एक नजर खुद पर डाल कर तो देखें

ललिता पार्टी आदि में जाने के लिए पूरे उत्साह से तैयार होती है. कई दिनों पहले से उस की शौपिंग शुरू हो जाती है. मगर पार्टी से लौटने पर उस का कई दिनों तक मूड औफ रहता है. कारण किसी दूसरी महिला का उस से ज्यादा सजासंवरा होना. तब वह कभी अपने पति नीलेश को कम पैसे देने के लिए उलाहने देती है, तो कभी किसी और को दोष देती है. उस के इस रवैए से उस का पति नीलेश क्या पूरा घर परेशान होता है.

किसी को अपने से बेहतर सजासंवरा देख हीनभावना या जलन से ग्रस्त हो उस की तारीफ करनी तो दूर वह उस से कुछ सीखना भी नहीं चाहती.

जिस के पास जो गुण है, हुनर है उसे सीखने की कोशिश करने में कोई शर्म या संकोच नहीं करना चाहिए. यदि मन में हीनभाव आते दिखें, तो ऐसे में अपने भीतर की उमंग, उत्साह को कम न होने दें. मन में उदासी को बिलकुल जगह न दें, क्योंकि आप के पास भी बहुत कुछ अच्छा है. बस जरूरत है खुद पर नजर डालने की.

आप में आत्मविश्वास है

आप ने अपनेआप को पार्टी के लिए तैयार किया है तो अपनी बुद्धि से सही ही किया है. फिर उदासी किस बात की? अपना अपना अंदाज है अपना प्रस्तुतिकरण है. किसी से तुलना कैसी? अपने व्यक्तित्व पर जो जंचता है उसी के अनुरूप तैयारी की है आप ने.

आप के पास कौमनसैंस है

आप अवसर के अनुसार तैयार हैं. मौका, माहौल सब देख कर तैयार हुई हैं, क्योंकि कौमनसैंस है आप में. अवसर के अनुसार कपड़े, कपड़ों के अनुसार जेवर, मेकअप, घड़ी, सैंडल, नीचे से ऊपर तक आप एक लय में तैयार हुई हैं. इस बात से खुश हों.

आप ने तैयारी में ज्यादा समय, पैसा बरबाद नहीं किया

आप को खुश होना चाहिए कि आप ने वक्त और पैसे दोनों की फिजूलखर्ची से खुद को बचा लिया. खुशनुमा चेहरे की कीमती अंदरूनी मुसकान बनाए रखें. यकीन मानिए उस से बड़ी सजावट और कोई नहीं. उस की चमक के आगे सब फीका है.

आप के होस्ट और अन्य गैस्ट से मधुर संबंध

इस बात पर गौर करें कि आप जिन के यहां खुशी में शामिल होने आई हैं, उन से आप के कितने अच्छे संबंध हैं. वे सिर्फ आप के हैं. खुश रह कर उत्साहपूर्वक उन की खुशी में शामिल होना ही आप का प्रथम कर्तव्य है. ऐसे विचार मन में लाते ही हीनभावना अगर होती भी हो तो वह झट से जाती रहेगी.

बेहतर की तारीफ करें उस से कुछ सीखें

दिल से प्रशंसा तथा नजरों से टिप्स लेने का प्रयास दोनों आप के बेहतर बनने में उपयोगी सिद्ध होंगे. अवसर मिले तो एक बार बोल कर भी तारीफ करें. दूसरों से ज्ञान लेने से गुरेज न करें. गुण सीखने से कोई छोटा नहीं होता अपितु बड़ा ही होगा.

आप में कई खूबियां है

किसी ने आप की आंखों को, बालों को, चेहरे को, चाल को, प्रतिभा को, हुनर को, दिमाग को, संस्कारों को, भाषा को या अंदाज को यों ही नहीं सराहा होगा. इस सराहना को याद रखें. खुद पर विश्वास रखें.

यह मान कर चलें कि सब का अपना आकर्षण है. मुसकराते हुए सलमान खान की फिल्म ‘सुलतान’ का यह गाना अपने पर बिलकुल फिट जानें ‘जग घूमया थारे जैसा न कोई…’

देखिए अभी खिली खिली मुसकान आप के चेहरे पर आ गई, जो सब पर भारी है.

कंगना भी बनाएंगी फिल्म

एक तरफ कंगना रानौत निरंतर विवादों से घिरी हुई हैं, तो दूसरी तरफ वह अब फिल्म निर्माण व निर्देशन में भी उतरने वाली हैं. सूत्रों पर यकीन किया जाए तो कंगना रानौत ने फिल्म निर्माण की दिशा में कार्य करना शुरू कर दिया है.

सूत्रों का दावा है कि कंगना ने लगभग 21 करोड़ रूपए की लागत से मुंबई के बांदरा इलाके में नरगिस दत्त रोड पर एक बंगला खरीदा है. तीन मंजिला इस बंगले में वह अपने प्रोडक्शन हाउस का कार्यालय खोलने जा रही हैं.

एक सूत्र का दावा है कि कंगना ने अपने प्रोडक्शन हाउस का नाम मणिकर्णिका फिल्म रखा है. जबकि एक अन्य सूत्र का दावा है कि कंगना फिलहाल इस बंगले में फिल्म मणिकर्णिका के प्रोडक्शन का दफ्तर खोल रही हैं, जिसमें वह झांसी की रानी लक्ष्मी बाई का किरदार निभा रही हैं. इस फिल्म की शूटिंग खत्म होने के बाद वह अपनी कंपनी का दफ्तर भी इसी बंगले में रखेंगी.

रील लाइफ के परफेक्ट पति राम कपूर रीयल लाइफ में भी हैं परफेक्ट पति

इस साल सितंबर में 44 साल के हुए राम कपूर ने यूं तो अपने एक्टिंग करियर की शुरुआत टीवी सीरियल्स से की थी, लेकिन करियर में आगे बढ़ते-बढ़ते राम ने छोटे पर्दे से लेकर बड़े पर्दे तक का सफर आसानी से तय किया है. उन्होंने कामयाबी की ऐसी ट्रेन पकड़ी की कभी पीछे मुड़कर देखने की जरूरत नहीं पड़ी. जी हां, राम कपूर का जीवन कुछ ऐसा ही है.

राम कपूर जी टीवी पर प्रसारित होने वाले सीरियल ‘कसम से’ में जय वालिया के किरदार से मशहूर हुए थे. वहीं राम कपूर को उनके दूसरे सीरियल ‘बड़े अच्छे लगते हैं’ ने भी काफी फेमस कर दिया था. लेकिन क्या आप जानते हैं कि ऐसे ही एक सीरियल में उनकी भाभी का रोल करने वाली टीवी एक्ट्रेस से उन्होंने शादी की है. नहीं जानते तो कोई बात नहीं चलिए आज हम बताते हैं आखिर किस सीरियल में राम कपूर को अपनी भाभी से हो गया था प्यार.

अक्सर सीरियल में एक परफेक्ट पति का रोल निभाने वाले राम कपूर रियल लाइफ में भी परफेक्ट पति हैं, वो पत्नी गौतमी को बहुत प्यार करते हैं. गौतमी भी टीवी एक्ट्रेस हैं और एक टीवी सीरियल के दौरान ही दोनों की मुलाकात हुई थी जो बाद में प्यार में बदल गई. दरअसल राम कपूर की मुलाकात गौतमी गाडगिल से साल 2000 से 2002 के बीच टेलीकास्ट होने वाले टीवी सीरियल ‘घर एक मंदिर’ के दौरान हुई थी. दोनों इस सीरियल में साथ काम करते थे और गौतमी राम कपूर की भाभी का रोल करती थीं.

टीवी सीरियल में साथ काम करते-करते राम कपूर को भाभी से प्यार हो गया, लेकिन पिक्चर अभी बाकी थी. गौतमी ने तो राम का प्रपोजल एक्सेप्ट कर लिया था. लेकिन राम की इस लव स्टोरी से उनके घर वाले खुश नहीं थे. राम को गौतमी से शादी करने के लिए अपने परिवार की नाराजगी झेलनी पड़ी थी. क्योंकि गौतमी की यह दूसरी शादी थी, गौतमी के पहले पति की मौत हो चुकी थी.

वहीं गौतमी को भी राम का पार्टियों में जाना, वहां ड्रिंक करना पंसद नहीं था. इन सब के बावजूद आखिरकार सीरियल में देवर भाभी का किरदार निभाने वाले इस कपल ने 14 फरवरी साल 2003 में वेलेंटाइन डे के दिन शादी की थी. अब इनके दो बच्चे हैं एक बेटी, सिया जिसका जन्म 12 जून 2006 में हुआ और बेटा अक्स कपूर जो 12 जनवरी 2009 को पैदा हुआ.

बाहर खाने की शौकीन हैं तो ये तरीके अपनाकर अाप बचा सकती हैं पैसे

आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में ज्यादातर लोग नौकरीपेशा हो गए हैं. ऐसे में 9-10 घंटे औफिस में काम कर के थकने के बाद घर जाकर खाना बनाना एक बड़ी चुनौती हो गई है. ऐसे में बाहर खाना खाना एक अच्छा विकल्प नजर आता है, लेकिन हम सब जानते है कि रोज रोज बाहर का खाना खाना कैसे हमारा बजट बिगाड़ देता है. इसीलिए जरूरत है कुछ ऐसी बातों को ध्यान में रखने की जिससे आप बाहर का खाना भी खा सकती हैं और पैसे भी बचा सकती हैं. चलिये बताते हैं.

कूपन का इस्तेमाल

जब कभी भी आप अकेले या अपने परिवार के साथ बाहर खाना खाने जाएं तो कोशिश करें कि डिस्काउंट औफर्स या कूपन का इस्तेमाल करें, इससे आप का बजट भी नहीं बिगड़ेगा और आप बाहर के खाने का स्वाद भी ले पाएंगी.

टिप न दे

अगर आप का बजट कम है तो कोशिश करें की खाना खाने के बाद आप वेटर को टिप न दे. ऐसा करने से आप रेस्टोरेंट में खाने के दौरान थोड़े पैसे बचा सकती हैं.

डिनर के बजाय लंच पर जाएं

ये बात हम सब जानते हैं कि डिनर की बजाय लंच सस्ता होता है. इसीलिए डिनर के बजाय लंच पर जाना बाहर खाना खाने के दौरान पैसे बचाने का एक अच्छा विकल्प है.

ड्रिंक लेने से बचें

अक्सर हम देखते है कि रेस्टोरेंट में कोई भी ड्रिंक चाहे वो हार्ड हो या सौफ्ट महंगी मिलती है. यही ड्रिंक आप बाहर की शौप से ले तो रेस्टोरेंट के मुकाबले कम पैसे में खरीद सकती हैं, ऐसा इसलिए क्योंकि रेस्ट्रा में इसमें सर्विस चार्ज भी जोड़ दिया जाता है.

खाना बांट कर खाएं

अगर आप स्कूल या कौलेज में पढ़ते है या फिर कोई भी जो बाहर खाने का शौकीन है, तो ये तरीका आपका काफी पैसा बचाएगा. कोई भी चीज और्डर करें और उसे शेयर करके खाएं ऐसे आप कई वराईटी भी खा पाएंगी साथ ही पैसे भी कम देने होगें.

पसंदीदा कस्टमर बनें

कई ऐसे रेस्टोरेंट, ढाबे या स्टौल होते हैं जो अपने पसंदीदा ग्राहक को स्पेशल औफर्स देते है. ऐसा करने के लिए आप उनके वेबसाइज, फेसबुक पेज को लाइक फौलो कर सकते हैं.

रोज डील साइट चेक करें

अगर आप बाहर का खाना कम पैसे में खाना चाहते हैं तो कई साइट्स है जिस पर हर रोज अलग-अलग आफर्स दिए जाते है. बेहतर होगा कि आप लगातार अपडेटेड रहें और कम पैसे में स्वादिष्ट खाने का लुत्फ उठाएं.

खाने के बाद मीठा और्डर करने से बचें

ज्यादातर लोग खाना खाने के बाद स्विट डिश और्डर करते हैं जो कि आपके बिल को बढ़ा देता है. कोशिश करें की इसे न और्डर करें और अगर खाना ही है तो बाहर से खरीदें या पैक करा लें.

पानी ज्यादा पीएं

ज्यादा से ज्यादा पानी पीना सेहत के लिए तो फायदेमंद है ही साथ ही पानी से पेट भरा रहता है तो भूख भी कम लगती है. ऐसे में बाहर और्डर भी कम करते हैं और पैसे बच जाते हैं.

भूख के हिसाब से ही और्डर करें

कई बार ऐसा होता है कि हम कई चीज और्डर कर देते हैं और बाद में खाना ज्यादा मंगा लेने के कारण वो बच जाता है और उसे फेंकना पड़ता है. इसीलिए सोच समझ कर ही और्डर दें.

इन शहरों में आपको टैक्सी की नहीं नावों की जरुरत होगी

अगर हम घूमने के लिहाज से बात करें तो हमें शहरों की गलियां उनमें चलने वाली बड़ी बड़ी गाड़ियों का ख्याल आता है, मगर क्या आपको पता है कुछ ऐसे शहर भी हैं जहां कि गलियों तथा एक स्थान से दूसरे स्थान जाने के लिये हमें टैक्‍सी की नहीं नावों की जरुरत होती है. आज हम आपको  कुछ ऐसे ही रोचक शहरों के बारें में बताने जा रहे हैं जहां आपको पहली बार शहर को घूमने के लिये कैब या टैक्सी की नहीं, बल्कि नाव की जरुरत होगी, तो चलिये ले चले हम आपको इन शहरो की सैर पर.

एनीसी शहर

ऐनेसी दक्षिण-पूर्वी फ्रांस में एक अल्पाइन शहर है, जो अनानी थिउ नदी के किनारे एक झील पर बसा है. यह शहर अपनी पुरानी शैली के घरों के लिए जाना जाता है. यहां की पुरानी तरीके की घिसी हुई सी सड़कें, घुमावदार नहरें और पेस्‍टल रंगों वाले घर इसे एक अलग ही रूमानी झलक देते हैं. शहर की मध्ययुगीन शैटौ डी एनैसी किसी समय में जिनेवा की काउंटेस का घर होती थी. इसमें एक संग्रहालय भी था जिसमें क्षेत्रीय कलाकृतियों के साथ अल्पाइन फर्नीचर और धार्मिक कलाकृतियां प्रदर्शित की गई हैं.

यूट्रेक्ट

यूट्रेक्ट सेंट्रल नीदरलैंड का एक शहर है जो सदियों से एक धार्मिक केंद्र रहा है. इस मध्यकालीन आर्टीट्रेक्‍चर वाले शहर में नहरों का जाल है ईसाई स्मारक हैं और एक सम्मानित विश्वविद्यालय है. इसके साथ ही यहां मौजूद है 14 वीं शताब्दी बैल टौवर जो सेंट्रल डौमप्‍लेन स्‍क्‍वौयर पर सेंट मार्टिन के गौथिक कैथेड्रल के सामने खड़ा है. यहां का कैथरीजेंकोनवेंट संग्रहालय प्राचीन मठों में धार्मिक कला और कलाकृतियों की झलक दिखाता है.

ब्रुगेस

ब्रुगेस, पश्चिमोत्तर बेल्जियम में पश्चिम फ्लैंडर्स की राजधानी, इसकी नहर, कौबल्ड सड़कों और मध्यकालीन इमारतों द्वारा प्रतिष्ठित है. इसका बंदरगाह, ज़ीब्रिगे, मछली पकड़ने और यूरोपीय व्यापार के लिए एक महत्वपूर्ण केंद्र है. शहर के केंद्र के बर्ग स्क्वायर में, 14 वीं सदी के स्टैडियुस (सिटी हौल) में एक अलंकृत नक्काशीदार छत है.

हैम्बर्ग

हैमबर्ग जर्मनी का एक प्रमुख नगर एवं बन्दरगाह है. एक समय यह जर्मनी की राजधानी थी. हैमबर्ग नगर समुद्र से 120 किमी अंदर एल्वे नदी की उत्तरी शाखा पर बर्लिन से 285 किमी उत्तर पश्चिम में सपाट भूमि पर स्थित है. इस शहरों में नहरों का जाल बिछा हुआ है. इसके बीच से ऐल्सटर नदी भी बहती है जो इसे दो भागों में विभक्त करती है. छोटे भाग को बिनेन एल्सटर कहते हैं.

सेंट पीटर्सबर्ग

सेंट पीटर्सबर्ग की स्थापना नेवा नदी के तट पर वर्ष 1703 में हुई थी, जब रूस ने स्वीडन के साथ युद्ध में यह जमीन जीत ली थी. इसके 9 साल बाद रूसी साम्राज्य के ज़ार, पीटर महान ने इसे राजधानी बना दिया था और 1918 तक यह रूसी राजनीतिक सत्ता का केंद्र रहा. उसके बाद कम्युनिस्ट शासकों ने मौस्को को राजधानी बना दिया. 1924 में सेंट पीटर्सबर्ग का नाम लेनिनग्राद कर दिया गया था. 1991 में इसे इसका पुराना नाम लौटा दिया गया. इसी वर्ष सोवियत संघ का पतन हुआ था. इस खूबसूरत शहर में भी नहरों का का प्रयोग मुख्‍य मार्गों की तरह होता है.

धर्मस्थलों में बरबाद होता बुढ़ापा

हर दौर के युवा व्यवस्था, विसंगतियों और भ्रष्टाचार को ले कर आक्रोशित रहते हैं. वे सोचते रहते हैं कि जिस दिन लाइफ सैटल हो जाएगी और वे पारिवारिक व सामाजिक रूप से आत्मनिर्भर हो जाएंगे उस दिन जरूर इन खामियों से लड़ेंगे. युवाओं के पास क्रांतिकारी विचार तो होते हैं पर वे उपकरण नहीं होते जिन से वे समाज व देश को बदल सकें. ये उपकरण पैसा और वक्त होते हैं.

सेवानिवृत्ति और 60-65 वर्ष की उम्र तक खासा पैसा ये कल के युवा कमा चुके होते हैं और घरगृहस्थी के अलावा नौकरी या व्यवसाय के काफीकुछ अनुभव भी हासिल कर चुके होते हैं. यानी सैटल हो चुके होते हैं. लेकिन जवानी का वह आक्रोश और हालात वे भूल जाते हैं जो उन्हें उद्वेलित करता था और कुछ करने को उकसाता रहता था.

आज के बुजुर्ग यानी गुजरे कल के युवा कोई आंदोलन खड़ा न करें, यह हर्ज की बात नहीं, हर्ज की बात है इन का बेबस हो कर धर्मस्थलों में जा कर वक्त गुजारना, भजन, कीर्तन, पूजापाठ करना. इस से तो कुछ बदलने से रहा पर धर्म के चक्कर में वे खुद बदल कर सामाजिक विसंगतियों को बढ़ावा दे रहे होते हैं. वे खुद नहीं जानते वे क्या कर रहे हैं और न ही उन्हें यह बताने वाला कोई होता है.

बरबादी क्यों

सामाजिक संरचना हर दशक में बदलती है पर जो एक बात उस में स्थिर रहती है वह है वृद्धों की उपेक्षा. दरअसल, वे अनुपयोगी करार दिए जा चुके होते हैं. दिक्कत यह है कि ये वृद्ध भी खुद को अनुपयोगी मान लेते हैं और सुकून की तलाश में भटकते हुए धर्मस्थलों का कारोबार बढ़ाते देखे जा सकते हैं.

हर धर्म में वृद्धों के लिए निर्देश दिए गए हैं कि यह उम्र भजनपूजन, ईश्वरीय ध्यान और तीर्थयात्राओं के अलावा जिंदगीभर के पापों को पुण्यों में तबदील करने की होती है. चूंकि यह काम धर्मस्थलों में ज्यादा से ज्यादा वक्त बिता कर ही हो सकता है, इसलिए अधिकांश वृद्ध भगवान के चरणों मेें जा कर मोक्षमुक्ति की कामना किया करते हैं. चूंकि बगैर दानदक्षिणा के धर्म में कुछ नहीं मिलता, इसलिए जिंदगीभर मेहनत से कमाई आमदनी का बड़ा हिस्सा वे तथाकथित भगवान के तथाकथित दूतों को देते रहते हैं.

इस में कोई शक नहीं कि पहले के मुकाबले बुजुर्ग अब ज्यादा तनहा हो चले हैं क्योंकि संतानें बाहर नौकरी करने चली जाती हैं जिस के बाबत उन्हें रोका भी नहीं जा सकता क्योंकि सवाल जिंदगी और कैरियर का होता है. बच्चों को भले ही न रोक पाएं पर बुजुर्ग खुद को तो धर्मस्थलों में जाने से रोक सकते हैं. ऐसा वे नहीं करते तो जाहिर है खुद मान लेते हैं कि वे अब वाकई किसी काम के नहीं रहे. यानी धर्म और धर्मस्थल निकम्मों व निठल्लों के विषय हैं.

बुजुगर्ोें की एक बड़ी परेशानी यह है कि वे खाली वक्त कहां जा कर गुजारें कि जिस से वे दिल की बातें किसी से साझा कर सकें. नई दिक्कत यह खड़ी हो गई है कि बढ़ते शहरीकरण ने पासपड़ोस, यारदोस्त और नातेरिश्तेदार तक छीन लिए हैं. ऐसे में बचता है तो धर्मस्थल, जो हर कहीं मिल जाता है. 

कहने को धर्मस्थल और मंदिर शांति देते हैं, हालांकि सब से ज्यादा बेचैनी और परेशानी यहीं जा कर महसूस होती है जो दिखती नहीं. यह परेशानी है खाली दिमाग वाले घर में किसी विचार को जगह देने की. ये विचार कर्मकांड के रूप में प्रदर्शित होते हैं. इफरात से मंदिरों में बैठे वृद्ध बेवजह की बातें यानी अज्ञात आशंकाओं को ले कर सोचते, घबराते रहते हैं और अपनी समस्याओं व परेशानियों का हल मूर्तियों यानी पत्थरों में ढूंढ़ने की गलती करने लगते हैं.

विकल्प हैं

इफरात से धर्मस्थल बनाए जाने की वजह यह है कि लोगों, खासतौर से वृद्धों, का पैसा निचोड़ा जा सके. वृद्धों की दयनीय हालत में परिवार और समाज की भूमिका एक अलग बहस का मुद्दा है पर यह बात वृद्धों के सोचने की है कि धर्मस्थलों में जा कर उन्हें क्या हासिल होता है. ‘चूंकि फुरसत है, इसलिए मंदिर चलें’ वाली सोच न केवल उन के लिए, बल्कि पूरे समाज के लिए घातक साबित होती है.

धर्मस्थलों में मोक्ष और मुक्ति का झूठा आश्वासन मिलता है जिस के लिए कीमती वक्त और पैसा बरबाद करने की मानसिकता से किसी को कोई फायदा नहीं होता. उलटे, सामाजिक माहौल और बिगड़ता है. जो वृद्ध खुद को बोझ और अनुपयोगी मान लेते हैं वे एक दफा अगर खुद की ताकत व उपयोगिता पर गौर करें तो वे वाकई समाज और देश के लिए काफी उपयोगी साबित हो सकते हैं. मंदिर के बाहर गिड़गिड़ाते भिखारी को दोचार रुपए दे देना समस्या का हल नहीं है, बल्कि यह पुण्य कमाने का भ्रम या अहंकार भर है. 

जवानी और अधेड़ावस्था में जिस वक्त की कमी का रोना वे रोते रहते थे अब जब वह बहुतायत से मिलता है तो क्यों नहीं वे समाजोपयोगी या मनपसंद काम करते. ऐसा नहीं है कि उन की इच्छाशक्ति खत्म हो गई है, बल्कि सच यह है कि धर्मस्थलों में लगातार जाजा कर वे अंधविश्वासों और आशंकाओं की जकड़न में आ जाते हैं.

इस जकड़न से मुक्ति के कई उपाय हैं. इन में से पहला, किसी के लिए कुछ करना और कोई न मिले तो खुद के लिए जीना है. समाज कई जरूरतों का मुहताज है, अधिकांश लोग हैरानपरेशान हैं, ऐसे में बुजुर्ग काफीकुछ कर सकते हैं.

वे गरीब बस्तियों में जा कर बच्चों को पढ़ा सकते हैं, सड़क के किनारे पेड़ लगा कर पर्यावरण की रक्षा कर सकते हैं, जो पैसा दानदक्षिणा में बरबाद करते हैं उस से बीमारों और निशक्तों की मदद कर सकते हैं. लेकिन बजाय ऐसे रचनात्मक और सृजनात्मक काम करने के, वे धर्मस्थलों में वक्त जाया करते हैं. ऐसे में उन पर तरस ही आना स्वभाविक है.

देश में, अपवादस्वरूप ही सही, ऐसे भी वृद्ध हैं जो अपनी उपयोगिता और महत्ता बनाए हुए हैं. ये वे वृद्ध हैं जिन्होंने अनुभव और वक्त का सही इस्तेमाल किया है. रेलवेस्टेशनों पर प्यासों को पानी पिलाना वक्त का सही इस्तेमाल नहीं, तो क्या है. रिटायर्ड लोग अगर रचनात्मक काम और समाजसेवा करने लगें तो देश की हुलिया बदलने में देर नहीं लगने वाली. अगर हरेक वृद्ध वक्त का सही इस्तेमाल करते हुए स्कूलों में जा कर बच्चों को पढ़ाए तो इस से बड़ा पुण्य कोई और हो ही नहीं सकता.

मध्य प्रदेश के ग्वालियर में एक पुस्तकालय संचालित करने वाले देवेंद्र शर्मा बताते हैं, ‘‘यह हैरत की बात है कि किताबों और पत्रिकाओं में छिपे और छपे ज्ञान के खजाने को हासिल करने के बजाय वृद्ध मंदिरों  में घंटा बजाया करते  हैं जबकि पुस्तकालय निशुल्क हैं. मंदिरों में जाने पर कुछ न कुछ पैसा चढ़ाना ही पड़ता है.’’

एक बार दृढ़ और निष्पक्ष हो कर अगर बुजुर्ग अपनी किशोरावस्था व युवावस्था के संकल्पों को याद कर उन पर अमल करने की हिम्मत जुटा पाएं तो देखेंगे कि उन का सपना धर्मस्थल, पूजापाठ और आडंबर तो कतई नहीं थे. उन का सपना भ्रष्टाचार और भेदभावमुक्त देश था जिसे बनाने के लिए यह बेहतर वक्त है. बुढ़ापा  कोई अभिशाप नहीं, बल्कि वह उन्हें कुछ करगुजरने का मौका देता है. यह मौका अगर धर्मस्थलों में जा कर खुद को दिया जाने वाला धोखा बन रहा है तो सच है कि फिर कोई क्या कर लेगा.

बेटा जब विदेश चला जाए

समाज में एक नई पीड़ा इस तथ्य से पैदा हो रही है कि बेटा पढ़लिख कर विदेश चला जाता है और देश में मातापिता अकेले रह जाते हैं. ऐसे अकेले रह जाने वालों की संख्या अब इतनी बढ़ गई है कि वे नजर आने लगे हैं. बेटे के फोन की प्रतीक्षा करते हुए वे यह सोच कर परेशान रहते हैं कि उन के मरने पर उन का अंतिम संस्कार करने के लिए बेटा समय पर आएगा या नहीं. इस से उन के मन में अवसाद का गंभीर भाव बराबर बना रहता है.

विदेशों में काम करने वाले कुछ बेटे सालदोसाल में एकाध बार देश आते हैं और मातापिता को देख जाते हैं, तो कुछ मातापिता को वहीं बुला लेते हैं लेकिन कुछ बेटे कईकई साल नहीं आते और लगने लगता है कि वे अब वहीं बस जाएंगे. यह विचार इतना पीड़ादायक होता है कि मातापिता इसे सह नहीं पाते और समय से पहले ही मर जाते हैं.

हकीकत चाहे जो भी हो, दुख का बोझ मातापिता को ही ढोना पड़ता है. छुट्टी ले कर बेटा लौटता है और देश में 2-4 हफ्ते रह कर वापस चला जाता है तो बिछोह का दुख मातापिता में और बढ़ जाता है. मातापिता बेटे के पास खुद जाते और कुछ दिनों उस के साथ रह कर देश लौटते हैं तो भी वे इसे सहन नहीं कर पाते हैं. फिर खर्च का सवाल तो उठता ही है. कुछ विदेशी सरकारों को भी यह रास नहीं आता कि लोग आते रहें और उन के यहां बसते रहें.

विदेशों में जा कर पढ़ने, नौकरी करने और वहीं बस जाने वाले बेटों में अधिकतर मध्यवर्गीय परिवारों के होते हैं. उन के पारिवारिक संबंध बहुत गहरे होते हैं. वे देश में मातापिता के संग बिताए गए दिनों को भूल नहीं पाते, इसलिए देश लौटने की इच्छा उन के मन में बराबर बनी रहती है. नौकरी या किसी और मजबूरी के चलते लौट नहीं पाते, इस कारण वे तनावग्रस्त भी रहते हैं. इधर मातापिता को भी इस बात का आभास रहता है कि विदेश में उन का बेटा उन्हें याद करता रहता है. इस से उन का दुख बढ़ता है. वे किसी से कुछ कह नहीं पाते और भीतर ही भीतर घुटते रहते हैं.

मध्यवर्गीयों की पीड़ा बहुतकुछ उन की बंद मानसिकता से भी पैदा होती है. इस बात को वे पचा नहीं पाते कि उन का बेटा विदेश चला गया है. वे खुश होते हैं कि उन का बेटा वहां डौलर या पाउंड कमा रहा है. शान से लोगों को सुनाते भी हैं पर मन ही मन वे दुखी रहते हैं. जो खुशी व गर्व वे यह बताने में महसूस करते हैं कि उन का बेटा अमेरिका, कनाडा या इंगलैंड में है, वह जल्दी ही काफूर हो जाती है. बस, एक असलियत यह बाकी रह जाती है कि वे उस से अलग हैं और ऐसी उम्र में अलग हैं जब उन को उस की सब से अधिक जरूरत है.

फिर अपने को सुखी दिखाने का एक ढोंग भी वे करने लगते हैं जिस से उन की भीतरी पीड़ा और बढ़ जाती है. घर आनेजाने वालों को वे अपने बेटेबहू के विदेश से भेजे गए फोटो और उपहार आदि दिखा कर यह बताने की कोशिश करते हैं कि वे वहां कितने सुखी हैं. बातबात में यह भी बता देते हैं कि बेटेबहू वहां हमारे पोतेपोती को बहुत अच्छे स्कूल में पढ़ा रहे हैं. घर खरीद लिया है या बनवा लिया है. 2 कारें हैं, एक बहू चलाती है, दूसरी बेटा.

जाहिर है, वे जब यह सब कहते हैं तो उन का दिल धकधक करता है और वह न जाने कितनी आशंकाओं से भर जाता है. तब उन की बस, एक ही इच्छा रह जाती है कि बेटा लौट आए, चाहे वह यहां गरीबी ही में रहे पर हमारे पास तो रहे.

सचाई को समझें

बेटा जब विदेश में कुछ साल रह लेता है और उस के बालबच्चे हो जाते हैं तो उस के परिवार का संपर्क देश की भाषा व संस्कृति से टूटने लगता है. कुछ दिनों में उन का उच्चारण, खानपान और पहनावा आदि भी बदलने लगता है. इसे आप बहुत शान की चीज न समझें और इस की वजह से न कोई हीनभावना ही मन में पनपने दें. स्वाभाविक प्रक्रिया में होने वाले ये बदलाव आप के भीतर कोई ग्रंथि न पैदा करें, इस का आप पूरा ध्यान रखें.

वे कभी कुछ दिनों के लिए देश वापस आएं और लोग उन के विदेशीपन या अंगरेजियत पर छींटाकशी करें तो समझ लें कि लोगों के मन में कोई और बात नहीं, बस, जलन है और इसे ले कर कहीं कोई तनाव न पैदा होने दें. नतीजा तब महज यह होगा कि बच्चे आप के अपने देश, देश की बोली और देश के लोगों से कतराने व देश के खानपान को बुरा समझने लगेंगे.

झूठ न बोलें कि विदेश में आप का बेटा क्या करता है. बढ़ाचढ़ा कर की गई बात पीठपीछे मजाक का कारण बन सकती है. राहुल गुप्ता अपने मिलने वालों से बताते कि उन का बेटा नौर्वे में एक डिपार्टमैंटल स्टोर का मालिक है. बाद में पता चला कि वह वहां सेल्समैन है. फिर झूठमूठ यह भी न बताएं कि वह कितना कमाता है और आप को हर महीने कितने सौ डौलर या पाउंड भेजता है. जो भेजता है वह आप के चेहरे पर लिखा होता है और आप के रहनसहन में झलक जाता है. नहीं भेजता या नहीं भेज पाता तो वह शर्म की बात न समझें. इसे जीवनक्रम के एक अनिवार्य सत्य के रूप में लें तो आप ढेर सारी उलझनों से बच जाएंगे.

ध्यान रहे कि बेटा विदेश में नौकरी कर रहा है तो वह हमेशा सुख नहीं भोग रहा है. वहां उस की अपनी परेशानियां होती हैं. उन से वह जूझ रहा होता है. वहां के लोग पैसा देते हैं तो कड़ी मेहनत कराते हैं, काम में जरा सी भी कमी आई कि नौकरी गई.

बच्चे की पढ़ाई, छुट्टी का न मिलना, अस्पताल आदि का खर्च, इंश्योरैंस का प्रीमियम, टैक्स, गाड़ीमकान की किस्तें आदि इतने आर्थिक झंझट रहते हैं कि पैसे की कमी बनी रहती है. फिर भी अगर आप को शिकायत है कि वह आप का ध्यान नहीं रखता तो यह महज मायामोह है, न कि यथार्थवादी दृष्टिकोण.

आप ने बेटे को पढ़ालिखा कर विदेश में काम करने और पांव जमाने के लायक बनाया. यही आप का सब से बड़ा पुरस्कार है. व्यर्थ में चिंता करना कि वह बहुत दिनों से आया नहीं या आया तो चला जाएगा, बढ़ती उम्र में आप को बीमारियों की ओर ले जाएगी जिस से आप तो परेशान रहेंगे ही, विदेश में बसे बेटे के कामधंधे की गुणवत्ता भी प्रभावित होगी.

सुहास दंपती का लड़का अमेरिका से छुट्टी पर आया. वह ड्राइंगरूम को जिस तरह सजा कर वापस चला गया, वह कई महीने बीत जाने पर भी वैसा का वैसा ही सजा पड़ा है. कुशन और तकिए वह जहां रख गया था, उसे वहीं तब तक रहने दिया जाएगा जब तक वह दोबारा आ कर उसे फिर से न सजा जाए. सुहास दंपती चाहते हैं कि उस की याद बनी रहे. दरअसल, यह स्वस्थ स्नेह नहीं, मायामोह की पराकाष्ठा है जो कभी किसी आकस्मिक रोग में भी बदल सकती है.

बेटे विदेश चले जाते हैं तो इस के कई कारण हैं. देश में उन की योग्यता के अनुसार काम और वेतन नहीं मिलता. वे देख चुके हैं कि उन के मातापिता को कितना झेलना और जूझना पड़ा है. जो निकम्मापन और भ्रष्टाचार उन्हें यहां सरकारी विभागों में दिखाई देता है उस से भी बच कर निकल जाना उन के जीवनदर्शन का एक हिस्सा हो जाता है. उन का मतलब यह कदापि नहीं होता कि वे अपने मातापिता को रोताबिलखता छोड़ जाएं. जमाने की इस सचाई से आप समझौता कर लें तो बेटे का विदेश जाना आप को नहीं खलेगा.

जब मुकेश ऋषि को बाइक से घूमना पड़ गया महंगा

रामायाण में आपने लंकापति रावण का विमान तो देखा ही होगा. उसके विमान का नाम था- पुष्पक विमान. रावण उसी से आया जाया करता था. सीता के अपहरण के वक्त भी उसने उसी विमान का सहारा लिया था. मगर आजकल के रावण आधुनिक हो गए हैं. वे पुष्पक विमान से नहीं बल्कि महंगी और लग्जरी मोटर बाइक की सवारी करना पसंद करते हैं. हाल ही में एक रावण को हार्ले डेविडसन बाइक से घूमना महंगा पड़ा. उनके साथ कुछ ऐसा घटा, जो शायद कभी किसी रामलीला में भी न घटे.

राजधानी में लाल किले पर हर साल लव कुश रामलीला होती है. वहां इस बार रावण का किरदार बौलीवुड एक्टर मुकेश ऋषि निभा रहे थे. उन्हें कुछ टीवी चैनलों में इटरव्यू देना था, जिसके लिए वे होटल से रावण के कौस्ट्यूम में निकले.

उन्हें इस दौरान एक दोस्त मिल गया, जिसने उनसे हार्ले डेविडसन चलाने के लिए पूछा. मुकेश उसके प्रस्ताव पर फौरन राजी हो गए. वह बाइक लेकर इंडिया गेट निकले, जहां उन्होंने बाइक से एक चक्कर लगाया. फिर राजपथ पर बाइक दौड़ाई. रावण को लग्जरी बाइक चलाते देख वहां लोग उत्साहित हुए, जिसके बाद उन्होंने उनके साथ सेल्फी-औटोग्राफ लिए.

मुकेश ने लेकिन इस दौरान हेलमेट नहीं पहना था. चूंकि वह अपनी कौस्ट्यूम में थे, लिहाजा सिर पर मुकुट था. किसी ने इस दौरान उनकी फोटो खींच ली और ट्रैफिक पुलिस वालों को भेज दी. दिल्ली ट्रैफिक पुलिस ने शिकायत के आधार पर बाइक नंबर पर चालान नोटिस भेजा है. ऐसे में रावण बने मुकेश को बाइक की सवारी करना भारी पड़ गया.

नए घर में शिफ्ट होने से पहले पैक कर लें ये जरूरी सामान

नए घर में जाने की खुशी हर किसी को होती है. इस खुशी में हम कुछ जरूरी चीजों को पैक करना भुल ही जाते हैं जिनकी जरूरत हमें अक्सर नए घर में पड़ती हैं. आज हम आपको उन्हीं जरूरी चीजों के बारे में बताने जा रहे हैं, जिनको हम अक्सर पैकिंग करते समय रखना भूल जाते हैं.

रसोई से जुड़ी चीज़ें

रसोई में इस्तेमाल होने वाले बरतनों के साथ एक कैन ओपनर, चाकू व लकड़ी के चम्मच को भी रखें. इन छोटी लेकिन जरूरी चीजों की आवश्यकता कभी भी पड़ सकती है.

औजार

नए घर में मौजूद पुरानी कीलों को निकालने व अपनी वस्तुओं को टिकाने के लिए आपको पेचकश, हथौड़ा, टेप की जरूरत पड़ सकती है. आपको इन चीजों का सही इस्तेमाल भी आना चाहिए. वैसे बाजार में कुछ आधुनिक औजार भी उपलब्ध हैं.

पौधे

यदि आप हरियाली प्रेमी हैं और आपको अपने घर में पौधे लगाना अच्छा लगता है, तो घर में इन नन्हें-मुन्नों को रखने की जगह भी तय कर लें. पौधों का चयन अपने समय को ध्यान में रखकर करें.

फेस मास्क

अगर आपको धूल से एलर्जी है तो फेस मास्क रखना न भूलें. इसके अलावा सफाई के लिए डिटर्जेंट और दूसरे क्लीनिंग एजेंट्स भी याद से अपने पास रख लें. आप चाहें तो सफाई के दौरान डेटाल या फिर कोई दूसरा एंटी-सेप्ट‍िक भी प्रयोग कर सकती हैं.

पैसे

पैसों की जरूरत कभी भी पड़ सकती है. इसलिए अपने पास कुछ नकद राशि भी रखें. कभी नए घर की कोई चीज काम ना करे या आपकी कोई चीज टूट जाए. ऐसी स्थिति में काम चलाने के लिए आपको एक अन्य विकल्प को खरीदने की आवश्यकता पड़ सकती है. यदि शिफ्टिंग के कारण आप खाना ना पका पाएं तब बाहर से खाना मंगवाने के लिए पैसों की जरूरत पड़ेगी.

बेकिंग सोडा व विनेगर

किराए के मकान में सफाई की उम्मीद करना बेकार है. यहां-वहां लगे जिद्दी दागों को मिटाने में बेकिंग सोडा व विनगर का मिश्रण आपकी मदद करेगा.

एक्स्टेंशन कार्ड

खुद के बनाए हुए नए घर में आपको शायद ही एक्स्टेंशन कार्ड की आवश्यकता पड़ेगी. लेकिन अगर मकान किराए का है और वहां अधिक स्विच बोर्ड नहीं है तो आपको एक से अधिक एक्स्टेंशन कार्ड की जरूरत पड़ सकती है. आज, ज्यादातर उपकरण बिजली पर चलते हैं और उन्हें चार्ज करने के लिए आपको अधित प्लगों की आवश्यकता होगी.

बौक्स कटर व ब्लेड

सामान को खोलने में होने वाली मुश्किल से निजात पाने के लिए अपने साथ एक बौक्स कटर व ब्लेड जरूर रखें. इस तरह आपको यहां वहां तेज चाकू या छुरी को ढूंढने की जरूरत नहीं पड़ेगी. यह औजार इतना छोटा है कि आप इसे अपने पर्स में भी रख सकती हैं. बाद में पछताने से अच्छा है कि इस सलाह को पहले ही मान लिया जाए.

ट्राई करें किनोवा सलाद विद सूखा मेवा

सामग्री

1 कप किनोवा

1 बड़ा चम्मच प्याज उबला व छोटे टुकड़ों में कटा

1 बड़ा चम्मच टमाटर कटा

1 बड़ा चम्मच गोभी कटी

1 बड़ा चम्मच सफेद तिल भुने

1 बड़ा चम्मच बादाम भुने व कटे

1 बड़ा चम्मच संतरे की फांकें

1 बड़ा चम्मच नीबू का रस

1 बड़ा चम्मच सूरजमुखी के बीज

1 बड़ा चम्मच तेल, कालीमिर्च दरदरी कुटी

नमक स्वादानुसार

विधि

किनोवा को 3 कप पानी डाल कर गलने तक उबाल लें. पानी निकाल दें. एक कांच के बाउल में सारी सामग्री को अच्छी तरह मिला कर परोसें.

व्यंजन सहयोग: माधुरी गुप्ता

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