Hindi Crime Story: पानी चोर

Hindi Crime Story: रात के तकरीबन 2 बजे थे. कल्पना ने अपना कई दिनों से खाली पड़ा घड़ा उठाया और उसे साड़ी के पल्लू से ढक कर दबे पैर घर से चल पड़ी. करीब 15 मकानों के बाद वह एक कोठी के सामने रुक गई.

कल्पना को कोठी की एक खिड़की अधखुली नजर आई. उस ने धीरे से पल्ला धकेला, तो खिड़की खुल गई. उस की आंखें खुशी से चमक उठीं. वह उस खिड़की को फांद कर कोठी में घुस गई. कोठी के अंदर पंखों व कूलरों की आवाजों के अलावा एकदम खामोशी थी. लोग गहरी नींद में सो रहे थे.

कल्पना एक कमरा पार कर के दूसरे कमरे में पहुंची. वहां अलमारी अधखुली थी, जिस में से नोटों की गड्डियां व सोने के गहने साफ दिखाई दे रहे थे. कल्पना उन्हें नजरअंदाज करती हुई आगे बढ़ गई और तीसरे कमरे में पहुंची. वहां कई टंकियों में पानी भरा हुआ था.

कल्पना ने अपना घड़ा एक टंकी में डुबोया और पानी भर कर जिस तरह से कोठी में दाखिल हुई थी, उसी तरह से पानी ले कर अपने घर लौट आई.

‘‘पानी ले आई कल्पना. जब मैं ने देखा कि घड़ा घर पर नहीं है, तो सोचा कि तू पानी लेने ही गई होगी,’’ कल्पना के अधेड़ पति शंकर ने कहा, जो 2 महीने से मलेरिया से पीडि़त हो कर चारपाई पर पड़ा था.

‘‘जी, पानी मिल गया. आप पानी पी कर अपनी प्यास बुझाएं. मैं दूसरा घड़ा भर कर लाती हूं. अजीत उठे, तो उसे भी पानी पिला दीजिएगा,’’ कल्पना ने पानी से भरा गिलास देते हुए कहा.

शंकर ने पानी पी कर अपनी प्यास बुझाई. 2 दिनों से इस घर के तीनों लोगों ने एक बूंद पानी भी नहीं पीया था. अजीत तो कल्पना का दूध पी लेता था, मगर कल्पना और शंकर प्यास से बेचैन हो गए थे.

कल्पना ने पानी से भरा हुआ दूसरा घड़ा भी ला कर रख दिया. जब वह तीसरा घड़ा उठा कर बाहर जाने लगी, तब शंकर ने पूछा, ‘‘आज भीड़ नहीं है क्या? तू ने पानी पीया? टैंकर कहां खड़ा है? क्या आज सरपंच ने टैंकर अपने घर में खाली नहीं किया?’’

‘‘आप आराम कीजिए, मैं अभी यह घड़ा भी भर कर लाती हूं,’’ कह कर कल्पना तीसरा घड़ा उठा कर चली गई.

इस बार भी कल्पना उसी तरह कोठी में दाखिल हुई और घड़ा टंकी में डुबोया. घड़े में पानी भरने की आवाज से अब की बार कोठी का कुत्ता जाग कर भूंकने लगा.

तभी कल्पना को बासी रोटी के टुकड़े एक थाली में पड़े दिखाई दिए. कल्पना ने रोटी का टुकड़ा उठा कर कुत्ते की ओर फेंका और घड़ा उठा कर तीर की मानिंद कोठी के बाहर हो गई.

तभी एक काले से आदमी ने वहां आ कर तेज आवाज में कल्पना से पूछा, ‘‘कौन हो?’’

कल्पना बिना कुछ कहे आगे बढ़ती गई. वह आवाज पहचान गई थी. वह सरपंच राम सिंह ठाकुर की आवाज थी.

सरपंच ने कल्पना का पीछा करते हुए कहा, ‘‘चोर कहीं की, पानी चोर. शर्म नहीं आती पानी चुराते हुए.’’

इतना कह कर सरपंच ने कल्पना को दबोच लिया. उस ने खुद को छुड़ाना चाहा, तो सरपंच बोला, ‘‘मैं अभी ‘पानी चोर’ कह कर शोर मचा कर सारे गांव वालों को जमा कर दूंगा. भलाई इसी में है कि तू वापस कोठी चल और मुझे खुश कर दे. मैं तेरी हर मुराद पूरी करूंगा.’’

‘‘चल हट,’’ हाथ छुड़ाते हुए कल्पना ने कहा. सरपंच ने जब देखा कि कल्पना नहीं मान रही है, तो उस ने ‘चोरचोर, पानी चोर’ कह कर जोरजोर से आवाजें लगानी शुरू कर दीं.

आवाज सुन कर गांव वाले लाठी व फरसा ले कर कोठी के पास जमा हो गए. कुछ लोग लालटेनें ले कर आए. मामला जानने के बाद कुछ लोग कल्पना से हमदर्दी जताते हुए कह रहे थे कि बेचारी क्या करती, 2 दिनों से उसे पानी नहीं मिला था. दूसरी ओर सरपंच के चमचे कह रहे थे कि इस पानी चोर को पुलिस के हवाले करो.

‘‘ऐसा मत करो, बेचारी गरीब है. छोड़ दो बेचारी को,’’ एक बूढ़ी औरत ने हमदर्दी जताते हुए कहा.

किसी ने कल्पना के पति शंकर को जा कर बताया कि कल्पना सरपंच के घर से पानी चुराते हुए पकड़ ली गई है और उसे थाना ले जा रहे हैं.

बीमार शंकर भागाभागा आया और सरपंच के पैरों पर गिर कर कल्पना की ओर से माफी मांगने लगा. मगर ठाकुर ने उसे पैरों की ठोकर मार दी और कल्पना को ले कर थाने की ओर चल पड़ा. बेचारा शंकर यह सदमा बरदाश्त न कर सका और वहीं हमेशा के लिए सो गया.

कल्पना को ले कर जब सरपंच और उस के चमचे थाने पहुंचे, तो थानेदार ने पूछा, ‘‘क्या हो गया? यह लड़की कौन है? इसे बांध कर क्यों लाए हो?’’

सरपंच ने थानेदार को नमस्ते करते हुए कहा, ‘‘जी, मैं गांव डोगरपुर का सरपंच ठाकुर राम सिंह हूं. इस औरत ने मेरी हवेली में घुस कर चोरी की है. मैं ने इसे रंगे हाथों पकड़ा है और आप के पास शिकायत करने आया हूं,’’ सरपंच ने कहा.

‘‘कितना माल यानी मेरा मतलब है कि कितना सोनाचांदी व रुपए चोरी किए हैं इस ने?’’ थानेदार ने पूछा.

‘‘जी, रुपए या सोनाचांदी नहीं, इस ने तो एक घड़ा पानी मेरे घर में घुस कर चुराया है.

‘‘समूचे इलाके के लोग बूंदबूंद पानी के लिए तरस रहे हैं, वे 15 किलोमीटर पैदल चल कर मुश्किल से एक घड़ा पानी ले कर लौटते हैं.

‘‘इस की हिम्मत तो देखिए साहब, खिड़की फांद कर पानी चुरा कर ले जा रही थी,’’ सरपंच ने बताया.

‘‘क्या चाहते हो तुम?’’

‘‘आप रिपोर्ट लिख कर इस औरत को जेल भेज दो,’’ सरपंच ने कहा.

‘‘जाओ मुंशीजी के पास रिपोर्ट लिखवा दो.’’

‘‘मुंशीजी, रिपोर्ट लिखाने से पहले सरपंच को अच्छी तरह समझा देना,’’ थानेदार ने मुंशीजी को आवाज लगा कर कहा.

मुंशीजी ने सरपंच को एक ओर ले जा कर उस के कान में कुछ कहा.

‘‘अरे हैड साहब, मैं कई सालों से सरपंच हूं. मैं यह अच्छी तरह जानता हूं कि बिना लिएदिए आजकल कोई काम नहीं होता है,’’ सरपंच ने जेब से नोटों की 2 गड्डियां निकाल कर मुंशीजी के हवाले कर दीं.

मुंशीजी ने सरपंच की एफआईआर दर्ज कर ली. कल्पना को थानेदार के सामने पेश किया, ‘‘श्रीमानजी, यह वही लड़की है, जिस ने मेरे घर से एक घड़ा पानी चुराया है.’’

थानेदार ने कल्पना को नीचे से ऊपर तक घूरा और बोला, ‘‘क्या तू ने चोरी की? चोरी करते वक्त तुझे शर्म नहीं आई?’’

कल्पना पत्ते की तरह कांप रही थी. उस के रोने से मुरझाए हुए चेहरे पर आंसुओं की लाइनें नजर आ रही थीं.

दूसरे दिन कल्पना को अदालत में पेश किया गया. वहां सरपंच के साथ उस के चमचे कल्पना के खिलाफ गवाही देने के लिए आए हुए थे.

पुलिस ने पानी से भरा हुआ वह घड़ा अदालत में पेश किया, जो कल्पना के पास से जब्त किया गया था. जज ने सब से पहले कल्पना की ओर देखा, जो कठघरे में सिर नीचा किए खड़ी थी.

अदालत ने गवाहों के लिए पुकार लगवाई. सरपंच के चमचों ने अदालत को बताया कि कल्पना ने पानी चुराया, जिसे सरपंच ने रंग हाथों पकड़ लिया. मगर मौके पर कोई गवाह नहीं था. सभी गवाहों ने यही बताया कि सरपंच ने उन्हें बताया.

जज ने कल्पना से पूछा, ‘‘क्यों, क्या तुम ने एक घड़ा पानी सरपंच के घर से चुराया?’’

‘‘जी, एक घड़ा नहीं, बल्कि 3 घड़े पानी मैं सरपंच के घर से लाई. पर उसे चुराया नहीं, बल्कि अपने हिस्से का ले कर आई,’’ कल्पना ने बेधड़क हो कर बताया.

‘‘अपने हिस्से का… चुराया नहीं, लाई का क्या मतलब है?’’ जज ने पूछा.

‘‘इस भयंकर गरमी में गांव के सारे कुएं, हैंडपंप व तालाब सूख गए हैं. एकएक बूंद पानी के लिए गांव वाले तरस रहे हैं. प्यास से मर रहे हैं.

‘‘पंचायत ने गांव में पानी का इंतजाम किया है. हमारे गांव में पानी के लिए सिर्फ 2 टैंकरों का इंतजाम है, जिस में से एक टैंकर सरपंच अपने घर खाली करा लेता है, जिसे वह चोरी से बेचता है. दूसरे टैंकर का पानी गांव वाले छीनाझपटी कर के लेते हैं.

‘‘मैं वह अभागी औरत हूं, जिसे कई दिनों से एक बूंद पानी नहीं मिला. बीमार पति घर में हैं. मैं सरपंच के घर से अपने हिस्से का पानी ही लाई हूं.

‘‘मेरी बातों पर यकीन न हो, तो इन गांव वालों से पूछ लीजिए. मैं अदालत से गुजारिश करती हूं कि मैं पानी चोर नहीं हूं, बल्कि असली पानी चोर तो सरपंच है. सरपंच के घर की टंकियां पानी से भरी पड़ी हैं.’’

अदालत में गांव वालों ने भी कहा कि यह बात सच है. कल्पना सही कह रही है. वह 50 रुपए प्रति घड़े की दर से पानी बेचता है. अभी इस वक्त भी सरपंच के घर पानी के लिए ग्राहकों की लंबी कतार लगी है.

सरपंच बगलें झांकने लगा. जज को सरपंच व पुलिस की जालसाजी की बू इस मुकदमे में आने लगी. कल्पना को अदालत ने बाइज्जत बरी कर दिया और असली चोर को पकड़ने के लिए जांच के आदेश जारी कर दिए गए.

कल्पना जब अपने गांव पहुंची, तो उसे पता चला कि किसी ने रात में ही उस के पति शंकर, जो सदमे से उसी दिन चल बसा था, की लाश फूंक दी थी.

जब कल्पना अपने घर पहुंची, तो उस का अबोध लड़का अजीत भी हमेशा के लिए सोया हुआ मिला. कल्पना ने जैसे ही अपने बेटे की लाश को देखा, तो उस की जोर से चीख निकल पड़ी.

‘‘अजीत… अजीत…’’ कह कर वह बेहोश हो गई. गांव वाले जो कल्पना के खिलाफ थे, अब सरपंच के खिलाफ नारेबाजी करने लगे, ‘पानी चोर… सरपंच पानी चोर… असली चोर सरपंच…’

कल्पना पागल हो चुकी थी. वह अपने बेटे की लाश को बता रही थी, ‘‘बेटे, मैं पानी चोर नहीं हूं, असली पानी चोर सरपंच है.’’

इतना कह कर कल्पना कभी हंसती, तो कभी रोने लगती थी. पुलिस ने सरपंच के घर से लबालब भरी पानी की कई टंकियों को जब्त किया. जो पानी खरीदने आए थे, उन्हें गवाह बना कर ठाकुर को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया.
लेखक- मानिक झोड़ ‘काकाजी’

Hindi Fiction Story: आसमान छूते अरमान

Hindi Fiction Story: चंद्रो बस से उतर कर अपनी सहेलियों के साथ जैसे ही गांव की ओर चली, उस के कानों में गांव में हो रही किसी मुनादी की आवाज सुनाई पड़ी.

‘गांव वालो, मेहरबानो, कद्रदानो, सुन लो इस बार जब होगा मंगल, गांव के अखाड़े में होगा दंगल. बड़ेबडे़ पहलवानों की खुलेगी पोल, तभी तो बजा रहा हूं जोर से ढोल. देखते हैं कि मंगलवार को लल्लू पहलवान की चुनौती को कौन स्वीकार करता है. खुद पटका जाता है कि लल्लू को पटकनी देता है. मंगलवार शाम4 बजे होगा अखाड़े में दंगल.’‘‘देख चंद्रो, इस बार तो तेरा लल्लू गांव में ही अखाड़ा जमाने आ गया,’’ एक सहेली बोली.

‘‘धत्… चल, मैं तुझ से बात नहीं करती,’’ चंद्रो ने कहा.

‘‘अब तू हम से क्या बात करेगी चंद्रो. अब तो तू उस के खयालों में खो जाएगी,’’ दूसरी सहेली बोली.

चंद्रो ने शरमा कर दुपट्टे में अपना मुंह छिपा लिया. तब तक उस का घर भी आ चुका था. वह अपनी सहेलियों को छोड़ कर तेजी से घर के दरवाजे की ओर बढ़ गई.

चंद्रो का पूरा नाम चंद्रवती था. वह कभी छुटपन में लल्लू की सहपाठी रही थी, तभी उन के बीच प्यार का बीज फूट गया था. चंद्रवती को चंद्रो नाम देने वाला भी लल्लू पहलवान ही था.

चंद्रवती को पढ़नेलिखने, गीतसंगीत और डांस में ज्यादा दिलचस्पी थी. उस के अरमान बचपन से ही ऊंचे थे. लल्लू पहलवानी का शौक रखता था. पढ़ाई में उस की इतनी दिलचस्पी नहीं थी, जितनी अखाड़े में जोरआजमाइश करने की.

फिलहाज, चंद्रवती हिंदी साहित्य में एमए कर रही थी. यह उस का एमए का आखिरी साल था. उस का कालेज गांव से 14-15 किलोमीटर दूर शहर में था. अपनी सहेलियों के साथ वह रोज ही बस से कालेज जाती थी. उस के मातापिता उस के लिए अच्छे वर की तलाश कर रहे थे.

लल्लू पहलवान को कुश्ती लड़नेका शौक ऐसा चढ़ा था कि पढ़ाई बहुत पीछे छूट गई थी. लेकिन पहलवानी में उस ने अपनी धाक जमा ली थी. 40-50 किलोमीटर दूर तक के गांवों में उस की बराबरी का कोई पहलवान न था. अब वह पेशेवर पहलवान बन चुका था और अच्छी कमाई कर रहा था.

चंद्रवती रातभर लल्लू की यादों में खोई रही. वे बचपन की यादें और अब अल्हड़ जवानी. चंद्रवती को लल्लू से मिले कई साल हो चुके थे, लेकिन उस का वह बचपन का मासूम चेहरा अभी भी आंखों में समाया हुआ था.

मंगलवार को शाम 4 बजे तक अखाड़े में तिल धरने की भी जगह न बची थी. औरतों को बिठाने के लिए अखाड़ा समिति ने अलग से इंतजाम किया था. पहली कुश्ती मुश्किल से 5 मिनट चली. लल्लू ने कुछ देर तक तो पहलवान के साथ दांवपेंच दिखाए और फिर उसे कंधे पर उठा कर अखाड़े का जो चक्कर लगाया, तो तालियों की बरसात होने लगी.

कुछ देर बाद पांच मुकाबले हुए और सब का हाल पहले पहलवानों जैसा ही हुआ.

अब लल्लू के चेहरे पर थकान साफ नजर आ रही थी. उसे सभी मुकाबलों में जीत मिलने का इनाम मिल चुका था.

जब सब गांव वाले जाने लगे, तो चंद्रवती की सहेलियां उसे लल्लू से मिलाने के लिए जबरन पकड़ कर ले गईं.लल्लू भीड़ से घिरा हुआ था, फिर भी सहेलियां चंद्रवती को लल्लू से मिलाने पर आमादा थीं. यह काम किया चंद्रवती की सहेली मधु के भाई माधवन ने. उस ने लल्लू से कान में जा कर कहा, ‘‘तुम्हारी कोई रिश्तेदार उधर खड़ी है. वह एक मिनट के लिए तुम से मिलना चाहती है.’’

लल्लू उठ कर गया, तो वहां 5-6 लड़कियां खड़ी थीं. लेकिन उन में से उसे कोई भी अपनी रिश्तेदार नजर नहीं आई. उस ने पूछा, ‘‘कहां है मेरी रिश्तेदार?’’

‘‘पहलवानजी, अपनी रिश्तेदार को भी नहीं पहचानते. बड़े पहलवान हो गए हो, इसलिए बचपन के रिश्ते को ही भूल गए,’’ चंद्रवती की एक सहेली इंदू ने उलाहना देते हुए कहा.

चंद्रवती का दिल जोरजोर से धड़क रहा था कि कहीं लल्लू उसे भूल ही न गया हो. तब मधु ने कहा, ‘‘किसी चंद्रो को जानते हो तुम? कोई चंद्रो पढ़ती थी तुम्हारे साथ बचपन में?’’

चंद्रो का नाम सुनते ही लल्लू का चेहरा खिल उठा. उस के मुंह से अनायास ही निकला, ‘‘अरे चंद्रो, हां, कहां है मेरी चंद्रो?’’

यह सुनते ही चंद्रो शरमा कर अपनेआप में ही मिसट गई. सहेलियां मुसकरा पड़ीं और लल्लू भी अपने उतावलेपन पर शर्मिंदा हो गया. कुछ ही दिनों में चंद्रवती लल्लू के घरआंगन को महकाने के लिए आ गई. कुछ दिन तक तो लल्लू चंद्रवती के प्यार में ऐसा खोया रहा कि पहलवानी के सारे दांवपेंच भूल गया. दोनों एकदूसरे को पा कर बहुत खुश थे.

उन दोनों की गृहस्थी बड़े आराम से पटरी पर चल रही थी. उन्हीं दिनों गांव में पंचायत चुनाव आ गए. लल्लू की राजनीति में कोई दिलचस्पी न थी, लेकिन चंद्रवती को राजनीति विरासत में मिली थी. उस के दादा अपने गांव में कई साल प्रधान रहे थे और अब उस के चाचा राम सिंह अपने गांव के प्रधान थे.

गांव वालों का लल्लू को प्रधान बनाने का इशारा था, लेकिन चुनाव आयोग ने उन के गांव के प्रधान का पद औरत के लिए रिजर्व कर दिया था.

लल्लू को पूरा गांव अपने पक्ष में लग रहा था, इसलिए वह चाह कर भी मना नहीं कर सका और उस ने चंद्रवती को चुनावी मैदान में उतार दिया. चुनाव एकतरफा रहा और चंद्रवती मालिनपुर गांव की प्रधान बन गई. शुरूशुरू में प्रधान के सारे काम लल्लू ही देखता था, लेकिन किसी कागज पर दस्तखत करने हों या फिर ग्राम प्रधानों की बैठक में जाना हो, तब चंद्रवती का जाना जरूरी हो जाता था.

चंद्रवती पढ़ीलिखी थी, अफसरों से बात करना ठीक से जानती थी, ग्राम प्रधान के अपने हकों को भी वह अच्छी तरह समझती थी. धीरेधीरे ग्राम प्रधानी का कामकाज उस के हाथों में आने लगा और लल्लू किनारे लगने लगा.

अब चंद्रवती पराए मर्दों से शरमाती न थी. उसे कहीं अकेले जाना पड़ता, तो वह लल्लू की बाट न जोहती थी. किसी को चंद्रवती से मिलना होता, तो वह उस से सीधा मिलता. लल्लू सिर्फ दरबारी बन कर रह गया था, सिंहासन पर चंद्रवती बैठी थी.

प्रधानों के संघ में चंद्रवती जितनी खूबसूरत और पढ़ीलिखी कम ही औरतें थीं, इसलिए प्रधान संघ का सचिव पद पाने में वह कामयाब हो गई. चंद्रवती के अरमान अब आसमान छूने लगे थे. वह मर्दों को दुनिया में मुकाम हासिल करने के गुर सीखने लगी. लंगोट के कच्चे मर्द को एक ही मुसकान से कैसे पस्त किया जा सकता है, यह वह अच्छी तरह जान गई थी.

अब चंद्रवती हमेशा बड़े नेताओं और अफसरों से मेलजोल बढ़ाने के मौके तलाशने लगी. यह वह सीढ़ी थी, जिस पर चढ़ कर वह अपनी इच्छाओं के आसमान पर पहुंच सकती थी.

एक बार प्रदेश सरकार का मंत्री भूरेलाल जिले के दौरे पर आया, तो उस की पार्टी के कार्यकर्ताओं ने उस का दौरा मालिनपुर में ही लगा दिया.चंद्रवती अपने दबदबे से मालिनपुर में तरक्की के अनेक काम करवा चुकी थी. जिसे देखने के लिए मंत्री को ग्राम प्रधान से मिलने की इच्छा और बढ़ गई.

चंद्रवती ने पहले से ही मंत्री के लिए नाश्ते का इंतजाम घर पर ही कर रखा था. भूरेलाल का स्वागत करने के लिए चंद्रवती सजीधजी दरवाजे पर ही खड़ी थी. वह खूबसूरती के भूखे इन मर्दों को अच्छी तरह से जानती थी.

चंद्रवती के रूप को देख कर भूरेलाल की आंखें चौंधिया गईं. चंद्रवती ने बैठक को भी ऐसा सजाया था कि भूरेलाल देखता ही रह गया. जब चंद्रवती भूरेलाल के सामने बैठी, तो वह गांव की तरक्की के काम की बात भूल कर उस की खूबसूरती को देखने में मगन हो गया.

जब चंद्रवती ने अपने सुकोमल हाथों और एक मोहन मुसकान से उसे चाय की प्याली पकड़ाई, तब जा कर भूरेलाल की नींद टूटी.

भूरेलाल गांव का दौरा कर के चला तो गया, पर उस का दिल मालिनपुर में ही अटक कर रह गया. शाम को ही मंत्री भूरेलाल ने फोन कर के चंद्रवती को उस की ‘अच्छी चाय’ के लिए धन्यवाद दिया.

चंद्रवती जान गई थी कि तीर निशाने पर लगा है. उस ने योजनाएं बनानी शुरू कर दीं कि मंत्री भूरेलाल से क्याक्या काम करवाने हैं और आगे बढ़ने के लिए इस सीढ़ी का इस्तेमाल कैसे किया जा सकता है.

अब मालिनपुर गांव में तरक्की का जो भी छोटाबड़ा काम होता, उस का उद्घाटन भूरेलाल के ही हाथों होता. भूरेलाल चंद्रवती को पार्टी के कार्यक्रमों में शिरकत करने के लिए बुलाने लगा.

जल्दी ही भूरेलाल ने चंद्रवती की ताजपोशी खादी ग्रामोद्योग बोर्ड के अध्यक्ष पद पर करवा दी. फिर तो चंद्रवती को नीली बत्ती की गाड़ी मिल गई.

ओहदा बढ़ते ही चंद्रवती आजाद पंक्षी हो गई. लल्लू पहलवान ने उसे घोंसले में ही कैद रखने के लिए उस के पर कतरने की काफी कोशिश की, लेकिन चंद्रवती के सामने उस की अब बिसात ही क्या थी.

एक दिन भूरेलाल ने मौका देख कर कहा, ‘‘चंद्रवतीजी, आप खूबसूरत होने के साथसाथ काबिल भी हो. कोशिश करो, तो विधायक भी बन सकती हो.’’

चंद्रवती ने इतराते हुए कहा, ‘‘मंत्रीजी, ऐसे दिन हमारे कहां?’’

‘‘हम तुम्हारे साथ हैं न. बस, तुम्हें साथ देने की जरूरत है,’’ भूरेलाल ने आखिरी शब्द चंद्रवती के हाथ पर हाथ रखते हुए कहा. चंद्रवती मंत्री भूरेलाल के एहसानों से इतना दब चुकी थी कि वह कोई विरोध न कर सकी, सिर्फ अपना हाथ पीछे खींच लिया.

भूरेलाल ने सकपकाते हुए कहा, ‘‘चंद्रवती, देखो राजनीति करने के लिए बहुतकुछ कुरबान करना पड़ता है. अब देखो विधायक का टिकट पाना है, तो अनेक नेताओं से मिलना ही पड़ेगा. अब मैं तुम्हें प्रदेश अध्यक्ष से मिलवाना चाहता हूं, उस के लिए तुम्हें लखनऊ तो चलना ही पड़ेगा. घर जा कर सोचना और ‘हां’ और ‘न’ में जवाब देना. वैसे तो तुम समझदार हो ही.’’

चंद्रवती इस ‘हां’ और ‘न’ का मतलब अच्छी तरह समझती थी. घर पहुंचने पर वह कुछ दुविधा में थी. लल्लू से जब उस ने लखनऊ जा कर प्रदेश अध्यक्ष से मिलने की बात कही, तो उस ने कहा, ‘‘चंद्रवती, धीरेधीरे चलो, तुम उड़ रही हो. हम जितना ऊंचे उड़ते हैं, उतना नीचे भी गिरते हैं.’’

लेकिन चंद्रवती को लल्लू की बात समझ में नहीं आई. उसे लगा कि पहलवानी करतेकरते लल्लू का दिमाग भी छोटा हो गया है. विधायक बनना है, तो कुछ कुरबानी तो देनी ही पड़ेगी.

चंद्रवती प्रदेश अध्यक्ष से मिलने के लिए लखनऊ जाने की तैयारी करने लगी. बुझे मन से लल्लू भी उस के साथ लखनऊ गया.भूरेलाल ने उन के ठहरने का इंतजाम पहले से ही एक होटल में कर दिया था.

अगले दिन भूरेलाल चंद्रवती को लेने होटल गया. चंद्रवती उस के साथ कार में बैठ कर प्रदेश अध्यक्ष से मिलने चली गई. लल्लू को यह बात नागवार गुजरी.

प्रदेश अध्यक्ष भी चंद्रवती की खूबसूरती को निहारता रह गया. मंत्री भूरेलाल ने चंद्रवती की तारीफ के पुल बांध दिए. प्रदेश अध्यक्ष ने चंद्रवती को विधायक का टिकट देने के लिए विचार करने का आश्वासन दिया. चंद्रवती को लगा, जैसे उसे विधायकी का टिकट मिल ही गया.

इस के बाद तो चंद्रवती पार्टी के नेताओं और मंत्रियों के घर और दफ्तर के चक्कर काटने में ही मशगूल हो गई. मंत्री भूरेलाल ने उसे बता दिया था कि जितने नेता और मंत्री उस के टिकट की सिफारिश कर देंगे, उस का टिकट उतना ही पक्का.

अब चंद्रवती अपना ज्यादा समय लखनऊ में ही बिताने लगी थी. उसे लल्लू की अब कोई चिंता नहीं थी. लल्लू भी इस बात को अच्छी तरह से समझ चुका था कि चिडि़या अब उस के हाथ से निकल चुकी है.

भूरेलाल राजनीति का तो मंजा हुआ खिलाड़ी था ही, इश्कमिजाजी का भी वह शौकीन था. वह जानता था कि चंद्रवती उस के जाल में फंस चुकी है. उस ने खादी के विदेशों में प्रचारप्रसार के लिए यूरोपीय देशों का 20 दिन का टूर बनाया और चंद्रवती का नाम भी टूर में जाने वाले लोगों की लिस्ट में शामिल था. लल्लू के विरोध के बावजूद चंद्रवती भूरेलाल के साथ टूर पर गई.

चंद्रवती को लगता था कि भूरेलाल ही वह सहारा और सीढ़ी है, जो उसे उस की मंजिल तक पहुंचाएगा. यूरोप के 20 दिन के टूर में चंद्रवती ने अपना सबकुछ भूरेलाल को सौंप दिया.

इधर लल्लू इतना दुखी हो चुका था कि चंद्रवती से तलाक लेने के अलावा उसे और कोई रास्ता न सूझता था. उस ने तलाकनामा के लिए वकील से कागजात तैयार करा लिए. चंद्रवती इस के लिए खुशी से तैयार थी. न अब उसे गांव पसंद था और न लल्लू ही.

चंद्रवती भूरेलाल के जरीए और मंत्रियों से मिली. अब उस की पौबाहर थी. सुबह से शाम तक न जाने कितने लोग उसे सैल्यूट मारते. एक फोन पर वह मंत्रियों और अफसरों से लोगों के काम करवाती. ऐसा लगता, जैसे चंद्रवती प्रदेश में अलग सरकार चला रही हो.

लेकिन राजनीति में किस का सूरज कब उग जाए और कब डूब जाए, कौन कह सकता है. चंद्रवती की हनक देख कई लोग उस के विरोधी हो गए. वे चंद्रवती को फंसाने की ताक में लग गए. मीडिया भी उस की हनक से हैरान था.

एक दिन चंद्रवती और भूरेलाल की जरा सी लापरवाही से उन के अंतरंग संबंधों की तसवीरें विरोधियों के हाथ पड़ गईं. फिर मीडिया तक जाने में इसे कितनी देर लगती.

अगले ही दिन 2 काम हो गए. खादी ग्रामोद्योग बोर्ड के अध्यक्ष पद से चंद्रवती को बरखास्त कर दिया गया. कहां तो वह विधायक बनने का सपना देख रही थी, प्रदेश अध्यक्ष ने उस की पार्टी की प्राथमिक सदस्यता ही रद्द कर दी. मंत्रियों, नेताओं और अफसरों ने उस का मोबाइल नंबर तक अपने मोबाइलों से निकाल दिया.

भूरेलाल के मंत्री पद पर बन आई, तो उस ने चंद्रवती से अपने संबंधों को विरोधियों की साजिश और मीडिया के गंदे मन की उपज बताया. उस ने सार्वजनिक रूप से ऐलान किया कि वह चंद्रवती को केवल एक पार्टी कार्यकर्ता के रूप में जानता है, उस से ज्यादा उस का चंद्रवती से कोई लेनादेना नहीं है.

चंद्रवती ने इतने दिनों में जो बेनामी दौलत कमाई थी, उस से उस ने लखनऊ में एक बंगला तो खरीद ही लिया था. लेकिन राजनीतिक रुतबा खत्म होते ही उस की सारी शानोशौकत पर रोक लग गई. अब उस का दरबार सूना हो चुका था.

जल्दी ही चंद्रवती को अर्श से फर्श पर गिरने का एहसास हो गया. इस बेकद्री और अकेलेपन के चलते वह तनाव की शिकार हो गई. नींद की गोलियां उस का सहारा बनीं.

भूरेलाल उस के फोन को उठाता तक न था. तब एक दिन उस से मिलने वह उस के दफ्तर पहुंच गई. अर्दली ने उसे रोकने की कोशिश की, लेकिन वह ‘मैडम’ ही कहता रह गया और वह उस के दफ्तर में पहुंच गई. उस के वहां पहुंचते ही भूरेलाल उस पर बिफर पड़ा, ‘‘तेरी यहां आने की हिम्मत कैसे हुई?’’

‘‘भूरेलाल, मैं ने तुझ पर अपना सबकुछ लुटा दिया और अब कहता है कि मेरी यहां आने की हिम्मत कैसे हुई?’’

‘‘बकवास बंद कर. जो औरत अपने आदमी को छोड़ कर दूसरों के साथ हमबिस्तर हो, वह किसी की नहीं होती.’’

‘‘और जो मर्द अपनी औरत को छोड़ दूसरी औरतों के साथ गुलछर्रे उड़ाए, वह किस का होता है?’’

‘‘दो कौड़ी की औरत… जबान लड़ाती है… गार्ड, बाहर निकालो इसे.’’

इस से पहले कि गार्ड चंद्रवती को बाहर निकालता, चंद्रवती ने पैर में से चप्पल निकाली और भूरेलाल के सिर पर दे मारी.

भूरेलाल के गाल पर इतनी चप्पलें पड़ीं कि उस का चेहरा लाल हो गया. उस का कान और होंठ फट गया. नाक से भी खून बहने लगा. जब तक गार्ड और दूसरे लोग चंद्रवती को रोकते, भूरेलाल की काफी फजीहत हो चुकी थी.

भूरेलाल ने सपने में भी नहीं सोचा था कि उस की ऐयाशी का नतीजा इतना खतरनाक होगा. मामले को दबाए रखने के लिए पुलिस को कोई सूचना नहीं दी गई.

कुछ दिन बाद खबर आई कि चंद्रवती की उस के घर पर ही मौत हो गई. पोस्टमार्टम के लिए लाश भेजी गई, लेकिन उस की मौत में नींद की दवाओं का ज्यादा सेवन करना बताया गया.

जब चंद्रवती का दाह संस्कार किया जा रहा था, तब लल्लू को उस की लाश से अरमानों का धुआं उड़ता नजर आ रहा था. Hindi Fiction Story

Relationship Tips: कहीं आप भी तो नहीं बन जाते इमोशनल फूल

Relationship Tips: स्वभाव में कोमलता, करुणा, दूसरों के लिए निस्स्वार्थ प्रेम अच्छे गुण हैं पर कभीकभी गलत जगह अपने इमोशंस इन्वैस्ट करने से अपना ही दिल दुखी होने लगे तो संभल जाना चाहिए. जब ये गुण खुद पर ही भारी पड़ने लगें तो सोचसम  झ कर रिश्ते बनाने चाहिए वरना इंसान इमोशनल फूल बन कर रह जाता है.

कोईकोई इंसान इतना भावुक होता है कि जरा सा किसी ने उस से प्यार से बोला नहीं कि वह अपना दिल बिछा कर खड़ा हो जाता है. सामने वाला आराम से अपनी सहूलियत से इस भावुकता का फायदा उठा कर निकल लेता है.

जब आप बारबार छले जा रहे हों तो अपने स्वभाव, व्यवहार का पुनरावलोकन करें. ध्यान दें कि आप से कहीं कोई गलती तो नहीं हो रही. सामने वाले के साथ अपनापन बढ़ाते हुए एक बारीक लाइन जरूर खींच कर रखें. उस लाइन को कभी क्रौस न करें, भले ही कोई कितना भी अपनापन दिखाए.

आजकल मिलावट का जमाना है, लोगों को पहचानना काफी मुश्किल है. किसी को अपना समझ कर उस से इतना भावुक हो कर भी न मिलें कि जब वह कल को बदल जाए तो आप इमोशनली हर्ट हो कर बैठे रह जाएं. पेश हैं, इस विषय पर कुछ लोगों के जीवन के वास्तविक उदाहरण-

रंग बदलते लोग

मुंबई की सीमा अपना एक अनुभव शेयर करते हुए बताती हैं, ‘‘मैं 10 सालों से मुंबई में रह रही हूं और टीचर हूं. पिछले साल हमारी सोसाइटी में नीरा अपने परिवार के साथ रहने के लिए नईनई आई और जब मु  झ से उस का मिलना हुआ तो मैं ने उसे नयानया जान कर उस की बहुत हैल्प की. मैं स्कूल से आ कर उस के साथ उस के काम से चली भी जाती. उस की इच्छा देखते हुए उसे अपने स्कूल में जौब भी दिला दी.

वह फिर मेरे साथ ही आतीजाती, मेरे घर रुक कर मेरे साथ लंच करती, उस के हस्बैंड टूर पर होते तो बचा हुआ खाना रात के लिए ले जाती. उस के बच्चे स्कूल से आते तो सीधे मेरे घर ही आ जाते और तीनों अच्छी तरह खापी कर, ले कर ही जाते.

‘‘1 साल यही चला. वह मु  झे अपनी छोटी बहन सी लगती. जाने लगती तो अपने भरे हुए हाथ देख कर कहती कि आप के घर से जाती हूं तो लगता है मम्मी के घर से जा रही हूं. 1 साल हर तरह के मतलब निकाल लिए, अच्छी तरह हर तरह से सैट हो गई तो ऐसे रंग बदला कि पूछो मत. मेरे घरपरिवार की भी सारी जानकारी खोदखोद कर निकाल ली. फिर अचानक कट गई. ऐसी हो गई जैसे जानती भी न हो.

आनाजाना, फोन, सबकुछ अचानक बंद. मैं ने कई बार पूछा कि क्या बात है तो कुछ नहीं कह कर बात टाल देती.  फिर कोई दूसरा घर पकड़ लिया उस ने. अब कोई और इमोशनल फूल बन रहा होगा. मैं आज उस से इतने घुलनेमिलने के लिए बहुत पछताती हूं कि मैं भावनाओं में इतना कैसे बह गई.’’

रुड़की निवासी महेश और नीला बहुत खुश थे कि अब महेश के बचपन के दोस्त निलिन का भी ट्रांसफर लखनऊ से रुड़की ही हो गया है. महेश और नीला की शादी भी निलिन की शादी के 1 साल बाद ही हुई थी और नीला इस समय  प्रैगनैंट थी. महेश ने निलिन को रहने के लिए अपने ऊपर वाला फ्लैट ही दिला दिया कि दोनों परिवार आसपास ही रहेंगे. दोनों लखनऊ के रहने वाले थे, एकसाथ ही बचपन बीता था.

जब दोस्ती दुश्मनी में बदल जाए

निलिन की पत्नी उषा 1 महीने बाद रहने के लिए आने वाली थी. नीला को इस समय 9वां महीना चल रहा था फिर भी वह निलिन का बहुत ध्यान रखती, उस ने निलिन को कह दिया था कि भैया, जब तक उषा भाभी नहीं आती, आप का खानापीना हमारे साथ ही होगा. नीला इस समय भी अपनी तकलीफें भूल कर निलिन के नाश्ते से ले कर उसे लंच का टिफिन देती और डिनर भी अपने साथ ही कराती. महेश और नीला दोनों ने निलिन का खूब खयाल रखा. कहीं बाहर भी गए तो निलिन को ले कर गए, दोनों बहुत खुश थे कि दोस्त है, साथ रहेंगे.

1 महीने बाद उषा आई तो उस ने पहले दिन से इन दोनों से एक दूरी रखी, पहले तो दोनों ने सोचा कि नई जगह में परेशान हो रही होगी. अभी तक नीला और उषा ने कभी एकसाथ समय बिताया भी नहीं था. इसे दोनों ने कुछ अनजानापन सम  झा पर धीरेधीरे सम  झ आया कि उषा का स्वभाव तो कुछ रूखा है. जब तक उषा ने घरगृहस्थी संभाली, नीला ही उस का हाथ बंटाती रही.

एक ठंडी सांस ले कर नीला बताती हैं, ‘‘उषा दूसरे पड़ोसियों से तो थोड़ाबहुत बोल भी लेती पर हमारे साथ खिंची सी रहती. धीरेधीरे दोनों दोस्तों में दूरियां कुछ ज्यादा बढ़ने लगीं तो महेश ने निलिन से साफसाफ बात की तो निलिन का जवाब था कि तो क्या हो गया अगर उषा तुम लोगों से मिक्स नहीं होती? उस की मरजी. तुम दोनों ने मु  झे जो इतने दिन खिलाया है, उस का पैसा ले लो. इस बात से महेश को इतना धक्का लगा कि वे फिर कुछ नहीं बोले. चुपचाप आ गए.

मैं ने 9वें महीने में भी निलिन का ध्यान घर के सदस्य की तरह रखा पर उस ने उस अपनेपन का यह जवाब दिया. महेश तो कई दिन बहुत उदास रहे. मगर अब सोच लिया कि अब किसी के लिए इमोशनल फूल नहीं बनेंगे.’’

प्रमिला हरिद्वार में रहती हैं. कहानियां लिखती हैं. कई सालों से लिख रही हैं. अच्छा नाम है उन का. नई लेखिकाओं की हैल्प करने के लिए हर समय तैयार रहती हैं. एक दिन किसी नई लेखिका रुचि ने उन्हें फेसबुक पर मैसेज किया कि वह उन के शहर आई है और उन से मिलना चाहती है. फेसबुक फ्रैंड्स बन गए, फोन हुए, बातें हुईं. प्रमिला ने बहुत खुश हो कर रुचि, उस के पति और दोनों बच्चों को डिनर पर बुला लिया. रुचि परिवार के साथ आई.

प्रमिला ने दिल खोल कर उन का स्वागत किया. उन के पति विजय और प्रमिला ही घर पर रहते हैं. उन के दोनों बेटे विदेश में रहते हैं. रुचि का परिवार उन के घर करीब 4 घंटे रहा. खानापीना सब अच्छे माहौल में हुआ. लिखने से संबंधित बहुत सी जानकारी रुचि लेती रही. वह पूछती रही, प्रमिला बताती रही. सुंदर गिफ्ट दे कर प्रमिला ने सब को विदा किया.

बातों का मजाक

अगले दिन रुचि की फेसबुक पर पोस्ट थी जिस में प्रमिला का नाम लिए बिना उन के घर का, उन की बातों का मजाक उड़ाया गया था.्र

प्रमिला कहती हैं, ‘‘मैं अपने इस स्वभाव पर सिर पकड़ कर बैठ गई कि मैं ऐसी क्यों हूं क्या कमी है मेरे घरपरिवार में जो इस बेशर्म महिला ने   झूठ ही सब लिख डाला है. उस दिन से कोई भी मेरे घर आने के लिए कहता है, मैं माफी मांग लेती हूं और उस से बाहर ही जा कर मिल आती हूं. ऐसा सबक मिला कि याद रह गया. इस महिला ने हमारी सादगी का बहुत मजाक उड़ाया. सच, लोग कितने चालाक होते हैं, मु  झ से

क्याक्या पूछ गई. अब किसी को भी घर बुलाते हुए डर लगता है कि पता नहीं कोई जा कर क्या बात बनाए.’’

कभी भी कोई आप के लिए निस्स्वार्थ भाव से कुछ भी कर रहा हो, उस के साथ ऐसा व्यवहार कभी न करें कि समाज से यह गुण दूर होने लगे, लोग किसी के काम आने से बचें. किसी की भावनाओं का अपमान न करें. Relationship Tips

Personality Tips: जरूरी है तारीफ का तोहफा

Personality Tips: आज रीमा औफिस से घर वापस आई तो कुछ उदास सी थी. हमेशा की तरह चहक नहीं रही थी तो बेटी ने पूछा कि क्या हुआ मम्मी आज औफिस में कुछ हुआ क्या? तब रीमा धीरे से बोली कि नहीं कुछ नहीं हुआ. तब बेटी ने पूछा कि फिर आप खुश क्यों नहीं हो?

तब मम्मी ने बताया कि दरअसल बात यह है कि आज औफिस में मेरी मीटिंग थी. उस में मु  झे बाहर के एक क्लाइंट को प्रेजैंटेशन देना था. मैं ने उस के लिए बहुत अच्छे से तैयारी की थी, हर बार की तरह आज भी मेरा प्रेजैंटेशन बहुत अच्छा हुआ, क्लाइंट ने प्रेजैंटेशन की बहुत तारीफ भी की लेकिन औफिस में किसी ने मेरी तारीफ नहीं की. तुम बताओ क्या औफिस के साथियों को मेरी तारीफ नहीं करनी थी क्या? क्या मेरा प्रेजैंटेशन अच्छा नहीं हुआ था क्या? अब मैं कभी भी प्रेजैंटेशन नहीं दूंगी,

रीमा गुस्से में बड़ाबड़ा रही थी. शायद उस का मन बहुत उदास था क्योंकि उसे हर बार औफिस में अच्छे काम के लिए तारीफ सुनने को मिलती थी लेकिन इस बार नहीं मिली तो वह दुखी थी. क्या आप के साथ भी ऐसा होता है? तारीफ न मिलने पर दुखी, उदास या निराश हो जाते हैं. तब ऐसे में क्या करें जाने इस लेख में…

यहां सवाल केवल अच्छे प्रेजैंटेशन के लिए तारीफ का नहीं बल्कि किसी काम या चीज को भी ले सकते हैं. जैसे आप ने अच्छा खाना बनाया लेकिन मेहमानों ने तारीफ नहीं की, आप पार्टी के लिए अच्छे से तैयार हुए किसी ने भी तारीफ नहीं की, औफिस में अच्छा काम किया बौस ने तारीफ नहीं की या नए कपडे़ पहनने पर तारीफ नहीं मिली आदि.

यदि हमेशा आप को आप के काम के लिए या किसी और चीज के लिए तारीफ मिलती हो और किसी दिन न मिले तो आप भी ऐसा यानी उदास महसूस कर सकते हैं क्योंकि हमें हर काम को अच्छा करने की आदत हो जाती है और जब वह अच्छा नहीं होता या अच्छा होने पर तारीफ न मिले तब भी तनाव हो जाता है जिस का असर हमारी मैंटल हैल्थ यानी मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ता है.

जैसे जब आप किसी शादी या पार्टी या किसी विशेष समारोह में जाते हैं और कोई कहता है कि आप अच्छे दिख रहे हैं तो आप भी. कहना सही रहता है क्योंकि ज्यादातर लोग ऐसे आयोजनों में सब से अच्छा दिखने के लिए सचेत प्रयास करते हैं क्योंकि यदि आप भी. ऐसा नहीं कहते या औफिस में किसी ने अच्छा काम किया और उसे तारीफ सुनने को न मिले तब यह उसे दुखी कर सकता है क्योंकि किसी भी व्यक्ति से प्राप्त तारीफ हमें खुश करती है जिस से हमारा आत्मविश्वास बढ़ने के साथसाथ हमेशा अच्छा काम करने के लिए प्रोत्साहन भी मिलता है.

वहीं दूसरी ओर यदि तारीफ न मिले तो भी हम दुखी या उदास हो जाते हैं इसलिए लाइफ में खुश रहने के लिए तारीफ का होना जरूरी है. यह हमारी मैंटल हैल्थ को दुरुस्त रखने में जादू की तरह काम करती है इसलिए जब भी मौका मिले समयसमय पर एकदूसरे की तारीफ करना न भूलें.

तारीफ न मिलने पर निराशा

कभीकभी लोग हमारी प्रशंसा सिर्फ इसलिए करते हैं क्योंकि वे हम से कुछ चाहते हैं या वे अपने बारे में बेहतर महसूस करना चाहते हैं लेकिन याद रहे बारबार ज्यादा तारीफ या प्रशंशा मिलने से हम उस के आदी हो जाते हैं और धीरेधीरे घमंड से भी घिर जाते हैं और साथ ही तारीफ न मिलने पर निराशा से भी भर जाते हैं यानी जितनी ज्यादा हमारी प्रशंसा की जाती है, उतना ही कई बार हम दबाव भी महसूस करते हैं.

हर बार अच्छा करना जैसे अच्छे से तैयार होना है, अच्छे कपड़े पहनने हैं, मु  झे अच्छा ही दिखना है चाहे कुछ भी हो जाए, यह काम अच्छे से करना है, अच्छे से स्पीच बोलनी है आदि यानी जो भी काम कर रहे हों उसे अच्छा करने का तनाव हमारे ऊपर हावी हो जाता है ताकि तारीफ मिल सके और तारीफ न मिलने पर निराशा भी हावी हो जाती है यानी दोनों ही स्थितियों में हमारी मैंटल हैल्थ प्रभावित होती है. एक तरफ अच्छा करने का दबाव और दूसरी तरफ अच्छा न होने का तनाव.

तो क्या करें

दूसरों से तुलना करना बंद करें: दूसरों की सफलता से प्रेरणा लें, आखिर वे शिखर तक कैसे पहुंचे यह जानें ताकि अपने आत्मविश्वास को बढ़ा सकें.

अपनी अपेक्षाएं कम करें: यदि आप अपेक्षा से अच्छा नहीं कर पाए तो निराशा को हावी न होने दें. अगली बार खुद को फिर से अच्छा करने के लिए प्रोत्साहित करें, जब आप खुद को नकारात्मक महसूस करें, तब अपने लिए पौजिटिव बातें बोलना खुद को प्रोत्साहित कर सकता है. Personality Tips

Parenting Tips: ऐसे तय करें प्यार में पैंपरिंग की लिमिट

Parenting Tips: 90 वीं सदी में जब हर घर में अमूमन 3-4 बच्चे होते थे या उस से पहले 80वीं सदी में हर घर में 10-12 बच्चे होना आम बात थी. तब बच्चों की परवरिश पर उतना ही ध्यान दिया जाता था जितना उन को जरूरत होती, जिस का नतीजा यह होता था कि हर बच्चा 2 साल की उम्र तक इंडिपैंडैंट बन जाता था. उन को भूख लगी है या खाना खिलाना है या उन को खेलने के लिए महंगे खिलौनों की जरूरत है जिस से उन का कौग्निटिव विकास हो सके, ये सब चोंचलेबाजी पहले वक्त में नहीं थी.

बच्चे पुराने पड़े टायर आदि से अपने लिए खुद खिलौने, गाडि़यां बनाते थे. कागज के पन्नों पर चोरसिपाही खेलते थे. भागतेदौड़ते अपने लिए खुद खेल बनाते थे. ऐसा नहीं है कि वे बच्चे कैरियर या जीवन में सफल नहीं हुए.

1 या 2 बच्चों के कल्चर ने इन दिनों पेरैंट्स को इतना कौंशस कर दिया है कि वे चाहते हैं उन का बच्चा किसी दूसरे से किसी मामले में कम न हो. सोशल मीडिया का इस में बहुत बड़ा हाथ है. अगर पड़ोस का बच्चा डांस, स्वीमिंग और फुटबाल खेल रहा है तो हम अपने बच्चे को इन के साथ पेंटिंग और म्यूजिक की क्लास भी कराते हैं. सोशल मीडिया पर रोज बच्चों के टिफिन में क्या नया दें इस के दर्जन भर पेज पेरैंट्स फौलो कर के रखते हैं और फिर पेरैंट्स ही कंपीटिशन में लग जाते हैं बेहतर टिफिन देने के.

हालात ये हैं कि घर में क्या खाना बनेगा, दीवारों पर कौन कलर होगा, यह भी छोटे से 5 साल के बच्चे से पूछा जाता है कि कौन सा कलर कराएं और कौन सा नहीं. अब आप जरा खुले दिमाग से सोच कर बताएं कि इस में क्या समझदारी की बात है? हमारा बच्चा तो घीया, तोरई नहीं खाता या मार्केट जाते ही उसे कोई नया खिलौना चाहिए. इस बात पर इतरा कर बड़े ही प्राउड के साथ पेरैंट्स एकदूसरे को बताते हैं.

दूसरे बच्चे के बाद पहले की चिंता और सोशल मीडिया की गाइडलाइन

आजकल सोशल मीडिया पर बाकायदा गाइड होती है कि दूसरे बच्चे के बाद भी पहले को कैसे ‘फील स्पैशल’ कराया जाए. पूरे परिवार की अटैंशन में पला पहला बच्चा दूसरे बच्चे के बाद कम होती अटैंशन से मैंटल स्ट्रैस में न आ जाए. अब ऐसे में आप को समझना होगा कि जो बच्चा 2 महीने का है वह अपनी हर जरूरत के लिए आप पर निर्भर है, वह अपनी जरूरत को ले कर बता भी नहीं सकता है. जबकि बड़े बच्चे ऐसा कर सकते हैं. तो जरूरी है उन्हें समय रहते सैल्फ डिपैंडैंट होने दें. अब 5-6 साल के बच्चे को भी आप हर बार वाशरूम ले कर जाएं तो यह बचकाना लगता है या उसे अपने हाथों से खाना खिला रहे हैं या फिर मार्केट में जाने के बाद जबरन उस के लिए कुछ न कुछ खरीद कर ला रहे हैं भले ही उस के बाद खिलौनों का अंबार लगा हो जिन्हें उस ने छुआ भी नहीं.

प्यार और बेवकूफी में फर्क

अगर आप ने फैसला किया है कि आप 2 बच्चों या 1 बच्चे के पेरैंट बनेंगे तो पहले खुद का मैच्योर होना जरूरी है. बच्चे को उतना ही पैंपर करें जितनी जरूरत है. प्यार और बेवकूफी में फर्क है यह पेरैंट्स को सम  झना होगा. कई घरों में बच्चे पेरैंट्स पर हाथ उठाते हैं चीखतेचिल्लाते हैं या फिर मार्केट या रैस्टोरैंट में ले जाने पर उन की पसंद का खिलौना न खरीदने पर या महंगी आइसक्रीम न खरीदने पर टैंट्रम थ्रो करते हैं. सोशल दबाव में आ कर पेरैंट्स उन की जिद पूरी भी कर देते हैं कि बाकी लोग क्या कहेंगे. अब हमें सम  झना होगा कि ये बाकी लोग कोई नहीं है.

मौल में धूम रही ग्रीन ड्रैस की औरत आप के बारे में क्या सोच रही है या ये जो अंकल आप को देख रहे हैं वे आप के बारे में क्या सोचेंगे यह सोचना आप बंद करें. अगर बच्चों को घुमाने बाहर ले जा रहे हैं तो पहले से बाउंड्री तय कर के जाएं, बच्चे को भी समझाएं कि नाजायज जिद पूरी नहीं की जाएगी. आप के एक बार   झुकने पर बच्चा हर बार वही रोनेधोने, चिल्लाने की ट्रिक अपनाएगा और उसी को आदत बना लेगा जो लौंग टर्म में आप के लिए बेहद नुकसानदायक साबित होगी.

बजट और जरूरत के अनुसार खिलौने दें, ट्रैंड के नहीं

आप इन दिनों किसी 1 साल के बच्चे के घर जाइए. आप को ऐसेऐसे खिलौने देखने को मिलेंगे जिन से बच्चे खेलते नहीं बस कमरे में भीड़ जरूर लगी रहती है. अब आप ही बताइए 1 साल के बच्चे को क्या रिमोट कंट्रोल कार से खेलना आएगा? नहीं न? अरे उस बच्चे को तो आप 1 चम्मच और कटोरी दे दें वह उन्हीं से खेल कर पूरा दिन निकाल देगा. अगर यकीन न हो आजमा कर देखें.

कई घरों में तो स्पैशल टौयरूम बना दिए जाते हैं, जिस में 99त्न ऐसे महंगे खिलौने होंगे जिन से खेलना बच्चे को आता ही नहीं. अगर आप का बजट आप को परमिशन देता है तो जरूर आप खुले दिल से खर्च करें, लेकिन फलां के घर में बच्चों के इतने खिलौने हैं. इस रेस में शामिल होने के लिए अगर आप ऐसा कर रही हैं तो इस आदत को तुरंत त्याग दें.

फुजूल जिद को करें इग्नोर

मार्वल कैरेट्स का क्रेज बच्चों में खूब देखने को मिलता है. नतीजा यह है कि हर दुकान पर मार्वल कैरेक्टर देखने को मिल जाएंगे. मैक्सिमम घरों में यह देखने को मिलता है कि अगर बच्चे को ले कर आप मार्केट जाएंगे तो वह जरूर एक नया खिलौनों का सैट खरीद कर लाएगा भले घर में उस के पास सेम खिलौने हों. अब आप ही बताइए यह फुजूल खर्च नहीं तो क्या है? ऐसी जिद आप को इग्नोर करनी आनी चाहिए भले ही आप का बच्चा सड़क पर क्यों न लेट जाए.

आप ही बताइए, 500 के खिलौने जिसे घर आते ही कोई वैल्यू नहीं मिलनी क्योंकि वैसा सैट घर में मौजूद है उस के लिए आप का बच्चा बाजार में रोए तो क्या आप उसे दिला देंगी? आप को बच्चे से पहले खुद स्ट्रौंग होना होगा और न कहना सीखना होगा. बच्चे का टैंट्रम 5-10 मिनट का होगा और जिद पूरी करने में आप को अपनी पूरे दिन की मेहनत का पैसा लुटाना होगा. अत: समझदारी से काम लें.

मार्बल हो या मिनियन, हर बार नया खिलौना खरीदना बच्चे के लिए नहीं, आप के पैसे और पेरैंटिंग की हार है, न कहना सीखें और बच्चे को भी सिखाएं कि हर मांग पूरी नहीं होगी.

बच्चे के लिए रोल मौडल बनें, आया नहीं

जब से पेरैंट्स के हाथ में फोन आया है तो उन पर बेहतरीन पेरैंटिंग का दबाव और बढ़ गया है. कैसे बच्चों के इमोशन का ध्यान रखें, जैंटल पेरैंटिंग बच्चों का बेहतरीन विकास, 2 साल के बच्चों को पढ़ना कैसे सिखाएं और बच्चों को बचपने से कैसे सुपरस्टार बनाएं, इन की रीलें देख कर पेरैंट्स इन दिनों खुद ही गिल्ट में जा रहे हैं. उन्हें लग रहा है जैसे ये सब ट्रैंड फौलो नहीं किया तो वे अच्छे पेरैंट नहीं बन पाएंगे.

कई सोशल मीडिया प्लेटफौर्म तो ऐसे हैं जो मांबाप को बच्चों की जिद के सामने कैसे   झुकें और कैसे अपने दिन का हर मिनट बच्चे के लिए ऐक्टिविटी प्लान करने में गुजारें, उस की बाकायदा पैसे ले कर ट्रेनिंग भी देते हैं.

अब के मिलेनियम पेरैंट्स को सम  झना होगा कि बच्चों को नेचर ने स्ट्रौंग बनाया है, वे देख कर सीखते हैं. तो उन को सिखाने के लिए ज्यादा एफर्ट्स मत लगाएं. जो आप की दिनचर्या है उस के हिसाब से जीवन बिताएं न कि बच्चे के हिसाब से खुद को ढालें. कुछ वक्त में बच्चा अपने ऐन्वायरन्मैंट को समझ कर खुद आप के हिसाब से एडजस्ट हो जाएगा. इस के लिए आप को ज्यादा मेहनत करने की जरूरत नहीं है. इसलिए जरूरी है कि आप पर्सनैलिटी, दिनचर्या, रूटीन और लाइफस्टाइल पर ज्यादा फोकस कर के बच्चे के लिए रोल मौडल बनें, आया नहीं.

बच्चे को एडल्ट की तरह ट्रीट करें

प्यार दें, पर सीमाएं भी तय करें. बच्चों को बचपन से ही एडल्ट की तरह ट्रीट करना जरूरी है. लेकिन ऐसा एडल्ट जिसे प्यार भरपूर मिलेगा लेकिन प्यार के नाम पर उस की नाजायाज जिद पूरी नहीं की जाएगी. बच्चों से पूछना कौन से कलर की साइकिल, दीवारों पर कौन सा कलर, डिनर में क्या बनाएं, घूमने कहां जाएं ये सब बंद करें. बच्चों को सम  झाएं कि उन की बात सुनी जाएगी लेकिन किया वही जाएगा जो सही, व्यावहारिक और उन की पौकेट के हिसाब से होगा. उन के फैसले तभी माने रखेंगे जब वे फैसले लेने के लायक होगें. यस, ओपिनियन मैटर्स की बात को सम  झा जाएगा. उन की बात सुनी जरूर जाएगी लेकिन उस पर अमल ये जरुरी नहीं.

गिरेंगे नहीं तो संभलना कैसे सीखेंगे

यहां पेरैंट्स की भी गलती है. वे बच्चों को ले कर कुछ ज्यादा ही परेशान रहते हैं. पार्क भी जाएंगे तो बच्चे को खुला छोड़ने की बजाय उस के पीछेपीछे चलेंगे कि कहीं गिर न जाए, कोई बच्चा ही उस पर हाथ न उठा दे. अब बताइए विदाउट रिस्क क्या कभी कुछ हुआ है? बच्चे गिरेंगे नहीं तो संभलना कैसे सीखेंगे? इसलिए अपने शेयर की गलतियां बच्चों को खुद करने दें. स्लाइड से गिर जाओगे मत चढ़ो, यहां मत जाओ गिर जाओगे, अकसर यही आप को पार्क में सुनने को मिलेगा. अरे, उन्हें खुला छोड़ दें. गिरेंगे तभी तो संभलेंगे. ऐसा तो नहीं कि आप का जीवन परफैक्ट रहा हो और आप ने कोई गलती नहीं की. इसलिए बच्चों को भी खुद सीखनेखेलने दें और खुद भी चैन की सांस लें.

मातापिता को सम  झना होगा कि जीवन इतना आसान नहीं है जितना उन्होंने अपने बच्चे के लिए चारदीवारी के अंदर बना दिया है. बाहर बेहद संघर्ष है और उस के लिए बच्चे को स्ट्रौंग घर से ही बनना होगा. अगर घर पर आप बच्चे की हर पसंदनापसंद पर ध्यान देंगे तो क्या बाहर भी उसे ऐसा ही माहौल मिलेगा? नहीं न. इसलिए बच्चे को बचपन से एडजस्ट करने और न सुनने की आदत होनी चाहिए. बचपन से बच्चों में अपने काम करने की स्किल्स डैवलप होनी चाहिए.

इस के लिए आप को बच्चे को आजादी देनी होगी न कि ऐक्सट्रा पैंपरिंग. उसे सिखाएं खुद बाथरूम कैसे जाएं, कैसे खाने के बाद न सिर्फ अपने बरतन सिंक में रखें बल्कि उन्हें धोएं भी. हो सकता हो वह शुरू में प्लेट में गंदगी छोड़ दे, लेकिन आप की ड्यूटी है कि उसे अपने काम करने के लिए खुद प्रोत्साहित करें.

तो पेरैंट्स स्टैप बैक ऐंड रिलैक्स. बच्चों को उन की जरूरतों के हिसाब से पालिए न कि सोशल मीडिया के ट्रैंड्स के मुताबिक.

Saloni Anand: कौरपोरेट जौब छोड़ कैसे शुरू किया स्टार्टअप

Saloni Anand: आईटी और इंजीनियरिंग में भविष्य खोजने वाले इस जमाने में इंजीनियर से बिजनैस वूमन बनीं सलोनी ने भारत को पहला ऐसा हैल्थ टेक ब्रैंड दिया है जो मैडिकल ऐक्सपर्ट्स द्वारा जांचेपरखे, मल्टीसाइंस हेयर लौस सौल्यूशंस की सुविधा देता है. इस की शुरुआत उन्होंने अपने हस्बैंड के प्रीमैच्योर हेयर लौस का इलाज ढूंढ़ने की चुनौती से की.

सलोनी ने एक ऐसा अनोखा ट्रीटमैंट ईजाद किया जिस में आयुर्वेद, डर्मैटोलौजी  और न्यूट्रिशन की पावर को रिसर्च के ठोस नतीजों और मैडिकल ऐक्सपर्ट्स से मिली मान्यता के साथ मिलाया और त्राया हैल्थ की बुनियाद रखी जिसे आज की तारीख में भारत के सब से फास्टैस्ट ग्रोइंग और मोस्ट ट्रस्टेड DwC हैल्थ ब्रैंड्स में गिना जाता है.

2019 में सलोनी की लीडरशिप में शुरू हुई यह कंपनी 2023 में यानी 5 साल से भी कम समय में एक ऐसा प्रौफिट देने वाला और रिसर्चड्रिवन ऐंटरप्राइज बन गया है जिस का सालाना कारोबार 400 करोड़ रुपए का है. यह ब्रैंड अब तक 10 लाख से ज्यादा कस्टमर्स को सर्विस दे चुका है और देशभर में 800 से ज्यादा लोगों की टीम को रोजगार दे रहा है. कंपनी में बोर्ड की सदस्य होने के अलावा सलोनी 2 बच्चों की सुपरमौम भी हैं, सफर करने की दीवानी हैं और 17 स्टार्टअप्स में ऐंजेल इनवैस्टर भी हैं.

हाल ही में सलोनी को हुरुन इंडिया द्वारा सम्मानित किया गया और उन को प्रतिष्ठित अंडर 35 ऐंटरप्रन्योर लिस्ट में स्थान मिला जो डाइरैक्ट टू कंज्यूमर क्षेत्र में एक महिला संस्थापक के रूप में उन के योगदान को मान्यता देता है. उन्हें ई कौमर्स श्रेणी में ‘शी द पीपल डिजिटल वूमन अवार्ड 2024’ से भी सम्मानित किया गया है. ‘योर स्टोरी’ की 100 उभरती महिला नेताओं में नामित किया गया है और ‘हील फाउंडेशन’ द्वारा ‘अंडर 45 हैल्थकेयर चेंजमेकर्स अवार्ड’ से सम्मानित किया गया है.

इस के अतिरिक्त उन्हें ‘कैंपेन इंडिया वूमन लीडिंग चेंज अवार्ड’ से भी सम्मानित किया गया. त्राया को मिले अवार्ड्स में ‘एफैक्स डिजीज अवार्ड्स 2025’ यूट्यूब का सर्वश्रेष्ठ उपयोग, इंक42 के 30 स्टार्टअप्स टू वाच आउट फौर और इंडिया डी2सी समिट ऐंड अवार्ड्स में मान्यता आदि शामिल हैं.

सलोनी में ऐसा क्या है जो उन्हें दूसरों से अलग बनाता है

सलोनी सिर्फ बोर्ड रूम में बैठ कर फैसले नहीं लेतीं. वे जानती हैं कि भारत जैसी मुश्किल मार्केट में जमीन से उठा कर एक बिजनैस को करोड़ों के रेवैन्यू तक कैसे पहुंचाया जाता है. वे जमीनी स्तर के कारोबारियों से कनैक्ट करती हैं और उन्हें आगे के भविष्य की ओर सोचने के लिए प्रेरित करती हैं. उन्हें कंज्यूमर की गहरी सम  झ है खासकर हैल्थ जैसे संवेदनशील या कम भरोसे वाले सेगमैंट में.

सलोनी युवा, बेबाक और महत्त्वाकांक्षी फाउंडर हैं, जिस से आज की पीढ़ी खुद को जोड़ पाती है खासकर वे महिलाएं जो स्टार्टअप की दुनिया में अपनी जगह बनाना चाहती हैं. वे प्रोडक्ट फौर्मुलेशन से ले कर परफौर्मैंस मार्केटिंग और सप्लाई चेन तक हर मोरचे पर अपनी छाप छोड़ती रही हैं. तभी तो सलोनी ने जीरो से एक मुनाफेदार मल्टी मिलियन डौलर हैल्थ ब्रैंड खड़ा किया है.

पति के झड़ते बालों का ढूंढ़ा सौल्यूशन और शुरू किया स्टार्टअप

सलोनी एक अच्छीखासी जौब कर रही थीं और उन के पति अल्ताफ (सह संस्थापक, त्राया) ने अपना नया स्टार्टअप शुरू किया था जिस को ले कर वे बेहद उत्साहित थे. लेकिन जैसेजैसे उन के स्टार्टअप ने गति पकड़ी तो उन के ऊपर काम का भार बढ़ने लगा. वे रोज लंबे समय तक काम में लगे रहते जिस के कारण उन के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ने लगा. न वे संतुलित भोजन कर पाते थे और न ही पूरी नींद ले पाते थे जिस के कारण उन की सेहत में गिरावट आने लगी. उन्हें थायराइड और यूरिक ऐसिड जैसी समस्याएं पैदा हुईं. उन का वजन बढ़ गया और बाल   झड़ने की समस्या भी पैदा हो गई. सलोनी के लिए यह बहुत परेशान करने वाली बात थी.

सलोनी ने पति का आयुर्वेदिक इलाज कराया, डर्मैटोलौजिकल ट्रीटमैंट और यहां तक कि कैमिकल ट्रीटमैंट भी ट्राई किया लेकिन कुछ भी काम नहीं आया. कुल मिला कर सलोनी और अल्ताफ को भारतीय बाजार में   झड़ते बालों के प्रभावी उपचार की बेहद कमी महसूस हुई. उन्होंने मार्केट में उस कमी को दूर करने और   झड़ते बालों के समाधान के लिए कुछ नया करने की जरूरत को सम  झा.

सलोनी बताती हैं, ‘‘अपने इस अनुभव ने मु  झे रिसर्च करने को प्रेरित किया और मैं ने एक खास ट्रीटमैंट की खोज की जिस में

3 विज्ञानों की शक्ति शामिल थी- आयुर्वेद, न्यूट्रिशन और डर्मैटोलौजी. इसी आधार पर त्राया का आरंभ हुआ. एक ऐसा ब्रैंड जो मैडिकली जांचापरखा गया है, रिसर्च बेस्ड है और बाल   झड़ने की समस्या का पूरा समाधान करता है. त्राया का उद्देश्य ही है बालों के   झड़ने के मूल कारण को सम  झ कर उस का प्रभावी रूप से और प्राकृतिक तरीके से इलाज करना. आज त्राया सिर्फ एक ब्रैंड नहीं है. यह लगभग 93त्न प्रभावी है. यह एक भरोसा है जो प्रामाणिक तौर पर विज्ञान पर आधारित उपचार देता है.’’

कैसे शुरू हुआ और आगे बढ़ा त्राया का सफर

त्राया का पूरा सैटअप तैयार करने में सलोनी और अल्ताफ को लगभग 1 साल का समय लगा. इस दौरान उन्होंने गहराई से रिसर्च की, प्रोडक्ट फौर्मुलेशन पर काम किया और एक सही टीम बनाई. आज उन के साथ करीब 800 लोग काम करते हैं. वे अलगअलग पृष्ठभूमि, अनुभव और नजरिए वाले लोगों को एकसाथ लाते हैं जिस से इनोवेशन, क्रिएटिविटी और बेहतर प्रौब्लम सौल्विंग को बढ़ावा मिलता है. त्राया टीम में महिलाओं और पुरुषों की संख्या लगभग बराबर है.

त्राया के 15 से ज्यादा ऐसे प्रोडक्ट्स हैं जो जड़ से समस्या को ठीक करने के लिए डिजाइन किए गए हैं जैसे त्राया स्कैल्प औयल, आयुर्वेदिक सप्लिमैंट्स जैसे हेयर रैस और त्राया ऐंटी डैंड्रफ लोशन. हर ट्रीटमैंट किट व्यक्ति के हैल्थ असैसमैंट और बाल   झड़ने के कारणों के आधार पर कस्टमाइज की जाती है. वूमन सैंटर्ड सेगमैंट में भी विस्तार किया गया है और संतुलन रेंज लौंच की है जिस में त्राया आयरन संतुलन, त्राया मेनो संतुलन, त्राया मौम संतुलन और त्राया पीसीओएस संतुलन जैसे प्रोडक्ट्स शामिल हैं.

यह रेंज पीसीओएस, मेनोपौज, पोस्टपार्टम जैसी विशेष समस्याओं को ध्यान में रख कर तैयार की गई है.

भारत में त्राया महाराष्ट्र, उत्तर भारत, दक्षिण भारत, यूपी, दिल्ली और गुरुग्राम जैसे प्रमुख शहरों में काफी ऐक्टिव है. इस के अतिरिक्त देशभर में त्राया के 10 औफलाइन स्टोर भी स्थापित हो चुके हैं जो कंस्यूमर्स को प्रत्यक्ष एवं व्यक्तिगत सेवा प्रदान करने में समर्थ हैं. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर त्राया ने संयुक्त अरब अमीरात में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराई है.

त्राया की स्थापना सलोनी और अल्ताफ ने मात्र 15 लाख रुपए की व्यक्तिगत बचत से की थी. आज त्राया एक सुदृढ़ एवं प्रतिष्ठित ब्रैंड के रूप में स्थापित हुआ है और वित्तीय वर्ष 2024-25 के अंत तक क्व300 से क्व400 करोड़ के वार्षिक कारोबार की आशा है.

ऐक्सीडैंटल ऐंटरप्रन्योर

सलोनी एक साधारण सर्विस क्लास परिवार से आती हैं जहां जिंदगी का रास्ता बहुत साफसुथरा और सीधा सरल होता है यानी अच्छी पढ़ाई करो और एक अच्छी नौकरी पाओ. सलोनी के पापा ने अपनी पूरी जिंदगी में एक ही फार्मा कंपनी में काम किया और मां एक डाक्टर हैं जो सालों तक अपना क्लीनिक चलाती रही थीं.

सलोनी ने बचपन साउथ गुजरात के एक छोटे से शहर वापी में बिताया जहां उन के जैसे परिवारों के बच्चों के लिए 2 ही कैरियर औप्शन माने जाते थे- डाक्टर बनो या इंजीनियर. बहन ज्यादा होशियार थी तो वह डाक्टर बन गई. सलोनी थोड़ी कम पढ़ाकू थी इसलिए इंजीनियर बनना तय हुआ. कोई ज्यादा सोचने या ऐक्सप्लोर करने का मौका नहीं था. बस वही रास्ता अपनाया जो दिया गया.

सलोनी बताती हैं, ‘‘मेरा जन्म गुजरात के छोटे से शहर वापी में डाक्टर्स के परिवार में हुआ था. मैं ने ‘कमिंस कालेज औफ इंजीनियरिंग’ से बीटैक और ‘आईबीएस हैदराबाद’ से एमबीए किया. प्रोडक्ट मार्केटिंग और ईआईआर में काम करने के बाद मुझे हमेशा अलग तरह की व्यावसायिक समस्याओं को हल करना पसंद रहा है. चूंकि मैं स्वभाव से अंतर्मुखी हूं इसलिए व्यवसाय के क्षेत्र में जाना मेरे लिए स्वाभाविक रास्ता नहीं था. वास्तव में अगर मुझे आकस्मिक व्यवसायी यानी ऐक्सीडैंटल ऐंटरप्रन्योर कहा जाए तो ज्यादा सही होगा. मेरी प्रोफैशनल जर्नी काफी उतारचढ़ाव और ऊर्जा से भरपूर रही है.  Saloni Anand

Divorced Women: सैकंड हैंड का टैग

Divorced Women: दक्षिण भारतीय फिल्मों की अभिनेत्री सामंथा रूथ प्रभु की नागा चैतन्य से तलाक के बाद से ही आलोचना हो रही है. सोशल मीडिया पर उन्हें ट्रोल किया जा रहा है. एक ट्रोलर ने उन के चरित्र पर सवाल उठाते हुए सामंथा को तलाकशुदा, बरबाद सैकंड हैंड आइटम कह दिया.

हालांकि सामंथा की रिप्लाई के बाद ट्विटर यूजर ने अपनी खिंचाई होते देख कर अपने ट्वीट को डिलीट भी कर दिया.

कुछ इसी तरह की बात टीवी ऐक्टर काम्या पंजाबी के बारे में भी कही गई थी. तलाक के 7 साल बाद जब उन्होंने दूसरे रिश्ते में जुड़ने का फैसला लिया तब ट्रोल्स ने उन के होने वाले पति के साथ संवेदना जताते हुए पूछ लिया कि आखिर वे कैसे इस्तेमाल की हुई औरत के साथ खुश रह सकेंगे? मानो औरत न हुई, टूथब्रश हो गई जिसे एक बार किसी ने इस्तेमाल कर लिया तो फिर दूसरा कोई इस्तेमाल नहीं कर सकता.

एक वैबसाइट है कोरा, जहां लोग सवाल पूछते हैं. सवाल खानेपकाने से ले कर कैंसर की दवाई की खुराक से ले कर औरतमर्द के रिश्ते पर भी डिस्कशन होती है. इसी कोरा वैबसाइट पर एक पति मासूम सा सवाल करते हैं. उन का सवाल था, ‘‘वैसे तो मेरी पत्नी बड़ी नेकदिल और हसीन है लेकिन जब भी मैं उस के करीब जाता हूं तो मु  झे ‘सैकंड हैंड’ सी फीलिंग आती है. सोचता हूं कि मु  झ से पहले भी उसे किसी पुरुष ने छुआ है. मैं इस सोच से छुटकारा कैसे पाऊं?’’

पुरुष बाहर भले ही कई महिलाओं से संबंध रख रहे हों या वे खुद तलाकशुदा हों, कोई बात नहीं लेकिन तलाकशुदा पत्नी से उन्हें ‘सैकंड हैंड’ की बू आती है.

नीचा दिखाने का प्रयास

हमारे समाज में एक तलाकशुदा पुरुष को उतने सवालों के जवाब नहीं देने पड़ते, जितने एक तलाकशुदा महिला को देने पड़ते हैं. अकसर औरतों में ही कमी निकाल कर उन्हें नीचा दिखाया जाता है, एहसास कराया जाता है कि कमी उन्हीं में है. तभी उन के पति ने छोड़ दिया. जबकि हर तलाक के पीछे कई कारण हो सकते हैं. जब एक औरत मां नहीं बन पाती है तब उसे बां  झ कह कर पति तलाक दे देता है क्योंकि उसे लगता है कि कमी औरत में ही है. वही मां बनाने लायक नहीं. जब एक औरत की कोख से सिर्फ बेटियां पैदा होती हैं तब भी उस का पति उसे तलाक दे देता है.

ट्रिपल तलाक को ले कर कानून बनने के बाद भी महिलाएं इस दर्द से गुजर रही हैं. हुमा हाशिम के पति ने इसलिए उस पर थूका, लातें मारीं और तलाक दे दिया क्योंकि उस ने सिर्फ बेटियां ही पैदा की थीं. जैसे औरत इंसान न हो कर दुधारू गाय हो गई कि जब तक दूध दिया ठीक वरना कोई काम कि नहीं रह जाती है. यहां तक की सिंदूर न लगाने पर भी पति अपनी पत्नी को तलाक दे सकता है.

जी हां, पिछले साल ही गुवाहाटी हाई कोर्ट ने एक विचित्र ही और्डर पास किया था. कोर्ट के जजमैंट के हिसाब से गुवाहाटी हाई कोर्ट ने तलाक के मामले में कहा कि अगर विवाहिता हिंदू रीतिरिवाज के अनुसार शंखा, चूडि़यां और सिंदूर लगाने से इनकार करती है तो यह माना जाएगा कि विवाहिता को शादी अस्वीकार है. यह टिप्पणी हाई कोर्ट ने एक पति द्वारा दायर की गई तलाक की याचिका मंजूर करते हुए कही थी.

जस्टिस अजय लंबा और जस्टिस सौमित्र सैकिया की डबल बैंच ने कहा कि इन परिस्थितियों में अगर पति को पत्नी के साथ रहने को मजबूर किया जाए तो यह उत्पीड़न माना जा सकता है. लेकिन हमारे समाज में शादीशुदा होने का मतलब है शादीशुदा दिखना. किसी महिला का सिंदूर, चूडि़यां और मंगलसूत्र न पहनना यह दर्शाता है कि वह शादी को ही नहीं मानती, कितना बेतुका है. जबकि हिंदू मैरिज ऐक्ट में कहीं सिंदूर या मंगलसूत्र का उल्लेख नहीं है. एक महिला क्या पहने और क्या न पहने, क्या उस की अपनी मरजी नहीं होनी चाहिए? यदि शादी के माने सिर्फ कौस्मैटिक है तो फिर तो यह अजीब ही है.

हमारे देश में पुरुषों की दोबारा शादी आसान पर महिलाओं की नहीं

2011 की जनगणना के मुताबिक, शादी के बाद सिंगल हुई स्त्रियों यानी विधवा और तलाकशुदा औरतों की संख्या विधुर और तलाकशुदा मर्दों की तुलना में लगभग दोगुनी है.ऐसे पुरुषों की संख्या 1 करोड़ 60 लाख है तो महिलाओं की 3 करोड़ 20 लाख. पत्नी की मृत्यु या तलाक हो जाने के बाद एक पुरुष को किन्हीं खास परेशानियों का सामना नहीं करना पड़ता. बिना किसी समस्या के वह दूसरा विवाह कर लेता है. लेकिन वहीं अपने पति से तलाक लेने के बाद एक महिला को सम्मान नहीं दिया जाता. बिना किसी सोचविचार के यह मान लिया जाता है कि तलाक होने के पीछे महिला ही जिम्मेदार है.

कुछ नारीवादी जन महिलाओं से सांत्वना रखने वाले लोग भले ही उन्हें न्याय दिलाने के पक्ष में हों लेकिन स्वीडन के वैज्ञानिकों का कहना है कि तलाक के पीछे केवल महिलाएं ही जिम्मेदार होती हैं.

स्वीडन स्थित कानोर्लिंस्का इंस्टिट्यूट के अनुसंधानकर्ताओं ने यह स्थापित किया था कि तलाक की वजह एक मादा जीन होता है. वैवाहिक जीवन कितना सफल और स्थायित्व लिए होगा यह केवल महिला के शरीर में छिपा जीन ही निर्धारित करता है. जीन यह भी बता सकता है कि कोई महिला अपने दांपत्य जीवन को बचाने के लिए संघर्ष कर सकती है या नहीं.

समझौते करने की आदत

डेली मेल में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, जिन महिलाओं के सामान्य जीन में भिन्नता होती है वे दूसरे व्यक्ति के साथ आसानी से नहीं जुड़ पाती हैं. अगर ऐसी महिलाएं विवाह कर भी लें तो उन के दांपत्य जीवन के सामान्य होने की संभावना केवल 50 फीसदी ही होती है. ऐसी महिलाओं का अपने पति के साथ ज्यादा नहीं बनती.

अनुसंधानकर्ताओं का कहना है कि यह जीन महिलाओं की औक्सीटोसिन हारमोन के लिए संसाधन प्रक्रिया को प्रभावित करता है जो प्यार और मातृत्व संबंधी लगाव के एहसास को बढ़ाता है. महिलाओं में औक्सीटोसिन हारमोन का उत्पादन बच्चे के जन्म के समय होता है. लेकिन अगर इस हारमोन का उत्पादन पर्याप्त तरीके से न हो तो शायद वह महिला अपने पति, मित्र और तो और संतान के साथ भी सामान्य जुड़ाव नहीं रख पाती.

इस अध्ययन पर गौर करें तो यह उस स्थापना को   झुठलाता प्रतीत होता है जिस के अनुसार, महिलाएं स्वभाव से भावुक और सहनशील होती हैं. इस के अलावा शोध ने उन के संबंध को बनाए रखने और सम  झौते करने की आदत को भी नकारा है.

विदेशों में जहां संबंधों का टूटना एक नौर्मल बात है क्योंकि विवाह जैसे संबंध वहां कुछ खास महत्त्व नहीं रखते तो ऐसे में उन के टूटने में किस की कितनी भूमिका रही यह बात शायद कोई माने नहीं रखती. लेकिन भारतीय हालात वहां से पूरी तरह भिन्न हैं. यहां संबंध जुड़ना जितना महत्त्व रखता है, उस से कहीं ज्यादा दुख संबंधविच्छेद पर होता है.

लेकिन इस शोध ने पुरुषप्रधान समाज की परंपराओं को बहुत अच्छी तरह निभाया है. वैसे भी देश, समाज हर गलती के लिए महिलाओं को ही दोषी ठहराता आया है. यहां तक कि अगर किसी लड़की का बलात्कार होता है तो दोषी बलात्कारी नहीं बल्कि लड़की की पोशाक का होता है, उस ने कपड़े ही ऐसे पहने थे तो लड़का क्या करता बेचारा.

और हमारे दिग्गज नेतागण जो सभ्यता, संस्कृति का ढोल पीटते नहीं थकते का कहना है कि जब बलात्कार रोक नहीं सकते तो लेटे रहो और उस का आनंद लो. ठीक उसी स्थिति में जिस में आप हो.

इस नेताजी के भद्दे बयान पर वहां बैठे लोग ठहाके लगा कर हंस पड़ते हैं, ठीक वैसे ही जैसे द्रौपदी के चीर हरण के समय सभा में बैठे लोग हंस रहे थे. जिन से हम उम्मीद करते हैं कि विधानसभा में बैठ कर वे देश हित में अच्छे कानून लाएंगे. लेकिन अगर उन की ही ऐसी घटिया मानसिकता है तो यह देश के लिए दुर्भाग्य ही है.

दोषी महिला ही क्यों

हमारे समाज में हमेशा से एक महिला को जज किया जाता रहा है. तलाक के लिए भी उसे ही दोषी ठहराया जाता है कि उसे ही रिश्ता निभाना नहीं आया. महिला पर ही रिश्ते में सामंजस्य बनाए रखने में असमर्थ होने के दाग लगते हैं. अकसर लोगों को कहते सुना है कि शिक्षा ने महिलाओं का दिमाग खराब कर रखा है. देखो कितनी मुखर है, तभी तो पिछली शादी नहीं निभ पाई इस की.

लेकिन कोई यह नहीं सोचता कि ताली हमेशा दोनों हाथों से बजती है. तलाक के मामले में जितनी गलती एक महिला की होती है उतनी ही गलती पुरुष की भी होती है. ज्यादातर मामलों में देखा गया है कि जब दर्द हद पार कर जाता है तब ही एक महिला तलाक के लिए कोर्ट का दरवाजा खटखटाती है.

तलाकशुदा महिला जब अपनी जिंदगी में फिर से शादी का रंग भरने की सोचती है तो समाज केवल उसे एक उपभोग की वस्तु की तरह देखता है. जैसे तलाक के पहले भी उसे किसी ने भोगा है और अब हमेशा उसे भोगा जाएगा. उसे सैकंड हैंड और क्षतिग्रस्त माल सम  झा जाता है.मान लिया जाता है कि एक बार शादी होने और संबंध बनने के बाद महिला अपवित्र हो जाती है. लेकिन तलाकशुदा पुरुषों के लिए इस पितृसत्तात्मक समाज में अपवित्रता की अवधारणा नहीं है. समाज में पुरुषों का फिर से साथी चुनना सहज है.

जब एक तलाकशुदा महिला तलाक जैसे शब्द के दर्द को अपनी जिंदगी से बाहर निकालने के लिए घर से बाहर निकल कर काम करना चाहती है तो समाज उसे दोषी नजरों के साथसाथ उपभोग की वस्तु की नजरों से भी देखने लगता है कि देखो इसे घर में जिस्म की भूख नहीं मिट पा रही है तो बाहर निकल कर अपनी जरूरतें पूरी कर रही है. क्या तलाक सिर्फ महिलाओं का ही होता है पुरुषों का नहीं? फिर उन्हें ही ऐसे तानोंउलाहनों से क्यों भेदा जाता है?

धर्म और रीतिरिवाज

हमारे देश में लड़की और शादी को इस तरह से जोड़ दिया गया है कि लड़की का जन्म ही शादी के लिए हुआ हो. शादी के पवित्रबंधन में बंध कर ही उस का जीवन सार्थक हो पाएगा. लड़कियों को बचपन से ही यह स्वीकार करने के लिए तैयार किया जाता है कि पति के बिना एक महिला अधूरी, असहाय है.

परिवार, समाज उन्हें यही बताने की कोशिश करते हैं कि एक साथी के साथ जीनेमरने के अलावा महिला का अपना कोई अस्तित्व नहीं है. महिलाओं अपनी कोई वैकल्पिक दुनिया नहीं है. उन की पूरी दुनिया उन का घर, परिवार, बच्चे और पति ही है. सारे धर्म, संस्कार, रीतिरिवाज जैसे सिर्फ औरतों के लिए बनाए गए हैं.धर्म, रीतिरिवाज में उन्हें इस तरह से धकेल दिया गया है कि अब वे चाह कर भी उन से निकल नहीं पा रहीं.

पितृसत्तात्मक संरचना में एक तलाकशुदा और विधवा औरत को फिर से शादी करने की अनुमति नहीं है क्योंकि महिलाएं बच्चों की देखभाल कर सकती हैं, खाना बना सकती हैं, घर का ध्यान रख सकती हैं. एक महिला का अस्तित्व पति और परिवार की जरूरतों को पूरा करने के इर्दगिर्द ही सिमट कर रह जाता है.

तलाकशुदा और विधवा औरतों का दोबारा विवाह तभी संभव हो पाता है जब पहले पति से उस की कोई संतान न हो. लेकिन उन के लिए विकल्प के तौर पर वही पुरुष होते हैं जो या तो तलाकशुदा हों या उन के साथी की मौत हो चुकी हो. लेकिन पुरुषों के लिए शायद ही ऐसा होता है. उन्हें तो अनब्याही लड़की आराम से मिल जाती है. तलाकशुदा या विधवा औरत अकेली भी जीना चाहे तो उसे अभागिनी, कुलक्षणी, डायन घोषित कर दिया जाता है. एक महिला का तलाकशुदा या विधवा होना समाज में एक ‘सोशल स्टिग्मा’ है जो महिला के अस्तित्व को साथी की मौत होने या अलग होने के बाद ‘पति रहित या पति बिन’ की पहचान देता है.

आज भी भारत के कई हिस्सों में एक विधवा या तलाकशुदा महिला को रंगीन चटकमटक कपड़े पहनने पर टोका जाता है कि देखो तो इसे जरा भी शर्म नहीं आती ऐसे कपड़े पहन किसे दिखा रही है महारानी? बोल कर उसे अपने अनुसार जीने भी नहीं देते लोग. तीजत्योहार में भी ऐसी महिलाओं से दूरी बना कर रखी जाती है.

यही नहीं तलाकशुदा या विधवा औरतें अगर किसी पुरुष से हंसहंस कर बात भी करें तो परिवार और समाज उन पर चरित्रहीनता की मुहर लगा देता है और अगर भौंहें चढ़ा कर बात करें तो घमंडी कहलाती हैं. नौकरी करें तो कैरियर औबसैस्ड और अपने बच्चों की परवरिश के लिए गुजाराभत्ता की मांग करें तो लालची कहलाती हैं.

क्यों एक तलाकशुदा या विधवा औरतें समाज की नजरों में बेचारी बन कर रह जाती हैं? दया दिखा कर लोग उन के जीवन को बेरंग और खामोश बना देना चाहते हैं. कहने से बाज नहीं आते कि बेचारी अकेली औरत. कैसे जीएगी, क्या महिलाओं की खुशी का पैमाना पुरुष के साथ जीने में ही है? यहां लोग तलाकशुदा या विधवा औरतों के साथ सिंपैथी नहीं दिखाते बल्कि उन के जीवन को और संचित कर देते हैं.

डिवोर्सी का टैग

हमारे समाज में एक तलाकशुदा या विधवा औरत को वह सम्मान नहीं मिलता जो एक शादीशुदा औरत को मिलता है. तलाक के बाद एक औरत अपने मांबाप पर बो  झ बन जाती है. डिवोर्सी का टैग उस के नाम से जुड़ जाता है. एक औरत हरसंभव अपनी शादी को बचाने की कोशिश करती है. वह शादी में खुश न हो तो भी. लेकिन परिवार व समाज फिर भी उसे ही दोषी सम  झता है. लेकिन कोई यह जानने की कोशिश नहीं करता कि तलाक लेने की नौबत क्यों आन पड़ी? कोई तो बड़ी वजह होगी न वरना यों ही कोई रिश्ता नहीं तोड़ लेता.

बहुत सी औरतें घरेलू हिंसा सहने के बाद भी पति से इसलिए तलाक नहीं चाहतीं क्योंकि उन के पास इनकम का कोई स्रोत नहीं होता. बच्चे पालने, घर चलाने के लिए उन के पास पैसे नहीं होते. एक महिला का कहना है कि उस के 2 बच्चे हैं. पति ने चरित्रहीन बताते हुए तलाक का नोटिस भेज दिया. पति की एक प्रेमिका है और इसलिए वह पत्नी को तलाक देना चाहता है. लेकिन पत्नी तलाक नहीं चाहती क्योंकि उस के पास इनकम का कोई स्रोत नहीं है, बच्चों के भविष्य की सोच कर वह पति का जुल्म सहने को भी तैयार है पर तलाक देने को तैयार नहीं है.

‘और्गेनाइजेशन फौर इकौनोमिक कोऔरेशन ऐंड डैवलपमैंट’ के मुताबिक,1000 में से 13 शादियां तलाक पर खत्म हो रही हैं जोकि दुखद ही कहा जा सकता है,लेकिन जख्म जब पूरे शरीर में जहर बन कर फैलाने लगे और नौबत मरने की आ जाए तो अच्छा है कि उस अंग को ही काट कर फेंक दिया जाए.

पहले औरतों को इस कमतरी के एहसास से बचाने के कई तरीके खोजे गए. यहां तक कि मंडी में ले जा कर उन्हें बेचा जाने लगा ताकि वे बिकाऊ भले ही कहलाएं लेकिन पति की छोड़ी हुई नहीं. 16वीं सदी के ब्रिटेन में पत्नी से ऊबे हुए पति वाइफ सेलिंग मार्केट पहुंचते और बोलियां शुरू हो जातीं. जैसे भेड़बकरियों की मंडियां सजती हैं वैसे वहां हर शुक्रगवार को बीवियों

की भी खरीदफरोख्त होती थी. जितनी अच्छी त्वचा, जितना कसा हुआ बदन, नस्ल उतनी ही बढि़या मानी जाती थी और उस के ऊंचे दाम भी मिलते थे.

वाइफ सेलिंग की प्रथा

कई बार ऐसा भी होता कि किसी औरत का कोई खरीदार न मिल पाने पर ‘एक के साथ एक  फ्री’ का औफर दिया जाता था. जैसे पत्नी के साथ शिकारी कुत्ता या घोड़ा मुफ्त देने का औफर होता था. तब बेकार पत्नियां भी हाथोंहाथ बिक जाती थीं. पत्नियों की बिक्री ब्रिटेन के अलावा और कई देशों में हुई. लेकिन 18वीं सदी के मध्य तक लोग इस प्रथा का विरोध करने लगे. बीवियां बेचने वाले शौहर पर पत्थर फेंके जाने लगे. बर्कशायर हिस्ट्री में इस का विस्तार से जिक्र है कि किस तरह से वाइफ सेलिंग की प्रथा का अंत हुआ.

फिर तलाक को कानूनी मान्यता मिली, जहां लोग दर्दभरे रिश्ते से निकल कर खुल कर सांस लेने लगे. ऐसा कानून भारत में भी आया. लेकिन यहां तलाकशुदा पत्नी के माने ‘सैकंड हैंड’ है. लोगों की सोच कि बासी चावल में नया पानी डाल देने से भात ताजा नहीं बन जाती. जो भी हो आज औरतें यही कर रही हैं.

पति से तलाक लेने के बाद घर में मुंह छिपा कर आंसू नहीं बहा रही हैं बल्कि बाहर निकल कर जीने का जश्न मना रही हैं. सामंथा ने ‘पुष्पा’ फिल्म में   झूम कर नाचते हुए औरतों को यह संदेश दिया कि जिंदगी जीने का नाम है, घुटघुट कर मरने का नहीं.

दिव्या ने रितेश से प्रेम विवाह किया था. जब उस का रिश्ता शुरू हुआ था उस ने सपने में भी यह नहीं सोचा था कि इस का अंत कुछ ऐसा होगा. जिस प्यार के लिए वह अपने परिवार तक से भिड़ गई थी वही एक दिन उसे इतनी तकलीफ देगा, सोचा तक न था. लेकिन अब वह उस रिश्ते को बहुत पीछे छोड़ कर आगे निकल चुकी है. उस का तलाक हो चुका है और वह सिंगल है. हालांकि वह सब इतना आसान नहीं था. लेकिन अब वह अपनी जिंदगी में आगे निकल चुकी है. दिव्या का कहना है कि वक्त अच्छा हो या बुरा, हमें कुछ न कुछ सिखा कर ही जाता है और उस ने भी अपने तलाक से बहुत कुछ सीखा.

तलाक के बाद सब से बड़ी सीख दिव्या को यह मिली कि किसी एक इंसान के नहीं होने से दुनिया खत्म नहीं हो जाती.  Divorced Women

Crime Story: सीक्रेट- रौकी और शोमा के बीच क्या था रिश्ता

Crime Story: आज सुबह वह रोज से जरा जल्दी जाग गई. उस ने झट से दरवाजा खोला और बाहर पड़े अखबार को उठा लाई. अखबार के एकएक पन्ने को वह बारीकी से देखने लगी. तभी एक कुटिल सी मुसकान उस के होंठों पर तैर गई.

उस की मां रसोई से पुकार रही थी, ‘‘शोमा…शोमा, तुम्हारी चाय ठंडी हो रही है. रसोई में आ कर ले जाओ. ’’

पर शोमा तो खबर पढ़ने में मशगूल थी. पूरी खबर पढ़ कर बोली, ‘‘मां, क्यों शोर मचा रही हो? मेरे तो कान पक गए.’’

‘‘तुम्हारे कान पक गए और मेरी जीभ में छाले न पड़े तुम्हें पुकारपुकार कर? उलटा चोर कोतवाल को डांटे… इतनी जोर से पुकारा तो तुम्हें अब सुनाई दिया,’’ शोमा की मां ने उलाहना देते हुए कहा.

‘‘मां, क्यों नाराज होती हो. अखबार पढ़ रही थी और तुम हो कि लगातार बोलबोल कर खबरों का मजा किरकिरा कर रही थीं.’’

‘‘लो जी, यह भी मेरा ही दोष? क्या मिलेगा इन खबरों से? एक तो भरी सर्दी में गरमगरम चाय बना कर दो ऊपर से इन का खबरों का मजा किरकिरा हो गया…ऐसी कौन सी खास खबर आ गई आज अखबार में कि तुम मुंह अंधेरे उठ कर सब से पहले अखबार टटोलने लगीं?’’

‘‘खबरें तो खास ही होती हैं मां. तुम मुझे बोलने का मौका दो तो मैं तुम्हें बताऊं. मुझे जल्दी से बाहर जाना है. अब तुम सुनो तो मैं आगे की कहानी कहूं?’’

‘‘हां, कहो जल्दी से.’’

‘‘मां, मेरा वह क्लासमेट है न रौकी, जो हीरो जैसा दिखता है और तुम अकसर जिस के बालों का मजाक बनाया करती हो…’’

‘‘कौन रौकी?… अरे, वह बाइक वाला? जो पहले तुम पर कुछ खास मेहरबान था?’’

‘‘हां मां, वही जो मुझ पर बहुत फिदा था. उस का ऐक्सीडैंट हो गया. अखबार में अभी खबर पढ़ी. शायद शराब पी कर बाइक चला रहा था. उस से मिलने अस्पताल जाना होगा. सोचा कालेज जाने से पहले यह काम पूरा कर दूं, वरना उस से मिलने के लिए कालेज बंक करना पड़ेगा.’’

‘‘ओह, तो क्या इतना जरूरी है तुम्हारा अस्पताल जाना? अब तो तुम से

उस की कुछ खास बोलचाल भी नहीं…’’

‘‘इसलिए तो जरूरी है मां, वरना मेरे दूसरे दोस्त सोचेंगे कि मैं मन ही मन उस से चिढ़ती हूं. जबकि मेरे मन में तो उस के लिए कुछ बुरे भाव हैं ही नहीं? मां, दुनियादारी निभाने के लिए यह सब करना पड़ता है.’’

‘‘बात तो तुम ठीक कहती हो… ठीक है तुम नहा लो मैं तुम्हारा टिफिन पैक कर देती हूं.

शोमा तैयार हो कर अस्पताल पहुंची. वहां पहले से ही कई मित्रों का जमावड़ा लगा हुआ था. रौकी ने जैसे ही शोमा को देखा, तो बिस्तर से उठने की कोशिश करते हुए बोला, ‘‘अरे, शोमा तुम.’’

‘‘लेटे रहो रौकी,’’ इतना कह वह उसके बैड के पास पहुंच गई. हाथ में फूलों का गुलदस्ता थमाया और पूछा, ‘‘कैसे हो गया यह सब?’’

‘‘क्या बताऊं…’’ इससे पहले कि रौकी कुछ बताता दूसरा दोस्त चुटकी लेते हुए बोला, ‘‘शायद बड़ी पार्टी की थी इस ने. ज्यादा ही पी ली थी. उड़ाउड़ा फील कर रहा था. बिलकुल लाइट…’’ और सभी ठहाका लगा कर हंस पड़े.

‘‘तुम्हें पहले भी कितनी बार कहा रौकी, शराब पी कर बाइक मत चलाया करो.’’

शोमा की बात बीच में काटते हुए उस की दोस्त बोली, ‘‘अब नहीं चलाएगा. एक बार प्रसाद तो चख लिया. असल में अक्ल ठोकर खाने से ही आती है. समझाने से कौन समझता है भला,’’ उस ने अपनी एक आंख दबाते हुए कहा.

फिर से सब जोर का ठहाका लगा कर हंस पड़े.

‘‘शर्म नहीं आ रही तुम सब को? मैं यहां अस्पताल में बिस्तर पर पड़ा दर्द से तड़प रहा हूं और तुम ठहाके लगा रहे हो…कैसे मित्र हो तुम सब मेरे?’’

‘‘मित्र ऐसे ही होते हैं, जो दर्द में पड़े दोस्त को ठहाके लगालगा कर उस का दर्द ही भुला दें,’’ और फिर अस्पताल के कमरे में जोर का ठहाका गूंज उठा.

‘‘ओके बाय, टेक केयर रौकी. मैं चलती हूं. कुछ हैल्प चाहिए हो तो बोलना,’’ शोमा ने अपना हाथ वेव करते हुए कहा, तो रौकी ने भी मुसकराते हुए उसे वेव कर दिया. सभी दोस्त एकसुर में बोले, ‘‘बाय शोमा.’’

वहां से निकल उस ने अपनी स्कूटी कालेज के रास्ते पर दौड़ा दी. अचानक ही उस के चेहरे के भाव बदल गए. भवें कुछ तन गईं और मुंह से निकला, ‘‘बेचारा. अब कर मजा अस्पताल में 1 महीना तो रहना ही पड़ेगा बच्चू.’’

शाम को जब वह घर पहुंची तो बहुत रिलैक्स फील कर रही थी… रोज की तरह उस के चेहरे पर परीक्षा के लिए तैयारी करने की चिंता रेखाएं नहीं थीं.

उस ने कौफी बनाई और बालकनी में जा कर एक पत्रिका के पन्ने पलटने लगी.

‘‘आज जिम नहीं जाओगी क्या?’’ मां ने शोमा को बैठे देख कर पूछा.

‘‘नहीं मां.’’

‘‘क्यों?’’ मां ने ऐनक चढ़ाते हुए तिरछी नजरों से देखा. रोज तो उड़नतश्तरी बनी भागीभागी कहती हो कि कौफी बना दो मां मैं लेट हो जाऊंगी. फिर ट्रेनर चला जाता है. आज क्या खास हो गया कि इतनी बेफिक्र हो?’’

‘‘अब मैं परफैक्ट फिट हो गई हूं मां. ट्रेनर ने ही बोला. अब मैं बिना उस की ट्रेनिंग ही अपनेआप को फिट रख सकती हूं, फिजिकली और मैंटली भी.’’

‘‘फिजिकली और मैंटली भी?’’

‘‘फिजिकली तो समझ आया पर मैंटली कैसे?’’

‘‘मां तुम नहीं समझोगी. जाने दो.’’

‘‘अरे, कैसे नहीं समझूंगी? पर तुम मुझे कुछ बताओ तो समझूं न. क्या जमाना आ गया बच्चे अपने मांबाप से कुछ शेयर ही नहीं करना चाहते.’’

‘‘ऐसा क्यों सोचती हो तुम मां. सब कुछ तो शेयर करती हूं मैं तुम से.’’

‘‘फिर बताती क्यों नहीं कि आज क्या खास बात है? तुम्हारे रोज के व्यवहार और आज के व्यवहार में बहुत फर्क है.’’

‘‘कैसा फर्क मां? रोज जैसे ही तो हूं.’’

‘‘तेरी मां हूं मैं. तुम्हारी नसनस पहचानती हूं. आज तुम्हारे चेहरे पर निश्ंिचतता के भाव हैं. रोज की तरह खामोशी नहीं. क्या रौकी से सुलह हो गई? तुम सुबह उस से मिलने अस्पताल गई थी न? क्या बात हुई? कैसा है वह अब? जब से उस से तुम्हारी दूरियां बढ़ीं तुम्हारे चेहरे की रंगत तो जैसे ढल ही गई… वह तो अच्छा हुआ तुम ने पत्रिकाएं व अच्छा साहित्य पढ़ना शुरू किया और जिम जा कर अपनेआप को फिट रखना शुरू किया.’’

शोमा अपनी मां की बात सुनते हुए बिलकुल खामोश थी. भावशून्य उस का चेहरा. न जाने उस की आंखें कहां खोई हुई थीं.

‘‘बेटा, बताती क्यों नहीं… क्या बात हुई रौकी से?’’ तुम्हारी मां हूं मैं और सिर्फ मां ही नहीं तुम्हारी दोस्त भी हूं.’’

‘‘मां तुम से क्या छिपाना… तुम तो मेरी धड़कन, मेरी नब्ज सब पढ़ लेती हो.’’

‘‘तुम्हें याद है मां पिछले वर्ष नए साल की पार्टी में मैं उस के साथ गई थी और पार्टी खत्म होने पर वह मुझे घर छोड़ने आया था.’’

‘‘लेकिन घर छोड़ने से पहले रास्ते में उस ने एक जगह बाइक रोकी और मुझ से बोला कि मेरे दोस्त को कुछ खास पेपर देने हैं. सिर्फ 5 मिनट का काम है. वह मुझे अपने दोस्त के घर अंदर ले गया. टेबल पर कुछ कागजात रख वह रसोई में गया. उस ने स्वयं फ्रिज से निकाल कर पानी पीया और मुझे भी दिया. जब मैं ने पूछा कि तुम्हारा दोस्त कहां है रौकी तो उस ने बिना कुछ जवाब दिए पानी का गिलास मेरी तरफ बढ़ा दिया. पार्टी में हम भारी खाना खा कर, खूब नाचकूद कर आए थे. प्यास मुझे भी लगी थी, इसलिए मैं ने भी पानी पी लिया. उस के बाद मुझे चक्कर सा आने लगा.’’

‘‘जब मैं होश में आई, मेरे कपड़े खुले हुए थे और रौकी मेरे पास लेटा हुआ था. मैं ने होश में आते ही उस से खूब झगड़ा किया. खूब रोई भी पर कोई असर नहीं हुआ. और तो और उस ने मुझ से माफी मांगने की भी जरूरत नहीं समझी. उस ने मुझे नशीली ड्रिंक पिला कर मुझ से बलात्कार किया था मां.’’

‘‘क्या? और तुम मुझे अब बता रही हो?’’ मां की आंखें फटी की फटी रह गई थीं.

‘‘हां मां… उस के बाद सुबह वह मुझे घर छोड़ गया.’’

‘‘तुम ने उसी दिन क्यों नहीं बताया यह सब? मां तिलमिला उठी थी.’’

‘‘क्या फायदा मां. तुम परेशान होतीं. ’’

‘‘मैं जानती थी कि यदि मैं तुम्हें बताऊंगी तो सब से पहले तो तुम स्वयं डर जाओगी और फिर समाज, इज्जत का वास्ता दे कर मुझे भी डराओगी. लेकिन मैं इस दुर्घटना के बाद डरी नहीं मां. मैं ने रौकी से बोलचाल बंद कर दी.’’

‘‘अच्छा किया. ऐसे दोस्त का क्या फायदा?’’

‘‘मां, मुझे किताबें पढ़ने की आदत तो थी ही. सस्पैंस स्टोरीज पढ़पढ़ कर मेरे दिमाग में एक दिन खयाल आया, ‘जैसे को तैसा’ और बस मैं ने मन ही मन एक योजना बना डाली.’’

‘‘मैं ने जिम जौइन किया. वहां वेट ट्रेनिंग ले कर अपनेआप को मानसिक व शारीरिक रूप से मजबूत बनाया.’’

‘‘जिम का ट्रेनर ऐक्सरसाइज शुरू करवाने के पहले व बाद में

अकसर स्ट्रैचिंग कराया करता था. कई बार वह मेरी दोनों बांहों को पीछे मोड़ कर हाथ जुड़वाता. शुरू में मुझे तकलीफ होती थी, क्योंकि मेरे शरीर में लचक नहीं थी. वह मुझे रोज धीरेधीरे उस की प्रैक्टिस करवाता और कहता कि एक बार में जोर से स्ट्रैच न करना वरना कंधे की हड्डियां टूट जाएंगी. इस स्ट्रैचिंग के लिए हड्डियों में लाचीलापन होना जरूरी है.’’

‘‘मैं ने अपनी पहली योजना में फिर कुछ और नया जोड़ दिया. पिछले पूरे 1 वर्ष में मैं ने मन ही मन उस बलात्कार के दंश को झेला है. कैसे एक दोस्त पुरुष अपनी महिला दोस्त का बलात्कार कर सकता है, मैं तो रौकी पर पूरा भरोसा किया करती थी. तभी तो उस के साथ रात के समय पार्टी के लिए चली गई थी.’’

‘‘वही तो सोचने की बात है. देखनेबोलने में इतना सभ्य, सलीकेदार रौकी इतनी घिनौनी हरकत करेगा, सोच भी नहीं सकती थी,’’ मां ने नाकमुंह सिकोड़ कर कहा.

‘‘मां, उस ने मेरा भरोसा तोड़ा है. और न सिर्फ भरोसा, बल्कि मैं किसी और का भरोसा कर सकूं इस लायक भी न छोड़ा. अपने साथ पढ़ने वाले हर लड़के को अब मैं उसी नजर से देखती हूं. कई बार सोचती हूं कि यदि एक लड़का ऐसा है तो इस का मतलब यह नहीं कि सभी ऐसे ही होंगे. पर बारबार समझाने पर भी मन के किसी कोने में एक डर तो बैठ ही गया और इस का जिम्मेदार सिर्फ रौकी है. जिस दिन जिम ट्रेनर ने स्ट्रैचिंग के गुर सिखाए मेरा इरादा पक्का होता चला गया.’’

‘‘मैं ने रौकी से फिर से बोलचाल शुरू की. उसे व्हाट्सऐप पर फिर से मैसेज करने लगी. शुरू में तो वह आश्चर्यचकित हो गया कि मैं फिर से उस से बोलने लगी लेकिन धीरेधीरे सब नौर्मल होने लगा. मैं अपने लड़की होने के गुणों का इस्तेमाल करने लगी और उसे अपनी और आकर्षित करने के सब नुसखे अपना डाले. जब मुझे भरोसा हो गया कि अब वह मेरे प्रेम जाल में फंस गया है तब एक दिन उसे एक हौट मैसेज भेज दिया.

उस मैसेज को पढ़ कर वह फिर से मुझ से अकेले मिलने को आतुर हो उठा और मैं भी यही चाहती थी. मैं ने कालेज में उस से मिल कर उस के साथ डेट फिक्स की और एक एकांत सी जगह पर पूरे दिन की पिकनिक का प्लान बना लिया. वह बहुत खुश हो गया.

‘‘नियत दिन हम दोनों पिकनिक के लिए गए. एकांत में खूब सारी बातें की. साथ में खायापीया. नशे का शौकीन तो वह है ही सो मैं ने उसे ड्रिंक औफर किया. वह गटागट पीता गया और मेरे करीब आने लगा. मैं ने उसे अपने करीब आने से रोका भी नहीं. कुछ देर के बाद उसे अपनेआप पर कंट्रोल न रहा और मैं तो इसी वक्त का इंतजार कर रही थी. मैं ने उसे पेट के बल उलटापटका. उस के हाथ पीछे को घुमाए और पूरी ताकत के साथ जोर से घुमा दिए. कड़ककड़क की आवाज के साथ उस की हड्डियां टूट चुकी थीं.

‘‘उस के बाद मैं ने उस की बाइक उठाई, स्टार्ट की और पीछे की तरफ ले गई. वह जंगल का सुनसान रास्ता था. वहां कोई आवाजाही भी नहीं थी. मैं ने बाइक को चलती हालत में छोड़ दिया. थोड़ी देर बाइक सीधे चली और फिर घिसटती हुई सड़क के किनारे जा गिरी. उस के बाद मैं रोडवेज की बस में बैठ कर अपने घर आ गई.’’

‘‘ओह! तो तुम इसीलिए रात घर पर देर से आई थी और मैं पूरा दिन तेरी चिंता करती रही. तुझे फोन भी किया तो वह स्विच औफ दिखाता रहा.’’

‘‘हां मां, तुम ने ठीक समझा.’’

‘‘पर बेटी यह तो गुनाह है,’’ मां सिर पकड़ कर बोलीं.

‘‘हां, मां जो मैं ने किया वह गुनाह है और जो उस ने किया क्या वह धर्म था? शोमा तुनक कर बोली. उस के नथुने फूल गए थे. आंखें आग उगल रही थीं.’’

‘‘उस ने जो किया उसे वही मिला.’’

‘‘पर बेटी फिर जब तुम उस से अस्पताल मिलने गई तब वह कुछ बोला नहीं तुम से?’’

‘‘किस मुंह से बोलेगा मां? मैं सब के सामने उस से मुसकरा कर मिली.

जैसे पहले मिलती थी. सब को यह मालूम है कि हमारी सुलह हो चुकी है और जब वह अस्पताल पहुंचा वह नशे की हालात में था. आसपास के गांव के लोगों ने उसे अस्पताल पहुंचाया था. उस की बाइक रगड़ खाती हुई गिरी थी, जिस से साफ जाहिर था कि वह नशे की हालत में बाइक चला रहा था,उस का बैलेंस बिगड़ा और ऐक्सीडैंट हो गया. अखबार की खबर भी तो यही बताती है. यह देखो मां,’’ उस ने अखबार दिखाते हुए कहा.

‘‘उस के पास ऐसा कोई सुबूत नहीं कि जिस से वह कह सके कि मैं उस दिन उस से मिली भी थी. इस मुलाकात को मैं ने उसे सीक्रेट रखने को कहा था. अपने दोस्तों को मैं ने बताया कि मैं 2 दिन कालेज नहीं आउंगी, क्योंकि अपने रिश्तेदार के यहां पास के गांव मे जा रही हूं. बाकायदा मैं ने बस के आने और जाने के टिकट भी खरीदे और उसी टिकट से मैं बस में बैठ कर वापस आई. सब से बड़ी बात तो यह है कि रौकी सब जानते हुए भी मुंह नहीं खोल सकता, क्योंकि इस से उसी की इज्जत का कचरा होने वाला है. यदि उस ने अपना मुंह खोला तो मैं उस की बलात्कार वाली पोलपट्टी खोल दूंगी. बलात्कार वाले दिन के कपड़े मैं ने संभाल कर रखे हैं मां.’’

‘‘पर बेटी तुम में ये सब करने की हिम्मत कहां से आ गई?’’

‘‘क्या करती मां, सारी जिंदगी घुटघुट कर इस दंश को झेलती? यदि यह बात किसी और से साझा करती तो दुनिया भर के ताने सुनती. लोग मुझे ही दोष देते कि आखिर इतनी रात गए मैं उस के साथ गई ही क्यों थी.

‘‘मैं जानती थी मुझे सहानुभूति तो कहीं से मिलेगी नहीं, बल्कि इस दुर्घटना का जिम्मेदार भी मुझे ही ठहराया जाएगा. सिर्फ चेहरे की ही रंगत नहीं मां, मेरी आत्मा को भी लहूलुहान किया था रौकी ने. आज मुझे उस पुराने दर्द से मुक्ति मिली है.

‘‘न जाने कितनी मासूम बच्चियां और महिलाएं इस दंश को झेलती होंगी और न जाने कितनी अपनी जीवनलीला समाप्त कर लेती होंगी? तो फिर मैं भी उन्हीं महिलाओं के नक्शेकदम पर चलूं? जिस ने पाप किया फल भी वही भुगते. सो जैसा उस ने किया वैसा उस ने पाया. मैं अपनेआप को इस में दोषी नहीं समझती हूं मां और तुम भी मुझ पर दोष मढ़ने की कोशिश न करना. हां, एक बात और… यह बात मेरे और आप के बीच रहनी चाहिए.’’

इस के बाद जो होगा मैं उस से भी निबट लूंगी. बस तुम्हारा दिया हौसला चाहिए.’’

मां ने उसे सीने से लगा लिया था और वह आंसू बहाती हुई मुसकरा रही थी.

‘‘शोमा का हौट मैसेज पढ़ कर रौकी उस से अकेले में मिलने को आतुर हो उठा…’’ Crime Story

लेखक- रोचिका अरुण शर्मा

Sad Story in Hindi: दुविधा- किस कशमकश में थी वह?

Sad Story in Hindi: एमबीए करते ही एक बहुत बड़ी कंपनी में मेरी नौकरी लग गई. हालांकि यह मेरी वर्षों की कड़ी मेहनत का ही परिणाम था फिर भी मेरी आशा से कुछ ज्यादा ही था. हाईटैक सिटी की सब से ऊंची इमारत की 15वीं मंजिल पर, जहां से पूरा शहर दिखाई देता है, मेरा औफिस है. एक बड़े एयरकंडीशंड हौल में शीशे के पार्टीशन कर के सब के लिए अलगअलग केबिन बने हुए हैं. आधुनिक सुविधाओं तथा तकनीकी उपकरणों से लैस है मेरा औफिस.

मेरे केबिन के ठीक सामने अकाउंट्स विभाग का स्टाफ बैठता है. उन से हमारा काम का तो कोई वास्ता नहीं है लेकिन हमारी तनख्वाह, भत्ते, अन्य बिल वही बनाते तथा पास करते हैं. कंपनी में पहले ही दिन अपनी टीम के लोगों से विधिवत परिचय हुआ लेकिन शेष सब से परिचय संभव नहीं था. सैकड़ों का स्टाफ है, कई डिवीजन हैं. उस पर ज्यादातर स्टाफ दिनभर फील्ड ड्यूटी पर रहता है.

मेरे सामने बैठने वाले अकाउंट्स विभाग के ज्यादातर कर्मचारी अधेड़ उम्र के हैं. बस, ठीक मेरे सामने वाले केबिन में बैठने वाला अकाउंटैंट मेरा हमउम्र था. वैसे उस से कोई परिचय तो नहीं हुआ था, बस, एक दिन लिफ्ट में मिला तो अपना परिचय स्वयं देते हुए बोला, ‘‘मैं सुबोध, अकाउंटैंट हूं.

कभी भी अकाउंट्स से जुड़ी कोई समस्या हो तो आप बेझिझक मुझ से कह सकती हैं,’’ बदले में मैं ने भी उसे अपना नाम बताया और उस का धन्यवाद किया था जबकि वह मेरे बारे में सब पहले से जानता ही था क्योंकि अकाउंट्स विभाग से कुछ छिपा नहीं होता है. उस के पास तो पूरे स्टाफ की औफिशियल कुंडली मौजूद होती है.

इस संक्षिप्त से परिचय के बाद वह जब कभी लिफ्ट में, सीढि़यों में, डाइनिंग हौल में या रास्ते में टकरा जाता तो कोई न कोई हलकाफुलका सवाल मेरी तरफ उछाल ही देता. ‘औफिस में कैसा लग रहा है?’, ‘आप का कोई बिल तो पैंडिंग नहीं है न?’, ‘आप अखबार और पत्रिका का बिल क्यों नहीं देती?’, ‘आप ने अपनी नई मैडिकल पौलिसी के नियम देख लिए हैं न?’ वगैरहवैगरह. बस, मैं उस के सवाल का संक्षिप्त सा उत्तर भर दे पाती, हर मुलाकात में इतना ही अवसर होता.

मुझे यहां काम करते 2-3 महीने बीत चुके थे. अभी भी अपनी टीम के अलावा शेष स्टाफ से जानपहचान नहीं के बराबर थी. वैसे भी दिनभर सब काम में इतना व्यस्त रहते हैं कि इधरउधर की बात करने का कोई  मौका ही नहीं मिल पाता. हां, काम करतेकरते जब कभी नजरें उठतीं तो सामने बैठे सुबोध से जा टकराती थीं. ऐसे में कभीकभी वह मुसकरा देता तो जवाब में मैं भी मुसकरा कर फिर अपने काम में लग जाती.

लेकिन जैसेजैसे दिन बीत रहे थे, मैं ने एक बात नोटिस की कि जब कभी भी मैं अपनी गरदन उठाती तो सुबोध को अपनी तरफ ही देखते हुए पाती. अब वह पहले की तरह मुसकराता नहीं था बल्कि अचकचा कर नीचे देखने लगता था या न देखने का बहाना करने लगता था.

खैर, मेरे पास यह सब सोचने का समय ही कहां था? मेरे सपनों के साकार होने का समय पलपल करीब आने लगा था. घर में मेरे और प्रखर के विवाह की तैयारियां शुरू हो चुकी थीं. प्रखर और मैं कालेज में साथसाथ पढ़ते थे. वहीं हमारी दोस्ती हुई फिर पता ही नहीं लगा कब हमारी दोस्ती इतनी आगे बढ़ गई कि हम दोनों ने जीवनसाथी बनना तय कर लिया.

घर वालों से बात की तो उन्होंने भी इस रिश्ते के लिए हां कर दी लेकिन शर्त यही थी कि पहले हम दोनों अपनीअपनी पढ़ाई पूरी करेंगे, अपना भविष्य बनाएंगे. फिर शादी की सोचेंगे. पढ़ाई पूरी होते ही प्रखर को भी एक मल्टीनैशनल कंपनी में अच्छी नौकरी मिल गई थी.

एक दिन सुबह सुबोध लिफ्ट में फिर मिल गया. लिफ्ट में हम दोनों ही थे. बिना एक पल भी गंवाए उस ने और दिनों से हट कर सवाल पूछा था, ‘‘आप के घर में कौनकौन है?’’

मुझे उस से ऐसे सवाल की आशा नहीं थी. पूछा, ‘‘क्यों, क्या करेंगे जान कर?’’ मेरा उत्तर भी उस के अनुरूप नहीं था.

‘‘यों ही. सोचा, मां को आप के बारे में क्या बताऊंगा, जब मुझे ही आप के बारे में कुछ पता नहीं है?’’

‘‘क्यों, सब कुछ तो है आप के पास औफिस रिकौर्ड में नाम, पता, ठिकाना, शिक्षा वगैरह,’’ कहते हुए मैं हंस दी थी और वह मुझे देखता ही रह गया.

लिफ्ट हमारी मंजिल पर पहुंच चुकी थी. हम दोनों उतरे और अपनेअपने केबिन की ओर बढ़ गए.

अपनी सीट पर आ कर बैठी तो एहसास हुआ कि सुबोध क्या पूछ रहा था और नादानी में मैं ने उसे क्या उत्तर दे दिया. सब सोच कर इतनी झेंप हुई कि दिनभर गरदन उठा कर सामने बैठे हुए सुबोध को देखने का साहस ही नहीं हुआ. हालांकि उस की नजरों की चुभन को मैं ने दिनभर अपने चेहरे पर महसूस किया था. पता नहीं वह क्या सोच रहा था.

अगले दिन मैं जानबूझ कर लंच के लिए देर से गई ताकि मेरा सुबोध से सामना न हो जाए. उस समय तक डाइनिंग हौल लगभग खाली ही था. मैं ने जैसे ही प्लेट उठाई, अपने पीछे सुबोध को खड़ा पाया. उसी चिरपरिचित मुसकान के साथ, खाना प्लेट में डालते हुए वह धीमे से बोला, ‘‘कल आप ने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया?’’

‘‘मम्मी को बताना क्या है, अगले महीने की 20 तारीख को मेरी शादी है. उन्हें साथ ले आइएगा, मिलवा ही दीजिएगा.’’

मेरे इतना कहते ही उस के चेहरे पर दुख की ऐसी काली छाया दिखाई दी मानो हवा के तेज झोंके से बदली ने सूरज को ढक लिया हो. उस की आंखें मेरे चेहरे पर ऐसे टिक गईं मानो जानना चाहती हों, कहीं मैं मजाक तो नहीं कर रही.

लेकिन यह सच था. एक पल के लिए मुझे भी लगा कि भले ही यह सच था लेकिन मुझे उसे ऐसे सपाट शब्दों में नहीं बताना चाहिए था. वह प्लेट ले कर डाइनिंग टेबल के दूसरे छोर की कुरसी पर जा बैठा. वह लगातार मुझे देख रहा था. वह बहुत उदास था. शायद उस की आंखें भी नम थीं. मैं ने खाना खाते हुए उसे कई बार बहाने से देखा था. वह सिर्फ बैठा था, उस ने खाना छुआ भी नहीं था. मुझे यह सब अच्छा नहीं लग रहा था लेकिन मैं क्या करती? ऐसे में उस से क्या कहती?

शादी में औफिस से बहुत से लोग आए लेकिन सुबोध नहीं आया. हां, औफिस वालों के हाथ उस ने बहुत ही खूबसूरत तोहफा जरूर भिजवाया था. क्रिस्टल का बड़ा सा फूलदान था, जिस ने भी देखा तारीफ किए बिना न रह सका.

विवाह होते ही मैं और प्रखर अपनी नई दुनिया में खो गए. हम ने वर्षों इस सब के लिए इंतजार किया था. हमें लग रहा था, हम बने ही एकदूसरे के लिए हैं. शादी के बाद हम विदेश घूमने चले गए.

महीनेभर की छुट्टियां कब खत्म हो गईं पता ही नहीं चला. मैं औफिस आई तो सहकर्मियों ने सवालों की झड़ी लगा दी. कोई ‘छुट्टियां कैसी रहीं’ पूछ रहा था,  कोई नई ससुराल के बारे में जानना चाह रहा था, कोई प्रखर के बारे में पूछ कर चुटकी ले रहा था. वहीं, कोई शादी के अरेंजमेंट की तारीफ कर रहा था तो कोईकोई शादी में न आ पाने के लिए माफी भी मांग रहा था.

सब से फुरसत पा कर जब सामने वाले केबिन पर मेरी नजर पड़ी तो वहां सुबोध की जगह कोई अधेड़ उम्र का व्यक्ति चश्मा पहने बैठा था. मेरी नजरें पूरे हौल में एक कोने से दूसरे कोने तक सुबोध को तलाशने लगीं. वह कहीं नजर नहीं आया. मैं उसे क्यों तलाश रही थी, मेरे पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं था. पता नहीं मुझे उस से हमदर्दी थी या मुझे उस को देखने की आदत सी हो गई थी. खैर, जो भी था मुझे उस की कमी खल रही थी.

कुछ दिनों बाद मुझे पता लगा था कि सुबोध ने ही अपना तबादला दूसरे डिवीजन में करवा लिया था जो थोड़ी दूर, दूसरी बिल्ंिडग में है. सुबोध यहां से चला तो गया था लेकिन कुछ यहां ऐसा छोड़ गया था जो औफिस में यदाकदा उस की याद दिलाता रहता था. विशेष रूप से जब काम करतेकरते कभी अपनी नजर ऊपर उठाती तो सुबोध को वहां न पा कर कुछ अच्छा नहीं लगता था.

समय बीत रहा था. घर पहुंचते ही एक दूसरी दुनिया मेरा इंतजार कर रही होती थी, जिस में मेरे और प्रखर के अलावा किसी तीसरे के लिए कोई जगह नहीं थी. दिनरात जैसे पंख लगा कर उड़े चले जा रहे थे. घूमनाफिरना, दावतें, मिलना- मिलाना आदि यानी हमारे जीवन का एक दूसरा ही अध्याय शुरू हो गया था.

6 महीने कैसे बीत गए, कुछ पता ही नहीं लगा. एक सुबह मैं अपनी सीट पर जा कर बैठी तो यों ही नजर सामने वाले कैबिन पर पड़ी तो सुबोध को वहां बैठे पाया. पलभर को तो अपनी आंखों पर यकीन ही नहीं हुआ लेकिन यह सच था. सुबोध वापस लौट आया था, पता नहीं यह औफिस की जरूरत थी या सुबोध की. किस से पूछती, कौन बताता?

इस बात को कई सप्ताह बीत गए लेकिन हमारे बीच कभी कोई बात नहीं हुई. इस के लिए न कभी सुबोध ने कोई कोशिश की न ही मैं ने. मैं ने न तो उस से शादी में न आने का कारण पूछा और न उस खूबसूरत तोहफे के लिए धन्यवाद ही दिया. हमारे बीच ज्यादा बातचीत का सिलसिला तो पहले भी नहीं था लेकिन अब एक अबोला सा छा गया था.

अब जब भी हमारी नजरें आपस में यों ही टकरा भी जातीं तो न वह पहले की भांति मुसकराता और न ही मैं मुसकरा पाती. वैसे उस की नजरों को मैं ने अकसर अपने आसपास ही महसूस किया है. एक सुरक्षा कवच की भांति उस की नजरें मेरा पीछा करती रहती हैं. मैं समझ नहीं पाती कि क्या नाम दूं उस की इस मूक चाहत को?

समय इस सब से बेखबर आगे बढ़ रहा था. हमारा एक बेटा हो गया. अब मेरी जिम्मेदारियां बहुत बढ़ गई थीं. ऐसे में समय अपने लिए ही कम पड़ने लगा था और कुछ सोचने का समय ही कहां था? मेरा जीवन घर, बेटे और औफिस में ही उलझ कर रह गया था. वैसे भी मैं उम्र के उस पड़ाव पर पहुंच गई थी जहां अपनी घरगृहस्थी के आगे औरत को कुछ सूझता ही नहीं.

हां, प्रखर जरूर घर से बाहर दोस्तों के साथ ज्यादा रहने लगा था क्योंकि औफिस के बाद क्लब और पार्टियों में जाने की न तो मेरा थकाहारा शरीर आज्ञा देता, न मेरा मन ही इस के लिए राजी होता था. लेकिन प्रखर को रोकना मुश्किल था. बड़ी तनख्वाह, बड़ी गाड़ी, महंगा सैलफोन, कीमती लैपटौप, पौश कौलोनी में बढि़या तथा जरूरत से बड़ा फ्लैट वगैरह सब कुछ हो तो व्यक्ति क्लब, दोस्तों और पार्टियों पर ही तो खर्च करेगा? पहले दोस्तों के बीच कभीकभी पीने वाला प्रखर अब लगभग हर रात पीने लगा था. यह बात अलग है कि वह पीता लिमिट में ही था.

एक रात प्रखर क्लब से लौटा तो मैं बेटे को सुला रही थी. मेरे पास बैठते हुए बोला, ‘‘तुम्हारे औफिस में कोई सुबोध शर्मा है?’’

मैं इस सवाल के लिए बिलकुल तैयार नहीं थी. प्रखर सुबोध के बारे में क्यों पूछ रहा है? वह सुबोध के बारे में क्या जानता है? उसे सुबोध के बारे में किस ने क्या बताया है? एकसाथ न जाने कितने ही सवाल मेरे दिमाग में उठ खड़े हुए.

‘‘क्यों?’’ न चाहते हुए भी मेरे मुंह से निकल गया.

‘‘बस, यों ही, आज बातोंबातों में रवि बता रहा था. सुबोध, रवि का साला है. उसे घर वाले लड़कियां दिखादिखा कर परेशान हो गए हैं, वह शादी के लिए राजी ही नहीं होता. बूढ़ी मां बेटे के गम में बीमार रहने लगी है. वह तो रवि ने तुम्हारे औफिस का नाम लिया तो सोचा तुम जानती होगी. पता तो लगे आखिर सुबोध क्या चीज है जो कोई लड़की उसे पसंद ही नहीं आती.’’

प्रखर बोले जा रहा था और मेरी परेशानी बढ़ती जा रही थी. मैं खीज उठी, ‘‘इतना बड़ा औफिस है, इतने डिवीजन हैं. क्या पता कौन सुबोध है जो तुम्हारे दोस्त रवि का साला है. नहीं करता शादी तो न करे, इस से तुम्हारी सेहत पर क्या फर्क पड़ता है?’’

कुछ तो प्रखर नशे में था उस पर मेरी दिनभर की थकान का खयाल कर वह इस बेवक्त के राग से स्वयं ही शर्मिंदा हो उठा.

‘‘तुम ठीक कहती हो, अब नहीं करता शादी तो न करे. रवि जाने या उस की बीवी, अब आधी रात को इस से हमें क्या लेनादेना है,’’ कह कर प्रखर तो कपड़े बदल कर सो गया लेकिन मैं रातभर सो न सकी. कितनी शंकाएं, कितने प्रश्न, कितने भय मुझे रातभर घेरे रहे.

अगले ही दिन जब ज्यादातर स्टाफ लंच के लिए जा चुका था, मैं सुबोध के केबिन में गई. मुझे अचानक आया देख कर वह हड़बड़ा कर उठ खड़ा हुआ. मैं ने घबराई सी नजर अपने आसपास के स्टाफ पर डाली और उसे बैठने का इशारा करते हुए पूछा, ‘‘आप शादी क्यों नहीं कर रहे? आप के परिवार वाले कितने परेशान हैं?’’

एकाएक मेरे इस प्रश्न से वह चौंक उठा. शायद उसे कुछ ठीक से समझ भी नहीं आया होगा.

‘‘आप की बहन और जीजाजी इतनी लड़कियां दिखा चुके हैं, आप को एक भी पसंद नहीं आई? आखिर आप को लड़की में ऐसा क्या चाहिए?’’

मेरे स्वर में थोड़ी तलखी थी, शायद भीतर का कोई डर था. हालांकि यह बेवजह था लेकिन धुआं उठता देख कर मैं डर गई थी, कहीं भीतर कोई चिनगारी न दबी हो जो मेरी घरगृहस्थी को जला कर राख कर दे.

‘‘घर जा कर आईना देखिएगा, स्वयं समझ जाएंगी,’’ सुबोध धीरे से फुसफुसाया था.

इतना सुनते ही मैं वहां उस की नजरों के सामने खड़ी न रह सकी. मैं लौट तो आई लेकिन मेरा दिल इतनी जोर से धड़क रहा था मानो सीने से उछल कर बाहर आ जाएगा.

मैं सुबोध के बारे में सोचने पर मजबूर हो गई. ऊपर से शांत दिखने वाले इस समुद्र की तलहटी में कितना बड़ा ज्वालामुखी छिपा था. अगर कहीं यह फूट पड़ा तो कितनी जिंदगियां तबाह हो जाएंगी.

भले ही मेरी और प्रखर की पहचान 10 वर्ष पुरानी है. मैं ने आज तक कभी उसे शिकायत का कोई मौका नहीं दिया है, फिर भी अगर कभी कहीं से कुछ यों ही सुबोध के बारे में सुनेगा तो क्या होगा? अनजाने में ही अगर सुबोध ने अपनी दीदीजीजाजी से मेरे बारे में या अपनी पसंद के बारे में कुछ कह दिया तो क्या रवि वह सब प्रखर को बताए बिना रहेगा? तब क्या होगा? पतिपत्नी का रिश्ता कितना भी मजबूत, कितना भी पुराना क्यों न हो, शक की आशंका से ही उस में दरार पड़ जाती है. फिर भले ही लाख यत्न कर लो उसे पहले रूप में लाया ही नहीं जा सकता.

हालांकि मुझे लगता था कि सुबोध ऐसा कुछ नहीं करेगा फिर भी मेरा दिल बैठा जा रहा था. मैं सुबोध से कुछ कह भी तो नहीं सकती थी. क्या कहती, किस अधिकार से कहती? हमारे बीच ऐसा था भी क्या जिस के लिए सुबोध को रोकती. मेरी तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था. मैं इतनी परेशान हो गई कि हर समय डरीसहमी, घबराई सी रहने लगी.

एक दिन अचानक प्रखर की तबीयत बहुत बिगड़ गई. कई दिनों से उस का बुखार ही नहीं उतर रहा था. उसे अस्पताल में दाखिल करवाना पड़ा लेकिन बीमारी पकड़ में ही नहीं आ रही थी. हालत बिगड़ती देख कर उसे शहर के बड़े अस्पताल में भेज दिया. वहां पहुंचते ही प्रखर को आईसीयू में भरती कर लिया गया. कई टैस्ट हुए, कई बड़े डाक्टर देखने आए. उस की बीमारी को सुनते ही मेरे पैरों तले जमीन निकल गई. प्रखर की दोनों किडनियां बेकार हो गई थीं.

घरपरिवार तथा मित्रों की मदद से उस के लिए 1 किडनी की व्यवस्था करनी थी, वह भी एबी पोजिटिव ब्लड ग्रुप वाले की. किस का होगा यह ब्लड ग्रुप? कौन भला आदमी अपनी किडनी दान करेगा और क्यों? रेडियो, टीवी, अखबार तथा स्वयंसेवी संस्थाओं के माध्यम से हम हर कोशिश में जुट गए.

2 दिनों बाद डाक्टर ने आ कर खुशखबरी दी कि किडनी डोनर मिल गया है. उस के सब जरूरी टैस्ट भी हो गए हैं. आशा है प्रखर जल्दी ठीक हो जाएगा.

मैं पागलों की भांति उस फरिश्ते से मिलने दौड़ पड़ी. डाक्टर के बताए कमरे में जाते ही मेरी आंखें फटी की फटी रह गईं. मेरे सामने पलंग पर सुबोध लेटा था. मेरे कदम वहीं रुक गए. मैं कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं थी. प्रखर के जीवन का प्रश्न था जो पलपल मौत की तरफ बढ़ रहा था. मुझे इस तरह सन्न देख कर वह बोला, ‘‘वह तो रवि जीजाजी से पता लगा कि उन के दोस्त, प्रखर बहुत सीरियस हैं. सौभाग्य से मेरा ब्लडग्रुप भी एबी पौजिटिव है इसलिए…’’

‘‘आप को पता था न, प्रखर मेरे पति हैं?’’ पता नहीं मैं ने यह सवाल क्यों किया था.

‘‘मेरे लिए आप की खुशी माने रखती है, बीमार कौन है यह नहीं.’’

शब्द जैसे उस के दिल की गहराइयों से निकल रहे थे. एक बार फिर उस ने मुझे निरुत्तर कर दिया था. मैं भारी कदमों, भारी दिल से लौट आई थी. प्रखर उस समय ऐसी स्थिति में ही नहीं था कि पूछता कि उसे जीवनदान देने वाला कौन है, कहां से आया है, क्यों आया है?

औपरेशन हो गया. औपरेशन सफल रहा. दोनों की अस्पताल से छुट्टी हो गई. प्रखर स्वस्थ हो रहा है. उसे पता लग चुका है कि उसे किडनी दान करने वाला कोई और नहीं रवि का साला सुबोध ही है, जो मेरे ही औफिस में काम करता है. वह दिनरात तरहतरह के सवाल पूछता रहता है फिर भी बहुत कुछ ऐसा है जो वह पूछना तो चाहता है लेकिन पूछ नहीं पाता.

सवाल तो अब मेरे अंदर भी सिर उठाते रहते हैं जिन के जवाब मेरे पास नहीं हैं या मैं उन्हें तलाशना ही नहीं चाहती. डरती हूं, यदि कहीं मुझे मेरे सवालों के जवाब मिल गए तो मैं बिखर ही न जाऊं.

आजकल प्रखर बहुत बदल गया है. डाक्टरों के इतना समझाने के बावजूद वह फिर से पीने लग गया है. कभी सोचती हूं एक दिन उस से खुल कर बात करूं. फिर सोचती हूं क्या बात करूं? किस बारे में बात करूं? हमारे जीवन में किस का महत्त्व है? उन 2-4 वाक्यों का जो इतने वर्षों में सुबोध ने मुझ से बोले हैं या उस के त्याग का जिस ने प्रखर को नया जीवन दिया है?

मैं अजीब सी कशमकश में घिरती जा रही हूं. प्रखर के पास होती हूं तो यह एहसास पीछा नहीं छोड़ता कि प्रखर के बदन में सुबोध की किडनी है जिस के कारण प्रखर आज जीवित है. हमारे न चाहते हुए भी सुबोध हम दोनों के बीच में आ गया है.

जबजब सुबोध को देखती हूं तो एक अनजाना सा डर पीछा नहीं छोड़ता कि उस के पास अब एक ही किडनी है. हर सुबह औफिस पहुंचते ही जब तक उसे देख नहीं लेती, मुझे चैन नहीं आता. उस के स्वास्थ्य के प्रति भी चिंतित रहने लगी हूं.

मेरा पूरा वजूद 2 भागों में बंट गया है. ‘जल बिन मछली’ सी छटपटाती रहती हूं. आजकल मुझे किसी करवट चैन नहीं. मैं जानती हूं प्रखर को मेरी खुशी प्रिय है इसीलिए मुझ से न कुछ कहता है, न कुछ पूछता है. बस, अंदर ही अंदर घुट रहा है. दूसरी तरफ बिना किसी मांग, बिना किसी शर्त के सुबोध को मेरी खुशी प्रिय है लेकिन क्या मैं खुश हूं?

सुबोध को देखती हूं तो सोचती हूं काश, वह मुझे कुछ वर्ष पहले मिला होता तो दूसरे ही पल प्रखर को देखती हूं तो सोचती हूं काश, सुबोध मिला ही न होता. यह कैसी दुविधा है? मैं यह कैसे दोराहे पर आ खड़ी हुई हूं जिस का कोई भी रास्ता मंजिल तक जाता नजर नहीं आता. Sad Story in Hindi

Short Story in Hindi: सॉरी… सना

Short Story in Hindi: दफ्तर में आज सिर्फ सना के ही चर्चे थे. सना ने सेल्स टीम में ज्वाइन किया था. लड़कों में उसकी खूबसूरती और लड़कियों में एटिट्यूट के चर्चे थे. एचआर असिस्टेंट ने पूरे फ्लोर पर एक-एक एम्लॉई से उसे मिलवाया. संभवत: ये पहला ऐसा मौका था जब दफ्तर में हर कोई हाथ मिलाकर नए एम्पालॉइ का स्वागत करना चाह रहा था. वैसे इसमें गलत भी क्या है, ये तो कॉरपोरेट कल्चर है. लेकिन उसकी बला की खूबसूरती एक बार तो उसे छूकर देख लेने की हसरत पूरी करा ही रही थी.

लंच ब्रेक में नई तरह की चर्चा ऑफिस में शुरू हो गई. ऑफिस की कैंटीन से दिखने वाली बाहर की चाय की थड़ी पर सना सिगरेट पी रही थी. अब चर्चा उसके सौन्दर्य की कम, उसके बोल्ड होने की ज्यादा होने लगी. कहीं ‘जज’ करने सरीखे व्यंग्य, कहीं ‘बायगॉड की कसम, तेरी भाभी मिल गई’ जैसी मजाक.

सना कैंटीन के रास्ते ऊपर फिर से फ्लोर पर लौट ही रही थी, कि पंचिंग गेट पर रौनक अपना कंधा उसे छूते हुए निकला. ‘ओह सॉरी’ बोल कर रौनक आगे बढ़ गया.

सना को ये ‘सॉरी’ आर्टीफिशियल सा लगा. वो बार-बार सोच रही थी कि कंधा टकराना नॉर्मल हो सकता है लेकिन पूरे हाथ को छूते हुए निकलना और सॉरी बोलते वक्त उसका आंखों की बजाये शरीर की ओर घूरना, एक सामान्य घटना नहीं थी. कुछ मिनट तक इस पर सोचने के बाद वो इस घटना को इग्नोर करते हुए फिर से एचआर विंग में जाकर बैठ गई. वहां पहुंचते ही रूमा ने उसे कहा- ‘छू गया तुम्हें भी वो हरामी ?’

‘सॉरी, क्या कहा आपने’, सना ने चौंक कर रूमा की ओर देखा. ‘देख रही थी मैं, गेट पर वो तुमसे कैसे टकरा कर गया.’

‘हां, वो सॉरी बोल रहे थे, हू इस ही ?’  सना ने रूमा की बात का जवाब दिया.

रूमा बोली- ‘वो रौनक है, बास्टर्ड साला… बस मौका चाहिए उसे टकराने का. तीन साल में कभी एक बार भी उसकी आंखे शरीर की तांक झांक से हटते नहीं देखी मैंने. इस फ्लोर पर कोई ऐसी लड़की नहीं, जिससे वो एक्सीडेंटली टकराता नहीं. बॉस का खास चमचा है, सब्जी पहुंचाने से लेकर बच्चों को टूशन ले जाने तक का जिम्मा इसी का है, इसलिए इसे कुछ बोल नहीं सकते. बस सहना पड़ता है.’

सना की ज्वाइनिंग और उस टक्कर को आज दो साल बीत चुके हैं. सना तीन दिन पहले रिजाइन भी कर चुकी है. रौनक वहीं उसी दफ्तर में रौनक फैला रहे हैं. अब भी वो किसी से भी टकरा जाते हैं.

न किसी ने उसे कुछ कहा, न किसी ने उसके ऊपर वालों से कुछ कहा. रौनक का प्रमोशन हो चुका है.  कैबिन मिल गया है. आते-जाते आजकल वो कंधे की बजाये सीधे-सीधे टकरा जाते हैं. ऑफिस फीमेल स्टाफ थोड़ा संभल कर चलता है तो वो फीमेल विजिटर्स से टकरा जाते हैं. पर हां, शराफत बरकरार है, ‘सॉरी’ जरूर बोलते हैं. Short Story in Hindi

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