फिल्म ‘शूद्र’ का सिक्वअल है. इसमें मैने रजनीश दुग्गल के साथ अभिनय किया है. दूसरी फिल्म रोहित वेमुला की आत्महत्या पर बनी है, जिसका नाम है-‘कोटा’. फिल्म ‘कोटा’शैक्षिक संस्थानों में जातिगत आरक्षण और भेदभाव के विषय पर निर्भीकता से बात करती है. इसमें मैंने एक दलित नेता का किरदार निभाया है, यह किरदार कुछ हद तक भीम पार्टी के चंद्रशेखर पर आधारित है. उनकी बौडी लैंगवेज वगैरह नजर आएगी. इसके अलावा मैने तेलुगू और हिंदी दो भाषाओं में बनी फिल्म ‘बंदी’की है. राघव टी निर्देशित इस फिल्म में मैं अकेला हीरो हॅूं. यह एक प्रयोगात्मक फिल्म है. मैं इस प्रयोगात्मक फिल्म का हिस्सा बनकर उत्साहित हूं,  जो तेलुगु,  तमिल और हिंदी में एक साथ बनी है.

फिल्म वन्यजीव संरक्षण और पर्यावरण संरक्षण के इर्द-गिर्द घूमती है. यह फिल्म मई या जून में प्रदर्शित की जाएगी.

हिंदी की व्यावसायिक फिल्मों में अभिनय करते नजर नहीं आते हैं?

-सच यही है कि हिंदी की व्यावसायिक फिल्मों में मुझे कोई बड़ा व अच्छा किरदार नहीं दे रहा है. मैं सिर्फ हीरो का दोस्त या पांच मिनट का नगेटिब किरदार नहीं निभाना चाहता. पर मैने अेन सपने को जिंदा रा है. जब तक हिंदी की व्यावसायिक फिल्में नहीं मिलती, तब तक मैं अपनी छोटे बजट की अच्छे कंटेंट वाली फिल्में निर्देशित करता रहूंगा. तेलगू फिल्में तो कर ही रहा हॅूं. हॉं. . कुछ अच्छी वेब सीरीज के आफर आए हैं, शायद इनमें से किसी में अभिनय करुंगा.

शिक्षा तंत्र पर फिल्म बनाने के बाद ‘मैला(टट्टी) उठाने वालों’पर फिल्म बनाने का ख्याल कैसे आया?

-सिर पर मैला(टट्टी) उठाने की परंपरा बहुत गलत है. भारत में 1993 में कानून बनाकर  ‘‘ सिर पर मैला(टट्टी) उठाने’’की प्रथा पर प्रतिबंध लगाया गया था. इसके विपरीत भारत के कई ग्रामीण और शहरी हिस्सों में यह एक आम बात है. मगर इस तरह के विषयों व कहानियों पर कोई भी फिल्मकार फिल्म नहीं बनाना चाहता. बड़े फिल्म निर्माता व निर्देशक  तो नंबर गेम में फंसे हुए हैं, जबकि यह चाहें तो बहुत कुछ कर सकते हैं. फिलहाल हम तो नंबर गेम नही खेल सकते, तो कम से कम सार्थक काम ही करें. मैं लबे समय से शहर व महानगरो में गटर साफ करने वालों पर फिल्म बनाना चाहता था. मैंने ‘सुलभ शौचालय’ के पाठक जी से इस संबंध में मुलाकात की. फिर मुझे ‘बुंदेलखंड अधिकार मंच’ के कुछ लोग मिले. उन्होने हमें बताया कि उनके क्षेत्र में आज भी ‘सिर पर मैला उठाने’की परंपरा चल रही है. उनकी सलाह थी कि इस फिल्म को शहरी परिवेश की बजाय ग्रामीण परिवेश में बनाया जाए. फिर उनके साथ मैं चंबल के इलाके, मैनुपरी व जालौन के इलाकों में गया. और मैला उठाने वालों की कालोनी में गया,  कईयों से मिला,  उनकी निजी व सामाजिक जिंदगी का अध्ययन किया. मैने उनके हालात,  उनकी गरीबी आदि देखी और मैंने पाया कि वह लगभग‘टट्टी’घर में रहते हैं. उनके बच्चों की हालत देखी. उनका एक भी बच्चा मुझे ऐसा नही मिला, जिसे चर्म रोग न हुआ हो. उनकी औरतें लड़ाका हो गयी हैं. मर्द हमेशा दारू पीकर रहते है. बहुत दयनीय हालत है. मुझे लगा कि इन लोगों के लिए कुछ न कुछ किया जाना चाहिए. मैने उनसे बात की और उनसे कहा कि मैं उन पर फिल्म बनाना चाहते हैं. उनकी मदद के बिना, तो मैं यह फिल्म नहीं बना सकता था. उन्होने मुझे हर चीज व जगह दिखायी, जो वह करते हैं. वह मुझे अपने घर के अंदर भी ले गए. उन्होने अपने उस टसले, जिसमें वह लोगों की टट्टी भरते है, वह टसला और वह लकड़ी भी दिखायी, जिसकी मदद से वह टसले में टट्टी भरकर सिर पर रखकर ढोते हैं. बारिश में किस तरह से वह ले जाते हैं. जब वह सिर पर टट्टी से भरा टसला ले जा रहे होते है, तो बारिश शुरू हो जाने पर अक्सर टट्टी उन पर ही बहती है. किस तरह लोग दो रोटियां दूर से फेंककर दे देते हैं. तो उनकी इस दयनीय स्थिति को देखकर खुद को यह फिल्म बनाने से रोक न पाया. मैं वहां पर 22 दिन रहकर फिल्म बनायी. मेरा दावा है कि कोई भी सामान्य इंसान इन जगहों पर एक घंटे भी नहीं रह सकता. वहा इतन बदबू आती है कि कोई खड़ा नहीं रह सकता.

क्या आपने अपनी फिल्म में इनके प्रति सरकारी रवैए को लेकर भी कुछ कहा है?

-जी नहीं. मैं इसे राजनीतिक हथकंडा नहीं बनने देना चाहता था. आजकल राजनीति बहुत गड़बड़ है. हम अगर फिल्म में कोई इन्नोसेंट कमेंट करते हैं, तो हर पार्टी उसे अपने हिसाब से भुनाना शुरू कर देती है. मेरी दोनों फिल्मों ‘मास्साब’और‘मैला’ के विषय राजनीतिक होते हुए मैने राजनीति से दूर रखने का पूरा प्रयास किया है. मैंने किसी पर भी दोषारोपण नहीं किया है. मैने दोनो फिल्मों में इस बात को रेखंाकित किया है कि हमारे समाज की अपनी कुछ अंदरूनी समस्याएं हैं, हमारे समाज के कुछअंदरूनी दायरे हैं,  समाज की कुछ अंदरूनी विसंगतियां हैं, जिसके चलते यह सारी चीजें आज भी विद्यमान हैं. समाज जिस तरह से जाति, धर्म, उंच नीच आदि में बंटा हुआ है, उसके चलते भी यह समस्याएं हैं. इसकी एक वजह यह है कि अधिकांश लोगों के पास उपलब्धि नही बची है, तो गर्व के नाम पर, उपलब्धि के नाम पर दोबारा अपनी जाति व धर्म को ही पकड़ रहे हैं. इतिहास पर गर्व करना अलग बात है. मगर आज के बच्चों का पृथ्वीराज चैहाण या राणाप्रताप की जय करते रहना ठीक नही है. उन्हें वर्तमान में जीना चाहिए. किसी की जयंती पर कहना जय के नारे लगाना ठीक है. मेरा मानना है कि अगर आजादी के 72 साल बाद भी हम लोग पहले ठाकुर या ब्राम्हण या श्रीवास्तव या हिंदू ही रहे, तो फिर हमारी आजादी ही बेमतब है. हम लोगो ने एक संविधान बनाया है, तो उसे लेकर चलना पडे़गा अन्यथा अंदरूनी समस्याएं बहुत है. आप मानेंगे नहीं मगर जब हम मुंबई में शूटिंग करते हैं, तो स्थानीय लोगो से हमें काफी समस्याएं होती हैं. हर वर्ग से होती थीं. छोटे लोगों को लगता था उनकी कहानी को सही संदर्भ में नहीं दिखा रहे हैं. कुछ लोग सोचते थे कि हमारी कहानी पर फिल्म बनाकर करोड़पति बन जाएंगे. बड़े लोग सोचते थे कि यह इन पर फिल्म क्यों बना रहा है?यह हमारी दबंगई पर फिल्म क्यों नहीं बना रहा.

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अपनी समाज सेवा के कार्यों पर कुछ रोशनी डाल दें. . ?

-सर. . . आपको सब कुछ पता है. आप यह भी जानते हैं कि मैं समाज सेवा के कार्यों को प्रचारित करने में यकीन नहीं रखता. मैने आंध्र्रा के चार और तेलंगाना में चेरूपल्ली गांव गोद लिए हुआ है, वहां पर कुछ काम करवाता रहता हूं. वहा पर इलेक्ट्रीसिटी मुहैया कराने से लेकर एम्बूलेंस वगैरह भी चलती हैं. चारों गॉवों के स्कूलों में शिक्षा को लेकर भी सारे प्रयोग करता रहता हूं. स्कूल में सोलार एनर्जी व कम्प्यूटर आदि उपलब्ध कराए हैं.

दक्षिण भारत के कई कलाकार सामाजिक कार्य करते रहते हैं. पर बौलीवुड कलाकार दूर रहते हैं?

-इसकी मूल वजह यह है कि दक्षिण भारत के सभी कलाकारों का समाज से सीधा जुड़ाव रहता है. यहां नकलीपन हावी है. वहां पर छोटी इंडस्ट्री है. वहां कलाकार क्या करते हैं, यह मायने रखता हैं. वहां हर कलाकार को अपनी भाषा, अपने गांव, अपने लोगों के लिए कुछ न कुछ करना ही होता है. यहां पर ऐसा नही है. बौलीवुड के कलाकार इतने बड़े बन गए हैं कि उन्हे किसी से मतलब नहीं है. उन्हे अपने शहर, अपने गांव के लोगों से भी कोई मतलब नही है.

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