मंदिर जरूरी या रोजगार

देश कब क्या सोचे, क्या चिंता करे, क्या बोले, क्या सुने यह भी अब पौराणिक युग की तरह देश का एक वर्ग जो धर्म की कमाई पर जिंदा ही नहीं मौजमस्ती और शासन कर रहा है तय कर रहा है. देश के सामने जो बेरोजगारी की बड़ी समस्या है. उस पर ध्यान ही नहीं देने दिया जा रहा. धर्मभक्तों के खरीदे या बहकाए गए टीवी चैनल या ङ्क्षप्रट मीडिया बेरोजगारों को दुर्दशा की ङ्क्षचता नहींं कर रहे उन की हताशा को आवाज नहीं दे रहे.

हर साल करोड़ों युवा देश में बेरोजगारों की गिनती में बढ़ रहे हैं पर उन के लायक न नौकरियां है, न काम धंधे. यह गनीमत है कि आज जो युवा पढ़ कर बेरोजगारों की लाइनों में लग रहे हैं, वे अपने मांबाप 2 या ज्यादा से ज्यादा 3 बच्चे में से एक है और मांबाप अपनी आय या बधन से उन्हें पाल सकते हैं. 20-25 साल तक के ही नहीं, 30-35 साल तक के युवाओं को मातापिता घर में बैठा कर खिला सकते हैं क्योंकि इस आयु तक आतेआते इन मांबाप के अपने खर्च कम हो जाते हैं.

पर यह बेरोजगारी आत्मसम्मान और अपना विश्वास पर गहरा असर कर रही है और अपनी हताशा को ढंकने के लिए ये युवा बेरोजगार धर्म का झंडा ले कर खड़े हो जाने लगे हैं. ये भी भक्तों की लंबी फौज में शामिल हो रहे है और भक्ति को देश निर्माण का काम समझ कर खुद को तसल्ली दे रहे हैं कि वे कमा नहीं रहे तो क्या. देश और समाज के लिए कुछ तो कर रहे हैं.

आज अगर विवाह की आयु धीरेधीरे बढ़ रही है और नए बच्चों की जन्म दर तेजी से घट रही है तो बढ़ा कारण यही है कि बेरोजगार युवाओं को विवाह करने से डर लग रहा है कि वे अपना बोझ तो मांबाप पर डाल रहे है बीवी और बच्चों को भी कैसे डालें.

घर समाज में सब एक समान नहीं होते. कुछ युवाओं को अच्छा काम मिल भी रहा है. अर्थव्यवस्था के कुछ सेक्टर काफी काम कर रहे हैं. खेती में अभी तक कोई विशेष मंदी नहीं आई है और इसलिए फूड प्रोसीङ्क्षसग और फूड सप्लाई का काम चल रहा है. रिटेङ्क्षलग और डिलिवरी के काम बड़े हैं. पर ये काम बेहद कम तकनीक के हैं और इन में भविष्य न के बराबर है.

आज का युवा बेरोजगारी या आधीअधूरी सी नौकरी के कारण अपनी कमाई में घर भी नहीं खरीद पा रहा है.

ये समस्या आज की चर्चा में नहीं आने दी जा रही क्योंकि ये धर्म द्वारा संचालित शासन की पोल खोलती हैं. निरर्थक मामलों को लिया जा रहा है और जो उठाए गए फालतू के विषयों पर ताॢकक बना देते हैं क्योंकि चर्या का विषय बेरोजगारी जैसे विषय धर्म, दान दक्षिणा, मंदिर, स्वामियों, यज्ञों, आरतियों, मंदिर कैरीडोरों की ओर मुड जाती है.

ये भी पढ़ें- स्मार्टफोन कितने स्मार्ट

घरेलू कामगार दर्द जो नासूर बन गया 

पूछा गया था कि लौकडाउन खत्म होने के बाद आप किस से मिलना चाहेंगी? तो अधिकतर महिलाओं ने कहा था कि कामवाली से. बेशक, क्योंकि वर्क फ्रौम होम से ले कर घर और बाई का काम भी महिलाओं के सिर पर आ पड़ा. सच कहें तो घरेलू कामगारों के बिना शहरी जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है. पतिपत्नी दोनों बाहर जा कर आर्थिक गतिविधियों में संलग्न हो पाते हैं तो सिर्फ इसलिए क्योंकि उन के घर को संभालने का जिम्मा घरेलू कामगार के हाथ में होता है. लेकिन आज वही लोग यह शर्त रख रहे हैं कि जब तक बाई अपना कोविड-19 नैगेटिव सर्टिफिकेट नहीं दिखाती, वे उसे अपने घर काम पर नहीं रख सकते हैं.

कामगार संगठन इस तरह की सोच को गलत मानते हैं कि सिर्फ गरीब ही कोरोना फैला सकते हैं. राष्ट्रीय घरेलू कामगार संगठन की राष्ट्रीय संयोजक क्रिस्ट्री मैरी बताती हैं कि कुछ सोसाइटी में टैस्ट रिपोर्ट लाने के लिए बोला जा रहा है. उस के बाद तभी काम की अनुमति देंगे जब मेड उन के साथ घर में ही रहे. आनेजाने की अनुमति नहीं दे रहे हैं. लेकिन 24 घंटे किसी के घर रहना मुश्किल है, क्योंकि उन का भी अपना परिवार है. एक से ज्यादा घरों में काम करने वाली मेड को भी मना कर रहे हैं. 60 साल से ज्यादा उम्र के घरेलू कामगारों को तो बिलकुल इजाजत नहीं दे रहे हैं.

संगठन का कहना है कि कोरोना से संक्रमित तो कोई भी हो सकता है. मेड, थर्मल स्क्रीनिंग, लगातार हाथ धोने, दूरी बनाए रखने जैसे सुरक्षा उपायों के लिए तैयार हैं. फिर भी उन्हें कोई काम पर रखने को तैयार नहीं है, क्योंकि उन्हें डर है कि मेड के घर आने से वे कोरोना संक्रमित हो सकते हैं, ऐसे में इस से अच्छा है खुद ही काम कर लिया जाए.

42 वर्षीय मंजू बेन, अहमदाबाद में सोसाइटी के कई घरों में झाड़ूपोंछा और बरतन धोने का काम करती थी. लेकिन कोरोना की वजह से उस का काम छूट गया. जब अनलौक हुआ तो उम्मीद जगी कि शायद उसे अब काम पर बुला लिया जाएगा. मगर किसी ने उस का फोन नहीं उठाया और न ही काम पर बुलाया. जब वह खुद बात करने गई तो वाचमैन ने बाहर ही रोक दिया. जब सोसाइटी के सैक्रेटरी से फोन पर बात की, तो उन्होंने साफ कह दिया कि अभी बाई का आना मना है. अगर उस की वजह से यहां किसी को कोरोना हो गया तो इस की जिम्मेदारी कौन लेगा? उस के कहने का मतलब था कि उस के यहां काम करने से कोरोना होने का खतरा बढ़ सकता है.

ये भी पढ़ें- महिलाओं के लंबे बाल चाहत है पाखंड नहीं 

ऐसा कब तक चलेगा

मंजू बेन का पति एक फैक्टरी में काम करता था, जो कोरोना की वजह से बंद पड़ी है. घर में खाने वाले 4-5 लोग हैं पर कमाने वाला कोई नहीं. किसी तरह उधार ले कर घर चल रहा है, पर ऐसा कब तक चलेगा, कहा नहीं जा सकता. लौकडाउन में काम बंद होने के कारण परिवार की स्थिति दयनीय हो चुकी है.

लोगों के घरों में काम करने वाली भारती कहती है कि मार्च के दूसरे हफ्ते से ही मुझे पैसों की तंगी शुरू हो गई. जिन के घर काम करती थी, उन्होंने सिर्फ आधे महीने का पैसा दे कर चलता कर दिया. कहा जब फिर से काम पर बुलाना होगा, फोन कर देंगे. लेकिन अभी तक कोई फोन नहीं आया. मतलब यही कि उन्हें हमें काम पर नहीं रखना है अब. मुझे पता नहीं कि सरकार हम जैसों के बारे में क्या सोच रही है या सोच भी रही या नहीं. ये सब कहते हुए भारती की आंखें गीली हो गईं.

डोमैस्टिक वर्कर्स सैक्टर स्किल काउंसिल के एक सर्वेक्षण में कहा गया कि जहां लगभग 85% घरेलू कामगारों को लौकडाउन अवधि के दौरान का वेतन या मजदूरी नहीं मिली वहीं 23.5% घरेलू कामगार काम छूट जाने के कारण अपने मूल स्थान यानी अपने गांव लौट गए, जबकि 38% घरेलू कामगारों ने बताया कि उन्हें भोजन का इंतजाम करने में गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ा. लौकडाउन की अवधि में जिंदा रहने के लिए लगभग 30% लोगों के पास फूटी कौड़ी नहीं थी.

यह सर्वेक्षण आठ राज्यों में अप्रैल महीने में किया गया था. जिन में, दिल्ली, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, असम, पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, तमिलनाडु शामिल थे. पूरे भारत में केवल 14 राज्यों ने ही घरेलू श्रमिकों के लिए न्यूनतम मजदूरी को अधिसूचित किया है. इन राज्यों में घरेलू या कामगार अपनी समस्याओं के निदान के लिए शिकायत दर्ज कर सकते हैं. लेकिन राष्ट्रीय राजधानी सहित बाकी राज्यों में उन के पास ऐसा कोई अधिकार या सहारा नहीं है. इसलिए उन के लिए कानूनों में एकरूपता की आवश्यकता है.

घरेलू मेड और इन लोगों को काम देने वाले परिवार एकदूसरे पर निर्भर हैं. आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए ये आजीविका का एक जरीया हैं. कुछ लोग तो चाहते हैं कि उन की मेड काम पर लौटे, पर सोसाइटी के प्रबंधक इस बात के लिए अब भी तैयार नहीं हैं, क्योंकि कोरोना के मामले बढ़ते ही जा रहे हैं. लौकडाउन के बाद दीपा ने अपनी बाई को बुला तो लिया काम पर, पर कुछ दिन बाद फिर निकाल दिया यह बोल कर कि कोरोना के मामले बढ़ रहे हैं, अभी मत आओ.

एक सर्वे के अनुसार, 80% लोगों ने कहा कि घरेलू हैल्पर पर फिलहाल रोक रहे. सिर्फ 10% लोगों ने उन के आने का समर्थन किया.

एक अपार्टमैंट के मैनेजर का कहना है कि ज्यादातर घरेलू हैल्पर छोटी बस्तियों से आते हैं और वहां कोरोना के मामले ज्यादा पाए जाते हैं, इसलिए अभी इन्हें नहीं आने देना ही सही है. हालात सुधरेंगे तो फिर बुला लेंगे. लेकिन अगर हैल्पर 24 घंटे घर में ही रहने को तैयार हैं, तो उन्हें मनाही नहीं है.

भेदभाव की शिकार

मुंबई के चार बंगला इलाके की नीता कहती है कि जिन घरों में वह काम करने जाती है, कोरोना उन लोगों से नीता को भी तो हो सकता है. बाहर तो वे लोग भी जाते हैं. हमें भी डर है कि हमें उन से कोरोना हो जाएगा और यह सही है कि हमारी वजह  से उन को भी हो सकता है. यह तो किसी को किस से भी हो सकता है. फिर हमारे साथ ही भेदभाव क्यों?

नीता आगे कहती है कि मालिकों का कहना है कि अगर बाई काम करने आएगी, तो सब से पहले उसे बाथरूम में जाना होगा. वहीं साफ कपड़े रखने होंगे ताकि नहा कर उन्हें पहना जा सके. फिर गलव्स, मास्क लगा कर सेफ्टी से कामकाज शुरू करना होगा. कई घरों में हम सालों से काम कर रहे हैं. क्या उन्हें नहीं पता कि हम साफसुथरे हैं. रोज नहा कर उन के घर काम करने आते हैं और आते ही सब से पहले साबुन से हाथ धोते हैं.

ये भी पढ़ें- देश के करोड़ों बधिरों की मांग, आईएसएल बनें देश की 23वीं संवैधानिक भाषा

घरेलू कामगार संगठन की राष्ट्रीय संयोजक क्रिस्ट्री मैरी कहती हैं कि कई मेड को उन लोगों से कोरोना हुआ, जहां वे काम करने जाती थी. कुछ घरेलू कामगारों की ऐसे में जान भी गई है. फिर भी वे काम पर जाने को तैयार हैं. वे हर तरह के सुरक्षा उपाय करने को तैयार हैं, फिर भी हाउसिंग सोसाइटी के दरवाजे उन के लिए खोले नहीं जा रहे हैं. काम पर न लौट पाने की वजह से घरेलू कामगार मुश्किल आर्थिक स्थिति से गुजर रहे हैं. उन के पास किराया देने के पैसे नहीं हैं, घर में राशन नहीं है, बच्चों की फीस भरने के लिए पैसे नहीं हैं.

कौन सुनेगा दर्द

पश्चिमी मुंबई के जोगेश्वरी इलाके में रहने वाली अमीना कहती है कि वह 3 घरों में काम करती थी. कोरोना की वजह से उस का काम रुक गया. 2 महीने से पगार नहीं मिली. सिर्फ एक घर से पगार मिली. उसी से जैसेतैसे घर चला रही है. घर में 3 बच्चे हैं और पति का 3 साल पहले इंतकाल हो गया था. उस के साथ कई महिलाओं को कहीं से भी पगार नहीं मिली.

उस की एक सहेली अंधेरी का ही एक सोसाइटी में काम करती थी. काम बंद हुआ तो पगार रुक गई. बस्ती में बंटने वाला राशन भी उसे नहीं मिला. उस के बाद उस की सहेली ने अपने बच्चों के साथ फांसी लगा ली.

हालांकि, कई मेड को यह उम्मीद है कि उन्हें काम पर बुला लिया जाएगा. गाजियाबाद की एक सोसाइटी में काम करने वाली कमलेश कहती है कि 10-15 दिन और देखते हैं, नहीं तो वह अपने गांव लौट जाएगी, क्योंकि कब तक ऐसे चलता रहेगा.

बता दें कि देशभर में घरेलू कामगारों की संख्या 50 लाख से भी ज्यादा है. इस साल संसद के शीतकालीन सत्र में केंद्रीय श्रम एवं रोजगार मंत्री संतोष कुमार गंगवार ने लोकसभा में बताया था कि केंद्र सरकार के पास ऐसा कोई आंकड़ा नहीं है. हालांकि, उन्होंने एनएसएसओ (2011-12) के सर्वेक्षण के हवाले से बताया था कि निजी परिवारों में काम करने वाले घरेलू कामगारों की संख्या  39 लाख है, जिन में 26 लाख महिला कामगार हैं.

अधिकतर घरेलू कामगार, गांवदेहातों से या छोटे शहरों से यहां काम करने आते हैं, जो ज्यादातर अशिक्षित या कम पढ़ेलिखे होते हैं. ये 4-5 घरों में काम कर के महीने के 8-10 हजार रुपए कमा लेते हैं. इन घरेलू कामगारों की सब से बड़ी संख्या निजी घरों में काम करने वालों की है जो संगठित रूप से अच्छे वेतन की मांग नहीं कर पाई हैं और न ही श्रम कानून का उपयोग कर पाते हैं.

लौकडाउन की घोषणा के बाद केंद्र सरकार ने राहत पैकेज के तहत महिलाओं के जनधन खातों में 3 महीने तक 500 रुपए दिए जाने की घोषणा की थी. लेकिन यह पैसा कितनों को मिला नहीं पता, क्योंकि एक गरीब महिला का कहना है कि उसे भी सरकार की तरफ से कोई पैसा नहीं मिला है.

महाराष्ट्र के श्रम आयुक्त पंकज कुमार बताते हैं कि राज्य में करीब साढ़े चार लाख घरेलू कामगारों की संख्या रजिस्टर्ड की गई. लौकडाउन के कारण उन्हें आर्थिक तौर पर होने वाले नुकसान के बारे में सरकार सजग है. वित्तीय मदद देने के लिए राज्य सरकार ने एक समिति भी बनाई है. समिति की सिफारिश आने के बाद ही शासन स्तर पर कोई निर्णय लिया जा सकता है. घरेलू कामगारों की आर्थिक सहायता को ध्यान में रखते हुए सरकार जो निर्णय लेगी उसे अच्छी तरह से लागू कराया जाएगा. हालांकि , यह भी सच है कि राज्य में घरेलू कामगारों के कल्याण के लिए एक कानून के अस्तित्व में होने के बावजूद सरकार ने अभी तक उन्हें ऐसी आपात स्थितियों में कोई राहत नहीं दी है.

मुंबई और पुणे जैसे महानगरों में महिला कामगारों का एक बड़ा वर्ग ऐसा है, जो आवास परिसर में कपड़े व बरतन धोने और फ्लैट या बंगले आदि में साफसफाई कर के अपना तथा अपने परिवार का जीवनयापन करता है, लेकिन सामाजिक कार्यकर्ता वाल्मीकि निकालजे का कहना है कि लौकडाउन और आम जनता में व्याप्त कोरोना संक्रमण के बढ़ते खतरे के कारण पिछले महीनों में इन कामगारों को बड़ी संख्या में रोजमर्रा के कामों से हाथ धोना पड़ा है. मगर सरकार की तरफ से इस तबके को ध्यान में रखते हुए अब तक राहत पैकेज को ले कर कोई घोषणा नहीं हुई.

16 जून को दुनियाभर में घरेलू कामगारों द्वारा मनाए जाने वाले ‘घरेलू कामगार दिवस’ के एक दिन बाद भारत के राष्ट्रीय नियंत्रण (एनसीडीसी) ने कोविड-19 के घरेलू कामगारों को नौकरी देने के मद्देनजर शहरी मलिन बस्तियों के लिए एक एडवाइजरी जारी की जो कहती है कि नियोक्ताओं को घरेलू कामगारों को दो हफ्ते की छुट्टी देनी चाहिए ताकि नियोक्ता और घरेलू कामगार दोनों कोरोना वायरस के संक्रमण से बचें. यह एडवाइजरी कोविड-19 के मद्देनजर झुग्गीझोपड़ी क्लस्टर/मलिन बस्तियों के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन की सलाह के मद्देनजर जारी की गई थी.

ये भी पढ़ें- आत्महत्या कर लूंगा, तुम मायके मत जइयो!

न वेतन न सुविधा

घरेलू कामगार एक्शन (मार्था फैरेल फाउंडेशन की एक पहल) के नेतृत्व में कोविड-19 के प्रभाव पर दिल्ली और हरियाणा में घरेलू कामगारों ने पाया कि बड़ी संख्या में घरेलू कामगारों को मार्च, अप्रैल और मई में उन का वेतन नहीं मिला. यह पाया गया कि कई घरेलू कामगारों ने अपनी नौकरी खो दी, लौकडाउन के शुरुआत में बहुतों को अपने परिवार को छोड़ कर नियोक्ता के घर में रहने को मजबूर किया जा रहा था और जो लोग घर छोड़ कर वापस जाना चाहते थे, वे पर्याप्त संसाधन न होने की वजह से मजबूर थे. दिल्ली और हरियाणा की घरेलू कामगार महिलाओं ने मिल कर एक घोषणा पत्र की रूपरेखा तैयार की, जिस में कोविड-19 की चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए सुरक्षित और गरिमामय कार्य के लिए शर्तों को परिभाषित किया गया.

हैदराबाद से ज्योतिप्रिया, (बदला हुआ नाम) ने घरेलू कामगारों के लिए एक और दबाव वाले मुद्दे पर प्रकाश डालते हुए बताया कि तेलंगाना जैसे कुछ राज्यों ने काम पर लौटने में सक्षम होने के लिए अनापत्ति प्रमाण पत्र (एनओसी) का देना अनिवार्य कर दिया है. लेकिन घरेलू कामगार कोविड-19 परीक्षण के लिए भुगतान कैसे कर सकते हैं? इस की कीमत करीब 2,500 रुपए है. अगर हमारे नियोक्ता इस की मांग कर सकते हैं, तो क्या उन्हें भी अपने ठीक होने का प्रमाण पत्र नहीं देना चाहिए?

अनलौक के बाद भी घरेलू कामगारों की स्थिति में कोई सुधार नहीं आया है. आज भी कई ऐसे परिवार हैं जो दानेदाने को मुहताज हैं, क्योंकि वे बेकार हैं, काम नहीं है उन के पास, तो रोटी कहां से आए. लोगों को यही लगता है कि अगर वे उन के घर काम करने आएंगे, तो साथ में कोरोना ले कर आएंगे, इसलिए उन्हें नहीं बुलाना ही बेहतर है.

सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि भारतीय घरेलू कामगार की हालत विदेशों में भी बहुत खराब है. वे सड़कों पर दरिद्र, परेशान और चिंतित घूम रहे हैं, क्योंकि उन्हें कोरोना की शुरुआत में ही अपने नियोक्ताओं का घर छोड़ने के लिए बोल दिया गया था मगर टिकट के पैसे न होने की वजह से वे भारत आने में असमर्थ हैं.

हाल ही में, कैंट वाटर प्यूरिफायर ब्रैंड ने अपने एक विज्ञापन में कहा कि क्या आप अपनी नौकरानी के हाथों को आटा गूंधने की अनुमति देंगे? उस के हाथ संक्रमित हो सकते हैं. कई लोग ऐसा ही सोचते हैं. क्योंकि जब उन के घरेलू कामगार काम पर आते हैं तो मालिक लोग खुद को एक कमरे के अंदर बंद कर देते हैं, जो अपनेआप में कितना असंवेदनशील और जलालत भरा कदम है. जिस तरह से घरेलू कामगारों के साथ व्यवहार होता है, उस से उन के प्रति जलालत और घृणा स्पष्ट दिखाई देती है. लेकिन लोग यह क्यों नहीं समझते कि यह वायरस विदेश से वापस आने वाली मैडम और साहब की देन है, न कि घरेलू कामगारों की. यह वायरस झुग्गीझोपडि़यों से नहीं, बल्कि हवाईजहाज से उड़ कर यहां आया है.

लौकडाउन की घोषणा के साथ ही प्रधानमंत्री ने कहा था कि कोई भी कंपनी या संस्था इस दौरान अपने कर्मचारियों को न निकाले, लेकिन सैकड़ों कंपनियों में लोगों की छटनी भी हुई और उन के वेतन में कटौती भी की गई. इस परिस्थिति में घरेलू कामगार अपनेआप को और अधिक असहाय समझने लगे, क्योंकि उन के पास सामाजिक सुरक्षा जैसी कोई चीज नहीं है. जिन लोगों ने दोबारा काम शुरू किया, वे पहले की कमाई की तुलना में 70 फीसदी से भी कम पर गुजारा करने को मजबूर हैं.

पिछले साल संसद में केंद्र सरकार ने बताया था कि घरेलू कामगारों के अधिकार की रक्षा करने के लिए कोई अलग कानून नहीं बनाया गया है. केंद्र सरकार ने पिछले साल उन के लिए न्यूनतम मजदूरी, सामाजिक सुरक्षा प्राप्त करने, दुर्व्यवहार रोकने, खुद की यूनियन का निर्माण करने, उत्पीड़न और हिंसा से संरक्षण का अधिकार सहित उन से जुड़े कई पहलुओं पर एक राष्ट्रीय नीति बनाने का मसौदा जरूर तैयार किया था, लेकिन अभी तक उस पर अमल नहीं हो पाया है.

इस से पहले भी घरेलू कामगारों को ले कर कई विधेयक संसद में आए, लेकिन कभी कानून नहीं बन पाया. 2010-11 में यूपीए सरकार ने भी घरेलू कामगारों के लिए राष्ट्रीय नीति का ड्राफ तैयार किया था, लेकिन वह भी कामयाब नहीं हो पाया.

फेल हो गई सरकार

घरेलू सहायिकाओं समेत असंगठित क्षेत्र में कार्यरत महिलाओं के कल्याण के लिए देश में पिछले 48 सालों से काम कर रहे ‘सैल्फ इम्प्लायड वूमंस ऐसोसिएशन’ (सेवा) की दिल्ली इकाई की सहायक समन्वयक सुमन वर्मा ने बताया कि वर्तमान और भविष्य दोनों की चिंता इन महिलाओं को परेशान कर रही है. कमाई का जरीया नहीं होना, कई मामलों में पति की बेरोजगारी या शराब की लत और बच्चों के भविष्य की चिंता से ये मानसिक अवसाद से भी घिरती जा रही हैं लेकिन इन की परवाह करने वाला है कौन?

घरेलू सहायिकाओं के अधिकारों के लिए काम कर रहे संगठन ‘निर्माण’ के डाइरैक्टर औपरेशंस रिचर्ड सुंदरम ने कहा कि यह चिंतनीय है कि भारत ने अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के उस कन्वैंशन पर अभी तक सहमति नहीं जताई, जो ‘घरेलू कामगारों को सम्माननीय काम’ के उद्देश्य से आयोजित किया गया था.

लड़कियों की आजादी की दुर्दशा कब तक

बढ़ती बेकारी का एक असर यह है कि लड़कियां जो पहले पढ़ाई के बाद कैरियर के नाम पर कुछ साल घरों से दूर निकल सकती थीं और अपने मनचाहे से प्रेम, सैक्स और विवाह कर सकती थीं, अब घरों में रह रही हैं और रोज शादी का दबाव झेल रही हैं. मातापिता चाहे कितने ही उदार और प्रगतिशील हों, वे तो समझते हैं कि अगर नौकरी पर नहीं हैं तो विवाह योग्य साथी नहीं मिलेगा और बिना साथी बेटी कुंठित रहेगी इसलिए उस की शादी कर देनी चाहिए.

यह दबाव और अप्रिय हो जाता है, क्योंकि छोटे शहरों में या अरेंज्ड मैरिज में ज्यादातर लड़के जो दिखते हैं वे आधे पढ़ेलिखे और आधे सफल होते हैं. सफल, स्मार्ट युवा तो बड़े शहरों में नौकरियों पर जा चुके होते हैं. लड़कियों को इस समस्या का सामना करना पड़ता है कि वे 4,5,6 को इनकार करने के बाद क्या करें. मातापिता तो उन्हीं को दिखाएंगे न जो उन्हें मिलेंगे. बिचौलिए तो अपनी फीस की चिंता करते हैं, लड़की की इच्छा की नहीं.

ये भी पढ़ें- आज भी अंधविश्वास में फंसे हैं लोग

पढ़ीलिखी मेधावी लड़कियां एक ऐसी सरकार की गलत नीतियों से लगी आग में झुलसने लगीं जो इन बातों की चिंता ही नहीं करती और हर चीज कर्म और भाग्य पर छोड़ने वाली है. जब प्रधानमंत्री बिना शास्त्र का नाम लिए संस्कृत में बात करने लगें और वित्त मंत्री देश की आर्थिक दुर्व्यस्था को एक्ट औफ गौड कहने लगें तो बेचारी अदना अकेली युवती के लिए कुछ कहनेकरने को बचा क्या है?

जो आशा पिछले 4-5 दशकों में बंधी थी कि लड़कियां लड़कों के बराबर हो जाएंगी, अब मिटने लगी है, क्योंकि यदि लड़कियों को नौकरी नहीं मिलेगी तो उन्हें घरों में रसोई में ही घुसना पड़ेगा चाहे बायोकैमिस्ट्री में पीएचडी ही क्यों न की हो. दूसरी तरफ मातापिता खुद लड़कों को घर पर बैठा देख कर बाहर भेज देंगे ताकि घर में शांति रहे. मतलब है कि आवारा निठल्ले लड़कों की सप्लाई बढ़ेगी और घरेलू लड़कियों की.

सरकार की गलत आर्थिक नीतियों से देश की अर्थव्यवस्था ज्यादा खराब हुई है. कोरोना से पहले ही कारखाने बंद होने लगे थे और उत्पादन कम होने लगा था. देश के कर्णधारों को हिंदूमुसलिम और मंदिरों की पड़ी थी और इन्हीं लड़कियों के मातापिता बेवकूफी में आरतियों, प्रवचनों, तीर्थयात्राओं और स्नानों में जा रहे थे कि उन के बच्चों का भविष्य सुधर जाएगा.

लड़कियों को जो आजादी नौकरियां मिलने से मिली थी वह सदियों बाद मिली थी. लड़कों के कंधे से कंधा मिला कर चलना सदियों बाद हुआ है. शायद पहली बार जब से सभ्यता पनपी है. भारत में ज्यादा और दूसरे देशों में कम यह अवसर हाथ से फिसलता नजर आ रहा है.

अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के समर्थक आज भी बहुत हैं, क्योंकि धर्मभीरु लोग ट्रंप को चाहते हैं और वे धार्मिक गोरों का समर्थन करते हैं. मगर वहां लड़केलड़कियों को बराबर के अवसर मिल रहे हैं और वहां बिचौलियों की बरात नहीं है, जो जन्मकुंडलियां बगल में दबाए घूमते हैं.

भारत में लड़कियों की आजादी की यह दुर्दशा कब तक रहेगी और कितनों को प्रभावित करेगी, कुछ कहा नहीं जा सकता. डर यही है कि यह लंबे समय तक चलेगा. न तो कोरोना जाने लगा है और न ही यह कट्टरपंथी विचारधारा कि लड़कियां तो घरों में ही शोभा देती हैं. आज भी इस तरह का जम कर प्रचार हो रहा है: ‘‘संजोग विवाह, असवर्ण विवाह, तलाकादि पापपूर्ण कुकृत्यों को कानूनी प्रोत्साहन दे कर हिंदू संस्कृति की रजवीर्य शुद्धिमूलन व्यवस्था को भ्रष्ट कर के देश में वर्णसंकरों द्वारा राष्ट्र के सर्वनाश का बीज बोया जा रहा है.’’

ये भी पढ़े- बढ़ती आय की धर्म पर बर्बादी

ये बातें देश को कहां ले जाएंगी छोडि़ए, पक्का है लड़कियों और औरतों को 8वीं सदी में अवश्य ले जाएंगी और लड़कियों की नौकरियां छूटना पहला कदम है. अगर

2-4 साल लगा कि लड़कियों को नौकरियां नहीं मिलेंगी तो मातापिता उन की शिक्षा पर होने वाले खर्च को बचाना शुरू कर देंगे. धार्मिक प्रचार और कोरोना के प्रहार से वैसे ही बाहर निकलना दूभर हो गया है, नौकरियां न रहने पर सवाल उठाया जाने लगेगा कि पैसे लगा कर लड़की को दूसरे शहर महंगी शिक्षा के लिए भेजा भी क्यों जाए. शादी कर दो ताकि वह व्यस्त रहे. आसपास का शोर भी यही बात दोहराएगा. घर बैठी ऊबती लड़कियां भी शादी को मातापिता से मुक्ति का रास्ता समझेंगी और जीवनभर फिर पिछली शताब्दी की लड़कियों की तरह रसोई और बच्चों में जिंदगी गुजार देंगी.

12वीं के बाद एग्रीकल्चर में कैसे बनाएं करियर

करियर को लेकर लगभग हर युवा असमंजस में रहता है. 12वीं का रिजल्ट आते ही छात्रों को करियर चुनने में कन्फ्यूजन रहता है कि, क्या करना सही होगी क्या नहीं. पहले के समय में ज्यादातर छात्र डॉक्टरी, इंजीनियरिंग करने की सोचते थे. इसके अलावा एमबीए करने की सोच सकते थे, लेकिन बदलते समय के साथ-साथ करियर को लेकर भी हजारों मौके खुल चुके हैं. कमी है तो सिर्फ सही और सटीक जानकारी की. यहां हम आपको कृषि से जुड़ी जानकारी दे रहे हैं. इस क्षेत्र में करियर को लेकर कई मौके हैं. अगर आप भी कृषि में भविष्य की संभावना तलाश रहे हैं तो 12वीं के बाद बीएससी एग्रीकल्चर या बीएससी एग्रीकल्चर औनर्स की डिग्री लेना सही फैसला होगा.
आप एग्रीकल्चर, वेटनेरी साइंस, एग्रीकल्चरल इंजीनियरिंग, फॉरेस्ट्री, हॉर्टिकल्चर, फूड साइंस और होम साइंस में से किसी भी एक विषय में डिग्री ले सकते हैं. साथ ही पढ़ाई पूरी करके करने के बाद आप चाहें तो खेती कर सकते हैं या जॉब कर सकते हैं. भारत कृषि प्रधान देश है इसलिए इस क्षेत्र में नौकरी के ढेरों मौके हैं.

कृषि क्षेत्र में नौकरी के ये हैं रास्ते

भारत में आज भी 70 प्रतिशत लोग कृषि पर निर्भर हैं. इस क्षेत्र में पढ़ें-लिखे लोगों की जरूरत है. आज का युवा इस क्षेत्र में लाखों के पैकेज पर जॉब कर रहा है. इस फील्ड में आप मार्केटिंग, एग्रीकल्चरल इंजीनियरिंग, एग्रीकल्चर इकोनोमिक्स, एग्रो मेट्रोलॉजी, एग्रीकल्चर एक्सटेंशन एंड कम्यूनिकेशन रिसर्च या मैनेजमेंट के क्षेत्र में आगे बढ़ सकते हैं. इसके अलावा आप नेशनेलाइज्ड बैंकों में कृषि विस्तार अधिकारी, ग्रामीण विकास अधिकारी, फील्ड अफसर भी बन सकते हैं. साथ ही साथ राज्यों के विभिन्न कृषि विभागों में भी आप अपने करियर की संभावना देख सकते हैं.

ये भी पढ़ें- आरामदायक बेड पर सोने का अलग ही मजा है ! 

इन संस्थानों में ले सकते हैं एडमिशन

गोविंद बल्लभ पंत विश्वविद्यालय (पंतनगर यूनिवर्सिटी) और जवाहरलाल नेहरू एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी से संबद्ध कॉलेजों में एडमिशन पीएटी (प्री एग्रीकल्चरल टेस्ट) की रैंक के आधार पर मिलेंगे.
वहीं कृषि क्षेत्र में प्रशिक्षण लेने के लिए आप हैदराबाद, पुणे, ग्वालियर, इंदौर और पालमपुर स्थित कॉलेज ऑफ एग्रीकल्चर जा सकते हैं. साथ ही कोलकाता और भुवनेश्वर के यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ एग्रीकल्चर से आप डिग्री लेकर अपने भविष्य को सुनहरा मौका दे सकते हैं. वहीं राजस्थान एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी (उदयपुर) में इस क्षेत्र में ट्रेनिंग के साथ डिग्री भी हासिल कर सकते हैं. यूपी के इलाहाबाद एग्रीकल्चर इंस्टीट्यूट व अलीगढ़ विश्वविद्यालय के सेंटर ऑफ एग्रीकल्चर में एडमिशन लेकर कृषि क्षेत्र की बारिकियों को समझ सकते हैं.

एडमिशन लेने की ये है प्रक्रिया

ICAR (Indian Council of Agricultural Research) हर साल कृषि और इससे मिलते जुलते विषयों में एडमिशन की घोषणा करता है. जहां AIEEA (अखिल भारतीय प्रवेश परीक्षा) के द्वारा एडमिशन दिया जाता है. इन विषयों में एडमिशन लेने वाले स्टूडेंट्स ICAR की आधिकारिक वेबसाइट aieea.net पर जाकर पूरी जानकारी ले सकते हैं.

12वीं पास छात्र UG कोर्सेज में एडमिशन ले सकते हैं. जबकि PG कोर्सेज में एडमिशन लेने के लिए किसी भी मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालय से ग्रेजुएट की डिग्री होनी चाहिए. वहीं जो छात्र PHD कोर्सेज में एडमिशन लेना चाहते हैं वो पोस्ट ग्रेजुएट होने चाहिए. एंट्रेंस एग्जाम की तैयारी के लिए ICAR की वेबसाइट मॉक टेस्ट भी करवाया जाता है. ताकि स्टूडेंट पेपर पैटर्न से भी परिचित हो सकें.

उदाहरण- इंजीनियरिंग की नौकरी छोड़ गांव पहुंचा युवक, किसानी कर कमा रहा लाखों

विनोद कुमार ने अनोखा मिसाल पेश किया है. विनोद गुड़गांव के फरूखनगर तहसील के गांव जमालपुर के रहने वाले हैं. जिन्होंने इंजीनियर की नौकरी छोड़ मोती की खेती करनी शुरू कर दी. इसके लिए उन्होंने पहले इंटरनेट का सहारा लिया और खेती के तरीके और फायदे कमाने के तरीके सीखे. इसके बाद विनोद ने सीफा (सेंट्रल इंस्टिट्यूट ऑफ फ्रेश वॉटर एक्वाकल्चर भुवनेश्वर) में जाकर एक सप्ताह की ट्रेनिंग ली. मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार विनोद ने 2013 में मानेसर पॉलिटेक्निक से मैकेनिकल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा किया था. जिनका मन जॉब में नहीं लगा और आज वे कषि से लाखों कमा रहे हैं.

ये भी पढ़ें- कोरोना में पेरैंट्स का रोना

खेती करने के लिए इस इंजीनियर ने छोड़ दी लाखों की नौकरी, अब करोड़ों में कर रहा कमाई
कमल ने एमटेक किया है और नई तकनीकि के माध्यम से खेती कर रहा है. खेती करने के लिए कमल ने ढाई लाख रूपए पैकेज की नौकरी छोड़ दी. राजस्थान के झालावाड़ जिले के छोटे से गांव गुराड़ियाजोगा का रहने वाला यह शख्स दूसरों के लिए मिसाल बन गया. नौकरी छोड़कर कमल गांव आ गया और आधुनिक तरीके से खेती शुरू कर दी. कमल ने एक लाख कर्ज लेकर सात बीघा खेत पर नर्सरी शुरू की. साथ ही नई तकनीकि का प्रयोग करते हुए सीडलिंग ट्रे और कोकोपिट में 50 हजार पौधे मिर्च, टमाटर, गोभी, करेला, खीरा, बैंगन के तैयार किए. इस काम को शुरू करने के लिए कमल ने कर्ज लिया था और अब 20 लोगों को राजगार दे रहा है. इसके लिए उसने कृषि विज्ञान केंद्र से तकनीकी की ट्रेनिंग ली. सबसे पहले उसने पूर्व साइंटिस्ट मधुसूदन आचार्य और रामराज मीणा से तकनीकि जानकारी ली फिर काम शुरू किया और अब वह करोड़ों में कमा रहा है.

युवाओं के टूटते सपने

गिरतअर्थव्यवस्था, कोरोना के कहर और उस के बाद अब चीन के खतरनाक मंसूबों का युवा पीढ़ी पर बहुत असर पड़ेगा. जो पीढ़ी सपने देख रही थी कि इंटरनैट की तकनीक की वजह से दुनिया में सीमाएं नहीं रहेंगी, रंगभेद नहीं रहेगा, काम करने, पढ़ने और घूमने के मौके दुनियाभर में होंगे. यही नहीं, औटोमेशन की वजह से चीजें सस्ती होंगी, घरों में सामान भरा होगा, गरीबअमीर का भेदभाव नहीं होगा, वह सब भी अब सपना ही रह गया है. भारत के ही नहीं दुनियाभर के युवा अब काले कल को देख रहे हैं.

भारत ने अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मारी है. भ्रष्ट सरकार को सत्ता से बेदखल करने के बाद देशवासियों को जो उम्मीद थी कि अच्छे दिन वाली सरकार आएगी, उस पर पानी फिर गया है क्योंकि न सिर्फ सरकार के फैसले एकएक कर के बेहद परेशान करने वाले साबित हो रहे हैं, बल्कि नोटबंदी और जीएसटी की वजह से देश के व्यापार का भट्ठा भी बैठ गया. नई नौकरियां उड़नछू हो गईं. स्कूलकालेज महंगे हो गए. कोरोना से पहले ही इंजीनियरिंग कालेजों में ताले लगने शुरू हो गए थे. सरकारी पढ़ाई भी कोरोना की वजह से महंगी होने लगी थी.

कोरोना ने अब, देश में पढ़ने का मौका न मिले तो, बाहर जा कर पढ़ने के अवसर भी बंद कर दिए. चीन की लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश में घुसपैठ ने पढ़ाई के लिए चीन जाने के अवसरों को जीरो कर दिया. कोरोना की वजह से वुहान से भारतीय छात्र तो आए ही, अब दूसरे शहरों से भी आएंगे क्योंकि चीन व भारत के संबंध नेताओं की हठधर्मी की वजह से खराब से खराब होते जा रहे हैं.

ये भी पढ़ें- इस साल आकाशीय बिजली बन रही आफत

लाइन औफ ऐक्चुअल कंट्रोल, एलएसी, का विवाद नया नहीं है. 1962 में भारत-चीन युद्ध के बाद जो भी सीमा तय हुई थी वह सिर्फ कागजों पर थी. वास्तव में कौन से पत्थर कहां लगेंगे, यह तय नहीं हुआ था. इस बारे में छिटपुट गरमागरमी 1962 से अब तक होती रही है. पर दोनों देश समझते थे कि मामले को उभारने का लाभ नहीं है. दोनों देश तैयारी में लगे थे कि अगर युद्ध का माहौल बन ही जाए, तो 1962 वाली हालत न हो.

1962 से 2014 तक अगर चीन-भारत सीमा पर कुछ नहीं हुआ होता, तो बात दूसरी थी. इन सालों में भारत ने बेतहाशा सड़कें बनाईं, सैनिक चौकियां बनाईं, सीमा से थोड़ी दूरी पर फौजियों को जमा कर रखा, फौजियों को लगातार ऊंची पहाडि़यों में लड़ाई का अभ्यास कराया.

पिछली सरकारों ने और वर्तमान सरकार ने चीन से संबंध बिगड़ने नहीं दिए, पर अब जम्मूकश्मीर में हुए बदलाव के बहाने चीन और नेपाल नए भारतीय नकशे को ले कर बहसों पर उतर आए हैं. चीन से हाथापाई में जो 20 सैनिकों को जान देनी पड़ी और कई जवानों को गंभीर सी साधारण चोटें आई हैं, उस ने युवाओं के भविष्य पर एक और काला निशान लगा दिया है.

देश की अर्थव्यवस्था अब और लड़खड़ाएगी. चीन के साथ बिगड़ते आर्थिक संबंधों का मतलब है सस्ते चीनी सामान का न मिलना. हजारों व्यापारियों का धंधा ठप हो जाएगा. सरकार के पास फिलहाल जनता को शांत करने या भड़काए रखने का उपाय चीनी सामान का बहिष्कार का नारा लगाना ही है. चीन के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक उतनी आसान नहीं. कमजोर तो पाकिस्तान भी नहीं है, पर चीन की क्षमता का तो अमेरिका तक को पता है. भारत सरकार चीनी सामान और व्यापार की आड़ में अपना निकम्मापन छिपाएगी. जैसे पहले पंडेपुजारी गांव में हैजे का दोषी डायनों को मानते थे, यहां सीमा पर विवाद में सैनिकों की जानों के लिए दोषी चीनी सामान को माना जाएगा.

देशभक्ति के नाम पर यह आदेश सिर पर रखा जाएगा पर हजारोंलाखों नई नौकरियां गायब हो जाएंगी. कोरोना की वजह से पहले ही देश के अनेक धंधे ठप हो रहे थे, अब रहीसही उम्मीद भी समाप्त हो रही है.

ये भी पढ़ें- कोविड-19 पर कशमकश : हवा में भी नोवल कोरोना

कोरोना के बाद कैसी होगी करियर की दुनिया?

कोरोना का कहर सिर्फ उन लोगों तक सीमित नहीं है जो इसके संक्रमण से काल कवलित हो गये हैं या जिनकी अच्छी खासी नौकरियां इसके संक्रमण के बाद छूट गयीं. कोरोना से वे लोग भी प्रभावित होंगे, जिन पर इसके मौजूदा संक्रमण का कोई प्रभाव नहीं पड़ा. सिर्फ आज नहीं आने वाले अगले दसियों सालों तक कॅरियर के मामले में कोरोना का प्रभाव देखा जायेगा.

ऐसा नहीं है कि अब कभी वे दिन नहीं आएंगे, जब कोरोना के खौफ से दुनिया मुक्त नहीं होगी. लेकिन शायद कामकाज के ऐसे दिन पूरी तरह से लौटकर कभी न आएं, जैसे दुनिया कोरोना संक्रमण के पहले थे. दुनिया के किसी भी देश ने कभी इतने बड़े पैमाने पर लाॅकडाउन नहीं किया, जितने बड़े लॉकडाउन कोरोना के चलते दुनिया के अलग अलग देशों ने देखे और झेले हैं. कोरोना ने पारंपरिक दुनिया को अपने गुरिल्ला आक्रमण से इस कदर झकझोर दिया है कि दुनिया का कोई भी देश उसका मुकाबला नहीं कर सका, चाहे वह अमरीका जैसा बहुत ताकतवर देश ही क्यों न हो?

ये  भी पढ़ें- भटकते सांपों का एक सहृदय मसीहा

अब उसके इस हमले का असर आने वाले दिनों में कुछ ऐसी नौकरियों के रूप में सामने आयेगा, जो नौकरियां ऐसे अप्रत्याशित हमलों से मुकाबले के लिए ही डिजाइन की जाएंगी. पश्चिम की दुनिया ने कोरोना के चलते पैदा हुए अप्रत्याशित संकट को ‘ब्लैक स्वान’ की संज्ञा दी है. जो उस परिस्थिति को कहते हैं, जिससे प्रभावित होने वाला व्यक्ति पूरी तरह से अपरिचित होता है. यहां तक कि उसने इसकी दूर दूर तक कल्पना भी नहीं की होती. ऐसे में दुनिया भविष्य की ऐसी ही ब्लैक स्वान गतिविधियों से तैयार रहने के लिए हर महत्वपूर्ण क्षेत्र में ‘क्विक रिस्पोंस’ टीमें गठित करेगी. दुनियाभर की सरकारें और प्रशासनिक संस्थान ऐसी टीमों को डिजाइन करने में लग गई हैं. ये क्विक रिस्पोंस टीमें भविष्य में कोरोना जैसी ही किसी और परिस्थिति के पैदा होने पर सक्रिय होंगी और दुनिया को इस तरह से अपंग नहीं होने देंगी, जिस तरह से दुनिया कोरोना संक्रमण के चलते हुई है.

कोरोना से सबक लेते हुए अब कई क्षेत्रों की मसलन बैंकिंग (वित्त), एनर्जी (खास तौरपर आणविक एनर्जी), यातायात (विशेषकर हवाई यातायात), शिक्षा (विशेषकर प्रतियोगी और डिग्री परीक्षा) तथा मेडिकल और खानपान से संबंधित ऐसी एक्सपर्ट टीमें या इन क्षेत्रों में एक छोटा विशेष प्रभाग खोला जायेगा, जो ऐसी किसी भी आपदा के समय सक्रिय होगा, जिससे दुनिया का सामान्य कारोबार अस्त व्यस्त नहीं होगा. जिस तरह से तमाम सेनाओं और पैरामिलिट्री फोर्सेस के बाद भी स्पेशल कमांडोज की एक छोटी और त्वरित टुकड़ी होती है, जो सबसे खतरनाक टारगेट को अप्रत्याशित सफाई से सम्पन्न करती है. भविष्य में कोरोना जैसे भौंचक कर देने वाले किसी संकट से निपटने के लिए ऐसी टुकड़ियां बनायी जाएंगी. दूसरे शब्दों में हर क्षेत्र में कमांडोज टुकड़ियां बनेंगी.

कोरोना के बाद जैसा कि अब तक हम सब जान गये हैं पूरी दुनिया में तकरीबन 40 फीसदी से ज्यादा दफ्तरी कर्मचारियों को दफ्तर हमेशा हमेशा के लिए छोड़ना पड़ेंगा, उन्हें वर्क फ्रौम होम या फ्रीलांस के बतौर काम करना होगा. क्योंकि हर कोई वर्क फ्रौम होम नहीं कर सकता, हर काम घर से नहीं किया जा सकता. जो काम घर से संभव नहीं होंगे, वे काम आमतौर पर फ्रीलांसरों के पास चले जाएंगे या ऐसी छोटी यूनिटों के पास जो बड़ी कंपनियों के लिए ठेके पर काम करेंगी. लब्बोलुआब यह है कि कोरोना के बाद पूरी दुनिया में जिस तरह से सोशल डिस्टेंसिंग जरूरी हो गई है, उसके कारण औफिस चलाना अब पहले से कहीं ज्यादा महंगा हो गया है. नतीजतन बड़े पैमाने पर मौजूदा कर्मचारियों को घर से काम करने की हिदायत दी जायेंगी. जो लोग इसके लिए तैयार नहीं होंगे, उन्हें अगर बहुत जरूरी नहीं हुआ तो हिसाब कर लेने के लिए कहा जाएगा. फिर वो अपने निजी तौरपर चाहे अपनी कंपनी के लिए या दूसरी कंपनी के लिए काम करेंगे.

ये  भी पढ़ें- कोरोनावायरस हेयरस्टाइल का छाया जलवा

कोरोना के मौजूदा कुरूप चेहरे को देखकर न सिर्फ आम लोग बल्कि पारंपरिक जीवन व्यवस्था भी खौफजदा हो गई है. इसलिए खाने पीने से लेकर मिलने जुलने और मनोरंजन की गतिविधियां तक सब उलट पुलट होने की तैयारी में हैं. कोरोना का यह कहर देखने के बाद लंबे समय तक भारत ही नहीं इटली, स्पेन और फ्रांस के उन रेस्त्रांज की भी सांसें नहीं लौटेंगी, जहां कोरोना के पहले तक भारी भीड़ हुआ करती थी और अपनी इस भीड़ को ये रेस्त्रां अपनी खूबी के रूप में भुनाया करते थे. ऐसे रेस्टोरेंट के मालिक यह कहते नहीं थकते थे कि उनके रेस्त्रांओं में तिल रखने तक की जगह नहीं होती. भारत में तो इसके खास अनुभव है. ऐसा कोई मुहल्ला नहीं होगा, जहां कम से कम एक खानेपीने का ऐसा प्वाइंट न हो, जहां बाकी जगहों के मुकाबले भीड़ का आलम देखा जाता था. अब ये भीड़ हमेशा हमेशा के लिए खत्म हो गई कहानी हो जायेगी.

कहने का मतलब यह है कि कोरोना जाने के बाद भी होटल और खास तौरपर रेस्टोरेंट इंडस्ट्री दोबारा से उस शेप में नहीं लौटेगी, जहां लोग एक के ऊपर एक बैठकर खाते पीते थे. अब टेक अवे डिलीवरी रेस्त्रांओं का मुख्य तरीका बन जायेगा. अब बहुत नामी गिरामी रेस्त्रां ही, जिनके पास बहुत स्पेस होगा, लोगों को बैठा के खिला सकते हैं. हौस्पिटैलिटी या टूरिज्म और इसके कई रूप भी इस कोरोना संकट के बाद पहले जैसे नहीं रहेंगे. वैसे तो पर्यटन उद्योग के दावे हैं कि अगले पांच सालों तक भी 2019 के स्तर का पर्यटन दुनिया में नहीं लौटेगा. लेकिन जो लौटेगा भी वह वैसा नहीं होगा, जैसा वह कोरोना के पहले था. कुल मिलाकर कहने की बात यह है कि कोरोना से सिर्फ आज ही प्रभावित नहीं है, इसका बड़ा और स्थायी प्रभाव भविष्य के कामकाज में दिखेगा.

महिलाओं के लिए बातें बहुत और नौकरियां होती हैं कम

मेकिंसे ग्लोबल इंस्टीट्यूट का एक अध्ययन बताता है कि अगर भारतीय अर्थव्यवस्था में महिलाओं को पुरुषों के बराबर की भागीदारी दी जाए तो साल 2025 तक देश के सकल घरेलू उत्पाद में महिलाओं के श्रम की भूमिका 60 फीसदी तक हो सकती है. गौरतलब है कि साल 2011 की जनगणना के मुताबिक सवा अरब से ज्यादा की आबादी में महिलाओं की तादाद 60 करोड़ है. लेकिन हैरानी की बात यह है कि देश के 55 करोड़ की श्रमशक्ति में महिलाओं की हिस्सेदारी महज 5 करोड़ कामगारों की है.

इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि आज भी हिंदुस्तान में नौकरियों के क्षेत्र में महिलाओं के साथ किस तरह का भेदभाव किया जाता है. दो साल पहले संयुक्त राष्ट्र द्वारा किये गये 188 देशों के महिला श्रमिकों के एक अध्ययन में भारत का स्थान 170वां आया था यानी हम 188 देशों में से नीचे से ऊपर की तरफ 18वें स्थान पर थे. हमसे 17 देश ही ऐसे थे, जहां महिला कामगारों की तादाद प्रतिशत में हमारे यहां से भी कम थी. लेकिन इनमें से कोई भी ऐसा देश नहीं था, जो भारत का एक चैथाई भी हो, अर्थव्यवस्था तो छोड़िये किसी भी मामले में.

ये भी पढ़ें- आई सपोर्ट की शुरूआत करना मेरे लिए चैलेंजिंग था: बौबी रमानी

इससे पता चलता है कि भारत में महिलाओं को या तो नौकरियां मिल नहीं रही हैं या आज भी भारतीय समाज उन्हें नौकरी कराने से हिचकता है. तमाम अध्ययन और विशेषज्ञ बार-बार कहते हैं कि अगर अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी बराबरी की हो जाती है तो कोई भी अर्थव्यवस्था कहीं ज्यादा मजबूत हो जाती है. भारत के संबंध में तो तमाम विश्व संगठन लगातार कह रहे हैं कि अगर भारत को वाकई आर्थिक महाशक्ति बनना है तो महिलाओं को बड़ी भूमिका देना होगा. लेकिन हाल के सालों में काफी उलट पुलट स्थितियां देखने को मिली हैं. यह तो तय है कि दक्षिण एशिया में अकेला भारत ही नहीं पाकिस्तान भी उन देशों में शामिल हैं, जहां महिलाओं को बड़ी आर्थिक भागीदारी नहीं दी गई.

हद तो यह है कि भारत में नेपाल, वियतनाम और कंबोडिया जैसे छोटे देशों से भी प्रतिशत में कम महिलाएं श्रम में भागीदारी निभा रही हैं. अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के 185देशों में हाल के सालों में जहां महिला कामगारों की संख्या बढ़ी है, वहीं 41 देशों में यह कम हुई है और जिन देशों में कम हुई है उनमें भारत सबसे ऊपर है. आखिर क्या वजह है कि भारत में नौकरियों के क्षेत्र में महिलाओं की संख्या घट रही है? हाल के सालों में जब भारत पूरी दुनिया के विकास के इंजन के रूप में चीन के साथ आगे बढ़कर आया है, उस स्थिति में भारत में महिलाओं की श्रम में भागीदारी की कमी का पहलू क्या है?

इसके पीछे एक बड़ी वजह यह है कि हाल के सालों में भारतीय पुरुषों की औसत आय में काफी वृद्धि हुई है जिससे घरों में महिलाओं को खासकर खेतों और निर्माण के क्षेत्र में काम कराने से रोका गया है. देखा जाए तो यह एक सकारात्मक पक्ष है क्योंकि भारत में असंगठित मजदूरों के लिए काम की परिस्थितियां बेहद अमानवीय होती हैं, चाहे फिर वे महिलाएं ही क्यों न हो या बाल श्रमिक ही क्यों न हों? पिछले एक दशक में भारतीय पुरुषों की आय में हुई बढ़ोत्तरी के कारण महिलाओं को घर की देखरेख में ज्यादा फोकस करने के लिए प्रेरित किया गया है. हालांकि यहीं पर एक विरोधाभासी आंकड़ा यह भी है कि मनरेगा जैसे रोजनदारी वाले काम के क्षेत्र में महिलाओं की संख्या न सिर्फ बढ़ी है बल्कि मनरेगा में महिलाओं की भागीदारी से ग्रामीण क्षेत्र में बेहद गरीब लोगों की सामाजिक स्थिति में काफी सुधार आया है.

इस सुधार के पीछे महिलाओं की आय का बड़ा योगदान है. चूंकि मनरेगा में मजदूरों को नकद और त्वरित भुगतान किया जाता है, इस वजह से मनरेगा की आय ने देश के सबसे कमजोर तबकों में दिखने वाला सुधार किया है. लेकिन जहां यह बात समझ में आती है कि पारिवारिक आय में हुई बढ़ोत्तरी के कारण महिलाओं को भारी, जटिल और कठिन श्रम क्षेत्रों से काफी हद तक मुक्ति मिली है, जो उनकी सेहत और सुरक्षा के लिहाज से अच्छी बात है. लेकिन संगठित क्षेत्र में जहां श्रम की स्थितियां कठिन या अमनावीय नहीं हैं, वहां महिलाओं की भागीदारी में कमी क्यों आयी है? इस कमी के दो कारण हंै, एक कारण में महिलाएं खुद जिम्मेदार हैं और दूसरे कारण में अप्रत्यक्ष रूप से इम्प्लायर ही महिलाओं की भागीदारी को हतोत्साहित करता है.

ये भी पढ़ें- आत्महत्या समस्या का समाधान नहीं

दरअसल हमारे यहां महिलाओं की सुरक्षा को लेकर कानून कितने भी बन गये हांे, लेकिन आज भी महिलाएं न सिर्फ कार्यस्थल पर बल्कि कार्यस्थल से घर तक की दूरी में भी काफी ज्यादा असुरक्षित हैं. प्राइवेट नौकरियों में जिन कामगारों की सबसे ज्यादा तनख्वाहें इम्प्लाॅयर द्वारा मारी जाती हैं, उनमें महिलाओं की संख्या 90 फीसदी होती है. अगर किसी कंपनी के बंद होने की स्थिति बनती है तो सबसे पहले महिलाओं के आर्थिक हितों का नुकसान होता है. इसका मनोविज्ञान यह है कि आज भी भारतीय समाज में यह माना जाता है कि महिलाओं को आसानी से दबाया जा सकता है, फिर चाहे वो कामगार ही क्यों न हों? लेकिन तमाम खामियां अपनी जगह है. मगर यदि भारत को वाकई आर्थिक महाशक्ति के रूप में उभरकर आना है, तो महिलाओं के साथ आर्थिक भागीदारी के मामले में होने वाले भेदभाव को जल्द से जल्द खत्म करना होगा.

सैलरी के बारे में क्या और कैसे पूछें

किसी नौकरी के लिए दिए जाने वाले इंटरव्यू में जब एंप्लौयर जौब चाहने वाले से पूछता है कि सैलरी को ले कर आप की क्या रिक्वायरमैंट है, तो यह पल ज्यादातर उम्मीदवारों के लिए  बहुत तनावपूर्ण होता है. लेकिन याद रखिए कामयाबी के लिहाज से यह बहुत महत्त्वपूर्ण पल होता है, क्योंकि आप की सैलरी एक तो आप कितने काम के हैं यह बताती है, साथ ही यह भी इशारा करती है कि आप भविष्य में कहां तक जा सकते हैं. यही वजह है कि कोई और चाहे आप खुद भी अपनेआप से यही उम्मीद करते हैं कि इंटरव्यू के दौरान सैलरी पर डिस्कशन को अच्छे से हैंडल करें. मगर सवाल है कैसे करें? कौर्पोरेट जगत में इस संबंध में कई ऐसे सटीक फौर्मूले हैं जिन से आप बेहतर स्थिति में रह सकते हैं, आइए इन्हें जानें.

1. आत्मविश्वास से रहें भरपूर

इंटरव्यू भी एक किस्म की जंग ही होती है. इसलिए जंग के बेसिक नियम इस पर भी लागू होते हैं जिस में से पहला यह है कि

जब भी आप अपनी सैलरी की बात करें आत्मविश्वास से भरपूर दिखें. आप की जबान स्पष्ट हो. हावभाव में सकारात्मकता टपक रही हो. सामने वाले को लगे कि आप इस से कम में शायद काम न करें. इसलिए वह आकर्षक फिगर खुद ही अपनी तरफ से कोट कर दे.

यह सब तभी संभव है जब आप वाकई आत्मविश्वास से भरपूर दिखेंगे. अगर आप की जबान मिमियाती हुई होगी, कंधे ढुलके होंगे और आंखों से चमक गायब होगी तो आप को आप की पसंद की सैलरी भला कौन देगा.

ये भी पढ़ें- इंटीरियर का हैल्थ कनैक्शन

2. घर से होमवर्क कर के जाएं

जब फाइनल इंटरव्यू के लिए जा रहे हों तो सैलरी कितनी मांगनी है और क्यों मांगनी है, इन दोनों सवालों की तैयारी कर के जाएं. क्योंकि मान कर चलिए कि फाइनल इंटरव्यू के दौरान इन सवालों से टकराना ही पड़ेगा भले चाहे नौकरी मिले या न मिले.

रिसर्च से मतलब यह है कि जिस जौब के लिए अप्लाई किया है, उस के लिए इंडस्ट्री में कितनी सैलरी दी जा रही है इस का आप के पास एक ठोस आकलन हो. चाहे तो कुछ दोस्तों व परिजनों की मदद ले सकते हैं. अगर ऐसी मदद देने वाला कोई संपर्क में न हो तो इन दिनों तमाम वैबसाइटें यह काम करती हैं. उन की भी मदद ले सकते हैं. इन वैबसाइटों में कुछ चुनिंदा कंपनियों का सैलरी चार्ट होता है. सैलरी डौट कौम, पेस्केल डौट कौम ऐसी ही कुछ वैबसाइटें हैं. वास्तव में वेतन संबंधी आप की कोई मांग तभी विश्वसनीय लगती है जब वह मार्केट के अनुरूप हो.

3. लचीले भी रहें

यह तो तय है कि अपनी सैलरी के लिए आप के पास एक न्यूनतम सीमा होनी चाहिए. एक फिगर होनी चाहिए जिस के नीचे आप न जाएं. लेकिन सैलरी के मामले में कोट की गई पहली ही फिगर को पत्थर की इमारत न बनाएं. थोड़े लचीले तो रहें ही. इसलिए जो पहला अमाउंट कोट करें उसे अपनी वास्तविक उम्मीद से थोड़ा ज्यादा करें. क्योंकि यह आम मनोविज्ञान है कि आप की पहली डिमांड पर एम्प्लौयर राजी नहीं होता. इसलिए मन में तय रखें कि इस सैलरी में आप कंफर्टेबल रह सकते हैं.

4. जल्दबाजी न करें

यह तो तय है कि फाइनल इंटरव्यू में कहीं न कहीं सैलरी डिस्कशन होना ही है. लेकिन इस का मतलब यह नहीं है कि आप इंटरव्यू शुरू होते ही असल मुद्दे पर आ जाएं. यहीं नहीं, अगर एम्प्लौयर भी शुरूआत में ही सैलरी का मुद्दा ले आए तो कोशिश करिए कि थोड़ी देर तक टालें. इस के लिए पहले एक ठोस माहौल बना लीजिए. यह भी कोशिश करें कि सैलरी टौपिक को खुद ही न छेड़ें. पहले इंटरव्यूअर से अपने काम और जिम्मेदारी की ठोस जानकारी पाने की कोशिश करें. अपनी पोजीशन को भी स्पष्ट कर लें. लेकिन इन जानकारियों का मतलब यह भी नहीं है कि एम्प्लौयर का इंटरव्यू ही लेने लगें.

5. प्राथमिकता स्पष्ट हो

किसी और से नहीं बल्कि खुद से इंटरव्यू में जाने से पहले एक बार एक सवाल करें कि आप की प्राथमिकता ज्यादा सैलरी होनी चाहिए या ज्यादा बेहतर ओहदा. कुछ लोग पोजीशन और काम करने के माहौल को तरजीह देते हैं तो कुछ लोग सैलरी को. आप को अपनी प्राथमिकता खुद तय करनी है.

6. भूल कर भी यह बातें न करें

अगर सैलरी नैगोसिएशन में कुछ बातें आप की पोजीशन को बेहतर करती हैं तो कुछ बिगाड़ती हैं, विशेषकर एम्प्लौयर से सहानुभूति या दया की चाह. इसलिए जिस तरह सैलरी डिस्कशन के समय जहां कुछ बातें कहनी जरूरी होती हैं, वहीं कुछ बातें न कहनी भी जरूरी होती हैं, मसलन-

7. मम्मीपापा बीमार रहते हैं

याद रखिए आप के मम्मीपापा, आप के एम्प्लौयर के मम्मीपापा नहीं हैं, इसलिए उन की बीमारी से उन्हें कोई सहानुभूति नहीं हो सकती. तो, सैलरी ज्यादा मांगने की कभी यह वजह न गिनाना वरना ज्यादा तो छोडि़ए आप को ड्रौप भी किया जा सकता है कि यह श्रवण कुमार तो अपने मम्मीपापा में ही उल झा रहेगा.

8. मेरी शादी होने वाली है

तो एम्प्लौयर क्या करे? इस बात को गांठ बांध लीजिए कि आप के परेशान होने से किसी को कुछ फर्क नहीं पड़ता. उलटे अगर आप परेशान फैलो लगेंगे तो आप को नौकरी देने के बारे में ही कई बार सोचा जाएगा. इसलिए सैलरी डिस्कशन के दौरान पर्सनल परेशानियां न सुनाएं, उन से किसी को लेनादेना नहीं है. आप की दुखभरी कहानी सुन कर इंटरव्यू लेने वाले का दिल पसीज जाएगा, ऐसे परसैप्शन से जितना बचें उतना बेहतर है. सब से अच्छा है कि इंटरव्यू के दौरान पर्सनल बातें करने से बचें.

ये भी पढ़ें- क्या आपको भी है सोशल मीडिया की लत

9. बारबार सौरी की जरूरत नहीं

सैलरी डिस्कशन कोई गुनाह नहीं है, इसलिए इस में सौरी शब्द को कतई बीच में न लाएं. आप अपने पैसों के बारे में बात कर रहे हैं और यह आप का अधिकार है.

10. ये बातें भी नहीं

कभी भी इंटरव्यूअर से यह न कहिए कि मेरे पास ज्यादा सैलरी का दूसरा औफर भी है. एक पल में गच्चा खा सकते हैं. अरे, जब है तो यहां क्यों मगजमारी कर रहे हो? ऐसे  झूठे दावों से सामने वाले को गुस्सा भी आ सकता है. वह मन बना रहा हो तो भी मना कर सकता है. यह भी किसी से मत कहिए कि बहुत दिनों से मु झे सैलरी हाइक नहीं मिली. नहीं मिली तो कहीं ऐसा तो नहीं कि आप इस के लायक ही न हों? याद रखिए, एम्प्लौयर इस तरह से भी सोच सकता है.

 

जब बदलनी पड़े बार बार नौकरी

‘‘कहां गई थीं? काफी देर लगा दी आने में?’’अशोक ने पूछा तो दिन भर की थकीहारी मिनी गुस्से से फट पड़ी, ‘‘और कहां जाऊंगी इस जिंदगी में नई नौकरी ढूंढ़ने और बारबार इंटरव्यू देने के अलावा?’’ ‘‘अरे, इस में नाराज होने वाली कौन सी बात है? मैं तो ऐसे ही पूछ रहा था. चलो, गरमगरम चाय पीते हैं साथसाथ,’’ अशोक ने प्यार से कहा.

‘‘मिनी फ्रैश होने चली गई. चाय बनाते समय भी वह बड़बड़ा रही थी, न जाने कैसेकैसे उलटेसीधे प्रश्नों के उत्तर देने पड़ते हैं हर बार?’’

थोड़ी देर में 2 कप चाय ले कर मिनी आ तो गई, पर उस का मूड अभी भी उखड़ा हुआ था.

‘‘अच्छा बताओ कैसा रहा इंटरव्यू?’’ अशोक ने पूछा.

‘‘ठीकठाक ही रहा. हर जगह लोग अविश्वास कि दृष्टि से देखते हैं मुझ जैसे लोगों को. यह प्रश्न पूछना भी नहीं भूलते कि इतनी जल्दीजल्दी नौकरी क्यों बदली आप ने या क्यों बदलनी पड़ी? उन का अगला प्रश्न होता है कि अगर आप को नौकरी दी जाती है तो कहीं बीच में ही तो छोड़ कर नहीं चली जाएंगी?’’

‘‘क्या जवाब दिया तुम ने?’’

अशोक के पूछने पर मिनी ने धीरे से कहा, ‘‘सच पूछो तो उस का सही जवाब तो मेरे पास भी नहीं होता. मेरा तो अपना सब कुछ अस्थाई और अनियोजित है.’’

असल में मिनी के पति अशोक की नौकरी तबादले वाली है. अत: जब भी अशोक का तबादला होता है उसे परिवार और बच्चों की खातिर अपनी नौकरी छोड़नी पड़ती है. नई जगह पर घरगृहस्थी और बच्चे सब व्यवस्थित हो जाते हैं तो आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर रहने में विश्वास करने वाली मिनी को खुद का जीवन अव्यवस्थित लगने लगता है.

यह समस्या सिर्फ मिनी की नहीं है. अकसर महिलाओं को परिवार और काम के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए कई बार अपनी नौकरी छोड़नी, बदलनी या नई नौकरी से समझौता करना पड़ता है. बारबार नौकरी छोड़ने के कई कारण हो सकते हैं जैसे पति का तबादला, बच्चों की परवरिश, पढ़ाई एवं सुरक्षा या घर में बीमार बुजुर्ग की देखभाल की समस्या आदि. कारण चाहे जो भी हो पर बारबार नौकरी बदलने की मजबूरी से इनसान खासकर महिलाओं को कई प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है.

सही नौकरी की तलाश

‘‘आज के जमाने में जहां नौकरी मिलना बहुत कठिन है, वहीं मिली हुई नौकरी को छोड़, अपनी रुचि और सुविधानुसार नई नौकरी तलाश करना अपनेआप में बहुत बड़ी समस्या है,’’ यह कहना है 30 साल की जरीना का जो अब तक पारिवारिक कारणों से एक ही शहर में 3 बार नौकरी छोड़ चुकी हैं और चौथी की तलाश जारी है. नई नौकरी पाने के चक्कर में कई तरह के  समझौते करने पड़ते हैं. कभी पैसों से समझौता करना पड़ता है तो भी वर्किंग आवर्स को ले कर.

काबिलीयत को प्रूव करना

45 साल की गोपा चक्रवर्ती के पति सेना में कार्यरत हैं, जिन का तबादला लगभग हर 2 साल पर होता रहता है. बारबार जौबे ढूंढ़ने की बात चली तो वे कहने लगीं, ‘‘मैं तो हर 2 साल पर बेरोजगार हो जाती हूं. फिर से नई जगह नौकरी ढूंढ़नी पड़ती है. अब इतना अनुभव हो गया है कि नौकरी तो मिल जाती है पर काबिलीयत होते हुए भी हर जगह अपना काम जीरो से शुरू करना पड़ता है और जब तक मेहनत कर के खुद को प्रूव करती हूं, नौकरी छोड़ देनी पड़ती है. लगता है नौकरी करने का एक ही मकसद रह गया है. बस खुद को लोगों के सामने प्रूव करते रहो जिंदगी भर.’’

अस्थिर भविष्य की चिंता

एमए पास 37 वर्षीय भावना शर्मा जो शुरू में एक प्राइवेट कालेज में प्रवक्ता थीं, वर्तमान में दुबई में स्कूल शिक्षिका हैं, ने बताया, ‘‘क्या करूं एक तरफ पति का कैरियर है तो दूसरी तरफ बेटी की सुरक्षा का सवाल है. शुरू में जब नईनई गृहस्थी थी उस समय आर्थिक कारणों से दोनों पतिपत्नी का कमाना जरूरी था. जब बेटी का जन्म हुआ तब मैं ने एनटीटी कोर्स कर के ऐसा स्कूल जौइन किया था जिस में क्रैश की सुविधा थी, क्योंकि मेरी मां नहीं हैं और सास की तबीयत भी ऐसी नहीं थी कि वे बच्ची की देखभाल कर सकें. फिर जब बेटी थोड़ी बड़ी हुई और उस का स्कूल बदला तो मैं ने भी उसी स्कूल में काम करना शुरू किया जहां मेरी बेटी पढ़ती है. इस के लिए मुझे पेमैंट को ले कर समझौता भी करना पड़ा. पर अब लगता है कि टीनएजर बेटी को समय देने और उसे अकेले छोड़ने के बजाय मुझे ही नौकरी छोड़नी पड़ेगी. अब मुझे पैसों की उतनी जरूरत नहीं है पर जब एक बार वर्किंग वूमन हो जाओ तो घर बैठना बुरा लगता है. कल्पना करती हूं तो लगता है कि कहीं मैं घर पर बैठ कर चिड़चिड़े स्वभाव की न हो जाऊं और मेरे स्वास्थ्य पर इस का कोई बुरा असर न पड़े?’’

फील्ड बदलना चुनौती भरा काम

कई बार महिलाओं को एक फील्ड में लंबे समय तक काम करने के बाद मजबूरीवश अपनी फील्ड बदलनी पड़ती है या जौब छोड़नी पड़ती है. दोनों ही स्थितियां उन्हें मानसिक तौर पर प्रभावित करती हैं.

40 वर्षीय प्रिया कासेकर के पति अकसर दौरे पर रहते हैं. घर में बूढे सासससुर तथा 2 बच्चे हैं, जिन की देखभाल की जिम्मेदारी उसे ही निभानी पड़ती हैं. ऐसे में इंजीनियर प्रिया ने अपनी फील्ड बदल ली. 3 साल पहले बीएड कर के अब एक स्कूल में पढ़ाती है.

प्रिया का कहना है कि शुरू में तो उसे अपनी रुचि से अलग काम करना काफी चुनौती भरा लगा, साथ ही साथ नई नौकरी खोजते समय इस बात की बारबार सफाई भी देनी पड़ी कि पेशे से इंजीनियर शिक्षिका क्यों बन रही.

मानसिक प्रताड़ना की अनुभूति

नई नौकरी चाहिए तो इंटरव्यू देना ही पड़ता है. गोपा चक्रवर्ती का मानना है, ‘‘जब आप अपनी मरजी से जौब छोड़ कर नई जौब पकड़ना चाहते हो तो इंटरव्यू देना बुरा नहीं लगता पर अपनी जमीजमाई नौकरी छोड़ हर बार कई इंटरव्यू फेस करना और लोगों के प्रश्नों के संतोषप्रद उत्तर देना, फिर जब तक यह नहीं पता चले कि जौब मिली या नहीं, उस के लिए इंतजार करना एक प्रकार से मानसिक प्रताड़ना झेलने का अनुभव कराता है.’’

सही तालमेल बैठाना आसान काम नहीं

बारबार नौकरी बदलने में एक बात होती है कि काफी कुछ सीखने को मिलता है पर हर बार नए लोगों, नए माहौल और नए प्रोजैक्ट्स तथा अपने परिवार में उचित तालमेल बैठाना भी कोई आसान काम नहीं होता. प्राइवेट फर्म में काम करने वाली मार्गरेट का मानना है कि तालमेल बैठाने में शारीरिक और मानसिक दोनों तरह की मेहनत करनी पड़ती है. इस क्रम में कभीकभी तो लगता है कि वह एक मशीन बन कर रह गई है.

जौब सैटिस्फैक्शन की समस्या

मजबूरी में छोड़ी गई तथा परिवार की सुविधानुसार की गई नौकरी में कई बार जौब सैटिस्फैक्शन नहीं होती. बस लगता है आर्थिक आमदनी के कारण नौकरी ढोए जा रहे हैं. इस संबंध में 32 वर्षीय मीनाक्षी का कहना है कि जब जौब सैटिस्फैक्शन देने वाली नहीं होती तो ऐसा महसूस होने लगता है कि अपना कोई वजूद ही नहीं है. बस पागलों की तरह मेहनत करते जाओ.

दो नावों की सवारी

कहा गया है कि दो नावों पर एकसाथ सवारी करना खतरनाक साबित होता है, पर शिक्षित, जागरूक और खुद को आर्थिक रूप से सक्षम बनाने के लिए महिलाओं को कई बार ऐसी सवारी करनी ही पड़ती है. मार्गरेट अपने अनुभव बताते हुए कहती हैं कि अगर आप परिवार के सदस्यों की सुविधानुसार नौकरी करती हैं और कई बार उन की खातिर छोड़ देती हैं तो परिवार के सदस्य भी पहले अपनी सुविधा देखते हैं आप की नहीं. घर आती आमदनी सब को अच्छी लगती है चाहे पति हों या बच्चे, लेकिन वे एडजस्ट करना नहीं चाहते, बल्कि आप को एडजस्ट करना पड़ता है. कभी वर्किंग हो कर तो कभी घर बैठ कर.

मनोवैज्ञानिक दबाव

मनोविश्लेषकों का मानना है कि अपने जीवन में इनसान को कई चाहे अनचाहे उतारचढ़ावों से गुजरना पड़ता है. यह एक हद तक तो ठीक है पर जब बारबार इस तरह की परिस्थितियों का सामना करना पड़े तो कई बार इस का प्रतिकूल प्रभाव इनसान के मानसिक, शारीरिक और पारिवारिक जीवन पर प्रत्यक्ष रूप से देखने को मिल जाता है. पुरुषों से अपेक्षाकृत अधिक संवेदनशील होने के कारण मनोवैज्ञानिक दबाव के दुष्प्रभाव की शिकार सब से ज्यादा ऐसी महिलाएं होती हैं जो घरबाहर की दोहरी जिम्मेदारी निभाने पर भी जिन की पहचान न तो घरेलू महिला की रहती है और न ही कामकाजी की. मानसिक तौर पर वह स्वयं निश्चित नहीं कर पाती कि खुद को किस श्रेणी में रखे हाउसवाइफ की या वर्किंग की श्रेणी में?

एक प्रसिद्ध मनोचिकित्सक के अनुसार, नौकरी छोड़ना और नई नौकरी पकड़ने के दौरान कई बार कुछ महिलाओं में असुरक्षा की भावना, पैसे की कमी, खालीपन, पारिवारिक उपेक्षा का एहसास, मनोबल का गिर जाना, अनिद्रा, चिड़चिड़ापन के साथसाथ हलके और गहरे अवसाद जैसे लक्षण भी पाए जाते हैं. ऐसी विषम स्थिति में न तो ठीक से कोई काम किया जा सकता है और न ही जीवन का आनंद उठाया जा सकता है. कई महिलाएं तो इस अल्पकालीन विषम स्थिति में धैर्य एवं हिम्मत रख कर खुद को संभाल लेती हैं पर बहुतों को मनोचिकित्सक की सलाह लेने की जरूरत पड़ जाती है.

एक महिला होने के नाते मेरा मानना है कि महिलाएं जिस तरह पति,बच्चों या परिवार के अन्य सदस्यों की उपलब्धियों के लिए जिस हिम्मत और जोश के साथ प्रयासरत रहती हैं. अपनी उपलब्धि के लिए भी प्रयासरत रहते समय निराशा के अंधकार में डूबने के बजाय हिम्मत, जोश और धैर्य बरकरार रखें.

ब्लौकचैन : नौकरियों की बहार

नया साल, नया ठौर, नया काम, नई नौकरी… तरक्की करती दुनिया और भारत में ब्लौकचैन तकनीक रोजगार का नया व अच्छा जरिया बन कर उभरी है. बिटक्‍वाइन टेक्नोलौजी द्वारा लांच की गई इस तकनीक को हैक करना बहुत ही मुश्किल है और यह कभी भी हुए सभी डिजिटल ट्रांजेक्शंस का ब्‍योरा रखती है. साइबर क्राइम और हैकिंग को रोकने के लिए ब्लौकचैन तकनीक को फूलप्रूफ सिस्‍टम के तौर पर भी जाना जाता है.

  • ब्लौकचैन सम्बन्धी नौकरियों में सामान्य आईटी क्षेत्र की नौकरियों से 61.8 प्रतिशत अधिक वेतन.
  • वर्ष 2018 की पहली तिमाही में ब्लौकचेन क्षेत्र की नौकरियों में 6,000 फीसदी इजाफा.
  • विश्व आर्थिक मंच का मानना है कि वर्ष 2027 तक वैश्विक जीडीपी का 10 प्रतिशत कारोबार ब्लौकचेन तकनीक पर विकसित होगा.
  • भारत में नीतिगत अनिश्चितता से प्रतिभा पलायन का अंदेशा.

पिछले साल के दौरान ब्लौकचैन तकनीक और क्रिप्टोकरेंसी काफी चर्चा में रहीं. औनलाइन भरतियां और कंपनियों से जुड़ी जानकारियां मुहैया कराने वाली वेबसाइट ग्लासडोर के हालिया अध्ययन में पाया गया कि ब्लौकचैन और क्रिप्टोकरेंसी क्षेत्र में अमेरिका समेत पूरी दुनिया में नौकरियों की तादाद तेजी से बढ़ रही है. साथ ही, ब्लौकचैन क्षेत्र के शैक्षणिक प्लेटफौर्म इनक्रिप्ट का अगस्त 2018 का सर्वेक्षण बताता है कि भारत में ब्लौकचैन और क्रिप्टोकरेंसी क्षेत्र में कानूनी और नीतिगत स्थिति साफ़ न होने के चलते देश को ब्लौकचैन क्षेत्र के होनहार लोगों के दूसरे देशों में चले जाने जैसी समस्या का सामना करना पड़ सकता है.

ब्लौकचैन क्षेत्र के शैक्षणिक प्लेटफौर्म इनक्रिप्ट ने अपने सर्वे में पाया है कि भारत में ब्लौकचैन क्षेत्र नौकरियों, फाइनेंस और ग्लोबल रिकग्नीशन यानी वैश्विक पहचान के क्षेत्र में अच्छी भूमिका निभा सकता है. इनक्रिप्ट की रियलाइजिंग इंडियाज ब्लौकचैन पोटेंशियल नामक रिपोर्ट में कहा गया है कि ब्लौकचैन की मदद से सूचना तकनीक (आईटी) क्षेत्र में नया बदलाव लाया जा सकता है. इस से देश में हाई सैलरी वाली नौकरियों की तादाद बढ़ सकती है. बहुत ही अहम बात यह है कि वर्ष 2018 की पहली तिमाही में ब्लौकचैन क्षेत्र की नौकरियों में 6,000 फीसदी की उछाल आई है.

औनलाइन भरतियां और कंपनियों से जुड़ी जानकारियां मुहैया कराने वाली वेबसाइट ग्लासडोर के अध्ययन के अनुसार, अमेरिका में ब्लौकचैन क्षेत्र में औसत सालाना आय 84,884 डौलर (लगभग 62 लाख रुपए) है जो वहां की औसत सालाना आय 52,461 डौलर यानी लगभग 38.5 लाख रुपए से 61.8 फीसदी ज्यादा है. अध्ययन में बताया गया, ‘पिछले एक साल में क्रिप्टोकरेंसी की कीमतों में उतारचढ़ाव के बाद भी ब्लौकचैन क्षेत्र में नौकरियों की तादाद लगातार बढ़ रही है. एक साल के दौरान अमेरिका में इस तरह की नौकरियों में 300 प्रतिशत की उछाल आई है.’ अध्ययन में पाया गया कि ब्लौकचैन क्षेत्र में नौकरियों के मामले में अमेरिका के बाद लंदन, सिंगापुर, टोरंटो, हांगकांग और बर्लिन शीर्ष वैश्विक शहरों में शामिल हैं.

इनक्रिप्ट के संस्थापक और वेंचर कैपिटल इन्वेस्टर नितिन शर्मा बताते हैं, ‘इनक्रिप्ट के इस सर्वे का में मकसद भारत में पब्लिक ब्लौकचैन की क्षमता की पहचान करना था. इस में ज्यादातर बातचीत कारोबारियों, एक्सचेंजों और क्रिप्टोकरेंसी से जुड़े जोखिमों पर की गई. हम ने सर्वे में ब्लौकचैन तकनीक पर काम कर रहे डेवलपर्स और उद्यमियों पर भी ध्यान केंद्रित किया है.’

सर्वे में शामिल 84 लोग केवल विदेशी परियोजनाओं पर कार्य कर रहे हैं और 86 प्रतिशत लोगों का मानना है कि अगर देश में क्रिप्टोकरेंसी के लिए माफिक माहौल नहीं होगा तो वे देश से बाहर चले जाएंगे. साथ ही, 82 प्रतिशत लोगों का मानना है कि ब्लौकचेन स्टार्टअप्स द्वारा जमा की गई मौजूदा पूंजी देश से बाहर चली जाएगी. सो, देश इस क्षेत्र में चल रहे ग्लोबल कम्पटीशन में पिछड़ जाएगा.

सर्वे से पता चलता है कि ब्लौकचैन क्षेत्र के लिए नियमों पर स्थिति साफ़ करनी होगी वर्ना भारत कई क्षेत्रों में बड़े अवसर खो सकता है. हाल ही में भारत के एक बड़े क्रिप्टोकरेंसी एक्सचेंज जेब पे ने भारत में अपना कारोबार बंद कर दिया है और अब कंपनी ने खुद को माल्टा देश में रजिस्टर्ड करा लिया है. भारत में कारोबार बंद करने वाली जेब पे दुनिया के 20 देशों में अपनी सेवाएं दे रही है.

फ्रीलांस प्लेटफौर्म अपवर्क के एक सर्वे के अनुसार, वर्ष 2018 की पहली तिमाही में सब से ज्यादा तेजी से बढने वाले कौशल में ब्लौकचैन पहले स्थान पर रहा. इस में गूगल क्लाउड प्लेटफौर्म दूसरे और वौल्यूजन सौफ्टवेयर तीसरे स्थान पर रहा.

क्रिप्टोकरेंसी एक्सचेंज वजीरएक्स का कहना है कि सौफ्टवेयर क्षेत्र की नौकरियों के मामले में अगले 3 से 5 वर्षों में ब्लौकचैन सब से बड़े क्षेत्रों में से एक होगा और देश से इस क्षेत्र के होनहारों को नौकरी के सिलसिले में विदेश जाने से रोकने की जरुरत है. वजीरएक्स का कहना है कि वह कई इंजीनियरों, स्टार्टअप संस्थापकों, कारोबारियों और दूसरे लोगों को जानती है जो ब्लौकचैन क्षेत्र के सपनों को पूरा करने के लिए भारत से बाहर जाने वाले हैं. देश में सॉफ्टवेयर क्षेत्र में ब्लौकचैन तकनीक की उपयोग संबंधी अनिश्चितता और नेगेटिव माहौल खतरनाक हो सकता है. सो, भारत सरकार को अपने तरीकों में बदलाव लाने होंगे.

आईटी क्षेत्र की कई बड़ी कम्पनियाँ ब्लौकचैन तकनीक आधारित तरीकों पर काम कर रही हैं. आईबीएम और माइक्रोसौफ्ट एजर पहले ही बीएएएस प्लेटफार्म तैयार कर चुके हैं. इस के आलावा, 2 वर्षों की प्रैक्टिकल टेस्टिंग के बाद वालमार्ट ने किसी भी प्रोडक्ट के एक जगह से दूसरी जगह जाने पर पहचान सम्बन्धी ब्लौकचैन लांच कर दिया है.

ग्लासडोर की रिपोर्ट बताती है कि आईबीएम, ओरेकल, क्रेकन, एक्सेंचर, जेपी मौर्गन और केपीएमजी कंपनियां ब्लौकचैन क्षेत्र में नई नौकरियों के मामले में शीर्ष पर हैं. कई दूसरे ब्लौकचैन स्टार्टअप भी अपने विस्तार पर काम कर रहे हैं.

उधर, गैरबैंकिंग वित्तीय कंपनी फिनवे के एक उच्च अधिकारी का मानना है कि मौजूदा माहौल में ब्लौकचैन के साथ ही किसी दूसरे क्षेत्र में भी क्षमता विकसित करना बेहतर रहेगा. वे कहते हैं, ‘ब्लौकचेन तकनीक देश के रोजगार क्षेत्र के लिए काफी फायदेमंद हो सकती है लेकिन किसी भी व्यक्ति को इस के साथ किसी एक पारंपरिक तकनीक का भी प्रशिक्षण लेना चाहिए. कुछ मामलों में ब्लौकचैन क्षेत्र में देश से प्रतिभा पलायन हो रहा है लेकिन तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था और जीवनयापन के मूल्यों में इजाफे से अगले 5 सालों में हम देखेंगे कि प्रतिभा पलायन के स्थान पर बहुत से लोग भारत का रुख करेंगे.’

ब्लौकचैन डिस्ट्रिब्यूटेड डाटा बेस होती है. इस में लगातार कई रिकार्ड्स को रखा जाता है जिन्हें ब्लौक कहते हैं, जिस में हर ब्लौक अपने पूर्व के ब्लौक से लिंक रहता है. इस तकनीकी में हजारों कंप्यूटर पर इन्क्रिप्टेड यानी गुप्तरूप से डाटा सुरक्षित रहता है. इसे पब्लिक लेजर भी कहते हैं. इसे हैक करने के लिए सभी हजारों कंप्यूटर में एकसाथ साइबर अटैक करना होगा जो कि नामुमकिन है.

भारत मैं हैकिंग रोकने और साइबर सिक्‍योरिटी को बढ़ावा देने के लिए ब्लौकचैन तकनीक लागू करने वाला आंध्र प्रदेश पहला राज्‍य है. कोई भी अपना ब्लौकचैन अकाउंट https://blockchain.info/ वेबसाइट पर बना सकता है.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें