नाश्ते में ट्राई करें चना सैंडविच

चना सैंडविच आसानी से बन जाने वाली एक वेज डिश है, जिसे आप शाम की चाय के साथ सर्व कर सकती हैं. यह हेल्दी भी है. ऐसे में आप चाहें तो अपने बच्चों को भी लंच बॉक्स में पैक करके दे सकते हैं. इसे बनाने में बहुत का वक्त लगता है इसलिए अचानक से आए मेहमानों के लिए भी यह एक अच्छा सर्विंग ऑप्शन है.

सामग्री

एक कप उबला हुआ चना

सैंडविच ब्रेड

गर्म मसाला

नमक

लाल मिर्च पाउडर

लेमन जूस

धनिया पत्ती, गाजर, खीरा, चुकंदर

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बनाने की विधि:

चने को 6 से 8 घंटे के लिए भिगो लें. इसमें एक चुटकी सोडा मिला लें. प्रेशर कुकर पर हल्की आंच में दो सीटी लगाएं. चनों का अच्छी तरह पक जाना जरूरी है.

अब ब्रेड को तवे पर अच्छी तरह टोस्ट कर लें. इस पर इच्छानुसार चने रखें. इसके ऊपर से गाजर, धनिया की पत्ती, प्याज, खीरा और चुकंदर रखें.

एक दूसरी ब्रेड स्लाइस से इसे ढक दें. अब इसे सॉस या फिर हरी चटनी के साथ सर्व करें.

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अभी फिटनेस से अधिक स्वास्थ्य जरुरी है – मीरा राजपूत कपूर

अत्यंत शांत, इंटेलीजेंट और शाय नेचर की मीरा राजपूत कपूर चर्चा में तब आई जब उन्होंने अभिनेता शाहिद कपूर के साथ शादी की, इसके बाद वह कई चैट शो और टीवी विज्ञापनों में देखी गयी. अभी वह दो बच्चों, मिशा कपूर और जैन कपूर की मां है. मीरा को नए-नए व्यंजन बनाना बहुत पसंद है. एक बार शाहिद कपूर ने भी उनके लिए नए अंदाज में पास्ता बनाया, जिसकी वह तारीफ करती है. कोरोना संक्रमण के समय में वह अपने परिवार के स्वास्थ्य की देखभाल बहुत ही जतन से कर रही है, ताकि सबकी इम्युनिटी बनी रहे. टाटा सम्पन्न के मसालों के वर्चुअल प्रेस कांफ्रेंस के दौरान उससे बातचीत हुई, जो रोचक थी, पेश है कुछ अंश.

सवाल-कोरोना के इस दौर में आप अपने परिवार के स्वास्थ्य का ख्याल कैसे रख रही है, ताकि सभी सवस्थ रहे?

घर में सबके स्वास्थ्य का ख्याल रखना मेरे उपर ही है, लेकिन अच्छे स्वास्थ्य के लिए अच्छा और गुणकारी खाना होने की जरुरत होता है. ठीक खाना खाने से कभी कोई समस्या नहीं आती. इन्फेक्शन के चांसेस कम हो जाते है. ये काफी समय से देखा जाता है कि घर में रखे मसाले के डिब्बे से आप काफी चीजो को निकालकर घर के लोगों के स्वास्थ्य को ठीक कर सकते है, जिसे हम दादी-नानी के नुस्खे कहते है. मसाले का प्रयोग भारतीय खाने में अधिक किया जात है और इसका गुण भी कुछ न कुछ हर मसाले के साथ जुड़ा हुआ है. सही ढंग से मसालों के सही मिश्रण के साथ बना खाना हमेशा सेहत मंद होता है. मैं खाने में हल्दी, नमक, भूना जीरा पाउडर, राई करी पत्ता आदि प्रयोग करती हूं.

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सवाल-आपके दोनों बच्चे छोटे है, जब बच्चे खाने को लेकर ना-नुकुर करते है, तो आप उन्हें किस तरह से खाना खिला पाती है?

सारी माँओं और दादी-नानी को इस तरह की समस्या आती है कि वे बच्चे को क्या खिलाएं, क्योंकि बच्चे काफी नखरे करते है. मैंने शुरू से ही अपने बच्चों को सबकुछ खाने की सीख दी है, लेकिन कभी-कभी मूड न होने पर वे खाना नहीं चाहते . मैं उनकी रूचि को देखती हूं और उस तरह से अलग लुक या तरीके से परोसने की कोशिश करती हूं. हर माँ को एक बैलेंस के साथ भोजन बच्चे को देना चाहिए. बच्चा जिस चीज को ख़ुशी से खाता है, उसे भी बीच-बीच में देने से कोई हर्ज़ नहीं, लेकिन घर का खाना ही बच्चे को खिलाना अच्छा होता है, बाहर का नहीं. मीशा कभी-कभी फ्रेंच फ्राई या आलू के पराठे खाना चाहती है.

सवाल-क्या कोई सुझाव खाने को लेकर माँ या सास से देती है?माँ के हाथ का बना हुआ खाना जिसे आप बेटी को भी खिलाना चाहे?

मैं अपनी माँ के खाने को आज भी पसंद करती हूं. मैं भी समय लगाकर खाना बनाती हूं, पर माँ के खाने का स्वाद अलग ही होता है. माँ का सुझाव हरी सब्जी या फ्रेश सब्जी को खाने में शामिल करने की होती है, जो मैं करती रहती हूं.

सवाल-शाहिद कपूर ने कभी आपको किसी प्रकार के सुझाव खाने को लेकर दिया है?

मैं ही खाना बनाऊं तो अच्छा है, क्योंकि उन्हें समय कम मिलता है, लेकिन वे प्रसंशक है.

सवाल-आपको किस तरह के फ़ूड पसंद है?

मुझे खाना बनाने का बहुत शौक है. मैं घर का खाना खाती हूं. खाना बनाने के बाद उसे खाने से अधिक खिलाना पसंद करती हूं. माँ के हाथ के बने पराठे बहुत पसंद है. खाने के साथ जुडी यादें भी होती है, जो बाहर जाकर खाने से नहीं मिल पाता.

 

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सवाल-फिटनेस के लिए किस तरह का भोजन करती है?

मैं वेजिटेरियन हूं और साधारण खाना खाती हूं. कभी-कभी चटपटी खाना भी खा लेती हूं. दाल, सब्जी, चावल भोजन में लेती हूं. मुझे टिंडा, तोरी, करेला,परवल आदि सब सब्जियां पसंद है. मौसम के साथ भोजन करना मुझे अच्छा लगता है. आज फिटनेस से अधिक स्वास्थ्य जरुरी है.

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सवाल-गृहशोभा के ज़रिये क्या मेसेज देना चाहती है?

आप जैसे सालों से खाना बनाती रही है, वह दौर एक बार फिर से आ गया है, मसलन हल्दी दूध का पीना, अदरक या सौफ का प्रयोग खाने में करना आदि. बीच में चायनीज और कॉन्टिनेंटल का एक दौर आया था, लेकिन अब फिर हम सभी दादी-नानी के युग में आ गए है. इसके अलावा देसी खाना केवल लड़कियों को ही नहीं, लड़कों को भी बनाना सिखाएं. अभी सबको हाथ बंटाना जरुरी है.

जीतन: उसके कौन से अतीत की परतें खुलीं?

Serial Story: जीतन (भाग-2)

पूर्व कथा

अनाथ जीतेंद्र उर्फ जीतन को धनबाद के जंगलों से उठा कर एक समर्थ परिवार के मुखिया ने अपने अधीन पासी परिवार को सौंप दिया था. वर्षों तक उसी परिवार की दया और सहानुभूति के सहारे पलाबढ़ा जीतेंद्र कुशाग्र बुद्धि निकला और सफलता की सीढि़यां चढ़ता गया. हालात के मारे पासीपासिन तो शहर छोड़ कर चले गए पर जीतन धीरेधीरे प्रमोद के परिवार का अंग बन गया. एक दिन उसे एक पत्र मिला जो उस की असली मां ने लिखा था. जिस का नाम महुआ था. उसी पत्र से उस के अतीत की कई परतें खुलीं और जीतन खूब रोया. तभी से वह जुट गया अपनी असली मां की तलाश में.

अब आगे…

जीतेंद्र ने अपनी बीमारी की वजह से 8वें वर्ष में स्कूल जाना प्रारंभ किया. कागजों में गोबीन पासी जीतेंद्र के पिता थे. चूंकि पिताजी परंपराओं से घबराते थे इसलिए उस का दाखिला स्कूल औफ स्टडीज में प्रोफैसरों और लेक्चररों के बच्चों के साथ नहीं करवाया. एक और वजह थी कि यह स्कूल जरा महंगा था.

हमारे कंधों पर चमकीले, भड़कीले बैग लटके रहते थे. हमें लेने स्कूल की बस आती थी जबकि जीतेंद्र हमारे इस्तेमाल किए हुए कपड़े और जूते पहने पैदल ही अपने स्कूल चल पड़ता था. उसे हमारी तरह नाश्ते में आमलेट व टोस्ट नहीं मिलते थे. यद्यपि हमारे पिताजी उस के गार्जियन थे फिर भी हम सब की तरह वे उस के कमरे में नहीं जाया करते थे. पर जीतेंद्र इस बात का इंतजार करता रहता था कि कब मातापिता सो कर उठें और आंगन में आएं ताकि वह उन के चरण छू सके. आशीर्वाद के नाम पर पिताजी अकसर उस से यह जरूर पूछते थे, कैसे हो जीतन?

जीतेंद्र हम सब से ज्यादा मेधावी था. हायर सैकेंडरी की सफलता के बाद वह राष्ट्रीय छात्रवृत्ति भी पाने लगा. इतना ही नहीं, जीतन ने अपने शरीर के सामने हमें बौना बना रखा था. हमारे पास सिर्फ एक ऊंची जाति एक समर्थ परिवार होने के साथसाथ समाज की एक झूठी शान थी, जो उस के पास नहीं थी. उस ने हमारे मातापिता से बेटा शब्द शायद ही कभी सुना हो, पर उसे यह पता था कि सगा बेटा न होने के बाद भी उसे कोई डांट नहीं सकता था.

एक बार एक राजमिस्त्री ने जीतेंद्र को लावारिस कह कर थप्पड़ मार दिया था. हमारी तरह जीतन भी पिताजी का नाम ले कर अपनी शेखी बघारता था और यही उस राजमिस्त्री को अखरता था. जब बहुत देर तक वह खाना खाने नहीं आया तो मां एक थाली में खाना डाल कर जीतेंद्र के कमरे में गईं. जीतेंद्र अपनी कुरसी पर आंसुओें से नहाया बैठा हुआ था. उसे देख कर मां एकदम घबरा गईं और बोलीं, ‘‘क्या बात है जीतेंद्र, आज खाना भी नहीं लेने आए. अपने कमरे में बैठे रो रहे हो, किस ने तुम्हारा दिल दुखाया है?

जीतेंद्र उठ कर मां के दोनों पैर पकड़ कर रोने लगा. हम पिताजी के संग जब बरामदे में आए तो देखा कि मां जीतेंद्र से अपने दोनों पांव छुड़वाने का प्रयास कर रही थीं. मां ने गुस्से में जो कहा वह मैं सुन नहीं पाया लेकिन उस राजमिस्त्री को मां ने कहीं का नहीं छोड़ा. सपरिवार उस से धनबाद छुड़वा कर ही दम लिया.

हायर सैकेंडरी के बाद हम सब भाई बनारस आ गए पर जीतेंद्र धनबाद में ही रहा. उस ने पी.के. राय मैमोरियल कालेज में दाखिला ले लिया. इस कालेज में जाति और इलाके के नाम पर गुटबंदी बहुत थी. हायर सैकेंडरी के बाद जीतेंद्र ने पैंट- कमीज से अलविदा कहा और खादी के कुरतेपाजामे पहनने लगा. वह दाढ़ी भी रखने लगा. उस पर स्थानीय रंगदारों का दबाव पड़ा तो वह हाथ जोड़ कर बोला, ‘‘मैं अपने मातापिता को निराश नहीं कर सकता. क्या सोचेंगे वे मेरे बारे में. फिर ऐसी प्रभुता की लड़ाइयों में रखा भी क्या है?’’

अपनी कक्षाओं के बाद जीतेंद्र ज्यादातर घर पर ही होता था. धनबाद में उस का कोई जिगरी दोस्त भी नहीं था. पढ़ाई के अलावा उस के पास 3 व्यस्तताएं थीं. सुबहशाम डट कर कसरत करना, तरहतरह की किताबें पढ़ना और बागान में लगी सब्जियों की देखभाल करना. इस दौरान हमारे मातापिता में भी कई परिवर्तन आए. वे उस से गप्पें मारने के लिए अकसर उस के कमरे में चले जाते. जीतेंद्र भी अब घर के दूसरे कमरों में आनेजाने लगा था.

मैं धनबाद आया तो स्टेशन पर मुझे लेने के लिए जीतेंद्र ही आया हुआ था. सारे रास्ते मैं उसे बनारस के बारे में बताता रहा. मेरे हैंडबैग को तो उस ने मुझे हाथ भी नहीं लगाने दिया. दूसरे दिन से ही वार्षिक खेल शुरू होने थे. मुझे पता था कि जीतेंद्र उस में जरूर भाग लेगा.

‘‘किनकिन मुकाबलों में भाग लेने जा रहे हो.’’

‘‘मां और बाबूजी के लिए मैं सिर्फ दौड़ूंगा भैया.’’

जीतेंद्र की जीतों से मां के नाम का भी जयजयकार होना था. भला यह मौका वे कैसे छोड़ देतीं.

धनबाद ने इस के पहले शायद ही इस तरह का धावक देखा होगा. जीतेंद्र दौड़ता नहीं, उड़ता था. गठीले बदन का जीतेंद्र जब ट्रैक पर आ कर खड़ा होता तब पूरे स्टेडियम की सांसें रुक जाती थीं. मैं ने न जाने कितनी बार मां को यह कहते सुना था कि यह लड़का तूफान है. इस की बराबरी कौन करेगा.

अंतिम दिन की रिले रेस कुछ ज्यादा ही उत्तेजक थी. जीतेंद्र पूरी जीजान लगाए दौड़े जा रहा था. एकएक को उस ने पछाड़ा और सब से पहले लाल फीते को अपने  सीने से छू लिया. पी.के. राय कालेज के तत्कालीन पिं्रसिपल

डा. गोस्वामी भागते हुए हमारे मातापिता से मिलने आए, ‘‘सिंह साहब, यह बालक बेहद अद्भुत है. इस के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं. इस ने कालेज का नाम रौशन कर दिया है. पढ़ता भी है, खेलता भी है, गाना भी गाता है, भाषण भी देता है.’’

हमारी सब से बड़ी दीदी कुसुम की गंभीर बीमारी के चलते जीजाजी सपरिवार धनबाद आए. दीदी का इलाज धनबाद के डाक्टर शरण ने अपने हाथोें में लिया. कुछ सप्ताह जीजाजी धनबाद में रहे फिर वापस चले गए. मैं उन दिनों इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पढ़ रहा था. दीदी का स्वास्थ्य दिनबदिन बिगड़ता चला जा रहा था. जीतेंद्र के अलावा हम में से कोई भी धनबाद में नहीं था.

दीदी के साथसाथ मां ने भी खाट पकड़ ली थी. ऊपर से दीदी के 3 छोटेछोटे बच्चे. पिताजी को भी मौसमी बीमारी ने घेर रखा था. हमारे लिए नरायन सिंह और जीतेंद्र 2 सब से बड़े संबल थे. पहला पिताजी के अधीन चौकीदार था और दूसरा उन का पाया हुआ बेटा. हमारी दीदी के बच्चे जीतेंद्र को मामा कह कर बुलाते थे. जीतेंद्र हमारी दीदी को बहन और जीजाजी को पाहुन कहता था. हमारी दीदी की तरह जीजाजी भी उसे जीतू कह कर बुलाते थे.

मां और दीदी के बिस्तर के बगल में वह पहरेदारों की तरह बैठा अपनी हरी गमछी से अपना चेहरा ढंके दिनरात सुबकता रहता था. वह सिर्फ दीदी के बच्चों से ही बोलता था.

अपने कालेज के प्रिंसिपल डा. गोस्वामी से जीतेंद्र जा कर माफी मांग आया, ‘‘सर, मेरे मातापिता को मेरी जरूरत है. मेरे दूसरे भाई अपनी पढ़ाई में लगे हुए हैं. वे धनबाद नहीं आ सकते. कुसुम बहन बीमार हैं. मैं बीए की फाइनल परीक्षा में शरीक नहीं हो पाऊंगा और आने वाले 6 महीने की फीस भी नहीं भर पाऊंगा.’’

गांव से हमारी चाची भी धनबाद आ चुकी थीं. 6 महीने तक यह त्रासदी चली. जिस का अंत भी कम भयावह न था. कोलकाता के एक अस्पताल में दीदी की मृत्यु हो गई. उन्हें बचाया नहीं जा सका. अंतिम समय में उन के संग जीजाजी अपने एक दोस्त के साथ थे. धनबाद से सिर्फ जीतेंद्र और पिताजी ही कोलकाता जा पाए. दीदी के ससुराल से कोई भी समय से न आ पाया.

जीतेंद्र का अतीत धनबाद के लिए एक खुली किताब थी. पर उसे किसी भी तरह का सहारा नहीं चाहिए था. उस के पास हमारे मातापिता थे. नरायन सिंह था. मुर्मु था और पासिन जैसी मां थी. इन 6 लोगों में जीतेंद्र के प्राण बसते थे. जीतेंद्र इन के भी चरण छूता था.

पासी की मृत्यु के बाद पासिन को दानापुर छोड़ कर दोबारा जीतेंद्र को  धनबाद आना पड़ा.

जो मुर्मू जीतेंद्र को थामे हमारे घर लाया था वह जाति का मांझी था. जीतेेंद्र के बचपन के बनाए सारे खिलौने उसी के बनाए और तराशे हुए थे. काम के बाद घर जाने से पहले वह रोज ही हमारे घर आ कर जीतेंद्र को लिवा जाता था. जीतेंद्र किसी भी तरह परित्यक्त न था पर वह पूर्णतया स्वीकृत भी नहीं था.

हमारे मातापिता ने भी उसे कई बातों से वंचित कर रखा था. वह हमारे संग गांव नहीं जाता था. उसे पूजा की वेदी पर बैठने नहीं दिया जाता था. उसे न तो गोद में लिया जाता था और न गले लगाया जाता था. मां उस के लिए व्रत नहीं रखती थीं. वह हमारे घर पर अगर नौकर न था तो हमारा 5वां भाई भी नहीं था.

हमारे घर में शुरू के दिनों में उस के बरतन अलग थे. रसोई में भी उस के आने की मनाही थी. वह मिडल स्कूल के बोर्ड की परीक्षा में बिना किसी सिफारिश के अपनी योग्यता के बल पर 88 प्रतिशत अंकों के साथ पास हुआ और दैनिक अखबार में उस का नाम आया. पिताजी की बासी रोटी पर पलता अनाथ लड़का जीतेंद्र सफलता की कोई सीमा ही नहीं जानता था. तब कुछ न कुछ शर्म हमारे मांबाप को भी आई ही होगी. जीतेंद्र पर थोपे प्रतिबंधों में शायद इसलिए कटौतियां की गईं.

बीए करने के बाद न जाने क्यों उस ने एमए नहीं करना चाहा. वह बिहार पब्लिक सर्विस कमीशन की तैयारी में लग गया.

जीतेंद्र अपने पैसे मां के पास ही रखता था और वह भी बचपन के दिनों से. अगर किसी ने उस के हाथ पर 2 पैसे भी रखे तो उन्हें लिए वह मां के सामने जा खड़ा हुआ. मां उस के पैसे अलग अलमारी में रखती थीं. मैं ने उस के बचपन से ले कर आज तक की उम्र में अपनेआप पर या हम पर पाई तक खर्च करते नहीं देखा. वह हम सब की नजरों में एक नंबर का मक्खीचूस था. परंतु कुसुम दीदी के बच्चों पर वह दिल खोल कर खर्च करता था.

जीतेंद्र का चयन मुंसिफ मजिस्ट्रेट पद के लिए हो चुका था. स्टेशन पर जीतेंद्र को छोड़ने मैं भी साथ गया हुआ था. बस से उसे रांची जाना था, जो धनबाद से सुबह 5 बजे चलती थी. एक दिन पहले ही पिताजी उस से उस का सूटकेस आदि ठीक करवा चुके थे. आधी रात को ही नरायन सिंह स्टेशन वैगन ले कर हमारे घर आ चुका था. हमारे मातापिता की आंखों से नींद कोसों दूर थी.

जीतेंद्र पहली बार घर छोड़ कर जा रहा था. पता नहीं अकेले वह कैसे रहेगा, यह उन की सब से बड़ी चिंता थी. जीतेंद्र भी बड़ा असहज था. उस की भी चिंता कुछ पिताजी से मिलतीजुलती ही थी. उस के बगैर हमारे मातापिता कैसे रहेंगे. पहली बार हम सभी को इस बात का एहसास हुआ कि जीतेंद्र कहां तक हमारे मन में समा चुका है.

यद्यपि जीतेंद्र के साथ मेरा व्यक्तिगत संबंध लंबा नहीं रहा था फिर भी पिताजी द्वारा भेजे गए समाचार मुझे नियमित तौर पर मिले. उन के पत्रों के आधार पर मैं यह अवश्य कह सकता हूं कि पिताजी लगातार इस बात का प्रयास करते रहे कि उन के मन में जीतेंद्र और उन के सगे बच्चों के बीच कोई अंतर न रह जाए.

मां को सदैव इस बात का डर लगा रहता था कि जीतेंद्र को कोई उन से छीन न ले. अपने बच्चों से वे प्यार करती थीं और जीतेंद्र पर दया रखती थीं, फिर भी वह उन का प्रिय था. जीतेंद्र उन की दया से ही खुश था. एक परोपकारी के दिए करोड़  रुपए से एक कंजूस की दी गई दमड़ी किसी भी अर्थ में कम नहीं होती है. मां ने उसे नकारा नहीं बस यही उसे आंदोलित कर के रख देता था.

मेरे कहनेसमझाने पर जीतेंद्र उस शाम बनारस में रुक गया. मुंगेर लौटने से पहले और गई रात तक अपनी मां की याद में सिसकसिसक कर रोता रहा. मैं स्वयं अपने जीवन में न जाने कितनी बार कई कारणों से रोया और कइयों को रोते देखा.

उस दिन पिताजी का भेजा पत्र मिला. पत्र में लिखा था कि करौंधी चौक पर एक औरत जीतेंद्र का पता ढूंढ़ती फिर रही थी. कई दुकानदार और गुमटी वालों ने इस बात की पुष्टि भी की थी.

यह पता लगते ही मैं ने मुंगेर न्यायालय में कार्यरत जीतेंद्र को फोन पर सूचना दे दी.

खबर मिलते ही जीतेंद्र अवकाश ले कर वाराणसी जा पहुंचा. कुछ दुकानदारों से पूछने पर उसे पता चला कि आजकल वह औरत दशाश्वमेध घाट की सीढि़यों पर पड़ी रहती है. कोई कुछ दे देता है तो खा लेती है.

दशाश्वमेध घाट पर जब जीतेंद्र पहुंचा तो उसे काफी देर तक ढूंढ़ना पड़ा. आखिर एक तख्त के पीछे उस ने एक महिला को बेसुध पड़े देखा. उस के हाथ में पुरानी प्लास्टिक की थैली थी. थैली को खोलने पर उस में से तह लगा एक अखबार का टुकड़ा उस ने निकाला. उसे खोलने पर उसे अखबार में छपी अपनी ही तसवीर दिखाई दी. देखते ही उस की आंखों में आंसू छलक आए. उस के मन में कोई संदेह न रहा कि यही उस की मां है.

मां को दोनों हाथों में उठाए वह घाट से बाहर निकला और पास के नर्सिंग होम ले गया. 2 घंटे बाद महुआ को होश आ गया. सामने जीतेंद्र को देखते ही उस ने अपना चेहरा हाथों से छिपा लिया. बोली, ‘‘क्यों आए हो मुझ कलंकिनी के पास? मेरी काली छाया तुम्हें भी बदनाम कर देगी.’’ जीतेंद्र मां के पैरों से लिपट गया और रोते हुए बोला, ‘‘मां, तुम ने तो मुझे जन्म दिया था. तुम्हारे बिना मेरा अस्तित्व ही कहां होता.’’

इन दिनों जीतेंद्र अपनी मां के साथ मुंगेर में ही है. पता लगा है कि महुआ अब उस के लिए एक दुलहन की तलाश में है. सच है, जिंदगी में एक के बाद दूसरी तलाश जारी ही रहती है.

Serial Story: जीतन (भाग-1)

मेरे ही कहने पर जीतेंद्र मुझ से मिलने बनारस आया था. 9 साल पहले उस से मेरी मुलाकात बनारस में हुई थी. अब जीतेंद्र मुंसिफ मैजिस्ट्रेट से जज बन चुका था और पटना में तैनात था. खादी का वही कुरतापाजामा, चमड़े की काली चप्पल और गले में अंगोछा. सच पूछो तो मेरी नजर में उस की यह एक पहचान बन चुकी थी. दोपहर को खाने के बाद मैं उसे ले कर छत पर आ गया. बातचीत की शुरुआत धनबाद से हुई. मिसिर मुर्मु और पासिन से मिलने जीतेंद्र अकसर धनबाद जाया करता था. वह नरायण सिंह की तेरहवीं पर भी धनबाद गया था. वह समाज और जीवन में गुजरी कई बातों के खिलाफ था पर वह उन को साधारण ढंग से लेता भी नहीं था. एक जज की हैसियत से अपने फैसले विधि में समाहित अपने विवेक के आधार पर देता था. वहां वह अपने को बिलकुल भूल जाता था. जीतेंद्र निर्भय था और अपने जीवन में सौंदर्य सिर्फ सचाइयों में ढूंढ़ता था. गया और पटना के कई सम्मानित व्यक्ति उस के मित्र भी थे.

अचानक वह कुछ अनमना सा हो चला. चुपचाप उठा और जा कर मुंडेर पर खड़ा हो गया. अब मुझे भी उठना पड़ा. मैं बगल में खड़ा उस के कुछ कहने का इंतजार करने लगा.

मुंडेर पर खड़ा वह अनवरत रोए जा रहा था. बहुत धीरे से उस के मुंह से निकला, ‘मैं उन्हें ढूंढ़ कर मानूंगा.’

मैं चौंका, ‘‘किसे, जीतन?’’

‘‘अपनी मां को.’’

‘‘क्यों? उन का कुछ पता चला है क्या?’’

‘‘भैया, कुसुम दीदी की मौत के बाद मुझे अपने कमरे की खिड़की की चौखट पर एक बंद लिफाफा मिला था. न जाने लिफाफे को वहां कौन रख गया था. मैं उसे साथ लाया हूं. आप पढ़ेंगे उसे? इस पत्र का जिक्र मैं पहली बार सिर्फ आप से कर रहा हूं,’’

जीतेंद्र ने क्षणभर चुप होने के बाद कहा था, ‘‘इस पत्र में आप का भी जिक्र है. बड़ी सतर्कता से मैं ने थोड़ी पूछताछ रानीबांध में की. कोई चटर्जी परिवार कभी वहां रहता तो था पर अब वह कहां है, किसी को पता नहीं है. धनबाद से ले कर आसनसोल तक, कोलकाता से ले कर मालदहा तक… कहांकहां उन्हें नहीं ढूंढ़ा. अपना नाम दे कर मैं ने. अखबारों में इश्तहार छपवाने से डरता हूं. पता नहीं, आज भी वे मुझे स्वीकार कर पाएंगे या नहीं. मैं उन की बदनामी नहीं चाहता हूं. मैं उन्हें सिर्फ एक बार दूर से देखना चाहता हूं.’’

मैं ने पत्र को बड़ी सावधानी से खोला. लगभग पीले हो गए कागज पर स्याही की लिखावट भी काफी धुंधली हो चली थी. मैं फिर भी इसे पढ़ सकता था. लिखा था:

प्रिय जीतेंद्र, तुम्हें मेरा आशीर्वाद. देखते ही देखते तुम 22 साल के एक सुंदर और मोहक नौजवान बन गए. तुम्हें तुम्हारी अपनी एक मां ने त्याग दिया पर तुम्हें 2 माताएं मिलीं, जिन्हें तुम मान देते हो. तुम्हारे जीवन में अब एक तीसरी मां का कोई स्थान नहीं है. मेरा नाम महुआ है. हम 3 बहनें हैं. मेरी सब से छोटी बहन शिखा कुसुम की सहेली रही है. प्रमोद हम सभी को जानता है. वही हमारे घर पर प्राय: आया करता था.

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तुम जाति के ब्राह्मण हो. तुम्हें मैं ने एक बहुत बड़े विद्वान से अपनी बेहद कम उम्र में पाया था. इसलिए मुझे तुम्हारा तिरस्कार करना पड़ गया था.

जिस बच्चे को मैं सांप और बिच्छुओं के हवाले कर आई थी आज वह सूर्य की तरह अपनी किरणें बिखेर रहा है…उस की जाति उस का पौरुष है. उस का मुकुट उस का स्वाभिमान है…जब तक मैं जीवित हूं, तुम्हें दूर से निहारती रहूंगी.

तुम्हारी महुआ.’

इस पत्र को मैं ने कई बार पढ़ा. न चाहते हुए भी मेरी आंखें बहने लगीं.

यह सत्य था कि रानीबांध से ठीक पहले रास्ते के बाईं ओर एक पक्के मकान में कभी शिखा दीदी रहती थीं. उन से बड़ी 2 बहनें भी थीं. मुझे कुसुम दीदी जबतब यहां भेजा करती थीं. इस परिवार के घर में अलग से एक मंदिर भी था. मैं ने अपने दिमाग पर जोर डाला तो शिखा दीदी का चेहरा मुझे हलकाफुलका याद आया और किसी का नहीं. पर ये तीनों बहनें सांवले रंग की थीं. हां, शिखा दीदी की सब से बड़ी बहन हमेशा मेरी दाईं बांह पर चलने से पहले मनौती का एक लाल धागा बांध देती थीं जिसे मैं रास्ते में तोड़ कर फेंक देता था.

‘‘भैया, कैसी थीं मेरी मां.’’

‘‘बहुत कोशिश की, जीतन. अब कुछ भी याद नहीं आ रहा. पर तुम्हारी मां तुम्हारी ही तरह सांवली थीं और बेहद ममतामयी थीं. बस, इतना ही मुझे याद है.’’

गले से लग कर जीतेंद्र ऊंची आवाज में रोने लगा. उस की याद में सिर्फ उस की मां थीं.

मैं जब अपने जीवन में उठापटक से घिरा पड़ा था तब जीतेंद्र अपनी सफलताओं के शिखर पर खड़ा था. इस का मुझे कोई खास दुख भी नहीं था. हमारे पिताजी की दी गई सरपरस्ती में एक पासी परिवार में पला बच्चा रांची यूनिवर्सिटी के बी.ए. फाइनल में मैरिट लिस्ट में आया था. जीतेंद्र को हमारे परिवार में हमारा दर्जा तो नहीं मिला पर भूख और गरीबी का कहर उसे नहीं झेलना पड़ा. 6 फुट 3 इंच का कद, कसरती बदन, घने बाल, भारी दाढ़ी, सांवला रंग लिए धनबाद की सड़कों पर जब वह निकलता था तब एकबारगी सब की नजरें उस पर उठ जाती थीं.

पिताजी के अलावा हमारी अहमियत उस के जीवन में कितनी थी, यह मैं नहीं जानता हूं पर हमारे पिताजी उस के लिए किसी वरदान से कम न थे. जिस परिवार में वह पला और बड़ा हुआ. उस में भी 5 बच्चे थे. यह एक पासी परिवार था पर ताड़ी से अपनी जीविका नहीं चलाता था.

जीतेंद्र के पालक पिता इंडियन स्कूल औफ माइंस के ओल्ड हौस्टल में एक चौकीदार थे और उन की पत्नी हमारे घर बरतन मांजने का काम करती थी. यह परिवार हमारे अहाते में बने एक कमरे में रहता था. आसपास की जमीन को इस परिवार ने ताड़ के सूखे पत्तों से घेर रखा था. परिवार में भारी तंगी थी जिस का दोष घर के मालिक पासी पर मढ़ा जाता था, जिसे शराब पीने की बुरी लत थी. आएदिन ओल्ड हौस्टल के लड़के उस की शिकायत पिताजी से करने आते थे क्योंकि वह छोटीमोटी चोरियां भी करता था. कई बार वह पकड़ा और पीटा भी जा चुका था पर पिताजी की वजह से किसी तरह उस की नौकरी बहाल थी.

जीतेंद्र को धनबाद में हमारी सरकारी कोठी के समीप के जंगलों में पाया गया था. मैं तब 4 वर्ष का था. वह शाम मुझे आज भी अच्छी तरह याद है. हम भाईबहन को चौकीदार राम सजीवन कोई कहानी सुना रहा था. अचानक हमारे कानों में किसी बच्चे के रोने की आवाज आई. बच्चा चुप होने का नाम ही न ले रहा था. राम सजीवन का कहानी में मन नहीं लगा तो उस ने अपनी लाठी और टौर्च संभाली और सामने की सड़क पर आ गया.

सड़क पर पहले से दोचार लोग जमा हो चुके थे. राम सजीवन टौर्च की रोशनी जंगल के अलगअलग हिस्सों पर डाले जा रहा था पर जंगल में जाने की हिम्मत किसी में न थी. इस जंगल में न जाने कौनकौन से जंगली जानवर बसते थे. अंगरेजों के जमाने में इस जंगल में उन की एक जेल होती थी जिस में सिर्फ फांसी पाने वाले कैदी रखे जाते थे. उन्हें इसी जेल में फांसी भी दी जाती थी.

अचानक हमें पिताजी और मां आते दिखे. देखते ही देखते पिताजी को 8-10 लोगों ने घेर लिया. मां को वापस भेज कर पिताजी एक बड़ी सी टौर्च संभाले जंगल की तरफ बढ़े. तब तक राम सजीवन भाग कर पिताजी के पास पहुंच चुका था. हमें अब टौर्चों की रोशनियां ही नजर आ रही थीं. जंगल में एक नवजात शिशु पाए जाने की संभावना के बारे में किसी को कोई शंका नहीं थी. मगर वह बच्चा किस अवस्था में मिलेगा इस पर लोगों की जिज्ञासा बढ़ती ही जा रही थी. कई तो सड़क छोड़ कर जंगल के समीप तक जा पहुंचे थे. पासिन भी अपने बच्चों के साथ घर के फाटक पर आ गई थी. तभी हमें जंगल से पिताजी के नेतृत्व में गए लोग बाहर आते दिखे. इन मेें सब से पहले हम ने मुर्मु को पहचाना. अपने हाथों में वह बड़ी सावधानी से कुछ संभाले लगभग भागता हमारे घर की तरफ बढ़ा आ रहा था. ठीक उस के पीछे पिताजी और उन के पीछे दूसरे लोग.

मुर्मु के हाथों में बच्चा आंखें बंद किए अचेत लेटा था जिस का सिर्फ हृदय धड़क रहा था. अपनी मां के अलावा इस बच्चे के जीवन में मुर्मु संभवतया पहला मानवीय स्पर्श था.

उस बच्चे के जीवन में तीसरा  मानवीय स्पर्श एक मां का स्तन  था. झटपट पासिन ने अपने 2 सप्ताह के बच्चे को अपनी 7 साल की बेटी के हवाले कर के इस बच्चे को अपना स्तन दिया. उस का अचेत शरीर अब भी बेजान सा था. बच्चे के मातापिता का कोई पता न लग पाया और पता भी कैसे लग पाता. उन्हें ढूंढ़ने का आखिर प्रयास भी किस ने किया. धइया पुलिस चौकी का हवलदार रामनुपूर पांडे बच्चे के मातापिता को ढूंढ़ने के मनगढं़त प्रयासों के नाम पर हमारे घर की चाय वर्षों तक पीता रहा.

पिताजी इस बच्चे को जीतन कह कर बुलाते थे. वैसे उस का पूरा नाम जीतेंद्र था. जीतेंद्र को पासिन जब तक अपना दूध देती रही उस का जीवन सुखमय था लेकिन दूध सूखते ही उस के जीवन में माड़ और भात की एक कभी न खत्म होने वाली बरसात आई. पासी को हर महीने पिताजी 50 रुपए मां की आंख बचा कर दिया करते थे जिन्हें वह शराब के ठेके पर लुटा दिया करता था. मां भी पासिन के उस बच्चे को बचे खाने या फिर हमारे उतरन कपड़े भिजवाती थीं. पर जीतेंद्र को बस वही मिल पाता था जो उस के भाईबहनों के किसी काम का नहीं होता था.

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जीतेंद्र जब 3 वर्ष का हुआ तब अचानक उसे पीलिया ने धर दबोचा. उस की दवा में पिताजी ने कोई कोरकसर नहीं रखी. उसे बचा तो लिया गया पर अब वह एक सुंदर सांवला, सलोना बच्चा न था.

जब पिताजी से ओल्ड हौस्टल की आनरेरी वार्डनशिप ले ली गई तब पासी की नौकरी खतरे में आ गई. स्कूल औफ माइंस के दूसरे निदेशक डा. मरवाहा डा. दीना प्रसाद की तरह दीनों के नाथ न थे. पासी को बस, उन्होंने जेल में नहीं डलवाया. उसे मुअत्तल कर के फौरन सपरिवार हौस्टल छोड़ने को कह दिया. जीतेंद्र को वह अपने साथ नहीं ले गया. हमारे ही घर छोड़ गया.

हमारे घर पर जितने भी सरकारी नौकर काम करते थे उन में से सिर्फ मिश्र ही था जिस पर जीतेंद्र के पालनपोषण का बोझ डाला जा सकता था. उस की अपनी भी एक 7 साल की बेटी थी. पर वह अपने मातापिता के साथ ही रहती थी. हमारे घर के दूसरे नौकर जीतेंद्र को अछूत, किसी के पाप की निशानी समझते थे. इस निरक्षर मिश्र का कहना था कि हम अपनी गलतियां अपने बच्चों पर नहीं थोप सकते. यह एक घोर अपराध है.

सुबह 7 बजे से ले कर शाम के 4 बजे तक मिश्र के जिम्मे सिर्फ एक काम होता था, जीतेंद्र की देखभाल करना. जीतेंद्र को चलना भी मिश्र ने ही सिखाया. दिनप्रतिदिन जीतेंद्र का स्वास्थ्य बेहतर होता जा रहा था. पीलिया का अवशेष अब जीतेंद्र में नहीं देखा जा सकता था. जीतेंद्र के लिए खाना लेने मिश्र ही रसोई में आता था. जिस कमरे में पासी परिवार रहता था वह कमरा अब जीतेंद्र का था. हमसब की तरह  उस के पास भी एक चारपाई, एक मेज, एक कुरसी थी. उस के दरवाजे और खिड़की पर भी परदे लटकते थे. इन्हें मां ने ही सिल रखा था.

जीतेंद्र की बहुत सारी बातें मां को भाने लगी थीं.

– क्रमश:

सुविधाओं से भरपूर है नई हुंडई वरना

Hyundai verna के बारे में आप जितना जानेंगे कम ही लगेगा क्योंकि इसकी खासियत ही इतनी है कि एक बार में बताया नहीं जा सकता. नई हुंडई वरना के टर्बो वेरिएंट्स में सबकुछ आपको काले और लाल रंग के डिजाइन में मिलेगी जो कार को स्पोर्टी लुक देती है.

इसके अलावा स्मार्ट टंक्र की सुविधा भी है जिससे जब आपके हाथ में सामान हो तो भी अपनी जेब में चाबी रखे होने भर से खुल जाती है. तो क्यों है ना वरना यूनिक और सुविधाजनक. इसलिए तो वरना #BetterThanTheRest है.

‘अंगूरी भाभी’ के बाद ‘अनीता भाभी’ ने भी छोड़ा ‘भाभी जी घर पर हैं’! प़ढ़ें खबर

कोरोना वायरस के बढ़ते कहर का असर टीवी शोज पर भी देखने को मिल रहा है. बीते दिनों कई स्टार्स ने कोरोना के खौफ के चलते सीरियल्स की शूटिंग का हिस्सा ना बनने का फैसला ले लिया है. वहीं कुछ सितारों ने सालों पुराने शो को अलविदाकहने का फैसला ले लिया है. दरअसल, एंड टीवी का सुपरहिट शो ‘भाभी जी घर पर हैं’ की अनीता भाभी यानी सौम्या टंडन  ने शो को छोड़ने का फैसला कर लिया है, जिसके कारण इन दिनों वह लगातार सुर्खियों में बनी हुई हैं. आइए आपको बताते हैं क्या है पूरा मामला…

ये एक्ट्रेस कर  सकती हैं रिप्लेस

 

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A concrete version of paradise…. #mumbai . . . #mumbaikar #love #citylife #concretejungle #home #instapic #instalove

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खबरों की माने तो सौम्या टंडन इस हफ्ते सीरियल ‘भाभी जी घर पर हैं’ की शूटिंग खत्म कर लेंगी. जिसके बाद सीरियल ‘भाभी जी घर पर हैं’ में सौम्या टंडन का सफर खत्म हो जाएगा. वहीं माना जा रहा है कि बिग बॉस 13 स्टार शेफाली जरीवाला, सौम्या टंडन को रिप्लेस करने वाली हैं.

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5 साल से शो का हैं हिस्सा

सौम्या टंडन बीते 5 साल से सीरियल ‘भाभी जी घर पर हैं’ का हिस्सा रही हैं. सीरियल ‘भाभी जी घर पर हैं’ ने सौम्या टंडन को अनीता भाभी के रुप में घर घर में पहचान दिलाई है. वहीं कुछ समय पहले एक इंटरव्यू में ‘भाभी जी घर पर हैं’ स्टार सौम्या टंडन ने चिंता जाहिर की थी कि वह ऐसे माहौल में शूटिंग कैसे करेंगीं. जिसके बाद खबरें आने लगी थीं कि सौम्या टंडन सीरियल ‘भाभी जी घर पर हैं’ को छोड़ने जा रही हैं. वहीं उनकी जगह बिग बौस फेम शेफाली जरीवाला शो का हिस्सा बनने की  खबरें भी सुर्खियों में थीं.हालांकि शेफाली ने इस खबर को अफवाह बताया था.

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बता दे, इससे पहले शिल्पा शिंदे भी अचानक सीरियल ‘भाभी जी घर पर हैं’ को छोड़ने का फैसला लिया था, जिसके बाद शुभांगी आत्रे ने इस शो में एंट्री मारकर फैंस के दिल में अपनी जगह बनाई थी. हालांकि फैंस अभी भी शिल्पा शिंदे को अंगूरी भाभी के रोल में मिस करते हैं.

करीना के सौतेले बच्चों और तैमूर में है ये चीज कॉमन, खुद किया खुलासा

बीते दिनों बौलीवुड एक्ट्रेस करीना कपूर की दूसरी प्रैग्नेंसी की खबर से वह सुर्खियों में छाई हुई हैं. वहीं  इसी बीच करीना ने एक मैग्जीन के लिए इंटरव्यू भी करवाया है. साथ ही एक इंटरव्यू में अपनी पर्सनल और प्रौफेशनल लाइफ से जुड़े कुछ सवालों के जवाब भी दिए हैं, जिनमें तैमूर और उनके सौतेले बच्चों के बीच के रिश्ते को लेकर भी खुलासे किए हैं.आइए आपको बताते हैं क्या कहती हैं करीना…

सारा और इब्राहिम से है अच्छी बौंडिंग

करीना कपूर ने मैगजीन को दिए इंटरव्यू में अपने बेटे तैमूर अली खान और सौतेले बच्चे सारा और इब्राहिम अली खान को लेकर कुछ खास खुलासे किए. करीना ने कहा कि सैफ अली खान अपने तीनों बच्चों से बहुत प्यार करते हैं. वहीं, करीना की भी सौतेले बच्चों सारा और इब्राहिम के साथ अच्छी बॉन्डिंग है.

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सारा की तरह दिखता है तैमूर

करीना ने इंटरव्यू के दौरान सारा, तैमूर और इब्राहिम को लेकर बातें की. उन्होंने कहा कि सारा के बचपन की फोटोज बिल्कुल तैमूर जैसी हैं. करीना से जब तीनों बच्चों के बीच एक कॉमन चीज के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा- तीनों की पटौदी आंखें हैं. करीना ने कहा कि सैफ ने उन्हें बताया कि इब्राहिम बचपन में बहुत शांत बच्चा था.

सैफ के बर्थडे पर शेयर की  थी वीडियो

 

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Happy birthday to the sparkle of my life ❤️

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हाल ही में सैफ ने अपना 50वां बर्थडे सेलिब्रेट किया था. वहीं इस मौके पर करीना ने स्पेशल वीडियो शेयर करते  हुए सैफ के 50 साल के हर फेज को दिखाया था.

 

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He’ll always have your back Tim… ❤️🤗 #HappyFathersDay

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बता दें, हाल ही करीना में फिल्म ‘गुड न्यूज’ में अक्षय कुमार के साथ नजर आई थीं. वहीं अपकमिंग फिल्म की बात करें तो वह आमिर खान की फिल्म ‘लाल सिंह चड्ढा’ में नजर आने वाली हैं, जिसकी शूटिंग आमिर खान ने शुरू कर दी है. हालांकि यह फिल्म साल 2021 में क्रिसमस के मौके पर रिलीज होगी.

आज मुंबई में होगा पंडित जसराज का अंतिम संस्कार, पढ़ें खबर

मेवाती घराने के मशहूर शास्त्रीय संगीत गायक पंडित जसराज का सोमवार, 17 अगस्त को अमेरिका के न्यूजर्सी शहर के उनके अपने घर में हार्ट अटैक से देहांत हो गया था . बुधवार को न्यूजर्सी से उनका पार्थिव शरीर मुंबई लाया गया .मुंबई एयरपोर्ट पर उनके पार्थिव शरीर  को उनकी पत्नी मधुरा जब, बेटे शारंगदेव, बेटी  दुर्गा जसराज वह उनके पोतों ने स्वीकार किया. उसके बाद उनके पार्थिव शरीर को मुंबई के वर्सोवा इलाके में स्थित उनके घर पर  ले जाया गया.

आज यानी 20 अगस्त, गुरुवार को उनका अंतिम संस्कार पूरे राजकीय सम्मान के साथ मुंबई के विले पार्ले शमशान गृह में संपन्न होगा. उससे पहले सुबह 10:00 बजे से उनके पार्थिव शरीर को उनके मकान की इमारत में आम लोगों  और उनके प्रशंसकों के दर्शन  करने के लिए रखा जाएगा.पंडित जसराज के प्रशंसक उनका अंतिम दर्शन आज दोपहर 3 बजे तक कर सकेंगे .उसके बाद उनके पार्थिव शरीर को विलेपार्ले के शमशान गृह ले जाया जाएगा.

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हरियाणा में 28 जून 1930 को जन्मेपंडित जसराज पद्माश्री, पद्मभूषण और पद्मविभूषण सहित तमाम पुरस्कारों/ उपाधियों से नवाजे जा चुके थे.उन्होंने शास्त्रीय और सेमी क्लासिक गायन के क्षेत्र में जो मुकाम बनाया था, वह  बिरले गायकों के हिस्से आया है .पंडित जसराज ने भारत के अलावा कनाडा और अमेरिका में भी लोगों को संगीत की शिक्षा दी.पंडित जसराज ने सप्त ऋषि चक्रवर्ती, संजीव अभय शंकर, कलारामनाथ, तृप्ति मुखर्जी, सुमन घोष, शशांक सुब्रमण्यम, अनुराधा पोडवाल, साधना सरगम और रमेश नारायण को भी संगीत की शिक्षा दीपंडित जसराज ने ‘भारतीय शास्त्रीय संगीत’ के मुंबई के अलावा केरल, न्यूजर्सी, अटलांटा, टाम्पा,  वान कुबेर,  टोरंटो, पित्तस वर्ग  में स्कूल खोलें. 90 वर्ष की उम्र में भी वह कुछ अंतरराष्ट्रीय विद्यार्थियों को ‘स्काइप’ के माध्यम से संगीत की शिक्षा दे रहे थे.

पंडित जसराज के पिता पंडित मोतीराम ने ही उन्हें संगीत की तरफ मुड़ने के लिए उकसाया था. फिर उन्होंने अपने बड़े भाई प्रताप नारायण और मणीराम के साथ स्टेज पर कंसर्ट करते हुए कैरियर शुरू किया था. पंडित जसराज के पिता हैदराबाद नवाब मीर उस्मान अली खान (हैदराबाद के निजाम) के यहां दरबारी म्यूजीशियन थे.फिर यह परिवार अहमदाबाद आ गया था.

पर 1946 में पंडित जसराज ने कोलकाता में रेडियो पर गाना शुरू किया था. कोलकाता में रहते हुए उन्होंने उस्ताद अमीर खान, उस्ताद बड़े गुलाम अली खान और पंडित ओमकार नाथ ठाकुर की गायकी को भी सुना.

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1962 में पंडित जसराज ने मशहूर फिल्मकार व्ही शांताराम की बेटी मधुरा शांताराम से विवाह रचाया था. 1963 से उन्होंने मुंबई में रहना शुरू किया.उनके बेटे शारंगदेव पंडित तथा बेटी दुर्गा जसराज हैं. मधुरा जसराज  ने 2009 में एक फिल्म “संगीत मार्तंड पंडित जसराज” का निर्माण किया था. मधुरा जसराज ने 2010 में मराठी भाषा की फिल्म “आई तुझ्या आशीर्वाद” का निर्देशन किया था, जिसमें लता मंगेशकर के साथ पंडित जसराज ने मराठी भाषा का गीत गाया था. इससे पहले पंडित जसराज ने फिल्म “लड़की सह्याद्रि थी” में भीमसेन जोशी के साथ डुएट गया था. उन्होंने विक्रम भट्ट की फिल्म ‘1920’ सहित कुछ अन्य फिल्मों के लिए भी गाया.

बचपन से‌ ही था एक्टिंग का कीड़ा- आयुष आनंद

5 साल पहले अपना सपना और अपने पापा की अंतिम इच्छा पूरी करने मुंबई आये आयुष आनंद ने बहुत से टीवी सीरियल्स में अहम् भूमिकाएं निभाईं. उन्हें पहला ब्रेक ‘क़ुबूल है’ सीरियल में जूनियर आर्टिस्ट के रूप में मिला. जिस के बाद उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. फिलहाल वे जी टीवी के शो ‘तुझ से है राब्ता’ में एक खास किरदार में नजर आ रहे हैं. पेश है उन से की गई बातचीत के मुख्य अंश;

सवाल- कोरोना काल में आप लोग सेट पर किन सावधानियों के साथ काम कर रहे हैं?

सेट पर काफी सावधानियां रखी जाती हैं. अंदर कदम रखने से पहले ही बुखार और ऑक्सीजन लेवल चेक होता है और फिर शाम को निकलते वक्त भी ये दोनों चीजें चेक होती हैं. मेकअप रूम को हर सुबह अच्छी तरह सैनिटाइज किया जाता है. मेकअप टीम और ड्रैस टीम पीपीई किट पहन कर रहती है.

सवाल- आप को एक्टर बनने का ख्याल कैसे आया और इस मुकाम तक पहुंचने के क्रम में किस तरह के संघर्षों का सामना करना पड़ा?

मैं 5 साल पहले दिल्ली से मुंबई आया था. दिल्ली में करोल बाग में हमारा घर है. मेरी मम्मी हाउसवाइफ है. एक छोटा भाई है जो दिल्ली में ही काम कर रहा है. मेरे पापा का नटराज नाम का एक सिनेमा हॉल था. सो बचपन से ही सिनेमा देख कर ही मैं बड़ा हुआ हूं. एक्टिंग का कीड़ा भी मुझे वहीं से लगा.

मैं बचपन से ही एक्टर बनने का सपना देखता था. साढ़े तीन साल कॉलेज करने के बाद मैं ने थिएटर किया. इस के बाद कॉल सेंटर में भी काम किया. तब एक दिन पापा ने कहा कि बेटा तू कॉल सेंटर में काम क्यों कर रहा है? तुझे तो एक्टर बनने का शौक है न तो उस सपने को भी पूरा कर.

 

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मैं ने सोचा नहीं था कि पापा के साथ यह मेरी अंतिम बातचीत होगी. उस रात ही मेरे कॉल सेंटर जाने के बाद पापा नींद में ही चल बसे. मैं ने तब सोचा कि पापा ने अंतिम बात जो मुझे कही थी वह यही थी कि अपने एक्टर बनने के सपने को पूरा करो. बस यही सोच कर मैं ने फैसला लिया और मुंबई चला आया जहां मैं अपने एक्टिंग के सपने को पूरा करना चाहता था. मैं ने सोचा था कि एक महीने के अंदर मुझे कोई न कोई काम तो मिल ही जाएगा. पर ऐसा हुआ नहीं. तब मुझे अहसास हुआ कि यहां तो बहुत धैर्य रखने की जरूरत है.

6 महीने तक मुझे वहां काम नहीं मिला. इस के बाद मुझे पहला रोल सीरियल ‘कुबूल है’ में मिला. इस में मैं ने जूनियर आर्टिस्ट की भूमिका निभाई. इस सीरियल के बाद मुझे ‘जोधा अकबर’ में रहीम खानेखाना बनाया गया. फिर बालिका वधू के सीजन 2 में प्रेमल का रोल निभाने का मौका मिला.

इस के बाद सब से बड़ा रोल और पहचान मुझे ‘इश्कबाज’ सीरियल से मिली. इस में मुझे बहुत ही अच्छी तरह से एक हीरो की तरह प्रेजेंट किया गया. इस के 10 महीने बाद मुझे स्टार प्लस पर एक और रोल मिला और फिर मुझे पहला लीड रोल ‘परफेक्ट पति’ सीरियल में मिला जो एंड टीवी पर आता था. इस में मुझे जयाप्रदा जी के बेटे का टाइटल रोल मिला. मैं ने इसे बहुत अच्छी तरह निभाया. इस में काम करना मेरा बहुत अच्छा अनुभव था. इस के बाद मुझे कलर्स पर विश शो मिला और अब जी टीवी पर ‘तुझ से है राब्ता’ में काम कर रहा हूं.

सवाल- आप का ड्रीम रोल क्या है?

एक कमर्शियल फिल्म में लीड हीरो की तरह आना जो सब कुछ करे यानी नाचेगाए, मारेपीटे, रोमांस करे. जैसे शाहरुख खान की डीडीएलजी या कोयला या फिर सुपरहीरो कृष जैसा कोई रोल करना चाहता हूं.

सवाल- निगेटिव रोल निभाते समय सब से महत्वपूर्ण बात जो आप को महसूस होती है?

मुझे ऐसा लगता है कि कोई भी चीज या कोई भी व्यक्ति निगेटिव या पॉजिटिव नहीं होती. हर इंसान ग्रे होता है यानी उस में कुछ खामियां भी होती हैं और कुछ खूबियां भी. जब इंसान निगेटिव कैरेक्टर प्ले कर रहा होता है तो वह यह नहीं सोच सकता कि वह निगेटिव कर रहा है. अपने दिमाग में यही सोचता है कि वह सही है. इसलिए मैं जब निगेटिव रोल अदा करता हूं तो मैं उस को पूरी ईमानदारी से करता हूं. यह सोच कर करता हूं कि मैं जो कह रहा हूं सही कर रहा हूं. अपने ऊपर और अपने काम के ऊपर पक्का विश्वास रखना बहुत जरूरी है.

सवाल- आप का अब तक का सब से पसंदीदा किरदार कौन सा है?

जो भी किरदार मैं वर्तमान में निभा रहा होता हूं वही मेरा सब से पसंदीदा कैरेक्टर होता है. जैसे अभी तुझ से है राब्ता में त्रिलोक मराठे का कैरेक्टर मेरा पसंदीदा है.

सवाल- क्या इस कोरोना काल में आप को जिंदगी से जुड़ी कोई सीख मिली?

कोरोना काल में लोगों की बहुत तबीयत खराब हुई, मौत हुई, हादसे हुए ये सब बहुत दुखद था. मुझे यह सब बहुत बुरा लगा. पर मैं यह कहूंगा कि इस काल में बहुत कुछ पॉजिटिव भी हुआ है. अपनी बात करूं तो मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला है. लॉकडाउन के समय मैं मुंबई में था और बिल्कुल अकेला हो गया था. काम वाली भी नहीं आ रही थी. उस वक्त मैं ने सब्जी काटना, कपड़े धोना जैसे कई काम सीखे जो मुझे नहीं आते थे. दूसरी बात जो मैं ने सीखी है वो यह कि सिंपलीसिटी ही जिंदगी में सब से अच्छी होती है. अब लोगों का सिंपल लिविंग पर विश्वास आ गया है.

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सवाल- तुझ से है राब्ता में अपने कैरेक्टर के बारे में कुछ बताइए?

ज़ी टीवी पर आने वाले शो ‘तुझ से है राब्ता’ में मैं त्रिलोक मराठे का रोल अदा कर रहा हूं जो एक ग्रे कैरेक्टर है यानी इस कैरेक्टर के कई शेड्स हैं. यह एक लविंग फादर भी है, लविंग पति भी है मगर उस के अतीत में उस की पत्नी के साथ ऐसा कुछ हुआ है कि वह कल्याणी और मल्हार से बदला लेना चाहता है. वह बदला लेने में कामयाब होता है या नहीं और किस तरह की घटनाएं होती हैं यह सब इस कैरेक्टर में आप को नजर आएगा.

सवाल- वह घटना जिस ने आप को भावविभोर कर दिया हो या आप के सोचने का तरीका बदल दिया हो?

वह घटना है मेरे पापा का अचानक चले जाना. मेरे पापा सोते हुए ही चले गए. उन का हार्ट फेल हो गया था और यह घटना मेरे लिए लाइफ चेंजिंग रही. मेरी सोच, मेरे जीने का तरीका सब कुछ बदल गया.

सवाल- आप अपनी प्रेरणा किसे मानते हैं ?

सच कहूं तो मैं किसी से भी बहुत जल्दी इंस्पॉयर हो जाता हूं. जब मैं किसी को बहुत मेहनत से काम करते हुए देखता हूं तो उस से इंस्पॉयर होता हूं. उदाहरण के लिए आज मैं घर पर हूं और मेरी बिल्डिंग के सामने टावर बन रहा है. यहां मजदूर लगे हुए हैं जो लगातार काम कर रहे हैं. बारिश हो रही है फिर भी उन की मेहनत में कोई कमी नहीं है. उन को देख कर मुझे बहुत प्रेरणा मिलती है. मैं ऐसा बंदा हूं जो हर रोज किसी न किसी से इंस्पिरेशन लेता है. छोटीछोटी बातो में इंस्पिरेशन ढूंढता है.

यदि आप मेरीजिंदगी में पूछेंगी तो मैं कहूंगा कि मेरे पिता ही मेरी प्रेरणा हैं. उन्होंने जिंदगी में कभी झूठ नहीं बोला. वे हमेशा सच का साथ देते थे चाहे सामने वाले को अच्छा लगे या बुरा. मैं हमेशा कोशिश करता हूं कि जिंदगी में पूरा ईमानदार रहूं. बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जो सामने वाले का सोचे बिना सच बोलते हैं और ऐसे लोग दिल के बहुत साफ होते हैं. मैं यह भी मानता हूं कि एक एक्टर के रूप में आप को ईमानदार रहना बहुत जरूरी है.

सवाल- आप पाठकों को क्या कहना चाहते हैं?

मैं मानता हूं कि जिंदगी बहुत अनप्रिडिक्टेबल है. कल का कोई भरोसा नहीं है. जो आप के अपने हैं जैसे आप के मम्मीपापा, भाईबहन, एक ये ही इकलौते रिश्ते हैं जो बिना किसी कारण आप को प्यार करते हैं. इन का प्यार कभी नहीं बदलता. आप इन्हें जितना प्यार दिखा पाएं, एक्सप्रैस कर सकें उतना कीजिए. जितना समय आप उन के साथ बिता सकें उतना बिताइए. क्योंकि फिर यह समय लौट कर नहीं आएगा और उन के जैसा प्यार आप को कोई नहीं कर पाएगा. बाकी किसी के भी प्यार करने का कोई न कोई कारण होता है पर इन का प्यार ही सच्चा है. इन का दिल कभी भी न दुखाएं.

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