Family Kahani: मिट्टी का तेल- क्यों शरमा रही थी चिंकी

Family Kahani: बूआ और फूफा गुड़गांव से अपने बेटे और नई बहू के साथ मिलने आए थे. दिन भर का कार्यक्रम था. खाना खा कर उन्हें वापस जाना भी था. उमाशंकर ने भी अपने बेटे अतुल की शादी कुछ माह पहले ही की थी. शादी के बाद बूआ और फूफा पहली बार आए थे. स्वागत का विशेष प्रबंध था.

उमाशंकर की पत्नी राजरानी ने झिड़क कर कहा, ‘‘कुछ तो सोच कर बोला करो. बहुएं घर में हैं और सुन भी रही हैं.’’

उमाशंकर ने झिड़की की परवा न कर हंसते हुए कहा, ‘‘अरे यार, उन्हें ही तो सुना रहा हूं. समय पर चेतावनी मिल जाए तो आगे कोई गड़बड़ नहीं होगी और तुम भी आराम से उन पर राज कर सकोगी.’’

‘‘मुझे ऐसा कोई शौक नहीं,’’ राजरानी ने समझदारी से कहा, ‘‘मेरी बहू सुशील, सुशिक्षित और अच्छे संस्कार वाली है. कोई शक?’’

गुड़गांव से आए फूफाजी उठ कर कुछ देर पहले हलके होने के लिए बाथरूम गए थे. जब लौटे तो हंस रहे थे.

कौशल्या ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘किस बात पर हंस रहे हो? बाथरूम में जो पोस्टर चिपका हुआ है उसे पढ़ कर आए हो?’’

‘‘अजीबोगरीब पोस्टर बाथरूम और अपने कमरे में चिपकाना आजकल के नौजवान लड़केलड़कियों का शौक है, पर मुझे हंसी उस पर नहीं आ रही है,’’ फूफाजी ने उत्तर दिया.

‘‘तो फिर?’’ कौशल्या ने पूछा.

फूफाजी ने उमाशंकर से पूछा, ‘‘क्यों भई, बाथरूम में मिट्टी का तेल क्यों रखा हुआ है?’’

उमाशंकर ने जोरदार हंसी के साथ जो उत्तर दिया उस से न चाहते हुए भी दोनों नई बहुएं सहम गईं.

रात के अंधेरे में चिंकी ने बेचैनी से पूछा, ‘‘पिताजी क्या सच कह रहे थे?’’

‘‘क्या कह रहे थे?’’ अतुल ने चिंकी का हाथ पकड़ कर खींचते हुए पूछा.

‘‘वही मिट्टी के तेल वाली बात,’’ चिंकी ने हाथ छुड़ाते हुए कहा.

‘‘ओ हो, तुम भी कितनी मूर्ख हो,’’ अतुल ने चिढ़ कर कहा, ‘‘पिताजी मजाक कर रहे थे और उन्हें मजाक करने की आदत है. तुम औरतों की कमजोरी यही है कि मजाक नहीं समझतीं. अब उस दिन बिना बात तुम्हारी मम्मी भी भड़क गई थीं.’’

‘‘मेरी मां तुम्हारी भी तो कुछ लगती हैं. बेचारी कितनी सीधीसादी हैं. उन का मजाक उड़ाना कोई अच्छी बात थी?’’ चिंकी ने क्रोध से कहा, ‘‘मेरी मां के बारे में कभी कुछ मत कहना.’’

‘‘अच्छा बाबा माफ करो,’’ अतुल ने प्यार से चिंकी को फिर पास खींचा, ‘‘अब तो चुप हो जाओ.’’

‘‘मैं चुप कैसे रह सकती हूं,’’ चिंकी ने शंका से पूछा, ‘‘बताओ न, क्या पिताजी सच कह रहे थे?’’

अब अतुल चिढ़ गया. खीज कर बोला, ‘‘हां, सच कह रहे थे. तो फिर? और यह भी सुनो. इस घर में पहले भी 3-4 बहुएं जलाई जा चुकी हैं और शायद अब तुम्हारी बारी है.’’

चिंकी छिटक कर दूर हो गई. उस रात समझौते की कोई गुंजाइश नहीं थी.

अगले दिन सबकुछ सामान्य था क्योंकि सब अपने- अपने काम रोज की तरह कर रहे थे. कोई तनाव नहीं. सबकुछ एक बदबू के झोंके की तरह उड़ गया था. फिर भी चिंकी जितनी बार बाथरूम जाती, मिट्टी के तेल की बोतल को नई दृष्टि से देखती थी और तरहतरह के दुष्ट विचार मन में आ जातेथे.

एकांत पा कर मां के नाम पत्र लिखा. सारी बातें विस्तार से लिखीं कि शादी में कहीं दहेज में तो कोई कमी नहीं रह गई? लेनेदेने में तो कहीं कोई चूक नहीं हो गई? अतुल को तो किसी तरह मना लेगी, पर ससुर के लिए आने वाली होली पर सूट का कपड़ा और सास के लिए कांजीवरम वाली साड़ी जो जानबूझ कर नहीं दी गई थी, अब अवश्य दे देना. हो सके तो अतुल के लिए सोने की चेन और सास के लिए कंगन भी बनवा देना. पता नहीं कब क्या हो जाए? वैसे माहौल देखते हुए ऐसी कोई आशंका नहीं है. ऊपर से सब का व्यवहार अच्छा है और प्यार से रखते हैं.

पत्र पढ़ कर मां घबरा गईं.

‘‘मेरा मन तो बड़ा घबरा रहा है,’’ मां ने कहा, ‘‘आप जाइए और चिंकी को कुछ दिनों के लिए ले आइए.’’

‘‘अब ऐसे कैसे ले आएं?’’ पिताजी ने चिंता से कहा, ‘‘चिंकी ने किसी की शिकायत भी तो नहीं की है. ले आने का कोई कारण तो होना चाहिए. हम दोनों का रक्तचाप ठीक है और मधुमेह की भी शिकायत नहीं है.’’

‘‘यह कोई हंसने की बात है,’’ मां ने आंसू रोकते हुए कहा, ‘‘कुछ तो बात हुई होगी जिस से चिंकी इतना परेशान हो गई. जो कुछ उस ने मांगा है वह होली पर दे आना. मेरी बेटी को कुछ हो न जाए.’’

‘‘कुछ नहीं होगा. तुम बेकार में दुखी हो रही हो,’’ पिताजी ने कहा, ‘‘उमाशंकरजी को हंसीमजाक करने की आदत है. दहेज के लिए उन्होंने आज तक कोई शिकायत नहीं की.’’

‘‘आदमी का मन कब फिर जाए कोई कह सकता है क्या? आप समझा कर अतुल को एक चिट्ठी लिख दीजिए,’’ मां ने कहा.

‘‘मैं ऐसा कुछ नहीं करूंगा,’’ पिताजी ने दृढ़ता से कहा, ‘‘हां, तुम चिंकी को जरूर लिख दो. कोई चिंता की बात नहीं है. सब ठीक हो जाएगा.’’

मां ने नाराजगी से पति को देखा और चिंकी को सांत्वना का पत्र लिखने बैठ गईं.

होली आई तो अतुल और चिंकी को घर आने की दावत दी. दामाद का खूब सत्कार हुआ. कुछ अधिक ही.

चिंकी ने मां को अलग ले जा कर पूछा, ‘‘आप ने सूट का कपड़ा और साड़ी खरीदी?’’

‘‘नहीं, तेरे पिताजी नहीं मानते. कहते हैं कि फालतू देने से लालच बढ़ जाता है. फिर कोई मांग भी तो नहीं की. हां, अतुल के लिए सोने की चेन बनवा दी है,’’ मां ने प्यार से कहा.

‘‘मां, बस तुम भी…चिंकी ने निराशा से कहा,’’ भुगतना तो मुझे ही पड़ेगा. आप को क्या. बेटी ब्याह दी, किस्सा खत्म. क्या अखबार नहीं पढ़तीं? टीवी नहीं देखतीं? हर रोज बहुओं के साथ हादसे हो रहे हैं.’’

‘‘बेटी, तेरे सासससुर ऐसे नहीं हैं,’’ मां ने समझाने की कोशिश की.

‘‘ठीक है मां…’’ चिंकी ने गिरते आंसुओं को थाम लिया.

जब बेटी और दामाद को बिदा किया तो ढेरों मिठाई और पकवान साथ में दिया. हजारहजार रुपए से टीका भी कर दिया.

अतुल ने विरोध किया, ‘‘मम्मीजी, इतना सब देने की क्या जरूरत है?’’

‘‘बेटा, करना तो बहुत कुछ चाहते थे पर अभी तो इतना ही है,’’ सास ने कहा, ‘‘तुम सब खुश रहो यही मन की इच्छा है.’’

‘‘मम्मीजी, आप का आशीर्वाद है तो सब ठीक ही होगा,’’ अतुल ने जल्दी से कहा, ‘‘अब चलें, देर हो रही है.’’

‘‘उमाशंकरजी और अपनी मम्मी को हमारा आदर सहित प्रणाम कहना,’’ पिताजी ने कहा.

ससुराल आने पर चिंकी बाथरूम गई तो मिट्टी के तेल की बोतल को अपनी जगह पाया. पता नहीं क्या होगा? सासससुर को शिकायत का कोई अवसर नहीं देगी. वैसे धीरेधीरे अतुल को रास्ते पर लाना होगा. जल्दी से जल्दी दूसरा घर या तबादले का प्रबंध करना पड़ेगा. मन के किसी एक कोने में आशंका का दिया जल रहा था.

छुट्टी का दिन था. रात हो चली थी. अतुल किसी काम से बाहर गया हुआ था. अचानक घर की रोशनी चली गई. घोर अंधेरा छा गया. अकसर आधे घंटे में बिजली आ जाती थी, पर आज बहुत देर हो गई.

अंधेरे में क्या करे कुछ सूझ नहीं रहा था.

उमाशंकर ने टटोलते हुए कहा, ‘‘राजरानी, एक टार्च थी न, कहां है? कुछ याद है.’’

‘‘आप की मेज की दराज में है,’’ राजरानी ने कहा, ‘‘पर उस का क्या करोगे? बैटरी तो है नहीं. बैटरी लीक कर गई थी तो फेंक दी थी.’’

उधर रसोई में टटोलते हुए और कुछ बर्तन इधरउधर गिराते हुए राजरानी बड़बड़ा रही थी, ‘‘मरी माचिस भी कहां रख दी, मिल ही नहीं रही है. और यह अतुल भी पता नहीं अंधेरे में कहां भटक रहा होगा.’’

अगर अचानक अंधेरा हो जाए तो बहुत देर तक कुछ नहीं सूझता. राजरानी, उमाशंकर और चिंकी तीनों ही कुछ न कुछ ढूंढ़ रहे थे, पर कभी दीवार से तो कभी फरनीचर से और कभी दरवाजे से टकरा जाते थे.

कमरे में टटोलते हुए चिंकी के हाथ में कुछ आया. स्पर्श से ध्यान आया कि कुछ दिन पहले उस ने एक लैंप देखा था. शायद वही है. पता नहीं कब से पड़ा था. अब बिना तेल के तो जल नहीं सकता.

उसे ध्यान आया, मिट्टी के तेल की बोतल बाथरूम में रखी है. कुछ तो करना होगा. दीवार के सहारे धीरेधीरे कमरे से बाहर निकली. पहला कमरा सास का था. फिर टीवी रूम था. आगे वाला बाथरूम था. दरवाजा खुला था. कुंडी नहीं लगी थी. एक कदम आगे कमोड था. बोतल तक हाथ पहुंचने के लिए कमोड पर पैर रख कर खड़े होना था. चिंकी यह सब कर रही थी, पर न जाने क्यों उस का दिल जोरों से धड़क रहा था.

जैसे ही बोतल हाथ लगी उसे मजबूती से पकड़ लिया. आहिस्ता से नीचे उतरी. फिर से दीवार के सहारे अपने कमरे में पहुंची. अब लैंप का ढक्कन खोल कर उस में तेल डालना था. अंधों की तरह एक हाथ में लैंप पकड़ा और दूसरे हाथ में बोतल. कुछ अंदर गया तो कुछ बाहर गिरा.

लो कितनी मूर्ख हूं मैं? चिंकी बड़बड़ाते हुए बोली. अब माचिस कहां है? माचिस इतनी देर से उस की सास को नहीं मिली तो उसे क्या मिलेगी? सारी मेहनत बेकार गई. अतुल तो सिगरेट भी नहीं पीता.

तभी चिंकी को ध्यान आया कि पिछले माह वह अतुल के साथ एक होटल में गई थी. होटल की ओर से उस के नाम वाली माचिस हर ग्राहक को उपहार में दी गई थी. अतुल ने वह माचिस अपनी कोट की जेब में डाल ली थी. माचिस को अभी भी जेब में होना चाहिए.

जल्दी से तेल की बोतल नीचे रखी और कपड़ों की अलमारी तक पहुंची. सारे कपड़े टटोलते हुए वह कोट पकड़ में आया. गहरी सांस ली और जेब में हाथ डाला. माचिस मिल गई. वह बहुत खुश हुई. जैसे ही जलाने लगी बोतल पर पैर लगा और सारा तेल गिर कर फैल गया.

उमाशंकर ने पूछा, ‘‘राजरानी, मिट्टी के तेल की बदबू कहां से आ रही है? क्या तुम ने तेल की बोतल तो नहीं गिरा दी?’’

‘‘अरे, मैं तो कब से यहां रसोई में खड़ी हूं,’’ राजरानी ने कहा, ‘‘मरी माचिस ढूंढ़ रही हूं.’’

‘‘अब छोड़ो भी माचिसवाचिस,’’ उमाशंकर ने कहा, ‘‘यहां आ जाओ और बैठ कर बिजली आने का इंतजार करो.’’

चिंकी ने माचिस जलाई और गिरी बोतल को हाथ में उठा लिया.

उमाशंकर ने लाइट की चमक देखी तो चिंकी के कमरे की ओर आए और वहां जो नजारा देखा तो सकपका गए. झट से दौड़ कर गए और चिंकी के हाथ से जलती माचिस की तीली छीन ली और अपने हाथ से मसल कर उसे बुझा दी.

‘‘लड़की तू कितनी पागल है?’’ उमाशंकर ने डांट कर कहा, ‘‘तू भी जलती और सारे घर में आग लग जाती.’’

तभी बिजली आ गई और सब की आंखें चौंधिया गईं. चिंकी ने जो दृश्य देखा समझ गई कि वह कितनी बड़ी भूल करने जा रही थी. घबरा कर कांपने लगी.

उमाशंकर ने हंस कर उसे झूठी सांत्वना दी, ‘‘मरने की बड़ी जल्दी है क्या?’’

और चिंकी को जो शर्म आई वह कभी नहीं भूली. शायद भूलेगी भी नहीं.

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Long Story in Hindi: राहत- श्यामा को क्यों चुबने लगी रूपा

Long Story in Hindi: रूपा का पत्र पढ़ कर मन चिंतित हो उठा. वह आ रही है और अभी वेतन प्राप्त होने में 10 दिन शेष हैं. खाली पड़े नाश्ते के डब्बे मुझे मुंह चिढ़ा रहे थे. नाश्ते में मक्खन का प्रयोग कब का बंद हो चुका है. बड़ी तो सब समझती है. वह डबलरोटी पर चटनी, जैम कुछ भी लगा कर काम चला लेती है पर छोटी वसुधा तो गृहस्थी की विवशताओं से अनजान है. वह नित्यप्रति मक्खन के लिए शोर मचाती है. ऐसे में रूपा आ रही है पहली बार नन्हे बच्चे के साथ. पिछली बार आई थी तो 200 रुपए की साड़ी देते कैसी लज्जा ने आ घेरा था. फिर इस बार तो पति व बच्चे के साथ आ रही है. कितना भी कम करूं हजार रुपए तो खर्च हो ही जाएंगे. सामने रूपा का पत्र नहीं मानो अतीत का पन्ना फड़फड़ा रहा था. पिताजी ईमानदार, वेतनभोगी साधारण सरकारी कर्मचारी थे. जहां उन के सहयोगियों ने जोड़तोड़ लगा कर कार व कोठी खरीद ली वहीं वे अपनी साइकिल से ही संतुष्ट रहे. उन के कनिष्ठ जीहुजूरी व रिश्वत के बल पर पदोन्नति पाते गए जबकि वे हैडक्लर्क की कुरसी से ही जीवनभर चिपके रह गए.

मेरे जन्म के पश्चात जब 5 वर्ष तक घर में कोई और शिशु न जन्मा तो पुत्र लालसा में अंधी मां अंधविश्वासों में पड़ गईं, किंतु इस बार भी उन की गोद में कन्यारत्न ही आया. रूपा के जन्म पर मां किंचित खिन्न थीं. पिता के माथे पर भी चिंता की रेखाएं गहरी हो उठी थीं किंतु मेरी प्रसन्नता की सीमा न थी. मेरा श्यामवर्ण देख कर ही पिता ने मुझे श्यामा नाम दे रखा था. अपने ताम्रवर्णी मुख से कभीकभी मुझे स्वयं ही वितृष्णा हो उठती. मांपिताजी दोनों गोरे थे फिर प्रकृति ने मेरे साथ ही यह कृपणता क्यों की. किंतु रूपा शैशवावस्था से ही सौंदर्य का प्रतिरूप थी. विदेशी गुडि़या सी सुंदर बहन को पा कर मेरी आंखें जुड़ा गईं. उसे देख मेरा प्रकृति के प्रति क्रोध कुछ कम हो जाता, अपने कृष्णवर्ण का दुख मैं भूल जाती. मैं अपनी कक्षा में सदैव प्रथम आती थी. परंतु बीए के पश्चात मुझे अपनी पढ़ाई से विदा लेनी पड़ी. पिताजी की विवश आंखों ने मुझे प्रतिवाद भी न करने दिया. रूपा अब बड़ी कक्षा में आ रही थी और पिताजी दोनों की शिक्षा का भार उठा सकने में असमर्थ थे. हम जिस मध्यमवर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं वहां कन्या का एकमात्र भविष्य उस का विवाह ही है, इस में भी मेरा श्यामवर्ण आड़े आ रहा था. यहांवहां, भागदौड़ कर के आखिरकार पिताजी ने मेरे लिए एक वर जुटा लिया. प्रभात न केवल एक सरकारी अनुष्ठान में सुपरवाइजर थे वरन उन के पास अपना स्कूटर भी था. जिस का जीवन साइकिल के पहियों से ही घिसटता रहा हो उस के लिए स्कूटर वाला जामाता पा लेना वास्तव में बहुत बड़ी बात थी.

बिना दानदहेज के विवाह संपन्न हो गया. प्रभात सुलझे विचारों के थे. उन के साथ सामंजस्य मुझे कुछ कठिन न लगा. रूपा तो अपने स्कूटरधारी जीजा पर जीजान से कुरबान थी. कभी प्रभात उसे स्कूटर पर चाटपकौड़े खिला लाते तो वह हर्षातिरेक में उछल पड़ती. दिनभर उन्हीं का गुणगान करती. रूपा का आगमन मेरे हृदय में उल्लास का प्रकाश फैला देता. मेरी डेढ़दो सौ रुपए की साडि़यां ही उसे अमूल्य लगतीं. वह बारबार उन्हें छू कर पहनओढ़ कर भी तृप्त न हो पाती. कभी तीजत्योहार पर हम उसे रेशमी सूट सिलवा देते तो उस की निश्छल आंखों में कृतज्ञता के दीप जल उठते. पिता के घर में हम केवल सूती वस्त्र ही पहन पाते थे. पिताजी ने जीवनभर खादी ही पहनी थी. खादी उन का शौक नहीं, विवशता थी. गांधी जयंती पर खादी के वस्त्रों पर विशेष छूट मिलती, तभी पिताजी हमारे लिए सलवार, कुरतों के लिए छींट का कपड़ा लाते. उन्हीं दिनों वे सस्ती चादरें व परदे भी खरीद लिया करते थे. उन के अल्प वेतन में मां की साड़ी कभी न आ पाती. मामा अवश्य कभीकभी मां को बढि़या रेशमी साड़ी दिया करते थे. उन साडि़यों को मां सोने सा सहेज कर रखतीं और विशेष अवसरों पर ही पहनती थीं.

मेरे विवाह पर वर पक्ष ने खालिस सोने के झुमके और हार के साथ 11 साडि़यां दी थीं, जिन्हें देख कर सब प्रसन्न हो उठे. सब ने मां को बारबार बधाई दी और पिताजी से खुशी जाहिर की. मां तो बावरी सी हो उठी थीं. मुझे हृदय से लगा कर कहतीं, ‘कौन कहता है मेरी श्यामा काली है, वह तो हीरा है. तभी तो ऐसा घरवर मिला है,’ सभी मेरी खुशहाली की सराहना करते. प्रभात की निश्चित आय में मेरी गृहस्थी की गाड़ी सुचारु रूप से चल रही थी. मध्यवर्गीय कन्या के स्वप्न भी तो सीमित ही होते हैं. मैं ने कोठी, बंगला, गाड़ी के स्वप्न कहां देखे थे. आशा से अधिक सुख मेरी झोली में आ गिरा था. रूपा को प्रकृति ने सौंदर्य खुले हाथों से बांटा था पर बुद्धि देने में कृपणता दिखा गई. 2 प्रयासों में भी वह बीए न पास कर सकी तो पिताजी हताश हो गए और उस के विवाह के लिए चिंतित रहने लगे. प्रथम प्रयास में ही रूपा का विवाह एक समृद्ध परिवार में तय हो गया. वर पक्ष उस के सौंदर्य पर ऐसा मुग्ध हुआ कि झटपट हीरे जडि़त 2 वलय, रूपा के हाथों में पहना कर मानो उसे आरक्षित कर लिया. वर पक्ष की इस शीघ्रता पर हम दिल खोल कर हंसे भी थे. रूप की कनी कहीं हाथों से न निकल जाए, इसलिए उन्होंने विवाह तुरंत करना चाहा.

अभी तक मैं संपन्न न सही किंतु सुखी अवश्य थी. किराए का ही सही, हमारे पास छोटा सा आरामदेह घर था, प्यार करने वाला पति, अच्छे अंकों से पास होने वाली 2 अनुपम सुंदर बच्चियां. सुखी होने के लिए हमें और क्या चाहिए. परंतु रूपा का विवाह होते ही अचानक मैं बेचारी हो उठी. मां अकसर रूपा के ससुरकुल के वैभव का बखान करतीं, ‘रूपा के पति का पैट्रोल पंप है. ससुर की बसें चलती हैं. उस के 4 मकान हैं,’ आदिआदि. रूपा सुखी है, संपन्न है. इस से अधिक प्रसन्नता का विषय मेरे लिए और क्या हो सकता है. मैं भी अपने प्रतिवेशियों को रूपा के ससुरकुल की संपन्नता का विवरण दे कर प्रभावित करने का प्रयत्न करती. मौसी का घर कितना बड़ा है. उन के घर कितने नौकर हैं, कितनी गाडि़यां हैं, यह चर्चा अकसर मेरी बेटियां भी करती रहतीं.

पर अब सबकुछ बदलाबदला सा नजर आने लगा था. कल तक प्रभात का स्कूटर ही मेरे पितृकुल के लिए गर्व का विषय था. आज रूपा की विदेशी गाड़ी के समक्ष वह खटारा साबित हो गया. मेरे सोने के झुमके और हार रूपा के हीरेमाणिक जड़े आभूषणों के समक्ष हेय हो उठे. मेरी सिल्क की साडि़यां उस के आयातित वस्त्रों के सामने धूमिल पड़ गईं. कोई भी चमत्कार प्रभात की आय में ऐसी वृद्धि न कर सकता था जिस से हम संपन्नता की चादर खरीद पाते. न हमें कोई खजाना मिलने की आशा थी. बौनेपन का एहसास तभी से मेरे मन में काई की तरह जमने लगा. बेटियां जब अपने घर की तुलना मौसी के बाथरूम के साथ करतीं तो मेरा मन खिन्न हो उठता. मातापिता व इकलौती छोटी बहन का परित्याग भी तो संभव न था कल तक मां गर्वपूर्वक कहती थीं, ‘श्यामा के घर से 11 साडि़यां आई थीं,’ पर अब कहती हैं, ‘बेचारी श्यामा के घर से तो मात्र 11 साडि़यां आई थीं और वे भी एकदम साधारण. रूपा की ससुराल का घर भी बड़ा है और दिल भी. तभी 51 साड़ी चढ़ावे में लाए थे, कोई भी हजार रुपए से कम की न थी.’

पिताजी सब समझते थे पर कुछ न कहते. बस, एक गंभीर मौन उन के चेहरे पर पसरा रहता. ऊंट बहुत ऊंचा होता है पर जब वह पहाड़ के सामने आता है तब उसे अपनी लघुता का ज्ञान होता है. मैं सुखी थी, संतुष्ट थी किंतु रूपा के वैभव की चकाचौंध से मेरी गृहस्थी में शांति न रही. मैं दिनरात आय बढ़ाने के उपाय सोचती रहती. कभी स्वयं नौकरी करने का विचार करती. मैं चिड़चिड़ी होती जा रही थी. प्रभात नाराज और बेटियां सहमी रहने लगीं. अपनी पदावनति से मैं व्यथित थी. जिस घर में मेरा राजकुमारी की तरह स्वागत होता था, मेरे पहुंचते ही हर्ष और उल्लास के फूल खिल उठते थे, वहां अब मेरा अवांछित अतिथि की भांति ठंडा स्वागत होता. तीजत्योहार पर मां मुझे सूती साड़ी ही दे पाती थीं. मैं उसी में प्रसन्न रहती थी. परंतु अब देखती हूं, मां रूपा को कीमती से कीमती साड़ी देने का प्रयत्न करतीं. उस के घर मेवामिष्ठान भेजतीं. फिर मेरी ओर बड़ी निरीहता से निहार कर कहतीं, ‘तू तो समझदार है, फिर तेरे यहां देखने वाला भी कौन है? रूपा तो संयुक्त परिवार में है. उस के घर तो अच्छा भेजना ही पड़ता है,’ मानो वे अपनी सफाई दे रही हों.

प्रभात के आते ही जो मां पहले उन की पसंद का हलवा बनाने बैठ जाती थीं अब अकसर उन्हें केवल चाय का कप थमा देतीं. किंतु रूपा के आते ही घर में तूफान आ जाता. उस की मोटर की ध्वनि सुनते ही मां द्वार की ओर लपकतीं. तब उन का गठिया का दर्द भी भाग जाता. रूपा के पति के आते ही प्रभात का व्यक्तित्व फीका पड़ जाता. कभीकभी तो उन्हें अपनी आधी चाय छोड़ कर ही बाजार नाश्ता लेने जाना पड़ता. स्त्री सब कुछ सहन कर सकती है किंतु पति की अवमानना उसे स्वीकार नहीं होती. कल तक वे उस घर के ‘हीरो’ थे, आज चरित्र अभिनेता बन गए थे. प्रभात सरल हृदय के हैं. वे इन बातों पर तनिक भी ध्यान नहीं देते. रूपा के पति को छोटे भाई सा ही स्नेह देते हैं. उस के लिए कुछ करने में संतुष्टि पाते हैं किंतु मांपिताजी के बदले हुए व्यवहार से मुझे मर्मांतक पीड़ा होती. आज उसी रूपा का पत्र मेरे हाथ में है. वह आ रही है. उस की विदेशी गाड़ी मेरे जीर्णशीर्ण घर के समक्ष कैसी लगेगी? उस के बच्चे को कम से कम 2 सूट तो देने ही पड़ेंगे. पति पहली बार आ रहा है, उसे भी कपड़े देने पड़ेंगे. रूपा को तो वही साड़ी दे दूंगी जो प्रभात मेरे लिए शादी की सालगिरह पर लाए थे. प्रभात से छिपा कर पिछले दिनों मैं ने 2 ट्यूशन किए थे. उस के रुपए अब तक बचा कर रखे हैं. सोचा था, बच्चियों के पढ़ने के लिए मेजकुरसी खरीद लूंगी. परदे बदलने का भी विचार था पर अब सब स्थगित करना पड़ेगा. रूपा का स्वागतसत्कार भली प्रकार हो जाए, वह प्रसन्न मन से वापस चली जाए, यही एक चिंता थी.

संध्या को प्रभात के आने पर रूपा का पत्र दिखाया तो वे प्रसन्न हो उठे. जब मैं ने लेनदेन का प्रश्न उठाया तो बोले, ‘‘क्या छोटीछोटी बातों पर परेशान होती हो. हमारी गृहस्थी में जो है, प्रेम से खिलापिला देना. आज नहीं है तो नहीं देंगे, कल होगा तो अवश्य देंगे, क्या वह दोबारा नहीं आएगी?’’ प्रभात संबंधों की जटिलता नहीं समझते. छोटी बहन को खाली हाथ विदा करने से बड़ी विवशता मेरे लिए अन्य क्या हो सकती है. वे तो बात समाप्त कर के सो गए पर मुझे रातभर चिंता से नींद न आई. 3-4 दिन बीत गए. किसी गाड़ी की ध्वनि सुनाई देती तो हृदय की धड़कन बढ़ जाती. 5वें दिन रूपा का पत्र आया कि वह नहीं आ रही है और मैं ने राहत की सांस ली.

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Winter Skincare: क्या करें क्या न करें

Winter Skincare: सर्दियों में त्वचा पर रूखापन, बेजानपन और खिंचाव जैसी परेशानियां बढ़ जाती हैं. ठंडी हवा और कम नमी की वजह से स्किन अपनी प्राकृतिक चमक खोने लगती है. ऐसे मौसम में त्वचा को हैल्दी, ग्लोइंग और मोइस्चराइज्ड रखने के लिए खास देखभाल और सही स्किन केयर रूटीन अपनाना जरूरी है. इसलिए जरूरी है कि हमें पता हो की क्या करें और क्या न करें.

क्या करें क्या न करें

नमी का ख्याल रखें : सर्दियों में स्किन ग्लो बनाए रखने के लिए सब से अहम है हाइड्रेशन.

ऐसे प्रोडक्ट चुनें जिन में ह्यलूरोनिक एसिड, ऐलोवेरा, ग्लिसरीन या शिया बटर हो. ये त्वचा को भीतर तक नमी देते हैं, ड्राई पैच हटाते हैं और स्किन को मुलायम बनाते हैं.

सौफ्ट क्लींजिंग अपनाएं : ठंड में धूल, मेकअप और पसीने की हलकी परत भी पोर्स बंद कर देती है, जिस से चेहरा रुखा और डल दिखने लगता है.

हलके क्लींजिंग जैल या मिल्क क्लींजिंग का दिन में 2 बार उपयोग करें ताकि त्वचा साफ और फ्रैश रहे

प्रकृति का फेशियल टच दें : सर्दियों में थकी और बेरौनक त्वचा को प्राकृतिक फेशियल से तुरंत ताजगी मिलती है.

त्वचा को पोषण दें : अनियमित खानपान और ठंड की वजह से स्किन अपनी चमक खो देती है.

ऐसे में विटामिन ई वाले सीरम, नारियल तेल या बादाम तेल की हलकी मसाज त्वचा को पोषण देती है और चेहरे में फिर से नूर भरती है.

पर्याप्त नींद और पानी जरूरी : सर्दियों में प्यास कम लगती है, लेकिन शरीर और त्वचा को पानी की उतनी ही जरूरत होती है.

दिन में 8–10 गिलास पानी और 7–8 घंटे की नींद त्वचा की अंदरूनी चमक को फिर से लौटाती है.

सनस्क्रीन कभी न भूलें : सर्दियों की हलकी धूप भी त्वचा पर टैनिंग और पिगमेंटेशन कर सकती है.

स्किन इस मौसम में ज्यादा सैंसिटिव हो जाती है, इसलिए हर 3–4 घंटे बाद सनस्क्रीन लगाना जरूरी है.

चेहरे को बारबार गरम पानी से न धोएं : गरम पानी त्वचा के नैचुरल औयल को हटा कर उसे और ज्यादा रूखा बना देता है. हमेशा गुनगुने पानी का इस्तेमाल करें.

मोइस्चराइजर लगाने में देरी न करें : चेहरा धोने के 1–2 मिनट के अंदर मोइस्चराइजर जरूर लगाएं. देर करने से स्किन की नमी खत्म हो जाती है.

बहुत हार्श स्क्रब न करें : ज्यादा रगड़ने वाले या मोटे दाने वाले स्क्रब से स्किन में माइक्रोटियरिंग हो सकती है, जिस से चेहरा लाल और संवेदनशील हो जाता है.

बारबार फेसवाश न करें : दिन में 2 बार से ज्यादा फेसवाश करने पर स्किन और ज्यादा ड्राई होती है.

भारी मेकअप का ज्यादा इस्तेमाल न करें : सर्दियों में मोटी लेयर वाला मेकअप पोर्स ब्लौक कर सकता है, जिस से बेजानपन और मुंहासे बढ़ते हैं.

लिपकेयर को नजरअंदाज न करें : सर्दियों में होंठ सब से जल्दी ड्राई होते हैं. लिपबाम न लगाने से होंठ फट सकते हैं और खून भी निकल सकता है.

सनस्क्रीन छोड़ने की गलती न करें : सर्दियों में धूप हलकी लगती है, लेकिन यूवी किरणें उतनी ही तेज होती हैं. सनस्क्रीन न लगाने से टैनिंग और पिगमेंटेशन बढ़ता है.

पानी कम न पीएं : सर्दियों में प्यास कम लगती है, लेकिन शरीर को उतना ही पानी चाहिए. पानी कम पीने से स्किन डल और खुरदुरी हो जाती है.

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Best Hindi Story: ऐश्वर्या नहीं चाहिए मुझे- वृद्धावस्था में पिताजी को आई अक्ल

Best Hindi Story: ‘‘उम्र उम्र की बात होती है. जवानी में जो अच्छा लगता है बुढ़ापे में अकसर अच्छा नहीं लगता. इसी को तो कहते हैं जेनरेशन गैप यानी पीढ़ी का अंतर. जब मांबाप बच्चे थे तब वे अपने मांबाप को दकियानूसी कहते थे. अब जब खुद मांबाप बन गए हैं तो दकियानूसी नहीं हैं. अब बच्चे उद्दंड और मुंहजोर हैं. मतलब चित भी मांबाप की और पट भी उन्हीं की. किस्सा यहां समाप्त होता है कि मांबाप सदा ही ठीक थे, वे चाहे आप हों चाहे हम.’’

राघव चाचा मुसकराते हुए कह रहे थे और मम्मीपापा कभी मेरा और कभी चाचा का मुंह देख रहे थे. राघव चाचा शुरू से मस्तमलंग किस्म के इनसान रहे हैं. मैं अकसर सोचा करता था और आज भी सोचता हूं, क्या चाचा का कभी किसी से झगड़ा नहीं होता? चिरपरिचित मुसकान चेहरे पर और नजर ऐसी मानो आरपार सब पढ़ ले.

‘‘इनसान इस संसार को और अपने रिश्तों को सदा अपने ही फीते से नापता है और यहीं पर वह भूल कर जाता है कि उस का फीता जरूरत के अनुसार छोटाबड़ा होता रहता है. अपनी बच्ची का रिश्ता हो रहा हो तो दहेज संबंधी सभी कानून उसे याद होंगे और अपनी बच्ची संसार की सब से सुंदर लड़की भी होगी क्योंकि वह आप की बच्ची है न.’’

‘‘तुम कहना क्या चाहते हो, राघव,’’ पिताजी बोले, ‘‘साफसाफ बात करो न.’’

‘‘साफसाफ ही तो कर रहा हूं. सोमू के रिश्ते के लिए कुछ दिन पहले एक पतिपत्नी आप के घर आए थे…’’

पिताजी ने राघव चाचा की बात बीच में काटते हुए कहा था, ‘‘आजकल सोमू के रिश्ते को ले कर कोई न कोई घर आता ही रहता है. खासकर तब से जब से मैं ने अखबार में विज्ञापन दिया है.’’

‘‘मैं अखबार की बात नहीं कर रहा हूं,’’ राघव चाचा बोले, ‘‘अखबार के जरिए जो रिश्ते आते हैं वे हमारी जानपहचान के नहीं होते. आप ने उन से क्या कहा क्या नहीं, बात बनी, नहीं बनी, किसे पता. दूर से कोई आया, आप से मिला, आप की सुनी, उसे जंची, नहीं जंची, वह चला गया, किसे पता किसे कौन नहीं जंचा. किस ने क्या कहा, किस ने क्या सुना…’’

चाचा के शब्दों पर मैं तनिक चौंक गया. मैं पापा के साथ ही उन के कामकाज मेें हाथ बटाता हूं. आजकल बड़े जोरशोर से मेरे लिए लड़की ढूंढ़ी जा रही है. घर में भी और दफ्तर में भी. कौन किस नजर से आता है, देखतासुनता है वास्तव में मुझे भी पता नहीं होता.

‘‘याद है न जब मानसी के लिए लड़का ढूंढ़ा जा रहा था तब आप की गरदन कैसी झुकी होती थी. उस का रंग सांवला है, उसी पर आप उठतेबैठते चिंता जाहिर करते थे. मैं तब भी आप को यही समझाता था कि रंग गोराकाला होने से कोई फर्क नहीं पड़ता. पूरा का पूरा अस्तित्व गरिमामय हो, उचित पहनावा हो, शालीनता हो तो कोई भी लड़की सुंदर होती है. गोरी चमड़ी का आप क्या करेंगे, जरा मुझे समझाइए. यदि लड़की में संस्कार ही न हुए तो गोरे रंग से ही क्या आप का पेट भर जाएगा? आप का सम्मान ही न करे, जो हवा में तितली की तरह उड़ती फिरे, जो जमीन से कोसों दूर हो, क्या वैसी लड़की चाहिए आप को?

‘‘अच्छा, एक बात और, आप मध्यमवर्गीय परिवार से आते हैं न, जहां दिन चढ़ते ही जरूरतों से भिड़ना पड़ता है. भाभी सारा दिन रसोई में खटती हैं और जिस दिन काम वाली न आए, उन्हें बरतन भी साफ करने पड़ते हैं. यह सोमू भी एक औसत दर्जे का लड़का है, जो पूरी तरह आप के हाथ के नीचे काम करता है. इस की अपनी कोई पहचान नहीं बनी है. आप हाथ खींच लें तो दो वक्त की रोटी भी मुश्किल से कमा सकेगा. आप का बुढ़ापा तभी सुखमय होगा जब संस्कारी बहू आ कर आप से जुड़ जाएगी. कहिए, मैं सच कह रहा हूं कि नहीं?’’

राघव चाचा ने एक बार पूछा तो मम्मीपापा आंखें फाड़फाड़ कर उन का चेहरा देख रहे थे. सच ही तो कह रहे थे चाचा. मेरी अपनी अभी कोई पहचान है कहां. वकालत पढ़ने के बाद पापा की ही तो सहायता कर रहा हूं मैं.

‘‘मेरे एक मित्र की भतीजी है जो मुझे बड़ी प्यारी लगती है. काफी समय से उन के घर मेरा आनाजाना है. वह मुझे अपनीअपनी सी लगती है. सोचा, मेरे ही घर में क्यों न आ जाए. मुझे सोमू के लिए वह लड़की उचित लगी. उस के मांबाप आप का घरद्वार देखने आए थे. मेरे साथ वे नहीं आना चाहते थे, क्योंकि अपने तरीके से वे सब कुछ देखना चाहते थे.’’

‘‘कौन थे वे और कहां से आए थे?’’

‘‘आप ने क्या कहा था उन्हें? आप को तो सुंदर लड़की चाहिए जो ‘ऐश्वर्या राय तो मैं नहीं कहता हो पर उस के आसपास तो हो,’ यही कहा था न आप ने?’’

मैं चाचा की बात सुन कर अवाक् रह गया था. क्या पापा ने उन से ऐसा कहा था? ठगे से पापा जवाब में चुप थे. इस का मतलब चाचा जो कह रहे थे सच है.

‘‘क्या आप अमिताभ बच्चन हैं और आप का बेटा अभिषेक, जिस की लंबाई 5 फुट 7 इंच’ है. आप एक आम इनसान हैं और हम और? क्या आप को ऐश्वर्या राय चाहिए? अपने घर में? क्या ऐश्वर्या राय को संभालने की हिम्मत है आप के बेटे में?… इनसान उतना ही मुंह खोले जितना पचा सके और जितनी चादर हो उतने ही पैर पसारे.’’

‘‘बस करो, राघव,’’ मां तिलमिला कर बोलीं, ‘‘क्या बकबक किए जा रहे हो.’’

‘‘बुरा लग रहा है न सुन कर? मुझे भी लगा था. मुझे सुन कर शर्म आ गई जब उन्होंने मुझ से हाथ जोड़ कर माफी मांग ली. भैया को शर्म नहीं आई अपनी भावी बहू के बारे में विचार व्यक्त करते हुए…भैया, आप किसी राह चलती लड़की पर फबती कसें तो मैं मान लूंगा क्योंकि मैं जानता हूं कि आप कैसे चरित्र के मालिक हैं. पराई लड़कियां आप की नजर में सदा ही पराई रही हैं, जिन पर आप कोई भी फिकरा कस लेते हैं, लेकिन अपनी बहू ढूंढ़ने वाला एक सम्मानजनक ससुर क्या इस तरह की बात करता है, जरा सोचिए. आप तब अपनी बहू के बारे में बात कर रहे थे या किसी फिल्म की हीरोइन के बारे में?’’

पापा ने तब कुछ नहीं कहा. माथे पर ढेर सारे बल समेटे कभी इधर देखते कभी उधर. गलत नहीं कह रहे हैं चाचा. मेरे पापा जब भी किसी की लड़की के बारे में बात करते हैं, तब उन का तरीका सम्मानजनक नहीं होता. इस उम्र में भी वे लड़कियों को पटाखा, फुलझड़ी और न जाने क्याक्या कहते हैं. मुझे अच्छा नहीं लगता पर क्या कर सकता हूं. मां को भी उन का ऐसा व्यवहार पसंद नहीं है.

‘‘अब आप बड़े हो गए हैं भैया. अपना चरित्र जरा सा बदलिए. छिछोरापन आप को नहीं जंचता. हमें स्वप्न सुंदरी नहीं, गृहलक्ष्मी चाहिए, जो हमारे घर में रचबस जाए और लड़की वालों को इतना सस्ता भी न आंको कि उन्हें आप कहीं भी फेंक देंगे. लड़की वाले भी देखते हैं कि कहां उन की बेटी की इज्जत हो पाएगी, कहां नहीं. जिस घर में ससुर ही ऐसी भाषा बोलेगा वहां बाकी सब कैसा बोलते होंगे यह सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है.’’

‘‘कौन थे वे लोग? और कहां से आए थे?’’ मां ने प्रश्न किया.

‘‘वे जहां से भी आए हों पर उन्होंने साफसाफ कह दिया है कि राघवजी, आप के भाई का परिवार बेहद सुंदर है और इतने सुंदर परिवार में हमारी लड़की कहीं भी फिट नहीं बैठ पाएगी. वह एक सामान्य रंगरूप की लड़की है जो हर कार्य और गुण में दक्ष है, लेकिन ऐश्वर्या जैसी किसी भी कोण से नहीं लगती.’’

चाचा उठ खड़े हुए. उड़ती सी नजर मुझ पर डाली, मानो मुझ से कोई राय लेना चाहते हों. क्या वास्तव में मुझे भी कोई रूपसी ही चाहिए, जिस के नखरे भी मैं शायद नहीं उठा पाऊंगा. राह चलते जो रूप की चांदी यहांवहां बिखराती रहे और मैं असुरक्षा के भाव से ही घिरा रहूं. मैं ही कहां का देवपुरुष हूं, जिसे कोई अप्सरा चाहिए. चाचा सच ही कह रहे हैं कि पापा को ऐसा नहीं कहना चाहिए था. मैं ने एकाध बार पापा को समझाया भी था तो उन्होंने मुझे बुरी तरह डांट दिया था, ‘बाप को समझा रहा है. बड़ा मुंहजोर है तू.’

मुझे याद है एक बार मानसी की एक सहेली घर आई थी. पापा ने उसे देख कर मुझ से ही पूछा था :

‘‘सोमू, यह पटाखा कौन है? इस की फिगर बड़ी अच्छी है. तुम्हारी कोई सहेली है क्या?’’

तब पहली बार मुझे बुरा लगा था. वह मानसी की सहेली थी. अगर मानसी किसी के घर जाए और उस घर के लोग उस के शरीर की बनावट को तोलें तो यह जान कर मुझे कैसा लगेगा? यहां तो मेरा बाप ही ऐसी अशोभनीय हरकत कर रहा था.

मेरे मन में एक दंश सा चुभने लगा. कल को मेरे पिता मेरी पत्नी की क्या इज्जत करेंगे? ये तो शायद उस की भी फिगर ही तोलते रहेंगे. मेरी पत्नी में इन्हें ऐश्वर्या जैसा रूप क्यों चाहिए? मैं ने तो इस बारे में कभी सोचा ही नहीं कि मेरी पत्नी कैसी होगी. मेरी बहन  का रंग सांवला है, शायद इसीलिए मुझे सांवली लड़कियां बहुत अच्छी लगती हैं.

मैंने चाचा की तरफ देखा. उन की नजरें बहुत पारखी हैं. उन्होंने जिसे मेरे लिए पसंद किया होगा वह वास्तव में अति सुंदर होगी, इतनी सुंदर कि उस से हमारा घर रोशन हो जाए. मुझे लगा कि पिता की आदत पर अब रोक नहीं लगाऊंगा तो कब लगाऊंगा. मैं ने चाचा को समझाया कि वे उन से दोबारा बात करें.

‘‘सोमू, वह अब नहीं हो पाएगा.’’

चाचा का उत्तर मुझे निरुत्तर कर गया.

‘‘अपने पिता की आदत पर अंकुश लगाओ,’’ चाचा बोले, ‘‘उम्रदराज इनसान को शालीनता से परहेज नहीं होना चाहिए. खूबसूरती की तारीफ करनी चाहिए. मगर गरिमा के साथ. एक बड़ा आदमी सुंदर लड़की को ‘प्यारी सी बच्ची’ भी तो कह सकता है न. ‘पटाखा’ या ‘फुलझड़ी’ कहना अशोभनीय लगता है.’’

चाचा तो चले गए मगर मेरी आंखों के आगे अंधेरा सा छाने लगा. ऐसा लगने लगा कि मेरा पूरा भविष्य ही अंधकार में डूब जाएगा, अगर कहीं पापा और मेरी पत्नी का रिश्ता सुखद न हुआ तो? पापा का अपमान भी मुझ से सहा नहीं जाएगा और पत्नी की गरिमा की जिम्मेदारी भी मुझ पर ही होगी. तब क्या करूंगा मैं जब पापा की जबान पर अंकुश न हुआ तो?

मां ने तो शायद यह सब सुनने की आदत बना ली है. मेरी पत्नी पापा की आदत पचा पाए, न पचा पाए कौन जाने. अभी पत्नी आई नहीं थी लेकिन उस के आने के बाद की कल्पना से ही मैं डरने लगा था.

सहसा एक दिन कुछ ऐसा हो गया जिस से हमारा सारा परिवार ही हिल गया. हमारी कालोनी से सटा एक मौल है जहां पापा एक दिन सिनेमा देखने चले गए. अकेले गए थे इसलिए हम में से किसी को भी पता नहीं था कि कहां गए हैं. शाम के 5 बजे थे. पापा खून से लथपथ घर आए. उन की सफेद कमीज खून से सनी थी. एक लड़की उन्हें संभाले उन के साथ थी. पता चला कि आदमकद शीशा उन्हें नजर ही नहीं आया था और वे उस से जा टकराए थे. नाक का मांस फट गया था जिस वजह से इतना खून बहा था. पापा को बिस्तर पर लिटा कर मां उन की देखभाल में जुट गईं और मैं उस लड़की के साथ बाहर चला आया.

‘‘ये दवाइयां इन्हें खिलाते रहें. टिटनैस का इंजेक्शन मैं ने लगवा दिया है,’’ इतना कहने के बाद उस लड़की ने अपना पर्स खोल कर दवाइयां निकालीं.

‘‘दरअसल इन का ध्यान कहीं और था. ये दूसरी ओर देख रहे थे. लगता है सुंदर चेहरे अंकल को बहुत आकर्षित करते हैं.’’

जबान जम गई थी मेरी. उस ने नजरें उठा कर मुझे देखा और बताने लगी, ‘‘माफ कीजिएगा, मैं भी उन चेहरों के साथ ही थी. जब ये टकराए तब वे चेहरे तो खिलखिला कर अंदर थिएटर में चले गए लेकिन मैं जा नहीं पाई. मेरी पिक्चर छूट गई, इस की चिंता नहीं. मेरे पिताजी की उम्र का व्यक्ति खून से सना हुआ छटपटा रहा है, यह मुझ से देखा नहीं गया.’’

दवाइयों का पुलिंदा और ढेर सारी हिदायतें मुझे दे कर वह सांवली सी लड़की चली गई. अवाक् छोड़ गई मुझे. मेरे पिता पर उस ने कितने पैसे खर्च दिए पूछने का अवसर ही नहीं दिया उस ने.

नाक की चोट थी. पूरी रात हम जागते रहे. सुबह पापा के कराहने से हमारी तंद्रा टूटी. आंखों के आसपास उभर आई सूजन की वजह से उन की आंखें खुली हैं या बंद, यह हमें पता नहीं चल रहा था.

‘‘वह बच्ची कहां गई. बेचारी कहांकहां भटकी मेरे साथ,’’ पापा का स्वर कमजोर था मगर साफ था, ‘‘बड़ी प्यारी बच्ची थी. वह कहां है?’’

पापा का स्वर पहले जैसा नहीं लगा मुझे. उस साधारण सी लड़की को वह बारबार ‘प्यारी बच्ची’ कह रहे थे. बदलेबदले से लगे मुझे पापा. यह चोट शायद उन्हें सच के दर्शन करा गई थी. सुंदर चेहरे उन पर हंस कर चले गए और साधारण चेहरा उन्हें संभाल कर घर छोड़ गया था. एक कमजोर सी आशा जागी मेरे मन में. हो सकता है अब पापा भी मेरी ही तरह कहने लगें, ‘साधारण सी लड़की चाहिए, ऐश्वर्या नहीं चाहिए मुझे.’

Best Hindi Story

Hindi Short Story: हौबी- पति की आदतों से वह क्यों परेशान थी

Hindi Short Story: मेरे पति को सदा ही किसी न किसी हौबी ने पकड़े रखा. कभी बैडमिंटन खेलना, कभी शतरंज खेलना, कभी बिजली का सामान बनाना, जो कभी काम नहीं कर सका. बागबानी में सैकड़ों लगा कर गुलाब जितनी गोभी के फूल उगाए. कभी टिकट जमा करना, कभी सिक्के जमा करना. तांबे के सिक्के सैकड़ों साल पुराने वे भी सैकड़ों रुपए में लिए जाते जो अगर तांबे के मोल भी बिक जाएं तो बड़ी बात. ये उन्हें खजाने की तरह संजोए रहते हैं. जब ये किसी हौबी में जकड़े होते हैं, तो इन को घर, बच्चे, मैं कुछ दिखाई नहीं देता. सारा समय उसी में लगे रहते हैं. खानेपीने तक की सुध नहीं रहती. औफिस जाना तो मजबूरी होती थी. अब ये रिटायर हो गए हैं तो सारा समय हौबी को ही समर्पित हैं. लगता अगर मुख्य हौबी से कुछ समय बच जाए तो ये पार्टटाइम हौबी भी शुरू कर दें.

आजकल सिक्कों की मुख्य हौबी है, जिस में सिक्कों के बारे में पढ़नालिखना और दूसरों को सिक्कों की जानकारी देना कि यह सिक्का कौन सा है, कब का है आदि. इंटरनैट पर सिक्काप्रेमियों को बताते रहते हैं. सारा दिन इंटरनैट पर लगे रहते हैं. कुछ समय बचा तो सुडोकू भरना. यहां तक कि सुडोकू टौयलेट में भी भरा जाता है और मैं टौयलेट के बाहर इंतजार करती रहती हूं कि मेरा नंबर कब आएगा. आजकल सुडोकू कुछ शांत है. अब ये एक नई हौबी की पकड़ में आ गए हैं. इन को खाना पकाने का शौक हो गया है. जीवन में पहली बार कुछ काम की हौबी ने इन को पकड़ा है. मैं ने सोचा कुछ तो लाभ होगा. बैठेबैठे पकापकाया स्वादिष्ठ भोजन मिलेगा.

इन्होंने पूरे मनोयोग से खाना पकाना शुरू किया. पहले इंटरनैट से रैसिपी पढ़ते, फिर उसे नोट करते. बाद में ढेरों कटोरियों में मसाले व अन्य सामग्री निकालते. नापतोल में कोई गड़बड़ नहीं. जैसे लिखा है सब वैसे ही होना चाहिए. हम लोगों की तरह नहीं कि यदि कोई मसाला नहीं मिला तो भी काम चला लिया. ये ठहरे परफैक्शनिस्ट अर्थात सब कुछ ठीक होना चाहिए. सो यदि डिश में इलायची डालनी है और घर में नहीं है तो तुरंत कार से इलायची लाने चले जाएंगे. 10 रुपए की इलायची और 50 रुपए का पैट्रोल.

जब सारा सामान इकट्ठा हो जाता तो बनाने की प्रक्रिया शुरू होती. शुरूशुरू में तो गरम तेल में सूखा मसाला डाल कर भूनते तो वह जल जाता. फिर उस जले मसाले की सब्जी पकती. फिर डिश सजाई जाती. फिर फोटो खींच कर फेसबुक पर डाला जाता. फेसबुक पर फोटो देख कर लोग वाहवाह करते, पर जले मसाले की सब्जी खानी तो मुझे पड़ती. मैं क्या कहूं? सोचा बुरा कहा तो इन का दिल टूट जाएगा. सो पानी से गटक कर ‘बढि़या है’ कह देती. इन का हौसला बढ़ जाता. ये और मेहनत से नएनए व्यंजन पकाते. कभी सब्जी में मिर्च इतनी कि 2 गिलास पानी से भी कम न होती. कभी साग में नमक इतना कि बराबर करने के लिए मुझे उस में चावल डाल कर सगभत्ता बनाना पड़ता. किचन ऐसा बिखेर देते कि समेटतेसमेटते मैं थक जाती. बरतन इतने गंदे करते कि कामवाली धोतेधोते थक जाती. डर लगता कहीं काम न छोड़ दे.

मेरी सहनशीलता तो देखिए, सब नुकसान सह कर भी इन की तारीफ करती रही. इस आशा में कि कभी तो ये सीख जाएंगे और मेरे अच्छे दिन आएंगे. सच ही इन की पाककला निखरने लगी और हमारी किचन भी संवरने लगी. विभिन्न प्रकार के उपयोग में आने वाले बरतन, कलछियां, प्याज काटने वाला, आलू छीलने वाला, आलू मसलने वाला सारे औजारहथियार आ गए. चाकुओं में धार कराई गई. पहले इन सब चीजों की ओर कभी ये ध्यान ही नहीं देते थे. अब ये इतने परफैक्ट हो गए कि नैट पर विभिन्न रैसिपियां देखते, फिर अपने हिसाब से उन में सब मसाले डालते और स्वादिष्ठ व्यंजन बनाते.

अब देखिए मजा. कभी कुम्हड़े का हलवा बनता तो कभी गाजर का, जिस में खूब घी, मावा और सारे महीने का मेवा झोंक दिया जाता. हम दोनों कोलैस्ट्रौल के रोगी और घर में खाने वाले भी हम दोनों ही. अब इतना मेवामसाला पड़ा हलवा कोई फेंक तो देगा नहीं. सो खूब चाटचाट कर खाया. अब उन सब्जियों को भी खाने लगे, जिन्हें पहले कभी मुंह नहीं लगाते थे. एक से एक स्वादिष्ठ व्यंजन खूब घी, तेल, मेवा, चीनी में लिपटे व्यंजन. मेरे भाग्य ही खुल गए. इन की इस हौबी से बैठेबैठे एक से एक व्यंजन खाने को मिलने लगे. इतना अच्छा खाना खाने के बाद तबीयत कुछ भारी रहने लगी. डाक्टर को दिखाया तो पता चला कोलैस्ट्रौल लैबल बहुत बढ़ गया है. डाक्टर की फीस, खून जांच, दवा सब मिला कर कई हजार की चपत बैठी. घीतेल, अच्छा खाना सब बंद हो गया. अब उबला खाना खाना पड़ रहा है. अब बताइए इन की हौबी मेरे लिए मजा है या सजा?

Hindi Short Story

Best Social Story: देवदासी- एक प्रथा जिसने छीन लिया सिंदूर

Best Social Story: मेरा नाम कुरंगी है और मेरी मां ही नहीं, मेरी दादी -परदादी भी देवदासी थीं. शायद लकड़दादी भी. खैर, मां ने वैसे विधिवत ब्याह कर लिया था. लेकिन जब उन के पहली संतान हुई तो उसे तीव्र ज्वर हुआ और उस ज्वर में उस बच्चे की आंखें जाती रहीं. उस के बाद एक और संतान हुई. उसे भी तीव्र ज्वर हुआ और उस तीव्र ज्वर में उस की टांगें बेकार हो गईं और वह अपाहिज हो गया.

बस, फिर क्या था. लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि यह देवताओं का प्रकोप है. अगर हम देवदासियों ने देवता की चरणवंदना छोड़ दी तो हमारा अमंगल होगा. इसलिए जब मैं होने वाली थी तब मां ने मन्नत मानी थी कि अगर मुझे कुछ नहीं हुआ तो वह फिर से देवदासी बन जाएंगी.

पैदा होने के बाद मुझे दोनों भाइयों की तरह तीव्र ज्वर नहीं हुआ. मां इसे दैव अनुकंपा समझ कर महाकाल के मंदिर में फिर से देवदासी बन गईं. मां बताती हैं, पिताजी ने उन्हें बहुत समझाया, लेकिन उन्होंने एक न सुनी और मुझे ले कर महाकाल के मंदिर में आ गईं.

मंदिर के विशाल क्षेत्र में हमें एक छोटा सा मकान मिल गया. हमारे मकान के सामने कच्चे आंगन में जूही का एक मंडप था और तुलसी का चौरा भी. रोज शाम को मां तुलसी के चौरे पर अगरबत्ती, धूप, दीप जला कर आरती करती थीं और मुंदे नयनों से ‘शुभं करोति कल्याणं’ का सस्वर पाठ करती थीं. झिलमिल जलते दीप के मंदमंद प्रकाश में मां का चेहरा देदीप्यमान हो उठता था और मुझे बड़ा भला लगता था.

जब मैं छोटी थी तब मैं मां के साथ मंदिर में जाती थी. जब मां नृत्य करने के लिए नृत्य मुद्रा में खड़ी होतीं तो मैं गर्भगृह में लटकते दीवटों को एकटक निहारती रहती थी और सोचती रहती थी कि गर्भगृह में सदा इतना अंधेरा क्यों रहता है. कहीं यह ईश्वर रूपी महती शक्ति को अंधेरे में रख कर लोगों को किन्हीं दूसरे माध्यमों से भरमाने का पाखंड मात्र तो नहीं?

ऐसा लगता जैसे देवदासियों का यह नृत्य ईश्वर की आराधना के नाम पर अपनी दमित वासनाओं को तृप्त करने का आयोजन हो. वरना देवालय जैसे पवित्र स्थान पर ऐसे नृत्यों का क्या प्रयोजन है, जिन में कामुकतापूर्ण हावभाव ही प्रदर्शित किए जाते हों.

देवस्थान के अहाते में बैठे दर्शनार्थियों की आंखें सिर्फ देवदासियों के हर अंगसंचालन और भावभंगिमाओं पर मंडराती रहतीं. पहले तो मुझे ऐसा लगता था जैसे ईश्वर आराधना के बहाने वहां आने वाले युवकों द्वारा मां का बड़ा मानसम्मान हो रहा है. हर कोई उस के नृत्य की सराहना कर रहा है.

लेकिन यह भ्रम बड़ा होने पर टूट गया और यह पता लगते देर नहीं लगी कि नृत्य  की सराहना एक बहाना मात्र है. वे तो रूप के सौदागर हैं और नृत्य की प्रशंसा के बहाने वे लोग इन नर्तकियों से शारीरिक संबंध स्थापित करना चाहते हैं. तब मुझे लगा कि इन देवदासियों के जीविकोपार्जन का अन्य कोई साधन भी तो नहीं.

मुझे लगा, कहीं मुझे भी इस वासनापूर्ण जीवन से समझौता न करना पड़े. फिर लगा, स्वयं को दूसरों को समर्पित किए बगैर उस मंदिर में रहना असंभव है. मेरी सहेलियां भी धन के लोभ में खुल्लमखुल्ला यही अनैतिक जीवन तो बिता रही हैं और मुझ पर भी ऐसा करने के लिए दबाव डाल रही हैं.

वैसे मैं बचपन से ही मंदिर में झाड़नेबुहारने, गोबर से लीपापोती करने, दीयाबाती जलाने, कालीन बिछाने, पालकी के पीछेपीछे चलने, त्योहारों, मेलों में वंदनवार सजाने और प्रसाद बनाने का काम करती थी.

दूरदूर से जो साधुसंत या दर्शनार्थी आते हैं, उन  के बरतन मांजने, कपड़े धोने, उन को मंदिर में घुमा लाने, उन के लिए बाजार से सौदा लाने का काम भी मैं ही किया करती थी. कभीकभी किसी का कामुकतापूर्ण दृष्टि से ताकना या कुछ लेनदेन के बहाने मुझे छू लेना बेहद अखरने लगता था. कभीकभी वे छोटे से काम के लिए देर तक उलझाए रखते.

मुझे अपना भविष्य अंधकारमय लगता. कोई राह सुझाई न देती. मां की राह पर चलना बड़ा ही घृणास्पद लगता था और न भी चलूं तो इस बात की आशंका घेरे रहती थी कि कहीं मुझे भी देवताओं का कोपभाजन न बनना पड़े.

दिन तो जैसेतैसे बीत जाता था पर सांझ होते ही जी घबराने लगता था और मन में तरहतरह की आशंकाएं उठने लगती थीं. मां तो मंदिर में नृत्य करने चली जाती थीं या अपने किसी कृपापात्र को प्रसन्न करने और मैं अकेली जूही के गजरे बनाया करती थी.

उस दिन भी मैं गजरा बना रही थी. मैं अपने काम में इतनी मग्न थी कि मुझे इस बात का पता ही नहीं चला कि कोई मेरे सामने आ कर मेरी इस कला को एकटक निहार रहा है.

चौड़े पुष्ट कंधों वाला, काफी लंबा, गौरवर्ण, बड़ीबड़ी आंखें, काली घनी मूंछें, गुलाबी मोटे होंठ, ठुड्डी में गड्ढे, घने काले बाल. ऐसा बांका सजीला युवक मैं ने पहली बार देखा था. मेरी तो आंखें ही चौंधिया गईं, जी चाहा बस, देखती ही रहूं उस की मनमोहक सूरत.

‘‘आप गजरा अच्छा बना लेती हैं.’’

मैं उस की ओजस्वी आवाज पर मुग्ध हो उठी. हवा को चीरती सी ऐसी मरदानी आवाज मैं ने पहले कभी नहीं सुनी थी.

‘‘आप लगाते हैं?’’

‘‘मैं,’’ वह खिलखिला कर हंस पड़ा. उस की उज्ज्वल दंतपंक्ति चमक उठी. फिर एक क्षण रुक कर वह बोला, ‘‘गजरा तो स्त्रियां लगाती हैं.’’

तभी एक युवक अपने दाएं हाथ में गजरा लपेटे घूमता हुआ आता दिखाई दिया. मैं ने कहा, ‘‘देखिए, पुरुष भी लगाते हैं.’’

‘‘लगाते होंगे लेकिन मुझे तो स्त्रियों को लगाना अच्छा लगता है.’’

‘‘आप लगाएंगे?’’ इतना कहते हुए मुझे लज्जा आ गई और मैं अपने मकान की तरफ भागने लगी.

‘‘अरे, आप गजरा नहीं लगवाएंगी?’’ वह युवक पूछता रह गया और मैं भाग आई.

मेरा हृदय तीव्र गति से धड़कने लगा. यह क्या कर दिया मैं ने? कहीं मैं अपनी औकात तो नहीं भूल गई?

अगले दिन और उस के अगले दिन भी मैं उस युवक से बचती रही. वह मुचुकुंद की छाया में खड़ा रहा. फिर अपने घोड़े पर सवार हो कर चला गया. तीसरे दिन वह नहीं आया और मैं ड्योढ़ी में खड़ी उस की प्रतीक्षा करती रही. चौथे दिन भी वह नहीं आया और मैं उदास हो उठी.

सोचने लगी, क्या मैं उस के मोहजाल में फंसी जा रही हूं? मैं क्यों उस युवक की प्रतीक्षा कर रही हूं? वह मेरा कौन लगता है? लगा, हवा के विरज झोंकों से जिस तरह वृक्ष झूमने लगते हैं और आकाश में चंद्रमा को देख कर कुमुदिनी खिलने लगती है, उसी तरह उस के मुखचंद्र को देख कर मैं प्रफुल्ल हो उठी थी और उस की निकटता पा कर झूमने लगी थी.

एक दिन मैं उसी के विचारों में खोई हुई थी कि उस ने पीछे से आ कर मेरे सिर के बालों में गजरा लगा दिया. इस विचार मात्र से कि उस युवक ने मेरे बालों में गजरा लगाया है मेरे मन में कलोल सी फूटने लगी. फिर न जाने क्यों आशंकित हो उठी. गजरा लगाने का अर्थ है विवाह. क्या मैं उस से विवाह कर सकूंगी? फिर देवताओं का कोप?

‘‘नहीं…नहीं, मैं तुम्हारी नहीं हो सकती,’’ और मैं पीपल के पत्ते की तरह कांपने लगी.

उस युवक ने मुझे झिंझोड़ कर पूछा, ‘‘क्यों? आखिर क्यों?’’

‘‘मैं देवदासी की कन्या हूं.’’

‘‘मैं जानता हूं.’’

‘‘मैं भी देवदासी ही बनूंगी.’’

‘‘सो भला क्यों?’’

‘‘यही परंपरा है.’’

‘‘मैं इन सड़ीगली परंपराओं को नहीं मानता.’’

‘‘न…न, ऐसा मत कहिए. मां ने भी ऐसा ही दुस्साहस किया था,’’ और मैं ने उसे मां और अपने अपाहिज भाइयों के बारे में सबकुछ बता दिया.

‘‘यह तुम्हारा भ्रम है. ऐसा कुछ नहीं होगा. मैं तुम से विवाह करूंगा.’’

‘‘मां नहीं मानेंगी.’’

‘‘अपनी मां के पास ले चलो मुझे.’’

‘‘मैं आप का नाम भी नहीं जानती.’’

‘‘मेरा नाम इंद्राग्निमित्र है. मैं महासेनानी पुष्यमित्र का अमात्य हूं.’’

‘‘आप तो उच्च कुलोत्पन्न ब्राह्मण हैं और मैं एक क्षुद्र दासी. नहीं…नहीं, आप ब्राह्मण तो देवता के समान हैं और मैं तो देवदासी हूं. देवताओं की दासी बन कर ही रहना है मुझे.’’

‘‘क्या फर्क पड़ता है अगर तुम उस प्रस्तर प्रतिमा की दासी न बन कर मेरी ही दासी बन जाओ.’’

उस का अकाट्य तर्क सुन कर मैं चुप हो गई. लेकिन मेरी मां कैसे चुप्पी साध लेतीं?

जब इंद्राग्निमित्र ने मां के सामने मेरे साथ विवाह का प्रस्ताव रखा तो वह बोलीं, ‘‘न…न, गाज गिरेगी हम पर अगर हम यह अधर्म करेंगे. पहले ही हम ने कम कष्ट नहीं झेले हैं. 2-2 बच्चों को अपनी आंखों के सामने अपाहिज होते देखा है मैं ने.’’

‘‘ऐसा कुछ नहीं होगा. लीक पीटना मनुष्य का नहीं पशुओं का काम है, क्योंकि उन में तार्किक बुद्धि नहीं होती,’’ इंद्राग्निमित्र ने कहा.

बहुत कहने पर भी मां न…न करती रहीं. आखिर इंद्राग्निमित्र चला गया और मैं ठगी सी खड़ी देखती रही.

अगले 2 दिनों तक इंद्राग्निमित्र का कोई संदेश नहीं आया.

तीसरे दिन एक अश्वारोही महासेनानी पुष्यमित्र का आदेश ले आया. मां को मेरे साथ महासेनानी पुष्यमित्र के सामने उपस्थित होने को कहा गया था.

इतना सुनते ही मां के हाथपांव कांपने लगे. इंद्राग्निमित्र की अवज्ञा करने पर महासेनानी उसे दंड तो नहीं देंगे? वह शुंग राज्य का अमात्य है. चाहता तो जबरन उठा ले जा सकता था. लेकिन नहीं, उस ने मां से सामाजिक प्रथा के अनुसार मेरा हाथ मांगा था और मां ने इनकार कर दिया था.

महासेनानी पुष्यमित्र का तेजस्वी चेहरा देख कर और ओजस्वी वाणी सुन कर मां गद्गद हो उठीं.

कुशलक्षेम के बाद महासेनानी ने सिर्फ इतना ही कहा, ‘‘जानती हो, मेरी बहू इरावती और अग्निमित्र की पहली पत्नी देवदासी थी?’’

तर्क अकाट्य था और मां मान गईं. इंद्राग्निमित्र के साथ मेरा विवाह हो गया. मां भी मेरे साथ मेरे महल में आ कर रहने लगीं…जब मुझे 2 माह चढ़ गए तो मां की आशंकाएं बढ़ने लगीं और वह इस विचारमात्र से कांपने लगीं कि कहीं मेरी संतान भी दैव प्रकोप से अपाहिज न हो जाए.

लेकिन मां की शंका निर्मूल सिद्ध हुई. मेरे एक स्वस्थ कन्या पैदा हुई.

हमारे प्रासाद में जाने कितने नौकरचाकर थे. उन सब के नाम मां को याद नहीं रहते थे और मां एक के बदले दूसरे को पुकार बैठती थीं. फिर कहतीं, ‘‘जब मेरी ही यह हालत है तो उस ईश्वर की क्या हालत होगी? अरबोंखरबों जीवों का वह कैसे हिसाबकिताब रखता होगा?’’

कहीं यह कोरी गप तो नहीं कि परंपरा से हट कर चलने से वह श्राप दे देता है? आखिर ये परंपराएं किस ने चलाई हैं? हम लोगों ने ही तो. ये मंदिर हम ने बनवाए. यह देवदासी प्रथा भी हम ने ही प्रचलित की.

इन्हीं दिनों बौद्ध भिक्षु आचार्य सोणगुप्त बोधगया से पधारे. इंद्राग्निमित्र उन्हें अपना अतिथि बना कर अपने प्रासाद में ले आए.

मैं अचंभे में पड़ गई. बाद में पता चला कि सोणगुप्त इंद्राग्निमित्र के सहपाठी ही नहीं अंतरंग मित्र भी रहे हैं. लेकिन इंद्राग्निमित्र को राजनीति में दिलचस्पी थी और सोणगुप्त को बौद्ध धर्म में. इसलिए इंद्राग्निमित्र अमात्य बन गए और सोणगुप्त बौद्ध भिक्षु.

वर्षों बाद मिले मित्र पहले तो अपने विगत जीवन की बातें करते रहे, फिर धर्म और राजनीति पर चर्चा

करने लगे.

इंद्राग्निमित्र बोले, ‘‘राज्य व्यवस्था धर्म के बल पर नहीं चलनी चाहिए. राजनीति सार्वजनिक है और धर्म वैयक्तिक. एक भावना से संबंध रखता है तो दूसरा कार्यकारण से. इसलिए मैं राज्य व्यवस्था में धर्म का हस्तक्षेप गलत मानता हूं.’’

‘‘तो फिर राज्य व्यवस्था को भी धर्म में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए.’’

‘‘नहीं, देवदासी प्रथा हिंदू धर्म पर कोढ़ है और मैं समझता हूं राज्य की तरफ से इस पर प्रतिबंध लगना चाहिए.’’

‘‘हिंदू धर्म के लिए तुम जो करना चाहते हो सो तो करोगे ही. अब लगेहाथ बौद्ध धर्म के लिए भी कुछ कर दो.’’

‘‘आज्ञा करो, मित्र.’’

‘‘मित्र, बोधगया में हम एक और विहार की जरूरत महसूस कर रहे हैं. प्रस्तुत विहार में इतने बौद्ध भिक्षु- भिक्षुणियां एकत्र हैं कि चौंतरे और वृक्ष तले सुलाना पड़ रहा है. अभी तो खैर वे खुले में सो लेंगे लेकिन वर्षा ऋतु में क्या होगा, इसी बात की चिंता सता रही है. अगर तुम एक और विहार बनवा दो तो बहुत सारे बौद्ध भिक्षुभिक्षुणियों के आवास की समस्या हल हो जाएगी.’’

‘‘बस, इतना ही? तुम निश्चिंत रहो. मैं थोड़े दिनों के बाद बोधगया आ कर इस का समुचित प्रबंध कर दूंगा.’’

सोणगुप्त आश्वस्त हो कर लौट गए.

इंद्राग्निमित्र देवदासी प्रथा को समाप्त करने के लिए व्यग्र हो उठे. इस प्रथा का अंत कैसे हो? क्यों न इस प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया जाए और राज्य भर में घोषणा कर दी जाए. यह निश्चय कर के वह महासेनानी पुष्यमित्र के पास गए.

‘‘महासेनानी, देवदासियों की वजह से मंदिर व्यभिचार और अनाचार के गढ़ बन गए हैं. और मैं चाहता हूं कि इस प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया जाए.’’

‘‘विचार तो बुरा नहीं, लेकिन इस पर प्रतिबंध लगाने पर काफी विरोध होने की आशंका है. अगर तुम डट कर इस विरोध का प्रतिरोध कर सको तो मुझे कोई आपत्ति नहीं.’’

इंद्राग्निमित्र ने राज्य की तरफ से देवदासी प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया. प्रतिबंध लगते ही इंद्राग्निमित्र की आलोचना होने लगी.

‘‘थू,’’ मंदिर की एक देवदासी ने पान की पीक इंद्राग्निमित्र के मुंह पर थूक दी.

इंद्राग्निमित्र अपमान की ग्लानि से भर उठे. फिर भी वह अपने विचार पर अडिग रहे. अगले दिन रथयात्रा थी और रथ के आगेआगे देवदासियां नृत्य करती हुई चलने वाली थीं. इंद्राग्निमित्र अपने दलबल के साथ वहां पहुंच गए.

लोग तरहतरह की बातें करने लगे. ‘‘बड़ा आया समाज सुधार करने वाला. देवदासी का उन्मूलन करने वाला…अरे, एक देवदासी को घर बसा लिया तो क्या हुआ? किसकिस का घर बसाएगा? धार्मिक मामलों में दखल देने वाला यह कौन होता है?’’

रथ को तरहतरह के फूलों से सजा कर सब दीयों को जला दिया गया. रथ के आगे ढोल बजाने वाले आ कर खड़े हो गए. उन्हें घेरे असंख्य नरनारी आबालवृद्ध एकत्र हो गए. पालकी के पास चोबदार खड़े थे और कौशेय में लिपटे पुजारी. पालकी के दोनों ओर सोलह शृंगार किए देवदासियां नृत्य मुद्रा में खड़ी हो गईं.

इस से पहले कि वे नृत्य आरंभ करतीं अपने घोड़े पर सवार इंद्राग्निमित्र वहां आ गए और बोले, ‘‘रोको. ये नृत्य नहीं कर सकतीं. देवदासियों पर प्रतिबंध लग चुका है.’’

हिंदू धर्म में प्रगाढ़ आस्था रखने वाले उबल पड़े. कुछेक प्रगतिशील विचारों वाले युवकों ने उन का विरोध किया. दर्शनार्थी 2 दलों में बंट गए और दोनों में मुठभेड़ हो गई. पहले तो मुंह से एकदूसरे पर वार करते रहे. जिस के हाथ में जो आया उठा कर फेंकने लगा, पत्थर, ईंट, गोबर.

जुलूस में भगदड़ मच गई. इंद्राग्निमित्र  भ्रमित. यह क्या हो गया. वह दोनों गुटों को समझाने लगे लेकिन कोई नहीं माना. तभी उन्होंने अपने वीरों को छड़ी का उपयोग कर के भीड़ को नियंत्रित करने का आदेश दिया. क्रोधोन्मत्त भीड़ भागने लगी. तभी किसी ने इंद्राग्निमित्र की तरफ भाले का वार किया और वह अपनी छाती थाम कर कराहते हुए वहीं ढेर हो गए.

मेरी मांग सूनी हो गई और मैं विधवा हो गई. अब मेरे आगे एक लंबा जीवन था और था एकाकीपन. महल के जिस कोने में जाती इंद्राग्निमित्र से जुड़ी यादें सताने लगतीं. जीवन अर्थहीन सा लगता.

संवेदना प्रकट करने वालों का तांता लगा रहता. इसी बीच सोणगुप्त आया और संवेदना प्रकट करने लगा. तभी याद आया इंद्राग्निमित्र ने सोणगुप्त से विहार बनवाने की प्रतिज्ञा की थी. मैं उस के साथ बोधगया चली गई.

देवदासी प्रथा का क्या हुआ, यह तो मैं नहीं जानती लेकिन इतना जानती हूं कि प्रथाओं और परंपराओं का इतनी जल्दी अंत नहीं होगा. मैं तो इस बात को ले कर आश्वस्त हूं कि मैं ने और मेरे पति ने अपनी तरफ से इसे मिटाने का भरसक प्रयत्न किया.

मगर हर कोई अपनीअपनी तरफ से प्रयत्न करे तो ये गलत प्रथाएं और परंपराएं अवश्य ही किसी दिन मिट कर रहेंगी.

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Drama Story: वह बुरी नहीं थी- ईशा की लिखी चिट्ठी जब आयशा को मिली

Drama Story: अपने अपार्टमैंट के फोर्थ फ्लोर की गैलरी में बारिश में भीगती खड़ी आयशा के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे. ऐसा लग रहा था जैसे उस की आंखों से गिरते आंसू ही बारिश बन कर बरस रहे हैं और आज पूरे शहर को बहा ले जाएंगे. इस से पहले तो पुणे में ऐसी बारिश कभी नहीं हुई थी.

तभी आयशा का फोन बजा, लेकिन वह अपनेआप में कुछ इस तरह खोई हुई थी कि उसे फोन की रिंग सुनाई ही नहीं दी. उस ने कभी सोचा भी नहीं था कि उसे इतनी जल्दी यह दिन देखना पड़ेगा. वह जानती थी ईशा उस का साथ छोड़ देगी, लेकिन इतनी जल्दी यह नहीं सोचा था. ईशा को तो अपना प्रौमिस तक याद नहीं रहा. उस ने कहा था जब तक वह मौसी नहीं बन जाती वह कहीं नहीं जाएगी. लेकिन वह अपना वादा तोड़ कर यों उसे अकेला, तनहा छोड़ कर चली गई. क्या यही थी उस की दोस्ती?

तभी मोबाइल दोबारा बजा और निरंतर बजता ही रहा. तब जा कर आयशा का ध्यान उस ओर गया और उस ने फोन उठाया.

फोन ईशा की छोटी बहन इषिता का था. फोन उठाते ही इषिता बोली, ‘‘दीदी, आज रात

ही हम नागपुर लौट रहे हैं. दीदी का सामान पैक करते हुए दीदी की अलमीरा से हमें आप के

नाम का एक बंद लिफाफा मिला है, उस में

शायद कोई चिट्ठी है. आप चिट्ठी लेने आएंगी

या फिर औफिस से लौटते हुए जीजाजी कलैक्ट कर लेंगे?’’

यह सुनते ही आयशा बोली, ‘‘नहीं… नहीं… मैं अभी आती हूं.’’

‘‘लेकिन दीदी अभी तो तेज बारिश हो

रही है. आप कैसे आएंगी?’’ इषिता शंका जताते हुए बोली.

‘‘तुम चिंता मत करो, मेरे यहां से वहां की दूरी महज 10 मिनट की है,’’ कह कर आयशा ने फोन रख दिया और बिना छाता लिए भागती हुई ईशा के घर की तरफ दौड़ी.

आज यह 10 मिनट का फासला तय

करना आयशा के लिए काफी लंबा लग रहा था. उसे लग रहा था जैसे उस के कदम आगे बढ़

ही नहीं रहे हैं. रोज तो वह औफिस आतेजाते

ईशा से मिलते हुए जाती थी और पिछले 1 साल से तो वह लगभग रोज ही ईशा से मिलने जाने लगी थी. जब से उसे इस बात की खबर लगी

थी कि ईशा को कैंसर है, तब तो उसे कभी ईशा के घर की दूरी इतनी लंबी नहीं लगी फिर आज क्यों लग रही है. शायद इसलिए कि आज दरवाजे पर मुसकराती हुई उसे ईशा नहीं मिलेगी.

जब से आयशा ने होश संभाला है तब से ईशा और वह फ्रैंड्स हैं. दोनों नागपुर में एक ही सोसाइटी में रहते थे और दोनों का घर भी अगलबगल ही था. था क्या अब भी है. जब आयशा करीब 7 साल की थी, तब ईशा अपनी मम्मी और छोटी बहन इषिता के साथ इस सोसाइटी में शिफ्ट हुई थी. ईशा की मम्मी तलाकशुदा और वर्किंग लेडी थी इसलिए ईशा और इषिता का ज्यादातर समय आयशा के ही घर बीतता था.

आयशा और ईशा हमउम्र थे इसलिए दोनों के बीच बहुत जल्दी गहरी दोस्ती हो गई. बचपन से ही ईशा बहुत खूबसूरत थी. गोरा रंग, काले घने बाल, नीलीनीली आंखें. उस की आंखें बेहद आकर्षक थीं. जो भी उसे देखता उस की सुंदर आंखों की तारीफ किए बिना नहीं रह पाता. वहीं आयशा साधारण नैननक्श की और सांवली थी.

बेसुध सी पूरी तरह से भीगी आयशा ईशा के फ्लैट पहुंची तो उसे इस हाल में देख ईशा की मम्मी और बहन हैरान रह गए. ईशा की मम्मी सामान पैक करना छोड़ दौड़ कर आयशा के करीब आ कर बोलीं, ‘‘यह क्या है आयशा बेटा. हम सब जानते थे न ईशा को जाना ही है फिर

सच को स्वीकारने में तुम्हें इतनी तकलीफ क्यों हो रही है?

आयशा इस बात का कोई जवाब दिए बगैर ईशा की मम्मी से लिपट फूटफूट कर रो पड़ी. तभी इषिता वह लिफाफा ले कर आ गई और आयशा की ओर बढ़ाती हुई बोली, ‘‘दीदी यह लो.’’

आयशा लिफाफा ले कर चुपचाप घर लौट गई. बारिश भी अब थम चुकी थी. घर लौटते वक्त आयशा के मन में इस लिफाफे को ले कर एक बेचैनी सी उठ रही थी. आयशा को अपनी और ईशा की हर छोटीछोटी बात याद आने लगी थी.

आयशा आज भी नहीं भूली है जब कोई ईशा की सुंदरता की तारीफ करता तो उसे कभी इस बात का बुरा नहीं लगता था, लेकिन यदि कोई आयशा की तारीफ करता तो ईशा फौरन चिढ़ जाती और घंटों आयशा से मुंह फुलाए बैठी रहती. आयशा उसे मनाती, उस का होमवर्क भी कंप्लीट कर देती तब कहीं जा कर वह मानती.

आयशा और ईशा दोनों एक ही क्लास में थे इसलिए जब भी क्लास में होमवर्क ज्यादा मिलता ईशा कोई न कोई बहाना बना कर आयशा से नाराज होने का ढोंग करती ताकि वह उस का भी होमवर्क कर दे. आयशा यह बात जानते हुए कि ईशा अपना होमवर्क कंप्लीट कराने के लिए यह सब स्वांग रच रही है, उस का होमवर्क बिना कुछ कहे कंप्लीट कर देती और फिर ईशा आयशा को गले लगा लेती.

सभी को ईशा की सुंदरता और आयशा का सौम्य स्वभाव भाता. समय अपनी गति से चल रहा था और वक्त के साथसाथ ईशा की खूबसूरती और ज्यादा मादक होती जा रही थी. ईशा को अपनी खूबसूरती पर गुमान था. आयशा सांवली अवश्य थी, लेकिन एक आकर्षक व्यक्तित्व की स्वामिनी थी.

ईशा की खूबसूरती के सभी दीवाने थे, लेकिन जहां पढ़ाई या कुशल व्यवहार की बात आती आयशा बाजी मार जाती. लेकिन इन सब के वाबजूद दोनों में पक्की दोस्ती थी इसलिए दोनों ने हाई स्कूल पासआउट होने के बाद एक ही इंजीनियरिंग कालेज में एडमिशन ले लिया, जहां उन की मुलाकात क्षितिज से हुई जो उन्हीं की आईटी ब्रांच का सीनियर स्टूडैंट था और कालेज का सब से ज्यादा हैंडसम, डैसिंग, स्मार्ट और इंटैलिजैंट लड़का था जिस पर कालेज की सभी लड़कियां मरती थीं, लेकिन वह लड़का मरमिटा आयशा पर.

आयशा ने तो कभी सपने में भी नहीं सोचा था उस के जैसी साधारण सी दिखने वाली लड़की पर कभी कोई इतना हैंडसम लड़का मरमिटने को तैयार होगा.

लेकिन जब ईशा क्षितिज का पैगाम ले कर आई तो आयशा को उस लैटर पर, ईशा पर और खुद पर यकीन ही नहीं हो रहा था. ऐसा लग रहा था जैसे उस लैटर का 1-1 शब्द ईशा का है बस लिखावट किसी और की है.

आयशा यह सब सोचती घर पहुंच गई. वह अपने पति के आने से पहले इस लैटर को इत्मीनान से अकेले में पढ़ना चाहती थी क्योंकि उस की सास को ईशा पसंद नहीं थी. इस वजह से उस के पति भी ईशा से थोड़ी दूरी बना कर रखते थे. लेकिन उसे कभी ईशा से मिलने, उस के घर जाने या दोस्ती समाप्त करने को नहीं कहा इसलिए दोनों की दोस्ती पहले जैसी ही चलती रही.

लिफाफा खोलते हुए आयशा के हाथ कांपने लगे. उस ने जैसे ही

लिफाफा खोल कर चिट्ठी निकाली उस में से मंगलसूत्र गिरा. आयशा हैरान रह गई. आयशा के इतना मनाने और कहने के बावजूद ईशा ने तो शादी करने से मना कर दिया था फिर यह मंगलसूत्र उस ने क्यों खरीदा था? उस ने फौरन उस मंगलसूत्र को उठा लिया और गौर से देखने लगी. यह मंगलसूत्र बिलकुल वैसा ही था जैसा शादी के बाद पहली रात को उस के पति ने उसे उपहारस्वरूप दिया था. आयशा सोच में पड़ गई और उस के अंदर एक अजीब सी हलचल मचने लगी.

आयशा ने फौरन चिट्ठी खोली और पढ़ने लगी. उस में लिखा था, ‘‘डियर आयशा…

‘‘कभी सोचा न था कि मु?ो तुम्हें यह सब लिखना पड़ेगा, लेकिन अगर तुम्हें सचाई बताए बगैर मैं तुम्हारी दुनिया से यों चली जाती तो शायद मैं अपनेआप को कभी माफ नहीं कर पाती. मेरे मन को कभी सुकून नहीं मिलता. जब तुम यह लैटर पढ़ रही होगी मैं इस दुनिया और तुम सब से बहुत दूर जा चुकी होऊंगी.

‘‘मैं तुम्हारी गुनहगार हूं. तुम हमेशा मेरी सच्ची सखी रही पर मैं कभी तुम्हारी सच्ची सहेली नहीं बन पाई.’’

यह सब पढ़ कर आयशा के माथे पर पसीने की बूंदें और शिकन की लकीरें खिंच गईं. ये सब बेकार की बातें ईशा ने क्यों लिखी हैं? वह एक बहुत ही अच्छी और सच्ची दोस्त थी. उस ने ही तो उसे यकीन दिलाया था कि क्षितिज उस से बेहद प्यार करता है वरना हाथ में क्षितिज का लव लैटर होने के बावजूद वह

यह मानने को कहां तैयार थी कि क्षितिज उस से प्यार करता है. वह खुद भी कहां जान पाई थी कि वह क्षितिज से प्यार करती है. इस बात का एहसास भी तो ईशा ने ही उसे कराया था. लेकिन आगे पढ़ते ही उस का यह भ्रम टूट गया. आगे लिखा था-

‘‘आयशा, तुझे यह जान कर बहुत दुख

होगा और मुझ पर गुस्सा भी आएगा कि क्षितिज तुझ से कभी प्यार नहीं करता था. उस दिन जो लैटर मैं ने तुझे ला कर दिया था वह क्षितिज ने जरूर लिखा था, लेकिन तेरा वह शक

बिलकुल सही था, उस लैटर का 1-1 शब्द

मेरा था.’’

यह पढ़ते ही आयशा की आंखें झिलमिला गईं कि इतना बड़ा झूठ, इतना बड़ा विश्वासघात. ईशा और क्षितिज इतने सालों से उस की भावनाओं के साथ खेल रहे थे. आखिर क्यों?

जैसेजैसे आयशा लैटर पढ़ती जा रही थी वैसेवैसे उसे अपने सवालों के जवाब के साथसाथ ईशा और क्षितिज की सचाई सामने आती जा रही थी और उस की आंखों से झूठ का परदा उठता जा रहा था.

आगे लिखा था, ‘‘तुम जानना चाहती होगी कि जब क्षितिज तुम से प्यार नहीं करता था तो उस ने तुम्हें लव लैटर क्यों लिखा? उस ने तुम्हें लैटर इसलिए लिखा क्योंकि वह चाहता था कि तुम उसे प्यार करने लगो और ऐसा ही हुआ. तुम उस से प्यार करने लगी और मैं यह जानते हुए कि क्षितिज तुम से प्यार नहीं करता, मैं ने तुम्हें यह यकीन दिला दिया कि वह तुम से प्यार करता है और तुम्हें भी यह एहसास दिला दिया कि तुम भी क्षितिज से प्यार करती हो.

‘‘आयशा, मैं तुम्हारी दोषी हूं, मैं ने तुम्हें धोखा दिया, लेकिन मैं ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि मैं अपना प्यार बांटने को तो तैयार थी लेकिन खोने को कतई नहीं. तुम्हें याद होगा

एक दिन तुम ने मुझ से पूछा था, जब तुम मेरे घर पर आई थी और अचानक तुम्हें मेरी मैडिकल फाइल दिख गई जिस पर प्रैगनैंसी पौजिटिव था. तुम जानना चाहती थी न उस बच्चे का पिता कौन है. उस रोज तो मैं तुम्हें बता नहीं पाई थी, लेकिन आज मैं तुम से छिपाऊंगी नहीं क्योंकि तुम्हें यह जानने का हक है. उस बच्चे का पिता कोई और नहीं क्षितिज ही था लेकिन क्षितिज

नहीं चाहता था, इसलिए मुझेअबौर्शन कराना पड़ा. क्षितिज मुझे तभी से चाहने लगा था जब

से उस ने मुझे कालेज कंपाउंड में तुम्हारे साथ देखा था और फिर धीरेधीरे मैं भी उस से प्यार करने लगी.

‘‘क्षितिज और मैं उस वक्त भी एकदूसरे से प्यार करते थे जब मैं ने तुम्हें क्षितिज का लव लैटर दिया था. कालेज कंप्लीट होते ही मैं और क्षितिज शादी करना चाहते थे, लेकिन क्षितिज की मम्मी को यह रिश्ता मंजूर नहीं था. वे नहीं चाहती थीं उन के घर की बहू विजातीय हो या फिर किसी ऐसे घर से आए जिस के मातापिता का तलाक हो चुका हो.

‘‘क्षितिज भी अपनी मम्मी के विरुद्ध जा कर मुझ से शादी नहीं करना चाहता था क्योंकि वह यह नहीं चाहता था कि समाज के आगे उस की वजह से उस के मातापिता का सिर झूके इसलिए उस ने तुम्हें अपने प्यार में फंसाने का जाल बुना और मैं ने उस का साथ दिया.

‘‘मैं ने तुम्हें कई बार यह सचाई बतानी चाही, लेकिन हर बार क्षितिज को खोने का डर मुझे रोक देता. फिर जब एक साल पहले मुझे

यह पता चला कि मेरे यूटरस में कैंसर है और

मैं बस कुछ दिनों की मेहमान हूं तो क्षितिज ने

भी मु?ा से अपना पल्ला झड़ लिया क्योंकि अब मैं उस की शारीरिक भूख को शांत करने में असमर्थ थी. उस समय मैं बिलकुल तनहा हो

गई थी. कई बार चाहा कि तुम्हें सबकुछ बता

दूं फिर अपने जीवन के अंतिम दिनों में तुम्हें अपनी यह सचाई बता कर तुम्हारी आंखों में

अपने लिए घृणा और नफरत नहीं देखना

चाहती थी इसलिए नहीं बताया, लेकिन यह बोझ ले कर मैं मरना भी नहीं चाहती. आयशा तुम से हाथजोड़ कर माफी चाहती हूं. प्लीज मुझे माफ कर देना.’’

तुम्हारी लिख नहीं पाऊंगी इसलिए

केवल ‘ईशा.’

लैटर पढ़ते हुए आयशा की आंखों से गिरे आंसुओं की बूंदों से लैटर भीग गया

था. तभी आयशा के पति आ गए. उन्हें देख आयशा ने लैटर एक ओर रख दिया.

आयशा के पति आयशा को रोता देख उस के करीब आ कर उसे अपनी बांहों में भरते हुए बोले, ‘‘आयशा, तुम कब तक ईशा के जाने के गम में आंसू बहाती रहोगी. उसे तो जाना ही था सो वह चली गई. मम्मी एकदम सही कहती थीं कि वह अच्छी लड़की नहीं थी इसलिए तो बिना शादी के प्रैंगनैंट हो गई थी तुम तो केवल उस का एक ही अबौर्शन जानती हो न जाने उस ने ऐसे कितने अबौर्शन कराए होंगे. तभी तो उस के यूटरस में कैंसर हुआ और न जाने उस का कितने लोगों के साथ संबंध रहा होगा.’’

यह सुनते ही आयशा चीख पड़ी और एक जोरदार तमाचा अपने पति के गाल पर मारती हुई बोली, ‘‘अपनी बकवास बंद करो क्षितिज.

ईशा बुरी लड़की नहीं थी. तुम ने अपने स्वार्थ

और हवस के लिए उसे बुरा बना दिया. वह बेचारी तो यह समझ ही नहीं पाई कि तुम उस से कभी प्यार ही नहीं करते थे. काश, वह समझ गई होती क्योंकि अगर तुम उस से प्यार करते तो कभी मुझ से शादी नहीं करते. अपने प्यार को पाने के लिए दुनिया से, समाज से लड़ जाते. लेकिन तुम ने ऐसा नहीं किया क्योंकि तुम तो केवल अपनेआप से प्यार करते हो. समाज में अपनी झूठी शान के लिए तुम ने मुझ से शादी की और मेरी और ईशा की दोस्ती की आड़ में अपनी हवस को शांत किया,’’ कहते हुए आयशा ने मंगलसूत्र और लैटर क्षितिज के हाथों में थमा दिया और फोन लगाने लगी.

दूसरी ओर से फोन उठाते ही आयशा बोली, ‘‘आंटी, मैं भी आप दोनों के साथ हमेशा के लिए नागपुर चल रही हूं.’’

Drama Story

Hindi Fictional Story: इस मोड़ पर

Hindi Fictional Story: आशी की आंखें अभी आधी नींद में और आधी खुली हुई थीं. उस के जेहन में बारबार एक शब्द गूंज रहा था, ‘‘ठंडीठंडी.’’

आशी अधखुली आंखों के साथ ही वाशरूम चली गई. चेहरे पर पानी के छींटे पड़ते ही आंखों के नीचे की कालिमा और स्पष्ट रूप से उभर गई. आशी बराबर खुद का चेहरा आईने में देख रही थी. उसे लग रहा था जैसे उस का जीना बेमानी हो गया है. शायद गौरव सच ही कह रहा था कितनी थकी हुई और बूढ़ी लग रही थी वह आईने में.

कैसे बरदाश्त करता होगा गौरव उसे रात में. तभी गौरव की उनींदी आवाज आई, ‘‘आशु चाय बना दो.’’

आशी ने विचारों को  झटका और रसोई में घुस गई. अभी आशी चाय बना ही रही थी कि पीछे से सासूमां बोली, ‘‘आशी, तेरे बाल रातदिन इतने  झड़ रहे हैं, देख कितने पतले हो गए हैं. पहले कितनी मोटी चोटी होती थी. यह सब इन बालों को कलर कराने का नतीजा है.’’

तभी पीछे से गौरव बोला, ‘‘मम्मी, तुम्हारी बहू अब बूढ़ी हो गई है.’’

सासूमां हंसते हुए बोली, ‘‘चुप कर बेवकूफ.’’

गौरव बोला, ‘‘मु झ से बेहतर कौन जान पाएगा, क्यों आशी?’’

आशी कट कर रह गई. आंखों में आंसुओं को पीते हुए उस ने गौरव को चाय का प्याला पकड़ा दिया.

गौरव नहाने घुस गया तो आशी फिर से आईने के सामने अपने को देखने लगी, उस के बाल आगे से कितने कम हो गए थे. तभी आशी ने देखा बाएं गाल पर 3-4 धब्बे भी नजर आ रहे थे.

तभी कार्तिक आया और बोला, ‘‘मम्मी, नाश्ते में क्या बनाया है?’’

आशी को एकाएक ध्यान आया कि वह कितनी पागल है. पूरे आधे घंटे से आईने के सामने खड़ी है.

सासूमां रसोई में पहले से ही परांठे सेंक रही थी. आशी बोली, ‘‘मम्मी, मैं सेंक लेती हूं.’’

सासूमां प्यार से बोली, ‘‘आशी, तू तैयार हो जा, मैं बना दूंगी. वैसे भी पिछले 3-4 महीनों से तुम बेहद थकीथकी लगती हो, आज गौरव के साथ डाक्टर के पास चली जाना.’’

आशी प्यार में भीगी हुई अंदर चली गई. जब नहा कर बाहर निकली तो उस का मन फूल जैसा हलका लग रहा था.

रास्ते में गौरव आशी से बोला, ‘‘आज

आने में देर हो जाएगी, हम पुराने दोस्तों

का रियूनियन है.’’

आशी ने धीमे स्वर में कहा, ‘‘मैं सोच रही थी आज डाक्टर के पास चलते, मम्मी कह रही थी मु झे अपना ध्यान रखना चाहिए.’’

गौरव हंसते हुए बोला, ‘‘अरे यार ढलती उम्र का क्या कोई इलाज होता है? कल चल पड़ेंगे.’’

दफ्तर में जैसे ही आशी घुसी उस ने कनकियों से देखा, ‘‘पायल और निकिता एकदूसरे को अपने बालों के हाईलाइट्स दिखा रही थीं,’’ आशी का भी कितना मन करता है मगर अब उस के बाल इतने रूखे और बेजान हो गए हैं कि वह सोच भी नहीं सकती है.’’

आशी को सुबहसुबह ही ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे उस की ऊर्जा किसी ने सोख ली हो.

तभी आशी की सीट पर प्रियशा आई, ‘‘क्या सोच रही है आशी और यह चेहरे पर 12 क्यों बज रहे हैं?’’

आशी बोली, ‘‘अभी तुम बस 38 साल की हो, तुम्हें सम झ नहीं आएगा कि 50 वर्ष की महिला को कैसा प्रतीत होता है जब उस का अस्तित्व उस से जुदा हो रहा होता है.’’

प्रियाशा बोली, ‘‘आशी, क्या आंटियों की तरह पहेलियां बुझा रही हो.’’

आशी बिना कुछ बोले अपने लैपटौप में डूब गई. जब आशी दफ्तर से वापस आई तो सासूमां उस का चाय पर इंतजार कर रही थी.

आशी को शादी के बाद कभी अपनी मम्मी की कमी नहीं खली थी. सासूमां ने हमेशा आशी से बेटी की तरह ही व्यवहार किया था. चाय का घूंट पीते हुए आशी सोच रही थी कि सबकुछ तो कितना अच्छा चल रहा था, मगर फिर न जाने यह मेनोपौज का मोड़ अचानक कहां से आ गया.

सासूमां सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए बोली, ‘‘क्या बात है, देख रही हूं पिछले कुछ दिनों से बहुत थकीथकी रहती… इस गौरव के मिजाज का भी कुछ ठीक नहीं है. वह क्यों इधरउधर बिना तेरे दोस्तों के साथ घूमता रहता है.’’

आशी बोली, ‘‘वह न जाने मम्मी आजकल क्यों मेरा मन उखड़ाउखड़ा रहता है जिस कारण गौरव अपसैट हो जाते हैं.’’

सासूमां तोलती सी नजरों से बोली, ‘‘आशी, तुम शायद मेनोपौज के मोड़ पर खड़ी हो मगर इस मोड़ पर गौरव को तुम्हारा साथ देना चाहिए न कि इधरउधर फुदकने लगे.

रात में काफी देर तक आशी गौरव की प्रतीक्षा करती रही और फिर थक कर सो गई थी.

आधी रात को अचानक आशी की आंख खुली. उस का गाउन खराब हो गया था. पहले तो उसे अपनी डेट का हमेशा आभास भी हो जाता था और वह कभी इधरउधर भी नहीं होती थी. वह वाशरूम में जा कर जब वापस आई तो गौरव की खीज भरी आवाज कानों से टकराई, ‘‘क्या प्रौब्लम है तुम्हारा… न दिन में चैन और न ही रात में.’’

आशी को एकाएक खुद पर शर्म सी आ गई. 50 साल की उम्र में उस के कपड़े खराब हो गए हैं, कितनी फूहड़ है वह. दफ्तर में भी आशी को बहुत दिक्कत हो रही थी. इसलिए बीच में ही घर चली आई थी.

शाम को गौरव आया और तैयार होते हुए बोला, ‘‘आज मेरा डिनर बाहर है.’’

आशी बोली, ‘‘गौरव हम डाक्टर के पास कब चलेंगे?’’

गौरव बोला, ‘‘मेरी क्या जरूरत है आशी… पढ़ीलिखी हो खुद चली आओ.’’

आशी फिर पूरी शाम ऐसे ही लेटी रही. शाम को सासूमां आई और फटकार लगाते हुए बोली, ‘‘क्या हो गया है तुम्हें? क्या तुम्हारी कोई अपनी जिंदगी नहीं है, चलो उठो डाक्टर के पास जाओ, कब तक खुद को इग्नोर करती रहोगी.’’

डाक्टर ने आशी से बात करी और फिर बोला, ‘‘इस उम्र में यह सब नौर्मल है. जरूरी है आप इसे सहजता से लें. अगली बार अपने पति के साथ आइए. आप के साथसाथ उन की काउंसलिंग भी जरूरी है, और फिर आशी को कुछ दवाइयां लिख दीं.’’

जब गौरव वापस आया तो औपचारिक तौर से पूछा, ‘‘क्या कहा डाक्टर ने?’’

आशी बोली, ‘‘अगली बार तुम्हें बुलाया है.’’

गौरव हंसते हुए बोला, ‘‘भई बूढ़ी तुम हो रही हो मैं नहीं, मु झे किसी डाक्टरवाक्टर की जरूरत नहीं है.’’

आशी को सम झ नहीं आ रहा था कि गौरव इतना असंवेदनशील कैसे हो सकता है. अगर वह 50 साल की हो गई है तो गौरव भी 52 साल का हो रहा है फिर यह उम्र का ताना क्यों बारबार उसे मिल रहा है, इसलिए क्योंकि वह एक औरत है. जो गौरव पहले भौंरे की तरह उस से चिपका रहता था अब उस के संपूर्ण जीवन का रस सोखने के बाद ऐसे व्यवहार कर रहा है मानो यह उस का कोई अपराध हो.

अगले दिन दफ्तर में जब आशी ने प्रियांशी से इस बारे में बातचीत करी तो प्रियांशी हंसते हुए बोली, ‘‘यह बस जीवन का एक मोड़ है. जैसे हम लड़कियों की जिंदगी में मासिकधर्म का आरंभ होना भी एक मोड़ होता है वैसे ही रजनोवृत्ति भी बस एक मोड़ ही है, जिंदगी खत्म होने का संकेत नहीं है.’’

आशी बोली, ‘‘तुम अभी सम झ नहीं पाओगी. ऐसा लगता है जैसे तुम्हारा वजूद खत्म हो रहा है. जब तुम अपने पति की नजरों में एक फालतू सामान बन जाते हो, तब सम झ आता है कि यह मोड़ है या डैड एंड है.’’

प्रियांशी बोली, ‘‘मैडम, मैं 35 साल की उम्र से इस मोड़ पर खड़ी हूं.’’

आशी आश्चर्य से प्रियांशी की तरफ देखने लगी तो प्रियांशी बोली, ‘‘देखो क्या

मैं तुम्हें बुढि़या लगती हूं? मेनोपौज को तो मैं कंट्रोल नहीं कर सकती थी मगर खुद को तो कर सकती हूं. मेरी स्त्री होने की पहचान बस इस एक प्रक्रिया से नहीं है और हम स्त्रियों का स्त्रीत्व बस इसी पर क्यों टिका हुआ हैं? क्या तुम्हारे पति की परफौर्मैंस पहले जैसी ही है अभी भी? पर पुरुषों के पास स्त्रियों की तरह ऐसा कोई इंडिकेटर नहीं है इसलिए आज भी अधिकतर मर्द इस गलतफहमी में जीते हैं कि मर्द कभी बूढ़े नहीं होते हैं.’’

आशी सोचते हुए बोली, ‘‘बात तो सही है तुम्हारी.’’

प्रियांशी और आशी फिर बहुत देर तक बात करती रही. प्रियांशी से बात करने के बाद आशी सोच रही थी कि वह कितनी बुद्धू है.

उस रात को जब आशी ने पहल करी तो गौरव बोला, ‘‘अरे, आज इतना जोश कैसे आ गया तुम्हें?’’

आशी मुसकराते हुए बोली, ‘‘अब तुम्हारे अंदर भी पहले जैसा जोश कहां रह गया है?’’

गौरव घमंड से बोला, ‘‘मर्द और घोड़े कभी बूढ़ा नहीं होता है.’’

आशी बोली, ‘‘यह मु झ से बेहतर कौन जान सकता है.’’

आशी के स्वर में उपहास देख कर गौरव चुपचाप किताब के पन्ने पलटने लगा. उस का मन जानता था कि आशी की बातों में सचाई है और इसी सचाई को  झुठलाने के लिए वह आशी को रातदिन कोसता रहता था. मगर आशी उसे इस तरह बेपरदा कर देगी उस ने सोचा भी नहीं था.

Hindi Fictional Story

Social Story: गर्विता- क्या अपने सपनों को पंख दें पाएगी वो?

Social Story: ‘‘दवाखा लो मां,’’ गर्विता ने अपनी बीमार मां को पानी का गिलास थमाते हुए कहा, ‘‘तुम कभी समय से दवा नहीं खातीं.’’

मां कोई जवाब दे पातीं उस से पहले ही गर्विता का फोन बजने लगा. उस ने देखा धीरज का फोन था.

गर्विता अभी कुछ सोच ही रही थी कि मां बोल उठीं, ‘‘वह इतने दिनों से फोन कर रहा है उठा कर बात क्यों नहीं कर लेती.’’

कुछ सोच कर उस दिन गर्विता ने फोन

उठा लिया.

‘‘तुम्हें कितने दिनों से फोन मिला रहा हूं उठाती क्यों नहीं?’’ उधर से तड़क कर धीरज ने पूछा, ‘‘मां बीमार हैं अपने पोते को बहुत याद कर रही हैं. तुम वापस कब आओगी? कल ही आ जाओ युग को ले कर और हां अब अपनी मां की बीमारी का बहाना मत बनाना. तुम ने 2 साल निकाल दिए… कभी पापा बीमार हैं, कभी मां. ऐसे भी कोई मांबाप अपनी बेटी को घर बैठा लेते हैं. मेरा बेटा भी मु झे ठीक से नहीं जानता. मु झे कुछ नहीं सुनना… कल के कल ही आ जाओ,’’ कह कर धीरज ने फोन काट दिया.

न सलाम न किसी का हालचाल ही पूछा. गर्विता न कुछ बोल सकी न उस ने कुछ बोलने का मौका ही दिया. बस एक हुक्म सा सुना कर फोन काट दिया.

गर्विता ने आंगन में खेलते युग की तरफ देखा तो पुरानी सब यादें ताजा हो गईर्ं. धीरज का फोन जैसे उस के पुराने जख्मों को हरा कर गया. उसे वह दिन याद आ गया जब शादी के 7 साल बाद उसे और धीरज को पता चला था कि वे मातापिता बनने वाले हैं. वे दोनों बेहद खुश थे, वो ही क्या परिवार में सभी खुश थे. सभी को इस खुशखबरी का कब से इंतजार था आने वाले नन्हे मेहमान के लिए.

रोज नए सपने सजातेसजाते 9 महीने कब बीत गए गर्विता को पता ही नहीं चला

और फिर उस के जीवन में वह खूबसूरत दिन आया जब उस ने एक नन्हे से राजकुमार को जन्म दिया. सासससुर तो अपना वंशज पा कर बेहद खुश थे. पोते के जन्म पर धीरज की मां बहू की बालाएं लेती नहीं थक रही थीं.

गर्विता युग को ले कर अस्पताल से घर

आई तो घर वालों ने उस का जोरदार स्वागत किया. उस ने सोचा सबकुछ है मेरे पास एक बच्चे की कमी थी वह भी युग ने पूरी कर दी.

वह मन ही मन बुदबुदाई कि यों ही कहते हैं कि कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता.

उस का मन कर रहा था कि जोर से चिल्ला कर सब से कहे कि मेरी दुनिया देख लो यहां कोई कमी नहीं.

मगर गर्विता नहीं जानती थी कि उस की दुनिया कैसे उलटपलट होने जा रही थी. उस की खुशी को जैसे उस की अपनी ही नजर लगने वाली थी.

अभी युग को पैदा हुए 1 हफ्ता ही हुआ

था कि गर्विता को धीरज का व्यवहार कुछ बदलाबदला सा लगने लगा. गर्विता खुद भी

नई परिस्थितियों में ढलने की कोशिश कर रही

थी और इस वक्त उसे सब से ज्यादा धीरज के साथ की जरूरत थी, लेकिन वह तो रोज एक

नई शिकायत करने लगा था. कभी कहता

तुम्हारे पास तो मेरे लिए वक्त ही नहीं है, कभी कहता इस कमरे में हर समय बच्चों के डायपरों और दूध की बदबू आती रहती है. उस ने

गर्विता का हाथ बंटाना बिलकुल बंद कर

दिया था.

एक दिन बोला, ‘‘मैं तुम्हारे साथ इस

कमरे में नहीं रह सकता. युग के रोने की वजह से मेरी नींद बहुत खराब होती है,’’ और अपना तकिया ले कर दूसरे कमरे में सोने चला गया. वह भूल चुका था कि गर्विता भी नईनई मां बनी है और उसे युग के साथसाथ अपना भी खयाल रखना है क्योंकि उस के प्रसव को अभी सिर्फ 1 ही हफ्ता हुआ था.

धीरज में अचानक आए इस बदलाव से गर्विता अचंभित थी, फिर भी उस ने सोचा कुछ दिनों में सब ठीक हो जाएगा. एक दिन उस ने

युग के लिए कुछ सामान मंगवाया पर जब वह पहुंचा तो धीरज ने कहा, ‘‘तुम कुछ कमाती तो

हो नहीं बस दिनरात मेरा पैसा उड़ा रही हो. मेरे पास तुम्हारे फुजूल खर्च के लिए पैसे नहीं हैं.

खुद कमाओगी तो पता चलेगा. पैसे पेड़ पर

नहीं उगते.’’

धीरज की यह बात गर्विता को अंदर तक तोड़ गई. उसे सम झ नहीं आ रहा था कि उस

की गलती क्या है. क्यों धीरज उस से इस तरह पेश आ रहा. यों ही कशमकश में कुछ दिन और बीत गए. गर्विता को आभास हो रहा था कि रोज धीरज उस से दूर होता जा रहा है फिर भी वह

खुद को धैर्य बंधा रही थी कि जल्द ही सब ठीक हो जाएगा.

मगर उस रोज गर्विता के सब्र का बांध

टूट गया जब धीरज ने शराब पी कर गुस्से में उस से कहा, ‘‘खुद को आईने में देखो कितनी मोटी होती जा रही हो. दिनभर बैठ कर बस खाती ही रहती हो. कुछ काम भी किया करो. मैं ने तुम से शादी कर के बहुत बड़ी गलती की. न तुम से शादी करता और न ही यह मुसीबत पैदा होती. जा कर अपनी मां से अपनी सेवा करवाओ. जितना दूध यहां अपने और अपने बेटे के लिए मंगवाती हो वहां अपनी मां के घर में मंगवाना. सब लड़कियां प्रसव के समय मायके जाती हैं. एक तुम हो यहां मेरी छाती पर मूंग दल रही हो. कल तुम्हें तुम्हारी मां के घर छोड़ आऊंगा. जब यह

6 महीने का हो जाए लौट आना. जब से पैदा

हुआ है एक रात चैन से नहीं सोया, ऊपर से

इतना खर्चा.’’

गर्विता तो यह सब सुन कर सन्न रह गई. उस से कुछ कहते नहीं बना. बस रोती ही जा रही थी. उस की सास ने उसे सम झाया कि अभी धीरज नशे में है मैं सुबह उस से बात करूंगी.’’

यह क्या तरीका है अपनी पत्नी से बात करने का और कौन सा बाप अपने बेटे के बारे में इस तरह सोचता है.

सुबह हुई तो धीरज के मांबाप ने उसे सम झाने की, कोशिश की लेकिन वह नहीं माना और गर्विता को उस के मायके छोड़ आया. उस ने वहां से चलतेचलते अपनी बात फिर दोहराई कि जब युग 6 महीने का हो जाए खुद लौट आना. यह कह कर चला तो आया लेकिन उसे इस बात का जरा भी एहसास नहीं हुआ कि वह जिसे अपने घर से ले कर चला था और जिस गर्विता को छोड़ कर जा रहा है. वह तो अलग गर्विता थी. ससुराल से मायके तक आतेआते गर्विता ने कभी न लौटने का निश्चय कर लिया था. उस ने सोच लिया था कि वह अपने पैरों पर खड़ी होगी और अपने बेटे को खुद अकेली पालेगी साथ ही यह भी कि उस के बेटे को ऐसी घटिया सोच वाले बाप की जरूरत नहीं है.

मायके आ कर गर्विता ने अपने मातापिता को सारी बात बताई तो उन्होंने भी उस का पूरा साथ देने का वादा किया. अब उसे युग की चिंता नहीं थी क्योंकि उस की देखभाल करने के लिए उस की नानी जो थीं. गर्विता ने कुछ दिनों में खुद को समेटा. धीरज से शादी कर के वह भूल गई थी कि उस ने एमबीए किया है. वह जानती थी इतने लंबे समय के बाद उसे कहीं नौकरी नहीं मिलेगी इसलिए उस ने अपना ही कुछ काम करने का मन बनाया.

उसे अपनी एक सहेली का खयाल आया

जो कैलिफोर्निया में इंडियन स्टोर चलाती

थी और कई बार गर्विता को बता चुकी थी कि वहां हिंदुस्तानी चीजों की कितनी मांग है. उस ने अपनी सहेली को फोन लगाया और उस से बात की कि वह हिंदुस्तान से उसे हस्तशिल्प और हथकरघा का सामान भेजेगी जिसे वह सीधे कारीगरों से खरीदेगी ताकि उन की बनाई हुई चीजें सीधी विदेश भेजी जाएं और उन्हें भी अच्छा मुनाफा हो.

गर्विता की सहेली को उस की बात पसंद आई और उस ने मदद का वादा किया. धीरेधीरे गर्विता का काम चल निकला. दूसरे शहरों और देशों में भी उस के सामान की मांग होने लगी. ज्यादा फायदा होने के कारण काफी कारीगर उस के साथ जुड़ गए थे. अब वह अपना एक ऐक्सपोर्ट हाउस शुरू करने जा रही थी.

इन सालों में गर्विता को धीरज का खयाल तो कई बार आया, लेकिन वह कभी यह फैसला नहीं कर सकी कि उसे उस रिश्ते का करना क्या है. कभीकभी सोचती थी कि कहीं वह युग के साथ अन्याय तो नहीं कर रही. आखिर एक बच्चे को मांबाप दोनों की जरूरत होती है.

आज धीरज का बरताव देख कर वह फैसला करने ही जा रही थी कि पापा ने आवाज लगाई, ‘‘बेटा. बावर्ची ने खाना परोस दिया है,

आ जाओ.’’

पापा की आवाज जैसे उसे वर्तमान में वापस खींच लाई. उस ने नजर उठा कर देखा तो नन्हा युग अपने नाना के कंधे पर बेसुध सो रहा था. उसे देख कर वह उठी उस के सिर पर हाथ फेर कर मन ही मन बोली कि इसे उस घटिया बाप की जरूरत नहीं. इस के पास मेरे पापा हैं, जिन्होंने मु झे इस लायक बनाया कि आज मैं अपने पैरों पर खड़ी हूं.

अगले दिन सुबह अपनी अलमारी से कुछ कागज निकाल कर गर्विता जींसटौप

और पैंसिल हील पहन कर धीरज के घर पहुंची तो वह उसे देख कर चकित रह गया फिर भी खुद को संभाल कर कड़क कर बोला, ‘‘अकेली आई हो, मेरा बेटा युग कहां है? तुम से कहा था उसे ले कर आना.’’

तभी धीरज के मातापिता भी आ गए. गर्विता ने आदर से उन्हें नमस्ते की और अपनी सास की तबीयत पूछी.

तभी धीरज बोल पड़ा, ‘‘मां बीमार हैं तुम्हें यहां आ कर उन की सेवा करनी चाहिए. अब उन से घर का काम नहीं होता.’’

आज गर्विता से चुप न रहा गया. अत: बोली, ‘‘मेरे मातापिता भी बीमार थे. तुम उन्हें एक बार भी देखने आए? आना तो छोड़ो तुम ने तो फोन पर भी उन का हाल तक नहीं पूछा, फिर मु झ से यह उम्मीद तुम्हें क्यों है कि मैं तुम्हारे घर आ कर उन की देखभाल करूंगी और आज जिसे तुम बारबार अपना बेटा कह रहे हो याद करो उस के दूध तक का खर्चा तुम उठाना नहीं चाहते थे. एक बात बता दूं धीरज सिर्फ जन्म देने से कोई आदमी बाप नहीं बन जाता.’’

हमेशा चुप रहने वाली गर्विता के मुंह से इतनी बात सुन कर धीरज सकते में आ गया, लेकिन पुरुष होने का कुछ अहं अभी बाकी था सो उस ने अपना तुरुप का पत्ता निकाला, ‘‘ठीक है, अगर तुम्हें इतनी शिकायतें हैं तो मैं तलाक के कागज बनवा कर तुम्हारे घर भेज दूंगा, दस्तखत कर देना.’’

इस के लिए तो गर्विता तैयार

ही थी. अपने पर्स से एक कागज निकाल कर धीरज से बोली, ‘‘इतनी तकलीफ करने की कोई जरूरत नहीं. कागज मैं ने बनवा लिए हैं, दस्तखत भी कर दिए हैं. तुम भी दस्तखत कर देना और हां न ही मु झे तुम से कुछ चाहिए न ही मैं तुम्हें कुछ दूंगी, युग भी नहीं,’’ कह कर वह वापस जाने के लिए मुड़ी ही थी कि उस ने दोबारा अपने पर्स में हाथ डाला और एक निमंत्रणपत्र निकाल कर धीरज के हाथ में थमा दिया, ‘‘तुम ने कहा था न खुद कमाओ, कल मेरे ऐक्सपोर्ट हाउस का उद्घाटन है, युग ऐक्सपोर्ट्स, सपरिवार आना, मु झे अच्छा लगेगा.

‘‘यों तो तुम्हारे दिए जख्मों को कभी भूल नहीं पाऊंगी लेकिन सिर्फ एक बात के लिए हमेशा तुम्हारी शुक्रगुजार रहूंगी. अगर तुम मु झे मेरे मायके छोड़ कर नहीं आए होते तो मैं आज वह नहीं होती जो हूं. मेरे मातापिता ने मु झे नाम दिया था गर्विता लेकिन तुम ने मु झे गर्विता बनाया है. आज मु झे अपनेआप पर गर्व है,’’ कह कर गर्विता पलट कर बाहर निकल गई.

धीरज अपना सिर पकड़ कर वहीं बैठा रह गया. उस की मां ने उस के सिर पर हाथ रखा और धीरे से बोलीं, ‘‘बेटा जो बोया पेड़ बबूल का तो फूल कहां से होय.’’

इधर गर्विता अपनेआप को आजाद और बहुत हलका महसूस कर रही थी, लेकिन धीरज के घर से निकलतेनिकलते उसे आज फिर 2 पंक्तियां याद आ गईं?

‘‘कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता कहीं जमीन नहीं मिलती कहीं आसमां नहीं मिलता…’’

Social Story

Winter Hair Care: सर्दियों में बालों की देखभाल ऐसे करें

Winter Hair Care: सर्दियों में बालों से जुड़ी कई तरह की समस्याएं हो जाती हैं. शुष्क हवाएं खासकर बालों के लिए नुकसानदायक साबित होती हैं. जानिए, इस मौसम में कैसे करें बालों की देखरेख :

हेयर औयलिंग करें

सर्दियों के मौसम की वजह से सिर की त्वचा रूखी हो जाती है और खुजली की समस्या होने लगती है. इस के साथ ही बालों से जुड़ी कई अन्य समस्याएं भी खड़ी हो जाती हैं. सेहतमंद और मजबूत बालों के लिए बालों में तेल लगाना सब से जरूरी है. यह आप के स्कैल्प और बालों को नमी देता है, स्कैल्प पर रक्तसंचार को बेहतर बनाता है और डैंड्रफ हटाता है. आप टीट्री औयल, आंवला, भृंगराज और राइस ब्रान जैसे नैचुरल औयल का इस्तेमाल कर सकते हैं.

तेल को हलका गुनगुना कर लें.उंगलियों से धीरेधीरे स्कैल्प की मालिश करें. रातभर छोड़ दें और सुबह माइल्ड शैंपू से धो लें. हफ्ते में 2 बार तेल मालिश करने से बालों का रूखापन खत्म होता है और बाल मजबूत, मुलायम और शाइनी बनते हैं.

हेयर औयलिंग के बाद हेयर वाश करें

सर्दियों में बाल धोने के लिए बहुत गरम पानी का उपयोग न करें. यह स्कैल्प की नैचुरल मोइस्चर परत को हटा देता है. गुनगुने या ताजा पानी से बाल धोना सब से बेहतर रहता है.

साथ ही सर्दियों में बाल बहुत जल्दीजल्दी न धोएं. इस से बालों की नैचुरल नमी छिन सकती है. साथ ही हेडवाश के लिए आप माइल्ड शैंपू का ही इस्तेमाल करें. हेयरवाश से पहले औयलिंग जरूर करें.

माइक्रोफाइबर तौलिए से बाल सुखाएं

अपने बालों को सुखाने के लिए कौटन बाथ टौवल के बजाय माइक्रोफाइबर तौलिए का इस्तेमाल करें. यह आप के बालों पर सख्त नहीं होता और ज्यादा पानी भी सोखता है. यह फ्रिक्शन और बालों के सूखने के समय को कम करने में भी मदद करता है. इस से बाल ज्यादा उलझते भी नहीं हैं.

बालों की डीप कंडीशन करें

हफ्ते में 1 बार बालों को डीप कंडीशन भी कर सकते हैं. इस से खोया हुआ पोषण बालों में लौटता है. इस से बाल की चमक बनी रहती है और बालों में नमी बरकरार रहती है. आप अंडे का हेयर मास्क लगा सकते हैं.

हेयर मास्क लगाएं

फेस मास्क की तरह ही हेयर मास्क भी बालों के लिए बेहद जरूरी स्टेप है. यह बालों को चमकदार, मुलायम और मजबूत बनाने में मदद करते हैं.

अगर आप अपने बालों का पोषण बरकरार रखना चाहते हैं तो हौट औयल से मसाज करना बेहतर विकल्प है, हालांकि सर्दियों के सख्त मौसम में इतना करना काफी नहीं है. ऐसी स्थिति में बालों पर मास्क लगाना जरूरी हो जाता है.

हेयर मास्क बालों को पहले की तरह बनाने और स्कैल्प को साफ करने में मदद करते हैं. ये आप के बालों को मोइस्चराइज करते हैं, जिस से वे कम उलझते हैं और बालों का टूटनाझड़ना कम हो जाता है.

पार्लर में तरहतरह के हेयर मास्क लगाएं जाते हैं :

केराटिन हेयर मास्क (Keratin Hair Mask) : यह रूखे और डैमेज बालों के लिए बहुत अच्छा होता है. यह बालों को मजबूती देता है और उन्हें चमकदार बनाता है.

प्रोटीन हेयर मास्क (Protein Hair Mask) : यह बालों के टूटने और झड़ने को कम करने में मदद करता है.

हाइड्रेटिंग या मोइस्चराइजिंग हेयर मास्क (Hydrating/Moisturizing Hair Mask) : यह सूखे और बेजान बालों में नमी लौटाता है, जिस से वे मुलायम और स्वस्थ दिखते हैं. इस में अकसर शिया बटर, नारियल तेल या एलोवेरा जैसे तत्त्व होते हैं.

कलर प्रोटैक्शन मास्क (Colour Protection Mask) : रंगीन (coloured) बालों के लिए विशेष रूप से बनाया जाता है. यह रंग को जल्दी फीका होने से बचाता है और बालों को पोषण देता है.

डीप कंडीशनिंग हेयर मास्क (Deep Conditioning Hair Mask) : यह बालों को गहराई से पोषण देता है और उन्हें सिल्की और स्मूद बनाता है.

स्कैल्प प्यूरीफाइंग मास्क (Scalp Purifying Mask) : यह तेल या गंदगी से भरी स्कैल्प को सही करता है.

बालों की ट्रिमिंग करवाएं

सर्दी में बालों के सूखने और टूटने से बचाने के लिए नियमित रूप से बालों की ट्रिमिंग करवाएं. इस से बाल स्वस्थ और चमकदार रहेंगे. इस से आप को डैंड्रफ जैसी समस्याओं को कम करने में मदद करता है. ट्रिमिंग करने से बालों के बढ़ने में भी मदद मिलती है.

विटामिन डी की कमी न होने दें

विटामिन डी हेयर फौलिकल्स की हैल्थ के लिए जरूरी है. इस की कमी से मेलानिन प्रोडक्शन प्रभावित होता है और बाल समय से पहले सफेद हो सकते हैं. सनलाइट से मिलने वाला यह विटामिन आजकल की इंडोर लाइफस्टाइल से बहुत कम हो रहा है.

इसलिए अगर आप की स्किन रूखी है या हड्डियां कमजोर हो रही हैं तो विटामिन डी की कमी हो सकती है. इसे पूरा करने के लिए रोज 15-20 मिनट सनलाइट में बिताएं.

इस कमी को दूर करने के लिए विटामिन डी के लिए फिश, एग्स और फोर्टिफाइड मिल्क लें. डाक्टर से कंसल्ट कर के इस के लिए जरूरी सप्लीमेंट्स भी ले सकते हैं.

ह्यूमिडिफायर यूज करें

सर्दियों के दौरान तापमान में अचानक गिरावट से बालों की नमी खत्म हो सकती है. तापमान गिरने पर रूम हीटर आप को गरमी तो दे सकता है, लेकिन यह आप के कमरे के अंदर की हवा को भी सुखा देता है, जिस से आप के बालों को नुकसान पहुंचता है.

ह्यूमिडिफायर कमरे के अंदर नमी के लेवल को बचाने और हवा को ड्राई होने से रोकने में मदद करता है.

बालों की स्टाइलिंग रैगुलर न करें

ठंड के मौसम में बालों की स्टाइलिंग थोड़ी कम करें और अपने हेयर स्ट्रैंड्स को टूटने से बचाने के लिए अपने बालों की चोटी या जूड़ा बना कर रखें. यह आप के बालों को तेज हवाओं से भी बचाएगा.

बालों को स्टेटिक से बचाएं

सर्दियों में स्टेटिक बाल सब से ज्यादा परेशान करते हैं. नमी की कमी, स्वेटर, स्कार्फ, हुडी और हेयर ब्रश के कारण होने वाला फ्रिक्शन आप के बालों को रूखा और स्टेटिक बना देता है. इस से बचने के लिए और बालों को स्मूद बनाए रखने के लिए लीवइन कंडीशनर लगाएं. आप अपने साथ ऐंटी स्टैटिक लाउंड्री ड्रायर शीट या ऐंटी फ्रिज हेयर वाइप भी रख सकते हैं.

Winter Hair Care

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