मिल्कमेड से बनी मिठाइयां : मुंह में डालते ही मक्खन की तरह घुल जाएं


फैस्टिवल के खास मौके के लिए मिल्कमेड से तैयार मिठाइयों से बेहतर क्या हो सकता है. छोटे बच्चे हों या मांबाबूजी, घर के हर उम्र के लोगों को यह बहुत ही पसंद आते हैं. फिर घर की बनी मिठाइयों की शुद्धता की पूरी गारंटी होती
है, यहां दी जा रही दो तरह की मिठाइयों की रैसेपी को आसानी से घर में  तैयार करें, खुद खाएं और गेस्ट को भी परोसें.

 

कलाकंद : कमाल की मिठास 

इस मिठाई की सामग्री  –

  • 1 कैन मिल्कमेड कंडेंस्ड मिल्क
  • 250 ग्राम पनीर 
  • 2 टेबलस्पून शुद्ध देसी घी
  • 1/4 टीस्पून इलायची पाउडर
  • कुछ केसर के धागे 
  • सजावट के लिए पिस्ता की कतरनें 

मिठाई बनाने का आसान तरीका 

स्टैप 1

  • सब से पहले पनीर को क्रंबल कर लें. कई बार बाजार से लाया हुआ पनीर सख्त होता है इसलिए बाहर से लाए हुए पनीर को जरूर कद्दूकस कर लें.
  • कलाकंद सेट करने के लिए एक ट्रे को घी से अच्छी तरह ग्रीस कर लें.

स्टैप 2

  •  एक नौन  स्टिक पैन में घी काे धीमी आंच पर गर्म करें.
  • इस में मसले हुए पनीर को डालें और 2-3 मिनट तक भूनते रहें, जब तक कि यह भून कर हल्की न हो जाए.

स्टैप 3

  • पैन में कंडेंस्ड मिल्क डाल कर मिलाएं, इसे लगातार चलाते रहें ताकि यह पैन में चिपके नहीं.
  • मिश्रण को उस समय तक पकाएं जब तक यह गाढ़ा न हो जाए, गाढ़ा होते ही यह किनारों को छोड़ना शुरू कर देगा इस में लगभग 10-12 मिनट लगेंगे.
  • अब इस में इलायची का पाउडर और कैसर डाल कर मिलाएं.
  • इस तैयार मिश्रण को पहले से ग्रीस की हुई ट्रे में डालें और एक समान रूप से फैलाएं.
  • अच्छी तरह फैला लेने के बाद इस पर कटे हुए पिस्ता को छिड़क दें.

    स्टैप 4 

  • इसे ठंडा होने दें और 2-3 घंटे के लिए सेट होने के लिए छोड़ दें.
  • ठंडा होने के बाद स्क्वायर शेप में काट लें और प्यार से परोसें. 

 

काजू कतली  :  स्वाद का रस

इस मिठाई की सामग्री –  

  • 1 कप पिसा हुआ काजू
  • 1/2 कप मिल्कमेड कंडेंस्ड मिल्क
  • 1/4 कप चीनी
  • 1/4 टीस्पून इलायची पाउडर
  • 1 टेबलस्पून घी
  • चांदी का वर्क 

मिठाई बनाने का आसान तरीका 

स्टैप

  • काजू का पेस्ट तैयार करने के लिए काजू को मिक्सी में पीस कर बारीक पाउडर तैयार कर लें. 
  • ध्यान रहे कि पीसते समय काजू का तेल न निकले इसलिए मिक्सर को बारबार बंद करें और चलाएं.

    स्टैप  2

  • एक नौन-स्टिक पैन में घी गर्म करें. इस में काजू पाउडर डाल कर 2-3 मिनट तक भूनें, जब तक रंग हल्का गोल्डन नहीं  हो जाए. 
  • अब इस में चीनी और कंडेंस्ड मिल्क डालें, अच्छी तरह मिलाते हुए पकाएं.

     स्टैप 3 

  • मिश्रण को धीमी आंच पर तब तक पकाएं जब तक यह गाढ़ा न हो जाए और पैन के किनारों से अलग न होने लगे.  इस में इलायची पाउडर डाल कर अच्छी तरह मिलाएं. 
  • तैयार मिश्रण को घी से ग्रीस की हुई प्लेट में डालें और एक समान रूप से फैला लें. 
  • ठंडा होने के बाद इस पर चांदी का वर्क लगाएं. 
  • इसे बरफी के शेप में काट लें फिर सब का मुंह मीठा कराएं . 

 

मोहमोह के धागे: भाग 2- मानसिक यंत्रणा झेल रही रेवती की कहानी

अब रेवती का उत्साह बढ़ गया. अगले दिन उतावली हो समय से पहले ही मंदिर में जा बैठी. साधुमहाराज पुजारी के साथ जब प्रवचन हौल में पधारे तो उन की नजर गद्दी के ठीक सामने अकेली बैठी रेवती पर पड़ी.श्वेत वस्त्र, सूनी मांग, सूनी कलाइयां देख उन्हें सम झते देर न लगी कि कोई विधवा है. वे धीमे स्वर में पुजारी से रेवती का सारा परिचय पता कर आंखें बंद कर गद्दी पर विराजमान हो गए. देखतेदेखते हौल खचाखच भर गया.

प्रवचन के बीच आज उन्होंने एक ऐसा भजन गाने के लिए चुना जब कृष्ण गोपियों से दूर चले जाते हैं. गोपियां उन के विरह में रोती हुई गाती हैं- ‘आन मिलो आन मिलो श्याम सांवरे, वन में अकेली राधा खोईखाई फिरे…’ लोग स्वर से स्वर मिलाने लगे. रेवती की आंखों से अविरल आंसू बह रहे थे. अंत में प्रसाद वितरण के बाद लोग चले गए तो रेवती भी उठ खड़ी हुई. अचानक उस ने देखा साधुमहाराज उसे रुकने का संकेत कर रहे हैं. वह असमंजम में इधरउधर देख खड़ी हो गई.

साधुमहाराज ने उसे अपनी गद्दी के पास बुला कर बैठने को कहा. डरती, सकुचाती रेवती बैठ गई तो उन्होंने रेवती के बारे में जो पुजारी से जानकारी हासिल की थी, सब अपने ज्योतिष ज्ञान के आधार पर रेवती को कह डाली. भोली रेवती हैरान हो उठी. उन के कदमों पर लोट गई, बोली, ‘‘यह सब सत्य है.’’

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साधु महाराजजी ने कहा, ‘‘जब मैं पूजा के समय गहरे ध्यान में था तो एक फौजी मु झे ध्यानावस्था में दिखाई देता है. मानो कुछ कहना चाहता हो. अब सम झ में आया वह तुम्हारा शहीद पति ही है जो मेरे ध्यान ज्ञान के जरिए कोई संदेश देना चाहता है. कल जब मैं ध्यान में बैठूंगा तो उस से पूछूंगा.’’

भोलीभाली रेवती उस के शब्दजाल में फंसती गई. रेवती ने साधु के पैर पकड़ लिए, बोली, ‘‘महाराज, मेरा कल्याण करो.’’

साधु महाराज ने उसे हिदायत दी, ‘‘देवी, ध्यान रखना यह बात हमेशा गुप्त रखना वरना मेरी ज्ञानध्यानशक्ति कमजोर पड़ जाएगी. मैं फिर तुम्हारे लिए कुछ न कर पाऊंगा. जाओ, अब घर जाओ.’’

प्रसाद ले कर रेवती घर पहुंची. उस ने सासससुर को बड़े आदर से खाना परोसा. रणवीर की शहादत के बाद वह अवसाद की ओर चली गई थी. अब खुद ही उस से निकलने लगी है. इस का कारण मंदिर जाना, पूजापाठ में मन लगाना ही सम झा गया. दिन बीतते जा रहे थे. एक दिन प्रवचन के बाद साधुमहाराज ने एकांत में रेवती को बुलाया और कहा, ‘‘मु झे साधना के दौरान तुम्हारे पति ने दर्शन दिए. उस ने कहा, ‘मैं रेवती को इस तरह अकेला असहाय अवस्था में छोड़ आया था. अब मैं फिर उसी घर में जन्म ले कर रेवती का दुख दूर करूंगा.’’’

परममूर्खा और भावुक रेवती पांखडी साधुमहाराज की बातें सुन कर आंसुओं में डूब गई.

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साधुमहाराज ने आगे कहा, ‘‘पर उसे दोबारा उसी घर में जन्म लेने से बुरी शक्तियां रोक रही हैं. उस के लिए मु झे बड़ी पूजा, यज्ञ, साधना करनी पड़ेगी. इस सब के लिए बहुत धन की जरूरत है जो तुम जानती हो हम साधुयोगियों के पास नहीं होता. अगर तुम कुछ मदद करो तो तुम्हारे पति का पुनर्जन्म लेना संभव हो सकता है.’’

यह सुन रेवती गहरी सोच में डूब गई. रेवती को इस तरह चुप देख साधु बोले, ‘‘नहींनहीं, इतना सोचने की जरूरत नहीं है. अगर नहीं है, तो रहने दो. मैं तो तुम्हारे पति की भटकती आत्मा की शांति के बारे में सोच रहा था.’’

रेवती को पता था 4-5 हजार रुपए उस की अलमारी में रखे हैं या फिर खानदानी गहने जो देवर की शादी के समय निकाले गए थे. कुछ व्यस्तता और बाद में रणवीर की मृत्यु के बाद किसी को बैंक में रखवाने की सुधबुध न रही. रेवती ने सोचा पति ही नहीं, तो गहने किस काम के. यह सोच कर बोली, ‘‘महाराज, रुपए तो नहीं, पर कुछ गहने हैं? वह ला सकती हूं क्या?’’

मक्कार संन्यासी बोला, ‘‘अरे, जेवर से तो बहुत दिक्कत हो जाएगी, पर क्या करूं बेटी, तुम्हें असहाय भी नहीं छोड़ना चाहता. चलो, कल सवेरे 8 बजे मैं यहां से प्रस्थान करूंगा, तुम जो देना चाहती हो, चुपचाप यहीं दे जाना.’’

रेवती पूरी रात करवट बदलती रही. उसे सवेरे का इंतजार था. उस ने रात को ही एक गुत्थीनुमा थैली में सारे गहने और 4 हजार रुपए रख लिए थे. वह पाखंडी साधुमहाराज से इतनी प्रभावित थी कि इस सब का परिणाम क्या होगा, एक बार भी नहीं सोचा. सवेरे उठ जल्दी से काम पूरा कर साधु को विदा देने मंदिर पहुंच गई. साधुमहाराज जीप में बैठ चुके थे. रेवती घबरा गई. वह बिना सोचेसम झे भीड़ को चीरती हुई जीप के पास पहुंच गई और पैरों में पोटली रख, पैर छू बाहर निकल आई.

रेवती भी भीड़ में धक्के खाती अंदर जा श्रद्धालुओं के साथ साधुमहाराज के सामने नीचे बिछी दरी पर जा बैठी. एक लोटा ताजा जूस पी कर साधुमहाराज ने अपना प्रवचन देना आरंभ कर दिया. बीचबीच में वे भजन भी गाते जिस में जनता उन का अनुकरण करती. रेवती तो साधुमहाराज के बिलकुल सामने बैठी थी. वह तो ऐसी मंत्रमुग्ध हुई कि आंखों से अविरल आंसू बह निकले. प्रसाद ले अभिभूत सी घर पहुंची.

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बहुत दिनों बाद आज न जाने कैसे वह सासससुर से बोली, ‘‘आप दोनों का खाना लगा दूं?’’ दोनों ने हैरानी से हामी भर दी. रणवीर की मृत्यु के बाद रेवती एकदम चुप हो गई थी. घर में किसी से बात न करती. बेमन से खाना बना अपने कमरे में चली जाती. देवरदेवरानी अपने काम पर चले जाते. दोपहर को ससुर कांपते हाथों से खाना गरम कर पत्नी को देते और खुद भी खा लेते. रेवती बहुत कम खाना खाती. कभी कोई फल, कभी दही या छाछ पी लेती. उस की भूख मानो खत्म सी हो गई थी. उस ने जल्दी से खाना गरम किया और दोनों की थालियां लगा लाई. यही नहीं, पास बैठ कर मंदिर में सुने प्रवचन के बारे में भी बताने लगी.

सासससुर दोनों ने सांत्वना की सांस ली, चलो, अच्छा हुआ बहू का किसी ओर ध्यान तो लगा. वे इतने नए एवं उच्च विचारों के नहीं थे कि बहू की दूसरी शादी के बारे में सोचते अथवा आगे पढ़ाई करवाने की सोचते. राजस्थान के परंपरागत रूढि़वादी परिवार के थे जो इतना जानते थे कि पति की मृत्यु के साथ उस की पत्नी का जीवन भी खत्म हो गया. पति की आत्मा की शांति हेतु आएदिन व्रतअनुष्ठान चलते रहे. बहू का पूजापाठ में रु झान देख कर दोनों ने उस की प्रशंसा करते हुए रोज समय पर मंदिर जाने की सलाह दी.

अगले भाग में पढ़ें- वह दिल की गहराइयों से बच्ची को प्यार करने लगी थी.

येलो और्किड: भाग 1- मधु के जीवन में सुरेंदर ने कैसे भरी खुशियां

तपा देने वाली गरमी में शौपिंग बैग संभाले एकएक पग रखना दूभर हो गया मधु के लिए. गलती कर बैठी जो घर से छाता साथ नहीं लिया. पल्लू से उस ने माथे का पसीना पोंछा. शौपिंग बैग का वजन ज्यादा नहीं था, मगर जून की चिलचिलाती धूप कहर ढा रही थी. औटो स्टैंड थोड़ी दूर ही था. वहां से औटो मिलने की आस में उस ने दोचार कदम आगे बढ़ाए ही थे कि सिर तेजी से घूमने लगा. अब गिरी तब गिरी की हालत में उस का हाथ बिजली के खंबे से जा टकराया और उस का सहारा लेने की कोशिश में संतुलन बिगड़ा और वह सड़क पर गिर पड़ी. शौपिंग बैग हाथ से छूट कर एक तरफ लुढ़क गया.

कुछ लोगों की भीड़ ने उसे घेर लिया.

‘‘पता नहीं कैसे गिर गई? शायद चक्कर आ गया हो.’’

‘‘इन को अस्पताल ले कर चलो, बेहोश है बेचारी.’’

‘‘अरे, कोई जानता है क्या, कहां रहती हैं.’’

अर्धमूर्च्छित हालत में पड़ी मधु को देख कर लोग अटकलें लगाए जा रहे थे. मगर अस्पताल या घर तक पहुंचाने की जिम्मेदारी कोई लेना नहीं चाहता था. तभी वहां से गुजरती एक सफेद गाड़ी सड़क के किनारे आ कर रुक गई. एक लंबाचौड़ा आदमी उस गाड़ी से उतरा और लोगों का मजमा लगा देख भीड़ को चीरता आगे आया. मधु की हालत देख कर उस ने तुरंत गाड़ी के ड्राइवर की मदद से उसे उठा कर गाड़ी में बिठा लिया.

‘‘यहां पास में कोई हौस्पिटल है क्या?’’ उस आदमी ने भीड़ की तरफ मुखातिब हो कर पूछा.

‘‘जी सर, यहीं, अगले चौक से दाहिने मुड़ कर एक नर्सिंगहोम है.’’

और गाड़ी उसी दिशा में आगे बढ़ गई जहां नर्सिंग होम का रास्ता जाता था.

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हौस्पिटल के बैड पर लेटी मधु की बांह में ग्लूकोस की नली लगी हुई थी. कमजोरी का एहसास तो हो रहा था पर हालत में कुछ सुधार था. नर्स से उसे मालूम हुआ कि उसे गाड़ी में किसी ने यहां तक पहुंचा दिया था. वह उस सज्जन का शुक्रिया अदा करना चाहती थी जिस ने उसे बीच सड़क से उठा कर अस्पताल तक पहुंचाया था. वरना कौन मदद करता है भला किसी अनजान की.

तभी दरवाजा खोल कर एक आदमी वार्ड में आया. ‘‘कैसी तबीयत है आप की अब? वैसे डाक्टर ने कहा है कि खतरे की कोई बात नहीं है, आप को कुछ देर में डिस्चार्ज कर दिया जाएगा.’’ रोबदार चेहरे पर सजती हुई मूंछों वाला वह आदमी बड़ी शालीनता से मधु के सामने खड़ा था. मधु कुछ सकुचाहट और एहसान से भर उठी.

‘‘आप ने बड़ी मदद की, आप का धन्यवाद कैसे करूं समझ नहीं आ रहा,’’ वह कुछ और भी जोड़ना चाह रही थी कि उस आदमी ने उसे टोक दिया.

‘‘इस सब की चिंता मत कीजिए, इंसानियत भी एक चीज है. लेकिन हां, आप को एक बात जरूर कहना चाहूंगा, जब आप को शुगर की गंभीर समस्या है तो आप को अपनी सेहत का खास ध्यान रखना चाहिए. यह आप के लिए बड़ा खतरनाक हो सकता है.’’

मधु से कुछ कहते न बना, गलती उस की ही थी. सुबह शुगर की दवा खाना भूल गई थी. उस पर से धूप में इतना पैदल चली. शुगर लैवल बिलकुल कम होने से वह चक्कर खा कर गिर पड़ी थी. उस की खुद की लापरवाही का नतीजा उसे भुगतना पड़ा था. किसी अजनबी का एहसान लेना पड़ गया.

मगर वह अजनबी उस पर एहसान पर एहसान किए जा रहा था. अस्पताल से डिस्चार्ज हो कर मधु को उस ने घर तक अपनी गाड़ी में छोड़ा और मधु उस का नाम तक नहीं जान पाई. वह पछताती रह गई कि मेहमान को एक कप चाय के लिए भी नहीं पूछ पाई.

थोड़ा फारिग होते ही उस ने अपनी बेटी को फोन लगाया. मोबाइल पर उस की कई मिसकौल्स थीं. फोन पर्स के अंदर ही था. अब घर आ कर वह देख पाई थी.

सुरभि ने उस का फोन रिसीव करते

ही प्रश्नों की झड़ी लगा दी. मधु

के फोन न उठाने की वजह से वह बेहद चिंतित हो रही थी. उस ने बताया कि वह अभी विकास को फोन कर के बताने ही वाली थी.

‘‘अच्छा हुआ जो तू ने विकास को फोन नहीं किया, नाहक ही परेशान होता, बेचारा इतनी दूर बैठा है.’’

‘‘मां, आप को सिर्फ भैया की फिक्र है और मेरा क्या, जो मैं इतनी देर से परेशान हो रही थी आप के लिए. जानती हो, अभी सुमित से कह कर गाड़ी ले के आ जाती आप के पास.’’

मधु ने सुरभि को पूरा किस्सा बताया और यह भी कि कैसे एक अनजान शख्स ने उस की सहायता की. पूरी बात सुन कर सुरभि की जान में जान आई. मुंबई से पूना कोई इतना पास भी नहीं था, अगर चाहती भी तो इतनी जल्दी नहीं पहुंच सकती थी मधु के पास.

‘‘मां, तुम ठीक हो, यही खुशी की बात है. मगर आइंदा इस तरह लापरवाही की, तो मैं भैया को सच में बता दूंगी कि तुम अपना ध्यान नहीं रखती हो.’’

मधु उसे आश्वस्त करती जा रही थी कि वह अब पूरी तरह ठीक है.

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एकलौता बेटा बीवीबच्चों के साथ सात समंदर पार जा कर बस गया था और बेटी अपने भरेपूरे ससुराल में खुश थी. मधु अकेली रहते हुए भी बच्चों की यादों से घिरी रहती थी हमेशा. विकास जब नयानया विदेश गया तो हर दूसरे दिन मां से फोन पर बातें कर लेता था, मगर अब महीने में एक बार फोन आता था तो भी मधु इसे गनीमत समझती थी. खुद को ही तसल्ली दे देती कि बच्चे मसरूफ हैं अपनी जिंदगी में.

दिल की बीमारी से उस के पति की जब असमय ही मौत हो गई थी तो कालेज में लाईब्रेरियन की नौकरी उस का सहारा बनी थी. नौकरी के साथ घर और बच्चों को संभालने में ही कब उम्र गुजर गई, वह जान ही न पाई. अब जब बेटेबेटी का संसार बस गया, तो मधु के पास अकेलापन और ढेर सारा वक्त था जो काटे नहीं कटता था. स्टाफ में सब लोग मिलनसार और मददगार थे, सारा दिन किसी तरह किताबों के बीच गुजर जाता था मगर शाम घिरते ही उसे उदासी घेर लेती. कभी उस अकेलेपन से वह घबरा उठती तो फैमिली अलबम के पन्ने टटोल कर उन पुरानी यादों में खो जाती जब पति और बच्चे साथ थे.

बेटा विकास और बहू मोनिका कनाडा में बस गए थे. उस की 2 बेटियां भी विदेशी परिवेश में पल रही थीं. 2 बार मधु भी उन के पास जा कर रह आई थी. मोनिका और विकास दोनों नौकरी करते थे. दोनों पोतियां विदेशी संस्कृति के रंग में रंगी तेजरफ्तार जिंदगी जीने की शौकीन थीं. उन की अजीबोगरीब पोशाक और रहनसहन देख कर मधु को चिंता होने लगती. आखिर कुछ तो अपने देश के संस्कार सीखें बच्चे, यही सोच कर मधु कुछ समझाने और सिखाने की कोशिश करती, तो दोनों पोतियां उसे ओल्ड फैशन बोल कर तिरस्कार करने लगतीं. उस ने जब बहू और बेटे से शिकायत की तो वे उलटा मधु को ही समझाने लग गए.

‘मां, यह इंडिया नहीं है, यहां तो यही सब चलता है.’

मधु चुप हो गई. घर में बड़ों का फर्ज छोटों को समझाना, उन्हें सहीगलत का भेद बताना होता है, लेकिन, उस की बातों का उपहास उड़ाया जाता था.

बेटाबहू छुट्टी वाले दिन अपने दोस्तों के साथ क्लब या पार्टी में चले जाते. किसी के पास मधु से दो बातें करने की फुरसत नहीं थी.

ठंडे देश के लोग भी ठंडे थे. बाहर गिरती बर्फ को खिड़की से देखती मधु और भी उदास हो जाती. अपने देश की तरह यहां पासपड़ोस का भी सहारा नहीं था, सब साथ रहते हुए भी अकेले थे. उस मशीनी दिनचर्या में मधु का मन न रम पाया और कुछ ही दिनों के भीतर वह अपने देश लौटने को तड़प उठी.

विकास ने उस के बाद कई बार उसे अपने पास बुलाया, मगर मधु जाने को राजी न हुई.

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‘न भाई, ऐसी भागदौड़भरी जिंदगी तुम्हें ही मुबारक हो. तुम लोग तो बिजी रहते हो, अपने काम में. मैं क्या करूंगी सारा दिन अकेले. इस से भली मेरी नौकरी है, कम से कम सारा दिन लोगों से बतियाते मन तो बहल जाता है.’

ठीक ही कहती थी उस की सहेली पम्मी कि दूर के ढोल हमेशा सुहाने लगते हैं.

‘कुछ नहीं रखा है, पम्मी, वहां की जिंदगी में हम जैसे बूढ़ों के लिए.’

‘सही गल है मधु, पर तू बड़ा किसनू दस रई है? खुद को कह रही है तो ठीक है, मैं तो अभी जवान ही हूं,’ और दोनों सहेलियां चुहल कर के ठहाके मार कर हंस पड़तीं.

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रस्मे विदाई: भाग 2- क्यों विदाई के दिन नहीं रोई मिट्ठी

‘मेरी बेटी को क्यों कोस रही हो, मांजी. सही समय पर सभी कार्य स्वयं ही संपन्न हो जाते हैं,’ मां ने मिट्ठी का पक्ष लेते हुए कहा था.

‘4 वर्ष बीत गए. हजारों रुपए तो देखनेदिखाने पर खर्च किए जा चुके हैं. मुझे नहीं लगता, इस के भाग्य में गृहस्थी का सुख है. मेरी मानो तो इस के छोटे भाईबहनों का विवाह कर दो,’ दादीमां ने अपने बेटे को सुझाव दिया था.

‘क्या कह रही हो, मां? क्या ऐसा भी कहीं होता है कि बड़ी बेटी बैठी रहे और छोटों का विवाह हो जाए? फिर, मिट्ठी से कौन विवाह करेगा?’ सर्वेश्वर बाबू के विरोध का स्वर कुछ इस तरह गूंजा था कि दादीमां आगे कुछ नहीं बोली थीं.

उस की मां अचानक ही बहुत चिंतित हो उठी थीं. जिस ने जो उपाय बताए, मां ने वही किए. कितने दिन भूखी रहीं. कितना पैसा मजारों पर जाने व चादर चढ़ाने पर खर्च किया, पर सब बेकार रहा और इसी चक्कर में मां अस्पताल पहुंच गईं.

अंत में एक दिन मिट्ठी ने घोषणा कर दी थी कि अब विवाह नाम की संस्था से उस का विश्वास उठ गया है और वह न तो भविष्य में लोगों के सामने अपनी नुमाइश लगा कर अपना उपहास करवाएगी न कभी विवाह करेगी.

सर्वेश्वर बाबू को जैसे इस उद्घोषणा की ही प्रतीक्षा थी. उन्होंने तुरंत ही दूसरी बेटी पुष्पी के विवाह के लिए प्रयत्न प्रारंभ किए. उन का कार्य और भी सरल हो गया जब पुष्पी ने अपने लिए वर का चुनाव स्वयं ही कर लिया और मंदिर में विवाह कर मातापिता का आशीर्वाद पाने घर की चौखट पर आ खड़ी हुई थी.

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मां तो देखते ही बिफर गई थीं. दादीमां ने माथा ठोक कर समय को दोष दिया और पिता ने पूर्ण मौन साध लिया था. काफी देर रोनेपीटने के बाद जब मां थोड़ी व्यवस्थित हुई थीं तो उन्होंने ऐलान कर डाला था कि वे इस विवाह को विवाह नहीं मानतीं और अब पूरे रीतिरिवाज के अनुसार सप्तपदी की रस्म होगी. सो, पुष्पी के विवाह के निमंत्रणपत्र छपे, मित्रसंबंधी एकत्र हुए, कानाफूसियों का सिलसिला चला और धूमधाम से दानदहेज के साथ पुष्पी को विदा किया गया. मां ने बचपन से दोनों बेटियों के लिए ढेरों गहने, कपड़े, बरतन जोड़ रखे थे. मिट्ठी ने तो उन्हें निराश किया था पर पुष्पी के विवाह का सुनहरा अवसर वे छोड़ना नहीं चाहती थीं.

इस बीच मिट्ठी के एमए पास करने के बाद उसे बाहर जा कर नौकरी करने की पिता ने आज्ञा नहीं दी. उन्हें एक ही डर था कि लोग क्या कहेंगे कि बेटी की कमाई खा रहे हैं.

मिट्ठी का स्वभाव ही ऐसा था कि अधिक देर तक वह उदास नहीं रह सकती थी. खिलखिलाना, ठहाके लगाना मानो उस की निराशा और दर्द को दूर रखने के साधन बन गए थे.

मिट्ठी ने अपने हाथों पुष्पी के लिए जरीगोटे का लहंगा बनाया था. लहंगेचूनर का काम देख कर सब ने दांतों तले उंगली दबा ली थी. लगता था, जैसे किसी की व्यावसायिक निपुण उंगलियों का कमाल था.

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पुष्पी ने तो मुग्ध हो कर मिट्ठी की उंगलियां ही चूम ली थीं.

‘बेचारी,’ पड़ोस की नीरू बूआ ने आंखें छलकाने का अभिनय करते हुए कहा था. मिट्ठी तब दूसरे कमरे में मां का हाथ बंटा रही थी.

‘बेचारी क्यों?’ उन की बेटी रुनझुन ने प्रश्नवाचक स्वर में पूछा था.

‘अपने लिए शादी का जोड़ा बनवाने की हसरत तो उस के मन में ही रह गई,’ उन्होंने स्पष्ट किया था.

‘मिट्ठी दीदी की उंगलियों में तो जादू है, मां, और उन का स्वभाव, वह तो मुर्दों में भी जान फूंक दे,’ रुनझुन बोली थी.

‘शायद ठीक ही कहती है तू, वे ही अभागे थे जो उसे नापसंद कर गए,’ नीरू बूआ बोली थीं.

‘मम्मी, मेरी शादी का जोड़ा भी आप मिट्ठी दीदी से ही बनवाना,’ रुनझुन ने आगे कहा था.

‘सुन ले मिट्ठी, रुनझुन की फरमाइश. आसपड़ोस की लड़कियां अब तुझे चैन नहीं लेने देंगी,’ नीरू बूआ बोलीं.

इस बीच जो बात मिट्ठी को सब से अजीब लगी थी वह थी पारंपरिक विवाह के 2 दिन पहले से ही पुष्पी रोने लगी थी. यद्यपि सभी कुछ तो उस की इच्छा से हुआ था. उस ने मां से पूछा भी था.

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‘रोने की रस्म होती है विवाह में, पर तू क्या जाने, कभी ससुराल जाती तब तो जानती, मन अपनेआप पिघल कर आंखों की राह बहने लगता है,’ मां ने मानो राज की बात बताई थी पर मिट्ठी के पल्ले कुछ नहीं पड़ा था.

पुष्पी के विवाह के बाद जो कुछ हुआ, उस की मिट्ठी ने कल्पना नहीं की थी. उस के पास विवाह के लिए जोड़े बनवाने वालों की भीड़ लग गई थी. न जाने क्या सोच कर सर्वेश्वर बाबू ने न केवल उसे यह काम करने की आज्ञा दे दी, बल्कि जो धन उस के विवाह के लिए रखा था वह उसे दुकान में लगाने के लिए सौंप दिया था. इतना काम मिट्ठी अकेली तो कर नहीं सकती थी. सो, 3-4 सहायकों को रख लिया था. सर्वेश्वर बाबू ने उस के लिए एक बड़ी सी दुकान का प्रबंध भी कर दिया था.

अगले भाग में पढ़ें- मुझ से मिलना चाहती हैं? पर क्यों?

वक्त की अदालत में: भाग 5- मेहर ने शौहर मुकीम के खिलाफ क्या फैसला लिया

‘जी, मैं दे दूंगी. बेफिक्र रहें.’ अपने बच्चों की मासूम जिदों का गला घोंट कर भी मैं वकील और मुंशी की फीस तनख्वाह मिलते ही अलग डब्बे में रखने लगी.

खूबसूरत ख्वाबों का मृगजाल दिखलाने वाली जिंदगी का बेहद तकलीफजदा घटनाक्रम इतनी तेजी से घटा कि मुझे अपने स्लम एरिया में हाल में किस्तों पर अलौट हुए आवास विकास के 2 कमरों के मकान पर जाने का मौका ही नहीं मिला.

4 महीने बाद चाबी पर्स में डाल कर अपनी चचेरी बहन और बच्चों के साथ उस महल्ले में पहुंचने ही वाली थी कि नुक्कड़ पर सार्वजनिक नल से पानी भरती परिचित महिला मुझे देख कर जोर से चिल्लाई, ‘अरे बाजी, आप? बड़े दिनों बाद दिखलाई दीं. मास्टर साहब तो कह रहे थे आप का दूर कहीं तबादला हो गया है. और वह औरत क्या आप की रिश्तेदार है जिस के साथ मास्टर साहब रह रहे हैं?’ भीतर तक दरका देने वाले समाचार ने एक बार फिर मुझ को आजमाइश की सलीब पर लटका दिया.

‘उन्होंने क्या दूसरा निकाह कर लिया है? भरे बदन वाली गोरीचिट्टी, बिलकुल आप की तरह है. मगर आप की तरह हंसमुख नहीं है. हर वक्त मुंह में तंबाकू वाला पान दबाए पिच्चपिच्च थूकती रहती है.’ मु झ को चुप देख कर पड़ोसिन ने पूरी कहानी एक सांस में सुना दी.

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कलेजा निचोड़ लेने वाली अप्रत्याशित घटना की खबर मात्र ने मु झ को हिला कर रख दिया. गरम गोश्त के सौदागर, औरतखोर मुकीम ने 4 महीनों में ही अपनी शारीरिक भूख के संयम के तमाम बांध तोड़ डाले. घर से मेरे निकलते ही उस ने दूसरी औरत घर में बिठा ली. जैसे औरत का अस्तित्व उस के सामने केवल कमीज की तरह बदलने वाली वस्तु बन कर रह गया हो. एक नहीं तो दूसरी, फिर तीसरी, फिर चौथी. मात्र खिलौना. दिल भर गया, कूड़ेदान में डाल दिया. हाड़मांस के शरीर और संवेदनशील हृदय वाली त्यागी, ममतामयी, सहनशील, कर्मशील औरत के वजूद की कोई अहमियत नहीं पुरुषप्रधान मुसलिम भारतीय परिवारों में. यही कृत्य अगर औरत करे तो वह वेश्या, कुलटा. कठमुल्लाओं ने मर्दों को कौन सी घुट्टी पिला दी कि वे खुद को हर मामले में सर्वश्रेष्ठ और सर्वाधिकारी होने का भ्रम पालने लगे हैं.

मैंने प्रश्नवाचक दृष्टि से चचेरी बड़ी आपा की तरफ देखा. ‘तुम यहीं पेड़ के नीचे खड़ी रहो, मैं देखती हूं, माजरा क्या है,’ यह कह कर उन्होंने कंधे पर हाथ रख कर मु झे तसल्ली दी थी.

उन के जाने और आने के बीच लगभग एक घंटे तक मैं बुरे खयालों के साथ आंखें मींच कर खड़ी रही. कौन है वह औरत, क्या सचमुच मुकीम ने दूसरा निकाह कर लिया है? मेरी हसरतों की लाश पर अपनी ऐयाशी का महल तामीर करते हुए उसे अपने पिता होने का जरा भी खयाल नहीं आया. औरत सिर्फ बच्चा पैदा करने वाली मशीन और मर्द केवल बीज बोने वाला हल. फसल के लहलहाने या बरबाद होने से उस का कोई वास्ता नहीं. निर्ममता का ऐसा कठोर और स्पंदनहीन हादसा क्या हर युग में ऐसा ही अपना रूप बदलबदल कर घटता होगा.

नफरत की आग में पूरा शरीर धधकने लगा था. एक अदद 2 कमरों का मकान जिसे अपना पेट काटकाट कर बड़ी मुश्किल से किस्तों में खरीदने की हिम्मत की थी मैं ने अपने बच्चों का भविष्य सुरक्षित करने के लिए, बहेलिया ने परिंदों को जाल में फंसाने के बाद कितनी बेदिली से उन के घोंसलों के तिनके भी हवा में उड़ा दिए. घर, पति, इज्जत, सबकुछ लूट लिया. जीवन के चौराहे पर हर तरफ त्रासदियों की दहकती आग ही आग थी. कौन सा रास्ता मिलेगा बच्चों को सुरक्षित रखने के लिए? शायद कोई नहीं.

आपा वापस लौट आईं उदास और निरीह चेहरा लिए हुए ‘केस की हर पेशीयों में वह औरत अकसर मुकीम को कोर्ट में मिल जाती थी. 4 बच्चों की मां ने शौहर के उत्पीड़न से पीडि़त हो कर घर छोड़ दिया और खानेखर्चे का दावा पति पर ठोंक दिया. उन की मुलाकातें बढ़ती गईं. एकदूसरे की  झूठीसच्ची दर्दीली कहानी और अत्याचार का मुलम्मा चढ़ा कर सुनाया गया फर्जी फसाना, एकदूसरे की शारीरिक, मानसिक भूख की क्षुधा मिटाने का जरिया बनता चला गया.’

मेरी आंखों के सामने अंधेरा छा गया. चुपचाप थके कदमों से वापस लौट आई. अपने अधिकारों का हनन करने और करवाने के प्रति आक्रोश व्यक्त करूं या वक्त की अदालत के फैसले का इंतजार करते हुए अपने और बच्चों के जीवित रखने के प्रयासों में लग जाऊं या फिर अतीत और भविष्य से आंखें मूंद लूं?

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‘मैडम, कल स्कूल इंस्पैक्शन टीम में असिस्टैंट कमिश्नर आ रहे हैं. अगर आप कहें तो आप के ट्रांसफर के लिए सिफारिश कर दूं?’ मुकीम के भेजे कागजी जानवर के तेजी से बढ़ते खूनी पंजों के नाखूनों से खुद भी आहत होते प्राचार्य ने मु झ से हमदर्दी से पूछा, ‘यहां तो आप के शौहर ने आप का जीना हराम कर ही रखा है, ऊपर से स्टाफ को भी अनर्गल बकवास का मौका दे दिया है. टीचर्स बच्चों पर कम, आप के बारे में ही चर्चारत रहते हैं. ये लीजिए आप के ओरिजिनल सर्टिफिकेट, सब सही पाए गए हैं. चैक कर के रिसीविंग दे दीजिए.’

सच झूठ की लड़ाई में हर युग में सच का ही परचम लहराते देखा गया है. वकील साहब ने यकीन दिलाया था, ‘आप फिक्र न कीजिए. हियरिंग पर ही आप को आना पड़ेगा कोर्ट में, बाकी मैं संभाल लूंगा. बस, फीस टाइम पर मनीऔर्डर करती जाइएगा.’ लुटे मुसाफिर की जरूरत के वक्त उस का पैरहन तक उतारने में नहीं हिचकते वकील लोग.

मुकीम ने स्टाफ के पुरुष शिक्षकों के सामने अपने उजड़ जाने की कपोलकल्पित कहानियां सुना कर उन्हें अपने पक्ष में कर लिया. फिर मु झे डराधमका कर कंप्रोमाइज करने के कई हथकंडे अपनाए. लेकिन मैं शिलाखंड बनी बदसूरते हाल के हर  झं झावात सहते हुए उस की हर कोशिश, चाल को नाकाम करती हुई नौकरी, बच्चे और अपनी मर्यादा के प्रति पूरी तरह से निष्ठावान रही.

एक दिन डाक से आया लिफाफा खोला तो उस में दोनों बच्चों के नाम सौसौ रुपए के चैक थे. दूसरे दिन बैंक में जमा करवा दिए. 5वें दिन बैंक मैनेजर ने उन चैक्स के बाउंस हो जाने की खबर दी. चालबाजी, शातिरपन, मक्कारी भला कब तक सचाई के सूरज का सामना कर पाएगी. कोर्ट में वही चैक उस की कमजर्फी और बच्चों के प्रति गैरजिम्मेदाराना बरताव का ठोस सुबूत बन गए.

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ट्रांसफर और्डर हाथ में थमाते हुए प्राचार्य ने मुसकरा कर कहा था, ‘आप जब चाहेंगी, आप का रिलीविंग और्डर और बच्चों की टीसी तैयार करवा दूंगा.’

मैं ने अब्बू को बतलाए बगैर जरूरत का सामान पैक किया और चल पड़ी सौ द्वीपों के बीच सब से ज्यादा आबाद टापू की ओर. जुल्म सहती औरत का अरण्य रुदन सुनते गूंगे, बहरे और अंधे नाकारा शहर से हजारों मील दूर अंडमान निकोबार की तरफ. पानी के जहाज का सफर, उछाल मारती लहरों का बारबार किनारे से सिर पटकना. नहीं, अब और नहीं सहूंगी जिल्लत, रुसवाई और लोगों की आंखों में उगते चुभते सवालों के प्रहारों को. नहीं होने दूंगी अपने दामन को और जख्मी. अब मैं, मेरे बच्चे और मेरा भविष्य… खुशियों की आस की एक किरण क्षितिज से चलती हुई अंतस में कही समा जाती.

अगले भाग में पढ़ें- पतझड़ सावन में, सावन बंसत में तबदील होते रहे.

वक्त की अदालत में: भाग 1- मेहर ने शौहर मुकीम के खिलाफ क्या फैसला लिया

मैं बिस्तर पर ही थी कि मोबाइल बज उठा, ‘‘हैलो.’’

‘‘जी दीदी, नमस्ते, मैं नवीन बाबू बोल रहा हूं.’’

इतनी सुबह नवीन बाबू का फोन? कई शंकाएं मन में उठने लगीं. उन के घर के सामने की सड़क के उस पार मेरा नया मकान बना था नागपुर में. वहां कुछ अनहोनी तो नहीं हो गई. ‘‘जी भैया, नमस्ते. खैरियत तो है?’’

‘‘आप को एक खबर देनी है,’’ नवीन बाबू की आवाज में बौखलाहट थी, ‘‘दीदी, आप के शौहर की कोई जवान बेटी है क्या?’’

‘‘हां, है न.’’

‘‘उस का नाम निलोफर है क्या?’’

‘‘नाम तो मु झे पता नहीं. हां, उस महल्ले में मेरी एक कलीग रहती है, उस से पूछ कर बतला सकती हूं.’’

‘‘मु झे विश्वास है, निलोफर अब्दुल मुकीम की दूसरी बीवी की बेटी है. पता लिखा है प्लौट नं. 108, लश्करी बाग.’’

‘‘हां, मेरे घर का पता तो यही था. मगर हुआ क्या, बतलाइए तो.’’

‘‘निलोफर के साथ कांड हो गया है. पेपर में खबर छपी है,’’ भैया कोर्ट की भाषा में बोले, ‘‘कल पांचपावली थाने की पुलिस मेरे कोर्ट में एक आरोपी को पकड़ कर लाई थी. जज साहब ने बड़ी मुश्किल से उस का पीसीआर दिया है. आरोपी पर 4 धाराएं लगी हैं. लड़की को बहलाफुसला कर होटल में ले जा कर बलात्कार करने और लड़की द्वारा शादी के लिए कहने पर उसे और उस के बाप से 5 लाख रुपए की डिमांड करने, न देने पर बाप को जान से मार देने की धमकी के 4 केस लगाए गए हैं.’’ यह सब सुन कर मेरे कानों से गरमगरम भाप निकलने लगी. सिर चकराने लगा. वह आगे बोलता रहा, ‘‘इतना ही नहीं दीदी, आरोपी खुद पुलिसमैन है और अनुसूचित जाति का है. दीदी, आप जब नागपुर आएंगी न, तब पीसीआर की कौपी दिखलाऊंगा.’’ नवीन बाबू की आवाज ‘‘हैलो, हैलो…’’ आती रही और मेरे हाथ से मोबाइल छूट कर बिस्तर पर गिर पड़ा.

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मैं पसीने से लथपथ थी. दिमाग सुन्न सा हो गया. और मैं बिस्तर पर ही बुत बनी बैठी रही. दोपहर के 3 बजे आंख खुली. घर का सांयसांय करता सन्नाटा नवीन बाबू की आवाज की प्रतिध्वनि से टूटने लगा. बड़ी मुश्किल से उठी. घसीटते कदमों से किचन में जा कर पानी का बड़ा गिलास गटगट कर के गले से नीचे उतार लिया और धम्म से वहीं फर्श पर सिर पकड़ कर बैठ गई. धीरेधीरे आंखें बंद होने लगीं लेकिन मस्तिष्क में जिंदगी की काली किताब का एकएक बदरंग पन्ना समय की तेज हवाओं से फड़फड़ाने लगा.

40 साल पहले मेरे पोस्टग्रेजुएट होने के बाद अम्मी व अब्बू की रातों की नींद हराम हो गई थी, मेरी शादी की फिक्र में. पूरे एक साल की तलाश के बाद भी जब सही रिश्ता नहीं मिला तो मेरी बढ़ती उम्र और छोटी 2 बहनों के भविष्य की खातिर मु झे एक ग्रेजुएट, पीटी टीचर से शादी की रजामंदी देनी पड़ी.

ससुराल में 2 देवर, एक ब्याहता ननद और बेवा सास. निम्न मध्यवर्गीय परिवार में खाना पकाने के भी समुचित बरतन नहीं थे.

‘लोग कहते हैं आप के 3-3 बेटे हैं. इतना दहेज मिलेगा कि घर में रखने की भी जगह नहीं होगी.’ सास की यह बात सुन कर शादी की तारीख तय करने गए अम्मी व अब्बू आश्चर्य से एकदूसरे का मुंह ताकने लगे. अपनी हैसियत से कहीं ज्यादा जेवरात, कपड़े, घरेलू सामान देने पर भी मेहर की रकम को कम से कम करवाने पर सास के अडि़यल स्वभाव ने मेरे विदा होने से पहले ही कड़वाहट की बरछियों से मेरे मधुर सपनों की महीन चादर में कई सुराख कर दिए जिन में से मेरी पीड़ा को बहते हुए आसानी से देखा जा सकता था.

‘दुलहन, जो जेवर हम ने तुम्हें निकाह के वक्त पहनाए थे वे हमें वापस दे दो. तुम्हारे देवर के निकाह में वही जेवर छोटी दुलहन के लिए ले जाएंगे,’ सास ने शादी के 5वें दिन ही हुक्म दिया. मैं ने अकेले में मुकीम से पूछा तो उन्होंने हामी भर दी और बगलें  झांकते हुए काम का बहाना कर के कमरे से बाहर चले गए. दूसरे ही दिन मैं ने मन मसोस कर अपने मायके और निकाह के वक्त दिए गए तमाम जेवर सास के हाथ में थमा दिए. उन का चेहरा खिल गया.

पूरे दिन में सिर्फ एक वक्त चाय और दो वक्त खाना बनता जिस में से रसेदार सब्जी होती तो दालचावल नहीं बनते. हां, जुमे के दिन विशेष खाना जरूर पकता था.

शौहर के संसर्ग के शहदीले सपने तब कांच की तरह टूट गए जब शादी के 10वें दिन शौहर को आधीरात नशे में धुत देखा. ‘शादी की पार्टी में दोस्तों ने जबरदस्ती पिला दी,’ मेरे पूछने पर उन्होंने कहा. मेरे संस्कार धूधू कर के जलने लगे.

मेरे हाथों की मेहंदी का रंग फीका भी नहीं पड़ा था कि एक शाम शादी के वास्ते लिए गए कर्ज की अदायगी को ले कर मुकीम, सास और देवर के बीच जबरदस्त  झगड़ा होने लगा. ‘मु झे अपने दूसरे बेटों की शादियां भी करनी हैं और घर भी चलाना है. तू अपनी शादी का कर्जा खुद अदा कर और घर में खर्च के लिए भी पैसे दे, सम झा,’ सास अपने बेटे यानी मेरे शौहर मुकीम से बोलीं.

‘नहीं, शादी का कर्जा दोनों भाई मिल कर देंगे और घर भी दोनों मिल कर चलाएंगे,’ मुकीम ने जवाब  दिया.

‘अरे वाह रे वाह, एक तू ही चालाक है. तुम दोनों मियांबीवी. और वह अकेला. वह क्यों देगा तेरा कर्जा? उस पर से तेरे कमरे की बिजली का खर्च. पानी, हाउसटैक्स, पूरे 5 हजार रुपए का खर्च है महीने का. उस पर तेरा शौक पीना… वह क्यों उठाएगा इतना खर्च? तू ने शादी की है, तू भरता रह अपना कर्जा.’ बात तूल पकड़ती चली गई. घर से चीखनेचिल्लाने की आती हुई आवाजों ने पड़ोसियों को अपनी खिड़कियों की  िझरी से  झांकने के लिए बाध्य कर दिया. उसी दिन मु झे ससुराल की खस्ताहाल आर्थिक स्थिति का पता चला.

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चीखना, चिल्लाना, गालीगलौज के बीच दोनों भाइयों का हाथापाई का दृश्य देख कर मैं भीतर तक सहम गई थी. मायके में मेरे घर के शांत व शालीन वातावरण में ऊंची आवाज में बोलना बदतमीजी सम झी जाती थी. ससुराल में परिवार के सदस्यों के बीच फौजदारी की हद तक की लड़ाई का दंगाई दृश्य देख कर मैं बुरी तरह आहत हो गई. सास गुस्से से तनतनाती हुई बेटी के घर चली गई, लेकिन जातेजाते अपनी आपसी लड़ाई का ठीकरा मेरे सिर पर फोड़ गई. वह मेरे और मुकीम के बीच तनाव व मनमुटाव का कसैला धुआं फैला गई. रिश्तेदारों के सम झानेबु झाने पर वापस लौट तो आई लेकिन घर में 2 चूल्हों का पतीला ले कर. मेरे और सास, देवर, ननद के बीच अबोले की काली चादर तन गई.

मैं ऊपर की मंजिल वाले कमरे में तनहा बैठी उन बेतुके और अनबु झे कारणों को ढूंढ़ती जिन्होंने मु झे निहायत बदकार, खुदगर्ज और कमजर्फ बहू बना दिया क्योंकि उन को यह वहम हो गया था कि मैं मुकीम को सब के खिलाफ भड़काती हूं.

जीवन के सतरंगी सपनों का पड़ाव घुटन के संकरे दर्रे में सिमट गया. मैं बीमार पड़ गई और मुकीम, पैसा खर्च न करना पड़े, मु झे बुखार की हालत में ही मायके छोड़ आए. वे बोले थे, ‘बीमार लड़की मेरे गले मढ़ दी आप लोगों ने. पूरा इलाज करवाइए, पूरी तरह से ठीक होने पर ही मु झे सूचित कीजिएगा.’ अम्मी व अब्बू उस की धमकी सुन कर स्तब्ध रह गए.

टायफाइड हो गया था मु झे. पलंग पर हड्डियों के ढांचे के बीच सिर्फ 2 पलकें ही खुलतीं, बंद होतीं, जो मेरे जीवित होने की सूचना देतीं. महीनों तक न कोई खत, न कोई खबर, न फोन. अब्बू ने भी चुप्पी साध ली थी.

अचानक एक दिन घर के सामने मुकीम को रिकशे से उतरते देख दोनों छोटी बहनों ने चहकते हुए दरवाजा खोला, ‘खुशामदीदी भाईसाहब.’ मेहमानखाने में अम्मी के साथ मु झे खड़ा देख कर वह चौंक कर बोला, ‘अरे, मैं तो सम झा था कि अब तक मरखप गई होगी. यह तो हट्टीकट्टी, जिंदा है. तो क्या ससुराल में नाटक कर रही थी?’ कर्कश स्वर से निकले मुकीम के विषैले शब्दों ने हम सब का सीना चीर दिया. जी चाहा, उसे धक्के मार कर दरवाजे के बाहर ढकेल दूं मगर पतिपत्नी के रिश्ते की नजाकत ने मेरे गुस्से के उफान को दबा दिया. अम्मी व अब्बू की तिलतिल घुलती काया और ब्याह लायक दोनों छोटी बहनों के चेहरे पर उभरती उदासी की छटपटाहट ने मु झे रोक दिया और मुकीम के साथ वापस ससुराल जाने के लिए मजबूर कर दिया.

म झले देवर की शादी मेरी गैरहाजिरी में हो गई थी. सास और शौहर ने बड़ी बहू के अस्तित्व को नकारते हुए मु झे अपने घर में सिर्फ एक गैरजरूरी चीज की तरह चुप रह कर दिन काटने के लिए मजबूर कर दिया था.

‘पढ़ीलिखी, मगर नाकारा लड़की को बहू बना लिया तुम ने, असगरी. कम से कम नौकरी कर के घर की खस्ता हालत को सुधारने में मदद करने वाली बहू ब्याह लाती? बुजुर्ग ठीक ही कहते हैं, सयाना कौवा अकसर मैले पर ही बैठता है,’ मामी सास के तंज ने मेरा रहासहा हौसला भी पस्त कर दिया.

‘बीएड करूंगी मैं.’ एक दिन हिम्मत कर के मैं बोली.

‘तेरे बाप ने हुंडा दे रखा है क्या?’ मुकीम की तीखी आवाज का तमाचा गाल पर पड़ा. कान  झन झना कर रह गए.

‘जेवर बेच दीजिए मेरे.’

‘उसी को तो बैंक में रख कर मैं ने लोन लिया है.’

‘क्या?’ जैसे आसमान से गिर पड़ी मैं.

म झली बहन की शादी की तैयारियों में अब्बू की टूटती कमर का मु झे शिद्दत से एहसास था. फिर मेरे लिए कहां से लाएंगे वे पैसे.

अगले भाग में पढ़ें- वह सिर के जख्म की वजह से 3 दिनों तक स्कूल नहीं जा सकी.6.- 

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परिवर्तन: भाग 2- राहुल और कवि की कहानी

लेखक- खुशीराम पेटवाल

वह देर तक चिल्लाती रही. उस के साथ राहुल भी रोता रहा. चिल्लातेचिल्लाते उस का गला रुंध गया. थक कर वह चुप हो गई. जाने कहां हैं? कहां दबे पड़े हैं. इसी ढेर के नीचे…मेरे नीचे भी तो शायद यह छत है और मेरे ऊपर? हाथ से टटोल कर देखा तो कुछेक हाथ ऊपर एक दीवार को टिका पाया. मैं कहां दबी पड़ी हूं…अंधेरे में केवल टटोल सकती हूं.

राहुल रो रहा था. उसे शायद भूख लग आई थी. उस के मुंह में अपना स्तन दे कर कवि ने ऊपर की ओर देखा तो दीवार के एक छोटे से छेद से रोशनी छन कर भीतर आ रही थी. जितनी रोशनी अंदर आ रही थी उस से वह अपने इस नए घर को देख तो सकती ही थी.

सिर की तरफ एक 3-4 फुट ऊंची सीमेंट की कालम है. नीचे भी टेढ़े ढंग से दीवार है. इस तरह कुल 3 फुट की ऊंचाई की जगह और 2 हाथ चौड़ाई की जगह. जहां वह बैठ सकती है और किसी तरह पैर सिकोड़ कर लेट सकती है.

कवि अपने वर्तमान को समझने का प्रयास करती हुई यह नहीं जान पाई कि इस स्थिति में रहते हुए उसे कितने दिन गुजरे हैं. जो भी हो, यहां से तो निकलना ही होगा. कैसे निकलूं? कोई हो तो उसे आवाज दूं और वह जोर से चिल्लाई, ‘‘बचाओ… बचाओ…कोई है, कोई तो सुने.’’

काफी देर तक कवि चिल्लाती रही. बाहरी दुनिया को बताने की कोशिश की कि वह जिंदा है, मगर बेकार. कोई हो तो सुने. जब पूरा भुज शहर ही भूकंप की चपेट में जमीन से आ लगा है तो किसे पड़ी है कि वह उस की सुनेगा.

राहुल अपनी मां की चीखें सुन कर कुछ देर तक रोता रहा और फिर सो गया. कवि ने उसे पास से देखा. कितना प्यारा बच्चा है. कितना गोलमटोल, हाथपैर हिलाते हुए उस का राहुल कितना अच्छा लगता है. कवि के मन ने उस से ही प्रश्न पूछा, ‘तू ने अपने बेटे को इतने करीब से देखा ही कब है जो तुझे यह एहसास होता जो आज हो रहा है. तू तो हमेशा अपनी नौकरी नाम की गृहस्थी में ही व्यस्त रही है.’

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सहसा कवि के दिमाग में प्रश्न कौंधा कि सातमंजिला इमारत ढह गई और मैं चौथी मंजिल वाली अपने दूध- पीते बेटे राहुल के साथ बिलकुल ठीकठीक जिंदा हूं. यह कैसे संभव हुआ? क्या इस के पीछे हेमंत का ईश्वर है या परिस्थितियों ने मुझे बचा लिया क्योंकि तब मैं दीवार के किनारे तक ही पहुंच पाई थी. फिर भी उस के कमजोर मन ने बेटी और पति के जिंदा रहने की दुआ तो मांगी थी. कवि को पहली बार पता चला कि कमजोर समय में लोग भगवान को क्यों याद करते हैं. शायद इसलिए कि उन के पास दूसरा कोई उपाय नहीं होता. मायूस हो कर ईश्वर को याद करते हैं. काम बन गया तो ठीक, नहीं बना तो ठीक.

मैं अपने और बच्चे के बचाव के लिए जब तक चिल्ला सकती थी चिल्लाती रही कि शायद शोर सुन कर कोई तो आवाज दे. अगलबगल दबे मेरी तरह जिंदा इनसान या फिर ऊपर बचाव वाला, कोई.

धीरेधीरे छेद से रोशनी कम होतीदेख कर कवि को लगा कि रात होने वाली है. वह सोचने लगी कि अंधेरा अकेला नहीं आता. वह अपने साथ लाता है तरहतरह के डर. डर चोरों का, डर अकेले होने का, डर इस खंडहर में सोने का, डर इस दीवार के गिरने का और सब से बड़ा डर खुद पर से विश्वास उठ जाने का.

कवि अपने बच्चे राहुल को सीने से लगाए हेमंत की पंक्तियां गुनगुनाने लगी, ‘इतनी शक्ति हमें देना दाता, मन का विश्वास कमजोर न हो…’ पहली बार इन पंक्तियों को गुनगुनाते हुए कवि को ऐसा लगा जैसे उस के साथ कोई है. कोई ताकत उस के भीतर आ गई है. इस गाने में कितनी शक्ति है आज इसे वह महसूस कर रही है. और वह बड़ी देर तक बारबार इन पंक्तियों को गुनगुनाती रही.

राहुल भूख के मारे कुलबुलाने लगा. उस के मुंह में उस ने अपना स्तन दे दिया. उसे आश्चर्य इस बात का था कि उस के स्तनों में इतना दूध कहां से आ गया जबकि उस ने अपने बच्चे को दूध बहुत कम पिलाया है. वह तो जानबूझ कर पहले माह से ही बच्चे को ऊपर का दूध पिलाने पर आमादा थी पर हेमंत के बहुत आग्रह पर उस ने राहुल को पहले माह ही दूध पिलाया था. उस के बाद एकाध बार से ज्यादा उस ने राहुल को कभी दूध पिलाया हो यह उसे याद नहीं. सुंदरता को कायम रखने के चक्कर में बच्चे को दूध पिलाने में आनाकानी करती रही. जब 3 महीने से राहुल बिलकुल भी उस का दूध नहीं पी रहा है तो आज उस की छाती  से दूध कैसे उतर रहा है? और उस के मुंह का स्पर्श एक अजीब सी सिहरन पैदा कर रहा है. राहुल से हट कर जब उस का ध्यान गिरजा की तरफ गया तो मन में एक हूक सी उठी कि गिरजा को भी उस ने दूध कब पिलाया है. 1-2 महीने ही. बेचारी बच्ची, जाने कैसे बड़ी हो गई. मैं भी कैसी अभागिन मां हूं जो अपने सुख के चक्कर में अपने बच्चों को उन के सुख से वंचित रखा.

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अपने बारे में सोचतेसोचते कवि कब सो गई उसे पता ही नहीं चला. जब जागी तो अपने चारों ओर अंधेरा देख कर सोचा अभी रात बाकी है. अब उसे सब से ऊपरी मंजिल पर रहने वाले हर्ष की याद आई. उस बेचारे की तो टांग भी टूटी हुई थी और बीवी भी बीमार थी. जाने अब कहां होगा वह परिवार. 7वीं मंजिल जब नीचे आई होगी तो वे कहां होंगे? यहीं कहीं मेरे ऊपर दबे होंगे. हर्ष तो बैड सहित ही नीचे आ गया होगा. वह जरूर बच गया होगा. छठी मंजिल वाली ऊषा का क्या हुआ होगा? अकेली लड़की, कोई नातेरिश्तेदार भी नहीं. पता नहीं जिंदा भी है या फिर…

बड़ी सुंदर है. हेमंत अकसर उस की तारीफ करता है. कहता है  कि क्या सुंदर कसे बदन की मलिका है यह लड़की. नितंब के अनुपात में ही छातियां. पतली कमर, कुल मिला कर विश्व सुंदरी वाला माप. उसे इस आफत की घड़ी में भी हेमंत की बातें याद कर हंसी आ गई कि क्या दिलफेंक इनसान है उस का पति.

यों तो वह मेरी तारीफ करते नहीं थकता. कहता है, ‘कवि, तुम सांचे में ढली हो. तुम्हारी ये आंखें मुझे हमेशा अपने पास बुलाती हैं. तुम्हारे ये रसीले होंठ बिना लाली के ही लाल हैं.’ और मेरे होंठों पर उस के अधीर चुंबन की सरसराहट दौड़ गई. ये मर्द होते ही ऐसे हैं जो जेहन में ऊषा जैसी औरत को रखेंगे और क्रिया करेंगे बीवी के साथ घर में…पर हेमंत वाकई मुझे प्यार करता है.

आगे पढ़ें- अचानक बाहर हलकी सी खटखट हुई….

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शहीद: भाग 2- क्या था शाहदीप का दीपक के लिए फैसला

शाहदीप को वहीं छोड़ मैं कैप्टन बोस के साथ चल पड़ा था कि उस ने आवाज दी, ‘‘ब्रिगेडियर साहब, मैं आप से अकेले में कुछ बात करना चाहता हूं.’’

मैं असमंजस में पड़ गया. ऐसी कौन सी बात हो सकती है जो वह मुझ से अकेले में करना चाहता है. कैप्टन बोस ने मेरे असमंजस को भांप लिया था अत: वह सैनिकों के साथ दूर हट गए.

मैं वापस बैरक के भीतर घुसा तो देखा कि घायल शाहदीप का पूरा शरीर कांप रहा था.

मैं उस के करीब पहुंचा ही था कि उस का शरीर लहराते हुए मेरी ओर गिर पड़ा. मैं ने उसे अपनी बांहों में संभाल कर सामने बने चबूतरे पर लिटा दिया. वह लंबीलंबी सांसें लेने लगा.

उस की उखड़ी हुई सांसें कुछ नियंत्रित हुईं तो मैं ने पूछा, ‘‘बताओ, क्या कहना चाहते हो?’’

‘‘सिर्फ इतना कि मैं ने आप का कर्ज चुका दिया है.’’

‘‘कैसा कर्ज? मैं कुछ समझा नहीं.’’

‘‘अगर मैं चाहता तो आप मुझे मार भी डालते तो भी मेरे यहां आने का राज कभी मुझ से न उगलवा पाते. मैं यह भी जानता था कि देशभक्ति के जनून में आप मुझे मार डालेंगे किंतु यदि ऐसा हो जाता तो फिर जिंदगी भर आप अपने को माफ नहीं कर पाते.’’

‘‘फौजी तो अपने दुश्मनों को मारते ही रहते हैं, उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता है,’’ मैं ने अचकचाते हुए कहा.

‘‘लेकिन एक बाप को फर्क पड़ता है. अपने बेटे की हत्या करने के बाद वह भला चैन से कैसे जी सकता है?’’ शाहदीप के होंठों पर दर्द भरी मुसकान तैर गई.

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‘‘कैसा बाप और कैसा बेटा. तुम कहना क्या चाहते हो?’’ मेरा स्वर कड़ा हो गया.

शाहदीप ने अपनी बड़ीबड़ी आंखें मेरे चेहरे पर टिका दीं और बोला, ‘‘ब्रिगेडियर दीपक कुमार सिंह, यही लिखा है न आप की नेम प्लेट पर? सचसच बताइए कि आप ने मुझे पहचाना या नहीं?’’

मेरा सर्वांग कांप उठा.

मेरी ही तरह मेरे खून ने भी अपने खून को पहचान लिया था. हम बापबेटों ने जिंदगी में पहली बार एकदूसरे को देखा था किंतु रिश्ते बदल गए थे. हम दुश्मनों की भांति एकदूसरे के सामने खड़े थे. मेरे अंदर भावनाओं का समुद्र उमड़ने लगा था. मैं बहुत कुछ कहना चाहता था किंतु जड़ हो कर रह गया.

‘‘डैडी, आप को पुत्रहत्या के दोष से बचा कर मैं पुत्रधर्म के ऋण से उऋण हो चुका हूं. आज के बाद जब भी हमारी मुलाकात होगी आप अपने सामने पाकिस्तानी सेना के जांबाज और वफादार अफसर को पाएंगे, जो कट जाएगा लेकिन झुकेगा नहीं,’’ शाहदीप ने एकएक शब्द पर जोर देते हुए कहा.

‘‘इस का मतलब तुम ने जानबूझ कर अपना राज खोला है,’’ बहुत मुश्किलों से मेरे मुंह से स्वर फूटा.

‘‘मैं कायर नहीं हूं. मैं आप की सौगंध खा कर वादा करता हूं कि जिस देश का नमक खाया है उस के साथ नमकहरामी नहीं करूंगा,’’ शाहदीप की आंखें आत्मविश्वास से जगमगा उठीं.

शाहदीप के स्वर मेरे कानों में पिघले शीशे की भांति दहक उठे. मैं एक फौजी था अत: अपने बेटे को अपनी फौज के साथ गद्दारी करने के लिए नहीं कह सकता था किंतु जो वह कह रहा था उस की भी इजाजत कभी नहीं दे सकता था. अत: उसे समझाते हुए बोला, ‘‘बेटा, तुम इस समय हिंदुस्तानी फौज की हिरासत में हो इसलिए कोई दुस्साहस करने की कोशिश मत करना. ऐसा करना तुम्हारे लिए खतरनाक हो सकता है.’’

‘‘दुस्साहस तो फौजी का सब से बड़ा हथियार होता है, उसे मैं कैसे छोड़ सकता हूं. आप अपना फर्ज पूरा कीजिएगा मैं अपना फर्ज पूरा करूंगा,’’ शाहदीप निर्णायक स्वर में बोला.

मैं दर्द भरे स्वर में बोला, ‘‘बेटा, तुम्हारे पास समय बहुत कम है. मेहरबानी कर के तुम इतना बता दो कि तुम्हारी मां इस समय कहां है और यहां आने से पहले क्या तुम मेरे बारे में जानते थे?’’

‘‘साल भर पहले मां का इंतकाल हो गया. वह बताया करती थीं कि मेरे सारे पूर्वज सेना में रहे हैं. मैं भी उन की तरह बहादुर बनना चाहता था इसलिए फौज में भरती हो गया था. अपने अंतिम दिनों में मां ने आप का नाम भी बता दिया था. मैं जानता था कि आप भारतीय फौज में हैं किंतु यह नहीं जानता था कि आप से इस तरह मुलाकात होगी,’’ बोलतेबोलते पहली बार शाहदीप का स्वर भीग उठा था.

मैं भी अपने ऊपर नियंत्रण नहीं रख पा रहा था. अत: शाहदीप को अपना खयाल रखने के लिए कह कर तेजी से वहां से चला आया.

‘‘सर, वह क्या कह रहा था?’’ बाहर निकलते ही कैप्टन बोस ने पूछा.

‘‘कह रहा था कि मैं ने आप की मदद की है इसलिए मेरी मदद कीजिए, और मुझे यहां से निकल जाने दीजिए,’’ मेरे मुंह से अनजाने में ही निकल गया.

मैं चुपचाप अपने कक्ष में आ गया. बाहर खड़े संतरी से मैं ने कह दिया था कि किसी को भी भीतर न आने दिया जाए. इस समय मैं दुनिया से दूर अकेले में अपनी यादों के साथ अपना दर्द बांटना चाहता था.

कुरसी पर बैठ उस की पुश्त से पीठ टिकाए आंखें बंद कीं तो अतीत की कुछ धुंधली तसवीर दिखाई पड़ने लगी.

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उस शाम थेम्स नदी के किनारे मैं अकेला टहल रहा था. अचानक एक अंगरेज नवयुवक दौड़ता हुआ आया और मुझ से टकरा गया. इस से पहले कि मैं कुछ कह पाता उस ने अत्यंत शालीनता से मुझ से माफी मांगी और आगे बढ़ गया. अचानक मेरी छठी इंद्री जाग उठी. मैं ने अपनी जेब पर हाथ मारा तो मेरा पर्स गायब था.

‘पकड़ोपकड़ो, वह बदमाश मेरा पर्स लिए जा रहा है,’ चिल्लाते हुए मैं उस के पीछे दौड़ा.

मेरी आवाज सुन उस ने अपनी गति कुछ और तेज कर दी. तभी सामने से आ रही एक लड़की ने अपना पैर उस के पैरों में फंसा दिया. वह अंगरेज मुंह के बल गिर पड़ा. मेरे लिए इतना काफी था. पलक झपकते ही मैं ने उसे दबोच कर अपना पर्स छीन लिया. पर्स में 500 पाउंड के अलावा कुछ जरूरी कागजात भी थे. पर्स खोल कर मैं उन्हें देखने लगा. इस बीच मौका पा कर वह बदमाश भाग लिया. मैं उसे पकड़ने के लिए दोबारा उस के पीछे दौड़ा.

‘छोड़ो, जाने दो उसे,’ उस लड़की ने लगभग चिल्लाते हुए कहा था.

उस की आवाज से मेरे कदम ठिठक कर रुक गए. उस बदमाश के लिए इतना मौका काफी था. मैं ने उस लड़की की ओर लौटते हुए तेज स्वर में पूछा, ‘आप ने उसे जाने क्यों दिया?’

‘लगता है तुम इंगलैंड में नए आए हो,’ वह लड़की कुछ मुसकरा कर बोली.

‘हां.’

‘ये अंगरेज आज भी अपनी सामंती विचारधारा से मुक्त नहीं हो पाए हैं. प्रतिभा की दौड़ में आज ये हम से पिछड़ने लगे हैं तो अराजकता पर उतर आए हैं. प्रवासी लोगों के इलाकों में दंगा करना और उन से लूटपाट करना अब यहां आम बात होती जा रही है. यहां की पुलिस पर सांप्रदायिकता का आरोप तो नहीं लगाया जा सकता, फिर भी उन की स्वाभाविक सहानुभूति अपने लोगों के साथ ही रहती है. सभी के दिमाग में यह सोच भर गई है कि बाहर से आ कर हम लोग इन की समृद्धि को लूट  रहे हैं.’

मैं ने उसे गौर से देखते हुए पूछा, ‘तुम भी इंडियन हो?’

‘पाकिस्तानी हूं,’ लड़की ने छोटा सा उत्तर दिया, ‘शाहीन नाम है मेरा. कैंब्रिज विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन कर रही हूं.’

‘मैं दीपक कुमार सिंह. 2 दिन पहले मैं ने भी वहीं पर एम.बी.ए. में प्रवेश लिया है,’ अपना संक्षिप्त परिचय देते हुए मैं ने अपना हाथ आगे बढ़ाया तो यह कहते हुए शाहीन ने मेरा हाथ गर्मजोशी से पकड़ लिया कि फिर तो हमारी खूब निभेगी.

उस अनजान देश में शाहीन जैसा दोस्त पा कर मैं बहुत खुश था. उस के पापा का पाकिस्तान में इंपोर्टएक्सपोर्ट का व्यवसाय था. मां नहीं थीं. पापा अपने व्यापार में काफी व्यस्त रहते थे इसलिए वह यहां पर अपनी मौसी के पास रह कर पढ़ने आई थी.

शाहीन के मौसामौसी से मैं जल्दी ही घुलमिल गया और अकसर सप्ताहांत उन के साथ ही बिताने लगा. शाहीन की तरह वे लोग भी काफी खुले विचारों वाले थे और मुझे काफी पसंद करते थे. सब से अच्छी बात तो यह थी कि यहां पर ज्यादातर हिंदुस्तानी व पाकिस्तानी आपस में बैरभाव भुला कर मिलजुल कर रहते थे. ईद हो या होलीदीवाली, सारे त्योहार साथसाथ मनाए जाते थे.

शाहीन बहुत अच्छी लड़की थी. मेरी और उस की दोस्ती जल्दी ही प्यार में बदल गई. साल बीततेबीतते हम ने शादी करने का फैसला कर लिया. हमें विश्वास था कि शाहीन के मौसीमौसा इस रिश्ते से बहुत खुश होंगे और वे शाहीन के पापा को इस शादी के लिए मना लेंगे, किंतु यह हमारा भ्रम निकला.

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‘तुम्हारी यह सोचने की हिम्मत कैसे हुई कि कोई गैरतमंद पाकिस्तानी तुम हिंदुस्तानी काफिरों से अपनी रिश्तेदारी जोड़ सकता है,’ शाहीन के मौसा मेरे शादी के प्रस्ताव को सुन कर भड़क उठे थे.

‘अंकल, यह आप कैसी बातें कर रहे हैं. इंगलैंड में तो सारे हिंदुस्तानी और पाकिस्तानी आपस का बैर भूल कर साथसाथ रहते हैं,’ मैं आश्चर्य से भर उठा.

‘अगर साथसाथ नहीं रहेंगे तो मारे जाएंगे इसलिए हिंदुस्तानी काफिरों की मजबूरी है,’ मौसाजी ने कटु सत्य पर से परदा उठाया.

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झूठ से सुकून: भाग 2- शशिकांतजी ने कौनसा झूठ बोला था

लेखक- डा. मनोज मोक्षेंद्र

उमाकांतजी के ड्राइंगरूम का नजारा ही कुछ अलग था. वहां सबकुछ उलटापलटा पड़ा हुआ था. वे हुड़दंग करने के मूड में लग रहे थे. सोसायटी के कोई दर्जनभर लोग वहां जमे हुए थे. टेबल पर व्हिस्की की बोतलें थीं और कुछ लोग शतरंज के खेल में व्यस्त थे जबकि टीवी पर कोई वल्गर फिल्म चल रही थी. जब मैं ने झिझकते हुए उमाकांतजी के जनानखाने का जायजा लेना चाहा तो वे बोल उठे, ‘‘यार, बीवी को अभीअभी राहुल के साथ उस के मायके भेज दिया है जो यहीं राजनगर में है. अब हमारे ऊपर कोई निगरानी रखने वाला नहीं है. आज कई दिनों बाद तो मौजमस्ती का मूड बना है. सोचा कि तुम्हें भी साथ ले लूं. ऐसा मौका रोजरोज कहां आता है? खूब खाएंगेपीएंगे और एडल्ट फिल्में देखेंगे.’’

चूंकि मैं कभी ऐसे माहौल का आदी नहीं रहा, छात्र जीवन में भी पढ़नेलिखने के सिवा कभी कोई ऐसीवैसी नाजायज हरकत नहीं की, इसलिए मैं वहां काफी देर तक असहज सा रहा. बड़ी घुटन सी महसूस कर रहा था. तभी कुलदीपा ने कहला भेजा कि लखनऊ के ताऊजी सपरिवार पधारे हैं. सो, मुझे वहां से मुक्त होने का एक बहाना मिल गया. मैं ने उस माहौल से विदा होते समय राहत की सांस ली.

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उस शाम जब मैं लखनऊ से पधारे मेहमानों को घंटाघर का मार्केट घुमाने ले जा रहा था तो अपार्टमैंट के ही कुछ बदमिजाज लौंडों के बीच खेलखेल में नोकझोंक के बाद मारपीट हो गई जिस में उमाकांतजी के लड़के राहुल का सिर फट गया. मामला थाने तक जाने वाला था कि मैं ने बीचबचाव कर के झगड़े को निबटाया और अपने मेहमानों को वापस घर में बैठा कर राहुल को मरहमपट्टी कराने अस्पताल चला गया. काफी देर बाद वापस लौटा तो मेहमानों को होटल में डिनर कराने ले गया क्योंकि अपार्टमैंट में पैदा हुए उस माहौल में कुलदीपा के लिए डिनर तैयार करना बिलकुल संभव नहीं था. बहरहाल, मैं यह सोचसोच कर शर्म में डूबा जा रहा था कि आखिर, ताऊताई क्या सोच रहे होंगे कि कैसे वाहियात अपार्टमैंट में हम ने फ्लैट लिया है और कैसे वाहियात लोगों के साथ हम रह रहे हैं. सुबह जब ताऊताईजी टहलने जा रहे थे तो अपार्टमैंट में गजब की गंदगी फैली हुई थी. बोतलें, कंडोम, सिगरेट के पैकेट आदि रास्ते में बिखरे हुए थे.

उस दिन मैं ने मेहमानों की खिदमत के लिए एक दिन की और छुट्टी ले ली. सुबह, नीलेशजी सोसायटी के किसी काम से आए थे, पर मुझे मेहमाननवाजी में व्यस्त देख कर चले गए. उस के बाद भी सोसायटी के कुछ लोग मेरे बारे में पूछने आए. परंतु कुलदीपा ने उन्हें कोई तवज्जुह नहीं दी. उस शाम मेहमानों को वापस लखनऊ जाना था. लिहाजा, शाम को उन्हें ट्रेन में बैठा कर वापस लौटा तो मैं बड़ी राहत महसूस कर रहा था क्योंकि उन के रहते अपार्टमैंट में कोई और ऐसी नागवार वारदात नहीं घटी जिस से कि उन्हें किसी और अजीबोगरीब अनुभव से गुजरना पड़ता. इसी बीच, मैं ड्राइंगरूम में थका होने के कारण सोफे पर लुढ़का हुआ था तभी कुलदीपा मेरे बगल में आ कर बैठ गई. उस ने मेरे बालों में अपनी उंगलियां उलझाते हुए कहा, ‘‘आप थोड़े में ही थक जाते हैं. देखिए, मैं भी तो कल से मिनटभर को आराम नहीं कर पाई हूं. अब समाज में रहते हैं तो हमें सामाजिक जिम्मेदारियां भी तो निभानी पड़ेंगी.’’

मैं उस का इशारा समझ गया. वह चाहती थी कि मैं औफिस की ड्यूटी के साथसाथ सोसायटी के काम में भी बढ़चढ़ कर हिस्सा लेता रहूं. मैं ने मन ही मन कहा, ‘कुलदीपा, देखना तुम खुद भी इन निठल्ले सोसायटी वालों से ऊब जाओगी.’ हम बातचीत में मशगूल थे कि तभी मेरी बिटिया तनु ने आ कर बताया कि उमाकांत अंकल बाहर खड़े हैं और वे आप से मिलना चाहते हैं. फिर मैं ड्राइंगरूम में आ गया और तनु से कह दिया कि अंकल को अंदर बुला लाओ.

उमाकांतजी सोफे पर बैठने से पहले ही बोल उठे, ‘‘अजी शशिकांतजी, एक बड़ी कामयाबी हमें मिली है.’’

‘‘अरे हां, बताइए,’’ मुझे लगा कि जैसे वे कोई बड़ी जंग जीत कर आए हैं.

‘‘बिल्डर निरंजन के घर का पता मिल गया है. वह यहीं पास के महल्ले में रहता है. आज शाम हम ने तय किया है कि अपने पदाधिकारियों के साथ अपार्टमैंट के सभी लोग उस से मिलने चलेंगे और उस पर प्रैशर बनाएंगे कि वह अपार्टमैंट के बकाया काम को तुरंत निबटाए, वरना हम उस के खिलाफ ऐसी कानूनी लड़ाई शुरू करेंगे कि उसे छटी का दूध याद आ जाएगा.’’

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‘‘ठीक है, हम सभी उस के घर चलते हैं और उसे डराधमका कर आते हैं,’’ मैं ने कान खुजलाते हुए उन के मनोबल में इजाफा किया.

उस शाम हम निरंजन के घर गए तो बहसाबहसी का दौर इतना लंबा खिंचा कि रात के 11 बज गए. उस के गुंडों के साथ झड़प होने से हम बालबाल बच गए. उस का कहना था कि उस ने अपार्टमैंट में एक भी काम बकाया नहीं छोड़ा है जबकि हम ने कल कोर्ट में जो केस दायर किया था उस में कोई दर्जनभर ऐसे काम दर्शाए थे जिन्हें उस ने अपने वादे के अनुसार पूरा नहीं किया है. बहरहाल, बिल्डर निरंजन की नाराजगी की एक अहम वजह यह थी कि उसे पता चल गया था कि वैलफेयर सोसायटी ने उस के खिलाफ कोर्ट में एक केस डाला है. बस, इसी खुंदक में वह भविष्य में अपार्टमैंट में कोई भी काम कराने से साफ इनकार कर रहा था. उस ने तैश में भुनभुना कर कहा भी, ‘ऐसे कितने केस हम पर चल रहे हैं, एक और केस देख लेंगे. मेरा क्या बिगाड़ लोगे?’

रात के कोई 12 बजे घर लौट कर मैं ने खाना खाया. सोने की कोशिश की तो नींद का आंखों से रिश्ता कायम नहीं हो पाया. लिहाजा, पता नहीं कब आंख लगी और जब सुबह के 8 बजे तो मैं हड़बड़ा कर उठा. कुलदीपा भी घर के सारे कामकाज निबटाने के बाद नहाधो चुकी थी. किसी तरह अफरातफरी में तैयार हो कर मैं औफिस पहुंचा. मैं मुश्किल से अभी अपनी कुरसी पर बैठा ही था कि मैसेंजर ने आ कर बताया कि नीलेश नाम के कोई साहब आए थे और आप से मिलना चाह रहे थे. मैं सोच में पड़ गया. तभी मेरा मोबाइल बज उठा, ‘‘हैलो शशिकांतजी, मैं वैलफेयर सोसायटी से नीलेश बोल रहा हूं. मैं बाहर रिसैप्शन पर खड़ा हूं. आप से एक जरूरी काम था.’’

मेरा माथा ठनका, अच्छा, तो ये अपनी वैलफेयर सोसायटी के नीलेशजी हैं. मतलब यह कि अपनी सोसायटी अब मेरे औफिस तक आ पहुंची है. मैं ने रिसैप्शनिस्ट को फोन कर के बताया कि नीलेशजी को अंदर मेरे चैंबर में भेज दो. वे आए तो एकदम से अपने मतलब की बात पर आ गए, ‘‘शशिकांत, मैं बड़ी मुसीबत में हूं. मेरे बच्चे का सैंट्रल स्कूल में ऐडमिशन नहीं हो पा रहा है. हर मुमकिन कोशिश कर चुका हूं. अधिकारियों से खूब मगजमारी भी कर चुका हूं. अगर आप अपने डीओ लैटर पर सैंट्रल स्कूल के पिं्रसिपल से एक रिक्वैस्ट लिख दें तो मेरा बड़ा उपकार हो जाएगा.’’

वे हाथ जोड़ कर मुझ से बुरी तरह याचना करने लगे. मैं ने सोचा, अपनी वैलफेयर सोसायटी का मामला है, वह भी एक पदाधिकारी का. आखिर, मेरे अनुरोध पर उस के बच्चे का ऐडमिशन हो जाए तो इस में हर्ज ही क्या है. इस तरह वैलफेयर सोसायटी और औफिस की जिम्मेदारियां साथसाथ निबटाते हुए 2 दिन और गुजरे थे कि उमाकांतजी द्वारा एक सूचना मिली कि कल दोपहर बाद उन के यहां कोई खास आयोजन है जिस में मुझे सपरिवार शामिल होना है. कुलदीपा भी सामने आ खड़ी हुई, ‘‘अजी, सोसायटी का मामला है, कोई कोताही मत बरतना. कल कायदे से दोपहर बाद, औफिस से आधी छुट्टी ले कर यहां आ जाना, वरना बहुत बुराई हो जाएगी. लोग कहेंगे कि शशिकांत साहब ऐसे छोटेमोटे आयोजन में कहां आने वाले हैं, आखिर, वे एक बड़े अफसर जो ठहरे.’’

कुलदीपा के आग्रह को टालना मेरे वश की बात नहीं है. सो, उस दिन मैं औफिस से आधी छुट्टी ले कर उमाकांतजी के आयोजन में शामिल होने सपरिवार जा पहुंचा. लेकिन, मैं ने देखा कि वहां कोई बड़ा जश्न नहीं है, जैसे कि किसी का जन्मदिन या मैरिज एनिवर्सरी आदि. बस, नीलेशजी, लालजी और भीमसेनजी के परिवारजन ही वहां मौजूद थे. लिहाजा, उमाकांतजी ने खड़े हो कर स्वागत किया जबकि उन की पत्नी, कुलदीपा को ले कर दूसरे कमरे में चली गईं और मेरे दोनों बच्चे वहां दूसरे बच्चों के साथ खेलकूद में व्यस्त हो गए. मामूली औपचारिकताओं के बाद चायपान हुआ, फिर 4 बजे के आसपास खाना. मुझे बड़ी कोफ्त हुई. बस, इतने से आयोजन के लिए मुझे औफिस का अत्यंत महत्त्वपूर्ण काम छोड़ कर वहां से छुट्टी लेनी पड़ी. बहरहाल, जब हम लोग वापस अपने फ्लैट में आए तो कुलदीपा ने बताया कि आज मिसेज उमाकांतजी से मेरी खूब बातचीत हुई. उमाकांतजी घंटाघर के पास एक शराब का ठेका लेना चाहते हैं जिस के लिए उन्हें आप की मदद चाहिए.

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मैं चौंक गया, तो क्या शराब के ठेके के लिए लाइसैंस दिलाने के लिए सारी जुगत मुझे ही करनी होगी? मैं ने कुलदीपा से कहा, ‘‘अब, यह काम मुझ से नहीं हो पाएगा. उमाकांत नाजायज काम करने वाला आदमी है और मेरी उस के साथ नहीं निभने वाली है.’’ पर कुलदीपा उमाकांतजी के ही पक्ष में मुझ से तर्ककुतर्क करने लगी, ‘‘अरे, अब उमाकांतजी यह बिजनैस करना चाहते हैं तो करने दीजिए. हमारा क्या जाता है?’’ ‘‘मतलब यह कि वह हमारे मारफत ठेका खोलेगा, ठेके पर अवैध धंधा करेगा और जब पकड़ा जाएगा तो कानून की गिरफ्त में मैं आऊंगा क्योंकि उस के ठेके की जिम्मेदारी मेरे ऊपर होगी,’’ मैं एकदम से बिफर उठा.

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अपराधिनी: भाग 3- क्या था उसका शैली के लिए उसका अपराध

लेखिका-  रेणु खत्री

‘‘उन्होंने मुझे घर में रखने से इनकार कर दिया. मैं मायके आ गई. मेरा दुख मां से सहन नहीं हुआ और वे बीमार पड़ गईं व 2 माह के भीतर ही वे भी मुझे छोड़ गईं.

‘‘पापा के किसी मित्र ने मेरे लिए दूसरा रिश्ता खोजा. पर मुझ में अब समय से लड़ने की और ताकत न थी. मैं ने दूसरे विवाह से मना कर दिया. पापा भी मेरी तरफ से परेशान रहने लगे. सो, मैं ने खुद को व्यस्त रखना शुरू किया. पहलेपहल तो मैं किताबों में उलझी रहती थी, उन्हें ही पढ़ती थी. फिर एक दिन किसी ने मुझे समाजसेवी संस्था से जुड़ने का सुझाव दिया. मुझे यह बहुत पसंद आया. अगले ही दिन मैं उस संस्था से जुड़ गई और मेरे जीवन को एक नई दिशा मिल गई. पापा अपने पैतृक गांव चले गए. वहीं चाचाजी, ताऊजी के परिवार के साथ उन का वक्त भी आसानी से कट जाता है और मुझे खुश देख कर उन्हें संतुष्टि भी होती है,’’ यह कह कर वह मुसकरा दी.

अब मेरे नयन बरसने लगे. मैं ने अपने हाथ जोड़ उस से क्षमा मांगी अपने उन शब्दों के लिए जो मैं ने 20 वर्षों पहले गुस्से में उस से कहे थे. पर वह तो मानो विनम्रता, सहनशीलता और प्रेम की साक्षात रूप थी. मुझे गले से लगा कर बोली, ‘‘याद है तुम्हें, दादी ने क्या कहा था? सब समय से मिलता है. मेरा समय मुझे मिल गया. जो हुआ, अच्छा हुआ. अब तो मेरी अपनी पहचान है.’’ वह फिर मुसकरा दी.

मेरी आंखें पोंछ कर उस ने मुझे पानी पिलाया और बड़ी ही फुरती से उठी. दौड़ कर मेरे मनपसंद समोसे ले कर आई, ‘‘इन्हें खाओ, मैं ने खुद बनाए हैं,’’ कह कर प्लेट मेरे हाथ में दी. फिर हंसते हुए बोली, ‘‘आया न मां के हाथ के बने समोसे वाला स्वाद. उन्हीं से सीखे थे मैं ने.’’ मेरी आंखें फिर बरसने लगीं. माहौल को खुशनुमा बनाने के लिए वह जोर से हंसी और बोली, ‘‘अरे यार, इतनी मिर्च तो नहीं है इस में जो तुम्हारी आंखों में पानी आ रहा है.’’ कह कर उस ने बर्फी का एक बड़ा टुकड़ा मेरे मुंह में ठूंस दिया और मैं खिलखिला कर हंस पड़ी.

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बहुत देर तक हम बातें करते रहे. इस बीच, उस की संस्था से उस के पास कई फोन आए. सभी प्रश्नों के वह संतोषजनक उत्तर देती और फिर हम वापस पुरानी यादों में खो जाते.

वहां से वापस लौटते समय बड़े ही भय के साथ मैं ने वो उपहार उसे देने चाहे, पर साहस ही नहीं जुटा पा रही थी. शायद उस ने मेरा मन पढ़ लिया था, तभी वह चहक कर बोली, ‘‘तुम इतने सालों में मिली हो, मेरे लिए कोई तोहफा तो जरूर लाई होगी. इसे दो न मुझे.’’ बच्चों की तरह मुझे झकझोर कर कहने लगी, ‘‘तुम से तोहफा लिए बिना तो तुम्हें यहां से जाने ही नहीं दूंगी,’’ वह फिर मुसकराई.

अब मैं ने उस की बात मानते हुए उन उपहारों को उसे भेंट किया. मेरे नयन अभी भी सजल थे. उपहार लेते समय वह खुशी से मानो उछल पड़ी हो. ‘‘मेरे तो बहुत सारे बच्चे हैं. ये उपहार पा कर वे बहुत खुश होेंगे. इसे तो मैं ड्राइंगरूम में सजाऊंगी,’’ ऐसा कह कर उस ने मेरा और मेरे लाए हुए उपहारों का बहुत मान रखा.

यों ही सुकून का एहसास दिलाती, सधी हुई बातों से, वर्तमान लमहों को पूरे मन से जीने का कौशल सिखलाती, उत्साह से भरपूर वह मुझे बाहर तक विदा करने आई इस वादे के साथ कि कल रविवार को शशांक के साथ फिर मिलने आना है.

मैं वहां से चल दी. गाड़ी में बैठे पूरे रास्ते मेरे मन में एक अजीब सी उलझन हिचकोले खाती रही. अपनी जिंदगी, अपने सपने, मात्र अपना ही भला चाहने के स्वार्थ में मैं ने उस बेकुसूर को न जाने क्याक्या कह दिया था. फिर भी, उस के नयनों में स्नेह, हृदय में प्यार और अपनापन देख कर मैं स्वयं को बहुत बड़ी अपराधिन महसूस कर रही थी.

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दादी की जिस सीख को मैं ने अपनाना तो दूर, कभी उसे तवज्जुह भी नहीं दी, आज फिर याद आई. वही दादी, जो कहती थीं, ‘सबकुछ नियति तय करती है. हम सभी उस नियति के मोहरे मात्र हैं. कभी भी किसी से आहत करने वाले शब्द मत बोलो कि उस के घाव कभी भर न पाएं और वे नासूर बन जाएं.’

अब लगता है शायद नियति ने ही ऐसा तय कर रखा था कि मेरे स्थान पर शैली आ गई. उस ने भी मित्रता का क्या खूब फर्ज निभाया, मेरे जीवन में आने वाले बुरे समय को उस ने सहर्ष स्वीकार कर लिया. वह भले ही सबकुछ भुला कर मुझे माफ कर दे, पर मैं अपनी ही नजरों में ताउम्र उस की अपराधिनी रहूंगी.

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