International Iconic Awards 2020 में छाया TV एक्ट्रेसेस का जलवा, Photos Viral

टीवी एक्ट्रेसेस आए दिन अपने लुक को लेकर सोशलमीडिया पर छाई रहती हैं. लेकिन हाल ही में हुए इंटरनेशनल आइकॉनिक अवॉर्ड्स 2020 में टीवी एक्ट्रेसेस के हौट अवतार ने बौलीवुड एक्ट्रेसेस को पीछे छोड़ दिया है. वहीं ‘कुछ रंग प्यार के ऐसे भी’ और ‘कसौटी जिंदगी के 2’ फेम एरिका फर्नांडिस से लेकर ये रिश्ता क्या कहलाता है की शिवांगी जोशी ने अपने लुक से फैंस को दिल जीत लिया है. आइए आपको दिखाते हैं टीवी एक्ट्रेसेस को पार्टी लुक, जिसे आप भी ट्राय कर सकती हैं.

एरिका लुक था कमाल

टीवी एक्ट्रेस एरिका फर्नांडिस आए दिन अपने इंस्टाग्राम अकाउंट पर फोटोज शेयर करती रहती हैं, जिसमें वह अपने लुक से फैंस की तारीफें बटोरती नजर आती हैं. वहीं ऐसा ही कुछ अवौर्ड शो में देखने को मिला. इंटरनेशनल आइकॉनिक अवॉर्ड्स 2020 में एरिका फर्नांडिस ब्लैक कलर की सैक्सी ड्रैस में नजर आईं, जिसमें वह बेहद खूबसूरत और हौट लग रहीं थीं.

 

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गाउन में जीता फैंस का दिल

इंटरनेशनल आइकॉनिक अवॉर्ड्स 2020 में हिस्सा लेने के लिए शिवांगी जोशी एक डिजाइनर गाउन पहने नजर आईं, जिसका शिमरी लुक उनकी खूबसूरती पर चार चांद लगा रहा था. वहीं इस लुक के साथ  लाइट ज्वैलरी कैरी की थी, जो उनके लुक को स्टाइलिश के साथ- साथ कंफरटेबल बना रही थी.

 

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3. प्रीता भी नही रहीं पीछे

 

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सीरियल कुंडली भाग्य की प्रीता यानी श्रद्धा आर्या भी अवौर्ड शो में शिमरी शौर्ट ड्रेस पहने नजर आईं, जिसमें उनका लुक बेहद खूबसूरत लग रहा था. वहीं इस लुक के साथ ज्वैलरी न पहनकर श्रद्धा ने इस लुक पर चार चांद लगा दिए.

अशनूर कौर का लुक था खास

 

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गाउन को न्यू लुक में पहनने का अगर आपका भी मन है तो अशनूर कौर का ये लुक आप किसी भी पार्टी में ट्राय कर सकती हैं. सिंपल लेकिन शाइनी ड्रैस आपके लुक को स्टाइलिश और कंफरटेबल बनाने में मदद करेगी.

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साड़ी में छाया गुड्डन का जलवा

ड्रैसेस की बजाय इस बार गुड्डन तुमसे ना हो पाएगा एक्ट्रेस कनिका मन ने अपने फैंस का दिल साड़ी से जीत लिया. बेबी पिंक कलर की प्लेन साड़ी के साथ शिमरी ब्लाउज ने कनिका के लुक पर चार चांद लगा दिया. वहीं फैंस उनके लुक की तारीफें करते नही थक रहे हैं.

सर्दियों में वुडेन फ्लोर की इन 6 तरीकों से करें देखभाल

आजकल वुडेन फ्लोरिंग का ट्रेंड जोरों पर हैं. सर्दियों में वुडन फ्लोर की देखभाल और ज्यादा जरूरी हो जाती है. सर्दियों में हार्डवुड फ्लोर को नुकसान पहुंचने की ज्यादा आशंका रहती है. नोर्मली भी फ्लोरिंग को टिकाऊ बनाने के लिए सही देखभाल बहुत जरूरी है.

ऐसे करें सर्दियों में वुडेन फ्लोर की देखभाल

1. लगायें थर्मोस्टेट

कम नमी का स्तर होने पर वुड फ्लोर में सिकुड़न हो सकती है, जिससे दरारे या फर्श के बीच में खाली जगह बन जाती है. इसलिए घर में थर्मोस्टेट लगायें, इससे तापमान कंट्रोल में रहता है. थर्मोस्टेट के तापमान को बढ़ाना या घटाना नहीं चाहिए.

2. जूतों की जगह शू रैक में ही है

फर्श की चमक को बरकरार रखने के लिए खुद के जूते शू रैक में रखें. अपने रिश्तेदारों और दोस्तों से भी रिक्वेस्ट करें कि वे जूतों को दरवाजे पर खोल कर घर के अंदर आयें.

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3. फर्श पर कालीन बिछायें

घर के जिन हिस्सों में ज्यादा आवाजाही रहती है, वहां फर्श पर कालीन, दरी या फ्लोर मैट बिछा दें. इससे गंदे जूतों, गंदे पैरों के साथ गंदगी फैलने की आशंका कम हो जाती है.

4. मुलायम तौलिए से साफ करें फर्श

फर्श पर पानी, धूल, कीचड़ लग जाने या नमक आदि गिर जाने पर इसे मुलायम तौलिया से साफ करें.

5. रोजाना वैक्यूम करें

धूल, मिट्टी से बचाने के लिए रोजाना वैक्यूम क्लीनर या झाड़ू से साफ करें. रोजाना फर्श की सफाई नहीं करने से फर्श पर निशान पड़ सकते हैं औऱ फर्श अपनी चमक खो सकती है.

6. वैक्स पॉलिश का करें इस्तेमाल

फर्श को साफ करने के लिए फ्लोर क्लीनर और चमक बनाए रखने के लिए अच्छी कंपनी का वैक्स पॉलिश का भी इस्तेमाल किया जा सकता है.

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मैं 2 सालों से गर्भवती होने की कोशिश कर रही हूं?

सवाल

मेरी उम्र 34 साल है. मैं 2 सालों से गर्भवती होने की कोशिश कर रही हूं, लेकिन अब उम्मीद हार रही हूं. मेरी सहेली ने मुझे आईवीएफ तकनीक के बारे में बताया. मैं जानना चाहती हूं कि आईवीएफ तकनीक में कोई रिस्क तो नहीं? यह तकनीक मेरे स्वास्थ्य को नुकसान तो नहीं पहुंचाएगी?

जवाब-

जी हां, आईवीएफ तकनीक भले ही मां बनने में एक वरदान की तरह है, लेकिन इस के कुछ साइड इफैक्ट भी हो सकते हैं. लेकिन ऐसा जरूरी नहीं है कि आईवीएफ कराने वाले हर मरीज को इन साइड इफैक्ट्स से गुजरना पड़े. आईवीएफ ट्रीटमैंट में प्रीमैच्योर बेबी जन्म ले सकता है, इसलिए आप को पूरी प्रैगनैंसी के दौरान खास खयाल रखने को कहा जाता है. बारबार जांच की जाती है ताकि आप की और आप के बच्चे के स्वास्थ्य की हर खबर रखी जा सके. इस के अलावा इस में व्यवहार में बदलाव, थकान, नींद आना, सिरदर्द, पेट के निचले हिस्से में दर्द, चक्कर आना आदि समस्याएं भी शामिल हैं. यदि आप को इन में से कोई भी समस्या हो तो तुरंत डाक्टर से परामर्श लें. खुद का खास खयाल रखने से आप इन समस्याओं से बच सकती हैं.

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सदियों से यह चलन है कि महिला के गर्भवती होते ही घर की अन्य औरतें उस के खानेपीने का खास खयाल रखने लगती हैं. पुराने वक्त में चना, गुड़, दूध, मावा, फल, पंजीरी का सेवन करना गर्भवती के लिए जरूरी था ताकि उस के शरीर में खून की कमी न होने पाए, मगर आजकल जब संयुक्त परिवार टूट चुके हैं और शहरों और महानगरों में महिलाएं एकल परिवार में हैं और ऊपर से नौकरीपेशा हैं तो किचन में अपने लिए इतना  झं झट करने का न तो उन के पास वक्त होता है और न जानकारी.

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अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz
 
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कालेज के मायने बदल देगी औनलाइन शिक्षा

नोवल कोरोना वायरस के चलते पारंपरिक शिक्षा पद्धति में बदलाव किए जा रहे हैं. न केवल लौकडाउन के दौरान क्लासेस औनलाइन हुई हैं बल्कि अब यूनिवर्सिटीज भी तकरीबन 6 महीने तक सभी कोर्सेस औनलाइन करने के बारे में सोच रही हैं. आईआईएम तिरूचिरापल्ली के डायरैक्टर भीमराया मैत्री का कहना है कि उन का इंस्ट्टियूट अपने काम करने वाले एग्जिक्यूटिव्स के लिए एग्जिक्यूटिव एमबीए प्रोग्राम औनलाइन मोड में औफर करेगा और इसी तरह का प्लान रैगुलर एमबीए कोर्सेस के लिए भी बनाया जा रहा है. ‘‘हम औनलाइन परीक्षाएं भी करा रहे हैं, विद्यार्थी अपने घर बैठे टैस्ट दे सकते हैं. हम विद्यार्थियों के लिए ईबुक्स भी तैयार करा रहे हैं,’’ मैत्री ने बताया.

वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण पहले ही घोषणा कर चुकी हैं कि देश की 100 से ज्यादा यूनिवर्सिटीज अपने ऐनुअल एग्जाम और रैगुलर क्लासेस औनलाइन मोड में करेंगी. बता दें कि दिल्ली यूनिवर्सिटी के औनलाइन एग्जाम में मुख्य सर्वर ही काम नहीं कर रहा था, जिस के बाद विद्यार्थियों ने सोशल मीडिया पर अपना रोष जताया था. कुछ इसी तरह की दिक्कत विद्यार्थियों को औनलाइन मौक टैस्ट देने में भी आई थी. अगर यही औनलाइन एग्जाम का अर्थ है तो यकीनन यह नई परेशानियां खड़ी करने जैसा है, उन्हें सुलझाने वाला नहीं.

यदि दिल्ली यूनिवर्सिटी की बात करें तो एक क्लास में 70 से 110 के बीच बच्चे होते हैं जिन्हें यदि सब्जैक्ट के अनुसार सैक्शंस में बांटा जाए तो तकरीबन एक क्लास में 60 बच्चे होते हैं. इन 60 बच्चों का आमतौर पर क्लास में एकसाथ पढ़ना मुश्किल होता है. ऐसे में ये औनलाइन कैसे पढ़ेंगे? इस में दोराय नहीं कि कालेज में हर युवा पढ़ने नहीं जाता, बल्कि इस उम्मीद से जाता है कि वहां वह अपनी पढ़ाई के साथसाथ अपनी रुचि की चीजें सीखेगा और आगे बढ़ेगा. क्या औनलाइन शिक्षा उन की यह ख्वाहिश पूरी कर पाएगी?

सैंटर फौर मौनिटरिंग इंडियन इकोनौमी (सीएमआईई) के अनुसार, देश के ग्रैजुएट युवाओं  की बेरोजगारी दर 2017 के 12.1 के मुकाबले 2018 में 13.2 फीसदी हो चुकी थी. इन में सब से ज्यादा बेरोजगारी दर ग्रैजुएट युवाओं की है क्योंकि अनपढ़ या 5वीं और 10वीं कक्षा पास युवा बेलदारी, रिकशा चालक, डिलिवरी बौय या फैक्ट्रियों में नौकरी कर रहे हैं. ग्रैजुएट युवा अपनी महत्त्वाकांक्षा के अनुसार नौकरी करना चाहते हैं, इसलिए उस से कम की नौकरी नहीं कर रहे. जो ग्रैजुएट युवा नौकरीपरस्त हैं, उन में से ज्यादातर अपनी पसंद की नौकरी नहीं कर रहे हैं. इस का स्पष्ट अर्थ है कि भारत अपने ग्रैजुएट युवाओं के लिए उन की साक्षरता के अनुसार नौकरियां उत्पन्न नहीं कर पा रहा है. ऐसे में यह औनलाइन शिक्षा आंकड़ों को सुधार पाएगी या बेरोजगारी दर और बढ़ा देगी, चिंता का विषय है.

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विकास और वृद्धि में अवरोध

सीखना या लर्निंग संसाधन और वातावरण पर निर्भर करता है. हमें बचपन से पढ़ाया गया है कि बच्चे के विकास और वृद्धि को मुख्यतया 4 तत्त्व प्रभावित करते हैं, जो ये हैं – वंशानुक्रम, वातावरण, पोषण और विभिन्नता. इन में वातावरण का मुख्य स्थान है. इसे इस तरह से समझा जा सकता है कि हर युवा के घर में पढ़ाई का माहौल नहीं होता. पढ़ाई के लिए हर किसी के घर में उपयुक्त स्थान भी नहीं होता. औनलाइन पढ़ाई करते समय शायद उसे शोर से दूर पढ़ने को मिल जाए लेकिन उस के बाद क्या? न उस के पास लाइब्रेरी होगी जहां से वह जब चाहे जो किताब उठा कर पढ़ ले, न साथ में बैठ कर कोई पढ़ने और समझाने वाला होगा, न किसी तरह का डिस्कशन हो पाएगा और न ही टीचर्स से हर सवाल का जवाब मांगा जा सकेगा.

जैसा कि ऊपर कहा गया कि हर युवा कालेज पढ़ने के मकसद से नहीं जाता. किसी की रुचि डांस में होती है, किसी की गाने में, किसी की थिएटर में तो किसी की लिखने में. हर कालेज में 9-10 एक्स्ट्रा करीकुलर एक्टिविटीज की सोसाइटीज होती हैं और हर क्लास का अपना डिपार्टमैंट होता है. इन सोसाइटीज में युवा अपने शौक और काबिलीयत से जाते हैं. इन में वे अपना असली हुनर दिखा पाते हैं, परफौर्म करते हैं. कई युवाओं के लिए उन की कालेज की जिंदगी ही ये सोसाइटीज होती हैं. वे अपनी हौबी को अपना कैरियर बनाते हैं. इन सोसाइटीज के औडिशन नए सैमेस्टर शुरू होने के पहले 2 महीनों में हुआ करते थे, जो औनलाइन पढ़ाई में नहीं होंगे. और अगर होंगे भी, तो उन का कोई मतलब नहीं होगा खासकर डांस या थिएटर सोसाइटी का.

कई मध्य और निम्नवर्गीय परिवारों से आए बच्चे कालेज में खुद को पूरी तरह से बदल लेते हैं. नए खुले परिवेश में वे अपने लिए नई राह बना लेते हैं. पढ़ने में अच्छे होने के चलते या अपने हुनर के चलते उन की पारिवारिक हैसियत उन के रास्ते का कांटा नहीं बनती. वे अपनी एक अलग पहचान बनाते हैं, जिस के बल पर उन्हें नौकरी हाथ लगती है. इस बात से तो हम सभी भलीभांति परिचित हैं कि नौकरी व्यक्ति की डिग्री के साथसाथ उस के आत्मविश्वास और सामर्थ्य से मिलती है जो कालेज का माहौल उसे देता है. यही डिस्टैंस लर्निंग और रैगुलर लर्निंग के विद्यार्थियों को एकदूसरे से अलग बनाता था. लेकिन, क्या यह औनलाइन शिक्षा से मुमकिन है, लगता तो नहीं है.

दोस्ती किताबों का शब्द बन कर रह जाएगी

अगर मैं अपनी पक्की दोस्त की बात करूं तो वह वही है जो मुझे कालेज के दूसरे दिन मिली थी. लगभग सभी दोस्त मुझे अपने कालेज के पहले एक महीने में ही मिले थे. एकसाथ क्लास बंक करना, कैंटीन में गप मारना, मूवी देखने जाना, क्लास में जो समझ नहीं आया उसे साथ बैठ कर डिस्कस करना, बैस्टफ्रैंड के साथ लाइब्रेरी में बैठ कर बातें करना, फैस्ट में नाचना, ग्राउंड में सर्दी की धूप खाना और बौल लग जाए तो गुस्सा दिखाना. कितना सब होता है कालेज में, जो दोस्ती गहरी बनाता है.

कालेज के पहले 2 महीने दोस्ती करने में ही निकल जाते हैं, कभी क्लास में आए नए स्टूडैंट से तो दूसरे कोर्स के स्टूडैंट्स से. एक खासीयत कालेज की यह भी है कि वहां आप अपने सीनियर्स को भी दोस्त बनाते हैं. सीनियर्स की खासीयत ही यह होती है कि वे अपने अनुभव तो बताते ही हैं साथ ही गाइडैंस देते हैं जो बहुत काम की होती है, बहुतकुछ सिखाती है.

अब औनलाइन क्लासेस में आप के पास किसी से दोस्ती करने का मौका नहीं होगा. ग्रुप बन भी गया तो आप हर किसी को मैसेज नहीं कर सकते. किसी से बातें करने में रुचि भी तब आती है जब आप जानते हों कि वह व्यक्ति असल में कैसा है. वैसे भी, किसी की सीरत उस की सूरत पर लिखी नहीं होती. हर कोई औनलाइन बात करने में रुचि नहीं रखता. कुछ स्टूडैंट्स तो कालेज में भी इतने शांत होते हैं कि उन की सोशल लाइफ उन के एक्स्ट्रोवर्ट दोस्तों पर निर्भर करती है.

फर्स्ट ईयर के स्टूडैंट्स के लिए कालेज में यह सब नहीं होगा. वे अपने कंप्यूटर या लैपटौप पर पढ़ाई करेंगे और क्लास खत्म होने के बाद अपने दूसरे कामों में लग जाएंगे. एकदो क्लासमेट्स से बात कर भी ली, तो वह दोस्ती साथ निभाने वाली नहीं, बल्कि काम चलाने वाली होगी.

अब नहीं मिलेंगे अनुभव

किसी किस्से को सुनने और उस घटनाक्रम को जीने में बहुत फर्क होता है. आप कह सकते हैं कि कालेज में यह होता है वह होता है, लेकिन जब तक आप खुद कालेज नहीं जाते तब तक आप को असल में पता ही नहीं होता कि कालेज असल में क्या है.

कालेज में पढ़ाई के साथसाथ कई कंपीटिशन होते हैं जिन में प्रोफैसर केवल परमिशन देते हैं और बाकी सारे काम स्टूडैंट्स खुद करते हैं. किसी कंपीटिशन को और्गेनाइज करने के लिए सूची तैयार करना, स्पौंसर्स ढूंढ़ना, क्लासरूम की परमिशन के लिए कालेज के लौजिस्टिक डिपार्टमैंट से बात करना, पोस्टर्स बनाना, प्रोमोशंस करना, अलगअलग स्टूडैंट को काम बांटना, आपस में मीटिंग्स करना, कंपीटिशन वाले दिन सभी क्लासेस में बच्चों को भाग लेने के लिए कहना, जज बनने के लिए प्रोफैसर्स के चक्कर काटना, प्राइज मनी देने के लिए अकाउंट डिपार्टमैंट से फौर्म्स ले कर आना, अलगअलग कालेज के बच्चों से मिलना और अपने कालेज को उन के सामने रिप्रेजैंट करना आदि सभी काम स्टूडैंट्स खुद करते हैं. ऐसा वे साल में एक बार नहीं, कम से कम 4 बार करते हैं.

इस पूरी भागदौड़ से मिले अनुभव उन्हें जीवनभर की सीख दे जाते हैं. बीए के बच्चे मार्केटिंग सीख जाते हैं, साइंस के बच्चे कविताएं लिखने लगते हैं, कौमर्स वाले हौस्पिटैलिटी में हाथ आजमाते हैं. यह सभी घर बैठे क्या हो सकता है? कालेज में फर्स्ट ईयर में जो युवा शांत स्वभाव का होता है वह एक्स्ट्रोवर्ट बन कर निकलता है और एक्स्ट्रोवर्ट इंट्रोवर्ट हो जाता है. फेयरवैल के दिन वह विद्यार्थी स्टेज पर खड़ा मिलता है जिसे कालेज के पहले महीने में क्लास में खड़े होने में भी झिझक महसूस होती थी. प्यार में गिरतेपड़ते युवा संभलना सीख जाते हैं, जो गिरेंगे ही नहीं, वे भला उठना कैसे सीखेंगे? कोई दुख में लिखना सीख जाता है तो कोई गा कर दर्द बयां करता है. रिलेशनशिप के पहले 3 महीने की खुशी भी सब को दिखती है और आखिर के 3 महीनों का दुख भी. लेकिन, इस पूरे प्रोसैस में कितनी ही बातें हैं जो व्यक्ति समझने लगता है, परिपक्व होने लगता है. औनलाइन रिलेशनशिप्स का क्या हाल है, यह तो किसी से छिपा नहीं है.

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विचार उन्मुक्त नहीं होंगे

स्कूल से निकले किशोर और कालेज से निकले युवा के विचारों में उतना ही अंतर है जितना हमारे देश के अमीर और गरीब में है, एक की बात सरकार भी सुनती है और दूसरे की उस के अपने पड़ोसी तक नहीं. स्कूल में बच्चों को नैतिक शिक्षा दी जाती है, किताबें प्रशासन की बढ़ाई और इतिहास मैसोपोटामिया के महत्त्व से भरा होता है. वह किशोर न तो सरकार से सवाल करना जानता है न देश में व्याप्त धर्मकर्म की त्रुटियों को पहचानने की क्षमता रखता है (कम से कम सीबीएसई बोर्ड का स्टूडैंट तो नहीं). जबकि इस से बिलकुल उलट कालेज का युवा अपने विचारों को उड़ान देना जानता है, वह लाल सलाम को भी समझता है और मनुस्मृति को नकारना भी जानता है.

देश की सरकार कैंटीन में समोसे की चटनी के लिए लड़ने वाले इन युवाओं से थरथर कांपती है. जितनी बेबाक इन युवाओं की आवाज है, क्या उतनी बेबाकी उन युवाओं में आ पाएगी जो कालेज का मुंह न देख कर कंप्यूटर की स्क्रीन देखा करेंगे?

धर्म, जाति, राजनीति, सैक्स, लड़कियों की आजादी आदि मामलों में हमारे देश के लोगों की सोच संकीर्ण है. जो कुछ युवा इन विषयों के बारे में सोचनेसमझने की शक्ति रखते हैं उन की गिनती पहले ही बहुत कम है जो औनलाइन शिक्षा के चलते आने वाले समय में शायद और कम हो जाएगी.

घर में बैठे ये युवा न सवालजवाब करेंगे, न प्रोफैसर बारबार कट रही आवाज या नैटवर्क की कमी में अपनी समझाने की शक्ति व्यर्थ करेंगे, न युवाओं को सही माहौल मिलेगा, न वे नए लोगों से मिल खुद को नए वातावरण में ढालने की कोशिश करेंगे, न उन्हें सही गाइडैंस मिलेगी और न ही वे अपने मन की कर सकेंगे. सो, औनलाइन शिक्षा के नतीजे में घर की चारदीवारी में युवाओं के दिमाग की चारदीवारी के किवाड़ भी नहीं खुलेंगे.

जानें क्या है बाल झड़ने के कुछ मुख्य कारण और इससे निजात पाने का तरीका

बाल झड़ना एक आम समस्या है जिस से हर कोई परेशान है. इस के पीछे के बहुत से कारण होते हैं जिनमें से कई आप के स्वास्थ्य से सम्बन्धित भी होते हैं. आप के बाल झड़ना एक गंभीर स्थिति का लक्षण भी हो सकते हैं. इसलिए इन्हें कभी भी अनदेखा न करें. आज हम बात करने जा रहे हैं बाल झड़ने के कुछ मुख्य कारणों के विषय में और साथ ही इस बारे में भी कि इस समस्या से निजात कैसे पा सकते हैं.

आप बहुत ज्यादा स्ट्रेस लेते हैं या बीमार रहते हैं

आप का बहुत अधिक स्ट्रेस लेना भी आप के बाल झड़ने का एक कारण होता है. हमारा शरीर मानसिक स्ट्रेस को भी उसी प्रकार ट्रीट करता है जिस प्रकार वह शारीरिक स्ट्रेस को करता है. अतः यह स्ट्रेस आप के नए बालों के विकास को भी रोक सकती है और आप के पहले से ही उगे हुए बालों को भी डेमेज कर सकती है. आप के बाल बहुत अधिक स्ट्रेस लेने से लगभग 3 महीनों तक झड़ते हैं. अतः अपने बालों को झड़ने से बचाने का सबसे आसान तरीका यही है कि आप स्ट्रेस न लें.

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आप गर्भवती हैं

यदि आप गर्भवती हैं तो आप के शरीर पर शारीरिक स्ट्रेस बहुत अधिक हो जाता है और इसलिए आप के बाल झड़ना शुरू हो जाते हैं. आप के बाल बच्चा पैदा होने के बाद अधिक झड़ते हैं. यदि आप भी इस समस्या का सामना कर रही हैं तो चिंता न करें. क्योंकि आने वाले कुछ महीनों के बाद आप के बाल फिर से सामान्य रूप से बढ़ने लगेंगे और झड़ना भी बंद हो जाएंगे.

आप बहुत ज्यादा विटामिन खा रहे हैं

यदि आप विटामिन ए के सप्लीमेंट्स या दवाइयां खा रहे हैं तो आप के बाल झड़ने की सम्भावना अधिक होती है. यदि आप पर्याप्त मात्रा से अधिक विटामिन ए ग्रहण करते हैं तो आप के बाल निश्चित रूप से ही झड़ने लगते हैं. परन्तु अच्छी बात यह है कि जब वह विटामिन ए, जोकि एक्स्ट्रा मात्रा में आप के शरीर में है, वह आप के शरीर से निकल जाता है तो आप के बाल दोबारा से बढ़ने लगते हैं और झड़ना बंद कर देते हैं.

आप पर्याप्त मात्रा में प्रोटीन नहीं ले रहे हैं

यदि आप अपने शरीर को प्रोटीन से वंचित रखते हैं तो भी आप के बाल झड़ने लगते हैं. जो लोग स्पेशल तरह की डायट जैसे केटो डायट आदि पालन करते हैं उन्हें यह समस्या सबसे अधिक देखने को मिलती है क्योंकि उनकी डायट में प्रोटीन इंटेक बहुत सीमित होता है. अतः यदि आप को भी लगता है कि आप कम मात्रा में प्रोटीन ले रहे हैं तो आप को अपना प्रोटीन इंटेक बढ़ा देना चाहिए.

आप की मम्मी के साथ भी यही समस्या थी

कई बार बाल झड़ने की समस्या पीढ़ी दर पीढ़ी भी देखने को मिलती है. यदि आप एक ऐसे परिवार से हैं जिन्हें एक उम्र के बाद बाल झड़ने की समस्या शुरू हो जाती है तो हो सकता है आप के बाल भी इसी वजह से झड रहे हों. इस समस्या के निवारण हेतु आप अपने डॉक्टर से बात कर सकते हैं या आप मेनॉक्सिडिल का प्रयोग भी कर सकते हैं. यह बाजार में बहुत आसानी से उपलब्ध है.

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आप के हार्मोन्स बदल रहे हैं

जिस प्रकार प्रेग्नेंसी में हार्मोन्स के बदलने के कारण आप के बाल झड़ते हैं उसी प्रकार यदि किसी कारण वश जैसे बर्थ कंट्रोल पिल्स आदि लेने के कारण भी आप के हार्मोन्स बदल जाते हैं, इस कारण भी आप के बाल झड़ने लगते हैं. यह अक्सर तब भी ज्यादा होता है जब आप का मासिक धर्म बंद हो जाता है अर्थात् आप के मेनोपॉज के दौरान भी आप को बाल झड़ने की समस्या देखने की मिलती है.

लौंग डिस्टैंस रिलेशनशिप को कहें हां या न

साल 2010 में अपर्णा सेन की एक इंडियन-जापानी रोमांटिक ड्रामा बेस्ड बंगालीहिंदी फिल्म आई थी जिस का नाम था ‘जैपनीज वाइफ.’ इस का मुख्य प्लौट लौंग डिस्टैंस लव पर था. इस में मुख्य पात्र स्नेह्मोय चटर्जी (राहुल बोस) को प्यार हो जाता है दूर स्थित जापानी मूल की लड़की मियागु (चिगुसा टकाकु) से. दोनों में लैटर्स से बातचीत होती है और इन्हीं लैटर्स के आदानप्रदान में वे एकदूसरे के साथ शादी के बंधन में बंधने का वचन भी ले लेते हैं. लंबी दूरी होने के कारण 17 साल बाद भी वे एकदूसरे से मिल नहीं पाते, लेकिन उन के बीच रिश्ता फिर भी मजबूत ही रहता है. फिल्म के अंत में स्नेह्मोय चटर्जी की मौत के बाद उस की जापानी मूल की पत्नी भारत लौट आती है और चटर्जी की विधवा बन कर जीने लगती है.

फिल्म चाहे कई लूपहोल्स के साथ रही हो लेकिन इस फिल्म की कहानी की खासीयत लौंग डिस्टैंस लव था जो काफी अच्छे से दिखाया गया. खैर, अब बात फिल्म के एक दशक बाद की है. 2010 की तुलना में आज काफी चीजें बदल गई हैं. आज एकदूसरे से चिट्ठियों के माध्यम से कम्युनिकेट करने का तरीका लगभग खत्म हो गया है.

आज जमाना डिजिटल युग का है जिस में दुनिया एक फोन के भीतर समा चुकी है. गांव में बैठा युवक मीलों दूर शहर या दूसरे देश में किसी से आसानी से कम्युनिकेट कर सकता है. फिर ऐसे में आशंका तो कई गुना बढ़ जाती है कि लंबी दूरी के रिश्ते अपने पंख डिजिटल के माध्यम से फैला रहे होंगे.

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आनंद पर्वत इलाके में रहने वाला सनी एक आम परिवार का लड़का है जिस के पिताजी कारपैंटर का काम करते हैं. सनी की कहानी भी कुछ ‘जैपनीज वाइफ’ फिल्म से मिलतीजुलती है. लेकिन यह आज की बात है तो मामला चिट्ठीपत्री से हट कर डिजिटल हो गया. अपना कैरियर बनाने के लिए इंग्लिश सीखने की चाहत में सनी ने पास के एक एनजीओ में फ्री कोर्स सीखने का मन बनाया. कोर्स इंस्ट्रक्टर ने उसे सुझव दिया कि अगर इंग्लिश सीखनी है तो विदेशी मूल के लोगों से कम्युनिकेट करना शुरू करो. बस, फिर क्या, सनी ने औनलाइन साइट विजिट की जहां उस की मुलाकात इंडोनेशिया की एक लड़की से हुई. दोनों एकदूसरे से लगातार बात करते रहे और धीरेधीरे एकदूसरे को पसंद भी करने लगे. लेकिन, उस के सामने यह सवाल खड़ा हो गया है कि उस का यह लौंग डिस्टैंस रिलेशनशिप कितना सफल होगा. मुश्किल यह है कि इस रिश्ते में कितनी ‘हां’ और कितनी ‘न’ की गुंजाइश है.

जाहिर है आज डिजिटल टैक्नोलौजी के बढ़ते दायरे और पूरी दुनिया के फोन में सिकुड़ जाने से हमारे सामने लोगों से मेलजोल बढ़ाने व सीखने का अवसर बढ़ गया है. इन अवसरों के साथसाथ आज मौका अपने लिए प्यार चुनने का भी मिल गया है. फिर चाहे बात करने वाला या वाली कितनी ही दूर क्यों न हो. जहां पहले लौंग डिस्टैंस रिलेशनशिप के मौके किसी खास सिचुएशन में ही आ पाते थे, जैसे पढ़ाई या नौकरी के लिए सैकड़ों मील दूर जाना हो. आज ऐसी सिचुएशन घर बैठे सोशल मीडिया प्रोवाइड करवा देता है जिस में इंटरनैट ने चीजों को बहुत आसान कर दिया है. लेकिन लौंग डिस्टैंस रिलेशनशिप यानी एलडीआर सुनने में जितनी रूहानी लगती है उतना ही वह अपने साथ कुछ समस्याएं ले कर भी चलती है.

-सब से बड़ी समस्या फाइनैंशियल उभर कर आती है. इस समस्या को अगर आंका जाए तो भारत में आधे से ज्यादा एलडीआर वाले कपल एकदूसरे से मिलने की उम्मीद लगा ही नहीं पाते. यह सही है यंग एज में किसी से औनलाइन बात करना और बात का आगे बढ़ जाना सामान्य हो सकता है लेकिन उस रिश्ते को मुकाम तक पहुंचाने में सब से बड़ी अड़चन पैसों की आती है. यही बड़ा कारण इस समय सनी जैसे एलडीआर में है जिस में उन का एकदूसरे से मिलना फिलहाल असंभव दिखाई दे रहा है.

इस कारण वह चाह कर भी कोई कमिटमैंट करने की कंडीशन में नहीं है.

–  रिऐलिटी परियों की कहानियों से अलग है. हर किसी की अपनी जरूरतें होती हैं. खासकर तब जब आप रिलेशनशिप में होते हैं, तब आप की अपने पार्टनर के साथ फिजिकल होने की इच्छा प्रबल हो जाती है. लेकिन लौंग डिस्टैंस वाले रिश्तों में सिंपल टच तक के लिए तरसना पड़ता है तो सैक्स और किस करना तो दूर की बात है. शुरुआत में लगता है कि सब ठीक है लेकिन जैसे ही रिलेशन कुछ महीने आगे बढ़ता है तब इंटिमेसी लैवल भी हाई होने लगता है, जिस के पूरा न होने के कारण फ्रस्ट्रैशन लैवल भी बढ़ने लगता है.

-लौंग डिस्टैंस रिलेशन में हमेशा इनसिक्योरिटी बनी रहती है. ज्यादातर रिश्तों में यह तब होता है जब आप किसी को जानते तो हों लेकिन उस के तौरतरीकों को फेसटूफेस औब्जर्व नहीं कर पाते. लौंग डिस्टैंस रिलेशन की यही समस्या है कि सारा रिलेशन कम्युनिकेशन पर टिका रहता है. इस में ओब्जर्व करने के लिए सिर्फ बात ही एक रास्ता होता है, इसलिए डेटूडे लाइफ में आप के पार्टनर का किन से मिलना, कितने फ्रैंड, कहां विजिट किया जैसे सवाल कई शंकाओं को जन्म दे सकते हैं.

-इस तरह के रिश्तों में सब से बड़ी समस्या कम्युनिकेशन पर टिकी होती है. यानी आप किसी तकनीक की सहायता से ही एकदूसरे के रिश्ते में बंधे हैं. सोशल मीडिया या टैलीफोन से कम्युनिकेशन एक लिमिट तक ही अंडरस्टैंडिंग लैवल बढ़ा सकता है. आमतौर पर एलडीआर में डेटूडे बातचीत ही मुख्य होती है. इस का बड़ा कारण कपल के बीच फ्रैश मैमोरीज न के बराबर होती हैं. किसी मैमोरी के बनने का तरीका किसी घटना या इवैंट से जुड़ा होता है, और इवैंट ऐसा जो दोनों को रिलेट करे. किंतु ऐसी कंडीशन में इस तरह की मैमोरीज न के बराबर होती हैं, तो कम्युनिकेशन में एक समय के बाद ठहराव आ जाता है जो इरिटेट भी करने लगता है.

-ऐसे रिश्तों में ट्रस्ट लैवल कम रहता है. किसी लव रिलेशन में पार्टनर के प्रति ट्रस्ट या भरोसा होना बहुत बार सैक्सुअल रिलेशन से निर्धारित होता है, जिस में आमतौर पर यह समझ जाता है कि आप तन और मन से समर्पित हैं या नहीं. जाहिर सी बात है, पार्टनर का मन समर्पित है यह माना जा सकता है लेकिन तन समर्पित न होना, विश्वास की लकीर को कमजोर करता है. ऐसे में हमेशा अपने पार्टनर के क्लोज फ्रैंड्स को ले कर इनसिक्योरिटी रहती है, जिसे ले कर हमेशा संदेह लगा रहता है.

खैर, कुछ समस्याएं हैं जिन से एक लौंग डिस्टैंस कपल को दोचार होना पड़ता है. लेकिन, भारत में यह प्रौब्लम इस से कई गुना आगे बढ़ जाती है. भारत देश डाइवर्सिटी से घिरा हुआ है. कुछ लोग इस पर प्राउड करते हैं, वहीं कुछ डाइवर्सिटी के होने के अनेक एक्सपीरियंस तो मानते हैं लेकिन इस के साथ इसे सोशल बैरियर भी मानते हैं, जो आपस में आसानी से कनैक्ट करने से रोकते हैं. इन्हीं बैरियर्स में कास्ट, रिलीजन, एरिया, लैंग्वेज और कल्चर आता है. हमारे देश में किसी रिश्ते में बंधने का मतलब पारिवारिक मंजूरी का होना जरूरी हो जाता है. इतने सारे बैरियर्स पार करना अपनेआप में चुनौती होता है. फिर लौंग डिस्टैंस रिलेशन तो एक कदम और दूर की बात है.

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अगर आप भी लौंग डिस्टैंस रिलेशनशिप में हैं या आना चाहते हैं तो जरूरी है कि आप इन पौइंट्स को कंसीडर करें. जरूरी नहीं कि ये चीजें हर किसी के लिए समस्या हों, अगर आप इन्हें ध्यान में रखते हुए इन से टैकल कर सकते हैं तो चीजें बेहतर होंगी. लेकिन ध्यान रहे ऐसे रिश्ते ज्यादातर कंडीशन में असफल ही होते हैं. अगर लौंग डिस्टैंस में ही जाने का मन हो तो कोशिश करें कि आप का/की पार्टनर भले पास का न हो लेकिन उसी शहर से हो जहां से आप बिलोंग करते हैं. ऐसी स्थिति में इन बिंदुओं को आसानी से टैकल किया जा सकता है और संभव है कि भविष्य में आप के एकदूसरे को जीवनसाथी चुनने की संभावना भी बढ़ जाएगी.

कमीशन: दीया की मां को क्या पता चला

Serial Story: कमीशन (भाग-3)

आकाशवाणी पहुंची तो सब से पहले उन महोदय से मिली जिन से अंकल ने मुलाकात करवाई थी. उन्होंने खुद चल कर मेरी वार्ता की रिकार्डिंग करवाई और मेरे अच्छा बोलने पर मुझे बहुत सराहा भी. मुझे तो वे बड़े अच्छे लगे. उम्र यही कोई 40 के आसपास होगी. रिकार्डिंग के बाद वे मुझे अपने केबिन में ले गए. मेरे लिए चाय भी मंगवाई, शायद इसलिए कि अंकल को जानते थे. अंकल ने मेरे सामने ही उन से कहा था कि मेरी बेटी जैसी ही है. इस का ध्यान रखना.

चाय आ गई थी और उस के साथ बिस्कुट भी. उन्होंने मुझे बड़े अदब से चाय पेश की और मुझ से बातें भी करते रहे. बोले, ‘‘चेक ले कर ही जाइएगा दीयाजी. हो सकता है कि थोड़ी देर लग जाए. बहुत खुशी होती है न कुछ करने का पारिश्रमिक पा कर.’’ और तब मैं सोच रही थी कि शायद अब यह मतलब की बात करें कि बदले में मुझे उन्हें कितना कमीशन देना है. मैं तो बिलकुल ही तैयार बैठी थी उन्हें कमीशन देने को. मगर मुझ से उन्होंने उस का कुछ जिक्र ही नहीं किया. मैं ने ही कहा, ‘‘सर, मैं तो आकाशवाणी पर बस प्रोग्राम करना चाहती हूं. बाकी पारिश्रमिक या पैसे में मेरा कोई इंटरेस्ट नहीं है. मेरी रचनात्मक प्रवृत्ति का होना ही कुदरत की तरफ से दिया हुआ मुझे सब से बड़ा तोहफा है जो हर किसी को नहीं मिलता है. सर, यह यहां मेरा पहला प्रोग्राम है. आप ही की वजह से यह मुझे मिला है. यह मेरा पहला पारिश्रमिक मेरी तरफ से आप को छोटा सा तोहफा है क्योंकि जो मौका आप ने मुझे दिया वह मेरे लिए अनमोल है.’’

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कहने को तो मैं कह गई, लेकिन डर रही थी कि कहीं वे मेरे कहे का बुरा न मान जाएं. सब तरह के लोग होते हैं. पता नहीं यह क्या सोचते हैं इस बारे में. कहीं जल्दबाजी तो नहीं कर दी मैं ने अपनी बात कहने में. मेरे दिलोदिमाग में विचारों का मंथन चल ही रहा था कि वे कह उठे, ‘‘दीयाजी, आप सही कह रही हैं, यह लेखन और यह बोलने की कला में माहिर होना हर किसी के वश की बात नहीं. इस फील्ड से वही लोग जुड़े होने चाहिए जो दिल से कलाकार हों. मैं समझता हूं कि सही माने में एक कलाकार को पैसे आदि का लोभ संवरण नहीं कर पाता. आप की ही तरह मैं भी अपने को एक ऐसा ही कलाकार मानता हूं. मैं भी अच्छे घर- परिवार से ताल्लुक रखता हूं, जहां पैसे की कोई कमी नहीं. मैं भी यहां सिर्फ अपनी रचनात्मक क्षुधा को तृप्त करने आया हूं. आप अपने पारिश्रमिक चेक को अपने घर पर सब को दिखाएंगी तो आप को बहुत अच्छा लगेगा. यह बहुत छोटा सा तोहफा जरूर है, लेकिन यकीन जानिए कि यह आप को जिंदगी की सब से बड़ी खुशी दे जाएगा.’’ उन की बात सुन कर मैं तो सचमुच अभिभूत सी हो गई. मैं तो जाने क्याक्या सोच कर आई थी और यह क्या हो रहा था मेरे साथ. सचमुच कुछ कह नहीं सकते किसी के भी बारे में, कहीं के भी बारे में. हर जगह हर तरह के लोग होते हैं. एक को देख कर दूसरे का मूल्यांकन करना निरी मूर्खता है. जब हाथ की पांचों उंगलियां बराबर नहीं होतीं तो…यह तो मेरा वास्ता कुछ ऐसे शख्स से पड़ा, कहीं वह मेरी इसी बात का बुरा मान जाता तो. सब शौक रखा रह जाता आकाशवाणी जाने का.

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घर आ कर अंकल को यह सब बताया तो उन्हें भी मेरी बात पर विश्वास नहीं हुआ. मम्मीपापा तो यूरोप भ्रमण पर चले गए थे. उन से बात नहीं हो पा रही थी जबकि मैं कितनी बेचैन हो रही थी मम्मी को सबकुछ बताने को.

अब तो कई बार वहां कार्यक्रम देने जा चुकी हूं. कभी कहानी प्रसारित होती है तो कभी वार्ता. बहुत अच्छा लगता है वहां जा कर. मुझे एकाएक लगने लगा है कि जैसे मैं भी कितनी बड़ी कलाकार हो गई हूं. शान से रिकार्डिंग करने जाती हूं और अपने शौक को यों पूरा होते देख खुशी से फूली नहीं समाती. अपने दोस्तों के दायरे में रिश्तेदारों में, अगलबगल मेरी एक अलग ही पहचान बनने लगी है और इन सब के लिए मैं दिल से अंकल की कृतज्ञ थी, जिन्होंने अपने अतीत के इतने कड़वे अनुभव के बावजूद मेरी इतनी मदद की. इस बीच मम्मीपापा भी यूरोप घूम कर वापस आ गए थे. कुछ सोच कर एक दिन मैं ने मम्मी और पापा को डिनर पर अपने यहां बुला लिया. जब से हम ने यह घर खरीदा था, बस, कभी कुछ, कभी कुछ लगा रहा और मम्मीपापा यहां आ ही नहीं पाए थे. अंकल से धीरेधीरे, बातें कर के मेरा शक यकीन में बदल गया था कि मम्मी और अंकल अतीत की एक कड़वी घटना के तहत एक ही सूत्र से बंधे थे.

मम्मी को थोड़ा हिंट मैं ने फोन पर ही दे दिया था, ताकि अचानक अंकल को अपने सामने देख कर वे फिर कोई बखेड़ा खड़ा न कर दें. कुछ इधर अंकल तो बिलकुल अपने से हो ही गए थे, सो उन्हें भी कुछ इशारा कर दिया. एक न एक दिन तो उन लोगों को मिलना ही था न, वह तो बायचांस यह मुलाकात अब तक नहीं हो पाई थी. और मेरा उन लोगों को सचेत करना ठीक ही रहा. मम्मी अंकल को देखते ही पहचान गईं पर कुछ कहा नहीं, लेकिन अपना मुंह दूसरी तरफ जरूर फेर लिया. डिनर के दौरान अंकल ने ही हाथ जोड़ कर मम्मी से माफी मांगते हुए कहा, ‘‘आप से माफी मांगने का मौका इस तरह से मिलेगा, कभी सोचा भी नहीं था. अपने किए की सजा अपने लिए मैं खुद ही तय कर चुका हूं. मुझे सचमुच अफसोस था कि मैं ने अपने अधिकार, अपनी पोजीशन का गलत फायदा उठाया. अब आप मुझे माफ करेंगी, तभी समझ पाऊंगा कि मेरा प्रायश्चित पूरा हो गया. यह एक दिल पर बहुत बड़ा बोझ है.’’

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मम्मी ने पहले पापा को देखा, फिर मुझे. हम दोनों ने ही मूक प्रार्थना की उन से कि अब उन्हें माफ कर ही दें वे. मम्मी भी थोड़ा नरम पड़ीं, बोलीं, ‘‘शायद मैं भी गलत थी अपनी जगह. समय के साथ चल नहीं पाई. जरा सी बात का इतना बवंडर मचा दिया मैं ने भी. हम से ज्यादा समझदार तो हमारे बच्चे हैं, जिन की सोच इतनी सुलझी हुई और व्यावहारिक है,’’ मम्मी ने मेरी तरफ प्रशंसा से देखते हुए कहा. फिर बोलीं, ‘‘अब सही में मेरे मन में ऐसा कुछ नहीं है. मेरी बेटी की इतनी मदद कर के आप ने मेरा गुस्सा पहले ही खत्म कर दिया था. अब माफी मांग कर मुझे शर्मिंदा मत कीजिए. दीया की तरह मेरा भी प्रोग्राम वहां करवा सकते हैं क्या आप? मैं आप से वादा करती हूं कि अब कुछ गड़बड़ नहीं करूंगी.’’ मम्मी ने माहौल को थोड़ा सा हल्काफुल्का बनाने के लिए जिस लहजे में कहा, उसे सुन हम सभी जोर से हंस पडे़.

Serial Story: कमीशन (भाग-2)

अब तक तो सब ठीकठाक चलता रहा, लेकिन अब बेटी के स्कूल आदि शुरू होने को थे, सो शिप पर इधरउधर रहना मुमकिन नहीं था. इस बार यह घर अभिमन्यु ने हमारे लिए खरीद दिया था ताकि मम्मीपापा का भी साथ मिलता रहे. वे लोग भी यहीं मुंबई में थे. हीरामणि की पढ़ाई बेरोकटोक चलती रहे, ऐसा प्रयास था. अब अभिमन्यु तो सिर्फ छुट्टियों में ही घर आ सकते थे न. अब की जब 9 महीने का शिपिंग कंपनी का अपना कांट्रेक्ट पूरा कर के हम लोग आए तो 3 महीने की पूरी छुट्टियां घर तलाशने और उसे सेट करने में ही निकल गई थीं. घर वाकई बहुत खूबसूरत मिल गया था. मकान मालिक की पत्नी का देहांत कुछ समय पहले हो गया था. उन के एक बेटा था, जो अमेरिका में ही शादी कर के बस गया था. उन्हें अब इतने बड़े घर की जरूरत ही नहीं थी सो इसे हमें सेल कर दिया.

अपने लिए सिर्फ एक कमरा रखा, जिस में अटैच्ड बाथरूम वगैरह था. इस से ज्यादा उन्हें चाहिए ही नहीं था. थोड़े ही दिनों में वे हम से खुल गए थे. हम भी उन्हें घर के एक बुजुर्ग सा ही मान देने लगे थे. हीरामणि का दाखिला भी अच्छे स्कूल में हो गया था. अभिमन्यु सब तरह से संतुष्ट हो कर अपनी ड्यूटी पर चले गए. उन के जाने के बाद तो अंकल और अपने लगने लगे थे. वे मुझे और हीरामणि को अपना बच्चा ही समझते थे. हीरामणि तो उन्हें दादाजी भी कहने लगी थी. बच्चे तो वैसे भी कोमल मन और कोमल भावनाओं वाले होते हैं, जहां प्यार और स्नेह देखा, बस वहीं के हो कर रह गए.

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पहले अंकल ने टिफिन भेजने वाली लेडी से कांट्रेक्ट कर रखा था. दोनों समय का खानापीना वह ही पैक कर के भेज देती थी. नाश्ते में अंकल सिर्फ फल और टोस्ट लेते थे. उन की बेरंग सी जिंदगी देख कर कभीकभी बुढ़ापे से डर लगने लगता था. कितना भयानक होता है न बुढ़ापे का यह अकेलापन. थोड़े दिनों में जब दिल से दिल जुड़े और अपनत्व की एक डोर बंधी तो मैं ने उन का बाहर से वह टिफिन बंद करवा कर अपने साथ ही उन का भी खाना बनाने लगी. अब हम एकदूसरे के पूरक से हो गए थे. बिना अभिमन्यु के हमें भी उन से एक बड़े के साथ होने की फीलिंग होती थी और उन्हें भी हम से एक परिवार का बोध होता.

इसी बीच बातोंबातों में एक दिन पता चला कि अंकल कभी आकाशवाणी केंद्र में एक अच्छे ओहदे पर हुआ करते थे. पता नहीं क्यों उन्होंने समय से पहले ही वहां से रिटायरमेंट ले लिया था. शायद उन्हें नौकरी करने की कोई जरूरत नहीं थी या फिर वहां के काम से बोर हो गए थे. खैर, जो भी हो, मैं तो बस तब से ही उन के पीछे पड़ गई थी कि मेरा भी कभीकभी कुछ आकाशवाणी में प्रोग्राम वगैरह करवा दें. उन की तो काफी लोगों से जानपहचान होगी. तब उन्होंने बताया कि वह यू.पी. के एक छोटे से आकाशवाणी केंद्र में थे. अब तो छोड़े हुए भी उन्हें काफी समय हो गया, कोई जानपहचान वाला मिलेगा भी या नहीं, लेकिन मैं थी कि बस लगी ही रही उन के पीछे. उन्होंने मुझे बहुत समझाया कि इन जगहों पर असली टैलेंट की कोई कद्र नहीं होती. बस, सब अपनेअपने सगेसंबंधियों और जानपहचान वालों को मौका देते रहते हैं और कमीशन के नाम पर उन्हें भी नहीं बख्शते. वे अपनी कहते रहे तो मैं भी बस उन से यही कहती रही, ‘‘अंकल, आज के समय में यह कोई बड़ी बात थोड़े ही है और कमीशन बताइए अंकल कि कहां नहीं है. मकान खरीदो तो प्रोपर्टी डीलर कमीशन लेता है, सरकारी आफिस में कोई टेंडर निकलवाना हो तो अफसरों को कमीशन देना पड़ता है, यहां तक कि पोस्टआफिस में भी किसी एजेंट के द्वारा कोई पालिसी खरीदो तो जहां उसे सरकार कमीशन देती है, तो उस से कुछ कमीशन पालिसीधारक को भी मिलता है. और भी क्याक्या गिनाऊं, हर जगह यही हाल है अंकल, जिस को जहां जरा सा भी मौका मिलता है वह उसे हर हाल में कैश करता ही है, तो अगर यहां भी यही हाल है तो उस में बुरा ही क्या है.

‘‘ठीक है, वह आप को, आप के टैलेंट को, आप के हुनर को बाहर निकलने का मौका दे कर बदले में अगर कुछ ले रहे हैं तो ठीक है न, फिर इस में इतना हाईपर होने की क्या बात है. उन का हक बनता है भई. गिव एंड टेक का जमाना है सीधा- सीधा. इस हाथ दो तो उस हाथ लो. इन सब से बड़ी बात तो यह है अंकल कि आप की आवाज इतने लोग सुन रहे हैं, इस से बड़ी बात और क्या हो सकती है.’’

मेरी बात सुन कर अंकल हैरत से मुझे देखते हुए बोले, ‘‘काफी प्रैक्टिकल और सुलझी हुई हो बेटी तुम. काश, उस वक्त भी तुम्हारे जैसी सोच वाले लोग होते…’’ इतना कह कर अंकल उदास हो गए तो मैं ने पूछ ही लिया, ‘‘अंकल, बुरा न मानें तो मुझे बताइए कि आप ने आकाशवाणी की इतनी मजेदार नौकरी क्यों छोड़ दी?’’ कुछ पल वे यों ही सोचते रहे, फिर खोएखोए से बोले, ‘‘बस, बेटी, इसी लेनदेन को ले कर एक स्कैंडल खड़ा हो गया था, फिर मन ही नहीं लगा पाया वहां. आ गया सब छोड़ कर.’’

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इस से ज्यादा न उन्होंने कुछ बताया और न ही मैं ने पूछा. पता नहीं क्यों दिल में ऐसा आभास हो रहा था कि कहीं मम्मी और अंकल एक ही इश्यू से जुड़े तो नहीं हैं. मम्मी भी न…बस, अरे, उस डायरेक्टर के मुंह पर चेक फेंकने का क्या फायदा हुआ आखिर. उन का ही तो नुकसान हुआ न. इस घटना के बाद उन की रचनात्मक प्रवृत्तियां खत्म सी हो गई थीं. उन का मन ही नहीं करता था कुछ. उन की अपनी एक खास पहचान बन गई थी. सब खत्म कर दिया अपनी ऐंठ और नासमझी में. मैं तो इसे नासमझी ही कहूंगी.

कांट्रेक्ट लेटर हाथ में आते ही कल जब उन्हें फोन पर बताया तो सब से पहले वे बिगड़ने लगीं कि दीया, तुम ने मेरी बात नहीं मानी आखिर. कहा था न कि इन सब झंझटों से दूर रहना, मगर…खैर, अब जा ही रही हो तो ध्यान रखना, कोई तुम्हें जरा सा भी बेवकूफ बनाने की कोशिश करे तुम उलटे पैर लौट आना. मैं ने तो सुना था कि मुझे परेशान करने वाले उस डायरेक्टर ने तो नौकरी ही छोड़ दी थी.’’ अब मुझे बिलकुल भी शक नहीं था कि अंकल ही वह शख्स थे जिन्होंने मम्मी की वजह से नौकरी छोड़ दी थी.

खैर, अब उन से भी क्या कहती. मम्मी थीं वह मेरी. यही कहा बस, ‘‘मम्मी, मैं आप की बात का ध्यान रखूंगी. आप परेशान मत होइए.’’ मगर मन ही मन मैं ने सोच लिया था कि किसी की भी नहीं सुनूंगी. समय की जो डिमांड होगी वही करूंगी और फिर मैं कोई पैसा कमाने या कोई इश्यू खड़ा करने नहीं जा रही हूं वहां. पैसा तो अभिमन्यु ही मर्चेंट नेवी में खूब कमा लेते हैं. मुझे तो उन के पीछे बस अपना थोड़ा सा समय रचनात्मक कार्यों में लगाना है. हीरामणि के साथ मैं कहीं नौकरी कर नहीं सकती, अभिमन्यु के पीछे वह मेरी जिम्मेदारी है. बस, कभीकभी आकाश- वाणी पर कार्यक्रम मिलते रहें, लेखन चलता रहे…और इस से ज्यादा चाहिए भी क्या. समय इधरउधर क्लब, किट्टी पार्टी में गंवाने से क्या हासिल.

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Serial Story: कमीशन (भाग-1)

अंकल की कोशिशों से आखिर मुझे आकाशवाणी के कार्यक्रमों में जगह मिल ही गई. एक वार्ता के लिए कांट्रेक्ट लेटर मिलते ही सब से पहले अंकल के पास दौड़ीदौड़ी पहुंची तो मुझे बधाई देने के बाद पुन: अपनी बात दोहराते हुए उन्होंने मुझ से कहा, ‘‘बेटी, तुम्हारे इतना जिद करने पर मैं ने तुम्हारे लिए जुगाड़ तो कर दिया है, लेकिन जरा संभल कर रहना. किसी की भी बातों में मत आना, अपनी रिकार्डिंग के बाद अपना पारिश्रमिक ले कर सीधे घर आ जाना.’’ ‘‘अंकल, आप बिलकुल चिंता मत कीजिए. कोई भी मुझे बेवकूफ नहीं बना सकता. मजाल है, जो प्रोग्राम देने के बदले किसी को जरा सा भी कोई कमीशन दूं. मम्मी ही थीं, जो उन लोगों के हाथों बेवकूफ बन कर हर कार्य- क्रम में जाने का कमीशन देती रहीं और फिर एक दिन बुरा मान कर पूरा का पूरा पारिश्रमिक का चेक उस डायरेक्टर के मुंह पर मार आईं. शुरू में ही मना कर देतीं तो इतनी हिम्मत न होती किसी की कि कोई उन से कुछ उलटासीधा कहता.’’

मेरे द्वारा मम्मी का जिक्र करते ही अंकल के चेहरे पर टेंशन साफ झलकने लगा था लेकिन अपने कांट्रेक्ट लेटर को ले कर मैं इतनी उत्साहित थी कि बस उन्हें तसल्ली सी दे कर अपने कमरे में आ कर रिकार्डिंग के लिए तैयारी करने लगी. उस में अभी पूरे 8 दिन बाकी थे, सो ऐसी चिंता की कोई बात नहीं थी. हां, कुछ अंकल की बातों से और कुछ मम्मी के अनुभव से मैं डरी हुई जरूर थी. दरअसल, मेरी मम्मी भी अपने समय में आकाशवाणी पर प्रोग्राम देती रहती थीं. उस समय वहां का कुछ यह चलन सा बन गया था कि कलाकार प्रोग्राम के बदले अपने पारिश्रमिक का कुछ हिस्सा उस स्टेशन डायरेक्टर के हाथों पर रखे. मम्मी को यह कभी अच्छा नहीं लगा था. उन का कहना था कि अपने टैलेंट के बलबूते हम वहां जाते हैं, किसी भी कार्यक्रम की इतनी तैयारी करते हैं फिर यह सब ‘हिस्सा’ या ‘कमीशन’ आदि क्यों दें भला. इस से तो एक कलाकार की कला का अपमान होता है न. ऐसा लगता है कि जैसे कमीशन दे कर उस के बदले में हमें अपनी कला के प्रदर्शन का मौका मिला है. मम्मी उस चलन को ज्यादा दिन झेल नहीं पाईं.

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उन दिनों उन्हें एक कार्यक्रम के 250 रुपए मिलते थे, जिस में से 70 रुपए उन्हें अपना पारिश्रमिक पाने के बदले देने पड़ जाते थे. बात पैसे देने की नहीं थी, लेकिन इस तरह रिश्वत दे कर प्रोग्राम लेना मम्मी को अच्छा नहीं लगता था जबकि वहां पर इस तरह कार्यक्रम में आने वाले सभी को अपनी इच्छा या अनिच्छा से यह सब करना ही पड़ता था. मम्मी की कितने ही ऐसे लोगों से बात होती थी, जो उस डायरेक्टर की इच्छा के भुक्तभोगी थे. बस, अपनीअपनी सोच है. उन में से कुछ ऐसा भी सोचते थे कि आकाशवाणी जैसी जगह पर उन की आवाज और उन के हुनर को पहचान मिल रही है, फिर इन छोटीछोटी बातों पर क्या सोचना, इस छोटे से अमाउंट को पाने या न पाने से कुछ फर्क थोड़े ही पड़ जाएगा. प्रोग्राम मिल जाए और क्या चाहिए.

पता नहीं मुझे कि उस समय उस डायरेक्टर ने ही यह गंदगी फैला रखी थी या हर कोई ही ऐसा करता था. कहते हैं न कि एक मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है. मम्मी तो बस फिर वहां जाने के नाम से ही चिढ़ गईं. आखिरी बार जब वे अपने कार्यक्रम की रिकार्डिंग से लौटीं तो पारिश्रमिक के लिए उन्हें डायरेक्टर के केबिन में जाना था. चेक देते हुए डायरेक्टर ने उन से कहा, ‘अब अमाउंट कुछ और बढ़ाना होगा मैडम. इधर अब आप लोगों के भी 250 से 350 रुपए हो गए हैं, तो हमारा कमीशन भी तो बढ़ना चाहिए न.’ मम्मी को उस की बात पर इतना गुस्सा आया और खुद को इतना अपमानित महसूस किया कि बस चेक उस के मुंह पर मारती, यह कहते हुए गुस्से में बाहर आ गईं कि लो, यह लो अपना पैसा, न मुझे यह चेक चाहिए और न ही तुम्हारा कार्यक्रम. मैं तो अपनी कहानियां, लेख पत्रपत्रिकाओं में ही भेज कर खुश हूं. सेलेक्ट हो जाते हैं तो घरबैठे ही समय पर पारिश्रमिक आ जाता है.

उस के बाद मम्मी फिर किसी आकाशवाणी या दूरदर्शन केंद्र पर नहीं गईं. मैं उन दिनों यही कोई 10-11 साल की थी. उस वक्त तो ज्यादा कुछ समझ नहीं पाई थी लेकिन जैसेजैसे बड़ी होती गई, बात समझ में आती गई. मम्मी के लिए मेरे मन में बहुत दुख था. मम्मी कितनी अच्छी वक्ता थीं कि बता नहीं सकती. एक तो कुछ उन की जल्दबाजी और दूसरे वहां के ऐसे माहौल के कारण एक प्रतिभा अंदर ही अंदर दब कर रह गई.

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कहते हैं न कि एक कलाकार की कला को यदि बाहर निकलने का मौका न मिले तो वह दिल ही दिल में जिस तरह दम तोड़ती है, उस का अवसाद, उस की कुंठा कलाकार को कहीं का नहीं छोड़ती. मम्मी ने भी उस घटना को दिल से लगा लिया था. कुछ दिन तो वह काफी बीमार रहीं फिर पापा के अपनत्व और स्नेह से किसी तरह जिंदगी में लौट पाईं और पुन: लेखन में लग गईं. मम्मी के ये गुण मुझ में भी आ गए थे. मेरा भी लेखन वगैरह के प्रति झुकाव समय के साथ बढ़ता ही चला गया. साथ ही एक अच्छे वक्ता के गुणों से भी स्कूल के दिनों से ही मालामाल थी. वादविवाद प्रतियोगिता हो, गु्रप डिस्कशंस हों या कुछ और, सदा जीत कर ही आती थी. मगर इस से पहले कि मैं इस फील्ड में अपना कैरियर तलाशती, गे्रजुएशन के साथ ही पापा के ही एक खास मित्र के लड़के, जोकि मर्चेंट नेवी में था, ने एक पार्टी में मुझे पसंद कर लिया और बस चट मंगनी, पट ब्याह हो कर बात दिल की दिल में ही रह गई. इस के बाद अभिमन्यु के साथ 4-5 साल मैं शिप पर ही रहती रही. वहीं मेरी बेटी हीरामणि का भी जन्म हुआ. यों तो डिलीवरी के लिए मैं मम्मीपापा के पास मुंबई आ गई थी, मगर हीरामणि के कुछ बड़ा होने के बाद पुन: अभिमन्यु के पास शिप पर ही चली गई थी.

आगे पढ़ें- अब तक तो सब ठीकठाक चलता रहा, लेकिन….

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