बौलीबुड पर हावी हौलीवुड

हिंदी सिनेमा इन दिनों वैचारिक दिवालिएपन से जूझ रहा है. मूल कहानियों के बजाय रीमेक और हौलीवुड की फिल्मों के आइडिया चुराए जा रहे हैं. पुराने गाने रीमिक्स की मिक्सी में डाल कर नए सिरे से परोसे जा रहे हैं. लिहाजा, इंडियन बौक्सऔफिस पर इस का पूरा फायदा हौलीवुड उठा रहा है. आहिस्ताआहिस्ता वह हिंदी फिल्मों के बाजार में अपनी घुसपैठ बना रहा है. पहले चंद फिल्मों के डब वर्जन के साथ रिलीज होने वाली फिल्में आज हजारों प्रिंट के साथ रिलीज हो रही हैं. इतना ही नहीं, वहां का लगभग हर बड़ा प्रोडक्शन हाउस मुंबई में अपना औफिस खोल चुका है. जहां से वह न सिर्फ फिल्मों का निर्माण कर रहा है बल्कि यहां के कमाऊ बाजार में अपनी हिस्सेदारी भी बढ़ा रहा है.

हालांकि इस के लिए बौलीवुड खुद ही दोषी है, जो पटकथाओं पर काम करने और अपना मैनरिज्म विकसित करने के बजाय जबतब हौलीवुड की नकल करता है. फिल्मों की कहानी, ट्रीटमैंट, बिजनैस रणनीति, फिल्म मेकिंग स्टाइल से ले कर बौलीवुड की हर नब्ज पर हौलीवुड इस कदर हावी है कि इस की बानगी तब देखने को मिली, जब हौलीवुड के नामचीन फिल्म निर्देशक स्टीवन स्पीलबर्ग भारत आए.

स्टीवन के आने की खबर फैलते ही पूरा बौलीवुड सब कामकाज छोड़ कर उन से मिलने को बेताब दिखा. कुछ निर्मातानिर्देशक तो अपनी फिल्मों की शूटिंग बीच में ही छोड़ कर स्टीवन से गुरुज्ञान लेने के लिए इतने उतावले दिखे कि मानो हिंदी सिनेमा अभी अपने शैशवकाल में है और यही फिल्मकार उन के सिनेमा को वयस्क करेगा.

भोपाल में प्रकाश झा की फिल्म सत्याग्रह की शूटिंग में बिजी बिग बी से भी नहीं रहा गया. वे भी फिल्म की शूटिंग अधूरी छोड़ कर मुंबई में स्टीवन की शरण में जा पहुंचे. किसी बाहरी फिल्मकार से अपने अनुभवों को साझा करना कोई गलत बात नहीं है, पर जो फिल्मकार रिलायंस कंपनी के साथ हुए एक व्यावसायिक करार के चलते अपनी फिल्म ‘लिंकन‘ के प्रचार के चतुर व्यापारी का लबादा ओढ़ कर आया हो, उसे यह कह कर प्रचारित किया जाए कि स्टीवन हिंदी फिल्मकारों से मिल कर भारतीय सिनेमा के उत्थान को ले कर गंभीर चर्चा करेंगे, उसी पुरानी मानसिकता का प्रतीत है, जहां हम विदेशियों के सामने खुद को कमतर और बौना महसूस करने लगते हैं.

जब वे आए तो अखबारों में लिखा गया कि स्टीवन 61 बौलीवुड कलाकारों के साथ बातचीत करेंगे और उन्हें फिल्म निर्माण के गुर सिखाएंगे. मानो अभी तक हिंदी सिनेमा में किसी को फिल्म निर्माण की एबीसीडी भी नहीं आती हो.

जब स्टीवन आए तो उन से मिलने के लिए शाहरुख, आमिर, राज कुमार हिरानी, अनुराग कश्यप, फरहान अख्तर, जोया अख्तर, अभिषेक कपूर, हबीब फैसल, राम गोपाल वर्मा, संजय लीला भंसाली और फराह खान जैसी 61 मशहूर हस्तियां रातोंरात वहां पहुंच गईं. क्या कभी हिंदी सिनेमा के विकास और उस की खामियों को दूर करने के लिए इतने बड़े नाम एक जगह पर जमा हुए हैं? शायद नहीं, फिर यह ढोंग क्यों?

ऐसा पहली बार नहीं हुआ है. अकसर इस तरह का नजारा दिखता है, फिर चाहे वे स्टीवन आए हों, ब्रैड पिट, एंजलीना जोली या फिर ओपेरा का भारत दौरा हो. हमारी सोच पर हौलीवुड का हौआ इस कदर हावी है कि हम कमतरी के एहसास से उबर ही नहीं पाते हैं.

अकसर हम हौलीवुड की बात चलते ही कह देते हैं कि वहां सिनेमा तकनीक से चलता है और हम तकनीकी तौर पर काफी पिछड़े हैं. सोचने वाली बात यह है कि जिन सत्यजीत रे को औस्कर से नवाजा गया था, उन की किसी फिल्म में तकनीकी की कमी दिखती है क्या? असल में ये सारे बहाने हैं. जैसा कि विदेशी फिल्मों की नकल बनाने में माहिर विक्रम भट्ट ने हाल ही में एक इंटरव्यू के दौरान कहा कि हम विदेशी फिल्में उठा कर इसलिए बनाते हैं क्योंकि उन फिल्मों के बारे में हमें पता होता है कि वे हिट थीं या असफल. ऐसे में फिल्म की सफलता की गारंटी बढ़ जाती है.

दुनिया जानती है कि भारतीय सिनेमा हौलीवुड से कहीं ज्यादा व्यापक और कमाऊ है. यहां जितनी फिल्में सभी भाषाओं में मिल कर बनती हैं, उन की आधी भी हौलीवुड में नहीं बनतीं. इस के बावजूद हम विदेशी फिल्मकारों को हौआ और औस्कर को इतनी ललचाईर् नजरों से क्यों देखते हैं, यह बात समझ से परे है.

और तो और हिंदी फिल्मों के कई नामी चेहरे हौलीवुड की फिल्मों में बचकाने और चंद सैकंड की हास्यास्पद उपस्थिति पा कर ऐसे उछलते हैं कि मानो उन का लीड रोल हो. फिर उस छोटे से रोल का डंका पीट कर फिल्म का फ्री में प्रचार करने लगते हैं, जबकि सचाई यह है कि हौलीवुड फिल्ममेकरों को भारत कमाई का एक बड़ा बाजार नजर आता है. जाहिर है, अगर उन्हें यहां के बाजार को पूरी तरह भुनाना है, तो करोड़ों प्रचार पर भी खर्चने होंगे.

इस के लिए उन्होंने यह तरीका निकाला कि करोड़ों खर्च करने के बजाय अगर यहां के किसी पौपुलर हीरो को छोटामोटा रोल दे दिया जाए, तो एक तीर से दो शिकार हो सकते हैं. प्रचार होगा सो होगा, इसी बहाने उस स्टार के फैंस भी बतौर दर्शक फ्री में मिल जाएंगे. उन की रणनीति काम कर गई .

अब बौलीवुड सितारों को हौलीवुड का फीवर चढ़ गया है इसलिए अब जहां अनजाने में अनिल कपूर ‘मिशन इंपौसिबल‘ का भारत में मुनाफा करवा रहे हैं, वहीं इरफान खान ‘द अमेजिंग स्टोरी औफ स्पाइडर मैन‘ का. गौरतलब है कि ये दोनों कलाकार इन फिल्मों में बड़े ही मामूली रोल में नजर आए थे.

दरअसल, हौलीवुड, बौलीवुड की वैचारिक रीढ़ में दीमक की तरह घर कर चुका है और उसे दिनबदिन खोखला करता जा रहा है. यहां के फिल्मकार विदेशी फिल्मों की नकल करते यह बात पूरी तरह से भूल चुके हैं कि हमारे देश में भी सत्यजीत रे, तपन सिन्हा, मृणाल सेन, गोविंद निहलानी और श्याम बैनेगल जैसे फिल्मकार रहे हैं और आज भी हैं, जो फिरंगी जमीन पर अपने काम का लोहा मनवाते रहे हैं. पर लगता है कि अब हम खुद ही हौलीवुड के मायाजाल से बाहर निकलने के लिए तैयार नहीं हैं.

आलम यह है कि आज जिन निर्देशकों को प्रतिभावान माना जाता है, वे भी पूरी तरह से विदेशी फिल्मों की छवि में कैद नजर आते हैं. जहां अनुराग कश्यप अपनी सफल फिल्म ‘गैंग्स औफ वासेपुर‘ पर तारंतीनों का प्रभाव स्वीकार करते हैं, वहीं भट्ट कैंप जैसा बड़ा बैनर अपनी हर फिल्म को विदेशी फिल्म से पहले चुरा कर बनाता था, अब बाकायदा अधिकार खरीद कर. जैसा हाल ही में ‘मर्डर 3‘ के साथ हुआ.

गौरतलब है कि ’मर्डर 3’ को स्पैनिश फिल्म ’द हिडन फेस’ के औफिशियल राइट खरीद कर बनाया गया है. उस पर भी अनुराग कश्यप कहते हैं कि भारतीय सिनेमा की कोई एक पहचान नहीं है. अब इन्हें यह कौन समझाए कि जब आप ही अपनी विधा को विकसित करने के बजाय हौलीवुड के मैनरिज्म अपनी फिल्मों में दोहराते हैं, तो फिर पहचान कहां से बने.

तिगमांशु धूलिया के साथ ’पान सिंह तोमर’ जैसी फिल्म लिखने वाले संजय चौहान कहते हैं कि जब से फौरेन स्टूडियो भारत आए हैं, डीवीडी की चोरियां रुकी हैं. अब महेश भट्ट और अब्बासमस्तान भी राइट खरीद कर नकल कर रहे हैं. गौर करने की बात यह है कि बिना बताए चोरी भले ही हिंदी फिल्मकारों ने छोड़ दी हो, पर खरीद कर ही सही नकल से वे बाज नहीं आते.

यह तो बात हुई बौलीवुड पर हौलीवुड की मानसिकता के हावी होने की. अब जरा इस बात पर चर्चा करते हैं कि आर्थिक मोरचे पर हौलीवुड ने किस तरह से बौलीवुड को बुरी तरह दबाना शुरू कर दिया है. ग्लोब्लाइजेशन के इस दौर में फिल्मों का दायरा कुछ मुल्कों तक ही सीमित नहीं रह गया है.

आज बौलीवुड और हौलीवुड की फिल्मों के दर्शक लगभग एक से हो गए हैं. लिहाजा, विदेशी फिल्में भारतीय बौक्सऔफिस  पर न सिर्फ जोरशोर से रिलीज हो रही हैं बल्कि कमाई के मामले में हिंदी फिल्मों को कड़ी टक्कर भी दे रही हैं. हालांकि पहले इक्कादुक्का हौलीवुड फिल्में ही भारत में रिलीज होती थीं और इन की कमाई का असर हिंदी फिल्मों में न के बराबर था, पर जैसेजैसे यहां के दर्शकों का रुझान बदला है और मल्टीप्लैक्स कल्चर का दौर आया, सारा गणित ही उलटा हो गया है.

बात चाहे हाल में रिलीज फिल्म ’लाइफ औफ पाई’ की हो या फिर ’स्काईफाल’ और ’द ऐवेंजर्स’ की. इन फिल्मों का कारोबार कई बड़ी हिंदी फिल्मों से ज्यादा था.

जेम्स बौंड सीरीज की फिल्म ’स्काईफाल’ ने जहां इंडियन बौक्सऔफिस पर लगभग 50 करोड़ से ज्यादा की कमाई की. वहीं ’लाइफ औफ पाई’ तो कई दिनों तक सिनेमाघरों में चली थी. गौरतलब है कि यह फिल्म शाहरुख की ’जब तक है जान’ और अजय देवगन की ’सन औफ सरदार’ के आसपास रिलीज हुई थी पर शाहरुखअजय की फिल्में सिनेमाघरों से कब की उतर चुकी हैं.

’द एवेंजर्स’ ने पहले हफ्ते में ही 29 करोड़ की नैट कमाई की, जबकि थ्री डी में बनी स्पाइडरमैन सीरीज की नई फिल्म ने एक हफ्ते में 40 करोड़ रुपए से ज्यादा की कमाई की.

हौलीवुड की इंडिया में लगातार बढ़ती कमाई का ही असर है कि अब कुछ हौलीवुड फिल्में अमेरिका से पहले भारत में ही रिलीज होने लगी हैं. वरना पहले तो हौलीवुड फिल्में महीनों पहले वहां रिलीज हो जाती थीं, फिर कभीकभार जा कर यहां रिलीज होती थीं. इसी के परिणामस्वरूप मार्बल स्टूडियो की फिल्म ’द एवेंजर्स’ अमेरिका से पहले इंडिया में रिलीज हुई. 

एक अखबार के अनुसार हौलीवुड बौलीवुड पर इस कदर हावी होता जा रहा है कि एक जमाने में गिनती के प्रिंट के साथ रिलीज होने वाली अमेरिकी फिल्में अब हजारों प्रिंट के साथ सिनेमाघरों में उतर रही हैं. मसलन, ’एवेंजर्स’ 800 स्क्रीन, ’द एडवेंचर औफ टिनटिन’ 350 स्क्रीन और ’द हंगर गेम्स’ 240 स्क्रीन पर रिलीज की गई.

खबर है कि आने वाले 3 महीने में हौलीवुड के शीर्ष स्टूडियो ने करीब आधा दर्जन फिल्मों को अमेरिका से पहले भारत में रिलीज करने की प्लानिंग कर ली है.

इस के अलावा हौलीवुड के कई बड़े बैनर और फिल्म स्टूडियो मसलन, सोनी पिक्चर्स, वार्नर ब्रदर्स, फौक्स इंडिया, वाल्ट डिज्नी, एशिया में बड़ी योजनाओं के तहत भारत में अपना प्रोडक्शन हाउस खोल चुके हैं. असल में इस सब के पीछे की खास वजह है कि इन की नजर भारतीय बाजार में मिलने वाले मुनाफे पर है.

बौलीवुड में हौलीवुड फिल्मों की बढ़ती कमाई और इन को मिली जबरदस्त कामयाबी ने बौलीवुड की नींद उड़ा दी है. इस में कोई दो राय नहीं कि हिंदी फिल्मों की थीम और मैनरिज्म पर हौलीवुड का प्रभाव दिखता है, लेकिन डर इस बात का है कि जिस तरह से हौलीवुड ने यूरोपीय सिनेमा के अस्तित्व को अपने सामने नगण्य कर दिया है, वह हिंदी सिनेमा का भी ऐसा हश्र नहीं करेगा?

बहरहाल, मानसिक और आर्थिक तौर पर हावी होते हौलीवुड से पार पाना बौलीवुड के लिए भविष्य में काफी मुश्किलें खड़ी कर सकता है. बेहतर होगा कि बौलीवुड की समस्त विधाओं के जानकार अभी से चेत जाएं और खुद को वैचारिक और तकनीकी स्तर पर मजबूत करें वरना हौलीवुड के समुद्र में बौलीवुड एक छोटी मछली की तरह कहीं लुप्त हो जाएगा.

फिल्में मानसिकता नहीं बदल पाईं

चीन की एक बहुत पुरानी और प्रसिद्ध कहावत है, ‘हजार मील की यात्रा एक छोटे से कदम से शुरू होती है.’ भारतीय सिनेमा ने भी 1913 में दादा साहेब फाल्के के छोटे, लेकिन दृढ़तापूर्ण कदम से एक सदी का सफर तय कर लिया है. इस दौरान भारतीय फिल्म उद्योग कहां से कहां पहुंच गया. शुरुआत से ले कर अब तक सिनेमा में युगांतकारी बदलाव आए हैं. अगर कहें कि उस की दिशा और दशा ही बदल गई तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी.

हिंदी सिनेमा के बारे में एक आम धारणा है कि यह कुछ बनेबनाए फार्मूलों पर ही चलता है. यह बात सरसरी तौर पर सही भी है. हिंदी सिनेमा के शुरुआती दौर से ले कर अब तक प्रयोगात्मक फिल्में भी बनती रही हैं. बाैंबे टौकीज की ‘अछूत कन्या’, वी शांताराम की ‘दो आंखें बारह हाथ’, ‘नवरंग’, सुनील दत्त की ‘यादें’, बिमल दा की ‘दो बीघा जमीन’, गुलजार की ‘कोशिश’ आदि कई फिल्मों के विषय आम मसाला फिल्मों से हट कर थे.

‘यादें’ में तो केवल एक ही कलाकार थे सुनील दत्त, इस वजह से इसे गिनीज बुक औफ वर्ल्ड रिकौर्ड्स में भी शामिल किया गया था, लेकिन यह कहने में कोई गुरेज नहीं होगा कि हिंदी सिनेमा में सब से ज्यादा प्रयोग पिछले कुछ वर्षों में हुए हैं, यानी कि कंटैंट से ले कर फिल्मों के प्रस्तुतिकरण तक.

अनुराग कश्यप, दिबाकर बनर्जी, आर बाल्कि, इम्तियाज अली, विशाल भारद्वाज, तिग्मांशु धूलिया, रजत कपूर, ओमप्रकाश मेहरा, राजकुमार हिरानी आदि निर्देशकों ने अलग तरह की फिल्में बनाईं और वे काफी सफल भी हुए. इस पूरी यात्रा के दौरान सिनेमा ने समाज को कई तरह से प्र्रभावित किया.

कहा जाता है कि समाज पर सिनेमा का काफी प्रभाव पड़ता है और सिनेमा भी समाज से बहुतकुछ ग्रहण करता है. खासकर फिल्मों ने लोगों की जीवनशैली और फैशन को जबरदस्त तरीके से प्रभावित किया है, लेकिन एक बात जो सिनेमा भी अब तक नहीं बदल पाया, वह है पत्नी के प्रति पति की सोच में बदलाव.

दूसरे शब्दों में कहा जाए तो तमाम कोशिशों के बावजूद फिल्में पुरुष मानसिकता को बदल पाने में कामयाब नहीं हो पाईं, खासकर जब बात आती है, पति और पत्नी के रिश्तों की.

हालांकि फिल्मों में काफी पहले से ही स्त्रीपुरुष या फिर कहें कि प्रेमीप्रेमिका या पतिपत्नी के संबंधों को बड़े गरिमामय और संतुलित तरीके से दिखाया जाता रहा है. उर्दू के प्रख्यात साहित्यकार राजेंद्र सिंह बेदी ने 1970 में एक बहुत खूबसूरत फिल्म बनाई थी ‘दस्तक’, जिस में संजीव कुमार और रेहाना सुल्तान मुख्य भूमिकाओं में थे.

इस फिल्म को 3 राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिले थे. एक रैडलाइट एरिया की पृष्ठभूमि पर बनी यह फिल्म कई मानवीय पहलुओं का चित्रण संवेदनशील तरीके से करती है. इन में से एक रिश्ता पतिपत्नी का भी है. फिल्म के क्लाइमैक्स में संजीव कुमार अपने दुर्व्यवहार के लिए पत्नी रेहाना सुल्तान से माफी मांगते हैं.

इसी तरह 1978 में एक फिल्म आई थी ‘घर’, जिस में रेखा और विनोद मेहरा मुख्य भूमिकाओं में थे. गैंगरेप की शिकार एक महिला के सदमे को केंद्र में रख कर बनाई गई यह फिल्म, पतिपत्नी के रिश्तों की संवेदनशील गाथा है. पति के रूप में विनोद मेहरा पूरी संवेदनशीलता के साथ सदमे में जीने वाली पत्नी को संभालने की कोशिश करते हैं और उसे सदमे से बाहर निकालने की भी पूरी कोशिश करते हैं.

2008 में यशराज बैनर की एक फिल्म आई ‘रब ने बना दी जोड़ी’, जिस में शाहरुख खान और अनुष्का शर्मा नायकनायिका थे. इस फिल्म में शाहरुख अपनी पत्नी अनुष्का की खुशी के लिए पुरुष होने के अभिमान को किनारे रख कर सबकुछ करने को तैयार रहते हैं.

ऐसी सैकड़ों फिल्में आई हैं, जिन में पति और पत्नी या स्त्री और पुरुष समान धरातल पर खड़े 2 मनुष्य हैं. लिंग को ले कर किसी प्रकार का कोई भेदभाव या श्रेष्ठताबोध नहीं है, लेकिन क्या ऐसा समाज में देखने को मिलता है? सामान्य तौर पर इस का उत्तर ‘नहीं’ में ही मिलेगा.

अगर कुछ अपवादों को छोड़ दें तो आज भी एक आम हिंदुस्तानी परिवार का पति अपनी पत्नी में एक आज्ञाकारी मां की छवि को देखना पसंद करता है, जो उस की हर जरूरत का ध्यान रखे. अगर इस में कुछ कमी होती है, तो पत्नी को ही झेलना पड़ता है. वह अपनी पत्नी को अपनी बराबरी पर रख कर नहीं देख पाता, भले ही चाहे ऐसा अनजाने में होता हो.

हालांकि बहुत सारे पुरुष सैद्धांतिक रूप से स्त्रीपुरुष को बराबर मानते हैं, लेकिन यह बात व्यवहार के धरातल पर खरी नहीं उतर पाती.

अब सवाल उठता है कि सिनेमा पुरुषों, खासकर पतियों की मानसिकता बदल पाने में सफल क्यों नहीं रहा? दरअसल, फिल्मों का इतिहास भारत में महज 100 साल पुराना है और हमारी सामाजिक संरचना हजारों साल पुरानी है. एक आम भारतीय परिवार में लड़कों का लालनपालन ही इस तरीके से होता है कि जानेअनजाने उन में एक श्रेष्ठताबोध पैदा हो जाता है और फिल्में अभी इस मानसिकता को बदल पाने में सक्षम साबित नहीं हुई हैं.

देश में अभी भी आमतौर पर फिल्मों को मनोरंजन के साधन के रूप में ही देखा जाता है. हालांकि कईर् फिल्में शिक्षित करने और संदेश देने की कोशिश भी करती हैं और कुछ हद तक इस में सफल भी होती हैं. मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि व्यक्ति आमतौर पर साहित्य, सिनेमा या प्रसार माध्यमों से चीजें अपनी सुविधानुसार ग्रहण करता है. जिन चीजों को अपनाने में उसे ज्यादा कोशिश नहीं करनी पड़ती, उसे वह स्वीकार लेता है, लेकिन जिन्हें अपनाने के लिए उसे अधिक कोशिश करनी पड़ती है, उस के प्रति उस का रवैया उदासीन हो जाता है. इसीलिए व्यक्ति फिल्मों के फैशन, अपराध आदि का तो आसानी से अनुसरण कर लेता है, लेकिन उच्च मानवीय मूल्यों को अपनाने में वह उदासीन हो जाता है.

फिल्म ‘चक दे इंडिया’ के निर्देशक शिमित अमीन का कहना है, ‘फिल्मों का लोगों पर कितना असर पड़ता है, इसे जांचने का कोई पैमाना नहीं है. मगर उन का कुछ तो असर जरूर होता है. मुझे लगता है कि इस असर को पहचानने के लिए हमें कुछ समय चाहिए होता है.

जैसे, आज हम कुछ हद तक जानते हैं कि 70 और 80 के दशक में आई फिल्मों का क्या असर दिखा. किसी फिल्म के आने के तुरंत बाद हमें जो प्रतिक्रियाएं मिलती हैं, वे थोड़ी सतही हो सकती हैं. उन के एक बहुत ही अस्थायी प्रभाव का हम अंदाजा लगा सकते हैं. वैसे बाकी चीजों की तरह हर फिल्म में कोई न कोई संदेश या फिर दुनिया के बारे में कोई न कोई नजरिया तो जरूर होता है. हो सकता है वे भी दर्शकों को कहीं पर छूते हों.’

फिल्म ‘चक दे इंडिया’ के बाद हौकी स्टिक की बिक्री में अचानक तेजी आ गई थी. इस बात पर शिमित कहते हैं कि दरअसल, फिल्म के साफसाफ प्रभाव को रेखांकित करना बहुत मुश्किल काम है.

‘चक दे इंडिया’ के बाद दुकानों से ज्यादा हौकियां खरीदी गईं, मगर साइकिल रेस दिखाने वाली फिल्म ‘जो जीता वही सिकंदर’ के बाद  क्या अधिकतर लड़कियां साइकिल चलाने लगी थीं? मुझे लगता है खेल हो या किन्हीं मूल्यों को अपनाने की बात, फिल्में लोगों को ऐसा कुछ करने के लिए बाध्य नहीं कर सकतीं. यही बात पत्नी के प्रति पुरुषों के व्यवहार के बदल पाने में फिल्मों की असफलता के संबंध में भी लागू होती है.

तौहीन करने की सजा

फ्रांस में अभी भी रंगभेद है और वहां एक अश्वेत नेता को मंत्री बनाने पर उसी तरह का मजाक बनाया जा रहा है जैसा लालू या मायावती का बनता है. पर जब एक छोटी पार्टी की एक नेता ने इस मंत्री क्रिसटेन तौबीरा को खुलेआम बंदर कह डाला तो हल्ला मच गया और अब उसे 1 महीने की कैद हुई है. सही फैसला है यह.

वीडियो कैरेक्टर जमीं पर

वीडियो गेम्स के कैरेक्टरों को जीवित करने की कला को कौसप्ले कहा जा रहा है. हर साल सैकड़ों आयोजन इस तरह की फैंसी ड्रैसों के साथ दुनिया भर के शहरों में होते हैं, जिन में स्क्रीन से उतरे कैरेक्टर साथ चलते नजर आते हैं. जापानी उप विदेश मंत्री भी एक ऐसे ही शो में मजा लेने पहुंच गए.

हुस्न व बोल्डनैस से आग में घी डालतीं बिंदास बालाएं

‘इन की अदाओं में जादू है, नशा है, इन के जिगर में बड़ी आग है, इन की जवानी हलकट जवानी है.’ क्या आप समझे, हम किन की बात कर रहे हैं. जी हां, हम बात कर रहे हैं बौलीवुड के हौट ट्रैंड को फौलो करतीं हौट और सैक्सी पूनम पांडे और शर्लिन चोपड़ा की.

आजकल ये दोनों ही इंटरनैट मल्लिकाएं अपने बोल्ड अंदाज से लाखों जवान दिलों की धड़कनें बढ़ा रही हैं. अपने हौट और सैक्सी फोटो इंटरनैट पर डाल कर सुर्खियों में रहने वाली किंगफिशर कलेंडर गर्ल पूनम पांडे और ऐडल्ट मैगजीन ’प्ले बौय’ के लिए न्यूड होने वाली हौट शर्लिन चोपड़ा के बीच स्पाइसी होने की जंग छिड़ गई है. दोनों के बीच न्यूड होने का जबरदस्त मुकाबला चल रहा है कि किस से कौन है आगे…

आग में घी डालतीं हुस्न की मल्लिकाएं

पूनम का ‘नशा‘

अपने सनसनीखेज बयानों से सुर्खियों में रहने वाली पूनम पांडे ने टीम इंडिया के क्रिकेट वर्ल्डकप जीतने पर स्टेडियम में न्यूड हो कर दौड़ने का दावा किया था और अपने वादे को उन्होंने ट्विटर पर न्यूड तसवीरें अपलोड कर पूरा किया. बिकनी पहन कर रातोंरात स्टार बनने वाली पूनम इंटरनैशनल बिकनी डे पर ट्विटर पर अपने फोटो शेयर कर के अपने फैंस को खुश करती हैं. उन की ये तसवीरें इतनी बोल्ड थीं कि उन्हें देख कर अच्छेअच्छों के पसीने छूट जाएं. इतना ही नहीं ‘वर्ल्ड क्लीवेज डे‘ पर वे बिकनी में क्लीवेज दिखा कर अपने बोल्ड अंदाज में सैक्सी तेवर दिखाती हैं.

पूनम की हौट अदाओं का नशा यहीं खत्म नहीं होता, वे अपने विचारों से भी चर्चा में रहती हैं. उन का एक विचार सोशल नैटवर्किंग साइट्स पर ज्ञानवाणी बन जाता है. वे मानती हैं कि रियल वूमन फोटोशौप में बनी मैगजीन की तरह नहीं दिखती, वे उस से कहीं ज्यादा खूबसूरत और आकर्षक है. उन के इस वाक्य पर ढेरों फैंस के कमैंट्स की झड़ी लग जाती है.

अपनी खास अदा और सैक्सी तेवरों के लिए जानी जाने वालीं पूनम पांडे ने तब तो धमाका ही कर दिया, जब वे अपनी आने वाली फिल्म ‘नशा‘ के प्रमोशन के दौरान मुंबई में आयोजित औटो कार शो में वार्डरोब मालफंक्शन का शिकार हुईं. मानो वे इस मौके का इंतजार कर रही थीं. अब आप ही बताइए, यह आग में घी डालने का काम हुआ कि नहीं.

ऐसा कर के वे न केवल सुर्खियों में रहती हैं, बल्कि अपने फैंस की दिल की धड़कनें भी बढ़ा देती हैं और बढ़ाएं भी क्यों न, फैंस उन से चाहते भी यही हैं. जब गुड लुक और बदन में आग हो तो क्यों न उस में घी और मिर्चमसाले का तड़का लगाया जाए, क्योंकि बाजार भी कहता है, ‘जो दिखता है, वही बिकता है.‘

पूनम पांडे की बोल्ड पर्सनैलिटी का एक और जलवा उन की आने वाली फिल्म ‘नशा‘ में बिखरने को तैयार है. इस फिल्म के मुहूर्त शौट पर ही पूनम ने हौट बैडरूम सीन दे कर पहले ही चौकेछक्के लगा दिए हैं. फिल्म के पोस्टर में फिल्म के नाम के सभी अक्षरों को कामसूत्र के आसनों द्वारा दर्शाया गया है. जब फिल्म का पोस्टर इतना हौट है, तो फिल्म तो लोगों के होश ही उड़ा देगी.

पूनम पांडे ने हाल ही में ट्विटर पर कमैंट किया कि बिकनी की कीमत तुम क्या जानो ट्विटर बाबू, पूछो मेरे ट्वीटहार्ट से. ऐसे बयानों से चर्चा का बाजार तो गरम होता ही है साथ ही हौट जवानी में मसालों का तड़का भी लग जाता है यानी कि सोने पे सुहागा.

हौटहौट शर्लिन चोपड़ा

ऐडल्ट मैगजीन प्ले बौय के लिए न्यूड होने वाली हौट और सैक्सी शर्लिन चोपड़ा अब बड़े परदे पर भी आग लगाने को पूरी तरह से तैयार हैं. चूंकि बौलीवुड में कपड़े उतारना हौट ट्रैंड बनता जा रहा है इसलिए बिंदास बाला शर्लिन भी कपड़े उतारने का कोई मौका नहीं छोड़तीं और अपने इस क्रेज को वे सोशल नैटवर्किंग साइट ट्विटर के जरिए पेश करती हैं.

अपनी बोल्ड तसवीरों के अलावा शर्लिन अपने बयानों से भी आग में घी डालने का काम करती हैं. पिछले दिनों शर्लिन ने भारत सरकार से ‘भारत रत्न‘ की भी मांग की.

वे मानती हैं कि ऐसी बोल्ड इमेज का प्रदर्शन कर के वे देश सेवा कर रही हैं. उन की बोल्डनैस से ही चर्चा का बाजार गरम रहता है इसलिए उन्हें ‘भारत रत्न‘ मिलना चाहिए. खुद को चर्चा में रखने के लिए ़कुछ न कुछ करना शर्लिन की खासीयत है.

शर्लिन के इंडियन लुक, बोल्ड अंदाज और डेयरिंग लुक का ही कमाल है कि शर्लिन डायरैक्टर रूपेश पौल की अगली फिल्म ‘कामसूत्र‘ में नजर आएंगी. फिल्म में उन की बोल्डनैस उन के प्रशंसकों को मदहोश ही कर देगी. ‘वौलपेपर क्वीन‘ शर्लिन की फिल्म को हिट करने वाला वीडियो पहले ही ट्विटर पर लीक हो चुका है, जिसे देख कर प्रशंसकों का दिल बल्लियों उछलने लगा है और लोग इस वीडियो का खूब मजा ले रहे हैं.

वात्स्यायन के कामसूत्र पर आधारित इस 3डी फिल्म के बारे में शर्लिन ने एक इंटरव्यू में कहा, ‘कामसूत्र कहीं न कहीं वल्गैरिटी के बहुत करीब है, लेकिन न्यूडिटी वल्गर नहीं है.‘ शर्लिन न्यूडिटी को वल्गर नहीं मानती, वे इसे आर्ट और ऐक्सप्रैशन का एक रूप मानती हैं. सही तो है, यह आर्ट और ऐक्सप्रैशन हर किसी के बस की बात नहीं है. बोल्ड पर्सनैलिटी के तौर पर जानी जाने वाली शर्लिन का मुकाबला अब पूनम पांडे से है.

शर्लिन व पूनम दोनों ही हौट मौडल हैं, दोनों की ही बोल्ड फिल्में आ रही हैं, दोनों में इस बात की होड़ है कि कौन ज्यादा हौट सीन दे सकता है और किस की परफौर्मैंस किस से बेहतर होगी, यह तो फिल्म आने के बाद ही पता चलेगा.

हम भी किसी से कम नहीं

बौलीवुड की बोल्ड व हौट हसीनाओं को फौलो करने वाली मस्तमस्त जवानी वाली और भी बालाएं हैं, जो अपने को हौट और सैक्सी कहलवाने के लिए गरमागरम बोल्ड फोटो शूट करवा कर आग में घी डालती हैं. इन में ‘जस्सी जैसी कोई नहीं‘ कि मोनासिंह का हाल ही में एक वीडियो रिलीज हुआ, जिस ने रातोंरात धमाका कर दिया, हालांकि बाद में वह झूठा निकला. झूठा ही सही पर एक वीडियो ने मोनासिंह को सुर्खियों में तो ला ही दिया.

अपनी बोल्ड अदाओं से बीड़ी जलाने वाली और सब का दिल जीतने वाली इन हसीनाओं की लिस्ट में सोफिया इयान, संभावना सेठ, रोजजिन खान, पायल रोहतगी, राखी सावंत आदि कुछ जानेमाने नाम भी शामिल हैं.

मस्ती के आगे सब फीका

हैती वैसे तो गरीब देश है पर लोग मस्त हैं. तभी तो ‘कार्निवाल औफ फ्लावर्स’ जैसे उत्सवों में मस्ती और रंग छाया रहता है.

लहसुनी पूरी

सामग्री

2 बड़े चम्मच लहसुन पेस्ट, 250 ग्राम आटा, 1 चुटकी पीला कलर, 1 छोटा चम्मच देगीमिर्च, आटा गूंधने के लिए पर्याप्त तेल, नमक स्वादानुसार, तलने के लिए पर्याप्त तेल.

विधि

आटे में पीला कलर व नमक डाल कर दूध से गूंध लें. आटा थोड़ा सख्त होना चाहिए. अब आटे को छोटीछोटी लोइयां बना कर प्रत्येक लोई पर थोड़ा सा लहसुन का पेस्ट और थोड़ी सी देगीमिर्च रख कर पूरी की शेप में बेलें और कड़ाही में गरम तेल में डालें. पूरी अच्छी तरह फूल जाए तो आंच थोड़ी धीमी कर दें. पूरियों को सुनहरा होने तक तल कर गरमगरम सब्जी के साथ सर्व करें.

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