Hindi Social Story: प्रायश्चित्त- कौनसी गलती कर बैठा था वह

Hindi Social Story: ‘‘रोहिणी नामक कोई महिला आप से मिलने का समय तय करना चाहती हैं,’’ निजी सहायक ने इंटरकौम पर बताया.

‘‘मेरा कार्यक्रम देख कर जो भी समय तुम्हें उपयुक्त लगता हो, उन्हें दे दो,’’ सौरभ ने कागजों पर नजर गड़ाए हुए कहा.

‘‘जी, वे कहती हैं कि उन्हें कोई व्यक्तिगत काम है और वे ऐसा समय चाहती हैं जब आप औफिस की चिंताओं से मुक्त हो कर ध्यान से उन की बात सुन सकें.’’ सौरभ को लगा जैसे फोन के दूसरे छोर पर उस का निजी सहायक व्यंग्य से मुसकरा रहा हो.

‘‘ठीक है, मुझ से बात कराओ.’’

लाइन मिलते ही सौरभ ने बात शुरू की, ‘‘हैलो, रोहिणीजी, मैं सौरभ बोल रहा हूं. कहिए, आप की क्या सेवा कर सकता हूं?’’

‘‘नमस्कार, सौरभजी. क्या आज शाम या कल किसी समय आप समय निकाल सकते हैं 1-2 घंटे का?’’ दूसरी ओर से एक संयत और सौम्य स्वर आया.

‘‘लेकिन आप मुझ से किस सिलसिले में मिलना चाहती हैं?’’

‘‘कुछ निहायत व्यक्तिगत काम है, जो फोन पर बताया नहीं जा सकता. कहिए, कब और कहां मिलेंगे?’’

‘‘आज शाम को 6 बजे के बाद आप मेरे घर पर आ जाइए. पता तो…’’

‘‘जी नहीं, आप के घर पर ठीक नहीं रहेगा,’’ रोहिणी ने उस की बात काटी, ‘‘जो बात मैं करना चाह रही हूं, वह शायद आप अपने परिवार को न बताना चाहें और अपनी पुरानी जिंदगी के बारे में बीवीबच्चों को बताना ठीक नहीं.’’

‘‘क्या कह रही हैं आप? मैं ने अपनी जिंदगी में आज तक ऐसा कोई काम नहीं किया जिस के लिए मुझे पछतावा हो या जिसे किसी से छिपाना पड़े,’’ सौरभ ने बड़े गर्व से उस की बात काटी.

‘‘सिवा एक हरकत के. डरिए नहीं, मैं आप को ब्लैकमेल नहीं कर रही, न पैसा हथियाने के चक्कर में हूं. सिर्फ एक सवाल आप के सामने रख कर उसे ठंडे दिमाग से हल करने को कहूंगी. हां तो कहिए, कहां मिलेंगे? आप के दफ्तर में आ जाऊं?’’

‘‘इस समय तो मुझे फुरसत नहीं है और दफ्तर के समय के बाद तो ठीक नहीं लगेगा,’’ वह कुछ हिचकिचाया.

‘‘तो ठीक है, मेरे दफ्तर में आ जाइए. हमारा दफ्तर तो अकसर सारी रात ही चलता रहता है. आप को फेमस पब्लिसिटी का दफ्तर तो मालूम ही होगा. मैं यहां पर कला निर्देशिका हूं और पहली मंजिल पर पहला कमरा मेरा ही है. तो फिर आ रहे हैं न आप?’’

‘‘जी हां,’’ सौरभ के स्वर में अब औपचारिकता से ज्यादा उत्सुकता थी, ‘‘आप कब तक वहां होंगी? मेरा मतलब है शाम को आप की छुट्टी कब होती है?’’

‘‘दफ्तर का समय तो 10 से 5 ही है, लेकिन हमारे यहां काम इतना ज्यादा है कि 9 बजे से पहले तो शायद ही कोई अपनी कुरसी छोड़ता हो. आप को जब भी सुविधा हो, आ जाइए.’’ फिर दूसरी ओर से लाइन कट गई.

सौरभ साढ़े 5 बजे ही रोहिणी के दफ्तर में पहुंच गया. रोहिणी की उम्र 50-55 वर्ष के बीच की थी. आधुनिक ढंग से सजी उस सौम्य महिला ने बड़ी नम्रता से सौरभ का स्वागत किया.

‘‘माफ कीजिए, मैं समय से कुछ पहले ही आ गया हूं. आप ने कुछ ऐसा रहस्य का जाल बुन दिया कि काम में दिल ही नहीं लगा. आधा दिन खराब कर दिया आप ने मेरा,’’ सौरभ कह कर मुसकराया.

‘‘और आप ने जो मेरी आधी जिंदगी खराब कर दी, उस की शिकायत मैं किस से करूं?’’ रोहिणी ने एक दर्दभरी मुसकान के साथ कहा.

‘‘क्या कह रही हैं आप? जहां तक मेरा खयाल है इस से पहले हम कभी मिले भी नहीं,’’ सौरभ अप्रतिम हो कर बोला.

‘‘आप ठीक कह रहे हैं, लेकिन कई बार अनजाने में ही इंसान अपनी जिंदगी संवारने के चक्कर में दूसरों की जिंदगी उजाड़ देता है,’’ रोहिणी के स्वर में कसक थी.

‘‘माफ करिएगा, आप को कुछ गलतफहमी हो रही है. मैं ने आज तक किसी का कुछ नुकसान नहीं किया है. मैं जो आज इस ओहदे पर हूं…’’

‘‘ओह, मैं आप के व्यक्तिगत जीवन की बात कर रही हूं, औफिस की नहीं.’’

‘‘उस में भी मैं दावे से कह सकता हूं कि मैं ने कभी किसी लड़की को बुरी नजर से नहीं देखा. न किसी को सब्जबाग दिखाए और न ही मेरी शक्लसूरत ऐसी है कि जिसे देख कर किसी की नींद उड़े.’’ सौरभ के कहने के ढंग पर रोहिणी खिलखिला कर हंस पड़ी.

सौरभ ने आगे कहा, ‘‘हां, तो बताइए न, किस तरह मैं ने आप की जिंदगी खराब की?’’ सौरभ के स्वर में चुनौती थी.

‘‘आप पूनम को तो नहीं भूले होंगे?’’

‘‘जी नहीं. मानता हूं कि मेरी और पूनम की शादी होने वाली थी, लेकिन पूनम का ही इरादा शादी करने का नहीं था. मेरी तरफ से ऐसी कोई बात नहीं हुई, जिस से पूनम की जिंदगी खराब होती.’’

‘‘जानती हूं. आप ने अपनी और पूनम की जिंदगी अपने मनमुताबिक चलाने के लिए मेरी गाड़ी पटरी पर से उतार दी.’’ रोहिणी के स्वर में पीड़ा थी.

‘‘मैं आप की बात बिलकुल नहीं समझ पा रहा, रोहिणीजी. समझाने की कोशिश करेंगी?’’

‘‘जी हां, वही तो बता रही हूं. पूनम पति नहीं, बल्कि एक ऐसा साथी चाहती थी जो उस के जीवन में एक पुरुष की कमी को तो पूरा कर सके, पर उसे किसी बंधन में न बांधे.’’

‘‘आप बिलकुल ठीक कह रही हैं. उसे पति नहीं, मात्र एक ऐसे पुरुष की आवश्यकता थी जो उस की शारीरिक भूख को मिटा सके. यह मुझे कतई मंजूर नहीं था.’’

‘‘इसलिए आप ने उस की मुलाकात सुमित से करवा दी, जिस से आप के भागने का रास्ता आसान हो गया.’’

‘‘उस की सुमित से मुलाकात मैं ने जरूर करवाई थी, लेकिन बगैर किसी मतलब के. सुमित और मैं बचपन के दोस्त थे, पर पढ़ाई और नौकरी के सिलसिले में अलग हो गए थे. एक बार वर्षों बाद मिलने पर बातचीत के दौरान उस ने पूछा कि मेरी शादी हो गई क्या, मैं ने उसे पूनम की शादी के बारे में जो हिचकिचाहट थी वह बता दी. वह मानने को तैयार ही नहीं हुआ कि अपने देश में भी ऐसे विचारों की लड़कियां हो सकती हैं.

सुमित ने एक बार पूनम से मिलने की इच्छा जाहिर की और मैं ने एक रोज दोनों की मुलाकात करा दी. उस के बाद तो उन दोनों की घनिष्ठता इतनी तेजी से बढ़ी कि उन की दोस्ती करवाने वाला मैं बहुत पीछे छूट गया. खैर, इस सब से आप को क्या फर्क पड़ा?’’

‘‘सिर्फ मुझे ही तो फर्क पड़ा क्योंकि मैं सुमित की बीवी हूं,’’ रोहिणी ने एक सफल खिलाड़ी की तरह अपना तुरुप का इक्का चल दिया.

सौरभ हक्काबक्का रह गया और बोला, ‘‘मैं वाकई बहुत शर्मिंदा हूं कि मैं ने इस तरह आप की जिंदगी बरबाद की, लेकिन सच कहता हूं कि उस समय मुझे यह मालूम नहीं था कि सुमित शादीशुदा है.’’

‘‘और जब मालूम भी हुआ तो क्या उस समय आप को सुमित की पत्नी से कुछ हमदर्दी हुई थी?’’ रोहिणी ने सीधे उस की आंखों में झांकते हुए कहा.

सौरभ उस नजर का सामना न कर सका, ‘‘मेरा खयाल था कि शायद सुमित की पत्नी उस के उपयुक्त न हो, मगर आप को देख कर तो ऐसा नहीं लगता. क्या आप का दांपत्य जीवन सुखी नहीं था?’’

‘‘बहुत ज्यादा, लेकिन उस मनहूस शाम से पहले तक जब सुमित और पूनम मिले थे. वैसे, अब भी अपनी तरफ से तो सुमित मुझे खुश ही रखने की कोशिश करता है.’’

‘‘लेकिन इस सब के बावजूद सुमित पूनम के चक्कर में पड़ा कैसे?’’

‘‘ये काजू देख रहे हैं न आप. इन्हें खाने की इच्छा न आप को थी न मुझे, लेकिन प्लेट सामने रखी है तो मैं भी बराबर खा रही हूं और आप भी. मेरा मतलब है कि अगर एक आधुनिक पढ़ीलिखी स्त्री का सहवास सहज ही मिल जाए तो किसे आपत्ति होगी? और फिर मेरी ओर से भी कोई विरोध नहीं हुआ,’’ रोहिणी चाय का एक घूंट भर कर बोली, ‘‘अब आप पूछेंगे कि मैं ने एतराज क्यों नहीं किया?

मैं कमा कर खुद अपने पैरों पर खड़ी हो सकती थी. मैं ने सुमित को छोड़ा क्यों नहीं? महज अपनी बेटी के लिए. मैं नहीं चाहती थी कि मेरी बेटी तलाकशुदा मांबाप की औलाद कहलाए और समाज में तिरस्कृत हो.

सुमित ने भी उसे भरपूर प्यार दिया और चाहे हम शारीरिक व मानसिक रूप से वर्षों से अलग हो चुके हों, पर अभी भी अपनी बेटी के लिए, दुनिया के सामने हम एक सफल पतिपत्नी का नाटक करते हैं.’’

‘‘काफी मुश्किल काम है यह,’’ सौरभ सहानुभूति से बोला.

‘‘बेहद. पर अब तो खैर आदत पड़ गई है, लेकिन यह जान कर कि इतने दिनों का यह नाटक और मेहनत बेकार गई, मेरी हिम्मत ही टूट गई थी. तभी मुझे आप के बारे में पता चला और मेरी हिम्मत कुछ बढ़ी,’’ रोहिणी कहतेकहते रुक गई.

‘‘हां, कहिए मैं आप की क्या मदद कर सकता हूं?’’ सौरभ की आंखें चमकीं.

‘‘कुछ रोज पहले आप को एक नंबर से गुमनाम एसएमएस मिला था कि आप के बेटे सुनील की दोस्ती एक आवारा खानदान की लड़की के साथ है और आप ने उसे उस बेबुनियाद एसएमएस से डर उस लड़की से संबंध तोड़ लेने को कहा है.’’

‘‘तो क्या रश्मि आप की बेटी है? मुझे मालूम नहीं था,’’ सौरभ खिसिया कर बोला, ‘‘मैं ने रश्मि को देखा है, बड़ी प्यारी लड़की है. देखिए, मुझे इस बारे में ज्यादा तो कुछ पता ही नहीं था. ऐसा एसएमएस देख कर घबराना तो लाजिमी ही था, पर अब खैर बात ही दूसरी है. आप बेफिक्र रहें. मैं बच्चों की खुशी के बीच में नहीं आऊंगा. वैसे, इस एसएमएस के विषय में आप को किस ने बताया?’’

‘‘सुनील ने, रश्मि को अभी कुछ मालूम नहीं है.’’

‘‘तो उसे कुछ भी मालूम न होने दीजिए. आप जब भी कहें, मैं और मेरी पत्नी बाकायदा शादी का प्रस्ताव ले कर आप के यहां आ जाएंगे.’’

‘‘वह तो सुनील और रश्मि की मरजी पर है कि वे कब शादी करना चाहते हैं, फिर मैं और सुमित स्वयं ही आप के यहां आएंगे,’’ रोहिणी ने घड़ी देखी, ‘‘अब चलें, काफी समय हो गया है.’’

‘‘हां, चलिए. अब तो खैर मुलाकात होगी ही.’’

‘‘लेकिन आज की मुलाकात को भूल कर.’’

‘‘आप मुझ पर विश्वास कर सकती हैं,’’ सौरभ विनम्रता से बोला.

सुनील अपने कमरे की छत पर नजर गड़ाए अनमना सा लेटा था.

‘‘सुनील, तुम जब चाहो रश्मि से शादी कर सकते हो, लेकिन एक शर्त है, तुम्हें रश्मि की मां की बहुत इज्जत करनी होगी और उन्हें बहुत प्यार देना होगा.’’

‘‘यह कोई मुश्किल बात नहीं है, पापा. वे बहुत ही अच्छी महिला हैं. उन्हें प्यार करना या इज्जत देना मेरे लिए स्वाभाविक ही होगा.’’

‘‘बुढ़ापे में कई बार इंसान का स्वभाव बदल जाता है. बेटे, वादा करो चाहे वे कैसी भी हों, तुम उन का निरादर या तिरस्कार तो नहीं करोगे. एक बार चाहे मुझे और अपनी मां को मत पूछना, लेकिन अपनी सास का खयाल हमेशा रखना. वादा करते हो.’’

‘‘वादा रहा, पापा. लेकिन आप उन के बारे में इतने फिक्रमंद क्यों हैं? कल तक तो आप उस खानदान से कोई ताल्लुक नहीं रखने को कह रहे थे और आज उन के लिए इतनी हमदर्दी हो रही है,’’ सुनील हंसा.

‘‘एक लंबी कहानी है, बेटे,’’ सौरभ ने सुनील को पूरा किस्सा सुनाया और

बोला, ‘‘रोहिणीजी के प्रति जो गलती  मुझ से अनजाने में हो गई, बेटे, उस का प्रायश्चित्त अब तुम्हें करना है, रश्मि और रोहिणीजी को सदा खुश रख कर.’’

‘‘वादा करता हूं,’’ सुनील के चेहरे का विश्वास साफ झलक रहा था.

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Moral Story: ऊंची उड़ान- स्नेहा को क्या पता चली दुनिया की सच्चाई

Moral Story: ‘‘दीदी, तुम्हारे लिए जतिन का फोन है,’’ कह कर मैं हंसती हुई दीदी के हाथ में फोन दे कर बाहर चली गई.

तभी पिताजी की आवाज आई, ‘‘किस का फोन है इतनी रात में?’’ ‘‘जी पापा, वो…. दीदी की एक सहेली का.’’

‘‘पर मैं ने तुम दोनों से क्या कह रखा है?’’ पापा चिल्लाए तो उन की ऊंची आवाज सुन कर मैं सहम गई. मुझे लगा आज तो दीदी की खैर नहीं. वह हमारे कमरे में चले आए और दीदी को फोन पर हंसते हुए देख कर गरज पड़े.

‘‘स्नेहा, क्या हो रहा है?’’पापा की आवाज से दीदी के हाथ से रिसीवर छूट गया. पापा ने रिसीवर उठाया और उसी लहजे में बोले, ‘‘हैलो, कौन है वहां?’’

उधर से कोई आवाज न पा कर उन्होंने रिसीवर पटक दिया.

‘‘बताओ कौन था?’’

‘‘कोई नहीं पापा. नीरज भैया थे. आप उन से हमेशा नाराज रहते हैं न. इसलिए उन्होंने आप से बात नहीं की,’’ दीदी को कुछ नहीं सूझा तो उन्होंने बड़ी मौसी के बेटे का नाम ले लिया.

नीरज भैया पढ़ाई पर जरा कम ध्यान देते थे. इस वजह से पापा उन्हें पसंद नहीं करते थे.

‘‘इस समय क्यों फोन किया था उस नालायक ने?’’

‘‘पापा, उन्हें मेरी कुछ पुरानी किताबें चाहिए थीं.’’

‘‘उसे कब से किताबें अच्छी लगने लगीं? 11 बज गए हैं घड़ी में अलार्म लगाओ और बत्ती बंद कर सो जाओ.’’

पापा के जाते ही मेरे मुंह से निकला, ‘‘बच गए दीदी.’’

बस, यही थी हमारी जिंदगी. मम्मीपापा, दोनों के अनुशासन के बीच झूठ के सहारे हमारी जिंदगी कट रही थी. मम्मी तो कभीकभी मनमानी करने भी देती थीं पर पिताजी, वह तो लगता था कि पूर्वजन्म के हिटलर थे.

हम दोनों बहनों पर वे ऐसी नजर रखते थे जैसे जेलर कैदियों पर रखता है. घर से बाहर हमें सिर्फ कालिज जाने की इजाजत थी. हमारे हर फोन, हर चिट्ठी, हर दोस्त पर उन की निगाह रहती और हमारे दिलों में उन का एक अजीब सा खौफ बैठ गया था. अकसर जब हम दोनों बहनें दूसरी लड़कियों को फिल्म देखने या घूमने जाने का कार्यक्रम बनाते देखते तो हमें बहुत दुख होता पर इस के अलावा हमारे बस में कुछ था भी नहीं.

इस सब के बावजूद हम दोनों बहनें एकदूसरे के बहुत करीब थीं. मैं तो फिर भी इस सब के बारे में ज्यादा नहीं सोचती थी और खुश रहती थी पर दीदी अपनों का यह व्यवहार देख कर दुखी होती थीं और उन्हें गुस्सा भी बहुत आता था. उन्हें इस बात पर बहुत हैरानी होती थी कि हमारे अपने इतना मानसिक कष्ट कैसे दे सकते हैं.

अगली सुबह जब हम कालिज जा रहे थे तो रास्ते में दीदी ने मुझ से पूछा, ‘‘नेहा, मातापिता इतना दुख क्यों देते हैं?’’

मैं कुछ पल सोचती रही कि क्या कहूं फिर चलतेचलते रुक कर बोली, ‘‘दीदी, पालने वाले जो भी दें, ले लेना चाहिए.’’

‘‘नेहा, तुम्हें इतने अच्छे खयाल कहां से आते हैं?’’ दीदी ने मेरी तरफ देखकर पूछा.

मैं ने आसमान की तरफ देखा और फिर हम हंस पड़े.

ऐसे ही खट्टेमीठे लम्हों के बीच दीदी का बी.ए. हो गया. उन दिनों मेरे पेपर चल रहे थे. जब मैं आखरी पेपर दे कर घर लौटी तो दीदी के बारे में ऐसी बातें सुनने को मिलीं जिस की कल्पना मैं ने सपने में भी नहीं की थी. मम्मीपापा दोनों मुझ पर सवाल बरसाए जा रहे थे.

‘‘बताती क्यों नहीं, किस के साथ भाग गई वह? इसी दिन के लिए पढ़ालिखा रहा था तुम दोनों को.’’

मम्मी बैठेबैठे रोए जा रही थीं. मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूं.

उन के पास जा कर मैं ने कहा, ‘‘मम्मी, दीदी यहीं कहीं होंगी. आप रो क्यों रही हैं?’’

‘‘उस की सब सहेलियों से पूछ लिया है, कहीं नहीं है वह,’’ मम्मी ने रोते हुए बस, इतना ही कहा था कि पापा फिर चिल्ला पड़े, ‘‘कालिख पोत दी हमारे मुंह पर.’’

इतना कह कर वह अपने कमरे में गए और दरवाजा बंद कर लिया. मैं दौड़ कर अपने कमरे में गई और हर चीज को उठाउठा कर देखा. फिर जतिन को फोन मिलाया तो उसे भी दीदी के बारे में कुछ मालूम नहीं था. मैं पलंग पर बैठ कर रोने लगी. तभी मेज पर रखी दीदी की डायरी पर नजर पड़ी. मैं ने उस के पन्ने पलटे तो एक कागज मिला जिस पर लिखा था :

प्रिय नेहा,

तुम्हें याद होगा, कुछ दिनों पहले कालिज में कैंपस इंटरव्यू हुए थे. इस के कुछ दिनों बाद ही मुझे एक कंपनी की ओर से ‘कस्टमरकेयर एग्जिक्यूटिव’ का नियुक्ति पत्र मिला था. मैं मम्मीपापा से इजाजत मांगती तो वे मुझे यह नौकरी नहीं करने देते, इसलिए बिना बताए जा रही हूं.

मुझे मालूम है, उन्हें दुख होगा पर नेहा थोड़े दिन ही सही, मैं खुली हवा में सांस लेना चाहती हूं. यह मत करो, वह मत करो, यहां मत जाओ, वहां मत जाओ, यह मत पहनो, ये बातें सुनसुन कर मैं थक गई हूं. मुझे वहां अच्छा नहीं लगा तो मैं वापस लौट आऊंगी. तुम अपना और मम्मीपापा का ध्यान रखना.

तुम्हारी दीदी,

स्नेहा

इस खत को पढ़ने के बाद मुझे बहुत सुकून मिला. मैं ने पत्र ले जा कर मम्मी को थमा दिया.

‘‘अरे, उसे इस तरह जाने की क्या जरूरत थी? हम से पूछा तो होता…’’

‘‘अगर दीदी पूछतीं तो क्या आप उन्हें जाने देतीं?’’

उन के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं था. वह बुत सी बैठी रहीं और फिर रोने लगीं.

दीदी के जाने के बाद मैं ने मम्मीपापा का एक नया ही रूप देखा. दोनों हमेशा उदास रहते थे. ऐसा लगता था जैसे अंदर ही अंदर टूट रहे हों. जबकि पहले लगता था कि उन के दिल पत्थर के हैं पर अब पता चला कि ऐसा नहीं है. मम्मी की सेहत गिरती जा रही थी और पापा भी घंटों चुपचाप कमरे में बैठे रहते.

उन की तकलीफ इस बात से और बढ़ती जा रही थी कि दीदी ने जाने के बाद कोई खबर नहीं भेजी. मेरी बड़ी अजीब सी स्थिति थी. मम्मीपापा के दुख से दुखी थी पर दिल में दीदी के लिए खुशी भी थी. उन के न होने से अकसर अपनेआप से बातें कर लिया करती कि अगर मम्मीपापा दीदी से इतना ही प्यार करते थे तो उन्हें इतना दुखी क्यों किया जाता था.

कभीकभी लगता कि अच्छा ही हुआ जो दीदी चली गईं. कम से कम थोड़ा सुकून तो पाया उन्होंने.

फिर ऐसे ही एक शाम बैठेबैठे दीदी की बात याद आने लगी.

‘नेहा, एक दिन मैं पर लगा कर आसमान के उस पार उड़ जाऊंगी और सितारों से दोस्ती करूंगी.’

‘फिर मेरा क्या होगा?’

‘तुझे भी अपने साथ ले जाऊंगी.’

‘और जतिन का क्या होगा?’

‘वह…वह तो बस, मेरा दोस्त है जो पता नहीं कैसे बन गया? उसे धरती पर ही रहने दो. आसमान पर सिर्फ हम दोनों चलेंगे.’

और फिर हम जोर से हंस पड़े थे.

वक्त अच्छा हो या बुरा, थमता नहीं है. मेरे आसपास सबकुछ ठहर गया था. मुझे अब दीदी की चिंता होने लगी थी. 3 महीने गुजर जाने के बाद भी उन्होंने कोई खबर नहीं भेजी. इस बीच मुझे यह भी एहसास हो गया कि मातापिता भले ही पत्थर से लगते हों, उन का दिल तितली के पंखों से भी नाजुक होता है.

रविवार के दिन मम्मीपापा को चाय दे कर मैं बरामदे में बैठी ही थी कि गेट खुलने की आवाज आई. देखा तो दीदी थीं. मैं दौड़ कर उन के पास  गई. जब हम गले मिले तो हमारी आंखें भर आईं. मैं ने वहीं से मम्मीपापा को बाहर आने की आवाज दी.

दोनों जब बाहर आए तो दीदी उन के सामने हाथ जोड़ कर रोने लगीं. दोनों ने कुछ भी नहीं कहा. मैं ने उन का सामान उठाया और हम अंदर आ गए.

दीदी को मैं ने पानी दिया. थोड़ा सा पानी पी कर वह पापा से बोलीं, ‘‘आप बहुत नाराज हैं न पापा मुझ से?’’

‘‘नहीं…हां, बच्चे गलती करेंगे तो मांबाप नाराज नहीं होंगे?’’

‘‘होंगे न पापा. होना भी चाहिए. वहां हास्टल में आप तीनों को मैं बहुत मिस करती थी. सितारों से दोस्ती करने गई थी पर उन के पास जा कर पता चला कि वे सिर्फ धरती से ही खूबसूरत दिखाई देते हैं. उन्हें छूना चाहो तो हाथ जल जाता है. मैं अपनी जमीन पर लौट आई हूं पापा. मुझे माफ करेंगे न?’’

पापा ने प्यार से दीदी के सिर पर हाथ फेरा. उस के बाद दीदी ने मम्मी से भी माफी मांगी. उस रात हम लोग चैन से सोए.

‘‘मैं तुम दोनों को अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए ही पढ़ा रहा हूं. तुम्हें नौकरी करनी है तो कर लेना पर पहले अच्छी तरह से पढ़ तो लो, बेटा. उच्च शिक्षा लोगे तो और भी अच्छी नौकरी मिलेगी,’’ नाश्ते की मेज पर पापा की यह बात सुन कर हमें बहुत अच्छा लगा.

दीदी ने एम.ए. में एडमिशन लिया. अब घर में ज्यादा सुकून था. हमारे सारे दोस्त व सहेलियां घर आजा सकते थे और कभीकभी हमें भी उन के साथ बाहर जाने की इजाजत मिल जाती. दीदी को यकीन हो गया था कि सच्ची खुशियां अपनों के ही बीच मिलती हैं.

ऐसे ही एक खुशी के पल में दीदी के साथ मैं एक पार्क के बाहर खड़ी हो कर नारियल पानी पी रही थी. अचानक मुझे एक खयाल आया तो बोल पड़ी, ‘‘दीदी, क्या आप को नहीं लगता कि मांबाप नारियल की तरह होते हैं या ये कहें कि कुछ रिश्ते नारियल जैसे होते हैं, यानी अंदर से मीठे और बाहर से रूखे.’’

दीदी ने मुझे अपने पुराने अंदाज में देखा और बोलीं, ‘‘नेहा, तुम्हें इतने अच्छे खयाल कहां से आते हैं?’’

और इसी के साथ हम दोनों आसमान की ओर देख कर हंस पड़े.

Moral Story

Short Story in Hindi: रसोई गैस: क्या काम आई मैनेजर ने तरकीब

Short Story in Hindi: श्रीमतीजी ताने देदे कर थक चुकी थीं और हम गैस एजेंसी के चक्कर लगालगा कर. हम जब भी जाते एक ही जवाब सुनने को मिलता कि गैस नहीं है… नहीं है… नहीं है… श्रीमतीजी बेचारी हीटर पर खाना बना रही थीं. बिजली का बिल 4 गुना से भी अधिक आ रहा था. बिजली विभाग वालों को भी शक हो रहा था कि कहीं घरेलू बिजली कनैक्शन की आड़ में कोई उद्योग तो नहीं चला रहा है. लेकिन हम क्या कर सकते थे. हम देख रहे थे कि शहर के होटलों में घरेलू गैस का उपयोग हो रहा है.

जब हम ने अपनी व्यथा अपने दोस्त से कही तो उस ने कहा, ‘‘एजेंसी का मैनेजर

मेरा दोस्त है. उस के घर चल कर बात कर लेते हैं. बातचीत से सभी समस्याएं सुलझ

जाती हैं वरना तुम्हारी यह रिपोर्ट प्रैस, पुलिस, उपभोक्ता फोरम के चक्कर में चकरघिन्नी बन कर रह जाएगी… पानी में रह कर मगरमच्छ से बैर ठीक नहीं. फिर तू आम आदमी है. अपनी औकात में रह… लड़नेझगड़ने से कुछ नहीं होगा.

‘‘कितने लोगों ने गैस एजेंसी पर पत्थरबाजी की… पुलिस के छापे पड़े… क्या हुआ? कुछ नहीं. उलटे शिकायत करने वाले नजरों में चढ़ गए… उन की तो हमेशा की परेशानी हो गई. नियम बताने को धमकी समझते हैं ये लोग. फिर एकाध बार की

बात नहीं है. पूरा जीवन जरूरत पड़ती है

गैस की. अकेला होता तो होटल में खा लेता. घरपरिवार बसा कर ये सब करना ठीक नहीं होगा.’’

हम समझ गए. अत: दोस्त के साथ गैस एजेंसी के मैनेजर के घरगए. उस के बच्चों के लिए मिठाई भी ले गए.

मैनेजर ने बड़े अदब से बैठाया और फिर पूछा, ‘‘कहिए, क्या काम है?’’

हम ने अपनी व्यथा बताई, ‘‘सर, गैस

बुक कराए कई दिन हो गए हैं, लेकिन गैस आज तक नहीं मिली… परची कटती है

457 की, लेकिन देने पड़ते हैं 460. हमें कहते हैं कि गैस अभी नहीं आई है, पर आप की एजेंसी की गैस बाजार में उपयोग हो रही है… जबकि नियम के अनुसार…’’

मैनेजर ने हमारी बात बीच ही में काटते हुए कहा, ‘‘देखिए, नियमकानून की ही बात करनी थी तो घर क्यों आए? एजेंसी में ही मिल लेते… रही रुपयों की बात तो खुले

457 दिया कीजिए… हम लोगों ने कोई रेजगारी की फैक्टरी तो खोल नहीं रखी है, जो हर आदमी 460 दे और हम 3 रुपए की रेजगारी देते रहें.’’

हमारे दोस्त ने बिगड़ती बात को संभालते हुए कहा, ‘‘नहीं यार, यह तो पुरानी बात हो गई… यह तो इस ने यों ही कह दिया… वर्तमान समस्या यह है कि इस के घर में 2 माह से गैस नहीं है… कुछ कर भाई… बड़ी दिक्कत में है बेचारा.’’

‘‘परची कब कटवाई थी?’’ मैनेजर ने पूछा.

‘‘2 माह पहले,’’ हम ने कहा.

‘‘वह तो अब लैप्स हो गई है.’’

‘‘सर, 21 दिन पहले फिर से कटवाई थी,’’ हम ने लपलपाती नजरों से मैनेजर की तरफ देखा.

‘‘आप के घर में कोई और साधन नहीं है. मसलन लकड़ी, कोयला, मिट्टी का तेल?’’

‘‘नहीं सर,’’ हम निराशा में गोते लगाने लगे.

‘‘तो एक और कनैक्शन क्यों नहीं ले लेते?’’

‘‘सर, एक और है पत्नी के नाम. लेकिन इस बार मेहमान आ गए… फिर ठंड होने के कारण पानी गरम करने के कारण भी… लेकिन सर हम नियमानुसार ही 2 कनैक्शन के हिसाब से ही…’’

मैनेजर फिर बात बीच ही में काट कर बोला, ‘‘यार, तुम नियमकानून बहुत बताते हो… एक बात बताइए, आप प्रेम में विश्वास रखते हैं या नियमों में?’’

हम ने झेंपते हुए कहा, ‘‘माफ करना सर, हम तो प्रेम में ही विश्वास रखते हैं.’’

‘‘तो फिर आप अपनी पत्नी से भी प्रेम करते होंगे?’’

‘‘जी,’’ कह हम ने सोचा कि यह कैसा प्रश्न है?

‘‘यदि पत्नी से प्रेम करते हैं तो उस से फिर किस बात का बदला ले रहे हैं? दहेज में कुछ कमी रह गई थी क्या?’’

‘‘नहीं तो सर… यह क्या कह रहे हैं आप?’’ हम ने मरियल आवाज में कहा.

 

मैनेजर ने गंभीरता से कहा, ‘‘अजीब बातहै, आप को दहेज भी मिला, पत्नी से

प्रेम भी करते हैं और घर में 2 माह से गैस नहीं है.’’

‘‘जी हम तो जाते हैं, लेकिन…’’

‘‘आप सैर करने जाते हैं या गैस लेने?’’ मैनेजर ने व्यंग्य से पूछा, ‘‘भाई, घर में गैस

2 माह से नहीं है. आप पहले नहीं आ सकते थे? आप एजेंसी के चक्कर तो ऐसे लगा रहे हैं जैसे प्रेमी अपनी प्रेमिका के चक्कर लगाता है… आम आदमी हो कर नियमों की बात तो ऐसे करते हो मानो कोई चूहा बिल्ली को खाने की सोच रहा हो… किस युग में रहते हैं आप?’’

हम खामोश सुनते रहे. क्या करते?

मैनेजर बोलता रहा, ‘‘यदि हम आप की तरह नियमकानून पर चलने लगे तो अब तक एजेंसी किसी और के पास चली गई होती. हम बेकार हो जाते… हमारी तकलीफ भी समझिए. हमें बड़े अधिकारियों के यहां उन के एक फोन पर 1 माह में कई सिलैंडर पहुंचाने पड़ते हैं. शहर के रसूखदारों, गुंडों से ले कर धार्मिक आयोजनों में जो लंगर लगते हैं, चाहे वे किसी भी धर्म के हों, सब का ध्यान रखना पड़ता है. हम कमाएं कहां से? बाजारों, होटलों से ही हमारी कमाई होती है… आप तो हमारे ही पेट पर लात मारने लगे.’’

‘‘सर गलती हो गई, आप नाराज मत होइए… बस हमारी समस्या दूर कर दीजिए…’’

‘‘चलो, तुम घर आए हो, मेरे दोस्त के दोस्त हो, तुम्हें अपनी पत्नी से भी प्रेम है

और फिर यह एक दिन की बात तो है नहीं

कि लड़ कर, कानून बता कर गैस ले गए. जीवन भर गैस चाहिए… तुम क्व100 अतिरिक्त दे दिया करो, गैस तुम्हारे घर पहुंचाने की जिम्मेदारी हमारी… हमारे होते हुए आप चिंता क्यों करते हैं?’’

हमारे पास कोई चारा नहीं था. इस हाथ दे उस हाथ ले. न एजेंसी के चक्कर लगाने की जरूरत न गोदाम जा कर लाइन में खड़े होने की. और तो और न ही परची कटवाने की जरूरत. बस फोन किया, पैसे दिए और सिलैंडर ले लिए.

Aparna Srivastava: जब हम किसान को संवारते हैं, तभी हम देश के भविष्य को संवारते हैं

Aparna Srivastava: जब हम एंटरप्रेन्योरशिप की बात करते हैं तो अक्सर हमारे दिमाग में स्टार्टअप, कॉर्पोरेट दफ्तर और शहरों की चमक दमक आती है. लेकिन असली और प्रभावशाली उद्यमी वे हैं जो गाँवों और खेतों में रहकर जीवन बदल रहे हैं. अपर्णा श्रीवास्तव उनमें से एक नाम हैं—एक प्रखर बदलावकर्ता, ग्रामीण समाज की आवाज़ और आज नवचेतना एरो सेंटर प्रोड्यूसर कंपनी लिमिटेड की अध्यक्षा जो सिर्फ मुनाफे की नहीं बल्कि पूरे ग्रामीण भारत की उन्नति की सोच रखती हैं.

पुरस्कारों से सम्मानित

अपर्णा का सफर कभी साधारण नहीं था. सामाजिक संगठनों के साथ यात्रा शुरू करने वाली यह महिला आज किसानों और महिलाओं का आधार स्तंभ बन चुकी हैं. उनके नेतृत्व में नवचेतना किसान उत्पादक कम्पनी प्राकृतिक खेती को प्रोत्साहित करने में अग्रणी बना और हाल ही में BCCI (बंगाल चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री) द्वारा सम्मानित हुआ. इतना ही नहीं नवचेतना का कार्य अब विश्व मंच तक पहुँच चुका है और इसे हॉलीवुड के पर्यावरण डॉक्यूमेंट्री निर्देशक जोश टिकेल की आगामी फिल्म में शामिल किया जा रहा है. यही नहीं उत्तर प्रदेश सरकार के शक्ति पोर्टल में नवचेतना बार-बार शीर्ष स्थान पर आने वाला किसान उत्पादक कम्पनी बन गया है—यह सफलता मेरिट पर आधारित वास्तविक परिणामों की गवाही देती है.

उन्होंने एग्री-टूरिज्म की शुरुआत की. उनके मुताबिक खेत सिर्फ श्रम का स्थान नहीं हैं बल्कि सौंदर्य और कृतज्ञता का स्थान भी है. शहरी परिवार जब नवचेतना के खेतों में आते हैं तो वे न केवल ताज़ी सब्जियां व पकवान चखते हैं बल्कि यह भी महसूस करते हैं कि उन की थाली का अन्न कैसा किसान उगाता है. अपर्णा कहती हैं— “हमारे किसान राष्ट्र को भोजन दे रहे हैं, पर उन्हें सम्मान कम ही मिलता है. एग्री-टूरिज़्म के जरिये मैं चाहती हूँ कि शहरी भारत और ग्रामीण भारत एक-दूसरे को जानें और सम्मान दें.”

aparna srivastava

गाय आधारित डेयरी किसान उत्पादक कम्पनी

अपर्णा ने हाल ही में एक और बड़ा कदम उठाया है—गाय आधारित डेयरी किसान उत्पादक कम्पनी का गठन. उनका मानना है कि भारतीय देसी गाय सिर्फ दूध देने वाली मशीन नहीं बल्कि माँ के बराबर स्थान रखने वाली प्राणी है.

मिट्टी से जुड़ी, विश्व को प्रेरित करती

अपर्णा श्रीवास्तव इस बात का प्रमाण हैं कि ग्रामीण भारत की स्त्री केवल घर की नहीं, बल्कि पूरे देश की नेतृत्वकर्ता बन सकती है. वह उस नयी पीढ़ी की महिला उद्यमी हैं जो लाभ से ज्यादा मूल्य खोजती हैं. जो किसान को सिर्फ उत्पादक नहीं बल्कि राष्ट्र निर्माता मानती हैं.

ग्रामीण सशक्तिकरण का समग्र मॉडल

अपर्णा की असली खूबी यह है कि वे ग्रामीण विकास को टुकड़ों में नहीं देखतीं. उनकी सोच बहुआयामी है.

उनकी इस निष्ठा और नेतृत्व को सरकार और समाज ने बार-बार सराहा है. चाहे जागरण अचीवर अवार्ड लंदन हो, उत्तर प्रदेश कृषि मंत्री द्वारा सर्वश्रेष्ठ किसान उत्पादक कम्पनी पुरस्कार या फिर मिलियनेयर फार्मर अवार्ड—अपर्णा को मिले सम्मान उनके जज़्बे की गवाही देते हैं. लेकिन उनके लिए असली पुरस्कार तब है जब किसान चेहरे पर मुस्कान लेकर सोते हैं और महिलाएँ अपने पैरों पर खड़ी होती हैं.

Hindi Drama Story: मिलावट- क्यों रहस्यमय थी सुमन

Hindi Drama Story: कमलाजी के दोगलेपन को देख कर बीना चिढ़ उठती थी. वह उन के इस व्यवहार के पीछे छिपे मनोवैज्ञानिक तथ्य तक पहुंचना चाहती थी. और जिस दिन उसे वजह पता चली तो उस पर विश्वास करना बीना के लिए मुश्किल हो रहा था.

‘‘वाह बीनाजी, आज तो आप कमाल की सुंदर लग रही हैं. यह नीला सूट और सफेद शौल आप पर इतना फब रहा है कि क्या बताऊं. मेरे साहब को भी नीला रंग बहुत पसंद है. जब भी खरीदारी करने जाओ, यही नीला रंग सामने रखवा लेंगे.’’

कमलाजी के जानेपहचाने अंदाज पर उस दिन बीना न मुसकरा पाई और न ही अपनी प्रशंसा सुन कर पुलकित ही हो पाई. सदा की तरह हर बात के साथ अपने पति को जोड़ने की उन की इस अनोखी अदा पर भी उस दिन वह न तो चिढ़ पाई और न ही तुनक पाई.

‘‘कमलाजी हर बात में अपने पति को क्यों खींच लाती हैं?’’ बीना ने सुमन से पूछा.

‘‘अरे भई, बहुत प्यार होगा न उन्हें अपने पति से,’’ सुमन ने उत्तर दिया.

‘‘फिर भी, कालेज के स्टाफरूम में बैठ कर हर समय अपनी अति निजी बातों का पिटारा खोलना क्या ठीक है?’’ बीना ने एक दिन सुमन के आगे बात खोली, तब हंस पड़ी थी सुमन.

‘‘कई लोगों को अपने प्यार की नुमाइश करना अच्छा लगता है. लोगों में बैठ कर बारबार पति का नाम, उस की पसंदनापसंद का बखान करना भाता है. भई, अपनाअपना स्वभाव है. अब तुम्हीं को देखो, तुम तो पति का नाम ही नहीं लेती हो.’’

‘‘अरे, जरूरी है क्या यह सब?’’

बीना की बात सुन कर सुमन खिलखिला कर हंसने लगी थी. फिर उस के बदले तेवर देख कर सुमन ने उस का हाथ थपथपा कर पुचकार दिया था, ‘‘चलो, छोड़ो, प्रकृति ने अनेक तरह के प्राणी बनाए हैं. उन में एक कमलाजी भी हैं, सुन कर  झाड़ दिया करो, दिल से क्यों लगाती हो?’’

‘‘अरे, मैं भला दिल से क्यों लगाऊंगी. इतनी गंभीर नहीं हूं मैं, और न ही मेरा दिल इतना…’’

बीना की बात को बीच में ही काटते हुए सुमन बोली, ‘‘चलो, छोड़ो भी. लो, समोसा खाओ.’’

मस्त स्वभाव की सुमन स्थिति को सदा हलकाफुलका बना कर देखती थी. बीना को कालेज में आए अभी कुछ ही समय हुआ था और इस बीच सुमन से उस का दिल अच्छा मिल गया था.

कभीकभी उसे सुमन बड़ी रहस्यमयी लगती थी. ऐसा लगता था जैसे बहुतकुछ अपने भीतर वह छिपाए हुए है. सुमन किसी भी स्थिति की समीक्षा  झट से कर के दूध पानी अलगअलग कर सारा  झं झट ही समाप्त कर देती है.

‘‘देखो बीना, किसी बात को अधिक गंभीरता से सोचने की जरूरत नहीं है. रात गई बात गई, बस. समाप्त हुआ न सारा  झमेला,’’ सुमन ने बीना को सम झाया. वह बात को  झट से एक सुखद मोड़ दे देती, मानो कहीं कुछ घटा ही नहीं.

‘‘अरे, वाह नीमाजी, आज तो आप बहुत सुंदर लग रही हैं.’’

एक सुबह बीना के सामने ही कमलाजी ने उस की एक सहयोगी नीमा की जी खोल कर तारीफ की थी, मगर जैसे ही वह क्लास लेने गई, पीछे से मुंह बिचका कर यह कह कर हंसने लगीं, ‘‘कैसी गंदी लग रही है नीमा. एक तो कालीकलूटी सूरत और ऊपर से ऐसा रंग, मु झे तो मितली आने लगी थी.’’

कमलाजी के इस दोगले आचरण को देख कर बीना अवाक रह गई. एक पढ़ीलिखी, कालेज की प्रोफैसर से उसे इस तरह के आचरण की आशा न थी.

‘‘मेरे पति को भी इस तरह के चटक रंग पसंद नहीं हैं. शादी में मेरी मां की ओर से ऐसी साड़ी मिली थी, पर उन्होंने कभी मु झे पहनने ही नहीं दी. मैं तो कभी पति की नापसंद का रंग नहीं पहनती. क्या करें, जिस के साथ जीना हो उस की खुशी का खयाल तो रखना ही पड़ता है,’’ कमलाजी के मुंह से इस तरह की बातों को सुन कर तब बीना को अपनी प्रशंसा में कहे गए कमला के शब्द  झूठे लगे थे. उसे लगा था कि उस की तारीफ में कमलाजी जो कुछ कहती हैं उस का दूसरा रूप यही होता होगा जो उस ने अभीअभी नीमा के संदर्भ में देखा है. उस के बाद तो बीना कभी भी कमलाजी के शब्दों पर विश्वास कर ही नहीं पाई.

कमलाजी के शब्दों पर सदा  झल्ला ही पड़ती थी. एक दिन बोल पड़ी थी, ‘‘हांहां, कमलाजी, आते समय मैं ने भी शीशा देखा था. वास्तव में सुंदर लग रही थी.’’

‘‘आप को आतेआते शीशा देखना याद रहता है क्या? मु झे तो समय ही नहीं मिलता. सुबहसुबह कितना काम रहता है. सुबह के बाद कहीं देररात जा कर चारपाई नसीब होती है. दिनभर काम करतेकरते कमर टूट जाती है. ऊपर से पतिदेव का कहना न मानो, तो मुसीबत. हम औरतों की भी क्या जिंदगी है. मैं तो सोच रही हूं कि नौकरी छोड़ दूं. फिर मेरे पति भी कहते हैं कि यह क्या, 3 हजार रुपए की नौकरी के पीछे तुम मेरा घर भी बरबाद कर रही हो.’’

‘‘तो छोड़ दीजिए नौकरी. आप के पति की आमदनी अच्छी है और आप शाम तक इतना थक भी जाती हैं, तो जरूरत भी क्या है?’’ बीना ने तुनक कर उत्तर दिया था.

‘‘बीना, चलो, तुम्हारी क्लास है,’’ सुमन उस की बांह पकड़ कर उसे बाहर ले आई थी, ‘‘क्यों सुबहसुबह कमलाजी से उल झ रही हो?’’

‘‘मु झे ऐसे दोगले इंसान दोमुंहे सांप जैसे लगते हैं, सुमनजी. मुंह पर कुछ और पीठपीछे कुछ. और जब देखो, अपनी राय दूसरों को देती रहती हैं.’’

‘‘बीना, तुम वही कमजोरी दिखा रही हो. मैं ने कहा न, इस तरह के लोगों को सुनाअनसुना कर देना चाहिए.’’

‘‘सुमनजी, आप भी बस…’’

‘‘देखो बीना, यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि मनुष्य अपनी कमजोरी को छिपाने के लिए उसी कमजोरी के न होने का ढोंग बड़े जोरशोर से करता है. मन में किसी तरह की कोई कुंठा हो तो दूसरों का मजाक उड़ा कर उस कुंठा को शांत करता है. ऐसे लोग दया के पात्र होते हैं. उन पर हमें क्रोध नहीं करना चाहिए.’’

‘‘क्या कमजोरी है कमलाजी को? अच्छीखासी सुंदर हैं. अमीर घर से संबंध रखती हैं. पति उन पर जान छिड़कता है. इन के मन में क्या कुंठा है?’’

‘‘कोई तो होगी. हमें क्या लेनादेना. हम यहां नौकरी करने आते हैं, किसी की कुंडली जानने नहीं.’’

चुप रह गई थी बीना. सुमन उस से उम्र में बड़ी थी, इसलिए आगे बहस करना उसे अच्छा न लगा था.

एक शाम बीना परिवार समेत सुमन के घर गई थी. तब सुमन ने बड़े प्यार से, बड़ी बहन की तरह उसे सिरआंखों पर बिठाया था.

‘‘मेरे बेटे से मिलो. ये देखो, मेरे बच्चे के जीते हुए पुरस्कार,’’ फिर बेटे की तरफ देख कर बोली, ‘‘बेटे, ये बीना मौसी हैं. मेरे साथ कालेज में पढ़ाती हैं.’’

कालेज में शांत और संयम से रहने वाली सुमन बीना को कुछ दिखावा सा करती प्रतीत हुई थी. बारबार अपने बेटे की प्रशंसा और उस की उपलब्धियों का बखान करती हुई, उस के द्वारा जीते गए कप व अन्य पुरस्कार ही दिखाती रही.

‘‘मुझे अपने बेटे पर गर्व है,’’ सुमन फिर बोली, ‘‘क्या बताऊं, बीना, बहुत प्यार करता है. असीम को छोड़ कर कहीं चली जाऊं, तो इसे बुखार हो जाता है.’’

मां और बच्चे में प्यार और ममता तो सहज होती है. उसे बारबार अपने मुंह से कह कर प्रमाणित करने की जरूरत भला कहां होती है.

उस रात बीना ने अनायास पति के सामने अपने मन की बात कह दी, तो वे भी गरदन हिला कर बोले, ‘‘हां, अकसर ऐसा होता है. जहां जरा सी मिलावट हो वहां मनुष्य जोरशोर से यही साबित करने में लगा रहता है कि मिलावट है ही नहीं. जो पतिपत्नी घर पर अकसर कुत्तेबिल्ली की तरह लड़ते रहते हैं वे चार लोगों में ज्यादा चिपकेचिपके से रहते हैं. मानो, लैलामजनू के बाद इतिहास में इन्हीं का स्थान आने वाला है.’’

‘‘आप का मतलब सुमनजी को अपने बच्चे से प्यार नहीं है.’’

‘‘बच्चे से प्यार नहीं है, ऐसा तो नहीं हो सकता. मगर कुछ तो असामान्य अवश्य है जिसे तुम्हारी सुमन बहनजी सामान्य बनाने के चक्कर में स्वयं ही असामान्य व्यवहार कर रही थीं, क्योंकि जो सत्य है, उसे चीखचीख कर बताने की जरूरत नहीं होती. और फिर रिश्तों में तो दिखावे की जरूरत होनी ही नहीं चाहिए. अरे भई, पतिपत्नी, मांबेटे, सासबहू, भाईबहन, इन में अगर सब सामान्य है, तो है. प्यार होना चाहिए इन रिश्तों में जो कि प्राकृतिक भी है. उसे मुंह से कह कर बताने व दिखाने की जरूरत नहीं होती. अगर कोई चीखचीख कर कहता है कि उन में बहुत प्यार है, तो सम झो, कहीं कोई दरार अवश्य है.’’

पति के शब्दों पर विचार करतीकरती बीना फिर कमलाजी के बारे में सोचने लगी. मनुष्य लाख अपने आसपास से कट कर रहने का प्रयास करे, मगर एक सामाजिक जीव होने के नाते वह ऐसा नहीं कर सकता. उस का माहौल उसे प्रभावित किए बगैर रह ही नहीं सकता. सुमन कभी कालेज में अपने बेटे का नाम नहीं लेती थी, जबकि कमला बातबात में पति का बखान करती हैं. वह मन ही मन कमला और सुमन का व्यवहार मानसपटल पर लाती रही थी और उस मनोवैज्ञानिक तथ्य तक पहुंचना चाहती थी कि क्या वास्तव में कहीं कोई मिलावट है?

धीरेधीरे समय बीतने लगा था और वह कालेज के वातावरण में रह कर भी उस में पूरी तरह लिप्त न होने का प्रयास करने लगी थी.

एक दिन सब चाय पी रही थीं कि एकाएक कप की चाय छलक कर सुमन की शौल पर गिर गई.  झट से बाथरूम की ओर भागी थी वह.

‘‘नई शौल खराब हो गई,’’ नीमाजी ने कहा.

तब  झट से कमलाजी ने भी कहा था, ‘‘यह वही शौल है जो हम सब ने मिल कर सुमन की शादी पर उसे उपहार में दी थी.’’

उन की बातों को सुन कर बीना तब स्तब्ध रह गई थी. सुमन की शादी में शौल दी थी. यह शौल तो आजकल के फैशन की है, मतलब सुमन की शादी अभी हुई है.i]k8

बीना चुप थी. उसे बातोंबातों में पता चल गया था कि सुमन की शादी सालदोसाल पहले ही हुई है और वह 20 साल का जवान लड़का, अवश्य सुमन का सौतेला बेटा होगा. इसीलिए सुमन मेहमानों के सामने यही प्रमाणित करने में लगी रहती है कि उसे उस से बहुत प्यार है. मेरा बेटा, मेरा बच्चा कहतेकहते उस की जीभ नहीं थकती.

जीवन के इस दृष्टिकोण से बीना का पहली बार सामना हुआ था. वास्तव में इस जीवन के कई रंग हैं, यही कारण होगा जिस ने सुमन को इतना संजीदा व सम झदार बना दिया होगा.

इतनी अच्छी है सुमन, तभी तो सौतेले बेटे के सामने उस की इतनी प्रशंसा, इतना सम्मान कर रही थी. उस ने इसे दिखावा माना था. हो सकता है वहां दिखावे की ही जरूरत थी. कई बार मुंह से भी कहना पड़ता है कि किसी को किसी से प्यार है. जहां कुछ सहज न हो वहां असहज होना जरूरत बन जाती है.

सुमन से उस ने इस बारे में कोई बात नहीं की थी, परंतु उस के व्यवहार को वह बड़ी बारीकी से सम झने लगी थी. सुमन बेटे का स्वेटर बुन रही थी. जब पूरा हो गया तब अनायास उस के मुंह से निकल गया, ‘‘मैं नहीं चाहती, उसे कभी अपनी मां की कमी महसूस हो.’’

बीना उत्तर में कुछ नहीं कह पाई थी. आंखें भर आई थीं सुमन की.

‘‘सौतेली मां होना कोई अभिशाप नहीं होता. मेरा बच्चा आज मु झ पर जान छिड़कता है. यह डेढ़ साल की अथक मेहनत का ही फल है जो असीम सामान्य हो पाया है. बहुत मेहनत की है मैं ने इस बगैर मां के बच्चे पर, तब जा कर उसे वापस पा सकी हूं, वरना पागल ही हो गया था यह अपनी मां की मौत के बाद.’’

तब बीना ने सुमन का हाथ थपथपा दिया था.

‘‘बीना, हर इंसान का जीवन एक युद्ध है. हर पल स्वयं को प्रमाणित करना पड़ता है. यह जीवन सदा, सब के लिए आसान नहीं होता, किसी के लिए कम और किसी के लिए ज्यादा दुविधापूर्ण होता है. इस तरह कुछ न कुछ कहीं न कहीं लगा ही रहता है.’’

एक लंबी सांस ले कर सुमन बोली, ‘‘ये जो कमला हैं, जिन पर तुम सदा चिढ़ी सी रहती हो, इन के बारे में तुम क्या जानती हो?’’ सुमन की अर्थपूर्ण व धाराप्रवाह बातों को सुन कर बीना की सांस रुक गई थी.

‘‘6 साल का एक बच्चा है उन का. शादी के 4-5 महीने के बाद ही पति ने कमला को तलाक दे दिया, क्योंकि उस का संबंध किसी और युवती से था. कमला कितनी सुंदर हैं, अच्छे घर की हैं, पढ़ीलिखी हैं, मगर जीवन में सुख था ही नहीं.’’

बीना जैसे आसमान से नीचे गिरी. सुमन के शब्दों पर उसे विश्वास नहीं आया.

‘‘पति का नाम लेले कर अगर वे अपने मन का कोई कोना भर लेती हैं तो हमें भरने देना चाहिए. यहां हमारे कालेज में सभी जानते हैं कि कमलाजी तलाकशुदा हैं. मगर वे इस सचाई को नहीं जानतीं कि हम इस कड़वे सत्य को जानते हैं. अब क्यों उन का दिल दुखाएं, यही सोच कर उन की बातों को सुनाअनसुना कर देते हैं.’’

बीना रो पड़ी थी. सुमन के हिलते हुए होंठों को देखती रही थी. बातों के प्रवाह में समुन बहुतकुछ कहती रही थी, जिन्हें उस ने सुना ही नहीं था.

‘‘क्या सोच रही हो, बीना, मैं तुम्हारे सूट की तारीफ कर रही हूं और तुम…’’

कमलाजी के इसी अंदाज पर बीना कितनी पीछे चली गई थी. अपना व्यवहार  झटक दिया बीना ने. नई नजर से देखा उस ने कमलाजी को और मुसकरा कर उन का हाथ थपक दिया.

‘‘जी कमलाजी, आप ठीक कह रही हैं.’’

कभीकभी उसे सुमन बड़ी रहस्यमय लगती थी. ऐसा लगता था जैसे बहुतकुछ अपने भीतर वह छिपाए हुए है. सुमन किसी भी स्थिति की समीक्षा  झट से कर के दूध पानी अलगअलग कर सारा  झंझट ही समाप्त कर देती है.

Hindi Drama Story

Short Story in Hindi: पति नहीं सिर्फ दोस्त

Short Story in Hindi: 3 दिन हो गए स्वाति का फोन नहीं आया तो मैं घबरा उठी. मन आशंकाओं से घिरने लगा. वह प्रतिदिन तो नहीं मगर हर दूसरे दिन फोन जरूर करती थी. मैं उसे फोन नहीं करती थी यह सोच कर कि शायद वह बिजी हो. कोई जरूरत होती तो मैसेज कर देती थी. मगर आज मुझ से नहीं रहा गया और शाम होतेहोते मैं ने स्वाति का नंबर डायल कर दिया. उधर से एक पुरुष स्वर सुन कर मैं चौंक गई. हालांकि फोन तुरंत स्वाति ने ले लिया मगर मैं उस से सवाल किए बिना नहीं रह सकी.

‘‘फोन किस ने उठाया था स्वाति?’’

‘‘मां, वह रोहन था… मेरा दोस्त’’, स्वाति ने बेहिचक जवाब दिया.

‘‘मगर तुम तो महिला छात्रावास में रहती हो ना. क्या वहां पुरुष मित्रों को भी आने की इजाजत है? वह भी इस वक्त?’’  मैं ने थोड़ा कड़े लहजे में पूछा.

‘‘मां अब मैं होस्टल में नहीं रहती. मैं रोहन के साथ रह रही हूं उस के फ्लैट में. रोहन मेरे साथ ही कालेज में पढ़ता है.’’

‘‘क्या? कहीं तुम ने हमें बताए बिना शादी तो नहीं कर ली?’’

‘‘नहीं मां, हम लिवइन रिलेशनशिप में रह रहे हैं.’’

‘‘स्वाति, तुम्हें पता है तुम क्या कर रही हो? अभी तुम्हारी उम्र अपना कैरियर बनाने की है. और तुम्हारी ही उम्र का रोहन…वह क्या तुम्हारे प्रति अपनी जिम्मेदारी समझता है?’’

‘‘मां, हम दोनों सिर्फ दोस्त हैं.’’

‘‘लड़कालड़की दोस्त होने से पहले एक लड़की और लड़का होते हैं. कुछ नहीं तो कम से कम अपने और परिवार की मर्यादा का तो खयाल रखा होता. हम ने तुझे आधुनिक बनाया है, इस का मतलब यह तो नहीं कि तू हमें यह दिन दिखाए. लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे?’’ मैं पूरी तरह से तिलमिला गई थी.

‘‘मां, समाज और बिरादरी की बात न ही करो तो अच्छा है. वैसे भी आप की दी गई शिक्षा ने मुझे अच्छेबुरे का फर्क तो समझा ही दिया है.

‘‘रोहन उन छिछोरे लड़कों की तरह नहीं है जो सिर्फ मौजमस्ती के लिए लिवइन में रहते हैं और न ही मैं वैसी हूं. हम दोनों एकदूसरे की पढ़ाई में भी मदद करते हैं और कैरियर के प्रति भी हम पूरी तरह से जिम्मेदार हैं.’’

‘‘लेकिन बेटा, कल को अगर रोहन ने तुम्हें छोड़ दिया तो…तुम्हारी मानसिक स्थिति…’’ मैं अपनी बेटी के भविष्य को ले कर कोई सवाल नहीं छोड़ना चाहती थी.

‘‘मां, हम दोनों पतिपत्नी नहीं हैं, इसलिए ‘छोड़ने’ जैसा तो सवाल ही नहीं उठता. और अगर कभी हमारे बीच में कोई प्रौब्लम होगी तो हम एकदूसरे के साथ नहीं रहेंगे और उस के लिए हम दोनों मानसिक रूप से तैयार हैं,’’ स्वाति पूरे आत्मविश्वास से बोल रही थी.

‘‘और यदि तुम दोनों के बीच बने दैहिक संबंधों के कारण…’’ मैं ने हिचकते हुए सब से मुख्य सवाल भी पूछ ही लिया.

‘‘यह महानगर है, मां, तुम चिंता मत करो. मैं ने इस के लिए भी डाक्टर और काउंसलर दोनों से बात कर ली है.’’

‘‘अच्छा, तभी इतनी समझदारी की बात कर रही हो. ठीक है मैं भी जल्दी ही आती हूं तुम्हारे रोहन से मिलने.’’

‘‘सब से बड़ी समझदारी तो आप के संस्कारों और मेरे प्रति आप के विश्वास ने दी है मगर एक बात आप लोग भी याद रखिएगा, मां…कि आप उस से सिर्फ मेरा दोस्त समझ कर मिलिएगा, मेरा पति समझ कर नहीं.’’

स्वाति से बात कर मैं सोफे पर बैठ गई. स्वाति की बातें सुन यह महसूस हो रहा था कि बचपन से ही बच्चों की जड़ों में सुसंस्कारों और मर्यादित आचरण

का खादपानी देना हम मातापिता की जिम्मेदारी है. इन्हीं आदर्शों को स्वयं

में संचित कर ये बच्चे जब अपनी सोचसमझ से कोई निर्णय या अपनी इच्छा के अनुरूप चलना चाहते हैं, तब मातापिता का उन्हें अपना सहयोग देना समझदारी है.

स्वाति के चेहरे पर अब निश्ंिचतता के भाव थे.

Short Story in Hindi

Fictional Story: एक समंदर दिल के अंदर

Fictional Story: शाम के 5 बज रहे थे. अगस्त का महीना था. कल से लगातार बारिश हो रही थी. बारिश के बाद सबकुछ धुलाधुला सा लग रहा था, दूरदूर तक जितने पेड़पौधे दिख रहे थे, सब चमक से गए थे. वैसे तो विकास के नाम पर जितने पेड़ काट दिए गए हैं, उन्हें याद कर के अंतरा का मन दुखी हो उठता. उसे लगता कितने साल लग गए होंगे एक नन्हे से पौधे को इतना बड़ा पेड़ बनने में.

कितनी धूपछांव, ताप, शीत देखे होंगे इन पेड़ों ने, पर मैट्रो बनने की प्रक्रिया में उस के सब पेड़ खत्म होते जा रहे हैं. इस रास्ते का हर पेड़ उसे अपना लगता. 3 साल से मैट्रो का काम शुरू हुआ है. अंतरा मुंबई के घोड़बंदर रोड पर स्थित एक सोसाइटी ‘तरंगिनी’ के अपने इस चौथी फ्लोर के फ्लैट की बालकनी में खड़ी यही सब सोच रही थी.

40 साल की खूबसूरत अंतरा इस समय ढीला सा कुरता और लेगिंग पहने थी, लंबे बालों को ऊपर लपेट कर बांधा हुआ था, हां, चेहरा उदास था. शादी के बाद इस घर में आते ही अंतरा ने इस थ्री बैडरूम फ्लैट की बालकनी को भी कई पौधों से सजाया था, गमले वह खुद अपनी पसंद से खरीद लाई थी. उस के मायके आगरा में उन के घर में एक बड़ा सा आंगन था जहां उस के पापा ने एक कोने में काफी पेड़ लगा रखे थे. बागबानी उस ने उन्हीं से सीखी थी. पर उस के पति सोमेश, सास शशि और ससुर रवि सब ने मिल कर उसे टोक दिया था, ‘‘तुम ने तो सारी बालकनी में पौधे भर दिए.

इन की देखरेख कौन करेगा?’’ अंतरा सब का मुंह देखती रह गई थी. उसे लग रहा था कि घर में कई तरह की हरियाली देख कर सब खुश होंगे. उस ने कहा, ‘‘पौधे जगह न घेरें, तभी तो मैं हैंगिंगप्लांट्स ज्यादा लाई हूं. अच्छी तरह से गूगल पर देखा कि बालकनी में कौन से प्लांट्स लगाने चाहिए, तभी लाई हूं.’’ शशि ने मुंह बनाया, ‘‘मुझे तो बहस की आदत नहीं है. आजकल बहुओं को टोकने का जमाना तो है नहीं,’’ फिर उन्होंने सोमेश को देखा, कहा, ‘‘घर तो उस का भी है, क्या कहूं.’’ सोमेश ने इतना कहा, ‘‘कुछ भी लाओ, मम्मी से एक बार पूछ लिया करो.’’ अंतरा भी नई गृहस्थी में क्लेश नहीं चाहती थी, चुप रह गई. रात को सोमेश की बांहों का बंधन उसे सचमुच बंधन ही लगा, इस बात पर वह खुद भी हैरान हुई थी. मन ने साथ नहीं दिया तो तन भी अकेला पड़ गया. सोमेश ने टोका भी, ‘‘यह क्या, तुम तो एकदम मूड में नहीं हो? भई, हमारी शादी को 3 महीने ही हुए हैं.

जौइंट फैमिली में तो कुछ न कुछ लगा ही रहता है. टेक इट इजी.’’ सोमेश नहीं जानता था कि स्त्री के लिए सैक्स देह से पहले प्रेम की बात है, पहले उस का मन प्रेम की कोमल भावनाओं से जुड़ता है तभी वह साथी को खुशीखुशी देह समर्पित करती है. उस का प्रेम देह से नहीं, मन की कोमल गलियों से हो कर गुजरता है. उस रात अंतरा को अपने बैडरूम में पहली बार घुटन सी हुई थी. उस का मन चाहा था कि वह थोड़ी देर बालकनी में जा कर चुपचाप खड़ी हो जाए पर वहां का रास्ता लिविंगरूम से हो कर गुजरता था जहां उस के सासससुर देर तक टीवी देखा करते थे. एक बैडरूम होने वाले बच्चों के लिए था जहां अभी आनेजाने वाला मेहमान रुक जाता था. सोमेश की 3 साल बड़ी बहन रितु भी अपने पति अनिल और 1 साल के बेटे अर्णव के साथ नवी मुंबई में रहती थी. अंतरा शादी से पहले आगरा में एक कंपनी में एनालिस्ट थी.

जब शादी को 6 महीने हो गए तो उस ने सोमेश के सामने अपनी इच्छा जताई, ‘‘मैं फिर जौब शुरू करना चाहती हूं.’’ ‘‘अरे, मेरे होते हुए तुम्हें जौब करने की जरूरत क्या है? क्या मेरी कमाई तुम्हें कम पड़ती है?’’ ‘‘अरे, नहींनहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं है. मैं ने तो तुम्हें शादी से पहले ही कहा था कि मैं कोई जौब करती रहूंगी. असल में सोमेश कुछ काम करते रहने से कौन्फिडैंस बना रहता है.’’ ‘‘तो घर के काम कम हैं क्या?’’ ‘‘नहीं, बाहर किसी औफिस में जाना अलग बात है, सारा दिन किचन के काम, कपड़े धोना, उन्हें सुखाना, तह करते रहना अलग तरह के काम हैं.’’ ‘‘मैं तो सोच रहा था, अब मेरी शादी से मां को कुछ आराम हो जाएगा.’’ सोमेश के माथे पर त्योरियां देख कर अंतरा ने फौरन कहा, ‘‘जब हम दोनों कमाएंगे, मेड को ज्यादा पैसे दे कर ये सब काम और आराम से हो सकते हैं.’’ ‘‘आगे परिवार बढ़ेगा तो?’’ ‘‘हम पढ़ेलिखे हैं, सब मैनेज कर लेंगे.’’ ‘‘रितु दी भी तो पढ़ीलिखी हो कर घर ही संभाल रही हैं.

पढ़नेलिखने का मतलब यह तो नहीं कि घर से बाहर निकल कर ही दिखाया जाए. खैर, तुम्हारी मरजी, जो करना हो, कर लो. जैसा तुम्हें ठीक लगे,’’ अपनी बात कह कर सोमेश ने करवट बदल ली. अंतरा का मन हुआ कि सोमेश को झंझड़ कर कहे कि तुम्हारी रितु दी ने जौब इसलिए नहीं की क्योंकि वह आलसी है, सारा दिन टीवी देखती है, औनलाइन और्डर करती है, कभी उस का फैला शरीर देखा है? यहां आती है तो उस के जाने के बाद उस का फैला सामान समेटने में उस की अच्छी कसरत होती है, वह क्या ही जौब करेगी. कितना मन था अंतरा का कि वह घर के कामों के साथ कोई जौब भी ढूंढ़ ले, कुछ कर ले, घर में सासससुर जब सारा दिन सीरियल्स या रील्स देखते हैं, उन की आवाजों से उस का सिर फटता है.

जरूरी तो नहीं कि हमेशा पैसों के लिए ही बाहर निकला जाए, कभी अपनी पर्सनल ग्रोथ के लिए भी तो ढंग के 10 लोगों में उठनाबैठना जरूरी होता है. इस बात के बाद सोमेश पूरा हफ्ता उस से कटाकटा रहा. उस ने हमेशा के लिए जौब करने का विचार त्याग दिया. सोमेश समझ गया कि अंतरा ने जौब का विचार छोड़ दिया है. वह खुश हो गया. उसे अपनी बांहों में भर लिया, कहा, ‘‘मुझे तुम घर में ही अच्छी लगती हो.’’ अंतरा चुप रही.

जीवन अपनी रफ्तार से चलता रहा. पहले रंगोली, फिर 3 साल बाद मयंक ने उन के जीवन में आ कर खुशियां और व्यस्तता भर दी. अब अकसर सोमेश उस से पूछता, ‘‘बताओ, अब तुम्हारे पास भला जौब का टाइम होता? छोड़नी ही पड़ जाती न?’’ ‘‘दुनिया में कितनी ही मांएं जौब के साथ बच्चे संभालती हैं, मैं भी सब मैनेज कर ही लेती और यहां तो अम्मांपिताजी भी थे.’’ शशि और रवि बच्चों को देख तो लेते पर अपने मूड के हिसाब से, नहीं तो दोनों कहीं घूमने निकल जाते.

अंतरा उन से कोई खास उम्मीद भी नहीं करती थी. इतना तो समझती कि बच्चों के साथ दौड़नेभागने की उन की भी उम्र नहीं है. धीरेधीरे सोमेश की भी प्रमोशन होती जा रही थी. शायद जीवन में ऐसा होता है कि पेशे का असर इंसान के स्वभावव्यवहार पर भी पड़ने लगता है. उस के पेशे की कमियांखूबियां उस की बातों में झलकने लगती हैं जैसेकि एक सख्त टीचर के स्वभाव में कुछ सख्ती सी रहने लगती है, एक संगीतकार की बातों में एक लय सी आ जाती है. ऐसा ही कुछ असर अंतरा सोमेश की बातों में महसूस कर रही थी. वह अब एक बड़ी पोस्ट पर था, उस के नीचे करीब 40 जूनियर्स थे जो उसे रिपोर्ट करते.

अब सोमेश सब से ऐसे बात करने लगा था जैसे सब उस के जूनियर्स हैं, किसी को कुछ नहीं आता, वह सब को टोकता रहता. अंतरा को आंतरिक पलों में भी कुछ यों लगता जैसे वह किसी आदेश का पालन कर रही है. उस का मन चाहता कि वह यह महसूस करे कि वह अपने प्रेमी, पति की बांहों में खोई हुई है, दुनिया से दूर, कुछ ही पलों के लिए ही सही पर खुश, बेफिक्र पर इस सब से उलट होता यह कि दैहिक संबंधों को किसी काम की तरह निबटाया जाता.

रंगोली, मयंक जैसेजैसे बड़े हो रहे थे, अब अंतरा की भी व्यस्तता कुछ अलग ही तरह की हो गई थी, अब उस का काम यह देखना था कि बच्चे कालेज से ठीक से आ गए हैं, कोचिंग जा रहे हैं या नहीं, उस ने बहुत कोशिश की कि बच्चों को स्कूल टाइम तक तो वही पढ़ा दे, बच्चों को खुद पढ़ाते रहने से मांएं भी बहुत कुछ सीखती चली जाती हैं पर सोमेश का कहना था कि यहां सब बच्चे कोचिंग जाते हैं और उन दोनों का भी जीवन अब मां के चारों तरफ नहीं घूम रहा था. अब वे अपना कैरियर बनाने में व्यस्त रहते. उन्हें भी मां अब खाने, कपड़ों के समय याद आती. पता नहीं कैसा अकेलापन था जो अंतरा को हर समय अपने घेरे में लिए रहता, जबकि शादी से पहले उस की लाइफ बिलकुल अलग थी.

वह एक खुशनुमा तितली सी इधर से उधर उड़ती रहती. यहां उसे लगता जैसे उस के पंख किसी ने कतर दिए हों. ऐसा भी नहीं कि शिकायत करते रहना उस का स्वभाव था. सोमेश अकसर सब को कहीं न कहीं बाहर भी घुमा लाता पर रहता उसी अकड़ में जैसे सब उस के गुलाम हों. वेटर से जिस तरह बात करता, अंतरा को शर्म सी आ जाती. कहीं भी किसी पर भी जोरजोर से चिल्लाने लगता. उस ने एक हंसमुख, शांत, उदार दिल जीवनसाथी की कल्पना की थी और सोमेश था उस की कल्पना के साथी के ठीक बिलकुल उलट. अगर अंतरा कहीं कभी अकेले चली जाती, वह बहुत खुश रहती. उसे लगता जैसे उस ने बाहर आ कर खुली हवा में एक सांस ली हो.

घर का काम अगर आधे घंटे में हो भी जाता तो भी वह आराम से घर वापस आती. घर में समय के साथ घुटन बढ़ती गई. अंतरा साल 2 साल में आगरा जाती, वह भी तब जब सोमेश का उस तरफ कोई टूर होता. सोमेश उसे साथ ले जाता, साथ लाता. पूरे रास्ते उस के निर्देश चलते रहते. यहां खड़ी हो जाओ, यहां बैठो. उस की बड़ी बहन छाया आगरा में ही रहती. जब वह जाती, उस से मिलना हो जाता. छाया एक स्कूल में टीचर थी. एक बार आगरा जाने पर अंतरा अपनी मम्मी माधवी और बहन के साथ बैठी हुई थी. अंतरा ने मां की गोद में सिर रख दिया.

बेटियों की कितनी भी उम्र हो जाए, उन्हें मां की गोद में हमेशा एक संतोष मिलता है. हर विवाहित बेटी के लिए मां की गोद और सिर पर रखा मां का हाथ एक बड़ी अनमोल चीज होती है. अंतरा ने पूछ लिया, ‘‘मां, आप को कभी मी टाइम मिला है?’’ माधवी कुछ देर सोचती रही, दोनों बेटियां मां का जवाब सुनने के लिए कान लगाए थीं. माधवी ने कहा, ‘‘जब मैं मायके जयपुर जाती, तुम्हारे पापा मुझे यहां से ट्रेन में बैठा देते और वहां तुम्हारे मामा मुझे लेने स्टेशन आ जाते. वापस आते हुए भी यही होता या तुम्हारे नाना या तुम्हारे मामा मुझे बैठा देते और यहां तुम्हारे पापा मुझे लेने स्टेशन आ जाते तो यह जो अकेले सफर का समय होता वह मेरा मी टाइम हुआ करता. मैं जो चाहे ले कर खाती, जिस से मन करता उस से बातें करती.

कभी खड़ी होती कभी बैठती. मैं 2-3 साल में 1 बार ही 1 हफ्ते के लिए जाया करती थी क्योंकि तुम्हारे दादादादी को मेरे जाने से परेशानी हुआ करती थी. तुम लोग छोटे थे तो तुम दोनों को ले जाया करती थी, फिर तो तुम्हारी पढ़ाई का चक्कर रहने लगा था. बस यही अकेले का सफर मेरा मी टाइम रहा.’’ दोनों बहनें दम साधे मां की बात सुन रही थीं. माधवी चुप हुई तो एकदम सन्नाटा छाया रहा. माधवी ने ही कहा, ‘‘आज कैसे पूछ लिया? क्या हुआ, अंतू?’’ अंतरा का मन हुआ कि फूटफूट कर रो पड़े. कहे, उसे तो ऐसा सफर भी नहीं मिलता. उसे भी चाहिए ऐसा कोई समय जो सिर्फ उस का हो जहां उसे कोई घुटन न हो, जहां वह जी भर अपनी करे, जिस से चाहे उस से बातें करे, हंसे, खिलखिलाए. यहां तो खुल कर हंसने पर बेबात पर सोमेश टोक देता है, ‘‘क्या जोकरों की तरह हंसती हो? बिना बात के कोई कैसे हंस सकता है?’’ सासससुर ऐसे रहते हैं जैसे मेहमान हों. बच्चों की अलग दुनिया है.

की सहेलियां उस के सासससुर के रूखे स्वभाव के कारण घर नहीं आतीं. वह उन के घर जाए, यह भी सोमेश को ज्यादा पसंद नहीं. कहता है कि औरतें फालतू बातें ही तो करती हैं. अंतरा 40 की हो रही है पर उस के दिल में एक ऐसा समंदर है, जिस में घुटन की लहरें उफना करती हैं, उन का क्या करे. बस किसी मशीन या रोबोट सा जीवन जहां बस उस के फर्ज हैं, हिदायतें हैं कि उसे क्या करना चाहिए, क्या नहीं. सोमेश जैसा पति जो घर में भी एक बौस सा व्यवहार करता है जो नौर्मल जीवन जीना भूल गया है या वही इतनी मूर्ख रह गई है जो सब सुविधाओं के होते हुए दिल में एक घुटन सी महसूस करती है. अपने हिसाब से न जी पाने की घुटन. बालकनी में खड़ेखड़े अचानक काले उमड़ते बादलों को देख कर अंतरा ने सोचा, आज कितना अच्छा मौसम है, अभी सब घर आएंगे, एक बार सब से फिर पूछेगी, ‘‘कुछ अलग सा करें? बारिश में तो तुम लोग भी थकहार कर आए होंगे, सब साथ बैठें? साथ बैठ कर कोई कौमेडी फिल्म देखें या कोई खेल खेलें? कुछ टाइम पास करें? इतने में एक के बाद एक डोरबेल बजती गई, सोमेश और बच्चे लौट आए थे. शशि और रवि आजकल किसी तीर्थ यात्रा पर निकले थे.

ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा, पूछा, ‘‘क्या कर रही थी?’’ ‘‘बालकनी में खड़ी थी.’’ ‘‘तुम्हारी ऐश है.’’ ‘‘मतलब?’’ ‘‘यही कि कोई काम नहीं, बस बाहर देखते रहो.’’ बच्चे जब तक फ्रैश हो कर अंतरा ने उन के लिए ब्रैडरोल बनाने की तैयारी कर रखी थी, फटाफट तेल चढ़ाया. तेल गरम होते ही एक तरफ चाय चढ़ाई और ब्रैडरोल तलने लगी. उसे खुद भी ये बहुत पसंद थे. उस ने सब के लिए टेबल पर नाश्ता रखा, सोमेश आया, बोला, ‘‘वाह, यह हुई न बात, तुम ने तो घर में घुसते ही जवाब दिया कि बालकनी में खड़ी थी, मुझे लगा, इस से अच्छा तो कुछ काम ही कर लेती. मेरा तो मूड ही खराब हो गया था.’’ सब ने खुश हो कर नाश्ता किया. अंतरा ने अपने मन की बात रखी, ‘‘आज शनिवार है, तुम सब फ्री ही होंगे, कोई मूवी देखें? साथ बैठ कर कुछ टाइम पास करें?’’ ‘‘ओके, मम्मी कुछ देखते हैं,’’ बच्चों ने अंतरा का दिल रख लिया पर सोमेश उठ गया, ‘‘नहीं, मेरा मूड नहीं.’’ अंतरा के मन में कुछ चटका. कुछ बोली नहीं. सोमेश ने कहां कभी उस की इच्छाओं का मान किया है. अब तो उसे इन चीजों की आदत सी पड़ गई है. मयंक ने ‘हेराफेरी’ मूवी लगा ली. मयंक और रंगोली कभी भी यह मूवी लगा लेते थे.

इस बात पर अंतरा को हंसी आ जाती. थोड़ी देर में वह यों ही बैडरूम में चक्कर काटने गई कि सोमेश क्या कर रहा है. उस ने देखा कि वह इंस्टाग्राम पर रील्स देखदेख कर बड़े अच्छे मूड में मुसकरा रहा है. वैसी ही रील्स जिन में पत्नियों का मजाक उड़ाया जाता है. अंतरा बहुत दुख हुआ कि परिवार के साथ बैठने से ज्यादा सोमेश के लिए यह सब खुशी की बात है. सोमेश रील्स देखने में इतना खोया था कि उसे अंतरा के आनेजाने का भी पता नहीं चला. थोड़ी देर टीवी देख कर मयंक और रंगोली भी कुछ न कुछ करते रहे. वह बैडरूम में गई और अपना फोन जैसे ही उठाया, सोमेश ने अपना फोन रख दिया, कहा, ‘‘अरे, तुम्हारे पास तो फोन देखने का पूरा दिन होता है. अभी तो तुम्हें पति के साथ टाइम बिताना चाहिए.’’ अंतरा सोमेश का मुंह देखती रह गई कि कैसे कर लेता है सोमेश यह सब. ‘‘कहा तो था कि सब साथ बैठ कर टाइम पास करते हैं,’’ अंतरा बोली.

‘‘देखो, मेरे पास इतना टाइम नहीं होता है कि मैं उसे बेकार के कामों में खराब करूं.’’ ‘‘फैमिली के साथ बैठना बेकार का काम है?’’ ‘‘अब मुझ से बहस करोगी?’’ कह कर सोमेश ने अंतरा को किसी रबड़ की गुडि़या की तरह अपनी तरफ खींच लिया. ‘‘बच्चे घर में हैं,’’ कहती हुई अंतरा अपनी जान छुड़ाते हुए बैड से उठ कर बाहर निकल गई और सीधे अपनी एकमात्र शरणस्थली बालकनी में जा कर सोचने लगी, अब तो सोमेश के आसपास होने से ही घुटन बढ़ जाती है. कब तक ऐसा होगा, पता नहीं. मन की बढ़ती इस घुटन से अब वह थक सी रही थी उस की वह जिंदादिली कहां गई जिस की तारीफ उस के दोस्त और कलीग्स करते थे. अपने पहले के दिनों को याद करते हुए उस की आंखों से कुछ आंसू छलक गए, जिन्हें उस ने सोमेश की आहट पाते ही जल्दी से पोंछ लिया.

Fictional Story

Hindi Fictional Story: बिटिया का पावर हाऊस

Hindi Fictional Story: अमितजी की 2 संतान हैं, बेटा अंकित और बेटी गुनगुन. अंकित गुनगुन से 6-7 साल बड़ा है.
घर में सबकुछ हंसीखुशी चल रहा था मगर 5 साल पहले अमितजी की पत्नी सरलाजी की तबियत अचानक काफी खराब रहने लगी. जांच कराने पर पता चला कि उन्हें बड़ी आंत का कैंसर है जो काफी फैल चुका है. काफी इलाज कराने के बाद भी उन की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ.

जब उन्हें लगने लगा कि अब वे ज्यादा दिन जीवित नहीं रह पाएंगी तो एक दिन अपने पति से बोलीं,”मैं अब ज्यादा दिन जीवित नहीं रहूंगी. गुनगुन अभी 15-16 वर्ष की है और घर संभालने के लिहाज से अभी बहुत छोटी है. मैं अपनी आंख बंद होने से पूर्व इस घर की जिम्मेदारी अपनी बहू को देना चाहती हूं. आप जल्दी से अंकित की शादी करा दीजिए.”

अमितजी ने उन्हें बहुत समझाया कि वे जल्द ठीक हो जाएंगी और जैसा वे अपने बारे में सोच रही हैं वैसा कुछ नहीं होगा. लेकिन शायद सरलाजी को यह आभास हो गया था कि अब उन की जिंदगी की घड़ियां गिनती की रह गई हैं, इसलिए वे पति से आग्रह करते हुए बोलीं, “ठीक है, यदि अच्छी हो जाऊंगी तो बहू के साथ मेरा बुढ़ापा अच्छे से कट जाएगा. लेकिन अंकित के लिए बहू ढूंढ़ने में कोई बुराई तो है नहीं, मुझे भी तसल्ली हो जाएगा कि मेरा घर अब सुरक्षित हाथों में है.”

अमितजी ने सुन रखा था कि व्यक्ति को अपने अंतिम समय का आभास हो ही जाता है. अत: बीमार पत्नी की इच्छा का सम्मान करते हुए उन्होंने अंकित के लिए बहू ढूंढ़ना शुरू कर दिया.

एक दिन अंकित का मित्र आभीर अपनी बहन अनन्या के साथ उन के घर आया. अंकित ने उन दोनों को अपनी मां से मिलवाया. जब तक अंकित और आभीर आपस में बातचीत में मशगूल रहे, अनन्या सरलाजी के पास ही बैठी रही. उस का उन के साथ बातचीत करने का अंदाज, उन के लिए उस की आंखों में लगाव देख कर अमितजी ने फैसला कर लिया कि अब उन्हें अंकित के लिये लड़की ढूंढ़ने की जरूरत नहीं है.

उन्होंने सरलाजी से अपने मन की बात बताई, जिसे सुन कर सरलाजी के निस्तेज चेहरे पर एक चमक सी आ गई.

वे बोलीं, “आप ने तो मेरे मन की बात कह दी.”

अंकित को भी इस रिश्ते पर कोई आपत्ति नहीं थी. दोनों परिवारों की रजामंदी से अंकित और अनन्या की शादी तय हो गई.

शादी के बाद जब मायके से विदा हो कर अनन्या ससुराल आई तो सरलाजी उस के हाथ में गुनगुन का हाथ देते हुए बोलीं,”अनन्या, मैं मुंहदिखाई के रूप में तुम्हें अपनी बेटी सौंप रही हूं. मेरे जाने के बाद इस का ध्यान रखना.”

अनन्या भावुक हो कर बोली, “मम्मीजी, आप ऐसा मत बोलिए. आप का स्थान कोई नहीं ले सकता.”

“बेटा, सब को एक न एक दिन जाना ही है, लेकिन यदि तुम मुझे यह वचन दे सको कि मेरे जाने के बाद तुम गुनगुन का ध्यान रखोगी, तो मैं चैन से अंतिम सांस ले पाऊंगी.”

“मांजी, आप विश्वास रखिए. आज से गुनगुन मेरी ननद नहीं, मेरी छोटी बहन है.”

बेटे के विवाह के 1-2 महीने के अंदर ही बीमारी से लड़तेलड़ते सरलाजी की मृत्यु हो गई. अनन्या हालांकि उम्र में बहुत बड़ी नहीं थी लेकिन उस ने अपनी सास को दिया हुआ वादा पूरे मन से निभाया. उस ने गुनगुन को कभी अपनी ननद नहीं बल्कि अपनी सगी बहन से बढ़ कर ही समझा.

बड़ी होती गुनगुन का वह वैसे ही ध्यान रखती जैसे एक बड़ी बहन अपनी छोटी बहन का रखती है.

वह अकसर गुनगुन से कहती, “गुनगुन, बड़ी भाभी, बड़ी बहन और मां में कोई भेद नहीं होता.”

गुनगुन के विवाह योग्य होने पर अंकित और अनन्या ने उस की शादी खूब धूमधाम से कर दी. विवाह में कन्यादान की रस्म का जब समय आया, तो अमितजी ने मंडप में उपस्थित सभी लोगों के सामने कहा,”कन्यादान की रस्म मेरे बेटेबहू ही करेंगे.”

विवाह के बाद विदा होते समय गुनगुन अनन्या से चिपक कर ऐसे रो रही थी जैसे वह अपनी मां से गले लग कर रो रही हो. ननदभाभी का ऐसा मधुर संबंध देख कर विदाई की बेला में उपस्थित सभी लोगों की आंखें खुशी से नम हो आईं.

गुनगुन शादी के बाद ससुराल चली गई. दूसरे शहर में ससुराल होने के कारण उस का मायके आना अब कम ही हो पाता था. उस का कमरा अब खाली रहता था लेकिन उस की साजसज्जा, साफसफाई अभी भी बिलकुल वैसी ही थी जैसे लगता हो कि वह अभी यहीं रह रही हो. अंकित के औफिस से लौटने के बाद अनन्या अपने और अंकित के लिए शाम की चाय गुनगुन के कमरे में ही ले आती ताकि उस कमरे में वीरानगी न पसरी रहे और उस की छत और दीवारें भी इंसानी सांसों से महकती रहे.

एक दिन पड़ोस में रहने वाले प्रेम बाबू अमितजी के घर आए. बातोंबातों में वे उन से बोले, “आप की बिटिया गुनगुन अब अपने घर चली गई है, उस का कमरा तो अब खाली ही रहता होगा. आप उसे किराए पर क्यों नहीं दे देते? कुछ पैसा भी आता रहेगा.”

यह बातचीत अभी हो ही रही थी कि उसी समय अनन्या वहां चाय देने आई. ननद गुनगुन से मातृतुल्य प्रेम करने वाली अनन्या को प्रेम बाबू की बात सुन कर बहुत दुख हुआ. वह उन से सम्मानपूर्वक किंतु दृढ़ता से बोलीं,”अंकल, क्या शादी के बाद वही घर बेटी का अपना घर नहीं रह जाता जहां उस ने चलना सीखा हो, बोलना सीखा हो और जहां तिनकातिनका मिल कर उस के व्यक्तित्व ने साकार रूप लिया हो.

“अकंल, बेटी पराया धन नहीं बल्कि ससुराल में मायके का सृजनात्मक विस्तार है. शादी का अर्थ यह नहीं है कि उस के विदा होते ही उस के कमरे का इंटीरियर बदल दिया जाए और उसे गैस्टरूम बना दिया जाए या चंद पैसों के लिए उसे किराए पर दे दिया जाए.”

“बहू, तुम जो कह रही हो, वह ठीक है. लेकिन व्यवहारिकता से मुंह मोड़ लेना कहां की समझदारी है?”

“अंकल, रिश्तों में कैसी व्यवहारिकता? रिश्ते कंपनी की कोई डील नहीं है कि जब तक क्लाइंट से व्यापार होता रहे तब तक उस के साथ मधुर संबंध रखें और फिर संबंधों की इतिश्री कर ली जाए. व्यवहारिकता का तराजू तो अपनी सोच को सही साबित करने का उपक्रम मात्र है.”

तब प्रेम बाबू बोले,”लेकिन इस से बेटी को क्या मिलेगा?”

”अंकल, मायका हर लड़की का पावर हाउस होता है जहां से उसे अनवरत ऊर्जा मिलती है. वह केवल आश्वस्त होना चाहती है कि उस के मायके में उस का वजूद सुरक्षित है. वह मायके से किसी महंगे उपहार की आकांक्षा नहीं रखती और न ही मायके से विदा होने के बाद बेटियां वहां से चंद पैसे लेने आती हैं बल्कि वे हमें बेशकीमती शुभकामनाएं देने आती हैं, हमारी संकटों को टालने आती हैं, अपने भाईभाभी व परिवार को मुहब्बत भरी नजर से देखने आती हैं.

“ससुराल और गृहस्थी के आकाश में पतंग बन उड़ रही आप की बिटिया बस चाहती है कि विदा होने के बाद भी उस की डोर जमीन पर बने उस घरौंदे से जुड़ी रहें जिस में बचपन से ले कर युवावस्था तक के उस के अनेक सपने अभी भी तैर रहे हैं. इसलिए हम ने गुनगुन का कमरा जैसा था, वैसा ही बनाए रखा है. यह घर कल भी उन का था और हमेशा रहेगा.”

प्रेम बाबू बोले, “लेकिन कमरे से क्या फर्क पड़ता है? मायके आने पर उस की इज्जत तो होती ही है.”

अनन्या बोली, “अंकल, यही सोच का अंतर है. बात इज्जत की नहीं बल्कि प्यार और अपनेपन की है. लड़की के मायके से ससुराल के लिए विदा होते ही उस का अपने पहले घर पर से स्वाभाविक अधिकार खत्म सा हो जाता है. इसीलिए विवाह के पहले प्रतिदिन स्कूलकालेज से लौट कर अपना स्कूल बैग ले कर सीधे अपने कमरे में घुसने वाली वही लड़की जब विवाह के बाद ससुराल से मायके आती है, तो अपने उसी कमरे में अपना सूटकेस ले जाने में भी हिचकिचाती है, क्योंकि दीवारें और छत तो वही रहती हैं मगर वहां का मंजर अब बदल चुका होता है. लेकिन उसी घर का बेटा यदि दूसरे शहर में अपने बीबीबच्चों के साथ रह रहा हो, तो भी यह मानते हुए कि यह उस का अपना घर है उस का कमरा किसी और को नहीं दिया जाता. आखिर यह भेदभाव बेटी के साथ ही क्यों, जो कुछ दिन पहले तक घर की रौनक होती है?

“यदि संभव हो, तो बिटिया के लिए भी उस घर में वह कोना अवश्य सुरक्षित रखा जाना चाहिए, जहां नन्हीं परी के रूप में खिलखिलाने से ले कर एक नई दुनिया बसाने वाली एक नारी बनने तक उस ने अपनी कहानी अपने मापिता, भाईबहन के साथ मिल कर लिखा हो.”

हर लड़की की पीड़ा को स्वर देती हुई अनन्या की दर्द में डूबी बात को सुन कर राम बाबू को एकबारगी करंट सा लगा.

उन्हें पिछले दिनों अपने घर में घटित घटनाक्रम की याद आ गई, जब उन की बेटी अमोली अपने मायके आई थी.

वे बोले,”बहू, तुम ने मेरी आंखें खोल दीं. परसों मेरी बिटिया अमोली ससुराल से मायके आई थी. यहां आने के बाद उस का सामान उस के अपने ही घर के ड्राइंगरूम में काफी देर ऐसे पड़ा रहा, जैसे वह अमोली का नहीं बल्कि किसी अतिथि का सामान हो. ‘बेटा अपना, बेटी पराई’ जैसी बात को बचपन से अबतक सुनते आए हमारी मनोभूमि वैसी ही बन जाती है और इसी भाव ने अमोली को कब चुपके से घर की सदस्य से अपने ही घर में अतिथि बना दिया, उस मासूम को पता ही नहीं चला. पता नहीं क्यों, मैं ने उस का कमरा किसी और को क्यों दे दिया? यदि गुनगुन की तरह अमोली का कमरा भी उस के नाम सुरक्षित रहता तो वह भी पहले की भांति सीधे अपने कमरे में जाती जैसे कालेज ट्रिप से आने के बाद वह सीधे अपने कमरे में अपनी दुनिया में चली जाती थी,” यह बोलते हुए उन की आंखें भर आईं और गला अवरुद्ध हो गया. वे रुमाल से अपना चश्मा साफ करने लगे.

अनन्या तुरंत उन के लिए पानी का गिलास ले आई. पानी पी कर गला साफ करते हुए राम बाबू बोले, “बहू, उम्र में इतनी छोटी होने पर भी तुम ने मुझे जिंदगी का एक गहरा पाठ पढ़ा दिया. मैं तुम्हारा शुक्रिया कैसे अदा करूं…”

अनन्या बोली, “अंकल, यदि आप मुझे शुभकामनाएं स्वरूप कुछ देना चाहते हैं तो आप घर जा कर अमोली से कहिए कि तुम अपने कमरे को वैसे ही सजाओ, जैसे तुम पहले किया करती थी. मैं आज बचपन वाली अमोली से फिर से मिलना चाहता हूं. यही मेरे लिए आप का उपहार होगा.”

प्रेम बाबू बोले, “बेटा, जिस घर में तुम्हारे जैसी बहू हो, वहां बेटी या ननद को ही नहीं बल्कि हर किसी को रहना पसंद होगा और आज से अमोली का पावर हाऊस भी काम करने लगा है, वह उसे निरंतर ऊर्जा देता रहेगा.”

प्रेम बाबू की बात को सुन कर अमितजी और अनन्या मुसकरा पड़े. खुशियों के इन्द्रधनुष की रुपहली आभा अमितजी के घर से प्रेम बाबू के घर तक फैल चुकी थी.

Hindi Fictional Story

Family Story: मोल सच्चे रिश्तों का- क्या रिया से दूर हुआ परिवार

Family Story: ट्रिंग ट्रिंग..

‘सुबह सुबह फ़ोन..ओह..जरूर रिया होगी’

आरव ने कहा.

‘हा..रिया..यार टैक्सी बुक कर के आ जाओ ना, मैं रीति को छोड़ कर एयरपोर्ट नही आ सकता’

‘हेलो..सर, मैं इंस्पेक्टर राठौड़ बोल रहा हूं, आपकी वाइफ मिसेज रिया को एयरपोर्ट मेडिकल ऑथिरिटी ने क्वारंटाइन के लिए स्टैम्प किया है इन्हें हम शहर से थोड़ी दूर बनाये गए वार्ड में पंद्रह दिन रखेंगे, पंद्रह दिन के बाद टेस्ट किया जाएगा..सब ठीक रहा तो घर जाएंगी नही तो आइसुलेशन में रखा जाएगा’

इंस्पेक्टर एक साँस में बोल गया.

ये सुन कर मेरे होश उड़ गए, हाथ से मोबाइल गिरते गिरते बचा.

‘सर..क्या मैं एक मिनट अपनी पत्नी से बात कर सकता हूं’

‘यस..श्योर’ इंस्पेक्टर ने कहा.

‘हेलो..रिया..डोंट वरी, सब ठीक हो जाएगा..मैं रीति को तुम्हारी माँ के पास छोड़ कर आता हूं’

‘नो..आरव, तुम्हें अभी मुझसे मिलने की परमिशन नही मिलेगी, तुम रीति के पास रहो, मैं वार्ड पहुंच कर तुमसे बात करती हूं, अभी मुझे कुछ समझ नही आ रहा’ रिया ने रोते हुए कहा.

ये क्या हो गया?

मैं कैसे संभालूंगा इधर पांच साल की छोटी बेटी उधर पत्नी जो इस समय जिस अवस्था में है उसकी कल्पना भी करना आत्मा झिंझोड़ कर रखने वाली है.

मेरी पत्नी रिया जो एक मल्टीनेशनल कंपनी की मार्केटिंग हेड है, अक़्सर अपने कंपनी के काम से विदेश यात्रा करती है,आज करीब बीस दिनों के बाद लंदन से वापस घर आ रही थी.

‘क्या करू..मुझे वहाँ जाना तो होगा ही, रिया को मैं ऐसे अकेले नही छोड़ सकता’ खुद से बात करते हुए मैंने रिया की माँ को फ़ोन किया, पता चला वो ख़ुद कुछ दिनों से बीमार है ऐसे में रीति को संभालना उनके लिए मुश्किल है, उसके भाई,भाभी से कभी आत्मीयता थी ही नही तो उनसे कोई उम्मीद नही है.

सिर पकड़ कर वही बैठ गया, मेरी रीति..वो मेरे साथ रहने की इतनी आदी है और किसी के पास रहना उसके लिए वैसे भी मुश्किल है, ऐसे में किसी अपने के पास ही रीति को छोड़ सकता हूं…

‘माँ या भाभी को फ़ोन करू’

किस मुँह से उनसे सहयोग के लिए कहूँ जब ख़ुद मैंने और रिया ने उन लोगो से सारे रिश्ते तोड़ दिए थे, रीति पांच साल की हो गयी उसने शायद एक बार अपनी दादी की शक़्ल देखी होगी और आज मैं मुसीबत में हुं तो दादी को उनका फ़र्ज़ याद दिलाऊँ?

मानव कि प्रवृति है….अपने द्वारा बनाये गए झूठ, स्वार्थ,अभिमान के खूबसूरत जाल में ऐश करता है, जब परेशानी उसके दरवाज़े पर आती है तो वो अतीत में झाँकता है..’आख़िर उससे ऐसा क्या गुनाह हुआ था जो इस मुसीबत में पड़ा’ आज मैं भी इसी परिस्थिति में हूं, कोरोना बीमारी अभी तक मेरे लिए महज़ एक खबर थी, और आज मेरे साथ है.

रीति सो रही थी, मैं भी उसके पास जा कर लेट गया.

अतीत के पन्ने आंखों के सामने एक एक कर के खुल रहे थे, उच्चवर्गीय आधुनिक विचार की लड़की रिया से मैंने प्रेमविवाह किया था, मेरे मध्यमवर्गीय परिवार में उसकी तालमेल कभी नही बनी,भाभी और माँ को हेय दृष्टि से देखती थी और ठीक उसके विपरीत वो दोनो रिया को पलकों पर बिठा कर रखे थे, रिया की माँ चाहती थी हम दोनो परिवार से अलग हो जाये, उन्होंने ने द्वारिका में 3बीएचके का एक बड़ा फ़्लैट रिया के नाम से ले लिया.

पिता जी के गुज़रने के बाद भैया ने मुझे पढ़ाया लिखाया, एम टेक करने के लिए मुझे बाहर जाने का मौका मिला लेकिन पैसे की कमी के कारण मैंने घर में बताया नही, ना जाने भैया को कैसे पता चल गया, उन्होंने भाभी के सारे ज़ेवर गिरवी रख कर मुझे विदेश भेज दिया,वही पहली बार रिया से मिला था.

भाभी भी बहुत अमीर घराने की उच्चशिक्षित बेटी है,पर उनका रहन सहन सादा था अमीरी के चोंचले से दूर रहती थी, पैसे रुपये से ज़्यादा उनके लिए रिश्तों की अहमियत थी, उनके दिल में सब के लिए प्रेम है..इस कारण वो सबकी चहेती है, रिश्तेदार, पास पड़ोस, सभी भाभी की तारीफ़ करते ना थकते, ये सब देख रिया ईर्ष्या से भर जाती … उस दिन भी भाभी ने बड़प्पन दिखाया… घर छोड़ते समय रिया ने उनका कितना अपमान किया था उनको भला बुरा कहा लेकिन वो चुप थी आंखों से गंगा जमुना की धार बह रही थी, तटस्थ खड़ी रिया की बक़वास सुन रही थी.

शायद रिया से ज़्यादा उन्हें मुझसे तकलीफ़ हुई थी, वो पराई थी मैं तो उनके लिए उनके अपने बच्चों से बढ़ कर था उस समय मेरी चुप्पी सिर्फ़ भाभी को नही पूरे घर को खली थी, मेरी चुप्पी रिया के ग़लत व्यवहार को सही ठहरा गए थे, मेरा मुँह रिया के प्यार और हाईक्लास लाइफस्टाइल ने बंद कर रखा था.

उस दिन के बाद रीति के जन्म के समय माँ हमसे मिलने आयी थी उस दिन भी उनके प्रति हमारा ठंडा रैवया उन्हें समझ आ गया था इसलिये जल्दी ही बिना किसी को अपना परिचय दिए निकल गयी थी.

उनके दर्द को उनके आंखों में मैं साफ़ देख रहा था पर सो कॉल्ड हाई स्टेटस फ्रेंड सामने बैठे थे तो माँ के प्यार को अनदेखा कर दिया.

आज पापा की बहुत याद आ रही थी उनके दिए संस्कारो की तिलांजलि देकर मैंने सच्चे रिश्ते खो दिया, आज जब मुसीबत पड़ी तो अपने याद आ रहे है..कितना स्वार्थी हो गया हूं मैं जिनके त्याग और प्यार को ठुकरा कर आगे बढ़ गया था, मुश्किल वक्त आया तो मुझे उनकी जरूरत महसूस हो रही है…अतीत के पन्नों को बंद करना ही बेहतर होगा.

रीति भी उठ गयी थी, सोचा..उसको प्ले स्कूल में डाल कर रिया से मिलने की कोशिश करता हूं.

‘साहब, रीति बेबी का स्कूल तो बंद हो गया है’ सुनीता ने कहा

‘ओह..हा, मैं भूल गया था’

‘क्या हुआ साहब, आप की तबियत तो ठीक है’

‘हा हा..मैं बिल्कुल ठीक हूं, ऐसा करो..रीति के लिए कुछ खाने को बना दो, मुझे भूख नही है’

‘साहब, और मैडम के लिए..वो भी तो आज आएंगी’

मैं चुप..क्या जवाब दूं?

‘नही, आज नही आएगी..तबियत ख़राब है इसलिए डॉक्टर के यहाँ है’

‘साहब..टीवी देखो..क्या क्या दिखा रहा है, कोई बीमारी उन चीनियों ने भेजी है, सब मर रहे है..मेरा आदमी भी बोला..अब मैं काम पर ना जाऊ’ सुनीता ने कहा.

‘कोई नही मर रहा..सब ठीक हो जाएगा, तुम अपना काम ख़त्म करो’मैंने खींझ कर कहा.

अकबक सी खड़ी थोड़ी देर देखती रही फ़िर काम में लग गयी.

सुनीता की बातों ने मुझे और व्यथित कर दिया था, मैं कमरे में चला आया ‘रिया को कुछ नही होना चाहिए..हे प्रभु..हमारी गलतियों की सज़ा मेरी बेटी को ना देना’ अब तक काबू रखा दिल अकेले में चीख पड़ा.

‘डैडी..डैडी’ रीति की आवाज़ सुन खुद को सयंत किया.

सभी करीबी दोस्तो को फ़ोन किया, हर किसी ने अलग अलग मज़बूरियां बताई..किसी को रीति की जिम्मेदारी नही लेनी थी इसके लिए रीति नही भय था कोरोना बीमारी.

सभी संक्रमित हुए किसी भी परिवार से दूरी बनाये रखना चाहेंगे…इसके लिए मैं उनको ग़लत भी नही कह सकता.

‘साहब, मैं घर जा रही..सब ठीक रहा तो शाम में आऊंगी नही तो आज से मेरी भी छुट्टी समझो’ सुनीता ने जाते हुए कहा.

रिया को फ़िर फ़ोन किया..

‘ रिया..कैसी हो, मैं कुछ करता हूं..थोड़ा इंतजार कर लो’

‘आरव..प्लीज़ डोंट वरी..आई एम फाइन, मैं अभी इंफेक्शन के फर्स्ट स्टेज़ पर हूं, डॉक्टर ने कहा है कुछ दिन मैं यहाँ रहूं तो मैं पूरी तरह ठीक जाऊंगी’ रिया की आवाज़ से लग रहा था वो संतुष्ट है.

‘मैं तुम्हें इस हालात में ऐसे कैसे अकेले छोड़ सकता हूं’ मैं बेसब्र था

‘आरव..प्लीज़ अंडरस्टैंड, यहाँ किसी से मिलने की परमिशन नही है, मेरे पास फ़ोन, लैपटॉप, इंटरनेट सब है मैं अपना काम करती रहूंगी और तुम दोनो से वीडियो चैट भी’ रिया ने हँसते हुए कहा.

मैं जानता था उसकी हँसी सिर्फ़ मुझे

तसल्ली देने के लिए है.

दिन बहुत भारी था, किसी तरह बीता..रात तो वक़्त की पाबंद होती है अगले दिन सूरज की रौशनी के साथ नया दिन..परेशानी वही की वही

सुबह सुबह रिया ने वीडियो कॉल किया..रीति बहुत ख़ुश थी, रिया देखने में स्वास्थ्य लग रही थी, बीमारी के ज़्यादा कुछ लक्षण नही थे, हल्की खांसी थी, बुख़ार अब नही था.

‘आरव..क्या मुझे मम्मी जी का नंबर दोगे?’ रिया ने कहा.

‘मम्मी..मेरी मम्मी का नंबर ?’ मैंने चौंक कर कहा.

रिया के आंखों में आंसू थे, मेरी तरह शायद वो भी अतीत में कि गयी अपनी ग़लतियो के पश्चताप से जूझ रही थी.

‘रिया, नंबर तो है..हिम्मत नही है’ मैंने कहा.

शाम के चार बज़ रहे थे, रीति खेलने में व्यस्त थी, लैपटॉप लेकर मैं भी वही बैठ गया..

डोरबेल बज़ी

माँ, भाई और भाभी सामने खड़े थे.

मैं अवाक खड़ा था.

‘आरव..रिया कैसी है ? बेटा, कुछ ख़बर मिली, आज टीवी पर देखा उसे, तो पता चला’ माँ ने कहा.

‘हा माँ..वो ठीक है, आप लोग बाहर क्यों खड़े है, अंदर आइए’ मैं सामने से हटते हुए कहा.

‘भैया, इतनी परेशानी अकेले सह रहे हो, एक बार फ़ोन तो कर दिया होता,क्या इतने पराए हो गए हम’? भाभी ने रीति को गोद में उठाते हुए उलाहना दिया.

‘नही भाभी..ऐसी बात नही’ मैं ख़ुद की नज़रों में  बहुत छोटा महसूस कर रहा था.

भाभी ने आते ही, घर की सफ़ाई के साथ साथ बढ़िया खाना भी तैयार कर दिया.

रिया का वीडियो कॉल आया.

भाभी की गोद में रीति को देख रिया फुट फुट कर रोने लगी.

‘माँ, भाभी, भैया प्लीज़ मुझे माफ़ कर दे..दो दिनों की अकेलेपन की सज़ा ने मुझे मेरी गुनाहों का अहसास करा दिया है.

‘अब ज़्यादा कुछ सोचो नही, हम सब उस दिन से तुम्हारे है जिस दिन तुमने आरव का हाथ थामा था, गलतियां सभी करते है, अपनी ग़लती से सबक ले कर आगे बढ़ना ही ज़िन्दगी है’ भाभी ने कहा ‘बेटी रोना नही, रीति और आरव की फ़िक्र मत करो, ख़ुश रहो..मुश्किल वक़्त है निकल जाएगा, शीघ्र स्वस्थ्य हो कर घर आओ,तब तक मैं यहीं रहूंगी’? माँ ने बड़ी ही आत्मीयता से कहा.

‘मम्मी जी, भाभी, भैया.. मेरी एक विश है’ रिया ने कहा.

‘हा, बोलो..बताओ हमें..क्या चाहिए’?  भैया ने कहा.

‘भैया..जब मैं घर आऊं तो क्या आप मुझे मेरा परिवार वापस देंगे’ रिया ने हाथ जोड़ कर कहा .

‘रिया..बेटा,तुम्हारा परिवार तुमसे कभी दूर नही गया था, जो हुआ उसे भूल जाओ और आगे बढ़ो, स्वास्थ्य पर ध्यान दो, घर आओ..हम सब बेसब्री से तुम्हारा इंतजार कर रहे है ‘ भैया ने कहा.

कभी कभी बुरा वक़्त भी अपने पीछे तमाम खुशियां ले कर आती है..मैं ख़ुश था..हम सब ख़ुश थे.

Family Story

Rima Das: असमिया फिल्ममेकर- ‘फिल्में बनानी शुरु कीं, तो खुद से फिर मुलाकात हो गई’

Rima Das: रीमा दास ने कभी फिल्म निर्माता बनने के बारे में नहीं सोचा था. जब वे गुवाहाटी से लगभग 40 किलोमीटर दूर एक छोटे से शहर छायगांव में बड़ी हो रही थीं तब, ‘‘फिल्में सिर्फ देखने के लिए होती थीं, बनाने के लिए नहीं,’’ उन्होंने मुझे बताया.

एक युवा महिला के रूप में रीमा का मन अभिनय करने पर लगा हुआ था. लेकिन जब वे मुंबई गईं तो उन्हें पहाड़ जैसी कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा.

हिंदी फिल्म और टैलीविजन इंडस्ट्री में पूर्वोत्तर राज्यों से शायद गिनेचुने अभिनेता थे. इंडस्ट्री के लोगों की यह अपेक्षा थी कि रीमा की शक्लसूरत और आवाज एक तय ढांचे में फिट बैठे. उन्हें अकसर शुद्ध हिंदी न बोल पाने के लिए आंका जाता था, जबकि वह उन की मातृभाषा थी ही नहीं.

मुंबई में लगभग 7 साल बिताने के बाद रीमा निराश हो कर असम वापस लौट आईं और तभी उन्होंने कैमरे के पीछे रह कर काम करना शुरू किया. उन के पास कोई औपचारिक प्रशिक्षण नहीं था, बस एक साधारण जनून था कि कहानियां सुनानी हैं. उन्होंने अपनी पहली शौर्ट फिल्म ‘प्रथा’ 2009 में बनाई और उस के बाद 2016 में अपनी पहली फीचर फिल्म ‘मैन विद द बाइनोक्युलर्स’ से डेब्यू किया.

अपने गांव में बच्चों के एक समूह से हुई एक आकस्मिक मुलाकात ने उन्हें ‘विलेज रौकस्टार्स’ (2017) बनाने के लिए प्रेरित किया. यह फिल्म एक युवा लड़की के सफर को दर्शाती है, जो संगीतकार बनने का सपना देखती है. साथ ही वह और उस का परिवार बाढ़ से नष्ट होती फसलों जैसी परेशानियों का सामना भी करते हैं. रीमा ने इस फिल्म को लिखा, निर्देशित, संपादित और सहनिर्मित किया.

‘विलेज रौकस्टार्स’ ने इतिहास रचा. इसे 65वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का पुरस्कार मिला, जिस के चलते यह लगभग 3 दशक बाद राष्ट्रीय सम्मान पाने वाली पहली असमिया फिल्म बनी. इसे औस्कर में सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा फिल्म श्रेणी में भारत की आधिकारिक प्रविष्टि के रूप में भी चुना गया.

रीमा ने तब से ‘वन पर्सन क्रू’ के रूप में अपनी अनूठी पहचान बनाई है. उन्होंने असम की जड़ों से जुड़ी गहरी, व्यक्तिगत कहानियां सुनाना जारी रखा. ‘बुलबुल कैन सिंग’ (2018) एक कमिंग औफ एज फिल्म है, जो किशोरों की अपनी यौनिकता को समझने और खोजने की दास्तां बयां करती है, तो वहीं ‘तोरा’ज हस्बैंड’ (2022) वैवाहिक गतिशीलता और बदलती लैंगिक भूमिकाओं की पड़ताल करती है, जो कोविड-19 महामारी की पृष्ठभूमि पर आधारित है.

2024 में रीमा ने निर्देशक ओनिर, कबीर खान और इम्तियाज अली के साथ ‘माय मेलबर्न’ पर पार्टनरशिप की, जो पहचान और अपनापन पर आधारित कहानियों का एक संकलन है. इस की प्रत्येक कहानी वास्तविक घटनाओं से प्रेरित है.

रीमा की नई फिल्म ‘विलेज रौकस्टार्स 2’ उन्हें कई सम्मान दिला चुकी है, जिस में न्यूयौर्क इंडियन फिल्म फैस्टिवल में सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार भी शामिल है.

जब हम बात कर रहे थे रीमा छायगांव में अपने घर पर थीं. उन्होंने एक आकर्षक काला मेखला चादोर पहना हुआ था- असम की महिलाओं का पारंपरिक बुना हुआ परिधान है. उन्होंने अपने शुरुआती साल मुंबई में मिली निराशाओं के टूटने और असम कैसे उन की रचनात्मक दृष्टि को आकार देता है, इस पर विचार किया.

‘‘मैं कितना भी कर लूं, कैसे भी कर लूं, अगर मैं सब से बेहतरीन खाना खा रही हूं, सब से बेहतरीन जगहों पर ठहर रही हूं या सफर कर रही हूं तब ही मुझे लगता है कि यही मेरा घर है,’’ उन्होंने कहा, ‘‘मेरे काम और मेरे योगदान की जरूरत है. प्यार के साथ जिम्मेदारी जैसी कोई चीज नहीं है. मुझे यह करते हुए आनंद मिलता है.’’

संस्कृता भारद्वाज: ‘‘क्या आप हमें छायगांव में अपने शुरुआती वर्षों के बारे में बता सकती हैं?’’

रीमा दास: ‘‘आज जैसा आप मेरा गांव देखते हैं, उस समय यह बहुत अलग था. वहां बहुत सारे खेत थे, यहां तक कि मेरे घर के सामने भी और बहुत सारे तालाब भी. एक सुंदर नदी थी. मैं तैरा करती थी, पेड़ों पर चढ़ा करती थी. इस इलाके में एक भी ऐसा पेड़ नहीं था जिस पर मैं चढ़ी न होऊं. मेरा बचपन वाकई बहुत अच्छा था.

‘‘यह सांस्कृतिक रूप से भी बहुत समृद्ध था. बिहू (असम का कृषि त्योहार और उस समय किया जाने वाला लोक नृत्य), शंकर माधव (श्रीमंत शंकरदेव, 16वीं सदी के हिंदू सुधारक और उन के शिष्य माधवदेव); ज्योति प्रसाद (लेखक, कवि और फिल्म निर्माता); राभा (बिष्णु प्रसाद राभा, कलाकार और सांस्कृतिक प्रतीक); भूपेन हजारिका (लेखक, कवि, गायक, और संगीतकार).

रीमा दास असम के चायगांव में फिल्म ‘विलेज रौकस्टार्स 2’ की फिल्मिंग के समय. Credit : Rima Das

‘‘मेरे मातापिता भरत और जया दास शैक्षणिक पृष्ठभूमि से आते हैं. मेरे पिता एक बालिका उच्च विद्यालय के संस्थापक, प्रधानाचार्य थे. मेरी मां भी अध्यापिका बनना चाहती थीं, लेकिन छायगांव में हमारी एक किताबों की दुकान और एक प्रिंटिंग प्रैस हुआ करती थी. मुझे याद है कि मेरे पिता ने मेरी मां से कहा था कि आप को यह नौकरी करने की जरूरत नहीं है, कोई दूसरी औरत यह नौकरी पा सकती है और आप किताबों की दुकान और प्रैस का ध्यान रख सकती हो. छायगांव में वे (मेरी मां) व्यवसाय में शामिल होने वाली पहली महिलाओं में से एक थीं.

‘‘मुझे नृत्य करना बहुत पसंद था. मैं हर चीज में भाग लिया करती थी. कोई भी खेल, नृत्य मेरे मातापिता हमेशा चाहते थे कि मैं कक्षा में पहले स्थान पर आऊं. कभीकभी वे सख्तमिजाज भी होते थे. मैं कह सकती हूं कि मैं एक शांत बागी थी.

‘‘जब मुझे पहली बार मासिकधर्म आया तभी चीजें समाज से और परिवार से भी, थोड़ीबहुत बदलने लगीं. मेरा परिवार थोड़ा अधिक सुरक्षात्मक हो गया क्योंकि मुझे घर पर रहना उतना पसंद नहीं था. मुझे हर चीज में भाग लेना बहुत अच्छा लगता था.

‘‘मैं यहां उच्च माध्यमिक तक रही और फिर काटन कालेज (जो अब गुवाहाटी में काटन विश्वविद्यालय के नाम से जाना जाता है) चली गई. वहां से मैं ने अंगरेजी साहित्य में स्नातक किया. वहां से आगे की पढ़ाई के लिए मैं बाहर पुणे चली गई. वहां से मैं ने अपनी मास्टर डिगरी की, जिस में मैं ने समाजशास्त्र, महिला अध्ययन की पढ़ाई की.’’

संस्कृता भारद्वाज: ‘‘आप को हमेशा से फिल्मों में रुचि थी?’’

रीमा दास: ‘‘मुझे फिल्में बहुत अलग तरीके से पसंद थीं. मैं एक अभिनेत्री बनना चाहती थी. जिस तरह का परिवार, जिस तरह की पृष्ठभूमि से मैं आई, मैं ने कभी फिल्म निर्माता बनने का सपना नहीं देखा. हमारे लिए फिल्में दिखने के लिए थीं, बनाने के लिए नहीं. हमारे लिए एक  फिल्म बनाना काफी अजनबी, एक दूर का सपना था. लेकिन मैं हमेशा ऐक्टिंग में हिस्सा लेती. स्कूल, कालेज और स्थानीय नाटकों में मैं हमेशा भाग लिया करती थी. स्थानीय प्रतियोगिताओं में ‘सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री’ का पुरस्कार भी मिला.

‘‘(बचपन में), हमारे पास वे सप्ताहांत वाली फिल्में टैलीविजन पर आती थीं. बिजली काफी खराब रहती थी. मुझे याद है, कभी पहला हिस्सा देखती थी, कभी केवल आखिरी हिस्सा देख पाती थी.

‘‘फिर जब मैं काटन कालेज में थी, मैं ने थिएटर में और ज्यादा फिल्में देखना शुरू किया. वहां कतारें लगी होती थीं. कभी टिकट नहीं मिलता था और ब्लैक में भी खरीदना पड़ता था. यह सब हम अपने होस्टल के दोस्तों के साथ किया करते थे. मैं ने कभी नहीं सोचा था कि मैं फिल्म निर्माता या कहानीकार बनूंगी. मुझे उन शब्दों की समझ नहीं थी. कमर्शियल, पैरेलल सिनेमा या आर्ट सिनेमा. हमारे लिए ऐसा था, कोई भी, कैसी भी कर के कुछ देख लिया, मिल गया- कैसी भी फिल्में हों, कोई भी फिल्म आती थी तो हम देखते थे. मौका मिला तो. ऐसा ही माहौल था. मुंबई में मैं ने वर्ल्ड सिनेमा देखना शुरू किया. यूरोप, ईरान की फिल्में और भारतीय फिल्मेें भी.’’

संस्कृता भारद्वाज: ‘‘आप ने कब तय किया कि आप फिल्मों में काम करना चाहती हैं?’’

रीमा दास: ‘‘मैं ने अपना मास्टर पूरा किया, फिर मैं ने नैट की परीक्षा पास की (यह परीक्षा उन लोगों के लिए होती है जो सहायक प्रोफैसर बनना चाहते हैं या भारतीय विश्वविद्यालयों में जूनियर रिसर्च फैलोशिप प्राप्त करना चाहते हैं). तो (जब मैं ने अभिनय करने का निर्णय लिया), मेरे मातापिता यहां तक कि मेरे प्रोफैसर भी कहते थे कि क्या तुम पागल हो? जाओ जा कर विश्वविद्यालय में पढ़ाओ. मैं अभिनय के लिए इतना पागल थी कि मैं वह सब छोड़ के अभिनय के क्षेत्र में घुस गई.

‘‘इसीलिए अपनी पढ़ाई के बाद मैं मुंबई में थी. यह सब बहुत अचानक था, लगभग 2009 के आसपास. मैं ने संघर्ष किया. सांस्कृतिक तौर पर यह मेरे लिए एक झटका था. हमारे लिए पर्याप्त जगह नहीं थी. मैं अपनी भाषा की वजह से सफल नहीं हो पाई. अचानक मुझे लगा कि यह एक अलग तरह की चुनौती है और यह केवल अभिनय से जुड़ी हुई नहीं थी. इस किरदार में फिट होने के लिए आप को एक खास तरह से दिखना पड़ता था. मुझे एक फोबिया हो गया, किसी तरह का डर और मैं उस से निकल नहीं पाई.

‘‘यह काफी भीड़भाड़ वाला क्षेत्र है. वहां बहुत प्रतियोगिता है. हर तरफ से मेरे प्लस पौइंट बहुत कम थे. मैं दोष नहीं देना चाहती कि बिलकुल ही जगह नहीं थी. थोड़ीबहुत जगह थी, लेकिन उस थोडे़बहुत के लिए जितनी हिम्मत, कुशलता चाहिए थी मुझे लगता है, मेरे अंदर नहीं थी.

‘‘मैं हमेशा छोटेछोटे किरदार निभाती रही, कभी रिपोर्टर बन गई, कभी कुछ और. वहां कैसे होता है, जो वहां कैस्टिंग डाइरैक्टर है, आप वहां तक पहुंच ही नहीं पाते हो. कुछ लोग हैं जो डाइरैक्टर तक पहुंच पाते हैं, जहां पर आप हीरोइन बन जाते हो. ऐसा नहीं है कि बाहरी लोग बिलकुल नहीं बन पाए, लेकिन उन्हें दिखने में कुछ अनोखा होना पड़ता है. उन के पास वह खास आकर्षण, करिश्मा और सुंदरता होनी चाहिए. तो आप को उतना अच्छा होना है, आप की भाषा भी अच्छी होनी चाहिए, लुक भी अच्छा होना चाहिए. लुक के हिसाब से आप को फिट होना है. आप की ऐक्टिंग फिर बाद में.

‘‘एक समय होता है जब समाज और परिवार आप पर दबाव बनाते हैं, वे कहते हैं कि यह क्या कर रही है. बांबे में 6 साल, 7 साल, कर क्या रही है. मैं सीआईडी (हिंदी पुलिस प्रौसिड्यूरल टैलीविजन सीरीज) के ऐपिसोड करती थी और वे कहते थे कि यह आती है और फिर मर जाती है.’’

फिल्म ‘विलेज रौकस्टार्स 2’ का एक दृश्य Credit : Public Domain

संस्कृता भारद्वाज: ‘‘क्या आप को लगता है कि आप की क्षेत्रीय पहचान ने आप के अवसरों को प्रभावित किया?’’

रीमा दास: ‘‘हां, बेशक. हम हिंदी नहीं बोलते, है न. पुणे में थे तो हिंदी बोल पाते थे, लेकिन सिर्फ बोल पाना ही काफी नहीं है. जैसे जरूरत, जरूरत नहीं, आप को जरूरत बोलना है. तो उस तरह की चीजें शुरू हो जाती हैं.

‘‘जब मैं वहां थी (मुंबई में) और मैं ने अभिनय क्लासेज लीं, तो ये सारी चीजें थीं. कुछ और चीजें थीं, जो सुखद नहीं थीं. चीजें बिगड़ गईं. कहीं न कहीं आप की जो ऐनर्जी है वह कभीकभी अलाइन नहीं होती. आप नैगेटिव ऐनर्जी में चले जाते हैं, आप उन तरह के लोगों से मिलते हैं, आप खो जाते हैं.

‘‘कोई बोल दिया कि ओह, तुम्हारा कद छोटा है, लोगों ने बोल दिया, हां तुम्हारा लुक अलग है, अंदर से आप खुश नहीं होते क्योंकि आप अपनेआप को, अपनी सादगी को खो रहे होते हैं. आप की सरलता हर व्यक्ति का एक नैचुरल फ्लो होता है, वह धीरेधीरे आर्टिफिशियल होना शुरू हो जाता है. आप एक नकली जीवन जी रहे हैं.’’

संस्कृता भारद्वाज: ‘‘आप ने अभिनय से फिल्म निर्माण की ओर रुख कैसे किया?’’

रीमा दास: ‘‘शुरुआत में मुंबई में एक ऐक्टर के तौर पर जो संघर्ष किया, उस की वजह से मेरा किसी निर्देशक को असिस्ट करने का मन नहीं हुआ. मैं ने सुन रखा था कि असिस्टैंट डाइरैक्टर बनने के लिए भी एक लंबी प्रक्रिया होती है, समय देना पड़ता है. कम से कम 5 साल. मेरे पास उस तरह का धैर्य नहीं था.

‘‘किसी तरह मुझे यह एहसास हुआ कि मैं कहानियां बता पाऊंगी. फिल्म बनाने की तकनीकी जानकारी के बिना, मैं ने असम में एक लघु फिल्म बनाई ‘प्रथा’ (2009). इस से मेरा आत्मविश्वास बढ़ा. फिर 2011 में मैं ने किसी तरह एक कैमरा खरीदने का प्रबंध किया. वहां से, सबकुछ बदल गया.

‘‘मैं ने ‘मैन विद द बाइनोक्युलर्स’ बनाई. यह एक छोटा समूह था, लेकिन वहां (फिल्म के लिए) एक डाइरैक्टर औफ फोटोग्राफी था. यह आसान नहीं था. परिवार ने मदद की, दोस्तों ने भी मदद की. मैं कुछ शादी के वीडियो, कुछ कौरपोरेट वीडियो शूट करती थी.

‘‘हम ने ‘मैन विद द बाइनोक्युलर्स’ की शूटिंग सिर्फ 20 दिनों में पूरी की थी. जब एक क्रू रहता है तो आप को पैसों की भी जरूरत होती है और उस में ऐसा दबाव आ जाता है कि इतने ही दिन में करना है क्योंकि आप के पास इतने ही पैसे हैं.

‘‘एक तो मैं ने खुद ही वहां अभिनय किया था. (असमिया अभिनेता) बिष्णु खरगोरा सर, वे मुख्य नायक थे, लेकिन मैं ने भी एक किरदार निभाया. यही एक बड़ी वजह थी कि वह सब मेरे लिए बहुत ज्यादा हो गया था. उस प्रक्रिया में मुझे मजा नहीं आया.

‘‘अचानक एक दिन मैं ने इन बच्चों को देखा (अपने गांव में)- वे अपने थर्मोकोल से बने गिटार और वाद्ययंत्रों के साथ प्रदर्शन कर रहे थे. (जब मैं ने उन्हें देखा) उस वक्त मैं अंदर से खुश नहीं थी. मैं रिलेशनशिप टूटने के बाद के दौर से गुजर रही थी. मेरा अभिनय करने का सपना पूरा नहीं हो सका. मैं अपनी पहली फीचर फिल्म से खुश नहीं थी. मैं थोड़ी भ्रमित अवस्था में थी. उस अवस्था में मैं ने बच्चों को देखा. उन्होंने एक मेडली बनाई थी और वे उसे प्रस्तुत कर रहे थे.

‘‘वे जीवन का जश्न मना रहे थे, भले ही वे गरीबी में थे और जानते थे कि वे असली वाद्ययंत्र नहीं खरीद सकते. लेकिन इतना उत्साह था. उन्होंने मुझे प्रेरित किया. उन्हें देख कर समझ में आया कि कम संसाधनों में भी कुछ बनाया जा सकता है

‘‘‘विलेज रौकस्टार्स’ के दौरान क्योंकि जब मैं सबकुछ खुद कर रही थी तो एक अलग ही तरह की एकांतता और रचनात्मक आजादी महसूस हुई. यही प्रेरणा थी और बच्चे, उन की मासूमियत, प्रकृति की शक्ति. मलिका, मेरी चचेरी बहन, वहां थी. (मलिका दास फिल्म की औडियोग्राफर थीं.) मेरे पास एक छोटा रिकौर्डर था. इस तरह हम ने ‘विलेज रौकस्टार्स’ बनाई, जिस में हमें साढ़े तीन साल लगे. हम बस चलते गए और चलते गए.’’

रीमा दास की फिल्म ‘मैन विद बायनोक्यूलर्स’ का पोस्टर Credit : Public Domain

संस्कृता भारद्वाज: ‘‘क्या यह एक निर्णायक मोड़ था?’’

रीमा दास: ‘‘हां, मुझे बहुत खुशी है कि मैं जिद्दी हूं. मुझे यह एहसास नहीं था कि मैं सिनेमैटोग्राफर के रूप में क्या कर रही हूं क्योंकि मैं प्रशिक्षित नहीं हूं. मैं ने बस अपने अंतर्ज्ञान का पालन किया. मैं ने बहुत सारी फिल्में देखनी शुरू कीं तो वहां से मैं ने सिनेमा और सिनेमैटोग्राफी को समझा. सबकुछ बहुत मासूम जगह से हुआ. उसी मासूमियत में मैं ने वह फुटेज किसी को दिखाया तो उन्होंने कहा कि यह बहुत सुंदर है. तुम सच में फिल्म बनाने पर ध्यान दो क्योंकि तुम काबिल हो.

‘‘यह काफी अचानक था. कम से कम 6 साल तक मैं मुंबई में अभिनेता बनने के लिए संघर्ष कर रही थी. यह एक बड़ा सपना था. लेकिन बात जब यह फिल्म बनाने की आई खासकर ‘विलेज रौकस्टार्स’ के साथ, यह अभिनय वाली चीज, वह किस तरह गायब हुई मुझे इस का एहसास भी नहीं हुआ.

‘‘मैं खो गई थी. जब मैं ने फिल्में बनाना शुरू किया तो मैं ने खुद को फिर से पाया. वह लड़की जो मैं थी, जब मैं कालेज और स्कूल में थी, धीरेधीरे मैं फिर वही लड़की बन गई. ‘विलेज रौकस्टार्स’ के वे 3 साल, जब मैं ने अपनी जड़ों से दोबारा जुड़ना शुरू किया. उन्होंने मुझे बदल दिया. कभीकभी आप की सीमाएं आप की ताकत बन जाती हैं. मैं उस बिंदु पर थी जहां मुझे कुछ करना था. मैं इतनी जवान भी नहीं थी. मुझे ठीक से याद नहीं, लेकिन 30 के दशक में थी.

‘‘‘विलेज रौकस्टार्स’ एक परीकथा जैसी यात्रा थी. बहुत सारे स्वतंत्र फिल्म निर्माता, इंडस्ट्री के लोग प्रेरित हुए. लोग मुझे (संदर्भित करते थे) एक ‘वन वूमन आर्मी’ के रूप में देखते हैं. वे अभी भी मुझ से उसी बारे में सवाल करते रहते हैं. उन्हें वह कहानी पसंद आई. वह वन वूमन कहानी, अभी भी वही चल रही है.

‘‘मैं इसे अन्य चीजों में भी बदलना चाहती हूं. मैं सहयोग करना चाहती हूं. अभी जैसे मैं कुछ लोगों के साथ काम कर रही हूं. अभी मैं एक फिल्म बना रही हूं. मैं ने एक क्रू के साथ कुछ काम किया है.’’

संस्कृता भारद्वाज: ‘‘‘विलेज रौकस्टार्स’ ने उस क्षेत्र के बारे में आप का दृष्टिकोण कैसे बदल दिया, जहां आप बड़े हुए?’’

रीमा दास: ‘‘मैं बचपन से ही यहीं पर रही हूं. फ्लड मैं ने देखा है, फ्लड में स्कूल जाना, सबकुछ. लेकिन उस समय में मुझे यह एहसास नहीं हुआ था कि लोग खेत में काम करते हैं और इतनी मेहनत करने के बाद अपनी फसल खो देते हैं.

‘‘फिर हम पढ़ने चले गए, काटन कालेज. वहां से वहां. तो जब एक समय होता है, जब आप चीजों को ज्यादा औब्जर्व करते हैं, देखते हैं, उस समय में आप बाहर निकल गए. तब आप एक अलग दुनिया में होते हैं. मैं शायद 17 साल की थी, जब मैं बाहर थी (अपने गांव से). उस समय आप प्यार में पड़ते हैं, आप के पास अन्य ध्यान भटकाने वाली चीजें होती हैं तो आप समझते नहीं. लोगों की क्या जरूरतें हैं, पेड़ की जरूरत कितनी है, नदी की जरूरत कितनी है.

‘‘जब मैं ने अपनी फिल्में बनानी शुरू कीं तो मैं ने अपनी जड़ों और जमीन से जुड़ना शुरू किया. मैं ने अपने लोगों से प्यार करना शुरू किया. मैं ने देखा कि खेती करना कितना कठिन है. किसान, उन के पास ज्यादा बैंक बैलेंस नहीं है. जब वे खेती कर रहे होते हैं, वे सबकुछ देते हैं, सबकुछ खर्च करते हैं. ये सब चीजें मेरे लिए काफी जीवन परिवर्तनकारी थीं.

‘‘मेरे दादा किसान थे, मेरा भाई भी खेती में गहराई से लगा हुआ है. हम उन किसानों के दर्द को समझते हैं. उन के लिए जमीन कितनी महत्त्वपूर्ण है, पेड़ होने क्यों इतने जरूरी हैं. उस पृष्ठभूमि, समझ और भावना से आते हुए, यहां मेरी जगह है.

‘‘अब मैं सबकुछ गहराई से देख रही हूं. जब आप कैमरा पकड़ रहे होते हैं, आप रोशनी, प्रकृति, ध्वनि, सब देख रहे होते हैं. आप जुड़े हुए होते हैं. आप को लगता है कि आप कुछ बना रहे हैं. मैं कैमरा ले कर ऐसे ही गांव में घूम रही हूं. पेड़ पर चढ़ कर, पानी में, नाव में, फ्लड में तो लोगों ने तो मुझे थोड़ा पागल भी कहना शुरू कर दिया. उन्हें लगा कि इस का दिमाग खराब है. यह बच्चों का भी दिमाग खराब कर रही है.

‘‘जब हम शूटिंग कर रहे थे, मैं ने अपने बच्चों से कहा जिन्होंने ‘विलेज रौकस्टार्स’ में अभिनय किया था कि देखो मैं बचपन में कैसी थी, फोटोग्राफ हैं, उस के सिवा तो कुछ नहीं पता. तुम लोग अपनेआप को तो देख पाओगे न, यह बचपन रह जाएगा कि ऐसे क्या करते रहते हो, स्कूल जाते हो, पढ़ाई वगैरह. कम से कम आप खुद को देखेंगे. तो इस तरह किसी तरह से मुझे उन्हें मोटिवेट करना था तो उन्होंने मजा लिया. वे 3 साल बहुत खूबसूरत थे.’’

संस्कृता भारद्वाज: ‘‘राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय प्रशंसा का आप पर क्या प्रभाव पड़ा?’’

रीमा दास: ‘‘सफलता के साथ लोगों का प्यार, आप को अपनी ऊर्जा बढ़ती हुई महसूस होती है, आप जिम्मेदार बन जाते हैं.

‘‘ऐसा नहीं है कि संघर्ष खत्म हो गया है. लेकिन मैं खुद को विशेष भी महसूस करती हूं. बहुत सारे फिल्म निर्माता हैं, बहुत सारे लोग हैं जो फिल्मों में कुछ करना चाहते हैं. अगर मैं किसी चीज से गुजर रही हूं तो मैं उसे अनदेखा करने की कोशिश करती हूं. मैं बस फिल्में बनाना पसंद करती हूं. छोटे तरीके से, बड़े तरीके से कोई फर्क नहीं पड़ता.

‘‘‘विलेज रौकस्टार्स’ की सफलता के साथ अचानक बहुत सारे औफर भी आए. लोगों ने संपर्क करना शुरू किया. लेकिन मुझे नहीं पता शायद मेरा बांबे में संघर्ष और व्यक्तिगत जीवन ने मुझे अपनी ऊर्जा की रक्षा करना, धीरेधीरे और स्थिरता से आगे बढ़ना सिखाया.

‘‘ऐसा नहीं है कि मेरे बड़े सपने नहीं हैं, लेकिन उन बड़े सपनों में खुद को खोना नहीं चाहती. बस उस दुनिया में रह कर खुश रहना चाहती हूं और ऐसे लोगों के साथ काम करना चाहती हूं जिन से मेरी ऊर्जा मेल खाती हो.’’

संस्कृता भारद्वाज: ‘‘क्या आप को ‘विलेज रौकस्टार्स ’को व्यापक दर्शकों तक पहुंचाने में संघर्ष करना पड़ा?’’

रीमा दास: ‘‘मैं ने बस मेहनत की. ऐसा नहीं है कि मैं रुक गई और मैं ने सोचा कि ठीक है, यह मेरा काम है, बस फिल्म बनाना. उस के बाद, मैं ने सोचा कि ओटीटी प्लेटफौर्म तक कैसे पहुंचना है, थिएटर में रिलीज का तरीका कैसे पता करना है. मुझे पता था कि मुझे व्यावहारिक और स्पष्ट होना होगा कि यह एक स्वतंत्र फिल्म है.

‘‘मैं हमेशा ऐसा सिनेमा बनाने की कोशिश करती रही हूं जो ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंच सके. यह केवल सफलता, पुरस्कार और फैस्टिवल में जाने की बात नहीं है. यह भी है कि अधिक दर्शकों तक पहुंचना. ‘विलेज रौकस्टार्स’ या ‘बुलबुल कैन सिंग’ में मैं जो संदेश दे रही हूं, वह केवल अभिजात फिल्म निर्माताओं के लिए नहीं है.’’

संस्कृता भारद्वाज: ‘‘आप का अधिकांश काम असम और असमिया संस्कृति में निहित है. क्या आप बता सकती हैं कि इन कहानियों को वैश्विक मंचों तक पहुंचाने का महत्त्व क्या है?’’

रीमा दास: ‘‘इंटरनैट और बहुत सारी अन्य चीजों के कारण. अभी हमें थोड़े से लोग जानने लगे हैं. फिर भी एक स्तर पर अभी भी बहुत से ऐसे लोग हैं जो हमें नहीं जानते हैं. असम बोलो तो वे असम नहीं जानते. उन को लगता है कि नेपाल में है कि चीन में हैं.

‘‘हमारे प्रोडक्शन हाउस का नाम है ‘फ्लाइंग रिवर्स फिल्म्स.’ हम ने इस का यह नाम इसीलिए लिए रखा था क्योंकि हमारी नदी के पास बहुत सारी कहानियां हैं. उन को पूरी दुनिया तक पहुंचना चाहिए, यही मेरा लक्ष्य था.

‘‘पूर्वोत्तर में इतनी सारी कहानियां हैं, इतने सारे समुदाय हैं. एक लंबा सफर है. कितना कुछ है. हमारी कहानियां हम नहीं बताएंगे तो कौन बताएगा, वह तो करना ही पड़ेगा.’’

संस्कृता भारद्वाज: ‘‘आप महिला फिल्म निर्माताओं के लिए वर्तमान परिदृश्य को कैसे देखती हैं? इस में क्या बदलाव देखना चाहती हैं?’’

रीमा दास: ‘‘मुझे लगता है कि इंडस्ट्री को अभी भी अधिक समावेशी होने की जरूरत है, न केवल महिलाओं के लिए, बल्कि अन्य हाशिए पर रहने वाले समुदायों के लिए भी. महिलाएं शक्ति पा रही हैं. कम से कम वे उस बिंदु तक पहुंच रही हैं जहां अगर वे कुछ चाहती हैं तो कर सकती हैं, ऐसा माहौल है. उस के लिए भी बहुत साहस की जरूरत होती है. हमेशा समस्याएं होंगी, लेकिन जो लोग उन्हें तोड़ सकते हैं, हमेशा तोड़ कर आगे बढ़े हैं.

‘‘और जब आप लोग किसी पद पर पहुंच जाते हैं, तो आप को और महिलाओं के लिए भी अवसर पैदा करने होंगे, उन्हें ऐसा माहौल देना होगा जहां वे खुल कर काम कर सकें. उन्हें उस तरह का आराम और जगह देना, जो सुरक्षित हो. एकदूसरे को प्रोत्साहित करना, एकदूसरे का समर्थन करना, यही हम कर सकते हैं.’’

संस्कृता भारद्वाज: ‘‘आप उभरते फिल्म निर्माताओं को खासकर उन को जो कम प्रतिनिधित्व वाले क्षेत्रों से हैं क्या सलाह देना चाहेंगी?’’

रीमा दास: ‘‘बस कुछ करो. चाहे वह आप के मोबाइल से हो या कुछ और. अपने क्षेत्र पर भरोसा करो. शुरुआत में आप अपनी जो अनोखी आवाज है और आप क्या करना चाहते हो, उस को ऐक्सप्लोर करो. अगर आप को लगता है कि रिस्क है, बहुत सारी चीजें चैलेंज हैं तो बेहतर होगा कि कम बजट में, जितना हो सके छोटे स्तर पर फिल्म बनाएं. जिस भी तरीके से बन पाए. धीरेधीरे आप को समझ आने लगेगा.

‘‘कभीकभी मैं 30 सैकंड की रील देखती हूं और वह शानदार होती है. लोग बोलते हैं कि इस की वजह से लोगों की अटैंशन कम हो गई है और फिल्में भी नहीं चल रही हैं, लेकिन मुझे लगता है कि हम सभी के पास वह स्वतंत्रता है कि आप कुछ कर सकते हो. मैं ने खुद भी रील देख कर सीखा है. मुझे सच में लगता है कि कुछ लोग वास्तव में अच्छे हैं.

‘‘एक बार जब आप जान जाते हैं और स्पष्टता हो जाती है कि आप कौन हैं और आप क्या चाहते हैं और अगर वह स्पष्ट है तो चाहे आप का रास्ता कमर्शियल हो या आर्ट, यह आसान होगा, जब आप अपना रास्ता जान जाएंगे.’’

Rima Das

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