Khatron Ke Khiladi 11: श्वेता तिवारी से लेकर निक्की तम्बोली तक, शो लॉन्च पर छाई ये हसीनाएं

कलर्स का रियलिटी शो खतरों के खिलाड़ी का 11वां सीजन लौंच हो गया है, जिसका सेलिब्रेशन करते शो के होस्ट और कंटेस्टेंट नजर आएं. वहीं शो का हिस्सा रहीं हंसीनाओं ने लौंच पार्टी में हुस्न की बिजलियां गिराईं. जहां एक्ट्रेस श्वेता तिवारी का हौट लुक वाला सूट फैंस को अट्रेक्ट करता दिखा तो वहीं एक्ट्रेस दिव्यांका त्रिपाठी की सिंपल ड्रैस ने फैंस का दिल जीत लिया. आइए आपको दिखाते हैं रोहित शेट्टी (Rohit Shetty) के शो खतरों के खिलाड़ी 11 (Khatron Ke Khiladi) की लौंच पार्टी में हसीनाओं के हौट लुक्स की झलक…

कहर ढाती दिखीं श्वेता तिवारी

 

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शो खतरों के खिलाड़ी 11 (Khatron Ke Khiladi) की लौंच पार्टी में एक्ट्रेस श्वेता तिवारी वाइट कलर का डिजिटल प्रिंट पैंट-सूट पहने नजर आईं. वहीं सफेद रंग के सूट पर ब्राइट कलर्स का प्रिंट बेहद अट्रैक्टिव लुक दे रहा था, जिसे देखकर फैंस उनके लुक की तारीफें करते नही थक रहे हैं.

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दिव्यांका भी नहीं थीं फैशन के मामले में कम

 

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सेलिब्रेशन के मौके पर टीवी की बहू एक्ट्रेस दिव्यांका त्रिपाठी ए-लाइन पैटर्न वाली ब्लैक शॉर्ट लेंथ ड्रेस में नजर आईं, जिसके साथ उन्होंने बूट्स कैरी किए थे.  कटआउट स्लीव्स वाली ड्रैस में दिव्यांका बेहद खूबसूरत लग रही थीं. वहीं इस दौरान दिव्यांका अपनी वेडिंग एनिवर्सरी भी सेलिब्रेट करती दिखीं.

निक्की तम्बोली का दिखा हौट अवतार

 

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बिग बौस 14 फेम निक्की तम्बोली भी लौंच पार्टी पर पहुंची थी. औफ शोल्डर ड्रैस में निक्की तम्बोली का हौट अवतार फैंस को बेहद पसंद आ रहा है. वहीं सोशलमीडिया पर उनकी फोटोज वायरल भी हो रही हैं.

इन बालाओं ने भी बटोरी सुर्खियां

 

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इनके अलावा एक्ट्रेस अनुष्का सेन, ऐश्वर्या अवस्थी और सिंगर आस्था गिल भी अपने लुक को लेकर फैंस के बीच छाई हुई हैं. ब्लैक कलर की फिटिग स्कर्ट और टौप के साथ बूट्स में जहां अनुष्का फैंस के बीच सुर्खियों में हैं तो वहीं. सिंपल ब्लू कलर की ड्रैस में एक्ट्रेस ऐश्वर्या अवस्थी एलिगेंट लुक में फैंस का दिल जीत रही हैं. वहीं सिंगर आस्था गिल का क्यूट पिंक लुक फैंस को पसंद आ रहा है.

 

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टुकड़ों में नींद लेना पड़ सकता है भारी

खूब थके हों और झपकी आ जाए तो आप तरोताजा हो जाते हैं. लेकिन ऐसी दशा में पूरी नींद न लेना या लगातार टुकड़ों में सोना सेहत लिए अच्छा नहीं है. एक स्टडी की मानें तो बार-बार नींद टूटने से शरीर पर बुरा असर पड़ता है

वैसे लंबी और चैन की नींद सौभाग्यशाली लोगों को ही मिलती है, सभी के लिए एक बार में 7-9 घंटे सोना संभव नहीं है. नींद की कमी से कई सारी बीमारियां भी होने लगती हैं. जो लोग एक बार में भरपूर नींद नहीं ले पाते हैं या फिर देर रात तक जगने के बाद सोते हैं उनके मन में अक्सर ख्याल आता है कि क्यों न टुकड़ों में नींद पूरी की जाए.

ऐसे में अमेरिका की जॉन हॉपकिंस यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने अपनी स्टडी में दो तरह की नींद का अध्ययन किया. बिना व्यवधान की लंबी नींद और दूसरी कम समय के लिए टुकड़ों में ली जाने वाली नींद. इस स्टडी में 62 सेहतमंद पुरुषों को शामिल किया गया और एक लैबरेटरी में रखा गया. इनमें कुछ लोगों को बार-बार जगाया गया.

वैज्ञानिकों ने इस शोध में पाया कि पहली रात के बाद दोनों ही समूह के प्रतिभागियों को थकान थी. बाद की रातों में टुकड़ों में सोने वाले समूह की अपेक्षा देर रात के बाद शांति से सोने वाले समूह के लोगों का मूड 30 प्रतिशत बेहतर था. यह भी पता चला कि टुकड़ों में सोने वाले लोग अगले दिन ज्यादा थके और सुस्त नजर आए

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दिन में सोना खतरनाक

स्लीप जर्नल में पब्लिश हुए एक दूसरे शोध की मानें तो जो लोग दिन में 6 घंटे की नींद लेते हैं, उन्हें रात में सात घंटे रोज नींद लेने वालों की अपेक्षा बीमारी का खतरा चार गुना ज्यादा रहता है.

याद्दाश्त कमजोर होना

कम नींद लेने का प्रभाव दिमाग पर पड़ता है और दिमाग सही तरीके से काम नहीं करता. इसकी वजह से पढ़ने, सीखने व निर्णय लेने की क्षमता कमजोर हो जाती है.

भूख ज्यादा लगना

टुकड़ों में नींद लेने से मेटाबॉलिज्म कमजोर हो जाता है. कम नींद लेने के कारण हॉर्मोन में असंतुलन भी होता है जिससे कारण ज्यादा भूख लगती है. इसके कारण ही अच्छी नींद न लेने वाले लोगों को पेट भरने का आभास देर से होता है. इसलिए टुकड़ों में नींद लेने के बजाय एक साथ लंबी नींद लीजिए.

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कोविड पेशेंट के लिए ‘डॉक्टर ऑन व्हील्स’ करती है 20 घंटे काम, जानें कैसे

हर दिन सुबह 8 बजे कर्नाटक के बंगलुरु में रहने वाले 36 वर्षीय जनरल फिजिशियनडॉ. सुनील कुमार हेब्बीकार से किसी हॉस्पिटल या क्लिनिक की ड्यूटीपर नहीं जाते, बल्कि कोविड 19 से पीड़ित मरीजों की चिकित्सा के लिए उनके पास जाते है. ये साधारण कारनहीं,बल्कि मोबाइल क्लिनिक कार है, जिसके अंदर उन्होंने बेड,ऑक्सीजन, थर्मामीटर, ओक्सिमीटर आदि सभी कोविड 19 के मरीजों की इलाज के लिए एक अस्पताल की तरहव्यवस्था रखे हुए है. वे ‘मात्रु सिरी फाउंडेशन’ के फाउंडर ट्रस्टी है और उसके तहत इस कार को चलाते है. कई दिनों की कोशिश के बाद उनसे फ़ोन पर बात हो पायी, क्योंकि वे हर दिन 20 घंटे काम करते है. उनकी कार बंगलुरु के आसपास के सभी जगहों पर उन बुजुर्ग और अकेले रहने वाले मरीजो को देखने जाती है, जो अस्पताल नहीं जा सकते.

मिली प्रेरणा

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डॉ. सुनील कहते है कि मैं पिछले 12 साल से मोबाइल क्लिनिक चला रहा हूँ. एक दिन मैं अस्पताल की ड्यूटी पर जा रहा था. वहां एक एक्सीडेंट हुआ था. मेरे कार से फर्स्टएड बॉक्स निकाल कर मैंने उस लड़के का इलाज किया और नजदीक के अस्पताल में भर्ती किया. उस लड़के की माँ ने फ़ोन कर मुझे उसके इकलौते बेटे को बचाने के लिए धन्यवाद दिया और अगले दिन मुझसे मिलकर मेरे पाँव छू लिया और रोने लगी. मैंने उनसे कहा कि एक नागरिक और डॉक्टर होने के नाते मुझे तो ये करना ही था. मैं उनकी इमोशन से बहुत प्रभावित हुआ और अब कारमें केवल फर्स्ट एड बॉक्स ही नहीं,बल्कि कार की डिकी स्पेस, चेयर के पीछे या आगे, जहाँ जो भी चीज फिट बैठता हो, उसे फिट किया, जिसमें फोल्डिंग कुर्सी,टेबल, बेड, ओक्सिमीटर, ECG मशीनआदि जो भी चीज इलाज के लिए जरुरत है, उसे अच्छी तरह से फिट कर दिया. अभी कोरोना को ट्रीट करने के लिए दो ऑक्सीजन कंसन्ट्रेटर भी लेकर आयेहै. इसमें मैं दो मरीज का इलाज कर सकता हूँ.

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छोड़नीपड़ी नौकरी 

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मरीजों को जानकारी देने के लिए डॉ. सुनील फेसबुक का सहारा लेते है,जिसमें उनकी एक विडियो के साथ फ़ोन नंबर है. पहले सरकारी स्कूल, ओल्ड ऐज होम, कंस्ट्रक्शन वर्कर्स आदि जगहों पर शनिवार और रविवार को इलाज करतेथे. डॉक्टर हेब्बीका कहना है किमैं कॉर्पोरेट हॉस्पिटल में काम करता थाऔर सैलरी भी अच्छी थी,लेकिन एक दिन मेरे सीनियर ने मुझे शनिवार और रविवार को छुट्टी देने से मना कर दिया, मैंने नौकरी छोड़ दी.काम छोड़ने से पैसों की तंगी होने लगी. मैंने एक क्लिनिक शुरू किया, जिसमें रात में ही पेशेंट देखता था, इससे कुछ जीविका चलती रही. लोगों की सेवा करना मेरा निर्णय था, इसलिए किसी भी समस्या का समाधान मुझे ही निकालना था. कोरोना से पहले मैंने लगभग 785 फ्री मेडिकल कैम्प्स पूरे बंगलुरु में लगाया है. अब तक एक लाख 20 हज़ार पेशेंट को 12 साल में ठीक किया है. अभी तेरहवां साल चल रहा है. मेरे साथ 17 स्कूल्स और 5 ओल्ड एज होम जुड़े है. शुरू में मेरे साथ कोई नहीं था, पर बाद में मेरे काम को देखकर कई अलग-अलग फील्ड के डॉक्टर्स भी मुझसे जुड़े, जिससे काम करना आसान हो गया. अभी 2-3 महीने में मैंने कोविड के 700 रोगी का इलाज कर चुका हूँ. करीब 17 लाख लोगों ने मेरे पोस्ट को कोविड के दौरान फेसबुक पर 15 दिन में देख चुके है.कोविड से पीड़ित मरीज को दवा और इलाज मैं फ्री में देता हूँ. मेरे साथ वोलेंटीयर काम करने वाली एक नर्स को कोविड 19 सीरियस हो गया था, उसका इलाज मैंने बहुत मुश्किल से कर उसे उसके घर भेज दिया. अभी जगदीश, आशा लक्ष्मण, सौभाग्या मेरे काम में सहयोग देते है.

वित्तीय चुनौती है अधिक

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डॉ. सुनील को वित्तीय समस्या कई बार आई, लेकिन उनके दोस्तों ने उन्हें सहायता किया, क्योंकि जॉब छोड़ने के बाद जमा किये हुए राशि से उन्होंने 12 साल निकाला है. उनके माता-पिता उनके साथ रहते है और मुश्किल समय में हमेशा उन्हें सहयोग देते है. उनका कहना है कि गरीब और बुजुर्गों को कोविड पीरियड में मुफ्त इलाज की आवश्यकता है. अभी मैं टेम्पो ट्रेवलर वैन खरीदना चाहता हूँ, क्योंकि मेरी ये कार ख़राब हो चुकी है और इससे मैं अधिक दूर तक नहीं जा सकता. टेम्पो ट्रेवलर होने पर अधिक पेशेंट देख सकूँगा और दूर तक भी जा सकता हूँ. बंगलुरु के आसपास में बहुत बड़ी स्लम है,जहाँ गरीबी बहुत अधिक है. ब्लडप्रेशर और डायबिटीज के मरीज नियमित लेने वाली दवा भी खरीदने में असमर्थ है. वहां इस तरह की मोबाइल क्लिनिक की जरुरत है, जिससे उनकी चेकअप के साथ-साथ दवा भी मुफ्त में दी जाय.

आगे की योजनायें

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आगे डॉ. सुनील एक चैरिटेबल अस्पताल अपने गाँव विजयापुरा में बनाना चाहते है, जिसमें गरीबों को मुफ्त में सही इलाज मिले. कोविड की दूसरी लहर में अमीर से लेकर गरीब बहुतों ने अपनी जान बिना इलाज और ऑक्सीजन के गवाई है, जिसका उन्हें मलाल है. डॉ. सुनील कहते है कि ऑक्सीजन और बेड की कमी बंगलुरु में बहुत थी. मैं 300 किलोमीटर रातभर गाड़ी चलाकर तमिलनाडु से ऑक्सीजन सिलिंडर ब्लैक में बंगलुरु लाया, जिससे कई लोगों की जान बची. एक छोटे बच्चे को मैं ऑक्सीजन के अभाव में नहीं बचा पाया. कोविड के इस भयंकर रूप को देखकर मैं कुछ को ऑनलाइन कंसलटेशन और कुछ को बुलाकर इलाज करता हूँ. मेरे साथ काम करने वालों को भी मैंने आने से मना कर दिया है, क्योंकि ये बीमारी बहुत खतरनाक है. मैं कई अस्पताल से जुड़ा हूँ, क्योंकि सीरियसली बीमार रोगी को अस्पताल में एडमिट करने की जरुरत पड़ती है, लेकिन कोविड में सारे अस्पताल भरे होने की वजह से मैं किसी भी बीमार को एडमिट नहीं कर सका. मेरा मेसेज लोगों से यह है कि कोरोना की कोई दवा नहीं है. केवल लक्षण के आधार पर इलाज किया जाता है. यंग लोगों की लापरवाही से ये रोग अधिक फैला है और यूथ की मृत्यु भी अधिक हुई है. कोविड की तीसरी लहर न आयें, इसके लिए जरुरत के बिना घर से बाहर न निकलना, मास्क पहनना, डिस्टेंस मेंटेन करना और हाथ धोना ये सब रोज की प्रैक्टिस में लाना चाहिए. इस बीमारी से डरने की जरुरत नहीं, क्योंकि मेरे 700 मरीज में केवल 50 मरीज ही थोड़े सीरियस थे.

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सिर्फ मिला एप्रीसिएशन

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डॉ. का कहना है कि सरकार की तरफ से किसी प्रकार की सुविधा मुझे नहीं मिली. कर्नाटक के मुख्यमंत्री और भारत के प्रधान मंत्री ने कोरोना वारियर और हीरो के रूप में उनके वेब साईट पर मेरा नाम डाला है और एप्रीसिएशन मिला है, इसके अलावा किसी प्रकार की वित्तीय सहायता नहीं मिली. मुझे सहयोग करने वाले ऑटो ड्राईवर, मजदूर, अनपढ़ गरीब लोग है, जो केवल व्हाट्सएप चलाना जानते है. उससे ही वे मुझसे जुड़ते है.

Neha Kakkar की तरह Shagufta Ali की मदद करने पर ट्रोल हुईं Madhuri Dixit, देखें वीडियो

रिएलिटी शो में अक्सर आए मेहमानों की लाचारी दिखाकर टीआरपी बटोरी जाती हैं. वहीं बीते दिनों इसी मामले के चलते इंडियन आइडल 12 (Indian Idol 12) में नेहा कक्कड़ (Neha Kakkar) और उनकी बहन सोनू कक्कड़ (Sonu Kakkar) ने ट्रोलिंग का सामना किया था. वहीं अब बौलीवुड एक्ट्रेस माधुरी दीक्षित भी कैमरे के सामने आर्थिक मदद देने के चलते ट्रोलिंग का सामना कर रही हैं. आइए आपको बताते हैं पूरा मामला…

रियलिटी शो में पहुंची एक्ट्रेस

 

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दरअसल, हाल ही में एक्ट्रेस शगुफ्ता अली ने एक इंटरव्यू में अपनी फाइनेंशल कंडीशन का जिक्र किया था, जिसके बाद कई सितारें उनकी मदद के लिए सामने आए थे. इस बीच डांस रियलिटी शो डांस दीवाने 3 के मंच पर स्पेशल गेस्ट के तौर पर एक्ट्रेस शगुफ्ता को बुलाया गया.  जहां उन्होंने अपना दर्द बयां किया कि बीते 4 साल से उनके पास कोई काम नही है और वह घर पर खाली हैं, जिसके कारण उन्हें आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ रहा है.

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माधुरी दीक्षित ने की मदद

 

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एक्ट्रेस शगुफ्ता की दुखभरी कहानी सुनकर होस्ट भारती सिंह से लेकर जज माधुरी दीक्षित की आंखों में आंसू आ गए और माधुरी मंच पर आकर उन्हें 5 लाख रुपये का चेक देते नजर आईं. वहीं माधुरी का कैमरे के सामने चेक देना लोगों को बिल्कुल पसंद नहीं आ रहा और वह उन्हें जमकर ट्रोल करते नजर आ रहे हैं.

ट्रोलिंग का शिकार हुईं माधुरी

ट्रोलर्स का कहना है कि किसी की मदद करने के लिए ड्रामा करने की जरुरत नही है. वहीं रियलिटी शोज में इन दिनों लोगों की मदद करते हुए कई सितारे नजर आ रहे हैं. इसके चलते कई सितारे ट्रोलिंग का सामना भी कर रहे हैं.

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द विजिलः मनोवैज्ञानिक हॉरर फिल्म, जो डराती नही है, पढ़ें रिव्यू

रेटिंग: ढाई स्टार

निर्माताः बी एच प्रोडक्शन और एंग्री एडम प्रोडक्शन

लेखक व निर्देशकःकीथ थॅामस

कलाकारः डेव डेविस,  मेनाशे लुस्टिग और माल्की गोल्डमैन

अवधिः एक घंटा तीस मिनट

ओटीटी प्लटफार्मः अमेजॉन प्राइम

भाषा: अंग्रेजी और हिंदी

द इनविजिबल मैन,  इंसिडियस फ्रैंचाइजी,  द पर्ज फ्रैंचाइजी,  हैलोवीन फ्रैंचाइजी,  हैप्पी डेथ डे फ्रैंचाइजी,  स्प्लिट,  ग्लास जैसी कई द इनविजिबल मैन,  इंसिडियस फ्रैंचाइजी,  द पर्ज फ्रैंचाइजी,  हैलोवीन फ्रैंचाइजी,  हैप्पी डेथ डे फ्रैंचाइजी,  स्प्लिट,  ग्लास जैसी कई पैरानॉमल गतिविधि पर आधारित फिल्मों के निर्माता इस बार एक यहूदी प्रथा पर मनोवैज्ञानिक हॉरर फिल्म‘‘द विजिल’’ लेकर आए है. यह फिल्म अंग्रेजी भाषा में है, मगर अमेजॉन प्राइम पर इसे हिंदी में देखा जा सकता है.

यहूदी रीति रिवाज के अनुसार किसी इंसान की मृत्यू होने पर अंतिम संस्कार होने तक उस इंसान के पार्थिव शरीर को रात भर घर के अंदर रखा जाता है और घर का एक सदस्य रात भर उस पार्थिव शरीर के पास बैठकर उसकी निगरानी करते हुए उसे बुरी आत्माओं से बचाने के लिए धार्मिक मंत्रो का उच्चारण करता है, इस इंसान को उस वक्त ‘शूमर’कहा जाता है और इस प्रथा को ‘विजिल’की संज्ञा दी गयी है. जिस घर में कोई नही होता, वह पेशेवर शूमर को पैसे देकर बुलाते हैं.

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कहानीः

यह एक रात की कहानी है. यह कहानी याकोव (डेव डेविस) की है, जो कि अपने ब्रोकलिन के अपने हसीदिक समुदाय को छोड़कर आधुनिक दुनिया के अनुकूल रहने के लिए संघर्ष कर रहा है. उसके लिए महिलाओं के साथ बातचीत करना मुश्किल है. मोबाइल फोन का उपयोग करना भी उसके लिए एक चुनौती है. पैसे की कमी है. नौकरी की तलाश में दर दर भटक रहा है. तभी एक पुराना रब्बी उसे मृत लिटवाक पर निगरानी रखने वाले शूमर बनने की नौकरी की पेशकश करता है. पहले वह मना कर देता है. मगर जब रब्बी उसे पांच घंटे के इस काम के लिए चार सौ डॉलर देने की बात करता है, तो मना नहीं कर पाता. रब्बी के साथ वह लिटवाक के घर जाता है, जहां  घर की एकमात्र सदस्य और मनोभं्रंश से पीड़ित श्रीमती लिटवाक (लिन कोहेन) उसे जाने के लिए कहती हैं. पर रब्बी के कहने पर याकोव रूक जाता है. रात में याकोव अजीब आवाजें सुनता है,  चीजें देखता है,  रोशनी करता है और टिमटिमाता है. वह स्वयं एक मानसिक स्थिति से पीड़ित है, जिसकी दवाएं ले रहा है. आस पास घटित हो रही घटनाओं व आवाजों से डर कर वह अपने डाक्टर को फोन करता है, अपनी मित्र सहर को फोन करता है. इस बीच उसे नींद की झपकी लगती है और व सपने में देखता है कि वह एक छोटे बालक के साथ कहीं जा रहा है. रास्ते में कुछ लोग उस बालक की हत्या कर देते हैं, पर वह उसे बचाता नही है. अब बालक इसके लिए उसे दोषी मानता है.  काफी परेशान होने पर श्रीमती लिटवाक उसे बताती हैं कि उनके पति को एक राक्षस,  एक माजिक द्वारा प्रेतवाधित किया गया है, जो घर पर आक्रमण करता है और अब उसे भी नहीं छोड़ेगा. वह कहती है कि वह याकोव को भी नही छोड़ेगा. याकोव उसे घर से निकलने का असफल प्रयास कर ख्ुाद को चोटिल कर लेता है. अंत में श्रीमती लिटवॉक उसे जलती हुई मोमबत्ती देकर एक उपाय बताती है, जिसे याकोव करता है और बुरी आत्मा लिटवाक के शरीर को छोड़कर चली जाती है.

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लेखन व निर्देशनः

जीवन और मृत्यु,  धार्मिक कट्टरवाद, अंधविश्वास, भूत, प्रेत, पिशाच और आधुनिक दुनिया,  पागलपन और विवेक के बीच अंतर्विरोधों की मनोवैज्ञनिक कहानी को फिल्मकार कीथ थॉमस पेश करने में सफल रहे हैं. कम लागत में बनायी गयी फिल्म में छोटी छोटी कई कमियां है. फिल्म का क्लायमेक्स बहुत ही घटिया है. यह एक हॉरर फिल्म है, मगर फिल्म एक भी पल के लिए डराती नही हे. जबकि लेखक व निर्देशक ने यहूदी धार्मिक रीति रिवाज के इर्द गिर्द विश्वास व अविश्वास की फैंटसी रचने की कोशिश जरुर की है.  फिल्मकार इस बात के लिए बधाई के पात्र है कि उन्होने इस फिल्म में  वास्तविक और कल्पित,  दुः ख और अपराधबोध,  आंतरिक राक्षसों और अतीत के घटनाक्रमो के बोझ को लेकर सवाल उठाए हैं. फिल्म की गति धमी है. कैमरामैन की कमजोरी इस फिल्म को सुस्त बनाती है.

अभिनयः

याकोव के किरदार मे डेव डेविस ने शानदार अभिनय किया है. अन्य कलाकार ठीक ठाक हैं.

Kareena-Saif के छोटे बेटे के नाम का हुआ खुलासा! जानें क्या है तैमूर के भाई का नाम

बौलीवुड एक्ट्रेस करीना कपूर खान आए दिन सुर्खियों में रहती हैं. वहीं उनके दोनों बेटे भी लाइमलाइट में आते रहते हैं. जहां तैमूर की फोटोज पर फैंस प्यार लुटाते नजर आते हैं तो करीना और सैफ अली खान के दूसरे बेटे की झलक देखने को बेताब रहते हैं. हालांकि एक्ट्रेस करीना कपूर कई बार फोटोज के जरिए फैंस को चेहरा दिखाने से बचती नजर आती हैं. इसी बीच करीना-सैफ के दूसरे बेटे के नाम का खुलासा हो गया है. आइए आपको बताते हैं क्या कहकर बुलाते हैं तैमूर के छोटे भाई को…

बच्चे के नाम का हुआ खुलासा


फरवरी 2021 में दोबारा पेरेंट्स बनने वाले करीना कपूर खान और सैफ अली खान ने अभी तक फैंस को अपने दूसरे बच्चे का नाम नहीं बताया है. हालांकि तैमूर के नाम की घोषणा कपल ने बड़े धूमधाम से की थी. लेकिन इस बार दूसरे बेटे के नाम का खुलासा नहीं किया गया है. इसी बीच कुछ रिपोर्ट में दावा किया गया है कि सैफीना कपल के दूसरे बेटे का नाम फाइनल हो गया है. वहीं कहा जा रहा है कि सैफीना कपल अपने छोटे बेटे को अभी जे (Jeh) कहकर बुलाते हैं. हालांकि अभी तक इस बात की कोई औफिशियल जानकारी नहीं दी गई है.

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मंसूर रख सकते हैं नाम

खबरों की मानें तो करीना कपूर खान और सैफ अली खान अपने बेटे का नाम उनके दादाजी जाने-माने क्रिकेटर मंसूर अली खान पटौदी के नाम पर रखना चाहते हैं, जिसके कारण कहा जा रहा है इस कपल के छोटे बेटे का नाम मंसूर हो.

तैमूर के नाम पर हुआ था बवाल

सैफ-करीना ने अपने पहले बेटे का नाम तैमूर अली खान रखने से कुछ लोगों में नाराजगी देखने को मिली थी. दरअसल, तैमूर एक क्रूर और खतरनाक आक्रमणकारी था, जिसने हिन्दुस्तान पर हमला करके यहां लूटपाट और कत्लेआम किया था. वहीं लोगों का कहना था कि करीना-सैफ का ऐसा नाम रखना देश के साथ गद्दारी होगी. हालांकि विरोध के बाद भी कपल ने बेटे का नाम नहीं बदला और सैफ अली खान ने सफाई देते हुए कहा था कि तैमूर का मतलब योद्धा होता है, इसलिए उन्होंने अपने बेटे का नाम रखा है.

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मेरी कमाई, मेरा हक

सोमी के ऑफिस में आज सभी के चेहरे गुलाब की तरह खिले हुए थे.हो भी क्यों ना आज सब कर्मचारियों को 10 प्रतिशत इन्क्रीमेंट मिला था.सोमी पर बुझी बुझी सी लग रही थी. जब कायरा ने पूछा तो सोमी फट पड़ीमेरी सैलरी पर मेरा नही ,बल्कि पूरे परिवार का हक हैं

इन्क्रीमेंट का मतलब हैं ज़्यादा काम ,पर मुझे क्या मिलेगा कुछ नही.हर महीने एक बच्चे की तरह मेरे पति मुझे चंद हज़ार पकड़ा देते हैं. पूछने पर बोलते हैंसब कुछ तो मिल रहा हैं क्या करोगी तुम इन पैसों का ,फिजूलखर्ची करने के अलावा

सोमी अकेली महिला नही हैं. सोमी जैसी महिलाएं हर घर मे मौजूद हैं जो आर्थिक रूप से स्वतंत्र होने पर भी पराधीन हैं.वो बस अपने पति और परिवार के लिए एक कमाई की मशीन हैं.उनके पैसों को कैसे ख़र्च करना हैं और कहाँ निवेश करना हैं ये पति महोदय का मौलिक अधिकार होता हैं.

  रितिका की कहानी भी सोमी से कुछ अलग नही हैं.रितिका की सैलरी आते ही,पूरा पैसा विभाजित हो जाता हैं.बच्चों के स्कूल की फ़ीस, घर की लोन की किस्तें और घर ख़र्च सब रितिका की सैलरी पर होता हैं.परन्तु रितिका के पति प्रदीप की सैलरी कैसे ख़र्च होती हैं ये प्रदीप के अलावा कोई नही जानता हैं.

हर छुट्टियों में घूमने की प्लानिंग करना, दूर पास के रिश्तेदारों के लिए तोहफ़े खरीदना ,पत्नी बच्चो के लिए कपड़े इत्यादि खरीदना प्रदीप अपनी सैलरी से करता हैं और सबकी आंखों का तारा हैं.वहीं रितिका के बारे में प्रदीप कहता हैंअरे औरतों की लाली लिपस्टिक पर ख़र्च रोकना का ये नायाब तरीका हैं कि उनकी सैलरी पर लोन इत्यादि ले लो

रितिका जो 80 हज़ार मासिक कमा रही हैं ना अपनी पसंद के कपड़े पहन सकती हैं और ना ही अपनी पसंद के तोहफ़े किसी को दे सकती हैं.इतना कमाने के बाद भी वो पूरी तरह से अपने पति पर निर्भर हैं.

  अगर ऊपर की दोनो घटनाओं को देखे तो एक बात दोनो में समान हैं कि सोमी और रितिका अभी भी गुलामी की बेड़ियों में मानसिक रूप से कैद हैं.दोनो ही महिलाओं में एक समानता हैं कि दोनों ही मानसिक रूप से स्वतंत्र नही हैं. दोनो को ये भी नही मालूम हैं कि उन्हें अपने गाढ़े पसीने की कमाई कैसे ख़र्च करनी हैं.

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ये कहना गलत ना होगा कि सोमी और रितिका जैसी महिलाओं की दशा उन महिलाओं से भी बदतर हैं जो आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नही हैं.कभी प्यार में तो कभी डर के कारण वो अपनी आर्थिक स्वतंत्रता की कुंजी अपने पति के हाथों में थमा देती हैं जो बिल्कुल भी सही नही हैं.

आज के समय मे ज़िन्दगी की गाड़ी तभी सुचारू रूप से चल सकती जब दोनों जीवनसाथी आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो.जैसे गाड़ी के दोनो पहिए यदि समान नही होते तो गाड़ी नही चल सकती हैं, उसी तरह से पति और पत्नी में भी समानता होनी चाहिए ताकि ज़िन्दगी सुचारू रूप से चल सके.

अगर आप इन छोटी छोटी बातों का ध्यान रखेगी तो अपनी कमाई को अपने हिसाब से ख़र्च कर पाएगी.

1.प्यार का मतलब नही हैं ग़ुलामी-

महिलाएं स्वभाव से ही कोमल और भावुक होती हैं.प्यार की डोर में बंधी हुई वो अपने वेतन का पूरा ब्यौरा अपने पति को दे देती हैं.पति अपने वेतन के साथ साथ अपनी पत्नी के वेतन को भी अपने हिसाब से ख़र्च करने लगते हैं.शुरू शुरू में तो पत्नियों को ये सब बड़ा प्यारा लगता हैं पर शादी के एक दो वर्ष के बाद उन्हें कोफ़्त होने लगती हैं.पति के हाथों में अपने वेतन या एटीएम कार्ड को पकड़ना प्यार या वफ़ा का नही ,गुलामी का परिचायक हैं.

2.अपने ऊपर ख़र्च करना हैं आपका मौलिक अधिकार-

बहुत से मामलों में देखने को मिलता हैं कि विवाह के पश्चात लड़कियां अपने ऊपर ख़र्च करने में हिचकिचाने लगती हैं.उन्हें लगता हैं कि अब घर की ज़िम्मेदारी ही उनकी सर्वपरिता हो जाता हैं. पार्लर जाना या खुद के ऊपर ख़र्च करना, सहेलियों के साथ बाहर जाना ,सब कुछ उन्हें बेमानी लगने लगता हैं जो सही नही हैं.आपका सबसे पहला रिश्ता अपने साथ हैं तो इसलिए उसे खुश रखना आपका मौलिक अधिकार हैं.

3.अपने भविष्य को सुरक्षित करे-

ज़िन्दगी आपकी हैं तो उसकी बागड़ोर अपने हाथों में ही रखे. विवाह का मतलब ये नही होता कि सबकुछ पति के भरोसे छोड़ कर हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाए.अपने भविष्य को सुरक्षित रखना ,आपकी ज़िम्मेदारी हैं.अपनी कमाई को सही जगह पर लगाकर अपने भविष्य को सुनिश्चित कर ले.

4.लेन देन करे अपनी हैसियत के हिसाब से-

बहुत बार देखने मे  आता हैं कि पत्नी के वेतन के कारण ,पति अपनी झूठी शान दिखाते हुए बहुत महँगे महँगे तोहफे शादी और फंक्शन में दे देते हैं.अगर आपकी पति की भी ये आदत हैं तो आप उन पहले ही अवसर पर टोक दे.मायके और ससुराल दोनो ही जगह समान  रूप से और अपनी हैसियत के अनुरूप ही लेन देन करे.

5.निवेश करे सोच समझ कर-

अपने पैसों को सोच समझ कर निवेश करे क्योंकि ये आपकी मेहनत की कमाई हैं. आपको अपने पैसे शेयर मार्केट में लगाने हैं या उन पैसों से कोई बांड खरीदना हैं या फिर किसी प्रोपेर्टी में लगाना हैं आपका ही फैसला होना चाहिए.अपने पति से आप सलाह अवश्य ले सकती हैं पर उन्हें अपने पैसों का कर्ता धर्ता मत बनाइए.

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6.धन हैं बड़ा बलवान-

ये बात हालांकि कड़वी हैं पर सत्य हैं.धन में बहुत ताकत होती हैं.जब तक आपके पास अपने पैसे हैं तब तक आपकी ससुराल में इज़्ज़त बनी रहेगी.आपके पति भी कुछ उल्टा सीधा करने से पहले सौ बार सोचेंगे क्योंकि उन्हें पता होगा कि आपकी ज़िंदगी की लगाम आपके ही हाथों में हैं.वो अगर कुछ ग़लत करेंगे तो आप उनको छोड़ने में जरा भी हिचकिचायेगी नही. पति महोदय को ये भी अच्छे से मालूम होगा कि आपके द्वारा भविष्य के लिए संचित किया हुआ धन आपके साथसाथ उनके बुढ़ापे की भी लाठी हैं

शादी निभाने की जिम्मेदारी पत्नी की ही क्यों

गौतम बुद्ध की शादी 16 वर्ष की आयु में यशोधरा नाम की एक कन्या से होती है और 29 वर्ष की आयु में उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति होने के बाद यानी शादी के 13 वर्ष बाद उन्हें यह ध्यान आता है कि उन्हें संन्यास लेना है और तभी वे अचानक एक दिन आधी रात को बिना अपनी पत्नी को बताए अपनी पत्नी और नवजात शिशु को सोता छोड़ घर से चुपचाप निकल जाते हैं.

सांसारिक दुख उन्मूलन की तथा ज्ञान के खोज की ऐसी उत्कट अभिलाषा कि पत्नी और बेटे की जिम्मेदारी तक भूल गए, उन के पीछे उन के कष्टों का भी ज्ञान न रहा.

गौतम बुद्ध के विषय में यह कहा जाता है कि वे बचपन से ही बेहद करुण हृदय वाले थे किसी का भी दुख नहीं देख सकते थे और ऐसे करुण हृदय वाले बुद्ध को अपनी पत्नी का ही दुख नजर नहीं आया.

अपनी पत्नी की ऐसी उपेक्षा करने वाले करुण हृदय बुद्ध के अनुसार, दुख होने के अनेक कारण हैं और सभी कारणों का मूल है तृष्णा अर्थात पिपासा अथवा लालसा.

तो क्या ज्ञानप्राप्ति की उन की पिपासा ने उन के पीछे उन की पत्नी और उन के नवजात की जिंदगी को असंख्य दुखों की ओर नहीं धकेला था? बुद्ध के अष्टांगिक मार्गों में एक सम्यक संकल्प अथवा इच्छा तथा हिंसा से रहित संकल्प करना तथा दूसरा सम्यक स्मृति अर्थात् अपने कर्मों के प्रति विवेक तथा सावधानी का स्मरण भी है.

मानसिक कष्ट देना भी हिंसा

इच्छा तथा हिंसा से रहित संकल्प… तो क्या, जब गौतम बुद्ध ने अपनी पत्नी का त्याग किया तो उन के इस कृत्य से उन की पत्नी को जिस प्रकार की मानसिक वेदना  झेलना पड़ी थी वह क्या हिंसा नहीं थी? किसी को शारीरिक आघात पहुंचाना ही हिंसा नहीं होता, बल्कि मानसिक कष्ट देना भी एक तरह की हिंसा ही तो है. अब यदि उन के अष्ट मार्ग में से सातवें मार्ग पर भी नजर डालें तो इन के अनुसार, ‘अपने कर्मों के प्रति सावधानी तथा विवेक का स्मरण.’

अब यदि देखा जाए तो अपनी पत्नी और पुत्र का त्याग करते वक्त क्या बुद्ध ने विवेकपूर्ण दृष्टि से उन के प्रति अपने दायित्वों के विषय में विचार किया नहीं न…

उन की पत्नी ने यह दायित्व अकेले ही निभाया होगा और उन्हें भी उस समय के समाज ने पतिव्रता नारी के गुण पति धर्म आदि का पाठ पढ़ा कर उन्हें चुप करा दिया होगा…

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बुद्ध तो अपनी पत्नी का त्याग कर महान ज्ञानी बन गए परंतु उन की पत्नी का क्या? उस पत्नी के अनजानेअनचाहे कष्टों का क्या जिसे बुद्ध सांसारिक दुखों के उन्मूलन हेतु छोड़ कर अकेले निकल गए?

इस समाज ने नारी को ही पत्नी धर्म के पाठ पढ़ाए. पुरुषों को कभी उन के उत्तरदायित्व से मुंह मोड़ने पर कुसूरवार नहीं ठहराया.

आश्चर्य है इस दलील पर

मर्यादापुरुषोत्तम राम तथा भारतीय संस्कृति के भाव नायक राम ने तो सीता जैसी परम पवित्र और आदर्श नारी का त्याग सिर्फ समाज द्वारा सवाल उठाए जाने पर अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए किया था क्योंकि समाज के किसी वर्ग में यह संदेह उत्पन्न हुआ कि सीता पहले की तरह ही पवित्र और सती नहीं हैं क्योंकि उन्हें रावण हरण कर के ले गया था.

वैसे दलील तो यह दी जाती है कि सीता ने खुद वन जाने की इच्छा जताई थी क्योंकि पति को बदनामी का दुख  झेलना न पड़े और राम ने इसे होनी सम झ कर मान लिया था.

आश्चर्य है ऐसी दलील पर कि जिन्हें अपनी पत्नी के सतीत्व पर पूर्ण विश्वास है वे समाज के किसी वर्ग के कहने पर बदनामी के दुख से दुखी या आहत हो जाएं और पत्नी उन के दुख से दुखी हो कर स्वयं ही गृह का त्याग कर दे और वह भी तब जबकि वह गर्भवती थी.

मर्यादापुरुषोत्तम राम उस समाज पर क्रोधित होने की जगह अपनी पत्नी के साथ खड़े होने की जगह, दुखी हो गए और उसे होनी सम झ लिया. यह दलील कुछ अजीब नहीं है?

जब राम ने रावण के द्वारा सीता के हरण को होनी नहीं सम झा अर्थात् यही किस्मत में लिखा था. तब यह नहीं सम झा और रावण का सर्वनाश कर दिया. वे अपनी पत्नी के सतीत्व पर उठे इस सवाल पर दुखी हो कर चुप रह जाते हैं और अपनी पत्नी को जंगल में भटकने के लिए छोड़ देते हैं.

यह किस प्रकार का आदर्श है जो समाज के सम्मुख प्रस्तुत किया गया. क्या यह तर्क इसलिए नहीं दिया जाता ताकि समाज में नारियों को सीता का उदाहरण दे कर अन्याय के खिलाफ खड़े होने की जगह त्याग का पाठ पढ़ाया जा सके ताकि कभी कोई स्त्री अपने हक के लिए सवाल उठाए तो उसे सीता का उदाहरण दे कर पतिव्रता बने रहने की सलाह दे कर आदर्श नारी बनने का पाठ पढ़ा कर उस का मुंह बंद किया जा सके.

मर्यादापुरुषोत्तम राम ने यह किस प्रकार का उदाहरण भारतीय पुरुषों के समक्ष पेश किया कि यदि पत्नी के सतीत्व पर सवाल उठे तो पति को बदनामी का दुख हो तो पत्नी के साथ खड़े होने की जगह अपनी प्रतिष्ठा की वे चिंता करें और उसे भाग्य का लिखा सम झ लें और अपनी पत्नी की प्रतिष्ठा की रक्षा करने की जगह उसे घर त्याग कर चुपचाप जाने दें जबकि उस का कोई कसूर ही न था. क्या यह अन्याय नहीं था?

त्याग स्त्री ही क्यों करे

राजा दुष्यंत जो कि पूरू वंशी राजा थे, एक बार मृग का शिकार करते हुए महर्षि कण्व के आश्रम में पहुंचे और शकुंतला पर आसक्त हो कर गंधर्व विवाह कर लिया और कुछ समय उस के साथ व्यतीत कर अपने नगर लौट गए. आश्रम में शकुंतला उन के पुत्र को जन्म देती है परंतु बाद में शकुंतला जब राजा दुष्यंत के पास जाती है तो राजा उन्हें पहचानने से इनकार कर देते हैं.

दलील यह दी जाता है कि राजा किसी श्राप के कारण शकुंतला को भूल गए थे. खैर, शकुंतला वापस अकेले ही अपने पुत्र का पालनपोषण करती है और एक दिन राजा दुष्यंत वापस कण्व ऋ षि के घर पहुंचते हैं और उन का अपने पुत्र के प्रति प्यार भी अचानक उमड़ पड़ता है साथ ही खोई हुई अंगूठी भी मिल जाती है जिस से उन की खोई हुई याददाश्त वापस आ जाती है.

लेकिन इतने समय तक शकुंतला वन में अकेले ही दुख उठाती हुई अपने पुत्र का भरणपोषण करती है.

यहां भी बड़ी आसानी से समाज के ठेकेदारों ने पत्नी के लिए त्याग का उदाहरण पेश कर दिया कि एक पुरुष अपनी पत्नी का त्याग कर सकता है और वह भी बड़ी आसानी से तथा पत्नी उस की याददाश्त के वापस आने तक उस का इंतजार करती है. यहां भी त्याग की कहानी सिर्फ एक स्त्री के लिए. पुरुष चाहे तो कैसे भी अपनी पत्नी का त्याग कर दे परंतु पत्नी को पतिव्रता बने रहना है. यहां भी पति के कृत्य पर कोई सवाल नहीं. पत्नी और बेटे का त्याग कर पुरुष फिर भी महान बना रह जाता है.

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यह कैसा क्रोध

राजा उत्तम ने तो क्रोध में ही अपनी पत्नी का त्याग कर दिया. उसे राजमहल से निकाल दिया उन्हें अपनी पत्नी का त्याग करने के लिए किसी ठोस कारण की जरूरत भी नहीं पड़ी बस पत्नी पर क्रोध आना ही काफी था. लेकिन बाद में निंदा और तिरस्कार के डर से अपनी पत्नी को वापस अपना लेते हैं परंतु सिर्फ क्रोध आया और पत्नी को घर से निकाल दिया यह उदाहरण भी समाज के लिए निंदनीय ही है.

ऋ षि गौतम ‘अक्षपाद गौतम’ के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त हैं और न्याय दर्शन के प्रथम प्रवक्ता भी माने जाते हैं. महर्षि गौतम को परम तपस्वी और बेहद संयमी भी बताया जाता है. महाराज वृद्धाश्रव की पुत्री अहिल्या उन की पत्नी थी जोकि बहुत ही सुंदर और आकर्षक थी. एक दिन ऋ षि स्नान के लिए आश्रम से बाहर गए तभी इंद्र ने गौतम ऋ षि का रूप ले कर उन के साथ छल किया और बिना किसी अपराध के ही अहिल्या को दंड भोगना पड़ा. ऋ षि गौतम ने आश्रम से इंद्र को निकलते देख लिया था और पत्नी के चरित्र पर ही शक कर बैठे और अपनी पत्नी को श्राप दे दिया और वह हजारों वर्षों तक पत्थर बनी रही.??

छल इंद्र का दंड पत्नी को

यहां सम झने वाली बात यह है कि न्याय दर्शन के प्रवक्ता परम तपस्वी बेहद संयमित ऋ षि अपनी पत्नी के साथ ही घोर अन्याय कर जाते हैं. वे इंद्र के छल के लिए दंड अपनी पत्नी को दे देते हैं जो उस ने किया ही नहीं था. उस कृत्य का दंड पा कर वह हजारों वर्षों तक पत्थर बनी रहती है. यहां एक ऋ षि का संयम जवाब दे देता है. इतने क्रोधित हो उठते हैं कि अपनी पत्नी को ही पत्थर बनाने का श्राम दे देते हैं.

यह कहानी पुरुषों की उस मानसिकता का उदाहरण है जहां एक पत्नी को मात्र उपभोग की वस्तु सम झा जाता रहा है और कभी भी अर्थहीन पा कर उस का त्याग करने में उसे दंडित करने में थोड़ा भी विलंब नहीं होता.

उन्होंने भी एक ऐसा दृष्टिकोण पत्नी को देखने का, सम झने का ऐसा ही नजरिया समाज के समक्ष प्र्रस्तुत किया था और फिर भी उन्हें महानता के शिखर पर बैठा कर यह समाज उन्हें पूजता रहा है. क्या अहिल्या के प्रति उन का अपराध क्षमा करने योग्य था?

पत्नी की अवहेलना

सम्राट अशोक ने भी अपनी पहली पत्नी जिस का नाम देवी था जोकि एक बौद्ध व्यापारी की पुत्री थी जिस से अशोक को पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा प्राप्त हुई थी को छोड़ कर एक मछुआरे की पुत्री करुणावकि से विवाह कर लेते हैं और उन के शिलालेखों में कहीं भी उन की पहली पत्नी का नाम तक नहीं होता है. सम्राट अशोक भले ही एक महान शासक के रूप में प्रसिद्धि पाए हों परंतु अपनी पत्नी की अवहेलना उन्होंने भी की.

और फिर संत कवि तुलसीदास जिन का विवाह रत्नावली नाम की अति सुंदर कन्या से हुआ था. ये पहले तो पत्नी प्रेम में इतना डूब जाते हैं कि लोकमर्यादा का होश तक नहीं रहता और फिर एक दिन अचानक पत्नी का त्याग कर देते हैं और संत कवि बन जाते हैं.

अटपटी दलील

ठीक इन्हीं की तरह कालिदास ने भी पारिवारिक जीवन का त्याग कर दिया और दुनिया के महान कवि बन गए. इन दोनों कवियों में एक बात की समानता है जिस में इन के त्याग के पीछे पत्नी की फटकार को ही कारण बताया गया. यहां यह दलील थोड़ी अटपटी सी लगती है कि दोनों कवियों ने अपनीअपनी पत्नी को त्यागने के पीछे का कारण अपनी पत्नी की फटकार या उस के उपदेश को ही बताया और अपनी महानता को भी बनाए रखने की चेष्टा करते हैं.

कोईर् भी पत्नी यह बिलकुल नहीं चाहेगी कि उस का पति उस का त्याग कर दे परंतु यहां पत्नियों के कारण का एक अलग ही उदाहरण पेश कर दिया गया और अकसर उदाहरण के तौर पर पेश भी किया जाता है.

समाज के ठेकेदारों ने इन्हें अपनीअपनी पत्नी को त्यागने में भी इन की महानता को ही ढूंढ़ निकाला. अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ने के बावजूद इन की महानता पर कोई आंच नहीं आने दी और पत्नियों को त्याग का पाठ पढ़ाने के लिए एक नया फौर्मूला भी तैयार कर लिया, जिस का सहारा आज भी किसी न किसी रूप में लिया जाता है.

औरत क्या सजावटी वस्तु

अकसर ऐसा कहते हुए सुना जाता है कि स्त्रियां घरों की शोभा होती हैं. शोभा यानी सजावट. सजावट शब्द ने एक औरत को वस्तु शब्द का पर्याय बना दिया और फिर सजावट जैसे शब्द को गढ़ने वाले अपनी सोच की परिधि में एक औरत रूपी चेतना को घुटघुट कर दम तोड़ने पर मजबूर कर देते हैं. इस मानसिकता की शुरुआत संभवत: उन कथित दरबारी कवियों ने ही की थी जो शृंगार रस में डूब कर नखशिख वर्णन यानी किसी औरत के नाखूनों से ले कर उस के सिर तक की सुंदरता का वर्णन राज दरबारों में राजाओं के मनोरंजन के लिए किया करते थे. तब से ले कर लगभग आज तक औरतों को देखने का एक ही दृष्टिकोण लगभग तय सा हो गया. यह समाज औरत को बस एक खूबसूरत वस्तु के पैमाने में ही मापता आ रहा है.

आज भी औरतों को अपनी इसी सोच के दायरे में रख कर देखने वाले पुरुषों की कमी नहीं है विवाह के बाद पत्नियों को त्याग कर किसी खूबसूरत युवती से शादी कर लेना भी एक चलन बन गया है गांव में ऐसी पत्नी आज भी हैं, जिन्हें जिन के पतियों ने शादी के काफी साल बाद त्याग कर अकेले ही जिंदगी जीने के लिए छोड़ दिया और वे पतिव्रता नारी धर्म का पालन किए जी रही हैं. वे किन कष्टों का सामना कर रही हैं. उन की जिंदगी कैसीकैसी कठिनाइयों से भरी हुई है इस पर किसी का ध्यान नहीं जाता.

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औरतों की आजादी पर अंकुश

सदियों पहले मनु ने एक फतवा जारी किया. मनु के अनुसार स्त्री का बचपन में पिता के अधीन, युवा अवस्था में पति के आधिपत्य में तथा पति की मृत्यु के उपरांत पुत्र के संरक्षण में रहना चाहिए. मनु का ऐसा कहना एक स्त्री के लिए फतवा नहीं है? स्त्रियों की आजादी को क्या ऐसा कह कर छीन नहीं लिया गया? क्या उन की आजादी पर अंकुश नहीं लगा दिया गया? क्या इस फतवे ने नारी के प्रति पुरुषों के अत्याचार के सिलसिले को और भी बढ़ावा नहीं दे दिया?

तमाम तरह की बंदिशें इस समाज में एक नारी के ऊपर ही लगानी शुरू कर दीं जैसे परदे में रहना, पुरुषों की आज्ञा का पालन करना, पुरुषों को पलट कर उत्तर न देना, चुपचाप उन के अत्याचारों को सहन करना इस सोच ने नारी को एक तरह से पुरुषों के अधीन बना दिया जैसे वे कोई संपत्ति हों जिन पर पहले पिता का, फिर पति का और फिर बाद में पुत्र का अधिकार हो गया और फिर स्त्री को सारे सुखों और अधिकारों से वंचित कर दिया गया.

इन सभी वजहों से वह एक वस्तु पर्याय बना दी गई, पुरुषों के अधीन हो गई. पुरुष जब चाहे उस का त्याग कर दे और वह मुंह तक न खोले, पलट कर जवाब तक न दे जैसे वह कोई वस्तु है जिस का त्याग पुरुष अपनी मरजी के हिसाब से कर सकता है.

पुरुषों के लिए कोई बंदिश नहीं

मनु और याज्ञवल्क्य जैसे स्मृतिकारों ने एक पत्नी के क्या कर्तव्य होते हैं जैसे निर्देश देते हुए पत्नी धर्म का पालन करना, पति को परमेश्वर मानना आदि फतवे जारी कर उन्हें पूर्णतया पति के उपभोग की वस्तु बना दिया, एक मानदंड तैयार कर दिया गया जिस के आधार पर उन्हें या तो देवी या तो फिर कुलक्षिणी करार दिया जाने लगा परंतु उसी समाज ने पुरुषों के लिए कभी कोई बंदिश क्यों नहीं लगाई?

पुरुष चाहे तो अपनी मरजी से पत्नी का साथ निभाए या फिर उस का अपनी मरजी से त्याग कर दे परंतु स्त्री के लिए सतीत्व का पालन करना, उस का देवी बने रहना क्यों अनिवार्य कर दिया गया? हमारा समाज आज भी नहीं बदला है. आज भी ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहां पति अपनी पत्नी का त्याग कर महान बने बैठे हुए हैं. शादी की और उसे अकेला छोड़ दिया. खुद अपनी जिंदगी मजे में जी रहे हैं परंतु पत्नी को कोई पूछता नहीं. उस की हालत पर कहीं कोई चर्चा नहीं होती. बस पत्नियों को त्याग का पाठ पढ़ा दिया जाता है और वे देवी बने रहने के दायरे से कभी भी बाहर नहीं निकल पातीं.

दयनीय स्थिति

आज भी हमारे समाज में एक औरत पर ही हजारों पाबंदियां ज्यों की त्यों बनी हुई हैं. पुरुष चाहे तो कितने भी प्रेम करे. वह चाहे तो अपनी पहली पत्नी के होते हुए भी दूसरी शादी रचा ले. उसे समाज बहिष्कृत नहीं करता. उस के चरित्र पर सवाल उठाने की जगह उसे महान बना दिया जाता है. उसे कोई कुलटा नहीं कहता क्योंकि वह पुरुष है. त्याग का पाठ बस पत्नियों को ही पढ़ाई जाने की चीज है.

आज भी इस समाज में कईर् ऐसी पत्नियां हैं जिन के पति स्वयं तो समाज के कई प्रतिष्ठित स्थानों पर विराजमान हैं. उन में कोईर् अभिनेता है, फिल्म अभिनेता है, महान गायक है या फिर कोई राजनेता है और ये सब बिना किसी ठोस कारण अपनीअपनी पत्नी का त्याग कर महान बन बैठे हैं और फिर भी यह समाज उन्हें पूरी इज्जत व प्रतिष्ठा दे रहा है या देता आ रहा है. परंतु उन पत्नियों का जीवन कैसा है, वे किस प्रकार जी रही हैं, किसी को कोई चिंता नहीं है.

गांवों में तो ऐसी स्थिति और भी दयनीय है. जिस का पति बिना तलाक दिए मजे में अपनी जिंदगी बिता रहा है क्या वह पत्नी न्याय की हकदार नहीं है? क्यों उस के कष्टों की तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता? तीन तलाक बेशक निंदनीय अपराध है परंतु उन हिंदू औरतों, उन पत्नियों का क्या अपराध जिन के पतियों ने बिना तलाक दिए उन्हें अकेले जिंदगी जीने को लाचार कर रखा है.

आज ऐसे लोगों की भी कमी नहीं जो शादी कर अपनी पत्नी को छोड़ के विदेशों में भाग गए हैं. हाल के ही एक ताजा समाचार के अनुसार ऐसी 15 हजार महिलाओं की शिकायतें मिली हैं जिन के पति उन्हें छोड़ कर विदेश भाग गए हैं. हम हिंदू औरतों पर हो रहे खुले अत्याचार को भाग्य की देन कैसे मान सकते हैं. यदि साथ नहीं रख सकते तो तलाक दे कर उन्हें सम्मान के साथ जीने का हक तो दें.

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कामयाबियां कहां से मिलती हैं किताबों से या किरदारों से?

दुनिया के इन्वेस्टिंग गुरु माने जाने वाले वारेन बफे का मानना है कि किसी मैनेजमेंट छात्र को चार साल में उसके जो प्रोफेसर, टीचर नहीं सिखा पाते, वह कोई बिजनेस गुरु उन्हें एक मिनट में या अपने आधा घंटे के लैक्चर में सिखा जाता है. वारेन बफे के मुताबिक मैनेजमेंट के छात्र अपने काॅलेजों में ज्यादा कुछ नहीं सीखते. काॅलेज में यह पूरे साल जितना सीखते हैं, उससे कहीं ज्यादा किसी विजिटिंग बिजनेस गुरु के एक लैक्चर में सीख लेते हैं. बफे के मुताबिक काॅलेज फिर चाहे वो मैनेजमेंट के काॅलेज ही क्यों न हों, वहां हमेशा कुशलता न तो विकसित होती है और न ही निखरती है. इसे विकसित करने में और निखारने में सबसे बड़ी भूमिका उन लोगों की होती है, जिन्होंने व्यवहारिक दुनिया में कामयाबियां हासिल की होती हैं.

गौरतलब है कि वारेन बफे खुद कभी बिजनेस की कोई तरकीब काॅलेज से नहीं सीखी. खबरों के मुताबिक वारेन बफे ने साल 2012 में वेस्टर्न यूनिवर्सिटी के आईवे बिजनेस स्कूल के छात्रों के साथ अपनी इस विचार को साझा करते हुए कि आखिरकार बिजनेस गुरु मैनेजमेंट के छात्रों को क्या सिखाते हैं, एक अच्छा खासा लैक्चर दिया था. तब उन्होंने बड़े दार्शनिक अंदाज में कहा था, कामयाबी के महज 2 से 4 फीसदी फार्मूले बड़े बड़े शिक्षालयों में निर्मित होते हैं, वरना सब कुछ बाहर ही विकसित होता है. हालांकि बफे यह भी मानते हैं कि अध्यात्म की तरह बिजनेस की तरकीबें भी सबसे ज्यादा आप अपने आब्र्जवेशन और अनुभव से विकसित करते हैं.

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इसके बावजूद पारंपरिक बिजनेस अध्यापकों के मुकाबले कभी-कभार आकर बिजनेस के बारे में अपनी राय देने वाले बिजनेस गुरु ज्यादा प्रभावशाली होते हैं. शायद इसकी वजह यह है कि रोज रोज की नियमित पढ़ाई एक ऊबाऊ उपक्रम की तरह होती है, जबकि कभी कभी बिजनेस गुरुओं का फार्मूला या उनकी कोई सीख ताजी हवा की तरह होती है जिसे हर छात्र बहुत ही रूचि से ग्रहण करता है. करीब 25 साल पहले बर्कशायर हाथवे की सालाना शेयर होल्डर्स मीटिंग में, जब एक शेयर होल्डर ने उनसे सवाल किया, ‘आपके पास जितना उम्दा बिजनेस नाॅलेज है, उसकी रोशनी में क्या आप भविष्य में अपना कोई बिजनेस काॅलेज खोलने की योजना बना रहे हैं?’ इस पर बफे ने एक बार अपने पार्टनर चार्ली मुंगेर की तरफ देखा और फिर दोनो ने लगभग हंसते हुए इस सवाल को मजाक में उड़ा दिया.

उनके मुताबिक, ‘हम लोगों ने (यानी वारेन बफे और उनके पार्टनर चार्ली मंुगेर) अपने बीसियों साल के बिजनेस अनुभव के दौरान पाया है कि बिजनेस की समझ और उससे संबंधित जो कुशलता व्यवहारिक रूप से इसे कर या संभाल रहे लोगों में होती है, वैसी समझ और कुशलता किसी भी ज्ञानी, सिद्धांतकार या किताबी विशेषज्ञों में नहीं होती. इसलिए हम यह मानने को तैयार नहीं हैं कि बिजनेस काॅलेज के जरिये हम किसी को बिजनेस मास्टर बना सकते हैं. हम दर्जनों बिजनेस काॅलेज में गये हैं और उनके एक भी पाठ्यक्रमों में कोई एक भी ऐसा पाठ नहीं पाया, जिसमें वे किसी को असली और अविश्वसनीय सफलता के बारे में पढ़ा सकें. बिजनेस की कामयाबी में हमेशा नये आइडिया काम आते हैं और नये आइडिया कोई दूसरा नहीं ढूंढ़ सकता. हर कारोबारी को खुद ढूंढ़ने पड़ते हैं.’

बफे के मुताबिक दुनिया के जितने कामयाब लोग हैं उनमें से कोई भी बिजनेस स्कूल नहीं गया और जितने भी लोग बिजनेस स्कूल जाकर कामयाब हुए है, उन्होंने अविश्वसनीय कामयाबी नहीं हासिल की. उनकी कामयाबी में बड़ा रोल पूंजी और तकनीक का रहा है. लेकिन शायद यांत्रिक कामयाबी की यही सीमा है. वारेन बफे शायद इसीलिए मानते हैं कि बिजनेस स्कूलों को ऐसे अनगढ़ और अविश्वसनीय ढंग से कामयाब लोगों की सिर्फ जीवनियां पढ़ानी चाहिए बल्कि वे तो यहां तक कहते हैं कि जीवनियां पढ़ाई नहीं जानी चाहिए बल्कि सलाहभर दी जानी चाहिए.

..तो क्या किताबी पढ़ाई का कामयाबी की दुनिया से कोई रिश्ता नहीं है? नहीं, ऐसा नहीं है. वारेन बफे और खुद दुनिया में सबसे कामयाब माने गये कारोबारी कंप्यूटर कारोबार के बेताज बादशाह बिलगेट्स ने भी पाया है कि किताबें वह तो नहीं देतीं जो पाने के लिए आप उनके पास जाते हैं, लेकिन वह बहुत कुछ अद्भुत और अविश्वसनीय देती हैं, जो लोग नहीं दे सकते. वारेन बफे भी कहते हैं, ‘मैंने जीवन में जो कुछ सीखा है, उसमें किताबों की रोशनी में अपनी जोखिम, अपनी कल्पनाशक्ति के मिश्रण से सीखा है.’ बिलगेट्स भी मानते हैं कि किताबें आपको कल्पनाओं की एक ऐसी दुनिया में ले जाती हैं, जहां वह नहीं होता जिसे आप ढूंढ़ रहे होते हैं बल्कि उससे बड़ा, उससे अविश्वसनीय होता है, जिसकी आपने कल्पना नहीं की होती है. शायद यही वजह है कि हर कामयाब बिजनेस मैन आज के इस डिजिटल युग में भी नियमित रूप से किताबें पढ़ते हैं. शायद इसकी वजह यह भी है कि किताबें इंसान को रचनात्मक बनाती हैं, जबकि सोशल मीडिया और डिजिटल कंटेंट लोगों को उबाते हैं.

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कुछ साल पहले दुनिया के कई बड़े बिजनेस गुरुओं ने अपने अलग अलग व्याख्यानों और अपने भाषणों में ऐसी छह किताबों को चिन्हित किया था, जो कामयाबी के रास्ते में ले जाने के लिए बड़ा सकारात्मक माहौल बनाती हैं. हालांकि इन सब बातों के साथ एक इस बात को भी किसी कसौटी की तरह हमें लगातार समझना चाहिए कि कामयाबी का कोई इंस्टेंट या तुरत फुरत का फार्मूला नहीं होता और यह भी कि सिर्फ मेहनत से कोई व्यक्ति अमीर नहीं बनता. अमीर बनने में मेहनत के अलावा कई दूसरे कारक भी बड़ी भूमिका निभाते हैं. जिन छह किताबों को कामयाबी का रास्ता दिखाने वाला माना जाता है, उनमें एक किताब है ‘द लिटिल बुक आफ कौमनसेंस फार इन्वेस्टिंग’ इसे जौन सी गोगले ने लिखा और यह किताब बार बार इसी बात को साबित करती है कि कोई भी लकीर और नियम के चलते लिये गये बिजनेस के निर्णय आपको कामयाबी तक नहीं पहुंचाते इसके लिए कल्पना और जोखिम की अंगुली पकड़कर ही आगे बढ़ना होता है.

Family Story In Hindi: स्वस्थ दृष्टिकोण- भाग 2- क्या हुआ था नंदा के साथ

ऐसे ही 2-3 दिन बीत गए. हम समझ नहीं पा रहे थे कि सचाई कैसे जानें.

दरवाजे की घंटी बजी और हम पतिपत्नी हक्के- बक्के रह गए. सामने वही लड़की खड़ी थी. हमारी नन्ही पड़ोसिन जो अब मानसी के तलाकशुदा पति की पत्नी है.

कुछ पल को तो हम समझ ही नहीं पाए कि हम क्या कहें और क्या नहीं. स्वर निकला ही नहीं. वह भी चुपचाप हमारे सामने इस तरह खड़ी थी जैसे कोई अपराध कर के आई हो और अब दया चाहती हो.

‘‘आओ…, आओ बेटी, आओ न…’’ मैं बोला.

पता नहीं क्यों स्नेह सा उमड़ आया उस के प्रति. कई बार होता है न, कोई इनसान बड़ा प्यारा लगता है, निर्दोष लगता है.

‘‘आओ बच्ची, आ जाओ न,’’ कहते हुए मैं ने पत्नी को इशारा किया कि वह उसे हाथ पकड़ कर अंदर बुला ले.

इस से पहले कि मेरी पत्नी उसे पुकारती, वह स्वयं ही अंदर चली आई.

‘‘आप…आप से मुझे कुछ बात करनी है,’’ वह डरीडरी सी बोली.

बहुत कुछ था उस के इतने से वाक्य में. बिना कहे ही वह बहुत कुछ कह गई थी. समझ गया था मैं कि वह अवश्य अपने पति के ही विषय में कुछ साफ करना चाहती होगी.

पत्नी चुपचाप उसे देखती रही. हमारे पास भला क्या शब्द होते बात शुरू करने के लिए.

‘‘आप लोग…आप लोगों की वजह से चंदन बहुत परेशान हैं. बहुत मेहनत से मैं ने उन्हें ठीक किया था. मगर जब से उन्होंने आप को देखा है वह फिर से वही हो गए हैं, पहले जैसे बीमार और परेशान.’’

‘‘लेकिन हम ने उस से क्या कहा है? बात भी नहीं हुई हमारी तो. वह मुझे पहचान गया होगा. बेटी, अब जब तुम ने बात शुरू कर ही दी है तो जाहिर है सब जानती होगी. हमारी बच्ची का क्या दोष था जरा समझाओ हमें? चंदन ने उसे दरबदर कर दिया, आखिर क्यों?’’

‘‘दरबदर सिर्फ मानसी ही तो नहीं हुई न, चंदन भी तो 4 साल से दरबदर हो रहे हैं. यह तो संयोग था न जिस ने मानसी और चंदन दोनों को दरबदर…’’

‘‘क्या कार का लालच संयोग ने किया था? हर रोज नई मांग क्या संयोग करता था?’’

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‘‘यह तो कहानी है जो मानसी के मातापिता ने सब को सुनाई थी. चंदन के घर पर तो सबकुछ था. उन्हें कार का क्या करना था? आज भी वह सब छोड़छाड़ कर अपने घर से इतनी दूर यहां राजस्थान में चले आए हैं सिर्फ इसलिए कि उन्हें मात्र चैन चाहिए. यहां भी आप मिल गए. आप मानसी के चाचा हैं न, जब से आप को देखा है उन का खानापीना छूट गया है. सब याद करकर के वह फिर से पहले जैसे हो गए हैं,’’ कहती हुई रोने लगी वह लड़की, ‘‘एक टूटे हुए इनसान पर मैं ने बहुत मेहनत की थी कि वह जीवन की ओर लौट आए. मेरा जीवन अब चंदन के साथ जुड़ा है. वह आप से मिल कर सारी सचाई बताना चाहते हैं. आखिर, कोई तो समझे उन्हें. कोई तो कहे कि वह निर्दोष हैं.

‘‘कार की मांग भला वह क्या करते जो अपने जीवन से ही निराश हो चुके थे. आजकल दहेज मांगने का आरोप लगा देना तो फैशन बन गया है. पतिपत्नी में जरा अलगाव हो जाए, समाज के रखवाले झट से दहेज विरोधी नारे लगाने लगते हैं. ऐसा कुछ नहीं था जिस का इतना प्रचार किया गया था.’’

‘‘तुम्हारा मतलब…मानसी झूठ बोलती है? उस ने चंदन के साथ जानबूझ कर निभाना नहीं चाहा? इतने महीने वह तो इसी आस पर साथ रही थी न कि शायद एक दिन चंदन सुधर जाएगा,’’ नंदा ने चीख कर कहा. तब उस बच्ची का रोना जरा सा थम गया.

‘‘वह बिगड़े ही कब थे जो सुधर जाते? मैं आप से कह रही हूं न, सचाई वह नहीं है जो आप समझते हैं. दहेज का लालच वहां था ही नहीं, वहां तो कुछ और ही समस्या थी.’’

‘‘क्या समस्या थी? तुम्हीं बताओ.’’

‘‘आप चंदन से मिल लीजिए, अपनी समस्या वह स्वयं ही समझाएंगे आप को.’’

‘‘मैं क्यों जाऊं उस के पास?’’

‘‘तो क्या मैं उन्हें भेज दूं आप के पास? देखिए, आज की तारीख में आप अगर उन की बात सुन लेंगे तो उस से मानसी का तो कुछ नहीं बदलेगा लेकिन मेरा जीवन अवश्य बच जाएगा. मैं आप की बेटी जैसी हूं. आप एक बार उन के मुंह से सच जान लें तो उन का भी मन हलका हो जाएगा.’’

‘‘वह सच तुम्हीं क्यों नहीं बता देतीं?’’

‘‘मैं…मैं आप से कैसे कह दूं वह सब. मेरी और आप की गरिमा ऐसी अनुमति नहीं देती,’’ धीरे से होंठ खोले उस ने. आंखें झुका ली थीं.

नंदा कभी मुझे देखती और कभी उसे. मेरे सोच का प्रवाह एकाएक रुक गया कि आखिर ऐसा क्या है जिस से गरिमा का हनन होने वाला है? मेरी बेटी की उम्र की बच्ची है यह, इस का चेहरा परेशानी से ओतप्रोत है. आज की तारीख में जब मानसी का तलाक हो चुका है, उस का कुछ भी बननेबिगड़ने वाला नहीं है, मैं क्यों किसी पचड़े में पड़ूं? क्यों राख टटोलूं जब जानता हूं कि सब स्वाहा हो चुका है.

अपने मन को मना नहीं पा रहा था मैं. इस चंदन की वजह से मेरे भाई

का बुढ़ापा दुखदायी हो गया, जवान बेटी न विधवा हुई न सधवा रही. वक्त की मार तो कोई भी रोतेहंसते सह ले लेकिन मानसी ने तो एक मनुष्य की मार

सही थी.

‘‘कृपया आप ही बताइए मैं क्या करूं? मैं सारे संसार के आगे गुहार नहीं लगा रही, सिर्फ आप के सामने विनती कर रही हूं क्योंकि मानसी आप की भतीजी है. इत्तिफाकन जो घट गया वह आप से भी जुड़ा है.’’

‘‘तुम जाओ, मैं तुम्हारे साथ नहीं आ सकता.’’

‘‘चंदन कुछ कर बैठे तो मेरा तो घर ही उजड़ जाएगा.’’

‘‘जब हमारी ही बच्ची का घर उजड़ गया तो चंदन के घर से मुझे क्या लेनादेना?’’

‘‘चंदन समाप्त हो जाएंगे तो उन का नहीं मेरा जीवन बरबाद…’’

‘‘तुम उस की इतनी वकालत कर रही हो, कहीं मानसी की बरबादी

का कारण तुम्हीं तो नहीं हो? इस जानवर का साथ देने का भला क्या

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मतलब है?’’

‘‘चंदन जानवर नहीं हैं, चाचाजी. आप सच नहीं जानते इसीलिए कुछ समझना नहीं चाहते.’’

‘‘अब सच जान कर हमारा कुछ भी बदलने वाला नहीं है.’’

‘‘वह तो मैं पहले ही विनती कर चुकी हूं न. जो बीत गया वह बदल नहीं सकता. लेकिन मेरा घर तो बच जाएगा न. बचाखुचा कुछ अगर मेरी झोली में प्रकृति ने डाल ही दिया है तो क्या इंसानियत के नाते…’’

‘‘हम आएंगे तुम्हारे घर पर,’’ नंदा बीच में ही बोल पड़ी.

मुझे ऐसी ही उम्मीद थी नंदा से. कहीं कुछ अनचाहा घट रहा हो और नंदा चुप रह जाए, भला कैसे मुमकिन था. जहां बस न चले वहां अपना दिल जलाती है और जहां पूरी तरह अपना वश हो वहां भला पीछे कैसे रह जाती.

‘‘तुम जाओ, नाम क्या है तुम्हारा?’’

‘‘संयोगिता,’’ नाम बताते हुए हर्षातिरेक में वह बच्ची पुन: रो पड़ी थी.

‘‘मैं तुम्हारे घर आऊंगी. तुम्हारे चाचा भी आएंगे. तुम जाओ, चंदन को संभालो,’’ पत्नी ने उसे यकीन दिलाया.

उसे भेज कर चुपचाप बैठ गई नंदा. मैं अनमना सा था. सच है, जब मानसी का रिश्ता हुआ भैया बहुत तारीफ करते थे. चंदन बहुत पसंद आया था उन्हें. सगाई होने के 4-5 महीने बाद ही शादी हुई थी. इस दौरान मानसी और चंदन मिलते भी थे. फोन भी करते थे. सब ठीक था, पर शादी के बाद ही ऐसा क्या हो गया? अच्छे इनसान 2-4 दिन में ही जानवर कैसे बन गए?

भाभी भी पहले तारीफ ही करती रही थीं फिर अचानक कहने लगीं कि चंदन तो शादी वाले दिन से ही उन्हें पसंद नहीं आया था. जो इतने दिन सही था वह अचानक गलत कैसे हो गया. हम भी हैरान थे.

तब मेरी दोनों बेटियां अविवाहित थीं. मानसी की दुखद अवस्था से हम पतिपत्नी परेशान हो गए थे कि कैसे हम अपनी बच्चियों की शादी करेंगे? इनसान की पहचान करना कितना मुश्किल है, कैसे अच्छा रिश्ता ढूंढ़ पाएंगे उन के लिए? ठीक चलतेचलते कब कोई क्यों गलत हो जाता है पता ही नहीं चलता.

‘मैं ने तो मानसी से शादी के हफ्ते बाद ही कह दिया था, वापस आ जा, लड़कों की कमी नहीं है. तेरी यहां नहीं निभने वाली…’ एक बार भाभी ने सारी बात सुनातेसुनाते कहा था, ‘फोन तक तो करने नहीं देते थे, ससुराल वाले. बड़ी वाली हमें घंटाघंटा फोन करती रहती है, यह तो बस 5 मिनट बाद ही कहने लगती थी, बस, मम्मी, अब रखती हूं. फोन पर ज्यादा बातें करना ससुरजी को पसंद नहीं है.’

मानसी शिला सी बैठी रहती थी. एक दिन मैं ने स्नेह से उस के सिर पर हाथ रखा तो मेरे गले से लिपट कर रो पड़ी थी, ‘पता नहीं क्यों सब बिखरता ही चला गया, चाचाजी. मैं ने निभाने की बहुत कोशिश की थी.’

‘तो फिर चूक कहां हो गई, मानसी?’

‘उन्हें मेरा कुछ भी पसंद नहीं आया. अनपढ़ गंवार बना दिया मुझे. सब से कहते थे. मैं पागल हूं. लड़की वाले तो दहेज में 10-10 लाख देते हैं, तुम्हारे घर वालों ने तो बस 2-4 लाख ही लगा कर तुम्हारा निबटारा कर दिया.’

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हैरानपरेशान था मैं तब. मैं भी तब अपनी बच्चियों के लिए रिश्तों की तलाश में था. सोचता था, मैं तो शायद इतना भी न लगा पाऊं. क्या मेरी बेटियां भी इसी तरह वापस लौट आएंगी? क्या होगा उन का?

‘देखो भैया, उन लोगों ने इस की नस काट कर इसे मार डालने की कोशिश की है. यह देखो भैया,’ भाभी ने मानसी की कलाई मेरे सामने फैला कर कहा था. यह देखसुन कर काटो तो खून नहीं रहा था मुझ में. जिस मानसी को भैयाभाभी ने इतने लाड़प्यार से पाला था उसी की हत्या का प्रयास किया गया था, और भाभी आगे बोलती गई थीं, ‘उन्होंने तो इसे शादी के महीने भर बाद ही अलग कर दिया था.

‘जब से हम ने महिला संघ में उन की शिकायत की थी तभी से वे लोग इसे अलग रखते थे. चंदन तो इस के पास भी नहीं आता था. वहीं अपनी मां के पास रहता था. राशनपानी, रुपयापैसा सब मैं ही पहुंचा कर आती थी. इस के बाद तो मुझे फोन करने के लिए पास में 10 रुपए भी नहीं होते थे.’

आगे पढ़ें- मैं चुपचाप सुनता रहा. यह सच है कि…

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